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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 15 आगमों के संरक्षण में बाधा
भारतीय वाङ्मय में शास्त्रों को सुरक्षित रखने के प्रयास सदा से हुए हैं। वैदिक साहित्य की सुरक्षा में भारतीयों ने अद्भुत कार्य किया। आज भी भारत में सैकड़ों वेदपाठी मिलेंगे जो आदि से अन्त तक वेदों का शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं। उनको पुस्तक की आवश्यकता नहीं है। वेद के अर्थ की परम्परा उनके पास नहीं है किन्तु वेदपाठ की परम्परा अवश्य है। 75
जैनों ने भी अपने आगम ग्रन्थों को सुरक्षित रखने का वैसा ही प्रयत्न किया है जिस रूप में भगवान के उपदेशों को गणधरों ने ग्रन्थित किया है। उनकी भाषा प्राकृत थी और भाषागत परिवर्तन से विषय वस्तु की मौलिकता में परिवर्तन स्वाभाविक ही है। अतः ब्राह्मणों की तरह जैन आचार्य और उपाध्याय अंग ग्रन्थों की सुरक्षा अक्षरश: नहीं रख सके। इतना ही नहीं कई आगमों को वे सम्पूर्णत: भूल गये। फिर भी कहा जा सकता है कि अंगों का अधिकांश जो आज उपलब्ध है भगवान के उपदेश के अधिक निकट है। उसमें परिवर्तन और परिवर्द्धन हुआ किन्तु वह मनगढ़न्त है यह नहीं कहा जा सकता । इतिहास साक्षी है कि जैनों ने सम्पूर्ण श्रुत को बचाने का बारम्बार प्रयास किया है।"
प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जिन बाधाओं से जैन श्रुत नष्ट हुए उन बाधाओं से वेद कैसे बच गये ? क्या कारण है कि जैन श्रुत से भी प्राचीन वेद सुरक्षित रह सके और जैन श्रुत सम्पूर्ण नहीं तो अधिकांश नष्ट हो गया। इसका कारण है कि वेद की सुरक्षा में दो प्रकार की परम्पराओं ने सहयोग दिया है - पिता-पुत्र परम्परा तथा गुरु-शिष्य परम्परा । पिता ने पुत्र को और उसने अपने पुत्र को तथा इसी प्रकार गुरु ने शिष्य को और शिष्य ने अपने शिष्य को इस क्रम में वेद पाठ की परम्परा को अविच्छिन्न बनाये रखा। जैन आगम की रक्षा में पिता-पुत्र परम्परा का कोई स्थान नहीं है। श्रमण संघ के स्वरूप के अनुसार केवल गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देता है।
विद्यावंश की परम्परा से जैन श्रुत को जीवित रखने का प्रयास नहीं किया गया है। यही कमी जैन श्रुत की अव्यवस्था के कारण हुई। ब्राह्मणों को अपना सुशिक्षित पुत्र और सुशिक्षित शिष्य मिलने में कठिनाई नहीं होती थी किन्तु जैन श्रमण को अपना सुशिक्षित पुत्र जैन श्रुत के उत्तराधिकारी के रूप में नहीं मिलता था। गुरु के पास तो शिष्य ही होता था चाहे वह योग्य हो या अयोग्य । श्रुत का अधिकारी वही होता था, यदि वह श्रमण हो । वेदों की सुरक्षा एक वर्ण विशेष से हुई जिसका स्वार्थ उसकी सुरक्षा में ही था। जैन श्रुत की सुरक्षा वैसे किसी भी वर्णविशेष के अन्तर्गत नहीं थी । चतुर्वर्ण में से कोई भी व्यक्ति जैन श्रमण हो सकता था, वही श्रुत का अधिकारी हो जाता था । वेद का अधिकारी ब्राह्मण