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________________ (२४८) योगचिन्तामणिः। [मित्राधिकार:तस्योपरि पुटं दद्याच्चतुर्भिर्गोमयोपलैः ॥३॥ एवं पुनः पुनर्गन्धं षड्गुणं जास्येद्बुधः । गन्धे जीर्णे भवेत्सूतं तीक्ष्णानिः सर्वकर्मकृत् ॥ ४॥ धूमसाररसं तारो गन्धकं नवमादरम् । यामैकं मर्दयेदम्लैर्भागं कृत्वा समं समम् ॥५॥ काचकुप्यां विनिक्षिप्य तां च मृदस्त्रमुद्रया। विलिप्य परितो वक्रे मुद्रां दत्त्वा च शोषयेत् ॥६॥ अधः सच्छिद्रपिठरीमध्ये कूपी निवेशयेत् । पिठरी वालुकापूरै त्वा आकूपिकागलम् ॥ ७ ॥ निवेश्य चुल्ल्यां तद्धः कुर्याद्वहिं शनैः शनैः। तस्मादप्यधिकं किञ्चित्पावकं वालयेक्रमात् ॥८॥ एवं द्वादशभिर्यामैम्रियते मतकोत्तमः । स्फोटयेत्स्वांगशीतं त मूर्खां गन्धकं त्यजेत् ॥९॥ अधःस्थं मृत मूतं च सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ १० ॥ मिटीके बरतन में पानी भर बीच सम्वा रक्वे, उसके ऊपर एक बडा ढक्कन ढके, उनके चारों तरफ गइहा करै, उस गइढेमं सोनेके वरतनसे रस डालता जाय, उस रसके ऊपर गन्धक पीसकर समान मात्रा डाले, ऊपर एक सम्वा रक्वे, फिर भस्मदा देो, तितके ऊपर पुट देकर उपलकी आँच देवे, इमी प्रकार छः बार गन्धकको बुद्धिमान् वैद्य जल वै । जैसे २ गन्धक जले वैसे २ पाग तीक्ष्णाग्नि हो कार्य करनेवाला हो जाता है. जैसे धूमसार, पारा, फिटकरी, गन्धक, नौसादरको एक प्रहर खटाईमें मर्दन करे और Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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