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________________ ( १७० ) योगचिन्तामणिः । मूत्रकृच्छ्रे एलादिकाथः । एलामधुकगो कंटरेणुकै रंडवासकैः । कृष्णाश्मभेदसहितैः क्वाथ एष सुशोधितः । शिलाजतुयुतः पेयः शर्कराइम रिकृच्छ्रहा ॥ १ ॥ इलायची, मुलहठी, गोखरु, संभालू, एरंड, अडूसा, पीपल, पाषाणभेद इनका काढा शुद्ध शिलाजीत संयुक्त पीने से शर्करा, पथरी, मूत्रकृच्छ्र दूर होय ॥ १ ॥ [ क्वाथाधिकारः हरीतकीगोक्षुरराजवृक्षपापाणभिन्दन्वय वासकानाम् । क्वाथं पिबेन्माक्षिकसंप्रयुक्त कृछ्रे सदाहे सरुजे विबन्धे ॥ २ ॥ हरड, गोखरू, अमलतास, पाषाणभेद, जवासा इनका काढा शहद के साथ पीने से मूत्रकृच्छ्र तथा दाहसंयुक्त और पीडायुक्त विबंध दूर होय ॥ २ ॥ रसांजनं तण्डुलकस्य मूलं क्षौद्रान्वितं तण्डुलतोयपीतम् असृग्दरं सर्वभवं निहन्ति श्वासं च भाङ्ग सह नागरेण ॥ ३ ॥ रसत, चौलाईकी जड, शहद, चांवलोंके पानी के साथ पीवे तो संपूर्ण प्रदर रोग दूर होवें और जो भारंगी सोंठ संयुक्त देवे तो श्वास दूर होय || ३ || फलत्रिकाब्ददावणां विशालायाः शृतं पिबेत् । निशाकल्कयुतं सर्वप्रमेहविनिवृत्तये ॥ ४ ॥ त्रिफला, मोथा, दारुहळदी, इन्द्राणी इनका काढा हलदीसंयुक्त पीने से सब प्रकारका प्रमेह दूर होय ॥ ४ ॥ दाव रसांजनं मुस्तं भातः श्रीफलं वृशम् । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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