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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 17
नहीं बतायी। तात्पर्य यह है कि आर्षभाषा का आधार संस्कृत न होने से वह अपने स्वतन्त्र नियमों का पालन करती है। इसे प्राचीन प्राकृत भी कहा गया है।
सामान्यतया मगध के अर्द्धभाग में बोली जाने वाली भाषा को अर्द्धमागधी कहा गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार इस भाषा में कुछ लक्षण मागधी के हैं और कुछ प्राकृत के पाये जाते हैं, इसलिए इसे अर्द्धमागधी कहा है। इससे मागधी और अर्द्धमागधी भाषाओं की निकटता पर प्रकाश पड़ता है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्द्धमागधी बताया है। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मगध के बीच क्षेत्र में बोली जाने वाली यह भाषा अर्द्धमागधी कही जाती थी।
क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार में इसे महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण बताया है जिसमें मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, विदर्भ आदि की देशी भाषाओं का सम्मिश्रण है। 3 इससे यही सिद्ध होता है कि अर्द्धमागधी जनसामान्य की भाषा थी जिसमें महावीर ने सर्वसाधारण को प्रवचन दिये। आगमों के अनुसार तीर्थंकर अर्द्धमागधी में उपदेश देते हैं। 84 इसे उस समय की दिव्य भाषा" और इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा गया है ।" इसमें मागधी और अठारह अन्य देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसलिए यह अर्द्धमागधी कहलाती है। 7 भगवान महावीर के शिष्य मगध, मिथिला कोसल, आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे आर्ष कहा है । " निशीथचूर्णि में चूर्णिकार ने इस बात का उल्लेख किया कि आगमों की भाषा अर्द्धमागधी निश्चित है, किन्तु यह निश्चित कर पाना बहुत ही दुष्कर है कि आगम उस भाषा में है जिनमें कि उन्हें श्रवण किया गया अथवा उस भाषा में जिन्हें की आने वाली पीढियों ने बोला, समझा और लिखा। जैकोबी का यह व्यक्तिगत विश्वास है कि आगमों की भाषा हर पीढ़ी के साथ बदली । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण जैन प्राकृत है जिसमें कि क्रमिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। भगवान महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्धमागधी को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया इसलिए गौतम गणधर के द्वारा द्वादशांग श्रुत की भाषा भी अर्द्धमागधी थी किन्तु उनका लोप होने पर भी महाराष्ट्री और शौरसेनी भाषाएं जो प्राकृत के ही भेद हैं, जैन आगमिक साहित्य का माध्यम रहीं। जब संस्कृत भाषा लोकप्रिय हुई तो जैनाचार्यों ने उसके भण्डार को अपनी कृतियों से भरा । पीछे अपभ्रंश भाषा का प्रचार होने पर अपभ्रंश भाषा को अपना कर उसे समृद्ध बनाया । "
आगम विभाग
जैन साहित्य दो भागों में विभक्त है - 1. आगम साहित्य और 2. आगमेतर साहित्य | तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट, गणधरों एवं पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचित साहित्य