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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૦
યોગ ચિંતામણિ સટીક
: દ્રવ્ય સહાયક :
પૂ. આચાર્ય શ્રી ૐકારસૂરિજી સમુદાયના પૂ. સાધ્વીજી શ્રી કૈવલ્યરત્નાશ્રીજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી ૐકારસૂરિજી આરાધના ભવન,
એમ.એમ. જૈન સોસાયટી, સાબરમતીના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
006
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
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023
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025
026
027
028
029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
286
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18
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54
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322
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226
640
452
500
454
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414
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
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(04)
210
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286
216
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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________________
'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
Page #8
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
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________________
क्रम
पुस्तक नाम
202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका
203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका
204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका
205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका
207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक
208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक
210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक
211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक
212 रायपसेणिय सूत्र
213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १
214 धातु पारायणम्
215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १
216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२
217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह
219
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची ।
220
221
वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
| वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका)
222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्त्ता / टिकाकार
भाषा
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री मलयगिरि
गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
आ. श्री धर्मसूरि
सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत
श्री हेमचंद्राचार्य
आ. श्री मुनिचंद्रसूरि
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
आ. श्री वरदराज
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत
संपादक / प्रकाशक
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री बेचरदास दोशी
श्री बेचरदास दोशी
राजकीय संस्कृत पुस्तकालय
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
पृष्ठ
285
280
315
307
361
301
263
395
386
351
260
272
530
648
510
560
427
88
78
112
228
Page #11
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________________
॥ श्रीः॥
श्रीमद्भिपशिरोमणि श्रीर्षकी निर्मितः ।
योगचिन्तामणिः।
eी
माथुरवंशावतंस श्रीयुत कन्हैय्यालाल पाठकतनय
दत्तरामचावेतमाथुरीमंजूषाभाषाटीकासहितः ।
AM
-
--
गंगाविष्णु श्रीक दास, मालिक-" लक्ष्मीविकटेश्वर स्टीम् प्रेस,
कल्याण-बम्बई.
संवत् २०१०, शके १८१
1254
Page #12
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________________
प्रस्तावना ।
आजतक भगवदवतार धान्वन्तरिजी जिस वैद्यकशास्त्राको भूमण्डलमें प्रसिद्ध किया हैं, उस विषय में हजारों ग्रन्थ प्रचलित हुए हैं कि, जिनमें न्यारा न्यारा विचार करके रोगोंका निदान और निराकरण कहा है, इन ग्रंथोंका भलीभाँति ज्ञान होना साधारण श्रेणीके मनुष्योंको दुर्लभ था. इस कारण श्रेष्ठ वैद्योंने इन ग्रन्थोंके तात्पर्य लेकर अनेक ग्रंथोंकी रचना किये हैं. तदन्तर्गत " योगचिन्तामणि ” नामक ग्रन्थ वैद्यवराग्रगण्य श्रीहर्ष कीर्तिजीने निर्मित किया, इसमें प्रत्येक रोगोंका निदान, पूर्वरूप अच्छे प्रकार कथन कर उनके ऊपर कषाय, रसायन, मात्रा, पाक, चूर्ण, तेल, गुटिका, अवलेह इत्यादि सर्व रोगोंकी औषधी विचारपूर्वक वर्णन की है और समरत औषधि बनानेकी विधिमी सुगमतासे कही है ऐसे लाभदायक ग्रंथका ज्ञान प्राकृत मनुष्यों को भी हो इसलिये माथुरवंशावतंस श्रीयुत कन्हैयालालपाठ कसूनु दत्तराम चौबेजीने " माथुरीमंजूषा " भाषाटीका बनाकर प्रथम 'श्यामकासी यंत्रालय ' मथुराजीमें छपवाया था, परंतु पुस्तक रुचिर आकृति न होने से भिषग्वरोको उपयोगी न हुआ, अत एव चिकित्साभिलाषियोंके सौलस्यार्थ हमने टीकाकार से सब ग्रंथाधिकार लेकर रजिस्टरी कराय सुन्दर टैपके अक्षरों में चिकने कागजपर शुद्धतापूर्वक मुद्रितकिया है । टीका बहुत
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सुगम और उत्तम स्पष्ट है जिसके द्वारा सर्वसामान्य जनोंको भी बोध हो सकता है।
अबकी बार फिरभी शुद्ध कराय उत्तमता से मुद्रित कर प्रकाशित करता हूं, आशा हैं कि अनुग्राहक ग्राहक इसे स्वीकार कर स्वयं लाभ उठादेंगे और हमारेमी परिश्रमको सफल करेंगे |
आपका कृपाभिलाषी-
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, मालिक - " लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर " स्टीम - प्रेस, कल्याण - मुंबई.
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________________
श्रीः।
योगचिन्तामणिः-विषयानुक्रमणिका ।
-
-
-
-
-
पृष्ठ.
C००० WWW ccc
10-1 ,
विष्य,
पृष्ठ. | विषय. . पाकाधिकारः १, स्त्रीयोग्य सभाग्यशुण्ठी मंगलाचरणम्
सभाग्यशुण्ठी, वैद्यके लक्षण और कर्तव्य ३ आम्रपाक नाडीपरीक्षा
बृह मुपलीपाक मूत्रपरीक्षा
६ नारियलपाक नेत्रपरीक्षा
१० गोखरूपाक १-२ मुखपरीक्षा,
११ कौंचपाक जिहापरीक्षा
१२ पीपलपाक १-२ मलपरीक्षा,
" पेठ पाक १-४ शब्दपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, असगन्धपाक आयुर्विचार
" अर्फ मप.क, आयुलक्षण,
दोला यन्त्र कालज्ञान
१५ अगस्त्यहरीतकी, देशज्ञान
१६ मधुपकहरीतकी औषधोंके (मागध) मानकी परि- आमल पाक ( च्यवनप्राश ) भाषा
१७ अडूमापाक १=३ अथ शारीरक
२१ मारंगीपाक, अथ पाकविधि,
२६/कटेरीपाक तत्रादौ शिक्षा
भिलावापाक बृहत्यूगीपाक
सूणपाक कामेश्वर मोदक, छोटा सुपा- आदरकगक रोशाक
३१ लहसनपाक विजयापाक
३२ स्त्रीयोग्य कसेलापाक, कामेश्वरपाक (दसरा विजयापाक)३४ अण्डीपाक
Sur Mur
Mur
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________________
योगचित्तामणि:
*
१०३
१०४
विषय. - पृष्ठ. | विषय: . .
चूर्णाधिकारः २. अभलवतसचूर्ण कुंकुमादिचूर्ण
अतीसारे-लघुगाधरचूर्ण लवंगादिचूण, बृहल्लङ्गादिचूर्ण ७२-७३ अतीस रे वृद्धगंगाधरचुर्ण पिप्पल्यादिचूर्ण
७५ क पत्थाष्टकचूर्ण शुण्ठ्यादि चूर्ण, त्रिकुटादिचूर्ण , यवान्यादिचूर्ग एल 'दचूर्ण १-४ , द डिमाष्टक चूर्ण प्र.मे एलादिचूर्ण, चातुर्जातकचूर्ग७८ उरकृमिरोगमें वचादिचूर्ण त्रिज तादिचूर्ग, त्रिफलादिचूर्ग ७९ दन्तपीडामे जातीपत्रादिचूर्ण १.२ तोलीस दिचूण १-
३ ८० दन्तमसी, गगन'शगचूर्ण, सितोपलादिवूर्ण ८२ काकल्पमें भृङ्गराजचूर्ण श्रीखण्डादिचूर्ण
८३ आपलकादिचूर्ण शंखा'दचूर्ग, कायफलादिचूर्ण ८४ स्तंभन चूर्ण पद्यो' चूग, मिश्रादचूर्ग. .. रुद्धिवृद्धि के लिये सारस्वतादिचूर्ण १०६ कोलकादिचूर्ण, पञ्चनि-बचूर्ग,
गुटिकाधिकारः ३. सुदर्शनचूर्ग
८६ रुनिकर अमृतप्रमानाम षोडशांगचूर्ग, अरिष्टा दचूर्ग ८ गुटिका १-२ शृंगादिचूर्ग, ल रणभास्करचूर्ग, ८९ वटा हा दगुटिका, राजबज्रक्षारचूर्ग
९. गुटका १-२ विडलाणा दचूर्ण सामुद्रिकचण ९१ उन्म लीगुटिका, गुहचतुटिकचूर्ग. हिंगुपंचक चूर्ग ९२ ष्टयटिका fगुप्योर्विशनिचूर्ण , सण दिटिका, तुम्बादि, अजपोद दवा ९३ कांक यनीगुटिका उडरविकारमें विजयचूर्ण, | अभयादिपोदक नारायणचूर्ण
अजमोदा दगुटिका यावर्ण१-२११२
उदरविकारने एलादिवटिका , क्षारामृत
९. पाण्डुरोगमें नवरसादिगुटिका ११४
त्रिलवणादिचूण
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________________
विषयानुक्रमणिका।
(५)
विषय.
१३१
१३८
१३९
पृष्ठ. | विषय.
पृष्ठ. वृद्धिनवरसगुटिका ११४ | ग्रहणीकपाटगुटिका १३३ प्रमेहमें चन्द्रकलागुटिका ११५ एलादिगुटिका, तालीसा दिपीनसादिमें व्योषादिगुटी, , गुटिका ___ मरिचादिगुटी ११६ कामदेवगुटिका खैरसारादिगुटिका
लघुकामेश्वरगुटिका बीजपूरादिवटिका ११७ | स्तम्भनगुटिका, नेत्राम्बुजवटी कासरोगमें बबूलगुटिका चन्द्र प्रभावतिः
१३७ मामलादिवटिका ११८ | नेत्रस्राव गुटिका, रात्र्यन्धतायां शंखवटी १-२
गुटिका चतुरशीतिवाते अमरसुन्दरी | सप्तामृतगुटी, अतिनिद्रायां गुटिका
गुटिका विजया दगुटिका
| नयनामृताजनम् क्षयरोगमें शिवागुटी, शिवगुटिका १२२ वावले कुत्ते के काटनेपर गोली १४० ज्वरघ्नी गुटी
१२४ | कुष्ठविकारे त्रिफलादिगुटिका १४१ विरेचननाम गुटिका १२५ सञ्जीवनी गुटिका विषूचिकाहरगुटिका
क्वाथाधिकारः ४. विषूचिकामें अंजनगुटिका १२७ तत्रादौकाथभेदाः १४१ प्रचेतागुटिका
सर्ववायुविकारे रानादिकाथः १४५ सर्षपादिगुटिका,चिन्तामणि- लघुरास्नादिकाथः, सन्निपातरसगुटिका
१२८ । लक्षणम्
१४१ वडवानलरसगुटिका १२९ / सन्निपाते हरीतक्यादिकाथः १४७ पंचाननरसगुटिका १-३ , सन्निपाते तगरादिकाथः ज्वरांकुशरसगुटिका १३१ सन्निपात दाहस्थानम् .. १४८ घोडाचोली,
सन्निपाते भाङ्गादिकायः १४९ प्रमावती गुटिका १३२ रुधिरविकारे मंजिष्ठादि- ... , भतीसार अरळूगुटिका ... १३३ क्वाथः १-२
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________________
( ८ )
विषय.
मंजिष्ठ दिचतुःषष्टिकाथः कुष्ठे खदिरादिकाथः
सन्निपातज्वरे भूनिम्बादिकाथः
अष्टादशांगकाथः,
विषमः रे दायादिकाथः
योगचिन्तामणिः
पृष्ठ. | विषय.
१११ वृद्धगुडूच्यादिकाथ:
१५२ चन्दनादिकाथः, वृद्धचन्दनादिकाथ:,, त्रायमाणादिकाथः,
अरे उपवा दश भवंति । तन्नाम नि
ज्वरे क्षुद्रादिकाथः, वृद्धक्षुद्रादि
दशमूलकाथः
वातशोफे पुनर्नवादिकाथः १ - २,,
कफरोगे कट्फलादिकाथः श्रृंग्यादिकाथः
कफविकारे गुडूच्यादिकाभः वातरोगे लहशुनादिकाथः शिरोव्यथायां श्रेष्ठादिकाथ: पथ्यादिकाथः
काथः १-२ शुण्ण्यादिकाथः धान्य पंचक
क्वाथः १-२
आरग्वधादि पंचकक्वाथः
99
१५३ वृद्धत्रायमाणादिकाथ:
| द्राक्षादिकाथः
"
१९४ वासादिक्वाथः १-२
पटोला दिक्वाथः
१५५ ज्वरातिसा नागरादि क्वाथः
अतीसारे बत्सकादिक्वाथः
"
१५६ अतीसारे कुटजाष्टकक्वाथः
19
१५८
पंचभद्रकाथः
शटया 'दकाथः बृहच्छटया दिकाथः पटोलादिकाथ:
मुस्ता 'दकाथ: वृद्धमुस्तादिकाथः गुडूच्यादिकाथः १-२
17
१६९
१६०
-
79
, मोचरसादिक्वाथः, दार्व्यादिक्वाथः, १५७ हारिद्रा दिज्वरे गुडूच्यादि क्वाथत्रयम् १६७.
१६८
११९
१७०
91
१६१
97
१६२
"
| कमलवाते रजन्यादिक्वाथः
कमलवाते फलत्रिकादिक्वाथः मूत्रकृच्छ्रे एलादिक्वाथः
छर्दिरोगे क्वाथः
वालरोगे क्वाथः
| कासरोगे क्वाथः
पृष्ठ.
१६२
१६३
१६४:
77
""
१६६.
Aho! Shrutgyanam
9:
97
१६६
१७१
१७२
17
सर्ववायु विकारेशुण्ठ्यादिचतुःषष्टिका..
ज्वरे अष्टावशेषपानीयम्
१७४
पंचकोल क्वाथः, दशांगक्वाथः
""
अम्लपित्तविकारे यवादिक्वाथः १७५
मद्यविकारे क्वाथः
"7
घृताधिकारः ५.
तत्रादौ सर्वोन्मादेषु कल्याणघृतम् १७७
Page #18
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________________
विषयानुक्रमणिका ।
विषय. .
पृष्ठ.
२११
२१२
पृष्ठ. | विषय. महाकल्याणघृतम्
१७८ वातरोंगे शतावरीतेलम् २०२ मतान्तरे कल्याणघृतम् १-२ १८० वातपित्तादिरोगे बलाद्यतेलम् २०१ ब्राह्मयादिघृतम्
१८१ वातरोगे प्रसारणीतलम् २०५ बुद्धिवर्धकमहापैशाचिकघृतम् ,, साधारणगुणभूषाद्यहचंदनादितै० २०६ सन्तानार्थ फलघृतम् १-२ १८२ कुष्ठदद्रुविकारे वज्रतैळम् २०८ उदररोगे बिन्दुघृतम् १८५ कुष्टे कालानलतैलम् २०९ दुष्टवणादौ जात्यादिकं घृतम् १८५ सिन्दूरादितैलम् १-२ रुधिरविकारे महातिक्तकं घृतम् , गुञ्जादितैलम्,
२१० मस्तकरोगे षड्बिन्दुघृतम् १८७ भल्लातकतैलम् वायुविकारे दशमूलादिघृतम् , अर्कतैलम, नीलकाद्य लम् अश्वगंधाघृतम्
" रोमशातने नाडीव्रणादौ च वातरक्ते गुडूचीघृतम् १८८ क्षारादितैलम् वातशूलेशुंठीघृतम्
., स्तनविकारे कासीसादितैलम् २१३ लूताविचर्चिकायां कासीसादिघृतम् ,, |
| मिश्राधिकारः ७. पंचतिक्तकं घृतम् पुष्टौ कामदेवघृतम् १९. तत्रादौ विषयनिरूपणम् रुधिरविकारे मंजिष्ठादिघृतम् १९१ प्रथमं गूगलप्रकरणम् २१५ संग्रहणीविकारे कल्याणगुड; १९२/तत्र वातव्याधौ योगराजगुग्गुल:
तैलाधिकारः ६. १-२ सर्ववातेषु नारायणतैलम् १९३ किशोरगुग्गुलुः २१८ जीर्णज्वरे तापातिदाहादौ च त्रिफलागुग्गुलुः
२१९ लाक्षादितैलम् १-२ १९४ कांचनारगुग्गुलः
२२० दद्रुमण्डलपामाविचर्चिकादौ मरिचादि-गोक्षुरादिगुग्गुलुः
तैलम्, वृद्धमरिचादितैलम् १९६ सिंहनादगुग्गुलुः सर्ववातरोगे विषगर्भतलम् १-२ १९८ प्रमेहे मूत्रकृच्छ्रे च चन्द्रप्रभामस्तकरोगे षड्विन्दुतैलम् २०१६ गुग्गुलुः
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( १० )
विषय. शंखद्रावः
गन्धकविधिः
शिलाजतुशोधनप्रकारः
शिलाजतुसत्त्वम्
स्वदधातुमारणम्
मृगांकविधिः १-२
राजमृगांकरसः, ताम्रमारणविविः
तस्य गुणा दोषाश्च
बङ्गमरणविधिः सीतकमारण
विधिः,
सारमारण विधिः
मण्डूरकरणम्
अभ्रक मारणविधिः
अकरणम्
सर्वधातुसच्च वधिः १-२
मूतवातुसंजीवनी
कोचनविधिः
पारदर हर गैरीरस:
रससिन्दूम
-मद-मुद्रा १-२
चत्रमुद्रा
पारदगुणाः पादविकारशान्तिः
- भस्मसूतम्
- हरितालशुद्धिः
योगचिन्तामणि:
पृष्ठ. | विषय. २२४ रसकर्पूर विधिः
२२५ शुद्धरसस्य मुखकरणम्
२२६ | पारदमारणविधिः
""
२२७ हिंगुल से - पारा काढने की विधि: २४९
२२८ हरतालशुद्धिः नागतांबाविधिः
""
२३१ | सुवर्णमाक्षिकशोधनम्
२३२ | रूपमाक्षिकशोधनम् २३३ मनःशिलाशोधनम् नीलांजनशोधनम्
२३४
लोकनाथरस:
""
२३५ कफकुंजररसः १-२ २३६ | श्वासकुठारो रसः
२३७ | आनंद भैरवरसः
रसप्रकरणम् ।
२३८ | कलारिरसः १-२३९ | चैतन्ये- सूचीभरणो रसः आमवाते-उदयभास्कररसः
वातकासे भूतांकुशो रसः
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71
२४० तरकेश्वरः
२४१ | अतिसारे रसः
२४२ | अतिसारे --आनन्द भैरव रसः
| कवनसुन्दररसः
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२४३ अजीर्णे-- क्रव्यादरसः
२४४ | वाजीकरणे -- चंद्रोदयरसः कामदेवरसः,
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२४६
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विषयानुक्रमणिका।
२७१
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or
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mr
२७४
१७.
9 V
विषय.
पृष्ठ. | विषय. शुकल औषधिः, विरेचकरसः २६६ अग्निदाहे लेपः ज्वरहारी रसः
२६७ हस्तप'ददाहे लेपः बरादौ -चिन्तामणिरसः १-२ , अंत्रवृद्धौ लेपः त्रिपुरभैरवरसः
२६८ नलवृद्धो लेपः महावातज्वरांकुशरसः , अाँसे लेपः सर्वन्चरे मृत्युंजयरसः ९भगन्दरे लेपः
आसवः। कुष्ठे लेपः द्राक्षासव
श्वेत कुष्ठे लेपः द्रक्षारिष्टम्
पामाकण्डूनां लेपः लोहासवः
पादस्फुटितोपरि लेपः दशमूलासवः
मम्सालेपः कूष्माण्डकासवः
२७६
प्रहारोपार लेपः, ग्रन्ध्युपरि लेषः २९३ उदर विकारे--जंबीरद्रावः - लेपप्रकरणम् ।
स्फोटका (फोडा) यां लेपः . विसर्पादौ लेपः, शोके लेपः, २७१
वातरक्ते लेपः शिरोतों लेपः
पादरफोटोपरि लेपः कर्णपीडायां लेपः
२९४ उदरपीडांयां लेपः
लिङ्गघडीकरणम्
२९४ शूले लेपः
मलहम १-२ व्रणे लेपः, गंडमालादौ लेपः
उदोपरि लेपः . २९६ सिध्मरोगे लेपः
विषोपरि लेपः,सर्पविषगदे लेपः, २९७ तारुण्यपीडिकादौ लेपः २८५ रुधिरस्रावादो कालनिश्चयः २९८ नासारुधिरे लेपः
रक्तस्रावे श्रृंग्यादीनामियत्ता नेत्ररोगे लेपः
२८६ रक्तस्राचे योग्यरोगी केशकल्पेलेपः , रक्तस्रावे अयोग्याः .
२९९ केशवर्धनम्, रोमशातनम्, २८८ रक्तस्रावे वानि
२८१ मगे लेपः
२८४
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( १२ )
विषय.
जलूकादिदंशस्राव उपचारः नस्यविधिः
नासिकया जलपानम् य युरोगेषु विरेचनाबिधिः
विरेचना योग्याः
चमनम्
स्वेदः
अथ बन्धनम्
योग चिन्तामणिः विषयानुक्रमणिका ।
पृष्ठ.
विषय.
३०० | शुण्ठीयोगः, त्रिफलायोगः, |दशामृतहरीतकी
बाष्पविधिः
उदूधुलनम् (रबटना )
मस्तकटोपबंधनन्, नेत्रपिंडी,
,
३०२ असगंधयोगः शुंठीयोगश्च
३०३ | चोबचीनी
३०५ | सिद्धहरिद्रा ( जमाईहलदी )
३० ६ | सिद्धजीरकः ( जमायाजीरा )
३०७ | वृतपानम्
३०९ निम्बपानविधिः
३१० खण्डपानम्
| सामान्यकायचिकित्सा
39
३११ अथ दंभ, विषचिकित्सा,
गण्डषः
३१२ स्त्रीणां चिकित्सा
अपराजिताधूपः
३१३ पुत्रोत्पत्तियोगः
तक्र सेवनम् योग्या अयोग्याश्च ३१४ गर्भनिवारणम्
कठरोह:
अमृत हिम: ( अपहरी गिलोय ) ३१६
मधूक ज्वर लक्षणम्
मधूरकज्जररसम्
मधूरक मन्त्रम् के चित्साधारणयोगाः
वर्द्धमान पिप्पली
द्राक्षाहरीतकी हरीतकयोगाः
३१५ | गर्भपातनम्
३१७ | रोगोंके नाम
कर्म फलम्
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३१८ कुम्भदानविधिः धेनुदानविधिः
17
३१९ | ज्योतिषद्वारा वंध्याका फल
| स्वर्णवेनुदानविधि
| सर्वरोगशांति
कुटकी प्रयोगः, अजमोदयोगः ३२० | अथ प्रशस्तिश्लोकाः इति योगचिंतामणिविषयानुक्रमणिका ॥
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कर्मविपाकप्रकरणम् । ३३१
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॥ श्रीः ॥
|| श्रीधन्वन्तरये नमः ॥
योगचिन्तामणिः । भाषाटीकासहितः ।
पाकाधिकारः - प्रथमोऽध्यायः १.
यत्र वित्रासमायान्ति तेजांसि च तमांसि च । महीयस्तदहं वन्दे चिदानन्दमयं महः ॥ १ ॥
श्रीकृष्णं प्रणिपत्य सद्गुणनिधि धन्वन्तरिं शारदां श्रीमन्माथुर वंशजं स्वजनकं श्रीकृष्णलालं गुरुम् | अल्पज्ञानवतां करोमि सुखदां सद्योगचिन्तामणेमंजूषां व्रजभाषयाऽर्थबहुलां श्रीदत्तराम मित्रः ||
अर्थः-पत्र कहिये जहाँ तेज और तम ( अंधकार ) नाशको प्राप्त होय ऐसे महान तेजःपुंज चिदानंदको हम वंदना करते हैं ॥ १ ॥
जगत्रित लोकानां पापरोगापनुत्तये ।
यद्वाक्य भेसजं भाति श्री जिनः स श्रियेऽस्तु वः ॥ २॥ • जिसका वचन त्रिलोकी के पापरूप रोगोंको औषधि स्वरूप है ऐसे श्रीजिन ( तीर्थंकर ) तुमको लक्ष्मीके देनेवाले हों ॥ २ ॥ सिद्धौषधानि पथ्यानि रागद्वेषरुजां जये । जयन्ति यद्वांस्त्र तिर्थकृत्सोऽस्तु वः श्रियै ॥ ३॥ जिनका वचन रागद्वेषरूप रोगोंको नाश करनेके लिये सिद्ध
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(२) योगचिन्तामणिः। (पाकाधिकार:औषध और पथ्यरूप हैं ऐसे श्रीतीर्थकर तुमको लक्ष्मीके देनेवाले हों ॥ ३ ॥
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्यादौ मानकीर्ति गुरुं ततः । योगचिन्तामणिं वक्ष्ये बालानांबोधहेतवे ॥४॥
श्री सर्वज्ञ मानकीर्ति गुरुको प्रथम प्रणाम कर बालकोंके बोधार्थ योगचिन्तामणि ग्रंथको कहते हैं ॥ ४ ॥
प्राप्ताः प्रसिद्धिं सर्वत्र सुखबोधाश्च ते यतः। अतः पुरातनैरेव पाठैः संगृह्यते मया॥५॥ सर्वत्र प्राप्त तथा प्रसिद्ध और सुखपूर्वक जाने जायँ इसी कारण हम प्राचीन पाठका संग्रह करते हैं ॥ ५ ॥
नूतनपाठे विहिते नादमिह पण्डिता यतः कुर्युः । तस्मादार्पवचाभिर्निबध्यते न त्वसामर्थ्यात् ॥ ६॥ नवीन पाठको विद्वान्लोग सत्कार नहीं करेंगे इसी कारण मैं प्राचीन सुश्रुत वाग्भटादि आच योंके वाक्योंका संग्रह करता हूं, कुछ नवीन ग्रन्थ रचनेकी असामर्थ्यसे नहीं करता ॥ ६॥
पाकचूर्णगुटीकाथघृततैलाः समिश्रकाः। अध्यायाः सप्त वक्ष्यन्ते ग्रन्थेऽस्मिन्सारसंग्रहे ७॥ इस ग्रन्थमें पाकाध्याय, चूर्णाध्याय, गुटिकाध्याय, काथाध्याय, घृताध्याय, तैलाध्याय, और मिश्रकाध्याय ऐसे सात अध्याय कहेंगे ॥ ७॥
यद्यपि योगचिन्तमणिके कर्ताने नाड़ी आदि परीक्षा पीछे लिखी है परंतु हमारी समझमें प्रथम लिखना ठीक है क्योंकि प्रथम रोग निश्चय करना सब आधुनिक और प्राचीन आचार्योंके मतसे ठीक है, इसी कारण हम अष्टविधि लिखते हैं तहाँ प्रथम वैद्यके कर्तव्य और नाडीपरीक्षा लिखते हैं
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प्रथमः] __ भाषाटीकासहितः।
वैद्यके लक्षण और कर्तव्य । नाड्या मूत्रस्य जिह्वाया लक्षणं यो न विन्दते । __ मारयत्याशुवै जन्तून्स वैद्यो न यशो लभेत् ॥ १॥
नाडी, मूत्र और जिह्वाकी जो परीक्षा नहीं जाने वह वैद्य मनुष्योंको तत्काल नाश करै है, उसको यशकी प्राप्ति नहीं होती है ॥ १॥
स्थिरचित्तः प्रसन्नात्मा मनसा च विशारदः। स्पृशेदङ्गुलिभिर्नाडी जनीयादक्षिणे करे ॥२॥ एकाग्र चित्त कर प्रसन्नात्मा मनसे चतुर ऐसा वैद्य तीन अंगुलियोंसे दहिने हाथकी नाडी देखे ॥ २ ॥
त्यक्तमूत्रपुरीषस्य सुखासीनस्य रोगिणः । अन्तर्जानुकरस्यापि सम्यङ्नाडी परीक्षयेत् ॥३॥ जो रोगी मल मूत्रका त्याग कर चुका होय, सुखपूर्वक बैठा होय और दोनों जानुओंके बीच जिसने अपना हाथ रक्खा होय उसकी नाडीकी भले प्रकार परीक्षा करे ॥ ३ ॥
नाडी परीक्षा। स्त्रीणां भिषग्वामहस्ते पुरुषाणां तु दक्षिणे । शास्त्रेण संप्रदायेन तथा स्वानुभवेन च ॥ परीक्षेद्रत्नवच्चासावभ्यासादेव जायते ॥४॥ स्त्रियों के बायें हाथकी और पुरुषोंके दहिने हाथकी नाडी वैद्य शास्त्रकी संप्रदायसे और अपने अनुभवसे परीक्षा करें. जैसे जौहरी अपनी बुद्धिसे रत्नोंकी परीक्षा करता ॥ ४ ॥ वारत्रयं परीक्षेत धृत्वा धृत्वा विमुच्य च । विमृश्य बहुधा बुद्ध्या रोगव्यक्तिं विनिर्दिशेत् । ५॥
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( ४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारः
तीन बार नाडीपर हाथको रख रख कर छोड़ छोड़ दे जब अच्छी तरह रोग समझमें आजावे तब उसको कहे ॥ ५॥ वातं पित्तं कफं द्वंद्वं त्रिदोषं सन्निपातकम् । साध्यासाध्यविवेकं च सर्वान्नाडी प्रकाशयेत् ॥ ६॥ वात, पित्त, कफ, द्वंद्वज, त्रिदोष, सन्निपात, साध्य और असाध्य सबको नाडी प्रकाश करती है ॥ ६ ॥
करस्याङ्गुष्टमूले या धमनी जीव साक्षिणी ।
तचेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पण्डितैः ॥ ७ ॥ हाथके अँगूठेके नीचे धमनी नाडी जीवकी साक्षी देनेवाली हैं, उसी धमनी नाडीकी चेष्टासे पण्डित देहके दुःख और सुखको जाने ॥ ७ ॥
धत्ते नाडी मरुत्कोपाज्जलौका सर्पयोर्गतिम् । कुलिङ्गकाकमण्डूकगतिं पित्तस्य कोपतः ॥ हंसपारावतगतिं धत्ते श्लेष्मप्रकोपतः ॥ ८ ॥
वातके कोप से नाडी जोक और सर्पकी गति धारण करती है, पित्त कोपसे कुलिंग, कौआ और मेंडक की गति से चलती है, कफके कोपसे नाड़ी हंस, कबूतर की गति से चलती है ॥ ८ ॥ लावतित्तिरवर्तीनां गमनं सन्निपाततः । कदाचिन्मन्दगमना कदाचिद्वे गवाहिनी ॥ द्विदोषकोपतो ज्ञेया हन्ति च स्थानविच्युता ॥ ९ ॥ स्थित्वा स्थित्वा चलति या सा स्मृता प्राणनासिनी। अतिक्षीणा च शीता च जीवितं हन्त्यसंशयम् ॥ १० ॥ सन्निपात कोपसे नाडी लवा, तीतर और बटेरकीसी चाल चलती है, कभी मन्द चले कभी तेज चले ऐसे नाडी द्विदोष के को पकी
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(५)
जाननी । जो नाडी अपने स्थानको छोडदेवे उसे प्राणनाशिनी जाननी और जो नाडी ठहर २ के चले उसेभी प्राणघातिनी जाननी चाहिये । जो नाडी अत्यन्त क्षीण शीतल होय उसेभी निश्चय नाश करनेवाली जाननी ॥ ९-१० ॥
ज्वरकोपेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत् । कामात्धाद्वेग हा क्षीणा चिन्ताभयप्लुता ॥ ११ ॥ मन्दाग्नेः क्षीणधातोश्च नाडी मन्दतरा भवेत् । अपूर्णा भवे सोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥ १२ ॥ लघ्वी वहति दीप्तास्तथा वेगवती मता । सुखिनः सा स्थिरा ज्ञेया तथाबलवती मता ॥ चपला क्षुधितस्यापि तृप्तस्य वहति स्थिरा ॥ १३ ॥
Garh कोपसे नाडी गरम और वेगवती होती है, काम और क्रोधके वेग से भी नाडी जल्दी चलती है, चिन्तावान् और भयभीत मनुष्यकी नाडी क्षीण होती है तथा मन्दाग्नि और क्षीणधातुवाले मनुष्यकी नाडी मन्दतर चलती है, रुधिरके कोपकी गरम और भारी होती है, आमकी नाडी भारी होती है, दीप्त अग्निवालेकी नाडी हलकी और वेगवती होती है, सुखी मनुष्यकी नाडी स्थिर और बलवती होती हैं, भूखे मनुष्यकी नाडी चपल होती है और तृप्तकी नाडी स्थिर होती है | ११-१३ ॥
अङ्गुष्ठमूलसंस्था दोषविशेषेण वहति या नाडी । बहुधा सा सर्वाङ्गपूर्वाचार्यैः समाख्याता ॥ १४ ॥ वाताकगता नाडी चपला पित्तवाहिनी । स्थिरा श्लेष्मवती प्रोक्ता सर्वलिंगेषु सर्वगा ॥ १५ ॥
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(६)
योगचिन्तामणिः। पाकाधिकारःस्निग्धा रसवती प्रोक्ता रक्ते मूर्छा भिघातिनी। भाविरोगावबोधाय स्वस्थनाडीपरीक्षणम् ॥ १६॥ आदौ च वहते पित्तं मध्ये श्लेष्मा प्रकीर्तितः । अन्ते प्रभञ्जनः प्रोक्तस्त्रिधा नाडीपरीक्षणम् ॥१७॥ यथा वीणागता तन्त्रीः सर्वाना गान्प्रकाशयेत् । तथा हस्तगता नाडी विभक्ताऽऽमयसंचयम् ॥१८॥
अंगूठे के निकट जो दोषविशेष करके नाडी चले है वह सर्व अंगव्यापिनी है, ऐसा पूर्वाचयोंने कहा है, वात के कोपसे नाडी टेढ़ी गतिसे गमन करती है, पित्तके कोपसे चपल गतिसं चलती है और कफके कोपसे स्थिर अर्थात् मन्द गमन करती है और सब दोषोंके कोपसे नाडी सर्वचिह्नयुक्त चलती है. रसवती नाडी चिकनी होती है, रुधिरकी नाडी मूर्छित चलती है, होनहार रोगके जानने के निमित्त स्वस्थ मनुष्यकी नाडी परीक्षा करनी चाहिये, प्रथम पित्तकी नाडी, मध्यमें कफकी और अन्तमें वातकी नाडी चलती है, जैसे वीणाके तार सम्पूर्णरागोंको अलग अलग प्रकाश करते हैं इसी प्रकार हाथकी नाडी सकल रोगोंकी सूचना करती है ॥ ११--१८ ॥
इति नाडीपरीक्षा।
मूत्रपरीक्षा। रात्रेश्चतुर्थयामस्य घटिकानां चतुष्टये । समु. त्थाप्य परीक्षेत मूत्रं वैद्यस्तु रोगिणः ॥ १॥ पूर्वधारां परित्यज्य गृहीत्वा काचभाजने । धार• येत्कांस्यपात्रे वा कृत्वा मूत्रं पटावृतम् ॥ २ ॥
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। ततः सूर्योदये जाते प्रकाशे मूत्रभाजनम् । धृत्वा मूत्रं समालोक्य कुर्यात्तस्य परीक्षणम् ॥३॥ वाते तोयसमं मूत्रं रूक्षं बहुत भवेत् । रक्तवर्ण भवेत्पित्ते पीतं वा स्वल्पमेव च ॥ ४ ॥ कफे श्वेतं घनं स्निग्धं मूत्रं संजायते ध्रुवम् । द्विदोष द्वन्दचिह्न स्यात्सर्वलिंगं त्रिदोषजे ॥५॥ रात्रिके चतुर्थ प्रहरकी जब चार घड़ी बाकी रहें उस समय रोगीको उठाकर वैद्य मूत्रवी परीक्षा करे । रोगीके मूत्रकी प्रथम धाग्को त्यागकर बाकीको कांचक शीशी वा कांके पत्र में लेकर वस्त्रमे ढकदेवे, जब सूर्योदय हो तब उस पात्रसे वस्त्रको हटाकर उजेल में रखकर अच्छी तरह मूत्रकी परीक्षा करे. वातके योपो मूत्र स्वच्छ जल के समान होता है और रूखा तथा बहुत होय, पित्तके कोपसे लाल वा पीला
और थोड़ा होता है, कफके कोपसे गेगीका मूत्र सफेद गाढा चिकना ऐसा होता है और द्विदोषके कोपसे दो दो दोषोंके लक्षण और त्रिदोषके कोपसे सर्व लक्षण युक्त होता है ॥ १ ॥५॥
प्रातःकाले गृहीतं यन्मूत्रं धर्मे निधापयेत्। तैलबिन्दुं निपेक्तत्र निश्चलं वैद्यसत्तमः यदा प्रकाशमाप्नोति तैलं क्षेमं तदादिशे॥ ६॥ विन्दुरूपं स्थितं तैलमसाध्यमपि रोगिणः निमज्जति यदामूत्रे भ्रमन्या नैव शाम्यति। तदारि विजा. नीयाद्रोगिणां नात्र संशयः ॥ ७ प्रभाते रोगिणां मूत्रं गृहीत्वा शुद्धभाजने । तृणेनादाय तैलस्य बिन्दु क्षिप्त्वा विचारयेत् ॥ ८॥ यदा विकाश
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2)
यांगचिन्तामणिः । [ पाकाधिकारः
मानोति तदा साध्यं वदेत्सुधीः । बिन्दुरूपेण मध्यस्थमसाध्यं तु तलस्थितम् ॥ ९ ॥
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प्रातःकालमें जो रोगीका मूत्र लिया उसे धूपमें रखकर उसमें वैद्य तेलकी बूंद डाले । यदि तेलकी बूंद प्रकाशित रहे तो रोगीका कल्याण जाने और वह बूंद तेलकी बिन्दुरूपही रहे तो असाध्य जानना अथवा वह तेलकी बूंद मूत्रमें बैठजाय अथवा चक्कर खाया करै तो उस मनुष्यकी देहको अरिष्ट (राग) जानना, प्रातःकाल स्वच्छ पात्र में रोगीका मूत्र लेकर उसमें तृणसे तेलकी बुन्द डालकर विचार करे | यदि वह बून्द प्रकाशित रहे तो उस रोगीको साध्य कहना और वह तेलकी बूँद सूत्र में नीचे बैठजाय तो असाध्य जानना ।। ६-९ ॥ बिन्दुमति सर्वत्र मध्ये व छिद्रसंयुतः ।
खड्ग दण्डधनुस्तुल्यस्तदा रोगी विनश्यति ॥ १० ॥ तडागहंसपद्मभच्छत्रचामरतोरणैः । तुल्यस्तदा चिरायुः स्यादबुदबुदं देवकोपतः ॥ ११॥ पूर्व पश्चिमवायव्य नैनोत्तरतः शुभः । आग्नेयदक्षिणेशाने विस्तृतो न शुभप्रदः ॥ १२ ॥ तेलकी बूंद मूत्रमें चक्कर खाय अथवा उसके बीचमें छिद्र होजाय तथा खड्ग (तलवार) दण्ड और धनुषके आकार होजाय तो रोगीकी मृत्यु होय. तालाच, हंस, कमल, हाथी, छत्र, चामर, तोरण इनके आकार तेलकी बूंद हो जाय तो चिरायु ( दीर्घायु) कहनी । उस मूत्र
बबूला उठे तो रोगीको देवदोष जानना और वह तेलकी बूँद, पूर्व, पश्चिम, वायव्य, नैर्ऋत्य और उत्तर इन दिशाओंमें फैले तो शुभ है और अग्निकोण, दक्षिण, ईशाणकोण इन दिशाओं में फैले तो अशुभ है. यह परीक्षा समान भूमिमें करनी चाहिये ॥ १०-१२ ॥
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प्रथमः ] भाषाटीकासहितः। स्निग्धं सुरूक्षकं श्यामं मूत्रं वातविकारजम् । पीतबुबुदसंयुक्तं विकारः स्यात्तु पित्तजः ॥ १३॥ मूत्रं श्लेष्मणि जायेत समं पल्लवारिणा । सिद्धार्थतैलसदृशं मूत्रं वै पित्तमारुतैः ॥१४॥ कृष्णं सबुद्बुद मूत्र सन्निपातविकारजम् । पानीयेन समं मूत्रं परिपाकहितं भवेत् ॥ १५ ॥ श्वेतधारा महाधाग पीतधारास्तथा ज्वराः। रक्तधारा महारोगी कृष्णा च मरणान्तिका ॥१६॥ अजामूत्रमिवाजीणे ज्वर कुंकुमपिञ्जरम् । समधातोः पुनःकूपजलतुल्यं प्रजायते ॥ १७॥ वातके विकारसे मूत्र चिकना, रूखा,काला होता है. पीला बबूले के समान पित्तके विकारसे होता है और करके विकारसे मूत्र तलैयाके जलके समान होता है और वातपित्तके विक रसे मूत्र सरसों के तेलके सदृश होता है, सनिपातके विकारसे काला और बबुलेदार होता है परिपाकसमय मूत्र स्वच्छ जलके समान होता है सफेद धारा, महाधारा, पीलीधारा ये ज्वरवालेकी होती है. महारोगीकी लालधारा होती है और आसन्नमृत्युवाले रोगोंके मूत्रकी धारा काली होती है. अजीर्ण वाले रोगीके मत्रमें बकोके मूत्रके समान गंध आती है, ज्वरवालेका मूत्र केशरके समान पीला होता है, समान धातु वालेका मत्र कुआँके जल समान होता है ॥ १३-१७॥
इति मूत्रपरीक्षा ॥
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(१०) योगचिन्तामणिः। पाकाधिकार:
नेत्रपरीक्षा। रौद्रे रूक्षे च धूम्राक्षे नयने स्तब्धचञ्चले । तथाऽभ्यन्तरकृष्णाभे भवतो वातरोगिणः ॥१॥ पित्तरोगे तु पीते वा नीले वा रक्तवर्णके । संतप्ते भक्तो दीपं सहेते नावलोकितुम् ॥२॥ ज्योतिहीने च शुक्लाभे जलपूर्ण सगौरवे। मन्दावलोकने नेत्रे भवतः कफकोपतः ॥३॥ तन्द्रामोहाकुले श्यामे निर्भुग्ने रूक्षरौद्रके। रक्तवर्णे च भवतो नेत्रे दोषत्रयोदये ॥४॥ जिस रोगीके नेत्र भयानक रूखे धूसरे टेढ़े और चंचल होंय और भीतरके कालं होय उसको वातका रोग जानना. जिसके पीले, नीले
और लाल नेत्र होय तथा गरम और जो मनुष्य दीपकको न देख सके उसके पित्तका रोग जानना ज्योतिरहित सफेद सजल और भारी होय, मन्द देख सके उसके कफ विकार जानना. तन्द्रा मोहसे व्याकुल काले फटेसे रूखे भयानक लालवर्ण ऐस नेत्र सनिपात रोगवाले के होते हैं ॥ १-४ ।।
दोषत्रये भवेच्चिनेत्रयोस्तु विदोषजम् । दोषद्वयप्रकोपे तु भवेद्दोषद्वयोदितम् ॥ ५॥ दोषत्रयभवे ने स्वाधीने न च रोगिणः । उन्मीलिते च भवतःक्षणादेव निमीलति ॥ ६॥ सततोन्मीलिते नेत्रे यद्वा नित्यनिमीलिते । विलुप्तकृष्णतारे च भ्रमद्धूम्रोग्रतारके ॥७॥ बहुवर्णे च भवतो विकृ. तानेकचेष्टने । नेत्रे मृत्यु कथयतो रोगिणो नात्र
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प्रथमः ]
भाषा टोकासहितः ।
( ११ )
संशयः ॥ ८ ॥ सोम्यदृष्टी प्रसन्नाभे प्रकृतिस्थे मनोरमे । नेत्रे कथयतः शीघ्रं रोगशान्ति तु | रोगिणः ॥ ९ ॥
त्रिदोषरोग में तीनों दोषोंके चिह्न नेत्रोंमें होते हैं. दोपके कुपित होनेसे दो दोषोंके चिह्न होते हैं, और जो त्रिदोष गेगसे व्याकुल होय उसके नेत्र स्वाधीन नहीं रहते, कभी नेत्रोंको खोले और कभी मूंदे अथवा निरन्तर मूंदेही रक्खे अथवा निरन्तर खुलेही रक्खे, जिसकी काली पुतली लुप्त होजाय अथवा पुतली भ्रमण करे, धुआंसा दिखलाई दे तथा जिसके विकृत तारे हो जायँ, अनेक प्रकारके वर्ण विकृत अनेक चेष्टा करे ऐसे नेत्र रोगीकी आसन्न मृत्यु कहते हैं और जिसकी प्रसन्न दृष्टि होय तथा नेत्र अपनी प्रकृतिमें स्थिर होंय ऐसे नेत्ररोगी के रोगकी शीघ्र शान्ति कहते हैं ।। ५-९ ॥
इति नेत्रपरीक्षा |
मुखपरीक्षा |
।
वातको मुखं रूक्षं स्तब्धं वकं गतप्रभम् । पित्तकोपे भवेद्रक्तं पीतं वा पतितम् ॥ १ कफकोपे गुरु स्निग्धं भवेच्छून मिवाननम् । त्रिलक्षणं त्रिदोषे स्याद्विचिह्नं च द्विदोषके ॥ २ ॥ वातके कोपसे मुख सुखा स्तब्ध और टेढा होता है, पित्तके कोपसे रोगीका मुख लाल पीला और तप्त होता है कफसे कोपसे मुख भारी चिकना सूजन युक्त होता है और त्रिदोष के कोपसे तीनों दोषके लक्षण होते हैं और द्विदोष के कोप से दोनों दोषके लक्षण होते हैं ॥ १ ॥ २ ॥
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योगचिन्तामणि:
जिह्वापरीक्षा |
वातको प्रसुप्ता च स्फुटिता मधुरा भवेत् । स्तब्धा वर्णेन हरिता जिह्वा लालां प्रमुञ्चति ॥ १॥ पित्तकोपे तु रक्ताभा तिक्ता दुग्धे च जायते । जिह्वा दाहान्विता बिबाकंटकैरिव सर्वतः ॥ २ ॥
( १२ )
पाकाधिकारः
फोदये तु भवेज्जिह्वा स्थूला गुर्वीं विलेपनी । सुस्थूलकंटकोपेता क्षारा बहुकफावहा ॥ ३ ॥ दोपद्वये द्विदोपोका लवणा रसना भवेत् । सर्वजिह्वा त्रिदोषेस्याद विकृतौ च कुलक्षणे ॥ ४ बात के कोपसे जीभ शून्य फटीसी और मीठी होती है तथा स्तब्ध और हरितवर्ण तथा लार गिरे, पित्तके कोपसे जिह्वा लाल और दूध पीनेसे कड़वी होय, दाहयुक्त कंदूरी फलकासा वर्ण और कांटोंसे आच्छादित होती है, कफके कोपसे मोटी, भारी, कफसे लिहसी, मोटे कांटेयुक्त, खारी और बहुत कफ गेरनेवाली ऐसी जीभ होती है, दो दोषके कोपसे दो दोषोंके लक्षण होते हैं और नोनकासा स्वाद होता है और त्रिदोष के कोपसे तीनों दोषोंके लक्षणयुक्त और खोटे लक्षणयुक्त होती है ॥ १--४ ॥
मलपरीक्षा |
त्रुटितं फेनिलं रूक्षं धूम्रलं वातकोपतः । वातश्लेष्मविकारे च जायते कपिशं मलम् ॥ १ ॥ बुद्धं सुत्रुटितं पीतं श्यामं पित्तानिलाद्भवेत् । पीतं श्यामं श्लेष्मपित्तादीषदाई च पिच्छलम् ॥ २ ॥ श्यामं त्रुटितपीताभं बद्धवेतं त्रिदोषतः ।
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः (१३)
दुर्गन्धः शिथिलश्चैव विष्टोत्सर्गो यदा भवेत् । तदाजीर्णमलं वैद्यैर्दोषज्ञैः परिभाष्यते ॥३॥ वातके कोपसे मल टूटा हुआ, झाग मिला, रूखा, धूम्रवर्ण और वात कफकी विकृतिसे पीला और लाल मिला (नारंगी) होता है, वात पित्तके योगसे मल बद्ध कभी टूटा पीला काला ऐसा होता है
और कफपित्तके कोपसे पीला, काला और किंचित् आर्द्र तथा चीकट ऐसा होता है, त्रिदोष ( सन्निपात ) के कोपसे काला, पीला, टूटा, सफेद और बद्ध ऐसा मल उतरे, अजीर्णवालेके मल दुर्गंधियुक्त शिथिल होता है ॥ १.-३ ॥
कपिलं ग्रंथियुक्तं च यदि व!ऽवलोक्यते । प्रक्षीणमलदोषेण दूषितः परकथ्यते ॥ ४ ॥ सितं महत्पूतिगन्धं मलं ज्ञेयं जलोदरे । श्यामं क्षये त्वामवाते पीतं सकटिवेदनम् ॥५॥ अतिकृष्णं चातिशुभ्रमतिपीतं तथाऽरुणम् । मरणाय मलं किन्तु भृशोष्णं मृत्यवे ध्रुवम् ॥६॥ वातादि दोष क्षीण होनेसे मल कपिल और गाढ़ा होता है । सफेद और अत्यन्त सडी गंधयुक्त मल जलोदर (जलंधर) वालेका होता है । क्षयीवालेका मल काला होता है और आमवात रोगवालेकी कमरमें पीडा सहित पीला होता है । अतिकाला, अत्यन्त सफेद अत्यन्त पीला और अतिलाल तथा अत्यन्त गरम मल समीपमृत्युवाले रोगीका होता है ४॥-६ ॥
अत्यग्नौ पीडितं शुष्कं मन्दानौ तु द्रवीकृतम् । दुर्गन्धं चन्द्रिकायुक्तमसाध्यं मललक्षणम् ॥७॥
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(१४) योगचिन्तामणिः। पाकाधिकारः
तीक्ष्ण अग्निवालेका मल सूखा होता है, मन्दाग्निवालेका मल पतला होता है, और दुर्गधि चंद्रिकायुक्त मल असाध्य रोगीका होता है ॥ ७॥
__ शद्वपरीक्षा। गुरुः स्वरो भवेच्छेप्मी स्फुटवक्ता च पित्तलः। उभाभ्यां रहितो वातः स्वरतश्चैव लक्षयेत् ॥१॥ कमवाले रोगीका स्वर भारी होय, पित्तवाला स्पष्ट बोले और बादीसे दोनों लक्षगरहित बोले अर्थात् घरघर शब्द बोले ॥ १ ॥
स्पर्शपरीक्षा। पित्तरोगी भवेदुष्णो वातरोगी च शीतलः । पिच्छिलः श्लष्मरोगी स्यात्रिलिंगात्सन्निपातवान् ॥
आईकः स भवेच्छ्लेष्मा स्पर्शतश्चैव लक्षयेत् ॥१॥ पित्तके रोगीका उष्णस्पर्श, वातरोगीका शीतल, कफरोगीका चिकना, अथवा पानीसे भीगासा और सन्निपातसे सर्वलक्षण युक्त होता है ॥ १॥
आयुर्विचार । भिषगादौ परीक्षेत रुग्णस्यायुः प्रयत्नतः । यत आयुषि विस्तीर्णे चिकित्सा सफला भवेत् ॥१॥ वैद्यको उचित है कि, प्रथम रोगीकी आयुका विचार करे। क्योंकि पूर्णायु होनेसे चिकित्सा सफल होती है ॥ १ ॥
आयुर्लक्षण। सौम्या दृष्टिर्भवेद्यम्य श्रोत्रवकं तथैव च । स्वादुगन्धं विजानाति स साध्यो नात्र संशयः ॥१॥ पाणी पादौ च यस्योष्णौ दाहः स्वल्पतरौ भवेत् ।
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(१५)
जिह्वाsतिकोमला यस्य स रोगी न विनश्यति ॥ २ ॥ स्वेदहीनो ज्वरो यस्य श्वासो नासिकया सरेत् । कण्ठश्च कफहीनः स्यात्स रोगी जीवति ध्रुवम् ॥३॥ जो रोगी की दृष्टि, कान, मुख ये सौम्प होंय और प्रसन्न दीखे तथा स्वाद और गन्धको जाने उस रोगीको साध्य जानना, इस विषय में संशय नहीं और जिस रोगी के हाथ, पैर गर्म होय शरीरमें मन्द दाह होय और जीभ अत्यन्त कोमल होय ऐसे रोगीका नाश नहीं होय, जिसके पसीना रहित ज्वर होय और श्वास नाककी राह निकले तथा कफहीन कंठ होय ऐसा रोगी नष्ट नहीं होय ॥ १-३ ॥
कालज्ञान ।
अक्षैर्लक्षितलक्षणेन पयसा पूर्णेन्दुना भानुना पूर्वादक्षिणपश्चिमोत्तरदिशां पद्विमासैककम् | छिद्रं पश्यति चेत्तदा दशदिनं धूम्राकृतिं पश्विमे । ज्वालां पश्यति सद्य एव मरणं कालोचितं ज्ञानिनाम् ॥ १॥
जो रोगी पानीमें सूर्य अथवा चन्द्रमा इनके प्रतिबिंब में पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर में छिद्र देखे तो क्रमसे छः तीन, दो और एक इतने महीने जीवे और सूर्य चन्द्रमाका धुएँकामा वर्ण दीखे तो दश दिन. उस प्रतिबिंच में दक्षिणकी ओर ज्वाला देखे तो तत्काल मृत्यु होय, यह कालज्ञान ज्ञानियोंने कहा है ॥ १ ॥
अरुन्धतीं ध्रुवं चैव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । आयुहना न पश्यन्ति चतुर्थी मातृमण्डलम् ॥ २ ॥
अरुंधती, ध्रुव, विष्णुके त्रिपद ( श्रवण नक्षत्र ) इनको और चतुर्थ मातृमण्डल (कृत्तिका के तारे ) को भी आयुवाला नहीं देखे ॥ २ ॥
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(१६)
योगचिंतामणि:
[ पाकांधिकारः
अरुन्धती भवज्जिह्वा ध्रुवो नासाग्रमेव च । विष्णुस्तु द्वयोर्मध्ये द्वयं मातृमण्डलम् || ३ || नासाग्रं भ्रूयुगं जिह्वां मुखं चैव न पश्यति । कर्णघोषं न जानाति स गच्छेद्यममंदिरम् ॥ ४॥ अरुंधती नाम जीका है, नासिकाके अग्रभागका नाम ध्रुव है दोनों भ्रुकुटियों के बीचका नाम विष्णु है और दोनों भौहेका नाम मातृमंडल है अर्थात् गतायु मनुष्य इनको नहीं देखते, नाकका अग्रभाग- दोनों भौंहे, जीभ, मुख इनको जो न देखे तथा अपने कानोंका शब्द न सुने सो यमराजके घरको जाय || ३ | ४ ॥
अकस्माद्धि भवेत्स्थूलो ह्यकस्माच्च कृशो भवेत् । अकस्मादन्यथाभावे षण्मासैश्च विनश्यति ॥ ५ ॥ रसनायाः कृष्णभावो मुखं कुंकुमसन्निभम् । जिल्हा स्पर्श न जानाति दुर्लभं तस्य जीवतम् ॥ ६॥ जो मनुष्य अकस्मात् ( विना कारणही ) मोटा होजाय और अकस्मात् पतला होजाय तथा अकस्मात् उलटे भावको प्राप्त होजाय वह रोगी छः महीने में मरे, जिसकी जीभ काली होजाय, मुख केशर के समान पीला होजाय और जीभ स्पर्शको जाने नहीं उस रोगी का जीना दुर्लभ है ॥ ५--६ ॥
देशज्ञान |
देशोऽल्पवारिदुनगो जाङ्गलः स्वल्परोगदः । अनूपो विपरीतोऽस्मात्समः साधारणः स्मृतः ॥ १ ॥
जिस देशमें अल्प जल, अल्प वृक्ष, अल्प पर्वत होंय उसको जांगल देश कहते हैं, जैसे मारवाडदेश है। ऐसे देशोंमें कम रोग होते हैं और जिस देशमें बहुत जल, बहुत वृक्ष, बहुत पर्वत होंय उसको अनूप देश
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः।
(१७)
कहते हैं, जैसे पूर्वके देश । इन देशोंमें रोग बहुत होते हैं और जिसमें दोनों देशोंके लक्षण मिलें उसको साधारण देश कहते हैं जैसे मध्य देशादि ॥१॥
औषधोंके ( मागध ) मानकी परिभाषा । न मानेन विना युक्तिव्याणां ज्ञायते क्वचित् । अतः प्रयोगकार्यार्थ मानमत्रोच्यते मया ॥१॥ त्रसरेणुबुधैः प्रोक्तस्त्रिंशद्भिः परमाणुभिः । त्रस. रेणुस्तु पर्याय नाना वंशी निगद्यते॥२॥ जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः । तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणुः स उच्यते॥३॥षड्वंशीभिर्मरीचिः स्यात्ताभिः पड्भिस्तु राजिका । तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः ॥ ४॥ यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुंजा स्यात्तञ्चतुष्टयम् । षभिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हेमधान्यकौ ॥ ५॥ विना मान ( तोल) के द्रव्य ( औषधी) की युक्ति नहीं जानी जाती इसीस प्रयोगके कार्यके साधनार्थ मान (तोल ) को कहता हूं-तीस परमाणुका एक त्रसरेणु, इसको वंशीभी कहते हैं. जालांतरगत सूर्यकी किरणमें जो छोटे २ रजके कण उडते हैं उनके हरएकके तीसवें हिस्सेको परमाणु कहते हैं । छः वंशीकी एक मरीची, छः
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(१८) योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकारःमरीचीकी एक राई, तीन राईका एक सरसों, आठ सरसोंका एक यह
और चार यवोंकी एक गुंजा (रत्ती) कहते हैं। छः रत्तीका एक मासा, इसको हेम और धान्यकभी कहते हैं ॥ १-५ ॥
मापैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते । टंकः स एव कथितस्तद्वयं कोल उच्यते ॥६॥ क्षुद्रभो वटकश्चैव द्रंक्षणः स निगद्यते । कोलद्वयं च कर्षः स्यात्सा प्रोक्ता पाणिका बुधैः ॥७॥ अक्षः पिचुः पाणितलं किंचित्पाणिश्च तिन्दुकम् । बिडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता ॥ ८ ॥ करमध्यं हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहम् । उदुम्बरं च पर्यायैः कप एवनिगद्यते ॥ ९॥ चार मासेका एक शाण उसको धरण तथा टंक भी कहते हैं. दो शाणका एक कोल उसको शुभ वटक द्रंक्षण कहते हैं. दो कोलका एक कर्ष कहाता है, उसको पाणिका अक्ष, पिचु, पाणितल, किंचि. त्पाणि, तिन्दुक, विडालपदक, पोडशिका, करमध्य, हमपद, सुवण कवलग्रह और उदुम्बर कहते हैं अर्थात् ये भी कर्षके नाम हैं ॥६-९॥
स्यात्कषाभ्यामधपलं शक्तिरष्टमिका तथा। शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिरानं चतुर्थिका ॥१०॥ प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते । पलाभ्यां प्रमृतिज्ञैया प्रसृतश्च निगद्यते ॥ ११ ॥ प्रमृतिभ्यामंजलिः स्यात्कुडवोऽर्धशरावकः ।
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (१९)
अष्टमानं च संज्ञेयं कुडवाभ्यां च मानिका॥ शरावोऽष्टपलं तवज्ज्ञेयमत्र विचक्षणैः ॥ १२ ॥ दो कर्षका एक अर्धपल होता है, जिसको शुक्ति तथा अष्टमिका भी कहते हैं, दो अर्धपलका एक पल होता है, जिसको मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुंच, षोडशी और बिल्व भी कहते हैं. दो पलकी एक प्रसूति होती है, जिसको कुडव, अर्धशराव और अष्टमान कहते हैं. दो कुडवकी एक मानिका, जिसको शराव और अष्टपल भी कहते हैं ॥ १०-१२ ॥
शरावाम्यां भवेत्प्रस्थश्चतुःप्रस्थस्तथाऽऽढकम् । भाजनं कंसपात्रं च चतुःषष्टिपलं च तत् ॥ १३ ॥ चतुर्भिराढोणः कलशो नल्वणोन्मनौ । उन्मानश्च घटो राशिोणपर्यायसंज्ञकाः ॥ १४ ॥ द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टिशरावकः । शूपाभ्यां च भवेद्रोणीवाहो गोणी च सास्मृता॥१५॥ दो शरावका एक प्रस्थ, चार प्रस्थका एक आढक, जिसको भाजन और कंसपात्र भी कहते हैं. इस आढकके चौसठ पल होते हैं. चार आढकका एक द्रोण जिसको प्रसृत भी कहते हैं दो प्रमृतिकी एक अंजली, जिसको कलश, नल्वण, उन्मन, उन्मान, घट और राशि भी कहते हैं. दो द्रोणका एक शूर्प और कुम्भ होता है तथा उस शूर्पके चौंसठ शराव होते हैं दो शूर्पकी एक द्रोणी जिसको वाह गोणी भी कहते हैं ॥ १३-१५॥ द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः। चतुःसहस्रपलिका षण्णवत्यधिका च सा॥ १६॥
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(२०) योगचिंतामणिः- [पाकाधिकार:पलिकानां द्विसहस्रं भार एकः प्रकीर्तितः। तुला पलशतं ज्ञेया सर्वत्रैवैष निश्चयः ॥ १७ ॥ माषटंकाक्षबिल्वानि कुडवः प्रस्थमाढकम् । राशिर्गोणीखारिकेति यथोत्तरचतुर्गुणाः ॥ १८॥ चार द्रोणीकी एक खारी उस खारीके चार हजार छियानवें पल होते हैं, दो हजार पलका एक भार होता है तथा सौ पलकी एक तुला होती है, ऐसे सर्वत्र निश्चय जानना ।। १६-१८ ॥
स्थिति स्त्येव मात्रायाः कालमग्निं वयो बलम् । प्रकृतिं दोपदेशौ च दृष्ट्वामात्रांप्रकल्पयेत्॥१९॥ यतो मन्दानयो ह्रस्वा हीनसत्त्वा नराः कलौ । अतस्तु मात्रा तयोग्याप्रोच्यते शास्त्रसंमता ॥२०॥ यो द्वादशभिगौरसर्षपैः प्रोच्यते बुधैः । यवदयेन गुना स्यात्रिगुञ्जो बल्लमुच्यते॥ २१ ॥ मात्राकी स्थिति नहीं है अर्थात् जो प्रयोगमें मात्रा लिखी है उतनीही देनी चाहिये यह नियम नहीं हैं । वेद्य काल, अग्नि, अवस्था, वल, प्रकृति, दोष और देश इनको देखकर अपनी बुद्धिसे मात्राकी कल्पना करे, क्योंकि इस कलियुगमें मन्दाग्नि, छोटे और हीनपराक्रम मनुष्य हैं इसी कारण उनके निमित्त शास्त्रसंमत मात्रा कहता हूं-बारह सफेद सरसोंका एक यव होता है दो बवकी एक गुंजा (रत्ती) होती है । तीन गुंजाका एक वल्ल होता है । १९-०२१ ॥ माषो गुनाभिरष्टाभिस्सप्तभिर्वा भवत्वचित् । स्याच्चतुषिकैः शाणः स निष्कष्टक एव च ॥२२॥
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (२१) गद्याणो माषकैः षभिः कर्षःस्यादशमापकः । चतुःकः पलं प्रोक्तं दशशाणमितं बुधैः। चतुःपलैश्च कुडवः प्रस्थायाः पूर्ववन्मताः॥२३॥
आठ मुंजाका एक मासा होता है; कहीं सात मुंजाकाभी मासा होता है. चार मासेका एक शाण होता है, उसको निष्क टंक भी कहते हैं. तीन टंकका एक तोला होता है, छः मासेका एक गद्याणक होता है. दश मासेका एक कर्ष होता है, चार कर्षका एक पल होता है वा एक पलका दश शाण होते हैं । चार पलका एक कुडव होता है और प्रस्थादिकोंका मान पूर्वोक्त मागध परिभाषाके मानसे जानलेना (पांच पल और साढे सात मासेकी एक छटांक ), तीन प्रस्थ और साढे बाईस मासेका पौन पाव होता है ॥ २२-२३ ॥
अथ शारीरक।
कलाः सप्ताशयाः सप्त धातवः सप्त तन्मलाः। सप्तोपधातवः सप्त त्वचःसप्तप्रकीर्तिताः ॥१॥ त्रयो दोषा नवशतं स्नायूनां सन्धयस्तथा । दशाधिकं च द्विशतमस्थ्नां च द्विशतं मतम् ॥२॥ सप्तोत्तरं मर्मशतं शिराः सप्तशतं तथा। चतुर्विंशतिराख्याताधमन्यो रसवाहिकाः ॥३॥ मांसपेश्यः समाख्याता नृणां पञ्चशतं बुधैः। स्त्रीणां च विंशत्यधिका कण्डराश्चैव षोडश ॥४॥ नृदेहे दश रंध्राणि नारीदेहे योदश । एतत्समासतः प्रोक्तं विस्तरे. धुनोच्यते ॥५॥
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(२२)
योगचिन्तामणि:-
[पाकाधिकार:
RSS
BSI
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सात कला, सात आशय, सात धातु, सात ही धातुओंके मल, सात उपधातु, सात त्वचा, तीन दोष, नौ सौ नाडी, दो सौ दश नाडियोंकी सन्धि, दो सौ हड्डी, एक सौ सात मर्मस्थान, सात सौ नसें, चौबीस रसकी बहने वाली धमनीनाडी, पांच सौ मांस पेशी हैं. स्त्रियोंके बीस अधिक हैं सोलह कंड़रा, पुरुषके देहमें दश छिद्र हैं. स्त्रीके देहमें तेरह छिद्र हैं यह संक्षेपसे शारीरक कहा है। अब विस्तारसे कहता हूं ॥ १--५ ॥
मांसामृङ्मेदसां तिस्रो यकृत्प्लीबोश्चतुर्थिका । पञ्चमीच तथाऽन्त्राणां षष्ठी चानिधरा स्मृता॥ रेतोधारा सप्तमी स्यादिति सप्त कला मताः॥६॥ १ मांस, २ रुधिर, ३ मेद, ४ प्लीह, ५ यकृत-आंतोंकी पांचवीं, ६ अग्निधरा और वीर्यके धारण करनेवाली सातवीं कला है. ये सात कला हैं ॥ ६ ॥
श्लेष्माशयः स्यादरसि तस्मादामाशयस्त्वधः ॥७॥ उर्ध्वमग्न्याशयो नाभेर्वामभागे व्यवस्थितः।
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (२३)
तस्योपरि तिलं ज्ञेयं तदधः पवनाशयः॥ ८॥ मलाशयस्त्वधस्तस्मादस्तिमूत्राशयस्त्वधः। जीवरक्ताशयमुरो ज्ञेयाः सप्ताशयास्त्वमी ॥९॥ पुरुषेभ्योऽधिकाश्चान्ये नारीणामाशयास्त्रयः। धरा गर्भाशयः प्रोक्तःस्तनौ स्तन्याशयौ मतौ॥१०॥ उरमें कफाशय है, उसके नीचे आमाशय है, उसके ऊपर नाभिके वामभागमें अग्न्याशय है, उसके ऊपर तिल है, यह प्यासका स्थान है। उसके नीचे पवनाशय है, पवनाशयके नीचे मलाशय है, मला' शयके नीचे मूत्राशय है, उरमें जीवरक्ताशय है । ये सात आशय हैं । पुरुषोंसे स्त्रियोंके तीन आशय आधिक हैं एक गर्भाशय और दो स्तनाशय ॥ ७-१० ॥ रसामृङ्मांसमेदोस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः । जायन्तेऽन्योन्यतः सर्वे पाचिताः पित्ततेजसा ॥११॥ रस, रधिर, मांस, मेदा, अस्थि (हड्डी), मज्जा और शुक्र ये सात धातु पित्तके तेजसे पाचन होकर अन्यान्य प्रकट होते हैं ॥ ११ ॥ जिह्वानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रञ्जकम् । कर्णविड्रसनादन्तकक्षमेद्रादिजं मलम् ॥ १२॥ नखनेत्रमलं वक्रे स्निग्धत पिडिकास्तथा । जायन्ते सप्त धातूनां मलान्येतान्यनुक्रमात् ॥१३॥
जीभ, नेत्र और कपोल इनमें जो जल है वह रस धातुका मल है, रंजकपित्त रुधिरका मल है, कानका मैल मांसका मल है । जीभ, दांत, बगल और लिंग इनमें जो मल होता है वह मेदका मल है। नख, केश, रोम ये हड्डीके मल हैं नेत्रमें जो कीचड आती है और
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( २४ )
योगचिंतामणिः ।
[पाकाधिकारः
मुखकी चिकनाई यह मज्जा धातुका मल है. मुखक मुहांसे शुक्रका
मल है ॥ १२ ॥ १३ ॥
स्तन्यं रजश्च नारीणां काले भवति गच्छति । शुद्ध मांसभवः स्नेहो वसा सा परिकीर्तिता ॥ १४ ॥ स्वेदो दन्तास्तथा केशास्तथैवौजश्च सप्तमम् | ओजः सर्वशरीरस्थंस्निग्धं शीतं स्थिरं सितम् ॥ १५॥ सोमात्मकं शरीरस्थं बलपुष्टिकरं मतम् । इति धातुमला ज्ञेया एते सप्तोपधातवः ॥ १६ ॥ रसकी उपधातुसे स्त्रियोंको दूध होता है, रुधिरकी उपधातु रज, यह स्त्रियोंके समय पाकर होता है, नष्ट भी होजाता है । चरवी मांसकी उपधातु हैं जिसको वसा कहते हैं, स्वेद मेदाकी उपधातु है, दांत अस्थिकी उपधातु है, केश मजाबाकी उपधातु है, और रज शुक्रधातुकी उपधातु है, ओज सर्व देहमें रहता है, चिकना शीतल स्थिर और सफेद है । यह ओज सोमात्मक शरीरमें स्थित होकर देहमें बल और पुष्टता करता है । ये सात धातुओं से सात धातु पैदा होती हैं ॥ १५ ॥ १६ ॥
ज्ञेयाऽवभासिनी पूर्व सिध्मस्थानं च सा मता । द्वितीया लोहिता ज्ञेया तिलकालकजन्मभूः ॥ १७॥ श्वेता तृतीया संख्याता स्थानं चर्मदलस्य च । ताम्रा चतुर्थी विज्ञेया किलासश्चात्र भूमिका ॥ १८ ॥ पञ्चमी वेदनी ख्याता सर्वकुष्टोद्भवस्ततः । विख्याता लोहिता षष्ठी ग्रंथिगण्डापचीस्थितिः ॥ १९ ॥ स्थूला वक्सप्तमी ख्याता विद्रध्यादेः स्थितिस्तु सा । इति सप्त त्वचः प्रोक्ताः स्थूला व्रीहिद्विमात्रया ॥ २० ॥
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २५ )
प्रथम त्वचा अवभासिनी है सो सिध्मकुष्ठकी भूमि है, दूसरी त्वचा लोहिता है सो तिलकालककी जन्मभूमि है, तीसरी त्वचा श्वेता है जो चर्मदल कुष्ठकी जगह है, चतुर्थ ताम्रा सो किलासकुककी ठौर है, पांचवी वेदनी है सो सम्पूर्ण कुष्ठोंकी जगह हैं, छठवीका भी नाम लोहिता है सो गांठ, गण्डमाला, अपची आदि रोगोंकी जगह है, सातवीं त्वचा का नाम स्थूल है सो विद्रधि आदि रोगोंकी जन्मभूमि हैं, ये सात त्वचा कहीं हैं, इन सातोंका मुटान दो यवकी बराबर है || १७ || २० || इति शारीरक ||
अथ पाकविधि | चिकित्सायां द्वयं सारं पाकविद्या रसायनम् । पाकावलेहभेदः स्यात्स मृदुः सघनः परः ॥ १ ॥ चिकित्सा में दो वस्तु सार हैं- एक पाकविद्या, दूसरी रसायनविद्या । इनमें नरम और कठिनके भेदसे पाक दो प्रकारका है अर्थात जिसकी चासनी कुछ पतली होय उसको अवलेह कहते हैं और जिसकी चासनी कड़ी करके जमाया जावे उसको पाक कहते हैं ॥ १ ॥ तत्रादौ शिक्षा ।
काष्टौषध्यः पृथक्पेष्याः सुगन्धादिपृथग्विधाः । सम्पेष्य वस्त्रसंपूतमुभयं स्थापयेद्भिषक् ॥ २ ॥ द्राक्षाश्रीफलबादामप्रभृतिः स्याद्यदाऽत्र तु । तन्न पेष्यं भिषग्वर्यैः किन्तु भूरिविखण्डयेत् ॥ ३ ॥ खमतण्डुलचारस्य बीजानि तु यथा स्थितिः । पाकद्राक्षादिचारस्य मज्जा तन्मात्रयाऽधिकम् ॥ ४॥ पाकनुसारतो ग्राह्यं भक्षणे तत्सुखावहम् । पाककर्ता वैद्यको उचित है कि काष्टादि औषधियोंको न्यारी पीसे और सुगन्धादि जैसे लौंग इलायची जावित्री आदिको न्यारी पीसे ।
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(२६)
योगचिन्तामणिः
[ पाकाधिकारः
पीछे इनका कपड़छान करके न्यारी न्यारी रक्खे और दाख, गिरीका गोला, बदाम इत्यादिक वस्तुओंको पीसे नहीं किन्तु बहुत छोटे २ टुकडे करडाले खसखस, चिरौंजी इत्यादिको ज्यों की त्यों रहनेदे न पीसे न कतरे, ये चीजें पाक के अंदाजसे डालनी चाहिये तो खाने में पाक श्रेष्ठ बने ॥ २ ॥ ४॥
पाके जाते क्षिपेत्तत्र काष्टौषधिभवं रजः ॥ ५ ॥ दर्या विघट्टयेत्सम्यक् क्वचिदुष्णे सुगन्धि च । मुहुर्विघट्टयन्पश्चाद्राक्षादीन् प्रक्षिपेन्मुहुः || ६ || काश्मीरं घृतसंपिष्टं किचिद् घृष्टं विमिश्रयेत् । अहिफेनं क्षिपेत्क्षीरे संपिष्टं पाककर्मणि ॥ ७ ॥ देया शक्राशना भृष्टा चूर्णिता मात्रयाऽथवा । पुनः संघट्टयेत्सर्वमेकीभावं यथा व्रजेत् ॥ ८ ॥ ज्वालानि वर्जयेद्वैद्यः प्रक्षेपसमये ध्रुवम् । अन्यथा ही वीर्याणि भेषजानि प्रतापतः ॥ ९ ॥
जब पाक की चासनी तैयार होजाय उस समय पूर्वोक्त पीसी हुई काष्ठौषधि डालकर करछी से चलाता जाय, जब सब काष्ठादिक औषधि मिलजायँ और चासनी कम गर्म रहे तब सब सुगंधादि वस्तुओंको डाले फिर चलावे, तदनन्तर दाख गिरी आदि मेवा डाले पीछे केशरको घृतमें पीस उसमें मिलांदेवे । कदाचित् पाकमें अफीम डालनी होवे तो दूध में पीसकर डाले और भाग डालना होवे तो भूनकर और उसका चूर्ण कर डाले, पीछे इनको करछी से चलावे जिससे सच मिलजावें और यह बात भी बैद्यको याद रहे कि, जिस समय औषधि डाले उस समय अग्निको न देय क्योंकि औषधि डालने के समय अग्नि देनेसे औषधि दीनवीर्य होजाती हैं ॥ ५ ॥ ९ ॥
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(२७)
प्रथमः] भाषाटीकासहितः।
अनुक्तमपि पाकादौ धात्वादि प्रक्षिपेत्सुधीः।। चन्द्रनाभ्यादि तद्वच्च यथाविभवमर्पयेत् ॥ १० ॥ नाभ्याऽजिते तु संस्थाप्य संपुटे तन्महौषधम् । यदि स्याद्राजदृग्योग्यमिति वैद्यवरा विदुः ॥ ११ ॥ पाकमें नहीं भी कहे धात्वादि चन्द्रोदय, वङ्ग, अभ्रक आदि अपने अन्दाजसे जरूर डाले, भीमसेनी कपूर और कस्तूरी आदिशब्दसे अम्बर, सोने, चांदीके वर्क आदिभी डालने चाहिये । तदनन्तर उसको किसी पात्रमें निकाललेवे, कतली जमानी होवे तो किसी थाली में उतारकर जमावे उनमें सोने या चांदीके कोइतासे तबक लगाकर कतली काटकर रखलेवे तो पाक राजालोगोंके खाने योग्य बने
और अवलेह बनानी होय तो चासनी कुछ पतली रख और लड्डू बनाने होवें तो कतलीके समान चासनी बनावे परन्तु उसको कडाहीमेंही कौंचेसे चलाकर गाढी करलेवे ॥ १० ॥ ११ ॥
सुगन्धितैलाचितभाजने वैस्थाप्योऽवलेहः किल राजयोग्यः । वर्षासु वैद्याः प्रवदन्ति पाकलेहादिकं नो बहु तत्प्रकुर्यात् ॥ १२ ॥ मितं कृतं द्वित्रिदिनान्तरालं स्थाप्यं सुधर्मे झवलेहकादि । वर्षाऋतौ यत्नविवर्जितं तद्भवेत्तु जुष्टं किल जन्तुकीटः ॥ १३ ॥ सुगन्धवाले और चिकने पात्रमें अवलेह को रखना चाहिये । वर्षा ऋतुमें पाकका बनाना श्रेष्ठ है और ऋतुमें अवलेह, कदाचित् वर्षा ऋतुमें अवलेह बनानी होय तो थोडी बनावे बहुत न बनाये और उसको बनाकर दो तीन दिन धूपमें रखकर पीछे उसके मुखको यत्नपूर्वक बाँधे कि, जिसमें कोई जीव नजा सके और धूल आदि न पडे,
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( २८ )
योगचिन्तामणि:
[ पाकाधिकारः-
इस प्रकार बांधकर अच्छे हवादार मकान में रखदेवे क्योंकि, वर्षाऋतु में विना यत्नके रखने से जीव आदि पडजाते हैं ॥ १२ ॥ १३ ॥
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पाके ग्राह्या सिता श्वेता विमला गुणकारिणी । समलां शोधयेद्यत्नाद्यावन्मलविनिर्गमः || १४ || समलां च सितां प्लाव्य कटा हे विरचेत्सुधीः । प्रक्षिपेत्सर्वतस्तत्र गोदुग्धं सजलं मुहुः ॥ १५ ॥ वस्त्रपूतक योगेन तदूर्ध्वस्थं मलं हरेत् । एवं पुनः पुनः कुर्याद्यावन्मलविनिर्गमः । पश्चात्पाकत्वमानीय प्रक्षिपेदौषधानि तु ॥ १६ ॥ इति प्रोक्तंमया किञ्चित्पाकशासनमुत्तमम् । अन्यत्सर्वं भिषग्वय्यैकतो ज्ञेयमेवतत् ॥ १७॥
पाक बनानेको सफेद और उत्तम खांड ( चीनी ) लेनी चाहिये । यदि उसमें मैल होय तो उसका शोधन इस प्रकार करे --मैलवाली खांडको कडाही चढाकर अंदाजसे उसमें जल डालकर औटावे, जब कुछ औट चुके तव पानी मिला दूध उसमें चारों तर्फ डाले, जब मैल चासनी के ऊपर आजाय तब एक पात्र पर दो लकडी रखकर उसमें छोटीसी डलिया रखकर उसमें बारीक कपडा बिछाकर पूर्वोक्त कडाही - मेंसे उस रसको निकालकर डलियामें डाले तो वह रस उस डलियामेंसे टपक टपक कर नीचेके पात्र में गिरे, उसको हलवाई बक्खर कहते हैं, उस खांडका मैल उस डलिया में रहजाता है, पीछे उस aratकी चासनी करे, उसमें पीसी हुई औषधी डालें, यह मैंने कुछ पाक बनानेकी विधि कही हैं और विशेष विधि लोकसे अर्थात् पाककर्ता हलवाई आदिसे जाननी चाहिये ॥ १४ - १७ ॥
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(२९)
प्रथमः] भाषाटीकासहितः।
बृहत्पूगीपाक। पूगं दक्षिणदेशजं दशपलोन्मानं भृशं कर्तयेत् तक्षिप्तं जलयोगतो मृदुतरं सङ्कुटय चूर्णीकृतम् । तच्चूर्ण पटशोधितं वसुगुणे गोशुद्धदुग्धे पचेद् द्रव्याज्याञ्जलसंयुतेऽतिनिबिडैदद्यात्तुला? सिताम् ।। दक्षिणी सुपारी दशपल (१६० टंक ) लेवे, उनको कतरकर जलमें भिगोकर कूटडाले पीछे सुखाकर उस चूर्णको कपडछान करे । तदनन्तर सुपारीके चूर्णसे अठगुने दूधमें उस चूर्णको डालकर खोवा करे पीछे उस खोवाको उत्तम घृतमें भूनकर रक्खे पीछे मिश्री ८०८ टंक लेय ॥ १॥ पकं तज्ज्वलनाक्षितिं प्रतिनयेत्तस्मिन्पुनः प्रक्षिपेदद्यात्तत्तदुदाहरामि बहुलादृष्ट्वा वरात्संहितात् । एला नागबला बला सचपला जातीफलालिङ्गिता जातीपत्रकमत्र पत्रकयुतं तच्च त्वचा संयुतम् ॥२॥ विश्वा वीरणवारिवारिदवरा वांशी वरी वानरी द्राक्षा सक्षुरगोक्षुराऽथ महती खजूरिका क्षीरिका । धान्याकं सकसेरुकं समधुकं शृङ्गाटकं जीरकं पृथ्वीकाथ यवानिका वरटिका मांसी मिसिमेंथिका ॥३॥ कन्देष्वत्र विदारिकाथ मुशली गन्धर्वगन्धा तथा कचूरं करिकेशरं समरिचं चारस्य बीजानि च । बीजं शाल्मलिसंभवं करिकणाबीजं च राजीवजं श्वेतं चन्दनमत्र रक्तमपि च श्रीसंज्ञपुष्पैः समम् ॥४॥
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(३०)
योगचिन्तामणिः-- [पाकाधिकारः
मिश्रीको चासनी करै जब पाकके योग्य चासनी हो जाय तब इतनी औषधी और डालै, सो मैं लिखता हूं-इलायची, नागवला (गुलसकरी ), बला (बरिआरी ), पीपल, जायफल, शिवलिंगी, जावित्री, पत्रज, दालचीनी, सोंठ, उशीर, सुगन्धवाला, नागरमोथा, हरड, बहेडा, आंवला, वंशलोचन, शतावर, कौंचके बीज, तालमखाने, दाख, गोखरू, महती ( उत्तत्ती ). खजूर इति पूर्वदेश प्रसिद्ध छुहारे, खिरनी, धनियां, कसेरू, महुवा, सिंघाडे, जीरा, मगरेल, अजमायन, बरउ,जटामांसी. सौंफ, मेथी. विदारीकन्द, मूसली, असगन्ध, कचूर, नागकेशर, काली मिरच, चिरौजी, सेमरकेबीज, गजपीपल, कमलगट्टा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, धायके फूल ये सब बराबर लेवे ॥ २--४॥ सर्व चेति पृथक्पृथक्पलमितं संचूर्ण्य तत्र क्षिपे
सूतं वङ्गभुजङ्गलोपगगनं संमारिता स्वेच्छया। कस्तूरीघनसारचूर्णमपि च प्राप्तं यथा प्रक्षिपेत्पश्वादस्य तु मोदकान्विरचयेद्विल्वप्रमाणांस्तथा ॥५॥ तान्भुक्त्वा च सदा यथानलबलं भुनी नाम्लं रसं पूर्वस्मिन्नशिते गते परिणते प्राग्भोजनाद्भक्षयेत् । नित्यं श्रीरतिवल्लभाख्यकमिमं यः पूगपाकंभजेत्स स्याद्रीयविवृद्धवृद्धमदनो वाजीव शक्तो रतौ ॥६॥ दीप्ताग्निबलवान् वलीविरहितो दृष्टः सुपुष्टः सदा वृद्धो योऽपि युवेव सोऽपि रुचिरःपुर्णेन्दुवत्सुंदरः । ७॥ ये सब औषधि न्यारी न्यारी एक एक पल ले सबको कूट पीस पूर्वोक्त चासनीमें गेरे,तदनंतर चन्द्रोदय,वंग नागेश्वर, लोह, अभ्रक ये भी अनुमान
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प्रथमः ] भाषाटीकासहितः। (३१) मुवाफिक वैद्य डाले और कस्तूरी, कपूर, अंबर आदिभी अनुमान मुवाफिक डालकर इसके लड्डू बेलकी बराबर बनावे ये लड्डू मनुष्यकी अग्निका बलाबल देखकर भोजन के पहले देवे और खटाई और बादीका परहेज रक्खे तो “रतिवल्लभपूगीफलपाक ' नामसे विख्यात यह पाक वीर्यको बढावे. कामदेवको प्रबल करे, स्त्रियोंसे भोग करनेमें घोडेके समान पराक्रम करे, अग्निको प्रबल करे, बली हृष्ट पुष्ट होय, यदि बृद्ध मनुष्य भी खाय उसमें तरुण पुरुपकासा पराक्रम होय, चन्द्रमाके सदृश सुन्दर होय ॥ ५-७ ॥
कामेश्वर मोदक। एतस्मिन्रतिवल्लभे यदि पुनः सम्यक्खुरासानिका धत्तूरस्य च बीजमर्ककरभः पाथोधिशोषस्तथा । सन्माजूफलकं तथा खप्तफलं त्वचापि निक्षिप्यते चूर्णाऱ्या विजयातथा स हि भवेत्कामेश्वरो मोदकः । इसी रतिवल्लभ पूगीपाकमें खुरासानी, अजमायन, धत्तूरेके बीज, अकर करा, समुद्रशोष, माजूफल, खसका फल, तज ये डाले और सब चणस आधी भांग डाले तो यह कामेश्वर मोदक बने ॥ १॥
छोटा सुपारीपाक । हेमाम्भोधरचन्दनं त्रिकटुकं जातीप्रियालं कुहूमज्जा चित्रिसुगन्धजीरयुगलं शृंगाटकं वंशजम् । जातीकोशलवंगधान्यकयुतं प्रत्येककर्षद्वयं हैयंगोः कुडबः सिताईतुलना धात्री वरा व्याली॥ पूग स्याष्टपलान्युलूखलवरे संकुटय चूर्णीकृतं क्षीर स्थाढकसंयुतं कृतमिदं मन्दाग्निना तं पचेत् ॥ १ ॥
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(३२)
योगचिन्तामणि:
[ पाकाधिकारः -
नागरमोथा, चंदन, सोंठ, मिरच, पीपल, जावित्री, चिरौंजी, बेरकी मींगी, तज, इलायची, तालीसपत्र, काला जीरा, सफेद जीरा, सिंघाडेकी गिरी, वंशलोचन, जायफल, लौंग धनियां कर्पूर, दालचीनी ये सब वस्तु बराबर प्रत्येक आठ आठ टंक लेनी, सबको कूट पीस कपड़छान कर रख छोडे । पीछे दक्षिणकी चिकनी सुपारी १२८ टंक, गौका नवीन घृत ६४ टंक, सफेद मिश्री ८०८ टंक लेवे । पीछे सुपारियोंको खरल में डाल कूटकर कपड़छान कर १२४ टंक दूधर्मे डालकर खोवा करे पीछे उस खोवाको घृत मिलाकर भूने, पीछे पूर्वोक्त सुपारीपाककी विधिसे इस पाकको बनाय लेवे ॥ १ ॥
खादेत्प्रातरिदं ज्वरामयहरं दाहं च पित्तं जये - न्नासाऽस्याऽक्षिगुदप्रवाहरुधिरं यद्रोमकूपच्युतम् ॥ २ ॥ यक्ष्मा क्षीणबलं क्षतानिविलयं छर्दिप्रमेहार्शसां रेतोवृद्धिकरं रसायनवरं गर्भप्रदं योषिताम् । मूत्राघातविनाशनं बलकरं वद्धाङ्गपुष्टिपदं पूगीपाकमिदं प्रशस्तदिवसे कार्य च ग्राह्यं बुधैः ॥ ३ ॥ इस सुपारीपाकको प्रातःकाल सेवन करनेसे इतने रोग नष्ट होवेंज्वर, दाह, पित्त के रोग, नेत्ररोग, मुखरोग, नासिकारोग, गुदाकेरोग, रुधिरका गुदाद्वारा गिरना, रोमकूपोंसे रुधिरका निकलना, क्षयसे क्षीणता, उरःक्षत, मंदाग्नि, वमन, प्रमेह, बवासीर । और यह रसायन वीर्यको वढावे स्त्रियोंको गर्भकर्ता है, मूत्राघातको नाश करे, बल करे | वृद्ध देद्दकी पुष्ट करे, इस सुपारी पाकको वैद्य शुभ दिन में बनावे और शुभ दिनमेंही खानेको देवे ॥ २ ॥ ३॥ विजयापाक |
विजयाया रसं शुद्धं तुलामात्रं प्रदापयेत् । क्षीरं गव्यं तुलार्द्ध तु शनैर्मृद्रमिना पचेत् ॥ १ ॥
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (३३)
घनीभूतं तदुत्तार्य खण्डायाः पलविंशतिः। चातुर्जातं लवङ्गं च व्योषमाकल्लकं तथा ॥२॥ जातीफलं जातिपत्री ह्यश्वगन्धा पुनर्नवा । नागार्जुनीस्वगुप्तानां सबलानां पलार्द्धकम् । सर्व संचूर्ण्य संमिश्य पलार्द्धगुटिका भवेत् ॥३॥ भांगका रस १६-१६ टंक ले और दूध तथा घृत ८०८ टक लेना चाहिये, इन सबको मिलाकर धीरे धीरे मन्दाग्निसे पाचन करै- जब गाढा होजाय तब चूल्हेसे उतार लेय पीछे मिश्री बीस पलकी चासनी कर उसमें पूर्वोक्त भांगके रसका खोवा डाले और य औषधी और डाले-चातुर्जात, लौंग, सोंठ, मिरच' पीपल, अफरकग, जायफल, जावित्री, असगंध, सोंठ, दुद्धी, पौंचके बीज, बाला (वरिआरा) ये सब औषधि आठ आठ टंक लेय कूट पीस कपडछान कर मिलाय लड्डू बना लेये ॥ १-३ ॥.
