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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 5
की पुष्टि में कल्याणविजय एकगाथा24 उपस्थित करते हैं जिसका भाव है कि युग प्रधानतुल्य गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि ने वालभ्यसंघ के कार्य के लिए वलभी नगरी में उद्यम किया। यद्यपि कतिपय आगमों में वाचनान्तर का निर्देश पाया जाता है और टीकाकारों ने उसे नागार्जुनीय वाचना कहा है किन्तु प्रथमत: वलभी में होने वाली उक्त नागार्जुनीय वाचना का निर्देश किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता। जबकि जिनदासमहत्तर कृत नन्दिचूर्णि तथा हरिभद्र कृत नन्दि टीका में माथुरी वाचना का कथन मिलता है। नागार्जुन की वालभी वाचना सम्बन्धी सभी उल्लेख विक्रम की 12वीं शताब्दी के पश्चात् के हैं।
द्वितीयत: इसके अतिरिक्त वादिवेताल शान्तिसूरि को वलभी में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाला बतलाया है। शान्त्याचार्य को राजा भोज ने वादिवेताल का विरुद दिया था। अत: वह राजा भोज के समकालीन थे। उनकी मृत्यु वि०सं० 1096 में हुई थी। ऐसी स्थिति में देवर्द्धि के समय उनका वलभी में होना असम्भव ही है। इसलिए इस आधार पर वलभी में जिस संघर्ष की सम्भावना मुनि कल्याणविजयजी ने व्यक्त की है वह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होती।
तीसरे यदि इस तरह का संघर्ष हुआ होता तो मूलसूत्रों में ‘वायणंतरे पुण' के स्थान पर ‘णागज्जणीया उण एव पढ़ति' लिखा हुआ मिलता है।
स्वयं कल्याणविजय के कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। यदि सब सिद्धान्त माथुरी वाचना के अनुसार लिखे गये और जहां-जहां नागार्जुनी वाचना का भेद या मतभेद था, वह टीका में लिख दिया गया तो फिर दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय करने और भेदभाव मिटाकर एकरूप करने की बात नहीं रहती और यदि उक्त प्रकार समन्वय किया गया तो यह नहीं कहा जा सकता कि सब सिद्धान्त माथुरी वाचना के अनुसार लिखे गये। दोनों वाचनाओं का समन्वय करके लिखने पर जो ग्रन्थ तैयार किया गया वह एक वाचनानुगत नहीं कहला सकता, उभयवाचनानुगत कहलायेगा। कल्याणविजय के इस लेख का समर्थन हेमचन्द्राचार्य विरचित योगशास्त्रवृत्ति के अतिरिक्त किसी अन्य साक्ष्य से नहीं होता। हेमचन्द्र ने अपनी वृत्ति में यह अवश्य लिखा है कि दुषमा कालवश जिन वचनों को नष्टप्राय समझकर भगवान नागार्जुन स्कन्दिलाचार्य प्रमुख ने उसे पुस्तकों में लिखा किन्तु जिनदास की नन्दीचूर्णि के प्राचीन उल्लेख में इस बात का कतई निर्देश नहीं है। उसमें उन्होंने केवल इतना लिखा है कि स्मृति के आधार पर कालिक श्रुत संकलित किया गया है। हरिभद्र और मलयगिरि कृत नन्दि टीका में भी यही लिखा हुआ है।28
मलयगिरि की ज्योतिषकरण्डकी टीका, जिसमें मथुरा और वलभी में वाचना होने का निर्देश है, में दोनों वाचनाओं के मात्र सूत्रार्थ संगठन का ही उल्लेख है, लिपिबद्ध किये जाने का नहीं। भद्रेश्वर की कथावली में भी इसका निर्देश नहीं है