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6. जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
किन्तु कल्याणविजय ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है कि जिससे यह प्रतीत हो सकता है कि माथुरीवाचना के पहले भी आगम पुस्तकें थीं। देवर्द्धिकालीन वालभी वाचना में भी दुर्भिक्ष के कारण विनष्ट हुए श्रुत की रक्षा पूर्ववत् की गयी, किन्तु इसमें पहले की वाचनाओं से विशिष्टता इस बात में थी कि उस संकलित श्रुत को पुस्तकारूढ़ भी किया गया। 29 सम्भव है कि इससे पूर्व भी साधु अपनी सुविधा के लिए किसी सूत्रग्रन्थ को लिपिबद्ध कर लेते हों, किन्तु देवर्द्धि से पहले सामूहिक रूप से आगम ग्रन्थों को लिपिबद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इससे पहले आगम ग्रन्थों का कोई एक रूप निर्धारित नहीं हो सका था जो पूरे सम्प्रदाय को मान्य हो और ऐसी स्थिति में उन्हें लिपिबद्ध करना सम्प्रदाय भेद का जनक हो सकता था। अनुयोगद्वार पुस्तक में लिखित को द्रव्यश्रुत कहा गया है। सम्भव है कि आर्यरक्षित, जो कि अनुयोगद्वार के कृतिकार हैं, ने मन्दबुद्धि साधुओं पर अनुग्रह कर अपवाद के रूप में आगम लिखने की भी अनुमति दे दी हो।
नन्दीस्थविरावली की स्कन्दिलाचार्य सम्बन्धी गाथा के व्याख्यान मलयगिरि" ने माथुरीवाचना क्यों स्कन्दिलाचार्य की कही जाती है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि यह वाचना उस समय के युग प्रधान स्कन्दिलाचार्य को अभिमत थी और उन्हीं के द्वारा अर्थ रूप से शिष्यबुद्धि को प्राप्त हुई थी। दूसरों का कहना है कि दुर्भिक्ष के वश कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ था। समस्त श्रुत वर्तमान था किन्तु अन्य सब प्रधान अनुयोगधर काल के गाल में चले गये केवल एक स्कन्दिलसूरि शेष बचे। उन्होंने सुभिक्ष होने पर मथुरा में पुन: अनुयोग का प्रवर्तन किया । इसीलिए उसे माधुरी वाचना कहते हैं और वह अनुयोग स्कन्दिलाचार्य का कहलाता है। 32 देवर्द्धिगणि ने वलभी में आगम को अन्तिम रूप देकर पुस्तकारूढ़ कर सर्वथा के लिए अनुयोग प्रवर्तित कर दिया। अतः यदि उन्हें मात्र पुस्तक लेखक न कहकर वर्तमान आगमों का रचयिता कह दिया जाये तो असंगत न होगा। डा० जैकोबी ” ने जैन सूत्रों की अपनी प्रस्तावना में देवर्द्धिगणि के विषय में लिखा है कि सर्वसम्मत परम्परा के अनुसार जैन आगम अथवा सिद्धान्तों का संग्रह देवर्द्धि की अध्यक्षता में वलभी सम्मेलन में हुआ । कल्पसूत्र में इसका समय वीर निर्वाण 980 या 993 अर्थात् 454 या 467 ई० दिया है। परम्परा के अनुसार सिद्धान्त के नष्ट हो जाने की आशंका के कारण देवर्द्धि ने उसको पुस्तकारूढ़ किया। इससे पूर्व गुरुजन अपने छात्रों को सिद्धान्त पढ़ाते समय पुस्तकों का उपयोग नहीं करते थे किन्तु इसके पश्चात् उन्होंने पुस्तकों का उपयोग किया। प्राचीन काल में ऋषि अपने गुरुकुलों में भी पुस्तकों का उपयोग नहीं करते थे । पुस्तकों की अपेक्षा स्मृति पर अधिक विश्वास करने का ब्राह्मणों में प्रचलन था । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस परम्परा का जैनों और बौद्धों ने अनुसरण किया।