SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२८ ) योगचिन्तामणिः । [ मिश्रा धिकारः रहे उसे फेंक देवे, ऐसे ही मलताजाय और धूपमें रख २ कर ऊपर की मलाई लेता जाय और नीचेको फेंकता जाय, इसी तरह दो महीने शिलाजीतको शोधन करे, और अग्निपर रक्खे तो लंबासा आकार होजाय और धुआं न देवे तो जाने शुद्ध होगया । इस शिलाजीतको सब कामों में वर्ते । इलायची और पीपल के साथ एक महीने खाय तो मूत्रकृच्छ्र मुत्रका रुकना, क्षय इनको दूर करे ॥ १--६ ॥ स्वर्णदिधातुमारणम् । तैले त गवां मूत्रे कांजिके च कुलत्थके । तप्ततप्तान सिंचेत द्वावे द्वावे तु सप्तधा ॥ १ ॥ सुवर्णतारताम्राणां पत्राण्यग्नौ प्रतापयेत् । प्रसिंचेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च संस्थिते ॥ २॥ गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये च त्रिधा त्रिधा । एवं स्वर्णादिलोहानां विशुद्धिः संप्रजायते || ३ || तेल, महा, गोमूत्र, कांजी, कुलथी इन प्रत्येक में धातुको तपा २ कर सात सात बार बुझावे, सोना, चांदी, तांबा इनके पत्र कर तपा तपा कर तेल, मट्टा, कांजीमें बुझावे, और गोमूत्र, कुलथीके काढेमें तीन तीन वार बुझावे इस प्रकार लोहे, सोने आदिकी शुद्धि होती है ॥ १-३ ॥ मृगांकविधिः १-३ । स्वर्णस्य द्विगुणं सुतमम्लेन सह मर्दयेत् । तगोलकसमं गन्धं निदध्यादधरोत्तरम् ॥ १ ॥ गोकलं च ततो रुद्वा शराव दृढसंपुटे । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy