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त्याप्रभा
अमा
करुणा
विनय
कुसुम भभिनन्दन गया
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अभिनन्दन किक्तका व्यक्ति का, या गुणों का ?
चूँकि गुण व्यक्ति आधारित होते हैं, गुणों की अभिव्यक्ति का आधार व्यक्तित्व ही है । व्यक्तित्व का संदर्शन ही गुणों की प्रतीति कराता है, अतः अभिनन्दनीय गुणों को व्यक्ति या व्यक्तित्व के माध्यम से ही उजागर कर अभिनन्दित किया जा सकता
है।
पूज्य महासती श्री कुसुमवती जी का व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों का पुंजीभूत/ घनीभूत जीवन्त रूप है । उनका सहज सौम्य जीवन विनम्रता, सरलता, श्रुतउपासना, गुणज्ञता, त्याग एवं सेवा-भावना आदि ऐसे अनेक दुर्लभ और प्रेरक सद्गुणों को प्रकट करता है, जिनको देख/अनुभव कर श्रद्धावश मस्तक विनत हो जाता है, हृदय गुण-विभोर होकर धन्य-धन्य कह उठता है, वाणी मुखर होकर प्रशस्ति गान गाने लगती है।
महासती जी का व्यक्तित्व श्रद्धा भाजन है । श्रद्धेय के प्रति हृदय की सहज स्फुरणा होती है, वन्दना के रूप में । हजारों श्रद्धालुओं की श्रद्धा के शब्द-सुमन ग्रथित होकर बन गया है यह ग्रन्थ-कुसुम अभिनन्दन-ग्रन्थ ।
इस ग्रन्थ के संयोजन-संपादन में कुशल विदुषी साध्वी दिव्यप्रभाजी एवं उनकी सहयोगिनी आर्याओं का श्रम 'श्रद्धाध्य के रूप में युग-युग तक प्रेरक और पथदर्शक रहेगा, इस ग्रन्थ राज के रूप
-राजेन्द्रमुनि
मूल्य : एक सौ एकावन रुपया मात्र
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परम विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी महाराज के दीक्षा-स्वर्ण जयन्ती प्रसंग पर
र कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ
दिशा निर्देशन :
उप प्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि (एम०ए० साहित्य महोपाध्याय),
0 प्रधान सम्पादिका : साध्वी दिव्य प्रभा
(एम०१० पी-एच०डी०)
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आशीर्वचन राष्ट्रसन्त आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी
निदेशक उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी उप प्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि
प्रधान सम्पादिका साध्वी दिव्यप्रभा जी
संपादक मंडल: पं० श्री हीरा मुनिजी विद्वद्रत्न श्री गणेश मुनि शास्त्री महासती चारित्र प्रभाजी महासती गरिमा जी डा० एम० पी० पटेरिया (झांसी) डा. तेजसिंह गौड़ (उज्जैन। डा. गुलाबचन्द जन (जयपुर) पं० देवकुमार जैन (ब्यावर)
प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस'
प्रथमावतरण: वि० सं० २०४७ ई० सन् १९६० मई
प्रकाशक कुमुम अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सकंल, उदयपुर
मूल्य: एक सौ एकावन रुपया मात्र
मुद्रक : श्रीचन्द सुराना के निदेशन में कामधेनु प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिसर्स, A-7 अवागढ़ हाउस, एम० जी० रोड, आगरा-२८२००२
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परम वन्दनीया-साधना पथ की साधिका महासती श्री कुसुमवती जी महाराज
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श्रद्धा स्निग्ध समर्पण
जिनका चेतनाशील व्यक्तित्व,
अमृत सागर की भांति,
अगाध एवं अपार है । जिनका सृजनशील कृत्तित्व,
अनन्त अन्तरिक्ष के समान,
अप्रतिम एवं अनुपम हैं । जिनका प्रभावपूर्ण प्रवचन,
क्रान्ति और शान्ति का,
परम पावन प्रतीक है । जिनका प्रेरणास्पद संगीत, जन-जीवन में नव-चेतना का,
अभिनव संचार करता है । जिनका पावन शरण,
कल्पवृक्ष की भांति,
आत्मिक प्रानन्द प्रदान करता है । जिनका दिव्य - सन्देश,
अन्तश्चेतना के जागरण हेतु,
वरदान का अक्षय निधान है । उन अनन्त प्रास्थाओं की साकार-प्रतिमा, परमाराध्या गुरुवर्या श्री कुसुमवती जीम०के,
पाणि-पदमों में सश्रद्धा सभक्ति,
सादर सर्वात्मना समर्पण ।
विनयावनतासाध्वी दिन्यप्रभा
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iy आशीर्वचन
साध्वी श्री कुसुमवती जी का जीवन कुसुम की भाँति सद्गुग्मों को सौरभ से कमनीय है। उनकी विनम्रता, सरलता और चारित्र गुणों में गहरी निष्ठा सभी के लिए प्रेरणाप्रद है। वे इसी प्रकार श्रमणी संघ का गौरव बढ़ाती रहें, यही मेरा आशीर्वाद है।
आचार्य आनन्दऋषि
सत्य-शील-संयम की आराधना में संलग्न रहने वाले श्रमण-श्रमणी जगत के लिए स्वयं आशीर्वाद स्वरूप हैं तो फिर मैं श्रमणी श्री कुसुमवती जी के लिए क्या आशीर्वाद दूँ ?
उनका उज्ज्वल जीवन सबके लिए ज्योतिर्मय बने, यही मेरी मनोभावना है।
-उपाध्याय पुष्करमुनि
महासती श्री कुसुमवती जो अपने उज्ज्वल चरित्र, दृढ़ संकल्पशीलता उदात्त मनोबल तथा सौम्य विनम्र स्वभाव के कारण श्रमणसंघ में सर्वत्र लोकप्रिय हैं, सबके स्नेह एवं श्रद्धा की पात्र हैं। उनका जीवन समग्र साध्वी समाज के लिए प्रेरणा-दीप बनकर ज्योतिर्मय रहे यही मेरी मंगल भावना है।
-उपाचार्य देवेन्द्र मुनि
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RAJ BHAWAN Bhubaneswar-751008
२१ फरवरी १९६०
* शुभ सन्देश यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी महाराज की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती मनाते हुए इस अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने जा रहे हैं। ___मैं इस प्रयास की सफलता की कामना करने के साथ-साथ यह आशा करता है कि "कुसूम अभिनन्दन ग्रन्थ" अपनी निःस्वार्थपरक सेवा में सदा कामयाब रहेगा। मैं इसके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामना करता है।
-यज्ञदत्त शर्मा (राज्यपाल : उड़ीसा)
वाणिज्य मन्त्री
भारत नई दिल्ली-११००११ ४ जनवरी १९६०
यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि परम विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी महाराज को दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर उनके व्यक्तित्व का अभिनन्दन करने हेतु समाज द्वारा एक "अभिनन्दन ग्रन्थ" का प्रकाशन किया जा रहा है। __ मैं ग्रन्थ के सफल प्रकाशन हेतु अपनी शुभकामना भेजते हुए आशा करता हूँ कि यह ग्रन्थ मानव-मात्र की एक मूल्यवान निधि बन सकेगा जिससे आध्यात्मिक साधना पथ के पथिक सदैव प्रेरणा लेते रहेंगे।
-अरुण नेहरू साध्वारत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jäin Education International
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शुभ सन्देश
मुख्य मन्त्री
गुजरात सरकार यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हई कि परम विदुषी तथा आत्मद्रष्टा साधिका श्री कुसूमवती जी महाराज की दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में सार्वजनिक सम्मान के रूप में उन्हें जैन समाज द्वारा एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने का निर्णय किया गया है।
जैन धर्म-दर्शन के उदात्त सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, शील, सेवा, सदाचार के कल्याणकारी पथ पर जन-समुदाय को निरन्तर अग्रसर होने के लिए महान प्रेरणा प्रदान करने वाली श्री कुमुमवती जी वास्तव में सार्वजनिक अभिनन्दन की अधिकारिणी हैं। मुझे पूरी आशा है कि अपने सद्कार्यों के माध्यम से वे पुण्य प्रकाश-पुञ्ज वनकर जन समाज का पथ सदैव आलोकित करती रहेंगी। __ अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की मैं हार्दिक शुभकामना करता हूँ।
- माधवसिंह
मध्यप्रदेश, विधान सभा भोपाल
दिनांक : २२-१०-८६ यह जानकर प्रसन्नता हुई कि परम विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जो महाराज के अपनी साधना के पचास वर्ष पूर्ण होने पर धर्मप्रेमी सज्जनों के सद्प्रयास से अभिनन्दन कार्यक्रम आयोजित किया गया है और इस अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निश्चय किया गया है।
यद्यपि पश्चिमी देशों की आधुनिकता के मोह में पड़कर हमारी धर्म-भावना और आस्तिकता दिशाहीन होती जा रही है किन्तु ऐसे समय में भी जिन साधु-साध्वियों और सन्त-महात्माओं ने धर्म के न मूल तत्व को हमारे समाज से जोड़ रखा है उनमें महासती कुसुमवती जी महाराज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अब जिस प्रकार से पश्चिमी विचार निस्सार सिद्ध होते जा रहे हैं इससे ऐसा संकेत मिलता है कि आत्मशान्ति और श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए पश्चिमी समाज को फिर से इन भारतीय मनीषियों के चरणों में बैठने को विवश होना पडेगा।
मैं महासतीजी के चरणों में विनम्र प्रणाम प्रेषित करते हुए आपके आयोजन की सफलता की कामना करता हूँ। CHIEF JUSTICE
जोधपुर Rajasthan
१८ अक्टूबर, १९८६ महासती श्री कुसुमवतोजी ने अपनी संयमयात्रा के दौरान जैन दर्शन का गहन अध्ययन किया है। परम विदुषो होने के साथ-साथ वे उच्चकोटि की साधिका हैं। आगम धर्म का गहन ज्ञान और 10 तात्विक विवेचन आपके प्रवचनों में मिलता है और आपके ओजस्वी प्रवचनों के माध्यम से जन-जीवन को अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है। उनकी दीक्षा के स्वर्ण जयन्ती के अवसर , पर उनका अभिनन्दन करना धर्मबन्धुओं के लिए सराहनीय कार्य है और इस अवसर पर उनके सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन भी समीचीन है।
। साध्वी श्री कुसुमवती जी महाराज के चरणों में शत-शत वन्दन । -मिलापचन्द जैन ..