प्रातः प्रातः प्रभुक्ता हि धातुपुष्टिबलप्रदा। प्रमेहव्याधिशमनी सर्वातीसारनाशिनी ॥४॥ श्वासं कासं तथा पाण्ढयं स्त्रीणां दुःप्रदरं तथा।
नाशयत्येव वृष्याऽऽशु वीर्यस्तंभविधायिनी ॥५॥ : प्रातःकाल इस विजयापकको सेवन करे तो धातुपुष्टि होय, बल करे, प्रमेह जाय, सब प्रकारके अतीसार, श्वास, खांसी, नपुंसकता, स्त्रियोंके प्रदरादिरोगोंको नाश करे और वीर्यका स्तंभन करता है ॥ ४ ॥५॥
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(३४) योगचिन्तामणिः। पाकाधिकार:--
कामेश्वरपाक (दूसरा विजयापाक ) । सम्यङ्मारितमभ्रकं कटुफलं कुष्ठाऽश्वगन्धाबला मेथी मोचरस विदारिमुशली गाक्षारक क्षारकम् । रम्भाकन्दशतावरी अजमुदा माषा तुलाधान्यकं ज्येष्ठी नागबला कचूरमदनो जातीफलं केशरम्॥१॥ भाङ्गी ककटशृंगशंगत्रिकुटा जीरद्वयं चित्रकं चातुर्जातपुर्ननवा गजकणाद्राक्षासिणावासिकः। बीजं मर्कटशाल्मली फलनिक चूर्ण समं कल्पयेत्तुयाशं विजया सिता द्विगुणितामध्वाज्यपिण्डीकृता॥२ कर्षाद्ध गुटिकावलेहमथवा कृत्वा सदा सेवये. देयं क्षीरसिता च वीयकरणं स्तम्भोऽप्यलं कामिनाम्। रामावश्यकरं सुखातिसुख सङ्गे गन्नानावकं क्षीणे पुष्टिकरं क्षये क्षयकरं हन्याच सर्वामयान् ॥३॥ कासश्वासमहातिसारशमनं श्लेष्माणमुग्रं जये. नित्यानन्दकरं विशेषकवितावाची विलासप्रदम् । धत्ते सर्वगुणान्किमत्र बहुना पीयूषमेतत्परमभ्यासेन निहन्ति मृत्युपलितं कामेश्वरो वत्सरात्।। सुंदर फूंकी अभ्रक, कायफल, कठ, असगन्ध, खरेटी, मेथी, मोचरस, विदारीकन्द, मूसली, 'गोखरू, क्षीरकन्द, केलाकंद, शतावर, अजमोद, उड़द, काले तिल, धनियां, मुलहठी, गंगेरनकी छाल, कपूर, कस्तूरी, जायफल, केशर, भारंगी, काफडासिंगी, भांगरा, त्रिकुटा, दोनों जीरे, चित्रक, चातुर्जात, सांठकी जड, गजपीपल, दाख, सनके
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(३५)
बीज, अडूसा, सेमलके बीज, कौंच के बीज, त्रिफला ये औषषि बराबर लेकर इन सबकी चौथाई भांग ले और सब औषधियोंसे दूनी मिश्री डाले पीछे शहद और घी डालकर दो दो टंकके अनुमान लड्डू बनालेवे अथवा अवलेह बनाकर नित्य सेवन करे और इसके ऊपर दूध पीवे तो वीर्यस्तंभन होवे, स्त्रियोंको वश करे, अत्यन्त सुख दे, स्त्री द्रवें, क्षीण मनुष्योंको पुष्टि करे, क्षयको दूर करे, सब रोगोंको नष्ट करे, खांसी, श्वास, घोर अतीसार, घोर कफके रोग इनका नाश करे, सदैव आनन्द कर्ता, कविता करने की शक्तिको बढावे, सर्वगुण धारणकर्ता होवे बहुत कहने में क्या है. यह अमृतके तुल्य है. इसको एक वर्ष सेवन करने से मृत्यु और पलितरोगादिक सब नष्ट होवें ॥ १-४ ॥
स्त्रीयोग्य सौभाग्यशुंठी ।
प्रस्थत्रयं शुद्धमहौषधस्य विपाचयेद्गव्यघृते समे च। चतुर्गुणः क्षीरसमं च खण्डं सुशुद्धताम्रायसजे कटाहे || १ || प्रत्येकजातीफलत्रैफलेन जातीद्वयं धान्यशताह्वयेन । एलोपकुल्याघनवालकानां द्राक्षा विदारी घनसारकं च ॥ २ ॥ खर्जूरिकाचैव पलार्द्धमात्र पलाष्टकं शीर्षफलं विदध्यात्। पादांशमेवाश्मजिदायसं च द्विपादयुक्तं मिसिचारुबी. जम् ॥ ३ ॥ त्रिवृत्पलाष्टौ शुभमेकपिंडीगन्धाढयमाधुर्यविमिश्रिता च ॥ ४॥
वाडकी सोंठ पांच सेरको पांच सेर गौके धीमें भूने पीछे उस सोंठको बीस सेर गौके दूधमें खोवा करे तदनंतर बीस सेर
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( ३६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारा:
1
मिश्रीकी चासनी करे उसमें उस खोवेको डाले और ये औषधी बौर डाले । सो लिखता हूं - जायफल हरडा, बहेडा, आंवला, दोनों जीर, धनियां, सौंफ, पीपल, इलायची, पीपल, नागरमोथा, नेत्रवाला, दाख, विदारीकंद, भीमसेनी कपूर, छुहारे ये सब औषधि आठ आठ टंक लेनी चाहिये, नारियलकी गिरी १२८ टंक लेनी, शिलाजीत ३२ टंक, चिरौंजी ६४ टंक, निसोथ १२८ टंक इन सबको कूट पीस उसी पाककी चासनी में मिलावे तथा उसमें सुगंधवानी वस्तु और मिलाकर अनुमान मुवाफिक गोली बनालेवे ॥ १४ ॥ सौभाग्य शुण्ठी । शम्भोरुमाप्रीतिकरा च शुण्ठी ब्रह्मास्यतोऽश्रूयत नारदेन । शंभोः कृता वक्षसि कालिकायाः स्थिरं बलं कान्तिदृढं करोति ॥ १॥ सौभाग्यमेधास्मृतिमिष्टवाक्यं सौभाग्यसौन्दर्यमृदुं च गात्रम् । काठिन्ययोनि स्तनबिम्ब देशमशीतिवातान्कफरोगविंशतिम् ॥ २ ॥ चत्वारिंशत्पित्तभवाश्च ये च अष्टौ ज्वरानेकविमिश्ररोगाः । अष्टादशमूत्रगताश्च रोगा नासाक्षिकर्णे मुखशीर्षकेतु ॥ ३ ॥ एतन्मात्रानुसारेणार्द्धमात्रया चतुर्थांशेन कार्यम् ॥
शिव पार्वतीके' प्रितिकर्ता यह सुहागसोंठ नारदने ब्रह्माके मुख से सुनी । श्रीमहादेवजीने बनाकर पार्वतीको सुनाई यह स्थिर बल कांति मौर दृढताको करती है सुन्दरता बुद्धि स्मरण तथा मिष्टवाक्यको करती है सुभग और नरम देहको करै, योनि और स्तन इनको कठोर करे, अस्सी प्रकारकी वादी और अठारह प्रकारके मूत्ररोग, बीस
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ३७ )
प्रकार के कफरोग चालीस प्रकार के पित्तके रोग, अठारह प्रकारके अवर और अनेक मिश्रित रोग, श्वास रोग, खाँसी रोग, क्षीणता आदि और नाक, नेत्र, कान, मुख, शीसके रोग ये सब इसके खानेसे दूर होवें, इसी मात्राके अनुसार इसमेंसे वैद्य आधी और चौथाई भी बनालेवे ॥ १-३ ॥
आम्रपाक ।
पक्कचूतरसो द्रोणः पादःस्याच्छुद्धगन्धकः । घृतमर्द्ध ततो योज्यं चतुर्थांशांशनागरम् ॥ १ ॥ तदर्द्ध मरिचं देयं तदर्द्ध पिप्पली मता । तोयं खण्डसमं देयं सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ २ ॥ पाचयेन्मृन्मये भाण्डे काष्ठदय प्रचालयेत् । चूर्णान्येषां ततो दद्यान्मात्रापलचतुष्टयम् ॥ ३ ॥ ग्रन्थिकं मुस्तकं चव्यं धान्याकं जीरकद्वयम् । शुठीभकेशरं त्वक् च तालीसं तु पृथक् पृथक् ॥ ४ ॥ सिद्धशीते च मधुनः प्रस्थं तत्सर्वमेकतः । सन्नीयकर्तिकां कृत्वा शुभे भाण्डे निधापयेत् ॥ ५ ॥
उत्तम पके और मीठे आमका रस १ द्रोण ( १६३८४ टंक ) लेवे और रसकी चौथाई खांड लेवे और खांडसे आधा गौका घृत लेवे, घृतसे चौथाई सोंठ लेवे और सोंठसे आधी मिर्च और मिर्च से आधी पीपल लेनी चाहिये, इसमें जल खांड के समान डाले इन सबको एकत्र करके स्वच्छ मिट्टीके पात्रमें पाक करे, लकडीकी करछी से चलाता जाय, पीछे इसमें इतनी औषधियोंका चूर्ण चार चार पक ढाले । सो लिखते हैं- पीपलामूल, नागरमोथा, चव्य, धनियां दोनों
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( ३८ )
योग चिन्तामणि::
पाकाधिकारः
औरे, सोंठ, नागकेशर, दालचीनी, तालीसपत्र इन सबको अलग २ पीसकर उस पाक में डालनी चाहिये। जब पाक बनचुके तब उसको 'उतारकर कुछ शीतल कर उसमें शहद एक प्रस्थ ( १०२४ टंक ) डाल 'rest मिलाकर पाक जमा दे, शीतल होनेपर कतली कतरकर उत्तम पात्रमें रखदे ।। १-५ ॥
भोजनादौ ततः खादेत्पल मात्रप्रमाणतः । हन्त्यरोचकमत्युग्रं कासं श्वासं तथा क्षयम् ॥ ६॥ पीनसं च प्रतिश्यायं प्लीहानं यकृदामयम् 1 अम्लपित्तास्रपित्तं च तालुनाशं स्वरामयम् ॥ ७ ॥ सर्वदुर्नामरोगं च पाण्डुरोगं च कामलाम् । हृद्रोगं च शिरःशूलमानाहमतिदारुणम् ॥ ८ ॥ कण्वार्तिं शीतपित्तं च प्रणाशयति वेगतः । संसेव्यं भेषजं वृद्धोऽपि तरुणायते । धीरः सर्वगुणोपेतश्शतायुष्यमनामयम् ॥ ९ ॥ मृतगर्भा च या नारी या च गर्भोपघातिनी । सापि सुते सुतं तन्नारायणपरायणम् ॥ १० ॥ वन्ध्याऽपि लभते गर्भ वृद्धाऽपि तरुणी भवेत् । तुर इव संहृष्टो मत्तवारणविक्रमः ॥ ११ ॥ गच्छेत् कंदर्पदपढ्यो रागवेगाकुलः पुमान् । स्त्रियाःशत्तं सहस्रं वा नयेत्ताश्च सुमं पुमान् ॥ १२ ॥
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प्रथमः ]
मापाटीकासहितः ।
सदा भेषज संसेवी भवेन्मारुतविक्रमः । खण्डाम्रकमिति प्रोक्तं भार्गवाय स्वयंभुवा ॥ १३ ॥ वृष्यं च मेध्यमायुष्यं सर्वपापप्रणाशनम् । ग्रहयक्षपिशाचन्नमपस्मारन्नमुत्तमम् ॥ १४ ॥ बल्यं रसायनं श्रेष्ठं श्रीखण्डाम्रकसंज्ञकम् ॥ १५ ॥
( ३९ )
इस आम्रपाकको एक पलके प्रमाण प्रातःकाल भोजनके पूर्व खानेसे अतिप्रचल अरुचि, खांसी, श्वास, क्षयी, पीनस, सरेकमा, तापतिल्ली यकृनके रोग, अम्लपित्त, रुधिरपित्त, तालुनाश, स्वरभंग खोटे नामवाले (अर्श) रोग, पांडुरोग, कामला, हद्रोग, शिरका दर्द आनाह, खुजली, शीतपित्त इतने रोगों का नाश करे, इसके खानेसे वृद्ध मनुष्य तरुणता होजाय, धीर सर्वगुणयुत सौ वर्षकी आयुवाला निरोगी होय जिसके मरा हुआ बालक होय और जिसका गर्भ गिरजाता होय, ऐसी स्त्रीभी नारायणपरायण पुत्रको प्रकट करे, jघ्याकेमी गर्भमाति होय, वृद्धा स्त्री तरुणताको प्राप्त होवे, घोडा और मस्त हाथीकासा पराक्रम होय. कामदेवके वेगसे व्याप्त मनुष्य हजार स्त्रियोंसे गमन करे, इस पाकका नित्य सेवन करे तो पुरुष पवन के समान पराक्रमी होय, यह आपक भार्गव ऋषि ब्रह्मदेवने कहा है, यह वृष्य है, पवित्र, आयुश्यकर्ता, सर्वपापनाशक और ग्रह भूत पिशाच, मृगीरोग इन सबका नाश करे, इस बलकर्ता रसायनको श्रीखंडा कहते हैं ॥ ६-१५ ॥
बृहन्मुसलीक |
मुसलीकन्दचूर्ण तु क्षीरेऽष्टगुणिते पचेत । प्रस्थं तत्र दातव्यं चूर्णमेषां पृथक्पलम् ॥ १ ॥ म्योषं त्रिजातहषा शताह्वाशतमूलिका ।
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(४०) योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकार:
अजाजी दीप्यकश्चैव चित्रको गजपिप्पली ॥२॥ यवानी ग्रंथिकं धात्री शुंठी गोक्षुरधान्यकम् । अश्वगन्धाऽभया मेघः सिंधुशोषोलवंगकम् ॥३॥ जातीफलं जातिपत्रीनागकेशरकेक्षुरः । बला चातिबला नागबला मर्कटबीजकम् ॥४॥ यष्टी शाल्मलिनिर्यामः शृङ्गागंबुजबीजकम् । त्वशारिका बाल कश्च कोलः कल्लकं हिमम् ॥२॥ लुञ्चितानां तिलानां तु प्रस्थाईमिह योजयेत् । भस्म मूतपला? तु पलमभ्रकलोहयोः ॥६॥ सर्वस्माद्विगुणं खण्डं पाकं कृत्वा प्रयोजयेत् । भैषज्यानां गणं सर्ववटीः कुर्याद्विचक्षणः ॥७॥ सफेद मुसलीका चूर्ण १ प्रस्थ आठगुण दूधमें औटावे पीछे य औषधी जुदी २ एक एक पल लेवे-सोंठ, मिरच, पीपल, विजात ( इलायची, दालचं नी, पत्रज ), हाऊबेर सौंफ, शतावर, जीरा, अजमोद, चित्रक, गनपील, अमायन, पीपला मूल, आंग्ले, कचर, गोखरू, धनियां, असगन्ध, हाड, नागरमोथा, समुदशोष, लोंग, जायफल, जावित्री, नागोशर, ता ठमेवारे, बला ( खरेटी ), अतिबला, नागपला, (गोरन ।, केव के बीज, मुलहटी, सेमलका गोंद, सिंबाडे, कमलाहा, वंशचा, सुगंधवाला, कंकोल, अकरकरा, कपूर और धुले हुए तिल या प्राय ५१२ टंक ), चन्द्रोदय दो कर्ष और अभ्रकनार एक पल इन सब औषधियोसे दुगुनी खांड लेकर पूर्वा कारने इस पाकको बनाना चाहिये, इसम य सब औषधी मिलाकर गुटिका बनावे ॥ १-७॥
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भाषांटीकासहितः ।
( ४१ )
अर्द्धमुष्टिमितास्तास्तु शुभेऽहनि विचक्षणः । इष्टदेवं समभ्यर्च्य खादेदे काम हर्निशम् ॥ ८ ॥ ततः किंचित्पयः पेयं खादेद्वकमुत्तमम् । मंदाग्निगुल्म मे हार्शःश्वासकासव्रक्षयान् ॥ ९ ॥ कामलां पाण्डुरोगं च शुक्रक्षेण्यं च दृक्क्षयम् । वातरोगं पित्तरोगं कफरोगं तथैव च ॥ १० ॥ पाण्ठ्यं च प्रदरं स्त्रीणां शुक्रदोषमुरःक्षतम् । रजोदोषं मूत्रकृच्छ्रं मूत्राघातं तथाऽश्मरीम् ॥ ११ ॥ मेहदोषं तथाssनाएं का दौर्बल्यमुल्बणम् । वातरक्तं च हन्तेष मुसलीकन्दलेहकः ॥ १२ ॥ अग्रिकृत्कान्तिकृत्तेजोवृद्धिकृत्कामवृद्धिकृत । अश्विभ्यां निर्मितोयोगो वली पलितनाशनः ॥ १३ ॥ क्षीणशुकान्नरान् दृष्ट्वा नारीश्वक्षीणवीर्यकाः । तालमूल्य लेहोऽयं निर्मितो धरणीतले ॥ १४ ॥ नास्त्यनेन समो योगो विशेषाच्छुक्रवृद्धये ॥ १५ ॥
प्रथमः ]
इनमें से अटके अनुमान शुभ दिनमें अपने इष्टदेवका पूजन कर एक गुटिका खाय तो इतने रोग नष्ट होवें - मन्दाग्नि, गोला, प्रमेह, बवासीर, श्वास, खाँसी, वग, क्षत्र, कामला, पांडुरोग वीर्यकी क्षीणता, मन्दहाटे, वात पित्त कफ इनका रोग, नपुंसकता, स्त्रियों के प्रदरादिक, वीक शेष, उरःक्षत, रजो दोन, मूत्रकृच्छ्र मूत्राघात, पथरी, मेहदोन, अफारा, कृशता, निर्बलता, वातरक्त | यह मुराही आलेह
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( ४१ )
योगचिन्तामणिः ।
पाकाधिकारः
अग्निको प्रवल करे, कान्ति करे, तेजको तथा कामदेवको बढावे, यह योग अश्विनीकुमारने वलीपलितनाशनार्थ कहा है, क्षीणवीर्यवाले पुरुको और क्षीण वीर्यवाली स्त्रियों को देखकर यह तालमूली (मशली ) भवलेहको पृथ्वी में निर्माण किया, इसके समान वीर्यको दरानेवाला योग पृथ्वीमें दूसरा नहीं है ॥ ८-१५ ॥
मुसल्याश्च पलान्यष्टौ तुलाक्षीरे विपाचयेत् । सर्पिर्द्विकुडवं देयं सिताकर्षशतं तथा ॥ १ ॥ गृदं पलचतुष्कं च मज्जा त्रीणि पलत्रयम् । जातीफलं लवंगं च कुंकुमं चैव तुंबरम् ॥ २ ॥ मांसीमर्कटबीजानि चातुर्जातकटुत्रयम् । जातीपत्रकरंभा च प्रत्येकं पिचुमात्रकम् । द्विकर्ष मोदकं कुर्यादेकैकं भक्षयेन्नरः || ३ ||
मुशली ८ पल (१२८ टंक ), दूध दश सेरमें औवाने, पछि इन उत्तम घृत २० टंक भर डालकर भूने, पीछे सफेद चीनी ४०० टंक मौर बबूल का गोंद ४६ टंक और गरी बादाम, चिरौंजी ये तीनों १६ तोले, जायफल, लौंग, केशर, चध्य, तुम्बरू, छड, कौंच के बीज, दालचिनी, छोटी इलायची, नागकेशर पत्रज, सोंठ, मिरच, पीपल, जावित्री, केलीका कन्द ये प्रत्येक औषधि चार चार टंक लेनी | पूर्वोक्त प्रकारसे पाक बनाकर इसमें ८ टंकके अनुमान लड्डू बनावें नित्य एक लड्डू खाय तो इतने रोग जायँ ॥ १ ॥ ३ ॥
धातुक्षीणं मदक्षीणं क्षीणवीर्य तथाऽनलम् ॥ ४ ॥ कासश्वासारुचि पाण्डुं दौर्बल्यं विषमज्वरम् । षण्ढो रमयते नारीशतं वा नात्र संशयः ॥ ५ ॥
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प्रथमः ]
मापाटीका सहितः ।
(४३)
शुष्कगात्रं भवेत्पुष्टं मनोज्ञं कान्तिवर्द्धनम् | वातव्याधिषु सर्वेषु हितोऽयं नैव संशयः ॥ ६ ॥ प्रमेहशुष्क गात्रत्ववली पलितनाशनम् । मुसल्यादिरयं पाको वन्ध्या भवति पुत्रिणी ॥ ७ ॥
धातुक्षीण, चलक्षीण, वीर्यक्षीण, मन्दाग्नि, खांसी, श्वास, अरुचि, पाण्डु, दुर्बलता, विषमज्वर और नपुंसकता ये जांय शुष्क देह मोटा होय, कांतिको बढावे और सुन्दरता दे सच वातव्याधियों में यह हित है । प्रमेह, लटा हुआ देह, गुलझट, सफेद बाल इन सबको यह मुलीपाक नष्ट करे, इसके खाने से वंध्यास्त्री पुत्रवती होती है ॥४-७॥ नारियलपाक । कनको मुसलीकन्दो यमकोऽहिखरस्तथा । उटिङ्गणं कौञ्च बीजं चूर्णयित्वा पृथक्पृथक् ॥ ३ ॥ कार्पासमज्जा दुग्धेन क्षीरे वै सप्त भावनाः सूर्या तपे शुष्कचूर्ण नालिकेरं तु पूरयेत् ॥ २ ॥ द्वात्रिंशद्गुणदुग्धेन विपाच्य मृदुवह्निना । पूर्णयित्वा घृते पाच्यं भेषजैः सह चूर्णितैः ॥ ३ ॥ चतुर्जातं लवङ्गंच जातीपत्रं फलं तथा । पलार्द्ध खंडकुडवं गृहीत्वाऽनु पिवेत्पयः ॥ ४ ॥ वातरोगप्रमेदश्चि बलहानि क्षयं तथा । वृद्धो युवायते कामी नालिकेरस्य पाकतः ॥ ५ ॥
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( ४४ )
योगचिन्तामणिः
[ पाका किधार:
धतूरे के बीज, सफेद मुसली, खुरासानी अजमायन, अहिखराके चीज, उटंगनके बीज, कौंच के बीज इन सबको बराबर लेवे और पृथक् २ कूट पीसकर चूर्ण करे, कपासके बीजोंको पीसे दूधकी सात भावना देवे, पीछ उसको धूपमें सुखाकर नारियल के गोलेमें भर देवे, तदनन्तर गोलेको बत्तीस गुणे दूधमें मन्दाग्निसे पचावे जब दूधका खोवा होजाय तब उसको घीमें भूनकर सब औषधि मिलावे | फिर ये औषधी और डाले -- इलायची, नागकेशर, पत्र, लौंग, जावित्री, जायफल, ये सब औषधी आठ आठ टंक लवे और ६४ टंक खांड छेय, सबको मिलाकर पाक बनावे, इस नारियल पाकके खानेके पीछे दूध पीवे तो वात विकार, प्रमेह, बलहानि, क्षय य सब नष्ट होय. बृद्ध मनुष्य भी तरुण होजाता है || १ || ५ |
गोखरूपाक १ - २ ।
प्रस्थं गोक्षुर सूक्ष्मचूर्णमृदितं दुग्धाढके पाचितं जावित्री च लवङ्गलोधमरिचैः कर्पूरकं शाल्मली । अब्दं शोषसुवर्णबीजरजनीधात्रीकणा केशरं चातुजतमथाहि फेनक - मलं कच्छू कुबेराख्यकम् ॥ १ ॥ तत्तुल्या च सिता तदर्धविजया प्रस्थद्वयं गोघृतं प्रोक्तं वैद्यवरेण निर्मितमिदं मन्दामिना पाचयेत् । प्रातः सेव्यमिदं सुमानमशितं व्याधेश्च विध्वंसनमंशांशैर्विहितं प्रमेहशमनं सङ्गेऽङ्गनाद्रावकम् | क्षीणे पुष्टिकरं क्षये क्षयहरं वाजीकरं कामिनामेतद्गर्जितमानिनीमृगरिपुर्वाता जित्त्वौषधम् ॥ २ ॥
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (१५)
१-गोखरू २५६ टंकका चूर्ण कर १०२४ टंक दूधमें औटावे, जावित्री, लौंग, लोध, मिरच, भीमसेनी कपूर, नागरमोथा, समुद्रशोष, धतूरेके बीज, हलदी, आंवले, पीपल, केशर, नागकेशर, इलायची, पत्रज, अफीम, कौंचके बीज. अजमायन इन सब औषधियोंको एक एक टंक लेकर इन सब औषधियों के बराबर मिश्री लेवे, और सब
औषधियोंसे आधी भांग लेवे, गौके ५१२ टंक घृतमें सब औषध युक्त खोआको भूनकर खांडकी चासनी कर पूर्वोक्त रीतिसे पाक बनावे । इसको प्रातःकाल सेवन करे तो बवासीर, प्रमेह, क्षीणता ये संपूर्ण रोग नष्ट होवें, स्त्री के संग करनेसे स्त्री द्रवे, क्षयका नाश करे, कामियोंको वाजीकरणता करता है, यह गोखरूपाक मानिनी स्त्रियों के मानरूप मृगको जीतनेमें सिंहरूप है, यह वातके जीतनेवाली औषधि
गोकण्टकं सदलमूलफलं गृहीत्वा सङ्कट्टितं पलशतं क्वथितं च तोये । पादावशेषसलिले च पलानि दत्वा पञ्चाशतं परिपचेदथ शर्करायाः॥१॥ तस्मिन्धनत्वमुपगच्छति चूर्णितानि दद्यात्पलद्वय मितानि सुभेपजानि । शुण्ठीकणामरिचनागदलत्वगेलासजातिकोषककुभत्रपुषीफलानि ॥२॥ वंशीपलाष्टकमिहप्रणिधाय नित्यं लेह्यं सुसिद्धममृतं पलसंमितं तत् । हन्त्याशुमूत्रपरिदाहविबन्धशुक्रकृच्छ्राश्मरीरुधिरमेहमधुप्रमेहान् ॥३॥ २--पत्ता और जडसहित गोखरू लेकर सौ पल जलमें औटावे, जब चौथाई जल बाकी रहे तब पचास पल मिश्री डाल कर पचावे, जब पककर गादी होजाय सब इन औषधियोंका चूर्ण डाले -सोंठ, पीपल,
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(१६) योगचिन्तामाणिः। पाकाधिकारःमिरच, नागकेशर, तज. इलायची, जायफल, अकरकरा, ककडीके चीज, वंशलोचन ये सब औषधि ३२ टंक लेवे, सबोंको मिलाकर पाककी विधिसे पाक बनावे यह अमृतके समान है, इसका नित्य सेवन करे तो मूत्रका दाह, मूत्रका रुकजाना, वीर्यके विकार, मूत्रकृच्छू, रुधिरका निकलना, प्रमेह और मधुमेहादिकोंका नाश करता है ॥ १-३ ॥
कौंचपाक। पचेदिप्रस्थं कपिकच्छुबीजमुष्णोदके यामचतुष्टयं तु । तान्धर्षयेद्वस्त्रदृढे सुगाढं यावद्भवेनिर्मलनिस्तुषं च ॥१॥छायाविशुष्कं च तदेव चूर्ण क्षीरं क्षिपेद्रोणसपादशेषम् । दद्याद घृतं प्रस्थयुगं च तस्मिन्विपाचयेन्मन्दहुताशनेन ॥२॥ आकल्लकं नागरदेवपुष्पं गोक्षीरकं कुंकुमहंसपाकम् । सारंकुबेरं धनतुर्यजातं चीणीकबाबाबलबी. जयुक्तम् ॥३॥ वंशोद्भवा वंगमृताभ्रकं च द्राक्षा सिता सर्वसमा प्रदेया। पलार्द्धमानं तु सदैवखादेदम्लं तदन्तः परिवर्जनीयम्॥ ४॥येक्षीणशुकाःप्रबलप्रमेहास्तेषामिदं वीर्यविवर्द्धनं च । पुष्टिं बलं बुद्धिबलं च वृद्ध निहन्ति सर्वानपि वातरोगान् ॥५॥ दो प्रस्थ (५१२ टक) कौंचके बीजोंको चार प्रहर गरम पानीमें औटावे पीछे उनको मोटे वस्त्रमें खूब रगडे जबतक निस्तुप मौर स्वच्छ न होय, पीछे उनको छायामें सुखाकर चूर्ण करे, उस
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प्रथमः ] भाषाटीकासहितः। (४७) चूर्णको सवा द्रोण दूधमें और उसमें चार प्रस्थ घृत डाले और मन्दर अग्निसे पचावे । पीछे अकरकरा सोंठ, लौंग, गोखरू, केशर, हींगल, सार, अजमायन, मोया, तज, तमालपत्र, इलायची, नागकेशर, कबाबचीनी, बलबीज, वंशलोचन, वंग, मराअभ्रक, दाख ये सब
औषधि बराबर लेवे और इन सब औषधियोंके बराबर सफेद खांड लेवे पीछे पाक बनाकर ८ टंकके अनुमान नित्य खाय और खट्टे
और वादीसे परहेज करे तो वीर्यकी क्षीणता तथा प्रबल प्रमेहवाले मनुष्यके वीर्यकी वृद्धि करे और सब वातके रोग नष्ट होवें ॥ १-५॥
पीपलपाक १-२॥ पिप्पलीप्रस्थमादाय क्षीरं चैव चतुर्गुणम् ।
अद्धीढकं घृतं गव्यं सिता चैव तथाऽऽढकम् ॥ १॥ पचेन्मंदाग्निना सम्यग् यथाभागं भवेत्ततः। शीतीभूते क्षिपेत्तत्र चातुर्जातं पलं पलम् ॥२॥ षोडशपलप्रमाणं खादिरं गुन्दमेव च । पाचितं गव्यहव्येन निक्षिपेत्तस्य मध्यतः॥३॥ योजयेन्मात्रया युक्त्याऽशेषधात्वनिकृन्नृणाम् । बल्यं वृष्यंतथा हृद्यं धातुपुष्टिकरं नृणाम् ॥४॥ जीर्णज्वरक्षयश्वासप्लीहपापरुजापहम् । पिप्पलीनामपाकोऽयं सर्वरोगहरः परः ॥५॥ १-पीपल २५६ टंक लेकर चौगुणे दूधमें औटावे और इसमें गौका दूध ५१२ टंक डाले जब खोवा होजाय तब १०२४ टेक मित्रीकी चासनी कर उसमें खोवाको डालकर पाक बनालेवे, जब कुछ शीतल होजाय इलायची, पत्रज, नागकेशर, तज एक एक पल
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( ४८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारः
डाले और खैरका गोंद १६ पल, गौके घी में भूनकर डाले इस प्रकार पाक बनाकर बल अबल देखकर इसकी मात्रा खानेको देवे तो सब धातु और जठराग्निको बढावे, बल करे वृष्य है, हृदयको हित है, अजीर्णज्वर, क्षय, श्वास, तापतिल्ली, पांडुरोग इन सबको यह पीपलपाक नष्ट करता है ॥ १-५ ॥
अर्द्धद्रोणे शुभे दुग्धे कणा प्रस्थार्द्धमेव च । दसंघट्टसान्द्रे तु खण्डप्रस्थद्वयान्विते ॥ १ ॥ वानरी मुशलीकन्दं चातुर्जात करोचना । करभोदेवकुसुमं मस्तकी करहाटकम् ॥ २ ॥ ग्रन्थिकं नागरं धान्यं सटी खदिरसारकम् । लोहं प्रत्येकक पैक मितानेतान्विचूर्णयेत् ॥ ३ ॥ घनसारार्द्धकर्षेण शीतले क्षौद्रकौडवम् । क्षिपेत्कणावलेहोऽयं प्रमेहाबलताक्षयान् ॥ ४ ॥ कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां छर्दि मूर्च्छा भ्रमं जयेत् ॥५॥"
२- पीपल १२८ टंक लेकर गौके ८१९२ टंक दूधमें औटावे जब गाढा हो जाय तब मिश्री ५१२ टंक लेकर चासनी कर पूर्वोक्त पीपल संयुक्त खोवाको डाले और इन औषधियों को और डाले - कौंच के बीज, मूसली, नागकेशर, तज, छोटी इलायची, पत्रज, वंशलोचन, कशेरु, लौंग, मस्तंगी, अकरकरा, पीपलामूल, सोंठ, धनियां, कचर, खैरसाल, इन सब औषधियोंको सोलह २ मासे डाले, भीमसेनी कपूर आठ मासे डालकर अवलेह बनालेवे, जब शीतल हो तब उत्तम शहद ६४ टंक डाले तो यह पीपलावलेह बनकर तैयार होवे | यह प्रमेह, निर्बलता, क्षय, खांसी, श्वास, हिचकी, वमन, मूर्च्छा और भ्रम इन सब रोगोंको दूर करे ॥ १-५ ॥
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (४९)
पेठापाक १-४। खण्डान्कूष्माण्डकानामथ पचनविधिच्छिन्नशु. ष्काज्यपक्कांस्तस्मिन्खण्डे विपके समरिचमगधाशुठयजाजीत्रिगन्धी । लेहोऽयं बालवृद्धानिलरुधिरकृशस्त्रीप्रसक्तिक्षतानां तृष्णाकासार्शपित्तश्वसनगुदरुजाच्छर्दितानां च शस्तम् ॥ १ ॥ १-पका पेठा सेरभर लेकर उसको छील कतरकर चनेके पानीमें धोवे, पीछे स्वच्छ जल में धोकर तदनन्तः उसको गोंदकर गोके नवीन घृतमे परिपक्क करे जब पक जाय तब मिश्रीकी चासनी कर अवलेह बनावे । और इसमें इन औषधियोंको डाले--कालीमिरच, पीपल, सोंठ, जीरा, तज, पत्रज, इलायची । यह कृष्मांडावलेह बालक और बृद्ध मनुष्योंके रोगको दूर करे, वादी और रुधिरके विकार, कृशता स्त्रियों के सेवनसे जो क्षीण होगया हो उनकी क्षीणता, प्यास, खांसी, बवासीर, पित्तके रोग, श्वास, गुदा रोग और छदिरोग इनको नाश करे ॥ १॥
छालिं निष्कृष्य कूमाण्डखण्डानि परिकल्पयेत् । कांजिकेन च धोतानि पुनरेव जलेन च ॥१॥ पश्चात्क्षीरस्य प्रस्थेन कल्पयेत्पुनरेव च । घृतेन पुनरेतानि पाचयेत्सुविधानतः ॥२॥ यदा मधु. निभानि स्युस्तदा शर्करया युतम् । निधाय तत्र चेमानि भेषजानि प्रकल्पयेत् ॥ ३ ॥ पिप्पलीशृङ्गवेराभ्यां द्वे पले मरिचानि च । जीरके द्वे तथा
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(५०) योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकारः
धात्रीत्वगेलापत्रकं तथा ॥ ४ शृंगाटकं कशेरं च ग्रंथिकं चैव चित्रकम् । प्रियालुतालमूली च लवङ्गं मुंदमेव च ॥५॥ पलार्दैन विगृह्णीयाच्चूर्ण तत्र विनिक्षिपेत् । दा विघट्टयेत्पश्चाल्लेहीभूतं यदाभवेत् । घृतेनापि विलियाच ज्ञात्वा तत्र बलाबलम् ॥ ६॥ २-पके पेठेके टुकडे कर उसका डिलका और बीज दूर कर काँजीके चूने के पानीले धोकर पीछे शुद्ध पानीसे धोके, तदनन्तर उन टुकडोंको गोंद कर पांच सेर दूधमें औटावे जब खोवा होजाय तब आठ पल नवीन वृतम उस खोवाको भूने जब भूनकर शहदके वर्णसदृश हाजाय तब १०० पल मिश्री की चासनी कर उसमें उस खोवाको डाले और ये औषधी डाले-पीपर, अदरख, मिरच, टंक ३२, सफेद जीरा, काला जीरा, आँवले, तज, छोटी इलायची, पत्रज, सिंघाडे, कसेरू, पीलापूल, चित्रक ८ टेक. नियंगुफूल टंक ८, मूसली टंक ८, लौंग टंक ८, खैरका गोंद टंक ८, लेवे और जिनकी तोल न कही उनको सोलह से लह टंक लेवे सबको कूट पीसकर उसमें डाल देवे और कड छोले चला देवे, जब अलेह तैयार हो जावे तब बलाबल देखकर इसकी मात्रा देखें और इसके ऊपर घी पीवे ॥ १-६॥
रक्तपित्तं ज्वरं कासं कामलांतमकं भ्रमम् ॥७॥ छदितृष्णाज्यरंश्वासपाण्डुरोगक्षतक्षयम् । अपस्मारं शिरोति च योनिशूलं च दारुणम् ॥ ८॥ योनिरक्तप्रवाहं च ज्वरं मन्दाग्नितां हरेत्। वृद्धोयुवायते
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प्रथमः ]
भाषाटीका सहितः
( ५१ )
कामी वन्ध्या भवति पुत्रिणी ॥ ९ ॥ अवीर्यो वीर्यमाप्नोति भवेत्स्त्रीणां प्रियो नरः । एष कूष्माण्डको लेहः सर्वरोगनिवारणः ॥ १० ॥
रक्तपित्त, ज्वर, खांसी, कामला, तमकश्वास, भ्रम, छर्दि, प्यास, श्वास, पांडुरोग, क्षतक्षय, मृगी, शिरका दर्द, योनिशूल, योनि ते रुधिरका गिरना, ज्वरसे प्रगट मन्दाग्नि इनको नाश करे, वृद्ध पुरुष तरुण खौर कामी होय, वन्ध्या पुत्रवती होय, बीर्यहीन वीर्यवाला होय, इसको खानेवाला पुरुष स्त्रियोंको भिय होय । यह कुष्मांडावलेह सर्वरोगनाशक है ॥ ७-१० ॥
कूष्माण्डकान्पलशतं सुच्छिन्नं निष्कुलीकृतम् । पचेत्ततो घृते प्रस्थे पात्रे ताम्रमये दृढे । यदा मधुनिभः पाकस्तदा खण्डं च निक्षिपेत् ॥ १ ॥
३- पके पेठेका गूदा शुद्ध कर १०० पल लेकर २६६ टंक घृतमें डालकर तांबे के पात्र में भूने, जब शददकासा वर्ण हो जाय, तब उसमें मिश्री की चासनी मिलाकर पाक बनावे और पूर्वोक्त औषधि भी डाले ॥ १ ॥
निष्कुली कृत कूष्माण्डखण्डान्पलशतं पचेत् | निक्षिप्य द्वितुलानीरमर्द्धशिष्टं च गृह्यते ॥ १ ॥ तानि कूष्माण्डखण्डानि पीडयेदृढवाससा । आतपे शोषयेत्किंचिच्छूलाग्र बहुशो विधेत् ॥ २ ॥ क्षिप्त्वा ताम्रकटाहे च दद्यादष्टपलं घृतम् । तेन
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योगचितामणिः ।
[ पाकाधिकार:
किंचिद्भर्जयित्वा पूर्वोक्तं तज्जलं क्षिपेत् । खण्डं पलशतं दत्त्वा सर्वमेकत्र पाचयेत् ॥ ३ ॥
(५२)
४- पके पेठेको छील उसके बीज निकालकर शुद्ध कर १०० पल लेवे उसको दो तुला जलमें चढाकर औटावे, जब आधा जल रहे तब उतारकर मोटे कपडे में रखकर निचोडडाले पीछे धूपमें सुखाकर तदनन्तर कांटेसे उन टुकडों को गोंद डाले पीछे तांबेकी कडाही में चढाकर उसमें १२८ टंक घी डालकर भूने, जब कुछ भूनजाय तच पूर्वोक्त जलको डाले और १०० पल मिश्री डाल सचको एकत्र कर पाक बना लेवे और इसमें पूर्वोक्त औषधियां भी डाले ॥ १-३ ॥
असगन्धपाक |
पूर्वकृत्वाऽश्वगन्धायाश्चूर्ण दशपलानि च । तदर्द्ध नागरं चूर्ण तस्यार्द्धा पिप्पली शुभा ॥ १ ॥ मरिचानां पलं चैकं सूक्ष्मं चूर्णे तु कारयेत् । त्वगेलां पत्रपुष्पं च एकैकं तु पलं पलम् ॥ २ ॥ तुलाद्वै माहिषं दुग्धं दुग्धस्यार्द्धच माक्षिकम् । माक्षिकार्द्ध घृतं गव्यं खण्डाद्दशपलानि च ॥ ३ ॥ पयः खण्डाज्यमाक्षीकं चत्वार्येकच कारयेत् | कट हे मृन्मये क्षिप्त्वा पाचयेन्मृदुवह्निना ॥ ४ ॥ कृशानुं ज्वालयेत्तावद्यावदुत्कलितं भवेत् । अश्वगन्धाधिकं चूर्ण किंचिद्दुग्धेन घोलयेत् ॥ ५ ॥ पूर्व
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (५३) कथितदुग्धेन क्षिप्त्वा चूर्ण पवेद्भिषक् । दर्वीप्रलेपेसंजाते चतुर्जातं विमुञ्चयेत् ॥ ६॥ यजातं तण्डुलाकारं तावनिष्पाकमाचरेत्। पयोयुक्तं घृतं दृष्ट्वा तावदुत्तारयेत्ततः ॥७॥ प्रथम १० पल असगन्ध लेकर उसका चूर्ण करे और असगन्धसे आधी सोंठका चूर्ण करे और सोंठसे आधी पीपलोंका चूर्ग ले और एक पल काली मिरचका चूर्ण लेवे तज, छोटी इलायची, पत्रज, लौंग ये औषधि एक एक पल लेवे,भैंसका दूध पांचसेर, दूधसे आधा सहद
और शहदसे आधा गौका घृत, १० पल मिश्री, पीछे दूध मिश्री घृत शहद चारोंको मिलाकर मिट्टीके बरतनमें डाल मन्द मन्द अग्निसे पाचन करे और जबतक उफान न आवे तबतक अग्नि देवे और जव उफान आजावे तब पूर्वोक्त असगन्ध सोंठ आदिके चूर्गको थोडे दूधमें घोलकर पूर्वोक्त दूधमें मिलादेवे. उसको फिर पचावे । जब दूध करछीसे लगने लगे तब चातुर्जात (इलायची आदि ) को डाले, जब चावल समान भिन्न भिन्न होजाय तबतक पक्व करे, जब घृत और दूध दोनों मिल जायँ तब उतारकर इन औषधियों को और डाले ॥ १-७॥
ग्रन्थिकं जीरकं छिनां लवङ्गं तगरं तथा। जातीफलमुशार च वालकमलयोद्भवम् ॥८॥ श्राफलाम्भोरुहं धान्यं धातकी वंशरोचनाम् । धात्रीखदिरसारं च घनसारं तथैव च ॥ ९॥ पुननवाऽजगन्धे च हुताशनशतावरी । मात्रा गद्याणका चैव द्रव्याणामेकविंशतिः ॥ १० ॥ सूक्ष्मचूर्ण पुरा कृत्वा योगे ह्यस्मिन्निनिक्षिपेत्।
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(५४)
योगचिंतामणिः । [ पाकाधिकार:
पश्चात्सुशीतलं कृत्वा स्निग्धभाण्डे निधापयेत् ॥ ११ ॥ पलार्द्धमपि भुञ्जीत यथेच्छाहारभोजनम् । कासं श्वासं तथा हन्यादजीर्ण वातशोणितम् ॥ १२ ॥ प्लीहामयं च मन्दं च आमवातं च दुर्जयम् । शोफं शूलं च वातार्द्ध पाण्डुरोगं च कामलाम् ॥ १३ ॥ ग्रहणीं गुल्मरोगं च अन्यान् वातकफोद्भवान् । एते विकारा विलयं यान्ति सूर्योदये तमः ॥ १४ ॥ एकमासप्रयोगेण वृद्धः संजायते युवा | मन्दाग्नीनां हितं बल्यं बालानां चाङ्गवर्द्धनम् ॥ १५ ॥ स्त्रीणां च कुरुते पुष्टिं
.
प्रसवे स्तन्यवर्द्धनम् । यावत्तन भवेत्स्तोकं तव दुग्धतं भवेत् ॥ १६ ॥ क्षीणानां चाल्पहितं कामादिीपनम् । सर्वव्याधिदरं श्रेष्टं योगं सर्वोत्तमं विदुः ॥ १७ ॥
पीपलामूल, जीरा, गिलोय, लौंग, तगर, जायफळ, खस, नेत्रबाला, चंदन, नारियलकी गिरी, नागरमोथा, धनिया, धायके फूल, बंशलोचन, आंवले, खैरसार, कपूर, सांठकी जड, अजमोदा, चित्रक, शतावर इन इक्कीस औषधियों को छः छः मासे ले चूर्ण कर उसमें मिलाकर शीतल करे । पीछे उसको चीनी आदि चिकने वरतनमें भरकर रखदेवे इसमें से आधे पलके अनुमान भक्षण कर और अथेच्छ भोजन करे. यह इतने रोगोंको नष्ट करता है-खांसी, श्वास,
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प्रथमः ] ...
मापाटीकासहितः।
(५५)
अजीर्ण वातरक्त, तापतिल्ली, आमवात, सुजन, शूल, वादी, बवासीर, पाण्डुरोग, कामला, संग्रहणी, गोला और जो वातकफसे प्रगट रोग हैं वे सब नष्ट होते हैं जैसे सूर्योदयसे अंधकार नष्ट होता है । एक महीना खानसे वृद्ध मनुष्य भी तरुणत.को प्राप्त होता है, मंदाग्निवालेको परम हित है, बलकर्ता, बालक के अंगको पुष्ट करता है, स्त्रियों के प्रसवमें दूध और देह को पुष्ट करें. जबतक स्तन छोटे होवें तबतक दूधसे परिपूर्ण रहें. क्षीण और अल्पवीर्यवाले पुरुषको हित है. कामदेव
और अग्निका दीपन करता है, सकल व्याधियोंका हर्ता सर्वोत्तम योग है ॥ ८-१७॥
अफीमपाक।
आकल्लकं केशरदेवपुष्पं जातीफलं भृङ्गसहं सपाकम् । एतानि कुर्वीत सहानि विद्वान्मूलार्द्ध भागं क्षिप नागफेनम् ॥ १॥क्षीरेण फेनं परिपच्य बद्धा मूलासितां पाणमानयोग्याम् । विमय कुर्यागुटिकां निशायां मुखे कृता कामयते शतानि ॥ २॥ आसेवनं यः प्रकरीति नित्यं दृढोबताङ्ग:सच मानवः स्यात् । स मत्तमातंगबली
सकामी व्रजन्ति रोगाः क्षयजाश्च सर्वे ॥ ३ ॥ ____ अकरकरा, केशर, लौंग जायफल, भाँग, शिंगरफ सबसे आधी अफीम प्रथम अफीमको इस प्रकार शुद्ध करे--प्रथम दे.लायंत्र बनाकर इस हांडीमें शेरभर दूध भरे पीछे अफीमको किसी वस्त्रमें बांध उस हांडमि अधर लटका देवे, नीचे अग्नि बाले जब दूध गाढा होजावे बब उस पोटलीको निकाल लेवे. पीछे उसे उस पाकमें मिलावे. इस
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( ५६ )
दोला यन्त्र |
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारः
पाकमें सब औषधियों से छः गुनी मिश्री मिलाकर सबका मर्दन कर चार २ मासेकी गोलियां बनावे | रात्रिके समय इस गोलीको मुखमें राखे तौ सौ सौ स्त्रियोंसे सम्भोग करनेकी सामर्थ्य होय. दृढदेह हाथीकासा वल, महाकामी हो और सम्पूर्ण क्षीणता आदि रोग नष्ट होवें ॥ १--३ ॥
अगस्त्यहरीतकी ।
द्विपञ्चमूलेभकणात्मगुप्ता भाङ्ग सटी पुष्करमूल विश्वा | पाठाऽमृताग्रंथि कशंखपुष्पीरास्त्राग्न्यपामार्गबलायवासान् ॥ १ ॥ द्विपालकान्जस्य यवाढकं च हरीतकीनां च शतं गुरूणाम् । द्रोणे जलस्याढकसंयुते वा क्वाथे कृते पूतचतुर्थभागे ॥ २ ॥ पचेत्तुल शुद्धगुडस्य दत्त्वा पृथक्सतैलं कुडवं घृतं च । चूर्ण तु तावन्मगधोद्भवाया देयं च तस्मिन्मधुशी सिद्धम् ॥ ३ ॥ रसायनं कल्कमथो विलिय़ाद्वे च मयी नित्यमथाशु हन्यात् । तद्राजयक्ष्मग्रहणीप्रदोषं शोकानिमांद्यं स्वरभेदकं च ॥४॥ पाण्ड्वामय श्वासशिराविकारान हृद्रोग हिक्काविषमज्वरांश्व | मेघाबलोत्साहगतिप्रदो वै हरीतकीपाकपतिर्वरिष्ठः ॥ ५ ॥
दशमूल, गजपीपल, केंचके बीज, भारंगी, कचूर, पुह करमूल, सोंठ, पाढ, गिलोय, पीपलामल, शंखपुष्पी (शंखाहूली), रासना,
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(५७)
चित्रक, ओंगा, गंमेरन, जवासा इन सब औषधियोंको दो दो पल लेवे. बडी हरड़ १००, पानी ३६० पल अर्थात् २७ सेर ९ पैसे १ टंक लेवे पीछे उन हरडोंको उस पानीमें औटावे जब जलका चतुर्थांश रहे तब उतार लेवे पीछे १० सेर गुड २० पल पानीमें भयवे ४ पल तेल ४ प घृत ४ पल पीपलका चूर्ण पीछे पूर्वोक्त
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में हरड डाले और तैलादिक मिलावे, जब शीतल होजाय तब ४ पल शहद डाल. इलायची, नागकेशर, पत्रज और तज ये चारों औषधि एक एक पल डाले. यह उत्तम रसायन है. इनमेंसे दो हरड कल्कसमेत नित्य प्रातः काल खाय तो राजयक्ष्मा, संग्रहणी, सूजन, मन्दानि स्वरभेद, डरोग, श्वास, मस्तकरोग, हृदयरोग, हिचकी, विषमज्वर इनको नाश करे. बुद्धि बल उत्साह इनको बढावे, चलने की शक्तिको देवे, इस श्रेष्ठ हरडपाकको अगस्त्यऋषिने निर्माण किया है ॥ १-५ ॥
मधुपक हरीतकी । सुपकपथ्यापलपञ्चकं च मूत्रे गवां प्रस्थमिते विपाच्यम् । प्रस्थे पुनः काञ्जिकदुग्धतके पक्त्वा ततो निष्कुलिका विधेया ॥ १ ॥ व्योषं यवानी कुटजस्य बीजं मुस्ताजलं दाडिममम्लवेतसम् । सधातकीपुष्पमजाजियुग्मं कणा जटा मोचरसं सबिल्वम् ॥ २ ॥ सौवर्चलं सैन्धवमइमवल्कं जम्ब्वाम्रमज्जाऽतिविषा च पाठा। लवं - गजातीफलतुर्यजातान्येतानि तुल्यानि विचूर्णि -
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(८)
योगचिन्तामणिः । [ पाकाधिकारः
तानि ॥ ३ ॥ कपित्थमाण्डूरमयोदशांशा समस्तचूर्णार्द्धमिता सिता च । एतैश्च पथ्या परिपूरणीया सूत्रेण युक्ता परिवेष्टनीया ॥ ४ ॥ स्थाल्यां ततस्तकमधो निधाय तृणानि मुक्त्वोपरि तां विमुच्य | मन्दाग्निना याममथो विपाच्य विहाय सीतां मधुनिक्षिपेच्च ॥ ५ ॥ सा सेव्यमाना ग्रहणीप्रमेहश्वासापहा अग्रिकरा सवृष्या । पाण्डवामवातापहरी च पुष्टिप्रदायिका मध्वभया प्रदिष्टा ॥ ६ ॥
A
पकी बडी हरड ५ पल लेवे, उनको प्रस्थभरम गौके मूत्रमें औटावे तदनन्तर कांजी दूध और छाछ इनको एक एक प्रस्थ लेकर इनमें पृथक २ औटावे जब औट जावे तब उतारकर उनकी गुटली निकालडाले | पीछे सोंठ, मिरच, पीपल, अजवायन, इन्द्रयव, नागरमोथा, हाऊबेर, आनारदाना, अमलबेंत, धावडाके फूल, जीरा सफेद, जीरा काला, पीपल, जटामांसी मोचरस बेलगिरी, 'काला' नोन, सेंधानोन, पाषाणभेद, आमकी गुठली, जामुनकी मुटली, अतीस, पाढ, लौंग, जायफल, इलायची, नागकेशर, पत्रज इन सबको बराबर लेवे कैथ, मंडूर दशांश लेवें, सब चूर्णसे आधी मिश्री लवे इन सबको कूट पीस चूर्ण कर उन हरडोंमें भरे पीछे उन हरडोंको डोरेसे बांध देवे पीछे मिट्टीके पात्र में छाछ भरकर डरडोंको बांधकर उसमें लटका देवे पीछे मन्दाग्निसे उनको पचावे जब पकजावे ar उतारकर शीतलकर शहदमें डुवोदेवे. इनके खानेसे संग्रहणी, श्वास, खांसी, प्रमेद दूर होवे और जटरानिको बढावे, वृष्य, है,
तज,
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १९ )
पांडुरोग आमवात नष्ट होवे पुष्टिकर्त्ता यह मधुपक्वहरीतकी है इसी प्रकार आंवले का पाक बनाना ॥ १-६ ॥
आमलापाक ( च्यवनप्राश )
शृङ्गीता मलकीफलचिकबलाच्छिन्नाविदारीसटीजीवंतीदशमूलचन्दन घनैर्नीलोत्पलैलावृपैः। मृद्रीकाष्टकवर्ग पौष्करयुतैः सार्द्ध पृथक्पालकै रंबुद्रोणशतानि पंचविपचेद्धात्रीफलानामतः ॥ १ ॥ उद्धृस्यामलकानि तैलघृतयोः षडूभिः पलैः संमिता भृष्टान्यर्द्धतुलां निधाय विधिवन्मत्स्यण्डिकायां पचेत् । शीते षण्मधुनापलानि कुडवा वंश्यश्वतुर्जातकं मुष्टिर्मागधिकापलद्वयमितः प्राश्यः स्मृतश्यावनः ॥ २ ॥ रक्तपित्ते क्षये क्षीणे कासे कुठे भ्रमे तृषि | आमलक्यादिकः पाको बलीपलितनाशनः ॥ ३ ॥
काकडासिंगी, तालीसपत्र, त्रिफला, खरेंटी, गिलोय, विदारीकन्द, कचूर, जीवंती ( डोडी ), दशमूल, चन्दन, भीमसेनी कपूर, कमल-गट्टा, इलायची, अडूसा, दाख, अष्टवर्ग, पुइकरमूल ये सब औषधि दो दो पल लेकर, पानी एक द्रोण (४०९६ टंक ) में आम लोंको औटावे पीछे निकालकर तेल और घृत दोनो छः पल लेकर इनमें आंवलोंको जुदे २ भूने पीछे ५ सेर मिश्री की चासनी कर उसमें आंवलोंको पाग लेवे जब शीतल होजावें तब छः पल शहद डाल और वंशलोचन, चातुर्जात, पीपल ये दो पळ डाले यह च्यवनप्राशाव
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(६०)
योगश्चिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारः
ह है । इसके खानेसे रक्तपित्त, क्षयसे जो क्षीण होगया हो, खांसी, कुष्ठ, भ्रम, प्यास इन सब रोगोंको यह आमलापाक नाश करे तथा सुलझटका पडना और सफेद बाल होनेको नाश करे ॥ १-३ ॥
अडूसापाक १ - ३ ॥
वासाक्षुद्राग्निपथ्यामलकफलयुतं पञ्चमूलद्वयं च झिंझिण्याः काथमेनं वसुगुणपयसा पाचितं तुर्यभागः । ग्राह्यस्तस्मिन्गुडमिति ततो निक्षिपेत्पाचयेच्च निक्षेप्या व्योषयुक्ता बलमुशलियुता जातकं साथरी च ॥ १ ॥ शृंगाटकं बिल्वगिरं हरिद्रां खैरीरगुंदं च शतावरीं च । जातीफलं माजुफलं कबाबी आकहिकं मालविकाजगंधाम् ॥ २ ॥ सजातिपत्री फटिका प्रियंगु गुन्दीफलं क्षौद्रयुतं घृतं च । चूर्ण क्षिपेदिक्षुर से सुपक्के लेहो भवे - - द्वासकसंज्ञकोऽयम् || ३ || कासश्वासहरः सदा बलकरः कामाग्निसन्दीपनो लेहोऽयं सरुजामभीष्टफलदः प्रोक्तः स वासाह्वयः ॥ ४ ॥
१- अडूसा, कटेरी, चित्रक, हरड, आंवला ये औषधि दो दो बल लेवे, दशमूल, झिंझणी ( डिडून ) का काढा इन सब औषधियों को आठ गुने पानीमें औटावे जब चौथाई बाकी रहे तब उतारकर गुड मिलावे और उसमें पूर्वोक्त 'औषधियोंको मिलाकर परिपक्व करे । पीछे इन औषधि
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प्रथमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ६१ )
योंको डाले - सोंठ, मिरच, पीपल, खरेंटी, मुसली, चातुर्जात, अजवायन, सिंघाडा, बेलगिरी, हलदी, खैरका गोंद, शतावर, जाय-फल, माजूफल, कबाबचीनी, अकरकरा, मालवनी, बावची, अस गंध, जावित्री, फिटकरी, प्रियंगु, चिरौंजी, गोंदीके फल, शहद, व्रत इन सब औषधियोंको मिलावे तो यह वासावलेह बनकर तैयार हो । यह खांसी श्वासको हरे, बल करे, कामानि बढावे, संपूर्ण रोगोंको यह वासावलेह दूर करता है ॥ १-४ ॥
|
तुलामादाय वासायाः पचेदष्टगुणे जले । तेन पादावशेषेण पाचयेदार्द्रकं भिषक् ॥ १ ॥ हरीतकीनां चूर्णस्य सिता शुद्धा तथाशतम् । शीतीभूते क्षिपेत्तत्र क्षौद्रस्याष्टौ पलानि च ॥ २ ॥ वंशीत्वगायाश्चत्वारि पिप्पल्यष्टपलं तथा । चातुर्जातपलं चैव लेहोऽयं संप्रणाशयेत् । रक्त। पित्तं क्षयं चैवश्वासमनेश्व मन्दताम् || ३ ||
२ - अड्डूमा एक तुला लेवे, उसको अठगुने पानीमें औटावे जब चतुर्थीश जल शेष रहे तब उसमें ११४ टंक हरड औटावे । पीछे १०० पल मिश्री मिलाकर अवलेह बनावे जव शीतल होजाय तब ८ पल शहद डाले और ८ पल वंशलोचन, ८ पल पीपल, १ पल चातुर्जात डाले यह अवलेह रक्तपित्त, क्षय, वास और मन्दानिका नाश करे ॥ १-३ ॥
वासकस्य रसप्रस्थं प्रस्थार्द्ध मधुशर्करे । पिप्पल्या द्विपलं साज्यं सम्यग्लेहं विपाचयेत् ॥ १ ॥ श्रेष्ठो बलावलेहोऽयं राजयक्ष्म निषूदनः । कासश्वासहरः प्रोक्त उरःक्षतहरस्तथा ॥ २ ॥
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( ६२ )
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकार:
३ - अडूसेका रस एक प्रस्थ लेवे और आधा प्रस्थ शहद और मिश्री लेवे, दो पल पीपल दो पल घृत लेकर अवलेह बनावे | यह वासावलेह राजपक्ष्माका नाश करे। खांसी श्वास और उरःक्षतको दूर करे ॥ १-२ ॥
भारंगीपाक । शतभागं तु भार्द्वयाश्च दशमूलं ततः परम् । शतं हरीतकीनां च पचेत्तोये चतुर्गुणे ॥ १ ॥ पादशेषे ततस्तस्मिन्नव्यवस्त्रेण गालयेत् । आलोडच च तुलां पूतगुडस्य च क्षिपेत्ततः ॥ २ ॥ पुत्रः पचेत मन्दानौ यावद्यत्वमाप्नुयात् । शीते च मधुनश्चात्र षट् पलानि प्रदापयेत् ||३|| त्रिकुटं त्रिगन्धं च पलैकानि पृथक्पृथक् । कर्षद्वयंयवक्षारं संचूर्ण्य प्रक्षिपेत्ततः ॥ ४ ॥ भक्षयेदभयामेकां लेह्यस्यार्द्धपलं लिहेत् । श्वासं सुदारुणं हन्ति कासं पञ्चविधं तथा ॥ ५ ॥
भारंगी १०० क लेवे १०० टंक दशमूल, १०० टंक हरड इन सबको चौगुगे जलमें डालकर औटावे जब चतुर्थीश जल शेष रहे त उतारकर वस्त्रसे छानकर उसमें १६०० टंक गुड डालकर मन्दाग्निसे औटावे जब अवलेह होजाय तब शीतल कर ९७ टंक शहद डाले और त्रिकुटा, त्रिसुगंध ( तज, पत्रज, इलायची ये सवं औषधि जुदी जुदी कूट पीसकर डाले ८ टंक जवाखार डाले इनमेंसे एक हरड नित्य प्रातः काल खावें और अवलेह टंक ८ पीवे तो घोर श्वास और पांच प्रकारकी खांसीका नाश करे ॥ १-५ ॥
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प्रथमः] माषाटीकासहितः। (६३)
कटेरी पाफ । समूलपत्रान्वितकण्टकार्यास्तुलां जले द्रोणपरिप्लुतां च । रीतकीनां च शतं निदद्यादत्त्वाऽत्र पक्त्वा चरणावशेषम् ॥१॥ गुडस्य दत्त्वा शतमेतदग्नौ सुपक्कमुत्तार्य ततः सुशीते। कटुत्रिकं च त्रिफलापमाणं पलानि षट्पुष्परसानि तत्र॥२॥ तुगाक्षीरी च गायत्री भाी कर्कटशृङ्गिका । कट्फलं पुष्करं वासा क्षिपेदर्द्धपलोन्मितान् ॥ ३॥ क्षिपेञ्चतु तफलं यथाग्नि प्रयुज्यमानो विधिनाऽवलेहः। वातात्मकं पित्तकफोद्भवं च द्विदोषनं कासमपि त्रयं च ॥ ४ ॥ क्षतोद्भवं च क्षयनं च हन्यात् सपीनसंश्वासमुरक्षितं च । यक्ष्मागमेका दशमुग्ररूपं भृगूपदिष्टं हि रसायनं च ॥५॥ कटेरीका पञ्चांग १०० पल ४०९६ टंक पानीमें हरड १०० डालकर औटावे, जब चतुर्थाश जल शेष रहे तब उतारलेवे, उस जलको छानकार १०० पल गुड डालकर औटावे, पीछे उतार शीतल कर ३ पल त्रिकुटा ६ पल शहद डाले और वंशलोचन, खैरसार, काकडासिंगी, कायफल, पुहकरमूल, अडूसा ये औषधि आठ आठ ठंक डाले और १ पल चातुर्जात डालकर अवलेह बनावे । इसमेंसे मनुष्यकी अग्नि देखकर खानेको देवे तो वात, पित्त, कफ, द्विदोष, त्रिदोष हनके विकारसे उत्पन्न खांसी, उरक्षितकी खांसी, क्षय, पीनस, श्वास, उरक्षित
और ग्यारह प्रकारकी यक्ष्माको दूर करे. यह अवलेह भृगुऋषिने कहां है ॥ १-५ ॥
टाव५०० पल गुड डाल और वंशलोच
आठठक 8
अग्नि
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(१४)
योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकारः
भिलावा पाक । भल्लातकानां पवनोद्भुतानां वृन्ताच्च्युतानां च तथाऽऽढकं स्यात् । तच्चेष्टकाचूर्णचयं विघृष्य प्रक्षाल्य तोये विसृजेत् प्रवाते ॥ १ ॥ शुष्कं पुनस्तद्विदलीकृतं च ततः पचेदप्सु चतुर्गुणासु। तत्पादशेषं परिपूतशीतं क्षीरे पचेत्तच्च पुनस्तथैव ॥२॥ घृतांशयुक्तेन घनं यथा स्यात्सितोपलेषोडशभिः पलैश्च । विमृश्य संस्थाप्य दिनानि सप्त ततः प्रयुज्याग्निबलेन मात्राम् ॥३॥ जये. द्विकारानखिलांश्व कुष्ठान् दृष्टिं च दीप्तिं च बलं करोति । शतायुषं चैव नरं विधत्तेराजा ह्ययं सर्वरसायनानाम् ॥४॥
पवनसे टूटकर गिरे भिलावे एक आढक (४०९६ टंक ) ले मोटे कपडेमें बांधकर पृमि पछाडे, पीछे ईंटके कुकुआसे मसल पानीसे धोकर शुद्ध करे और हवामें रख देवे, जब सूखजायँ तब दो दो टुकडे कर चौगुने जलमें औटावे, जब चतुर्थांश जल शेष रहे तब वस्त्रमें छानलेवे, पीछे चौगुना दूध डालकर फिर औटावे, जब चतुर्थाश दूध शेष रहे. तब निकालकर घृतमें पकावे, पीछे १६ पल मिश्रीकी चासनीमें पाक बनालेवे । इसको चीनी वा काचके पात्रमें सात दिन रखकर पीछे बराबर देखकर खानेको देवे तो सम्पूर्ण कुष्ठके विकारोंका नाश करे, दृष्टिको बढावे, बल करे, सौ वर्षकी आयु होय, यह सब रसायनोंका राजा है. अथवा खांडकी चासनी करके इला
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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। यची, कपूर, लौंग, तज, पत्रज, नागकेशर, जावित्री, जायफल इन सब औषधियोंका ३३ टंक चूर्ण डाले, पीछे अवलेह बनाकर घृतके चिकने बरतनमें रखदे और धानमें आठ दिन गाडकर खावे, इसपर तेल लगाना, खारा खट्टा खाना वर्जित है ॥ १-४ ॥
सूरणपाक। त्रिवृत्तेनोवती दन्ती श्वदंदा वित्रकं सटी । गवाक्षी विश्वमुस्ता च विडङ्गा च हरीतकी ॥१॥ पलोमितानि चैतानि पलान्यष्टौ चरुक्षराः । तावत्फलं वृद्धदारु सूरणस्य तु षोडश ॥२॥ जलद्रोणद्वये क्वाथ्यं चतुर्भागावशेषितम् । पूर्व तु तं रसं भूयः वाथेभ्यस्त्रिगुणो गुडः ॥३॥ लेहं पचेत्तु तं ताव द्यावह:प्रलेपनम । अवतार्य ततः पश्चाच्चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ ४॥ विवृत्तेजोवती कन्दचि.
कान्दिपलां शकान् । एलात्वमरिचं चापि नागावं चापि षट्पलम् ॥५॥ द्वात्रिंशत्पलकं चैव चूर्ण दत्त्वा निधापयेत् । ततो मात्रां प्रयुजीत जीर्णे क्षीणे रसायने ॥ ६॥ पञ्च गुल्मान् प्रमेहांश्च पाण्डुरोगं हलीमकम् । जयेदीसि सर्वाणि तथा सर्वोदराणि च ॥ ७॥ रसायनवरचैव मेधाजननकारकः । गुडः श्रीबाहुशालोऽयं दुर्नामारिः प्रकीर्तितः ॥ ८॥
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(६६)
योगचिन्तामणिः ।
[ पाकाधिकारः
निसोथ, मालकांगनी, दंतून, गोखरू, चित्रक, कचूर, इन्द्रायण, सोंठ, नागरमोथा, वायविडंग, हरड इन औषधियोंको सोलह सोलह टँक लेवे, पानी ८१९९२ टंक लेवे, भिलावे ८ पल, विधायरा ८ पल, जमीकन्द १६ पल इन सबको पूर्वोक्त जलमें डालकर औटावे. जब चौथाई शेष रहे तब उतारकर क्वाथसे तिगुना गुड डालकर औटावे और कड़छी से चलाता जाय, आगे कहे प्रकार अवलेह बनालेवे | जब कडछीमें लिपटने लगे, तब उतारकर ये चूर्ण और डाले - निसोथ, मालकांगनी, सूरण (जमीकंद ), चित्रक इनको बत्ती बत्तीस पल लेवे । इलायची छोटी, तज, मिरच, नागकेशर ये औषधि और छः छः पल लेवे, इन सबको उस अवलेहम डलकर रखे, पीछे इसकी मात्रा देवे अजीर्णता और क्षीणता में यह रसायन है. पांच प्रकारके गुल्म, प्रमेहमात्र, पांडुरोग, हलीमक सर्व प्रकरकी बवासीर तथा सर्व प्रकार के उदररोगपर यह उत्तम रसायन है । तीव्र बृद्धि करे, यह बाहुशाल गुड दुर्नाम (बवासीर) का शत्रु है शास्त्रान्त में इसको बाहुशालगुड कहते हैं ॥ १-८ ॥
आर्द्रकपाक |
चूर्णितं चार्द्रप्रस्थं गुडप्रस्थेन पाचयेत् । सर्पिषः कुडवं दत्त्वा चूर्ण तं वेदमापचेत् ॥ १ ॥ चातुर्जातफलं व्योषं त्रिफला तुर्यभागकाः । लवंगमभया भाङ्ग वृपं भूनिंबपौष्करम् ॥ २ ॥ देवदार्वश्वगंधा च जातीपत्रफलागुरु । गायत्रीसारमृदी च द्विगुणं च रसं पेित् ॥ ३ ॥ कासं श्वासं क्षयं शोषं पण्ठैकादशरूपिणम् । श्लेष्मप्रकोपमामं च मंदाग्निमुदरग्रहम् ॥ ४ ॥
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प्रथमः ]
माषाटीकासहितः ।
हृद्रोगं रक्तदोषं च हन्ति वर्णाभिवृद्धिकृत् । बलपुष्टिप्रदो वृष्य आर्द्राको लेह उच्यते ॥ ५ ॥
(६७)
अदरको छील टुकडे कर उनको धीमें डालकर लोहे या मिट्टीकेपात्र में भूने, पीछे जितना अदरख लेवे उतना गुड लेकर उसमें उस arrest डालकर औटावे, कडछी से चलाता जाय, जब अच्छे प्रकार परिपक्क होजाय तब इतनी औषधि और मिलावे - सोंठ, जीरा, मिरच, नागकेशर, जावित्री, इलायची, तज, पत्रज, पीपल धनियां, काला जीरा, पीपलामूल, वायविडंग ये औषधि शीतल होनेपर मिलाकर रख छोड़े, आठ टंक नित्य शीतकालमें खाय तौ श्वास, खांसी, बहरापन, स्वरभंग, अरुचि, हृद्रोग, संग्रहणी, गोला, शूल, सूजन इतने रोग नष्ट होवें ॥ १-५ ॥
लहसनपाक ।
तदुग्रगन्धमादाय रात्रौ तके विनिक्षिपेत् । प्रातर्निस्सार्य तत्पिष्ट्वा ततो दुग्धे विपाचयेत् ॥ १ ॥ निस्तुषं लशुनं प्रस्थं क्षीरप्रस्थचतुष्टये । विपाच्य सांद्रीभूतेऽस्मिन्सर्पिषः कुडवं क्षिपेत् ॥ २ ॥ रात्रा वरी वृषा च्छिन्ना सटी विश्वा सुरद्रुमम् । वृद्धदारुकदीप्यानिसुताह्वा सपुनर्नवा ॥ ३ ॥ फलत्रयं पिप्पली च कृमिघ्नः कर्षसंमितः । विचूर्ण्य शीते मधुनः कुडवं तत्र योजयेत् ॥ ४ ॥ शीतया भक्षयेन्मात्रां मांद्यवाते हनुग्रहे । आक्षेपकादिभग्रेषु कक्षोरुस्तम्भहृद्रहे ॥ ५ ॥
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( ६८ )
योगचिन्तामणिः
[ पाकाधिकार :
सर्वाङ्गसन्धिभने च वातजाशीतिरोगिणे । पथ्यो लशुनपाकोऽयं वर्णायुः - पुष्टिकारकः ॥ ६ ॥
लहसनकी दुर्गंध दूर करने के निमित्त रात्रिको छाछ में भिगोदे, प्रातःकाल छाछ में से निकालकर छिलका दूर कर पीसे फिर चौमुने दूधमें औटावे, जब खोवा होजाय तब घी ६४ टंक डाले | रास्ता, शतावर, अडूसा, गिलोय, कचूर, सोंठ, देवदारु, विधायरा, अजमायन, चित्रक, सांठकी जड, त्रिफला, पीपल, वायविडंग ये औषधि चार टंक लेवे, सबका चूर्ण कर पूर्वोक्त खोवामें मिलावे. सबकी बराबर मिश्री ले चासनी कर अवलेह बनावे, जब शीतल होजाय तब ६४ टंक शहद उसमें डाले तो यह लहसुनपाक बनकर तैयार होवे। यह पाक मन्दवात, हनुग्रह, आक्षेपकादि भग्नरोग, कमर ऊरु जकडना, हृदयका जकडना, सर्वागमें स्थित वात, संधियों में स्थित वात और अस्सी प्रकार के वातरोगको नष्ट करे, यह लहसनपाक पथ्यरूप है. वर्ण, आयु और पुष्टिका कर्ता है. अथवा घी तेल मिलाकर ले, सो ग्रन्थान्तरों में लिखा भी है. लहसनका तेल और घृत मिलाकर प्रातःकाल सूर्योदय के समय खानेसे विषमज्वर और वातके विकारको २ष्ट करे, बुढापे को दूर करे, इसके खानेसे मनुष्य कामदेव से भी अत्यन्त सुन्दर होवे ॥ १-६ ॥
स्त्री योग्य कसेलापाक |
कसेलं कुडवं चैव घृतं देयं च तत्समम् । गोक्षीरमाढकं देयं पचेत्सम्यग्भिषग्वरः ॥ १ ॥ उत्तार्य च क्षिपेत्तत्र गुन्द्रकोलं पलद्वयम् । खण्ड प्रस्थद्वयं चैव पातिं कृत्वा क्षिपेत्पुनः ॥ २ ॥ व्योषं पाषाणभेदं च लोड़ जाती शतावरी ।
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प्रथमः 1
भाषाटीकासहितः ।
( ६९ )
मंजिष्ठा धातकी माजू बिल्वमोचरसं तथा ॥ ३ ॥ एतेषां शुक्तिमात्रं च यतुः कर्षे च मोदकम् । स्त्रीप्रदरं निहन्त्याशु योनिदोषं च शाम्यति ॥ ४ ॥
कसेला ६४ टंकको घृत ६४ टंकमें पकावे पीछे गौका दूध १०२४ टंक डालकर उत्तम वैद्य भली भाँति से खोवा करे. पीछे इसको उतारकर बबूल का गोंद ३२ टंक लेवे उसमें घी डालकर तल लेवे, ५१२ टंक खांडकी चासनी कर उसमें पूर्वोक्त गोंद और खोवा डालकर इन औषधियोंको और मिलावे --सोंठ, मिरच, पीपल, पाषाणभेद, लोध, जावित्री, शतावर, मँजीठ, धायके फूल, माजूफल, बेलगिरी, मोचरस ये सब औषधि दो दो कर्ष लेवे. सबको मिलाकर चार कर्षके अनुमान लड्डू बनावे, इसके खानेसे स्त्रियों का प्रदर और योनिके दोष दूर होवें ॥ १-४ ॥
अण्डीपाक ।
निस्तुषं बीजमैरण्डं पयस्यष्टगुणे पचेत् । तस्मिन्पयसि शोषं च तं बीजं परिपेषयेत् ॥ १ ॥ पश्चात् घृतेन संयुक्तं सम्पचेन्मृदुवह्निना । कटुत्रिकं लवङ्गं च एला त्वक्पत्रकेशरम् ॥ २ ॥ अश्वगन्धाशिफा रास्ना षड्गन्धा रेणुका वरी । लोहं पुनर्नवा श्यामा उशीरं जातिपत्रकम् ॥ ३ ॥ जातीफलमभ्रकं च सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् । शीतीभूतेऽवलेोऽयं तस्मिन्खण्डं समोदयम् ॥ ४ ॥ वातारिपाकनामाऽयं प्रातरुत्थाय भक्षितः । अशीतिवातरोगांश्च चत्वारिंशच्च पैत्तिकान् ॥ ५ ॥
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(७०) योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकारः--
उदराणि तथा चाष्टौ शोफरोगानिहन्ति च । विंशतिं मेहजान् रोगान्पष्टिं नाडीव्रणानि च ॥६॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानिक्षयरोगांश्च सप्त च । पंचैव पाण्डरोगाणि पंच श्वासान्प्रणाशयेत् ॥ ७॥ चतुरो ग्रहणीरोगान्हद्रोगं च गलग्रहम् ॥ अनेकवातरोगाणि तानि सर्वाणि वारयेत् ॥ ८॥ शुक्लापाकेति विख्यातः सर्वरोगनिवारणे ॥ ९॥
नागपुरीययतिगणश्रीहर्षकीर्तिसंकलिते ।
वैद्यकसारोद्वारे प्रथमः पाकाधिकारोऽयम् ॥ १ ॥ - अरण्डीक छिलके दूर कर आठगुने दूधमें औटावे, जब दूध सूख जाय तब पीसकर घृत मिलाय पचावे. त्रिकुटा, लौंग, इलायची, पत्रज, तज, केशर, असगन्ध, सोवाके बीज, पीपलामूल, रेणुका, शतावर, सार, सांठकी जड, दारुहलदी, उशीर, जावित्री, जायफल, अभ्रक ये औषधि सब बराबर लेवे, सबका चूर्ण कर पीछे अवलेह करे जब शीतल होजाय तब सब औषधियोंकी बराबर खाण्ड डाले। यह वातारिनाम पाक है । इसको प्रातःकाल भक्षण करे तो अस्सी प्रकारके वातरोग, चालीस प्रकारके पित्तरोग, आठ प्रकारके उदरविकार, सूजन, बीस प्रकारक प्रमेह, साठ प्रकारके नाडीव्रण, अठारह प्रकारके कुष्ठ, सात प्रकारकी क्षय, पांच प्रकारके पाण्डुरोग, पांच प्रकारके श्वास, चार प्रकारकी संग्रहणी, हृदयरोग, गलग्रह, अनेक वादीके रोग इन सबको नष्ट करता है । यह शुक्लापाकनामसे विख्यात है, इसी प्रकार और भी, पाक वैद्य अपनी बुद्धिसे बना लेवे ॥ १-९॥ इति श्रीमाथुर दत्तरामचौवेकृत माथुरीमञ्जूषा भाषाटीकायां
पाकाधिकारः प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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अथ चूर्णाधिकारः- द्वितीयोऽध्यायः २.
कुंकुमादिचूर्ण |
कुंकुमं मन्दनी मुस्ता चातुजीतफलत्रिकम् । nagari ani दाडिमं मरिचं कणा ॥ १ ॥ यवानी तंतडीकं च हिंगुलं घनसारकम् । तुम्बरं तगरं तोयलवंगं जातिपत्रिका ॥ २ ॥ समंगा पुष्करं श्यामा पद्मबीजं तुगा सटी । तालीसं चित्रकं मांसी जातीफलमुशीरकम् ॥ ३ ॥ •बला नागबला मांसी कुष्टग्रंथिकमाषिकाः । यावत्येतानि सर्वाणि तावन्मोचरसं ददेत् ॥ ४ ॥ सर्वतुल्या सिता योज्या कर्षमात्रं तुं भक्षयेत् । प्रभाते च निशादौ च भोजनान्ते विशेषतः ॥ ५ ॥ संध्याकाले तथा भोज्यं वाजीकरणमुत्तमम् । अजीर्णे जरयत्याशु नष्टाश्वादिपनम् ॥ ६ ॥ अशीतित्रात जानू रोगांश्चतुर्विंशतिपैत्तिकान् । विंशतिश्लेष्मजांश्चैव हृल्लासं छर्द्यरोचकम् ॥ ७ ॥ पञ्चैव ग्रहणीदोषानतिसारं विशेषतः । क्षयमेकादशं वासं कासं पञ्चविधं तथा ॥ ८ ॥ उदरव्याधिनाशं च मूत्रकृच्छ्रं गलग्रहम् । पुत्रं जनयते वंध्या सेव्यमाने तथौषधे ॥ ९ ॥
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(७२) योगचिन्तामणिः। चूर्णाधिकार:सन्निपातातुरं चैव विस्फोटकभगन्दरम् । नेत्ररोगं शिरोरोगं कर्णमन्याहूनुग्रहम् ॥१०॥ हृद्रोगं कण्ठरोगं च जानुजंघागतं तथा। सर्वरोगविनाशाय चरकेण प्रभाषितम् ॥ ११ ॥ केशर, कस्तूरी, चातुर्जात, त्रिफला, अकरकरा, अभ्रक, धनियाँ, अनारदाना, मिरच, पीपल, अजमायन, तंतडीक, हिंगुल, कपूर, तुंबरू, तगर, नेत्रवाला, लौंग, जावित्री, मँजीठ अथवा लजाल, पोहकरमूल, प्रियंगु, कमलगट्टा, वंशलोचन, कचूर, तालीसपत्र,चित्रक, छड, जायफल, खस, खरेटी, गंगेरनकी छाल, सोनामक्खी , कृठ, पीपलामूल, उडद ये सब औषधि बराबर लेवे तथा सबकी बराबर मोचरस और सबकी बराबर मिश्री मिलावे, इस चूर्णको प्रात:काल, सायंकाल और भोजन के अन्तमें वा रात्रिमें खाय तो वाजीकरण करता है. अजीर्णको तत्काल नष्ट करे, मन्दाग्निको प्रबल करे, अस्सी प्रकारके वातरोग, चालीस प्रकारके पित्तरोग, बीस प्रकारके कफरोग, सूखी रद्द, वमन, अरुचि, पांचप्रकारकी संग्रहणी, अतीसार, ग्यारह क्षयरोग, श्वास, पांचप्रकारकी खांसी, उदररोग, मूत्रकृच्छू और गलग्रह इन सबका नाश करे । इस चूर्णके खानेसे वंध्याके पुत्र होय, सन्निपात, विस्फोटक, भगंदर, नेत्ररोग, शिरके रोग, कर्णरोग, मन्यानाडीका जकडना, हनुग्रह, हृदयरोग, कंठरोग और जानुके रोग इन रोगोंसे आदि ले सर्वरोग नष्ट करनेके निमित्त चरकऋषिने कहा है ॥१-११॥
लवङ्गादि चूर्ण। लवंगक कोलमशीरचदनं नतांसनीलोत्पलकष्णजीरकम् । एलासकृष्णागरनागकेशरं कणं सविश्वानलदं सहांबुना ॥ १ ॥ कर्पूरजातीफलवंश. लोचना सितार्द्धमात्रासममुक्ष्मचूर्णितम् । सरोचनं
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द्वितीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
(७३)
तर्पणमग्रिदीपनं बलप्रदं वृष्यतमं त्रिदोषनुत् ॥ २ ॥ अशविबध्धं तमकं गलग्रहं सकासहिक्कारुचियक्ष्मपीनसम् । ग्रहण्यतीसारमथासृजःक्षयं प्रमेहगुदमाश्च निर्हति सत्वरम् ॥ ३ ॥
लौंग, कंकोल, खस, सफेद चन्दन, तगर, नीलकमल, कालाजीरा, छोटी इलायची, काला अगर, नागकेशर, पीपल, सोंठ, छड, नेत्रवाला, कपूर, जायफल, वंशलोचन ये सब औषधि बराबर लेवे, सबकी बराबर मिश्री मिलावे | यह चूर्ण रुधिरकर्त्ता, इंद्रियों की पुष्टि करे, afrat दीप्त करे, बल करे, वृष्य है, त्रिदोषको हरे | बवासीर, अफारा, तमकश्वास, गलग्रह, खांसी, हिचकी, अरुचि, यक्ष्मा, पीनस, संग्रहणी, अतीसार, रुधिरके विकार, क्षय, प्रमेह और गोला इन सबको शीघ्र नाश करता है ॥ १-३ ॥
बृहलवङ्गादिचूर्ण |
लवङ्गमेला तजपत्रजोत्पलं शीरमांसी तगरं सवालकम् । कङ्गोलकृष्णागरुनागकेशरं जातीफलं चन्दनजातिपत्रिका ॥ १ ॥ व्यजाजिका त्र्यूषपुष्करं सटी फलत्रिकं कुष्ठविडंगचित्रकम् । तालीसपत्रं सुरदारु धान्यकं यवानि मिष्टाखदिराम्लवेतसम् ॥ २ ॥ तुगाऽजमोदा घनसारमभ्रकं शृङ्गी वृषाग्रंथिकमग्रिमथकम् । प्रियंगुमुस्तातिविषा शतावरी सत्त्वं गुडूच्यास्त्रिवृतादुगलभा ॥ ३ ॥ समानि सर्वेश्व समा सिता भवेदवृहद्धव
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(७४) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकार
ङ्गादिरयं निगद्यते । सायं प्रगे खादति कर्षसमितं भवन्ति देहे बलवीर्यपुष्टयः ॥ ४॥ निहतं दीपयत्यग्निं तनुवर्णकरं परम् । वातघ्नं नेत्रहृदयकण्ठजिहाविशोधनम् ॥५॥ प्रमेहकासारुचियक्ष्मपीनसक्षयास्रदाहग्रहांत्रिदोपनुत् । हिक्कातिसारप्रदरं गलग्रहं निहन्ति पाण्डं स्वरभंगमश्मरीम् ॥६॥ लौंग, इलायची, तज, पत्रज, कमलगट्टाकी मिंगी, खस, छड, तगर, नेत्रवाला, कंकोल, काली अगर, नागकेशर, जायफल, सफेद चन्दन, जावित्री, दोनों जीरे, सोंठ, मिरच, पीपल, पोहकरमूल, कपूर, हरड, बहेडा, आंवला, कूठ, बायविडंग, चित्रक, तालीसपत्र, देवदारु, धनियां, अजमायन, मुलहठी खैरसार, अम्लवेत, वंशलोचन, अजमोद, भीमसेनीकपूर, अभ्रक, काकडासिंगी, अडूसा, पीपलामूल, अरनी, फूलप्रियंगु, मोथा, अतीस, शतावरी, गिलोयका सत्त्व, निसोथ, जवासा इन सब औषधियों को बराबर लेकर सबकी बरावर मिश्री मिलावे। यह 'बृहल्लवङ्गादि चूर्ण ' है इसको सायंकाल और प्रातःक लके समय चार टंकके अनुमान नित्य खाय तो देहमें बल और वीर्यकी पुष्टता होवे । प्रमेह, खांसी, अरुचि, राजयक्ष्मा, पीनस, क्षय. रुधिरमन्यदाह, संग्रहणी, त्रिदोष, हिचकी, अतीसार, प्रदर, गलग्रह, पांडू रोग, स्वरभंग और पथरी दूर होवे, अग्निको दीपन करे, देहका वर्ण उत्तम करे । वातके रोग, नेत्रके रोग, हृदय और कंठके रोग नष्ट होवें, जिताको शुद करे ॥ १-६॥
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द्वितीयः]
भाषाटीकासदितः।
पिपप्ल्यादिचूर्ण। पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। मरिचेन समायुक्तं बुधैः षट्कटु कथ्यते ॥१॥ पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिरच इनको पंडित पटकटु कहते हैं ॥१॥
शुंग्यादिचूर्ण । सविश्वसौवर्चलपुष्कराह्वयं सहिङ्मुष्णोदकपीतमेतत् । हत्कोष्ठपृष्ठान्तचरं क्षणांतः शूलं जयत्याशु मरुत्कफोत्थम् ॥ १॥ सोंठ, कालानोन, पोहकरमूल, हींग इनका चूर्ण गम्म जलके साथ पीनेसे हृदय, कोठा, पीठ, पेट आदिका शूल तथा वादी और फफका शूल तत्क्षण नष्ट होता है ॥ १ ॥
त्रिकुटादि चूर्ण । त्रिकुटंग्रन्थिकं ब्राह्मी रेणुकाकल्लपुष्करम् । लवंगमश्वगंधा च किगतं हपुषा मटी ॥ १॥ रास्त्रा श्वेता वचाभृङ्गं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । सन्निपाते महावाते चूर्णमेतत् सदा हितम् ॥ २॥ सोंठ, मिरच, पीपल, पीपलामूल, ब्राह्मी, रेणुका, अकरकरा, पोहकरमूल, लौंग, असगंध, चिरायता, हाऊवेर, कचर, राना, सफेद वच, भांगरा सब बगवर लेकर चूर्ण करे। यह चूर्ण सन्निपात और घोर वातव्याधि दूर करनेको अत्यन्त हित है ॥ १ ॥ २ ॥
एलादि चूर्ण १.४॥ सूक्ष्मैला केसरं भृङ्गं पत्रं तालीसकं तुगा। मृद्दीका दाडिमंधान्यं जीरके दे द्विकर्षिका ॥१॥
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(७६) योगचिन्तामणिः। चूर्णाधिकारःपिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम् । मरिचं दीप्यकं चैव वृक्षाम्लं चाम्लवेतसम्॥२॥अजमोदाऽजगन्धा च कपिकच्छेति कर्षिका । अत्यन्तसुविशुद्धायाः शर्करायाश्चतुःपलम्॥ ३ ॥ चूर्ण सदा हितं पुंसां परमं रुचिवर्द्धनम् । प्लीहकासामयार्शासि श्वासं शूलं च सज्वरम् ॥ ४॥ निहन्ति दीपयत्यग्निं बलवर्णकरं परम् । वातघ्नं लोचनं. हृद्यं कण्ठजिह्वाविशोधनम् ॥५॥ १-छोटी इलायची, केशर, भांगरा, तालीसपत्र, वंशलोचन, दाख, अनारदाना, धनियां, दोनों जीरे ये आठ आठ टंक लेवे. पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिरच, अजमायन, संतडीक, अमलवेत, अजमोद, असगंध, कौंच के बीज इन औषधियोंको चार चार टंक लेवे, मिश्री ४ पल डाले । यह चर्ण रुचिकर है, तापतिल्ली, खाँसी, बवासीर, श्वास, शूल, और ज्वर इनको नाश करे, अग्निको बढावे, वर्ण उत्तम करे, वादी, नेत्ररोग, हृदय, और कंठके रोगको नष्ट करे ॥ १-५॥
त्रुटिलवङ्गविडंगकटुत्रिकं घनशिवाशिवपत्रजकं समम् । त्रिगुणिता त्रिवृता च सिता समा अदन आम पतिष्यति कामतः॥१॥ २-छोटी इलायची, लौंग, वायविडंग, सोंठ, मिरच, पीपल, नागरमोया, आंवले, हरड, तमालपत्र इन सब औषधियोंको बराबर लेय और सच औषधियोंसे त्रिगुण निसोथ डाले और सबके समान मिश्री मिलाते । इस चर्णको खानेसे आम झडकर गिरपडे ॥ १ ॥
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भाषाटीकासहितः ।
'एलाकुङ्कुमचोचजातिपलयुक्छ्रीपुष्पजातीफलं मस्तक्या करहाटनागरयुतं फेनाहिकृष्णान्वितम् । एतेषां समशालशीतलरजः स्यादर्द्धकस्तूरिका दद्यात्क्षौद्रयुतं दिनांतसमये यामद्वयं स्तम्भकृत् ॥ १॥
द्वितीय: ]
(७७)
३ -- इलायची, केशर, तज, जावित्री, तमालपत्र, लौंग, जायफल, मस्तंगी, अकरकरा, सोंठ, अफीम, पीपल इन सबको बराबर लेवे और इन सबकी बरावर मिश्री और औषधियोंसे आधी कस्तूरी लेवे, सबको मिलाय रात्रिके समय इस चूर्णको शहद मिलाकर लेवे तो दो प्रकारका स्तंभन होवे ॥ १ ॥
शिलाजतुक्षौद्रविडङ्गसर्पिलहाभयापारदताप्यभाष्यम् । आपूर्यते दुर्बलदेहधातुः स्त्रियं निशायां च यथा शशांकः ॥ २ ॥
शिलाजीत, शहद, वायविडंग, घृत, सार, हरड, रससिंदूर, सोनामक्खी इन सबका चूर्ण पन्द्रह दिन सेवन करनेसे दुर्बल देवकी सब धातुपुष्टि करे, चन्द्रमाके समान प्रकाशमान करे ॥ २ ॥
सत्त्वं गुडूच्या गगनं सलोहमेला सिता मागधिकासमेतम् । एतत्समस्तं मधुनाऽवलीढं रामा शतं सेवयतीह षण्ढः ॥ ३ ॥
गिलोयका सत्त्व, अभ्रकसार, छोटी इलायची, मिश्री, पीपल इन सबका चूर्ण शहद के साथ मिलाकर खानेसे नपुंसकभी सौ स्त्रियोंसे सम्भोग करे || ३ ||
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(७८) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकारः-- गोक्षुरकः क्षुरकः शतमूली वानरिनागबलाऽतिबला च । चूर्णमिदं पयसा निशि पेयं यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति ॥ ४॥ गोखरू, तालमखाने, शतावरी, कौंचके बीज, गंगेरनकी छाल, खग्टो इन सबका चूर्ण रात्रिको दूधके संग उस मनुष्यको पीना चाहिये जिसके घरमें १०० स्त्री होवें ॥ ४ ॥
प्रमेहमें एलादिचूर्ण ४ । एलाश्मभेदकशिलाजतपिप्पलीनां चूर्णानि तण्डुलजलैलुलितानि पीत्वा । यद्वा गुडेन सहितान्य- . वलिह्य मासमासन्नमृत्युरपि जीवति मूत्रकृच्छी ॥१॥
४-छोटी इलायची. पाषाणभेद, शिलाजीत, पीपल इनका चूर्ण सांठी चांवलोंके पानीके साथ महीनेभर पीवे अथवा मुड डालकर अवलेह सेवन करे तो निकट मृत्युवाला भी मूत्रकृच्छ्री जीवे ॥१॥
चातुर्जातकचूर्ण । चातुर्जाततुगा द्विजीरकपना तालीमसाराधसा वृक्षाग्लं कपिकच्छुपटककटुवर्याम्लद्विदीप्या च षट्। चूर्णस्तुल्यसितो बलाग्निरुचिकृत्तत्प्लीहमूलानिल.
