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________________ ( १२८ ) योगचिन्तामणिः । गुटिका धिकारः राजिकां मरिचं कृष्णां सैन्धवं भूतनाशनम् । नरमूत्रेण संपिष्य अञ्जनं ज्वरनाशनम् ॥ ३ ॥ राई, मिरच, पीपल, सैंधानोन इनकी मनुष्य के मूत्र में गोली बनावे और अंजन करे तो भूतादिकां को दूर करे || ३ ॥ सपपादिगुटिका | सिद्धार्थको वचाहिङ्गुकरओ देवदारु च । मञ्जिष्ठा त्रिफला श्वेता कटुकीत्वक्कटुत्रिकम् ॥ १ ॥ समांशानि प्रियंगुश्च शिरीषो रजनीद्वयमू । बस्तमूत्रेण पिष्टोऽयमङ्गे देयस्तथाऽञ्जनम् ॥ २ ॥ नस्यमालेपनं चैव स्नानमुद्वर्त्तनं तथा । अपस्मारे विषोन्मादे कृत्यालक्ष्मीज्वरापहम् ॥ ३ ॥ भूतेभ्यश्च भयं नास्ति राजद्वारे च शस्यते ॥ ४ ॥ सरसों, वच, हींग, कंजाके बीज, देवदारु, मंजीठ, त्रिफला, मालकांगनी, तज, सोंठ, मिरच, पीपल, समभाग प्रियंगु, सिरसके बीज, दोनों हलदी इनकी बकरे के मूत्रमें गोली बनावे और मर्दन करे तो सब रोग दूर होंवें, अञ्जन करें तथा नस्य लेय, लेपन करे, उबटना करे तो मृगी, विष, उन्मादज्वरादि तथा भूतादिकोंको दूर करे । यह राजाके योग्य है ॥ १-४ ॥ चिन्तामणिरसगुटिका । द्वौ जाजी कणविश्वपञ्चलवणा मारीचगन्धाभ्रकं क्षारंत्रीणि रसेन्द्रमर्द्धममृतं तत्सर्वमेकीकृतम् । क्षिप्त्वा चार्द्रक नागवल्लिसहितं पञ्चैव गुंजान्वितं सामे सज्वरसन्निपातकमहामेदाद्युदावर्त्तके ॥ १ ॥ Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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