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16 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति अधिकार पाकर उससे असम्पृक्त नहीं हो सकता था। उसके लिए जीवन की प्रथमावस्था में नियमत: वेदाध्ययन आवश्यक था। ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था तो जैन श्रमण के लिए आचार-विचार प्रमुख था। जैन आचार शास्त्र के अनुसार कोई मन्द बुद्धि जैन शिष्य सम्पूर्ण श्रुत का मात्र पाठगामी हो तो भी उसके मोक्ष में किसी प्रकार की बाधा नहीं थी और ऐहिक जीवन भी निर्बाध रूप से सदाचार बल से व्यतीत हो सकता था। जैन सूत्रों का दैनिक क्रियाओं में विशेष उपयोग लगभग नहीं था। एक सामायिक पद मात्र से भी मोक्षमार्ग सुगम हो जाने की जहां सम्भावना हो, वहां अपवाद स्वरूप ही सम्पूर्ण श्रुतधर बनने का कोई प्रयास करेगा। अपनी स्मृति पर बोझ न बढ़ाकर भी, आगमों की रक्षा जैन पुस्तकबद्ध करके कर सकते थे, किन्तु वैसा करने में अपरिग्रह भंग का भय था। उन्होंने इसमें असंयम को देखा।” जैनों ने अपरिग्रह को जब कुछ शिथिल किया, तब तक वे अधिकांश आगमों को भूल चुके थे।
पहले जिस पुस्तक अपरिग्रह को असंयम का कारण समझा जाता था उसे अब संयम का कारण मानने लगे। ऐसा न करने पर श्रुत विनाश का भय था किन्तु अब क्या हो सकता था? लाभ केवल इतना था कि शेष आगमिक सम्पत्ति ही रह गयी जो सुरक्षित थी। श्रुत रक्षा के लिए अपवादों की सृष्टि की गई। दैनिक आचार में भी श्रुत स्वाध्याय को अधिक महत्व दिया गया। इतना करने पर भी मौलिक कमी का निवारण नहीं हुआ। क्योंकि गुरु अपने श्रमण शिष्य को ही ज्ञान दे सकता था जिसमें अपवाद नहीं हुआ। श्रमणों के अभाव में ज्ञान गुरु के साथ ही लुप्त हो जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? कई कारणों से विशेषकर जैन श्रमणों की कठोर तपस्या और अत्यन्त कठिन आचार के कारण जैन संघ में श्रमणों की संख्या ब्राह्मण और बौद्धों की तुलना में न्यून ही रही। इसी स्थिति में लिखित ग्रन्थों की भी सुरक्षा नहीं रह सकी और श्रुत छिन्न-भिन्न हो गये।
आगमों की भाषा
जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर भले ही अनेक हों किन्तु उनके उपदेश में साम्य होता है। जैन सूत्रों के अनुसार भगवान ने अर्द्धमागधी में उपदेश दिया और उनके गणधरों ने श्रवण कर आगमों की रचना की। परम्परा के अनुसार बौद्धों की अर्द्धमागधी की भांति मागधी भी आर्य, अनार्य, पशु और पक्षियों के द्वारा समझी जाती थी। बाल, वृद्ध, स्त्री और अपढ़ लोगों को वह बोधगम्य थी। आचार्य हेमचन्द्र ने उसे आर्षप्राकृत कह कर व्याकरण के नियमों से बाह्य बताया है। त्रिविक्रम ने भी अपने प्राकृतशब्दानुशासन में देश्य भाषाओं की भांति आर्षप्राकृत की स्वतन्त्र उत्पत्ति मानते हुए उसके लिए व्याकरण के नियमों की आवश्यकता