श्वासार्श कसनव्यथाज्वरवमीहत्कण्ठजिह्वातिजित् । .. चातुर्जात, वंशलोचन, दोनों जीरे, धनियां, तालीसपत्र, अनारदाना इनको दश दश कर्ष लेवे । तंतडीक, कैथ, षटकटु (पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिरच) अमलवेत, अजमोद, अजमायन इनको छः कर्ष लेवे और सबकी बराबर मिश्री मिलावे ।
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द्वितीयः ] भाषाटीकासहितः। (७९) यह चूर्ण बल, अग्नि, रुचि इनको वढावे, तापतिल्ली, वादीके रोग, वास, बवासीर, खांसी, ज्वर, वमन और हृदय कंठ जीभ इन सबके रोगोंको, नाश करता है ॥ १ ॥
त्रिजातादिचूर्ण। विजातविश्वा त्रिफला विडंगं द्राक्षा निशायुग्ममरिष्टपत्रम् । कृष्णा गुडूची मसिमेषशृंगी पुरातनाः पष्टिकतण्डुलाश्च ॥ १॥ एतानि चूर्णानि समानि कृत्वा सिता प्रदेया तदनन्तरं समा । दिनोदये चूर्णमिदं हि खादन्कुर्यान्नरः शीतरसोपहारम् ॥२॥ दणि रक्तं कुपितं च पित्तं कुष्ठाम्लपित्तं सविचर्चिपामा । विस्फोटका मण्डलकाः प्रदोषा ह्यनेकदोषाः प्रशमं प्रयान्ति ॥ ३ ॥ त्रिजातक ( तज, तमालपत्र, इलायची), सोंठ, त्रिफला, वायविडंग, दाख, हलदी, दारुहलदी, नीमके पत्ते, पीपल, गिलोय, सोयाके बीज, मेढासिंगी, पुराने सांठी चावल ये सब बराबर लेकर इन सबके समान मिश्री मिलावे और प्रातःकाल खाय, शीतल आहार करे तो दाद, रुधिरविकार, पित्तके विकार, कोढ, अम्लपित्त, खाज, खसर, विस्फोटक, चकत्ता और अनेक दोष नष्ट होवें ॥ १-३ ॥
त्रिफलादिचूर्ण। त्रिफलां बापुषं बीजं सैन्धवं च शिलाजतु । बद्धमूत्रे हितं चूर्ण नात्र कार्या विचारणा ॥१॥ त्रिफला, ककडीके बीज, सैधानोन और शिलाजीत इनका चूर्ण वद्धमूत्रवाले रोगीको हित है ॥ १ ॥
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योगचिन्तामणिःतालीसादिचूर्ण १-३ |
ताली सोपणचव्यनागलवणैस्तुल्यांशकैर्द्विस्थितं कृष्णाग्रं थिकतन्तडीक हुतभुक्त्वग्जीरकौ तूर्यकौ । विश्वैलाबदराम्लवेतस घनैर्धान्याजमोदान्वितास्तिस्रो दाडिमसारपादसहितः श्रेष्ठः सिता खाण्डवः ॥ १ ॥ कण्ठास्योदरहृद्विकारशमनं कामाग्निसन्दीपनो गुल्माध्मान विषूचिका गुदरुजः श्वासं कृमीञ्छर्दिकाम | कासारुच्यतिसारगूढमरुतां हृद्रोगिणां कीर्तितश्चूर्णोऽयं भिषजामतीव दयितः ख्यातो महाखाण्डवः ॥ २
( ८० )
[ चूर्णाधिकारः
.
3
१ - तालीसपत्र, कालीमिरच, चव्य, नागकेशरर, सैंधानोन ये औषधि प्रत्येक चार चार टंक लेवे, पीपल, पीपलामूल, तंतडीक ( दसरा ), चित्रक, दोनों जीरे, तज, तमालपत्र, इन औषधियोंको आठ आठ टंक लेवे सांठ, इलायची, बेरकी मींगी, अम्लवेत, नागरमोथा, धनियां अजमोद इन औषधियोंको बारह बारह टंक लेवे, इन सबका चतुर्थांश अनारदाना लेवे और सबके समान मिश्री मिलावे, 'अथवा सफेद चीनी मिलाकर नित्य खाय तो कंठ, मुख, उदर, हृदय इनके विकारों को नष्ट करे, कामाग्निको बढावे, गोला, अफरा, हैजा, बवासीर, श्वास, कृमि, छर्दि खांसी, अरुचि, अतिसार, गूढवातव्याधि और हृदयरोगोंको हित है, वैद्योंको अत्यन्त प्यारा यह चूर्ण महाखाण्डव नाम से विख्यात है ॥ १-२ ॥
तुल्यं तालीसचव्योषणलवणगजद्विःकणा ग्रंथ्यजाजी वृक्षाम्लाऽमित्वचं त्रिर्घनबदरघनै लाजमो
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द्वितीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ८१ )
दालविश्वम् । सार्द्धं श्वेतो सारेऽतिसृतिकृमिवमौ खाण्डवारुच्यजीर्णे गुल्माध्मानानलास्योदर'लवासकासे ॥ १ ॥
२ - तालीसपत्र, चव्य, कालीमिरच, नागकेशर, गजपीपल, पीपलामूल, पीपल, जीरा, तंतडीक, चित्रक की छाल, तज, नागरमोथा, भिंगी, धनियां, इलायची, अजमोद, अमलवेत, सोंठ, अनारदाना इन सब औषधियोंको बराबर लेकर इनसे आधी मिश्री मिलावे, मिश्रीको छोड़कर सब औषधियोंका आधा सार मिलावे | इसके स्वानेसे अतीसार, कृमिरोग, वमन, अरुचि, अजीर्ण, गोला, उदरविकार, मन्दाग्नि, मुखरोग, कंठरोग, गुदारोग, मिट्टी खानेका रोग, श्वास, खांसी इन सब रोगोंको यह खांडवचूर्ण दूर करता है ॥ १ ॥
तालीसग्रंथिधान्यैर्भवरबिधकणाकृष्णजीरच्छदाम्लं सामुद्रं विश्वजीरोषणमथ रुचकं त्वक्चुटीदाडिमैस्तैः । विंशत्यष्टत्रिपञ्चैकचतुरवयवैर्भास्करोन्मन्थवालैर्गुल्मे साशर्तिका सग्रहणिजठरहृत्त्वग्गदश्लेष्मवाते ॥ १ ॥
३ - तालीसपत्र, पीपलामूल, धनियां, बिडनोन, पीपल, कालाजीरा, अमलवेत, समुद्रनोन, सोंठ, सफेदजीरा, पत्रज, कालानोन, राज, छोटी इलायची, अनारदाना, इनको क्रमसे बीस, आठ, तीन, पांच, एक और चार भाग लेवे, इसमें नींबू के रसकी भावना देवे, यह भास्कर चूर्ण गोला, बवासीर, खांसी, संग्रहणी, उदररोग, त्वयोग, कफवातके रोग इन सबको नष्ट करे ॥ १ ॥
६
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1
योगचिन्तामणिः ।
गगनाशयचूर्ण |
1
त्रिकटु त्रिसुगन्धं च लवंगं जातिकाफलम् । तुगाक्षीरी सटी श्रृंगी वाजिगन्धा च दाडिमी ॥ १ ॥ एतानि समभागानि सर्वतुल्यमयोरजः । आयसेन समं देयं गगनं च सुशोधितम् ॥ २ ॥ याव - न्त्येतानि चूर्णानि तावद्दद्यात्सितोपलाम् । कर्षप्रमाणं दातव्यं खादयेच्च यथाबलम् ||३|| अग्निसंजननं हृद्यं प्रमेहं हन्ति दारुणम् । अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रं च धातुस्थं विषमज्वरम् ॥ ४ ॥ नाशयेच्च त्रिदोषं च राजयक्ष्मज्वरापहम् । पीनसश्वासकासनं रुच्यं कासहरं परम् ॥ ५ ॥
( ८२ )
चूर्णाधिकारः-
.
सोंठ, मिरच, पीपल, तज, पत्रज, इलायची, लौंग, जायफल, तवाखीर, कचूर, काकडासिंगी, असगंध, अनारदाना ये सब बरावर लेवे और सबके समान सार लेवे और सारकी बराबर शुद्ध अभ्रक लेव और सबकी बराबर मिश्री मिलावे. बलाबल देखकर इसकी मात्रा चार टंक देवे तो अग्निको दीप्त करे, हृदय के रोग, प्रमेह, पथरी, मूत्रकृच्छ्र, धातुओंमें स्थित विषमज्वर, त्रिदोष, राजयक्ष्मा, ज्वर, पीनस, श्वास, खांखी इनका नाश करे ॥ १-५ ॥ सितोपलादिचूर्ण |
सितोपला षोडश स्यादष्टौ स्याद्वंशलोचना । पिप्पलीस्यात् चतुःकर्षा एला च द्वयकर्षिका ॥ १ ॥ एककर्षा च त्वक्कार्या चूर्णयेत्सर्वमेकतः । सितोपलादिकं चूर्ण मधुसर्पिर्युतं लिहेत् ॥ २ ॥
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द्वितीयः ] भाषाटीकासहितः। (८३) कासश्वासक्षयहरं हस्तपादांगदाहजित् । मन्दाग्निशुष्कजिहां च पार्श्वशूलमरोचकम् । ज्वरमूर्ध्वगतं रक्त पित्तमाशु व्यपोहति ॥३॥ मिश्री १६ कर्ष, वंशलोचन ८ कर्ष, पीपल ४ कर्ष, छोटी इलायची २ कर्ष, तज १ कर्ष इन सबका चूर्ण कर शहदमें मिलाकर खावे तो खांसी, श्वास, क्षय और हाथ पैरोंके दाहको दूर करे, मन्दाग्नि, जीभका सूखना, पसवाडेका शूल, अरुचि, ज्वर, ऊर्ध्वगत रुधिरके विकार तथा पित्तके रोगोंको यह सितोपलादि चूर्ण दूर करता है ॥ १-३॥
श्रीखण्डादिचूर्ण। श्रीखण्डं मरिचं लवंगफलनं द्राक्षा तजं पत्र रक्तं चन्दनवालकं मधुनिशा शुण्ठीकणाग्रन्थिकाः । धान्या जीरककेशरं जलफलं खजूरसम्यक्त्वचश्शूर्ण भेषजमिश्रितं सममितं मात्रा बिडालं पदम् ॥ १ ॥ श्वासं शोषयुतं क्षयज्वरहरं पित्तप्रमेहापहं रक्तस्तापजडं प्रकाशमरुचिं व्याधि भगेन्द्रापहम् । क्षीणे देहपतत्रययुताबलं सर्वातिसारापहं सर्वव्याधिविनाशनं निगदितं श्रीखण्ड. चूर्णाभिधम् ॥२॥
चन्दन, मिरच, लौंग, जायफल, दाख, तज, पत्रज, लालचन्दन, नेत्रवाला, मुलहठी, हलदी, सोंठ, पीपल, पीपलामूल, धनियां, जीरा, केशर, पवहडी, छुहारा इन सबको समान भाग लेवे, सबकी बराबर मिश्री मिलादेवे और चार टंकके अंदाज नित्य खाय तो शोषयुक्त श्वास, क्षय, ज्वर, पित्त, प्रमेह, रुधिरविकार, ताप, जडता, बहुत
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( ८४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ चूणाधिकारः
दिनकी व्याधि, भगन्दर इनका नाश करे, क्षीण देहको पुष्ट करे अतिसारका नाश करे, सर्वव्याधियोंका नाश करे इसको वैद्य श्रीखंडचूर्ण कहते हैं ॥ १ ॥ २ ॥
शंखादिचूर्ण |
शंखचूर्ण सलवणं सहिंगु व्योषसंयुतम् । उष्णोदकेन सम्पीतं हन्ति शूलं त्रिदोषजम् ॥ १ ॥ शंखका चरा, सेंधानोंन, हींग, सौंठ, मिरच, पीपल इनका चूर्ण बनाकर गरम जल के साथ लेनेसे त्रिदोषका भी नाश होवे ॥ १ ॥ कायफलादि चूर्ण |
कट्फलं पुष्करं भाङ्ग शृङ्गी च मधुना सह । श्वासकासज्वरहरं कट्फलादिकफान्तकृत् ॥ १ ॥ कायफल, पोहकरमूल, भारंगी, काकडासिंगी इनका चूर्ण शहद के साथ खानेसे खांसी, श्वास और ज्वरको दूर करे, यह कटूफलादिचूर्ण कफनाशक है ॥ १ ॥
षड्योगचूर्ण |
तवराजकणा द्राक्षा खर्जूरं मधुरं त्रुटिः । लवंगं पत्रकं चैत्र नागकेशरनामतः ॥ १ ॥
मिश्री, पीपल, दाख, छुहारे, मुलहठी, इलायची, लौंग, पत्रज और नागकेशर इनके चूर्णको षड्योग चूर्ण कहते हैं ॥ १ ॥
मिश्रादिचूर्ण |
चित्रकेन्द्रयवा पाठा कटुकाऽतिविषाऽभया । महाव्याधिप्रशमनो योगः षट्चरणः स्मृतः ॥ १ ॥ मधुना भक्षितं हन्ति चूर्णमेकं हि निश्चितम् । भ्रमं दाहं शीतपीडां क्षयरोगं न संशयः ॥ २ ॥
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द्वितीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ८५ )
चित्रक, इंद्रयव, पाढ, कुटकी, अतीस, हरड यह महाव्याधिशमनकर्ता षट्चरणयोग कहाता है । इस साथ खाने से भ्रम, दाह, शीतकी पीडा और करे ॥ १ ॥ २ ॥
चूर्ण को शहदके क्षयरोगका नाश
कीलकादिचूर्ण | गृहधूमो यवक्षारं पाठाव्योषरसाञ्जनम् । तेजोवा त्रिफला लोध्रं चित्रकं चेति चूर्णितम् ॥ १ ॥ सक्षौद्रं धारयेदेतद्गलरोगविनाशनम् । चूर्ण तु भक्षयेद्धीमान्दन्तास्यस्य च रोगजित् ॥ २ ॥
घरका धुआं, जवाखार, पाढ, सोंठ, मिरच, पीपल, रसौंत, तज, दालचीनी, त्रिफला, लोध, चित्रक इनका चूर्ण शहद संयुक्त खाने से गलेके रोग नष्ट होवें और दांतोंके तथा मुखके रोगोंका नाश होवे ॥ १ ॥ २ ॥
पञ्चनिम्वचूर्ण |
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मूलं पत्रं फलं पुष्पं त्वङ् निम्बस्य समाहरेत् । सूक्ष्मचूर्णमिदं कुर्यात्पलैः पंचदशोन्मितैः ॥ १ ॥ लोहभस्म हरीतक्यौ चक्रमर्दकचित्रकौ भल्लातकं विडंगानिशर्कराऽऽमलकं निशा ॥ २ ॥ पिप्पली मरिचं शुण्ठी बाकुचीकृतमालकैः । गोक्षुरं च पदोन्मानमेकैकं कारयेद् बुधः ॥ ३ ॥ सर्वमेकीकृतं चूर्णं भृङ्गराजेन भावयेत् । अष्टभागावशिष्टेन खदिरावरवारिण, है ४ ॥ भावयित्वा सुशुष्कं च कर्षमात्रं पिवेत् । खदिरसारतोयेन सर्पिषा पयसाऽथवा ॥ ५ ॥
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( ८६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ चूर्णाधिकारः
मासेन सर्वकुष्टानि विनिर्यान्ति रसायनम् । पञ्चनिम्बमिदं चूर्ण सर्वरोगप्रणाशनम् ॥ ६ ॥
निंबकी जड पत्ता फल फूल, और, छाल लेकर चूर्ण करे. लोहे की भस्म १५ पल, हरड, पवांडके बीज, चित्रक, भिलावे, वायविडंग, मिश्री, आंवले, हलदी, पीपल, मिरच, सोंठ, बावची, अमलतासका गूदा गोखरू ये सब औषधि जुदी २ एक एक पल लेवे. सब चूर्णको एकत्र कर भांगरेके रसकी २१ भावना देवे पीछे सुखाकर एक कर्ष नित्य खैरसारके जल अथवा घृतके साथ वा दूधके साथ पीवे तो एक महीने में सकल कुष्टों को दूर करे। यह पञ्चनिम्चचर्ण सकलरोगनाशक है ॥ १-६ ॥
सुदर्शन चूर्ण |
त्रिफला रजनीयुग्मं कण्टकारीयुगं सटी | चित्रकं ग्रन्थिकं मूर्वा गुडूची धान्ययासके ॥ १ ॥ कटुका पर्पटी मुस्ता त्रायमाणं च बालकम् । निम्बं पुष्करमूलं च मधुयष्टी च वासकम् ॥ २ ॥ यवानीन्द्रयवा भाङ्गी शिग्रुबीजं सुराष्ट्रकम् । वचा त्वक्पद्मकोशीरं चन्दनातिविषा बला ॥ ३ ॥ शालपर्णी पृष्टिपर्णी विडङ्गं तगरं तथा । चित्रको देवदारुश्च चव्यं पत्रं पटोलकम् ॥ ४ ॥ taarat चैव लवंगं वंशलोचनम् । पुण्डरीच काकोलीपत्रकं जातिपत्रकम् ॥ ५ ॥ तालीसप च तथा समभागानि चूर्णयेत् । सर्वचूर्णस्य चोदशिं किरातं प्रक्षिपेत् सुधीः ॥ ६ ॥
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द्वितीयः] भाषाटीकासहितः। (८७) एतत्सुदर्शनं नाम चूर्ण दोषज्वरापहम् । ज्वरांश्च निखिलान्हन्ति नात्र कार्या विचारणा ॥७॥ सन्निपातोद्भवांश्चापि मानसानपि नाशयेत् । शीतज्वरैकाहिकादीन्मोहं तन्द्रां भ्रमं तृषाम् ॥८॥ श्वासं कासं च पाण्डंच हृद्रोगं हन्ति कामलाम् । त्रिकपृष्ठकटीजानुपार्श्वशूलनिवारणः ॥ ९॥ शीताम्बुना पिवेद्धीमान्सर्वज्वरनिवृत्तये । यथा सुदर्शनं चक्रं दानवानां विनाशकम् ॥ १० ॥ तथाज्वराणां सर्वेषामिदं चूर्ण प्रशस्यते । नानादेशोद्भवांश्चैव नीरदोषान् व्यपोहति ॥ ११॥ त्रिफला, हलदी, दारुहलदी, छोटी बडी दोनों कटेरी, कपूर, सोंठ, मिरच, पीपल, पीपलामूल, मूर्वा, गिलोय, धनिया, अडूसा, कुटकी, पित्तपापडा, मोया, त्रायमाण, नेत्रवाला, नीमकी छाल, पोहकरमूल, मुलहटी, जवासा, अजमायन, इन्द्रयव, भारंगी, सहजनेके बीज, फिटकरी, वच, तज, पद्माख, खस, चन्दन, अतीस, खरेटी, सरिवन, पिठवन, वायविडंग, तगर, चित्रक, देवदारु, चव्य, पटोलपत्र जीवक, ऋषभक, लौंग, वंशलोचन, कमलगट्टा, कंकोल, तमालपत्र, जावित्री, तालीसपत्र, ये सब औषधि बराबर भाग ले चूर्ण करे और चूर्णसे आधा चिरायता मिलावे. यह सुदर्शनचूर्ण त्रिदोषज्वर तथा सम्पूर्ण ज्वरोंको नाश करे वात पित्त कफोंके ज्वर, इन्दज, आगन्तुक, धातुमें स्थित, विषमज्वर, सत्रिपातज ज्वर, मानस (जो मनसे सम्बन्ध रखता हो), शीतज्वर, इकतरा, मोह, तन्द्रा, भ्रम, प्यास, श्वास, खांसी, पाण्डुरोग, हृद्रोग, कामला, त्रिकपीडा, पीठ, कमर, घोंटू, पसवाडा, इनका दुखना ये सब नष्ट होवे. जैसे
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(८८) योगचिन्तामाणिः। [चूर्णाधिकार:सुदर्शनचक्र दैत्योंका नाश करता है तैसेही यह सुदर्शनचूर्ण सब ज्वरोंको नाश करता है और अनेक देशोंके जलविकारको नाश करता है ॥ १-११॥
षोडशांग चूण। किरातं तितकं तिक्ता गुडूची चाभया घना। धन्वयासकवायंती क्षुद्रा शृङ्गी महौषधम् ॥ १॥ पर्पटं च प्रियंडं च पटोलं मागधी सटी। षोडशांगमिति प्रोक्त ज्वरशूलविनाशनम् ॥ २॥ चिरायता, नींबकी छाल, कुटकी, गिलोय, हरड, मोथा, जवासा, त्रायमाण, कटेरी, काकडासिंगी, सोंठ, पित्तपापडा, फूलप्रियंमु, पटोलपत्र, पीपल, कचर इनका चूर्ण षोडशांगनामसे विख्यात है यह ज्वर शूलका नाशक है १ ॥ २ ॥
अरिष्टादिचूर्ण। निम्बच्छदो दशपलंत्र्यूषणं च पलत्रयम् । त्रिपलंत्रिफला चैव त्रिफलं लवणत्रयम् ॥१॥ द्वौ क्षारौ द्विपलंचैव यवानी पलपंचकम् । सर्वमेकीकृतं चूर्ण प्रत्यूषे भक्षयेन्नरः ॥२॥ ऐकाहिकं व्याहिकं च त्र्याहिकं च तथाज्वरम् । चातुर्थिकं महाघोरं नाशयेत्संततज्वरम् ॥३॥ नींबकी छाल १० पल, त्रिकुटा ३ पल, त्रिफला ३ पल, सेंधानोन, विडनोन, संचरनोन तीनों एक एक पल, सज्जीखार, जवाखार दो दो पल, अजमायनरपल सबको एकत्र चूर्ण कर खाय तो इकतरा द्वयाहिक तिजारी, चौथिया और सन्ततज्वर ये सब नष्ट होवें ॥ १-३॥
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द्वितीयः 1
भाषाटीकासहितः ।
श्रृंग्यादिचूर्ण |
i
( ८९ )
शृंगीकटुत्रिकफलत्रयकण्टकारी भाङ्ग सपुष्करजटा लवणानि पञ्च । चूर्ण पिबेदशिशिरेण जलेन हिक्काश्वा सोर्ध्ववात कसना रुचिपीनसेषु ॥ १ ॥
काकडासिंगी, सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, कटेरी, भारंगी, बुहकर पूल, सैंधानोन, संचरनोन, बिडनोन, समुद्रनोन, कचियामोन इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीने से हिचकी, ऊर्ध्वश्वास, वाच कफके रोग, अरुचि और पीनस ये सब नष्ट होवें ॥ १ ॥ लवणभास्कर चूर्ण |
पिप्पलीपिप्पलीमूलं धान्यकं कृष्णजीरकम् । सैन्धवं च विडङ्गं च पत्रं तालीसकेशरम् ॥१॥ एषां द्विपलिकान् भागान्पञ्च सौवर्चलस्य च । मरिचं शुण्ठ्यजाजी स्यादेकैकं च पलं पलम् ॥ २ ॥ त्वगेला चार्द्धभागेन सामुद्रं च पलाष्टकम् । चतुःपलं दाडिमं च द्विपलं चाम्लवेतसम् ॥ ३ ॥ एतच्चूर्णीकृतं सूक्ष्मं लवणं भास्कराभिधम् । गवां तकं सुरा सुष्ठुदधि कांजिकयोजितम् ॥ ४ ॥ वातश्लेष्मं वातगुल्मं वातशूलं च नाशयेत् । मन्दाग्निं ग्रहणीमर्शो हृद्रोगं प्लीहमेवच ॥५॥ पीपल, पीपलामूल, धनियां कालाजीग, सैंधानोन, वाय विडंग. चालीसपत्र, नागकेशर इन औषधियों को दो दो पल लेवे. संचरनोन, मिरच, सोंठ, जीरा इनको एक एक पल लेवे तज, इलायची इनको ८ टंक लेवे समुद्रनोन ८ पल, अनारदाना ४ पल
.
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(९०)
यागचिन्तामणिः । [ चूर्णाधिकारः
अमलवेत २ पल ले सबको मिलाकर खूब बारीक पीसे । यह लवणभास्कर चूर्ण भास्करवैद्यका बनाया हुआ है, सुगन्धयुक्त और अमृतके तुल्य है इसको छांछ, कांजी, दारु, दही इनके साथ खासे वात कफके विकार, वायगोला, मन्दाग्नि, संग्रहणी, बवासीर, हृद्रोग, प्लीहके रोग ये सब नष्टं होते हैं ॥ १-५॥
वज्रक्षारचूर्ण |
सामुद्रं सैन्धवं काचं यवक्षारं सुवर्चलम् | टंकणं स्वर्जिकाक्षारं तुल्यं चूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ १॥ अर्क - क्षीरैः स्नुही क्षीरैर्भावियेदातपे त्र्यहम् । अर्कपत्रे लिपेत्तं तु रुद्धा चांधपुटे पचेत् ॥ २ ॥ सकलं चूर्णयित्वाऽथ त्र्यूषणं त्रिफलारजः । जीरकं रजनी वह्निर्निम्बकस्य रसं समम ॥ ३ ॥ एकीकृत्य प्रयोगेण सूक्ष्मं चूर्णे तुकारयेत् । वज्रक्षारमिदं चूर्ण स्वयं प्रोक्तं पिनाकिना ॥ ४ ॥ सर्वोदरेषु गुल्मेषु शोफे शूलेषु योजयेत् । अग्निमांद्यमजीर्णेषु भक्ष्यं निष्कद्वयं द्वयम् ॥ ५ ॥ अर्कपत्रं सलवणं पुढे दग्धं सुचूर्णितम् । निहन्ति मधुना
पीतं लीहानं शूलदारुणम् ॥ ६ ॥
समुद्रनोन, सैंधानोन, कचियानोन, जवाखार, संचरनोन, सुहागा, सज्जी इन सबको बराबर ले चूर्णकर आकके रसकी और थूहर के दूधकी तीन तीन भावना देवे, पीछे इस चूर्णको आकके पत्तोंसे लपेटकर अंधमूषापुट में रखकर फूंक देवे । जब सबकी भस्म होजाय तब इसमें इतनी औषध और मिलावे-सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, जीरा, हलदी, चित्रक, इनका चूर्णकर औषधियोंके समान नींबू के रसकी भावना
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द्वितीयः] भाषाटीकासहितः। (९१) देवे, यह वज्रक्षार श्रीमहादेवजीने कहा है, इसको सब उदरके रोग, गोला, सूजन, शूल इनमें देना चाहिये, मन्दाग्नि और अजीर्णमें दो टंकके अनुमान खावे ॥ १-६॥
अर्कपत्रं सलवणं पुटदग्धं सुचूर्णिम् । निहन्ति मधुना लीढंप्लीहानं च सुदारुणम् ॥ १॥
आकके पत्तोंमें नोन मिलाकर भस्म करे, उस भस्मको शहदके साथ चाटनेसे महाभयानक प्लीहारोग नष्ट होवे ॥ १ ॥
विडलवणादिचूर्ण। विडरुचकयवानी जीरके द्वे च पथ्या त्रिकटुकहुतभुग्भ्यां वेतसाम्लाजमोदाः । समविहितरजोभिर्धान्यकं तिन्तडीकं जरयति नगकूटं का कथा भोजनस्य॥१॥ बिडनोन, अजमायन, दोनों जीरे, हरड, सोंठ, मिरच, पीपल, चित्रक, अमलवेत, अजमोद, धनियां, तितडीक इन सबको समान लेवे । यह चूर्ण पत्थरको जीर्ण करदेवे, भोजनकी तो क्या बडी बात है ? ॥ १॥
सामुद्रिकचूर्ण। सामुद्रसौवर्चलसैन्धवानां क्षारो यवानामजमोदभागम् । हरीतकी पिप्पलिशृंगवेरं हिंगुर्विडंगानि समं च दद्यात् ॥ १॥ एतानि चूर्णानि घृतप्लुतानि भुञ्जीत पिण्डान्प्रथमं च पञ्च । अजीर्णवातं गुदगुल्मवातं वातप्रमेहं विषमं च वातम् ॥२॥ विषूचिकांकामलपाण्ड्डरोगान्कासं च श्वास हरते प्रवृद्धम् ॥ ३॥
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(९२) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकारः... समुद्रनोन, संचरनोन, सैंधानोन, जवाखार, हरड, अजमोद, सोंठ, हींग, वायविडंग इन सबको समान ले इनका चूर्णकर घृत मिलाय भोजनके प्रथम पांच ग्रास लेवे तो अजीर्ण, वादी, गुदाके रोग, वायगोला, वातप्रमेह, विषमवात, हैजा, कामला, पांडुरोग, खांसी और श्वास इन सबका नाश करे ॥ १-.३ ॥
हिंग्वष्टकचूर्ण। त्रिकटुकमजमोदासैन्धवं जीरके द्वे समचरणधृतानामष्टमो हिडभागः । प्रथमकवलभुक्तं सर्पिषा चूर्णमेतजनयति जठराग्निं वातगुल्मं निहन्ति ॥ १॥ सोंठ, मिरच, पीपल, अजमोद, सैंधानोंन, सफेदजीरा, कालाजीरा इन सबको बराबर लेकर अष्टमांश, हींग घीमें भूनकर डाले पीछे इस चूर्णको भोजनके प्रथम पांच ग्रासोंमें खाय तो जठराग्निको प्रबल करे और वायगोलाको नष्ट करे ॥ १ ॥
हिंगुपंचक चूर्ण । विश्वौषधेन रुचकेन सदाडिमेन स्यादम्लवेतसयुतं कृतहिंगुभागम् । तद्धिंगुपञ्चकमिदं जठरामयनं भेडाभिधानमुनिना गदितं मुनीनाम् ॥ १॥
सोंठ, संचरनोन, अनारदाना, अमलवेत ये बराबर लेवे, इनमें एक हिस्सा हिंगु मिलावे । यह हिंगुपञ्चक उदरके रोगोंको दूर करे, यह भेडनाम मुनिने कहा है ॥ १॥
हिंगुत्रयोविंशति चूर्ण । हिंग्वग्निचव्यलवणत्रयवेतमाम्लक्षारद्वयं त्रिकटु
दाडिमतितडीकम् । सग्रंथिकानिकसटी हुपुषाऽजगंधा पागऽभयासुसितजीरकपुष्कराह्वा ॥१॥
गु मिलाव
॥१॥
न चूर्ण ।
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द्वितीयः ] भाषाटीकासहितः सोय सधान्यकमिति प्रविधाय चूर्ण भूयः प्लुतं हि फलपूरफलद्रवेण । उष्णोदकेन परिपीतमिदं निहन्ति शूलानि गुल्मगुदजान् ग्रहणीरुजश्च ॥२॥ हींग, चीता, सैंधानोन, चव्य, संचरनोन, बिड़नोन, अमलवेत, सजीखार, जवाखार, सोंठ, मिरच, पीपल, अनारदाना, तंतडीक, पीपलामूल, अरणा, कचर, हाऊबेर, असगंध, पाढ, हरड, सफेदजीरा, पोहकरमूल, वच, धनियां ये सब बराबर लवे, सबका चूर्ण कर बिजोरे नींबूकी भावना देवे. पीछे इसको गरम जलके साथ खाय तो वायगोला, शूल, गुदाके रोग और संग्रहणी इन सबको नाश करे ॥ १ ॥ २ ॥
तुम्बगदिचूर्ण । तुम्बराणि त्रिलवणं यवानी पुष्कराह्वयम् । यवक्षाराभया हिङ्गविडंगानि समानि च ॥१॥ त्रिवृत्रिभागविजया सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । पिबेदुष्णेन तोयेन यवक्वाथेन वा पिबेत् । जयेत्सर्वाणि शूलानि गुल्माध्मानोदराणि च ॥२॥ तुंबरु, सैंधानोन, संचरनोन बिडनोन, अजमायन, पोहकरमूल, जवाखार, हरड, हींग, वायविडंग ये समान भाग लेवे, इन सबका तीसरा भाग निसोथ लेवे, सबको पीसकर महीन कर लेवे। गरम जलके साथ पावे अथवा जवके काढेके साथ पीवे तो सब प्रकारके शूल, गोला, अफरा और उदररोगोंको जीते ॥ १ ॥२॥
__ अजमोदादिचूर्ण। अजमोदा विडङ्गं च सैंधवं देवदारु च । चित्रकं पिप्पलीमूलं शतपुष्पा च पिप्पली।
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(९४) योगचिन्तामणिः । [चूर्णाधिकार:- . मरिचं चेति कर्षांशं प्रत्येकं कारयेद् बुधः। कर्षास्तु पञ्च पथ्याया दश स्युर्वृद्धदारुकाः॥२॥ नागराच्च दशैव स्युः सर्वानेकत्र चूर्णयेत् । पिबेत्कोष्णजलेनैतच्चूर्ण शोफविनाशनम् ॥३॥ आमवातरुजं हन्ति सन्धिपीडां च गृध्रसीम् । कटिपृष्ठगुदस्थां च जंघयोश्च रुजं जयेत् ॥ ४ ॥ तूनीप्रतूनीवातांश्च कफवातामयाञ्जयेत् । समेन वा गुडेनास्य वटिकाः कारयेद् बुधः॥५॥
अजमोदा, वायविडंग, सैंधानोन, देवदारु, चित्रक, पीपलामूल, सौंफ, पीपल, मिरच, इन सबको एक एक कर्ष लेवे और हरड पांच कर्ष लेवे, विधायरा दश कर्ष लेवे, सोंठ दश कर्ष लेवे, सबको एकत्र कर चूर्ण करे और गरम जल के साथ लेवे तो सूजनका नाश करे, आमवात, संधियोंकी पीडा, गृध्रसी रोग तथा कमर, पीठ, गुदा, जंघा इनकी पीडाका नाश करे. तूनी, प्रतूनी, विश्वाची और कफके रोगोंको दूर करे. अथवा इसमें बराबर गुड मिलाकर गोली बना लेवे ॥ १-५॥
उदरविकारमें विजयचूर्ण । श्रीदीपोग्राग्निहिंगुद्धिविषिमिशिवकीचव्यतिक्तापटूनि ग्रन्थिक्षारेन्द्रजत्रित्रिकमिति विजयः सोष्णकैरण्डतैलम् । हन्त्यर्शःकासगुल्मग्रहणिकृमिरुजापाण्डुरुग्भूतशूलं श्वासप्लीहं प्रमेहं ज्वरमरुचिमुदावर्तधर्मामवातान् ॥१॥
अजमोद, वच, चीता, हींग, अतीस, सोया, पाढ़, चव्य, कुटकी, पांचों नॉन, पीपलामूल, जवाखार, इन्द्रयव, सोंठ, मिरच, पीपल,
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द्वितीयः] भाषाटीकासहितः। (९५) त्रिसुगंध इन सबको बरावर २ लेवे, गरम जलसे अंडीका तेल मिलाकर देवे तो यह विजयचूर्ण बवासीर, खांसी, गोला,संग्रहणी, कृमिरोग, पांडरोग, भयानक शुल, श्वास, तापतिल्ली, प्रमेह, ज्वर, अरुचि, उदावर्त्त, अफरा और आमवात इन सब रोगोंका नाश करे ॥ १॥
नारायणचूर्ण। द्वौ क्षारौलवणानि पंच हपुषाधान्याजगन्धा सटी व्योषाजाज्युपकुञ्चिका कृमिजितः कंकुष्ठकुष्ठाग्रयः। उग्रागंधककारवी मिसियुतं योज्यं फलानां त्रयं मूलं पुष्करजं यवान् परिभवेदेतानि तुल्यान्यथ ॥१॥ त्रिवृदिशाले द्विगुणाथ दन्तिनी त्रिसगुणा स्वादथतिक्तका भवत्। चतुगुणा चूणमुदाहृतं जनैरिदं हि नारायणमौषधं बुधैः ॥२॥ उष्णोदकेन यवकोल कुलस्थतोयैस्तकेण मद्यदधिमस्तुमुरासवैर्वा । नारायणं प्रपिबतः सकलौदराणि नश्यन्ति विष्णुमिव दैत्यगणा द्विषन्तः ॥३॥ सज्जीखार, जवाखार, पांचों नोन, हाऊबेर, धनिया, अजमोद, कचूर, सोंठ, मिरच, पीपल, काला जीरा सफेद जीरा, वायविडंग, कंकोल, कूठ, चित्रक, वच, पीपलामूल, सोवाके बीज, त्रिफला, पोहकरमूल, अजमायन इन सब औषधियोंको बगबर लेकर निसोथ, इन्द्रायनकी जड हरएक दूनी लेवे, दंती तिगुनी लेवे, कुटकी चौगुनी लेय सबका चूर्ण कर गरम जलसे अथवा. यवके काढेके साथ तथा कुलथीके काढेके साथ अथवा छांछके साथ वा मदिराके साथ वा दहीसे वा दहीके जलसे वा मुरामांसीके आसवसे इस नारायणचूर्णको पीवे
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(९६) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकारःवो सम्पूर्ण उदरके विकार ऐसे नष्ट होवें जैसे विष्णुभगवान् के सुदर्शन'चक्रसे दैत्योंका नाश हुआ ॥ १-३ ॥
त्रिलवणादिचूर्ण। त्रिलवणहपुषाजमोदोग्रगन्धा वचा हिंगु पाठोपकुंचिका सटी जीरका धानिकस्तुंबरी सापि काकावगतुंबरूसर्जिका यावशूकाजटा पुष्करं दाडिमं तिन्तडीकं विडंबानि भाङ्गी वरी वेतसाम्लो मरीचं गजकणाऽभया पंचकोलानि कुभाविशाला यवानी सुराता च तत्सर्वमेकत्र चूर्णीकृतं बीजपूराईकरसेनासकृद्भावितं यः पिबेत्प्रातरुत्थाय चाहारकालेऽथवा मासमात्रंहिताशी नरःप्लुतमशिशिरेण वारिणा जीर्णमन तण कोलांभसा मस्तुना वा पिबेत् सर्पिषा कोष्णदुग्धेन तत्क्षारनष्टोरनिष्टस्ततः श्वेतवादाडिमं वारसेनात्मवानेभिरेवौषधैः सारितं व्याधिद्धृदयगुदकटियकृप्लीहगुल्माश्रितं तस्य शूलप्रणाशस्तथा गुल्मविष्टंभदुर्नामहृद्रोगकृच्छोदराध्मानहल्लासयक्ष्मारुचिश्वासकासान्प्रपचयत्यसकौभवेत्पाचकः
प्राश्यमानानि पाषाणचूर्णान्यपि ॥ - तीनों नोन, हाउबेर, अजमोद, असगंध, वच, हींग, पाढ, काला जीरा, कचूर, अजवायन, धनियां, हिंगुपत्री, सोवा, तुंवरू, सज्जी, जवासा, पोहकरमूल, अनारदाना, वैतडीक, वायविडंग, भारंगी, शतावर, अमलवेत, काली
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द्वितीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
(९७)
मिरच, गजपीपल, हरड, पंचमूल, ( पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, ) बेरकी मिंगी, दांतण, इन्द्रायणकी जड, देवदारु य सब औषधि कूट पीस कपडछानकर बिजोरेके रसकी और अदरख के इसकी अनेक भावना देकर रख छोडे । इसमेंसे एक महीना पर्यंत प्रातःकाल नित्य खाय अथवा भोजनके समय खाय और पथ्यसे रहे इसको गरम वा शीतल जल के साथ वा पुराने मद्यके साथ या छाछ
बेरके पानी सेवा दहीके जलसे, घृत वा गरम दूधके साथ पीवे अथवा चनाखार आदिके साथ सेवन करे वा अनारके रसके साथ सेवन करे तो इतने रोगोंका नाश करे- हृदय, गुदा, कमर, यकृत् लीहा, गोला इनके आश्रित व्याधिं, शूल, व्रणरोग, बवासीर, गोला, अफरा, हृदयरोग, उदररोग, और सूखी रद्दको नाश करे ||
"
क्षारामृत ।
क्षारं किंशुकमुष्ककार्जुनधवापामार्गरम्भातिलाजीवन्तीकनकाह्वया सुरजनी कूष्माण्डवल्ली तथा । वासासूरणकत्रिवृद्दहनकैः प्रज्वाल्य भस्मीकृतं तोयेन प्रतिशोध्य निःसृतमयःपानं विधेयं सकृत् ॥ १ ॥ शूलानाहविबन्धगुल्मकफजान्रोगाअयेत्कामलां वायुं विद्रधिशूलपाण्डुग्रहणीशोफारसं पीनसम् । मन्दाग्नि जठरस्य पीनसगुरुप्लीहातिमेदादिकान् पाषाणा उदरे भवन्ति बहुधा भस्मीभवन्ति क्षणात् ॥ २ ॥
ढाका खार, मुष्क वृक्ष ( वनपलाश ) नाम से प्रसिद्ध है, अर्जुन ( कोह ) इति भाषा ), ओंगा, केला, तिल, जीवन्ती ( डोडी )
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(९८) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकार:धतूरा, हलदी, पेठा, अडूसा, जिमीकंद और निसोथ इन सबकी राखको पानीमें भिगोकर अग्नि पर रख खारकी क्रियासे खार निकाल लेवे आर खारोंको जलमें मिलाकर पीनेसे शूल, पेटका अफरा, बन्धकुष्ठ, गोला, कफके रोग, कमलगयु, विद्रधि हृदयका शूल, पांड, संग्रहणी, सूजन, बवासीर, पीनस, मन्दाग्नि, पेटके रोग, प्रमेह, पथरी इत्यादि रोगोंका नाश करता है ॥ १ ॥ २ ॥
अमलवेतसचूर्ण । कत्यम्लवेतसफलानि विदारितानि सिध्वादिपंचलवणेन सुपूरितानि । हिंग्वादिजेन पटुभास्करजेन चाथ तालीसपुष्पजनितेन विभाव्य युक्त्या ॥१॥ संशोष्य तीव्रकिरणै रवितप्ततापैः सिद्धानि तत्सकलमेव सुभक्षितं च। गुल्मेऽरुचौ यकृति दुष्पवनाग्निमांद्ये प्लीहामयेषु जठरेषु गुदोद्भवेषु ॥२॥ कितनेक फल अमलवेतके लेकर चीर २ कर उनके भीतर पांचोंनिमक अथवा लवणभास्कर चूर्ण भरदेवे, वा हिंग्वष्टक भरदेवे वो तालीसादि भरदे, फिर उन फलोंको धूपमें सुखावे जब सूखजायँ तब उसमेंसे एक टंक खाय तो गुल्म, अरुचि. प्लीहा, दुष्टवात, मन्दाग्नि, तापतिल्ली और उदर तथा गुदाके सम्पूर्ण रोगोंका नाश करता है॥१-२॥
अतीसारे-लघुगंगाधरचूर्ण । अजमोदा मोचरसं सशृंगवेरं च धातकीकुसुमम् । गोमथिततक्रपीतं गङ्गामपि वेगवाहिनी रुन्ध्यात् ॥१॥
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द्वितीयः] भाषाटीकासहितः। (९९)
अजमोद, माचरस, सोंठ और धायके फूलके चूर्णको गायके महके साथ पीवे तो गंगाके समान वेगवाला अतीसार भी नाश होय ॥ १ ॥
___ अतीसारे-वृद्धगंगाधरचूर्ण। अरुलुकधनशुण्ठी धातकी बिल्वलोधं कुटजपलसमेतं मोचनिर्यासयुक्तम् । अतिविषजलपाठा साहकारं च बीजं ममृणमविमिश्रं तण्डुलाम्बुप्रपीतम् ॥ १॥ कफोद्भवं मारुतपित्तसंभवं जयेदतीसारपुराणमामजम् । प्रसिद्धगंगाधरनामचूर्ण तथा हि रोगे ग्रहणीगदे च ॥२॥
अरलूकी छाल, मोथा, सोंठ, धायके फूल, बेलगिरी, लोध, कुडाकी छाल, इंद्रयव, मोचरस, अतीस, सुगंधवाला, पाठा, आमकी गुठली इनको शहदमें मिलाकर सांठी चावलोंके साथ खाय तो कफ, वात पित्तसे जो बहुत दिनका अतीसार, आमसंग्रहणी आदि रोगोंको जीते । यह चूर्ण वृद्धगंगाधर नामसे प्रसिद्ध है ॥ १ ॥२॥
कपित्थाष्टकचूर्ण। अष्ट्रौ भागाः कपित्थस्य षड्भागा शर्करा मता। दाडिमं तिन्तडीकं चश्रीफलं धातकी तथा ।। १॥ अजमोदा च पिप्पल्याः प्रत्येकं स्युस्त्रिभागकम् । मरिचं जीरकं धान्यं ग्रन्थिकं बालकं तथा ॥२॥ सौवर्चलं यवानी च चातुर्जातं सचित्रकम् । नागरं चैकभागाः स्युः प्रत्येकं सूक्ष्मचूर्णिताः॥३॥ कपित्थाष्टकसंज्ञं स्याच्चूर्णमेतजलामयान् । निहन्ति ग्रहणीरोगानतीसारं व्यपोहति ॥ ४॥
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(१००) योगचितामणिः। , [चूर्णाधिकारः: आठ भाग कैथ और छ: भाग मिश्री, अनारदाना, तन्तडीक, बेलगिरी, धायके फूल, अजमोद, पीपल ये प्रत्येक तीन तीन भाग लेवे, सुगंधवाला, कालानोन, अजमायन, चातुर्जात, चीता, सोंठ इन सब औषधियोंको दो दोभाग ल सूक्ष्म चूर्ण कर मिश्री मिलावे । यह चूर्ण दुष्ट जल के रोग, संग्रहणी और अतीसारको दूर करता है ॥ १-४ ॥
यवान्यादिचूर्ण। यवानीपिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः। मरिचन्द्रयवाजाजीधान्यसौवर्चलैः समः॥१॥ वृक्षाम्लधातकीकृष्णाबिल्वदाडिमदीपकैः । त्रिगुणैः षड्गुणैः सिद्धैः कपित्थोऽष्टगुणः स्मृतः॥२॥
चूर्णमतीसारग्रहीक्षयगुल्मगलामयान् । , कासश्वासानिमन्दार्शः पीनसारोचकाञ्जयेत् ॥ ३॥
अजमायन, पीपलामूल, चातुर्जात, सोंठ, मिरच, इन्द्रजव, जीरा, धनिया कालानोन य सब समान लेवे । अमलवेत, धायके फूल, पीपल, बेल, अनारदाना, अजमोद ये सब हरएक तिगुनी लय और मिश्री छः गुनी लेवे, कैथके आठ भाग लेवे । यह चूर्ण अतीसार, ग्रहणी, क्षय, गुल्म, गोलेके रोग, खांसी, श्वास, मन्दाग्नि, अर्श, पानस, अरुचि आदिको दूर करता है ॥ १-३ ॥
दाडिमाष्टकचूर्ण। दाडिमस्य पलान्यष्टौ शर्करायाः पलाष्टकम् । । पिप्पली पिप्पलीमूलं यवानी मरिचं तथा ॥ १ ॥
धान्यकं जीरकं शुण्ठी प्रत्येकं पलसम्मितम्। कर्षमात्रा तुगाक्षीरी त्वक्पत्रैलाश्च केशरम् ॥२॥
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द्वितीयः ] भाषाटीकासहितः। (१०१ ) प्रत्येक कोलमा स्यात्तच्चूर्ण दाडिमाष्टकम् । अतीसारं क्षयं गुल्मं ग्रहणीं च गलग्रहम् । मन्दाग्निं पीनसं कासं चूर्णमेतब्धपोहति ॥३॥
अनारदाना ८ पल, मिश्री ८ पल, पीपल, पीपलामूल, अजमायन, मिरच, धनियां, जारा, सोंठ, ये सब एक एक पल लेवे, वंशलोचन ४ टंक, तज, तेजपात, दालचीनी, इलायची, नागकेशर इन औषधियोंको दो दो टंक लेवे, यह दाडिमाष्टक चूर्ण अतीसार, क्षयी, गोला, संग्रहणी, गलरोग, मन्दाग्नि, पीनस, खांसी आदि रोगोंका नाश करे ॥ १-३ ॥
उदरकृमिरोगमें वचादिचूर्ण । वचाऽजमोटा कमिहत्पलाशबीजं सटी रामटकं त्रिवृच्च । जलेन तप्तेन तु पेष्यपेयं पतन्ति शीघ्रं कृमयः समूलाः ॥ १॥ वच, अजमोद, वायविडंग, ढाकके बीज, सोंठ, कचूर, हींग, निसोथ इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीवे तो सब कृमि गिरपडें ॥ १ ॥
कपिल्लकं विडङ्गानि क्षारं सैन्धवमेव च । पिष्ट्वा तक्रण पातव्यं नित्यं कृमिविनाशनम् ॥१॥
कबीला, वायविडंग, जवाखार, सैंधानोन इनको पीसकर मटेके संग पीवे तो कृमि नाश होवें ॥ १ ॥
कोलमज्जा कणा वह्निपक्षभस्म सशर्करम् । मधुना लेहयेच्छीदहिकाकोपस्य शांतये ॥१॥
बेरकी मिंगी, पीपल, चीता, मोरपंखकी राख, मिश्री शहदके साथ लेवे तो छर्दि, हिचकी ये सब दूर होवें ॥ १ ॥
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(१०२) योगचिन्तामणिः। चूर्णाधिकारःलाजाकपित्थमधुमागधिकोषणानां क्षुद्राभयात्रिः कटुधान्यकजीरकाणाम् । पथ्यामृतामरिचमाक्षि कपिप्पलीनालेहास्त्रयःसकलवम्यरुचिप्रशान्त्यै ॥२॥ पहिला-धानकी खील, कैथ, मुलहठी, पीपल, मिरच, दूसरा कटेरी, हरड, त्रिकटु, धनियां जीरा इनका अवलेह और तीसरा-हरड़, गिलोय, मिरच, शहद, पीपल इनका अवलेह सब अरुचि और छर्दिका नाश करता है ॥ २ ॥
कोलामलकमज्जानौ मक्षिकाविट् सिता मधु । सकृष्णातण्डुलो लेहः श्रेष्ठश्छर्दिनिवारणः ॥३॥ बेरकी मिंगी, आंवलेकी मिंगी, मक्खीकी बीट, मिश्री, शहद, पीपल इनको सांठी चावलोंके पानीके साथ लेवे तो सब प्रकारकी छर्दि जाय ॥ ३ ॥
दन्तपीडामें जातीपत्रादिचूर्ण। जातीपत्रपुनर्नवागजकणाकोरण्टकुष्ठावचाशुण्ठी दिव्यशतावरी समघृतं चूर्ण मुखे धार्यते। वातनं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गधिनिर्णाशनं
क्रस्यापि समस्तदोषहननं दन्तश्च वज्रायते ॥ १ ॥ जावित्री, सांठकी जड, गजपीपल, कोरटंक वृक्षके फूल, कूठ, वच, सोंठ लौंग, शतावर इन सबको बराबर लेवे और सबके समान घी लेकर मुखमें रखनेसे वायुविकार, कफ, कृमि तथा मुंह की दुर्गंध जाय और दाँत वज्रके समान होजावें ॥ १॥
कुष्ठं दावी लोध्रमब्दं समङ्गा पाठा क्ता तेजनी पीतका च । एतच्चूर्ण घर्षणंतद्विजानां रक्तस्रावं
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द्वितीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १०३)
हन्ति कण्डूरुजं च ॥ २ ॥ फलान्यग्लानि शीताम्बु रूक्षान्नं दन्तधावनम् । तथाऽतिकठिनान्भक्ष्यान्दन्तरोगी विवर्जयेत् ॥ ३ ॥
कुठ, दारूहल्दी, लोध, मोथा, मँजीठ, पाढ, कुटकी, मूर्वा ( एक लता होती है ), हलदी इन सब औषधियोंका चूर्ण कर दातों में मले तो रुधिर गिरना, खुजली, दरद आदिको दूर करे और खट्टा फल तथा खटाई न खावे, ठंढा पानी न पीवे, रूखा अन्न दन्तधावन, अतिकठिन भोजन इन सबको दंतरोगी छोडदेवे ॥ २-३ ॥ दन्तमसी ।
कासीसं त्रिफला माजूफलं जुङ्गी हरीतकी । कर्पूरं खदिरं ताप्यं लोहचूर्णे च विद्रुमम् ॥ १ ॥ दाडिमं त्वक्च मंजिष्ठा लोध्रं तुत्थं सुराष्ट्रजा । मस्तंगी विदलं पूगं सर्व सूक्ष्मविचूर्णितम् । दन्तशूलहरं चाम्लं दन्तकृष्णीकरं तथा ॥ २ ॥
कसीस, त्रिफला, माजूफल, जंगीहरड, कपूर, खैरसार, सोना मक्खी, लोहचूर्ण, मूंगा, अनारका छिलका, मँजीठ, लोध, नीलाथोथा, फिटकरी, मस्तंगी, विदल, सुपारी, इन सबको बराबर लेकर पीस ले। यह दाँतों का दरद दूर करे तथा दाँतों को स्याह करे, यह खट्टा है ॥ १ ॥ २ ॥
कायाकल्पमें भृंगराजचूर्ण |
समूलं भृंगराज चं छायाशुष्कं तु कारयेत् । तत्समं त्रिफला चूर्ण सर्वतुल्या सिता भवेत् ॥ १ ॥ पलैकं भक्षयेच्चैतदपमृत्युज्वरापहम् ॥ २ ॥
भांगरा पंचांगको छायामें सुखावे उसकी बराबर त्रिफला और
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( १०४ )
योगचिन्तामणिः । [ चूर्णाधिकारः
सबके समान मिश्री डाले. इस चूर्णको एक पल लेवे तो अपमृत्यु और ज्वरका नाश करें ॥ १-२ ॥
सूक्ष्मीकृतं भृङ्गनृपस्य चूर्णैः कृष्णैस्तिलैरामलकैश्व सार्द्धम् । सितायुतं भक्षयतां नराणां न व्याधयो नैव जरा न मृत्युः ॥ ३ ॥
भांगरे के पचांगको महीन पीसकर काले तिल, आंवले बराबर लेवे और फिर इनके बराबर मिश्री डाले इस चूर्णको जो कोई खावे डसको व्याधि, बुढापा, पलित और अपमृत्यु न सतावे ॥ ३ ॥ आमलकादिचूर्ण |
आमलं चित्रिकं पथ्या पिप्पली सैन्धवं तथा । भेदी रुचिकरः श्लेष्मजेता पाचनदीपनः ॥ १ ॥ आंवला, चीता, हरड, पीपल, सैंधानोन इनका चर्ण भेदी, रुचि कारक, तथा श्लेष्मविकारको दूर करे और अग्निको दीपन करता है ॥ १ ॥ स्तम्भनचूर्ण |
अकारकरभः शुंठी कंकोलं कुङ्कुमंकणा । जातीफलं लवङ्गं च चन्दनं चेति कर्षकान् ॥ १ ॥ चूर्णानि मानतः कुर्यादहिफेनपलोन्मितान् । सर्वमेकीकृतं चूर्णमाषैकं प्रधुना लिहेत् ॥ २ ॥ शुक्रस्तम्भकरं चूर्ण पुंसामानन्दकारकम् । नारीणां प्रीतिजननं सेवेत निशि कामुकः ॥ ३ ॥
अकरकरा, सोंठ, कंकोल, मिरच, केशर, पीपल, जायफल, लौंग, चन्दन, इन सबको चार चार टंक लेवे, सबसे आधी अफीम १६ टंक सचका चूर्ण कर शहद के साथ एक मासा नित्य चाहे तो वीर्यको स्तंभन करे, पुरुषको अति आनन्द
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द्वितीयः] भाषाटीकासहितः। (१०५) करे, स्त्रियोंको परमप्रीति होवे, यह चूर्ण कामी पुरुषको रात्रिसमय खाना चाहिये ॥ १-३ ॥
बुद्धिवृद्धि के लिये सारस्वतादिचूर्ण । कुष्ठाश्वगन्धेलवणाजमोदे द्वे जीरके त्रीणि कटूनि पाठा । मांगल्यपुष्पा च समानचूर्ण कृत्वा च चूर्णेन वचोद्भवेन ॥ १॥ तुल्येन युक्तं बहुशो रसेन तद्भावितं ब्रह्मविनिर्मितायाः । सर्पिमधुभ्यां चततोऽक्षमात्रं लिह्यादिनात्सप्तगुणांश्च सप्त ॥२॥ सारस्वतमिदं चूर्ण ब्रह्मणा निर्मितं स्वयम् । जगद्धिताय लोकानां दुर्मेधानामचेतसाम् ॥३॥ कूठ, असगंध, सेंधानोन, अजमोद, दोनों जीर, सोंठ और सबकी बराबर वच लेवे, मिरच, पीपल, पाढ, शंखाहूली इनकी समान मात्रा लेवे. इनको चूर्ण कर ब्राह्मीके रसकी भावना देवे, यह ब्रह्माने अपनी बुद्धिसे रचा है. घृत अथवा शहद ४ टंक ले, ४९ दिन खावे तो यह सूर्ण मूर्खकी बुद्धि को बढावे ॥ १-३॥
गुडूच्यपामार्गविडङ्गशविनी ब्राह्मी वचा शुण्ठिशतावरी च । घृतेन लीढा प्रकरोति मनवांस्त्रिभिदिनैर्ग्रन्थसहस्रधारिणः ॥ ४ ॥ ब्राह्मी मुण्डी पिप्पली नागराज कुष्ठं सर्पिः श्वेतवर्णा वचा वा। मोढयात्तानामक्षमात्र ददात प्रज्ञा मेधा वद्धते मासयुग्मात् ॥५॥ज्योतिष्मत्यास्तैलमेकं पिबेच्च गुञ्जावृद्धयाकर्षमात्रंतु यावत् । सौरे पर्वण्यम्बुमध्ये प्रविष्टः प्रज्ञामूर्तिर्जायतेऽसौ कवीन्द्रः ॥६॥
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( १०६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ चूर्णाधिकारः
गिलोय. ओंगा, वायविडंग, शंखाहुली, ब्राह्मी, वच, सोंठ, शतावरी ये सब बराबर लेवे और चूर्ण कर घृतके संग अवलेह कर सेवन करे तो तीन दिनमें हजार श्लोककी धारणा होवे, मालकांगनी तेलको सूर्य पर्वके समय जलमें पीवे तो पंडित होवे ॥ ४-६ ॥
त्रिकटुत्रिफला धान्य यवानी शतमूलिका । वचा भाङ्ग तथा ब्राह्मीचूर्ण समधु लेहयेत् ॥ ७ ॥ वाक्प्रदायि च बालानां वीणावाद्यसमस्वरम् । तैलं तीक्ष्णं रूक्षमम्लं वातलं च विवर्जयेत् ॥ ८ ॥ ज्योतिष्मत्यास्तैलमत्राभिमन्त्रय वाग्वादिन्या मंत्र- बीजं त्रिकंतु । जिह्वायां वै लिख्यते यस्य जन्तो लेखन्या जायतेऽसौ कवीशः ॥ ९ ॥
नागपुरीययतिगणश्रीहर्षकीर्तिसंकलिते । वैद्यकसारोद्धारे चूर्णाधिकृतिर्द्वितीयेयम् ॥ २ ॥
सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, धनियां, अजमायन, शतावरी, वच, ब्राह्मी, भारंगी इन सबको बराबर लेवे और शहदके साथ सेवन करे तो बालकभी बोलने में चतुर होय, वीणाकासा शब्द बोले । इन चीजोंसे परहेज करे-तैल, चरपरा, रूखा, खट्टा, वातल । ब्राह्मी, गोरखमुंडी, पीपर, नागेश्वर, कूठ, मक्खन और सफेद वच ये औषध मूखको १ तोला देनेसे कवीन्द्र करता है अथवा मालकांगनी के तेलको सरस्वती के मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर बालककी जीभपर सरस्वती बीजको लिखे तो कविराज होय ॥ ७-९ ॥
इात श्रीमाथुरदत्तराम चौबेकृतमाथुरीमञ्जूषाभाषाटीकायां चूर्णाधिकारो द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
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तृतीयः ]
भाषाटीकासहितः।
(१०७)
अथ गुटिकाधिकारः-तृतीयोऽध्यायः ३.
रुचिकर अमृतप्रभा नाम गुटिका १-२ । मरिचं पिप्पलीमूलं लवङ्गं च हरीतकी । यवानी तिन्तडीकं च दाडिम लवणत्रयम् ॥ १ ॥ एतानि पलमात्राणि मागधीक्षारचित्रकम् । व्यजाजी नागरं धान्यमेला धात्रीफलं समम् ॥ २॥ एतान्द्विपलि. कान्भागान्भावयेद्वीजपूरकैः। भावनात्रितयं दत्त्वा गुटिकां कारयेद् बुधः ॥३॥ छायाशुष्कां प्रकुर्वीत ह्यजीर्णस्य प्रशान्तये । अनिं च कुरुते घोरं गुटिका चामृतप्रभा ॥४॥ १-मिरच, पीपलामूल, लौंग, हरड, अजवायन, तंतडीक, अनारदाना, सेंधानोन, कालानोन, कचनोन ये सब औषधि एक एक पल लेवे. पीपल, जवाखार, चीता, दोनों जीरे, सोंठ, धनियां, इलायची, आंवला, ये सब औषधि एक एक पल लेवे फिर बिजौरेके रसमें घोटकर तीन पुट दे, गोली बनाकर छायामें सुखावे । यह अजीर्णको दूर करे, अग्निदीपन करे और ये गोली अमृतके तुल्य हैं ॥ १-४॥
आकल्लकं सैन्धववह्निशुण्ठीधात्र्यूषणं दिव्यसमा सपथ्या । रसेन भाव्यं फलपूरकेण मन्दानिलत्वे ह्यमृतप्रमेयम् ॥५॥कासे गलामये श्वासे प्रति श्याये चपीनसे । अपस्मारे तथोन्मादे सन्निपाते सदा हिता॥६॥
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( १०८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ गुटिकाधिकारः
२ - अकरकरा, सैंधानोन, चीता, सोंठ, आंवला, मिरच, लोंग और हर इनको बिजौरे के रसकी भावना देकर गोली बनावे | मन्दानिवाले को यह अमृत समान है, इससे खांसी, गलरोग, श्वास, पीनस आदि रोग दूर होवें. अपस्मार, उन्माद, सन्निपातवालों को भी हितकारी है ॥ ५ ॥ ६॥
वटप्ररोहादिगुटिका |
वटप्ररोहूं मधु कुष्ठमुत्पलं सलाजचूर्णैर्गुटिकां प्रकल्पयेत् । सशर्करा सा वदने च धारिता तृषां प्रवृद्धामपि हन्ति सत्वरम् ॥ १ ॥
वडकी जटा, शहद, कूठ, कमलगट्टा, धानकी खील इनकी गोली बनाकर मिश्री के साथ मुँह में राखे तो प्यास बंद होवे ॥ १ ॥ राजगुटिका १-२ |
शुण्ठ्याः पलं पलार्द्ध च गन्धकं सैन्धवं तथा । निम्बूकरससंबद्धाहन्त्यजीर्णे विषूचिकाम् ॥ १ ॥
१ - सोंठ एक पल, गन्धक, संधानोन आधा पल, इनको नीम्बुके रसमें मिलाय छोटे बेर के समान गोली बना लेवे तो अजीर्ण और विषूचिका को दूर करे ॥ १ ॥
43
नागरं च चतुर्भागं तदर्द्ध सैन्धवं तथा । गन्धकं भागमेकं च कापथ्या गन्धकं समम् ॥ २॥ निम्बूरसस्य सप्ताहं पुढं दद्याद्विशारदः । विषूचिकाजीर्णशूलं मन्दाग्निं वमनं हरेत् ॥ ३ ॥ एषा राजवटी नाम कोलमात्रं तु भयक्षेत ॥ ४ ॥ २ - साठ ४ टंक, सैंधानोन २ टंक, हरड १ टंक, गन्धक १ टंक इनकी नीम्बूके रसमें छोटे बेरके
समान गोली बनावे
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तृतीयः ] . भाषाटीकासहितः। (१०९) और खाय तो बिपूचिका, अजीर्ण, मन्दाग्नि और वमन इन सबका नाश करे ॥ २-४॥
उन्मीलनीगुटिका। उन्मीलनी बुद्धिबलेन्द्रियाणां निर्मूलनी वातकफार्दितानाम् । संशोधिनी मूत्रपुरीपयोश्च हरीतकी शुण्ठिगुडप्रयुक्ता ॥ १॥ हरड, सोंठसे गुडकी गोली बुद्धि बढावे, मनुष्यकी इद्रियोंको चैतन्य करे, वात कफादिक रोगोंको निर्मूल करे, मलमूत्रको शुद्ध करती है ॥ १ ॥
गुडचतुष्टयवटिका। आमेषु सगुडां शुण्ठीमजीर्णे गुडपिप्पलीम् । कृच्छ्रे जीरगुडं दद्यादर्शोघ्नं गुडदाडिमम् ॥ १ ॥
आमरोगमें सोंठ मुड, अजीर्णमें गुड पीपल, मूत्रकृच्छ्रोगमें जीरा गुड और बवासीर रोगमें अनारदाना गुडसंयुक्त देना चाहिये ॥ १ ॥
गुडविश्वौषधं पथ्यामागधीदाडिमैः कृता । वटिहन्याद् भक्ष्यमाणा गुल्मार्शोवह्निजान् गदान्॥ गुड, सोंठ, हरड. पीपल, अनारदाना इनकी गोलीको खावे तो गुल्म आदि रोगोंका नाश करे और अग्निको दीपन
सूरणादिवटिका। चूर्णीकृताः षोडश सूरणस्य भागास्तदर्दैन च चित्रकस्य । महौषधी द्वौ मरिचस्य चैको गुडेन दुर्नामजयाय पिंडी॥ १ ॥ मरिचमहौषधिचित्रक
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(११०) योगचिन्तामणिः। गुटिकाधिकारःमूरणभागा यथोत्तरं द्विगुणाः । सर्वसमो गुडभागो वटिका दुर्नामनाशाय॥२॥वृद्धदारुकभल्लातशुण्ठी चूर्णेन योजितः। मोदकः सगुडो हन्यात्षड्विधाशंस्कृतां रुजम् ॥ ३॥ जिमीकन्दका चूर्ण १६ पल, चित्रक ८ पल, सोंठ २ पल, मिरच १ पल इनकी गोली गुडमें बनावे तो अर्शको दूर करे मिरच चार टंक, सोंठ ८ टंक, चीता १६ टंक, जिमीकंद ३२ टंक, गुड सबके बराबर लेवे और गोली बनाकर खाय तो अर्शरोगको दूर करे । विधायरा, शुद्ध भिलावा और सोंठ इनका चूर्ण गुड मिलाय गोली बनाकर खावे तो छः प्रकारके अर्शरोगोंका नाश करे ॥ १-३ ॥
सनागरापुष्करवृद्धदारुकं गुडेन यो मोदकमत्त्युदारकम् । अशेषदुर्नामकरोगदारकं करोति वृद्धं सहसैव दारकम् ॥ ४॥ सोंठ, पुहकरमूल, विधायरा इनकी भले प्रकार गुडमें गोली बनाकर खावे तो सम्पूर्ण प्रकारके अर्शोका नाश करे और बल बुद्धिको बढावे ॥ ४॥
___ कांकायनीगुटिका। पथ्यापञ्चपलान्येकमजाजिमरिचस्य च । पिप्पली पिप्पलीमूलं चयचित्रकलागरैः ॥ १॥पलाभिवृद्धः क्रमशो यवक्षारं पलद्वयम् । भल्लातकपलान्यष्टौ सूरणो द्विगुणोमतः॥२॥ द्विगुणेन गुडेनैषा वटिका चाक्षसंमिता। एकेका भक्षयेत्प्रातस्तकमम्लं पिबेदनु ॥३॥ वह्नि संदीपयत्याशु ग्रहणी
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (१११) पाण्डुरोगजित् । कांकायनेन शिष्येभ्यः शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना ॥४॥ कथिता गुटिका चैषा गुदजानांविनाशिका ॥५॥ हरड ५ पल, जीरा १ पल, मिरच १ पल, पीपल १ पल, पिपलामूल १ पल, चव्य ४ पल, चित्रक ५ पल, सोंठ ६ पल ये सब औषधि पलपल क्रमसे और जवाखार २ पल, शुद्ध भिलावा ८ पल, जिमीकंद सबसे दूना और गुड मिलाके छोटे बेरके समान गोली बनावे और प्रातःकाल छाछके साथ लेवे तो अग्निको दीप्त करे, संग्रहणी और पाण्डुरोगका नाश करे, यह कांकायनकविने अपने शिष्योंसे कहा है और संपूर्ण गुदाके रोगोंका नाशक है ॥ १॥५॥
___ अभयादिमोदक । अभया पिप्पलीमूलं मरिचं नागरं तथा । त्वक्पत्रं पिप्पली मुस्तं विडङ्गामलकानि च ॥१॥ कर्ष प्रत्येकमेषां तु दंत्याः कर्षत्रयं तथा। षट्कर्षाश्च सितायास्तु द्विपला त्रिवृता भवेत् ॥२॥ सर्व संचूर्णितं कृत्वा मधुना मोदकः कृताः । खादेव प्रतिदिनं चैकं शीतं चानु पिबेजलम् ॥ ३॥ तावद्विरिच्यते जन्तुर्यावदुष्णं न सेक्येत् । पाण्डुरोगं विषं काय जंघायाश्च रुजस्तथा ॥४॥शिरोति मूत्रकृच्छं च दुर्नामकभगन्दरौ । अश्मरीमेहकुष्ठं च दाहशोफोदराणि च ॥५॥ हरड, पीपलामूल, मिरच, सोंठ, तज, तेजपात, पीपल, मोथा, वायविडंग, आमला इन सबको चार चार टंक लेवे और दन्ती १२
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( ११२ )
योगचिन्तामणिः ।
[ गुटिकाधिकारः
टैंक (दन्ती वह है जिसका फल जमालगोटा होता है ), मिश्री २४ टंक, निसोथ ३२ टंक इनका चूर्ण कर शहद में गोली बनावे और एक गोली नित्य ठंढे पानी के साथ खाय तो जबतक गरम जल न पीवे तबतक दस्त होय और पाण्डुरोग, विषरोग, कृशता और जंघा के सब रोग, मस्तकरोग, मूत्रकृच्छ्र, अर्श, भगंदर, पथरी, मेह, कोट, दाह, सूजन, उदररोगादिकों को दूर करता है ॥ १-५ ॥
अजमोदादिगुटिका या चूण १-२ ।
अजमोदा मरिचकणा विडंगसुरदारुचित्रकशताह्वा । सैंधव पिप्पलिमूलं भागौ नवकस्य पलिकः स्यात् ॥ १ ॥ शुण्ठी दशपलिका स्यात्पलानि तावंति वृद्धदारोव । दंत्याः पलानि पंच च सर्वाण्येक कारयेच्चूर्णम् ॥ २ ॥ समगुडवटिका अदतचूर्ण वा कोष्णवारिणा पिबतः । नइयंत्यनिलोद्भूताः सर्वे रोगास्तथा वाताः ॥ ३ ॥
१- अजमोद, मिरच, पीपल, वायविडंग, देवदारु, चित्रक, सोवा, सैंधानोन, पीपलामूल ये सब नौ पल और सोंठ १० पल, विदारी कन्द १० पल, दन्ती ५ पल, हरड५पल इन सब औषधियोंके बराबर गुड मिलावे अथवा चर्णकोही गरम जलके साथ पीवे तो संपूर्ण वातरोगोंका नाश करता है ॥ १-३ ॥
हिंगुभागौ भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् । यो भागा विडंगानां सैन्धवं च चतुर्गुणम् ॥ १ ॥ अजाजी पंचभागा च षड्भागं नागरं तथा । मरिचं सप्तभागं च पिप्पल्यष्टगुणा भवेत् ॥ २ ॥ ...
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (११३) कुष्ठस्य नव भागाः स्युर्दशभागा हरीतकी। एकादश चित्रकस्य अजमोदा च द्वादश ॥३॥ गुडश्च सर्वद्विगुणो गुटिकां कारयेदृढाम् । हन्यादनेकवातांश्च हर्ष चैव चतुर्दश ॥४॥ अष्टादशैव गुल्मानि प्रमेहान्विशति तथा । हृद्रोगकुष्ठशूलानि वातगुल्मं गलग्रहम् ॥५॥ श्वासं च ग्रहणी पाण्डुमग्निमांद्यारुची तथा। धन्वंतरिकृतो योगो निजपुत्रस्य हेतवे ॥ ६॥ २-हिंग १ भाग, वच २ भाग, सैंधानोन ४ भाग, जीरा ५ भाग, सोंठ ६ भाग, मिरच ७ भाग, पीपल ८ भाग, कूठ ९ भाग, हरड १० भाग, चीता ११ भाग, अजमोद १२ भाग, इन सबसे दूने गुडमें गोली ७ टंक प्रमाणकी बनावे । यह अनेक वायुगेग, १४ प्रकारका हर्ष, १८ प्रकारका गुल्म, २० प्रकारका प्रमेह, हृदयरोग, कुष्ठ, शूल, वायगोला, गलग्रह, श्वास, संग्रहणी, पांडुरोग, अग्निमांद्य और अरुचि इन रोगोंको दूर करे । यह योग धन्वंतरिने अपने पुत्रके लिये कहा है ॥ १-६ ॥
उदरविकारमें एलादिवटिका । एलीयकं कणा पथ्या शुण्ठी चित्रकटंकणम् । राजिका सर्जिका सौरो विडंगाजाजिसैन्धवम् ॥ गुडेन गुटिका कार्या यकृत्प्लीहविनाशिनी ॥१॥
इलायची पीपल, हग्ड, सोंठ, चित्रक, सुहागा, राई, सज्जी, शोरा, वायविडंग, जीरा, सेंधानोन इनको बराबर लेवे और गुडके साथ गोली बनाये तो यकृत प्लीहादि रोगोंको दूर करे ॥ १ ॥
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( ११४) योगचिन्तामणिः । [ गुटिकाधिकार:
पाण्डुरोग नवरसादिगुटिका । चित्रकं त्रिफला मुस्तं विडंगं त्र्यूषणानि च । समभागानि कार्याणि सर्वतुल्यमयोरजः॥१॥ मधुसर्पिर्युतं लेह्यं गुडेन गुटिकाथवा । गोमूत्रमथवा तक्रानुपाने प्रशस्यते ॥ २॥ पाण्ड्डरोगं जयेदुग्रं हृद्रोगं च भगन्दरम् ।
शोफकुष्टोदराशोसि मन्दाग्निमरुचिं कृमीन् ॥३॥ चित्रक, त्रिफला, मोथा, वायविडंग, सोंठ, मिरच, पीपल सच बराबर और सबके बराबर लेहसार शहद और घास खाय अथवा गुडमें गोली बनावे और गोमूत्र वा छाछके संग लेबे तो पांडुरोग, हृदयरोग, भगदर, सजन, कोढ, उदररोग,अर्श, मंदाग्नि, अरुचि, क्रिमि आदि रोगोंको नाश करे ॥ १-३ ॥
वृद्धिनवरसगुटिका । विडङ्गं त्रिफला व्योषं चातुर्जातकचित्रकम् । स्वर्णमाक्षी तवाक्षीरं जीमूतं वंशलोचनम् ॥१॥ क्वाथसंपवलोहं च शर्करापि समन्विता । गुटिकां मधुसंयुक्तां प्रातरेकां तु भक्षयेत् ॥२॥ प्रमेहशोफारुचिमामवातं सकामलं पाण्डुगदंसकुष्ठम् । श्वासं च कासं च निहन्ति गुल्मं दुर्नामकं
नाशयते च सद्यः ॥३॥ .. वायविडंग, त्रिफला, सोंठ, मिरच, पीपल, तज, तेजपात, इलायची, नागकेशर, चीता, सोनामक्खी, तवाखीर, मोथा, वंशलोचन, सार,. मंडूर ये सब बरावर, मिश्री सबके बराबर
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तृतीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ११५ )
लेकर शहद में गोली बनावे और प्रातःकाल खावे तो प्रमेह, शूल, अरुचि, आमवात, पीलिया, पांडुरोग, कोढ, श्वास, खांसी, गोला और अर्श आदिको नाश करे ॥ १-३ ॥ प्रमेह में चन्द्रकलागुटिका । एला सुकर्पूरसुधासधात्री जातीफलं गोक्षुरशाल्मली च । सूतेन्द्रवंगायसभस्म सर्वमेतत्समानं परिमर्दयेच्च ॥ १ ॥ गुडूचिका शाल्मलिका कषायपिष्टं समाना मधुना ततश्च । बद्धा गुटी चन्द्रकलेति संज्ञा मेहेषु सर्वेषु नियोजनीया ॥ २ ॥
इलायची, कपूर, मिश्री, आंवला, जायफल, गोखरू, सेमलका गोंद, पारा, इंद्रयव, बंगसार इसकी समान मात्रा लेकर एक प्रहर मर्दन करे फिर गिलोय और सेमल के गोंदके काढेमें घोटे और शहद में गोली बनावे. यह चन्द्रकला गुटिका संपूर्ण प्रमेहोंको दूर करती है ॥ १ ॥ २ ॥
पीनसादिमें व्योषादिगुटी ।
व्योषाम्लवेतसं चव्यं तालीसं चित्रकं तथा । जीरकं तिन्तडीकं च प्रत्येकं कर्षभागकम् ॥ १ ॥ त्रिसुगंधं त्रिभागं स्याद्गुडः स्यात् कर्षविंशतिः । व्योपादिवटिका नाम पीनस श्वासकासजित् ॥२॥ रुचिस्वरकरी ख्याता प्रतिश्यायप्रणाशिनी ॥ ३ ॥
सोंठ, मिरच, पीपल, अमलवेत, चव्य, तालीस, चित्रक, जीरा, संतडीक डी इन सबको एक एक कर्ष, त्रिसुगंध तीन भाग और गुड २० कर्ष लेवे, यह व्योपादिवटी है । इसके खानेसे पीनस, खांसी श्वास, अरुचि और स्वरमंग आदि रोग नाश होवें ॥ १-३ ॥
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योगचिन्तामणिः ।
मरिचादिमुटी ।
कर्ष संमिता ।
मरिचं कर्षमात्रं स्यात्पिप्पली अर्द्धकर्ष यवक्षारं कर्षयुग्मं च दाडिमम् ॥ १ ॥ एतच्चूर्णीकृतं युञ्ज्यादष्टकर्षगुडेन हि । शाणप्रमाणां गुटिकां कृत्वा वक्रे च धारयेत् ॥ अस्याः प्रभावात्सर्वेऽपिकासा यांत्येव संक्षयम्२ ॥ मिरच ४ टंक, पीपल ४ टंक, जवाखार २ टंक, अनारदाना ८ टंक इनको पीसकर ३२ टंक गुड मिलावे और टंक टंकके प्रमाण गोलियां बांधे और मुखमें रक्खे. इन गोलियोंक प्रभावसे पांच प्रकारकी खांसीका नाश होता है ( इसको दाडिमादि गुटिका भी कहते हैं ) ॥ १ ॥ २ ॥
( ११६ )
[ गुटिकाधिकारः
खैर सारादिगुटिका | बिभीतक हरीतक्यौ धात्रीकटुफलानि च । शुंठीमरिचपिप्पल्य एला कर्कटभृंगिका ॥ १ ॥ कर्पूरं पिप्पलीमूलं लवङ्गं शुंठिसंयुतम् । एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ २ ॥ खदिरं च समं देयमादक द्रवभावना | भावयेत्कि कक्काथैर्वटिका कोलमात्रया ॥ ३ ॥ कासं कण्ठे कफं हन्ति स्वरभङ्गं च दारुणम् । गृध्रसी च निहंत्याशु क्षयरोगहरी परा ॥ ४ ॥
बहेडा, हरड, आंवला, कायफल, सोंठ, मिरच, पीपल इलायची, काकडासिंगी, कपूर, पीपलामूल, लौंग, कचूर ये औषधि बराबर ले महीन चूर्ण कर सबके बराबर खैरसार डाल फिर अदरख के रसकी भावना देवे, फिर छोटे बेरकी बराबर गोली
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (११७.) बनावे । यह गोली पांच प्रकारके कासरोग, कफ, दारुण स्वरभंग, गृध्रसी और क्षयरोगको नाश करती है ॥ १-४॥
वीजपूरादिवटिका। त्रिकटुविकटदंष्ट्रा हिंगुगुंजाररौद्रस्त्रिलवणनखमुग्रं जीरके द्वे चपेटः । प्रकटितकटुकायप्रोल्लसत्केशरौघः कफमदगजहन्ता केशरी बीजपूरः॥१॥ सोंठ, मिरच, पीपल यही भई विकट डाढ, हींग मानो विकराल शब्द (मुंजार ), सैंधानोन, कालानोन, बिडनोन, ये मानो उग्रनख, दोनों जीरे ये चपेट प्रकट जो अदरखकी कटुताई तिसकरके है प्रकाश जिसका ऐसा केसरी मानो कफ, मदयुक्त जो हस्ती इसको मारनेवाला यह विजोरा है ॥ १॥
कासरोगमें बबूलगुटिका । रसभागो भवेदेको गन्धको द्विगुणो मतः। त्रिभागा पिप्पली ग्राह्या चतुर्भागा हरीतकी ॥१॥ विभीतकं पञ्चभागमटरूपश्च षड्गुणः । भाङ्गा सप्तगुणा ग्राह्या सर्वचूर्ण प्रकल्पयेत् ॥२॥ बबूलक्वाथमादाय भावना एकविंशतिः । कार्या विभीतकमिता गुटिका मधुना सह ॥३॥ कासं पंचविधं हन्यादूर्ध्वश्वासं कफंजयेत॥४॥ पारा एक भाग, गंधक दो भाग, पीपल तीन भाग, हरड चार भाग, बहेडा पाँच भाग, अडूसा छः भाग, भारंगी सात भाग इन सबका चूर्ण कर फिर बबूल की छालके काढेकी २१ भावना देवे और वहेडेके समान गोली बनावे, यह गोली प्रांच प्रकारका कास, उर्ध्वश्वास और कफको दूर करती है ॥ १-४ ॥
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(११८)
योगचिन्तामणिः। [गुटिकाधिकार:
आमलादिवटिका। आमलं कमलं कुष्ठं लाजाश्च वटगेहकम् । एतच्चूर्णस्य मधुना गुटिकां धारयेन्मुखे । तृषां प्रवृद्धा हत्येषा मुखशोषं च दारुणम् ॥ १॥ आमला, कमलगट्टा, कूठ, धान की खील, बडकी जटा इनका चूर्ण कर शहदमें गोली बनाकर मुखमें रक्खे तो बहुत प्यास और भयानक मुख सूखना दूर होवे ॥ १ ॥
- शंखवटी १-२। । चिंचाक्षारपलं पटुवजपलं निम्बूजले कल्कितं तस्मिञ्छंखपलं प्रतप्तमसकृत्रिर्वाप्य शीर्णावधि । हिङ्गुव्योषपलं रसामृतपलं निक्षिप्य निकासकान्। हीशंखवटी क्षयग्रहणिरुग्द्याऽन्त्रशूलादिषु ॥१॥
इमलीका खार एक पल, पांचों नोन एक पल, नींबूका रस इनमें एक पल शंखको गरम करके जबतक उसके टुकडे न हों तबतक बुझावे, फिर हींग, सोंठ, मिरच, पीपल १ पल, शुद्ध पारा शुद्ध गंधक इनको डालकर गोली १ टंकके प्रमाण बनावे । यह गोली क्षयगेग, संग्रहणी, हृदय, पसलीके शूलादिकोंको दूर करती है ॥ १॥ : चिंचाक्षारं लवणमखिलं निम्बुतोयेन पिष्टं तप्तं शंखं पुनरपि पुनर्निक्षिपेत्सप्तवारान् । तस्मिञ्छंखो भवति शिथिलो मर्दयेत्तेन सार्द्ध व्योष हिंगुस्तदपि च पुनः पादमानेन दद्यात् ॥ १॥ चातुर्थाशं विपरसबली योजयित्वाऽत्र कुर्यात्सम्यग्बवा भिषगथ गुटी बादरास्थिप्रमाणाम् । शूले
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तृतीयः ] /
मापाटीकासहितः ।
मंदाग्न्युपशमयने पंक्तिशूले कुशूले तामुदयसमये योजयेत्पुष्टिवृद्धौ ॥ २ ॥
२ - इमलीका खार, पांचों नोंन, नींबूके रसमें घोटे, फिर शंखको तपाकर सात वार बुझाव जब शंख खिलजाय तब उसी नींबू के रस में घोट लेवें. फिर सोंठ, मिरच, पीपल, हींग शंख से चौथाई डाले, गन्धक, तेलिया, पारा चतुर्थीश इनकी कजली डाले, फिर बेरकी गुठली के समान गोली बनावे | यह गोली शूल, मंदाग्नि, पसलीका दरद, कुखके शूलको दूर करे, एक गोली सूर्योदय के समय लेवे तो पुष्टि वृद्धि करे ॥ ११ ॥
(( ११९)
एकैai
चतुरशीति ( ८४ ) वाते अमरसुन्दरीगुटिका । त्रिकटु त्रिफला चैत्र रेणुका ग्रन्थिकानलम् । मृत लोहं चतुजातं पारदं गंधकं विषम् ॥ १ ॥ विडंगाकलकं मुस्ता सर्वेभ्यो द्विगुणो गुडः । चणकप्रमाणगुटिका नाम्ना अमरसुंदरी ॥ २ ॥ अपस्मारे सन्निपाते कासे श्वासे गुदामये । अशीतिवातरोगेषु उन्मादेषु विशेषतः ॥ ३ ॥
त्रिकटु, त्रिफला, संभालू के बीज, पीपलामूल, चित्रक, मरा सार, चातुर्जात, पारा, गंधक, विष, विडंग, अकरकरा, मोथा इनकी सममात्रा और इनसे दूना गुड डालकर चनेके प्रमाण गाली बनावे, यह अमरसुन्दरी नाम गोली मिरगी, सन्निपात १३ श्वास, खांसी, गुदरोग, अर्श और ८० प्रकार के वातरोग और उन्मादको विशेषकर दूर करती है ॥ १-३ ॥
विजयादिगुटिका | पलत्रयं हरीतक्याश्वित्रकस्य पलत्रयम् । एलात्वक्पत्रमुस्तानां भागश्चार्द्धपलः स्मृतः ॥ १ ॥
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( १२०) योगचिन्तामणिः। [गुटिकाधिकार:व्योषं च पिप्पलीमूलं विषं कर्षप्रमाणकम् । . नागकेशरचूर्ण च कर्ष दद्याद्विचक्षणः ॥२॥ रेणुकाईपलं मात्रा तथा गन्धरसौ क्षिपेत् । एतान्संभृतसम्भारान्सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत् ॥३॥ गुडस्य च तुलां दद्यान्मईयेत्तद्विचक्षणः । एतेन गुटिकाः कार्याः पष्टयाऽधिकशतत्रयम् ॥१॥ एकैकं भक्षयेत्प्रातः कृत्वाऽऽहारं यथासुखम् । मासेन पलितं हन्तिं करोत्यनि द्वितीयके ॥५॥ शुक्रवृद्धि तृतीये च बलवर्णप्रसाधिनी । हन्त्यष्टादश कुष्ठानि सप्त मेहान् महाक्षयान् ॥ ६॥ प्लीहानं श्वासकासौ च अण्डवृद्धिमरोचकम् । अशीतिवातजावोगान्मूत्रकृच्छं गलग्रहम् ॥ ७ ॥ सर्वमृच्छा विषं हन्ति सर्वस्थावरजंगमम् । योनिदोषमपस्मारमुन्मादं विषमज्वरम् ॥ ८ ॥ बलेन गजतुल्यो वा वेगेन तुरगोपमः। मयूरस्तु भवेदनौ वाराहश्रोत्रमेव च ॥ ९॥ हयतुल्यो भवेत्स्त्रीषु गृध्रदृष्टिहि जायते । उपयोगात्परं जीवेन्नरो वर्षशतत्रयम् ॥ १० ॥ न चात्र परिहारोऽस्ति न च कामे न मैथुने । ग्राम्यधर्मोऽथ वाग्बाणो भोजने च यथेच्छया ॥११॥ न केवलं विष्णुपितामहाभ्यां मूभिषेकस्त्रिदि. वेश्वरेण। अयंवरः सर्वरसायनानां योगेन हन्याद
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तृतीयः] . भाषाटीकासहितः। (१२१) चिरेण रोगान् ॥ १२॥ विजया नाम गुटिका विख्याता रुद्रभाषिता । भक्षयेद्यो नरो वर्ष तस्य सिद्धिर्न संशयः ॥ १३ ॥
हरड ३ पल, चित्रक ३ पल, इलायची ८ टंक, तज ८ टंक, सेजपात ८ टंक, मोथा ८ टंक, सोंठ, मिरच, पीपलामूल, तेलिया ४ टंक, नागकेशर ४ टंक, संभालूके बीज ८ टंक, गन्धक १ पल, पारा १ पल, पारे गन्धककी कजली कर लेवे और सबको महीन पीसकर
और सब औषधियोंके बराबर गुड डालकर ३६० गोलियां बनावे, प्रातःकाल एक गोला नित्य खावे. भोजन इच्छा रुचिसे करे तो एक महीनेमें बुढापेको दूर करे, दो महीनेमें अग्निको प्रज्वलित करे, तीन महीनेमें वीर्यको बढावे, बल वर्णको बढावे, कोढ १८, प्रमेह २०, महाक्षय, प्लीहा, श्वास, खांसी, आतें बढनेको, अरुचि, वातजरोग ८० मूत्रकृच्छ्र, गलग्रह, सम्पूर्ण मूर्छा तथा स्थावर जंगम विष, योनिदोष, मिग्गी, उन्माद, विषमज्वर आदिकोंका नाश करता है और हाथिकासा बल, घोडेकासा वेग, मारकीसी अग्नि, शूकरकासा श्रवण आर स्त्रीसंगमें घोडेके समान बहुत प्रबलता होय, नेत्रोंमें ज्योति गीधके तुल्य हो इस औषधिके समान दूसरी औषधि जगत्के विषे नहीं है, जिससे मनुष्य अपनी पूरी आयुष्य भोगे. इसमें मैथुन करना वर्जित नहीं है और ग्राम्यधम और भोजन यथेष्ट करना । यह ब्रह्मा और विष्णुने बनाया, राज्याभिषेक इन्द्रने करी यह श्रेष्ठ रसायन है. यह सब रोगोंका शीघ्रही नाश करती है, यह विजयानाम गोली प्रसिद्ध महादेवजीने फही है, जो मनुष्य इसे एक वर्ष सेवन करे उसको निस्संदेह सिद्धि प्राप्त होय ॥ १-१३ ॥ .. .. .
