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________________ (१८८) योगचिन्तामणिः। [घृताधिकारः असगन्धका काढा कर चौगुणा दूध उसमें डाले, फिर घृतमें पकावे यह घृत वायुको दूर करे तथा मांसको बढावे और वृष्य है ॥ १॥ वातरक्ते गुडूचीवृतम् । अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधात् । मृदमिना घृतं सिद्धं वातरक्तहरंपरम् ॥ १ ॥ आमवातादिवातानां कृमिदुष्टवणान्यपि । अशांसि गुल्मांश्च तथा नाशयत्याश योजितम् ॥२॥ गिलोयके काढेमें सोंठ डालकर फिर घृत डालकर मन्दाग्निसे औटावे । यह घृत वातरक्त और आमवातयुक्त वा कृमि, दुष्टत्रण, बवासीर, गुल्म, आदि संपूर्ण रोगोंको नाश करता है ॥ १-२॥ वातशूले शुंठीघृतम् । नागरक्वाथकल्काभ्यां घृतप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणेन तेनाथ केवलेनोदकेन वा ॥१॥ वातश्लेष्मप्रशमनमग्निदीपनकं परम् । नागरं घृतमित्युक्तं कटयामशूलनाशनम् ॥२॥ सोठके, काढेको एक प्रस्थ घीमें औटावे, परन्तु सोंठका पानी घृतसे चौगुना होवे. यह घृत वातश्लेष्मको दूर करता है, मन्दाग्निको दीपन करे यह सोंठका घृत कटिशूल, आमवात और कठिन दरदका नाश करता है ॥ १-२॥ लूताविचचिकायां काशीसादिघृतम् । काशीसं द्वे निशे मुस्ते हरितालं मनः शिला। कंपिल्लकं च गंधं च विडॉ गुग्गुलुं तथा॥१॥ सिद्धकं मरिचं कुष्ठं तुत्थकं गौरसर्षपः । Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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