लाश जोशी
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
acordate & Ressonal use only
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प्रकाशककेबोल
आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से अन्तिम पावन चरणों में समर्पित करने का निर्णय लिया पात्र तीर्थकर विश्ववन्द्य भगवान महावीर तक तथा वर्त- गया। मान काल तक जैन धर्म में साध्वी परम्परा अक्षुण्ण कोई भी साधक, तपस्वी, संयमनिष्ठ साधु
है । उस साध्वी परम्परा में अनेक ऐसी साध्वियाँ साध्वी इस प्रकार के गुणानुवाद की इच्छा नहीं , हुई हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान और संयम साधना के करता है । वह तो अपनी साधना में तल्लीन रहकर 2 उच्चतम आदर्श स्थापित किये हैं और अनेक भव्य जो कुछ भी वह प्राप्त करता है, अपने भक्तों में
जीवों को प्रतिबोध देकर उनका मार्ग प्रशस्त किया मुक्तहस्त से वितरित कर देता है। वह प्रदान करने है। किन्तु खेद का विषय है कि साध्वीरत्नों का में पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है।
उज्ज्वल पक्ष होते हुए भी उनका विस्तृत एवं क्रम- महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. का व्यक्तित्व - बद्ध इतिवृत्त उपलब्ध नहीं होता, जिससे हम जैन भी इसी प्रकार का है। वे सचमुच कुसुमवत् ही । इतिहास के एक महान् पक्ष की जानकारी से वंचित हैं। जिस प्रकार पूष्प अपनी सौरभ से समचे उपवन ) रह गये।
को महका देता है। ठीक उसी प्रकार आपके प्राचीनकालिक साध्वी परम्परा क्रमबद्ध रूप व्यक्तित्व की समाज में अमिट छाप स्पष्ट दिखाई से न मिलने के लिए जहाँ हमें खेद है वहीं आज हमें दे रही है । उनके संयम की सौरभ चहुँ ओर बिखर
इस बात के लिए प्रसन्नता और कुछ मात्रा में रही है। यही कारण है कि वे आज जन-जन की हसन्तोष हो रहा है कि आज इस दिशा में उल्लेख- श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई हैं।
नीय कार्य होने लगे हैं । इसी अनुक्रम में यह उल्लेख ऐसी संयमनिष्ठा महासती जी का अभिनन्दन करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि करना उनकी शिष्याओं और अनुयायियों का परम। आचार्य भगवंत श्री अमरसिंह जी म. सा. की पनीत कर्तव्य हो जाता है। अभिनन्दन ग्रन्थ के परम्परा की परम विदुषी, सरल स्वभाषी, मृदुभाषी, माध्यम से अपनी भावना अभिव्यक्त की जाती है ।
मितभाषी, निरभिमानी साध्वीरत्न बाल ब्रह्म- अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से अनेक नई बातें प्रकट १ चारिणी परमविदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी हो जाती हैं। कारण कि अभिनन्दन ग्रन्थों में मूर्धन्य
म. सा. की दीक्षा स्वर्ण जयन्ति के उपलक्ष्य में उनके मनीषियों द्वारा लिखित विचारपरक, शोधपरक सम्मानार्थ अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके एवं चिन्तन प्रधान रचनाओं का संग्रह होता है जो
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( ८ ) एक अमूल्य संग्रह हो जाता है। इन आलेखों में मुनिजी म. का भी सम्पादन-सहयोग प्रशंसनीय धर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य, विज्ञान आदि नाना रहा है। इस अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादन का भार विषयों का समावेश होता है जो विशिष्ट सन्दर्भ वहन किया है-प्रतिभासम्पन्न साध्वी जी श्री ग्रन्थ का रूप ग्रहण कर लेता है।
दिव्यप्रभाजी म. ने जो महासती श्री कुसुमवतीजी
की शिष्या भी हैं। इस ग्रन्थ में सतीजी का परिश्रम ___ महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. का जन्म
व सूझबूझ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उदयपुर में हुआ किन्तु जिस समय आप तीन वर्ष
ग्रन्थ के आशीर्वाद प्रदाता मार्गदर्शक सम्पादक की हुई उस समय आपके पिता का देहावसान हो
मण्डल आदि के प्रति तो हम आभारी हैं ही, साथ गया। उसके पश्चात् आप अपनी माताजी के साथ
ही हम उन विद्वद्रत्नों का भी हृदय से आभार प्रकट | उदयपुर में अपने ननिहाल में रहने लगीं। इस करते हैं जिनके सक्रिय सहयोग के परिणामप्रकार उदयपुर में ही आपका जीवन व्यतीत हुआ
स्वरूप यह ग्रन्थ मूर्तरूप ले सका है। साथ ही अर्थ और यहीं आप महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. सहयोगियों का भी हृदय से आभार प्रकट करते हैं। के सम्पर्क में आई तथा उनकी पावन निश्रा में जिन्होंने उदार हृदय से सहयोग प्रदान कर हमारी दीक्षित होकर जैन धर्म की महती प्रभावना कर कल्पना को साकार बनाया है। रही हैं। यहाँ उल्लेखनीय बिन्दु यह है कि आपकी
ग्रन्थ को मुद्रण कला की दृष्टि से सर्वथा आकमाताजी श्री सोहनबाई ने भी उसी दिन जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की थी जिस दिन आपने संयम
र्षक बनाने का सम्पूर्ण श्रेय स्नेहमूर्ति श्री श्रीचन्द ग्रहण किया था। वे महासती श्री कैलाशकुँवर जी
जी सुराणा 'सरस' को है। इसके साथ ही स्वल्पाके नाम से प्रसिद्ध हुईं।
वधि में उन्होंने ग्रन्थ को तैयार भी कर दिया । ऐसे
। सुराणा जी को धन्यवाद देकर या प्रस्तुत ग्रन्थ में राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी उनका आभार मानकर मैं उनका महत्व कम करना उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का आशीर्वचन नहीं चाहता। वे हमारे हैं, हमारे रहेंगे। एवं साहित्य वाचस्पति उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ग्रन्थ के रूप में यह श्रद्धासुमन आपके हाथों में म. का समुचित मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता है। विश्वास है कि यह ग्रन्थ भावी पीढ़ी का मार्गरहा है। उसी अनुक्रम में उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्र दर्शन करने में सफल होगा।
-सम्पत्तिलाल बोहरा
अध्यक्ष तारकगुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल उदयपुर
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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e sBAADI For Private & Personal use only
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उपाचार्य:०० श्रीदेवेन्द्र मुनिजी म.सा.की जय
परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी के दीक्षा स्वर्णजयन्ती पर प्रकाशित कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन करते हुए जैनसमाज के सुप्रसिद्ध नेता श्रीमान सांचालाल जी सा बाफणा (औरंगाबाद) दिनांक २७.५.९०. नाथद्वारा !
परम श्रद्धेय प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म. को ग्रन्थ समर्पित करते हुए श्रीमान सांचालाल जी बाफणा । पट्ट पर विराजमान श्रमण संघीय महामंत्री श्री सौभाग्य मुनि जी "कुमुद"/उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि, श्री नरेश मुनि जी तथा श्री राजेन्द्र मुनि जी 'रत्नेश' आदि मुनिगण।
www.jainelibrary.orld
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श्रद्धा सुमन समर्पित करते हुए उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि जी शास्त्री एम. ए. !
परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी म. के कर-कमलों में ग्रन्थ समर्पित करती हुई सुश्री पुष्पा जैन, मन्त्री; अकाल राहत एवं पर्यटन, राजस्थान सरकार। साथ में खड़े हैं, उत्साही कार्यकर्ता माननीय बी. एल. पगारिया उदयपुर, पट्ट पर विराजिता विदुषी महासती श्री चारित्रप्रभा जी श्री दिव्यप्रभा जी अनुपमा जी, श्री निरूपमा जी आदि सतीवृन्द ।
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मयूबतेक
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काजय
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर मंच पर विराजित क्रमशः श्री जयवर्धन मुनिजी, श्री सुरेन्द्र मुनि जी, उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि जी, पण्डितरत्न श्री मदनमुनि जी, पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म. श्री नरेश मुनि जी, महामंत्री श्री सौभाग्य मुनि जी म. 'कुमुद' श्री राजेन्द्र मुनि जी 'रत्नेश', श्री दर्शन मुनि जी म. आदि ।
आबयसपट
पाटी
युवाचार्य १००८ श्री शिव मनिका जय
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती समारोह नाथद्वारा में पट्ट पर विराजिता महासती वृन्द क्रमशः विदुषी श्री विमलाश्री जी, परम विदुषी श्री प्रेमकुँवर जी, विदुषी श्री अनुपमा जी एम. ए. परम विदुषी श्री चारित्रप्रभा जी, विदुषी श्री गरिमा जी एम. ए., परम विदुषी श्री कुसुमवती जी म. विदुषी डा. श्री दिव्यप्रभा जी आदि !
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ग्रन्थ की प्रधान सम्पादिका डा. साध्वी दिव्य प्रभाजी अपने विचारों को व्यक्त करती हुयीं !
कुसुम अभिनन्द
ग्रन्थ अवलोकन करती हुयी साध्वी वृन्द, विदुषी श्री प्रेम कुंवरजी श्री अनुपमाजी श्री निरूपमाजी, श्री रुचीकाजी श्री गरिमाजी श्री चारित्र प्रभाजी आदि !
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आदिवचन
राजेन्द्र मुनि (एम० ए०, साहित्य महोपाध्याय)
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पुरुष और नारी......"नारी और पुरुष, दोनों ही स्पष्ट उजागर हो जाती है। महात्मा गांधी की न समाज रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों समान, मान्यता भी कुछ ऐसी ही थी। वे कहा करते थे
परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। यही तो वह कि स्त्री बच्चे की प्रथम शिक्षक होती है और अवस्था है जो दोनों के सुखद संयोग की पृष्ठभूमि उसके चरित्र का संगठन करने वाली होती है । इस तैयार करती है। इनमें से प्रत्येक को पूर्णता की दृष्टि से नारी ही राष्ट्र की माता होती है, ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए अन्य की अनिवार्य अवस्था में नारी को हीन समझना, आत्महनन का अपेक्षा बनी रहती है तथापि यह विडम्बना भी प्रयास नहीं तो और क्या है ? वास्तविकता यह है बनी रहती है कि पुरुष वर्ग की दाम्भिक प्रवृत्ति कि नारी किसी भी दृष्टि से पुरुष की अपेक्षा निम्न स्वयं को श्रेष्ठ घोषित किए बिना नहीं रहती। नहीं समझी जा सकती अपितु किसी रूप में वह नरकृत शास्त्रों के बन्धन भी नारियों के लिए ही उच्चतर भी है, और पुरुष उसका उपकृत भी है। प्रतिबन्ध प्रस्तुत करते हैं। उसे हीन और क्षुद्र नारी में पुरुष को 'मानव' बनाने और बनाए रखने स्वीकार किए जाने लगा। अबला के दीन विशेषण की अद्भुत शक्ति है । स्वभाव से पुरुष कठोर, कर का विशेष्य उसे बना दिया गया। यह कदाचित् व स्वच्छन्दताप्रिय होता है और नारी कोमल होती नारी की समर्पण-भावना और क्षमाशीलता के है, सदय होती है, संयत होती है। यह नारी ही कारण ही घटित होता रहा कि पुरुष का अहं तो है, जो पुरुष को अपने स्नेहिल व्यवहार, उत्सर्ग अधिकाधिक तीव्र होता चला गया, नारी का सामा- भाव व सेवा समर्पण से प्रभावित करती है, उसकी जिक स्थान अधोमुख होता गया-वह देवी से उद्दण्डता को बाधित करती है, पाशविकता पर दीना बन गई ऐसी कि जिसके साथ पुरुषवर्ग की वल्गा लगाती है, उसकी कठोरता को अनुराग के सहानुभूति भी नहीं रह पायी।
द्रव में घोल कर समाप्त कर देती है। देवत्व के किसी देश व समाज के निर्माण में नारी की लक्षण ही नारी की सम्पदा होती है और इस B भूमिका सदा ही गरिमामयी रही है। एक बार नेपो- वैभव को पुरुषों पर न्यौछावर करने में वह तनिक
लियन बोनापार्ट ने अपने देशवासियों से कहा था- भी कार्पण्य नहीं बरतती। उसके प्रयत्न का 'तुम मुझे सुमाताएँ दे सको तो मैं तुम्हें एक महान साफल्य पुरुष की मानवोचित प्रवृत्तियों के रूप में जाति बना सकता हूँ।' इस कथन में नारी की महत्ता भासित होता है। अन्यथा नर हिंसा-प्रतिहिंसा का
