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14 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
शताब्दी से अंग श्रुत की छिन्न-भिन्नता आरम्भ हो गयी थी और वह आगे भी जारी रही।
दो और भयानक दुर्भिक्षों के कारण श्रुत को गहरी हानि पहुंची। श्रुत साहित्य को काल के अतिक्रमण के साथ ही साथ सुदूर देशों का भी अतिक्रमण करना पड़ा। फिर एक पक्ष ने उसे मान्य ही नहीं किया। जिस पक्ष के द्वारा अंग साहित्य संकलित किया गया उस पर बौद्धों के मध्यम मार्ग का भी प्रभाव पड़ा। इन स्थितियों का अंग साहित्य पर प्रभाव न पड़ा हो यह असम्भव है। अत: यह कहना कि पाटलिपुत्र में जो अंग साहित्य संकलित किया गया और उसके आठ सौ वर्ष पश्चात् वलभी में जो पुस्तकारूढ़ हुआ उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ा या मामूली अन्तर पड़ा, पूर्ण सत्य नहीं है। ऐसी अवस्था में यह निर्विवाद है कि वर्तमान रूप में उपलब्ध जैन आगमों को सर्वथा प्रामाणिक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
इस प्रसंग में वेबर महोदय के मत का अध्ययन भी आवश्यक है। वेबर विद्वानों के उस वर्ग में से थे जो जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा मानते हैं। वेबर के अनुसार डा० बुहलर की सूची में अंकित 45 आगमों को देवर्द्धिगणि ने संकलित किया था। यदि हम इस पर अधिक विचार न करें तो भी हमें एक सत्य के रूप में यह स्वीकार करना होगा कि सम्भवतया देवर्द्धिगणि ने उन्हें जिस रूप में संकलित किया था, वर्तमान रूप में वह उपलब्ध नहीं है। मूल सिद्धान्तों से अन्य ग्रन्थों में यह भेद वर्तमान है।
सिद्धान्त ग्रन्थों में न केवल वाक्यों और विभागों को ही नष्ट किया गया बल्कि प्राचीन टीकाओं के समय विद्यमान बड़ी संख्या मे क्षेपकों को भी सम्मिलित किया गया था जो स्पष्ट प्रतीत होते हैं। जैकोबी74 का अनुमान है कि इस परिवर्तन के कारणों को श्वेताम्बर सम्प्रदाय की कठोरता के अभाव में देखा जा सकता है। वर्तमान आगम केवल श्वेताम्बरों के हैं। दृष्टिवाद का एकदम नष्ट हो जाना नि:सन्देह मुख्य रूप से सम्बन्धित है कि इसमें संघभेद के सिद्धान्तों का सीधा उल्लेख था। यह घटना अन्य अंगों में किये गये परिवर्तन, परिवर्धन और लोप के लिए व्याख्या रूप हो सकती है जो जैन साहित्य के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं। दिगम्बरों ने एक समय विशेष के बाद तीर्थंकर प्रणीत आगम का सर्वथा लोप मान लिया। इसलिए आदेशों को आगमान्तर्गत करने की उन्हें आवश्यकता ही नहीं हुई। किन्तु श्वेताम्बरों ने आगमों का संकलन करके यथाशक्ति सुरक्षित रखने का प्रयास किया।