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(९२) योगचिन्तामणिः। [चूर्णाधिकारः... समुद्रनोन, संचरनोन, सैंधानोन, जवाखार, हरड, अजमोद, सोंठ, हींग, वायविडंग इन सबको समान ले इनका चूर्णकर घृत मिलाय भोजनके प्रथम पांच ग्रास लेवे तो अजीर्ण, वादी, गुदाके रोग, वायगोला, वातप्रमेह, विषमवात, हैजा, कामला, पांडुरोग, खांसी और श्वास इन सबका नाश करे ॥ १-.३ ॥
हिंग्वष्टकचूर्ण। त्रिकटुकमजमोदासैन्धवं जीरके द्वे समचरणधृतानामष्टमो हिडभागः । प्रथमकवलभुक्तं सर्पिषा चूर्णमेतजनयति जठराग्निं वातगुल्मं निहन्ति ॥ १॥ सोंठ, मिरच, पीपल, अजमोद, सैंधानोंन, सफेदजीरा, कालाजीरा इन सबको बराबर लेकर अष्टमांश, हींग घीमें भूनकर डाले पीछे इस चूर्णको भोजनके प्रथम पांच ग्रासोंमें खाय तो जठराग्निको प्रबल करे और वायगोलाको नष्ट करे ॥ १ ॥
हिंगुपंचक चूर्ण । विश्वौषधेन रुचकेन सदाडिमेन स्यादम्लवेतसयुतं कृतहिंगुभागम् । तद्धिंगुपञ्चकमिदं जठरामयनं भेडाभिधानमुनिना गदितं मुनीनाम् ॥ १॥
सोंठ, संचरनोन, अनारदाना, अमलवेत ये बराबर लेवे, इनमें एक हिस्सा हिंगु मिलावे । यह हिंगुपञ्चक उदरके रोगोंको दूर करे, यह भेडनाम मुनिने कहा है ॥ १॥
हिंगुत्रयोविंशति चूर्ण । हिंग्वग्निचव्यलवणत्रयवेतमाम्लक्षारद्वयं त्रिकटु
दाडिमतितडीकम् । सग्रंथिकानिकसटी हुपुषाऽजगंधा पागऽभयासुसितजीरकपुष्कराह्वा ॥१॥
गु मिलाव
॥१॥
न चूर्ण ।
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