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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श पुतला विवेकहीन दुर्जन व स्वेच्छाचारी होकर 'मानव जाति की माता' का इस प्रकार अनादर १ असर मात्र रह जाता । नारी ही वह पारस-स्पर्श होने लगा और यह क्रम उत्तरोत्तर तीव्र होता चला
है जो नर लोह को स्वर्णिम कान्ति से आसमान गया । सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष तो यह रहा 37 कर देता है। डा. ऐनी बेसेंट से सर्वथा सहमत कि इसका दुष्परिणाम भोगने वाला नारी वर्ग भी
होते हुए हम कह सकते हैं-'नारी वर्ग असत् को अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सका, उसका जागरण दूर भगाकर सत् की पुनः प्रतिष्ठा करता है।' न जाने कहाँ चला गया ? स्वाधीनता और स्वाधिपुरुष वर्ग भी नारी की इस उपकार वृत्ति से सदा कार के लिये संघर्ष के स्थान पर उसने आत्मसमअनभिज्ञ रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता, उसने र्पण कर दिया। फिर तो स्वेच्छाचारी पुरुषवर्ग की भी अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन नारी को सम्मान्य बन आयी, और उसने अपने अमानवीय स्वरूप का स्थान प्रदान कर किया था।
खुलकर परिचय दिया। नारो अबला कही ही नहीं i प्राचीनकाल में नारी को समाज में समानता ज
जाने लगी, स्वयं हो भी गई। का दर्जा प्राप्त था । मनु के अनुसार
___ मनुष्य का उत्थान तो मन्थर गति से ही होता यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः
है, किन्तु एक बार जब पतन आरम्भ हो जाता है, अर्थात्-जहाँ नारी का सम्मान किया जाता तो फिर उनकी गति तीव्र से तीव्रतर ही होती 300 है, वहाँ देवता निवास करते हैं। नारियों ने चलती है । आज की स्थिति तो ओर भी विषम है।
यह श्रद्धेय स्थान अपनी सत्यशीलता, देवत्व, हमें इस सन्दर्भ में मुन्शी प्रेमचन्द के ये शब्द स्मरण साधना और तप के आधार पर प्राप्त हो आते हैं-'मेरे विचार में नारी सेवा और त्याग किया था । सीता, सावित्री, रुक्मिणी, की मूर्ति है, जो अपनी कुर्बानी से अपने को बिल्कुल द्रौपदी, कौशल्या, दमयन्ती, कुन्ती, सुलसा मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती
मगावती, राजीमती, चन्दनबाला, ब्राह्मी, सुन्दरी हैं........' मुझे खेद है कि बहनें पश्चिम का आदर्श 37 आदि अगणित महती नारियों को इस सन्दर्भ में लेती जा रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया
स्मरण किया जा सकता है । बड़ा गौरव समझा है और स्वामिनी से गिरकर वह विलास की वस्तु जाता था नारी वर्ग का । किन्तु समय एक-सा कहाँ बन गई है । कृत्रिम तड़क-भड़क से आकर्षित होकर बना रहता है, वक्त ने कुछ ऐसा करवट बदल दी नारी अपनी गरिमा को जिस तेजी के साथ खोती कि क्या-क्या हो गया, सामन्ती युग में एक-एक कर जा रही है, वह वास्तव में खेद का विषय है, और उनके सारे अधिकार छिनते गये और नारी पुरुषा- नारियों के प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक हो धीन हो गई । और उसका कोई स्वतन्त्र अधिकार गया है। दिग्भ्रान्त इस नारी समाज को अपनी ही नहीं रहा, स्वाश्रित व्यक्तित्व का ह्रास होता भटकन का अहसास भी नहीं है, किन्तु क्या मात्र चला गया और वह पुरुष की एक सम्पत्ति बनकर इसी से उसकी लक्ष्यप्राप्ति की कामना पूर्ण हो रह गई । नारी को पुरुष अपनी वासनापूर्ति का सकेगी। वस्तुस्थिति तो यह है कि आज की भारसाधन मानने लगा । वे असूर्यम्पश्या बनकर घरों तीय नारी के समक्ष कोई स्पष्ट लक्ष्य ही नहीं है, में बन्दिनी बना दी गईं । नीति बना दी गई कि उसकी दौड़ भी सारी व्यर्थ जा रही है। वह बनना नारी स्वतन्त्र नहीं रह सकती। बाल्यावस्था में क्या चाहती है ? इसका कोई स्पष्ट चित्र उसके
उसे पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन सामने नहीं है । इसके कारण सारी नारी समाज की । । और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिये । हानि तो होगी ही, इस माध्यम से सारी जाति व
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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MEHEYEOS
राष्ट्र का अकल्याण भी अवश्यम्भावी है। हाँ एक लिये गौरव का विषय है, इतिहास साक्षी है, यहाँ बात अवश्य है कि स्थिति चाहे विषम क्यों न हो समय-समय पर अनेक वीरांगनाएँ एवं महासतियाँ गई हो अभी वह असाध्य नहीं हुई है। बहनों को हुई हैं जिन्होंने अपने सच्चरित्र से मानव समाज को ? सतर्क हो जाना चाहिये और इस कुमार्ग से लौट मार्गदर्शन प्रदान किया है, जैन धर्म की उन्हीं महा- ॥ जाना चाहिये। तेजी से दौड़कर उस चौराहे पर सती परम्परा में परमादरणीया साध्वीरत्न विदुषी । पहुँच जाना चाहिये जहाँ से वे उस गलत मार्ग पर श्री कुसुमवतीजी का नाम स्मरण करते हुए गौरव चढ़ गई थीं और फिर सोच-समझकर उन्हें सही का अनुभव होता है, जिनका जीवन त्याग, वैराग्य मार्ग पर फिर से तीव्रता के साथ गतिशील हो संयम का प्रतीक रहा है, जिनके जीवन के ५० से जाना चाहिये, इसी में उनका, सारे राष्ट्र का और भी ऊपर बसन्त साधनाकाल में व्यतीत हुए हैं और जाति का कल्याण निहित है। सभ्यता की चका- इस दीक्षा स्वर्ण जयन्ती की पावन पुनीत वेला में चौंध से निकलकर संस्कृति के शीतलताप्रद क्षेत्र में उन्हीं की प्रधान शिष्या साध्वीरत्न श्री दिव्यप्रभा ही उसे विचरण करना चाहिये । इसके लिये आव- जी एम० ए०, पी-एच० डी० ने अपने श्रद्धासुमन श्यक यह है कि नारी यह समझ ले कि उसका स्व- समर्पित करने हेतु समाज के सम्मुख एक योजना रूप और उसकी आदर्श भूमिका क्या है, उसकी प्रस्तुत की और इस निमित्त से सम्पूर्ण समाज को सार्थकता किस क्षेत्र में है और उसके आदर्श क्या भी अभिनन्दन करने का एक अवसर प्राप्त हुआ हैं ? वह स्वयं को पहचानने की क्षमता विकसित है। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में श्री दिव्यप्रभाजी ने करे-यह परमावश्यक है। आचार्य विनोबा भावे अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय देते हुए जो संपाकी यह मान्यता युक्तियुक्त और औचित्यपूर्ण प्रतीत दन किया है उसी के फलस्वरूप पाठकों के सम्मुख होती है
__ यह ग्रन्थ नवीन शैली व नवीन सामग्री के साथ ___ 'बहनों को तो गहरा अध्ययन करना चाहिये, प्रकाशित हो रहा है । महासती श्री दिव्यप्रभाजी क्योंकि सारा समाज उनके हाथ में है । ऐसी हालत ने राजस्थानी जैन साध्वियों में सर्वप्रथम पी-एच. में उनमें सरस्वती जैसी तेजस्विता आनी चाहिये। डी० प्राप्त कर समाज के गौरव में चार चाँद लगाये इसके लिये साधारण ज्ञान या अध्ययन अपर्याप्त है हैं । ग्रन्थ को अल्प समय में तैयार कर श्री श्रीचन्द । -आत्मज्ञान होना चाहिये । बहनों को अध्यात्म- जी सुराणा ने सहयोग प्रदान किया है। ज्ञातनिष्ठ बनना होगा।
अज्ञात रूप में जिनका भी सहयोग रहा है वे सभी आज की इस विषम परिस्थिति में भी नारी साधुवाद के पात्र हैं। समाज के लिये उसका गौरवपूर्ण इतिहास उसके
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दो शब्द
-डॉ० एम० पी० पटैरिया, संस्कृत विभाग, एस० डी० डिग्री कालेज,
मठ-लार, देवरिया (उ० प्र०)
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• अभिनन्दन ?...." किसका अभिनन्दन ?..... स्तर के गुण/चरित्र से युक्त देखा गया है। यदि व्यक्ति का, उसके गुणों का, चरित्र का, या"? उक्त चिन्तन को सिद्धान्त मान लें, तो विविध
. गुण/चरित्र आदि तो व्यक्ति केन्द्रित/आधा- साधनों/माध्यमों के सहकार से स्वयं को 'गुणरित होते हैं । व्यक्ति के बिना, उनका न तो अस्तित्व वान्' 'चरित्रवान्' विज्ञापित कराने वाले 'दोहरेरहता है, न ही विकास/उत्कर्ष हो पाता है। इस- व्यक्तित्व' युक्त व्यक्ति भी अभिनन्दन की पात्रता लिए, अभिनन्दनीय 'व्यक्ति' है; न कि उसके गुण, पा जायेंगे। चरित्र आदि।
• तब, क्या ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य, ● उक्त चिन्तन, को यदि "सिद्धान्त' मान
शौर्य-पराक्रम, क्रीड़ा-व्यायाम आदि क्षेत्रों में उत्कृष्ट
कौशल अजित करने वाले व्यक्ति को अभिनन्दन लिया जाये, तो 'व्यक्ति' के नाते 'चोर-उचक्के', 'लोफर-लफंगे' भी अभिनन्दन के पात्र बन
का पात्र माने? जायेंगे।
• यह एक ऐसा चिन्तन है, जिसे सिद्धान्ततः
स्वीकार करते समय, व्यक्ति के कौशल में सतत् । • 'व्यक्ति' अभिनन्दनीय है; पर, 'व्यक्ति' के
अभ्यास-नैरन्तर्य की सन्तुष्टि अपेक्षित रहती है। नाते नहीं, बल्कि, आदर्श गुणों का, उत्कृष्ट-चरित्र
क्योंकि, प्रायः यह पाया गया है कि उक्त प्रकार के का 'आधार' होने के नाते । क्योंकि, अनुकरणीय
क्षेत्रों में अजित उत्कृष्टताएँ, यदा-कदा शिथिलता आदर्शों/गुणों से युक्त व्यक्तित्व सदा से ही 'अभि
का भी वरण कर लेती हैं। जिससे, व्यक्ति की नन्दनीय' बनता आया है।
उपलब्धि का उत्कृष्टता-स्तर, शाश्वत समरसता से • आजकल, व्यक्ति के 'व्यक्तित्व' का, उसके च्युत हो जाता है। 'गुणों' का, 'चरित्र' का सही-सही ज्ञान/अनुमान . तो क्या वे अभिनन्दनीय हैं, जो वैराग्य
कर पाना बड़ा दुष्कर है। वस्तुतः, सार्वजनिक/ त्याग, तप साधना, ध्यान-समाधि आदि के क्षेत्र में र सामाजिक-स्तर पर, व्यक्ति के जो गुण/चरित्र, जिस सुस्थापित हो चुके हैं ?
स्वरूप-स्तर के परिलक्षित होते हैं, उसका एका- . इस चिन्तन को सिद्धान्ततः स्वीकार कर न्तिक/वैयक्तिक व्यक्तित्व, उनसे विपरीत स्वरूप- लेने पर, वे व्यक्ति भी अभिनन्दन के हकदार मान
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( १२ ) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थल.
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( १३ ) लिये जायेंगे, जिन्होंने उक्त पवित्र आध्यात्मिक- प्रदान करने का माध्यम बन गये हैं 'अभिनन्दन
सन्दर्भो को 'अर्थ' और 'काम' की प्राप्ति, पूर्ति एवं समारोह'; और इन प्रशस्तियों की अमिटता का । तृप्ति का माध्यम मान लिया है।
अहसास यावज्जीवन कराते रहने के निमित्त भेंट • तब फिर उदार, दयालु, दानी, परोपकारी किये जाने लगे हैं 'अभिनन्दन-ग्रन्थ' । लोक-व्यवहार आदि वर्गों के व्यक्ति अभिनन्दन के पात्र माने की इस 'गतानुगतिकता' ने एक ओर तो इसे जायें ?
एक परम्परा/रूढ़ि का स्वरूप प्रदान कर • उक्त शब्द-समूह, सामयिक सामाजिक- दिया है, तो दूसरी ओर, अभिनन्दन-प्रकिया सन्दर्भो में अपनी गुणात्मक-पहिचान खो चुके हैं ! के 'लक्ष्यभूत' एवं 'माध्यमभूत' दोनों ही वर्गों को और स्वार्थी, शोषक, वञ्चक, अहंकारी आदि 'यश' और 'श्री' के अर्जन का समवेत-साधन भी स्वरूपों के पर्याय बन गये हैं।
बना दिया है। अतएव, 'अभिनन्दन' और 'अभि• तो क्या अभिनन्दन 'अर्थहीन' है ? नन्दन-ग्रन्थ' से जुड़ा समग्र कार्य-व्यवहार 'मूल्य
• जो शब्द, अपनी गुणात्मकता खो देते हैं, परक' न रहकर 'व्यक्तिपरक' व 'अर्थपरक' बन फिर भी लोक व्यवहार में प्रचलित बने रहते हैं, वे जाता है। शब्द, एक नयी पहिचान के अर्थ में 'रूढ' बन जाते . प्रसंगगत अभिनन्दन-सन्दर्भ में इन/ऐसी हैं । पूर्वोक्त चिन्तनों के परिप्रेक्ष्य में 'अभिनन्दन' चिन्तन दृष्टियों की 'अर्थवत्ता' और 'सुकरता' की । शब्द भी ऐसा ही जान पड़ता है।
मानसिकता पर दृष्टिपात करने से परे होकर, .तब क्यों आयोजित किये जाते हैं 'अभि- सहज सरल-मना, विदुषी जैनसाध्वी श्री कुसुमवती नन्दन-समारोह' ? और, क्यों छपाये जाते हैं 'अभि- जी की वैराग्य-साधना की सुदीर्घता के प्रतीक नन्दन-ग्रन्थ' ?
पावन-प्रसंग पर, उन्हें मैं अपनी श्रद्धा-सुमनाञ्ज• वर्तमान सामाजिक-परिवेष में 'गुणात्मक- लियाँ समर्पित करता हूँ, और यह मंगलकामना प्रतिद्वन्द्विता' का स्थान 'प्रतिद्वन्द्वात्मक-असहिष्णुता' करता हूँ कि वे, अपने आध्यात्मिक-उत्कर्ष की दिशा F ने ले लिया है। सार्वजनिक-स्तर पर सामूहिक- में सतत् प्रगतिशील बनी रहें।
प्रशस्ति गान कराकर कुण्ठित-अहं को सन्तुष्टि
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स्वकीय
-साहवी दिव्यप्रभा
(एम. ए., पी-एच. डी.)
