SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . (३००) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारः-. बहुत पानी पीना इन सबको जबतक देहमें बल न आवे तबतक त्याग देवे ॥१॥ जलूकादिदंशस्त्रावे उपचारः। अतिप्रवृत्ते रक्ते च यवगोधूमचूर्णकैः । सर्पनिर्मोकचूर्णैर्वा क्षौमवस्त्रस्य भस्मना । मुखे व्रणस्य बद्धा च शीतैश्चोपचरेव्रणम् ॥ १॥ जलौकादि दशादिमें जो अति रुधिर बहता होवे तौ जौका आटा, गेहूंका आटा, सर्पकी कांचली, रेशमी कपडेकी राख इनको पीसकर कोडेके मुँहपर बांध देवे और शीतल उपचार करे ॥ १ ॥ नस्यविधिः। उत्तानशायिनं किंचित्प्रलम्बशिरस नरम् । आशीर्णहस्तपादं च वस्त्राच्छादितलोचनम् ॥ १॥ समुन्नमितनासाग्रं वैयो नस्येन योजयेत् । कोष्णमच्छिन्नधारं च हेमतारादिशुक्तिभिः ॥२॥ नस्येष्वासिच्यमानेषु शिरो नैव प्रकम्पयेत् । न कुप्येन प्रभाषेत नोच्छिक्केन हसेत्तथा ॥३॥ उपविश्याथ निष्ठीवेज्राणवक्रगतं द्रवम् । वामदक्षिणपार्श्वभ्यां निष्ठीवेत्सम्मुखे न हि ॥४॥ मनुष्यको सीधा सुलाकर माथा ऊंचा रक्खे और लंबा शिर कर हाथ परोंको फैलादेवे और कपडेसे आंख ढकलेवे और नाकको ऊंचा करके वैद्य सोना, चांदी, सीपीमें भर कर नस्य देवे, फिर गरमपानीकी धारा देवे, अच्छिन्न अर्थात् धार टूटे नहीं, तथा वह नास लेनेवाला शिरको हिलावे नहीं, और न क्रोधित होवे, न बोले, न छींके, Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy