Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्राभूषण भवन, वस्त्र, ग्राम, नगर पादि का वर्णन है। त्योहार, उत्सव, नृत्य, यान प्रादि के विविध नाम भी इसमें वर्णित हैं / कला, युद्ध व रोग आदि के नाम भी उल्लिखित हैं। इसमें उद्यान, वापी, पुष्करिणी, कदलीघर, प्रसाधनघर और स्त्री-पुरुष के अंगों का सरस एवं साहित्यिक वर्णन भी है। प्राचीन सांस्कृतिक सामग्री की इसमें प्रचुरता है। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की दृष्टि से इस पागम का बहुत महत्त्व है। व्याख्या-साहित्य जीवाभिगम का व्याख्या-साहित्य वर्तमान में इस प्रकार उपलब्ध है / जीवाभिगम पर न नियुक्ति लिखी गई और न कोई भाष्य ही लिखा गया। हां इस पर सर्वप्रथम व्याख्या के रूप में चूणि प्राप्त होती है, पर वह चूणि अप्रकाशित है, इसलिए उस चूणि के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वह चूणि जिनदास गणि महत्तर की है या संघदास गणि की है। जीवाभिगम पर संस्कृत भाषा में प्राचार्य मलयगिरि की वृत्ति मिलती है। यह वृत्ति जीवाभिमम के पदों के विवेचन के रूप में है। जीवाभिगमवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति जीवाभिगम के पदों के विवेचन के रूप में है। इस वृत्ति में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख किया गया है-जैसे कि धर्मसंग्रहणीटोका, प्रज्ञापनाटीका, प्रज्ञापना-मूल-टीका, तत्त्वार्थ मूल-टीका, सिद्धप्राभृत, विशेषणवती, जीवाभिगममूल-टीका, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति संग्रहणी, क्षेत्र-समास टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटोका, कर्मप्रकृतिसंग्रहणीचूणि, वसुदेवचरित, जीवाभिगमणि, चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका, सूर्यप्रज्ञप्तिटीका, देशीनाममाला, सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति, पंचवस्तुक, प्राचार्य हरिभद्ररचित तत्त्वार्थटीका, तत्त्वार्थ भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, पंचसंग्रहटीका प्रति / इन ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी टीका में प्रयुक्त हुए हैं। वृत्ति के प्रारम्भ में मंगल के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए भागे के सूत्रों में तन्तु पोर पट के सम्बन्ध में भी विचार-चर्चा की गई है और माण्डलिक, महामाण्डलिक, ग्राम, निगम, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, प्राकर, प्राधम, सम्बाध, राजधानी प्रभति मानव-बस्तियों के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है। बत्ति में ज्ञानियों के भेदों पर चिन्तन करते हुए यह बताया है कि सिद्धप्राभूत में अनेक ज्ञानियों का उल्लेख है। नरकावासों के सम्बन्ध में बहत ही विस्तार से प्रकाश डाला है और क्षेत्रसमासटीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका के प्रवलोकन संकेत किया है। नारकीय जीवों की शीत और उष्ण वेदना पर विचार करते हुए प्रावट, वर्षा रात्र, शरद, हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म-इन छ: ऋतुत्रों का वर्णन किया है। प्रथम शरद् कार्तिक मास को बताया गया है। ज्योतिष्क देवों के विमानों पर चिन्तन करते हुए विशेष जिज्ञासुमों को चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं संग्रहणी टीकाएँ देखने का निर्देश किया गया है। एकादश अलंकारों का भी इसमें वर्णन है और राजप्रश्नीय में उल्लिखित 32 प्रकार की नाट्यविधि का भी सरस वर्णन किया गया है / प्रस्तुत वृत्ति को प्राचार्य ने 'विवरण' शब्द से व्यवहृत किया है और इस विवरण का ग्रन्थमान 1600 श्लोक प्रमाण है। [35] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org