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जैनधर्म में साधना के दृष्टिकोण से लिंग भेद ज्येष्ठ होकर अनुजों को वन्दन ! नहीं । उनके मन १ को महत्व नहीं दिया गया है । यहाँ स्त्री और पुरुष में यही अहं था, जो मिथ्या था । ब्राह्मी और सुन्दरी
दोनों को ही समान अधिकार प्राप्त हैं। इस संबंध ने उनके निकट आकर गुहार लगाई, हे भाई! गज, र में साम्प्रदायिक मतभेद होते हुए भी जैन साहित्य से उतरो। जब तक आप गज से नहीं उतरेंगे तब
में ऐसी महान नारियों का उल्लेख मिलता है तक आपको केवलज्ञान नहीं हो पायेगा। बहिनों जिन्होंने संयम पथ पर बढ़ते हुए आत्म-कल्याण के ये शब्द जब बाहुबली के कर्णकुहरों में पड़े तो वे किया। आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की चिन्तन में डूब गये । गज ! यहाँ वन में गज कहाँ माता मरुदेवी ने तो द्रव्य संयम भी ग्रहण नहीं है ? और इसी अनुक्रम में उनके चिन्तन ने मोड़ किया था पर भाव संयम के कारण उन्हें मुक्ति मिल लिया। हाँ, मैं मानरूपी गज पर आरूढ़ हूँ। मेरा गई । माता मरुदेवी के पश्चात् भगवान ऋषभदेव यह मान मिथ्या है, वे मेरे अनुज हैं तो क्या हुआ, की दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी का विवरण संयम में तो ज्येष्ठ हैं और ज्येष्ठ होने के नाते मुझे मिलता है। सांसारिक अवस्था में उनकी उप- उनकी वन्दना करनी चाहिये। बस ! यह विचार लब्धियों की चर्चा न करते हुए इतना ही बताना आते ही बाहुबली अपने भाइयों के समीप वन्दनार्थ उचित होगा कि इन दोनों बहिनों ने संयम व्रत जाने के हेतु अपना कदम बढ़ाते हैं कि उन्हें केवलअंगीकार कर स्वयं का तो कल्याण किया ही साथ ज्ञान हो जाता है । यदि ब्राह्मी और सुन्दरी उन्हें ही उन्होंने अपने भ्राता घोर तपस्वी बाहुबली को सचेत नहीं करतीं, उनके मिथ्या भ्रम की ओर भी वास्तविकता का बोध कराया था।
ध्यान आकर्षित नहीं करातीं, तो क्या उन्हें केवलबाहबली ने दीक्षा व्रत अंगीकार करने के ज्ञान हो पाता? पश्चात् घोर तपश्चर्या आरम्भ कर दी। उनकी श्वेताम्बर आगमों के अनुसार उन्नीसवें तीर्थयह तपश्चर्या चरम सीमा पर पहुँच गई किन्तु कर भगवती मल्ली नारी थी। भगवती मल्ली के फिर भी उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। उदाहरण से स्पष्ट है कि नारी अपनी साधना इसका कारण यह था कि उनके मन में इस बात शक्ति से तीर्थंकर जैसा सर्वोच्च पद भी प्राप्त कर को लेकर उथल-पुथल मची हुई थी कि संयम में सकती है। यह नारी की साधना का उत्कृष्ट उदाज्येष्ठ अपने लघु भ्राताओं को वन्दन कैसे करूं? हरण है।
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एक अन्य महान नारी का उदाहरण बाईसवें उठा । वह अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रख पाया तीर्थकर भगवान अरिष्टनेमि के समय का मिलता पाया और उसने राजीमती से कामयाचना की। है. जो न केवल अपने भावी पति के पद चिह्नों जैसे ही राजीमती ने रथनेमि का स्वर सना तो वह पर चल पड़ी थी, वरन् उसने अपने देवर को भी स्तब्ध रह गई। एक बार तो वह भय से कांप प्रतिबोध देकर सन्मार्ग पर लगाया था।
उठी । किन्तु तभी उसने साहस जुटाया और अपने ____ अरिष्टनेमि का राजीमती से विवाह होने वाला
आपको सँभालते हुए रथनेमि की सम्बोधित करते
हुए कहा-"रथनेमि ! तुम तो साधारण पुरुष हो, था। राजीमती भोजकूल के राजा उग्रसेन की कन्या थी। बारात महल की ओर जा रही थी। तभी
यदि साक्षात् रूप से वैश्रमण देव और सुन्दरता में
नलकूबर तथा साक्षात इन्द्र भी आ जाये तो भी मैं मार्ग में पशुओं के करुण-क्रन्दन की चीत्कार अरिष्टनेमि ने सनी और उन्होंने इसकी जानकारी ली।
उन्हें नहीं चाहूँगी क्योंकि मैं कुलवती हूँ। नाग
जाति के अंगधन सर्प होते हैं। जो जलती हुई उन्हें बताया गया कि बारात के भोजन के लिए जिन पशुओं का वध किया जावेगा उन्हीं पशुओं
। आग में गिरना स्वीकार करते हैं। किन्तु वमन का यह क्रन्दन है। यह सुनते ही अरिष्टनेमि का
किये हुए विष को कभी वापस नहीं लेते। फिर
तुम तो उत्तम कुल के मानव हो, क्या त्यागे हए हृदय करुणा से आप्लावित हो उठा और उन्होंने आगे न बढ़ते हुए पोछे लौट चलने का आदेश
_ विषयों को फिर से ग्रहण करोगे ? तुम्हें इस विपदिया। संयम व्रत अंगीकार कर तीर्थंकर पद प्राप्त
रीत मार्ग पर चलते हुए लज्जा नहीं आती ? रथकिया ।
नेमि ! तुम्हें धिक्कार है। इस प्रकार अंगीकृत व्रत
से गिरने की अपेक्षा तुम्हारा मरण श्रेष्ठ है। इधर जब अरिष्टनेमि के लौट जाने के समा
राजीमती की इस हितकारी फटकार को सुन चार राजमती को मिलते हैं तब वह पहले विलाप करती है. उसकी आँखों से अश्रुओं की अविरल
कर रथनेमि पर प्रभाव हुआ और उसका विचलित धाराएँ छूटती हैं। उसका यह विलाप करुण रस
मन पुनः धर्म में स्थिर हो गया। का एक ज्वलन्त उदाहरण है। और उसके पश्चात्
यह दृष्टान्त नारी की संयम के प्रति दृढ़ वह भ० अरिष्टनेमि के पदचिन्हों पर चलने की
भावना को प्रकट करता है। साथ ही यह भी स्पष्ट घोषणा कर संयम व्रत अंगीकार कर लेती है। यह करता है कि नारी पथ से भटके हए राही को | तो उसके उच्च आदर्श को प्रकट करता है। इससे सन्मार्ग पर लाना भी जानती है। भी उच्च स्थिति उस समय आती है, जब वह भगवान् महावीर के युग पर दृष्टिपात करने साध्वी वेश में ग्राम-ग्राम विचरण करती है। ऐसे से हमें महान सन्नारियों के दर्शन होते हैं । व्याख्या ही विचरण काल में एक बार वर्षा से भीग जाती प्रज्ञप्ति में कौशाम्बी के राजा की पुत्री जयन्ती का है। समीप ही उसे एक गुफा दिखाई देती है। विवरण उपलब्ध होता है। जयन्ती एक धर्मनिष्ठ राजीमती उस गुफा में जाकर अपने वस्त्र उतार नारी थी। जयन्ती कर सुखाने लगती है । उसी गुफा में अरिष्टनेमि का महावीर का समाधान यह बताता है कि जयन्ती अनज रथनेमि संयम व्रत अंगीकार कर साधनारत __ को गहरातात्विक ज्ञान था । कालान्तर में जयंती था । राजीमती इस तथ्य से अनभिज्ञ थी कि गुफा में दीक्षा ग्रहण कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई। रथनेमि साधनारत है । रथनेमि ने निरावृत सौन्दर्य इसी प्रकार स्थानांग सूत्र में भगवान् महावीर सम्पन्न नारी देह को देखा तो वह विचलित हो की अनन्य उपासिका सुलसा का विवरण मिलता है।
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सुलसा की महत्ता इसी बात से प्रकट होती है कि महत्तरा का नामोल्लेख किये बिना भी नहीं रहा भगवान् महावीर ने अंबड के माध्यम से उसे धर्म- जा सकता। याकिनी महत्तरा के कारण सन्देश भिजवाया था। यह सूलसा की धर्मनिष्ठता ही आचार्य हरिभद्र जैसे सर्वतो प्रतिभासम्पन्न और श्रमणोपासकता का ज्वलन्त उदाहरण है। आचार्य जैन जगत को उपलब्ध हुए हैं । उन्हें प्रति
बोधित कर याकिनी महत्तरा ने बहुत बड़ा उपकार भगवान् महावीर के समय जिन अन्य महान
किया। स्वयं आचार्य हरिभद्र ने भी याकिनी महमहासतियों का उल्लेख आता है। उनके नाम हैं--
त्तरा का उपकार माना है और अपने साहित्य महासती श्री प्रभावती, महासती पद्मावती, महासती मृगावती, महासती चन्दनबाला, महासती
में सर्वत्र उनके नाम का उल्लेख किया है। दूसरे
महत्तरा शब्द से इस महिमामण्डित साध्वी का ? शिवा, महासती चेलणा आदि आदि । एक ही रात्रि में दो-दो महासतियों को केवलज्ञान की उपल
समाज में रहा प्रभाव भी परिलक्षित होता है। ब्धियाँ होना एक प्रकार से आश्चर्य ही है। जिस
___ऊपर कुछ महिमामयी, गरिमामयी, महाससमय भगवान् महावीर कौशाम्बी पधारे तो वहाँ तिया के नामो का उल्लेख किया है ऐसी ही महासंध्या के समय भगवान महावीर के दर्शनार्थ सर्य सतियों का योगदान आगे भी रहा है। किन्तु यह
और चन्द्र भी पधारे। इस कारण मगावती को दुर्भाग्य का ही विषय रहा है कि साध्वी समाज का या समय का ध्यान नहीं रहा। जब वह धर्मस्थानक में क्रमबद्ध इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता है। पुरुष वर्ग को I A आई तो रात हो चुकी थी। इस पर महासती छोड़ भी दें तो स्वयं साध्वी समाज ने भी इस ओर चन्दनबाला ने उपालम्भ दिया। महासती मृगावती
कोई ध्यान नहीं दिया है। इसका एक मख्य कारण ने इसके लिए क्षमा-याचना की और पश्चात्ताप जैन साधना पद्धति की निर्लिप्त भावना भी है। करती हुई भावनाओं की उच्चतम श्रेणी में जा जैन साधक/साधिकायें कभी भी अपने नाम के पहुँची और केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उस समय पीछे या प्रसिद्धि के पीछे नहीं भागे। उन्हें तो चन्दनबाला के पास से एक सर्प निकला। रात्रि के
अपनी साधना से मतलब रहा। किन्तु आज हम गहन अन्धकार में भी मृगावती को सूर्य के प्रकाश
अपने पूर्ववर्ती महान साधकों के जीवन वृत्त को के समान दिखाई दे रहा था। वह अपने ज्ञानालोक
जानने के लिए तरस रहे हैं । समाज और अनुयायी से सब कुछ देख रही थी। इसलिये मृगावती ने '
वर्ग के अनुकरण के लिए इनका होना आवश्यक है।
ऐसे महान साधक-साधिकाओं के जीवन का अध्यचन्दनबाला का हाथ एक ओर कर दिया। चन्दन
यन करने से सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती बाला ने इसका कारण जानना चाहा । मगावती
है। ऐसी ही महान साधिकाओं की वर्तमान युग में ने वास्तविकता प्रकट कर दी। चन्दनबाला समझ .
भी कमी नहीं रही है । किन्तु उनका भी क्रमबद्ध गई कि महासती मृगावती को केवलज्ञान की प्राप्ति
इतिहास उपलब्ध नहीं होता है । इतिहास के हो गई है । अतः वह मृगावती की स्तुति करते हुए
जिज्ञासुओं, समाज के कर्णधारों और स्वयं साधकआत्मनिरीक्षण करने लगी और इसी अनुक्रम में
वर्ग को इस दिशा में सार्थक पहल करने की आवभावनाओं की उच्चतम श्रेणी पर पहुँच कर कर्मों
श्यकता है। अन्यथा आने वाली पीढ़ी एक बहुत का क्षय कर दिया और चन्दनबाला को भी केवल- बडे तथ्य से अपरिचित रह जायेगी, ज्ञान की प्राप्ति हो गई। क्या ऐसी महान साधि- वंचित रह जायेगी। अन्य समस्त परम्पराआ काओं के उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध हैं ?
