SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५८ ) योगचिन्तामणिः । [ मित्राधिकारः वह्नि शनैः शनैः कुर्यात्प्रहरद्वयसंख्यया ॥ २ ॥ ततश्वोद्वाय्य तन्मुद्रामुपरिस्थशरात्रकात् । संलग्नो यो भवेत्सूतस्तद् गृह्णीयाच्छनैः शनैः ॥ ३ ॥ वायुस्पर्शो यथा न स्यात्तथा कुप्यां निवेशयेत् । यावत्सूच्या मुखे लग्नं कुप्यां निर्याति भेषजम् ॥४॥ तावन्मात्री रसो देयो मूच्छिते सन्निपातके । क्षुरेण प्रस्थिते मूर्ध्नि तत्राङ्गुल्या च घर्षयेत् ॥ ५ ॥ रक्तभेषज संपर्कान्मूर्च्छितोऽपि हि जीवति । यदा तापो भवेत्तस्य मधुरं तत्र दीयते ॥ ३ ॥ शुद्ध तेलिया मीठा १ पल, पारा १ पल इन दोनों को पीसकर कांच की शीशी में भर सकोरोंमें रख कपर मिट्टी मुद्रा कर धूपमें सुखावे फिर चूल्हे पर चटाकर दो महरकी मन्दाग्नि देवे। जब टंढा हो जाय तच संपुट खोले, जो काचके पात्रमें पारा लगा होवे उसे खुरच लेवे, हौले २ दूसरे पात्र में भरकर वर्तावमें लावे. पवन न लगने देवे, फिर शीशी में भरकर रख देय और जितना सुईके मुखमें लगे उतना काढे, सुईके अग्रभागकी वरावर मात्रा लेवे । मूर्च्छित सन्निपातवाले के मस्तकपर चक्कूसे थोडा चीरकर उँगलीसे मर्दन करे तो अचेत मूर्छित जीवे ऐसेही सांपका काटा भी मरावस्था से जीवे और जिसे ताप होय त उसे मीठा खवावे ॥ १-६ ॥ आमवात उदयभास्कररसः । पारदं गन्धकं दिव्यं व्योपं त्रिलवणानि च । सितकन्दा च वृद्धैला रसकर्पूरमेव च ॥ १ ॥ समानि सर्वतुल्यं च शुद्धं जैपालकं क्षिपेत् । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy