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________________ (२९० ) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकार: अंत्रवृद्धौ लेपः। लाक्षा कांचनकाबीजं शुण्ठी दारुसगैरकम् । कुन्दरू कांजिकैलेंप्यमुष्णमन्त्रविवर्द्धने ॥३॥ लाख, कचनारके बीन, सोंठ, देवदारु, गेरू, कुंदुरूकी गोंद इनको कांजीके रसमें घोलकर गरम कर लेप करनेसे आंतोंका बढना दूर होवं ॥ १ ॥ नलवृद्धौ लेपः। एरण्डबीजं निर्गुण्डी निशा लाक्षा च पुष्करम् । आरनालेन संपिष्य उष्णं पिण्डीकरण्डहृत् ॥१॥ रामठं सैन्धवं कुष्ठं जीरकं गोमयान्वितम् । लेपस्तैलेन वा सम्यगन्तगण्डविनाशनः ॥२॥ अंडीके बीज, संभालू, हलदी, लाख, पोहकरमूल इनको कांजीमें पीस गरम कर लेप करनेसे नल न चढे. हींग, सैंधानोन, कूठ, जीरा इनको गोबरमें अथवा तेलमें पीसकर लेप करे तो अंतर्गलगंड दूर होवे ॥ १-२॥ अशीसे लेपः। शिरीषबीजकुष्ठार्कक्षीरपिप्पलिसैन्धवाः । लागलीमूलगोमूत्रैर घ्नं हन्ति चित्रकैः ॥ १॥ शिरसके बीज, कूठ, आंकका दूध, पीपल, चीता, कलिहारीकी जड, इनको गोमूत्रमें मिलाकर लगानेसे अर्शरोग अवश्य नाश होजाता है ॥ १ ॥ . भगन्दरे लेपः । कासीस सन्धवैरण्डं तैलयुक्तं विमर्दितम् । भगन्दरं प्रलेपेन नाशयेनात्र संशयः ॥ १॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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