को छोडकर केवल आचार्य श्री अमरांसह इसी अनुक्रम में यहाँ प्रातः स्मरणीया याकिनी जी म० सा० की परम्परा पर ही यदि दृष्टिपात
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पूज्य महासती श्री कुसुमवती जी अपनी शिष्याएं साध्वी दिव्यप्रभाजी एवं साध्वी गरिमाजी को अध्ययन कराते हुए ।
अभिनन्दन ग्रन्थ सम्पादन प्रमुख सहायिका विदुषी साध्वी श्री अनुपमा जी
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ की कुशल संपादिका प्रबुद्धचेता साध्वी डा. दिव्यप्रभा जी महाराज
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किया जाता है तो अनेक महान साधिकाओं के दिदिगंत में गुंजाया। तीनों ने पारस्परिक स्नेह । नामोल्लेख मिलते हैं।
और सद्भावना का एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित र अमर परम्परा के इतिहास में अनेक ज्योतिर्धर कर जन-जन के लिए प्रेरणा स्रोत बनीं । जगमगाती साधिकाएँ हुई हैं जिनके तेजस्वी हाँ तो सद्गुरुणी जी श्री कुसुमवती जी म०, र व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यहाँ चिन्तन न कर मैं सद्- महासती श्री सोहनवर जी महाराज की पट्टधर गुरुणीजी की गुरुणी साध्वीरत्न श्री सोहनकुवर शिष्या हैं । वर्षों तक गुरुणीजी के चरणों में बैठकर | जी महाराज के सम्बन्ध में चन्द पंक्तियों में चिन्तन उन्होंने ज्ञानार्जन किया और भारत के विविध 9 प्रस्तुत कर रही हूँ।
अंचलों में परिभ्रमण कर जैन धर्म की प्रबल प्रभामहासती सोहनकुवर जी महाराज तप और वना की । इसीलिए वे अभिवन्दनीय और अभिन
। की, स्नेह और सद्भावना की एक ऐसी न्दनीय है। इसी कारण उनके चरणारविन्दों में मिशाल थीं जिन पर स्थानकवासी समाज को अनन्त श्रद्धा को मूर्तरूप देने वाला अभिनन्दन ग्रन्थ हार्दिक गौरव था। जिस समय विभिन्न सम्प्रदायें समर्पित करने का हमें गौरव प्राप्त हुआ है। फन फैलाकर खड़ी थीं उस समय एक सम्प्रदाय गुरुवर्या श्री कुसूमवती जी म० सा० का जीवन वाले दूसरी सम्प्रदाय के महापुरुषों का गुणोत्कीर्तन दर्शन विविध आयामी है। यहाँ उस पर चर्चा
करने से कतराते थे उस समय उनके तप और करना प्रासंगिक नहीं होगा (जिज्ञासू पाठक उनका al त्यागमय जीवन को निहार कर आदरणीय आचार्य जीवन दर्शन इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में देखने का
श्री गणेशीलाल जी महाराज के हत्तन्त्री के तार कष्ट करें) फिर भी एक बात कहे बगैर नहीं रहा झनझना उठे थे । उन्होंने एक बार कहा कि मैंने जाता। इस तथ्य से सभी भलीभांति परिचित हैं अनेक साध्वियाँ देखी हैं पर महासती सोहनकुंवर कि कुसुम (फूल) के बाह्य स्वरूप का उतना अधिक जी जैसी धीर गम्भीर साध्वी नहीं देखी। यही महत्व नहीं होता जितना उसके अन्तर का । कुसुम कारण है कि उनके गुणों पर आकर्षित होकर अज- की वास्तविक पहचान उसकी सुगन्ध से होती है। मेर शिखर सम्मलन के सुनहरे अवसर पर सती उसकी सौरभ से समूचा उपवन सुरभित हो जाता समूदाय ने चन्दनबाला श्रमणी संघ का निर्माण है और हर कोई उस सुरभित पूष्प का आनन्द लेना किया और उस संघ की प्रमुखा पद पर सर्वानुमति चाहता है । यही बात पूजनीया गुरुणी जी म० पर से उन्हें निर्वाचित किया।
यथार्थ रूप से लागू होती है । आज समाज उनकी श्री सोहनकुवर जी महाराज के त्याग वैराग्य संयम-साधना एवं दृढ़ आचार पालन से भलीभाँति से छलछलाते हुए प्रवचनों को सुनकर अनेक बहनों परिचित है और उनके संयम की सौरभ चहुँ ओर ने संयम मार्ग स्वीकार किया। पर उन्होंने अपनी व्याप्त है। गुरुणी जी श्री अपने नाम के अनुरूप I शिष्यायें नहीं बनायीं वे बहुत ही निस्पृहा थों। कुसुमवत् ही है । अन्त में त्यागमूर्ति मदनकुंवरजी महाराज की आज्ञा पूजनीया गुरुणी जी के दीक्षा के पचासवें वर्ष
से उन्होंने अपनी तीन शिष्यायें बनायीं। प्रथम में ही अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की प्रबल भावना M) महासती श्री कुसुमवतीजी, द्वितीय महासती श्री थी, किंतु उस समय शोधकार्य में अत्यधिक व्यस्त 60
पुष्पवतीजी और तृतीय महासती श्री प्रभावतीजी। होने के कारण मैं अपनी उस भावना को मूर्त रूप ये तीनों शिष्याय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रदान नहीं कर सको । जैसे ही मेरा शोध कार्य सम्यग्चारित्र के रूप में रहीं। तीनों ने अपनी सम्पन्न हुआ, अन्तर्मन की श्रद्धा और प्रबल प्रेरणा
प्रतापपूर्ण प्रतिभा से सद्गुरुणीजी के नाम को से अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य आरम्भ कर दिया। (OER 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ GeoG
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पूजनीया गुरणी जी महाराज का जैन समाज पर तो उपकार है ही किन्तु हम शिष्याओं पर भी असीम उपकार है । वस्तुस्थिति तो यह है कि आज हम जो भी हैं, जैसी भी हैं यह उनकी असीम अनुकम्पा का परिणाम है । अपने उपकारी के प्रति हमारा ( उनकी शिष्याओं का ) भी कुछ कर्तव्य होता है । इसी कर्तव्य पालन के रूप में यह अभिनन्दन ग्रन्थ चौवनवें दीक्षा वर्ष, दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन प्रसंग पर उनके चरणों में सहज श्रद्धा, सभक्ति, सादर समर्पित किया जा रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थ में कुल सात खण्ड हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
प्रथम खण्ड में गुरु भगवन्तों वरिष्ठ मुनिराजों महासतियों आदि के आशीर्वचन, शुभकामना संदेश शिष्याओं अनुयायी वर्ग के श्रद्धासुमन शुभकामना सन्देश हैं । इन आशीर्वचनों और शुभकामना संदेश, में भी गुरुणी जी के जीवन को विशिष्टताओं के दिग्दर्शन होते हैं ।
द्वितीय खण्ड में परम श्रद्धेय आचार्य श्री अमर सिंहजी महाराज की गौरव गरिमा मंडित गुरुणी परम्परा का विवरण दिया गया है एवं परमविदुषी गुरुणी जी श्री कुसुमवती जो म० सा० के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है । प्रारम्भ में गुरुणीजी म. सा. का जीवन परिचय यद्यपि विस्तृत रूप से देने का प्रयास किया है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी इसमें कुछ कमी रह गई है। अनेक महत्वपूर्ण संस्मरण तथा घटनाएँ स्मृति के बाहर होने से लिपिबद्ध नहीं की जा सकी हैं । भविष्य में उनका संग्रह कर स्वतन्त्र रूप शित करवाने का प्रयास किया जाएगा ।
प्रका
तृतीय खण्ड में धर्म तथा दर्शन में जैन परंपरा की परिलब्धियों को वर्तमान राष्ट्रीय सन्दर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । यद्यपि इस सन्दर्भ में अपेक्षित सामग्री का अभाव रहा है तथा जो भी सामग्री है, उसके प्रस्तुतीकरण से एक नवीन अवधारणा का जन्म हुआ है ।
श्र
)
चतुर्थ खण्ड जैन संस्कृति के विविध आयामों को उद्घाटित करने वाला है । इस खण्ड में जैन संस्कृति से सम्बन्धित मौलिक चिन्तन प्रधान एवं शोध-प्रधान निबन्धों का संग्रह किया गया है ।
पंचम खण्ड में जैन साहित्य और इतिहास से सम्बन्धित विद्वानों के महत्वपूर्ण लेख संग्रहीत हैं । यद्यपि जैन साहित्य अथाह समुद्र के समान है तथापि एक झलक यहाँ प्रस्तुत की गई है ।
षष्ठम खण्ड में विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की उपलब्धियों के रूप में महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन किया गया है ।
ग्रन्थ के सप्तम खण्ड में परमविदुषी गुरुवर्या श्री के कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उनकी गद्यपद्य रचनाएँ दी गई हैं। विस्तार भय से उनके प्रवचन, कहानी, निबन्ध, चिन्तनसूत्र, भजन, स्तवन आदि के कुछ अंश ही दिये गये हैं जिससे पाठक उनके कृतित्व से परिचित हो सकें ।
इस प्रकार यह महाग्रन्थ सात खण्डों में विभक्त है । श्रमण और श्रमणियां सप्त भय स्थान से मुक्त होती हैं उनके जीवन में अभय का आघोष होता है इसलिए प्रस्तुत ग्रंथ के सात खण्ड रखे गये हैं यों तो अभिनंदन ग्रन्थ समर्पण की एक परम्परा बन गयी है पर उसमें सम-सामयिक कला, साहित्य, संस्कृति आदि अनेक विधाओं का समावेश होने से अभिनन्दनीय व्यक्तित्व की गुण गौरव गाथा का गान तो कम होता है, किन्तु उच्चस्तरीय मौलिक चिन्तनधारा का सुन्दर समावेश पाठकों के लिए वरदान स्वरूप सिद्ध होता है । साध्वीरत्न गुरुणी जी श्री कुसुमवती जी अभिनंदन ग्रन्थ में भी यही विशेषता प्रधान रूप से विद्यमान है ।
अभिनन्दन ग्रन्थ के भगीरथ कार्यं को सम्पन्न करने के लिए अनेक महामनीषियों का मुझे हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ है । मैं सर्वप्रथम श्रमण संघ के नायक महामहिम राष्ट्रसंत आनन्द ऋषिजी जी महाराज की असीम कृपा को भूल नहीं सकती,
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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( १६ )
जिनका मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त हुआ । अनन्त प्रस्तुत ग्रन्थराज के सम्पादन में सम्पादक आस्था के केन्द्र सद्गुरुवर्य उपाध्याय पूज्य गुरुदेव मण्डल के विद्वानों का जो सहयोग प्राप्त हुआ है श्री की असीम कृपा के फलस्वरूप ही प्रस्तुत ग्रन्थ उसका वर्णन में किस शब्दावली में करू, यह समझ मूर्त रूप धारण कर सका है। उपाचार्य श्री देवेन्द्र में नहीं आ रहा है। सर्वप्रथम मैं उन विद्वानों का मुनि जी का पथ प्रदर्शन प्रकाश स्तम्भ की तरह स्मरण कर रही हूँ जिन्होंने मेरे पत्र को सन्मान मेरे लिए उपयोगी रहा। सरलमना पं० हीरामुनि देकर अपने मौलिक लेख भिजवाने का अनुग्रह जी म०, विद्वद्रत्न श्री गणेश मुनिजी म०, कलम के किया। डॉ० एम० पी० पटैरिया, डॉ. तेजसिंहजी धनी श्री रमेश मुनि जी, उत्साह के ज्वलन्त प्रतीक गौड़, डॉ० गुलाबचन्दजी जैन, पण्डित देवकुमारजी, श्री राजेन्द्रमुनि जी प्रभृति गुरुजनों का हार्दिक डॉ० नरेन्द्र भानावत प्रभृति विज्ञों ने सम्पादक आशीर्वाद तथा सहयोग जो प्राप्त हुआ है उसके मण्डल में अपना नाम देने की स्वीकृति प्रदान की लिए मैं आभार व्यक्त न कर यही मंगलकामना तथा डॉ० एम० पी० पटैरिया जी ने विद्वानों से करती हैं कि उनका वरद-हस्त सदा इसी प्रकार रहे सम्पर्क कर अनेक मौलिक लेख मंगवाये तथा डॉ. जिससे कि मैं साहित्य के क्षेत्र में अपने कदम आगे तेजसिंहजी गौड़ ने कलम का स्पर्श कर कुछ लेखों बढ़ा सकू।
को परिष्कृत परिमार्जित करने में सहयोग प्रदान परमादरणीया ज्येष्ठ गुरुबहिन प्रतिभा किया अतः उनका स्मरण स्मृत्याकाश पर सदा मूर्ति श्री चारित्रप्रभा जी की प्रेरणा मेरे लिए चमकता रहेगा। स्नेहमूर्ति श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' सम्बल रूप में रही तथा दर्शनप्रभाजी की प्रेरणा ने ग्रन्थ को मुद्रण कला की दृष्टि से सर्वाधिक भी मेरे साथ रही । प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में सुन्दर बनाने का प्रयास किया तथा समय पर ग्रन्थ मेरी लघ गरु बहिन तेजस्वी प्रतिभा तैयार करने का कठिन श्रम किया. वह भी विस्मत की धनी महासती गरिमाजी का हार्दिक नहीं किया जा सकता । जिन श्रद्धालुओं ने अनदान IED सहयोग प्राप्त हुआ है । वे स्वयं कवयित्री देकर प्रकाशन कार्य में सहयोग दिया उनकी हैं इसलिए कविता विभाग के सम्पादन में उनका अपार श्रद्धा व्यक्त होती है। उन सभी के जो सहयोग मिला है वह भुलाया नहीं जा सकता सहयोग के कारण ही ग्रन्थ प्रबुद्ध पाठकों के पाणिहै । साध्वी अनुपमाजी एवं साध्वी निरुपमाजी की पद्मों में पहुंच रहा है, इसकी मुझे हार्दिक
सतत् प्रेरणा और उनकी सेवा के कारण प्रस्तुत प्रसन्नता है । १ कार्य करने में मुझे सहयोग रहा है। मैं चाहूँगी कि
उनका सतत् आध्यात्मिक उत्कर्ष होता रहे ।
का
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प्रथम खण्ड
10) क्या? कहाँ?
"2
श्रदार्चना
साधनाशील श्रमणी बहुमुखी प्रतिभा की धनी एक पारदर्शी व्यक्तित्व सत्यं और सत्वं की संसृति कुसुमसती चढ़ती रति सती कुसुमवती के साधना सुमन महासतीजी फले-फूलें एक अभिवंदनीय व्यक्तित्व साध्वी रत्ना का साधनामय जीवन निर्विवाद व्यक्तित्व पर दो शब्द
एक महकता कुसुम अन्तर् हृदय का अभिनन्दन साध्वी रत्ना श्री कुसुमवती जी
दो मुक्तक दीक्षा स्वर्ण जयन्ती ( पच्चीसी) अभिनन्दन है, अभिनन्दन है
श्री कुसुमाष्टकम् हे साधिके अभिनन्दन
अभिनन्दन ......! जीवन ज्योति जले..... सुखद शताब्दी भी आये
- आचार्यश्री आनन्दऋषि जी म० - उपाध्याय पुष्कर मुनि
- उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
- प्रवर्तक भंडारी श्री पद्मचन्द जी म० - प्रवर्तक मुनि श्री रूपचन्द जी म० -अ० प्र० मुनि कन्हैया लाल 'कमल' - प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म० सा० - प्रवर्तक महेन्द्र मुनि 'कमल' - प्रवर्तक रमेश मुनि - सौभाग्य मुनि जी कुमुद - श्री ज्ञान मुनि जी - श्री रतन मुनि जी
-श्री गिरीश मुनि जी - पं० उदय मुनि
- उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि जी म०
१ से १०२ तक
- कविरत्न श्री मगन मुनि जी म० 'रसिक' - श्री सुकनमल जी म० सा० - सुभाष मुनि 'सुमन' - गणेश मुनि शास्त्री
- प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल' - जिनेन्द्र सुनि
( २० )
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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१८
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वन्दन शत-शत बार
अभिनन्दन के पुण्य पलों में श्रमणी परम्परा की दिव्य ज्योति
युग-युग जीवें महासती शुभाशीर्वचन एक महान जीवन गौरव
सद्गुण गुलदस्ता कुसुमवती जी म० ऊर्जस्वल व्यक्तित्व एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
श्रद्धा के दो बोल
जीवेम शरदः शतम्
सरलता की मूर्ति
गुणों की खान
आगर
के अभिनन्दन योग्य व्यक्तित्व
शुभकामना
श्रद्धाचन
श्रमणी उपवन का दिव्य 'कुसुम'
पुष्कर तीर्थ के कमल शत-शत वन्दन अभिनन्दन साधना की ज्योतिर्मय मूर्ति
शासन प्रभाविका आंखों देखा यथार्थ साधना में खिलता कुसुम एक पल्लवित - सुरभित कुसुम
!
