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________________ सप्तमः] भाषाटीकासहितः। (२२५) देवे, फिर गजकुंभकर चूल्हे पर चढा मन्दाग्नि देवे, जब उसका रस दूसरी शीशीमें आजाय तब लेकर अच्छी जगह स्वखे और अच्छा दिन देखकर सेवन करे। इसमें शंख तथा कौडी डालनेसे भस्म हो जाती है इसीसे इसको शंखद्राव कहते हैं । इसकी मात्रा रुईके फोहेमें लगाकर जिह्वापर लगा देवे और जो दांतोंमें लग जायगा तो दांत गिरजावेंगे और सम्पूर्ण उदररोगोंको तथा गुल्मको नाश करै । प्लीहा, हृद्रोग, ग्रहणी, यकृत, उर्वश्वास, कफ, खांसी, आमवात इनको दूर करे, सुन्दर काया करे, पुष्टी करे, पेटकी अग्निको, बढावे ॥ १-७ ॥ गन्धक विधिः। लोहपात्रे विनिक्षिप्य घृतमग्नौ प्रतापयेत् । तप्ते घृते तत्समानं क्षिप्त्वा गन्धकजं रसम् ॥ १॥ गलितं गन्धकं ज्ञात्वा दुग्धमध्ये विनिक्षिपेत् । एवं गन्धकशुद्धिः स्यात सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ २॥ लोहेके पात्रमें घृत डालकर तडकावे, जब खूर गरम होजाय तब गन्धक पीसकर डालदेय, जब गंधक गलजाय तब धीसहित दूधमें डालदेय. यह शुद्ध गंधक सब कामम लावे ॥ १-२॥ दुग्धे घृते निन्बरसे भृङ्गराजरसेऽथवा । गन्धकं शोधयेत्प्राज्ञो दोलायन्त्रेण वाससा ॥३॥ सदुग्धभाण्डेऽपि पटस्थितोऽयं शुद्धो भवे कूर्मपुटेन गन्धः । सदुग्धभाण्डस्य मुखे सुवस्त्रं बद्धं क्षिपेद्गन्धकसूक्ष्मखण्डान् ॥ ४ ॥ विमुद्रयित्वा Aho! Shrutgyanam
SR No.034215
Book TitleYog Chintamani Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkirtisuri
PublisherGangavishnu Shrikrishnadas
Publication Year1954
Total Pages362
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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