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(३०८) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः- ताप स्वेद वह है-जो कपडेमें वालू भरकर गरम करके सेंके अथवा ठीकरेमें अंगार भरकर सुहाता सुहाता सेंक करे ॥ २ ॥
उष्णस्वेदः प्रयोक्तव्यो लोहपिण्डेष्टकादिभिः। प्रतप्तेरम्लसिक्तैश्च कार्यो नक्तकवेष्टितैः ॥३॥ उष्णस्वेद-लोहेका गोला अथवा ईट इनको गरमकर महेमें बुझाकर और कपडा लपेटकर सक करै ॥ ३ ॥ खप्परभृष्टपटस्थितकांजिक सिक्तो हि वालुकास्वेदः। शमयति वातकफामयमस्तकशूलांगभंगादीन् ॥४॥ खपा के ऊपर भुनीहुई वालको कपडेमें बांध गरम कर कांजीमें बुझाके सेंक करनेसे वायु कफके रोग, मस्तकका दरद, अंगभंग इनको यह स्वेद दूर करै ॥ ४ ॥
फलस्वेदं घटीस्वेदं वालुकास्वेदमेव च । कारयेद्धस्तपादेषु-तथा शिरसि युक्तितः ॥५॥ अग्नितप्तेष्टका सिक्ता कांनिकेन पुनः पुनः। सवस्त्रया तया स्वेदो रुजंजयति वातजाम् ॥६॥ पुरुषायाममात्रं वा भूमिसुत्कीर्य खादिरैः। काष्ठैर्दग्ध्वा तथाऽभ्युदयक्षीरधान्याम्लवारिभिः॥७॥ वातघ्नपत्रैराच्छाद्य शयानं स्वेदयेत्ररम् । एवमापादिभिः स्विन्ने शयानं स्वेदमाचरेत् ॥८॥ ईट, पत्थर, ठीकरा, बालू इनसे स्वेद करावे और युक्ति करके इतनी जगहपर करावे-हाथ, पैर, शिर। अनिमें ईट वा बालूको पाकर कां में बुझाय कपडे में बांधकर बार पार
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