(
____वंदन—अभिनन्दन सद्गुणों का आज अर्जन साक्षात्कार के स्वर्णिम क्षण अविस्मरणीय साक्षात्कार
२१ )
- उपप्रवर्तक राजेन्द्र मुनि जी
- भगवतो मुनि 'निर्मल'
- उपप्रवर्तक प्रेम मुनि जी
- दिनेश मुनि
- नरेश मुनि जी
- उदय मुनि 'जैन सिद्धान्ताचार्य'
- पं० श्री हीरामुनि जी 'हिमकर'
- साध्वी हर्ष प्रभा
- श्री गणेश मुनि शास्त्री
- श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ' - श्रमण विनय कुमार 'भीम' - महासती श्री शीलकुंवर जी म० - महासती श्री पुष्पवती जी
- परम विदुषी चांदकुंवर जी म० सा० - उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री कौशल्या जी म० - विदुषी साध्वी उमराव कुंवर जी
'अर्चना'
- साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी. ) - साध्वी अक्षय ज्योति 'साहित्यरत्न' - साध्वी संघमित्रा जी - साध्वी मुक्तिप्रभा - साध्वी प्रकाशवती
- साध्वी सत्यप्रभा
- साध्वो रुचिका - साध्वी राजश्री
- डॉ० प्रभाकुमारी 'कुसुम' - डॉ० सुशील जैन 'शशि'
— जैन साध्वी मधुबाला 'सुमन' - साध्वी गरिमा, एम० ए० - साध्वी निरुपमा - साध्वी गरिमा एम० ए०
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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ढे के है रे च
४३
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( २२ )
आराध्यस्वरूपा गुरुणीजी -साध्वी अनुपमा 'शकुन'
यथानाम तथागुण -जैन साध्वी इन्दुप्रभा 'प्रभाकर' एक महान जीवन गौरव -महासती किरणप्रभा
हृदयोद्गार -महासती प्रियदर्शना भावना के सुमन -महासती रत्नज्योति
श्रद्धा-सुमन -साध्वी श्री चन्द्रावती जी म० वंदन अभिनन्दन -महासती सिंहकुवर जी
गुरुणी गुणगाथा -साध्वी दर्शनप्रभा, एम० ए०, पी-एच० डी० भूलोक के गौरव ! शत-शत नमन --साध्वी गरिमा, एम. ए.
जिनशासन की शान -साध्वी श्री चन्दनबाला जी महाराज
सुवासित कुसुम -साध्वी चन्दनप्रभा मंजुल स्नेह देवि -साध्वी दिव्यप्रभा, एम. ए., पी-एच. डी. कुसुम चालीसा
-साध्वी श्री चारित्रप्रभा जी कुसुमाष्टकम् -साध्वी श्री चारित्रप्रभाजी
-साध्वी निरुपमा -साध्वी सुप्रभा -विदुषी साध्वी श्री सिद्धकुवरजी
-साध्वी सुप्रभा कुसुम श्रीजी म० का० कुसुम-सा महकता जीवन -परम विदुषी साध्वीरत्न श्री विजेन्द्रकुमारीजी संयम पथ की अमर साधिका -(साध्वीरत्न श्री विजेन्द्र कुमारीजी
म० की शिष्या) साध्वी 'निधि ज्योतिजी' शत-शत अभिनन्दन -जैन साध्वी जयश्री
शुभकामना : अभिनन्दन
-डॉ० ब्रह्म मित्र अवस्थी -डॉ० विनोद कुमार त्रिवेदी -पं० जनार्दनराय नागर ---पुखराजमल एस. लू कड -संचालाल बाफना -शान्तीलाल दुगड --- रमाकांत जैन, लखनऊ
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( २३ )
-डॉ० परमानन्द मिश्र, रोसड़ा -श्रीमती ऊषा जैन, कांदला -गहरीलाल चपलोत -श्रीकृष्ण लोंगपुरिया -सोहनलाल सोनी, नाथद्वारा
- पवनकुमार जैन, कांधला संयम पूर्ण साधना की साक्षात् मूर्ति -आचार्य राजकुमार जैन
तेजस्विता की साक्षात् मूर्ति -वैद्य सुन्दरलाल जैन प्रतिभाशाली व्यक्तित्व -सम्पत जैन, दिल्ली
-डा० श्री रंजनसूरि देव, पटना
-रामचन्द्र द्विवेदी, जयपुर आस्था -जगन्नाथ विश्व मंगल-मनीषा -अजीत नागोरी डूंगला श्रद्धा सुमनाञ्जलि -राजेन्द्र मेहता सायरा
महान साधिका -श्रीमती भुवनेश्वरी भण्डारी शासन प्रभाविका -शान्तिलाल तलेसरा, सूरत
तपोमूर्ति __-सम्पतिलाल बोहरा, उदयपुर यथानाम तथागुण -चांदमल मेहता, मदनगंज हार्दिक-अभिनन्दन -प्रमोदचन्द्र जैन
प्रेरणा स्रोत -रतनलाल मारू, मदनगंज साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी -शांतिलाल पोखरना, भीलवाड़ा
कृतज्ञता ज्ञापन -प्रकाशचंद संचेती, जयपुर विलक्षण प्रतिभा की धनी -चुन्नीलाल धर्मावत, उदयपुर
प्रेरणा स्रोत -खुमानसिंह काग्रेचा, सिंघाड़ा चरणों में वन्दन -आनन्दीलाल मेहता, उदयपुर
सदकामनाएँ -प्रो. अमरनाथ पाण्डेय, वाराणसी परम ज्ञान साधिका -नाथूलाल माद्रचा
शत शत प्रणाम -सुरेन्द्र कोठारी, उदयपुर
मंगलकामना -डी. सी. भाणावत, प्राचार्य हार्दिक अभिनन्दन -कालूलाल ढालावत श्रद्धा के दो फूल अर्पित -मुन्नालाल लोढा, पाली सागर वर गम्भीरा -पदमचंद जैन, दिल्ली सुमनाञ्जलि
-रणजीतसिंह सियाल, उदयपुर शत शत वन्दन -~-ऋषभ जैन, अलवर वन्दना के स्वर -श्रीमती प्रमिला मेहता वंदना-अर्चना -श्री फूलचन्द जैन सर्राफ, कांधला
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( २४ ) महासती कुसुमवतीजी का जीवन दर्शन -कन्हैयालाल गौड
मेरा प्रणाम -नेमीचन्द जैन मेड़ता सिटी । शत शत प्रणाम -श्रीचन्द डोसी
श्रद्धा सुमन -नाथुलाल चण्डालिया कपासन कोटि-कोटि वन्दन -कन्हैयालाल गौड, उज्जैन सेवा की साक्षात् मूर्ति -उम्मेदमल जैन, जयपुर
युग युग जीयें -कमल मेहता, अलवर जिनशासन को ज्योति -खूबीलाल खोखावत डबोक
यथानाम तथागुण -कमला मोताजी, इन्दौर यह माथे का चन्दन है -कवि निर्मल 'तेजस्वो' उदयपुर
समर्पण ~श्री हीरालाल जैन, खरड़ (पंजाब) खिला कुसुम जग बगिया में -कवि श्रेणीदान चारण बीकानेर
कसुम नाम वह प्यारा है -वैरागन गुणमाला चपलोत युग की मीरा को नमन मेरा -गीतकार रमेश चैतन्य, बम्बई अध्यात्मयोगिनी शत शत वन्दन -अनुराधा जैन, उदयपुर
जैनाचार्य से कम नहीं -युवा कवि धर्मेश छाजेड़, सूरत तप की देवी को है वन्दन -युवा कवि गीतकार हरीश व्यास, प्रतापगढ़ किस विध नमन करू -श्री भंवरलालजी चपलोत, नाथद्वारा
अभिलाषा -वनिता चपलोत, नाथद्वारा
भिनन्दन --कन्हैयालाल गौड़, उज्जैन महके सुमन-सुरभित पवन -श्रीमती विजयलक्ष्मी, उदयपुर
कुसुम तुम सचमुच कुसुम -श्रीमती विजयकुमारी बोथरा, मण्डी गीदड़वाहा
उजाला करने एक ज्योति आई -कवि साधक दरक, उदयपुर महासती श्री कुसुमवती जी संयम व ज्ञान -उत्तमचन्द डागा
की अनुपम ज्योति बगिया में एक कुसुम खिला -पुरुषोत्तम 'पल्लव', उदयपुर
महिमा का नहीं कुछ पार -श्रीमती विमला देवी जैन सज्झी-रयण-सिरी-कुसुमवई -डॉ० उदयचन्द जैन
सरलता की मूर्ति -डॉ० गुलाबचन्द जैन सरलता की निशानी -श्री कंवरचन्दजी जैन
-श्री पदमचन्द जैन
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द्वितीय खण्ड
विदुषीव साध्वी रत्न महासती श्री कुसुमवती जी म. का जीवन दर्शन गौरव गरिमा मण्डित सद्गुरुणी परम्परा परम विदुषी महासती श्री सोहनकुवरजी म. जन्म से दीक्षा तक
तृतीय खण्ड
जीवन दर्शन
संयम-साधना व्यक्तित्व की विशेषताएँ अतीत की स्मृतियाँ स्थापित संस्थाओं का परिचय विशिष्ट व्यक्तित्वों से सम्पर्क महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. का धर्म परिवार चातुर्मास सूची
( २५ )
एक को जानो
जैन दर्शन सम्मत आत्मा का स्वरूप विवेचन सामाजिक चरित्र के नैतिक उत्थान में जैन धर्म के दशलक्षणों की प्रासंगिक उपयोगिता
जैन धर्म में व्यसनमुक्त जीवन का तुलनात्मक अध्ययन जैन पदार्थ - विवेचना में वैज्ञानिक दृष्टि कर्म सिद्धान्त : एक समीक्षात्मक अध्ययन विश्व धर्म के रूप में जैन धर्म दर्शन की प्रासंगिकता पुद्गल विवेचन - वैज्ञानिक एवं जैन आगम की दृष्टि में
जैन दर्शन में 'द्रव्य' की धारणा और विज्ञान
धर्म तथा दर्शन
- डॉ० साध्वी दिव्यप्रभा
a
-डॉ० अमरनाथ पाण्डेय
- डॉ० एम० पी० पटैरिया - प्रो० चन्द्रशेखर राय
- प्रो० जनेश्वर मौआर
- डॉ० नवलता
- साध्वी श्रुतिदर्शना
- डॉ० महावीर सरन जैन - डॉ० रमेशचन्द जैन
- डॉ० वीरेन्द्रसिंह
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
१०३ से १८० तक
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१३५
१६३
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१८०
१८१ से २७४ तक
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२०१
२०६
२१३
२२१
२२४
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२८४
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( २६ ) प्रमा की नयी परिभाषा -प्रो० संगमलाल पाण्डेय भारतीय योग परम्परा में जैन आचार्यों के
योगदान का मूल्यांकन -डॉ० ब्रह्ममित्र अवस्थी आगम साहित्य में ध्यान का स्वरूप -युवाचार्य डॉ० शिव मुनि
ध्यान : रूप : स्वरूप-एक चिन्तन -डॉ० साध्वी मुक्तिप्रभा आत्मा के मौलिक गुणों की विकास प्रक्रिया के
निर्णायक : गुणस्थान -श्री गणेश मुनि शास्त्री भारतीय दर्शन : चिन्तन की रूपरेखा -प० देवकुमार जेन चतुर्थ खण्ड
२७५ से ३५६ तक जैन संस्कृति के विविध आयाम श्रमण संस्कृति -आचार्य राजकुमार जैन
२७५ महाव्रतों का युगानुकूल परिवर्तन -अ. प्र. मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' केवलज्ञान और केवलदर्शन, दोनों उपयोग
युगपत् नहीं होते -कन्हैयालाल लोढ़ा भौतिक और अध्यात्म विज्ञान --प्रवर्तक श्री रमेशमुनि सर्वोदयी विचारों की अवधारणा के प्रेरक
जैन सिद्धान्त -डॉ० श्रीमती शारदा स्वरूप
जागे युवा शक्ति ! -उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भगवान महावीर के सिद्धान्तों का दैनिक जीवन में उपयोग -डॉ० नरेन्द्र भानावत
३११ श्रमण संस्कृति का व्यापक दृष्टिकोण --डॉ० साध्वी दिव्यप्रभा
३१४ अदत्तादान-विरमण की वर्तमान प्रासंगिकता -ब्रजनारायन शर्मा
३१७ प्राचीन भारतीय दण्डनीति -डॉ० तेजसिंह गौड़
३२३ भगवान महावीर और उनके द्वारा संस्थापित
नैतिक मूल्य -डॉ० रामजीराय, आरा
अहिंसाया अन्तलिपिः -डॉ० केवलचन्द्र दाशः जैन शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा -विजयकुमार (शोधछात्र)
३३४ धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा -डॉ० (श्रीमती) हेमलता तलेसरा चारित्रिक संकट से मुक्ति अहिंसा और सामाजिक परिवर्तन : आधुनिक सन्दर्भ -प्रो० कल्याणमल लोढ़ा
३४३ संस्कृत साहित्य और मुस्लिम शासक -श्री भंवरलाल नाहटा
३५२ 5 साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ )
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३५७
SMARAN
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३७५
३७८
३६३
४०३
४१३
( २७ ) पंचम खण्ड
३५७ से ४३६ जैन साहित्य और इतिहास भारतीय पुरातत्व की अवहेलना -डॉक्टर जगदीशचन्द्र जैन आकार-चित्र रूप स्तोत्रों का संक्षिप्त निदर्शन -डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी भारतीय गणित के अंध युग में जैनाचार्यों की उपलब्धियाँ -डॉ० परमेश्वर झा
३६६ जैन भूगोल का व्यावहारिक पक्ष -डॉ. पुष्पलता जैन प्राध्यापिका भगवती सूत्र में परामनोविज्ञान एवं
पराशक्तियों के तत्व -श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन -डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
३८३ जैन-स्तोत्र-साहित्य : एक विहंगम दृष्टि -डॉ. गदाधरसिंह नीतिकाव्य के विकास में हिन्दी जैन
मुक्तक काव्य की भूमिका -डॉ० गंगाराम गर्ग जैनाचार्य श्री हरिभद्र सूरि और
श्री हेमचन्द्र सूरि --हजारीमल बाठिया जैन परम्परा के व्रत उपवासों का आयुवैज्ञानिक वैशिष्ट्य -कन्हैयालाल गौड़
४१६ आचार्य हरिभद्र के प्राकृत योग
ग्रन्थों का मूल्यांकन -डॉ० छगनलाल शास्त्री
पुण्य और पाप -महासती श्री कुसुमवती जी षष्ठम खण्ड
४३७ से ४७४ विविध राष्ट्रीय सन्दी में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ भारतीय स्वातन्त्र्यान्दोलन की अहिंसात्मकता -प्रह्लाद नारायण बाजपेयी
में महावीर के जीवन दर्शन की भूमिका पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में जैन नैतिक __ -प्रोफेसर एल० के० ओड
अवधारणा विवाद-परिवाद के समाधान हेतु -प्रो० डॉ० संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
अनेकान्तवाद जैन विचारधारा में शिक्षा __-चांदमल कर्णावट
क्या हम बदल गये हैं ? -डा० आदित्य प्रचडिया 'दीति' सर्वोदयी विचारों की अवधारणा के प्रेरक -लक्ष्मीचन्द जैन 'सरोज'
जन-सिद्धान्त ध्यान : एक विमर्श -डॉ० दरबारीलाल कोटिया, न्यायाचार्य ४६५ सती प्रथा और जैन धर्म -प्रो० सागरमल जैन
४३७
४४९ ४५६ ४५६
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ )
Education Internatio
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सप्तम खण्ड
परिशिष्ट
विचार-मन्थन
प्रवचन
Jam Education Internationa
महासता श्री कुसुमवतीजी महाराज का साहित्य : एक समीक्षा बालब्रह्मचारिण्याः श्रीमत्याः कुसुमवत्याः सत्याः यशः सौरभम्
चिन्तन सूत्र
लघु निबन्ध
निबन्ध
कहानी
( २८ )
जैनाचार : एक विवेचन जैन दर्शन का हृदय है - स्याद्वाद उपमिति भव प्रपंच कथा : कितना सार्थक है सिद्धर्षिका रचना उपक्रम ? जैन संस्कृति और उसका अवदान जैनाचार का प्राण अहिंसा दीक्षा सप्तविंशतिः सम्माननीय सहयोगी शुभ नामावली तथा चित्र परिचय
- १. साधना का सारतत्व समता
- २. अन्तर्यात्रा : एक दृष्टि
- ३. वाणी- विवेक
- ४. संयम का सौन्दर्य
- ५. मन ही माटी, मन ही सोना
- १. सुख और दुःख
- २. जीवन का अभिशाप - दुर्व्यसन
- ३. सद्गुणों का प्रचार हो
- ४. तर्क और श्रद्धा
-नारी : नारायणी
- जैन दर्शन में अनेकान्त सम्यग्दर्शन का स्वरूप
- १. वैर और वैरी
- २. गिरे तो गिरे, पर उठे भी बहुत ऊंचे
- विचार - कण
- उपदेशात्मक पद्य रचना
-भजन
- उप प्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि
४७५ से ५३६ तक
- साध्वी अनुपमा एम. ए. - रमेश मुनि शास्त्री
- राजेन्द्र मुनि शास्त्री, एम. ए. - विदुषी साध्वी चारित्रप्रभाजी म. - साध्वी दिव्यप्रभा एम. ए., पी. एच. डी. - साध्वी गरिमा एम. ए.