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योगचिन्तामणिः। [गुटिकाधिकारः
क्षयरोगम शिवागुटी। शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा।। त्ववक्षीरी पिप्पली धात्री कर्कटाक्षी पलोन्मिता॥१॥ निर्दग्धफलमूलाभ्यां पलं युज्यात्रिगन्धकान् । मधुत्रिपलसंयुक्ता विधेयाऽक्षसमा गुटी ॥२॥ शिलाजीत ८ पल, मिश्री ८ पल, वंशलोचन, पीपल, आंवला, काफडासिंगी यह एक एक पल लेनी, कटेरी पंचाङ्ग १६ टंक और त्रिफला इनको शहदमें मिलाकर बहेडेके प्रमाण प्रमाण गोली बनावे ॥ १ ॥ २ ॥ . .
शिवगुटिका । द्राक्षाभीरुविदारिकाद्वयपृथक्पर्णीस्थिरापुष्करैः पाठाकोटजकर्कटाक्षकटुकागनाम्बुदालाम्बुजैः । दन्तीचित्रकचव्यवाग्णकणावीगष्टवर्गौषधीरन्द्रोणे चरणस्थिते पलमितैरभिः श्रितैर्भावयेत् ॥ १॥ धात्रीमेपाविषणिकात्रिकटुकैरेभिः पृथक् पंचभिद्रव्यैश्च द्विपलोन्मितरपि पलं चूर्ण विदारी भवेत् । तालीस कुडवं चतुःपलमिह प्रक्षिप्यते सर्पिषा तैलस्य द्विपलं पलाष्टकमसौ क्षौद्रं भिषग्योजयेत् ॥२॥ तुल्यं पलैः षोडशभिः सितायास्त्व. वक्षारिकापत्रकेशरस्य । बिल्वशिकस्त्वक्त्रुटि संप्रयुक्तरित्यक्षमात्रागुटिकाः प्रकल्प्याः ॥३॥ तासामेकतमां प्रयुज्य विधिवत्यातः पुमान्भोजनात्प्राग्वा मुद्दलाम्बुजांगलरस. शीतं शृतं वा
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तृतीयः] . भाषाटीकासहितः। (१२३ ) जलम् । माक्षीकं मदिरामगुर्वशनभुक्पीत्वा पयो वा गवां प्राप्नोत्यंगमनंगवास्तुभवनं सम्पन्नमानंदकृत् ॥४॥शोफ ग्रंथ्यवमंथवेपथुवमीं पांडवाम या अलीपदं प्लीहार्शःप्रदर प्रमेहपिटिका मेहोऽश्मरी शर्करा । हृद्रोगार्बुदवृद्धिविद्रधियकृद्योन्याजरीन्सानिलानूरुस्तंभभगन्दरं ज्वररुजस्तूनीप्रतूनी तृषा ॥५॥ वातासक्प्रबलं प्रवृद्ध मुदरं कुष्ठं किलासक्रिमीन्कासश्वासज्वरस्वरक्षयममृक्पित्तं सपानात्ययम् । उन्मादं मदमप्यपस्मृतिमतिस्थौल्यं कृशत्वं तनोरालस्यं च हलीमकं प्रशमयेन्मूत्रस्य कृच्छाणि च ॥ ६॥ झटिति च युवा सर्वैः श्वेतैरकाल जराकृतैः कृतमलिकुलाकारैरेभिः शिरश्च शिरोरुहैः । बलिमदबलिव्यस्तातहूं वपुश्च समुद्रहन्प्रभवति शतं स्त्रीणां गन्तुं प्रभुर्जनवल्लभः॥७॥ स्तिमितमतिरविज्ञानान्धः सदस्यपटुः पुमान् सकृदपि यथा ज्ञानोपेतः श्रुतिस्मृतिमान्भवेत् । व्रजति च यथा युक्तो योगी शिवस्य समीपतां शिवगुटिकया कृत्स्नामेकां करोति हि मानवः ॥ ८ ॥ दाल, शतावर, विदारीकंद, पृष्ठवर्णी, शालपर्णी, कटेरी, पुहक-- रमूल, पाढ, कुडाकी छाल, काकडासिंगी, बहेडा, कुटकी, राना, मोथा, कडवी, तूंबी, दांतौनी, चीता, चव्य, गजपीपल, अष्ट
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(१२४) योगचिन्तामणिः। [गुटिकाधिकार:वर्ग ( महामेदा १ मेदा २, जीवक ३, ऋषभ ४, सिद्ध ५, ऋद्ध ६, कंकोली ७, क्षीरकाकोली ८, ) और ये न मिले तो वरी, विदारी, असगंध लेवे, ये सब औषधि चार चार टंक लेवे और आंवला १६ टंक, मेढासिंगी १६ टंक, सोंठ, मिरच, पीपल, दो दो पल, विदारीकंद १६ टंक, तालीसपत्र ६४ टंक, घृत, तेल ३२ टंक, शहद १६ पल, मिश्री २५६ टंक, वंशलोचन, तेजपात, नागकेशर, बेलगिरी, तज, इलायची संयुक्त एक टंकके प्रमाण गोलियां बनावे प्रातःकाल सदा विधिसे सेवन करे, भोजन पहिले लेवे, मूंगका पानी, मांसरस, ठंढा पानी अथवा गरम पानी, शहद मदिरासे इसके ऊपर गरिष्ठ भोजन पहिले लेवे और गौके दूधके साथ लेवे तो रूप बढे और सदा आनंदकारी है
और सूजन, गांठ, कंपवायु, पांडुरोग, वमन, कृमि, इलीपद, प्लीहा, अर्श, प्रमेह, पथरी, शर्करा प्रमेह, हृदयरोग, अर्बुद, वृद्धि, यकृत, योनिदोष, वायुरोग, ऊरुस्तंभ, भगंदर, खांसी, श्वास, ज्वर, स्वरभंग, क्षयी, रक्तपित्त, मूत्रकृच्छ्, तूनी, प्रतूनी, प्यास, वातरक्त, पेट बढनेके रोग, कोट, कृमि, पानात्ययरोग, और समस्त देह के रोग, उन्माद, अतिशूल, अतिदुर्बलता, आलस्य. हलीमक, सर्व मूत्रकृच्छ्र बुढापेसे जो बाल सफेद, होजायँ इन रोगोंको दूर करे मस्त हाथीके समान बल होवे । बलयुक्त मस्तशरीर होजाय और १०० स्त्रियोंसे भोग करनेका सामर्थ्य होवे, लोकमें प्यारा होवे, अज्ञानको दूर करे और महापंडित पुरुष सदा ज्ञानवान् स्मृति भूले नहीं । जो मनुष्य इस औषधिका सेवन कग वह महादेवके समान योगीन्द्र होजावेंगे। यह शिवनाम गोली महादेवजीने कही है ॥ १-८॥
प्यारा हो १०० स्त्रियोंसे भोगबल होवे । बलयुक्त
ज्वरनी गुटी। रसं विषं टंकणगंधकं च सत्र्यूषणं भृङ्गरसेन
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (१२५)
भाव्यम् । गुटी प्रदेया समशर्करांशैः सद्योज्वरं नाशयति क्षणेन ॥१॥ पारा, मीठा तेलिया, सुहागा, गंधक, सोंठ, मिरच, पीपल इनकी सममात्रा ले, चूर्ण कर भांगके रसमें गोली बनावे और मिश्रीके साथ खावे तो ज्वर दूर होवे ॥ १ ॥
विरेचननाम गुटिका। अष्टौ विषतुषदंतिबीजकलिकामागत्रयं नागराद् द्वौगन्धान्मरिचानिटंकणरसा एकैकभागाःक्रमात् । गुंजामानवटी विरेचनकरी देया सुशीतांबुना गुल्मप्लीहमहोदरार्तिशमनी नाराचनामा रसः ॥ १ ॥
जमालगोटेका छिलका दूर कर दूधमें पकावे फिर जीभ, रहित कर ८ टंक, सोंठ ३ टंक, शुद्ध गंधक २ टंक, मिरच, सुहागा फूला एक टंक, पारा १ टंक क्रमसे लेकर चिरमिटीके प्रमाण गोली बनाके
और ठंढे पानीके साथ लेवे तो प्लीहा और सब उदररोगोंको शांति करे । यह नाराच नामक रस है ॥ १ ॥
विश्वौषधं टंकणगन्धकं च सपारदं चेति समांशयुक्तम् । नृपालचूर्ण त्रिगुणं च दद्याद्गुडेन बद्धा गुटिका प्रसिद्धा ॥२॥ विरेचनी मूत्रविकारना. शिनी लध्वी हिता दीपनपाचनी च । संशोधनी शीतजलेन सत्यं संस्तम्भनी चोष्णजलेन सत्यम्॥३॥ सोंठ, सुहागा फूला, पारा, शुद्ध गंधक यह सममात्रा, जमालगोटा तिगुना इनकी गुडके साथ गुटिका बनावे. यह विरेचनकारी, मुत्रविकारको दूर करे, लघुकारी, हितकारी, अग्निदीपन, पाचन,
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(१२६) योगचिन्तामाणिः। {गुटिकाधिकारःकोठेको शुद्ध करे और टेढे जलसे विरेचन होवे, गरम जलसे विरेचन बंद होते हैं. विरेचन नाम दस्तोंका है ॥ २॥ ३॥ टंकणमयूरतुत्थं स्नुहीक्षीर अजैपालमेरण्डम् । नाभिप्रलेपदत्तं नरपतियोग्यं विरेचनं कुरुते ॥४॥ मध्यमस्त्रिवृतस्तिक्ता राजवृक्षो विरेचनम् । क्रूगम्नुक्पयसाहेमक्षीरदंतीफलादिभिः ॥ ५॥ एरंडतैलं दुग्धं गोस्तथा तुंबी हरीतकी । वज्री क्षीरगुटी चाथ पिप्पली तेन भाविता ॥६॥ महिषावलिखा चैव कंपिल्लं तक्रमेव च। उष्ट्रीदुग्धं तथा पेयं घोडाचोली गुटी तथा ॥ ७॥ सुहागा, नीलाथोथा, सेहुंडका दूध, शुद्ध जमालगोटा, अरंडीके वीज इनको पीसकर नाभीपर लेप करे, यह राज योग्य विरेचन है. एलुआ, निसोथ, कुटकी, अमलतास यह मध्यम जुलाब है । आकका दूध, थूहरका दूध, शुद्ध जमालगोटा यह क्रूर जुलाब है। अरंडीके तेल वा गायके दूधमें गोली बनावे अथवा पीपलोंको थूहर के दूधमें भावना देवे, साँठी चांवलोंमें कबीला महा सङ्ग पीवे अथवा ऊंटनीके दूध घोडाचोलीरस सेवन करे ॥४-७॥
विषूचिकाहरगुटिका । पलत्रिकं व्योषकरअबीजं रसं तथा दाडिममातुलुगयोः । निशायुगं पिष्य कृता च वर्तिस्तदानं
हन्ति विषूचिकां च ॥१॥ .: त्रिफला, सोंठ, मिरच, पीपल, करंजुएके बीज, हलदी, दारुहलदी, पीसकर विजौरेके रसमें अथवा अनारके रसमें
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"तृतीयः ]
भाषाटीका सहितः ।
( १२७ )
चनेके बराबर गोलियां बनावे फिर उस गोलीसे अञ्जन करे तो विषूचिकारोगं तथा मर्च्छा जाय ॥ १ ॥
विषूचिका अञ्जनगुटिका ।
व्योपा करंजस्य फलं हरिद्रे मूलं समावाप्य च मातुलुङ्गा । छाया विशुष्का गुटिका विधेया हन्याद्विषूचीं नयनांजयेन ॥ १ ॥
सोंठ, मिरच, पीपल, करंजबीज, हलदी पीसकर बिजौरे के रस में गोली बनावे और छाया में सुखाकर अञ्जन करे तो विषूचिकारोग नाश होवे ॥ १ ॥
मातुलुङ्गजटा व्योपनिशाबीनं करञ्जकम् । काञ्जिकेनाञ्जनं हन्याद्विषूचीमतिदारुणाम् ॥ २ ॥
बिजौरेकी जड, सोंठ, मिरच, पीपल, हलदी, कंजाके बीज इनकी कांजी के पानी में गोली बनावे और अञ्जन करे तो दारुण विषूचिका दूर होवे ॥ २ ॥
प्रचेता गुटिका |
त्र्यूषणं त्रिफला हिङ सैन्धवं कटुका वचा । नक्तमालस्य बीजानि तथा गौराश्च सर्पपाः ॥ १ ॥ मेषमूत्रेण पिष्टानि च्छायाशुष्कं विधापयेत् । भूतोन्मादेप्यचैतन्येऽञ्जनमैका हिकादिषु ॥ २ ॥
सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, हींग, सैंधानोन, कुटकी, बच, कंजाकी मिंगी, सफेद सरसों इनकी मैढेके मूत्रमें गाली बनावे और छाया में सुखावे और नेत्र में, आंजे तो यह अञ्जन भूतादिकोंको तथा ऐकाहिक ज्वरादि अचेतनता और उन्मादको दूर करे ॥ १-२ ॥
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( १२८ )
योगचिन्तामणिः ।
गुटिका धिकारः
राजिकां मरिचं कृष्णां सैन्धवं भूतनाशनम् । नरमूत्रेण संपिष्य अञ्जनं ज्वरनाशनम् ॥ ३ ॥ राई, मिरच, पीपल, सैंधानोन इनकी मनुष्य के मूत्र में गोली बनावे और अंजन करे तो भूतादिकां को दूर करे || ३ ॥
सपपादिगुटिका |
सिद्धार्थको वचाहिङ्गुकरओ देवदारु च । मञ्जिष्ठा त्रिफला श्वेता कटुकीत्वक्कटुत्रिकम् ॥ १ ॥ समांशानि प्रियंगुश्च शिरीषो रजनीद्वयमू । बस्तमूत्रेण पिष्टोऽयमङ्गे देयस्तथाऽञ्जनम् ॥ २ ॥ नस्यमालेपनं चैव स्नानमुद्वर्त्तनं तथा । अपस्मारे विषोन्मादे कृत्यालक्ष्मीज्वरापहम् ॥ ३ ॥ भूतेभ्यश्च भयं नास्ति राजद्वारे च शस्यते ॥ ४ ॥
सरसों, वच, हींग, कंजाके बीज, देवदारु, मंजीठ, त्रिफला, मालकांगनी, तज, सोंठ, मिरच, पीपल, समभाग प्रियंगु, सिरसके बीज, दोनों हलदी इनकी बकरे के मूत्रमें गोली बनावे और मर्दन करे तो सब रोग दूर होंवें, अञ्जन करें तथा नस्य लेय, लेपन करे, उबटना करे तो मृगी, विष, उन्मादज्वरादि तथा भूतादिकोंको दूर करे । यह राजाके योग्य है ॥ १-४ ॥
चिन्तामणिरसगुटिका ।
द्वौ जाजी कणविश्वपञ्चलवणा मारीचगन्धाभ्रकं क्षारंत्रीणि रसेन्द्रमर्द्धममृतं तत्सर्वमेकीकृतम् । क्षिप्त्वा चार्द्रक नागवल्लिसहितं पञ्चैव गुंजान्वितं सामे सज्वरसन्निपातकमहामेदाद्युदावर्त्तके ॥ १ ॥
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तृतीयः ]. भाषाटीकासहितः। (१२९) , दोनों जीरे, पीपल, सोंठ, पाँचों नोन, मिरच, शुद्ध गन्धक, अभ्रक, सुहागा, सज्जी, जवाखार, पारा, आधी मात्रा तलिया मीठा यह सब बराबर एकत्र कर अदरखके रसकी पांच भावना तथा पानक रसकी पांच भावना देवे, फिर गोल मिरचके बरावर गोली बना खावे तो आमविकार, ज्वरसहित सन्निपात, असाध्य प्रमेह और उदाव दि रोग दूर होय ॥ १ ॥
वडवानलरसगुटिका। सूतं भुजङ्गममृतं लवणं हरिद्रा व्योषं धनं जयजटावनि १ भू धरित्री। अष्टादश १८त्रि ३ नव ९ वह्नि ३मितश्च भागःप्रोक्तो रसो रसगुणैर्वडवानलोयऽम् ॥ १ ॥ निम्बुकाईककरीरपयोभिः शिग्रुकेसरिभुजङ्गलताभिः। साध्यमनिसदनानि लशूलाध्मानहानि वडवानलचूर्णम् ॥ २ ॥ पारा १ टंक, शीशा १ टंक, गन्धक १ टंक, शीशा पारेको मिला एक करले, सैंधानोन १८, हलदी ३, सोंठ, मिरच, पीपल ९, चीता ३ भाग इन सबको नीम्बूके रसकी, अदरखके रसकी, करीरके रसकी, दूधकी, सैंजनके रसकी, और नागकेशरकी सात सात भावना देवे, फिर गोली बनावे और खावे तो जड बुद्धिको, मन्दाग्निको, वायुशूलको, अफरेको दूर करे ॥ १ ॥ २ ॥ .
पंचाननरसमुटिका १-३ । सूतं गन्धकचित्रकं त्रिकटुकं मुस्तं विडङ्गं विषमेतेषां समतुल्यमार्कवरसं गुञाप्रमाणा वटी । कुष्ठाष्टादशगुल्मरोगमुदरप्लीहप्रमेहादयो रोगनेकसुभूरिदर्पदलने ख्यातश्च पञ्चाननः ॥ १ ॥
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( १३० )
योगचिन्तामणिः ।
[ गुटिका धिकारः
१ - पारा, गंधक, चीता, सोंठ, मिरच, पीपल, मोथा, वायविडंग, तेलिया मीठा इन सबकी समान मात्रा लेवे भांगरेके रसमें गोली बनावे, आप्रमाण लेवे तो यह १८ प्रकारके कुष्ठ, गुल्म, उदररोग, प्लीहा और प्रमेहादि रोगोंको नाश करे ॥ १ ॥
शंभोः कण्ठनिवासनं च मरिचं गन्धं रसेन्द्रो रविः पक्षौ सागरलोचने शशिमुखं भागोऽर्कसंख्याकृतः । खल्वे तत्खलु मर्दितं रविजलैर्गुजार्द्धमात्रं ददेत् सिद्धोऽयं ज्वरहस्तिदर्पदलने पञ्चाननोऽयं रसः ॥ २ ॥ पथ्यं च देयं दधिभक्तयुक्तं सिन्धूत्ययुक्तं सितया समेतम् । गन्धानुलेपं हिमतोयपानं दुग्धं च पेयं शुभदाडिमं च ॥ ३ ॥
२ तेलिया मीठा २ टंक, मिरची ४ टंक, गंधक २ टंक, पारा १ टंक आकका दूध १२ टंकमें खरल करे और आधी रत्ती प्रमाण गोलियां बनावे | यह गोली हस्तीरूप ज्वरको सिंहरूप है. पथ्यदही, चावल खावे और सैंधानोन, मिश्रीसहित लेवे, सुगंधि द्रव्य अपने शरीर में लगावे, ठंढा जलपान, दुग्धपान अनार खावे ॥ २ ॥ ३ ॥
सूतं गन्धकचित्रकं त्रिकटुकं मुस्ता विषं त्रैफलमेतैस्तुल्यकृतैर्गुडं द्विगुणितं गुञ्जप्रमाणा वटी । कुष्ठं गुल्ममतिस्रुतिकृमिरुजं शूलप्रमेहापहं वातानेककरीन्द्रदर्पदलने ख्यातश्च पञ्चाननः ॥ ४ ॥
३ - पारा, गंधक, चीता, सौंठ, मिरच, पीपल, मोथा, तेलिया मीठा यह सब बराबर लेवे और गुड इससे दूना ले गोली गुंजा प्रमाण बनावे, कुष्ठ, गुल्म, अतीसार, कृार्म, शूल, प्रमेह, वाखादि
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (१३१) अनेक मदमस्त इस्ती समान रोगोंको यह पञ्चानन रस नाश करता है ॥४॥
ज्वरांकुशरसगुटिका । . शुद्धं मूतं विषं गन्धं धूर्तबीजं त्रिभिः समम् । चतुर्णी द्विगुणं व्योषं चूर्ण गुंजाइयं मतम् ॥१॥ जंबीरकस्य मज्जाया आईकस्य द्रवैयुतम् । महाज्वरांकुशो नाम ह्यष्टज्वरनिवारकः ॥ २ ॥ ऐकाहिकं व्याहिकं च तार्तीयं च चतुर्थकम् । विषमंच त्रिदोषोत्थं हन्त्यवश्यं न संशयः ॥ ३॥ पारा शुद्ध, तेलिया मीठा, गंधक, धतूरेके वीज यह तीनों बराबर इनसे दूनी सोंठ, मिरच, पीपल लेय, जंभीरी अथवा अदरखके रसमें गोली दो गुञ्जाप्रमाण बनावे, यह महाज्वरांकुश नाम रसगुटिका है, अष्टज्वरोको तथा ऐकाहिक, व्याहिक. तृतीयक, चतुर्थक, विषमज्वर, त्रिदोष इनको नाश करे ॥ १-३॥
घोडाचोली। विष रस गंधक अरु हरताल, त्रिकटु त्रिफला टंकणखार। अजयपाल भांगरा रस गोली, चौंसठ रोगगमावै घोडाचोली ॥१॥खण्डेन सह गृहीयाद्गुटिकानां चतुष्टयम् । उष्णं जलं चानु पेयं वारान्सप्त च पञ्च वा ॥२॥ मूक्ष्मं विरेचनं कुर्याजीर्णज्वरविनाशिनी । अजीर्णशूलग्रहणीगुल्मवातामवातजित् ॥३॥
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(१३२) योगचिन्तामणिः। गुटिकाधिकार:. पारा, गन्धक ले पारे गंधककी कजली करे, तेलिया मीठा, शुद्ध हरताल, सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला सुहागा इनको चूनेके पानीकी तीन पुट देवे फिर भांगरेके रसमें गोली बनावे, यह गोली चौंसठ रोगोंको दूर करे और खांडके साथ चार गोली लेवे, ऊपरसे गरम पानी पीवे तो सात बार या पांच बार विरेचन करे, जीर्णज्वर,अजीर्ण, संग्रहणी, गुल्म और आमवातको दूर करे ॥ १-३॥
प्रभावती गुटिका । द्वे हरिद्रे निंबपत्रपिप्पलीमरिचानि च।भद्रमुस्ता विडंगं च सप्तमं विश्वभेषजम् ॥ १ ॥ सैंधवं चित्रकं चैव बावची पित्तपर्पटम् । पाठाऽभया वचा कुष्ठमजामूत्रेण पेषयेत् ॥२॥ साष्टशतं
वाऽभिमंत्र्य जातीपुष्पाणि प्रक्षिपेत् । दीपोत्सव. दिने रात्रौ गुटीं कृत्वाभिमंत्रयेत् ॥ ३ ॥ सर्वेषु बालरोगेषु ज्वरऐकाहिकादिके । भूतप्रेतादिदोषेषु वश्ये नेत्रामयेषु च ॥४॥ अंजनं भक्षणं पुंडू यथायोगं प्रयोजयेत् । प्रभावती नाम गुटी सर्वकार्यप्रसाधिनी ॥५॥ दोनों हलदी, नीमके पत्ते, पीपल, मिरच, नागरमोथा, वायविडंग, सोंठ, सैंधानोन, चीता, बावची, पित्तपापडा, पाठा, हरड, वच कूठ, उनको बकरीके मूत्रमें १०८ चमेलीके फूल डाल यह मंत्र पढे“ॐ नमः पार्श्वनाथाय महासत्त्वाय ॐ अहिमहि चर २ चांडालिनि स्वाहा ।" और दिवालीकी रातको गोली बनावे । यह गोली समस्त बालरोग, ऐकाहिकादि ज्वर और भूत, प्रेतादिक रोगोंको नाश
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (१३३ ) करे और अंजन करे तो नेत्ररोग नाश होवें, तोलके यथायोग्य भक्षण करे तो यह गोली समस्तकार्योको सिद्ध करे ॥ १-५॥
___अतीसारे अरलूगुटिका । अरेलू बिल्वजम्ब्वानं कपित्थं च रसाञ्जनम् । लाक्षा हरिद्रा हीबेरंस्योनाकं कट्फलं तथा ॥१॥ लोभ्रं मोचरसं शृंगी धातकी च वटांकुरान् । पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन गुटिकां चाक्षसंमिताम् ॥२॥ छायाशुष्कां पिबेक्षिप्रं ज्वरातीसारशान्तये । रक्तपित्तप्रशमनी ग्रहणीशूलनाशिनी ॥ ३ ॥
अरलूकी छाल, बेलगिरी, जामुनकी छाल, आमकी छाल, कैथ, रसोत, लाख, हलदी, हाउबेर, नेत्रवाला, कायफल, लोध, मोचरस, सोंठ, धायके फूल, वटके अंकूर इन सबको चावलके पानीमें खरल कर बहेडेके समान गोली बनावे और छायामें सुखाकर सांठी चांवलोंके पानीले संग प्रभात समय खावे तो ज्वर, अतीसार, रक्तपित्त, संग्रहणी और शूलको दूर करै ॥ १-३ ॥
ग्रहणीकपाटगुटिका। चातुर्जातकचव्यजीरकयुगं व्योषारलू ग्रंथिक श्रीवृक्षातिविषाऽजमोदयुगलंचूतास्थिपाठांबुदम् । यष्टी चेन्द्रयवाम्लकास्थिकवचा लोभ्रं समझारजः कुर्यान्मोचरसान्वितं समजयेद्वासावनोतद्गुणान् ॥ १॥ आबद्धा ग्रहणीकपाटवटिका अक्षप्रमाणा भजेत्साध्मानग्रहणीविकाररुधिरातीसारविच्छित्तये २।
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( १३४ )
योगचिन्तामणिः । [ गुटिकाधिकारः
तज, तेजपात, इलायची, नागकेशर, चव्य दोनों जीरे, सोंठ, मिरच, पीपल, अरलूकी छाल, पीपलामूल, बेलगिरी, अतीस, अजमोद, अजमायन, आमकी गुठली, पाठा, मोथा, मुलहठी, इंद्रजव, इमली के बीज, बच, लोध, मंजीठ इनका चूर्ण कर मोचरस समान मात्रा लेवे, इतनाही गुड डालकर बहेडेके समान गोलियाँ बनावे | यह संग्रहणी, रक्त अतीसारका नाश करे ॥ १ ॥ २ ॥
एलादिगुटिका ।
एलात्वक्पत्रकं द्राक्षा पिप्पल्यर्द्धपलं तथा । सित्तामधुकखर्जूर मृद्वीकाश्च पलोन्मिताः ॥ १ ॥ संचूर्ण्य मधुना कुर्याटिकां चाक्षसंमिताम् । कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां छर्दि मूर्च्छा मतिभ्रमम् ॥ २ ॥ रक्तष्ठीवं पार्श्वशूलं स्वरभेदं क्षतक्षयम् । गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपित्तं च नाशयेत् ॥३॥
इलायची ४ टंक, तज ४ टंक, तेजपात ४ टंक, दाख ४ टंक, पीपल ८ टंक, मिश्री, मुलहठी, छुहारे, मुनक्का १६ टंक इनको शहदमें बहेडेके समान गोलियां बनावे | यह गोली खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, छर्दि, सूर्च्छा, चित्तभ्रम, मुखका रक्तदोष, पसलीका दरद, स्वरभेद, क्षतक्षय, रुधिरविकार और पित्तादिकोंको दूर करे ॥ १-३ ॥
तालीसादिगुटिका |
चव्याम्लवेतसकटुत्रिकतिन्तडीकं तालीसजीरकतुगादहनैः समांशैः । चूर्ण गुडप्रमृदितं त्रिसुगं1. धयुक्तं वैस्वर्यपीनसकफारुचिषु प्रशस्तम् ॥ १ ॥
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तृतीयः ]
भाषाटीकासहितः ।
(१३५)
चव्य, अमलवेत, सोंठ, मिरच, पीपल, तंतडीक, तालीसपत्र, जीरा, वंशलोचन, इलायची, तज, पत्रज, चीता इनको बराबर लेवे और मुडके संग गोली बनावे यह गोली पीनस, कफ, अरुचि इनको दूर करती है ॥ १ ॥
कामदेव टिका | पलं गोक्षुरबीजानि द्विपलं कपिकच्छुजम् । पलं नागदला मूलं पलमेकं शतावरी ॥ १ ॥ विदारीकन्दचूर्ण तु पलद्वयमथाऽबला । द्विपलं त्रपुसीबीजं वाजिगंधा पलत्रयम् ॥ २ ॥ त्रिसुगंधकणा धात्री लवंगं नागकेशरम् । वंशी मांसी तालमूली गुडूची रक्तचन्दनम् ॥ ३ ॥ एतानि कर्षमात्राणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । बालशाल्मलिकाद्रावैर्भावयेच्चैकविंशतिः ॥ ४ ॥ कुशकाश द्रवैरेवं शर्करा समयोजितम् । नष्टशुक्ररुजं हन्ति मूत्रकृच्छ्राणि यानि च ॥ ५ ॥ शतंगच्छेत्तु नारीणां हयतुल्यसमो बले । कामदेवमिदं नाम धन्वन्तरिविनिर्मितम् ॥
६ ॥
4
गोखरू के बीज १ पल, कौंचके बीज २ पल, गंगेरनकी छाल १ चल, शतावर १ पल, विदारीकन्दका चूर्ण २ पल, खरेटीकी जड २ • पल, ककडीके बीज डेढ पल, असगंध डेढ पल, तज, पत्रज, छोटी इलायची, पीपल, आंवले, लोंग, नागकेशर, वंशलोचन, छड, काली मूसली, गिलोय, लाल चन्दन इन सब औषधियों को एक एक कर्ष लेकर चूर्ण करे, इसमें कोमल सेमलके पत्तोंके रसकी इक्कीस भावना
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( १३६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ गुटिकाधिकार:
तथा डाभ कांसके रसकी भी इक्कीस भावना देकर बराबर खांड मिलाकर अनुमान मुवाफिक खाय तो नष्ट शुक्र के रोगको तथा मूत्र कृच्छ्रको नाश करे और सौ स्त्रियोंसे भोग करें, घोडेके समान पराक्रम होवे | यह कामदेवटी श्रीधन्वन्तरि भगवान् ने बनायी है ॥ १-६ ॥
लघुकामेश्वरगुटिका ।
शतावरी गोक्षुरश्च कपिकच्छु उटिंगणम् । गंगेरी कबिला मुस्ता मुशली खुरसाणकम् ॥ १ ॥ समुद्रशोषो हिपरा चविका शाल्मली सटी | मकुष्ठस्य जटामांसी वाजिगन्धा च रेणुका ॥ २॥ विदारी ग्रंथिकं गुंदं विडंगं जीरकं सणम् । मांसी सिताह्वा धान्याकं विजया तुर्यभागिका ॥ ३ ॥ जातिपत्रं जातिफलं चातुर्जातकटुत्रिकम् । कर्पूरं गगनं लोहं रससिंद्रका सिका ॥ ४ ॥ गुटिका द्विगुणखंडेन वृद्धकोलप्रमाणतः । वीर्यवृद्धिं बलं पुष्टिं कामदीप्तिं करोत्यलम् ॥ ५ ॥
शतावर, गोखरू, कौंच के बीज, उटंगन, गंगेरन, खरेटी, बाला, मोथा, मूसली, खुरासानी अजमायन, समुद्रशोष, समुद्रफेन, चव्य, सेमलका मूसला, मेदा, कचूर, जटामांसी, असगंध, संभालूके बीज जावित्री जायफल, तज, तेजपात, इलायची, सोंठ, मिरच, पीपल, कपूर, अभ्रक, सार, रससिंदूर, मिश्री, विदारीकंद, पीपलामूल, मस्तंगी, वायविडंग, जीरा, सनके बीज, छड, सौंफ, धनियां इनसे चौथाई मांग और दूनी खांड डालकर बड़े बेरके समान गुटिका बना खावे तो वीर्यवृद्धि, बल, पुष्टि, कामदीपन पूर्ण करे ॥ १-५ ॥
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तृतीयः] भाषाटीकासहिताः। (१३७)
स्तम्भनगुटिका । कंकोलं कुंकुमं फेनं मस्तंगी जातिपत्रिका। जातीफलं च कर्पूरं करहाटमुटीङ्गणम् ॥ १ ॥ जलादिभिर्विनैवैतां गुटिकां वर्द्धयेदली। . दिनान्ते भक्षयेच्चैकां रेतस्तंभकरी मता ॥ २ ॥ कंकोल, केशर, अफीम, मस्तंगी, जावित्री, जायफल, कपूर, अकरकरा, उटंगन इनकी विना पानीसे गोली बनावे. संध्याको एक गोली लेवे तो स्तंभन करे, और वीर्यको पुष्ट करे ॥ १ ॥ २ ॥
नेत्राम्बुजवटी। शंखनाभिकणातुत्थं बोलखर्परसंयुतम् । निंबूकरसतोयेन ह्यंजनं नयनामृतम् ॥१॥
शंखकी नाभि, पीपल, नीलाथोथा शुद्ध, बीजाबोल, शुद्ध खपरिया इनको नींबूके रसमें खरल कर अञ्जन करे, यह अञ्जन नयनामृत नामसे प्रसिद्ध है ॥ १॥
। चन्द्रप्रभावत्तिः। अशीतितिलपुष्पाणि षष्ठिभागाधिका कणा। पञ्चाशजातिकलिका मरिचानथ षोडश ॥१॥ भृङ्गराजरसेनेदं कांस्यपात्रेण मर्दयेत् । एषा चन्द्रप्रभा वर्तिश्चक्षुरोगविनाशिनी ॥२॥ तोयेन तिमिरं हन्ति मधुना हन्ति पुष्पकम् । अजामूत्रेणराव्यन्धं गोमूत्रेण च चिर्पटम् ॥३॥ तिलके फूल ८०, पीपलके दाने ६०, जाईकी कली ५०, मिरच १६ इनको भांगरेके रसमें कांसेके पात्रमें खरल करे, यह चन्द्रप्रभा
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( १३८ )
योगचिन्तामणिः । [ गुटिकाधिकारः
वर्ती है. सो सम्पूर्ण नेत्ररोगोंको नाश करे, इसको पानीसे आंजे तो तिमिर जाय. शहदसे आंजे तो फूला जाय, बकरीके मूत्रसे आंजे तो रतौंधी जाय, गोमूत्रसे आंजे तो आंखोंका चिमचिमाहट जावें ॥ १-३॥ नेत्रावगुटिका | धात्र्यक्षपथ्याबीजानि एकद्वित्रिगुणानि तु । पिट्वा वर्ति जलैः कुर्यादंजनं त्विह रेणुकम् । नेत्रस्रावं हरत्याशु वातरक्तकजं तथा ॥ १ ॥
त्रिफलेकी मिंगी क्रमसे १, २, ३ भाग इनको पीसकर पानी में गोली बनावे. फिर अञ्जन करे तो आंखोंके पानी, वायु और रुधिरपीडाको दूर करे ॥ १॥
रात्र्यन्धताया गुटिका ।
रसांजनं हरिद्रे द्वे मालती निम्बपल्लवाः । गोशकृद्रससंयुक्ता वर्तिर्नक्तांध्यनाशिनी ॥ १ ॥
रसोत, सुरमा, दोनों हलदी, मालतीके पत्ते, नीम के पत्ते इनकी atara रस में गोली बनावे और आंख में आंजे तो रतौंधका नाश होवे ॥ १ ॥
सप्तामृतगुटी | त्रिफलालोहचूर्णे च माक्षिकं मधुयष्टिका । सायमाज्यान्वितं माषं सद्यस्तिमिरनाशनम् ॥ १ ॥ त्रिफला, सार, शहद और मुलहठीको सायंकालमें घीके संग खाय तो शीघ्रही तिमिररोगका नाश करे ॥ १ ॥
अतिनिद्रायां गुटिका ।
क्षौद्राश्वलालासंघृष्टैर्मरिचैर्नेत्रमञ्जयेत् । अतिनिद्रा शमं याति तमः सूर्योदये यथा ॥ १ ॥
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तृतीयः] भाषाटीकासहितः। (१३९)
शहद और घोडेकी लारमें मिरच घिसकर लगावे तो अतिनिद्रा दूर होय, जैसे सूर्यके उदय होनेसे अन्धकार दूर होजाता है ॥१॥ शिरीषबीजगोमूत्रकृष्णामरिचसैंधवम् । अञ्जनं स्यात्प्रबोधाय सरसोनशिलावरैः ॥२॥ जयपालभवां मज्जां भावयेनिम्बुकद्रवैः । एकविंशतिवेलं तु ततो वर्ति प्रकल्पयेत् मनुष्यलालया घृष्ट्वा ततो नेत्रे नियोजयेत् । सर्पदंष्टाविषं जित्वा संजीवयति मानवम् ॥ ३॥ सिरसके चीयां पीपल, मिरच, सैंधानोन इनका गोमूत्रसे अञ्जन करे तो तन्द्रा दूर होय । लहसन, मैनसिल, शुद्ध जमालगोटेकी मिंगी, नींबूके रसकी २१ भावना देय, गोली बनाय मनुष्य की लारसे अञ्जन करे तो सर्पका विष उतर जाय ॥ २-३ ॥
काचं सफेनं कनकं सतुत्थं शंख शिलारोचनमाक्षिकं च । पुंसः कपालं शिखिकुक्कुटांडमाजन्मजातं कुसुमं निहन्ति ॥ ४॥ कांच, समुद्रफेन, धतूरेका फल, शुद्ध नीलाथोथा, शंखका चूर्ण, मैनशिल, गोरोचन, सोनामक्खी, मनुष्यकी खोपडी, मोर तथा मुर्गेका अण्डा यह अचन जन्मभरकी फूलीका नाश करता है ॥ ४ ॥
नयनामृताञ्जनम् । त्रिफलाभृङ्गमहौषधिमध्वाज्यच्छागपयसि गोमूत्रे । नागं नवतिनिषिक्तं करोति गरुडोपमं चक्षुः ॥ १॥
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(१४०) योगचिन्तामणिः। [गुटिकाधिकार:पारदं शीसकं तुल्यं तयोगुिणमञ्जनम् । ईषत्कपूरसंमिश्रमानं नयनामृतम् ॥२॥ शीसेको त्रिफलामें ३० बार, भांगरेक रसमें १० बार, सोंठके काढे १० बार, शहदमें १० बार, घीमें १० बार, बकरीके दूधमें १० बार, गोमूत्रमें १० घार बुझावे । यह अञ्जन गरुडके समान नेत्रोंकी ज्योतिको करता है. पारा, शीशा बराबर इनसे दूना सुरमा और थोडासा कपूर मिलाकर अंजन करे तो नेत्रोंको यह अंजन अमृतके तुल्य है ॥ १-२ ॥
__वाले कुत्तेके काटनेपरं गोली। तुम्बीगिरं मालवकेक्षुहिङ्गलं नेपालमध्यं मरिचानि टकणम् । भागैः समानगुटिका विधेया विषं शुनो हन्ति सुतप्तवारिणा ॥१॥ कडवी तुंचीके बीज, मालती, गुड़ टंक १६, हिंगल २ टक जमालगोटेकी मिंगी, मिरच २ टंक, सुहागा २ टंक, गुडसे गोली बनाकर गरम जलसे लेवे तो कुत्तेका विष दूर होवे ॥१॥
गुडतैलार्कदुग्धैश्च लेपः श्वानविषं हरेत् । अपामार्गस्य मूलं तु कक्कं मधुना लिहेत् ॥२॥ श्वानदंष्ट्राविषं हन्ति लेपः कुक्कुटविष्ठया । उन्मत्तश्वानदष्टाणां कुमारीदलसैन्धवम् । सुखोष्णं यः पिबेत्पीडा त्रिदिनांते सुखावहा ॥३॥ आज्येन तण्डुलीमूलं तुलसीमूलिकापि वा। तण्डुलोदकपानेन गुटी श्वानविषापहा ॥४॥ तैलं तिलानां पललं गुडं च क्षीरं तथाऽर्क सममेव
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तृतीयः ] .
भाषाटीकासहितः ।
( १४१ )
पीतम् । अलर्कसक्तं विषमाशु हन्ति सद्योभवं वायुरिवाभ्रवृन्दम् ॥ ५ ॥ छायाशुष्कार्कमूलं च मरीचं कर्ष भक्षयेत् । तद्दणं तत्क्षणादेव दहेलोहशलाकया ॥ ६ ॥ चोकमाज्यं मेघनादौ देयौ श्वानविषापहौ । अन्येषां सर्वकीटानां विषं हन्ति चराचरम् ॥ ७ ॥
गुड, तेल, आकका दूध लेपन करे तो श्वानका विष दूर होवे । ओंगाकी जड ४ टंक शहदमें चाटे तो कुत्तेका विष जाय । मुर्गे की बीटका लेप करे तो कुत्तेका विष दूर होय । कुमारपाठा, सैंधानोन शहद गरम जल के साथ पीवे तो तीन दिनमें दर्द दूर होय अथवा घीसे चौलाईकी जडको पीवे या तुलसीकी जड घीसे पीवे वा तुलसीको चावल के पानी से पीवे तो कुत्तेका विष दूर होवे । तेल, गुड, आकका दूध इनको पानाके संग पीनेस कुत्तेका विष एस दूर होवे जैसे बादलोंका समूह पवनसे । अथवा छाया में आककी जडको सुखा चार टंक मिरचोंके साथ खाय तो कुत्तेका विष शीघ्रही जाय । नीलाथोथा, घृत, चौलाईका रस इनको मिलाकर कुत्तेके काटेको देवे तो विष दूर होवे. अथवा लोहे की कील गरम कर दाग देवे, इन दवाइयोंसे सब कीटादिकों के विष दूर होते हैं ॥ २७॥
कुष्ठविकारे त्रिफलादिगुटिका ।
त्रिफला षट्पला कार्या भल्लातानां चतुः पलम् । बाकुची पंचपलिका विडंगानां चतुःपलम् ॥ १ ॥ हतं, लोहं त्रिवृचैव गुग्गुलुश्च शिलाजतु । एकैकं पलमात्रं स्यात्पलार्द्ध पौष्करं भवेत् ॥ २ ॥
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(१४२) योगचिन्तामणिः। [ गुटिकाधिकारःचित्रकस्य पला स्याद द्विगुणं मरिचं भवेत् । नागरं पिप्पलीमूलं त्वगेला पत्रकुंकुमम् ॥३॥ शाणोन्मितं तदेकैकं चूर्णयेत् सर्वमेकतः। ततस्तत्प्रक्षिपेच्चूर्ण पक्कखण्डे च तत्समे ॥ ४ ॥ मोदकान्पलिकान्कृत्वा प्रयुंजीत यथोचितम् । हन्युः सर्वाणि कुष्ठानि त्रिदोषप्रभवामयान्॥५॥ शिरोक्षिभुगतान्रोगान्हन्यात् पृष्ठगदामपि । भगन्दरप्लीहगुल्मान् जिह्वातालुगलामयान् ॥ ६॥ प्राग्भोजनस्य देयं स्यादधकायस्थिते गदे।। भेषजं भक्ष्यमध्ये च रोगे जठरसंस्थिते । भोजनस्योपरि ग्राह्यमूर्व जन्तुगदेषु च ॥ ७॥ त्रिफला ६ पल, भिलावा ४ पल, बावची ५ पल, वायविडंग ४ पल, सार १ पल, निसोथ १ पल, गूगल १ पल, शिलाजीत १ पल, पोहकरमूल १ पल, चीता आधा पल, मिरच १ पल, सोंठ, पीपल, मोथा, तज, तेजपात, इलायची, केशर, ये एक एक पल ले इन सबका चूर्ण कर और सबकी बराबर खांडकी चासनी कर १६ टंक प्रमाण लड्डू बना लेवे । इसके खानेसे कोढ, त्रिदोष, भगंदर, प्लीहा, गोला, जिह्वारोग, तालुरोग, गलरोग, आंखरोग, भौंहरोग, पीठरोग, कानरोगादिकोंका नाश करे, भोजनसे पहिले सेवन करे तो अर्दागरोग जाय और मध्यमें खावे तो उदररोग जाय और पीछे खाय तो कमरके रोग दूर होवें ॥१-७॥ भल्लातकांस्तिलैः सार्धमथवा शुण्ठितण्डुलैः । खण्डेन गुटिका कार्या कुष्ठरोगनिवृत्तये ॥१॥
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तृतीयः ] भाषाटीकासहितः। (१५३)
भिलावोंको तिलोंके साथ अथवा सोंठ, चावलोंके साथ मिश्री मिलाकर आठ गुटिका कुष्ठरोगकी निवृत्ति के लिये बनावे ॥ १ ॥
सञ्जीवनी मुटिका ।। विडङ्गं नागरं कृष्णा पथ्याऽऽमलविभीतकौ । वचा गुडूची भल्लातं सद्विषं चात्र योजयेत् ॥ १॥ एतानि समभागानि गोमूत्रेण च पेषयेत् । गुंजाभा गुटिका कार्या दद्यादाकजै रसैः ॥२॥ एकामजीर्णयुक्तस्या द्वे विषूच्यां च दापयेत् । तिसश्च सर्पदष्टस्य चतस्रः सनिपातिनः ॥३॥ गुटिका जीवनी नाम संजीवयति मानवम् ॥४॥
नागपुरीययतिवरश्रीहर्षकीर्तिसंकलिते ।
वैद्यकसारोद्धारे गुटिकाध्यायस्तृतीयोऽयम् ॥ ३ ॥ वायविडंग, सोंठ, हरड, पीपल, आंवला, बहेडा, वच, गिलोय, शुद्ध भिलावा, शुद्ध तेलिया मीठा इनकी समान मात्रा लेवे, गोमूत्रमें खरल कर मुजाप्रमाण गोलियां बनावे, अदरखके रससे देवे, अजीर्णचालेको एक गोली, हैजावालेको २ गोली, सर्प काटे हुएको ३ गोली, सन्निपातवालेको ४ गोली देवे तो वे रोग नाश होय ॥ १-४॥ इति श्री दत्तरामचौबेकृतयोगचिन्तामणिमाथुरीमज्जुषाभाषाटीकायां गुटिकाधिकारस्तृतीयोऽध्यायः॥ ३ ॥
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(१४४) योगचिन्तामणिः। [ काथाधिकार:क्वाथाधिकारः---चतुर्थोध्यायः ४.
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तत्रादौ क्वाथभेदाः। रसः १ कल्को २ हिमः ३ क्वाथः ४ फांट ५ श्चैव स्मृतस्तथा । भेदाः पञ्च कषायाणां पूर्व पूर्वे बलाधिकाः ॥ १॥ पानीयं षोडशगुणं क्षुण्णद्रव्यपले क्षिपेत् । मृत्पात्रे वाथयेबाह्यमष्टमांशावशेषितम् ॥२॥ तज्जलं पाययेद्धीमान कोष्णं मृदग्निसाधितम् । स्मृतः क्वाथः कषायश्च नियूहः स निगद्यते ॥३॥काथः सप्तविधःप्रोक्तः पाचनः शमनस्तथा । दीपनः क्लेदनो भेदी सन्तर्पणवि. मोहनौ ॥ ४॥ पाचनः पच्यते दोषान्दीपनो दीप्यतेऽनलम् । शोधनो मलशोधी स्याच्छमनः शमते गदान ॥ ५ ॥ तर्पणस्तयते धीमान्भेदी चोत्क्लेदकारकः। विशोषी शोषमाधत्ते तस्मादुष्णं परिक्षिपेत् ॥ ६॥ क्लेदी विशोषी विज्ञाय वमनं कारयेत्ततः। काथे कृते न लंघेत नान्यथाऽन्यत्र चालयेत् ॥ ७॥ पाचनोविशेषः स्याच्छोधनो द्वादशांशकः । वेदनश्चतुरंशश्च शमनश्चाष्टशेषतः ॥८॥ दीपनीयो दशांशश्च तर्पणश्च दशांशकः। विशोषी षोडशांशश्च क्वाथभेदाः प्रकीर्तिताः ॥९॥ रस १, फल्क २, हिम, ३ क्वाथ ४, फांट ५, यह पांच भेद काढेके हैं, पूर्व २ में बल अधिक है. पानी १६ गुणा
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चतुर्थ: 1
भाषाटीकासहितः ।
( १४५ )
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औषधि १६ टंक गेरकर मिट्टीके बरतनमें काढा पकावे जब आठवां हिस्सा रहे तब उतार लेवे उसका जल रोगीको पिलावे, मंदाग्निसे कावे उसको क्वाथ, कषाय, निर्यूह कहते हैं. वाथ सात प्रकारका हैपाचन १, शमन २, क्लेदन ३, दीपन ४, भेदी ५ संतर्पण ६, विमोहन ७. पाचन जो है सो दोषों को पचाता है. (पाचन उसे कहते हैं जो दो सेरका सेरभर रहजाय ), दीपन उसे कहते हैं जो अग्निको दीप्त करे 1 दीपन १० कटोरीकी एक रहे ), शोधन मल शुद्ध करे. ( दो कटोरीकी एक रहे, उसे शोधन कहते हैं ). शमन दोषोंको शांत करे, आठ कटोरी की एक रहे ) संतपर्ण में धातु बढे. (छः कटोरीकी एक रहे ). क्लेदी उत्क्लेद करे. ( चार कटोरीकी एक रहे ) विशोषी शोष करता है ( सोलह कटोरीकी एक रहे ). इससे उष्ण जलकी परीक्षा कर लेवे । क्केदी, विशोषी वमन करावे क्वाथ करके लांबे नहीं न 1 चलायमान करे ॥ १-९॥
सर्ववायुविकारे रास्त्रादिक्वाथः ।
राना गुडूची एरण्डं देवा चाभया सटी | बलोयगंधा पाठा च शतपुष्पा पुनर्नवा ॥ १ ॥ पंचमूली विषा मुंडी सर्पपश्च दुरालभा । यवानी पुष्करं मूलमश्वगंधा प्रसारिणी ॥ २ ॥ गोक्षुरं चांद्ररूपं च हपुषा वृद्धदारुकम् । शतावरी तथा ब्राह्मी गुग्गुलुः क्षीरकंचुकी || ३ || समभागैरिमैः सर्वैः कषायमुपकल्पयेत् । वातरोगेषु सर्वेषु कंप शोफे प्रतानके ॥ ४ ॥ मन्यास्तंभे तथा शोपे पक्षाघाते सुदारुणे । आर्दिताक्षेपकुब्जे च हनुग्रस्वर || ५ || आढयवाते तथा मुके खंजे
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( १४६ )
योगचिन्तामणिः । [ क्वायाधिकारः
चैवापबाहुके । गृध्रस्य जानुभेदे च गुल्मले कटिहे || ६ || सामे चैव निरामे च सप्तधातुगतानिले । आवृतेऽनावृते चैव वातरक्ते विशेषतः ॥७॥ एष द्वात्रिंशकः काथः कृष्णात्रेयेण भाषितः । कृष्णचूर्णेन वा योगे राजगुग्गुलुनाथवा ॥ ८ ॥ अजमोदादिना वापि तैलेनैरण्डजेन वा ॥ ९ ॥
रास्त्रा, गिलोय, एरण्डकी जड, देवदारु, हरड, कचूर, खरेंटी, वच, पाढ, सौंफ, साँठकी जड, पंचमूल, रसौत अण्डी, धमासा, अजमायन, पोहकरमूल, असगन्ध, प्रसारणी, ( लताविशेष लज्जालुलता ), गोखरू, अडूसा, हाऊबेर, विधायरा, शतावरी, ब्राह्मी, गूगल पंचांग, क्षीरकन्द इनकी बराबर मात्रा ले तीन पुडिया बनावे, अष्टावशेष काथ, करे कुछ गूगल डाल देवे, फिर पीपल के चूर्णसे देवे अथवा योगराज गूगलसे अथवा एरण्डी के तेल से अथवा अजमोदसे देय तो समस्त वायुरोग, कम्पवायु, प्रतानकवायु, जावडेका स्तम्भ, मुखशोष, पक्षाघात, बडी पीडा, कुबडापन, हनुग्रह, स्वरभङ्ग और सम्पूर्ण वायुके विकारोंको दूर करे ॥ १-९ ॥
.
लघुरास्त्रादिकाथः ।
रास्नागुडूचीवातारिदेवदारुमहौषधैः । पिबेत्सर्वांग के वाते साममज्जास्थिसंधिगे ॥ १ ॥ रास्त्रा, गिलोय, एरंडका तेल, देवदारु, सोंठ, इनका अष्टावशेष काथ कर पीवे तो सर्वांगवात दूर होय ॥ १ ॥
सन्निपातलशणम |
यदि कथमपि पुंसां जायते कर्णपीडा भ्रममदपरितापो मोहवैकल्यभावम् । विकलनयनहास्यो
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- चतुर्थः ] भाषाटीकासहितः। (१४७)
गीतनृत्यप्रलापान्विंदधति तमसाध्यं कम्पचित्तभ्रमाख्यम् ॥ १॥ उत्तिष्ठति बलात्कारं कृत्वा ब्रूते यदृच्छया । यामीति वदते नित्यं स त्याज्यो भिषगुत्तमैः ॥ २॥ जो कदाचित् पुरुषके कर्णपीडा होवे, तापकी पीडा, भ्रम, मद, परिताप, मोह, विकलता ऐसा रूप होय और आंखें फटीसी हो जॉय
और हंसे, गावे, नाचे बके यह लक्षण होंय तो असाध्य और कोई चित्तभ्रमको असाध्य कहते हैं और बलात्कार करके उठे, जो मनमें आवै सो बोले और निरन्तर यही कहे — जाताहूं' तो उत्तम वैद्य उस रोगीको त्याग देवे ॥ १ ॥ २ ॥
सन्निपाते हरीतक्यादिक्वाथः । पथ्यापर्पटकटुकामृद्वीकादारुजलदभूनिम्बैः । ब्राह्मीपटोलसम्यक्काथश्चित्तभ्रमं हन्ति ॥ १ ॥ हरड, पित्तपापडा, कुटकी, दाख, दारुहलदी, मोथा, चिरायता, ब्राह्मी, पटोलपत्र इनका क्वाथ चित्तभ्रम और सन्निपातको दूर करता है ॥ १ ॥
सन्निपाते तगरादिक्वाथः । तगरतुरगगन्धा पर्पटः शंखपुष्पी त्रिदशविटपतिक्ता भारती भूतकेशी । जलधरकृतमालश्चेतकी गोस्तनीनां सह हरति कषायःपक्षपानात्प्रलापम्॥३॥ " तगर, असगन्ध, पित्तपापडा, शंखाहुली, देवदारु, ब्राह्मी, कटुक (कुटकी ), छेड, अमलतास, मोथा, अमलतासका गूदा, सम्भाल, दाख इनका काढा १५ दिन पीवे तो असाध्य सन्निपातका नाश करता है ॥१॥
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(१४८) योगचिन्तामणिः। [काथाधिकार:
सन्निपाते दाहस्थानम् । कालीयके दगं दद्यादंसयोश्च प्रकोष्ठयोः । ब्रह्मस्थाने शंखयोश्च सन्निपातनिवृत्तये ॥ १ ॥
सत्रिपातनिवृत्तिके निमित्त हाथोंके दोनों पहुँचोंमें अथवा बीच मस्तक और कनपटीमें अग्निसे दाग देय ॥ १॥
शंखयोश्च भ्रवोर्मध्ये दशमद्वार एव च । ग्रीवायां दाहयेच्छीघ्रं प्रलापे सन्निपातके ॥२॥ धनुर्वाते मृगीवाते ह्यन्तके चित्तविभ्रमे । अभिन्यासे च उन्मादे निश्चैतन्ये तथा वमौ ॥३॥ एतेषां चैव रोगाणां तप्तलोहशलाकया। भ्रुवौ शंखौ च पादौ च कृकाटीमूलरंध्रयोः ॥ ४॥ नेत्ररोगे ह्यपस्मारे ध्रुवौ शंखौ च दाहयेत् । कामले पाण्डुरोगे च कृकाटीमूलमादहेत् ॥ ५॥ पादरोगेषु सर्वेषु गुल्फोर्ध्वं चतुरंगुलम् । तिर्यग्दाहं प्रकुर्वीत दृष्ट्वा पादशिरो दहेत् ॥ ६॥ उदरं सर्वरोगेषु हत्पीडापि प्रजायते । हृदये यदि पीडास्यादाहयेद्वृदयोपरि। यत्र पीडाश्च जायन्ते तत्रतत्र च दाहयेत् ॥७॥ कनपटी, भौंह, दशमद्वार ( ब्रह्मरंध्र ), नाडमें दागे, प्रलापक सन्निपातमें और धनुर्वात, मृगी, अन्तक, चित्तभ्रम, अभिन्यास, उन्माद, बेहोश, वमन इन रोगोंमें लोहेकी शलाकासे भौंह, कनपटी, कण्ठ पैर और गुदामेंसे किस में दाग दे. नेत्ररोग, अपस्मार इनमें भौंह कनपटीमें दागे, कामलारोग, पांडुरोग इनमें कण्ठकी जडमें दाग दे, चरणरोग, गुल्मरोग इनमें चरणको ४ अंगुल ऊंचा दाग दे. उदरके रोगोंमें पेटपर दाग
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चतुर्थः] भाषाटीकासहितः। (१४९) दे । हृदपपीडाम हृदयपर दाग दे, जहां जहां पीडा होय तहां तहां दागे ॥ २-७ ॥
सन्निपाते भाङ्गादिक्वाथः। भाभूनिम्बनिम्बैधनपटुकवचाव्योषवासाविशा
ला रास्नानंतापटोलीसुरतरुरजनीपाटालाटिंटुकीभिः। ब्राह्मीदाव/गुडूचीत्रिवृतअतिविषापुष्करत्रायमाणा व्याघ्रीसिंहीकलिङ्गीत्रिफलसटियुतैःकल्पितस्तुल्यभागैः ॥ १॥ काथो द्वात्रिंशनामा त्रिकलितदशकान्सन्निपातानिहंति शूलं श्वासं च हिकां कसनगुदरुजाध्मानविध्वंसकः स्यात् । मन्यास्तम्भा
वृद्धिं गदगलसुरतं सर्वसन्धिग्रहांश्च मातंगौघं निहन्यान्मृगरिपुरधिकं रोगजालं तथैव ॥२॥
भारङ्गी, चिरायता, नीम्बकी छाल, मोथा, कुटकी, सोंठ, मिरच, पीपल, अडूसा, इन्द्रायन, गस्ना, जवासा, पटोलपत्र, देवदारु, हलदी, अरल, जलशिरस, ब्राह्मी, दारुहलदी, गिलोय, निसोय, अतीस, पोहकरमूल, त्रायमाण, कटेरी, इन्द्रजव, त्रिफला, कचूर इन सबको बराबर लेकर काढा को, यह तेरह सन्निपातोंको दूर करे । शूल, श्वास, हिचकी, खांसी, गुदारोग, अफरा, आंतोंकी वृद्धि, गलरोग, अरुचि, सब संधियोंका गठ जाना इन रोगोंके जालका जैसे हाथियोंके समूहका सिंह नाश करे तैसे नाश करता है ॥ १॥२॥
__ रुधिरविकारे मंजिष्ठादिक्वाथः १-२ । मंजिष्ठापिचुमन्दचन्दनघनाछिनागवाक्षीवृषात्रायन्तीत्रिवृताशतद्विरजनीभूनिम्बपागविषा । गायत्री
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योगचिन्तामणिः । [ काथाधिकार:
त्रिफलापटोलकुटकी कीटद्विपापप्पटैरुग्रावल्गुजवासवत्सकयुतैः क्वाथं विदध्याद्भिषक् ॥ १ ॥ कंडूमण्डलपुण्डरीक किटिभः पामाविचर्चित्रणैः सिध्मश्वित्र किलासद्गुरस कैर्व्याप्ताः प्रसुप्तास्त्वचः । किंचान्यत्क्रिमिभिर्विशीर्णगलितं प्राणांघ्रिपायुद्धवानेनं प्राप्य महाकषायमचिरात्पंचेषु तुल्या नराः॥२॥
(१५० )
१- मंजीठ, नीमकी छाल, रक्तचन्दन, मोथा, गिलोय, इन्द्रजव, अडूसा, त्रायमाण, निसोत, धमासा, दोनों हल्दी, चिरायता, पाढ, अतीस, खैरसार, त्रिफला, पटोलपत्र, कुटकी, वायविडंग, पित्तपापडा, वंच, बावची, नेत्रवाला जवासा, कुडेकी छाल, बकायन इन सबको बराबर लेकर क्वाथ कर पीनेसे खुजली, चकत्ता, फुनसी, फोडा, दाद, खाज ये समस्त विकार दूर होवें || १ || २ ||
मंजिष्ठा कुटजामृताघनवचा शुण्ठी हरिद्राद्वयं क्षुद्रारिष्ट पटोलकुष्टक टुकी भाङ्गविडङ्गान्वितम् । मूर्वादारुकलिङ्गभृङ्ग-मगधात्रायंतिपाठावरीगायत्री त्रिफला किरातकमहानिम्बासनारग्वधम् ॥ १ ॥ श्यामावाल्गुजचन्दनं वरुणकं पूतीकशाखोटकं वासापर्पटसारिवाप्रतिविषानंता विशाल जलम् । मंजिष्ठादिमिमं कपाय विधिना नित्यं पुमान्यः पिवेत्वग्दोषा ह्यचिरेण यांति विलयं कुष्ठानि चाष्टादश ॥ २ ॥ रक्तवातप्रसुप्तौ च विस विद्रधौ तथा । सर्वेषु वातरोगेषु मंजिष्ठादिः प्रशस्यते || ३ ||
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चतुर्थः] भाषाटीकासहितः। (१५१.) .२-मंजीठ, कुडेकी छाल, गिलोय, मोथा, वच, सोंठ, हलदी, कटेरी, नींबकी छाल, पटोलपत्र, कूठ, कुटकी, भारंगी, वायविडंग, चीता, मूर्वा देवदारु, इंद्रजव, भांगरा, पीपल, त्रायमाण, पाढ, शतावर, खैरसार, त्रिफला, चिरायता, बकायन, विजयसार, अमलतास, निसोथ, बावची, रक्तचन्दन, वरणाकी छाल, कंजुआ, सहोडाकी छाल, बांसा, पित्तपापडा, सारिवा, अतीस, जवासा, नेत्रवाला इनका काढा नित्य पीवे तो संपूर्ण त्वचाके दोष और १८ प्रकारके कोढ दूर हो ॥१-३॥
___ मंजिष्ठादि चतुःषष्टिक्वाथः। मंजिष्ठा त्रिफला प्रियंगुममृता ब्राह्मी वचा पौष्करं भृङ्गास्यात्रिकटुः किरातकविषानिण्डिकाऽऽरग्वधः । त्रायन्ती खदिरं कटुत्वचवृकी पीताद्वयं रोहिणी तिक्ता पर्पटवासकेन्द्रफलिनीनंताविशालागदम् ॥ १ ॥ एरण्डं पिचुमंदचित्रकवरी भाङ्गी मलेन्द्रं सटी बिल्वं निम्बमजूलपाडलत्रिवृत्तेजस्विनीवालकम् । दंतीमूलपलाशचन्दनयुगं मुण्डीविडंगान्वितैरयोररणीकरंजधवयोः पर्णानि मूलानि च ॥२॥ क्षुद्राबाद्वयदेवदारुजलदाः कहारकं कल्कजमेभिः सिद्ध असौ पटोलसहितैः काथश्चतुःषष्टिकः । अष्टांशेन विपाचयेच्च मति मानुत्कल्प्यमृद्भाजने पीतो हन्ति सपित्तरक्तमखिलं कुष्ठानि चाष्टादश ॥३॥
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( १५२)
योगचिन्तामणिः ।
[ काथाधिकारः
मंजीठ, इग्ड, बहेडा आँवला, फूलप्रियंगू, गिलोय, ब्राह्मी, वच, पोहकरमूल, भांगरा, सोंठ, मिरच, पीपल, चिरायता, अतीस, संभालू, अमलतास, त्रायमाण, खैरसाल, कुटकी, छाल, पाठा (नेपाली चिरायता ), निसोत, कुटकी, दोनों हलदी, पित्तपापडा, अडूसा, इंद्रायण, जवासा, इन्द्रयव, कूठ, अंडकी जड, नींबकी छाल, चीता, शतावरी, भारंगी, चन्दन, कचूर धायके फूल, छड, पाढल, निसोथ, मालकांगनी, नेत्रवाला, दन्ती, (वृक्षविशेष की जड, ढाकके बीज, चन्दन, मुंडी, वायविडंग, कायफल, अरनी, कंजुआ, धायके फूल, और मूल, दोनो कटेरी, देवदारु, मोथा, कमलगट्टा, पटोलपत्र, इनका क्वाथ करे, जब इसका आठवां हिस्सा रद्दजावे तब इसके पीने से वातरक्त और १८ प्रकारके कुष्ठ नाश होवें ॥ १-३ ॥ कुष्ठे खदिरादिक्वाथः ।
खदिरः कुण्डली वासा पटोलं च फलत्रिकम् । अरिष्टसमभगोऽयं क्वाथः कुष्ठविनाशनः ॥ १ ॥ खैरसार, गिलोय, अडूसा, पटोल पत्र, त्रिफला, नीम की छाल इनकी बराबर मात्रा लेकर मिट्टीके बरतन में काढा कर पीवे तो कुष्ठ दूर होवे ॥ १ ॥
सत्रिपातज्वरे भूनिंबादिकाथः ।
भूनिम्बदारुदशमूलमहौषधाब्दति केन्द्रबीजघनके भकणाकषायः । तन्द्रा प्रलापकसनारुचिदाहमोहश्वाशादियुक्तमखिलं ज्वरमाशु हंति ॥ १ ॥
1
चिरायता, देवदारु, दशमूल, सोंठ, जीरा कुटकी, इन्द्रजव, गजपीपल, इनकी समान मात्रा लेकर क्वाथ पकावे फिर ठंडा कर पीवे तो निद्रा, प्रलाप खांसी, श्वास, अरुचि, दाह, मोह, मूर्च्छा, ज्वर ये संपूर्ण दूर होवें ॥ १ ॥
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पतुः भाषाटीकासहितः। (१५३)
अष्टादशांगकाथः। किरातकटुकामुस्ताधान्येन्द्रयवनागरेः । दशमूलमहादारुगजपिप्पलिकायुतैः ॥ १॥ कृतः कषायः पाश्चर्तिसत्रिपातज्वरं जयेत् । कासश्वासवमीहिकातन्द्राग्रहणिनाशनः ॥२॥ चिरायता, कुटकी, मोथा, धनिया, इन्द्रजव, सोंठ, दशमूल, देवदारु, गजपीपल, इनका क्वाथ पीनेसे पसलियोंका दरद, सत्रि, पातज्वर, खांसी, श्वास, वमन, हिचकी और तन्द्रादिदोष दूर होते हैं ॥ १ ॥२॥
विषमज्वरे दाादिक्वाथः । दावीदारुकलिंगलोहिकलताशम्याकपाठासटीशौण्डीवीरकिरातकुञ्जरकणात्रायंतिकापद्मकैः । चक्राधान्यकनागराब्दसरलाशीघ्रांबुसिंहीशिवाव्याघीपर्पटदर्भमूलकटुकाऽनन्ताऽमृतापुष्करैः ॥ धातूत्थं विषमं त्रिदोषजनितं चैकाहिकं व्याहिक पित्तं हन्ति महाव्यर्थ बहुरुजं सद्यःप्रलापान्वितम्॥३॥ दारुहलदी, देवदारु, इन्द्रजव, मंजीठ, अमलतास, पाढ, कचूर, पीपल, खस, चिरायता, गजपीपल, त्रायमाण, पदमाख, काकडासिंगी, धनियां, सोंठ, मोथा, निसोथ, पियावांसा, हरड, कटेरी, पित्तपापडा, कुटकी, जबासा, गिलोय, पोहकरमूल, इनका काथ अष्टावशेष लेनेसे धातुगत ज्वर, ऐकाहिक, व्याहिक, त्रिदोष, महाज्वर, पित्तज्वर, प्रलापादि दूर होवें ॥ १ ॥
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योगचिन्तामणिः । [ काथाधिकारः
दशमूलकायः ।
शालपर्णी पृष्टपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरैः। बिल्वाग्निमंथस्योनाककाश्मरीपाटलायुतैः ॥ १ ॥ दशमूलमिति ख्यातं कथितं तज्जलं पिबेत् । पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं वातश्लेष्महरं परम् ॥ २ सन्निपातज्वरं हन्ति सूतिकादोषनाशनः । हृत्कंठग्रहपावर्ति तन्द्राम स्तकशूलहृत् ॥ ३ ॥
( १५४ )
शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, दोनों कटेरी, गोखरू, बेलगिरी, अरणी, अरऌ, खंभारी ( वृक्षविशेष ) पाढर यह दशमूल नामक काढा प्रसिद्ध है, इस क्वाथको पीपल के चूर्णके संग लेवे तो वात श्लेष्मको दूर करें । सन्निपात, प्रसूत, हृदयरोग, कंठग्रह, पसलीका दरद तंद्रा शिरदरद इनका नाश करे ॥ १-३ ॥
वातशोफे पुनर्नवादिकाथः १ - २ |
पुनर्नवानिव पटोलशुंठी तिक्तामृता दार्व्यभयाकपायः । सर्वागशोफोदर पाण्डुरोगान्सम्यक्प्रयुक्तः सकलान्निहन्ति ॥ १ ॥
१- सांठी की जड, नींबकी छाल, पटोलपत्र, सोंठ, कुटकी, गिलोय, दारु हलदी, हरड इनकी समान मात्रा लेकर
१ - श्री पाणिनीज्वलन मंथवसंतदूतीटिंक बिल्वमिति तलघु पंचमूलम् । व्याघ्रीवृहत्य तिगुहाश्वगुहाश्वदंष्ट्रा ज्येष्ठं द्वयं च गदितं दशमूलमेतत् ॥ शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, अरणी, माधवीलता, बेल ये लघुपंचमूल हैं। दोनों कटेरी, गोखरू, कुंभारी, पाढर ये बृहत् पंचमूल हैं, और छोटे मिलकर दशमूल कहा जाता है | ऐसा भी पाठ है ॥
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चतुथः ]
भाषाटीका सहितः ।
( १५५ )
इनका काढ़ा कर पीने से सर्वांग सूजन, उदररोग और पांडुरोग दूर होवें ॥ १ ॥
पुनर्नवाभयानिम्बदावतिक्कापटोलकैः । गुडूचीनागरयुतैः क्वाथः सर्वाङ्गशोफहा ॥ १ ॥ गोमूत्रगुग्गुलयुत आमशोफोदरापहः ॥ २ ॥
२ - सांठीकी जड, हरड, नींबकी छाल, दारुहळदी, कुटकी, पटोलपत्र, गिलोय, सोंठ, इनका काढाभी सर्वांगसूजनका नाश करता है और गोमूत्र तथा गूगलयुक्त लव तो आमवात, शोफ और उदरके रोगोंको दूर करता है ॥ १ ॥ २ ॥
कफरोगे कट्फलादिक्वाथः ।
कट्फलांबुदभाङ्गभिर्द्धान्यरोहिपपर्पटैः । वचाहरीतकी शृंगी देवदारुमहौषधः । क्वाथः कासं ज्वरं हन्ति श्वासश्लेष्म गलग्रहान् ॥ १ ॥
कायफल, मोथा, भारंगी, धनियां, रोहिषतृण, पित्तपापडा, वच, हरड, काकडासिंगी, देवदारु, सोंठ इन औषधियोंका काढा कर पीवे तौ खांसी, ज्वर, श्वास, कफ, गलग्रह ये सम्पूर्ण रोग दूर हो जावें ॥ १ ॥
श्रृंग्यादिक्वाथः ।
शृंगी दारुनिशा सुराह्वमभया भाङ्ग च विश्वौषधं मुस्तापर्पट कट्फलं च सवचा कुस्तुंबुरुं कत्तृणम् । काथं क्षौद्रयुतं पिबेच्च कफजे कासे क्षये पीनसे श्वासे वातयुते ज्वरे च वमने हिक्कासु पित्तामये ॥ १॥
काकडासिंगी, दारुइलदी, देवदारु, हरड, भारंगी, सोंठ, मोथा, पित्तपापडा, कायफल, वच, धनियां, रोहिषटण इनका काढा शह
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(१५६) योगचिन्तामणिः। [कायाधिकारःदसंयुक्त पीनेसे कफ, श्वास, खांसी, क्षय, पीनस, वातवर, वमन, हिचकी और पित्तरोग सब नाश होवें ॥ १ ॥
कफविकारे गुडूच्यादिक्वाथः । धाराधाराधरवृपविषागीरवल्लीद्रवल्लीदा:कालीकरालीअरणिकरिकणाकट्फलारिष्टकुष्ठैः। पृथ्वीथ्वीकलिसुरतरूयाकलिंगाकलिंगैः शिव्याघीकटुतृणवधूरोहणीरोहिणीभिः । क्वाथश्चैषः कवचरचना पंचकोलानुकूलैस्तुल्यैरेभिः कफगदजये सिद्धिकं त्रिंशदाया॑ ॥ १॥ गिलोय, नागरमोथा, अडूसा, अतीस, हलदी, इंद्रजव, दारुहलदी, अगर अरणी,गजपीपल,कायफल,नींबकी छाल,कूठ, जीरा, हींग, बहेडा, देवदारु, वच, इंद्रजव, कुडेकी छाल, सहँ जना, कटेरी, कचूर गन्धेल ( गन्धपलासी, ) कुटकी, हरड इनमें पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ इनकी सममात्रा लेकर अष्टावशेष क्वाथ करके पीवे तो कफके रोग दूर होवें ॥ १ ॥
वातरोगे लशुनादिकाथः । रसोनं पिप्पलीमूलं कुचीलं विश्वभेषजम् । भाी पुष्करमूलं च किरातं कलिहारकम् ॥१॥ समांशाष्टावशेषः स्यात्वाथो वातविनाशने । धनुषं मृगवातं च सन्निपातं निवारयेत् ॥२॥ त्र्यूषणं चार्द्धकर्ष च प्रक्षिप्य योजयेद्भिषक् । अशीतिवांतजान रोगांस्तांश्च सर्वान् प्रणाशयेत्॥३॥
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- चतुर्थ ] भाषाटीकासहितः। (१५७)
लहसन, पीपलामूल, शुद्ध कुचला, सोंट, भारंगी, पोहकरमूल, चिरायता, अकरकरा इन सबको बराबर लेकर अष्टावशेष काढा करके पीनेसे वायुरोग, धनुर्वायु, मृगी, सन्निपात आदि सम्पूर्ण दोषोंको दूर करें और ऊपरसे सोंठ, मिरच, पीपल टंक २ डालकर पीवे तो अस्सी प्रकारके वातजन्य रोगोंको नाश करता है ॥ १-३ ॥
शिरोव्यथायां श्रेष्ठादिक्वाथः। श्रेष्ठानिम्बपटोलमुस्तरजनीत्रायन्तिहेमामृताः कृत्वा षड्गुणवारिणा विनिहितं षष्ठांशपीता निशि। घूशंखाक्षिशिरोरुजां बहुविधां कर्णास्यनासागदं नक्तान्ध्यं निमिरं च काचपटलंदैत्यान्यथा केशवः॥ त्रिफला, नींबकी छाल, पटोल, मोथा, दोनों हलदी, त्रायमाण, चिरायता, गिलोय इनका काढा छः गुण पानीमें करे जब एक हिस्सा रहजाय तब पीव तो भौंहका रोग, (शंख) कनपीके रोग, आंखरोग, मस्तकगेग, रतौंधा, तिमिर, मोतियाबिन्दु काचविन्दु ये सम्पूर्ण रोग नाश होवें ॥ १॥
पथ्यादिक्वाथः । पथ्याक्षधात्रीभूनिम्बैनिशानिम्बामृतायुतैः । कृतः क्वाथः षडङ्गोऽयं सगुडः शीर्षशूलहा ॥१॥ भूकर्णशंखशूलानि तथाऽर्द्धशिरसो रुजम् । सूर्यावर्त शंखकं च चक्षुःपीडां व्यपोहति ॥२॥ हरड, बहेडा, आंवला, चिरायता, हलदी, नींवकी छाल, गिलोय इनको बराबर ले काढा करे षष्ठांश पानी रहे तव उतारलेवे, गुड
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(१५८) योगचिन्तामणिः। [काथाधिकार:डालकर पीवे तो माथेका दरद, भौंह, कान, शिखा, आधासीसी, रतौंधा आदि पीडा नाश होवे ॥ १ ॥
___ ज्वरे उपद्रव दश भवन्ति । तन्नामानि । श्वासमूरुिचिच्छदितृषातीसारहृद्ग्रहाः । हिका कासोऽङ्गभंगश्च ज्वरस्योपद्रवा दश ॥ १॥ श्वास, मूर्छा, अरुचि, वमन, प्यास, अतीसार, हृदयग्रह, हिचकी, खांसी, अंगमर्दन ये ज्वरके दश उपद्रव हैं ॥ १ ॥
ज्वरे क्षुद्रादिक्वाथः । क्षुद्रामृतानागरपुष्कराद्वैः कृतः कषायः कफमारुतोत्तरे । सश्वासकासारुचिपाचशूले ज्वरे त्रिदोषप्रभवे प्रशस्यते ॥१॥ कटेरी और गिलोय, सोंठ, पोहकरमूल इन सबको एक एक टंक लेवे और काढा करके पीवे तो कफ, वायु, श्वास, खांसी, अरुचि, पसलियोंका दरद और त्रिदोष ज्वरादि नाश हो ॥ १ ॥
वृद्धक्षुद्रादिक्वाथः १-२ । क्षुद्रानिम्बपटोलचन्दनघनैस्तिक्तामृतापद्मकासावेसणशुण्ठिपुष्करजटाभूनिम्बभाङ्गा सह । बीजं कुष्ठधमासकं कृमिहरं कासं वर्मि कामलां क्वाथश्चाष्टविध ज्वरं कफमरुत्पित्तं सदाहं जयेत् ॥१॥
कटेरी. नींवकी छाल, पटोलपत्र, चन्दन, मोथा, गिलाय, पदमाख, धनियां, सोंठ, पोहकरमूल, चिरायता, भारंगी, इन्द्रजौ, कूठ, धमासा, इनका काढा कर पीनेसे कृमिरोग, खांसी, वमन, कामला, आठ प्रकारके ज्वर, कफ वातपित्त और दाहादि दूर होवें ॥ १॥
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माषाटोकासहितः ।
क्षुद्राधान्यकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः । रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपुष्करैः ॥ २ ॥ कटुकेन्द्रयवारिष्टभाङ्गपर्पटकैः समैः ।
काथं प्रातर्निषेवेत सद्यः शीतज्वरच्छिदम् ॥ ३ ॥
चतुर्थः ]
( १५९ )
२ - कटेरी, धनियां, सोंठ, गिलोय, मोथा, पदमाख, रक्तचन्दन, चिरायता, पटोलपत्र, अडूसा, पोहकरमूल, कुटकी, इन्द्रजव, नींवकी छाल भारंगी, पित्तपापडा यह सब बराबर ले काढा बनाकर पीवे तो शीतज्वरका नाश करे ॥ २ ॥ ३ ॥
शुण्ठ्चादिक्कायः ।
नागरं देवकाष्ठं च धान्यकं वृहतीद्वयम् । दद्यात्पाचनकं पूर्व ज्वरिताय हितावहम् ॥ १ ॥
सोंठ, देवदारु, धनियां छोटी बडी दोनों कटेरी इन पांच औषधि योंका काढा पाचनके अर्थ तथा ज्वरनाशनार्थ ज्वरवालोको देवे ॥१॥ धान्यपंचकक्काथः १-२ ।
धान्यनागरमुस्तं च बालकं बिल्वमेव च । आमशूलविबंधनं पाचनं वह्निदीपनम् ॥ १ ॥
१- धनियां, सोंठ, मोथा, नेत्रवाला, बेलगिरी इनका आमशूल तथा विबंधको दूर करे और अग्रिको दीप्त करे
धान्यनागरजः क्वाथः पाचनो दीपनस्तथा । एरण्डमूलयुक्तञ्च जयेदामानिलव्यथाम् ॥ १ ॥
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काथ
१ ॥
२ - धनियां, सोंठ इनका काढा पाचन, दीपन करे और जो रंडी जड डाले तो आमवातको दूर करे ॥ १ ॥
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(१६०) योगचिन्तामणिः। [क्वाथाधिकार:
आरग्वधादिपंचक्काथः। आरग्वधं ग्रंथिकतिक्तमुस्ताहरीतिकीभिः क्वथितः कषायः । सामे सशूले कफवातयुक्ते ज्वरे हितो दीपनपाचनश्च ॥ १॥ अमलतास, पीपलामूल, कुटकी, मोथा, हरड इनका काडा थामशूल, कफ वातज्वर इनमें हितकारी तथा दीपन पाचन है ॥१॥
. पंचभद्रकाथः । पर्पटाब्दाऽमृताविश्वकैरातैः साधितं जलम् । पञ्चभद्रमिदं ज्ञेयं वातपित्तज्वरापहम् ॥१॥ पित्तपापडा, मोथा, गिलोय, सोंठ, चिरायता इनका काढा वानपिचज्वरका नाश करता है ॥ १॥
शट्यादिकाथः । शटीपुष्करमूलं च भाङ्गी शृङ्गी दुरालभा। गुडूची नागरा पाठा किरातं कटुरोहिणी ॥ १ ॥ एष शट्यादिकः काथः सर्ववातज्वरापहः । कासादिशोफयुक्तेषु दद्यात्सोपवेषु च ॥ २॥ कचूर, पोहकरमूल, भारंगी, काकडासिंगी, कटेरी, गिलोय, सोंठ, पाढ, चिरायता, कुटकी, यह शट्यादिक्वाथ सम्पूर्ण वातज्वरोंका नाश करता है । खांसी सूजनभी होय तो यही काढा देवै तौ आराम होवे ॥ १ ॥ २ ॥
· बृहच्छट्यादिक्वाथः। शटी पटोलदिनिशोग्रगन्धा वासा किरातं दशमूलधारा । सहाचरी भाङ्गिवरी सशृङ्गीरानेन्द्रबीज
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चतुथः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १६१ )
सुरदारु शिशुः || १ || दुरालभा धान्यकशुण्ठिपाठासुरेन्द्र कल्कं सहरीतकीभिः । त्रायंत केन्द्रः कटुकागदं च कषाय एषां विहितः सवायौ ॥ २ ॥ श्लेष्मज्वरे कासश्वासशूले वाताधिके रोगिण शीतके च । चिरज्वरे काससश्वासकेsपि नूनं हितोऽयं सततं शट्यादिः ( ? ) || ३ ||
कचूर, पटोलपत्र, दोनों हलदी, वच, अडसा, चिरायता, दशमूल, गिलोय, मूगोनी, भारंगी, शतावरी, काकडासिंगी, रास्त्रा, इंद्रजौ, देवदारु, सहजना, कटेरी, धनियां, सोंठ, पाढ कूडेकी छाल, हरड, त्रायमाण, इन्द्रायण, कुटकी, कुठ. इनका काढा ज्वर, श्लेष्मज्वर, खांसी, श्वास, शूल, वात, शीतांग, बहुत दिनोंका ज्वर, दृष्टिज्वर, मल, संग्रहणी आदिको दूर करे ।। १-३ ॥
पटोलादिक्कायः ।
पटोलं च गुडूची च मुस्ता चैव धमासकम् । निम्बत्वक्पर्पटं तिक्ता भूनिंबत्रिफलावृषाः ॥ १ ॥ पटोलादिरयं क्वाथो वातज्वरहरः स्मृतः ॥ २॥
पटोलपत्र, गिलोय, मोथा, जवासा, नींवकी छाल, पित्तपापड़ाचिरायता, त्रिफला, अडूसा यह पटोलादिक्वाथ वातज्वरका नाश करता है ॥ १ ॥ २ ॥
मुस्तादिक्काथः ।
मुस्ता पर्यटकं शुण्ठी गुडूची सदुरालभा । कफवातारुचिच्छर्दिदाहशोषज्वरापहः ॥ १ ॥
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( १६२ )
योगचिन्तामणिः ।
[ क्वाथाधिकारः
माथा, पित्तपापडा, साठ, गिलोय, जवासा यह क्वाथ वादी, अरुचि, वमन, दाद, शोष, ज्वर, इन सब रोगोंका नाश करे ॥ १ ॥
वृद्धमुस्तादिकायः ।
मुस्ता गुडूची सह नागरेण वासाजलं पर्पटकं च पथ्या । क्षुद्रा च दुःस्पर्शयुतः कषायः पीतो हितो
वातकफज्वरस्य ॥ १ ॥
माथा, गिलोय, सोंठ, अडूसा, नेत्रवाला, पित्तपापडा, हरड, कटेरी, जवासा यह काढा वातज्वर और कफज्वरका नाश करता है ॥ १ ॥
गुडच्यादिकाथः ।
गुडूचीनिम्बधान्याकं पद्मकं रक्तचन्दनम् । एष सर्वज्वरं हन्ति गुडूच्यादिस्तु दीपनः ॥ १ ॥ १ - गिलोय, नींवकी छाल, धनियां, पदमाख, रक्तचन्दन इनका काढ़ा सब ज्वरका नाश करता है ॥ १ ॥
गुडूचीधान्यमुस्ताभिश्चन्दनोशीरनागरैः ।
कृतं क्वाथं पिबेत्क्षौद्रसितायुक्तं ज्वरातुरः || १ | २ - गिलोय, धनियां मोथा, खस और सोंठ, इनके काढेको मिश्री और शहद के साथ पीवे तो ज्वरकी शांति होवे ॥ १ ॥
वृद्धगुडूच्यादिक्कायः ।
गुडूचीधान्यकोशीरशुंठीवालकपर्पटैः । बिल्वप्रतिविषापाठारक्तचन्दनवत्सकैः ॥ १ ॥ किरात मुस्तेन्द्रयवैः क्वथितं शिशिरे जले | सक्षौद्रं रक्तपित्तघ्नं ज्वग़तीसारनाशनम् ॥ २ ॥ गिलोय, धनियां, खस, सोंठ, हाऊवेर, पित्तपापडा, बेल
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चतुर्थः भाषाटीकासहितः। (१६३) गिरी अतीस, पाढ, रक्तचन्दन, कुडेकी छाल, चिरायता, मोथा, इन्द्रजी इनका अष्टावशेष काढा ठंढा कर शहदके संग लेवे तो रक्त, पित्तज्वर, अतीसार ये सब दूर होवें ॥१-२॥
. चन्दनादिकाथः । चन्दनं च सुगन्धं च बालकं पित्तपर्पटम् । मुस्ता शुंठी किरातं च उशीरं पित्तनाशनम्॥ १॥
मलयागिरि चन्दन, सुगंधवाला, नेत्रवाला, पित्तपापडा, मोथा, सोंठ, चिरायता, खस इनका काढा पित्तज्वरका नाश करता है ॥ १ ॥
बृद्धचन्दनादिवाथः। मलयजपिचुविश्वाः श्रीफलं पद्मकं च जलरुहकटुमुस्तासारिवाहारहूरा। अतिविषयवयष्टीकल्कितस्तुल्यभागैर्हरति गुरुविवाधां पित्तसन्तापमू
ज़म् ॥ १॥ मलयागिरि चन्दन, नींबकी छाल, सोंठ, बेलगिरी, पद्माख, कमल, कुटकी, मोथा, सारिवा ( लताविशेष), मुनक्का, अतीस, इन्द्रजव, मुलहठी इनकी सम मात्रा लेकर काढा बनाकर लेवे तो पित्तकी मूर्छा दूर होवे ॥ १ ॥
त्रायमाणादिक्वाथः। त्रायंतीपर्पटोशीरतिक्ताभूनिम्बदुस्पृशा। कषायो मधुसंयुक्तः पित्तज्वरविनाशनः॥१॥ त्रायगण, पित्तपापडा, खस, चिरायता, कुटकी, जवासा इनका काढा शहदके साथ पीनेसे पित्तज्वरका नाश होय ॥१॥
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योगचिन्तामणिः । [ क्वाथाधिकारः
वृद्धत्रायमाणादिक्वाथः ।
चायंतीन्द्रयवावासा छिन्नातिक्तापटोलकैः । निम्बदुस्पर्शभूनिम्बशम्पाकपद्मपप्पटैः ॥ १ ॥ अष्टावशेषितः क्वाथः पित्तश्लेष्मज्वरापदः ॥ २ ॥
( १६४ )
त्रायमाण, इन्द्रजौ, अडूसा, गिलोय, कुटकी, चिरायता, पटोलपत्र, नींबकी छाल, जवासा, अमलतास, पदमाख, पित्तपापडा इनका काढा करके पीवे तो पित्तश्लेष्मज्वरको दूर करता है ॥ १ ॥ २ ॥
द्राक्षादिकायः ।
द्राक्षाभयापपटकाब्दतिक्ताक्कार्थं स सम्यक्सफलं विदध्यात् । प्रलापमूर्च्छाभ्रमदाहशोफ तृष्णान्विते पित्तभवज्वरेsपि ॥ १ ॥
मुनक्का, हरड, पित्तपापडा, मोथा, कुटकी इनका काढा अमलतास संयुक्त देने से प्रलाप, मूर्च्छा, भ्रम, दाह, सूजन, प्यास इन करके युक्त जो पित्तज्वर उसको नाश करे || २ ||
वासादिक्वाथः १-२ ।
वासाद्राक्षाभयाक्वाथः पीतः सक्षौद्रशर्करः । निहन्ति रक्तपित्तार्ति श्वासं कासं ज्वरं तथा ॥ १ ॥
१- अडूसा, मुनक्का, हरड इनका काढा शहद और मिश्री डालकर पीवे तो रक्तपित्त, श्वास, खांसी और ज्वर इनका नाश करे ॥ १ ॥ वासा क्षुद्रामृता मुस्ता शुण्ठी धात्री समाक्षिकः । पिप्पली चूर्णसंयुक्तो विषमज्वरनाशनः ॥ २ ॥ २- अडूसा, कटेरी, गिलोय, मोथा, सोंठ, आंवले, शहद इनको पीपलसंयुक्त काढा कर पीने से विषमज्वर जाय ॥ २ ॥
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भाषाटीका सहितः ।
पटोलादिक्पाथः । पटोलत्रिफला निम्बद्राक्षाशम्पाकवासकैः । क्वाथं सितामधुयुतं पिवेदैकाहिके ज्वरे ॥ १ ॥
चतुर्थ: ]
( १६५ )
पटोलपत्र, नींव की छाल, मुनक्का, अमलतास, अडूसा, इनका मिश्री और शहदके साथ काढ़ा पीवे तौ ऐकाहिक ज्वर नाश होय ॥ १ ॥
तृतीयज्वरनाशाय तृष्णादाहनिवारणः । पीतो मरिचचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः ॥ द्रोणपुष्पीरसो वापि निहन्ति विषमज्वरान् ॥ १ ॥
मिरच चूर्णको तुलसीपत्ररस संयुक्त पीनेसे तृतीय ज्वर, प्यास तथा दाह दूर होवे और गोभी के फूलके रसके साथ पीनेसे विषमज्वरका नाश करे ॥ १ ॥
ज्वरातिसारे नागरादिक्वाथः ।
नागरातिविषामुस्ता भूनिम्बामृतवत्सकैः । सर्वज्वरहरः क्वाथः सवतीसारनाशनः ॥ १ ॥
सोंठ, अतीस, मोथा, चिरायता, गिलोय, कूडेकी छाल इनका सम्पूर्ण ज्वरों तथा अतीसारको नाश करता है ॥ १ ॥
अतीसारे वत्सकादिक्कायः ।
सवत्सकः सातिविषः सबिल्वः सोदीच्यमुस्तश्च कृतः कषायः । सामे सशूले च सशोणिते च चिरप्रवृत्ते च हितोऽतिसारै ॥ १ ॥
कुडेकी छाल, अतीस, बेलगिरी, नेत्रवाला, मोथा इनका काढा कर पीधे तौ । आमशूल, रक्तातिसार, बहुत दिनका अतीसार ये नाश होवें ॥ १ ॥
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योगचिन्तामणिः ।
अतीसारे कुटजाष्टकक्वाथः ।
कुटजातिविषापाठाधातकी लोध्र मुस्तकैः । दाडिमयुतैः कृतः क्वाथः समाक्षिकः ॥ १ ॥ पेयो मोचरसेनैव कुटजाष्टकसंज्ञकः । अतिसाराञ्जयेद्दाहं रक्तशूलामदुस्तरान् ॥ २ ॥
( १६६ )
[ काथाधिकारः-
कूडेकी छाल, अतीस, पाढ, धायके, फूल, लोध, मोथा, हाऊबेर अनारका बक्कल इनका काढा शहद डालकर मोचरस संयुक्त लेवे तौ अतीसार, दाह, रुधिरशूल, भयानक आमशूल ये सब दूर होवें ॥ १ ॥ ५ ॥ मोचरसादिक्वाथः ।
मोचरसश्च मञ्जिष्ठा धातकी पद्मकेसरम् । पिष्टैरेतैर्यवागुः स्याद्रक्तातीसारनाशिनी ॥ १ ॥ धातकी विश्वपाषाणसालूर मजमोदकम् । मुस्ता मोचरसं तं सर्वातीसारनाशनम् ॥ २ ॥
मोचरस, मंजीठ, धायके फूल, कमल इनका काढ़ा कर लेय तौ रुधिरातिसारको दूर करे । धायके फूल, सोंठ, पाषाणभेद, बेलगिरी, अजमोद, मोथा, मोचरस इनको पेठेके साथ लेनेसे सब प्रकारका अतीसार नाश होवे || १ || २ |
दादिकाथः । दाबुदातिक्तफलत्रिकं च क्षुद्रापटोलं रजनी सनिंबम् | क्वाथं विदध्याज्ज्वरसन्निपाते निश्वेतने पुंसि विबोधनार्थम् ॥ १ ॥
दारूहल्दी, मोथा, कुटकी, त्रिफला, कटेरी, पटोलपत्र, हल्दी, frest छाल इनका काढा कर पीछे तौ सन्निपातजन्य ज्वरको नाश करे और अचेतको सचेत करे ॥ १ ॥
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चतुर्थः] भाषाटीकासहितः। (१६७ )
हारिद्रादिज्वरे गुडच्यादिक्वाथत्रयम् । हारिद्रके हरिद्राभो वर्णमूत्रादिरातिमान् । आदौ विरेचनं कृत्वा स्तम्भयेत्तदनन्तरम् । शृङ्गैर्यद्वा जलौकाभी रक्तस्रावं तु कारयेत् ॥ त्रायन्तीमुस्तमधुकाद्राक्षाभूनिम्बवासकैः ॥१॥ गुडूचीपिप्पलीमूलनिम्बः क्वार्थ प्रकारयेत् । शीतं मधुयुतं दद्याद्धारिद्रज्वरनाशनम् ॥ २॥ कृते क्रियाविधानेऽपि संज्ञा यस्य न जायते । दहेत्तं पादयोर्नाले कृकाटीरंध्रमौलयोः ॥ ३ ॥ शंखयोश्च भ्रुवोर्मध्ये दशमद्वार एव च । ग्रीवायां दाहयेच्छीघ्र प्रलापे सन्निपातके ॥४॥ वालं च पर्पटं मुस्ता गुडूची धान्यकं शिफा। आरग्वधं निम्बछाली तिक्ताऽनंता हरीतकी॥५॥ द्राक्षा च चन्दनं रक्तं पद्मकं च शतावरीम् । सममात्रं कृतः क्वाथो हरिद्रकहरो मतः॥ ६॥ पुनर्नवा निम्बकिरातकं च पटोलिका चापि सतिक्तक च । निशाऽमृता वा खदिरं कणा च हारिद्रकं शाम्यति तत्क्षणाच्च ॥७॥ हारिद्रकज्वरमें हलदीके समान देहका वर्ण और मृत्र होय, पेटमें दरद होय, पहिले विरेचन देवे फिर थाम लेय, फिर साँगी वा जोंक लगवाय रुधिर कढवाय देवे फिर त्रायमाण, मोथा, मुलहठी, मुनका, चिरायता, अडसा, गिलोय, पीपलामूल, नीवकी छाल इनका काढा
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१६८) योगचिन्तामाणिः। [ काथाधिकारःठंडाकर शहद डालकर पीवे तो हारिद्रकज्वर नाश होवे और इस उपायसे दूर न हो तो पैर, मस्तक, कपाल, भौंहके मध्य, दशमद्वार और ग्रीवा इन जगह पर दाग देवे. प्रलापक सन्निपातमें नेत्रवाला, पित्तपापडा, मोथा, गिलोय, धनियां, सौंफ, अमलतास, नीम्बकी छाल, कुटकी, जवासा, हरड, मुनक्का, रक्तचन्दन, पदमाख, शतावर इनकी सम मात्रा ले काढा कर पीवे तो हारिद्रक ज्वर नाश होय और सांठीकी जड, नीम्बकी छाल, चिरायता, हलदी, गिलोय, पीपल खैरसार इनके देनेसे शीघ्रही हारिद्रकरोग नाश होय ॥ १-७ ॥
कमलवाते रजन्यादिक्काथः। हरिद्रामुस्तभूनिम्बत्रिफलारिष्टवासकम् । कंटकारीद्वयं भार्गी कटुकं नागरं कणा ॥ १ ॥ पटोलं पर्पटं शृङ्गी देवदारु सरोहिषम् । विधन्विकं बला बिल्वकुम्भकारी हरीतकी ॥२॥ कट्फलं कुटजं श्यामा सर्वमेकैकभागकम् । रानाभागद्वयं चात्र दत्वा काथं च साधयेत् ॥ ३॥ व्योषचूर्णयुतः क्याथो ज्वरं हन्ति त्रिदोषजम् । त्रयोदशमहाघोरानंधकारान्यथा रविः ॥ ४॥वमिः स्वेदः प्रलापश्च स्तमित्यं शीतगात्रता । मोहतन्द्रातृषाश्वासकासदाहाग्निमांद्यहा ॥ ५॥ हृत्पार्श्वशूलविष्टंभकण्ठकूजनकं तथा । जिहास्फुटनकं कर्णशूलं चाशु विनाशयेत् ॥६॥ नातः परतरं किंचिदौषधं सन्निपातके । रजन्यादिगणो ह्येष धन्वतरिविनिर्मितः॥७॥
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चतुर्थः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १६९ )
हलदी, मोथा, चिरायता, त्रिफला, नीम्बकी छाल, अडूसा, दोनों कटेरी, भारंगी, कुटकी, सोंठ, पटोलपत्र, पित्तपापडा, काकडासिंगी, देवदारु, रोहितृण, धन्वयास, नागबला, हरड, कायफल, कुम्भकारी ( भाषा में पुरइन), कुडेकी छाल, पीपल, प्रियंगुके फूल यह सब बरावर लेय और रास्ना दो भाग ले काढा कर सोंठ, मिरच, पीपलसंयुक्त काथ पीने से त्रिदोषज्वर और महाघोर १३ सन्निपात जैसे सूर्य के प्रकासे अन्धकार दूर होता है तैसे दूर होवें. और वमन, पसीना, प्रलाप, शीत, मोह, तन्द्रा प्यास, श्वास, दाह, मदाग्नि, हृदय और पसलीका दरद, विष्टंभ, कंठक्कूजन, जिह्वा फट जाना, कानका शूल इनका नाश करे, इससे परे कोई औषधि सन्निपातकी नहीं है. यह धन्वन्तरीनें कही है ॥ १-७ ॥
कमलवाते फलत्रिका दिक्वाथः ।
फलत्रिकामृतातितानिंबकैरातवासकाः । हरिद्रा पद्मकं मुस्ताsपामार्गश्चन्दनं कणा ॥ १ ॥ पटोलं पर्पटं चैषां क्वाथः कमलवातहा । त्रिफलाया रसः क्षौद्रयुक्तो दावी॑रसोऽथवा ॥ २ ॥ निंबस्य वा गुडूच्या वा पीतो जयति कामलाम् । कटुका सैन्धवं चैव ह्यपामार्गस्य भस्म च । श्वेतजीरकसं
युक्तः कामलायाश्च नाशनः ॥ ३ ॥
त्रिफला, गिलोय, कुटकी, नींबकी छाल, चिरायता, अडूसा, दोनों हल्दी, पदमाख, मोथा, ओंगा, चन्दन, पीपल, पटोलपत्र, पित्तपापड़ा इनका काढ़ा कमलवातको दूर करता है. त्रिफला, हलदी fia और गिलोयका रस पीने से कमलवात जाता है. कुटकी, सैंधानोन, ओंगाकी भस्म, सफेद जीरेके साथ पीने से कमलवात दूर होय ॥ १-३ ॥
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( १७० )
योगचिन्तामणिः ।
मूत्रकृच्छ्रे एलादिकाथः ।
एलामधुकगो कंटरेणुकै रंडवासकैः । कृष्णाश्मभेदसहितैः क्वाथ एष सुशोधितः । शिलाजतुयुतः पेयः शर्कराइम रिकृच्छ्रहा ॥ १ ॥
इलायची, मुलहठी, गोखरु, संभालू, एरंड, अडूसा, पीपल, पाषाणभेद इनका काढा शुद्ध शिलाजीत संयुक्त पीने से शर्करा, पथरी, मूत्रकृच्छ्र दूर होय ॥ १ ॥
[ क्वाथाधिकारः
हरीतकीगोक्षुरराजवृक्षपापाणभिन्दन्वय वासकानाम् । क्वाथं पिबेन्माक्षिकसंप्रयुक्त कृछ्रे सदाहे सरुजे विबन्धे ॥ २ ॥
हरड, गोखरू, अमलतास, पाषाणभेद, जवासा इनका काढा शहद के साथ पीने से मूत्रकृच्छ्र तथा दाहसंयुक्त और पीडायुक्त विबंध दूर होय ॥ २ ॥
रसांजनं तण्डुलकस्य मूलं क्षौद्रान्वितं तण्डुलतोयपीतम् असृग्दरं सर्वभवं निहन्ति श्वासं च भाङ्ग सह नागरेण ॥ ३ ॥
रसत, चौलाईकी जड, शहद, चांवलोंके पानी के साथ पीवे तो संपूर्ण प्रदर रोग दूर होवें और जो भारंगी सोंठ संयुक्त देवे तो श्वास दूर होय || ३ ||
फलत्रिकाब्ददावणां विशालायाः शृतं पिबेत् । निशाकल्कयुतं सर्वप्रमेहविनिवृत्तये ॥ ४ ॥
त्रिफला, मोथा, दारुहळदी, इन्द्राणी इनका काढा हलदीसंयुक्त पीने से सब प्रकारका प्रमेह दूर होय ॥ ४ ॥
दाव रसांजनं मुस्तं भातः श्रीफलं वृशम् ।
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चतुर्थः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १७१ )
किरातश्च पिबेदेषां क्वाथं शीतं समाक्षिकम् ॥ जयेत्सशूलं प्रदरं पीत वेतासितारुणम् ॥ ५ ॥ दारूहल्दी, रसौत, मोथा, भिलावा, बेलगिरी, अडूसा, चिरायता इनका काढा शहदसंयुक्त ठंडा कर पीनेसे शूलसहित पीला, सफेद, काला और लाल प्रदर नाश होवे ॥ ५ ॥
विदध्यात्प्रदरे
पालाशरोहीतक मूलपाठाक्वाथं सपाण्डौ । पीते शितेऽयं मधुसंप्रयुक्तः प्रसिद्धयोगः शतशोऽनुभूतः ॥ ६ ॥
ढाक, लालकरंजी जड, पाठा इनका काढा मिश्री तथा शहद संयुक्त पीवे तो पीलिया संयुक्त प्रदररोग दूर होवे | यह क्वाथ सैकडों वार परीक्षा किया हुआ है ॥ ६ ॥
छर्दिरोगे क्वाथः ।
क्वाथो गुडूच्यः समधुः सुशीतः पीतः प्रशांति वमनस्य कुर्यात् । विण्मक्षिकाणां मधुनाऽवलीढा सचंदनं शर्करयाऽन्विता वा ॥ १ ॥ नीरेण सिंधूत्थरजोऽतिसूक्ष्मं नस्येन नूनं विनिहन्ति हिक्काम् । मयूरपिच्छस्य शिखास्य कृष्णा मध्वन्विता वा कटुका सधातुः ॥ २ ॥
गिलोयका काढा शहदके साथ ठंढा कर पीवे तो बमन दूर होय और मोरपंखी चंद्रिकाको जलाकर शहदके साथ ठंढा कर पीवे तो वमन दूर हाथ और मक्खीकी विष्ठा शहदके संग चाटे तो वमन दूर होय और पानीसे सैंधानोन पावे अथवा नाश देनेसे हिचकी दूर होवे और मोर पंखकी चंद्रिकाको जलाकर शहदके साथ चाटे तो वमन नाश होवे अथवा कुटकी के सेवन से वमन नाश होवे ॥ १-२ ॥
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(१७२)
योगचिन्तामणिः। क्वाथाधिकार:
बालरोगे क्याथः। बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनां जलं सलोभ्रं गजपिप्पलीनाम् । क्वाथोऽवलीढो मधुना विमिश्री बालेषु योग्यो ह्यति सारितेषु ॥ १॥ बेलगिरी, धायके फूल, नेत्रवाला, लोध, गजपीपल इनका काढा शहदसंयुक्त पीनेसे बालकोंका अतिसार दूर होवे ॥ १ ॥
कासरोगे क्याथः। पुष्करं कट्फलं भाङ्गी विश्वपिप्पलिसाधितम् । पिबेत्क्वाथं कफे चैतत्कासे श्वासे च हृद्ग्रहे ॥१॥ पोहकरमूल, कायफल, भारंगी, सेठ, पीपल इनका क्वाथ करके पीनेसे कफ, खाँसी, श्वास और उदररोग ये सब दूर होवें ॥ १ ॥
शरपुंखायाः कल्कः पीतस्तकेण नाशयत्यचिरात् । चिरतरकालसमुत्थं प्लीहानं रूढमागाढम्॥१॥ क्षुद्राकुलत्थवासाभिनागरेण च साधितः । वाथः पुष्करचूर्णाढयः श्वासकासौ निवारयेत् । पानादेव हि पंचानां हिकानां नाशनं क्षणात् ॥२॥ शरफोंकेका काढा मटेके साय पीवे तो पुरानी प्लीहाभी दूर होजाय। कटेरी, कुलथी, अडूसा इनका काढा सोंठ संयुक्त कर पोहकरमूलका चूर्ण डालकर लेवे तो खांसी नाश होवे और पीते ही पांच प्रकारकी हिचकी दूर होय ॥ १-२ ॥
सर्ववायुविकारे शुण्ठ्यादिचतुःषष्टिक्वाथः । शृङ्गीरामठरामसेनरजनीरुग्वेणिकारोहिणीरानेर
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चतुर्थः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १७३ )
डरसोनदारुरजनी राजेन्द्रराजैः फलैः । त्रायंतीत्रिवृताहुताशननतानंतामृतासुत्रता दंती तुंबरिचित्रतण्डुलत्रुटित्वक्तिक्तनक्तंचरैः ॥ १ ॥ वासावासवबीजवासवसुरावल्यावरीवल्गुजात्राह्मी ब्राह्मणयष्टिवारणकणाविश्वावयस्थाविषा । मूर्वामालव कासमू - लमगधामुस्ताज्जमोदाद्वयं मिश्रा- आगरचन्दनेन्दु विकास्फोटायुता कट्फलैः ॥ २ ॥ इत्येतद्दशमूलयुङ् निगदितः काथश्चतुःषष्टिकःशृंग्यादिर्मथनादिसिंह विषजाशेषामयोन्मूलनः । पुंसामष्टविधज्वरार्तिशमने मन्दाग्निसंदीपने सर्वांगीणसमीरद्विपघटाशार्दूलविक्रीडितः ॥ ३ ॥
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काकडासिंगी, हींग, चिरायता, हलदी कुठ, संभालू, ब्राह्मी, रास्ना, एरण्ड, लहसन, दारूहल्दी, अमलतास, पटोल, त्रायमाण, निसोत, चीता, तगर, जवासा, गिलोय, कचूर, देती ( लताविशेष ), धनियां, वायविडंग, इलायची, तज, कुटकी, गूगल, अडूसा, इंद्रजौ, देवदारु, इंद्रायण, शतावर, असगंध, भारंगी, मुलहठी, गजपीपल, सोंठ, iकोल, अतीस, मरोडफली, कालीनिसोत, पीपलामूल, हरड, अजमोद, अजमायन, सौंफ, अगर, कपूर, चव्य, अफीम, कायफल इनमें दशमूलका काढा मिलाकर पीनेसे आठ प्रकारके ज्वर, मन्दाग्नि, सर्वांग वातरोग दूर होते हैं, जैसे सिंहनादसे हाथी दौडते हैं, तैसे यह रोगरूप हाथियोंमें शार्दूल है यों इस काढेको जानना चाहिये ॥ १-३ ॥
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योगचिन्तामणिः ।
ज्वरे अष्टावशेषपानीयम् ।
अष्टमेनांशशेपेण चतुर्थेनार्द्धकेन वा । अथवा काथनेनैव सिद्धमुष्णोदकं वदेत् ॥ १ ॥ श्लेष्मोष्णवातमेदोघ्नं बस्तिशोधनदीपनम् | कासश्वासज्वरं हन्तिपीतमुष्णोदकं निशि ॥ २ ॥ अर्द्धविर्त्त चतुर्थीशमष्टभागावशेषितम् । अतीसारेषु पानीयमधिकादधिकं फलम् ॥ ३ ॥
१७४ )
[ काथाधिकारः
जलका आठवां भाग चौथाई तथा आधा अथवा औटानेसेही इनको सिद्ध गरम पानी कहते हैं । यह पानी कफ, वात, पित्त, मेदका नाशक, बस्तिका शोधनेवाला, दीपन, खांसी, श्वास, ज्वरको दूर करता है, रात में पीनेसे खांसी, श्वास, आदि रोग दूर हों। आधा, चौथाई, आठवाँ भाग जो पानी है सो अतीसारमें देवे तो अधिकाधिक फल हैं ॥ १-३ ॥
पंचकोटक्काथः ।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः । पंचकोलमिदं प्रोक्तं दीपनं रुचिकारकम् ॥ १ ॥ पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ यह पंचकोलक्वाथ दीपन और रुचिकारी है ॥ १ ॥
दशांगक्वाथः ।
वासामृतापर्पटकनिंबभूनिंबमादवैः ।
त्रिफला कुलत्थकैः क्वाथः सक्षौद्रश्चाम्लपित्तहा ॥ १ ॥ अडूसा, गिलोय, पित्तपापडा, नींबकी छाल, चिरायता, दाख, त्रिफला, कुलथी इनका काढा शहदसंयुक्त पीनेसे अम्लपित्त दूर हो ॥ १ ॥
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चतुर्थः] भाषाटीकासहिताः। (१७५ )
अम्लपित्तविकारे यदादिक्वाथः। ऊर्ध्वगे चाम्लपित्ते तु वमनं कारयोद्भिषक् । अधोगते चाम्लपित्ते विरेचनं प्रदापयेत् ॥१॥ निस्तुषयववृषधात्रीकाथस्त्रिसुगंधमधुयुतः पीतः। अपनयति चाम्लपित्तं यदि भुंक्ते मुद्गयूषेण ॥ २॥ जो ऊर्ध्वगत अम्लपित्त होय तो वमन करावे और अधोगत होय तो दस्त करावै फिर कुटेहुए जौ, अडूसा, आंवला इनका काढा, तज, तेजपात, इलायची, शहद संयुक्त पीनेसे अम्लपित्त दूर होवे. पथ्य मूंगकी दाल खावे ॥ १ ॥ २॥
फलत्रिकं पटोलं च तिक्ता क्वाथः सितायुतः। पीतः क्लीतकमध्वक्तो ज्वरच्छद्यम्लपित्तजित् ॥३॥ सद्राक्षामभयां खादेत्सक्षौद्रां सगुडां च ताम् । अम्लपित्तं जयेजंतुः श्वासं कासं ज्वरं वमिम् ॥४॥ त्रिफला, पटोल, कुटकी इनका काढा मिश्रीसंयुक्त पीवे तथा मुलइठी शहदके संग पीवे तो ज्वर, वमन, अम्लपित संपूर्ण दूर होवे अथवा मुनक्का हरड खावे अथवा शहद, गुड खावे तो अम्लपित्त दूर होय और श्वास, खांसी, वमीका नाश करे ॥ ३-४ ॥
मद्यविकारे काथः । मन्थः खजुरमृद्धीकावृक्षाम्लाम्लकदाडिमैः । परूषकैरामलकैर्युक्तो मद्यविकारनुत् ॥ १॥
छुहारे, दाख, अमलवेत, अनारदाना, फालसे, आंवले इनका काढा मद्यविकारको नाश करता है ॥ १॥
द्राक्षाकपित्थफलदाडिमपानकं च प्रायो हि विभ्रमहरं मधुशकराव्यम् ॥२॥
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(१७६) योगचिन्तामणिः। [क्वाथाधिकारः
छुहारे, मुनक्का, अम्लवेत, अनारदाना, फालसे, आंवले इनका काढा शहद मिश्रीके साथ लेवे तो भ्रमको दूर करे ॥२॥
सौवर्चलमजाज्यश्च वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् । त्वगेलामरिचाहे च शर्कराभागयोजितम् ॥३॥ हितं लवणमष्टाङ्गं मदात्ययरुजापहम् । पूगीमदे जलं शीतं वस्त्रपूतं हितं भवेत् ॥ ४॥ शर्कराभक्षणे देया मस्तु वा शर्करान्वितम् । लवणस्य भक्षणादा पूगीफलमदोव्रजेत् ॥५॥ कोद्रवाणां भवेन्मूर्छा देयं क्षीरं सुशीतलम् । सगुडः कूष्मांडरसो हंति कोद्रवजं मदम् ॥६॥ धत्तूरजमदे दुग्धं शर्करा दधि वाथवा । कार्पासमज्जापानाद्वा वृताकफलभक्षणात् । अन्येषु च मदेष्वेवं विषेषु वमनं हितम् ॥ ७॥
___ नागपुरीययतिवरश्रीहषकीर्तिसंकलिते ।
___ वैद्यकसारोद्धारे तुर्यः काथाधिकारोऽयम् ॥ ४ ॥ कालानोन, सफेदजीरा, अमलवेत, आंवला, तज, इलायची इनसे आधी मिश्री, आठवां भाग सैंधानोन इनका काढा मद्यविकारको दूर करता है, सुपारीके मदके ऊपर ठंढा पानी छानकर पीवे और मिश्री मुखमै राखे अथवा महा मिश्रीसंयुक्त पीवे वा सेंधानोंन डालकर पीके तो सुपारीका मद दूर हो. गायका दूध कच्चा पीनेसे वा पेटेके रसको गुड डालकर पीनेसे कोदोंका मद दूर हो और दूध वा दहीमें मिश्री डालकर पीवे तो धतूरेका मद जाय. अथवा कपासकी मिगी तथा बैंगनका फल खावे और संपूर्ण विषोंके लिये वमन करावे ॥ ३ ॥ ७॥ इति श्रीमाथुरदत्तरामचौवेकृतमाथुरीमञ्जूषाभाषाटीकायांकाथाधिकार
श्चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
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[भूताधिकारः ५] भाषाटीकासहितः। (१७७ ) अथ घृताधिकारः-पंचमोऽध्यायः ५.
