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योगचिन्तामणिः। [पाकाधिकारः
भिलावा पाक । भल्लातकानां पवनोद्भुतानां वृन्ताच्च्युतानां च तथाऽऽढकं स्यात् । तच्चेष्टकाचूर्णचयं विघृष्य प्रक्षाल्य तोये विसृजेत् प्रवाते ॥ १ ॥ शुष्कं पुनस्तद्विदलीकृतं च ततः पचेदप्सु चतुर्गुणासु। तत्पादशेषं परिपूतशीतं क्षीरे पचेत्तच्च पुनस्तथैव ॥२॥ घृतांशयुक्तेन घनं यथा स्यात्सितोपलेषोडशभिः पलैश्च । विमृश्य संस्थाप्य दिनानि सप्त ततः प्रयुज्याग्निबलेन मात्राम् ॥३॥ जये. द्विकारानखिलांश्व कुष्ठान् दृष्टिं च दीप्तिं च बलं करोति । शतायुषं चैव नरं विधत्तेराजा ह्ययं सर्वरसायनानाम् ॥४॥
पवनसे टूटकर गिरे भिलावे एक आढक (४०९६ टंक ) ले मोटे कपडेमें बांधकर पृमि पछाडे, पीछे ईंटके कुकुआसे मसल पानीसे धोकर शुद्ध करे और हवामें रख देवे, जब सूखजायँ तब दो दो टुकडे कर चौगुने जलमें औटावे, जब चतुर्थांश जल शेष रहे तब वस्त्रमें छानलेवे, पीछे चौगुना दूध डालकर फिर औटावे, जब चतुर्थाश दूध शेष रहे. तब निकालकर घृतमें पकावे, पीछे १६ पल मिश्रीकी चासनीमें पाक बनालेवे । इसको चीनी वा काचके पात्रमें सात दिन रखकर पीछे बराबर देखकर खानेको देवे तो सम्पूर्ण कुष्ठके विकारोंका नाश करे, दृष्टिको बढावे, बल करे, सौ वर्षकी आयु होय, यह सब रसायनोंका राजा है. अथवा खांडकी चासनी करके इला
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