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
४७५
४७८
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४८६
४८६
४६३
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५०५
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५२३
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५३७ से ५८४ तक
५३७ ५४८
५५४
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५६७
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५७६
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श्रद्धार्चना
•अभिनन्दन • शुभकामनाऐं
• वन्दना
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पूज्य महासती कुसुमवतीजी का जीवन कुनुम सम सद्गुण सुरभित और कोमल कमनीय रहा है। उनकी विनम्रता, सरलता, सेवा भावना जहाँ गुरुजनों की कृपा एवं मंगलमय आशीर्वाद की भाजन रही है, वहीं उनकी विद्वत्ता, चारित्रिक निर्मलता और सहज वत्सलता सर्वसाधारण की श्रद्धा और सद्भावना का केन्द्र रही है।
सहज भाव से प्राप्त गुरुजनों के आशीर्वचन तथा श्रद्धालु जनों की श्रद्धाचंना, शुभकामनाएँ उनके प्रति हार्दिक सद्भावना और श्रद्धा का स्वयंभूत प्रमाण है । इन शब्द सुमनों से व्यक्त होती सद्भावना युक्त श्रद्धा सुरभि इस बात को सहज ही प्रकट करती है
तुम सद्गुण का केन्द्रित कोषागार तुम सद्भावों का शुभ श्रृंगार तुम हो श्रद्धा का सघन रूप लो श्रद्धावन का यह उपहार।
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आशीर्वचन
स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ
भारतवर्ष में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । इस श्रमण संघ में उच्चकोटि के साधक, तपस्वी, चिंतक, मनीषी, प्रखर प्रवचनकार, समाजसुधारक, श्रेष्ठ कवि जैसे अनेक सन्तगण विद्यमान हैं । इसी के अनुरूप श्रमणी सघ भी है । श्रमणी संघ में भी अनेक साध्वियां उच्चकोटि की प्रवचनकर्त्री, ज्ञानाराधक, कवयित्री, साधिका, संगठिका, विदुषी, तपस्विनी आदि हैं । अतीत का इतिहास भी यदि उठाकर देखें तो हमें एक से बढ़कर एक उच्चकोटि की महासतियों का परिचय मिलता है और जिन्होंने जैन इतिहास के पृष्ठों को गरिमा प्रदान की है ।
वर्तमान समय में भी हमारे श्रमण संघ में अनेक ऐसी महासतियाँ हैं जो आपने ज्ञान, ध्यान, संयमपालन आदि के माध्यम से जैन धर्म की अच्छी प्रभावना कर रही हैं । ऐसी संयमाराधिका महासतियों पर मुझे गौरव की अनुभूति भी होती है ।
ऐसी ही परम विदुषी महासतियों में महासनी श्री कुसुमवती जी का नाम बड़े ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है । मुझे स्मरण आता है कि जिस समय मेरा ब्यावर में चातुर्मास था तब महासती श्री कुसुमवती जी प्रवचन सुनने तो आती ही रहती थीं, दिन में दर्शन करने और अपनी जिज्ञासा लेकर भी उपस्थित होती थीं। मैं उनकी जिज्ञासा तो शान्त करता ही था, साथ ही उनसे जैनधर्म, दर्शन, साहित्य विषयक प्रश्न भी करता था । कभी- कभी व्याकरण विषयक प्रश्न करता था । उनकी उत्तर देने की शैली प्रभावपूर्ण होती थी ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साधनाशील श्रमणी
- आचार्यश्री आनन्द ऋषिजी म०
उससे उनकी मेधाशक्ति, प्रत्युत्पन्नमति और प्रतिभा का पता चलता है ।
उस समय जब स्त्री-शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं था, तब महासती न केवल संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुकी थीं वरन् कई परीक्षायें भी उत्तीर्ण कर ली थीं। इससे महासतीजी की अध्ययन के प्रति रुचि प्रकट होती है ।
वि० सं० २००६ में सोजत (मारवाड़) में एक साधु सम्मेलन हुआ था । उस सम्मेलन में तथा राजस्थान विहरण के समय संवत २०२८ में भीलवाड़ा शहर में भी महासती श्री कुसुमवतीजी को देखने का अवसर मिला था । वे एक साधनाशील श्रमणी हैं ।
मुझे यह भी विदित है कि महासती श्री कुसुमवतीजी ने दूरस्थ एवं दुर्गम प्रदेशों जैसे जम्मूकश्मीर तक विहार कर धर्म प्रचार किया है । उनका विहार क्षेत्र भी विस्तृत रहा है और हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है ।
यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि महासती श्री कुसुमवतीजी के दोक्षा स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनकी सेवा में अर्पित किया जा रहा है । मैं इस अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ और अन्तर्मन से शुभाशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि महासती श्री कुसुमवतीजी म० सदैव स्वस्थ और प्रसन्न रहते हुए जैनधर्म की प्रभावना करती रहें ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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बहुमुखी प्रतिभा की धनी
सन् १६३७ का वर्षावास मनमाड़ (महा० ) में था । उस समय मैं संस्कृत साहित्य का गहराई से अध्ययन कर रहा था और परीक्षाएँ भी दे रहा था | व्याकरण साहित्य के अध्ययन, चिन्तन और मनन से मुझे यह अनुभूति हुई कि श्रमण और श्रमणियों को अध्ययन के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए । क्योंकि बिना अध्ययन के आगमों के रहस्य हस्तगत नहीं होते और बिना अध्ययन के चिन्तन भी प्रस्फुटित नहीं होता । हमारे समाज में अनेक प्रतिभाएँ हैं । यदि उन्हें अध्ययन कराया जाय तो वे समाज के लिए वरदान रूप हो सकती है ।
मनमाड़ से विहार कर श्रद्ध ेय गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज मालव की पावन पुण्यधरा में धर्म की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित कर वीर प्रसव भूमि मेवाड़ में पधारे । चिरकाल के पश्चात् मेवाड़ में पधारते ही भावुक भक्तों की भीड़ बरसाती नदी की तरह उमड़ पड़ी। सभी के हृदय कमल खिल उठे और मन-मयूर नाचने लगे । श्रद्धेय गुरुदेव मेवाड़ के विविध ग्रामों में जागृति का शंखनाद फूंकते हुए उदयपुर पधारे । उदयपुर में हमारी भूतपूर्व सम्प्रदाय की परम विदुषी साध्वीरत्न मदन कुँवरजी महाराज सकारण स्थानापन्न विराज रही थीं । उनकी सेवा में अध्यात्मयोगिनी प्रतिभामूर्ति महासती श्री सोहन कुँवरजी महाराज विराज रही थीं । सोहन कुँवरजी महाराज तपो
२
- उपाध्याय पुष्कर मुनि
मूर्ति थीं जिनके जीवन के कण-कण में, मन के अणुअणु में वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा था । जिनकी प्रतापपूर्ण प्रतिभा के सामने अनेक सन्तों की प्रतिभाएँ भी फीकी सी थीं । जिन्होंने अपने तेजस्वी व्यक्तित्व और अद्भुत कृतित्व से उदयपुर के नागरिकों में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न की थी । सम्प्रदायवाद के उस गढ़ में भी सम्प्रदायवादियों के द्वारा भी महासती मदन कुँवरजी और महासती सोहन कुँवरजी के उत्कृष्ट चारित्र की प्रशंसा सुनकर हृदय झूमने
लगता था ।
मध्याह्न का समय था । महासती सोहनकुँवर जी अनेक सतियों के साथ दर्शनार्थ उपस्थित हुईं। उनके साथ उस समय दो लघु साध्वियाँ भी थीं । दोनों लघु साध्वियों का परिचय प्रदान करते हुए महासती जी ने गुरुदेव से निवेदन किया कि इनका नाम कुसुमवती है। देलवाड़ा निवासी गणेशलाल जी कोठारी की यह सुपुत्री है । इनका संसार अवस्था में नाम नजर कुमारी था । इसने अपनी माता सोहनबाई के साथ सन् १६३६ में मेरे पास दीक्षा ग्रहण की। माँ का नाम साध्वी कैलाश कुँवर है और इसका नाम कुसुमवती रखा गया है । और दूसरी महासती का नाम पुष्पवती है । यह उदयपुर के ही निवासी जीवनसिंह जी बरड़िया की सुपुत्री है। इनकी माताजी तीजकुँवर और इनका लघुभ्राता धन्नालाल दोनों की भावना भी आर्हती दीक्षा प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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ग्रहण करने को है । तीजकुवर का हाथ जल जाने अतः साध्वियों को प्रथम आप व्याकरण का से तीजकुवर और उनका पुत्र धन्नालाल ये दोनों अध्ययन करावें और साथ ही साहित्य का भी
उपचार कराने हेतु हिम्मतनगर (गुजरात) में गये अध्ययन करावें जिससे कि इनका भाषा पर अधि- हुए हैं । जहाँ तीजकुंवर के भाई एक कुशल सर्जन हैं। कार होगा। जितना भी हमारा आगम साहित्य है।
वार्तालाप का क्रम आगे चला। अद्धय गरुदेव उसकी भाषा अर्धमागधी है और उस पर जो व्याख्या ने महासती जी को पूछा कि इन दोनों लघु साध्वियों साहित्य है उसमें नियुक्ति, चूणि, भाष्य आदि की का अध्ययन क्या चल रहा है ? महासती जी ने भाषा प्राकृत है। तो टीका साहित्य सम्पूर्ण संस्कृत बताया कि इन दोनों ने उत्तराध्ययन, दशवकालिक, में है। इसलिए जैन श्रमण और श्रमणियों को नन्दी और विपाक सूत्र आदि कण्ठस्थ किये हैं। प्राकृत और संस्कृत का ज्ञान करना आवश्यक है। । और ७०-८० थोकड़े भी स्मरण किये हैं। मैं इस संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ प्रशस्त भाषाएँ समय इन्हें आगमों की वाचना दे रही हूँ। हैं। इन भाषाओं के अध्ययन करने से गम्भीर
श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने हार्दिक सन्तोष व्यक्त किया पाण्डित्य प्राप्त किया जा सकता है। आगमों में और कहा कि सर्वप्रथम सन्त और सतियों को रही हुई गुरु ग्रन्थियों को इन्हीं से खोला जा सकता आगम का परिज्ञान आवश्यक है । आगमों के अध्य- है। मुझे यह लिखते हुए अपार आल्हाद है कि मेरे यन से संयमसाधना में स्थैर्य आता है। विचारों सुझाव को महासती श्री सोहन कुंवरजी महाराज की विशुद्धि होती है । भौतिक पदार्थों की चकाचौंध ने शीघ्र ही मूर्त रूप दिया । और दोनों ही साध्वियों उन्हें फिर आकर्षित नहीं कर पाती। आगमों के को सुयोग्य पण्डित के द्वारा संस्कृत, व्याकरण और अध्ययन के साथ व्याकरण, न्याय, दर्शन का अध्य- साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ करवाया । और यन भी बहुत ही अपेक्षित है, जिससे कि साधक प्रतिभा की तेजस्विता से दोनों ही साध्वियों ने गहन परतीर्थियों से साधिकार विचार-चर्चा कर सकता अध्ययन किया और किंग्स कालेज बनारस की उच्च है। इसीलिए मैंने पुष्कर को संस्कृत साहित्य का तम परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की साथ ही हिन्दी साहित्य अध्ययन करवाया है। उसका अध्ययन चल रहा सम्मेलन प्रयाग और श्री तिलोक रत्न धार्मिक है। इसलिए वह जैसा मार्गदर्शन दे वैसा इन प्रति- परीक्षाबोर्ड पाथर्डी की उच्चतम परीक्षाएँ भी दी। भाओं को विकसित करो।