तत्रादौ सर्वोन्मादेषु कल्याणघृतम् । विशाला त्रिफला कौंती देवदार्वेलवालुकम्। स्थिरानन्ते हरिद्रे द्वे सारिखे द्वे प्रियंगुका ॥ १ ॥ नीलोत्पलैला मंजिष्ठा दंतीदाडिमकेशरैः ।। तालीसपत्रं बृहती मालत्याः कुसुमं नवम् ॥२॥ विडङ्ग पृष्ठपर्णी च कुष्टचन्दनपद्मकम् । अष्ट विशतिभिः कल्कैरेतैः कर्पसमन्वितैः ॥३॥ चतुर्गुणे जले पक्त्वा घृतं प्रस्थं प्रयोजयेत् । चतुर्गुणं गवां क्षीरं क्षिप्त्वा पश्चात्पचेत् पुनः ॥४॥ अपस्मारे ज्वरे कासे शोषे मंदानले क्षये। वातरक्त प्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके ॥५॥ वंध्यानां पुत्रदं बल्यं विषमेहार्शसां हरम् । भूतोपहतचित्तानां गद्दानामचेतसाम् ॥६॥ कल्याणकमिदं सर्पिः सर्वोन्मादहरं स्मृतम् ॥ ७॥ इंद्रायण ४ टंक, त्रिफला, ४ टंक, रेणुका रूखडी, देवदारु, एलुआ, नेत्रवाला, शालपर्णी, तगर, हलदी, सारिवा ( सरयूनदीमें होती है ), प्रियंगु, नीलोफर, इलायची, मंजीठ, जमालगोटेकी जड, अनारदाना, नागकेशर, तालीसपत्र, दोनों कटेरी, मालतीके फूल, वायविडंग, पृष्ठपर्णी, कूठ, चंदन, पदमाख इन अट्ठाईस
औषधियोंको समान ४ टंक लेवे और चौगुने पानीमें काढा उवाले जब चौथाई रहजाय तब २५६ टंक घृत काढेमें डाले.
१२
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( १७८)
योगचिन्तामणिः । [ घृताधिकार:
फिर चौगुना दूध डाले, फिर पकावे जब पकजाय तब पात्रमें रखछोडे, यह घी मृगी, ज्वर, खांसी, शोष, मंदाग्नि, क्षयरोग, बातरक्त, पीनस, तृतीयकज्वर, चातुर्थिकज्वर आदिको दूर करे, बांझके पुत्र होवे, बल करे, यह कल्याणघृत विषम प्रमेह, विषम अर्श, भूतोन्माद, चित्तभ्रम, तोतलाहट, अचेतन आदि संपूर्ण उन्मादका नाश करे ॥ १-७ ॥
महा कल्याणघृतम् ।
त्रिकटु त्रिफला मुस्ता विडंगेला निशाद्वयम् । शारित्रिवृत्यनंता पद्मा कवानरी ॥ १ ॥ मंजिष्ठा मधुकं कुष्टं ब्राह्मी तालीसविल्वकम् । अष्टवर्गो जीवनीयो गणः स्याच्चंदनद्वयम् ॥ २ ॥ द्राक्षामधूकपुष्पाणि बला पर्णीचतुष्टयम् । देवदारु सटी पाठा रेणुका जीरकद्वयम् || ३ || अश्वगन्धाऽजमोदा च कटुदाडिमसारकम् । इन्द्रवारुणिका शंखपुष्पी च बृहतीद्वयम् ॥ ४ ॥ चातुर्जातिशुभोशीरं शिरसं वालकं तथा । प्रियङमालती जातीपुष्पं पुष्करमूलकम् ॥ ५ ॥ विदारी कदलीकन्दं मुशली हस्तिपर्णिका | त्रिविषं वपुषीबीजं कौंती माल्येलबालकम् ॥ ६ ॥ एतैरक्षसमैः कल्कैर्धृतप्रस्थं चतुर्गुणम् । क्षिरं च द्विगुणं नीरं तप्त्वा तन्द्राभयाग्निना ॥ ७ ॥ प्राप्ते च तप्तसंयुक्ते पचेत्खादेच्च नित्यशः । सर्पिरेतन्नरो नारी पीत्वा कर्षे वृषायते ॥ ८ ॥
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पंचमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १७९)
याच वंध्या भवेन्नारी या च कन्याः प्रसूयते । या चैवास्थिरगर्भा स्याद्या वा जनयते मृतम् ॥ ९ ॥ अल्पायुषं वा जनयेद्या वा शूलान्विता पुनः । ईदृशी जनयेत्पुत्रं तस्या दोषान् व्ययोहति ॥ १० ॥ एतत्कल्याणकं नाम घृतं शम्भुप्रकीर्तितम् । जीवद्वत्कवर्णा या घृतं तस्यास्तु गृह्यते ॥ ११ ॥
सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, इलायची, दोनों हलदी, दोनों सारिवा, निसोथ, दंती ( वृक्षविशेष ), जवासा, हरड बहेडा, आंवला, पदमाख, कौंच के बीज, मञ्जीठ, कूठ, ब्राह्मी, तालीसपत्र, बेलगिरी, अष्टवर्ग (जीवक १, ऋषभक २, मेदा ३, महामेदा ४, काकोली ५, क्षीरकाकोकी ६, ऋद्धि ७, वृद्धि ८, जीवनीयगण (अष्टवर्ग, जीवंती, नागपण, मुद्रपर्णी, मधुयष्टी ) प्रसिद्ध है. दोनों चन्दन, मुनक्का, महुआ के फूल, नागबला, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, देवदारु, कचूर, पाढ, दोनों रेणुका, गगनधूल, दोनों जीरे, असगन्ध, अजमोद, कुटकी, अनारका दाना, तुम्बीकी जड, इन्द्रायण, शंखाहुली, दोनों कटेरी, तज, तेजपात, इलायची, नागरमोथा, नागकेशर, वंशलोचन, खस, सिरस, नेत्रवाला, प्रियंगु, मालतीके फूल, जायफल, जावित्री, पोहकर - मूल, विदारीकन्द, केले का कंद, मूसली, इस्तिपर्णी, अतीस, ककडीके बीज, छड, एलुआ इन औषधियोंको चार चार टंक लेकर २५ टंक घृतमें डाले और घीसे चौगुना दूध डाले, दूधसे दूना पानी डालकर आरने उपलोंकी आगसे पकावे, जब पकजाय तब ३ टंक पुरुष और ४ टंक स्त्री नित्य पीवे तो वंध्या पुत्रवती होय और जिसके कन्याही होवे और जो अस्थिर गर्भवाली होय जिसके मराहुआ बालक होय
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(१८०) योमचिन्तामणिः। [घृताधिकारः अथवा थोडी उमर होय तो पूर्ण आयु होवे, जो शूलसे युक्त होय जिसको गर्भ न रहे वह पुत्र जने और सब दोषोंको दूर करता है। यह कल्याणघृत महादेवजीने कहा है, इसमें जिस गौका बछडा जीता होवे उस गौका घृत लेवे ॥ १-११ ॥
मतान्तर कल्याणवृत १-२ । सिद्धार्थस्त्रिकटुः क्षपायुगवचामंजिष्ठका रामठं श्वेताहात्रिफलाकरंजकटुभिः श्यामाशिरीषामरैः। इत्यष्टादशभिः स्मृतं घृतमिदं गोमूत्रयुक्तं नृणा
मुन्मादनमपस्मृतिनमगदः स्याद् बस्तमूत्रेण च॥१॥ ... १-सरसों, सोंठ, मिरच, पीपल, दोनों हलदी, वच, मजीठ, हींग, सफेद कटेरी, त्रिफला, करंजके बीज, मालकांगनी, निसोथ, सिरसके फूल, देवदारु, इन अठारह औषधियोंको घी और गोमूत्रमें औटावे और बकरेके सूत्रमें देवे तो उन्माद दूर होवे ॥१॥ तालीसत्रिफलैलवालुफलिनीसौम्यापृथक्पर्णिनीदन्तीदाडिमदारुचन्दननिशादा:विशालोत्पलैः । जातीपुष्कररेणुपद्मकयुतैर्जतुघ्नमंजिष्ठकारुक्सिहीत्रुटिसारिवाद्वयनतैर्नागेन्द्रपुष्पान्वितैः ॥ १॥
अष्टाविंशतिभिश्चतुर्गुणजलं कल्याणमेभिः शृतं हंत्येतच्च चतुर्थकज्वरमुर कंपं सवंध्यामयम् । सापस्मारगदोदरौ सपवनोन्मादौ सजीर्णज्वरौ जायन्ते न पुनः कृतेन हविषा कल्याणकेनामुना ॥२॥ २-तालीसपत्र, त्रिफला, एलुआ, भोंफली, प्रियंगु, शाल
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मञ्चमः] भाषाटीकासहितः। (१८१ ) पर्णी, पृष्ठपर्णी, दंती, अनारदाना, चंदन, दोनों हलदी, देवदारु, इंद्रायण, कमलगट्टा, जायफल, जावित्री, रेणुका, पदमाख, वायविडंग, मंजीठ, कटेरी, इलायची, दोनों सारिवा, जवासा, नागकेशर इन अहाईस औषधियोंको चौगुने पानीमें औटावे जब चौथाई रहजाय तब धीमें पकावे । यह वृत तृतीयक चतुर्थक ज्वरको और हृदयकंपको दूर करे, बांझ स्त्रीके पुत्र होवे । मृगी, उदररोग, उन्माद, पुराणा ज्वर आदि दूर होवें, यह कल्याणघृत कल्याणऋषिने कहा है ॥ १-२ ॥
ब्राह्मयादिघृतम् । ब्राह्मीरसवचाकुष्ठशंखपुष्पीभिरेव च । पुराणं मयमुन्मादं भूतापस्मारनाशनम् ॥ १॥ ब्राह्मीरस, वच, कूठ, शंखाहुली इनको धीमें पकावे तो पुराना उन्माद जाय ॥ १ ॥
बुद्धिवर्धकमहापैशाचिवृतम् । जटिलां पूतनां केशी वरटी मर्कटीं वचाम् । त्रायमाणां जयां वीरां चोरकं कटुरोहिणीम् ॥ १॥ कायस्था शूकरां छत्रां सातिच्छवां पलंकषाम् । महापुरुषदत्तां च वयस्थां नाकुलीद्वयम् ॥२॥ कटुंभरां वृश्चिकाली स्थिरां चाहत्य तैघृतम् । सिद्धं चतुर्थकोन्मादं ग्रहापस्मारनाशनम् ॥ ३॥ महापैशाचिकं नाम घृतमेतद्यथाऽमृतम् । मेधाबुद्धिस्मृतिकरं बालानांचाङ्गवर्द्धनम् ॥४॥
बालछड, हरड, कौंचके बीज, वच त्रायमाण, अरणी, खसकी ___ जड, गंटोल, कुटकी, काकोली, वाराहीकंद, वाराही, गंधतृण
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(१८२) योगचिन्तामणिः। [घृताधिकार:गूगल, विष्णुकांता, गिलोय, जवासा, जवासी, आकाशवेल, शाल. पर्णी इनके काढेको चौथाई घृतमें पकावे, यह घृत बुद्धिको बढावे और चैतन्य करै तथा बालकके शरीरको पुष्ट करे ॥ १-४ ॥
सन्तानार्थ फलघृतम् १-२ । त्रिफला मधुकं कुष्ठं द्वे निशे कटुरोहिणी । विडङ्गं पिप्पली मुस्ता विशालाकट्फलं वचा॥१॥ मेदे द्वे चैव काकोल्यो सारिखे द्वे प्रियंगुका । शतपुष्पा हिंगु राना चंदनं रक्तचंदनम् ॥ २॥ जातीपुष्पं तुगाक्षीरी कमलं शर्करा तथा । अजमोदा च दंती च कल्कैरेतैश्च कार्षिकैः॥३॥ जीवद्वत्सैकवाया घृतप्रस्थं च गोः क्षिपेत् । शतावरीरसं चापि घृतादेयं चतुर्गुणम् ॥४॥ चतुर्गुणेन पयसा पचेदारण्यगोमयैः सुतिथौ पुष्य नक्षत्रे मृद्भाण्डे ताम्रजेऽथवा ॥५॥ ततः पिबेच्छुभदिने नारी वा पुरुषोऽथवा। एतत्सपिर्नरः पीत्वा स्त्रीषु नित्यं वृषायते ॥६॥ पुत्रानुत्पादयेदीरान्वन्ध्याऽपि लभते सुतान् । अल्पायुषं या जनयेद्या च सूत्वा पुनः स्थिता ॥७॥ पुत्रं प्राप्नोति सा नारी बुद्धिमन्तं शतायुषम् ।
या च वंध्या भवेन्नारी या च कन्याः प्रसूयते ॥ ८॥ - या चैवास्थिरगर्भा स्याद्या वा जनयते मृतम् । __ तादृशी जनयेत्पुत्रं वेदवेदांगपारगम् ॥ ९॥
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पंचमः 1
भाषाटीकासहितः ।
रूपलावण्यसंपन्नं शतायुर्विगतज्वरम् । जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतमत्र प्रशस्यते ॥ १० ॥ एतत्फलघृतं नाम भारद्वाजेन भाषितम् । अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपत्यत्र चिकित्सकः ॥ ११ ॥
त्रिफला, मुलहठी, कुल, दोनों हलदी, कुटकी, वायविडंग, पीपल, नागरमोथा, इंद्रायण, कायफल, वच, काकोली, क्षीरकाकोली, दोनों सारिवा, प्रियंगु, सौंफ, हींग, रास्ना, चंदन, रक्तचंदन जावित्री, वंशलोचन, कमलगट्टा, मिश्री, अजमोद, जमालगोटेकी जड इन सब औषधियोंको चार चार टंक लेकर काढा करे और बछडेवाली एकरंगी गायका २५६ टंक घी शतावरी ४ प्रस्थ, चौगुने घीमें
वे फिर चौगुने दूधमें अरने उपलोंकी आग देकर अच्छी तिथि और शुभ नक्षत्र में मिट्टी वा तांबेक पात्रमें औटावै, फिर अच्छा दिन देखकर स्त्री अथवा पुरुष पंवे, जो पुरुष सेवन करे तो स्त्रीको सदा सुख देवे और पुत्र वीर्यवत होवे और वंध्या पुत्र जने और जिसका अल्पायु पुत्र होवे और गूंगा, वह स्त्री बुद्धिमान और सौ वर्षकी आयुवाला पुत्र जने, जिस स्त्रीके कन्या होती होय वहभी पुत्र जने, जिसका गर्भपात होता होवे उसका गर्भ स्थिर होवे, जो मराहुआ पुत्र जनती हो वह बुद्धिमान् पुत्र जने । रूपवान् निरोगी पुत्र होवे, परंतु एकवर्णी गौका घी लेवे, यह संतान के लिये घृत भारद्वाजऋषीने कहा है और अच्छे वैद्योंने कहा है कि, पीछे लक्ष्मणाजडी डालकर लेवे ॥ १-११ ॥
( १८३ )
सहावरे द्वे त्रिफला गुडूची सपुनर्नवा । शुकनासा हरिद्रे द्वे रात्रा मेदा शतावरी ॥ १ ॥ कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत्क्षीरं चतुर्गुणम् ।
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(१८४) योगचिन्तामणिः। [धृताधिकार:
तत्सिद्धं या पिबेत्रारी योनिशूलं निवारयेत् ॥२॥ पीडिता चलिता या च निःसृता विवृता च या। पित्तयोनिश्च विभ्रांता षण्ढयोनिश्च या स्मृता ॥३॥ प्रपद्यते हिताः स्थानं गर्भ गृहंति चासकृत् । एतत्फलघृतं नाम योनिदोषहरं परम् ॥ ४॥ २-त्रिफला, अडूसा, पियावांसा, गिलोय, सांठकी जड, अरलूकी छाल, दोनों हलदी, रास्ना, शतावरी इनका काढा करै, जब सिद्ध होजाय तब एक प्रस्थ सेवन करे तो स्त्रीका योनिशूल जाय, पीडा वहना, विवृता, पित्तयोनी, डरावनी, पंढयोनी, जिसकी रग भीतर हो ये संपूर्ण योनिदोष दूर होवें ॥ १-४॥
उदररोगे बिंदुघृतम् । अर्कक्षीरपले द्वे च सुहीक्षीरपलानि षट् । पथ्या कंपिल्लकश्यामा शम्याकं गिरिकर्णिका ॥१॥ नीलिनी त्रिवृता रत्नी शंखिनी चित्रकं तथा। वृद्धदारुर्देवदाली दंतीबीजं च शातला ॥२॥ हेमक्षीरी च कटुकी विडङ्गं ग्रंथिकं तथा। एतेषां पलिकैर्भागघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥३॥ अथास्य मलिने कोष्टे बिन्दमानं प्रदापयेत । यावतोऽस्य पिबेद्विदूस्तावद्वारान् विरिच्यते ॥४॥ कुष्ठं गुल्ममुदावत्तै श्वयधुं सभगन्दरम् । शम यत्युदराण्यष्टौ वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥५॥ एतद्विन्दुघृतं नाम तेनाभ्यक्तो विरिच्यते ॥ ६॥
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पञ्चमः] भाषाटीकासहितः। (१८५)
आकका दूध २ पल, थूहरका दूध २ पल, हरड १६ टंक, कवीला १०१ टंक, प्रियंगु १६ टंक, अमलतास १६ टंक, सेहुंड १ पल, नीलका बीज १ पल, निसोथ १ पल, दन्ती १. पल, शंखाहुली १ पल चित्रक १ पल, विधायरा १ पल, देवदारु १ पल, जमालगोटा १ पल, सातला १ पल, कौंच १ पल, कुटकी १ पल, वायविडंग १ पल, पीपलामूल १ पल इन सब औषधियोंको एक एक पल लेकर एक प्रस्थ घृतमें औटावे, फिर जिसका कोठा मलयुक्त हो उसको एक बूंद दे और जितनी बूंद देवे उतनेही दस्त होवें और कोढ, गुल्म, अफरा, उदावत, वमन, भगन्दर और आठ प्रकारकी उदरव्याधि दूर होवे, जैसे इन्द्र के वज्रस वृक्ष कटता है वैसे इस बिन्दुनाम घृतसे विरेचन होवे ॥ १-६॥
दुष्टत्रणादौ जात्यादिकं घृतम् । जातीपत्रपटोलनिंबकटुकादाऊनिशाशारिवामंजिष्ठाभयसिक्थरक्तमधुकैर्नक्ताबीजैः समम् । सर्पिः शीघ्रमनेन सूक्ष्मवदनं मर्माश्रितः श्रावणा गंभीराः सरुजो व्रणाः सुगतिकाः शुध्यंति रोहन्ति च ॥ १॥ जायफलके पत्ते, पटोल, नींबकी छाल, कुटकी, दारुहलदी, मञ्जीठ, हरड, गौरीसर, कूठ, मोम, केशर, मुलहठी, कंजा इनकी समान मात्रा लेकर घृत डाल काढा करे, यह घृत गम्भीरव्रण, दुष्टव्रण फोडा फुसियोंको दूर करे ॥ १॥
रुधिरविकारे महातितकं घृतम् । करंजसप्तच्छदपिप्पलीनां मूलानि कृष्णा मधुका विशाला । यवासकश्चंदनमुत्पलं च सत्रायमाणा
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( १८६.) योग़चिन्तामणिः। [घृताधिकारःकटुका वचा च ॥ १ ॥ उशीरपाठातिक्षिा रजन्यौ किराततिक्तं कटुजस्य बीजम् । निवासनारग्वधमालतीनां पत्राणि मूलानि च कण्टकार्याः ॥२॥ शतावरीपद्मकदेवदारुमुस्तानि कालेयककेशराणि । वासा गुडूची नतसारिखे द्वे बला पटोली त्रिफला च मूळ ॥३॥ नीपाकदंबो धववेतसौ च कर्कोटकं पर्पटकं यवासः । वाराहि कन्दं दमयन्तिका च ब्राह्मी समंगर्षभवालकं च ॥ ४॥ एभिः समशिरथ कार्षिकैश्च घृतस्य प्रस्थं विपचेनदस्य । द्रोणं जलस्याकलुपस्य दद्यात्प्रस्थद्वयं चामलकीरसस्य ॥ ५॥ पक्वं प्रशान्तं गतफेनशब्दं प्रयोजयेत्कुष्ठहरं प्रशस्तम्। तद्रक्तपित्तानिलसन्निपाते विस्फोटदुष्टव्रणविद्रधीषु॥६॥ किलासकासज्वरगंडमालाग्रंथ्यर्बुदत्वम्भववातरक्तम् । घृतं महातिक्तमिदं प्रशस्तं निहंति सर्वाञ्छ्यथून्विचर्चीन् ॥ ७॥
करंजके बीज, सतवन, पीपलायूल, पीपल, मुलहठी, इन्द्रायण, जवासा, चन्दन, कमल, त्रायमाण, कुटकी, वच, खस, पाढ, अतीस, दोनों हलदी, चिरायता, इन्द्रजौ, विजैसार, अमलतास, मालतीपत्र तथा जड, कटेरीकी जड, शतावर, पदमाख, पीलाचन्दन, देवदारु, मोथा, अगर, नागकेशर, अडूसा, गिलोय, तगर, सारिवा, २, नागबला, पटोल, त्रिफला, मुलहठी, नीलकन्द धायके फूल, वेतस,
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पञ्चमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(१८७ ).
करेलाकी जड, पित्तपापडा, जवासा, वाराही कन्द, केवडेकी जड, ब्राह्मी, मँजीठ, ऋषभ ( लहसनके मुवाफिक हिमालय के पहाडमें होता: है ) नेत्रवाला यह सब औषधि चार चार मासे लेवे और २५६ टंक वृतमें तथा पानी २५६ पल में औटावे फिर ६४ पल रक्खे, आमलेका, रस ५१२ टंक डाल देवे, जब झाग और शब्द बन्द होजावे तब निकाल लेवे । १८ प्रकारके कोढ, रक्तपित्त, वायुरोग, सन्निपात, दुष्ट फोडे, दुष्ट रोग, दाद, भ्रम, खांसी, ज्वर, गंडमाला, गांठ, अर्बुद, त्वचारोग और वातरक्तपर यह घृत महातीक्ष्ण है, यह घृत सम्पूर्ण प्रकारकी सूजन को दूर करता है ॥ १ ॥ ७ ॥ मस्तकरोगे षडबिंदुघृतम् ।
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शुण्ठीविडङ्गयष्ट्याह्वा भृङ्गतोयैः शृतं घृतम् । नस्यं षड् बिन्दुदानेन सर्वमूर्द्धगदापहम् ॥ १ ॥ सोंठ, वायविडंग, मुलहठी इनका भांगरके काढेमें घृत बनाय नास देनेसे संपूर्ण मस्तकरोग जाते हैं ॥ १ ॥
वायुविकारे दशमूलादिवृतम् ।
दशमूलस्य निर्यूहेर्जीवनीयैः पलोन्मितैः । क्षीरेण च घृतं पक्वं तर्पणं पवनार्तिजित् ॥ क्वाथेन त्रिगुणं सर्पिः प्रस्थसाध्यपयः समम् ॥ १ ॥
दशमूल १ पल, जीवनीयगण १ पल, इनको दूध और घीमें औटावे, जब काढा हो तब काढेसे तिगुना घी और दूध २५६ टंक. डाले | यह संपूर्ण वायुरोगोंका नाश करता है ॥ १ ॥
अश्वगंधाघृतम् ।
अश्वगंधाकषायेण कल्के क्षीरं चतुर्गुणम् । घृतपक्वं तु वातघ्नं वृष्यं मांसविवर्द्धनम् ॥ १ ॥
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(१८८) योगचिन्तामणिः। [घृताधिकारः
असगन्धका काढा कर चौगुणा दूध उसमें डाले, फिर घृतमें पकावे यह घृत वायुको दूर करे तथा मांसको बढावे और वृष्य है ॥ १॥
वातरक्ते गुडूचीवृतम् । अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधात् । मृदमिना घृतं सिद्धं वातरक्तहरंपरम् ॥ १ ॥ आमवातादिवातानां कृमिदुष्टवणान्यपि । अशांसि गुल्मांश्च तथा नाशयत्याश योजितम् ॥२॥ गिलोयके काढेमें सोंठ डालकर फिर घृत डालकर मन्दाग्निसे औटावे । यह घृत वातरक्त और आमवातयुक्त वा कृमि, दुष्टत्रण, बवासीर, गुल्म, आदि संपूर्ण रोगोंको नाश करता है ॥ १-२॥
वातशूले शुंठीघृतम् । नागरक्वाथकल्काभ्यां घृतप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणेन तेनाथ केवलेनोदकेन वा ॥१॥ वातश्लेष्मप्रशमनमग्निदीपनकं परम् । नागरं घृतमित्युक्तं कटयामशूलनाशनम् ॥२॥ सोठके, काढेको एक प्रस्थ घीमें औटावे, परन्तु सोंठका पानी घृतसे चौगुना होवे. यह घृत वातश्लेष्मको दूर करता है, मन्दाग्निको दीपन करे यह सोंठका घृत कटिशूल, आमवात और कठिन दरदका नाश करता है ॥ १-२॥
लूताविचचिकायां काशीसादिघृतम् । काशीसं द्वे निशे मुस्ते हरितालं मनः शिला। कंपिल्लकं च गंधं च विडॉ गुग्गुलुं तथा॥१॥ सिद्धकं मरिचं कुष्ठं तुत्थकं गौरसर्षपः ।
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पञ्चमः ] भाषाटीकासहितः। (१८९) रसांजनं च सिन्दूरं श्रीवासं रक्तचन्दनम् ॥२ अरिमेदं निम्बपत्रं करलं सारिवा वचा। मंजिष्ठा मधुकं मांसी शिरीषं लोध्रपद्मकम् ॥३॥ हरीतकी प्रपुन्नाट चूर्णयेत् कार्षिकां पृथक् । ततस्तु चूर्णमालोड्य त्रिंशत्पलमिते घृते ॥४॥ स्थापयेत्ताम्रपात्रेषु धर्मे सप्तदिनानि च । अस्याभ्य३न कुष्टानि दद्रपामाविचर्चिकाः ॥५॥ शूकदोषा विसप्पश्चि विस्फोटा वातरक्तजाः। शिरःस्फोटोपदंशश्च नाडीदुष्टव्रणानि च ॥६॥ शोफा भगन्दराश्चैव लूताः शाम्यन्ति देहिनाम् । शोधनं रोपणं चैव सर्ववर्णकरं मतम् ॥ ७ ॥ हीराकसीस, दोनों हलदी, मोथा, हरिताल, मैनशिल, कबीला, गन्धक, वायविडंग, गूगल, मोम, मिरच, नीलाथोथा, सरसों, रसौंत, सिन्दूर, चीढ, रक्तचन्दन, कत्था, नीमके पत्ते, करंजुआ, गौरीसर, वच, मञ्जीठ, मुलहठी, बालछड, लोध, पदमाख, हरड, पमारके बीज इन सबको जुदी २ चार चार टंक लेवे, इनका चूर्ण ३० पल घृतमें डालकर औटावे । तांबेके पात्रमें सात दिन धूपमें रक्खे । फिर मर्दन करे तो दाद, पामा, विचर्चिका, शूकदोष, विसर्प, विस्फोटक, वातरक्त, शिरदोष, गरमी, नाडीव्रण, दुष्टब्रण, भगन्दर, मकडी फैलना इनको शोधन करे और देहका कालापन दूर होवे ॥ १-७॥
___ पञ्चतिक्तकं घृतम् । वृषानिम्बामृताव्याघ्रीपटोलानां शृतेन च । कल्केन पकं सर्पिस्तु निहन्याद्विषमज्वरान् ॥१॥
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(१९०) योगचिन्तामाणिः। [धृताधिकार:
अडूसा, नींवकी छाल, गिलोय, कटेरी, पटोल इनके काढेको धीमें औटावे, यह घृत विषमज्वरको तत्काल दूर करता है ॥ १ ॥
___ पुष्टौ कामदेवघृतम् । अश्वगन्धा तुलैका स्यात्तदो गोक्षुरस्तथा। बलाऽमृता शालिपर्णी विदारी च शतावरी ॥ १ ॥ पुनर्नवा स्वच्छशुण्ठी काश्मर्यास्तु दलान्यपि । पद्मबीजं सटी बीजं दद्यादशपलं घृतम् ॥२॥ चतुर्दोणं पयःपक्त्वा पादशेष शृतं नयेत् । जीवनीयगणः कुष्ठं पद्मकं रक्तचन्दनम् ॥३॥ पत्रकं पिप्पली द्राक्षा कपिकच्छुफलं तथा। नीलोत्पलं नागपुष्पं सारिवे द्वे तथा बला ॥ ४ ॥ पृथक्कर्षसमा भागाः शर्करायाः पलद्वयम् । रसस्य पौण्ड्रकेक्षणामाढकैकं समाहरेत् ॥५॥ घृतस्य चाष्टकं दत्त्वा पाचयेन्मृदुवह्निना। घृतमेतन्निहन्त्याशु रक्तपित्तं सुरक्षितम् ॥६॥ हलीमकं पाण्डुरोगं व्रणभेदं स्वरक्षयम् । वातरक्तं मूत्रकृच्छं शश्वच्छूलं तु दारयेत् ॥ ७ ॥ शुक्रक्षयमुरोदाई कायमोजक्षयं तथा। स्त्रीणां चैव प्रजननं गर्भदं शुक्रदं नृणाम् । कामदेवघृतं नाम हृद्यं बल्यं रसायनम् ॥ ८ ॥
अब पुष्टताके ऊपर कामदेवघृत लिखते हैं । असगन्ध १०० पल, · गोखरू ५० पल, खरैटी, गिलोय, शालपर्णी,
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पंचमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( १९१)
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विदारीकंद, शतावरी, सांठी, पीपल, सोंठ, कुम्भेरन, ककडी यह सब एक एक पल, कमलगट्टा, कचूर, बीजकल, ४० लेवे, ६४ सेर पानीमें चढावे, जब चौथाई रहजाय तब उतारलेवे जीवनीयगण ( अर्थात् औषधि ), कूठ, पदमाख, रक्तचंदन, तेजपात, पीपल, दाखके बीज, कौंच के बीज, कमल, नागकेशर, दोनों गौरीसर, बेलगिरी यह चार चार टंक लेवे, मिश्री २ पल, कमलकेशर तथा गौडकेशर ६४ पल डालकर पकावे, जब सिद्ध होजाय तब निकाले । यह घृत बहुत दिनोंका रक्तपित्त, हलीमक, पांडुरोग, व्रणभेद, स्वरक्षय वातरक्त, मूत्रकृछ्र, पसलीके दरद, पीलिया, वीर्यक्षय, पेटका दरद, दुबलापन और क्षपका नाश करे और स्त्रियोंको सन्तानदायक तथा पुरुषको वीर्यदायक है । यह कामदेवघृत हृदयको हित तथा बलकारक रसायन है ॥ १-८ ॥
रुधिर विकारे मंजिष्ठादिघृतम् । मंजिष्ठा च हरिद्रा च देवदारु हरीतकी शृङ्गवेरं ह्यतिविषा वचा कटुकरोहिणी ॥ १ ॥ हिंगुतश्चाक्षमात्रेण तत्सिद्धमवतारयेत् । एतन्माजिष्टकं सर्पिर्बहून्रोगात्रिवारयेत् ॥ २ ॥ farai श्वासं ज्वरं कुष्टं ग्रहणीं पाण्डुरोगताम् । प्रमेहमधुमेहांश्च क्रिमिगुल्ममरोचकम् || ३ || कासं शोषमुदावर्त्तमपस्मारं तथैव च । - अशसि श्वयथुं चैव गण्डमालां तथोदरम् ॥ ४॥ मंजीठ, हलदी, देवदारु, हरड, सोंठ, अतीस, वच, कुटकी हींग ये एक एक पल लेकर अठगुने पानी में पकावे, जब चौथाई रह जाय सब वृत डाल देवे, जब सिद्ध होजाय तब उतार लेवे । यह घृत बहुत दिनके रोगोंको दूर करे हिचकी, श्वास, ज्वर, कोट, संग्रहणी,
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( १९२ )
योगचिन्तामणिः ।
[ घृताधिकार:
पांडुरोग, प्रमेह, अर्श, सूजन, गण्डमाला, कृमिरोग, गांठ, अरुचि, खांसी, शोष, उदावर्त्त, मृगी, और उदररोगादिकों को दूर करे॥१-४॥ संग्रहणीविकारे कल्याणगुडः ।
पाठाधान्यजवान्यजाजिहपुषाचव्यनिसिन्धूद्भवैः सश्रेयस्यजमोद की रिपुंभिः कृष्णाजटासंयुतः । सव्योषैः सफलत्रिकैः सत्रुटिभिस्त्वग्यत्नजैरौषधैः प्रत्येकं पलिकैः सतैलकुडवैः सार्द्धं त्रिवृन्मुष्टिभिः॥१॥ सर्वैरामलकीरसस्य तुलया सार्द्धं तुलाई गुडं सम्पाच्यो भिषजावलेहवदयं प्राग्भोजनाद्भुज्यते । ये केचिद्रहण गदाः सगुदजाः कासाः सशोफामयाः सश्वासं श्वयथुं शिरोदररुजः कल्याणकस्तान् जयेत् २ नागपुरीययतिवर श्रीहर्ष कीर्ति संकलिते । वैद्यकसारोद्धारे पञ्चमवृताधिकारोऽयम् ॥ ५ ॥
पाढ, धनियां, अजमायन, जीरा, कबाबचीनी, चव्य, सैंधानोन. पीपल, अजमोद, वायविडंग, पीपलामूल, सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, इलायची, तज, तेजपात, नागकेशर यह सब बराबर अर्थात् एक एक पल लेवे । तेल ६४ टंक, निसोथ १६ टंक, आंवलोंका रस १६० टंक, गुड १००० टंक डालकर अच्छे प्रकार औटावे फिर औषधियोंको डालकर अवलेह बनावे, भोजनके प्रथम चार टंक खावे । यह गुड-संग्रहणी, उदररोग, खांसी, कंठ सूखना, श्वास, कंठसूजन आदिरोगों का नाश करे ॥ १ ॥ २ ॥
इति श्रीमाथुरदत्तरामचौबेकृतमाथुरी मञ्जूषा भाषाटीकायां घृताधिकारः पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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माषाटीकासहितः ।
अथ तैलाधिकारः--षष्टोध्यायः ६.
तैलाधिकारः ६ ]
( १९३ )
सर्ववातेषु नारायणतैलम् |
बिल्वाग्निमन्थइयोना कपाटलापारिभद्रकाः । प्रसारण्यश्वगन्धा च बृहती कण्टकारिका ॥ १ ॥ बला चातिवला चैत्र वदंद्रा सपुनर्नवा । एषां दशपलान्भागांश्चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत् ॥ २ ॥ पादशेषं परिश्रावं तैलाढकं प्रदापयेत् । शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं वचा ॥ ३ ॥ चन्दनं तगरं कुष्टमेलापर्णी चतुष्टयम् । रात्रा तुरगगन्धा च सैन्धवं सपुनर्नवम् ॥ ४ ॥ एषां द्विपलिकान् भागान्पेषयित्वा विनिक्षिपेत् । शतावरीरसं चैव तैलतुल्यं प्रदापयेत् ॥ ५ ॥ आजं वा यदि वा गव्यं दद्यात्क्षीरं चतुर्गुणम् । शनैर्विपाचयेत्सर्वं तत्सिद्धमवतारयेत् ॥ ६ ॥ पाने बस्तौ तथाऽभ्यङ्गे भोज्ये चैव प्रशस्यते । अश्वो वा वातसंभग्नो गजो वा यदि वा नरः ॥ ७ ॥ पंगुलः पीठसप च तैलेनानेन सिद्धयते । अधोभागाश्च ये वाता शिरोमध्यगताश्च ये ॥ ८ ॥ दन्तशूले हस्तम्भे मन्यास्तम्भे गलग्रहे । क्षीणेंद्रिया नष्टशुका ज्वरक्षीणाश्च ये नराः ॥ ९ ॥
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( १९४) योगचिन्तामणिः। तैलाधिकार:
बधिरा लमजिह्वाश्च विकला मन्दमेधसः । मन्दप्रजा च या नारी या च गर्भ न विदति। कुरण्डमन्त्रवृद्धिश्च येषां तेषामिदं हितम् ॥१०॥ यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः । तथेदं वातरोगाणां तैलं नारायणं स्मृतम् ॥ ११॥ बेल, अरणी, अरल, पाढल, नींबकी छाल, गंधप्रसारणी, असगंध, कटेरी,गंगेरन,गोखरू, सांठ यह सब दस दस पल लेकर ६४ सेर पानीमें
औटावे, जब चौथाई रहजाय तब १०२४ टंक तेल डाले. सौंफ, देवदारु, बालछड, छारछवीला, वच, चन्दन, तगर, कूठ, इलायची, शालपर्णी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, पीलवनी, राना, असगन्ध, सैंधानोन, सोंठ, यह सब दो दो पल ले पीसकर डालदेवे और शतावरीका रस तेलके बराबर अर्थात् चार सेर डाले, बकरी और गायका चौगुना दूध डालकर मंदी २ आंचसे पकावे, जब सिद्ध होजाय तब उतारले, फिर इस तेलको पीवे तथा मर्दन करे, भोजनके प्रथम तेल लेवे । घोडा हाथीके वातगेग तथा मनुष्यके पंगु, पीठभन्न वायु इतने रोग इस तेलके लगानेसे नाश होवें ओर नीचे अंगकी वायु, माथेकी वायु, दन्त शूल, ४ नुस्तम्भ, जाबडास्तम्भ, गल ग्रह, इंद्रियक्षीण, वीर्यनष्ट, ज्वरकरके क्षीण होवे, जीभ फूलना, विकलता, मन्दबुद्धि, स्त्रीके संतान न होय, नलबंधना, आंतोकी वृद्धि आदिक संपूर्ण रोगोंको नाश करता है ॥ १-११॥
जीर्णवरे तापातिदाहादौ च लाक्षादितैलम् । चन्दनांबु नखं वाद्यं यष्टी शैलेयपद्मकम् । मनिष्ठा सरला दारु शय्येला नागकेशरम् ॥१॥
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षष्ठः ] भाषाटीकासहितः। (१९५) पत्रं चैला मुरा मांसी कंकोलं च नतांबुदम् । हरिद्रे सारिखे तिक्तं लवङ्गागुरुकुमम् ॥२॥ त्वग्रेणुनलिकास्त्वेभिस्तैलं मस्तुचतुर्गुणम् ।। लाक्षारसं समं सिद्ध ग्रहघ्नं बलवर्णकृत् ॥३॥ अपस्मारक्षयोन्मादे कृतालक्ष्मीविनाशनम् । गात्राणां स्फुटने दाहे कण्डूजीर्णज्वरापहम् ॥ ४॥ १-चंदन, नेत्रवाला, नख, मुलहठी, शिलाजीत, पदमाख, मंजीठ, निसोथ, देवदारु, कचूर, इलायची, नागकेशा, तेजपात, बालछड, क्षीरकालोली, तगर, नागरमोथा, दोनों हलदी, दोनों गौरीसर, कुटकी, लौंग, अगर, केसर, रेणुका, चीता इनसे चौगुना तेल गायका महा ५ सेर, लाखका रस ५ सेर इन सबको
औटावे, जब सिद्ध हो जाय तब काममें लावे । गलग्रहका नाश करे, शरीरका वर्ण अच्छा करे, मृगी, क्षयी, उन्मादको दूर करे, शरीरको पुष्ट करे, गात्रभंग, दाह, खाज, जीर्णज्वर आदिको दूर करे ॥ १-४॥
लक्षाढ क्वाथयित्वा जलस्य चतराढकैः। चतुर्थाशं शृतं नीत्वा तैलप्रस्थे विपाचयेत् ॥१॥ तकाढकं च गोदनस्तत्रैव च नियोजयेत् । शतपुष्पामश्वगन्धा हरिद्रा देवदारु च ॥२॥ कटुका रेणुका मूर्वा कुष्ठं च मधुयष्टिका । चन्दनं मुस्तक राना पृथक्कृत्वा प्रमाणतः ॥३॥ चूर्णयेत्तत्र निक्षिप्य साधयेन्मृदुवह्निना। अस्याभ्यंगात्प्रशाम्यति सर्वेऽपि विषमज्वराः॥ ४॥
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(१९६) योगचिन्तामणिः। ..[तैलाधिकारः-- वातपित्ते क्षये दाहे गुर्विणीपुष्टिदं मतम् । कासवासासृग्विकारे कण्डूशूलभ्रमेषु च ॥५॥
२-लाखका रस १०२४ टंक, पानी २५६ पल डालकर काढा करे, मीठा तेल १६ पल डाले, गायका महा १६४ पल डाले
और विधिपूर्वक पकावे फिर सौंफ, असगंध, हलदी, देवदारु, कुटकी, संभालू, मुलहठी, झूठ, मोथा, रक्तचन्दन, गस्ना, मूर्वा इन सबको चार चार टंक ले पीसकर डाले, फिर मन्दाग्निमें पकावे, इसके मर्दन करनेसे संपूर्ण विषम ज्वर न श होवे. वायु, पित्त क्षय, दाहको हित है और खांसी, श्वास, रुधिर विकार, खाज, शूल भ्रमादिकों को दूर करता है. गर्भिणीको हित है ॥ १ ॥५॥
___ ददुमण्डलपामावि चर्चिकादौ मरिचादितलम् । मरिचचंदनदारुनिशाद्वयं जलदमेघशिलालशकृद्रसैः। त्रिवृतयाऽश्वहरोकपयोविपैः सुरभिमूत्रयुतं विप
चेद्भिषक् ॥१॥ कटुकतैलमिदं मरिचाह्वयं कठिनचर्मदलारसकापहम् । बहुलमण्डलसिध्मविचचिंकाप्रवरकुष्ठकिलासविसर्पजित् ॥ २॥ मिरच, चन्दन, दोनों हलदी, देवदारु, खस, मोथा, मैनशिल, हरताल, गोवरका रस, निसोत, असगंध, आकका दूध, तेलिया मीठा इनको गोमूत्रमें औटावे, फिर कडवा तेल डालकर उतार लेवे. यह तेल चर्मदल, दाद, बडे चकत्ते, कोढ, पामा, फोडा, विचर्चिकादि संपूर्ण रोगोंको दूर करे ॥ १-२॥
___ वृद्धमरिचादितैलम । मरिचं त्रिफला दन्तीक्षीरमाकै शकृद्रसैः। देवदारु हरिद्रे रे मांसीकुष्ठं सचन्दनम् ॥ १ ॥
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षष्ठः] भाषाटीकासहितः। (१९७) विशाला करवीरं च हरितालं मनःशिला। चित्रको लाङ्गली लाक्षा विडङ्गं चक्रमर्दकम् ॥ २ ॥ शिरीषकुटनौ निम्बसप्तपर्णस्नुहीमृता। सम्पाको नक्तमालश्च खदिरं पिप्पली वचा ॥३॥ ज्योतिष्मती च पलिका विषं च द्विपलं नयेत् । आढकं कटुतैलस्य गोमूत्रं च चतुर्गुणम् ॥ ४॥ मृत्पात्रे लोहपात्रे वा शनैर्मुदग्निना पचेत् । पक्त्वा तैलवरं ह्येतत्कर्षयेत्कोषकं व्रणम् ॥५॥ पामाविचचिकाकण्डूदद्रुविस्फोटकानि च । वलितं पलितं छाया नीली व्यङ्गत्वमेव च ॥६॥ अभ्यंगेन प्रणश्यन्ति सौकुमार्य च जायते । प्रथमे वयसि स्त्रीणां नस्यमस्य तु दीयते ॥७॥ जरामपि तथा प्राप्य नाम्ना नायाति विक्रियाम् । बलीवर्दस्तुरंगो वा गजो वा वायुपीडितः॥ त्रिभिरभ्यंजयेगाढं भवेन्मारुतविक्रमः ॥ ८॥ मिरच, १ पल, त्रिफला १ पल, जमालगोटेकी जड १ पल, भाकका दूध दो सेर, थूहरका दूध दो सेर, गोवरका रस दो सेर, देवदारु १ पल, दोनों हलदी १ पल, बालछड १ पल, कूठ १ पल, चन्दन १ पल, इन्द्रायण १ पल, कनेरकी जड १ पल, हरताल १ पल, मैनसिल १ पल, चित्रक १ पल, करिहारी १ पल, लाख १ पल, वायविडंग १ पल, पमाडके बीज १ पल, सिरसकी छाल १ पल, कुडेकी छाल १ पल, नींबकी छाल १ पल, सातपूडा १ पल, थूहर, गिलोय, अमलतास, कंजा, जावित्री, पीपल, खैरसार, बच, माल
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( १९८) योगचिन्तामणिः । [ तैलाधिकार:कांगनी, मंजीठ, तेलियामीठा, कडवातेल, ६४ पल, गोमूत्र २५६ पल इनको मिट्टीके पात्रमें अथवा लोहे के पात्रमें मन्दाग्निसे पकावे । जब पकजॉय तव उतारलेवे । यह तेल कोढ, व्रण, पामा, विचर्चिका, शरीरमें गुलजट और सफेद बालोंका होना, खुजली आदिमें हितकर है इस तेलके मर्दनसे शरीर सुंदर होय. प्रथम उमरवाली स्त्रीको नास देवे तो बुढापेमें भी सुन्दर तथा दृढ शरीर होय. किसी तरह विकारको प्राप्त नहीं होय. बैल, घोडा, हाथी ये वायुविकारसे पीडित होवें तो तीन दिन मर्दन करनेसे पवनके समान पराक्रमवाला होता है ॥ १-८॥
सर्ववातरोगे विषगर्भतेलम् १-२ । विषं च पुष्करं कुष्ठं वचा भाी शतावरी । शुण्ठी हरिद्रे लशुनं विडङ्ग देवदारु च ॥ १॥ अश्वगन्धाऽजमोदा च मरिचं प्रथिकं बला। रास्ना प्रसारिणी शिशु गुडूची हपुपाऽभया ॥२॥ दशमूलानि निर्गुण्डी मिशी पाठा च वानरी । विशाला शतपुष्पा च प्रत्येकं पलिकोन्मितान् ॥३॥ चतुर्गुणजलैः पक्त्वा पादशेष शृतं नयेत् । तिलतैलं क्षिपेत्प्रस्थं तथैरण्डं च सार्षपम् ॥४॥ धत्तूरं चाण्डभृङ्गार्करसान्प्रस्थमितान्क्षिपेत् । पाचयेद्गोमयरसैस्तैलशेष समुद्धरेत् ॥५॥ पलमेकं विषं चात्र सूक्ष्मं कृत्वा विनिक्षिपेत् । सर्वेषु वातरोगेषु सदाऽभ्यङ्गो विधीयते ॥ ६॥
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षष्ठः] भाषाटीकासहितः। (१९९)
संधिवाते सन्निपाते त्रिकपृष्ठे कटिरहे । पक्षाघाते तथाऽद्धीगे गात्रकंपेऽतिदारुणे ॥७॥ कुब्जके च धनुर्वाते गृध्रस्यां च प्रतानके । विपग मिदं तैलं योजनीयं सदा बुधैः ॥ ८ ॥
१-तेलियामीठा, पोहकर मूल, सोंठ, वच, भारंगी, सतावर, मंजीठ, हलदी, लहसुन, वायविडंग, देवदारु, असगंध, अजमोद, मिरच, पीपलामूल, खरैटी, गंधप्रसारणी, सहजना, गिलोय, हाऊबेर, हरड, दशमूल, संभाल, मेथी, पाढ, कौंचके बीज, इंद्रायणकी जड, सौंफ इन सबको एक एक पल लेकर चौगुने जलमें औटावे, जब चतुर्थाश बाकी रहे तब उतारलेवे, इसमें एक प्रस्य मीठा तेल, एक प्रस्थ अंडीका तेल और एक प्रस्थ सरसोंका तेल डाले, पीछे इनमें धतूरा, अंड, भांगरा, आकका रस एक एक प्रस्थ डाले. फिर गोबरका रस डालकर पकावे. जब तेल सिद्ध होजाय तब एक पल विष डालकर देश में लगावे. यह तेल संपूर्ण वातरोगोंका नाश करे, इसकी मालिशसे संधिगत वायु, सनिपात, त्रिक, पीठ, कमर, इनका दुखना, पक्षाघात, अर्दोग कंपवायु, कुबडापन, धनुषवायु, गृध्रसीवायु, प्रतानवायु आदिक रोग दूर होवें यह विषगर्भ तेल है ॥ १-८॥
कनकश्चापि निर्गुडी तुंबिनी सपुनर्नवा । वानरीयाऽश्वगंधा च प्रान्नाटः सचित्रकः ॥९॥ सौभांजनं काकमाची कलिहारी तु निंबकैः। महानिबेश्वरी चैव दशमूली शतावरी ॥ १० ॥ कारवेल्ली सारिवे द्वे श्रीपी च विदारिका । वज्रार्कमेषशृङ्गी च करबीरद्वयंतथा ।। ११ ॥
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( २०० )
योगचिन्तामणिः ।
[ तैाधिकारः
१३ ॥
काकजंघा त्वपामार्गस्तथा स्यात्सुप्रसारिणी । त्रिफला तत्समांशेन रसं तैलं समानि च ॥ १२ ॥ अशुक्कतिलतैलं च तैलमैरण्डसार्षपम् । पचेदेकत्र सर्व तत्तैलं सिद्धं च बुद्धिमान् ॥ त्रिकटून्यश्वगन्धा च रास्ना कुष्ठं च निंबके । देवदारु कलिंगं च द्वौ क्षारौ लवणानि च ॥ १४ ॥ तुत्थं कटुफलं पाठा भार्गी च नवसादरम् । गन्धकं पुष्करं मूलं शिलाजतु सटी वचा ॥ १५ ॥ एत नि कर्षमात्राणि तैलशेषे विनिक्षिपेत् । प्रसृतं च विषं दद्यात्सूक्ष्मचूर्णीकृतं क्षिपेत् ॥ १६ ॥ विषगर्भमिदं तैलं सर्वव्याधीन्व्यपोहति । कुक्षिष्टगण्डेषुसंधानं शोफमेव च ॥ १७ ॥
स च शिरोवायुं सर्वागस्फुटनं तथा । दण्डापतान काष्टीलं कर्णनादस्य शून्यताम् ॥ १८ ॥ कम्पनं चौर्ध्ववातं च बाधिर्ये पलितं तथा । गण्डमालापचीग्रन्थिशिरःकम्पापतन्त्रकम् ॥ १९ ॥ अनेन सर्वताश्च सन्निपातात्रयोदश । वनमभ्यागते सिंहे पलायन्ते यथामृगाः । तथा वातेषु सर्वेषु योजनीयं भिषग्वरैः ॥ २० ॥
२ - धतुरे के बीज, संभालु, कडवी तुंबी, सोंठ, कौंचके बीज, असगंध, पमाड, चीता, सहजना, मकोय, कलिहारी, नीवकी छाल, बकायन, दशमूल, शतावरी, करेला, दोनों
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षष्टः ]
भाषाटीकासहितः ।
((२०१)
गौरीसर, श्रीपर्णी, विदारीकंद, सेहुंड, आक, मेढासिंगी, लाल कनेर तथा सफेद कनेर, काकजंघा, ओंगा, प्रसारिणी, त्रिफला यह सब बरावर लेवे और चौगुने पानी में काढा करे काले तिलका तेल काढेके बराबर, एडका तल दूना, सरसोंका तेल तिगुना इन सबको बुद्धिमान वैद्य एकत्र कर पकावे. तदनंतर सोंठ, मिरच, पीपल, असगंध, रास्ना, कूठ, नीं की छाल, देवदारु, इन्द्रयव, जवाखार, सज्जी, पांचोंनोंन, शुद्ध नीलाथोथा, कायफल, पाढ, भारंगी, नवसादर, गंधक, पोहकरमूल, शिलाजीत, कचूर, वच, यह औषधि चार चार टंक जब तेलमात्र शेष रहे तब डाल देवे फिर बत्तीस टंक तेलिया मीठा डाले । यह विषगर्भ तेल संपूर्ण रोगों को दूर करता है । पीठका दरद, भौंहकी पीडा, कुखका दरद कनपटीकी पीडा, संधिपीडा, सूजन, गृध्रसी, माथेकी वायु, सर्वांगफूटन, प्रतानवायु, उदरगाठ, कर्णरोग, सुनवायु, कंपवायु ऊर्ध्ववायु, अधोवायु, बहरापन, पलित, गंडमाला, अपचीवात, मस्तककंप, तेरह प्रकारका सन्निपात, आदि संपूर्ण बातरोग इस तेल से नाश होते हैं । जैसे वनमें सिंहको देखकर सब मृग भाग जाते हैं उसी प्रकार इस दवा के सेवन से संपूर्ण रोग नाश होते हैं । इसको अच्छा वैद्य संपूर्ण वातरोग में देवे ॥ ९-२०
मस्तकरोगे पविन्दु तैलम् ।
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एरण्डमूलं तगरं शताह्वा जीवंतिरास्ना लवणोत्तमं च । भृंगं विडंगं मधुयष्टिका च महौषधं चेति तिलस्य तैलम् ॥ १ ॥ एतैर्विपक्कैः पयसा च तुल्यं चतुर्गुणे भृंगरसे च सम्यक् । षड् बिन्दवो नासिकयोपयुक्ताः सर्वान्निहन्युः शिरसो
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(२०२) योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकारःविकारान् ॥२॥ च्युतांश्च केशान् स्खलितांश्च दन्तानुद्वद्धमूलांश्च दृढीकरोति । सुपर्णनागप्रतिम च चक्षुर्बुद्धिं बलं चाभ्यधिकं करोति ॥ ३ ॥ एरंडमूल, तगर, सतावर, जैती, रास्ना, सेंधानोंन, भांगरा, वायविडंग, मुलहठी, सोंठ, तिल का तेल, पहले तेलको बकरीके दूधमें पकावे फिर तेलसे चौगुना भांगरेका रस डाले और औषधियोंका काढा डालकर पकावे, जब सिद्ध होजाय तब बर्ते. इस तेल की छः वृन्द नाक में डाले तो सर्व मस्तकविकार नष्ट होवें, बालोंका दृढ करे, उखडे बालोंको फिर जमावे और दांतोंको दृढ करे, दृष्टि बढावे, बल अधिक करे ॥ १-३ ॥
वातरोगे शतावरीतेलम् । शतावरीरसं ग्राह्यं पाच्यं वा यन्त्रपीडितम् । प्रभूतं तसं क्षिप्त्वा तैलस्याढकमेव च ॥१॥ दधिक्षीरेण विपचेद्रव्याण्येतानि दापयेत् । शतपुष्पा वचा कुष्ठं मांसीशैलेयचन्दनैः ॥२॥ प्रियंगु पद्मकं मुस्ता हीबेरोशीरतट्फलम् । सैन्धवं मधुकं रोघं गैर्यकं रक्तचन्दनम् ॥ ३ ॥ चण्डा चैला मुरा स्पृक्का नलिका पद्मकेशरम् । श्रीवेष्टकं सर्जरसं जीवकर्षभको सटी ॥४॥ पतंगरेणुका दाव: कचूंरं सारिवा तथा। मनिष्टा मधुकं चैव द्रव्यैरेतैः पलोन्मितैः ॥॥ मध्यपाकं विजानीयात्ततस्तमवतारयेत् ।
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षष्ठः] भाषाटीकासहिताः। (२०३)
पथ्यं पाने तथाऽभ्यंगे नस्ये योज्ये च दापयेत् ॥६॥ पीडयमाने तथा वाते पक्षाघाताभिमंथके ।
आदिते कर्णशूले च उरुस्तम्भे कटिग्रहे ॥७॥ पवने च शिरःकम्पे सूतिकायां प्रदापयेत् ।। मन्यास्तम्भे धनुःकम्पे ह्यस्थिभंगे च दारुणे ॥८॥ तथा सर्वगते बायौ शुष्यमाणेषु धातुषु । अनातक्षीणरेतस्तु वन्ध्यायां गर्भिणीषु च ॥९॥ वृक्षं पुनर्नवाकारं बलमारोग्यदं महत् । शतावरीतैलमिदं सर्ववातविकारनुत् ॥ १० ॥
शतावरीका रस १०२४ टंक निकालकर मीठा तेल १०२४ टंक डाले फिर दही, दूध डालकर पकाते । सौंफ, वच, कूठ, शिलाजीत चन्दन, प्रियंगु, पदमाख, मोथा, हाउबेर, खस, कायफल, सेधानोंन, मुलहठी, लोध, अगर, पतंग, लाल कनेर, कस्तूरी, इलायची, बालछड, छारछवीला, कमल, नागकेशर, चीढ, राल, जीवक, ऋषभक, कचूर, संभालू, दारु हलदी, गौरीसर, मंजीठ यह सब औषधि एक एक पल लेकर तेलमें डालकर पकावे. जच पकजाँय तब उतारकर पानमें, मर्दन, नास, तथा भोजन आदिमें लेवे. यह वायुवीडा, पक्षाघात, दरद, कानका दरद, उरुस्तम्भ, कमरका दग्द, वमन. मस्तकरोग, प्रसूतिकारोग, इन रोगोंमें अवश्य देवे । जावडास्तम्भ, धनुर्वात हडफूटन भयानक दरद, धातु सूखना, क्षीणवीर्य आदिक रोगोंको दूर करता है, वन्ध्या सेवन करे तो पुत्रवती होय. शरीरको पुष्ट करे. बल करे, आरोग्य करे, सब प्रकारके वायुके नाशक है ॥१-१० ॥
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(२०१४) योगचिन्तामणिः। तैलाधिका
वातपित्तादिरोगे वलाद्यतैलम् । बलाशतं गुडूच्याश्च पादं रास्नाष्टभागकम् । जलाढकशतैः पक्त्वा शतभागस्थिते रसे ॥१॥ दधिमस्त्विक्षुनियांसे शुक्कैस्तैलाढके शनैः। पचेत्सा च पयो शं कल्कैरेभिः पलोन्मितः॥२॥ सटीसरलदायेलामधिष्ठागरुचन्दनः । पद्मकात्रिफलामुस्तासूर्यपर्णीहरेणुभिः॥३॥ यष्टयाह्वासुरसाव्याघ्रीनवर्षभकजीवकैः । पलाशरसकस्तूरीनलिकाजातिकोशकैः॥४॥ स्प्रकाकुंकुमशैलेयामालतीकट्फलांबुभिः। त्वक्कुन्दरसकर्पूरीतुरुष्कश्रीनिवासकैः ॥ ५ ॥ लवङ्गनखककोलकुष्ठमांसीप्रियंगुभिः ।। क्षीरेयतगरं वापि वचादमनकच्छुकैः ॥६॥ सनागकेशरं सिद्धे दद्याचात्रावतारिते। पलमात्रं ततः पूतं विधिना तत्प्रयोजयेत् ॥ ७॥ कासं श्वासं ज्वरं मूछौं छर्दिगुल्मक्षतक्षयान् । दौर्बल्यं शिरसस्तापं सर्वधात्वावृतानिलम् ॥ ८॥ प्लीहशोषावपस्मारमलक्ष्मी च प्रणाशयेत् । बलातैलमिदं श्रेष्ठं वातव्याधिविनाशनम् ॥ ९॥
खरेटी १०० पल, गिलोय २५ पल, रास्ना १२ पल, इनको दश मन पानीम पकावे जब सौ पल रहजाय तब, उतारलेवे 'फिर दही महा .. गुड . इनके काढेम. पकावे, फिर १
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षष्ठः]
भाषाटीकासहितः। (२०५) आढक तिलके तेल में पकाव, बकरीके आध आढक दूधमें काढा कर इन औषधियोंको डाले-कचूर, देवदारु, दारुहलदी इलायची, मंजीठ, अगर, चन्दन, पदमाख, त्रिफला, मोथा, माषपर्णी, रेणुका, मुलहठी, रास्ना, कटेरी, नख, सुगन्धिद्रव्य, ऋषभक, जीवक, पलाश (ढाक) रस, कस्तूरी, निसोत, जायफल, केशर, शिलाजीत, मालतीपुष्प, कायफल, नेत्रवाला, तज, कुन्द, त्वचा, कपूर, लोहबान, चीढ, लौंग, करंज, मिरच, कंकोल, कूठ दोनों मरुआ, बालछड, प्रियंगू, फावूला तगर, वच, दमनफूल, कौंचके बीज, नागकेशर, जब तेल पकनाय तब इन औषधियोंको १६ टंक डालकर फिर पकावे। इसको विधिसंयुक्त सेवन करे तो खांसी, श्वास, ज्वर, मूर्छा, छौंदै, गोला, क्षय, दुर्बलता, मस्तकशूल, सम्पूर्ण धातुओंके भीतर की वायु. प्लीहा, सूजन, मृगी, शरीरका दोष (मल ) इतने रोगोंको बलातेल नाश करता है और सम्पूर्ण प्रकारकी वायुको दूर करता है ॥ १-९॥
वातरोगे प्रसारणीतैलम् । प्रसारणीकाथपयोम्बुतक्रमस्वारनालं विपचेनु तैलम् । कल्कीकृतं विश्वघनांबुकुष्ठं मांसीशताह्वामरदारुसेव्यैः ॥ १ ॥ शैलेयरास्नागरुसारिखा च सिन्धूत्थबिल्वानलमंथचोञ्चैः । तगरं लतांभोजपुनर्नवा स्याच्छयोनाकयष्टयाभकुटंनटैश्च ॥ २॥ छिनोद्भवादाय॑भयाकरंजमेदानिशाद्वैः सफलत्रिकैश्च । एरण्डगोकंटकजीवकैश्च तत्साधितं हत्यनिलोत्थरोगान् ॥३॥
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(२०६) योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकार:सर्वांश्च दीप्तानपि पक्षघातान्वाताश्रिताध्मानहनुग्रहादीन ॥ ४ ॥ संशुष्कभनप्रबलाङ्गयष्टिं योऽसाध्यतामुल्बणमारुतेन । नीतः पुमस्तिस्य भवेदवश्यं प्रसारणातैलमिदं हिताय ॥५॥ प्रसारणीका काढा कर दूध, दही, महा, कांजी इनको मिलाकर पकावे जब तेल शेष रहजाय तब उतारकर सोंठ, मोथा, नेत्रवाला, कूल, अरणी, तज, मञ्जीठ, अगर, कमल, सांठी, अरल, मुलहठी, मनसिल, छड, सौंफ, देवदारु, शिलाजीत, रास्ना, अगर, गौरीसर, सैंधानोंन, बेल, गिलोय, दारुहलदी, हरड, कांज, अष्टवर्ग, हलदी, बहेडा, आंवला, एरंड, गोखरू, जीवक इनसे सिद्ध किया तेल संपूर्ण वायुरोगोंको दूर करता है. सब इन्द्रियोंको बल करे और पक्षाघात, पेटका अफरा, हनुग्रह, गृध्रसी, सब भुनारोग, बाहुशोष, हृदय, मस्तक, शरीरफटेको उल्वण सन्निपात, आदि संपूर्ण वायुरोगोंको दूर करता है ॥ १-५॥
साधारणगुणभूषाधईचन्दनादितै लम् । चन्दनं पद्मकं कुष्ठमुशीरं देवदारु च। नागकेशरपलात्वङ्मांसीतगरं जलम् ॥ १॥ जातीफलं घोण्टफलं कुंकुमं जातिपत्रिका । नखं कुन्दरुकस्तूरी चण्डासैलेहदं मनः ॥२॥ पतङ्गं पुष्करं मुस्ता रक्तचन्दनसारिवा। शटीकर्पूरमनिष्ठालाक्षायष्टिप्रियंगुभिः ॥३॥ शतपुष्पा वरी मूर्वा ह्यश्वगन्धा महौषधम् । पद्मकेशरश्रीबिल्वमरलागहरेणुभिः ॥ ४ ॥
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भाषाटीकासहितः। (२.७ ) स्पृकालवंगकंकोलं द्रवैरेभिर्दिकर्षकैः। दशमूलकषायस्य भागाः षष्टयायसस्तथा ॥५॥ यवकोलकुलत्थानां बलामूलस्य चैकतः। निकाथ्य भागो भागाश्च तैलस्य च चतुर्दश॥६॥ ततः पक्के विजानीयात्क्षिप्रं तदवतारयेत् । शुभे पाने विनिक्षिप्तमौषधैस्तु सुगन्धिभिः॥७॥ प्रतीपापं ततः कार्यमेषां संयोजने विधिः। प्रयोज्यं सुकुमाराणामीश्वराणां सुहात्मनाम् ॥ ८॥ स्त्रीणां स्त्रीवृन्दभर्तृणामलक्ष्मीकलिनाशनम् । सर्वकाले प्रयोगेण कांतिलावण्यपुष्टिदम् ॥९॥ जीर्णज्वरं सदाहं च शीतं च विषमज्वरम् । शोषापस्मारकुष्ठघ्नं वंध्यानां च सुतप्रदम् ॥ १० ॥ अशीतिं वातजावोगावातरक्तं विशेषतः। सूतिकाबालमास्थिहतक्षीणेषु पूजितम् ॥ ११ ॥ व्याधितानां हितार्थाय ये तु कंवार्तिपीडिताः। विशेषाद्रूक्षदेहानां विचित्राणां विशेषतः ॥ १२ ॥ विनिर्मितमिदं तैलं चात्रयेण महर्षिणा। न चास्मात्सहसा रोगाः प्रभवंत्यूर्वजत्रुजाः॥ १३॥ अस्य प्रयोगात्तैलस्य जरीन लभते नरः। चन्दनादि त्विदं तैलं लोकानां च हितप्रदम् ॥१४॥ चन्दन, पदमाख, कूठ, उशीर, देवदारु, नागकेशर, तेजपात, इलायची, तज, बालछड, तगर, नेत्रबाला, जायफल, सुपारी,
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(२०४६), योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकारः-- केशर, जावित्री, नख, (नख नामसे प्रसिद्ध सुगंधियुक्त होता है), गोंद, कस्तूरी, कोकेछ, छारछबीला, पतंग, पोहकरमूल, मोथा, रक्तचन्दन, गारीसर, कचूर, कपूर, मञ्जीठ, लाख, मुलहठी, प्रियंगु, सौंफ, शतावर, मूळ, असगन्ध, सोंठ, कमलके शर, हाऊबेर, चीढ, पित्तपापडा, गठिवन, लौंग, कंकोल इन औषधियोंको ८ टंक लेकर और दशमूल १ भाग ले लोहेकी कढाई में काढा घरे, बेर कुलथीका काढा करे. इनको पकत्र कर और खौंट की जडका काढा यथोक्त कर चौगुना तेल डाले. जब परिपक्क हो नावे तब उतार लवे और सुन्दर पात्रमें रख देवे और सुगंधवाली औषधियों को ऊपरसे डाल देवे। इसके मर्दनसे शरीर सुन्दर होवे. स्त्री पुरुष दोनों लगायें तो शरीर शोभायुक्त हो, बहुत दिनका ज्वर, दाह, शं तज्वर, विषमज्वर, मुखशोष, मृगी, कोट आदेको दूर करे, बाँझ स्त्र के पुत्र होय, ८० प्रकारके वातरोग, प्रसूतरोग, बालका मर्मरोग, वीर्यक्षीण, हतवीर्य, खाज, रूखी देह, त्वचाके रोग और त्रुके ऊपर जो रोग होवें उन सबमें यह चंदनादि तेल हितकारक है. यह आत्रेय मुनिने कहा है ॥ १-१४॥
कुष्ठदद्रुविकारे वज्रतैलम् । वज्रीक्षीररविक्षीरे द्रव्यधान्यारचित्रकम् । महिपीविड्भवं द्रावं सर्वांशतिलतैलकम् ॥ १॥ पचेत्तैलावशेषं तु गोमूत्रेऽथ चतुर्गुणम् । तैलावशेष पक्त्वा च तत्तैलं प्रस्थमात्रकम् ॥२॥ गन्धकाग्निशिलातालविडङ्गातिविषाविषम् । तितकोशातकी कुष्ठं वचा मांसी कटुत्रिकम् ॥३॥
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षष्ठः ] भाषाटीकासहितः। (२०९) पीतदारु च यष्ट्याहूं सर्जिक्षारं च जीरकम् । देवदारु च कर्षाशचूर्ण तैले विमिश्रयेत् ॥ ४ ॥ वज्रतैलमिति ख्यातमभ्यंगात्सर्वकुष्ठनुत् ॥५॥
थूहरका दूध, आकका दूध, धतूरेका रस, चीतेका रस, भैसके गोबरका रस इन सबके बराबर तिलका तेल डालकर पकावे, जब तेलमात्र रहजाय तब उतार लेवे, तेल एक प्रस्थ डाले फिर गोमूत्र चौगुना डालकर पकावे फिर चीता, गण्डक, मनसिल, हरताल, वायविडङ्ग, अतीस, तेलियामीठा, सज्जीखार, जीरा, देवदारु, इनको चार चार टंक, चूर्ण कर डाले । इस तेलके लगानेसे सम्पूर्ण कुष्ठ नाश होवें ॥ १-५॥
कुष्ठे कालानलतैलम् । विशारं पटुपञ्चकोलरजनी तालं शिला गन्धकं । सिन्दूरं रसराठरामठनृपं लोहं रसोनांजनम् । कुष्ठं तुत्यकदारुवेल्लमहिजं स्नुह्यर्कदुग्धप्लुतं । पाच्यं सर्षपतैलमष्टदधिकं कुष्टे हि कालानलम् ॥१॥ सजी, जवाखार, सुहागा, पांचों नोन, बेर, हलदी, हरताल, मनसिल, गन्धक, सिन्दूर, पारा, मैंनफल, हींग, भांगरा, सार, लहसन, रसौंत, कूठ, नीलाथोथा, दारु हलदी, वायविडंग, चिगयता, थूहर, आकका दूध इन सबको बराबर लेकर सरसोंका तेल आठ पल, गायका महा ८ पल ले तैल बना लेवे । यह तेल १८ प्रकारके कुष्ठोंका नाश करे ॥ १ ॥
सिन्दूरादितैलम् १-२ । सिन्दूरं चन्दनं मांसी विडंगं रजनीद्रयम् । प्रियंगुः पद्मकं कुष्ठं मनिष्ठा खदिरं बचा ॥१॥
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(२१०) योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकार:जात्यकत्रिवृता निम्ब करंजविषमेव च । कृष्णा छत्रकरोधं च प्रपन्नाटं च संहरेत् ॥२॥ अम्लपिष्टानि सर्वाणि योजयेत्तैलमात्रया। अभ्यंगेन प्रयुंजीत सर्वकुष्टविनाशनः ॥ ३॥ पामाविचर्चिकाकच्छूविसर्प विहितं मतम् । रक्तपित्तोत्थितान्हन्ति रोगानेवंविधान्बहून् ॥४॥ १-सिन्दूर, चन्दन, बाल छड, वायविडंग, दोनों हलदी, प्रियंगु, पदमाख, कूठ, मंजीठ, खैरसार, वच, चमेली, आकका दूध, निसोथ, नीम्बकी छाल, कंजा तेलियापीठा, पीपल, छतोना, छारछबीला, लोध, पमारके बीज इनको एकत्र कर इमली के रसमें पीस तेलमें पकावे, जब सिद्ध हो जाय तब मर्दन करे तो सम्पूर्ण कोढ दूर होवें, और पामा, विचर्चिका, दाद, फोडा तथा रक्तपित्तादि रोग दूर होवें १-४॥ सिन्दूराद्धपले पिष्टं जीरकस्य पलं तथा। कटुतैलं पचत्ताभ्यां सद्यः पामाहरं परम् । वृद्धवैद्योपदेशेन पचेत्तैलं पलाष्टकम् ॥ १॥
२-सिन्दूर ८ टंक, जीरा १६ टंक, सरसोंका तेल ८ पल ले पकावे । इस तेलको मर्दन करनेसे पामा और कुष्ठ दूर होवें ॥ १ ॥
गुंजादितैलम् । गुञ्जामूलं फलं तैलं तोयं द्विगुणितं पचेत् । तस्याभ्यङ्गेन संमर्दैगण्डमालां सुदारुणाम् ॥१॥ चिरमिटीकी जड और फल साथ लेकर तेल और दुगुने पानीमें औटावे जब तैल सिद्ध होजाय तब इसके मर्दन करनेसे कठिन गंडमाला दूर होवे ॥ १ ॥
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पठः] भाषाटीकासहितः।
भल्लातकतैलम् । भल्लातकव्यूषणमक्षचूर्ण कुष्ठं च गुंजा त्रिफला च तैलम् । क्षारांश्च पंचाथ विपच्य चैतदभ्यंजनादन्ति च कुष्ठद्रुम् ॥१॥ भिलावा, सोंठ, मिरच, पीपल, बहेडा, कूठ, चिरमिटी, त्रिफला, कडवातेल, पांचों नोन इन औषधियोंको पकाकर तेल बनाकर इसको मर्दन करनेसे कोढ तथा दाद दूर होवे ॥ १ ॥
अर्कतैलम् । अर्कपत्ररसे पक्कं हरिद्राकल्कसंयुतम् । शोधयेत्सार्षपं तैलं पामाकच्छूविचर्चिकाः ॥ १ ॥
आकके पत्तोंके रसमें हलदी पीसकर काढा करे, सरसोंका तेल डालकर पकावे, जब, तेल शेष रहे तब उतारलेवे यह तेल पामा, दाद, विचर्चिकाको दूर करता है ॥१॥
नीलकाद्यं तैलम् । नीलका केतकीकन्दं भृगराजकुरण्टकः । तथाऽर्जुनस्य पुष्पाणि बीजकाक्षसमानपि॥ १॥ कृष्णास्तिलाश्च तगरं समूलं तगरं तथा।
अयोरजः प्रियंगुश्च दाडिमत्वग्गुडूचिका ॥२॥ त्रिफला पद्मकाष्ठं च कल्कैरेभिः पृथक्पृथक् । कर्षमानं पचेत्तैलं त्रिफलाक्वाथसंयुतम् ॥३॥
गराजरसेनैव सिद्ध केशः स्थिरीभवेत् । अकालपलितं कण्डूमिन्द्रलुप्तं च नाशयेत् ॥ ४॥
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(२१२) योगचिन्तामणिः। [तैलाधिकारः
नीलवृक्ष ( पत्रज ), केतकीकी जड, भांगरा, पियावाँसा, अर्जुनवृक्षके फूल, विजैसार, बहेडा, इनकी बराबर मात्रा ले, फिर काले तिलका तेल, तगर, कमलकी जड, लोहकी चूरा, प्रियंगू, अनारकी छाल, गिलोय, त्रिफला, पद्माख, इन सबको चार चार टंक लेकर तेलमें पकाये, फिर त्रिफलेका काढा, भांगरेका रस डालकर पकावे, जब तेल रहजाय तब उतार लेवे । इसके लगानेसे बाल स्थिर होवें और जवानीमें बाल सफेद होजायँ तो काले होवें, खाज, होनेसे बाल उडजाय तो फिर आवें ॥ १-४ ॥
रोमशातने नाडीव्रणादौ च क्षारादितैलम् । शुक्तिशम्बूकशङ्खानां दीर्घवृन्तान समाक्षिकान् । दुग्धशारं समादाय खरमूत्रेण भावयेत् ॥ १॥ क्षाराष्टभागं विपचेत्तैलं सर्षपज बुधः। इदमन्तःपुरे देयं तैलमात्रेण पूजितम् ॥२॥ बिन्दुरेकापतेयत्र तत्र रोम पुनर्नहि। इदं नाडीव्रणे तैलमश्विभ्यामेव निर्मितम् ॥३॥ अशीसि कुष्ठरोगाणि पामादविचर्चिकाः । क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं सर्वकेशहरं परम् ॥ ४ ॥ सीप, घोंघा, बडा शंख ( भानाम कदु ) इनको गरम कर गधेके पेशाबमें बुझावे, आठ भाग क्षारको एक भाग सरसोंके तेलमें पकावे, जब तेल शेष रहे तब उतार लेवे । यह तेल अन्तः पुरमें देवे । एक बूंद डालनेसे रोम दूर होवें, नाडीव्रणके निमित्त यह तैल अश्विनी कुमारोंने कहा है अर्श, १८ प्रकारका कोढ, पामा, दाद आदिका नाश करे । सम्पूर्ण बालोंको दूर करता ह यह क्षारतेल श्रेष्ठ है ॥ १-४॥
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भाषाटीका सहितः ।
स्तन विकारे कासीसादितैलम् । कासीस तुरगगन्धासांबरगजपिप्पली विपक्केन । तैलेन यान्ति वृद्धि स्तनकर्णवरांगलिंगानि ॥ १ ॥ कटीतटनिकुंजेषु संस्थितो वातकुंजरः । एरण्डतैल सिंहस्य गन्धमाघ्राय गच्छति ॥ २ ॥
षष्ठः ]
नागपुरीपयतिवर श्रीहर्ष की र्ति संकलिते । वैद्यसाराद्वारे षष्ठस्तैलाधिकारोऽयम् || ६ ||
( २१३ )
कासीस, असगन्ध, लोध, गजपीपल इनको तेलमें डालकर पकावे जब तेल मात्र रहजाय तब उतारलेवे । इसके मलनेसे स्त्रियोंके स्तन बढें, योनिवृद्धि तथा लिंग वृद्धि करे । कमर में दर्द करनेवाला वातरूपी हाथी एरंडतेलरूप सिंहकी गन्ध सूंघतेही भागता है ॥ १-२ ॥
इति श्रीदत्तराम चौबे कृतयोग चिन्तामणिमाथुरी मंजूषाभाषाटीकायां तैलाधिकारः षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥
अथ मिश्राधिकारः-- सप्तमोऽध्यायः ७.
