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________________ ( १९८) योगचिन्तामणिः । [ तैलाधिकार:कांगनी, मंजीठ, तेलियामीठा, कडवातेल, ६४ पल, गोमूत्र २५६ पल इनको मिट्टीके पात्रमें अथवा लोहे के पात्रमें मन्दाग्निसे पकावे । जब पकजॉय तव उतारलेवे । यह तेल कोढ, व्रण, पामा, विचर्चिका, शरीरमें गुलजट और सफेद बालोंका होना, खुजली आदिमें हितकर है इस तेलके मर्दनसे शरीर सुंदर होय. प्रथम उमरवाली स्त्रीको नास देवे तो बुढापेमें भी सुन्दर तथा दृढ शरीर होय. किसी तरह विकारको प्राप्त नहीं होय. बैल, घोडा, हाथी ये वायुविकारसे पीडित होवें तो तीन दिन मर्दन करनेसे पवनके समान पराक्रमवाला होता है ॥ १-८॥ सर्ववातरोगे विषगर्भतेलम् १-२ । विषं च पुष्करं कुष्ठं वचा भाी शतावरी । शुण्ठी हरिद्रे लशुनं विडङ्ग देवदारु च ॥ १॥ अश्वगन्धाऽजमोदा च मरिचं प्रथिकं बला। रास्ना प्रसारिणी शिशु गुडूची हपुपाऽभया ॥२॥ दशमूलानि निर्गुण्डी मिशी पाठा च वानरी । विशाला शतपुष्पा च प्रत्येकं पलिकोन्मितान् ॥३॥ चतुर्गुणजलैः पक्त्वा पादशेष शृतं नयेत् । तिलतैलं क्षिपेत्प्रस्थं तथैरण्डं च सार्षपम् ॥४॥ धत्तूरं चाण्डभृङ्गार्करसान्प्रस्थमितान्क्षिपेत् । पाचयेद्गोमयरसैस्तैलशेष समुद्धरेत् ॥५॥ पलमेकं विषं चात्र सूक्ष्मं कृत्वा विनिक्षिपेत् । सर्वेषु वातरोगेषु सदाऽभ्यङ्गो विधीयते ॥ ६॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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