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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 7
शिक्षण के ढंग में क्रान्तिकारी परिवर्तन को लाने का श्रेय देवर्द्धिगणि को है क्योंकि यह घटना बहुत महत्त्वपूर्ण थी। यद्यपि ब्राह्मण भी अपने धर्मशास्त्रों की पुस्तकें रखते थे तथापि वे वेद पढ़ाते समय उनका उपयोग नहीं करते थे। यह पुस्तकें आचार्यों के व्यक्तिगत उपयोग के लिए होती थीं। जैकोबी को इसमें सन्देह नहीं है कि जैन साधु भी इस प्रथा का विशेष रूप से पालन करते थे तथा अपने धर्म ग्रन्थों का उत्तराधिकार मौखिक रूप से सौंपने की प्रचलित प्रथा से प्रभावित थे। यद्यपि जैकोबी को यह मान्य है कि जैनों के आगम मूलतः पुस्तकों में लिखे गये थे। बौद्धों के पवित्र पिटकों में, जिनमें प्रत्येक छोटी-से-छोटी और गार्हस्थिक वस्तुओं तक का उल्लेख मिलता है, पुस्तकों का उल्लेख नहीं है। इस आधार पर विद्वान युक्ति देते हैं कि बौद्ध पुस्तक नहीं रखते थे। यही युक्ति जैनों के सम्बन्ध में भी दी जा सकती है। कम-से-कम जब तक जैन साधु भ्रमणशील थे तब तक उनमें पुस्तकों की प्रवृत्ति नहीं थी। किन्तु जब जैन साधु अपने उपाश्रयों में रहने लगे तब वह अपनी पुस्तकें रखने लगे। इससे देवर्द्धि के विषय में हमें एक नई बात ज्ञात होती है कि सम्भवतः उन्होंने वर्तमान प्रतियों को एक आगम के रूप में सुव्यवस्थित किया और जिनकी प्रतियां उपलब्ध नहीं हुई उन्हें विद्वान आगमज्ञों के मुख से ग्रहण किया। धार्मिक शिक्षण के ढंग में नवीन परिवर्तन के कारण यह सामयिक आवश्यकता थी। अत: देवर्द्धि के द्वारा सिद्धान्तों का सम्पादन पवित्र पुस्तकों का केवल नवीन संस्करण मात्र था। यह कहना कि वलभी सम्मेलन में ही सर्वप्रथम आगमों को लिखने की प्रथा प्रवर्तित हुई एक एकान्त पक्षी कथन है। अधिक उपयुक्त तो यह प्रतीत होता है कि देवर्द्धि द्वारा ग्रन्थों के पुस्तकारूढ़ होने के पश्चात सार्वजनिक रूप से उसका लेखन कार्य होने लगा।
बौद्ध संगीतियों से जैन वाचनाओं की तुलना
बौद्ध और जैन दोनों ही धर्मों में प्रमुख वाचनाओं की संख्या तीन है। समसंख्या देखकर यह सन्देह होना स्वभाविक है कि जैन वाचनाएं बौद्ध संगीतियों की प्रतिकृति तो नहीं हैं। इस प्रसंग में बौद्ध संगीति की तुलना भी अप्रासंगिक नहीं है। बौद्ध परम्परा में तीनों संगीतियां किसी दुर्भिक्ष के कारण अथवा पिटकधरों के स्वर्गवास हो जाने के कारण नहीं हुई जैसा कि जैन श्वेताम्बरीय परम्परा के संदर्भ में कहा गया है। प्रथम संगीति का कारण बताते हुए बौद्ध साहित्य में लिखा है कि भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण होने पर सुभद्र नामक एक वृद्ध प्रवजित ने अन्य भिक्षुओं से कहा- 'मत आवुसो। मत शोक करो। मत रोओ। हम मुक्त हो गये। उस महाश्रमण से पीड़ित रहा करते थे। अब हम जो चाहेंगे सो करेंगे। जो नहीं चाहेंगे उसे नहीं करेंगे।' सुभद्र के इस अभिकथन में धर्म एवं विनय के नष्ट हो जाने की