तत्रादौ विषयनिरूपणम् |
गुग्गुलः शंखद्रावो गन्धकं च शिलाजतु । स्वर्णताम्रा दिवंगादिसारमण्डूरमारणम् ॥ १ ॥ अभ्रकं तस्य सत्त्वं च पारदं तालकं तथा । नागतानं च माक्षीकं मनः शिलादिशोधनम् ॥ २ ॥
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योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
रसास्तथाऽऽसवारिष्टलेपाश्च मलमागुदम् । रक्तस्रावं च नस्यं च विरेको वमनं तथा ॥ ४ ॥ स्वेदबन्धेर णोद्दूलरोष्ट गंडूषधूपवत् । तपानकटीरोहा हिमा घामाश्च मुद्द्रकैः (१) ॥ ४ ॥ केचित्साधारणा योगाः केचित्कायचिकित्सकाः । वन्ध्यौषधं तथा कर्मविपाकं किंचिदुच्यते ॥ ५ ॥ ज्वरादिरोगसंख्या च नाडीमूत्रपरीक्षणम् । नेत्रस्यरसनाज्ञानं परीक्षा मात्रया सह ॥ ६ ॥ राजप्रशस्तिरध्याये सप्तमे परिकीर्त्तिता ॥ ७ ॥
( २१४ )
इसमें इतनी चीजें कहेंगे - योगराजगूगल आदि १ शंखद्रावादि २, गन्धकशोधन ३, शिलाजीतशोधन ४, सुवर्ण ५, तांबा ६ वंगादिमारण ७, मण्डूरमारण ८, अभ्रक, ९ अभ्रकसत्त्व १०, पारदशोधन तथा मारण ११, हरताल शोधन मारण १२, शीसा शोधन मारण १३, सोनारूपामक्खी शोधन मारण १४, मनसिल शोधन १५, रसक्रिया १६, आसव १७, अरिष्ट १८, लेप १९, मलहम २०, रुधिरस्राव २१, नस्य २२, विरेचन २३, वमन २४, स्वेदक्रिया २५, बन्धन २६, उलन २७, रोटी बांधना २८, कुल्ला करना २९, धूप देना ३०, तपान ३१, कटिरोह ३२, हिम ३३, घाम ३४ मधुरकज्वर लक्षण ३५, कुछ साधारण योग ३६, कायचिकित्सा ३७, बन्ध्या औषध३८, कर्मविपाक ३९, ज्वरादिरोगों की गिनती ४०, मूत्रपरीक्षा ४१, नेत्रज्ञान ४२, मुखज्ञान ४३, जिह्वाज्ञान ४४, मात्राकी परीक्षा ४५, ( ४१ से ४५ तक आदिमें ही कहा गया है ) राजप्रशंसा ४६, ग्रन्थकी तारीफ ४७ यह सातवें अध्यायमें कही हैं ॥ १-७ ॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२१५)
प्रथमं मुग्गुलु प्रकरणम् । तत्र वातव्याधौ योगराजगुग्गुलुः १-२ । पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। भृष्टं हिंग्वजमोदा च सर्षपा जीरकद्वयम् ॥ १ ॥ रेणुकेन्द्रयवा पाठा विडङ्गं गजपिप्पली । कटुकाऽतिविषा भाङ्गी वचा मौर्वाति भागतः॥२॥ प्रत्येकं शाणमात्राणि द्रव्याणीमानि विंशतिः। द्रव्येभ्यः सकलेभ्यश्च त्रिफला द्विगुणा भवेत् ॥३॥ एभिश्शूर्णीकृतैः सर्वैः समो देयस्तु गुग्गुलुः । घृतेन पिण्डं संकुल्य धारयेद् घृतभाजने ॥ ४॥ गुटिकां शाणमात्रां तु कृत्वा ग्राह्या यथोचिता। गुग्गुलुर्योगराजोऽयं त्रिदोषनो रसायनम् ॥५॥ मैथुनाहारपानानां त्यागो नैवात्र विद्यते । सवान् वातामयान्कुष्ठानशासि ग्रहणांगदान॥६॥ प्रमेहं वातरक्तं च नाभिशूलं भगन्दरम् । उदावते क्षयं गुल्ममपस्मारमुरोग्रहम् ॥ ७॥ मन्दाग्निं श्वासकासौ च नाशयेदरुचिं तथा। रेतोदोषहरः पुंसो रजोदोषहरः स्त्रियाः ॥ ८॥ पुंसामपत्यजनको वन्ध्यानां गर्भदस्तथा। रानादिकाथसंयुक्तो विविधं हंति मारुतम् ॥ ९॥ काकोल्यादिशृतात्पित्तं कफमारग्वधादिना ।
६
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( २१६ )
योगचिन्तामणिः ।
( मिश्राधिकार :
दावशृतेन मेहांश्च गोमूत्रेण च पाण्डुताम् ॥ १० ॥ मेदोवृद्धिं च मधुना कुष्ठं निंबभृतेन च । छिन्नाक्वाथेन वातास्रं शोफं शूलं कफामयान् ॥११॥ पाटलाक्काथसहितो विषं मृषकजं जयेत् । त्रिफलाकाथसहितो नेत्रार्ति हन्ति दारुणाम् । पुनर्नवा दिक्काथेन हन्यात्सर्वोदराणिच ॥ १२ ॥
१ - पीपल, पीपला पूल, चव्य, चीता, सोंठ, भूनी हींग, अजमोदा, सरसों, दोनों जीरे, सम्भालू, इन्द्रायण, पाढ, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी, वच, मरोडफली इन २० दवाइयों की जदी २ मात्रा एक एक टंक और इन सबसे दूना त्रिफला इन सबका चूर्ण कर सबके चराचर शुद्ध गूगल डाले और घीमें सानकर सबकी गोली बनाकर चिकने बर्तन में रख देवे, २ टंकके प्रमाण गोली सेवन करे, यह योगराजगूगल संपूर्ण वातरोगोंको तथा कोट, अर्श, संग्रहणी, प्रमेह, वातरक्त, नाभिशूल, भगंदर, उदावर्त, क्षय, गुल्म, मृगी, उरग्रह, मंदाग्नि, श्वास, खांसी, अरुचि, वीर्यगत दोष और स्त्रियोंका मदरको दूर करे, पुरुषोंके सन्तान उत्पत्ति करे, सर्व त्रिदोषोंका नाश करे, और रसायन है मैथुन, आहार, पानका कुछ परहेज नहीं है, वन्ध्या पुत्रवती होय और रास्नाके काढेके साथ लेवे तो बहुत प्रकारके वातरोग नाश होवें, कंकोलके काढेके साथ लेवे तो पित्त दूर होवे, अमलतास के काढेके साथ लेय तौ कफ नाश होवे, दारुहळदीके काढेके साथ लेने से प्रमेह दूर होय, गोमूत्र से लेय तो पांडुरोग जाय, शहदके साथ लेय तो मेदरोग दूर होय, नींवकी छाल के काढेके साथ लेय तौ १८ प्रकारका कोढ नाश होय, गिलोय के काढेके साथ लेय तौ आमवात, सूजन, शूल, कफ दूर होवे, पाढरीके क्वाथ के साथ लेने से उदरविष जाय, त्रिफलेके काढेके साथ लेनेसे नेत्रदरद जावे और सोंठ के साथ लेने से संपूर्ण उदररोग नाश होवें ॥ १-१२ ॥
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भाषाटीकासहितः ।
( ११७ )
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः । पाठाविडंगेन्द्रयवा हिंगुभांगीवचान्वितैः || १३ || सर्पपातिविषाजाजी जीवकारेणुकान्वितैः । गजकृष्णाऽजमोदा च मूर्वा कटुकमिश्रितम् ॥ १४ ॥ समभागान्वितैरे तैस्त्रिफला द्विगुणा भवेत् । त्रिफलासहितैरेतैः समभागस्तु गुग्गुलुः ॥ १५ ॥ गुग्गुलस्य समं क्षीरं क्षीरादर्द्ध च सर्पिषः । सर्पिः पोडशगोमूत्रं साधितं गुग्गुलीसह ॥ १६ ॥ त्रिफलासममण्डूरं लोहं चैव चतुर्गुणम् । मधुना परिप्लुतं चैत्र भेषजं तत्प्रकारयेत् ॥ १७ ॥ योगराज इति ख्यातो भक्षयेत्प्रातरुत्थितः । अशसि वातगुल्मं च पाण्डुरोगमरोचकम् ॥ १८॥ नाभिशूलमुद्दावर्ते प्रमेहान्वातशोणितम् । भगन्दरं क्षयं कुष्ठं हृद्रोगं ग्रहणीगदम् ॥ १९ ॥ महान्तमग्निसादं च वासं कासं तथैव च । रेतोदोषाश्च ये पुंसां योनिदोषाश्च योषिताम् ॥ २० ॥ निहंत्युदायुधान्सर्वान् दुर्वारान्नात्र संशयः । अस्मिन्न परिहारस्तु पानभोजनमैथुने ॥ २१ ॥
सप्तमः ]
२ - पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ, पाढ, वायविडंग, इंद्रजौ, भुनी हींग, भारंगी, वच, सरसों, अतीस, जावित्री दोनों जीरे, सँभालू, गजपीपल, अजमोद, मरोडफली, कुटकी इनकी समान मात्रा लेवे और सबसे दूना त्रिफला और सबके बराबर शुद्ध गूगल गूगलके
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(२१८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:बराबर गौका दूध, दूधसे आधा घी और घीसे सोलह मुणा गोमूत्र इन सबको मिलाकर पकाय शहद डाले,त्रिफलाके बराबर मंडूर उससे दोगुणा लोहसार, मंडूर-सार डालकर काममें लावे । इस योगराजगूगलको प्रातःकाल सेवन करनेसे अर्श, वायुगोला, पांडुरोग, अरुचि, नाभिशूल, उदावर्त्त, प्रमेह, वातरक्त, भगंदर, क्षय, कोढ, हृदयरोग, ग्रहणी, श्वास, और खांसीको दूर करे । अग्निका दीपन करे, वीर्यको बढावे, स्त्रियोंके योनिदोषोंको दूर करे । इसपर खाना पीना कुछभी वर्जित नहीं है ॥ १३-२१ ॥
किशोरगुग्गुलुः । त्रिफलायास्त्रयः प्रस्थाः प्रस्थैकममृता भवेत् । संक्षिप्य लोहपात्रेषु साईद्रोणांवुना पचेत् ॥ १॥ जलमर्द्धशृतं ज्ञात्वागृह्णीयास्रगालितम् । तत्र काथे क्षिपेच्छुद्धं गुग्गुलु प्रस्थसम्मितम् ॥२॥ पुनः प्रदेयं तत्पात्रे दा संचालयेन्मुहः। सान्द्रीभूतं च तज्ज्ञात्वा गुडपाकसमाकृतिः॥३॥ चूर्णीकृत्य ततस्तत्र द्रव्याणीमानि निक्षिपेत् । पथ्या द्विपलिका ज्ञेया गुडूची पलकोन्मिता ॥४॥ पडक्षं त्र्यूषणं प्रोक्तं विडंगानि पलाईकम् । कर्ष कर्ष त्रिवृदन्त्यो पीडितं स्निग्धभाजने ॥५॥ गुटिकां शाणिकां कृत्वा युंज्यादोषाद्यपेक्षया । अनुपाने भिषग् दद्यात्कोष्णं नीरं पयोऽथवा ॥६॥ मञ्जिष्ठादिशृतेनापि युक्तं युक्तिमता परम् । जयेत्सर्वाणि कुष्ठानि वातरक्तं त्रिदोषजम् ॥ ७ ॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२१९)) सर्वत्रणानि गुल्मांश्च प्रमेहपिडिकास्तथा । प्रमेहोदरमन्दामिकासश्वयथुपाण्डुताः ॥ ८॥ हन्ति सर्वामयानित्थं सुखयुक्तो रसायनः । किशोरकाभिधानोऽयं कुर्यात्कैशोरकं बलम् ॥९॥
अम्लं तीक्ष्णमजीर्ण च व्यवायं श्रममातपम् । मद्यं रोषं त्यजेत्सम्यग्गुणार्थी पुरुसेवकः ॥ १० ॥ त्रिफला ४८ पल, गिलोय,१० प्रस्थ इनको २४ सेर पानी में डालकर लोहेके पात्रमें पकाये,जब आधा पानी शेष रहे तब उतारकर कपडेमें छानलेवे, फिर गुग्गुल १ प्रस्थ डालकर औटावे, कलछीसे हिलाता जाय, जव गुडकी चासनीक समान गाढा होजाय तब उतार ठंढा कर निम्नलिखित औषधियोंको डाले-हरड २ पल, गिलोय २ पल, सोंठ, मिरच, पीपल २४ टंक, वायविडंग ८ टंक, निसोय ४ टंक, जमालगोटेकी जड २ टंक । फिर सबको मिलाकर एक एक टंकके प्रमाण गोलियां बनावे और चिकने बर्तन में रख छोडे, दोष और बलाबल देखकर वैद्य गरम पानीके साथ अनुपान देवे अथवा दूध वा मंजीठके काढेसे देवे तो सम्पूर्ण रोग, वातरक्त. त्रिदोष, सब प्रकारके व्रण, गुल्म, प्रमेह, फुन्सी गांठ, १८ प्रकारका कोढ उदर विकार, मन्दाग्नि, खाँसी, सूजन, पांड्डरोग, आमवात इन रोगोंको नाश करे और यह किशोर गुग्गुल जवानकासा बलकरे । जो गुणकी इच्छा को तो खट्टा, चरपरा, अजीर्ण, श्रम, धूप, मद्य, रोष इनको त्याग करे ॥ १-१० ॥
त्रिफलागुग्गुलुः। त्रिपलं त्रिफलाचूर्ण कृष्णाचूर्णपलोन्मितम् । गुग्गुलं पञ्चपलिकं कुट्टयेत्सर्वमेकतः ॥ १॥
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(२२०) योगचिन्तामणिः। मिश्राधिकारःततस्तु गुटिकां कृत्वा प्रयुंज्याद् वह्नयपेक्षया । भगन्दरं गुल्मशोफमर्शासि च विनाशयेत् ॥ २ ॥ त्रिफलाचूर्ण ३ पल, पीपल १ पल, गूगल ५ पल, इन सब को पीसकर गोली बनावे, यथायोग्य अग्नि बल देखकर गोली देवे. यह गूगल भगन्दर, गुल्म, सूजन और अर्शको दूर करे ॥ १ ॥ २ ॥
कांचनारगुग्गुलुः। कांचनारत्वचो ग्राह्याः पलानां दशकं बुधैः । त्रिफला षट्पला कार्या त्रिकटु स्यात्पलत्रयम् ॥१॥ पलैकं वरुणः कार्यएलात्वक् पत्रकं तथा। प्रत्येकं कर्षमा स्यात्सर्वानेकत्र चूर्णयेत् ॥२॥ यावत्सर्वमिदं चूर्ण तावन्मावस्तु गुग्गुलुः। संकुटय सर्वमेकत्र पिण्डं कृत्वा च धारयेत् ॥३॥ गुटिकाः शाणिकाः कृत्वा प्राताह्यं यथोचितम् । गण्डमालां जयंत्युग्रामपचीमबुंदं तथा॥ ४॥ ग्रन्थीन्त्रणानि गुल्मांश्च कुष्टानि च भगन्दरम् । प्रदेयश्चानुपानाथे काथो मुण्डीतिकाभवः। क्वाथः खादिरसारस्य पथ्याकाथोयवोष्णकः॥५॥
कचनारकी छाल १० पल, त्रिफला ६ पल, सोंठ, मिरच, पीपल ३ पल, बरना १ पल, इलायची, तज, तेजपात ४ टंक इन सबके बराबर गूगल डालकर गोली १ टंकके प्रमाण बनावे, प्रातःकाल बलाबल देखकर देवे तो गंडमाला, अपची, अर्बुद, गांठ, व्रण, १८ प्रकारका कोढ और भगंदरको हरे. अनुपान मुंडीके काढेके साथ तथा खैरसारके काढेके
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २२१ )
साथ देवे तथा हरके काढेके साथ देवे वा गरम पानीसे देवे तो ऊपर लिखे रोग दूर होवें ॥ १-५ ॥
गोक्षुरादिगुग्गुलुः । अष्टाविंशतिसंख्यानि पलान्यानीय गोक्षुरान् । विपचेत्षड्गुणे नीरे क्वाथो ग्राह्योऽर्द्धशेषतः ॥ १ ॥ ततः पुनः पचेत्तत्र पुरमष्टपलं क्षिपेत् । गुडपाकसमाकारं ज्ञात्वा तं तत्र निक्षिपेत् ॥ २ ॥ त्रिकटुत्रिफलामुस्तं चूर्ण तु पलसप्तकम् । तत पिण्डीकृतस्तस्य गुटिकामपि योजयेत् ॥ ३ ॥ हन्यात्प्रमेहं कृच्छ्रं च प्रदरं मूत्रघातकम् । वातास्त्रं वातरक्तं च शुक्रदोषं तथाऽश्मरीम् ॥ ४ ॥ गोखरू २८ पलको छःगुणे पानी में औटावे, जब आधा पानी रह जाय तब उतार लेवे, छानकर ८ पल गूगल डाले, जब गाढा होजाय तब उतारलेवे और ठंडा होजानेपर इन औषधियोंको डाले - सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, मोथा ७ पलका चूर्ण कर डाले, सबको मिलाकर एक टंक प्रमाण गोली बनावे. यह औषधि प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र सूत्रात्रात प्रदर, वातरक्त, वीर्यदोष और पथरी आदिको दूर करती है ॥ १-४ ॥
सिंहनाद गुग्गुलुः ।
फलत्रिकोशीर विडंगदन्तीपुनर्नवाम्भोधरवह्निविवा । रानामृताभीरुसुराह्वदार्वी सग्रंथिकैलेभकणापलांशैः ॥ १ ॥ द्रोणांभसो गुग्गुलतुल्य भागैरर्द्ध तैः सूक्ष्मपटान्तपूतैः । भूयः शृतैरंगुलि रूपो लेहः सुशीतो भुवि भाजनस्थः ॥ २ ॥
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(२२२) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:सुचूर्णितैस्त्र्यूषणजन्तुहबीछिन्नोद्भवादाय॑भयात्रिजातैः। त्रिवृत्समैरक्षमितं विचूर्ण निधाय गुप्तं यवधान्यपूते ॥३॥ मासस्थितं प्राश्य शुभेऽह्नि शुद्धः प्रयात्यरोगं रुजितो मनुष्यः । शोफोदरप्लीहरुजोविकारनाभित्रणाझेग्रहणीप्रदोषैः ॥४॥ सवातरक्तैः सकलैश्च कुष्ठैविमुच्यते पाण्डुगदैश्च घोरैः। प्रभंजनो रोगमहातरूणां विवर्द्धनो रोगबलायुषां च ॥५॥ मासाध्यमस्तीति विकारजातं ख्यातस्तु नान्ना भुवि सिंहनादः॥ ६॥ त्रिफला, खस, वायविडंग, सोंठ, मोथा, दंती, चीता, राना, गिलोय, कटसेना, देवदारु, हलदी, पीपलामूल, इलायची, गजपीपल, सोलह सेर पानी सब औषधियोंके बराबर गूगल इनको मिलाके औटावे. जब आधा पानी रहजाय तब छान लेवे. फिर मंदाग्निसे औटाकर जब गाढा होजाय तब उतारलेवे और इन औषधियोंको डाले-सोंठ, मिर्च, पीपल, वायविडंग, गिलोय, दारुहलदी, हरड, तज, तेजपात, इलायची, निसोथ इनकी समान मात्रा १४ टंक चूर्ण करडाले, फिर चिकने बासनमें भरकर रख देवे, यव तथा धानमें एक महीना राखै, फिर अच्छा दिन देखकर सेवन करे तो सूजन, उदररोग, प्लीहा, दरद, नाभीके व्रण, बवासीर, संग्रहणी, वातरक्त, संपूर्ण कोट, पांडरोग ये रोग नाश होवें । यह गूगल रोगरूपी वृक्षोंका छेदन करनेवाला है ॥ १-६ ॥
प्रमेहे मूत्रकृच्छ्रे च चन्द्रप्रभागुग्गुलुः । बिल्वं व्योषफलत्रिकं त्रिलवणं द्विक्षारचव्यानि च श्यामापिप्पलिमूलमुस्तककणामाध्वीकधा
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-सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२२३)
न्यत्वचः। षग्रंथामरदारुवारणकणाभूनिम्बदन्तीनिशापत्रैलातिविषाः प्रिचुअमितयो लोहस्य कर्षाष्टकम् ॥ १॥ त्वक्क्षीरं पलिकां परं दशजलान्यष्टौ शिलाजिन्मतो मत्स्यंडीकुडवोन्मितेति गुटिका संयोज्य कुर्याद्भिषक् । तत्रैकं प्रतिवासरं सहविषाक्षौद्रेण लिह्यादिमां तप्तं मस्तुपयोरसं मधुघृतं तावत्पिबेन्मात्रया॥२॥ अशासि प्रदरं ज्वरं सुविषमं नाडीव्रणानश्मरी कृच्छं विद्रधिमनिमांद्यमुदरं पाण्ड्वामयं कामलाम् । यक्ष्माण सभगन्दरं सपिडिकागुल्मप्रमेहारुचीरेतोदोषमुरःक्षतं कफमरुत्पित्तातिमुग्रां जयेत् ॥३॥ वृद्धंसंजनयेधुवानमसमौजस्कं बलं वर्द्धयेदेतस्यां न निषिद्धमंगमसकृन्नेच्छागमं मैथुनम् । विख्याता गुटिकेयमंचिततग चंद्रप्रभानामतश्चन्द्रानन्दकरी करोति रुचिरां चन्द्रेण तुल्यां तनुम् ॥ ४॥ बेल, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, सैंधानोंन, कालानोंन, कचनोन, सज्जीखार, जवाखार, चव्य, निसोथ, पीपलामूल, मोथा चिरायता, जमालगोटेकी जड, हलदी, तेजपात, इलायची, सोनामक्खी, धनियां, तज, अजमोद, देवदारु, गजपीपल, अतीस, नींब चार टंक, लोहसार ३२ टंक, वंशलोचन १ पल, गूगल, १६० टंक, शिलाजीत ८ पल, मिश्री खांड ६४ टंक इन सबको इकट्ठा कर १ टंक प्रमाण गोली बनाकर । घृतके संग नित्य सेवन करे । महा, दूध, शहद
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( २५४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारऊपरसे पीवे, यथा बल देख लेवे । बवासीर, प्रदर विषमज्वर, नसाके फोडे, फुन्सी, पथरी, मूत्रकृच्छ्, मन्दाग्निपेटका दर्द, पांडुरोग, कमलवायु, भगन्दर, गांठ, बीस प्रकारका प्रमेह, अरुचि, वीर्यदोष, उर: क्षत, कफ, वात, पित्त इनकी पीडाको जीते. बुड्ढेको जवान करे, जब औषधिको सेवन करे तब मैथुनको न छोडदेवे । यह गूगल सम्पूर्ण रोगोंको दूर करता है ॥ १-४ ॥
शंखद्राव । स्फटिका च यवक्षारं सोरोऽथ नवसादरम् । समभागमितैरेभिःशंखद्रावो रसो मतः ॥ १ ॥ काचकूपीद्वयं नीत्वा दत्त्वा कर्पटमृत्तिकाम् । एकस्य विवरं कृत्वा भृत्वा चान्याः सदोषधीः ॥२॥ गजकुम्भास्ययंत्रेण चुल्ल्यांच खर्परोपरि । धृत्वादत्त्वा च मन्दाग्निं तद्रसं काचभाजने ॥ ३ ॥ गृहीत्वा स्थापयेत्सम्यग्ग्रहीयं शुभे दिने । शंखौ द्रवति तन्मध्ये शंखद्रावस्ततो मतः॥४॥ कुम्भकेन प्रमुंचेत जिह्वाग्रे तालुकोपरि । दन्ताः पतन्ति लग्नेऽस्मिञ्छेषरोगस्य का कथा ॥५॥ अखिलोदररोगाणां निहन्ता गुल्मकस्य च । कालिंज प्लीहकं हन्ति हृद्रोगं ग्रहणी यकृत्॥६॥ उर्व कासं कर्फ श्वासं ह्यामवातं विनाशयेत् । कांति नीरोगतां पुष्टिं जठराग्निं विवर्धयेत् ॥ ७॥ फिटकरी, यवक्षार, शोरा, नौसादर इन सबको बराबर लेकर काचकी दो शीशी ले कपरमिट्टी कर एकमे दवा भर
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सप्तमः]
भाषाटीकासहितः। (२२५) देवे, फिर गजकुंभकर चूल्हे पर चढा मन्दाग्नि देवे, जब उसका रस दूसरी शीशीमें आजाय तब लेकर अच्छी जगह स्वखे और अच्छा दिन देखकर सेवन करे। इसमें शंख तथा कौडी डालनेसे भस्म हो जाती है इसीसे इसको शंखद्राव कहते हैं । इसकी मात्रा रुईके फोहेमें लगाकर जिह्वापर लगा देवे और जो दांतोंमें लग जायगा तो दांत गिरजावेंगे और सम्पूर्ण उदररोगोंको तथा गुल्मको नाश करै । प्लीहा, हृद्रोग, ग्रहणी, यकृत, उर्वश्वास, कफ, खांसी, आमवात इनको दूर करे, सुन्दर काया करे, पुष्टी करे, पेटकी अग्निको, बढावे ॥ १-७ ॥
गन्धक विधिः। लोहपात्रे विनिक्षिप्य घृतमग्नौ प्रतापयेत् । तप्ते घृते तत्समानं क्षिप्त्वा गन्धकजं रसम् ॥ १॥ गलितं गन्धकं ज्ञात्वा दुग्धमध्ये विनिक्षिपेत् । एवं गन्धकशुद्धिः स्यात सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ २॥ लोहेके पात्रमें घृत डालकर तडकावे, जब खूर गरम होजाय तब गन्धक पीसकर डालदेय, जब गंधक गलजाय तब धीसहित दूधमें डालदेय. यह शुद्ध गंधक सब कामम लावे ॥ १-२॥
दुग्धे घृते निन्बरसे भृङ्गराजरसेऽथवा । गन्धकं शोधयेत्प्राज्ञो दोलायन्त्रेण वाससा ॥३॥ सदुग्धभाण्डेऽपि पटस्थितोऽयं शुद्धो भवे कूर्मपुटेन गन्धः । सदुग्धभाण्डस्य मुखे सुवस्त्रं बद्धं क्षिपेद्गन्धकसूक्ष्मखण्डान् ॥ ४ ॥ विमुद्रयित्वा
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( २२६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारःसमितादिना तन्मन्दाग्निना यामयुगं पचेच्च ॥५॥ शोधितं गन्धकं यावत्तावती त्रिफला भवेत् । द्वयोस्तुल्या सिता देया कर्षाई खादयेत् सुधी॥६॥ कण्डूविचर्चिकादद्रूसिध्ममण्डलकुष्टनुत् । अम्लक्षार हिङ्गु तलमग्नितापं च वजयेत् ॥७॥ दूध, घी, नींव का रस, भांगरेका रस, प्रत्येकमें गन्धकको शोधे, एक हांडीमें गन्धक कपडेकी पोटली बनाय दोलायन्त्रमें मन्दाग्निसे पकावे, फिर दूध हांडीमें भरकर ऊपर कपडा बांधकर गन्धक रख मन्दाग्निसे देय, कूर्मपुटसे इस प्रकार गन्धक शुद्ध होवे, फिर गन्धक सूक्ष्म पीसकर, कपड़े में बांधकर सूक्ष्म वस्त्रसे मुद्रा कर चार प्रहर यन्त्रमें राखे, फिर दो प्रहर मन्दाग्नि देवे, जब शुद्ध हो जाय तब त्रिफलेका चूर्ण, गन्धक त्रिफलाकी बराबर मिश्री २ टंक मिलाकर खाय तो खाज, विचचिका, दाद, सिध्म, मण्डल और कोढ दूर होवें । परहेज खट्टा, खारी, हींग, तेल, अग्निका तापना बन्द करे ॥ ३-७ ॥
शिलाजतुशोधनप्रकारः। बीन्वारा प्रथमं शिलाजतु जले भाव्यं भवेत्रफले निकाथे दशमूलजे च तद्नु च्छिन्नोद्भवाया रसैः। वाट्यालं कथने पटोलसलिले यष्टीकषाये पुनगोमूत्रे च पयस्यथापि च गवामेषां कषाये ततः॥१॥
तीन बार पहिले शिलाजीतको त्रिफलेके काढेकी भावना देवे. फिर दशमूलके काढेकी भावना देवे. फिर गिलोयके काढेकी भावना देवे. फिर पटोलके काढेकी भावना देवे. फिर मुलहठी, गोमूत्र, दूध इनकी भावना देवे तो शुद्ध होय ॥ १ ॥
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सप्तमः ] भाषाटीकासहितः। (२२७)
शिलाजतुसत्त्वम् । शिलाजतु समानीय ग्रीष्मतप्तशिलाजतु । गोदुग्धैत्रिफलाकाथै गद्रावैश्च मर्दयेत् ।
आतपे दिनमेकैकं तत्सिद्धं शुद्धतां व्रजेत् ॥ १ ॥ शिलाजीतको गरमीके दिनोंमें गोके दूधसे, त्रिफलेके काढेसे, भांगरेके रससे मर्दन करे, फिर एक एक दिन पुट देता जाय और धूपमें सुखाता जाय तो शिलाजीत शुद्ध होवे ॥ १॥ मुख्यं शिलाजतुशिलासूक्ष्मखण्डं प्रकल्पयेत् । निक्षिप्यात्युष्णपानीये यामैकं स्थापयेत्सुधीः ॥ १॥ मर्दयित्वा ततो वारि गृह्णीयास्त्रगालितम्। स्थापयित्वा च मृत्पात्रे धारयेदातपे पुनः॥२॥ आलोडय च पुनस्तस्मादुपरिस्थं घनं नयेत् । अधः स्थितं च यच्छेषं तस्मिन्नीरं विनिक्षिपेत॥३॥ विमर्य धारयेद्वमें पूर्ववच्चैव तं नयेत् । एव पुनः पुननात्वाद्विमासाभ्या शिलाजतु ॥ ४॥ भूयात्कार्यक्षमं वह्नौ क्षिप्तं लिङ्गोपमं भवेत् । निधूमं च ततः शुद्धं सर्वकर्मसु योजयेत् ॥५॥ एलापिप्पलिसंयुक्तं माषमात्रं तु भक्षयेत् । मूत्रकृच्छं मूत्ररोधं हन्ति मेहं तथा क्षयम् ॥ ६॥ शिलाजीतके छोटे २ टुकडे कर एक प्रहर पानी में भिगोवे, फिर मलकर कपडेमें छानलेवे और मिट्टीके पात्रमें डालकर धूप में रख देवे, फिर मथे जो ऊपर मलाई आवे उसे लेताजाय जो पानी नीचे शेष
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( २२८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्रा धिकारः
रहे उसे फेंक देवे, ऐसे ही मलताजाय और धूपमें रख २ कर ऊपर की मलाई लेता जाय और नीचेको फेंकता जाय, इसी तरह दो महीने शिलाजीतको शोधन करे, और अग्निपर रक्खे तो लंबासा आकार होजाय और धुआं न देवे तो जाने शुद्ध होगया । इस शिलाजीतको सब कामों में वर्ते । इलायची और पीपल के साथ एक महीने खाय तो मूत्रकृच्छ्र मुत्रका रुकना, क्षय इनको दूर करे ॥ १--६ ॥
स्वर्णदिधातुमारणम् ।
तैले त गवां मूत्रे कांजिके च कुलत्थके । तप्ततप्तान सिंचेत द्वावे द्वावे तु सप्तधा ॥ १ ॥ सुवर्णतारताम्राणां पत्राण्यग्नौ प्रतापयेत् । प्रसिंचेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च संस्थिते ॥ २॥ गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये च त्रिधा त्रिधा । एवं स्वर्णादिलोहानां विशुद्धिः संप्रजायते || ३ || तेल, महा, गोमूत्र, कांजी, कुलथी इन प्रत्येक में धातुको तपा २ कर सात सात बार बुझावे, सोना, चांदी, तांबा इनके पत्र कर तपा तपा कर तेल, मट्टा, कांजीमें बुझावे, और गोमूत्र, कुलथीके काढेमें तीन तीन वार बुझावे इस प्रकार लोहे, सोने आदिकी शुद्धि होती है ॥ १-३ ॥
मृगांकविधिः १-३ ।
स्वर्णस्य द्विगुणं सुतमम्लेन सह मर्दयेत् । तगोलकसमं गन्धं निदध्यादधरोत्तरम् ॥ १ ॥ गोकलं च ततो रुद्वा शराव दृढसंपुटे ।
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भाषाटीका सहितः ।
( २२९ )
त्रिंशद्वनोपलैर्दद्यात्पुटेनैव चतुर्दश ॥ २ ॥ निरुत्थं जायते भस्म गंधो देयः पुनः पुनः ॥ ३ ॥
सप्तमः ]
१ - सोने से दुगुना पारा नींबू के रस में घोटे, फिर गोली बनावे और उस गोलीके बराबर ऊपर नीचे गन्धकका संपुट देवे. फिर दो शंखों में रखकर सात कपर मिट्टी और ३० आरने उपलोंकी अग्नि देवे. जब भले प्रकार निर्धूम होजावे इसी तरह चौदह पुट देय और बार २ गन्धक डाले तो निरुत्थ भस्म होवे || १-३ ॥
भूर्जवत्सूक्ष्मपत्राणि हेम्नः सूक्ष्माणि कारयेत् । तुल्यानि तानि सूतेन खल्वे क्षिप्त्वा विमर्दयेत् ॥ १ ॥ कांचनाररसेनैव ज्वाला मुख्या रसेन वा । लांगल्या वा रसैस्तावद्यावद्भवति पिष्टकम् ॥ २ ॥ तथा मचतुर्थीशं टंकणं तत्र निक्षिपेत् । पिष्टमौक्तिक चूर्ण च स्वर्णाद्विगुणितं क्षिपेत् ॥ ३॥ तेषु सर्वसमं गन्धं क्षिप्त्वा चैकत्र मर्दयेत् । तेषां कृत्वा ततो गोलं वासोभिः परिवेष्टयेत् ॥ ४ ॥ पश्चान्मृदा वेष्टयित्वा शोषयित्वा च साधयेत् । शराव संपुटस्यति तत्र मुद्रांप्रयोजयेत् ॥ ५ ॥ लवणापूरिते भांण्डे धारयेत्तं च संपुटम् । मुद्रां दत्वा शोषयित्वा बहुभिर्गोमयैः पचेत् ॥ ६ ॥ ततः शीते समाहृत्य गन्धं सुतसमं क्षिपेत् धृत्वा च पूर्ववत्खल्वे पचेद्गजपुटेन च ॥ ७ ॥ स्वांगशीतं ततो नीत्वा गुंजायुग्मं प्रयोजयेत् ।
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( २३० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
अष्टाभिर्मरिचैर्युक्ता कृष्णात्रययुता तथा ॥८॥ विलोक्य देया दोषादीनेकैका रसरक्तिका। सर्पिषा मधुना चापि देया पथ्यं च भोजयेत् ॥९॥ मृगांकोऽयं रसो हन्यात्कृशत्वं बलहीनताम् । श्लेष्माणं ग्रहणी कासं श्वासं क्षयमरोचकम् ॥१०॥
अग्निं च कुरुते दीप्तं कफवातानियच्छति ॥ ११॥ २-सुवर्णका भोजपत्रके समान सूक्ष्म पत्र करे और उतनाही पारा डाल कर खरल करे, फिर कचनारका रस, ज्वालामुखीका रस, कलियारीका रस इसमें जबतक पिष्टके समान न हो तबतक मर्दन करे, फिर सोनेसे चौथाई सुहागा डाले, फिर सोनेसे दुगुना मोतियोंका चूर्ण और सबके बराबर गन्धक डालकर मर्दन करे.फिर सबका गोला बनावे फिर उसपर कपडा लपेट पीछे कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, जब सूखजाय तब दो शंखोंमें रखकर कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, फिर एक हांडीमें ऊपर नीचे नोनभर बीचमें रख संपुट कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, फिर खूब आरने उपलों की आंच देवे, जब ठंढा होजाय तब निकालकर गन्धक, पाग बराबर डालकर पूर्वोक्त रीतिसे मर्दन करे, फिर गजपुटकी आंच देवे. जब खूब ठंढा होजाय तब निकाल लेवे । आठ मिरचके योगमें तीन पीपल सयुंक्त दो रत्तीके प्रमाण देवे । जैसा दोष देखे वैसा दे, वा एक रत्ती दे, बलावल देखकर घी, शहद पथ्यमें देवे. यह मृगांकरस कृशता, बलहानि, श्लेष्म, ग्रहणी, खांसी, श्वास, क्षय और अरुचिको दूर करे, अग्निको दीप्त करे और कफ वातका नाश करे ॥ १-११॥
शुद्धं सूतं स्वर्णपत्रं जम्बीरे मर्दयेत्समम् । तयोद्विगुणिता मुक्तास्त्रिभिस्तुल्यं तु गन्धकम् ॥१॥
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सप्तमः] , भाषाटीकासहितः। (२३१ ) टंकणं गन्धकादधैं सर्व जम्बीरजैवैः। मध यामेन तद्गोलं वस्त्रे बद्धा विपाचयेत् ॥२॥ दोलायन्त्रेण पाताले यामादुद्धृत्य शोषयेत् । ततो मृन्मयभाण्डांतलवणं चांगुलीद्वयम् ॥ ३॥ क्षिप्त्वा तद्धिक्षिपेत्पूर्वगोलक वस्त्रवेष्टितम् ।। लवणैः पूरयेद्भाण्डं मुद्रयित्वा दिनं पचेत् ॥ ४ ॥ चुल्ल्यां क्रमाग्रिना सिद्धो मृगांकोऽयं महारसः । राजरोगनिवृत्त्यर्थ देयो गुंजामितो घृते । दशभिर्मरिचैः सार्दै पिप्पल्या मधुनाऽपि वा ॥५॥
३-शुद्ध पारा और सुवर्णपत्र बराबर ले जम्बीरीके रसमें मर्दन करे, इनमें दूने मोती लेवे और सबके बराबर गन्धक, और गंधकसे आधा सुगाहा ले इन सबको जम्बीरीके रसमें एक प्रहर घोटकर गोला बनावे फिर ऊपर कपडा लपेटकर दोलायंत्र या पातालयंत्रमें पकावे, कांजीमें पकावे, फिर एक प्रहरके बाद सुखावे, फिर मिट्टीके वर्तनमें दो अंगुल नोन नीचे भरकर कपर मिट्टी कर एक दिन चूल्हेपर कम (मन्द, मध्य, तीक्ष्ण ) से आग्नि देवे तो यह मृगांकमहारस सिद्ध होवे । यह यक्ष्मा रोगका नाश करे, एक रत्ती घीके साथ देय अथवा दस मिर्च अथवा पीपल शहदके साथ देवे ॥ १-५॥
राजमृगांकरस। भस्मसूतत्रयो भागा भागैकं भस्म हेमकम् । मृतताम्रस्य भागैकं शिलागन्धकतालकम् ॥ १॥ प्रतिभागद्वयं शुद्धमेकीकृत्य विचूर्णयेत् । वराटं पूरयेत्तेन च्छागीक्षीरेण टंकणम् ॥ २॥
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(२३२) योगचिन्तामणिः। मिश्राधिकार:क्षिप्त्वा तेन मुखं रुद्धा मृद्भाण्डे तन्निरोधयेत् ।। शुष्कं गजपुटे पक्त्वा चूर्णयेत्स्वांगशीतलम् ॥३॥ रसो राजमृगांकोऽयं चतुगुजः क्षयापहः। दशपिप्पलिकाक्षौद्रे एकोनत्रिंशददूषणैः ॥४॥ पारेकी भस्म तीन भाग, सोनेका भस्म एक भाग, तांबेकी भस्म एक भाग, शिलाजीत, गन्धक, शुद्ध हरिताल ये सब दो दो भाग सबका मिला चूर्ण कर कौडियोंमें भरदेवे, फिर बकरीके दूध और सुहागेसे इनका मुह बन्द कर देवे फिर मिट्टीके पात्रमें भरकर कपरमिट्टी कर सुखा लेवे, फिर गजपुटकी आंच देवे, जब शीतल होजाय तब निकाले. यह राजमृगांकरस चार रत्ती बलाबल देखकर देवे तो क्षयरोगका नाश करे । पीपल १०, शहद, मिरच २९ के साथ ले । यह क्षयादि रोगोंको नाश करे ॥ १-४ ॥
___ ताम्रमारणविधिः। सूक्ष्माणि ताम्रपत्राणि कृत्वा संस्वेदयेद् बुधः । वासरत्रयमम्लेन ततः खल्वे विनिक्षिपेत् ॥ १॥ पादांशं मूतकं दत्त्वा याममम्लेन मर्दयेत् । तत उद्धृत्य पत्राणि लेपयेद्विगुणेन च ।। २ ।। गन्धकेनाम्लपिष्टेन तस्य कुर्याच्च गोलकम् ।। धृत्वा तद्गोलकं भाण्डे शरावेण च रोधयेत् ॥३॥ वालुकाभिः प्रपूर्याथ विभूतिलवणांबुभिः। दत्त्वा भाण्डं मुखे मुद्रां ततश्शुल्ल्यां विपाचयेत्॥४॥ क्रमवृद्धाग्निना सम्यग्यावद्यामचतुष्टयम् । स्वांगशीतलमुद्धृत्य मृततानं शुभं भवेत् ॥५॥
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- सप्तमः ]
भाषाटीका सहितः ।
( २३३)
तांबे के सूक्ष्म पत्र कर शोध लेवे, फिर छाछ में तीन दिन रख मर्दन करें, फिर चौथाई पारा डालकर इमलीके रसमें एक प्रहर मर्दन करे, फिर तांबे के पत्र निकालकर और दुगुनी गन्धक नींबूके रसमें घोटकर तांबेके पत्रोंपर लेप कर गोली बनावे. फिर दो सकोरोंको बीचमें गोली रखदेवे, कपरोटीकर एक हांडीमें बालू वा नोन भर बीचमें सरवा रखदेवे, हांडी को कपर मिट्टी कर चूल्हे पर चढावे, अनि क्रमसे देवे, पहले मन्दाग्नि पीछे मध्यम तत्पश्चात तीक्ष्णाग्नि देवे, चार प्रहर भले प्रकार अग्नि देवे जब ठंढा होजाय तब निकाल लेवे, यह तांबेश्वर रस हैं ॥ १-५ ॥ तस्य गुणा दोषाश्च ।
ऊर्ध्वश्वासं कफं कासं हृद्रोगं पांडुतां क्षयम् । जयेत्प्रमेहकुष्ठाशः शोफशूलानिमन्दताः ॥ १ ॥ अशुद्धं वातसुत्केदं मूर्च्छादोषं करोति च । अपक्कं कांतिधातुघ्नं भ्रमशूलोष्मकुष्ठनुत् ॥ २ ॥ न विषं विषमित्याहुस्तानं तु विषमुच्यते । एको दोषो विषे ताम्रे चाष्टौ दोषाः प्रकीर्तिताः ॥ ३ ॥ भ्रमो मूर्च्छा विदाहश्च स्वेदः केदस्तथा तमः । अरुचिश्वित्तसंतापस्ताम्रे दोषः प्रकीर्तिताः ॥ ४॥ ऊर्ध्वश्वास, कफ, खांसी, हृद्रोग, पांडुरोग, क्षय, प्रमेह, कोढ, अर्श, सूजन, शूल और मन्दाग्निको दूर करे और जो अशुद्ध रहजाय तो बात, उत्क्लेद, मूर्च्छा दोष करे, अपक्क हो तो धातुका नाश, भ्रम, शूल, गरमी, को करे । विषहीको विष मत जानो, ताम्र, विषहै। विषमें एक दोष है, ताम्बेमें आठ दोष हैं-भ्रम, मूर्च्छा, दाह, स्वेद क्लेद तम अरुचि पित्त संताप ये तांबेमें दोष हैं ॥ १-४ ॥
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वङ्गमारणविधिः । मृत्पात्रे द्राविते वङ्गे चिञ्श्चाश्वत्थत्वचो रसः ।
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( २३४ )
योग चिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा चातुर्थीशमयोदय प्रचालयेत् ॥ १॥ ततो द्वियाममात्रेण वङ्गभस्म प्रजायते । प्रमेहदाहपाण्डुनं पुष्टिकान्तिबलप्रदम् ॥ २ ॥
मिट्टीके ठीकरेमें रांगेको गलावे इमली, पीपलकी छालका चूर्णं चौथाई डालकर लोहेकी कलछी से चलावे तो दो प्रहरमें रांगकी भस्म हो जावेगी । प्रमेह, दाह पांडुरोगको दूर करे और पुष्टि कान्ति बली देनेवाली है ॥ १ ॥ २ ॥ सीकमारणविधिः । अश्वस्थचिचात्वग्भस्म भस्मतुल्या मनःशिला । जम्बीरैरारनालैश्च पिष्ट्वा रुवा पुटे पचेत् ॥ १ ॥ स्वांगशीतं पुनः पिट्वा विंशत्यंशशिलात्मकैः । नागः सिंदूरवर्णाभो म्रियते सर्वकार्य कृत् ॥ २ ॥
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पीपल की छाल इमलीकी छाल इनकी भस्म करलेवे आर शीशेकी बराबर मनशिल लेय जंभीरीके रसमें और कांजीके रसमें पीसकर शीशेके पत्रके ऊपर लेप करे और अग्नि देय जब ठंढा होजाय तब निकाल लेय, फिर वीस भाग मनसिल संपुट कर फूंके, जब सिन्दूरकासा रंग होजाय तब यह रस सब कार्यो को करे ॥ १ ॥ २ ॥
सारमारणविधिः ।
शुद्धं लोहभवं चूर्ण पातालगरुडीरसैः । गोमूत्र त्रिफलाक्काथैर्मर्दयित्वाऽग्निना पुटेत् ॥ १ ॥ अर्कदुग्धैः पुनः पिट्वा पुटेद्यामचतुष्टयम् । पुनः कन्यारसैः पिट्वा पचेद्द्वजपुटेन च ॥ २ ॥
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २३५)
पुटत्रयं कुमार्याश्व अर्कदुग्धे पुटत्रयम् । एवं सप्तपुटैर्मृत्युं लोहं चूर्णमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥ यथा यथा प्रदीयन्ते पुटास्तु बहवों यतः । तथा तथा विवर्द्धन्ते गुणाश्चास्य सहस्रशः ॥ ४ ॥ तावछोहं पुढे देयं यावच्चूर्णे कृते जले | निस्तरंगो लघुस्तोये समुत्तरति हंसवत् ॥ ५ ॥ तावद्विचूर्णयेदेतद्यावत्कज्जलसन्निभम् । करोति निहितं नेत्रे नैव पीडां मनागपि ॥ ६॥ आयुः प्रदाता बलवीर्यकर्ता रोगप्रहर्त्ता मदनस्य कर्त्ता । अयःसमानं नहि किंचिदन्यद्रसायनं श्रेष्ठतमं हितं च७ शुद्ध लोहके चूर्णको छिरहटीके रसमें मर्दन करे और गोमूत्र, त्रिफला काढेमें मर्दन करे, अग्निदेय, फिर आक के दूधमें चार प्रहर भावना देवे फिर ग्वारपाठेके रस में पीसकर गजपुटमें फूंके, फिर ग्वारपाठे में तीन भावना देय और अर्कदूधमें ऐसे सात पुट देने से लोहा मरता है, और ज्यों २ जियादह पुट देय त्यों २ गुण बढते जाते हैं, वैद्य near पुट देता रहे कि, जबतक जलपर तैरे नहीं और जबतक काजलके समान न होय तबतक चूर्ण करता रहे तथा नेत्रमें लगानेपर थोडी भी पीडा न करे । यह आयुका देनेवाला है वीर्य बढावे, रोगोंका नाश करे, कामोद्दीपन करे, लोहके समान दूसरा रसायन नहीं है, श्रेष्ठ और हितकारक है ॥ १-७ ॥
मण्डूरकरणम् ।
अक्षांगारे धमेत्किहूं लोहजं तद्भवां जलैः । सिंचयेत्तप्ततप्तं च सप्तवारं पुनः पुनः ॥ १ ॥
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( २३६) योगचिन्तामणिः। मिश्राधिकारः
चूर्णयित्वा ततः क्वाथर्द्विगुणैत्रिफला भवेत् । पचेत्ततश्चार्कदुग्धैर्मण्डूरं जायते परम् ॥ २ ॥ त्रिफला त्रिकटुर्मुस्ताग्निविडंगैगुंडे गुटी। तक्रेण पीतमथवा मासं वा सप्तसप्तकैः॥३॥ उर्वश्वासे पाण्डुरोगे शोफ आमानिले कृमौ । मृद्भक्षितविकारेषु वारिरोगे च शस्यते ॥४॥
दैरसार वा बहेडेकी लकडीके कोयलोंमें लोहेके कीटको तपावे और गोमूत्रमें सात बार बुझावे पीछे दूना त्रिफला लेकर दोनोंको आकके दूधमें भावना देकर संपुट में फूकदेवे तो मंडूर उत्तम बने, फिर त्रिफला, सोंठ, मिरच, पीपल, मोथा, चित्रक, वायविडंग इनको मिलाकर गुडमें गोली बनावे, प्रातःकाल छाछके साथ गोली एक महीना या४९ दिनमें खाय तो ऊर्ध्वश्वास, पांडुरोग, सूजन आमवात, कृमिरोग, मिट्टीविकार और पानी लगना ये सब रोग दूर होवें ॥ १-४ ॥
अभ्रकमारणविधिः। कृष्णाभ्रकं धमेद्रगौ ततो दुग्धेन सिंचयेत् । भित्रपत्रं ततःकृत्वा तण्डुलीयाम्लयोवैः ॥ १॥ भावयेदष्टयामं तदेवं शुध्यति चाभ्रकम् ।। बवा धान्ययुतं वस्त्रे मर्दयेत्कांजिकैः सहः ॥२॥ आदायाम्लगतं शुद्धं शुद्धधान्याभ्रकं भवेत् । अकक्षी रैर्दिनं पिष्ट्वा चक्राकारं च कारयेत् ॥३॥ वेष्टयेदपत्रांश्च सम्यग्गजपुटे पचेत् । पुनर्मो पुनः पाच्यं सप्तवारं प्रयत्नतः ॥ ४॥
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २३७ )
ततो वटजटाक्वाथैस्तद्वद्देयं पुत्रयम् । म्रियते नात्र संदेहः सर्वकार्येषु योजयेत् । निश्चन्द्रमभ्रकं तत्स्याज्जरामृत्युरुजापहम् ॥ ५॥
काले अभ्रकको अग्निमें तपावे, फिर दूधसे सींचें, फिर जुदे २ पत्र et Halls पानी में और इमलीके रसमें आठ प्रहरकी भावना देवे तो अभ्रक शुद्ध होवे, फिर धान्ययुक्त कपडे में बांधकर कांजी में मर्दन करे तो शुद्ध धान्याभ्रक होवे, फिर आक के दूधमें एक दिन घोटकर टिकिया बनावे और आक के पत्ते ऊपर नीचे लपेटकर गजपुटकी आंच देवे फिर घोटकर आंच देवे, ऐसे ७ बार आंच देवे, फिर वटकी जडके काढे में तीन पुट देवे, इस प्रकार निस्संदेह अभ्रक मरे फिर सब कार्यों में वर्त्ते, जो अच्छा अभ्रक बने तो बुढापे व मृत्युको दूर करे ॥ १-५ ॥ अमृतीकरणम् ।
क्षिप्त्वाऽभ्रेण घृतं तुल्यं लोहपात्रेऽतिपाचयेत् । घृते जीर्णे तदभ्रं तु सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ १ ॥
अभ्रक के बराबर वृत डाले और पात्रमें पकावे, जब सब घृत सुखजाय तब उतारकर काममें लावे ॥ १ ॥
कृष्णाभ्रकं समादाय द्विप्रस्थं चूर्णयेदुधः । गोमूत्रालोडितं भाण्डे क्षिप्त्वा वह्नौ दिनं पचेत् ॥ १ ॥ अर्कदुग्धे पुनः पिष्ट्वा कृत्वा टिकडिकाः शुभाः । वेष्टयित्वाऽर्कपत्रैश्च खर्परस्थाः पुनः पचेत् ॥ २ ॥ एवमेवार्कदुग्धस्य दद्यात्सप्तपुटानि च । पुटत्रयं कुमार्याश्च त्रिफलायाः पुत्रयम् || ३ ||
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(२३८). योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारःगुडस्य च पुटं दत्त्वा पुनः पंचामृतैः पचेत् । ततो वटजटाक्वाथैः सम्यग् देयं पुटत्रयम् ॥४॥ एवं निश्चन्द्रतां याति सर्वरोगेषु योजयेत् । मृतमभ्रं हरेन्मृत्युं जरापलितनाशनम् ॥ ५॥ योजितं चानुपानेन सर्वरोगहरं स्मृतम् ॥ ६॥ काला भोडल दो प्रस्थ चूर्ण कर आकके पत्ते लपेटकर ठीकरीमें आंच देवे, ऐसेही आकके दूधकी सात पुट देवे और पकावे, फिर तीन पुट कुमारीके रसकी देवे, फिर तीन पुट त्रिफलेके रसकी देय, फिर गुडकी एक पुट देय, फिर पञ्चामृतकी एक पुट देय, फिर बडकी जटाके काढेकी तीन पुट देय, इस प्रकार उज्वल करे, फिर सब रोगोंमें बर्ते । यह मरा हुआ अभ्रक मृतकको जिलावे, बुढापेको दूर करे अनुपानसे देय तो सहसा रोग न होवे, सब रोग नाश होवें ॥ १-६ ॥
सर्वधातुसत्त्वविधिः १-२ । लाक्षा मीनं पयश्छागं टंकणं मृगशृङ्गकम् । पिण्याकं सर्षपाशिग्रुगुजोर्णा गुडसैन्धवम् ॥ १ ॥ यवस्तिक्ता घृतं क्षौद्रं यथालाभं विचूर्णयेत् । एभिर्विमिश्रिताः सर्वे धातवो गाढवह्निना ॥२॥ मूषाध्माताः प्रजायन्ते मुक्तसत्त्वान संशयः॥३॥ १-लाख, मछली, बकरीका दूध, सुहागा, हिरनका सींग, सरसोंकी खल, सहजना, चिरमिटी, उन, गुड, सेंधानोन, यव, कुटकी, घृत, शहद जिस प्रकार हो सके उस प्रकार चूर्ण करे और सब धातुमात्रका सत्व निकाले इन चीजोंका मूषा संपुटकर सत्व निकाले ॥१.३॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२३९)
गुडं च गुग्गुलं चैव लाक्षापामाण्डटंकणम् । उष्णं मीनं समादाय समभागानि कारयेत् ॥ द्रावयेत्सर्वसत्त्वानि पाषाणादपि मृत्तिका ॥१॥ २-लाख, पमार, सुहागा, उन, मछली इनको समान ले इन सबको मिलाकर मूसमें सत्व निकाले, इससे पत्थरसे भी मिट्टीका सत्त्व निकलता है ॥ १॥
मृतधातुसंजीवनी। घृतमधुटंकणगुनागुडेन पिण्डीकृतो मृतो धातुः। स पुनर्जीवति यदा तदा निरुत्थो मृतो धातुः ॥१॥ घी, शहद, सुहागा, चिरमिटी, गुड इनमें धातुको मिलाय गोली बनावे तो मरी हुई धातु जीवे और फिर उस धातुको मारै तो वह निरुत्थ अर्थात् पूर्ण मृत हो जाता है ॥ १ ॥
पाराशोधनविधिः । कुमारी चित्रकं व्याधिमूलकांकुल्यवारिणा । पृथक्पृथक्चतुर्यामं मर्दयेत्सर्वकर्मसु ॥१॥ अंकोलेन विषं हन्ति पावकं हन्ति चित्रकैः । राजवृक्षैमलं हन्ति कुमारीसप्तकंचुकैः॥२॥ पारेको घीग्वारपाठेके रसमें मर्दन करै, चार प्रहर चीता. अमलतास, कूटमें मर्दन करे, चार प्रहर अंकोलकी जडके रसमें मर्दन करे, फिर सब काममें लावे । अंकोलके मर्दनसे पारेका विष नाश होवे, चीतेसे मर्दन करनेसे दाह दूर होवे, अमलतासके मर्दनसे मल दूर होवे, कुमारीरसके मदन स सात काँचली पारेकी दूर होवें ॥ १-२॥
हरगौरीरसः। रसभागो भवेदेको द्विगुणो गंधको मतः।
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( २४० )
योगचिन्तामणिः । [ मिश्राधिकारः
खल्वे कज्जलसंकाशं काचकुप्यां क्षिपेत्सुधीः ॥ १ ॥ खपरे वालुकापूर्ण स्थापयेत्तत्र कूपिकाम् । इष्टकां च मुखे दत्त्वा कृत्वा कर्पटमृत्तिकाम् ॥ २ ॥ सप्तविंशतियामैश्च त्रिभिः कूपैर्विपाचयेत् । पश्चादू समायाति रसं ज्ञात्वा विचक्षणः ॥ ३ ॥ हंसपादसमं वर्ण निष्पन्नं रसमादिशेत् । गुंजायुग्मं प्रदातव्यं सितादुग्धानुपानयुक् || ४ || प्रमेहश्वासकासेषु षंढे क्षीणेऽल्पवीर्यके । हरगौरीरसो देयः सर्वरोगप्रशान्तये ॥ ५ ॥ ये क्षीणागतवीर्याश्च कथं सीदन्ति ते नराः । ईश्वरेण त्विदं प्रोक्तं हरगौरीरसायनम् || ६ || एक भाग पारा, दो भाग गन्धक खरल में घोटकर कजली करे, फिर शीशी में डालकर इकट्ठी करे, फिर वालुकायंत्र में रख ऊपर नीचे बालू भरे, बीचमें शीशी रक्खे और पकी ईंटसे मुख बन्द करे और विधिपूर्वक सात कपरोटी कर सत्ताईस प्रहर तीन तीन शीशियों में पकावे, फिर जब ऊपर उड़कर आजाय तब जानो रस बन गया, सिंगरफकासा रंग निष्पन्न रस जानो । दो रत्ती पानमें ले और मिश्री मिलाकर ऊपर से दूध पीवे. यह हरगौरीरस - प्रमेह, श्वास, खांसी, नपुंसकता, क्षीणता, वीर्यक्षय इन सब रोगोंका नाश करता है जिन मनुष्योंका वीर्य क्षीण है वे क्यों दुःख पाते हैं । ईश्वरने उनके लियेही हरगौरिस कहा है ॥ १-६ ॥
रससिंदूरम् ।
सूतकं च समादाय द्विगुणं गन्धकं क्षिपेत् । ततश्च कज्जलीं कृत्वा काचशीश्यां तु धारयेत् ॥ ६ ॥
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सप्तमः ]
माषाटीकासहितः ।
( २४१ )
मृन्मयां मुद्रितां दत्वा नन्दसंख्या प्रमाणतः । पृथग्भाण्डं तु संस्थाप्य वालुकार्द्धप्रमाणतः ॥ ७ ॥ मध्ये च शीशिकां धृत्वा मुखे मुद्रां च कारयेत् । द्वात्रिंशद्याममग्रिश्च स्वांगशीतेऽवतारयेत् ॥ ८ ॥ रसासिंदूरनामेदं भास्करेण विनिर्मितम् । aagri सदा ग्राह्यं नागवलीदलैः सह ॥ ९ ॥
पारेसे दूनी गन्धक डालकर कजली करे, फिर काचकी शीशी में भर मुख बन्द कर कपर मिट्टी ना बार कर एक पात्र में आधा भाग बालू भर बीचमें शीशी रख फिर ऊपर बालू भर मुख बन्द करे. सात कप मिट्टी कर बत्तीस प्रहरकी आंच देवे. जब ठण्ढा होजाय तब उतार लेवे | यह रससिन्दूर भास्करजीने कहा है. मात्रा दो रत्ती नित्य पानके साथ सेवन करे ॥ ६-९ ॥
मदनमुद्रा १-२ |
नागेन्द्र सिक्थकमयोमलसर्जिकाभिर्लाक्षा च चुंबकमधूफल भूर्जपत्रम् | संकुट्यमानमतसीफलतैलमिश्र श्रीपारदस्य मरणे मदनाख्यमुद्रा ॥ १ ॥
१- सन्दूर, मोम, लोह, कीट, सज्जी, लाख, चुम्बक पत्थर, महुआ फल, भोजपत्र इनको कूटकर अलसी तेलमें मिलावे. यह पारा मारने के लिये मदनमुद्रा कही है ॥ १ ॥
उदुम्बरार्कवट दुग्धपलं पलं च लाक्षापलं पलचतुष्टय भूर्जपत्रम् । संकुट्य सर्वमत सीफलतैलमिश्रं श्रीपारदस्य मरणे मदनाख्यमुद्रा ॥ २ ॥
१६
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( २४२ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
२-- गूलरका दूध, आकका दूध, वटका दूध एक एक पल ल, लाख १ पल और भोजपत्र चार पल ले इन सबको कूटकर अलसी के तेलमें मिलावे. यह भी पारा मारनेके लिये मदनमुद्रा है ॥ २ ॥
वज्रमुद्रा ।
खडी ख दिरभस्मां लवणश्वाथवा ध्रुवम् । कारीषभस्म लवणां द्वाभ्यां मुद्रा प्रकीर्तिता ॥ १ ॥
खडिया, खैरसार, राख, पानी, नोन अथवा केवल राख, नोन, पानी से यह दोनों मिलाकर वज्रमुद्रा बनती है ॥ १ ॥
पारदगुणाः ।
देहस्य शुद्धिं कुरुते च पारदो नानागदानां हरणे समर्थः । करोति पुष्टि हरते च मृत्युं कल्पायुपं चापि करोति नूनम् ॥ १ ॥ पारदः सकलरोगपारदो राजयक्ष्मशरणैकपारदः । सर्व रोगमपि हन्ति तत्क्षणान्नागवलिरसराजभक्षणात् ॥ २ मूच्छितो हरते व्याधिं बद्धः खेचरतां ब्रजेत् । सर्वसिद्धिकरो नीलो निश्चलो मुक्तिदायकः ॥ ३ ॥ तारे गुणाशीति तदर्द्धकांते वंगे चतुःषष्टि खौ तदर्द्धम् । हेम्नः शतैकं गगने सहस्रं वत्रे गुणाः कोटिरनंतसुते ॥ ४ ॥ संस्कारहीनं खलु सुतराजं यः सेवते तस्य करोति बाधी । देहस्य नाशं विदधाति नूनं कुष्ठान् समग्रान् जनयेन्नराणाम् ॥ ५ ॥ विकारो यदि जायेत पारदान्मलसंयुतात् | गंधकं
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२४३) सेवयेद्धीमान्पाचितं विधिपूर्वकम् ॥ ६॥ गंधकं माषयुग्मं च नागवल्लीदलैः सह । खादेत् पारद: संग्रस्तो दोषशान्तिस्तदा भवेत् ॥ ७ ॥ पारा देहकी शुद्धि करता है और नानाप्रकारके रोगोंके नाश करनेको समर्थ है. पुष्टिकारक, मृत्युका हर्ता, निश्चय कल्पकी उमर करता है, पारा संपूर्ण रोगोंको पार करता है. शोष, यक्ष्मा, दाह इनको मेघके समान शांत करता है, पारा नागरपानके साथ सेवन करनेसे संपूर्ण रोगोंको दूर करता है. मूञ्छित पारा रोगका नाश करता है, पारेकी गोली मुखमें रखनेसे आकाशमार्गमें होकर चले, नीला पारा सर्व सिद्ध करता, निश्चल मुक्तिका देनेवाला है, चांदीमें ८० गुण, कांतिसारमें ४० गुण, वंगमें ६४ गुण, ताँबेमें ३२ गुण, सुवर्णमें १००, अभ्रको १००० गुण, हीरामें १००००००० गुण, और पारेमें अनगिनत गुण जानो, पर इन सबकी भस्ममें गुण है। और संस्कारहीन पारा खाय तो अवगुण करता है, देहका नाश, कोढको करे । पारा खानेसे जो विकार होवें तो दो महीने पानमें शुद्ध गंधकका सेवन करे तो पारा खानेके सर्व रोग शांत होवें ॥ १-७ ॥
पारदविकारशान्तिः।
द्राक्षाकूष्मांडखण्डा च तुलसी शतपुष्पिका । लवङ्गतजनागं च गन्धकेन समांशकः ॥३॥ कर्षमात्रपयोभुक्तं सर्व सर्व पृथक् पृथक् । सर्वयोगान्तरासाध्यसूतदोषविकारनुत् ॥२॥ नागवल्लीरसं प्रस्थंगराजरसं समम् । तुलसीरसप्रस्थं च छागीदुग्धं समांशकम् ॥३॥
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(२४४) योगचिन्तामणि। [मिश्राधिकार:
मर्दयेत्सर्वगात्रेषु यामयुग्मं दिनत्रये । नानं शीतलनीरेण सूतदोषप्रसान्तये ॥ ४॥ मुनका, पेठा, खांड, तुलसी, सोफ, लौंग, तज, नागकेशर, गंधक इनकी समान मात्रा ले इन सबको गंधक संयुक्त चार टंक खाय, उपरसे दूध और घी पीवे, एक एक कर्ष जुदी २ औषधि लेवे, यह सब रोगोंको शांत करे और पारेके विकारोंको दूर करता है. पान
और भांगरेका रस एक एक प्रस्थ लेवे, तुलसीपत्रका रस एक प्रस्थ चकरीका दूध एक प्रस्थ इनको २ प्रहर शरीरमें मर्दन करे और ठंडे पानीसे स्नान करे तो पारेका दोष दूर होय ॥ १-४॥
भस्मसूतम्।
शुद्धं मूतं समं गन्धं वटक्षीरविमर्दयेत् । पाचयेन्मृत्तिकापात्रे वटकाष्ठैर्विचालयेत् ॥ १ ॥ लवमिना दिनं पाच्यं भस्म सूतं भवेध्रुवम् । द्विगुनं नागपत्रेषु पुष्टमनेश्च वृद्धिकृत् ॥२॥
पारा ४ टंक, गंधक ४ टंक, बडके दूधमें मर्दन करे और मिट्टीके पात्रमें पकाये, बडकी लकडीसे हिलाता जाय, एक दिन मन्दाग्नि देय तो पारा भस्म हो जायगा, मात्रा एक रत्ती पानमें देवे तो पुष्टि करै, अग्नि दीपन और क्षुधाको बढावे ॥ १.२ ॥
हरितालशुद्धिः । तालकं कणशः कृत्वा तच्चूर्ण कांजिकेक्षिपेत् । दोलायंत्रेण यामैकं ततः कूष्मांडवैः ॥१॥ तिल तैलं पचेद्यामं यामं च त्रिफलाजलैः ।
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २४५)
एवं यंत्रे चतुर्यामं पाच्यं शुद्धयति तालकम् ॥ २ ॥ शुद्धं स्यात्तालकं छिन्नं कूष्माण्डसलिलेततः । चूर्णोदके पृथक्कैले भस्मीभूतं न दोषकृत् ॥ ३ ॥ तालकं पोट्टली बद्धा मृद्भाण्डे कांजिके क्षिपेत् । दोलायंत्रेण यामैकं ततः कूष्माण्डजैद्रवैः ॥ ४ ॥ तिलतैले पचेद्यामं यामं च त्रिफलाजलैः ॥ ५ ॥
हरितालके टुकडे कर कांजीमें डाल एक प्रहर दोलायन्त्र में पकावे फिर पेठेके रस में एक प्रहर पकावे, तिलके तेल और त्रिफलेके काढ़े में एक एक प्रहर पकावे, ऐसे चार प्रहर आँच देवे तो हरिताल शुद्ध होवे | उस शुद्ध हरितालको पेठेके रसमें पकावे, फिर तेल में तथा एक प्रहर त्रिफलेके रसमें पकाय शुद्ध करलेवे तो निर्दोष होय ॥ १-५ ॥
तालं विचूर्णयेत्सूक्ष्मं मद्ये नागार्जुनीद्रवैः । सहदेव्या बलायाश्च मयेदिवसद्वयम् ॥ ६ ॥ तत्तालं रोटकं कृत्वा च्छायायां च विशोषयेत् । इंडिकायंत्र मध्यस्थं पुक्षभस्म तलोपरि ॥ ७ ॥ पाचयं वालुक यंत्रेण भिदितं चण्डवह्निना । स्वांगशीतं समुद्धृत्य सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ ८ ॥
हरितालको नागार्जन के रसमें ३ दिन और सहदेवी कंधईके रसम २ दिन मर्दन करे फिर हरितालकी टिकिया कर छाया में सुखावे, फिर बालुकायन्त्र में ढाक की राख भर बीच में टिकिया रख पकावे, अतितीक्ष्ण अग्नि देय, जब ठंढी होजाय तब निकाल सम्पूर्ण काममें लावे ॥ ६-८ ॥
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(२४६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
रसकर्पूरविधिः। पारदः स्फटिका चैव हीराकासीसमेव च । सैन्धवं समभागे ते विंशांशं नवसादरम् ॥ १ ॥ खल्वे विमर्य सर्वाणि कुमारीरसभावना । क्रमवृद्धाग्निना पक्को रसः कर्पूरसंज्ञकः ॥ २॥ पीसी फिटकरी, हीराकसीस, नोन प्रत्येक एक एक सेर, बीसवां हिस्सा नवसादर इनको खरल कर कुमारीरसमें क्रमसे अग्नि देवे, पहिले मन्दाग्नि, फिर मध्यमाग्निं, फिर तीक्ष्णाग्नि दे तो · रसकपूर बनै ॥ १-२॥
सूतं संशोध्य चक्रामं कृत्वा लिप्त्वा च हिंगुना। द्विस्थालीसम्पुटे धृत्वा पूरयेल्लवणेन च ॥३॥ अधःस्थाल्यां ततो मुद्रां प्रदद्याद् दृढतां बुधैः । विशोष्याग्नि विधायाधो निषिचेदबुनोपरि ॥४॥ ततस्तु कुर्यात्तीवाग्निं तदधः प्रहरत्रयम् । एवं निपातयेदूर्ध्वं रसो दोषविवर्जितः ॥५॥ अथो पिठरीमध्ये लग्नो ग्राह्यो रसोत्तमः॥६॥ पारेको शोधकर निर्मल करे, फिर हांडीमें हाँगका लेप करे, दूसरी हांडीका सम्पुट कर नोनसे भर दे और हांडीमें दृढ मुद्रा देवे, जब सूख जाय तब चूल्हे पर चढावे, क्रमसे आग्ने देवे और तीन प्रहर तीक्ष्ण भग्नि देवे और पानीसे भीगा कपडा रक्खे, थोडा २ पानी डालता जाय, जब शीतल होवे तब निकाले जो ऊंचा चढजाय वो निर्दोष मानो, ऊपरकी हांडीमें हो उसे उत्तम नानो । ३-६ ॥
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सप्तमः] भाषांटाकासहितः। (२४७)
शुद्धरसस्य मुखकरणम् । अर्कसीहुंडधत्तूरलांगलीकरवीरकाः। गुनाहिफेना चेत्येताः सप्तोपविषजातयः॥१॥ एतैर्विमर्दितः स्तश्छिन्नपक्षः प्रजायते । मुखं च जायते तस्य धातूंश्च ग्रसते द्रुतम् ॥ २ ॥
आक, थूहर, धतूरा, करिहारी रूखडी (तथा शाकविशेष ) कनेर, चिरमिटी, अफीम यह सात उपविषकी जाति हैं । इन करके पारेको मर्दन करे तो छिन्नपक्ष होजाय और पारेके मुख होय ( बुभुक्षित ) सम्पूर्ण धातुओंका शीघ्र ग्रस जाय ॥ १ ॥ २ ॥
अथवा कटुकः क्षारो राजी लवणपञ्चकम् । रसोना नवसारश्च शिग्रुश्चैकत्र चूर्णयेत् ।।३॥ समांशः पारदोदेतैर्जम्बीरेण द्रवेण वा। निम्बुतोये कान्निकै सोष्णखल्वे विमर्दयेत् ॥४॥
अहोरात्रत्रयेण स्याद्रसे सुरुचिरं मुखम् ।। ५॥ सोंठ, मिरच, पीपल सज्जी, जवाखार, राई, पांचों नोंन, लहसन, नौसादर सहँ जना इनका चूर्ण कर तीन दिन अर्थात् २४ प्रहर मर्दन करनेसे पाराके मुख होता है । इसमें सन्देह नहीं ॥ ३-५॥
पारदमारणविधिः।। मृत्पिण्डे प्रक्षिपेन्त्रीरं तन्मध्ये च शरावकम् । महत्कुण्डं पिधानाभं तन्मध्ये मेखलायुतम् ॥१॥ लिखेच्चमेखलामध्ये स्वर्णेनात्र रसं क्षिपेत् । रसस्योपरि गन्धस्य रजो दद्यात्समांशकम् ॥२॥ दत्त्वोपरि शरावं च भस्ममुद्रां प्रदापयेत् ।
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(२४८) योगचिन्तामणिः। [मित्राधिकार:तस्योपरि पुटं दद्याच्चतुर्भिर्गोमयोपलैः ॥३॥ एवं पुनः पुनर्गन्धं षड्गुणं जास्येद्बुधः । गन्धे जीर्णे भवेत्सूतं तीक्ष्णानिः सर्वकर्मकृत् ॥ ४॥ धूमसाररसं तारो गन्धकं नवमादरम् । यामैकं मर्दयेदम्लैर्भागं कृत्वा समं समम् ॥५॥ काचकुप्यां विनिक्षिप्य तां च मृदस्त्रमुद्रया। विलिप्य परितो वक्रे मुद्रां दत्त्वा च शोषयेत् ॥६॥ अधः सच्छिद्रपिठरीमध्ये कूपी निवेशयेत् । पिठरी वालुकापूरै त्वा आकूपिकागलम् ॥ ७ ॥ निवेश्य चुल्ल्यां तद्धः कुर्याद्वहिं शनैः शनैः। तस्मादप्यधिकं किञ्चित्पावकं वालयेक्रमात् ॥८॥ एवं द्वादशभिर्यामैम्रियते मतकोत्तमः । स्फोटयेत्स्वांगशीतं त मूर्खां गन्धकं त्यजेत् ॥९॥
अधःस्थं मृत मूतं च सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ १० ॥ मिटीके बरतन में पानी भर बीच सम्वा रक्वे, उसके ऊपर एक बडा ढक्कन ढके, उनके चारों तरफ गइहा करै, उस गइढेमं सोनेके वरतनसे रस डालता जाय, उस रसके ऊपर गन्धक पीसकर समान मात्रा डाले, ऊपर एक सम्वा रक्वे, फिर भस्मदा देो, तितके ऊपर पुट देकर उपलकी आँच देवे, इमी प्रकार छः बार गन्धकको बुद्धिमान् वैद्य जल वै । जैसे २ गन्धक जले वैसे २ पाग तीक्ष्णाग्नि हो कार्य करनेवाला हो जाता है. जैसे धूमसार, पारा, फिटकरी, गन्धक, नौसादरको एक प्रहर खटाईमें मर्दन करे और
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सप्तमः
भाषाटीका सहितः
(२४९)
सब औषधि बराबर लेवे . फिर कांच की शीशीमें भरकर एक शीशी उसके सम्पुटमें देवे, फिर वालुकायन्त्रमें शीशीके गलेतक बालू भरदेवे और हांडी के मुखमें कपर मिट्टी कर चूल्हेपर रख क्रमसे अग्नि देवे, ऐसे बारह प्रहर आँच देवे तो पाग उत्तम मरे जब ठंढा होजाय तब फोडकर ऊपरकी गन्धकछोड देवे, नीचेके पाराको काममें लावे ॥ १-१०॥ हिंगुद्ध से पारा काढने की विधि |
निम्बूरसैर्निम्बपत्ररसैर्वा याममात्रकम् । पिट्वा दरदमूर्ध्व च पातयेत्सूतमुक्तवत् ॥ ततः शुद्धं रसं तस्मान्नीत्वा कार्येषु योजयेत् ॥ १ ॥ नींबू के रस तथा नीमके पत्तोंके रसम हिंगलको एक प्रहर खरल करे फिर डमरूयन्त्रमें चढावे, उससे उड़कर पारा ऊपर जा लगे उसे शुद्ध जाने और उसको सब काममें लावे ॥ १ ॥
हरतालशुद्धिः ।
पलाशभस्म मृद्भाण्डे क्षिप्त्वोपरि च तालकम् । तालोपरि पुनर्भस्म दत्त्वा स्थालीं विमुद्येत् ॥ १ ॥ चुल्ल्यां पचेच्चतुर्यामं पश्चात्तत्सिद्धतां व्रजेत् । गाढे तथाऽयसि न्यस्तं निर्धूमं च तदाशुभम् ॥ २॥ खण्डेन रक्तिकामात्रं खादेत्कुष्ट निवृत्तये । पथ्यं मकुष्ठचणका लवणस्नेहवर्जिताः ॥ ३ ॥
ढाकी राखको हांडी में भरकर बीचमें हरताल रक्खे, फिर मुद्रा चढाय चूल्हे पर रखकर चार प्रहर अनि देवे, जब मृत हो जाय तब इस प्रकार परीक्षा करे कि, लोहेको गरम कर उसमें डाले जो धुआं न देवे तो जाने शुद्ध होगई । इसको खांडमें एक रत्ती देवे तो कोट दूर होवे | पथ्य- मोठ, नोन, चना, तेल घृत न देवे इनको छोडकर और पथ्य देवे ॥ १-३ ॥
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( २५० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः-- पलमेकं शुद्धतालं कुमारीरसमर्दितम् । शरावसम्पुटे क्षिप्त्वा यामान्दादश तत्पचेत् ॥ ४॥ शुद्ध हरताल १ पल ले कुमारीरसमें मर्दन करे और दो शरावोंमें सम्पुट कर १२ प्रहरकी आँच देवे ॥ ४ ॥
हरितालं कर्षमात्र मर्दितं कन्यकाद्रवैः। सतेलं चायसे पात्रे क्षिप्त्वा मन्दाग्निना पचेत् ॥५॥ एक कर्म हरताल कुमारीरसमें मर्दन कर लोहेके पात्रमें तेल डालकर मन्दाग्नि देवे ॥५॥
नागतांबाविधिः। मयूरपिच्छानादाय ज्वालयेदाज्यसपैः। गुडगुग्गुलमीनोर्णा टंकणं सर्जिका मधु ॥१॥ गुञा च पिप्पली लाक्षाघृतंचैकत्र कारयेत् । धमेत्तदन्धमूषायां नागतानं प्रजायते ॥ २॥ मोरपख ४ सहस्रोंके चन्दा निकाले और मिट्टीक बड़े बर्तनमें डालकर जलावे, फिर दो टंक गुड, सरसा, गूगल, छोटी मच्छी, ऊन, सुहागा, सज्जी, शहद, चिरमिठी, पापल, लाख ये सब बराबर लेकर एक हाथ नीचा गड्ढा खोदे एक ओरमें मोरपंखकी राख रक्खे और ऊपर दवाई डालता जाय और नीचेसे धोकता जाय, जब सब डालचुके और ठंडा होजाय, तब छोटे २ कण बीन लेवे और गलालेवे सो नागतांबा होवे ॥ १-२॥
सुवर्णमाक्षिकशोधनम् । माक्षिकं स्वेदयेत्पूर्व कुलत्थक्वाथयोगतः । अथवा नरमूत्रेण दोलायन्त्रे विशुद्धयति ॥ ॥
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सप्तम: ]
माषाटीकासहितः ।
( २५१ )
माक्षिकस्य या भागा भागेकं सैन्धवस्य च । मातुलुंगद्रवैश्वाथ जम्बीरोत्थद्रवैः पचेत् ॥ २ ॥ क्षालयेल्लोहजे पात्रे यावत्पात्रं सलोहितम् । भवेत्ततः सुसिद्धः स्यात्स्वर्णमाक्षिकमृच्छति ॥ ३ ॥ कुलत्थस्य कषायेण घृततैलेन वा पचेत् । तक्रेणऽवाजमूत्रेण म्रियते स्वर्णमाक्षिकम् ॥ ४ ॥
सोनामक्खीको पहले शहद में फिर कुलथीके काटेमें फिर मनुव्यके मूत्रमें घोटकर दोलायंत्र में शुद्ध करे | फिर शहद तीन भाग, सेंधानोंन एक भाग ले बिजौरा तथा जंभीरीके इसमें पावे । उसको लोहेके पात्रमें डालकर जब लाल हो जाय तबas हिलावे तो सोनामक्खी शुद्ध होय । कुलथीके काढे अथवा घृत तेलमें पकावे या मट्ठामें पकावे वा बकरीके मूत्रमें पकावे तौ सोनामक्खी मरे ॥ १-४ ॥
रूपमाक्षिकशोधनम् ।
कर्कोटीमेष शृंग्युत्थैद्रवैर्जबीरजैर्दिनम् । भावयेदातपे तीव्रे विमला शुद्धयति ध्रुवम् ॥ १ ॥
रूपामाखी ककोडा, मेढासगीका रस, जंभीरीका रस इनमें एक दिन भावना देकर फिर धूपमें सुखावे तो रूपामाखी शुद्ध होवे ॥ १ ॥ मनःशिलाशोधनम् ।
पत्र्यहमजामूत्रे दोलायन्त्रे मनःशिलाम् । भावयेत्सप्तधा पित्तैरजायाः शुद्धिमृच्छति ॥ १ ॥
मनशिलको बकरी मूत्रविष दोलायंत्र में तीन दिन पकावे, फिर
बकरीके पित्तेकी सात भावना देवे तो शुद्ध होवे ॥ १ ॥
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योगचिन्तामणिः ।
नीलांजनशोधनम् ।
नीलांजनं चूर्णयित्वा जंम्बीरद्रवभावितम् । दिनैकमात पे शुद्धं सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ १ ॥ एवं गैरिककासीसं टंकणानि वराटिका । शंखत्रुटी च कङ्गुष्ठं शुद्धिमायान्ति निश्चितम् ॥ २ ॥
२५२ )
[ मिश्राधिकारः
सुरमाको पीसकर जंबीरीके रसकी एक दिन भावना दे, फिर धूपमें सुखावे तो शुद्ध होवे तब सब काम में वर्ते । इसी प्रकार गेरू, कसीस, सुहागा, कौडी, शंख, फिटकरी, खपरियादि शुद्ध होते हैं॥ १-२
अथ रसप्रकरणम् । लोकनाथरसः ।
भागौ दग्धकपर्दकस्य च तथा शंखस्य भागद्वयं भागौ गंधक तयोर्मिलितयोः पिष्ट्वा मरीचादपि । भागानां त्रितयं नियोज्य सकलं निम्बूरसैवर्णितं पीतस्तक्रमनु ग्रहण्यपहरः श्री लोकनाथोरसः ॥ १ ॥
कौडीकी भस्म दो भाग, शंख, दो भाग, गन्धक एक भाग, पारा एक भाग इनको पीसकर तीन टंक मिरच डाल सबको मिलावे फिर नींबू के रस में गोली बना और छाछके साथ लेवे तो यह श्रीलोकनाथ रस संग्रहणी रोगको दूर करता है ॥ १ ॥
शुद्धो बुभुक्षितः सूतो भागद्वयमितो भवेत् । तथा गंधक भागौ द्वौ कुर्यात्कज्जलिकां तयोः ॥ २ ॥ मूताच्चतुर्गुणेष्वेव कपर्देषु विनिक्षिपेत् । भागैकं टंकणं दत्त्वा गोक्षीरेण विमर्दयेत ॥ ३ ॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः । (२५३
तथा शंखस्य खण्डानां भागानष्टौ प्रकल्पयेत् । क्षिपेत् सर्व पुटश्चान्तश्चूर्ण लिप्तशरावयोः॥४॥ गर्ते हस्तोन्मिते धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च । स्वांगशीतं समुद्धृत्य पिष्वा तत्सर्व मेकतः॥५॥ षड्गुंजासमितं चूर्णमेकोनत्रिंशदूषणैः । घृतेन वातजे दद्यान्नवनीतेन पित्तजे॥६॥ क्षौद्रेण श्लेष्मजे दद्यादतीसारक्षये तथा। अरुचौ ग्रहणीरोगे कासमंदानले तथा ॥७॥ कासश्वासेषु गुल्मेषु लोकनाथो रसो हितः । तस्योपरि घृतानं च मुंजीत कवलत्रयम् ॥८॥ मंचे क्षणैकमुक्तानं शयीतानुपधानके । रसाच्च जायते तापस्तदा शर्करया युतम् । गुडूच्या वाथ गृह्णीयाद्वंशलोचनयाथवा ॥९॥
शुद्ध और भूखा पारा दो भाग, गंधक दो टंक इनकी कजली कर पारेसे चौगुनी कौडी डाले, सुहागा एक टंक डालकर गौके दूध खरल करै फिर शंखकी भस्म एक टंक डालकर फिर सबको सकोरेमें रख कपरमिट्टी कर एक हाथ गड्ढे तथा गजपुटमें फूंक देवे. जब ठंढा हो जाय तब निकाल लेवे फिर पीसकर काममें लावे । छः रत्ती रस २९ काली मिरचोंके साथ, वायुवालेको घृतमें देवे और पित्तवालेको माखनमें, कफवालेको शहदमें देवे । अतीसार और क्षयमें शहदके साथ लेवे, अरुचि, संग्रहणी, खांसी, मन्दाग्नि, श्वास, गुल्ममें लोकनाथरस फायदा करता है और तीन ग्रासों के साथ वृत लेवे और खाटपर सीधा
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(२५४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:तकिया लगाकर क्षणमात्र लेटे । रससे गरमी मालूम हो तो मिश्री संयुक्त लेवे अथवा गिलोय वा वंशलोचनमें लेवे तो अरुचि, संग्रहणी आदि दूर होवें ॥ २-९ ॥
कफकुंजररसः १-२ । रसगन्धः सीपिमासं स्नुह्यकै च पयःपलम् । पलं पलं पञ्चलूणमेकीकृत्य तु चूर्णयेत् ॥ १ ॥
आलोडय चार्कदुग्धेन पूरयेच्छंखमध्यतः । पिप्पली विषकर्वीर चूर्ण कृत्वा प्रलेपयेत् ॥ २ ॥ प्रज्वालयेयाममात्रं सूक्ष्मं चूर्ण तु कारयेत् । कर्पूरनागपत्रैश्च देया मात्राऽद्रगुजया ॥ ३ ॥ श्वासं कासं च हृद्रोगं कर्फ पञ्चविधं तथा । वज्रवद्धन्ति रोगांश्च रसोऽयं कफकुंजरः ॥ ४॥
१-पारा १६ टंक, गंधक १६ टंक, सीपी १६ टंक, थूहरका दूध १ पल, आकका दूध १ पल, पाचों नोन इनको एकत्र कर आकके दूधमें सान शंखमें भरै । पीपल, तेलिया मीठा, कनेर इनको भी शंखमें भर देवे और कारोटी कर एक प्रहर आदि देवे जब ठंढा होजाय तब सबका चूर्ण कर कपूर पानके संग आधी रत्ती दे तो श्वास, खांसी, हृदयरोग, पाँच प्रकारके कफ वज्रके समान कफकुंजर रस रोगरूपी वृक्षोंको जडसे उखाडे ॥ १-४॥
नागं पारदसंयुतं समरिचं सद्वत्सनाभं शुभं देवालीरसभावना मुनिमिता क—रकाकल्लयोः। देयं वल्लमितं महौषधरसैः सन्त्रागवल्लीदलैः श्लेष्मावातविकारजाठरपरे स्यात्सन्निपाते ज्वरे ॥ १॥
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २५५ )
२ - शीशा, पारा विधिपूर्वक मिलावै । विधि - शीशेको गलाकर चूने के पानाम तीन चार डाले, पारेको सात बार कपडे में छानलेवे फिर ईंट के कुक्कुआसे एक प्रहर खरल करे फिर शीशेको गलाकर पारेमें डाल देवे, मिरच ४ टंक, तेलिया मीठा एक टंक बन्दाल ( डोडी ) की ७, भांगरेका रस कचूरकारस अकरकराका रस, सोंठका रस, पानका रस इनकी सात २ भावना देवे। यह रस श्लेष्मविकार, वायुविकार, पेटके रोग और सन्निपातज्वरादिकों को भी नाश करे ॥ १ ॥ श्वास कुठारो रसः ।
रसं गन्धं विषं चैव टंकणं च मनः शिला । एतानि टंकमात्राणि मरिचं टंककाष्टकम् ॥ १ ॥ एकैकं मरिचं दत्त्वा खल्वे सूक्ष्मं विमर्दयेत् । त्रिकटुं टंकषट्कं च दद्यात्पश्वाद्विमर्दयेत् ॥ २ ॥ रसः श्वास कुठारोयं पूर्ण खण्डेन बुद्धिमान । श्वासेऽतिदुस्तरे दद्याद् गुञ्जामात्रं प्रयत्नतः ॥ ३ ॥
पारा, गन्धक, तेलिया मीठा, सुहागा, मनशिल इन सबको एक एक टंक लेवे | मिरच ८ टंक ले एक एक मिरच डालता जाय और खरल करे सोंठ, मिरच, पीपल ६ टंक डालकर महीन पीसे । इस श्वासकुठार नाम रसको बुद्धिमान पुरानी खांडके साथ देवें । बडे कठिन श्वासमें एक रत्ती मात्रा यत्न से देवे ॥ १३ ॥
आनन्दभैरवरसः ।
हिंगुलं वत्सनागं च मरिचं टंकणं कणा । जंबीरस्य रसं दत्त्वा मर्द्य यामचतुष्टयम् ॥ १ ॥ श्वासे कासे सन्निपाते ग्रहण्यां शूलमेहयोः । आस्मारानिलच्छद रसश्वानन्दभैरवः ॥ २ ॥
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(२५६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः- हिंगुल, शुद्ध तेलिया मीठा, मिरच, सुहागा, पीपल इनको जम्बीरीके रसकी चार प्रहरकी भावना देवे । यह रस खांसी श्वास, सनिपात, संग्रहणी, शूल, प्रमेह, मृगी, वायु, छर्दि इतने रोगोंको दूर करता है। यह आनन्दभैरव रस है ॥ १॥२॥
कालारिरसः १-२ । त्रिशाणं पारदं चैव गंधकं शाणपंचकम् । त्रिशाणं वत्सनागं च पिप्पली दशशाणिका ॥१॥ लवंगं च चतुःशाणं त्रिशाणं कनकाह्वयम् । टंकणं वह्निशाणं च पंच जातीफलं क्षिपेत् ॥२॥ मरिचं पञ्चशाणं स्यादकल्लं च त्रिशाणकम् । करीराईकनिम्बूकैर्मदयेच्च दिनत्रयम् ॥३॥ कालारिरसनामाऽयं वातव्याधिविनाशनः। मर्दने भक्षणे नस्ये द्विगुंजं संन्निपातजित् ॥ ४॥
१-पारा ३ टंक, गन्धक ५ टंक, तेलिया मीठा ३ टंक, पीपल १. टंक, लौंग ४ टंक, धतूरा ३ टंक, सुहागा फूला ३ टंक, जायफल ५ टंक, मिरच ५ टंक, अकरकरा ३ टंक, करील, अदरक इनको ले नींबू के रसमें तीन दिन मर्दन करै यह कालारि नाम रस मर्दन और भक्षण करै, तथा नास देवे तो वातरोगोंको दूर करै, दो रत्ती प्रमाण खाय तो सन्निपातको जीते ॥ १-४ ॥
शुद्धं सूतं मृतं तानं गन्धकं नागरं विषम् । जातीफलं लवङ्गानि कनकं मरिचैः सह ॥५॥ रसाच द्विगुणं ग्राह्यं टंकणं भृष्टमेव च । पिप्पली करहाटश्चसधिगृह्य कोविदैः॥६॥
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सतमः ] भाषाटीकासहितः। (२५७) कर्षमात्राणि सर्वाणि रसाद्या मरिचातकाः। पिष्टा सूक्ष्ममिदं योज्यं नस्यभक्षणयोदयोः ॥७॥ भावना निम्बुकावल्लीहिमाईकरसैस्तथा । वारत्रयंसदा देयाः कालारिरससिद्धये ॥ ८॥ सर्वे वाताः शिरोवातो मेहः प्रस्वेद एव च । । मूतिकानां च ये रोगाः सर्वे नश्यन्ति वेगतः॥ ९॥ रसः कालारिसंज्ञोऽयं प्रतीतो बहुषु श्रुतः । शिरोग्रहःकर्णनादो मन्यास्तम्भो हनग्रहः॥ १० ॥ धनुर्वातादयोप्येवं वाह्याः पामादयस्तथा ॥ ११॥ २-शुद्ध पारा, फूंका तांबा, गन्धक, सोंठ, तेलिया मीठा, जायफल, लौंग, धतूरेके बीज, मिर्च, पारेसे दूना सुहागा भूना, पीपल, अकरकरा ये सब औषधि आधे ले. सब औषधि मरिच पर्यंत चार २ टंक लेवे इनको पीसकर नस्य और खानेमें वर्ते नींबू के रसकी ३ भावना, ब्राह्मीके रसकी ३ भावना, अदरखके रसकी ३ भावना कनेरके रसकी ३ भावना देय तो कालारिरस सिद्ध हो जाता है । यह संपूर्ण वात, शिरका वात, प्रमेह, पसीना, प्रसूतिकादि रोगोंको दूर करे, यह कालारिरस बहुत जगह अजमाया हुआ है. शिरोरोग, उरग्रह, मन्यास्तम्भ, जोडोंका जकडना, धनुर्वात बाहरकी खाज आदि रोगोंका नाश करता है ॥५-११ ॥
चैतन्ये--सूचीभरणो रसः। विष पलमितं सूतं शाणकं चूर्णयेद्वयम् । तच्चूर्ण संम्पुटे धृत्वा काचलिप्तशरावयोः ॥ १॥ मृदं दत्वा च संशोध्य ततश्थुल्ल्यां निवेशयेत् ।
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( २५८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मित्राधिकारः
वह्नि शनैः शनैः कुर्यात्प्रहरद्वयसंख्यया ॥ २ ॥ ततश्वोद्वाय्य तन्मुद्रामुपरिस्थशरात्रकात् । संलग्नो यो भवेत्सूतस्तद् गृह्णीयाच्छनैः शनैः ॥ ३ ॥ वायुस्पर्शो यथा न स्यात्तथा कुप्यां निवेशयेत् । यावत्सूच्या मुखे लग्नं कुप्यां निर्याति भेषजम् ॥४॥ तावन्मात्री रसो देयो मूच्छिते सन्निपातके । क्षुरेण प्रस्थिते मूर्ध्नि तत्राङ्गुल्या च घर्षयेत् ॥ ५ ॥ रक्तभेषज संपर्कान्मूर्च्छितोऽपि हि जीवति । यदा तापो भवेत्तस्य मधुरं तत्र दीयते ॥ ३ ॥
शुद्ध तेलिया मीठा १ पल, पारा १ पल इन दोनों को पीसकर कांच की शीशी में भर सकोरोंमें रख कपर मिट्टी मुद्रा कर धूपमें सुखावे फिर चूल्हे पर चटाकर दो महरकी मन्दाग्नि देवे। जब टंढा हो जाय तच संपुट खोले, जो काचके पात्रमें पारा लगा होवे उसे खुरच लेवे, हौले २ दूसरे पात्र में भरकर वर्तावमें लावे. पवन न लगने देवे, फिर शीशी में भरकर रख देय और जितना सुईके मुखमें लगे उतना काढे, सुईके अग्रभागकी वरावर मात्रा लेवे । मूर्च्छित सन्निपातवाले के मस्तकपर चक्कूसे थोडा चीरकर उँगलीसे मर्दन करे तो अचेत मूर्छित जीवे ऐसेही सांपका काटा भी मरावस्था से जीवे और जिसे ताप होय त उसे मीठा खवावे ॥ १-६ ॥
आमवात उदयभास्कररसः ।
पारदं गन्धकं दिव्यं व्योपं त्रिलवणानि च । सितकन्दा च वृद्धैला रसकर्पूरमेव च ॥ १ ॥ समानि सर्वतुल्यं च शुद्धं जैपालकं क्षिपेत् ।
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २५९ )
बीजपूररसैर्भाव्यो रसो ह्युदयभास्करः ॥ २ ॥ पारदं गन्धकं व्योषं द्वौ क्षारौ लवणानि च । टंकणं चेति तुल्यानि जैपालं सकलैः समम् ॥ ३ ॥ भावना बीजपूरस्य सूक्ष्मं चूर्ण विचूर्णयेत् । संग्राह्यं रक्तिकायुग्मं वातं सामं विनाशयेत् ॥ ४ ॥ गोदुग्धं केवलं पथ्यं देयमुष्ट्रीपयोऽथवा । अन्नं च वर्जयेत्तावदामशोफं निवारयेत् ॥ ५ ॥
पारा, शुद्ध गंधक, सोंठ, मिरच, पीपल, तीनों नोन, मिश्री, बडी इलायची के दाने, शुद्ध रसकपूर इन सबको बराबर ले शुद्ध जमाल गोमें मिलाकर बिजौरे के उसकी तीन भावना देवे । यह उदयभास्कर रस है । पारा, गंधक, सोंठ, मिरच, पीपल, रुज्जीखार, जवाखार, तीनों नोन ये सब बराबर लेवे, इन सबके बराबर सुहागा, जमालगोटा बराबर ले और चूर्ण कर बिजोरके रसकी भावना देवे | इसको दो रत्ती प्रमाण मात्रा देव तो संपूर्ण बातको नाश करे । और केवल गोदुग्ध या उँटनीका दूध पथ्यमें देवे। जबतक आमकी सूजन म जाय तबतक अन्न न खाय ॥ १-५ ॥
वातकासे भूतांकुशो रसः ।
+
शुद्धसूतस्य भागैकं द्विभागं शुद्धगन्धकम् । भागत्रयं मृतं ताम्रं मरिचं दशभागकम् ॥ १ ॥ मृताभ्रकं चतुर्भागं भागमेकं विषं क्षिपेत् । भूताङ्कुशस्य भागैकं सर्वमग्लेन मर्दयेत् ॥ २ ॥ यामं भूतांकुशो नाम माषैकं वातकासजित् । अनुपानं लिहेत्क्षौद्रं विभीतकफलत्वचा ॥ ३ ॥
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(२६० )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
शुद्ध पारा १ टंक, शुद्ध गन्धक १ टंक, तामेश्वर ३ टंक, मिर्च १० टंक, अभ्रक ४ टंक, तेलिया मीठा १ टंक सब इकट्ठी कर इमलीके रस में एक प्रहर मर्दन करें, इस भूतांकुश रसको एक मासा ले शहद और बहेडेकी राखके साथ चाटने से वायुरोग और खांसी दूर हो जाता है ॥ १-३ ॥
amand
तालकेश्वरः ॥
तालं ताप्यं शिला सूतं शुद्धं सैंधवटंकणम् । समांशं चूर्णयेत् खल्वे सुताद्विगुणगन्धकम् ॥ १ ॥ गन्धतुल्यं मृतं ताम्र जम्बीर्या दिनपंचकम् । मर्द्य स्वद्भिः पुढे पाच्यं भूधरोदरसंपुटे || २ || पुटेपुटे द्रवैर्म सर्वमेकत्र पट्पलम् । द्विपलं मारितं ताम्रं लोहभस्म चतुःपलम् ॥ ३॥ जम्बीराम्लेन तत्सर्वं दिनं मद्ये पुटे लघु । त्रिंशदंशं विषं चास्य क्षिप्त्वा चूर्ण विमर्दयेत् ||४|| महिष्याज्येन संमिश्रं कर्षार्ध भक्षयेत्सदा । मध्वाज्यैवकुचीचूर्ण कर्षमात्रं लिहेनु । सर्वकुष्टान्निहन्याशु महातालेश्वरो रसः ॥ ५ ॥
हरताल, सोनामक्खी, मनसिल, पारा शुद्ध, शिलाजीत, शोधा सुहागा इन सबको बराबर लेकर चूर्ण कर पारेसे दूना गंधक, गंधकके बराबर तामेश्वर लेकर जंबीरीके रसमें पांच दिन मर्दन करे | ऐसे ६ पुट देवे और जमीन में गाड देवे। दो पुटों में जंबीरीका रस देता जाय सबका प्रमाण छः पल एकत्र कर दो पल तामेश्वर और लोहभस्म ४ पल इनको जंबीरीके रसमें एक दिन ईस्सा तेलिया मीठा डालकर चूर्ण कर
मर्दन करे और तीसवां
सके घीके
साथ आधा
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(२६१)
कर्ष भक्षण करे। घी, शहत इनके साथ बाबचीका चूर्ण ४ टंक लेवे तो संपूर्ण कोढों का नाश करे । यह महातालकेश्वर रस है ॥ १-५ ॥ अतिसारे रसः । लवंगमहिफेनं च हिंगुलं शाल्मलीरसः । सितासमा गुटी ज्येष्ठा जलपीताऽतिसारजित् ॥ १ ॥ लवंग, अफीम, हींगल, सेमल, मोचरस, मिश्री इन सबको बराबर लेकर बेर के प्रमाण गोली बनावे | एक गोली जलके साथ लेवे तो अतीसार दूर होवे ॥ १ ॥ अतिसारे--आनन्दभैरवरसः ।
दरदं वत्सनागं च मरिचं टंकणं कणा । चूर्णयेत् क्रमभागेन रसो ह्यानन्दभैरवः || २ || गुंजैका वा द्विगुंजा वा बलं ज्ञात्वा प्रयोजयेत् । मधुना लेहयेच्चानु कुटजस्य फलत्वचः ॥ ३ ॥ चूर्णितं कर्षमात्रं तु द्विदोषोत्थातिसारजित् । मध्याह्ने दापयेत्पथ्यं गोराज्यं तत्रमेव च ॥ ४ ॥ पिपासायां जलं शीतं विजयां निशि दापयेत् ॥ ५ ॥
शिंगरफ, तेलिया मीठा, मिरच, सुहागा, पीपल इन सबको बराबर लेवे और चूर्ण करे, इस आनन्दभैरव रसको एक वा दो रत्ती बलावल देखकर शहद में चटादेवे, वुडेकी छाल वा कुडेके फलका चूर्ण एक कर्षमात्र देवे तो द्विदोषज अतीसार दूर होवे । मध्यान्हमें गौका दूध तथा घृत और मट्ठा लेवे प्यास लगे तो टंढा जल पीवे या रात्रिको भांग पीव ॥ २५ ॥
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योगचिन्तामणिः । [ मिश्राधिकारः
कनकसुन्दररसः ।
हिंगुलं मरिचं गन्धं पिप्पली टंकणं विषम् । कनकस्य च बीजानि समांशं विजयाद्रवैः ॥ १ ॥ मर्दयेद्याममात्रेण चणकाभा वटी कृता ।
( २६२ )
भक्षिता ग्रहणीं हन्ति रसः कनकसुन्दरः ॥ २ ॥ सिंगरफ, मिरच, गन्धक, सुहागा, पीपल, तेलियामीठा, धतूरेके बीज इनको समान भाग लेकर भांगके रसमें एकमहर घोटकर चनेके प्रमाण गोलियां बनावे | इन गोलियोंके खानेसे संग्रहणी नाश होवे ॥ १-२ ॥
अजीर्णे - क्रव्यादरसः ।
पलं रसस्य द्विपलं बलिः स्याच्छुक्कायसी चार्द्ध पलप्रमाणम् । संचूर्ण्य सर्वे द्रुतमग्नियोगादेरण्डपत्रेषु निवेशनीया ॥ १ ॥ पिट्वाऽथ तां कज्जलिकां निदध्याल्लोहं च पात्रं वरपूतमस्मिन् । जम्बीरजं पक्करसं फलानि शतं तलेऽस्याग्निमथाल्पमात्रम् ॥२॥ जीर्णे रसे भावितमेतदेतैः सुपंचकोलोद्भववारिपूतैः। सेवेतसाम्लैः शतपत्रयोज्यं समं रजष्टंकणजं सुमृष्टम् ॥ ३ ॥ विडं तदर्द्ध मरिचं समं च तत्सप्तवारं चणकाम्लतोयैः । क्रव्यादनामा भवति प्रसिद्धो रसस्तु मंथानकभैरवोक्तः ॥ ४ ॥ मासद्वयं सैन्धवतपीतमेतस्य धन्वौ खलु भोजनान्ते । गुरूणि मांसानि पयांसि पिष्टैः कृतानि खाद्यानि फलानि वेगात ॥ ५ ॥ मात्रातिरिक्तान्यति सेवितानि
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भाषाटीकासहितः ।
( २६३ )
यामद्वयाज्जारयति प्रसिद्धः । निहन्त्यजीर्णान्यपि
षट्प्रकाराण्यग्निं करोति क्रमसेवनेन ॥ ६ ॥ कुर्याद्दीपनमुद्धतं च पवनं दुष्टामयो यक्ष्मणां । तुन्दस्थौल्य निबर्हणं सुगहनं शूलार्तिनिर्मूलनम् । गुल्मलीहविनाशनो बहुरुजां विश्वासनः सन्ततं सेव्यो ग्रंथमहोदरापहरणः क्रव्यादनामा रसः ॥ ७ ॥
सप्तमः ]..
