________________
१६८) योगचिन्तामाणिः। [ काथाधिकारःठंडाकर शहद डालकर पीवे तो हारिद्रकज्वर नाश होवे और इस उपायसे दूर न हो तो पैर, मस्तक, कपाल, भौंहके मध्य, दशमद्वार और ग्रीवा इन जगह पर दाग देवे. प्रलापक सन्निपातमें नेत्रवाला, पित्तपापडा, मोथा, गिलोय, धनियां, सौंफ, अमलतास, नीम्बकी छाल, कुटकी, जवासा, हरड, मुनक्का, रक्तचन्दन, पदमाख, शतावर इनकी सम मात्रा ले काढा कर पीवे तो हारिद्रक ज्वर नाश होय और सांठीकी जड, नीम्बकी छाल, चिरायता, हलदी, गिलोय, पीपल खैरसार इनके देनेसे शीघ्रही हारिद्रकरोग नाश होय ॥ १-७ ॥
कमलवाते रजन्यादिक्काथः। हरिद्रामुस्तभूनिम्बत्रिफलारिष्टवासकम् । कंटकारीद्वयं भार्गी कटुकं नागरं कणा ॥ १ ॥ पटोलं पर्पटं शृङ्गी देवदारु सरोहिषम् । विधन्विकं बला बिल्वकुम्भकारी हरीतकी ॥२॥ कट्फलं कुटजं श्यामा सर्वमेकैकभागकम् । रानाभागद्वयं चात्र दत्वा काथं च साधयेत् ॥ ३॥ व्योषचूर्णयुतः क्याथो ज्वरं हन्ति त्रिदोषजम् । त्रयोदशमहाघोरानंधकारान्यथा रविः ॥ ४॥वमिः स्वेदः प्रलापश्च स्तमित्यं शीतगात्रता । मोहतन्द्रातृषाश्वासकासदाहाग्निमांद्यहा ॥ ५॥ हृत्पार्श्वशूलविष्टंभकण्ठकूजनकं तथा । जिहास्फुटनकं कर्णशूलं चाशु विनाशयेत् ॥६॥ नातः परतरं किंचिदौषधं सन्निपातके । रजन्यादिगणो ह्येष धन्वतरिविनिर्मितः॥७॥
Aho! Shrutgyanam