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________________ सप्तमः ] भाषाटीकासहितः । ( २३७ ) ततो वटजटाक्वाथैस्तद्वद्देयं पुत्रयम् । म्रियते नात्र संदेहः सर्वकार्येषु योजयेत् । निश्चन्द्रमभ्रकं तत्स्याज्जरामृत्युरुजापहम् ॥ ५॥ काले अभ्रकको अग्निमें तपावे, फिर दूधसे सींचें, फिर जुदे २ पत्र et Halls पानी में और इमलीके रसमें आठ प्रहरकी भावना देवे तो अभ्रक शुद्ध होवे, फिर धान्ययुक्त कपडे में बांधकर कांजी में मर्दन करे तो शुद्ध धान्याभ्रक होवे, फिर आक के दूधमें एक दिन घोटकर टिकिया बनावे और आक के पत्ते ऊपर नीचे लपेटकर गजपुटकी आंच देवे फिर घोटकर आंच देवे, ऐसे ७ बार आंच देवे, फिर वटकी जडके काढे में तीन पुट देवे, इस प्रकार निस्संदेह अभ्रक मरे फिर सब कार्यों में वर्त्ते, जो अच्छा अभ्रक बने तो बुढापे व मृत्युको दूर करे ॥ १-५ ॥ अमृतीकरणम् । क्षिप्त्वाऽभ्रेण घृतं तुल्यं लोहपात्रेऽतिपाचयेत् । घृते जीर्णे तदभ्रं तु सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ १ ॥ अभ्रक के बराबर वृत डाले और पात्रमें पकावे, जब सब घृत सुखजाय तब उतारकर काममें लावे ॥ १ ॥ कृष्णाभ्रकं समादाय द्विप्रस्थं चूर्णयेदुधः । गोमूत्रालोडितं भाण्डे क्षिप्त्वा वह्नौ दिनं पचेत् ॥ १ ॥ अर्कदुग्धे पुनः पिष्ट्वा कृत्वा टिकडिकाः शुभाः । वेष्टयित्वाऽर्कपत्रैश्च खर्परस्थाः पुनः पचेत् ॥ २ ॥ एवमेवार्कदुग्धस्य दद्यात्सप्तपुटानि च । पुटत्रयं कुमार्याश्च त्रिफलायाः पुत्रयम् || ३ || Aho ! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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