पारा १६ टंक, गंधक ३२ टंक, तांचा ८ टंक, सार ८ टंक इन सबको पीसकर देवे और एरंडके पत्तों में पसारे । अग्निमें फिर पीसकर कजली करें. फिर कपड़छान कर लोहे के पात्रमें डालकर पकी जंबीरीके १०० फलोंका रस डाले नीचे मन्दाग्नि देय जब रस शोष जाय तब पंचकोलके पानीको भावना देवे. तथा अमलवेतके रसकी भावना देवे . इसके बराबर फूला सुहागा, कच्चा नोन आधा डाले. मिरच सुहागेकी बराबर डालकर चनेके खारमें सात बार मले यह क्रव्यादनाम प्रसिद्ध रस है, रसोंके बीचमें बडा भयानक रस है, दो मासे छाछ और सेंधानोंन के साथ नित्य पीवे । भोजन पीछे करे, भारी अन्न. मांस खोआ आदि, पेटेके पदार्थ, फलादि खाया होय तो इसकी यथोचित मात्रा सेवनसे दो प्रहर में जीर्ण होवे, गरिष्ठ भोजन, मांसखाना, छाछ, मीठा फल इनके खानेसे जो अजीर्ण हुआ हो तो इस रसकी एक मात्रा रत्तीभर सेवन करने से दो प्रहर में सको भस्म कर देवे । छः प्रकारके अजीर्णका नाश करे और अनेको प्रचल करे, क्रमसे सेवन करें तो वात और दुष्ट रोगोंको नाश करे, पेटसूजनको दूर करै, शूलका नाश करे, गुल्म, गांठ, प्लीहा इनका और बहुतसे रोगोंका नाश करे । इसका निरन्तर सेवन करनेसे सब उदरविकार दूर होवें यह क्रव्यादनामा रस अतिश्रेष्ठ है ॥ १-७ ॥
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(२६४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:
वाजीकरणे-चन्द्रोदयरसः। पलं मृदुस्वर्णदलं रसेन्द्रंपलाष्टकं गन्धकषोडशांशम्। शाणैस्तु कासिभवैः प्रसूनैः सर्व विमाथ कुमारिकाभिः ॥ १॥ तत्काचकुम्भे निहितं सुगाढे मृत्कर्पटं तदिवसत्रये च । पचेक्रमानौ सिकताख्ययंत्रे ततो रजः पल्लवरागरम्यम् ॥ २॥ निगृह्य चैतस्य पलं पलानि चत्वारि कर्पूररजस्तथैव । जातीफलं शोषणमिन्द्रपुष्पं कस्तूरिकाया इह शाण एकः ॥ ३ ॥ चन्द्रोदयोऽयं कथितश्च मासं भक्ष्योऽहिवल्लीदलमध्यवर्ती । मदोन्मदानां प्रमदाशतानां गर्वाधिकत्वं श्लथयत्यकांडे ॥४॥ शृतं घनीभूतमतीव दुग्धं मृदूनि मांसानि च मंडकानि । लवानपिष्टानि भवन्ति पथ्यान्यानन्ददायीन्यपराणि चात्र ॥ ५॥ वलीपलिननाशनस्तनुभृतां वयः स्तम्भनः समस्तगदखण्डनः प्रचुररोगपंचाननः । गृहे न रसराजको भवति यस्य चन्द्रोदयः स पञ्चशरदर्पितो मृगदृशां कथं वल्लभः ॥ ६॥ सोनेके वर्क १६ टंक, शुद्ध पाग ८ पल, गंधक १६ पल, कपासके फूल १ पल इन सबको पीस ग्वारपाठेके रसमें "सान आतशी शीशीमें भर कपर मिट्टी कर वालुका यंत्रमें क्रमसे दो दिन अग्नि देवे, जब लाल होजाय तब ग्रहण
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सप्तमः J
मापाटीकासहितः ।
( २६५ )
करे । फिर १ पल कपूर, ४ पल जायफल, समुद्रशोष, लौंग, कस्तूरी १ टैंक इन सबको मिलाकर वर्ते । इस चन्द्रोदय नाम रसको एक मासा पानमें खावे तो १०० मदमाती स्त्रियोंका गर्व भञ्जन करे । ऊपरसे कढती बिरियाका दूध पीवे, नरम मांस खावे, मैदाको रोटी, तीतर और गरिष्ठ वस्तु गरिष्ठ बीज पथ्य ले आनंदकारी भोजन करे तो बुढापे को दूर करे देह पुष्ट करे, स्तंभनकारक है, सम्पूर्ण रोगों को दूर करे, हाथीरूप रोगोंको यह रस सिंहसमान जानो, जिसके घर में चन्द्रोदय रस नहीं है वे मृगनयनियों को कैसे प्यार लगे ? ॥ १-६ ॥ कामदेव सः ।
1
स्व शुल्वं केशरं लोहचूर्ण जातीपत्रं सर्पफेनं लवङ्गम् । एलासूक्ष्मं क्षीरकं कोलनागजातीजातं चीणकावा वियुक्तम् ||१|| अब्धेः शोषं सप्तकर्षाक्षदेशक्षौदैर्मिश्रं मिश्रमाकलयुक्तम् | क्षीणे वीर्ये रेतसां सागरोऽयं सायं भक्षेद्यो गुटीं वलयुक्ताम् ॥२॥ गच्छेन्नारीः साध्ययोगात्सहस्रं वृद्धो देहैर्यातु तारुण्यभाजम् । रामावश्यं सर्वकाले कृतौ च प्रोको वैद्यैः कामदेवो रसोऽयम् ॥ ३ ॥
अभ्रक, तांचा, केशर, लोहसार, जावित्री, तमालपत्र, अफीम, लौंग छोटी इलायची, क्षीरकाकोली, नागकेशर, जायफल, कबाबचीनी, चन्द्रोदय, समुद्रशोष ये सब औषधी सात कर्षके समान लेवे । इसमें शहद, मिश्री और अकरकरा मिलाकर लेवे तो क्षीणवीर्यवाला मनुष्य व्यपार वीर्यवाला होवे । इसकी गोली छः छः रत्तीकी बनाकर सायं
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( २६६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्रधिकार:
कालको भक्षण करे ता हजार स्त्रियोंसे भोग करनेकी शक्ति होवे, वृद्ध देहवाला तरुणताको प्राप्त होवे । स्त्रियोंको सदैव वश करे । इसको वैद्योंनें कामदेवरस कहा है ॥ १-३ ॥
शुक्रल औषधिः ।
यस्माच्छुक्रस्य वृद्धिः स्याच्छुकलं च तदुच्यते । यथाश्वगन्धा मुशली शर्करा च शतावरी ॥ दुग्धमाषाश्च भल्लाताः फलमज्जामलानि च ॥ १ ॥
जिस औषधिसे शुक्र (वीर्य) बढे उसको शुकल कहते हैं । जैसेअसगंध, मुशली, मिश्री, शतावरी, दूध, उडद, भिलावे, आम्रादिफलकी मज्जा और आमलादिक ॥ १ ॥
विरेचकरसः ।
नेपाल कं पारदटंकणाक्षं क्षारो यवानी मरिचानि पथ्या । एरण्डबीजानि च गन्धकं च इच्छाविभेदी रसचक्रवर्ती १॥
शुद्ध जमालगोटा, ३ टंक, पारा ३ टंक, फूला सुहागा, जवाखार, अजवायन, मिरच, हरड, अंडी, गन्धक इनको एकत्र कर पीसलेवे, यह रस इच्छाभेदी नाम सब रसोंका राजा है ॥ १ ॥
त्रिकटु त्रिफला सूतं शुद्धं गन्धकटंकणम् । सर्वैः समानो जैपालो राजयोग्यं विरेचनम् ॥ २॥ सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, शुद्ध पारा, गन्धक, फूला सुहागा, शुद्ध जमालगोटा सबके बराबर लेवे यह दस्तोंके लिये राजयोग्य है || २ ||
नेपालमरिचटंकणसमभागो मेलि एकीकृत्य । अर्द्ध हिंगुलभागो पयsो बुद्धो छुरीकारो ॥ ३ ॥
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सतमः ]
भाषाटीकासहितः । ..
( २६७ )
जमालगोटा, मिरच, सुहागा इनको बराबर लेकर और इनसे आधा हिंगुल डाले यह रस छुरिकार नामसे प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥ गाथाश्लोक ॥ ज्वरहारी रसः । नेपालकं टंकणपारदं च तुर्य तथा चामलगन्धसारम् । सर्वैः समांशै रस एव पिष्टं ज्वरेषु सर्वेषु च नित्यमिष्टम् ॥ १ ॥ रसः प्रदेयः स्फुटमेकगुंजा पथ्यं सिता तन्दुलमुद्रयूषाः । श्रीपूज्यराजैः कथितो रसोऽयं सद्यो ज्वरं चापि निहंति सत्यम् ॥ २ ॥
जमालगोटा, शुद्ध सुहागा, पारा, शुद्ध गंधक इन सबको बराबर ले, चूर्ण कर लेवे, इसमेंसे गुंजा प्रमाण लेवे, पथ्यमिश्री, चांवल, मूंगका पानी देवे तो सम्पूर्ण ज्वरोंको दूर करे. यह रस श्रीगुरुराजने कहा है और शीघ्र ज्वरका नाश करता है ॥ १ ॥ २ ॥
ज्वरादौ - चिन्तामणिरसः १-२ ।
व्योषं गन्धं रसेन्द्रं विषमपि लवणं नागवङ्ग तथाऽभ्रं सारं त्रिक्षारयुक्तं गजकणचविका साग्निकं जीरके द्वे । पथ्या वा चूर्णमेतत्प्रबलरसयुतं नागवल्लीकरीर निम्बू का रसादिप्रबलरसयुतं शुद्धचिन्तामणीशः ॥ १ ॥
१ - सोंठ, मिरच, पीपल, गन्धक, पारा, तेलियामीठा, पांचों नोन, सीताभस्म, वंग अभ्रक, सज्जी, खार, सुहागा, जवाखार, चत्र्य, गजपीपल, चीता, दोनों जीरे हरड, पारा, गन्धक इनको पानके रस, करेला के रस, नीम्बूके रस, और अदरखके रसकी सात २ भावना देवे, शुद्धचिन्तामणि रस है ॥ १ ॥
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(२६८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राविकार:सूतं गन्धकटंकणं समरिचं शुण्ठी विषं पिप्पली सजिक्षारसुफान्वितं च लवणं पञ्चाधकं जीरकम् । यावक्षारसमं समांशकमिदं खल्वे समैः शोषयेत् सप्तैनिम्बुभुजङ्गमाईकरसैः शुद्धःस चिन्तामणिः॥२॥ २-पारा, गन्धक, सुहागा, मिरच, सोंठ, तेलिया मीठा, पीपल' सज्जी, सौंफ, पांचों नोन, अभ्रक, दोनों जीरे, जवाखार इनकी सम मात्रा लेवे, निम्बू और अदरखके रसकी सात २ भावना देवे तो शुद्धचिन्तामणि रस होवे ॥२॥
त्रिपुरभैरवरसः । वेदवेदगुणा पृथ्वी शुण्ठी मरिचटंकणम् । चतुर्थो वत्सनागश्च रसस्त्रिपुरभैरवः ॥ १ ॥ भावना नागवल्ल्या च तथाऽऽकस्य भावना । निम्बुकस्यापि दातव्या वारत्रयमनुक्रमात् ॥ २ ॥ सन्निपाते तथा वाते श्लेष्मरोगे महन्वरे । ग्रहे च मस्तकस्यापि पीडायामुदरस्य च ॥३॥ सोंठ ४ भाग, मिरच ४ भाग, सुहागा ३ भाग, तेलिया मीठा १ भाग इनको पान, नीम्बू, अदरख इनके रसकी तीन तीन भावना अनुक्रमसे देवे और विधिसे लेवे तो सन्निपात, वात, श्लेष्म, -महाज्वर, मस्तकरोग, पेटका दरद ये सब दूर होते हैं ॥ १.-३ ॥
महावातज्वरांकुशरसः। - पृष्ठे तालकमेनदर्द्धममलं शंखस्य चूर्ण क्षिपेत्
प्रक्षिप्याथ नवांशकेऽपि च शिखिग्रीवां पुनःपेषयेत् । कौमारीरसमर्दितं गजपुटे पाच्यं च शीतं ततो ..
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २६९ )
गृह्णीयादथ गुंजिका ज्वरहरं खंडेन संयोजयेत् ॥ १॥ एका त्रित चतुर्थकमिदं वेलाज्वरं नाशयेच्छीतादिज्वर सर्वनाशनकरं भानुर्यथा शर्वरीम् । पथ्यं दुग्धमथापि तन्दुयुतं छागं च शीतं पयः पेयं गव्यमिदं स्वभावज नितं पित्तं जयेद्रोगिणाम् ॥ २ ॥ ज्वराभिभूते षडहे व्यतीते विपक्कदोषे कृतलंघनादिः । यो भेषजं वैद्यवरः प्रयुक्ते निःसंशयं हन्त्यचिरात्स रोगान् || ३ ||
हरताल से आधे शंखके चूरेको ले गोमूत्रमें बुझावै. फिर शुद्ध नीलाथोथा नौ हिस्सा डालदेवे, फिर कुमारीरसके तीन पुट देकर खरल कर टिकिया बनाय शरावसंपुट कर तीन कपडमिट्टी कर गजपुटकी आंच देवे. जब शीतल होजाय तब निकाल लेवे, इसकी मात्रा १ रत्ती या दो रत्ती गरम पानीसे देवे, ऊपरसे खांड पथ्य-दूध, चांवल, बकरीका ठंढा दूध पीवे और जितनी रुचि होय उतना यथेच्छासे दूध पीवे तो पित्तकी शांति करे खांडके संग लेवे तो एकाहिक, तृतीयक, चतुर्थक, वेलाज्वर इन सबका नाश करे और ज्वर होनेपर छः दिन लंघन करे अथवा दोष जबतक न पचे तवतक लंघन करे, पीछे इस औषधिको देवे तो रोग दूर होवे ॥ १-३ ॥
सर्वज्वरे --मृत्युंजयरसः । प्रवालमुक्ताफलवत्रतार सुवर्णताम्राभ्रकसार सीताः । यथोत्तरा वङ्गशिलालनाथा पलोन्मितैः सुतकसप्तभागाः ॥ १॥ चतुश्चतुः शंख कपर्दिकानां सत
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योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः -
क्रजम्बीरविमर्दितानाम् | अहिफेनपिप्पल्यविषत्रपाणां पलं पलं दन्तिफलान्वितानाम् ॥ २ ॥ समस्तमेकी कृतमत्र चूर्ण दिनत्रयं चित्रकवारि पूर्णम् विशुष्कभृङ्गारसकाकतुंडीस्नुह्यर्कधूतामरदारुमुण्डी || ३ | किरात भल्लात निकुंभ कुम्भाकुठे वीराकरवीररम्भा || ४ || बला त्रिवृन्नागवल्ल्या - खुकर्णी कटुत्रिकं शीतिशिवादिकर्णी । यासोऽमृताकाण्डरुहासला विंशो वृपाक्ष च रुजः सगुआ || ५ || अमीभिरुच्चाभुजगार्तियुक्तैर्वराहगोधा शिखिमीन पित्तैः । पृथक् पृथक्साधितमेवमस्यां दृढे पुढे ताम्रमये विपक्कम् ॥ ६ ॥ सुशीतमुद्धृत्य मुपेपणीयो रसो हि मृत्युञ्जयनामधेयः ॥७॥
• ( २७० )
मूंगा, मोतीचूर, हीरा, चांदी, सोना, तांचा, अभ्रक, गन्धक, मोम, वंग, मनशिल और हरताल ये सब एक एक पल और पारा ७ भाग, शंख, कौडी ये चार चार पलले इनको मट्ठा और जंबीरकि रसमें घोटे । फिर तेलियामीठा, अफीम और पीपल, दन्ती, जमालगोटा प्रत्येक १ पल ले एकत्र चूर्ण कर दो दिन चीते के काटेमें मर्दन करे | जब सूख जाय तब भांगरेका रस. काकतुंडीका रस, सेहुँड, आक, धतूरा, देवदारु, गोखरू, मुण्डी, चिरायता, भिलावा, ममालगोटा, नागहूली, वनतुलसी, कांकनेर, केला, खिरेंटी, निसोथ, गंगेरन. मूसाकर्णी, सोंठ, मिरच, पीपल, सैंधानोन, विष्णुकांता, जवासा, गिलोय, कुटकी, लज्जावन्ती, अडूसा, भृङ्गराज चिरमिटी एवं सूअर, गोह, मोर, मछली इनका पित्ता इन सबको अलग २
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सप्तमः]
भाषाटीकासहितः। (२७१) -साधन कर और दृढ पुट दे तांबेके पात्रमें पकावे । जब ठंढा होजाय तब इसको पीस रक्खे । इस मृत्युंजय नाम रसको बलाबल देखकर दो गुंजा मिश्रीमें देवे तो बहुत दोषोंकरके संयुक्त उग्र दोषोंको दूर करे मृत्युको जीते ॥ १-७॥
अथ आसवः।
द्राक्षासवः । द्राक्षायाश्च पलशतं सितायास्तच्चतुर्गुणम् । कर्क न्धुमूलं तस्यादै मूलाई पुष्पधातकी ॥१॥ क्रमुकं च लवङ्गं च जातीपुष्पं फलानि च । चातुर्जातं त्रिकटुकं मस्तकी करहाटकम् ॥२॥ आकल्लकरसं कुष्ठं पलानि दश चाहरेत् । एभ्यश्चतुर्गुणं तोयं भाण्डे चैव विनिक्षिपेत् ॥३॥ स्थापयेद्भूमिमध्ये तु चतुर्दशदिनानि च । ततो जातरसं शुद्धं क्षिपेत् कच्छपयंत्रके ॥४॥ मुद्रयित्वा च तस्याधो वह्नि प्रज्वालयेत्सुधीः। तस्यान्त प्लावितं सीधुं गृह्णीयात्सर्वमेव तत् ॥५॥ पुनरेव च तसीधुं क्षिपेत्कच्छपयंत्रके । धराधो निक्षिपेत्तस्य मृगनाभिं सकुंकुमम् ॥ ६॥ एतत्सिद्धं क्षिपेद्धीमान्काचभांडे निधापयेत् । त्रिदिनेषु व्यतीतेषु तत्पेयं पलसंख्यया ॥ ७ ॥ मध्याह्ने द्विपलं ग्राह्यं संध्याकाले चतुःपलम् । गरिष्टं निन्धमाहारं भक्षयेदस्य सेवकः ॥ ८॥ वीर्या.
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(२७२) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:भिवृद्धिः प्रभवेन्नराणां रामा सुवश्या भवतीह लोके । त एव धन्या मनुजा नरेन्द्रा द्राक्षासवं ये किल सेवयन्ति ॥ ९॥ मुनक्का सौ पल, मिश्री ४०० पल, बेरकी जड ५० पल, धायके फूल २६ पल, सुपारी १० पल, लौंग, १० पल, जावित्री १० पल, जायफल १० पल, तज, इलायची, तेजपात ४० पल, सोंठ, मिरच, पीपल ३० पल, नागकेशर १० पल, मस्तंगी १० पल, कशेरू १० पल, अकरकरा १० पल, कूठ १० पल, इन
औषधियोंसे चौगुना पानी मिट्टीके बरतन में भरकर दवा डालकर जमीनमें गाड देवे और १४ दिनके बाद निकालकर भभकेमें चढावे और मन्दाग्निसे सिद्ध कर केशर कस्तूरी डाल कांचके पात्रमें रख देवे । जब तीन दिन हो जायें तब बलप्रमाण देखकर सबेरे एक पल पीवे और मध्याह्नमें दो पल लेवे और सायंकालमें चार पल पीवे । गरिष्ठ तथा चिकना आहार सेवन करे तो वीर्यको बढावे, स्त्रियोंको वशीभूत कर । लोकमें वे लोग धन्य हैं, जो द्राक्षासवका सेवन करते हैं ॥ १-९॥
द्राक्षारिष्टम् । द्राक्षातुलाई द्विद्रोणे जलस्यापि पचेत्सुधीः । पादशेषेकपात्रे च पूतशीते विनिक्षिपेत् ॥ १ ॥ गुडस्य द्वितुलां तत्र त्वगेला पत्रकेशरम् । प्रियंगुर्मरिचं कृष्णा विडङ्गं चेति चूर्णयेत् ॥२॥ पृथक्पलोन्मिते गैस्ततो भाण्डे निधापयेत् । समन्ततो हि दूषित्वा पचेज्जातरसं ततः ॥ ३॥ उरःक्षतं क्षयं इंति कास श्वासगलामयान् ॥४॥
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सप्तमः ]
माषाटीकासहितः ।
( २७३ )
मुनक्का ५० पल ले दो द्रोण पानीमें औटावे जब चौथाई रहजाय तब कपडे में छानकर ठंढा कर फिर २०० पल गुड़ डाले. फिर तज, तेजपात, इलायची, नागकेशर, प्रियंगु, मिरच, पीपल, वायविडंग इन सबको एक एक पल लेकर चूर्ण कर डाल कर हिलाता जाय । जब पककर शुद्ध हो जाय तब वर्ते । यह द्राक्षारिष्ट उरःक्षत, क्षय, खांसी, श्वास, आदिका नाश करे ॥ १-४ ॥
लोहासवः । लोहचूर्ण त्रिकटुकं त्रिफला च यवासकम्। विडङ्ग चित्रकं मुस्ता चतुःसंख्यापलं पृथक् ॥ १ ॥ चूर्णीकृत्य ततः क्षौद्रं चतुः षष्टिपलं क्षिपेत् । दधागडतुलां तत्र जलं द्रोणद्वयं ततः ॥ २ ॥ घृतभाण्डे विनिक्षिप्य निदध्यान्मासमात्रकम् । लो मर्त्यः पिबेद्वह्निकरं परम् ॥ ३ ॥ पांडुश्वयथुगुल्मानि जाठराण्यर्शसां रुजम् । कुष्ठं प्लीहामयं कण्डूं कासं श्वासं भगन्दरम् ॥ ४ ॥ अरोचकं च ग्रहणी हृद्रोगं च निवारयेत् ॥ ५ ॥
लोहचूर्ण ४ टंक, सोंठ, मिरच, पीपल १२ टंक, त्रिफला १२ टंक, जवामा, वायविडंग, चीता, मोथा प्रत्येक चार चार टंक ले इनका चूर्ण कर शहद ६४ पल, गुड़ १०० पल, पानी दो द्रोण चिकने पात्रमें भर सब औषधियोंको डाल एक महीनातक राखे तो यह लोहासव शुद्ध होता है । यह लोहासव अग्निको दीप्त करे एवं पांण्डुराग सृजन, गुल्म पेटके रोग, अर्श, कोट, प्लीहा, आम, खाज, खांसी, श्वास, भगन्दर, अरुचि, संग्रहणी, हृदयरोग आदिको दूर करता है ॥ १-५ ॥
१८
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( २७४) योगचिन्तामणिः। [मित्राधिकार:--
दशमूलासवः । दशमूलं तुलार्द्धं च पौष्करं च तदर्धकम् । हरीतकीनां प्रस्थाई धात्रीप्रस्थद्वयं तथा ॥१॥ चित्रकं पुष्करमितं चित्रकाई दुरालभा। गुडूच्या वै शतपलं विशाला पलपंचकम् ॥ २॥ खदिरस्य पलान्यष्टौ तदद्धं बीजकं तथा । मंजिष्ठा मधुकं कुष्ठं कपित्थं देवदारु च ॥३॥ विडङ्गं चविकं लोधं भाीचाष्टकवर्गकम् । कृष्णाजाजी पिप्पली च क्रमुकं पद्मकं सटी ॥४॥ प्रियंगुः शारिवा मांसी रेणुका नागकेशरम् । त्रिवृता रजनी गना मेषशृङ्गी पुनर्नवा ॥ ५॥ शतं
चेन्द्रयवा मुस्ता द्विपलान् क्वाथयेज्जले। चतुर्गुणे पादशेषे द्राक्षामष्टपलं क्षिपेत् ॥६॥ विंशत्पलं तु धातक्या गुडं पलचतुःशतम् । मधु द्वात्रिंशत्पलं च सर्वमेकत्र कारयेत् ॥७॥ भांडे पुगणे स्निग्धे च मांसीमरिचधूपिते। पृथक् द्विपलिकानेतान् पिप्पली चन्दनं जलं ॥८॥ जातीफलं लवंगं च त्वगेला पत्रकेशरम् । कर्षमात्रं च कस्तूरी दद्यात् पथ्यं निधापयेत् ॥९॥ ततो राजरसं शुद्धं क्षिपेत्कच्छपयंत्रके । कतकद्रुफलं चूर्ण क्षिपेनिर्मलतां व्रजेत् ॥ १०॥ पक्षादूर्ध्व पिबेद्यस्तु मात्रया च यथाबलम् ।।
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सप्तमः ] भाषाटीकासहितः। (२७५) धातुक्षयं जयत्येतत्कासं पंचविधं तथा ॥ ११॥ अर्शासि षट्प्रकाराणि तथाऽष्टाबुदराणि च । प्रमेहं च महाव्याधिमरुचिं पाण्डुतां तथा ॥ १२ ॥ सर्वान्वातांस्तथा शूलं श्वासं छर्दिमसृग्दरम् । अष्टादशैव कुष्ठानि शोफ शूलं भगन्दरम् ॥ १३ ॥ शर्कराचं मूत्रकृच्छ्र मश्मरी च विनाशयेत् । कृशस्य पुष्टिं कृत्वा च पुष्टस्यच महाबलम् ॥ १४॥ महावेगो महातेजा महावेगी महोद्धतः। कामपुष्टिं करोत्येष वन्ध्यानां पुत्रदो भवेत् ॥ १५॥
दशमूल ( शालपर्णी, पृष्ठिपर्णी, दोनों कटेरी, गोखरू, वेल, अरणी, अरलु, खंभारि, पाढ) ५० पल, पोहकर मूल २५ पल, हरड ३८ पल, आंवला १२८ पल, चीता २५ पल, जवासा १२ पल, गिलोय १०० पल, इन्द्रायण ५ पल, खैरसार ८ पल, विजैसार ४ पल, मंजीठ, मुलहठी, कूठ, कैथ, देवदारु, वायविडंग, चव्य, लोध, भारंगी, अष्टवर्ग, (जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धी, वृद्धी ) काला जीरा, पीपल, पठानीलोध, पद्माख, कचूर, प्रियंगु, सारिवा, बालछड, रेणुका, नागकेशर, निसोत, हलदी, राना, मेढासिंगी, सांठी, सौंफ, इन्द्रजौ, मोथा इन सबको प्रत्येक दो दो पल लेवे और इनसे चौगुने पानीमें काढा करे, जब चौथा शेष रहे तब आठ पल मुनका डाले और तीस पल धायके फूल १०० पल गुड, बत्तीस पल शहद सबको मिलाय पुराने चिकने बरतनमें भर दो पल बालछड और दो पल मिरचोंकी धूनी देवे. फिर पीपल, चन्दन, मोथा, जायफल, लौंग,
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(२७६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:तज, तेजपात, इलायची, नागकेशर इन सब औषधियोंको चार चार टंक, कस्तूरी ४ टंक डालकर पंद्रह दिन जमीनमें गाडदेवे, जब रस शुद्ध हो जाय तब भभकेमें बैंचलेवे फिर निर्मलीके फलका चूर्ण डालनेसे जब निर्मल होजाय, तब पंद्रह दिन पीछे पीवे इसकी मात्रा बलाबल देखकर देवे । यह दशमूलासव धातुक्षय, पांच प्रकारकी खांसी, छः प्रकार की बवासीर, आठ प्रकारके उदररोग, महारोग, प्रमेह, अरुचि, पांडुरोग, सब प्रकारके वातरोग, शूल, श्वास, वमन, प्रदर, अठारह प्रकारका कोढ, सूजन, शूल, भगन्दर, शर्करादि, मूत्रकृच्छ्र, पथरी आदि रोगोंका नाश करे. दुबलेको मोटा करे और पुष्टको महाबल करे. महावेग अति वीर्यवान् अतिबलवान कामोद्दीपन भरनेवाला और वंध्याको पुत्रवती करता है ॥ १.-१५ ॥
कूष्माण्डकासवः। कूष्माण्डं च फलं पकं तस्मिंश्छिद्रं तु कारयेत् । छिद्रमध्ये गुडो देयो द्वितुलश्च शनैः शनैः ॥ १॥ वचं बीजं च उत्कृष्य स्निग्धभाण्डे निधापयेत् । बदरीत्वपलान्यष्टौ तस्य क्वाथं प्रदापयेत् ॥ २॥ द्वौ कसेलौ च धातक्या हपुषा च पलं पलम् । त्रिफला हौहबेर च शृङ्गी भाी च पुष्करं ॥३॥ तालमूली स्वयंगुप्ता ककोलं वंशलोचनम् । यष्टी मोचरसं मुस्ता ग्रंथिकं चाष्टवर्गकम् ॥ ४॥ चातुर्जातं विडङ्गानि व्योष चित्रककुंकुमम् । जातीपत्रं लवङ्गं च करभं मालतीफलम् ॥५॥ दशांघ्रिरक्तसारं च कट्फलं रेणुका सटी।
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २७७ )
तिक्तसारं चतुः कर्षमाटरूषं कुलिञ्जनम् ॥ ६ ॥ अजमोदाश्वगन्धा च चव्यं माजूफलं वरी । सारं सूर्ण तेजबलं तालीसं श्यामपूगकम् ॥ ७ ॥ एतेषां कर्षमात्रं च सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् । मूलभांडे क्षिपेत्सर्व पलमेकं भजेन्नरः ॥ ८ ॥ कासं श्वासं च हृद्रोगं पाण्डुरोगं क्षतं क्षयम् । गुल्मोदरं ग्रहण्यर्शोमूत्रकृच्छ्रं तथाश्मरीम् ॥ ९ ॥ प्रमेहशोफातीसारखातपित्तकफापहः । कूष्माण्डासव इत्येष बलकुन्मलशोधनः ॥ १० ॥
पेठेके पके हुये फल में छेद करे उस छेदमें दो तोले गुड हौले हौले भरे फिर छिलका और बीज अलगकर चिकने बरतन में भर झडबेरीकी ८ पल छालका काढा कर उसमें डाले । कसेला दो पल, धायके फूल दो पल, हाऊचेर १ पल, त्रिफला, काकडासिंगी, भारंगी, पोहकरमूल, मूसली, गोखरू, कंकोल, वंशलोचन, मुलहठी, मोथा, मोचरस, पीपलामूल, अष्टवर्ग, चातुर्जात, वायविडङ्ग, सोंठ, मिरच, पीपल, चीता, केशर, जायफल, अकरकरा, मालतीफल, रक्तचन्दन, दशमूल, कायफल, रेणुका, कचूर, कंद, संभालू अडूसा, कुलिंजन, अजमोद, असगन्ध, चव्य, माजूफल, शतावरी, सार, तेजबल, तालीसपत्र, चिकनी सुपारी इन सबको चार २ टंक लेकर महीन चूर्ण कर एक बरतन में डाल देवें । उसमेंसे एक पल सेवन करनेसे खांसी, श्वास, हृदयरोग, क्षत, क्षयरोग, गांठ, उदररोग, ग्रहणी, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, प्रमेह, सूजन, अतीसार, बात, पित्त, कफ इत्यादिक रोगोंका नाश
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(२७८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्रा धिकारः
करता है । यह कुष्माण्डासव बलकारी और मलका शोधनेवाला है || - १० ॥
उदरविकारे--जम्बीरद्रावः ।
शतं जम्बीररसकं रामठं च पलद्वयम् । सैन्धवं च विडङ्गं च पृथग्दत्त्वा पलं पलम् ॥ १ ॥ त्र्यूषणं पलमेकैकं सौवर्चलचतुष्टयम् । यवानिकापलं चैकं कर्षमानचतुष्टयम् ॥ २ ॥ स्निग्धभांडे विनिक्षिप्यांऽश्वशालायां निधापयेत् । एकविंशदिनं यावत्ततः सर्वे समुद्धरेत् ॥ ३ ॥ सुचन्द्रे सुदिने लोके पूजयित्वा भिषग्गुरून् । यकृत्लीहामगुल्मं च विद्रध्यष्टीलिकादयः ॥ ४ ॥ वातगुल्ममतीसारं शूलं पार्श्वदामयान् । नाभिशूलं विबन्धं च आध्मानं च गुदोदरम् ॥ ५ ॥ नश्यति तस्य शीघ्रेण वात श्लेष्मामयाश्चये । जीर्यते तस्यकोष्ठे तु जम्बीरीद्रावसेवनात् || ६ ||
जम्बीरीका रस १०० पल, हींग २ पल, सैंधानोन, १ पल, वायविडंग १ पल, सोंठ, मिरच, पीपल एक एक पल, काचनोन ४ पल, अजवायन, १ पल, सरसों ४ पल चिकने बरतन में भर जहां घोडा बँधता होवे वहां गाड देवें. फिर इक्कीसवें दिन निकाल अच्छा चंद्रमा अच्छा दिन देख अच्छे वैद्यका पूजन कर उसका सेवन करे तो यकृत्, प्लीहा, आम, गांठ, विद्रधि, अष्ठीलिका, वातगुल्म, अतीसार, शूल, पसली, हृदयरोग, नाभिशूल, दस्तका बन्द, अफरा, उदररोग आदिका जल्दी नाश करे और वातश्लेष्म आदि
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सप्तमः]
भाषाटीकासहितः ।
(२७९ )
कोंको और पेटका अजीर्ण आदि इस जंबीरीद्राव सेवन करनेसे नाश होवे ॥ १-६ ॥
अथ लेपप्रकरणम् ।
विमर्पा लेपः ।
शिरीषयष्टीनतचन्दनैलामांसीहरिद्राद्वय कुष्टवालैः । लेपो दशांगः सघृतप्रलेपाद्विसर्पकण्डूत्रणदाहहन्ता । १ ॥
सिरसकी छाल, मुलहठी, तगर, लाल चन्दन, अलुआ, बालछड हल्दी, दारु हलदी, कूठ, नेत्रवाला इन दश चीजोंको घीमें मिलाकर लेप करनेसे खुजली, फोडा, फुनसी, विसर्प, व्रण, दाह आदिका नाश होवे ॥ १ ॥
शोफे लेपः ।
पुनर्नवा दारु शुण्ठी सिद्वार्थ शिग्रुरेव च । पिट्वा चैवारनालेन प्रलेपः सर्वशोफजित् ॥ १ ॥ बीजपूरजटा हिंस्र | देवदारुमहौषधैः । रास्त्राग्निमन्थलेपोऽयं वातशोथविनाशानः ॥ २ ॥
सांठी की जड. देवदारु, सोंठ, सरसों, सहिजना इनको पीस कांजी में मिलाकर लेप करने से सब प्रकार की सूजन जाय । बिजौरेकी जड, वायविडंग अथवा कटेरी, देवदारु, सोंठ, रास्ना, अरणी, इनका लेप करने से वातकी सूजन जाय ॥ १-२ ॥
मधूकं चन्दनं दूर्वा नलमूलं च पद्मकम् । उशीरं वालकं पद्मं पित्तशोफे प्रलेपनम् ॥ ३ ॥ कृष्णा पुराणपिण्याकं शिशुत्वक्च शतावरी | मूत्रे पिट्वा सुखोष्णोऽयं प्रलेपः श्लेष्मशोफहा ॥ ४ ॥
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( २८०)
योगचिन्तामणिः।
[मित्राधिकार:
अजादुग्धतिलैलेंपो नवनीतेन संयुतः। शोथमारुष्करं हन्ति लेपश्च कृष्णमार्तिकः ॥५॥ मुलहठी, चन्दन, दूर्वा, नलमूल, पद्माख, खस, नेत्रवाला, कमल इनका लेप करनेसे पित्तकी सूजन दूर होवे । पीपल, पुरानी खल, सहिजनेकी छाल, सफेद सांठी इनको गोमूत्रमें पीस गरम कर लेप करनेसे कफकी सूजन जाय । बकरीका दूध और तिल इनको मक्खनमें मिलाकर लगानेसे भिलावेकी सूजन जाय अथवा काली मिट्टीका लेप करनेसे भी सूजन दूर होती है ॥ ३-५ ॥
शिरो? ले। कुष्ठमैरण्डतैलेन लेपः कांजिकपेषितः । शिरोति वातजा हन्यात् पुष्प वा मुचुकुन्दजम् ॥१॥ देवदारु नतं कुष्ठं नलदं विश्वभेषजम् । सकांजिका स्नेहयुको लेपो वातशिगातेनुत् ॥२॥ धाहकसेरुहीबेरपद्मपद्मकचन्दनैः। दूौशीरनलानां च मूलैः कुर्यात्प्रलेपनम् ॥ ३॥ शिरोति पित्तजां हन्याद्रक्तपित्तरुजस्तथा। हरेणुनतशैलेयमुस्तैलागरुदारुभिः॥४॥ मांसीगनासचुक्रश्च लेपः श्लेष्मशिरोतिनुत् । मरिचं कुष्ठमधुकवचाकृष्णोत्पलैस्तथा ॥५॥ लेपः सकांजिकनेहः सूर्यावर्द्धभेदयोः॥६॥ शुंठीचन्दनमरण्डजटालेपः शिरोतिनुन् । राजिकाभिः सर्षपैश्च शुंब्याऽथ मरिचैरथ ॥७॥
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( २८१ )
कुठको अंडीके तेल में या कांजी में पीसकर लेप करनें से वातज शिरकी पीडा दूर होवे, अथवा मुचकुन्द के फूलका लेप करनेसे भी दूर होवे । देवदारु, तगर, कूठ, बालछड, सोंठ इनको कांजी और तेल में मिलाकर लेप करे तो वातज शिग्दरद दूर होवे. आमला, कसेरू, हाऊचेर, कमल, पदमाख, चन्दन दूर्वा, खस, छड, नींबकी जड इनका लेप करनेसे पित्तज शिरदर्द और रक्तपित्तरोग दूर होवे । संभालू, तगर, पाषाणभेद, मोथा, इलायची, अगर, देवदारु, बालछड, istar as इनको लेप करनेसे कफज शिग्दरद नाश होवे । मिरच, कूठ, मुलहठी, चव्य, पीपल इनको कांजी और तेल में पीसकर लेप करे तो आधासीसी और सूर्यावर्त्त जाय, सोंठ, चन्दन, एरंडीकी जड इनके लेपसे भी शिग्दरद जाय । राई, सरसों, सोंठ, मिरच इनके लेपसे भी शिरदरद जावे ॥ १-७ ॥
कर्णपीडायां लेपः ।
कुष्ठशुंठीच चादारुशताह्वाहिंगुसैन्धवम् । वत्सीत्रभृतं तैलं सर्वकर्णामयापहम् ॥ १ ॥
कूठ, सोंठ, वच, दारूहल्दी, सौंफ हींग, सैंधानोन इनको छियाके मूत्र के साथ कान में डालनेसे कानके सब रोग दूर हो जाँय ॥ १ ॥
उदरपीडायां लेपः ।
एलीयकं हरिद्रा च स्फटिका नवसादरम् । टङ्कणं धेनुमूत्रेण कोष्णं जठरलेपनम् ॥ १ ॥
एलुआ, हलदी, फटकरी, नौसादर, सुहागा इनको गोमूत्रमें पीस थोडा गरमकर पेटपर लेप करनेसे दरद जाय ॥ १ ॥
शूले लेपः । मदनस्य फलं तिक्तां पिता कांजिकवारिणा ।
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(२८२) योगचिन्तामणिः। मिश्राधिकारःकोष्णं कुर्यात्राभिलेपं शूलशांतिर्भवेत्ततः॥१॥ पुष्करं शाबरं शृङ्गं कुष्ठं विश्वौषधं तथा।। उष्णोदकेन संपिष्टो लेपः शूलविनाशकृत् ॥२॥ मैनफल, कुटकी, इनको कांजीके पानीमें घोल गुनगुनीकर नाभिपर लेप करनेसे दर्द दूर होवे. पोहकर मूल, सांबरसींग, कूठ, सोंठ इनको पीसकर गरम गरम लेप करनेसे दर्द दूर होवे ॥ १-२॥
व्रण लपः। गृहधूमं च कंपिल्लं टंकणं मरिचं निशा। घृते घृष्ट्वा प्रलेपोऽयं सर्वव्रणनिवृत्तये ॥ १ ॥ तैलेन वा घृतेनैव पिष्वा चूर्ण प्रलेपयेत् । धात्रीफलानां रक्षा वा व्रणे लेप्या घृतेन सा ॥२॥ अपको यदि वा पक्को निम्वः सर्वव्रणे हितः। अपक्कं पाचयेनिम्बं पक्कं चापि विशोधयेत् ॥२॥ घरका धुआँ, कबीला, सुहागा, मिरच, हलदी इनको तेलमें अथवा धीमें पीसकर फोडे फुनसी पर लेप करनेसे फोडा फुनसी दूर होवें, आंवले की राख धीमें मिलाकर लेप करनेसे फोडा दूर होवे। नींबके पत्तोंको पीस लेप करनेसे कच्चा वा पका फोडामें हित होने और विनापकेका पकावे और पकेको शोधन करे ॥ १-३ ॥
गंडमालादौ लेपः। सर्षपाञ्छिग्रुबीजानि शणबीजातसीयवान् । मूलकस्य च बीजानि तशेणाम्लेन पेषयेत् ॥१॥ गण्डमालार्बुदं गण्डं लेपेनानेन शाम्यति ।
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सप्तमः ].
भाषाटीकासहितः ।
( २८३ )
कटुतैलान्विते लेपात्सर्पकंचुकभस्मभिः ॥ २ ॥ रयः शाम्यति गण्डस्य प्रकोपात्स्फुटति ध्रुवम् ॥ ३ ॥ शाणमूलकशिग्रूणां फलानि तिलसर्षपाः । रामः किण्वमलसीप्रदेहः पाचनः स्मृतः ॥ ४ ॥ दन्तीचित्रकमूलत्वक्स्नुवर्क पयसा गुडैः । भल्लातकास्थि कासीससैन्धवैर्दारुणः स्मृतः ॥ ५ ॥ कपोतकं गृध्राणां मललेपेन दारुणः ॥ ६ ॥ दूर्वाभया सैन्धवैश्व चक्रमर्द कुठेरका | निशातत्रयुतो लेपः कण्डूदद्रुविनाशनः ॥ ७ ॥ चक्रहसर्षपयुक्ति कुष्ठं वावचिकारजनीद्वयतक्रम् | हन्ति विचर्चिक मण्डलदद्रूर्वर्षशतान्यपि नश्यति कण्डूः ॥ ८ ॥ पलाशपर्पटं घृष्ट्वा लेप्यं निम्बुरसेन वा । गुआदाली चित्रकं च प्रपुन्नाटजटाऽथवा ॥ ९॥ प्रपुन्नाटस्य वीजानि धात्री सर्जरसो निशा । लेपः सर्पपतैलेन घृष्ट्वा दद्रुविनाशनम् ॥ १० ॥
सरसों, सिरसके बीज, सनके बीज, अलशी, मूलीके बीज इनको मट्ठे में पीसकर लेप करनेसे गंडमाला, अर्बुद, गांठ दूर होवे । सांपकी कांचीकी राख कडुवे तेल में मिलाकर लगाने से गंडमाला जाय अर्थात् फूटजाय, सनके बीज, मूली के बीज, सहँजने की फली, तिल, सरसों, हींग, सुराबीज, अलशी इनका लेप करनेसे पकजाय | जमालगोटा, वीतेकी जड और छाल, थूहरका दूध, आकका दूध, गुड, भिलावेकी मिंगी, कसीस, सैंधानोन इनका लेप करने से गंडमाला
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( २८४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्रा धिकारः
जाय । पुरानी बेलगिरी, अरणी, जमालगोटा, चीता, कनेरकी जड, कबूतर और गीदडकी बीठ लेप करनेसे गंडमाला दूर हो जाय । दूर्वा, हरड, सैंधानोन, पमार, थूहर, हलदी इनको महेमें मिलाकर लेप करे तो खुजली दाद दूर होवे । पमाड, सरसों, तिल, कूठ, बावची, दोनों हलदी इनको ममें मिलाकर लेप करनेसे विचर्चिका और सौ वर्षका दाद तथा खाज दूर होवे ढककें बीज, पित्तपापडा इनको नींबू के रस में लेप करनेसे दाद दूर होवे चिरमिठी, देवदारु, चीता, पाडके बीज, इनका लेप करनेसे दाद दूर होवे. पमाडके बीज, आमलेका रस, सज्जी हलदी इनको सरसोंके तेलमें घोलकर लेप करे तो दाद दूर होवे ॥ १-१० ॥
सिध्मरोगे लेपः । दावमूलकबीजानि तालकं सुरदारु च । ताम्बूलपत्रं सर्वाणि कार्षिकाणि पृथक्पृथक् ॥ १ ॥ शङ्खचूर्ण शाणमात्रं सर्वाण्येकत्र कारयेत् । लेपोऽयं वारिणा पिष्टः सिध्मानां नाशनं परम् ॥ ३ ॥ धात्री सर्जरसश्चैव यवक्षारश्च चूर्णितः । सौवीरेण प्रलेपोऽयं प्रयोज्यः सिध्मनाशकः ॥ ३ ॥ सगन्धकं यवक्षारचूर्णपिष्टं निहन्ति तान् । अपामार्गरसात्विष्टमूलिकाबीज लेपतः ॥ ४ ॥ सर्वाङ्गसम्भवं सिध्मं नाशयत्यपि वेगतः ॥ ५ ॥ अनुभूतोयं लेपः ॥
दारुहलदी, मूली के बीज, हरताल, देवदारु, पान इन सबको जुदी जुदी चार चार टंक और शंखका चूरा १ टंक
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भाषाटीकासहितः ।
( २८५ )
लेवे इन सबको इकट्ठी पीसकर लेप करनेसे सिमकोट दूर होवे. आमला, केशर, सज्जी, जवाखार इनका चूर्ण कांजीमें मिलाकर लेप करनेसे सिध्म कोढ जाय । गंधक, जवाखार इनको कांजीमे मिलाकर लेप करनेसे सफेद कोढ जाय । ओंगाके रसमें मूलीके: बीज मिलाकर लेप करनेसे तत्काल सर्वांग सिध्मकोढ नाश होवे ॥ १-५ ॥ तारुण्यपीडिका
सप्तमः
1
पः । रक्तचन्दनमंजिष्ठा लोध्रं कुष्ठं प्रियंगवम् । वटारा हरिद्वे द्वे व्यङ्गहा मुखकान्तिदः ॥ १ ॥ कुष्ठतिलजीरकद्वय सिद्वार्था निशः युगै समः पयसा । लेपो वदनसुधाकरव्यङ्गकलङ्कं विनाशयति ॥ २ ॥ वटस्य पाण्डुपत्राणि मालती रक्तचन्दनम् । कुष्टं कालीयकं लोधमेभिर्लेपो विधीयते ॥ ३ ॥ तारुण्यपिडिकाव्यंगनीलिकादिविनाशनम् ॥ ४ ॥
रक्तचन्दन मंजीठ, लोध, कूठ, प्रियंगु, वटके अंकुर, दोनो हलदी इनकी बराबर मात्रा दूधमं मिलाकर लेप करे तो मुखकी कांति बढे और झांईके दाग दूर होवें. कुठ, तिल, दोनों जीरे, सरसों, हल्दी, दारुहलदी, इनको दूधके साथ लेप करने से मुखकी झाँइयोंको दूरकर मुखको चंद्रमा के समान निर्मल करता है । वटके पत्ते, चमेली, रक्तचन्दन, कूठ, अगर लोध इनका लेप करने से जवानी अवस्थासे होनेवाले मुहाँसे तथा मुखकी झाईं और नीले दाग दूर होवें ॥ १-४ ॥
नासारुधिरे लेपः ।
आमलकं घृतभृष्टं पिष्टं कांजिकवारिभिः । जयेन्मूर्द्धप्रलेपेन रक्तं नासिकया स्नुतम् ॥ १ ॥
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(२८६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:
आमलेको घृतमें भूनकर कांजीमें पीस माथेपर लेप करै तो नाकसे खूनका बहना बन्द होवे ॥ १॥
नेत्ररोगे लेपः। पथ्यागरिकसिंधृत्वदा/तायसमांशकैः । जलपिष्टैबहिर्लेपः सर्वनेत्रामयापहः ॥ १ ॥ हरीतकीसैन्धवमक्षशैलैः सगैरिकास्वच्छजलेन पिष्टैः। बहिःप्रलेपं नयनस्य कुर्यात्सर्वाक्षिरोगोपशमार्थमेतत् २ हरड, गेरू, सैंधानोन, दारुहलदी, रसौंत इनकी समान मात्रा ले जलमें पीसकर नेत्रों में लगाये तो नेत्रोंके सब रोग जावें, परन्तु नेत्रोंके बाहर लेप करे । हरड, सैंधानोन, अक्ष, शल, गेरू इनको साफ जलमें पीस कर आंखोंके बाहर लेप करे तो आंखोंके सर्व रोग नाश हो जावें ॥ १ ॥ २ ॥
केशकल्पलेपः। अयोरजो भृङ्गराजस्त्रिफला कृष्णमृत्तिका । स्थितमिक्षुरसे मांस लेपनात्पलितं जयेत् ॥१॥ त्रिफला नीलिकापत्रं लोहं भृङ्गरसः समम् ।
अजामूत्रेण सम्पिष्टं लेपाकृष्णीकरं स्मृतम् ॥२॥ त्रिफला लोहचूर्णं तु दाडिमं त्वग्विषं तथा। प्रत्येकं पञ्चपलिकं चूर्ण कुर्याद्विचक्षणः ॥३॥ भुंगराजरसस्यापि प्रस्थषट्कं प्रदापयेत् । क्षिप्त्वा लोहमये पात्रे भूमिमध्ये निधापयेत् ॥ ४॥ मासमेकं ततः कुर्याच्छागीदुग्धेन लेपनम् । कुर्याच्छिरसि रात्रौ च संवेष्टयैरंडपत्रकैः ॥५॥ स्वप्यात्प्रातस्ततःकुर्यात्नानं तेन प्रजायते ।
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२८७) पलितस्य विनाशश्च विभिलेपैर्न संशयः ॥ ६॥ ताम्रचूणे लोहचूर्ण तुत्थं माजूफलं तथा। धात्री ,गरसं नीली महिदीसर्वमीलितम् ॥७॥ लोहपात्रे तु लोहस्य मुसलेन विघर्षयेत् । शीर्षकूर्चादिपलिते लेपनात्केशरंजनम् ॥ ८॥ काकिण्याः पत्रमूलं सहचरसहितं केतकीनां च कन्दं छायाशुष्कं च भृङ्गं त्रिफलरसयुतं तैलमध्ये निधाय । निक्षिप्त्वा लोहभाण्डे क्षितितलनिहितं मासमेकं च यावत्केशाः
काशप्रकाशाभ्रमरकुलनिभा मासमेकं भवन्ति॥९॥ - लोहचूरा, भांगग, त्रिफला, कालीमिट्टी इनको लोहेके पात्रमें गन्नेके रसमें एक मास पर्यंत रखकर लेप करे तो बालोंका गिरना बन्द होजाय । त्रिफला, नीलके पत्ते, लोहका चूरन इनकी समान मात्रा ले भाँगरेके रस और बकरी के मूत्रमें पीसकर लगानेसे काले बाल हो जावें. त्रिफला, लोहे का चूर, अनारकी छाल पांच २ पल लेकर भांगरेके रसमें डालकर एक महीना जमीनमें गाड देवे. फिर बकरीके दूधमें मिलाकर गतमें लेप करे और ऊपर अंडके पत्ते बांधकर सोवे. फिर प्रातःकाल स्नान करडाले तो सफेद बाल एक वारके लेपसे काले हो जावे. तांबेका चूरा, लोहेका चूग, नीलाथोथा, माजूफल, आमले, नील, मेहँदी इनको लोहके बरतनमें लोहेके मूसलसे घोटे. इसके लगानेसे सफेद बाल काले होजावें, काकजंघाके पत्ते और जड, पियावाँसा, केतकीकी जड इनको छायामें सुखाकर भांगरा, त्रिफलाके
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( २८८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
रससंयुक्त तैलमें डाल लोहपात्रमें एक महीने पर्यंत जमीनमें गाड देवे फिर बालोंमें लगाने से भ्रमर के समान काले होजावें ॥ १-९ ॥ केशवर्धनम् । गोक्षीरे तिलपुष्पाणि तुल्येन मधुसर्पिषा । शिरःप्रलेपनं कुर्यात्केशसंवर्द्धनं परम ॥ १ ॥ हस्तिदन्तमषिं कृत्वा छागीदुग्धरसांजनम् । रोमाण्येतेन जायन्ते हस्तपादतलेष्वपि ॥ २ ॥ चतुष्पदानां त्वग्रोमनख शृङ्गास्थिभस्मभिः । तैलेन सह लेपोऽयं रोमसंजननं परम् || ३ ||
गौ दूधमें तिलके फूल, शहद, घी बराबर मिलाकर शिरपर लेप करे तो बाल बढ़ें । हांथीदांतको जलाकर रसौंतसहित बकरी के दूधमें मिलाकर शरीर में लगानेसे हाथ पैरामें भी रोम बढें । चौपायोंकी खाल और उनके रोम, नख, सींग, हाड इन सबकी भस्म करलेवे, फिर तेलके साथ मिला कर लेप करने से रोम उत्पन्न होवें ॥ १-३॥
रोमशातनम् । शंखचूर्णस्य भागौ द्वौ हरितालैकभागकम् । मनःशिलार्द्धभागा स्यात्सर्जिका चैकभागिका ॥१॥ लेपोऽयं वारिपिष्टस्तु केशानुत्पाटय दीयते । अनया लेपयुक्तया च सप्तवेलं प्रयुक्तया ॥ २ ॥ निर्मूलनं स्यात्केशस्य क्षपणस्य शिरो यथा ॥ ३ ॥ शंखकी भस्म दो टंक, हरताल १ टंक, मनसिल आधी टंक सज्जीखार १ टंक इनको पानीमें पीसकर लगावे तो बालों को उखाडे और सात बार लगानेसे निर्मूल करै । जैसे जैनी वैरागीका शिर ॥ १-३ ॥
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सप्तमः
भाषाटीकासहितः। (२८९)
अग्निदाहे लेपः। अग्निदग्धे तुगाक्षीरीप्लक्षचन्दनगैरिकैः । सामृतैः सर्पिषा स्निग्धैगलेपं कारयेद्भिषक् ॥ १॥ यवान् दग्ध्वा मषी कार्या तिलतैलेन संयुता। अयं सर्वाग्निदग्धेषु प्रलेपो व्रणलेपनः ॥२॥ निम्बपत्राणि सुरसा कुष्टं धात्रीफलानि च। . ईषदग्धे यथालाभे लेपनं भिषगुत्तमम् ॥ ३॥ कुष्ठं मधुकयष्टी च चन्दनैरण्डपत्रकैः ।
मध्ये दग्धे हितो लेपो दुग्धेन परिपेपितः ॥४॥ तवारखीर, पाखर, चन्दन, गेरू, गिलोय, घीसे चिकनाई कर वैद्य लेप करे तो अग्निका जला अच्छा होवे अथवा जलाये यव तिलके तेलमें मिलाकर लगानेसे अग्निका जला और फफोला अच्छा होवे । नींवके पत्ते तथा तुलसीके पत्ते, कूठ, आमला इनका लेप करनेसे थोडा जला हो वह अच्छा होवे. कूर, महुआ, मुलहठी, चन्दन इनका लेप दूधमें मिलाकर लगालेने मध्यम जला अच्छा होवे यह उत्तम लेप है ॥ १-४॥
हस्तपाददाहे लेपः। बदरीपल्लवलेपः श्रीखण्डारिष्टफेनसंयुक्तः । दातव्यः पदलेपः शाम्यति रुग्दाहकं तस्य ॥ सैन्धवं चैव खडिकालेपो दाहस्य नाशनः ॥ १॥ बेरके पत्तोंका लेप पैरोंपर करे वा चन्दन, नींबकी छालका लेप करनेसे पैरोंका दाह दूर होवे अथवा निमक और कलई, खडिया इनका लेप करनेस पैरोंका दाह नष्ट होवे ॥ १॥
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(२९० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:
अंत्रवृद्धौ लेपः। लाक्षा कांचनकाबीजं शुण्ठी दारुसगैरकम् । कुन्दरू कांजिकैलेंप्यमुष्णमन्त्रविवर्द्धने ॥३॥ लाख, कचनारके बीन, सोंठ, देवदारु, गेरू, कुंदुरूकी गोंद इनको कांजीके रसमें घोलकर गरम कर लेप करनेसे आंतोंका बढना दूर होवं ॥ १ ॥
नलवृद्धौ लेपः। एरण्डबीजं निर्गुण्डी निशा लाक्षा च पुष्करम् । आरनालेन संपिष्य उष्णं पिण्डीकरण्डहृत् ॥१॥ रामठं सैन्धवं कुष्ठं जीरकं गोमयान्वितम् । लेपस्तैलेन वा सम्यगन्तगण्डविनाशनः ॥२॥
अंडीके बीज, संभालू, हलदी, लाख, पोहकरमूल इनको कांजीमें पीस गरम कर लेप करनेसे नल न चढे. हींग, सैंधानोन, कूठ, जीरा इनको गोबरमें अथवा तेलमें पीसकर लेप करे तो अंतर्गलगंड दूर होवे ॥ १-२॥
अशीसे लेपः। शिरीषबीजकुष्ठार्कक्षीरपिप्पलिसैन्धवाः । लागलीमूलगोमूत्रैर घ्नं हन्ति चित्रकैः ॥ १॥ शिरसके बीज, कूठ, आंकका दूध, पीपल, चीता, कलिहारीकी जड, इनको गोमूत्रमें मिलाकर लगानेसे अर्शरोग अवश्य नाश होजाता है ॥ १ ॥ .
भगन्दरे लेपः । कासीस सन्धवैरण्डं तैलयुक्तं विमर्दितम् । भगन्दरं प्रलेपेन नाशयेनात्र संशयः ॥ १॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२९१)
कासीस, सैंधानोन, इनको अंडीके तेलमें पीसकर लगानेसे निस्संदेह भगन्दर दूर होवे ॥१॥
कुष्ठे लेपः। गृहधूमं पञ्चलवणं क्षारद्वयचक्रमर्दसलिले च । ब्योषं विषवह्निबृहतीरात्रिद्वयकुष्ठकंपिल्लैः ।। १॥ उपशिलासर्षपसूतक सिंदूरतुत्कासीसैः। गोमूत्रे संपिष्टैः स्नुह्यर्कदुग्धान्वितैर्लेपः ॥ २॥ कुष्ठमपहन्त्यशेषं समुत्थितमण्डलं समुल्लिखति । नाशयति सप्तबाराच्चिरमपि सवर्णयेच्चित्रम् ॥ ३॥ शिलालकोग्रारसताप्यगन्धक कंपिल्लतुत्थोषणसर्जिटंकणम् । कासीसकुष्ठं नवनीतसंयुतं स्त्रवत्सु कुष्ठेष्वधिकं प्रशस्तम् ॥४॥ घरका धुआं पांचों नोन, सज्जीखार, पमाडके, वीज इन सबको पानीमें पीसकर लेप करनेसे कोढ दूर होता है अथवा सोंठ, मिरच, पीपल, तेलिया मीठा, चीता, कटेरी, दोनों हलदी, कूठ, कवीला इनका लेप करनेसे कोढ जाय. वच, मनसिल, हरताल, सरसों, पारा. नीलाथोथा, कसीस इनको गोमूत्र वा थूहरके दूध अथवा आफके दूधमें पीसकर लेप करनेसे अठारह प्रकारके कोढ तथा मंडल दूर होते हैं तथा चर्मरोग भी दूर होवे और सात वार लगानेसे पुराना कोढको नाशकर समान वर्णकर देता है यह आश्चर्य है । मनसिल, हरताल, वच, पारा, गंधक, कबीला, नीलाथोथा, मिरच, सज्जी, सुहागा, कसीस, कूठ, इनको माखनके साथ लगानेसे बहता हुआ कोढ (गलितकुष्ठ ) दूर होवे ॥ १-४॥
कोट दूर होता हलदी,
सो, पारा
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(२९२) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
· श्वेतकुष्ठे लेपः । गुंजा वचाऽग्निकं कुष्ठं वाकुची कांजिकान्वितम् । सुपिष्टं चूर्णमेतेषां प्रलेपः श्वेतलक्ष्महत् ॥ १ ॥ चिरमिठी, वच, चीता, कूठ, बावची इन सबको कांजीके, पानीमें पीसकर लगानेसे सफेद कुष्ठ दूर होवे ॥ १॥
पामाकण्डूनां लेपः । सिन्दूर मरिचं तुत्थं रसं गन्धं द्विजीरकम् । गोघृतेन समायुक्तं सर्वाः कण्डूर्विनाशयेत ॥१॥ पाग, गन्धक, मिरच, नीलाथोथा, सिन्दूर, दोनों जीरे इनको गौके घीमें मिलाकर लगानेसे संपूर्ण खुजली दूर होवे ॥ १ ॥
पादस्फुटितोपरि लेपः । कनकभुजगवल्लीमालतीपत्रदूर्वारसगदकुनटीभिमर्दितस्तैललिप्तः। अपनयतिरसेन्द्रः कुष्ठकण्डूविचिस्फुटितचरणरन्धं श्यामलत्वं त्वचायाः ॥१॥
धतूरेके बीज, पान, मालतीके पत्ते, दुर्वा, पारा, कूठ, मनसिल, गंधक इनको पीसके तेलमें मर्दन करे तो यह रस कोढ खाज विवाई इनको दूर करे और त्वचा काली होवे ॥ १ ॥
मस्सालेपः। चूर्ण सर्जिकया पृष्टं मसा लेप्यं जलेन वा। तूर्णं नौसादरं चोतं तुत्थकं स्वर्णगैरिकम् ॥ १ ॥ चूना, सज्जी इनको पानीमें घिसकर लेप करै, तो मस्से दूर होवें अथवा नौसादर, चोक, नीला थोथा, लाल गेरू इनको पानीमें घिसकर लेप करनेसे मस्से दूर होवें ॥१॥
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भाषाटीकासहितः ।
प्रहारोपरि लेपः । सर्जिका च हरिद्रा च प्रहारे लेपनं हितम् । टंकणं सर्पिषा लेपः कालमेषीजलेन वा ॥ १ ॥ सज्जी हलदी इन दोनों को पीसकर चोटपर लेप करनेमें आराम होवे. सुहागाको घीम मिलाय लगानेसे या मंजीठके पानीका लेप करनेसे चोट अच्छी होवे ॥ १ ॥
ग्रन्थ्युपरि लेपः ।
सप्तमः ]
( २९३ )
मरिचं पुष्करं कुष्ठं हरिद्रा सैन्धवं वचा । सर्वग्रन्थौ हितो लेपः खटिकालवणेन च ॥ १ ॥ मिरच, पोडकरमूल, कूठ, हलदी, सैंधानोन, वच इनको पीसकर लेप करनेसे सर्व अंगकी गाँठ दूर होवे अथवा खडिया नोन पानी में घिसकर गांठपर लेप करनेसे गांठ दूर होवे ॥ १ ॥
स्फोटिका ( फोडा ) यां लेपः । कृष्णाजाजी ब्रह्मदण्डी मरिचं रामपिप्पली | स्फोटिकायां हितो लेपः पानं वा तण्डुलांमसा ॥ १॥ काला जीरा, ब्रह्मदंडी, मिरच, पीपल इनको पीस लेप करनेसे फोडा आराम होवें वा चांवलोंक पानीक साथ इनको पीनेसे आराम होवे ॥ १ ॥
वातरक्ते लेपः ।
दूर्वा मूर्वा शठी शुंठी धान्यकं मधुयष्टिका । सुपिष्टं शीततोयेन रक्तवाते प्रलेपनम् ॥ १ ॥ दूर्वा, मूर्वा, सोंठ, धनियां मुलहठी इनको ठंढे पानी में घिसकर लेप करने से वातरक्त दूर होवे ॥ १ ॥
पादस्फोटोपरि लेपः ।
ललनास्तनदुग्धेन सिक्तं गुडघृतं मधु ।
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(२९४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
गैरिका स्फुटपादोऽपि जायते पंकजोपमः॥१॥ स्त्रीके स्तनका दूध, गुड, घी, शहद, गेरू इनको मिलाय लेप करनेसे फटे हुए पैर कमलके समान होवें ॥ १ ॥
भगे लेपः । सूकडं धातुकी जांगी सौराष्ट्री फुल्लकं तथा। माजूफलं होहबेरं लोधं दाडिमत्वक्तथा। कादंबर्या भगे लेपो गाढीकरणमुत्तमम् ॥१॥
कूठ, धायके फूल, बडी हरड, फूली फटकरी, माजूफल, दाउवेर, लोध, अनारकी छाल इनमें शराब मिलाकर लेप करनेसे योनि दृढ होय ( अर्थात् सिकुडजाय ) ॥१॥
लिङ्गदृढीकरणम् । मरिचं सैन्धवं कृष्णा तगरं बृहतीफलम् । अपामार्गस्तिलाः पुष्टं यवमाषाश्च सर्षपाः ॥१॥ अश्वगन्धा च तच्चूर्ण मधुना सह योजयेत् । अस्य सन्ततलेपेन मर्दनाच्च प्रजायते। लिंगवृद्धिः स्तनोत्सेधसहिता भुजकर्णयोः ॥२॥ बृहतीफलसिद्धार्थकव्याधिवचातगरतुरगगन्धाभिः । एभिः प्रलेपितं स्यात्पुरुषवराङ्गं हयस्येव ॥३॥ मिरच, सैंधानोन, पीपल, तगर, कटेरीका फल. ओंगा, तिलं, कूठ, जौ, उडद, सरसों, असगंध इनका चूर्ण शहदमें मिलाकर सदा लेप करनेसे तथा मलनेसे लिंग बढे । तथा घोडेके समान हो जाय, स्तनकी वृद्धि होवे तथा भुज और कान इनकी वृद्धि होवे । वृहतीफल, सरसों, वायविडंग, वच, तगर और असगंध इनका लेप करनेसे पुरुषका लिंग घोडेके लिंगसमान होता है ॥ १ ॥
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भाषाटीकासहितः ।
मलहम १-२ |
तप्ते घृते क्षिपेत्थमुत्तार्य मदनं क्षिपेत् । सर्वस्मिन् गलिते तस्मिवर्ण मेषां विनिक्षिपेत् ॥ १ ॥ कुंकुमं मुरदा शृङ्गं सिन्दूरं हिंगुलं तथा । क्षिप्त्वा ततो जलं भूरि हस्तेन परिमर्दयेत् ॥ २ ॥ दूरीकृत्य जलं सर्वे सिद्धभाण्डे निधापयेत् । दग्धत्रणे दग्धमे चन्द्रिकायां सदाहितम् ॥ ३ ॥ तप्ते घृते क्षिपेत्तुत्थमुत्तार्य च क्षिपेदिमान् । कपिलं मुरदा शृङ्गं खदिरं रङ्ग पत्रिका | क्षिप्त्वा जलं मथित्वा तत्सर्वत्रणविरोपणम् ॥ ४ ॥
सप्तमः ]
( २९५ )
१-धीको तपाकर उसमें नीलाथोथा डालकर उतारलेवे फिर मोम और नीचे लिखी औषधियोंको डाले-केशर, मुरदासिंग, सिन्दूर, सिंगरफ इनको डालकर और बहुतसा जल डालकर हाथसे मर्दन करे फिर जलको अलग कर फिर मलहमको किसी बरतन में रखलेवे । इस महलमके लगाने से जलनेके फफोले, गग्मीके चकत्ते और गरमी दूर होवे । तपे हुए घीमें नीलाथोथा डालकर उतारकर इन औषधि योको और डाले -कवीला, मुग्दासिंग, खैग्सार, गंगके तबक इनमें जल डालकर मथे फिर अच्छे पात्रमें रक्खे इसके लगानेसे संपूर्ण व्रण दूर होवें ॥ १-४ ॥
तप्ते घृते क्षिपेद्रालमुत्तार्य च जलं क्षिपेत् । मथित्वा निर्जलं कृत्वा व्रणादौ तत्प्रयोजयेत् ॥ ५ ॥ मर्दनं मस्तकी तुत्थं रालि सिन्दूर टङ्कणम् । गुग्गुलं मुरदाशृङ्ग बेरजं रंगपत्रिका ॥ ६ ॥
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( २९६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
कंपिल्लं कुंकुमं क्वाथं माजूमदनकट्फलम् । मरिचं हिंगुलं जांगी पला चेति समाः समाः ॥ ७ ॥ लोहपात्रे घृते तप्ते यथायोग्यमिमान् क्षिपेत् । प्रक्षिप्य च जलं पश्चान्मथित्वा जलमुत्सृजेत् ॥ ८ ॥ तत्स्थापयेच्छुभे भांडे व्रणादौ विनियोजयेत् । नासूरचन्दनादुष्टव्रणशोधन रोपणम् ॥ ९ ॥
२ -- तपे हुए धीमें राल डाल उतार कर पानी डालकर ऐसा मये कि, उसमें पानी न रहे। इसके लगानेसे फोडा फुनसी दूर होवें । मोम, मस्तंगी, नीलाथोथा, राल, सिन्दूर, सुहागा, गूगल, मुरदा सिंग, बेरकी मींगी, गोंड, गंगके वर्क, कबीला, केशर, माजूफल, मैन - फलका काढा, मिरच, सिंगरफ, बडी हरड, इलायची इन सब चीजों को बराबर लेकर लोह गत्रमें घीको तपाय उसमें यथायोग्य इन औषधियोंको डालकर मये और जलको दूर करे फिर उस मलहमको अच्छे पात्र रख देवे और फोडा, फुनसियोंपर लगाये इनके लगाने से नासूर, चकत्ते, दुष्टव्रण इनका शोधन करे तथा आराम होवे ॥५-९॥ उदगेपरि लेपः ।
विषं तुत्थं तथा गुञ्जा सिन्दूरं नवसादरम् । नरमूत्रेण संघृष्य कृत्वा रुधिरमोक्षणम् ॥ १ ॥ विपं च सूतं नवमादरं च मयूरतुत्थं कलहंसवल्लीम् । शल्ये च नष्टे शतवर्षपक्के वातारिगद्यं मुनयो वदन्ति२ ॥
तेलिया मीठा, नीलायोथा, चिरमिठी, सिंदूर, नौसादर इनको मनुष्य के मूत्रमें घिसकर रुधिर निकालकर तेलिया मीठा, पारा, नीलाथोथा, नौसादर, हंसपदी इनका नेप
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सप्तमः ] भाषाटोकासहितः। (२९७) करनेसे नष्ट संधियोंका दर्द सौ वर्षतकका पकाहुआ घाव आराम होवे, यह दवा मुनीश्वरोंने कही है ॥ १ ॥ २॥
विषोपरि लेपः। . सिन्दूरं विषपारदं सुगणिका चोकं विषं सर्जिका क्षारंत्र्यूषणसंचलं सलवणा पंचार्णवाग्रे निशे । एरंडं स्वरगंधकं हिरमजा रक्तावली अनिका नेपालं नवसादरं क्षुपरकं भागः समैः पेषयेत् ॥ १॥ गोमूत्रेण गुडेन चार्कपयसा नुह्याश्च धूमा गृहादेतनामरसेन सिंहसहितः सारङ्गराजोऽगदः ॥२॥ सिन्दूर तेलियामीठा, पारा, सुहागा, चूक, निसोत, सज्जीखार, सोंठ, मिरच, पीपल,पांचों नोन, दोनों हलदी,कमलपत्र वच, फटकरी, मंडी, कपूर, मंजीठ, चीता, नौसादर इनकी बराबर मात्रा लेकर गोमूत्र तथा गुड या आकका दूध वा थूहरका दूध इनमें मिलाकर लगानेसे सम्पूर्ण विषरोग दूर होवें. यह सारंगराजने कहा है ॥१॥२॥
सर्पविषगदे लेपः। शम्भोः कण्ठनिवासनं मनशिला नौसादरं नीलकं साजीचौककचूरसावणरसं धूमं च मात्राद्वयम् । नेपालं विषगन्धकं च लशुनं शिल्या च मूत्रं नरेरित्येतद्विषनाशनं हि मुनिभिः कालाहिभुक्ते स्मृतम्
तेलियामीठा, मनसिल, नौसादर, नीलाथोथा, सज्जी. चौक, कपूर, सावनका रस, धुआं इनका दो टंक, जमालगोटा, गंधक, लहसन ये सब औषधि मनुष्यके मूत्रमें मिलाकर विषपाडापर लगावे तथा मले तो सर्पके काटनेका विष दूर होवे ॥ १॥ .
