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18 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति को आगम और आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगमेतर साहित्य की संज्ञा दी गयी
तीर्थकर सदा अर्थ रूप से उपदेश देते हैं। उनका प्रवचन सूत्र रूप में नहीं होता। गणधर इस अर्थ रूप प्रवचन को सूत्र रूप में गूंथते हैं। इस अपेक्षा से आगम सहित्य के दो भेद होते हैं-1. अर्थागम ‘अत्थागमे' तथा, 2. सूत्रागम 'सुत्तागमे । तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट वाणी अर्थागम और उस प्रवचन के आधार पर गणधरों द्वारा रचित आगमों को सूत्रागम कहते हैं। ये आगम आचार्यों की अमूल्य एवं अक्षय ज्ञान निधि बन गये हैं। इसलिए इन्हें गणि-पिटक के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। इनकी संख्या बारह है इसलिए इनका नाम द्वादशांगी है।
आगम साहित्य प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में विभाजित होता है-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट। भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों ने जो साहित्य रचा वह अंगप्रविष्ट कहलाता है। स्थविरों ने जो साहित्य रचा वह अनंगप्रविष्ट कहलाता है। बारह अंगों के अतिरिक्त सारा आगम साहित्य अनंगप्रविष्ट है। गणधरों के प्रश्न पर भगवान ने त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और श्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो आगम साहित्य रचा गया वह अंगप्रविष्ट और भगवान के मुक्त व्याकरण के आधार पर जो स्थविरों ने रचा, वह अनंगप्रविष्ट है।
द्वादशांगों का स्वरूप सभी तीर्थंकरों के समक्ष नियत नहीं होता है। वर्तमान में जो एकादश अंग उपलब्ध हैं वे सुधर्मा गणधर की वाचना के हैं। इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते हैं। तीर्थंकर रूपी कल्पवृक्ष से जो ज्ञानरूपी पुष्पों की वृष्टि होती है उन्हें लेकर गणधर माला में गूंथ देते हैं। अनंगप्रविष्ट आगम साहित्य की दृष्टि से दो भागों में बांटा गया है। कुछ आगम स्थविरों द्वारा रचित हैं और कुछ निर्दूढ़। जो आगम द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत किये गये, वह निढ़ कहलाते हैं। ___ दशवैकालिक, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध-ये नियूंढ़ आगम हैं। दशवैकालिक का नि!हण अपने पुत्र मनक की आराधना के लिए आर्य शय्यम्भव ने किया। शेष आगमों के श्रुतधर श्रुतकेवली भद्रबाह हैं। प्रज्ञापना के कर्ता श्यामार्य, अनुयोगद्वार के आर्य रक्षित और नन्दि के देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण कहे जाते हैं। ___भाषा की दृष्टि से आगमों को दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। ईस्वी पूर्व 400 से 100 ई० तक का पहला युग है। इसमें रचित अंगों की भाषा मागधी है। दूसरा युग 100 ई० से 500 ई० तक का है। इसमें रचित निर्मूढ़ आगमों की भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है। अनुयोगद्वार सूत्र में आगम के तीन भेद किये गये हैं-आत्मागम, अन्तरागम और परम्परागम। तीर्थंकर केवल ज्ञान के द्वारा स्वयमेव सब पदार्थों को जानते हैं इसलिए उनके अर्थ को आत्मागम कहते हैं। गणधरों द्वारा सूत्रों में निबद्ध ज्ञान अन्तरागम होता है, क्योंकि तीर्थंकरों से ज्ञान गणधरों और गणधरों से शिष्यों को प्राप्त होता है, अत: यह परम्परागम कहलाता है। व्यवहार