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________________ ( १४६ ) योगचिन्तामणिः । [ क्वायाधिकारः चैवापबाहुके । गृध्रस्य जानुभेदे च गुल्मले कटिहे || ६ || सामे चैव निरामे च सप्तधातुगतानिले । आवृतेऽनावृते चैव वातरक्ते विशेषतः ॥७॥ एष द्वात्रिंशकः काथः कृष्णात्रेयेण भाषितः । कृष्णचूर्णेन वा योगे राजगुग्गुलुनाथवा ॥ ८ ॥ अजमोदादिना वापि तैलेनैरण्डजेन वा ॥ ९ ॥ रास्त्रा, गिलोय, एरण्डकी जड, देवदारु, हरड, कचूर, खरेंटी, वच, पाढ, सौंफ, साँठकी जड, पंचमूल, रसौत अण्डी, धमासा, अजमायन, पोहकरमूल, असगन्ध, प्रसारणी, ( लताविशेष लज्जालुलता ), गोखरू, अडूसा, हाऊबेर, विधायरा, शतावरी, ब्राह्मी, गूगल पंचांग, क्षीरकन्द इनकी बराबर मात्रा ले तीन पुडिया बनावे, अष्टावशेष काथ, करे कुछ गूगल डाल देवे, फिर पीपल के चूर्णसे देवे अथवा योगराज गूगलसे अथवा एरण्डी के तेल से अथवा अजमोदसे देय तो समस्त वायुरोग, कम्पवायु, प्रतानकवायु, जावडेका स्तम्भ, मुखशोष, पक्षाघात, बडी पीडा, कुबडापन, हनुग्रह, स्वरभङ्ग और सम्पूर्ण वायुके विकारोंको दूर करे ॥ १-९ ॥ . लघुरास्त्रादिकाथः । रास्नागुडूचीवातारिदेवदारुमहौषधैः । पिबेत्सर्वांग के वाते साममज्जास्थिसंधिगे ॥ १ ॥ रास्त्रा, गिलोय, एरंडका तेल, देवदारु, सोंठ, इनका अष्टावशेष काथ कर पीवे तो सर्वांगवात दूर होय ॥ १ ॥ सन्निपातलशणम | यदि कथमपि पुंसां जायते कर्णपीडा भ्रममदपरितापो मोहवैकल्यभावम् । विकलनयनहास्यो Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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