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(२९८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
रुधिरस्रावादौ कालनिश्चयः । शरत्काले वसन्ते च कुर्याद्रक्तस्रुतिनरः । तुम्बीशृंगीजलौकाभिः शिरामोक्षैः करैस्तथा ॥१॥ आषाढ आर्द्राशरदीह चन्द्रावसंतके मीनगते च भानौ। वमिविरेचं रुधिरतिश्चतदानराणांसुखदाभवन्ति ॥२॥
शरत्कालमें तथा वसंतकालमें स्त्री तथा पुरुष रुधिर निकलवावें. तुम्बी, सींगी, जोंक फस्त इन करके नसोमसे आषाढ और आाके सूर्यमें, शरत, चित्राके सूर्य, वसंत, मीन के सूर्य इन ऋतुओंमें वमन, दस्त (जुल्लाब) और रुधिर निकलवाना पुरुषोंका सुख देनेवाला है ॥ १॥२॥
- रक्तस्रावे शृंग्यादीनामियत्ता । दशाङ्गुलं हरेच्छृङ्गी तुम्बी च द्वादशाङ्गुलम् । जलौका हस्तमात्रं तु शिरा सर्वांगशोधिनी॥१॥ क्षुरश्चांगुलमात्रंतु गृह्णाति रुधिरं बलात् ॥२॥ दश अंगुल रुधिरको सींगी निकालती है और तूंबी बारह अंगुलको निकालती है, जोंक हाथभरका खून खींचती है और फस्त कुल शरीरका रुधिर निकालती है और नश्तर एक अंगुलमात्र बलकर खींचती है ॥ १ ॥२॥
रक्तस्रावे योग्यरोगी । शोफ दाहेऽङ्गपाके च रक्तवर्णेऽसृजः सुतौ । वातरक्त तथा कुष्ठे सपीडे दुर्जयेऽनिलेः ॥ १॥ पाण्डुरोगे श्लीपदे च विषदुष्टे च शोणिते । ग्रन्थ्यर्बुदापचीक्षुद्ररोगरक्ताधिमादिषु ॥ २॥ विदारीस्तनरोगेषु गात्राणां स्वरगौरवम् ।
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२९९.) रक्ताभिष्यंदरौद्रायां पूतिनाणस्य देहके ॥३॥ यकृत्प्लीहविसर्पेषु विधौ पिटिकोद्गमे। कर्णोष्ठघाणवक्रांणां पाके दाहे शिरोरुजि ॥४॥ उपदंशे रक्तपित्ते रक्तस्रावः प्रशस्यते ॥५॥
सूजन, दाह, अंगका पकना, देह का लाल होजाना इनमें रुधिर निकलवावे । वातरक्त, कोढ, पीनस, दुष्टवात, पांडुरोग, श्लीपदविषदुष्ट इन करके रुधिर दुष्ट होवे तो निकलवावे और गांठ, अर्बुद, अपची, क्षुद्ररोग, रक्त व्रण, स्तनरोग, स्वरभंग, रुधिर विकार होवे तो रुधिर निकलवावे, कान, होंठ, नाक, मुँह यह सब पकजा अथवा इनमें दाह होवे वा, शिरमें दरद होवे अथवा यकृत, प्लीहा, विसर्प विद्रधि, फोडे, उपदंश, रक्तपित्त इनमें भी रुधिर निकलवावे ॥ १-५॥
___ रक्तस्रावे अयोग्याः। न कुर्वीत शिरामोशं कृशस्यातिव्यवायिनः । क्लीवस्य भीरोगर्भिण्याः सूतिकापाण्डुरोगिणाम् ॥ १॥
दुर्चल, अतिमैथुन करनेवाला, नपुंसक, गर्भवाली स्त्री, भयभीत, पांडुरोगी इनका रक्त न निकाले ॥ १ ॥
. रक्तस्रावे वानि । व्यायाममैथुनकोशीतस्थानप्रवातकान् । एकाशनं दिवा निद्रां क्षाराम्लकटुभोजनम् ।
अभिजल्पं जलं भूरि त्यजेदाबलदर्शनात् ॥१॥ कसरत, स्त्रीसंग, क्रोध, शीत और वातवाले स्थानमें बैठना एक बार भोजन, दिनमें सोना, खारा खट्टा कडवा भोजन, बहुत बोलना.
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. (३००)
योगचिन्तामणिः।
[मिश्राधिकारः-.
बहुत पानी पीना इन सबको जबतक देहमें बल न आवे तबतक त्याग देवे ॥१॥
जलूकादिदंशस्त्रावे उपचारः। अतिप्रवृत्ते रक्ते च यवगोधूमचूर्णकैः । सर्पनिर्मोकचूर्णैर्वा क्षौमवस्त्रस्य भस्मना । मुखे व्रणस्य बद्धा च शीतैश्चोपचरेव्रणम् ॥ १॥ जलौकादि दशादिमें जो अति रुधिर बहता होवे तौ जौका आटा, गेहूंका आटा, सर्पकी कांचली, रेशमी कपडेकी राख इनको पीसकर कोडेके मुँहपर बांध देवे और शीतल उपचार करे ॥ १ ॥
नस्यविधिः। उत्तानशायिनं किंचित्प्रलम्बशिरस नरम् । आशीर्णहस्तपादं च वस्त्राच्छादितलोचनम् ॥ १॥ समुन्नमितनासाग्रं वैयो नस्येन योजयेत् । कोष्णमच्छिन्नधारं च हेमतारादिशुक्तिभिः ॥२॥ नस्येष्वासिच्यमानेषु शिरो नैव प्रकम्पयेत् । न कुप्येन प्रभाषेत नोच्छिक्केन हसेत्तथा ॥३॥ उपविश्याथ निष्ठीवेज्राणवक्रगतं द्रवम् । वामदक्षिणपार्श्वभ्यां निष्ठीवेत्सम्मुखे न हि ॥४॥ मनुष्यको सीधा सुलाकर माथा ऊंचा रक्खे और लंबा शिर कर हाथ परोंको फैलादेवे और कपडेसे आंख ढकलेवे और नाकको ऊंचा करके वैद्य सोना, चांदी, सीपीमें भर कर नस्य देवे, फिर गरमपानीकी धारा देवे, अच्छिन्न अर्थात् धार टूटे नहीं, तथा वह नास लेनेवाला शिरको हिलावे नहीं, और न क्रोधित होवे, न बोले, न छींके,
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सप्तमः ]
भाषाटीका सहितः ।
( ३०१ )
न हँसे । फिर उठकर छींक लेवे और नाक मुँह सें पानी गिरे तो बांई तथा दाहिनी तरफ थूके सम्मुख न थूके । यह नास्यविधि कही है ॥ १-४ ॥
नस्यं स्याद्गुडशुंठीभ्यां विकारे वातके हितम् । शर्करा घृतयष्टीभिः पित्तके नस्यमेव च ॥ १ ॥ श्लेष्मके सुरसावासारसं सुविहितं च तत् । विडङ्ग हिंगुमगधा कृमिदोषे हितं मतम् ॥ २ ॥ रक्तजेऽसृग्विरेकं तु शिरोरोगमुपक्रमः । शर्करा कुंकुमं नस्यं घृतभृष्टं शिरोर्तिनुत् ॥ ३ ॥ समुद्रफलनस्येन छिक्किन्या सम्भवेन वा । षड्बिन्दुतैलनस्येन यान्ति रोगाः कपालजाः ॥ ४ ॥
वातविकारवालेको मुड और सोंठकी नास देवें । पित्तविकार में मिश्री घी और मुलहठीकी नास देवे । इलेष्म ( कफ ) के विकार में तुलसी, और अडूसेके रसकी नास देवे. जो मस्तक में कीडे पड जायँ तो वायविडंग, हींग, पीपलकी नास देवे तो हित करे । रुधिर से मस्तक भारी होजाय तो खांड और केशरको घीमें भूनकर बूराकी नास देवे । समुद्रफल की अथवा नकछिकनीकी और षडविन्दु तेलकी नास लेनेसे कपार के सब रोग नाश होवें ॥ १-४ ॥
सैन्धवं श्वेतमरिचं सर्षपाः कुष्ठमेव च । बस्त मूत्रेण पिट्वा च नस्यं तन्द्रानिवारणम् ॥ ५ ॥ दूर्वारसो दाडिमपुष्पजो वा प्राणप्रवृत्तेऽसृजि नस्यमुक्तम् । स्तन्येन वाऽलक्तरसेन वापि विण्मक्षिकाणां विनिहन्ति हिक्काम् ॥ ६ ॥
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(३०२ ).
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकार:
नस्यं दाडिमपुष्पोत्थं रसो दूर्वाभवस्तथा । आम्रास्थिमिलिता दूर्वा नासिकाच्युतरक्तजित् ॥ ७ ॥
सैंधानोन, सफेद मिरच, सरसों, कुछ इनको बकरीके मूत्रमें 'बीसकर नस्य देनेसे तन्द्रा दूर होवे. दूबका रस, अनारके फूल इनकी नस्य देनेसे नकसीर दूर होवे. स्त्रीका दूध, महावरका रस, मक्खी की बीट इन सबकी नास देनेसे हिचकी दूर होवे । अनार के फूलका रस, दूका रस, आमकी गुठली इनको बके रस में मिलाकर नास देने से नकसीर बहती बन्द होवे ॥ ५-७ ॥
एकं वृहत्याः फलपिप्पलीकं शुंठीयुतं चूर्णमति प्रशस्तम् । प्रात्रापयेद् घ्राणपुटेऽतिसंज्ञां करोति चेष्टां विनिहन्ति मूर्च्छाम् ॥ ८ ॥ एलीयकंवचा तिक्ता मुस्ता कट्फलजं रसः । उद्भूलयेत्रिदोषोत्थे स्वेदाभिष्यन्दजे ज्वरे ॥ ९ ॥
कटेरीका एक फल, पीपल और सोंठ इनका चूर्ण कर कागजकी कुकनी बनाय नाक में फूंकनेसे मूर्च्छाका नाश करें और संज्ञा तथा वेश होवे. एलुआ, वच, कुटकी, नागरमोथा, कायफल इनके रसका उलन ( शरीरमें मालिश करना ) त्रिदोषज्वरवालेको सचेष्ट करे ॥ ८-९ ॥
नासिकया जलपानम् ।
द्विघटिघननिशायां प्रातरुत्थाय नित्यं पिबति खलु नरो यो प्राणरन्ध्रेण वारि । स भवति मतिपूर्णश्चक्षुषा तार्क्ष्यतुल्यो वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तः ॥ १ ॥ अपस्मारे तथोन्मादे शिरो
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सप्तमः] . भाषाटीकासहितः। (३०३)
रोगे च पीनसे । अचैतन्येऽक्षिनासादिरोगे नस्यं दिवा हितम् ॥२॥ एकान्तरं द्यन्तरं वा नस्य दद्याद्विचक्षणः । व्यहं पञ्चाहमथवा सप्ताहं वा सुयंत्रितः॥३॥ दो घडी रात रहे तब उठकर नाकके रस्तेसे नित्य पानी पीवे तो बुद्धिमान् होवे. नेत्र गरुडके नेत्रों के समान होजावें कभी बुढापा न आवे. तथा कोई रोग न होवे. मिरगी उन्माद, शिरके रोग, पीनस, बेहोशी, नासारोग इनमें नस्य देनाही उत्तम है। एक दिन बीचमें देकर अथवा दो दिन बीचमें देकर या तीन दिन बीचमें देकर वा सात दिन बीचमें देकर अच्छा वैद्य युक्तिपूर्वक नस्य देवे ॥ १-३ ॥
___ वायुरोगेषु विरेचनविधिः। शरत्काले वसन्ते च प्रावृटूकाले च देहिनाम् । वमनं रेचनं चैव कारयेत्कुशलो भिषक् ॥१॥ त्रिदिनं पाचनं पूर्व गृहीत्वा घृतभोजनम् । स्नेहनं स्वेदनं कृत्वा दद्यात्सम्यग्विरेचनम् ॥२॥ दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लंघनपाचनैः। ये तु संशोधनैः शुद्धास्तेषां न पुनरुद्भवः ॥३॥ पीत्वा बिरेचनं शीतं जलैः संसिच्य चक्षुषी। सुगन्धि किंचिदानाय ताम्बूलं शीलयेन्नरः ॥१॥ निवातस्थो न वेगांश्च धारयन्न स्वपेत्तथा। शीताम्बु न स्पृशेत्वापि कोष्णं नीरं पिबेन्मुहुः ॥५॥ शरत्काल, वसंत, बरसात इन ऋतुओंमें वैद्य मनुष्योंको बमन, 'वरेचन करावे । पहले तीन दिनतक विरेचन ( मुंजिस ) देवे और
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(३०४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकार:
घृत भोजन तथा खिचडी आदि नरम भोजन करावे, तेल लगावे । पसीना निकलवावे, पीछे भले प्रकार विरेचन करावे । लंघन और पाचनेसे जो रोग जीते गये हैं वे कदाचित् कुपित होजाते हैं, परंतु संशोधन (विरेचन ) से नाश हुए रोग फिर कभी उनका कोष नहीं होता, विरेचन वस्तु लेकर आंखोंको जलसे धोवे और फूल अतर इत्यादिककी कुछ सुगंध सूंघे, पान खावे, जहां हवा न लगती हो वहां बैठे, बहुतसी मेहनत न करे, सोवे नहीं, टंढे जलका स्पर्श न करे और जब प्यास लगे गुनगुना जल वारवार पीवे ॥ १-५ ॥ इच्छाभेदी च नाराचच्छुरीकारो रसोऽथवा । पूज्यपादगुटी शीतं रचत्युदयभास्करः || ६ || अभयामोदकं पश्चात्किरमालादिपंचकम् । दंती विशाला मुग्दुग्धखण्डेन त्रिवृता तथा ॥ ७ ॥ दुग्धेनैरंडतैलेन अथ दुग्धेन नागरम् । उष्टी पयोऽथ कंपिल्लं घोडाचोली गुटी तथा ॥ ८ ॥ मात्रोत्कृष्टा विरेचस्य त्रिंशद्वेगैः स्मृताऽथ वा । वेगैर्विंशतिभिर्मध्या हीनोक्ता दशवेगकैः ॥ ९ ॥
1
विरेकस्यातियोगेन मूर्च्छा भ्रंशो गुदस्य च । शूलं कफोऽतिच्छर्दिः स्याद्रक्तं वापि विरिच्यते ॥ १० ॥ तदा शीताम्बुना हस्तौ पादौ प्रक्षालयेन्मुहुः ॥ ११ ॥
इच्छाभेदी नाराच, छुरीकार रस, पूज्यपाद गोली, उदय भास्कररस विरेचनको निरा ठंढे जलसे देवे, अभयादिमोदक, अमलतासका पंचक, जमालगोटा, इन्द्रायण, सेहुं
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(३०५)
डका दूध, खांडके संग निसोत, दूधमें अथवा सोंठ, ऊंटनीका दूध, कबीला अथवा घोडाचोली गोली देवे । तीस वेग होवें तो विरेचनको श्रेष्ठ जानना, वीस वेग होवें तो मध्यम जाने और दश वेग होवें तो हीन जुलाब जाने । विरेचन जियादा होवें तो मूर्च्छा हो, भ्रम हो, मुदामें दरद होवे, कफ और रुधिरकी उलटी को और दस्तके गन्तेसे रुधिर जाय तो ठंढे पानीसे बार २ हाथ पैरोको धोवे ॥ ५- ११ ॥ शालिभिः पाष्टिकैर्दुग्धैर्मरैश्वापि भोजयेत् । पित्ते विरेचनं युंज्यादामोद्भूते तथा गदे । उदरे च तथाssध्माने कोष्ठशुद्धौ विशेषतः ॥ १२ ॥ कुष्टाः कृमिविसर्पवातासृक्पाण्डुरोगिणः । कफकासविषार्ताश्च विरेच्याः स्युभिषग्वरैः ॥ १३ ॥
साँठीचावल और मसूर की दाल पथ्यमें खावे और पित्त के रोग में विरेचन देवे तो आमरोग, उदररोग, अफरा, कोटा इनकी शुद्धि करे. विशेष करके कोट, अर्श, कृमी, विसर्प, वात रुधिर, पांडुरोग, कफ, खांसी, विषकी पीडावालेको विरेचन लेना चाहिये ॥ १२ ॥ १३ ॥
विरेचनायोग्याः । बालवृद्धावतिस्निग्धः क्षतक्षीणो रुजान्वितः । श्रांतस्तृषार्त्तः स्थूलश्च गुर्विणी च नवज्वरी ॥ १ ॥
नवप्रसूता नारी च मन्दाग्निश्च मदात्ययी । शल्यार्दितश्च रूक्षश्च न विरेच्या विजानता ॥ २ ॥
बालक, बूढा, अतिकोमल, क्षीणचल, डरपोक, हाराहुआ, प्यास करके दुःखित, मोटा, गर्भवती स्त्री, नये ज्वरवाला, हालकी जनी हुई
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(३०६) योगचिन्तामणिः। मिश्राधिकार:स्त्री. मंगग्निवाला, अत्यंत मद्य पीनेवाला, जिसकी संधियोंमें दरद होते, रूखा भाजन करनेवाला इनको चतुर वैद्य विरेचन न देवे ॥१॥२॥
वमनम् । कासे श्वासे कफव्याप्ते हृद्रोगे विषपीडिते । गलशंड्यां भ्रमेकुष्ठे वमनं कारयेषिकू ॥१॥ पीत्वा यवागूमाकण्ठं क्षीरतक्रदधीनि वा। भुक्ता श्लेष्मलं भोज्यं स्निग्धः स्विन्नस्ततो वमेत् ॥ २॥ वमनेषु च सर्वेषु सैन्धवं मधुना हितम् । कृष्णाराठफलं सिन्धुं कफे कोष्णजलैः पिबेत् ॥३॥ पटोलवामानिम्बैश्च पित्ते शीतजलं वित् । सश्लेष्मवातपीडायां सक्षीरं मदनं पिबेत् ॥ ४॥ अर्जीणे कोष्णपानीयं सिन्धुं पीत्वा वमेत् सुधीः । कंठमेरण्डनालेन स्पृशन्तं वामयेद्भिषक् ॥५॥ पिप्पलीन्द्रयवा सिन्धुस्तथा मदनकं फलम् । कवोष्णं मदनालीढं वामयेक फरोगिणम् ॥६॥ अम्लतकं सलवणं तथा मदनकं फलम् । तुत्थं कार्पासमजा वा श्वानविड् विषवामने ॥ ७ अतिवांतौ भवेदिकां कंठपीडा विसंज्ञिता। शाम्यत्यनेन तृष्णायाः पीडाच्छर्दिसमुद्भवा ॥ ८॥ धात्र्यन्त्रनारसोशीरलाजचन्दनवारिभिः । मन्थं कृत्वा पाययेच सघृतं क्षौद्रशर्करम् ॥ ९॥
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विकार । कफवात अडूसा. नावान, कफविकासान और शहद
' सप्तमः ] भाषाटीकासहितः।
(३०७) खांसी, श्वास, कफकरके युक्त, हृदयरोग, विषपीडित, गलेमें फन्दा पडे, भ्रम, कुष्ठवाले इनको वैद्य वमन करावे । लपसी पीवे और खुब दूध पीवे अथवा मट्टा, दही पीवे और कफकारक चीजोंका भोजन करे फिर वमन करावे । सब क्मन कराने में सैंधानोंन और शहद हितकारी है. पीपल, मैनफल, सैंधानोंन, कफविकारमें गरम जलके साथ देवे । पटोलपत्र, अडूसा. नींबके पत्ते, पित्त विकारमें ठंढे जलके साथ पीवे । कफ वात विकारमें दूधके साथ मैनफल पीवे । अजीर्ण. विकारमें सैंधानिमक गरम जलके साथ पीवे तो वमन होवे और गलेमें पतली अंडकी लकड़ी डालकर वैद्य दमन करावे । पीपल, इन्द्रयव, सैंधानोन, मैनफल इनको शहदमें मिलाकर चटानेसे कफरोगीको वमन होवे खट्टा, मीटा, सैंधानोन तथा मैनपल, नीलाथोथा, कपासकी मांगी अथवा कुत्तंकी बीटसे जिसने विष खाया हो उसे वमन करावे। बहुत वमन करानेसे यह रोग पैदा होते हैं-हिचकी, कण्टमें दरद, बेहोशी और प्यास लगे. इनकी शांतिके अर्थ यह दवा देवे-आमला, निसोत, खस, धानकी खील इनको जलमें मथकरके पिलावे अथवा घी शहद दे तो आराम होवे ॥ १-९॥ . ..
स्वेदः।...
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स्वेदश्चतुर्विधः प्रोक्तस्तापोष्णौ स्वेदसंज्ञितौ । उपनाहो द्रवः स्वेदः सर्वे वातातिहारिणः ॥१॥ पसीना चार तरहसे उत्पन्न होता है-एक तो ताप, दूसरा उष्ण, तीसरा उपनाह, चौथे द्रव. यह चार प्रकारके स्वेद वातके हरने बाले हैं ॥१॥
तेषु तापाभिधः स्वेदो वालुकावस्त्रपाणिभिः। , कपालं कण्टकाङ्गारैर्यथायोग्यं प्रयुज्यते ॥२॥
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(३०८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः- ताप स्वेद वह है-जो कपडेमें वालू भरकर गरम करके सेंके अथवा ठीकरेमें अंगार भरकर सुहाता सुहाता सेंक करे ॥ २ ॥
उष्णस्वेदः प्रयोक्तव्यो लोहपिण्डेष्टकादिभिः। प्रतप्तेरम्लसिक्तैश्च कार्यो नक्तकवेष्टितैः ॥३॥ उष्णस्वेद-लोहेका गोला अथवा ईट इनको गरमकर महेमें बुझाकर और कपडा लपेटकर सक करै ॥ ३ ॥ खप्परभृष्टपटस्थितकांजिक सिक्तो हि वालुकास्वेदः। शमयति वातकफामयमस्तकशूलांगभंगादीन् ॥४॥ खपा के ऊपर भुनीहुई वालको कपडेमें बांध गरम कर कांजीमें बुझाके सेंक करनेसे वायु कफके रोग, मस्तकका दरद, अंगभंग इनको यह स्वेद दूर करै ॥ ४ ॥
फलस्वेदं घटीस्वेदं वालुकास्वेदमेव च । कारयेद्धस्तपादेषु-तथा शिरसि युक्तितः ॥५॥ अग्नितप्तेष्टका सिक्ता कांनिकेन पुनः पुनः। सवस्त्रया तया स्वेदो रुजंजयति वातजाम् ॥६॥ पुरुषायाममात्रं वा भूमिसुत्कीर्य खादिरैः। काष्ठैर्दग्ध्वा तथाऽभ्युदयक्षीरधान्याम्लवारिभिः॥७॥ वातघ्नपत्रैराच्छाद्य शयानं स्वेदयेत्ररम् । एवमापादिभिः स्विन्ने शयानं स्वेदमाचरेत् ॥८॥ ईट, पत्थर, ठीकरा, बालू इनसे स्वेद करावे और युक्ति करके इतनी जगहपर करावे-हाथ, पैर, शिर। अनिमें ईट वा बालूको पाकर कां में बुझाय कपडे में बांधकर बार पार
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(३०९ )
सेंक करनेसे जो स्वेद उत्पन्न होता है । वह स्वेद वात करके जितने रोग उत्पन्न होते हैं उन सबका नाश करता है । पुरुषकी बराबर पृथ्वी में लम्बा गढा खोदकर खैरसार की लकडी उसमें जलावे पीछे अंगारोंको उसमें से निकाल कर दूध, कांजी या धानके पानी से बुझाकर अंडके पत्तोंको ऊपर नीचे लगाकर और मनुष्यको सुलाकर स्वेदन करे ॥ ५ ॥
कटाहे कोष्टके वापि सूपविष्टो विगाहयेत् । नाभेः षडंगुलं यावन्मनः काथस्य धारया ॥ ९॥ कोष्ठे च स्कन्धयोः सिक्तस्तिष्ठेत्स्निग्धतनुर्नरः । एवं तैलेन दुग्धेन सर्पिषा स्वेदयेन्नरः ॥ १० ॥
कढाही वा किसी और पात्रमें मनुष्यको बैठाकर स्वेदन करे, जबतक काढेकी धारासे ट्रेंडी छः अंगुन ऊंची रहे अर्थात टुंडीके नीचे जल रहे तबतक उसमें बैठा रहने और काढेकी धारा से ( कोठा ) और कन्धों को सेंके उसी प्रकार मनुष्य खड़ा है, इसी प्रकार तेल दूध और घृतसे स्वेदन करे ॥ १० ॥
अथ बन्धनम् ।
तप्तभस्मनृमूत्रेणात्युष्णा गर्दभविट् तथा । उष्णं सर्षपपिण्याकं तैलं कोष्णा च गाढमृत् ॥ १ ॥ स्निग्धोष्णान्यर्कपत्राणि मधुकं वटपत्रकैः । स्वेदयित्वा च बध्नीयादुदराध्मानशान्तये ॥ २ ॥
गरम राख मनुष्य के सूत्र में सानकर बांधे तथा गधेकी गरम लीद बांधे वा सरसोंकी गरम खल वांधे अथवा जहां घानीके बैल चला.
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( ३१० )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकार:
करते हैं उस जगहकी मिट्टी बांधे अथवा चिकने और गरम आकके पत्ते अथवा महुआ के पत्ते तथा वडके पत्ते बांधे । इस प्रकार स्वेदन करके बांधने से पेटका अफरा दूर होवे ॥ १-२ ॥
बाष्पविधिः ।
अपामार्ग च निर्गुडी मुण्डी पाता च नागरम् । ग्रन्थिकं निम्बपत्राणि जलेनोत्कालयेदृढम् ॥ १ ॥ तद्भाण्डं निश्चलं धृत्वा वस्त्रेणाच्छादयेद्वपुः । गृह्णाति नम्रस्तद्वाष्पं शिरःपीडां निवारयेत् ॥ २॥ आंगा, सँभालू, गोरखमुंडी, पत्रज, सोंठ, पीपलामूल, नींबके पत्र इन सबको जल में उबाले, पीछे उस पात्रको निश्चल स्थापन कर और अपने शरीरको कपडेसे ढककर उस पात्रकी भाफसे मस्तकको सेंके तो सिरपीडा दूर होवे ॥ १-२ ॥
उद्दूलनम् ( उबटना ) |
पिप्पली कट्फलं शृंगी बचा कुष्ठं यवानिका | पुष्करं नागरं तिक्ता ग्रन्थिकं सुरदारु च ॥ १ ॥ मुद्रपिष्टं माषपिष्टं पुराणा वसुधेष्टका । तुम्ब्या वर्ण वत्सनागं शिरीषम्यापि भस्म च ॥ २ ॥ त्रिचतुर्वा दृढे वस्त्रे गालनीयं पुनः पुनः । तच्चूर्णमर्दनाद्गात्रे शीतांगत्वं निवर्त्तयेत् ॥ ३ ॥
पीपल, कायफल, काकडासिंगी, बच, कूठ, अजमायन, पोहकरमूल, सोंठ, कुटकी, पीपलामूल, देवदारु, मूंगका चून, उडदका चून, पुरानी गचका चून, पुरानी ईंटका कुक्कुआ, तुम्बीका चूर्ण, वच्छनागविष, सिरसकी राख इन सबको कूट पीस तीन चार बार गाढ़े
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सप्तमः] माषाटीकासहितः। (३११ ) कपडेमें बार बार छाने इस चूर्णको शरीरमें मर्दन करनेसे शीतांग सनिपात दूर होवे ॥ १-३ ॥
कृष्णा सुपर्वविटपी सह नागरेण तिक्ता च दीपकयुता अनुलेपनं स्यात् । चूर्ण प्रशस्तमिति जारयते शरीरे स्वेदं च शीतलतनु वमिदं निहंति॥४॥ पीपल, देवदारु, सोंठ, कुटकी, अजमोद इन सबको पीसकर शरीरमें मालिश करनेसे पसीना आना और देही शीतलता दूर होवे ॥ ४ ॥
. मस्तकटोपबंधनम् । कालोंजी पुष्करं कुष्टमजगन्धा वग विषम् । यवानी खुरसाणं तु सर्व सूक्ष्म प्रपेपयेत् ॥ १ ॥ गोधूमचूर्णरचिते रोटके निहितं तथा । प्रतप्तं मस्तके बद्धं सन्निपातांगशीतहत् ॥२॥ कलौंजी, पोहकरमूल, कूठ, असगंध, वच, प्लुआ, खुरामानी अजमायन इन सबको महान पीसकर गेहूंकी गेट में ख गाम कर मस्तकमें बाँधे ता सनिपातकी शीत नष्ट होवे ॥ १-२ ॥ .
नेत्रपिंडी। पिण्डिका कवली प्रोक्ता बद्धा वस्त्रस्य पट्टकैः। नेत्राभिष्यन्दयोग्या सा व्रणेष्वपि निबद्धयते ॥ १॥ एरण्डमूलपत्रत्वनिर्मिता वातनाशिनी। पित्ताभिष्यन्दनाशाय धात्रीपिडी सुखावहा ॥२॥ पिण्डी निम्बदलोद्भूता वातपित्तप्रणाशिनी। त्रिफलापिण्डिका प्रोक्ता नाशिनी श्वेष्मपित्तयो॥३॥
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( ३१२) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः
शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्डी सुखोष्णा स्वल्पसैन्धवाः । धार्या चक्षुषि संयोगाच्छोथकंडूव्यथापहा ॥४॥ पिंडिकाको कवली भी कहते हैं इस पिंडिकाको कपडे के पट्टीसे बाँधते हैं, नत्राभिष्यंदके योग्य है. और व्रणपरभी बांधी जाती है। एरंडकी जड, तज, पत्रज इनकी बनी पिंडी वातको दूर करे । आंकलेकी पिंडा पित्तगेगोंको दूर करे । नींबके पत्तोंकी पिंडी वातपित्तके रोगोका नाश करे । त्रिफलाकी पिंडी कफ पित्तके रोगोंका नाश करे । मोंठ, नींबके पत्ते थोडा सैंधानिमक इनकी पिंडी सूजन और खुजलीयुक्त व्यथाको दूर करे ॥ १-४ ॥
___ अथ गण्डूषः। दातृष्णाप्रशमनं मधुगंडूषधारणम् । पिबेत्ताराग्निदग्धे च सर्धािर्य पयोऽथवा ॥१॥
तैलसैन्धवगंडूषा दन्तचाले प्रशस्यते । . शोफ मुखस्य वैरस्य गण्डूषः कांजिकं जयेत्॥२॥
शहद के कुरले दाह और प्यासको दूर करते हैं, विषसे अथवा क्षारोंसे अथवा अग्निस मुख जलगया हो तो दूध अथवा घृतको मुखमें रकरवे । तेल और सैंधानिमकके कुग्ले हिलते दांतोंवालोंको हित हैं सूजन तथा मुखकी विरसताको कांजीके कुरले दूर करें ॥ १-२॥ । तथा सहचरक्वाथ गण्डूषो मुखपाक हृत् । ।
जातीपत्रामृता द्राक्षा पाठा दावीफलत्रिकम् ।। । पद्मकं समधुकाथगंडूषो मुखपाकहृत् ॥३॥
पियावांसा अथवा ऊंटकटेरीके काढेके कुरले करनेसे मुखके छाले मिटें, जायफल, गिलोय,. दाख, पाढ, दारुहरुदी
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'सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (३१३) त्रिफला, पदमाख इनके काढेमें शहद मिलाकर कुरला करनेसे मुखके छाले दूर होवें ॥ ३ ॥
___अपराजिताधूपः । । कार्पासास्थिमयूरपिच्छबृहती निर्माल्यपिंडीतकत्वग्वंशावषदंशविटतषवचाकेशाहिनिमोचकैः। नागेन्द्रद्विजशृङ्गहिंगुमरिचैस्तुल्यस्तु धूपः कृतः स्वेदोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरघ्नः परः॥१॥ गृहेषु धूपनं दत्तं सर्ववालग्रहालयेत् । पिशाचावाक्षसान्क्षिप्त्वा सर्वज्वरहरं भवेत् ॥२॥ बिनौले, मोर पंख, कटेरी, शिवनिर्माल्यफूल, तगर, तज, वंशसोचन, बिलावकी विष्ठा, धानके तुष, वच, मनुष्यके बाल, काले सर्पकी कांचली, हाथीदांत, गौका सींग, हींग, मिरच इन सबको समान ले और सबके बराबर नीबके पत्ते लेवे, सबको कूट पीसकर धूप बनावे । इस धूपके देनेसे पसीना, उन्माद, पिशाच, गक्षस, देवसाओंका आवेश और ज्वर ये दूर होवे घरमें इसकी धूनी देनेसे सर्व बालग्रह दूर होवें ॥ १-२॥ नृपशिशिरविवर्ण विश्वकन्दपिणी च
मलयजगिरिलोहं विग्रहं बिल्वकं च । नखजलघनकेशी तत्प्रमाणं च पूर्व
कमलजकृतधूपः सर्वभूतानिहन्ति ॥१॥ कपूर १६ टंक, केशर १२ टंक, कस्तुरी, चन्दन ७ दंफ, अगर १० टंक, शिलाजीत ९ टंक, नख १६ टंक, नागरमोथा नेत्रवाला १६ टंक, कुडाः १६ टंक इन सबको मिलाकर,
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(३१४) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः-- धूनी देवे । यह ब्रह्माजीकी बनाई धूप सर्वभूतोंको नाश करती है ॥१॥
अथ तकसेवनम्-योग्यायोग्याश्च । यथा सुराणाममृतं प्रधान तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः । न तकदग्धाः प्रभवंति रोगा न तकसेवी व्यथते कदाचित् ॥ १ ॥ शशिकुन्दहिमोः ज्वलशंखनिभं परिपक्ककपित्थसुगंधिरसम् । युवतीकर निर्मलनिर्मथितं पिव मानव सर्वरुजापहरम्॥२॥ शीतकालेऽग्निमाये च कफोच्छेदे तथामये। बद्धकोष्ठे च दुष्टेऽनावझेगुल्मेऽथवामये ॥ ३ ॥ शस्तं भुक्ते च तकं स्यादमीषां सर्वदा हितम् । सर्वकाले प्रशस्तं तु अजाजीलवणान्वितम् ॥४॥ जैसे देवताओंको अमृत प्रधान है, वैसे ही मनुष्योंको पृथ्वीपर छाछ कही है । छाछ सेवन करनेवालेको कदाचित् रोग नहीं होते और छाछ पीनेवाला कभी दुःखी नहीं होवे, चन्द्रमा और कुन्द तथा बर्फ वा शंखके समान उज्ज्वल पके कैथके रसकी गंधसे मिला तथा स्र के हाथसे मथा ऐसे मढेको सर्व रोगनाशनार्थ हे मनुष्य ! तू पी । शीत कालमें, मन्दाग्निके रोगमें, कफके विकारमें, बद्धकोष्ठ, बवासीर, गोला इन रोगोंपर छाछ पीना सदैव हित है । जीरा और निमक मिलाकर छाछ पीना सदैव श्रेष्ठ है ॥ १-४ ॥
इति तकगुणाज्ञात्वा न दद्याद्यस्य तं शृणु । क्षये शोषे तथा तक्रं नोष्णकाले शरत्सु च ॥५॥ न मृच्छांभ्रमतृष्णासु तथा पैत्तिकरोगके । न शस्तं तक्रपानं च करोति विषमान गदान॥६॥
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सप्तमः ] भाषाटीकासहितः। (३१५)
इस प्रकार छाछ के गुण जानकर रोगीको देवे । अब छाछका पीना वर्जित बतलाते है-क्षयी, शोष, क्षीण, गरमीकी ऋतु, शरदऋतु, मुर्छा, भ्रम, प्यास और पित्तके रोग इनमें छाछ पीना वर्जित है ॥ ५ ॥ ६॥
शनैः शनैहरेदन्नं तकं तु परिवर्धयेत् । तक्रमेव यथाऽऽहारो भवेदनविवर्जितः ॥ ७॥ श्रमं न कुर्याद्वहुशो न कुर्याद्वहु भाषणम् । न कुर्यान्मैथुनं तकपाने क्रोधं विवर्जयेत् ॥ ८॥ एवं यः सेवते तक्र ग्रहणी तस्य नश्यति । शीघ्रमेव न सन्देहः श्रीर्यथा द्यूतकारिणः ॥९॥ ग्रहणीरोगिणां तकं संग्राहि लघु दीपनम् । सेवनीयं सदा गन्यं त्रिदोषशमनं हितम् ॥ १० ॥ धीरे २ अन्नको छोडता जाय और छाछको बढावे इस प्रकार करते २ केवल छाछकाही आहार करै । बहुत परिश्रम करना अधिक बोलना, मैथुन और क्रोध इनको त्याग देवे । इस प्रकार सेवन करनेवालेकी संग्रहणी दूर होवे जैसा जुआवालेकी सम्पत्ति । तक संग्राही हलका और दीपन है इसीसे संग्रहणी रोगवालेको सदैव सेवन करना. चाहिये ॥ ७॥ १० ॥
कठरोहः। षोडशपलायः कीलानि लवणं च पलद्वयम् । त्रिकटु त्रिफला मुंगी त्वग्लवंगं च पत्रिका ॥ १॥ प्रत्येकमर्द्धपलिकान्क्षिपेत्तकं पलत्रयम् । उष्णं जलं शतपलं क्षिप्त्वा भूमौनिधापयेत् ॥२॥
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(३१६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकर:दिनानि सप्तदश वा स्थितं निष्कासयेत्ततः। पलाई तु पिबेनित्यं श्वासपाण्डुक्षयान् जयेत् ॥३॥ लोहकी कील १६ पल, नोन दो पल त्रिकुटा प्रत्येक ८-८ टंक, भांग ८ टंक. तज ८ टंक, लौंग ८ टंक, तमालपत्र ८ टंक, छाछ ४८ टंक इनको एकत्र मिलाय १०० पल गरम जलमें मिलाकर किसी मिट्टीके बरतनमें भर पृथ्वीमें गाड देवे फिर सात वा दस दिन पीछे पृथ्वमिसे निकालकर ८ टंक नित्य पीवे तो श्वास, खांसी, पांडुरोग और क्षय इनको दूर करे ॥ १-३ ॥
अमृताहिमः (अठपहरी गिलोय )। अमृताया हिमः पेयो वासायाश्च हिमस्तथा। प्रातः सशकरः पेयो हितो धान्याकसंभवः ॥ १ ॥ अन्तहिं तथा तृष्णां जयेत्स्रोतोधिशोधनः । धान्याकधात्रीवासानां द्राक्षापप्पटयोहिमः ॥२॥ गिलोय वा अडूसा तथा धनियांको गतमें भिगोद और प्रातःकाल 'पीस कपडेमें छान मिश्री मिलाकर पीवे तो देहके भीतरका दाह, ‘प्यास और मूत्रकृच्छूको दूर करे। धनियां, आंवला, अडूसा, दाख, पित्तपापडा इनका हिम रक्तपित्त, ज्वर, दाह, प्यास और शोषको 'दूर करे ॥ १ ॥९॥
पलार्द्धमजगन्धाया अष्टयामोषितं जले । वर्तयित्वा पिबेत्प्रातर्हन्ति दाहं सवातकम् ॥१॥ पीतो मरिचचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः। द्रोणपुष्पीरसो वापि निहन्ति विषमज्वरान् ॥२॥ त्रिफलाया रसः क्षौद्रयुक्तो दार्वीरसोऽथवा । निबस्य वा गुडूच्या वा पीतो जयति कामलाम्॥३॥
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
अमृताया रसः क्षौद्रयुक्तः सर्वप्रमेह जित् । वासकस्वरसः पेयो मधुना रक्तपित्तजित् ॥ ४ ॥
(३१७)
आधा पल अजमोद लेकर प्रातःकाल किसी मिट्टी के पात्र में भिगो हे और दूसरे दिन निकालकर पीसे और जलमें छानकर पीवे तो वातसहित अंतर्दाह दूर होवे । तुलसी के पत्तों के रसमें काली मिरच मिलाकर पीवे अथवा द्रोणपुष्पी ( गोमा ) का रस पीनेसे विषमज्वर नाश होवे । त्रिफला के रसमें शहद मिलाकर पीवे वा दारूहल्दीका रस शहद मिलाकर पीवे या नीमके पत्ते आठ प्रहर भिगोकर पीवे अथवा गिलोय का रस पीवे तो कामला नष्ट होवे । अठहरी गिलोय शहदके साथ पीने से सर्व प्रमेह नाश होवें । और अठपहरी अडूसेका रस शहद के साथ पीने से रक्तपित्त नष्ट होवे ॥ १-४ ॥
मधूर कज्वरलक्षणम् ।
ज्वरो दाहो भ्रमो मोहो ह्यतिसारो व मिस्तृषा । अनिद्रा च मुखं रक्तं तालुर्जिह्वा च शुष्यति ॥ १ ॥ ग्रीवामध्ये च दृश्यन्ते स्फोटकाः सर्षपोपमाः । एतचिह्नं भवेद्यस्य स मधूरक उच्यते ॥ २ ॥
ज्वर, दाह, भ्रम, मोह, अतिसार, वमन, प्यास, निद्रानाश, मुख काल होना, तालुवा और जीभका सूखना, नाडमें सरसोंके समान फूंसी होना ये चिह्न जिसमें होवें उसको मधूरकज्वर कहते हैं ॥ १-२ ॥
मधूरकस्वरसम् ।
सहस्रवेधपाषाणं कपालं कच्छपस्य च । वृद्धेला तुलसीपत्रं नारिकेलास्थि नूतनम् ॥ १ ॥
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(३१८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार:दाणा खसखसाख्याश्च गोमयस्य रसेन च।
ट्वा पानाय दातव्यं मधूरकप्रशान्तये ॥२॥ सहस्रवेधी पाषाण, कच्वेका कपाल, बडी इलायची, तुलसीके पत्र नारियल की नवीन जटा, खसखसके दाने इनको गोवरके रसमें घिसकर देनसे मधुरकज्वर शांत होवे ॥ १-२॥
मधूरकमन्त्रम् । ॐ नमो अननीपत ब्रह्मचारी वाचा अविचल स्वामिन उकाज सारिवा क्षां क्षः अगधदेशराय वडस्थान कितिहां मुसलीकन् ब्राह्मण तिणे मधुरो कियो ॥१॥
करवा समेत तीन गागर भर उनमें चन्दन घिसकर डाले अगरकी धूप देवे, पीछे सफेद फूल माथेपर रखकर १०८ बार मन्त्र जपे । इस प्रकार सात दिनतक करे, स्त्रीके पास न जाय, किसी स्त्रीकी छोत लावन न पडे । जब मन्त्र पढे तब आप पवित्र होय, सफेद स्वच्छ वस्त्र पहने । रोगीको भीगी चनेकी दाल हनुमानजीके प्रसादसे खिलावे । एक बडा मधुरा पानीके विकारसे होता है। जीभ, दांत काले होवें तो वह रोगी असाध्य है ॥ १॥
केचित्साधारणयोगाः। ... मधुना पिप्पली चूर्ण लिहेकासज्वरापहम् ।
हिकाश्वासहरं कण्डू प्लीहनं वातलोचितम् ॥ १॥ श्वासे कासेतथा शोषे मन्दानौ विषमज्वरे । प्रमेहे मूत्रकृच्छ्रे च सेव्या तु मधुपिप्पली ॥ २ ॥ शहदके साथ पीपलका चूर्ण खानेसे खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, तापतिल्ली और कातके विकारोंको दूर करें ॥ १-२॥....
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भाषाटीकासहितः ।
वर्द्धमानपिप्पली |
त्रिवृद्धया पंचवृद्धया वा सप्तवृद्धयाऽथवा कणाम् । पिबेत्पट्वा दशदिनं तास्तथैव प्रकर्षयेत् ॥ १ ॥ एवं विंशदिनैः सिद्धं पिप्पली वर्द्धमानकम् । अनेन पाण्डुवातासकासश्वासारुचिज्वराः ॥ २ ॥
सप्तग: ]
( ३१९ )
तीन वा पांच वा सातसे वर्द्धमान पीपल दशदिन बढावे और दश दिनमें उसी क्रमसे ऐसे घटावे २१ दिन पीवे तो पांडुरोग, वातरक्त, खांसी, श्वास अरुचि, ज्वर उदररोग, बवासीर, क्षय, कफ, वात और उरग्रह ये रोग नष्ट होवें ॥ १-२ ॥
द्राक्षाहरीतकी ।
अपहरति रक्तपित्तं कण्डूं गुल्मं च पैत्तिकं हन्ति । जीर्णज्वरं शमयति मृद्वीकासंयुता पथ्या ॥ १ ॥ द्राक्षा नियोज्या द्विगुणा शिवायास्तन्कुयित्वा गुठिका विधेया । ग्राह्या द्विकर्षप्रमिता प्रभाते मलग्रहे रोधकबद्धकोष्ठे ॥ २ ॥
दाखको हरड के साथ खाने से रक्तपित्त, खुजली, गोला, पिचके विकार और विषमज्वर इनको दूर करे, दो भाग दाख और एक भाग हरड इन दोनोंको कूटकर गोली बनावे, आट मासे नित्य प्रातःकाल सेवन करे तो मलके बन्ध अरुचि और बद्धकोष्ठको दूर करे ॥ १-२ ॥
हरीतकीयोग्याः ।
ग्रीष्मे तुल्यगुडां च सैन्धवयुतां मेघागमाडंबरे सार्द्ध शर्करा शरद्यमलया शुंच्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां राजन् भक्ष हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥ १॥
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(३२०) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारःहरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावतः। हरते सर्वरोगांश्च तेन ख्याता हरीतकी ॥२॥ ग्रीष्मऋतुमें मुडके संग, वर्षाऋतुमें सैंधवनिमकके संग, शरऋतु, भावलोके साथ. हेमंतऋतुम सोंठके संग, शिशिर ऋतुमें पीपलके संग और वसन्तऋतुमें शहदके संग हरड खानेसे जैसे सर्वरोग नाश होते हैं इस प्रकार हे गजन् ! तेरे शत्रु नष्ट होवें । हरड-हर (शिवजीके) स्थान (कैलास ) में उत्पन्न हुई है स्वभावसेभी हरा रंग है तथा सर्व रोगोंको हरण ( नाश ) करनेवाली है, इस लिये हरीतकी नामसे कही जाती है ॥ १-२॥
कुटकीप्रयोगः। संशर्करामक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा ।
पीत्वा ज्वरं जयेजन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥१॥ मिश्री १ टंक, कुटकी १ टंक इन दोनोंको मिलाकर गरम जसके संग खाय तो ज्वर और कफ पित्तके विकार दूर होवें ॥ १ ॥
अजमोदयोगः। एक एव कुबेराख्यो हन्ति दोषशतत्रयम् । किं पुनस्त्रिभिरायुक्तः शुंठीसैन्धवरामठैः ॥ १॥ एक एव कुबेराख्यः पक्को घृतगुडेन च।... कुर्यादिन्द्रियचैतन्यं हन्ति वातोदराणि च ॥२॥ एक अजमोदही ३०० दोषोंका नाशक है और उसमें सोंठ, सैंधामोन और हींग मिली होवे तो फिर क्याही कहना ? एकही अजमोद मुड और धीमें पका हुआ इन्द्रियोंको चैतन्य करे और वातजन्य उदरके रोगोंको नाश करे ॥ १-२ .
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सप्तमः]
भाषाटीकासहितः।
(३२१)
शुंठीयोगः।
गुडाईकं वा गुडनागरं वा गुडाभया वा गुडपिप्पली वा। कर्षाभिवृद्धयात्रिफलाप्रमाणं खादेन्नरः पक्षमथापि मासम् ॥ १॥ शोफप्रतिश्यायगरादिरोगान् सश्वासकासारुचिपीनसादीन् । जीर्णज्वरा ग्रहणीविकारान्हन्यात्तथाऽन्यान्कफवातरोगान् ॥२॥ मुड और अदरक, या गुड और सोंठ, अथवा गुड और हरड, वा मुड और पीपल एक कर्षकी वृद्धिसे त्रिफलाके प्रमाण एक पक्ष वा एक महीना खाय तो सूजन,विषरोग, श्वास, खांसी, अरुचि, पीनस, पुराना ज्वर, बवासीर, संग्रहणी और वात कफके संपूर्ण रोग नष्ट होवें ॥ १-२॥
त्रिफलायोगः । एका हरीतकी योज्या द्वौ च योज्यौ विभीतको । चत्वार्यामलकान्येव त्रिफलैषा प्रकीर्तिता ॥१॥ त्रिफला मोहशोषनी नाशयेद्विषमज्वरान् । दीपनी श्लेष्मपित्तनी कुष्ठहंची रसायनी। सर्पिर्मधुभ्यां संयुक्ता नेत्ररोगं व्यपोहति ॥२॥
हरड एक भाग, बहेडा २ भाग, आंवला ४ भाग इसको त्रिफला कहते हैं. त्रिफला-शोष, मोह. विषमज्वर, कफके विकार, पित्तके विकार कोढ इनको नाश करै और रसायन है, सहद और घृतके साथ त्रिफला खानेसे नेत्ररोगोंका नाश करे ॥ १-२॥
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योगचिन्तामणिः ।
दशामृतहरीतकी ।
द्वौ भागौ च हरीतक्याश्चतुर्भागान्विभीतकान् । अष्टौ चामलकीनां तु सितां चामलकीसमाम् ॥ १ ॥ यष्टीकं पिप्पली चैत्र त्वक्क्षीरीं चैकभागिकाम् । भक्षयेन्मधुसर्पिर्भ्यां रात्रौ खादेच्च यत्नतः ॥ २ ॥ तिमिरे पुष्पके काचे पटले चार्बुदेऽपि च । नेत्ररोगेषु सर्वेषु दशामृतहरीतकी ॥ ३ ॥
(३२२ )
[ मिश्राधिकार:
हग्ड दो भाग बढेडा चार भाग, आंवला ८ भाग, मिश्री ८ भाग, मुलहठी १ टंक, वंशलोचन १ टंक पीपल १ टंक सबको मिलाकर चूर्ण करे, इसको घृत शहद के संग रात्रिको खाय तो तिमिर, फूला, काच, पटल, अर्बुद और सर्व प्रकार के नेत्ररोग नाश होवें ॥ १-३ ॥ असगन्धयोगः शुण्टीयोगश्च ।
अश्वगन्धैकभागा स्यान्नागरं चैकभागिकम् | घृतभागाश्वचत्वारः खण्डं षड्भागसम्मितम् ॥ १ ॥ पुष्टिदं सन्धिवातघ्नं शीतकालोचितं नृणाम् । कर्षे विचूर्णिता विश्वा द्विकर्षे खण्ड एव च ॥ २ ॥ घृतेन मोदको ग्राह्य उदरार्तिनिवारणे ॥ ३ ॥
असगन्ध १ भाग, सोंठ १ भाग, घृत ४ भाग, मिश्री ६ भाग इन सबको मिलाकर अनुमान मुवाफिक शरदऋतु में नित्य भक्षण करे तो देहको पुष्ट करे, संधियोंकी बादीको दूर करे। सोंठ एक वर्ष, मिश्री दो कर्ष, दोनों को महीन पीसकर गोली बनाय खानेसे पेटके सर्व विकार नाश होवें ॥ १-३ ॥
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सप्तमः] भाषाटीकासहितः।
चोबचीनी। चोबचीनी समुत्काल्य विशाणं पिवतः सदा। सर्ववातप्यथा यान्ति पथ्य नितिसेविनः॥१॥
चोबचीनीको औटाकर तीन शाण पीवे तो सब वातव्याधि नष्ट होवें. इसके खानेवाला पथ्यसे और पवनरहित स्थानमें रहे ॥ १॥
सिद्धहरिद्रा ( जमाईहलदी)। भागद्वयं हरिद्राया विश्वायाश्चैकभागकः। गुन्दोऽद्धाशो घृते भृष्टः खण्डं भागं चतुर्मतम् ॥ १॥ घृतेनालोड्य तत्सर्व धान्यराशि विमध्यगम् । चतुर्दशदिनं स्थाप्यं गुप्तं यत्नेन भक्षयेत् ॥२॥ अम्लक्षारादिकं वज्यै माघमासे त्विदं हितम् । रधिरार्तिवातभनेषु शुभं चक्षुःप्रसादनम् ॥ ३ ॥ हलदी दो भाग, सोंठ एक भाग, धीमें भुना गोंद आधा भाग, मिश्री चार भाग इन सबको घृतमें मिलाकर धानकी राशिमें गाड देवे, फिर चौदह दिनके उपरान्त निकालकर खावे और खट्टा, चरपरा, नमकीन न खावे. इसको माघके महीनेमें खाय तौ रुधिरके विकार, चादीके रोग और संपूर्ण नेत्रविकारोंको नाश करे ॥ १-३॥
सिद्धारकः ( जमायाजीरा)। जीरकं भागमेकं स्यात्खण्डस्तद्विगुणः स्मृतः। चतुर्गुणं घृतं तप्तं सर्व संमेल्य चोद्धरेत् ॥ १॥ गोधूमपुंजमध्ये च चतुर्दशदिनस्थितम् ।। माघमासकृतं चैतदक्षितं चक्षुषोहितम् ॥ २॥
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( ३२४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकारः
जीरा १ भाग, मिश्री दो भाग इसमें चौगुना गरम घृत डाल सबको मिलाकर उत्तम पात्रमें भर देवे और गेहूँ धानकी राशि गाड देवे फिर चौदह दिन बाद निकालकर शरदी के दिनों में खावे तौ नेत्रोंको हित होवे ॥ १ ॥ २ ॥
घृतपानम् ।
शुद्धं गव्यं घृतं तप्तं मरिचैर्वा कणान्वितम् । रसायनं सदा पेयं घृतपानं प्रशस्यते ॥ १ ॥ रूक्षतविषार्त्तानां वातपित्तविकारिणाम् । हीनमेघास्मृतीनां च घृतपानं प्रशस्यते ॥ २ ॥ शुद्ध घृतको तपाकर उसमें कालीमिरच वा पीपल डालकर पीवे यह रसायन है. रूक्षदे हवाला, उरःक्षत, विषपीडित, वातपित्तविकारबाला, बुद्धिहीन, स्मरणरहित ऐसे ममुष्यको घृत पीना सदा हित है ॥ १ ॥ २ ॥
निम्बपानविधिः ।
रसो निम्बस्य मंजर्याः पीतश्चैत्रे हितावहः । हन्ति रक्तविकारांश्च वातपित्तं कफं तथा ॥ १ ॥ चैत्र के महीने में नीमकी कोंपल घोटकर पीनेसे रुधिर विकारों को तथा वात, पित्त कफ के रोगोंको नष्ट करे ॥ १ ॥
खण्डपानम् ।
द्वे पले शुद्धखण्डस्य गालयित्वा जले पिबेत् । अङ्गसादं प्रशमयेद्रुधिरस्य विकारजम् ॥ १ ॥ कपित्थं च शताह्वा च धान्यकं खण्डसंयुतम् । अथवा शर्करायुक्तं ग्रीष्मकाले सुखावहम् ॥ २ ॥ मिश्री दो पलको जलमें घोलकर पीनेसे रुधिरविकारजन्य, शरी
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
(३२५)
रका जकडना दूर होय । कैथ, शतावरी, धनियां, मिश्री इन सबका गरमीके दिनों में पीना हितकारक होता है ॥ १-२ ॥
इति साधारणयोगाः ॥
सामान्यकायचिकित्सा |
एरण्डतैलं विषमप्रवृद्धौ सगोपयस्कं हितमेतदुक्तम् । सराजवृक्षामृतवल्लिवासाक्काथं हितं मारुतशोणितेषु ॥ १ अंडवृद्धि में अंडीका तेल गौके दूधमें मिलाकर पीवे. अमलतास, आमला, गिलोय, अडूसा इनका काढा वादी और रुधिरके विकार - वालोंको हित है ॥ १ ॥
मूत्रेण वा दुग्धसमन्वितं वा सर्वोदरेषु श्वयथौ च शस्तम् । पक्वाशयस्थे पवने प्रयोज्य मेरण्डतैलं हि विरेचनार्थम् ॥ १ ॥
गौ मूत्रमें अंडी का तेल डालकर पीवे, अथवा गौके दूधमें पीवे तो सब उदरके विकार तथा सूजन ये सब नाश होवें. पक्वाशयस्थ वादी में दस्त करानेको अंडी का तेल देवे ॥ १ ॥
उन्मादिनामुन्मदमानसानामपस्मृतौ
भूतहतात्मनां
हि । ब्राह्मीरसः स्यात्सवचः सकुष्ठः सशंखपुष्पः ससुवर्णचूर्णः ॥ १ ॥
उन्मादवाले और मृगीरोगवाले, भूतबाधावाले इनमें ब्राह्मीके रस में बच, कूठ, संखाहूली और धतूरे के बीजका चूर्ण मिलाकर देवे ॥ १ ॥ अक्ष्यामयेषु त्रिफला गुडूची वातासृजे गोमथितं ग्रहण्याम् । कुष्ठेषु सेव्यं खदिरस्य सारं सर्वेषु रोगेषु शिलाह्वयं च ॥ १ ॥
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( ३२६ )
योगचिन्तामणिः ।
[ मिश्राधिकार:
नेत्ररोग में त्रिफला, वातरक्त में गिलोय, संग्रहणी में छाछ, कुष्ठरोग में खैरसार और सम्पूर्ण रोगों में शिलाजीत सेवन करे ॥ १ ॥
अथ दंभः ।
धनुवते मृगीवाते चोन्मादे चित्तविभ्रमे । निश्चैतन्ये सन्निपाते दम्भं तत्र प्रदापयेत् ॥ १ ॥ gat शंखे च पादेषु कृकाटीमूलरंध्रयोः । नेत्ररोगे ह्यपस्मारे भ्रुवौ शंखौ च दम्भयेत् ॥ २ ॥ कामले पाण्डुरोगे च कृकाट्यौ च प्रकोष्ठके । औदरेषु च सर्वेषु दम्भयेदुदरोपरि ॥ ३ ॥ हृदये यस्य पीडा स्याद्दम्भयेद्धृदयोपरि ॥ ४ ॥
धनुर्वात, मृगी, उन्मादरोग, चित्तविकार, बेहोशी और सन्निपात इन रोगों में दम्भ अर्थात दाग देवे. दोनों भौंहें, कनपटी, पैर, कृकाटी, मस्तक, गुदा इनमें दाग देय, नेत्ररोग और मृगीरोग इनमें भौंह और कनपटीको दागे. कामला और पीलियामें कृकाटी ( घांटी ) और पेटको टागे तथा उदरके सब रोगों में पेटको दांगे हृदयमें पीडा होवे तो हृदयके ऊपर दाग देवे ॥ १-४ ॥
विषचिकित्सा |
शिरीषपुष्पं सकरंजबीजं काश्मीरजं कुष्ठमनःशिले च । एषो गदो राजिलवृश्विकानां संक्रांतिकारी कथितो जलेन ॥ १ ॥
शिरीषं मरिचं निम्बं कर्कोटी तण्डुलीयकम् । श्यामा पाठा च शुंठी च एकैकं विषदोषहृत ॥ २ ॥
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. सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (३२७)
शिरसका फूल, कंजाके बीज, केशर, मनशिल और कूठ इनको जलमें घोलकर लगानसे सांप और बिच्छूका विष दूर होवे । शिरस, काली मिरच, नींब, ककडी, चौलाई, मेदा, पाढ और सोंठ ये एक एक विषके दोष हरण करते हैं ॥ १ ॥२॥
चिह्वायास्तालुनो योगादमृतस्रवणं तु यत् । विलिप्तस्तेनदंशः स्यानिर्विषः क्षणमात्रतः॥१॥ घृतादि पेयं दष्टेन भक्ष्यं चिटिकादिकम् । दंशे कर्णमलं बद्धं तुलसीमूलभक्षणम् ॥२॥ जीभ तालुएके मिलनसे अमृत स्रवे है उसके लगानेसे विष दूर होवे. विषसे पीडित मनुष्य कालीमिरच और घृत पीवे और ककोडा
आदि खाय और काटे हुए स्थानपर कानका मल बांधे अथवा तुलसीकी जड खाय तो विष दूर होवे ॥१॥२॥
स्त्रीणां चिकित्सा। जन्मवंध्या काकवंध्या मृतवत्सास्तु याः स्त्रियः । तासां पुत्रोदयार्थाय शम्भुगौरीमथाब्रवीत् ॥ १॥ जन्मवंध्या, काकवंध्या और मृतवत्सा ये वंध्याके तीन भेद हैं इनके चिरजीवी पुत्र होनेके अर्थ श्रीमहादेवजीने पार्वतीजीसे उपाय कहा है ॥ १॥ एकापत्या १ मृतापत्या २ कन्यापत्या ३ऽनपत्यता ४ . मृतपुत्रत्व ५ मित्येवं पञ्चधाऽपत्यव्याधयः ॥२॥ .. एकही सन्तान होय, मरी सन्तान होय, कन्याही कन्या होय, सन्तान न होय और जो सन्तान होय सो मरजाय यह पांच प्रकारका रोग नियोंको होता है ॥ २॥
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योगचिन्तामणिः ।
पुत्रोत्पत्तियोगः ।
समूलपत्रां सर्पाक्षीं रविवारे समुद्धरेत् । एकवर्णगवां क्षीरे कन्याहस्तेन पेषयेत् ॥ १ ॥ ऋतुकाले पिवेद्वंध्या पलार्द्ध तद्दिने दिने । क्षीरशाल्यन्नमुद्रं च लघ्वाहारं प्रदापयेत् ॥ २ ॥ एवं सप्तदिनं कुर्या द्वंध्यापि लभते सुतम् ॥ ३ ॥
( ३२८ )
[ मिश्राधिकार:
जड और पत्तोंसहित लक्ष्मणा बूटीको रविवार के दिन उखाड लावे उसको एकरंगी गौके दूधमें कन्याक हाथसे पिसवावे जब स्त्री ऋतुमती होय और चौथे दिन जब स्नान कर चुके तब आधा पल इसको बांझ स्त्री प्रतिदिन पीवे और दूधभात और मूंग आदि हलका आहार करें इस प्रकार सात दिन करनेसे बांझ स्त्रीकोभी पुत्रका लाभ होवे ॥ १-३ ॥
श्वेतायाः कंटकार्याश्च मूलं तद्वच्च गर्भकृत् । न कर्म कारयेत् किंचिद्वर्जये-छीतमातपम् ॥ 8 ॥ अश्वगन्धाकषायेण मृद्वनिपरिसाधितम् । ऋतुकाले पिबेद्वंध्या गर्भस्थापनमुत्तमम् ॥ ५ ॥ मातुलिंग शिफां नारी ऋत्वं पयसा पिबेत् । नागकेशर पूरा स्थिचूर्ण वा गर्भदं परम् ॥ ६ ॥
सफेद कटेरीकी जड़भी गर्भदाता है, इसको खानेवाली स्त्री कुछ काम न करे और शरदी गरमी से बचती रहे । असगंधके काढेको मंदी आगसे पकावे इस काढेको ऋतुमती स्त्री पीवे तो वंध्याके पुत्र होय । चिजौरेकी जडको स्त्री स्नान कर चौथे
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सप्तमः ]
भाषाटीकासहितः ।
( ३२९ )
दिन दूधके साथ पीवे तो उसके पुत्र होय अथवा नागकेशर और विजौरेकी जड दूधके संग पीवे ॥ ४-६ ॥ शिफा बर्हिशिखायास्तु क्षीरेण परिपेषितम् । पिबेतुमती नारी गर्भधारणहेतवे ॥ ७ ॥ पिप्पली शृङ्गवेरं च मरिचं केशरं तथा । घृतेन सह पातव्यं वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥ ८ ॥ कोरंटकोऽश्वगन्धां च कर्कोटी शिखिचूलिका | एकैका कुरुते गर्भे पीता क्षीरेण योषिताम् ॥ ९ ॥ अथ मुक्ताफलमर्द्धमविद्धमृतुकालेऽर्द्धं सुजातिफलेन । विद्रुमखण्डयुतं सपयस्कं पुत्रकरं युवतेस्त्रिदिनस्थम् ॥ १० ॥
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मोरशिखाके पंचांगको दूधके साथ पीवे, अथवा पीपली, अदरक, मिरच, नागकेशर इनको वृतके साथ पीवे, अथवा पियाबांकी जड, असगंध, ककोडाकी जड और मोरशिखा यह एक एक औषधि गर्भको, करता है अथवा अनविधा मोती आधा, जायफल आधा, मूंगा आधा इनको वंध्या स्त्री तीन दिन पीवे तो गर्भ होवे ॥ ७-१० ॥ गर्भनिवारणम् ।
पलाशत रुबीजानि पिबेत्पुष्पवती तु या । सलिलेन त्र्यहं यावत्सा वेश्या याति वन्ध्यताम् ॥ १ ॥ फलं त्र पुषबीजानि या नारी पुष्पदर्शनात् । पिबेदिनानि सप्ताष्टौ यदि नेच्छेत्प्रसूयितुम् ॥ २ ॥ उत्काल्य बदरीलाक्षां तैलेन सह या पिबेत् । द्विकर्ष च ऋतोरन्ते तस्या गर्भो न जायते ॥ ३ ॥
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( ३३० )
योगचिन्तामणिः । [ मिश्रा धिकारः स०] :
ढाकके बीज तीन दिन ऋतुमती स्त्री घोटकर जलमें पीवे तो वेश्याभी वंध्या होवे अथवा खीराके बीज ऋतुमती सात आठ दिन पीवे तो वंध्या होय अथवा बेरकी लाखको औटाकर तेलके साथ दो कर्ष पीछे तो उस स्त्रीको गर्भ न रहे ॥ १-३ ॥
गर्भपातनम् |
स्फटिकां वंशाशलीं चोत्काल्य कर्षद्वयं पिबेत् । त्र्यहं वाप्यथ सप्ताहं भ्रूणः पतति निश्चितम् ॥ १ ॥
नागपुरीययतिवरश्रीहषर्का र्तिसंकलित ।
वैद्यकसारोद्धारे सप्तम मिश्राधिकारोऽयम् ॥ ७ ॥
फिटकरी, बांसकी छाल इन दोनोंको औटाकर ८ टंकक अनुमान नित्य खाय अथवा तीन या सात दिन पीवे तो गा पतन होय ||
इति श्रीदत्तराम चौबेकृतमाथुरी मंजूषाभाषा टीकायां मिश्राधिकारः सप्तमः ॥ ७ ॥
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(३३१),
भाषाटीकासहितः। अथ कर्मविपाकप्रकरणम् ।
अरुण उवाच-कथं कार्यो दिवानाथ प्रश्नकालस्य
यो विधिः । तत्तत्कर्मविमोक्षाय तत्त
निष्कृतिसूचकः॥१॥ श्रीसूर्य उवाच-आधिव्याधिमतो जन्तोविरक्तिर्जायते
यदा । दैवज्ञं स तदा प्राप्य निज- दुःखं निवेदयेत् ॥२॥ श्रीसूर्यनारायणसे अरुण सारथि प्रश्न करते है. हे दिवानाथ ! प्रश्नके समय किस विधिसे कर्मविपाकको देखे सो कहो । इस वचनको सुनकर श्रीसूर्यनारायण बोले कि, आधि (मनके विकार ) व्याधि (देह के रोग) इनसे जब मनुष्यका चित्त उपरामको प्राप्त होय, तब दैवज्ञ (ज्योतिषी) के पास जाकर अपने दुःखको निवेदन करे. अथवा अपने घरपर आदरपूर्वक ज्योतिषीको बुलाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक पूजन कर तथा पंडितोंको बुलाकर शुभस्थानमें अपने इष्टदेवका पूजन करे और प्रश्रकर्ता ज्ञानभास्कर पुस्तकका गंधपुष्पादिसे और बहुत द्रव्यसे पूजन करे, ब्राह्मणोंको दान देवे तथा सुन्दर सोना १६ मासे और दो गौ इनको लाल कपडेसे भूषित कर पीछे इस मंत्रको पढे ॥१-२॥
भगवन्देवदेवेश कर्मसाक्षिलगत्प्रभो । प्राभृतं प्राग्बिभम्येव तुभ्यं पुस्तकरूपिणे ॥१॥ प्रभूतेनामुना तुष्टः कर्म सम्यक् प्रकाशय । तत्तदुःखौघनाशाय दुष्कृतस्य च मे प्रभो ॥२॥
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( ३३२) योगचिन्तामणिः। [प्रकरणम् .. इस मंत्रको पढकर सूर्यनारायणकी प्रार्थना करे और पुस्तकको नमस्कार करके पूर्वोक्त सुवर्णादिकोंको भेटकर रविकी तरफ पूर्व मुख करके बैठे पीछे ज्योतिषी पुस्तकको देखकर जो कहे उसे श्रद्धापूर्वक श्रवण करे जब धर्मविपाक सुन चुके तब यथाशक्ति उसका जप होम दानादि करे जिन रोगोंके कर्मविपाकमें जैसा कहेंगे ॥ १-२॥
रोगोंके नाम । ज्वरोऽतिसारो ग्रहणी अर्शोऽजीर्णो विषूचिका । अल सश्च विलम्बी च कृमिरुक्पाण्डुकामला ॥१॥ हलीमकं रक्तपित्तं राजयक्ष्मा उरक्षितम् । कासो हिका सहश्वासः स्वरभेदस्त्वरोचकम ॥२॥ छर्दिस्तृष्णा च मूछाया रोगाः पानात्ययादयः। दाहोन्मादावपस्मारः कथितोऽथानिलामयः ॥३॥ बातरक्तमुरुस्तम्भ आमवातोथ शूलरुक् । । पित्तजं शूलमानाह उदावर्तोथ गुल्मरुक् ॥ ४॥ हृद्रोगो मूत्रकृच्छं च मूत्राघातस्तथाऽश्मरी। प्रमेहो मधुमेहश्च पिडिकाच प्रमेहजाः॥५॥ मेदो दोषोदरं शोथो वृद्धिश्च गलगण्डका।। गण्डमालाऽपचीग्रंथिरबुदं श्लीपदं तथा ॥ ६॥ विद्रधिव्रणशोफाश्च द्वौ व्रणौ भग्नाडिको । भगन्दरोपदंशौ च शूकदोषास्त्वगामयाः ॥ ७॥ शीतपित्तमुदईश्च कोठश्चैवाऽम्लपित्तकम् ।। विसर्पश्च सविस्फोटः सरोमांत्यो मसूरिका ॥ ८॥
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कर्मविपाक ] भाषाटीकासहितः। (३३३)
क्षुद्रास्यकर्णनासाक्षिशिरः स्त्रीबालकामयाः। विषं चेत्यमुमुद्दिश्य संग्रहेऽस्मिन्प्रकीर्तिता ॥९॥
ज्वर, अतीसार, संग्रहणी, बवासीर, अजीर्ण, हैजा, अलसक, विलम्ब, कृमिरोग, पाण्डु, और कामला, हलीमक, रक्तपित्त, क्षय उरक्षित, कास, श्वास, हिचकी, स्वरभङ्ग, अरुचि, कय, प्यास, मूर्छा इत्यादि तथा अत्यन्त मद्यपानसे उत्पन्न हुए रोग, दाह, पागलपन, मिरगी वायुरोग, वातरक्त, ऊरुस्तम्भ, आमवात, शूल, पित्तशूल, अफरा, उदावर्त, वातगुल्म, हृदयके रोग, सुजाक, मूत्राघात, पथरी, प्रमेह, मधुमेह, प्रमेहके फोडे, चर्बीके दोष, जलोदर, शोफ, घेघा, गण्डमाला, अपची, ग्रन्थि, अर्बुद, फीलपाव, विद्रधि, घाव, सुजन, भग्न, और नाडिके दो ज्वर, भगन्दर, गर्मी, शुकदोष, चर्मरोग, शीत, पित्त, उदर्द, कोठ, अम्लपित्त, विसर्प, विवाई, बाल गिरना, शीतला, मुख, कान, नाक, शिरके रोग, स्त्री और बालक, इनके रोग तथा विष इनकी मुख्यतापर इस ग्रन्थमें (औषध) कहे गये हैं ॥ ९ ॥
____ अथ कर्मफलम् । जन्मान्तरकृतं पापं व्याधिरूपेण बाधते । तच्छान्तिरौषधैर्दानै पहोमसुरार्चनैः ॥ १ ॥ - जन्मांतरका किया हुआ पाप इस जन्ममें रोगरूप होकर दुःख देता है, इस कारण उसकी शांति, औषधि, जप, दान, होम देवताओंके पूजनादि विधिसे करे. देव गुरुको दुःख देनेसे और पाप कमोंके करनेसे जो घोर रोग होते हैं, वे असाध्य हैं।
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( ३३४ )
योगचिन्तामणिः ।
[ प्रकरणम्
जो मनुष्य पूर्व जन्ममें क्रूरकर्मके कर्त्ता, पापी, चुगलखोर होते हैं वे इस जन्म में शीतज्वरसे पीडित होते हैं,
इसकी शांति के लिये
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जातवेदसे' इस मन्त्रको १०००० दश हजार बार जपे, पीछे ब्राह्मण भोजन करावे तथा हजार कलशसे श्रीमहादेवजीका अभिषेक और १०० सौ ब्राह्मणोंको भोजन करावे यह माहेश्वरज्वर ( गरमज्वर ) में करे ॥ १ ॥
कुम्भदानविधि |
मिट्टीका लाल घडा लाकर उसको चावलों पर स्थापित करे, उसको सफेद कपडे में लपेट देवे तथा तिल वा खांड अथवा जलसे उसको भरदेवे पीछे धूप, दीप फूल आदिसे उसका पूजन करे, कुम्भदानकी विधिसे दान कर देवे. गुरु ब्राह्मण इनकी भक्ति करे ||
यज्ञकी अनिका बुझानेवाला, तलाव बावडी आदिका तोडनेवाला व्यतिसाररोगवाला होवे. और जो अपनी साध्वी स्त्रीका परित्याग करे वो संग्रहणी रोगवाला होवे. दोनों अर्थात् अतिसारवाला और संग्रहणीवाला मनुष्य महादेवजी की रुद्रीके १०८ पाठ करे और दिव्य गोदान करे |
धेनुदानविधि |
दिव्य गौ लेकर गोदानपद्धतिकी रीतिसे उसका पूजन कर वेदपाठी ब्राह्मणको दान करे । जो मनुष्य गौको मोल लेकर दूने मोल से बेचे अथवा गौका व्यापार करे अथवा द्रव्य लेकर गौ पूजावे या द्रव्य लेकर देवता की पूजा करे तथा होम करावे, वह मनुष्य हर्षरोगी' होवे. इस कारण इतनी वस्तुओंको मोल न बेचै. इसकी शांति यह है कि घृत और सोनेका दान करे, अथवा सोनेकी गौका दान करे |
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कर्मविपाक] भाषाटीकासहितः। (३५)
अत्रका चुरानेवाला मनुष्य अजीर्णरोगी होय । शूद्रका अन्न खाने चाला शूलरोगी होता है और अजीण रोगसे पीडित होय । यज्ञकी अग्नि शांत करनेवाला मन्दाग्निका रोगी होय तथा गोमांस खानेबालोंको मन्दाग्नि होय, जो मनुष्यको विष देकर मारे उसके मन्दाग्नि होवे। ये पूर्वोक्त रोगी तीन पल सुवर्ण और अन्न दान करें, अथवा सोनेकी बकरी बनाकर दान करें । हाथी, रथ, घोडेका बिगाडनेवाला कृमिरोगी होवे । पतिके मरनेके पीछे जो स्त्री रंगीन कपडे पहने वह इस जन्ममें कृमिरोगवाली होय, रंगीन बैलका दान करै । गुरु ब्राह्मण
और देवताका द्रव्य चुरानेवाला पांडुरोगी होवे । नीच जातिकी स्त्रीसे भोग करनेवाला भी पांडुरोगी होवे, वह कृच्छ्चान्द्रायण व्रत करे, १६ टंक चांदीकी पृथ्वीका दान करै कामला रोगवाला सोनेका गरुड बनाकर दान करें और यही कुम्भकामला हलीमकवाला करे । जो पूर्व जन्ममें वैद्यकशास्त्रको पढकर अन्यथा औषधि देवे वह रक्तपित्तवाला रोगी होवे. वह चरु घृतका होम करे । बो ब्राह्मणका विनाश करे । वह क्षयरोगी होय १०८ निष्क सोनेको दान करे अथवा आधा दान करे, २४ ब्राह्मण जिमावे, १०... महादेवके मंत्रका जप करे। जो गर्वित होकर वृथा अभिमान करे, विना धर्मशास्त्र पढे सभामें प्रायश्चित्त कहें वह राजयक्ष्माका रोगी होय, ३० निष्क सोनेका दान, या गौका दान करे ॥ .
कृतघ्नो जायते मर्त्यः कफवाञ्छ्वासकासवान् ॥ कृतघ्नी मनुष्य कफरोगी, श्वास खांसीवाला होवे। नोन और शहदका दान करे, १००० ब्राह्मणोंको भोजन करावै । गुरुकी वाणी
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( ३३६) योगचिन्तामणिः। [प्रकरणम्रोकनेवाला गद्गद वाणीवाला होता है । जो ब्राह्मणके बिना जिमाये जल पान या भोजन करे सो हिचकीका रोगी होवे । चैंटी, कौवा, कुत्तेको उच्छिष्ट देवे । सो छर्दि (वमन ) का रोगी होय । जो विश्वास देकर मारे सो छर्दिरोगी होवे । मार्ग चलनेसे थके मनुष्यको, गौको, ब्राह्मणको प्यासा रक्खे वह तृषारोगी तथा मूरोिगी होवै । जो शास्त्र पढकर सभामें धर्मका श्लोक न कहे, वह उन्माद पानात्यय व्याधिवाला होय, सरस्वती मंत्रका जप करे, सुवर्ण दान देवे। गौ वेचकर ऊंट खरीदनेवाला सर्वांगदाह रोगी होय । स्वामी गुरुका मारनेवाला मृगी रोगी होय, गणेशका मंत्र और सुवर्णका दान और ब्राह्मण भोजन करावे । जबरदस्ती पराई स्त्रीसे भोग करनेवाला संधिवात रोगी होय । जो वनको जलावे उसके उदरशूल होय । माता पिताके मैथुनका अनुमान करे उसके कर्णरोग होवे, पीछे बहरा होवे, घृत सोनेका दान करे । अपने वर्ण और स्वगोत्रकी स्त्रीसे गमन करनेसे बासरक्तका रोगी होय, सोनेकी लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा दान करे। होमकी अग्नि बुझानेवाला आमवात रोगी होय, १०००० गायत्रीका जप करे । पराये दिलका दुखानेवाला हृदयरोगी होवे । गुरुकी स्त्रीको भोगनेवाला मूत्रकृच्छ्री और सोजाक रोगी होय । लौंडेवाज मनुष्य मूत्राघाती और फिरंगवातरोगी होय । ब्रह्माकी सोनेकी मूर्ति दान करे। परस्त्रीगामी मनुष्यके पथरीरोग होय । कन्यागामी प्रमेहरोगी होय । मातागामी ज्वररोगी होय । भाईकी स्त्रीसे भोगकर्ता मनुष्य जलप्रमेही होय । चांद्रायण व्रत करे, चांदीका दान करे । चांडाली गमनसे प्रमेही और सर्वरोगी होय । जो ब्रह्मा, विष्णु महेश इनमें भेदबुद्धि करे, वह उदररोगी होय । जो पर्वतके अग्रभागमें, जलमें, पुलिनमें, नदी
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कार्यविपाक ] भाषाटीकासहितः। ( ३५७) किनारेमें सफल वृक्ष के नीचे मलमूत्रका त्याग करे तथा थूके उसके सूजनका रोग होवे ॥
विनकर्ता च भोक्तृणां शोफी भवति मानवः ॥
दूसरेके भोगमें जो विघ्न करे वह शोफ (सूजन ) गेगी होरे, १००० गायत्रीका जप, तिल घृतका होम करे । पुत्रीसे गमनकी अंडवृद्धि रोगवाला होवे, वह चान्द्रायणव्रत करे । विना अपराध जो राजा, सेवक के हाथ पैर छेदन करे वह दूसरे जन्म में लँगडा दला होय तथा ढूंडा होय, रुद्रीके १०८ पाठ करे । यज्ञमें विघ्नकर्ता मनुष्य आंतोंकारोगी होय । गुरु और दूसरेका दुःख दाता गोल और गंडमालाका रोगी होय । रंडा खीसे गमनकर्ता रक्त ग्रंथिरोगी होय, कृच्छातिकृच्छू चांद्रायण व्रत करे, सोनेका दान दे । स्वगोत्रकी स्त्रीगमनसे श्लीपदवाला रोगी होय । ब्राह्मणका भोजन चुरानेवाला विद्रधिरोगी होय । अति अभिमानसे, सेहसे, भयसे जो धर्म छोड दें वह व्रणरोगवाला होवे । धर्मको जानकर जो अधर्म करे सो भगंदर रोगी होय, सुवर्ण, रत्न, धान्य और वस्त्र का दान करे ॥
मातृगामी भवेद्यस्तु लिङ्गं तस्य विनश्यति ॥ मातासे गमन करनेवालेका लिंग गल जावे, पूर्वोक्त दान करे । जीवघाती कुष्ठरोगी होता है । वस्त्र चुरानेवाला सफदकुष्ठी होता है, वह सान्तपनव्रत करे । गुरुपत्नीसे गमन करनेवाला दुष्ट चर्मवाला होवे, सान और वस्त्रका दान करे । मल मूत्र त्यागकर जो पवित्रता न करें और उसी तरह भोजन करने लगे उसके गुदारोग होवे। वह चान्द्रायण व्रत करे । दुश्वाणी बोलनेवाला मुखरोगी होवे । दूसरेका भोग देखनेवाला नेत्ररोगी होय, वह चांद्रायण व्रत करे ॥
स्रवद्र्भा भवेत्सा तु बालकं हन्ति या पुरा ॥ जो पूर्वजन्ममें वालकको मारे उसे गर्भस्राक्का रोग हो । जो स्त्री
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( ३३८ )
योगचिन्तामणिः ।
[ प्रकरणम्
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पिता गुरुकी स्पर्धा करे वह प्रदररोगवाली होवे, कृच्छू चांद्रायण व्रत करें। जो स्त्री पतिके मरने पर ब्रह्मचर्यको बिगाडे उसके योनिरोग होवे । जो पूर्व जन्म में दूधका चोरी करे उसके स्तनोंमें दूध नहीं होय, ब्राह्मणोंको दूध अन्नका दान देवे। जो अपने पतिको छोड परपुरुषकी इच्छा करे, उसके स्तनोंपर फोड होवें और भगसे रुधिर निकले वह अनि मंत्रसे होम करे और जप करे ॥
ज्योतिषद्वारा वंध्याका फल |
सुतपतिरस्तगतो वा पापयुतः पापर्व क्षितो व पि । सन्ततिबाधां कुरुते केन्द्रे पापान्विते चन्द्रे ॥ १ ॥
जिसके जन्मपत्र में पंचमेश सूर्य के अस्त साथ होवे अथवा पापग्रहके साथ बैठा होवे अथवा पापदीक्षित होय उसके संतान की बाधा होवे और पापयुक्त चंद्रमा केन्द्र में बैठा होवे तो भी संतान की बाधा होय । पंचमस्थान में दो। पापी वा तीन अस्त होकर बैठे हो तो स्त्री और पुरुष दोनों वंध्या होवें, परन्तु पूर्वोक्त ग्रह शत्रुवीक्षित होवें । इनकी शांतिक अर्थ बुध और शनिको पूजन करे ॥ १ ॥
स्वर्णधेनुदानविधि |
सम्पूज्य देवान्स्वगुरुं च नत्वा वस्त्रादिभोज्यैः परितोषयित्वा । आराधयित्वा विधिनाम्बिकां च ततः पिबेच्छुद्धफलं घृतं च ॥ १ ॥
जो वंध्या होय वह देवता और गुरुको नमस्कार कर भीजन वस्त्रादिसे उनको प्रसन्न करे और विधिपूर्वक पार्वतीकी आगधना करे, १६ मासे सोने की गो बनाकर दान करे, पीछे फलघृत जो घृताधिकार में लिख आये हैं उसको पीवे । वंध्यादोष दूर करनेको
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कर्मविपाक ] भाषाटीकासहितः । (३३९) हरिवंशपुगण स्त्री पुरुष दाना सुनें मंगलवारका व्रत करें अथवा भागचतमें लिखे पयोव्रतको विधिपूर्वक करें, अथवा पारसनाथकी दशमीका व्रत करें ॥ १ ॥
. सर्वरोगशांति । पवित्र घरमें पवित्र मिट्टी बिछावे और कुंड मंडप बनावे. उसमें नवग्रह, दश दिक्पाल, क्षेत्रपाल, और वास्तुदेव आदिको स्थापित कर पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, चंदन, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदिसे पूजन करे और लोहेकी चार चार अंगुलकी चार कल मंत्रितकर चारों दिशाओंमें गाड देवे, घरके चारों कोनोंमें बलिदान देवे। मंत्र यह है
ॐ हांहींहूहह्रौंहः नमः श्रीशान्तये अमुकस्य गृहे शान्ति धृति कांति बुद्धिं लक्ष्मी कुरु कुरु स्वाहा । फिर इसी मंत्रसे जल के कलशको अभिमंत्रित कर सबको उसके जलसे छींटा देवे, पीछे गुरुओंको वस्त्रदान देवे, तिलक करे, दक्षिणा देवे तो सर्व रोग शांत होवें ॥
अष्टौ ज्वरा द्वादश वा कुत्रचित्पञ्चविंशतिः । वाताश्चतुरशीतिश्च गदाः क्वापि मतान्तरे॥१॥ ज्वररोग आठ प्रकारका है, अथवा १२ प्रकारकाभी है किसी आचार्यके मतसे पर्चीस प्रकारका है । वातरोग ८४ प्रकारका है, इसी प्रकार रोगसंख्या है । यह शार्ङ्गधरके प्रथमखंडमें लिखा है देखलेना चाहिये ॥ १॥
___ अथ प्रशस्तिश्लोकाः। सूरीश्वरः प्रवरसिंहशिरोवतंसः श्रीचंद्रकीर्तिगुरुपादयुगप्रसादात् । गम्भीरचारुतरवैद्यकशास्त्र. सारं श्रीहर्षकीर्तिवरपाठक उद्दधार ॥१॥
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(३४०) योगचिन्तामणि:-मा०टी० । विचार्य पूर्वशास्त्राणि हर्षकीासूरिभिः । किंचिदुद्धृतमस्माभिः रहस्यं वैद्यकार्णवात् । आत्रेयकश्वरकवाग्भटसुश्रुताश्विहारीतवृन्दकलिकाभृगुभेडपूर्वाः । येमीनिदानयुतकर्मविपाकमुख्यास्तेषांमतंसमनुसृत्यमयाकृतोयम् ॥ ३॥ यथा जनानामिह वाछितार्थाश्चिन्तामणिः पूरयितुं समर्थः। तथैव सद्भेषजभूरियोग़ाञ्छ्रीयोगचिन्तामणिरापिपर्ति ॥४॥ यथा योगप्रदीपोऽस्ति पूर्वयोगशतं यथा। तथैवायं विजयतां योगचिन्तामणिश्चिरम् ॥५॥
नागपुरीययतिवरश्रीहर्षर्कोतिसंकलिते।
वैद्यकसारोद्धारे कर्मविपाकाधिकारोऽयम् ॥ श्रीहर्षकीर्तिनिर्मित यह योगचिन्तामणिनामक ग्रन्थ जैसे चिन्तामणिनामकरन सब जनोंकी कामनाको पूर्ति करता है तैसेही वैद्य लोगोंकी अभिलाषाकी पूर्ति करनेवाला है. इसमें आत्रेय भेड आदि पूर्वाचार्योंका मत संगृहीत है. । इति श्रीदत्तरामचौवेकृतमाथुरीमंजूषाभाषाटीकाया
कर्मविपाकप्रकरणम् ॥ समाप्तश्चाऽयं ग्रन्थः।
पुस्तक मिलनेका ठिकानागङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, । खेमराज श्रीकृष्णदास, “लक्ष्मीवेंकटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, “ श्रीवेंकटेश्वर "टीम प्रेस,
कल्याण-बंबई. । खेतवाडी-बंबई.
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