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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 21
सकता क्योंकि इसके कुछ भाग विस्तृत तथा परिष्कृत सूत्रबद्ध सिद्धान्त'13 प्रस्तुत करते हैं तथा ग्रन्थ में पन्नवणा, जीवाभिगम तथा नन्दिसत्र की भी चर्चा है। यह भी सम्भव है कि बहुत से सम्वाद तथा वर्णन जो अपनी शैली में निकायों से मिलते हैं आगमों के आरम्भिक भागों से सम्बद्ध हों।।14
तीसरा अंग अंगुत्तर निकाय से प्रत्यभिज्ञा रखता है, किन्तु अधिक योजनाबद्ध है। विशुद्ध दिखाई देने वाले सम्वाद मात्रा में कम हैं तथा संक्षिप्त एवं परिष्कृत सिद्धान्त अपनाये गये हैं।।। एक स्थान पर राजकीय उपाधियों की सूची प्राप्त होती है जिससे प्रशासनिक व्यवस्था की ओर संकेत मिलता है जिसे कम-से-कम मौर्योत्तरीय कहा जा सकता है। 16
उपांग के बारे में विचार क्रमानुगत हैं। श्रुबिंग अपने ग्रन्थ वोटें महावीरज पृ० 8 में कहते हैं कि मौलिक रूप में उपांग केवल पांच थे।।17 प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित है। इसके कर्ता श्यामार्य थे। उनका दूसरा नाम कालकाचार्य निगोद,व्याख्या था।18 इनको वीरनिर्वाण सम्वत् 335 में युगप्रधान पद मिला था। वे इस पद पर 376 तक बने रहे। इस काल की रचना प्रज्ञापना है। अतएव यह रचना विक्रमपूर्व 135 से 94 के बीच की होनी चाहिए। शेष उपांगों के कर्ता के विषय में ज्ञात नहीं है। इनके कर्ता गणधर नहीं माने जाते अन्य स्थविर माने जाते हैं। यह सब किसी एक काल की रचना नहीं है। बारह उपांगों में से शायद पहले दो की सामग्री पुरानी है शेष दस की नहीं। पहले दो में से 'रायपसेनिज्ज' (राज प्रश्नीय) विशेषरूप से पुरानी परम्परा पर आधारित है, क्योंकि दीर्घनिकाय के पयेसिसुत को या तो इसका रूपान्तरण समझा जाये या वह इस स्रोत से लिया गया है। 19
चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का समावेश दिगम्बरों ने दृष्टिवाद के प्रथम भेद परिकर्म में किया है। 20 नन्दिसूत्र में भी उसका नामोल्लेख है। अतएव यह ग्रन्थ श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेद से प्राचीन होना चाहिए। इनका समय विक्रम सम्वत् के आरम्भ से आगे नहीं है। शेष उपांगों के विषय में भी सामान्यत: यही कहा जा सकता है। उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति में कोई विशेष भेद नहीं है। अत: सम्भव है कि मूल चन्द्रप्रज्ञप्ति विच्छिन्न हो गया हो। प्रकीर्णक जैसा कि नाम से ही निर्दिष्ट है विविध हैं। इनकी सूची वास्तव में अत्यन्त अनिश्चित है। 21
प्रकीर्णकों की रचना के विषय में भी यही कहा जा सकता है कि उनकी रचना समय-समय पर हुई। अन्तिम मर्यादा वालभी वाचना तक ही की जा सकती है।
अत: निश्चित है कि समस्त जैन सिद्धान्तों की रचना चौथी शताब्दी ई० पूर्व तक हो चुकी थी। 22 समस्त आगम संकलना दूसरी शताब्दी के अन्त अथवा चौथी शताब्दी के आरम्भ तक हो चुकी थी। 23