अनेक बार महासती कुसुमवतीजी ने अनेक गुरुदेव श्री के आदेश से मैंने साध्वीरत्न श्री स्थलों पर दर्शन किये । और सन् १९७३ में अजमेर सोहन कुवरजी महाराज से कहा कि व्याकरण में, सन् १९८३ में मदनगंज-किशनगढ़ में तथा १९८६ भाषा-विशुद्धि का महत्वपूर्ण साधन है। व्याकरण में पाली वर्षावास साथ ही किये। मेरे से उन्होंने में धातु और प्रत्यय के संश्लेषण और विश्लेषण के आगम की टीकाओं का अध्ययन भी किया। उनकी द्वारा भाषा के आन्तरिक गठन पर चिन्तन होता वाणी में सहज माधुर्य है; ओज है जिस कारण उनके
र लक्षणों के द्वारा सुव्यवस्थित वर्णन प्रवचन जन-जन के मन को मुग्ध करते हैं। महाकरना ही व्याकरण का उद्देश्य है। शब्दों की सती चारित्रप्रभाजी, महासती दिव्यप्रभाजी आदि उत्पत्ति, उनके निर्माण की प्रक्रिया का रहस्य भी अनेक विदुषी साध्वियाँ आपकी शिष्याएँ हैं । जिनके व्याकरण के द्वारा ही ज्ञात होता है। व्याकरण प्रवचनों में प्रवाह है। जिनशासन की प्रभावना भाषा का अनुशासन करता है । शब्दों के जो विविध करने की शक्ति है। मेरा हार्दिक आशीर्वाद है रूप हैं उसमें जो मूल संज्ञा और धातु हैं उसके स्वरूप कि महासती कुसुमवतीजी ज्ञान, दर्शन, चारित्र में का निश्चय और प्रत्यय लगाकर विविध शब्दों के अधिकाधिक प्रगति करें। सदा स्वस्थ रहकर जिननिर्माण की प्रक्रिया व्याकरण से ही जानी जाती है। शासन की प्रभावना में चार-चांद लगाती रहें। ०
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एक पारदर्शी व्यक्तित्व
-उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि
परमविदुषो महासती श्री कुसुमवती जी के माँ के साथ गुरुणीजी के पास आहती दीक्षा ग्रहण सम्बन्ध में लिखना बहुत कठिन कार्य है। क्योंकि की। उसके पश्चात् मेरी ज्येष्ठ भगिनी सुन्दर मेरी यह कमजोरी रही कि जिनके साथ अत्यधिक कुमारी ने भी दीक्षा ली । और वे पुष्पवती के नाम आत्मीयता हो जाती है उनके सम्बन्ध में लिखना से विश्र त हईं। तीन वर्ष के पश्चात् १ मार्च सन् इसीलिए कठिन हो जाता है कि क्या लिखा जाय, १९४१ में मैंने भी महास्थविर श्री ताराचन्द जी
और क्या छोड़ा जाय ? आत्मीय जनों की प्रशंसा म० सा०, उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि करना ऐसा लगता है कि स्वयं की प्रशंसा जी म. के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की । मेरी दीक्षा करना है।
के पश्चात् पूजनीया मातेश्वरी तीजबाई ने भी __ जहाँ तक मुझे स्मरण है बहिन कुसूमवती जी चार महीने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की और वे जो गृहस्थाश्रम में नजरबाई के नाम से जानी-पह- प्रभावती के नाम से विश्र त हुई। चानी जाती थी, उनसे प्रथम परिचय आज से ५० दीक्षा लेने के पश्चात् पूज्य गुरुदेव श्री का वर्ष पूर्व हुआ था। वे उस समय एक नन्ही-सी विचरण मारवाड़ में विशेष रूप से रहा और वे बालिका थी। जिनके चेहरे पर स्निग्ध मधुर मेवाड़ में । अतः अनेक वर्षों के बाद पुनः आपसे मुस्कान अठखेलियाँ करती थी। वे मितभाषी थीं। मिलना हुआ। उस समय आप श्रद्धेय गुरुदेव श्री उनकी सरलता-गम्भीरता और आन्तरिक शुचिता की पावन प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर संस्कृत-व्याकने मुझे प्रभावित किया। वे जिन सद्गुरुणी जी श्री रण और संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर रही सोहन कुंवरजी म. के चरणों में बैठकर धार्मिक थीं। गुरुदेव श्री मेवाड़ से मालव धरती को पावन अध्ययन करती थीं, तो मैं भी उन्हीं के चरणों में करते हुए महाराष्ट्र में पधारे । बम्बई, सौराष्ट्र बैठकर धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर आदि में वर्षावास सम्पन्न कर पुनः सन् १९५० में रहा था। अतः गुरुबहिन और गुरुभाई के रूप में उदयपुर पधारे। तब आपसे पुनः मिलने का अवएक-दूसरे को हम सम्बोधित करते थे । मैंने उनमें एक सर मिला। इस बीच बहिन म. के साथ आपने ऐसा चुम्बकीय व्यक्तित्व पाया जिसका भीतर और ब्यावर जैन गुरुकुल में रहकर जैनन्याय का अध्यबाहर एक रूप था । बाल सुलभ स्वभाव के कारण यन किया और हिन्दी साहित्य की भी साहित्यरत्न हम एक-दूसरे को प्यार से पुकारते थे। मैं उन्हें आदि परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की। कीड़ी भर (चींटी भर) महाराज कहकर सम्बोधित गुरुणीजी म. ने तपोमूर्ति विदुषी महासती श्री करता तो वे मुझे कुन्थू भर (जन्तु विशेष) सम्बो- मदनकुंवरजी म. के स्वर्गस्थ हो जाने से उदयपुर से धित करतीं। उम्र में वे मेरे से काफी बड़ी थीं। विहार मालव प्रान्त की ओर किया । इन्दौर, पर तन उनका बहुत ही नाटा था। उन्होंने अपनी कोटा, बूदी आदि क्षेत्रों में वर्षावास सम्पन्न कर
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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आप ब्यावर पधारीं । इधर गुरुदेव भी सोजत सन्त भीड़-भड़क्का बना रहता है। अनेक बाधाएँ उपसम्मेलन समाप्त कर जयपुर वर्षावास हेतु पधार स्थित होती हैं, तथापि समय निकालने पर साधक रहे थे। तब ब्यावर में आपसे मिलना हआ । उसके कुछ न कुछ लिख सकता है, ऐसा मेरा अपना अनुबाद अलवर में, जयपुर में, अजमेर में आपसे मिलने भव रहा है। के अवसर प्राप्त होते रहे।
महासती कुसुमवती जी का अध्ययन काफी दीक्षा के पश्चात् सन् १९७३ में आपके साथ गहरा रहा । उन्होंने संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी का तथा वषोवास का अवसर मिला और उसके पश्चात् सन् जैन-दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया है। मैंने का १९८३ में पुनः मदनगंज में वर्षावास हुआ और सन् समय-समय पर गुरुबहिन होने के नाते उन्हें १६८६ में पाली में वर्षावास साथ करने का अवसर प्रेरणा भी प्रदान की, कि वे जैनधर्म, जैनदर्शन | प्राप्त हुआ। अजमेर वर्षावास में मैं 'भगवान महा- पर कुछ न कुछ लिखें । पर लिखने के प्रति उनका वीर : एक अनुशीलन' ग्रंथ लेखन में अत्यधिक व्यस्त रुझान नहीं सा है। उनका विश्वास अध्ययन में था। श्रमण भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष ज्यादा रहा है । अध्ययन के साथ ही उनकी आवाज तक अखण्ड मौन साधना कर कैवल्य प्राप्त किया बहुत ही सुरीली है । इसलिए जब वे प्रवचन करती था, तो मेरे अन्तर्मानस में भी यह प्रेरणा उबद्ध हैं, तब श्रोता झूम उठते है।
हुई कि महावीर के व्यक्तित्व और कृतित्व को महासती कुसुमवती जी भाग्य की धनी हैं इस१ उजागर करने के लिए मौन रहना आवश्यक है। लिए उनकी अनेक शिष्याएँ परम विदुषी हैं। स
मौन रहकर अधिक से अधिक समय महावीर के चारित्रप्रभा जी, प्रवचन कला में दक्ष हैं और दिव्यजीवन को प्राचीन स्रोतों के आधार से पूर्ण करने प्रभाजी भी प्रवचनकला में निष्णात हैं। महासती (5) में लगा हुआ था। इस वर्षावास के उपसंहार काल दर्शनप्रभाजी ने आचार्य हरिभद्र पर शोध-प्रबन्ध में वेरागी चतरलाल ने तथा वैरागिन स्नेहलता
लिखकर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है तो बहिन ने दीक्षा ग्रहण की और वे क्रमशः दिनेशमनि दिव्यप्रभाजी ने भी उपमितिभवप्रपञ्च कथा पर
और दिव्यप्रभाजी के नाम से जाने-पहचाने लगे। शोध-प्रबन्ध लिख दिया है। शीघ्र ही उन्हें भी पीवर्षावास साथ होने पर भी कार्य में अत्यधिक व्यस्त एच. डी. की उपाधि प्राप्त होगी तथा अनेक प्रशिहोने के कारण वार्तालाप का अवसर कम ही मिल ष्याओं ने एम. ए., साहित्यरत्न, शास्त्री आदि परीपाता था। मदनगंज वर्षावास में मेरा स्वास्थ्य क्षा काफी अस्वस्थ रहा। उस वर्षावास में लेखन का बहिन कुसुमवतीजी का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाकार्य नहींवत् हुआ । वर्षावास में वार्तालाप के प्रसंग शित होने जा रहा है। अभिनन्दन ग्रन्थ में ज्ञानमें बाल्यकाल की मधुर स्मृतियाँ यदा-कदा उद्बुद्ध विज्ञान, धर्म-दर्शन, साहित्य और संस्कृति पर विपुल होती रहती थीं । पाली वर्षावास में साध्वीरत्न श्री सामग्री का संकलन होता है। व्यक्ति को माध्यम पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादन में मैं दत्त- बनाकर जो विपुल सामग्री अभिनन्दन ग्रन्थ के चित्त से लगा हुआ था। क्योंकि सन्त जीवन में माध्यम से प्रस्तुत की जाती है वह भारतीय साहित्य वर्षावास का समय ही एक ऐसा समय है जहाँ की अनमोल धरोहर होती है। इसीलिए अभिनन्दन | चार माह तक सन्त अवस्थित रहता है । साहित्य ग्रन्थ का महत्त्व है । मेरी यही मंगल कामना है कि भी उपलब्ध हो सकता है । इसलिए वर्षावास सन्तों विदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी अपने यश की के लेखन का बसन्तकाल है। यद्यपि इस समय भी सौरभ दिदिगन्त में प्रसारित करें। अपने जीवन भारत के विविध अंचलों से दर्शनार्थी बन्धुओं का के अनमोल अनुभवों के आधार पर धार्मिक संस्कार प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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AD साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOA
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ASTRO
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बना
जनजीवन में प्रवाहित करें जिससे नवयुग के अभि- सत्यं और सत्वं की संसृति-महासतो जात बालक-बालिकाओं का जीवन सद्गुण सुमनों से सदा फूलता-फलता रहे और सुमधुर पवित्र- - प्रवर्तक भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज चरित्र की सुगन्ध से जन-जन का मन प्रसन्न और
____ 'कुसुम' शब्द के उच्चारण से ही मन में एक समाज का वातावरण सदा सुरभित बना रहे । ऐसे
कोमलता, सौम्यता और प्रसन्नता का अनुभव होने प्रसन्न वदन, सरल, कर्मठ, सुयोग्य, लगनशील
लगता है। महासती श्री कुसुमवती जी के अभिसाध्वीरत्न से समाज और देश को बड़ी-बड़ी
नन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सूचना और उसके साथ आशाएँ हैं। वे निष्ठा और अध्यवसाय से श्रमण संघ की सेवा करें. श्रमण संघ को गरिमा का सम्व
उनका जीवन परिचय जब पढ़ा तो लगा, हमारे द्धन करती हुई, शतजीवी हों।
- श्रमणी समुदाय में अनेक ऐसी दिव्य ज्योति, विभू- Va
तियाँ हैं जिनका जीवन सत्य-शील-कोमलता___ कुसुमवतीजी से मेरा सम्बन्ध बहुत वर्षों का ।
सौम्यता-साधुता और सत्वशीलता का सुवासित रहा है। मुझे उन्हें बहुत ही निकट से देखने का सदा बहार पूष्प है। उनकी सद्गुण सुरुचि से जनसंयोग प्राप्त हआ है। उनका यशस्वी व्यक्तित्व और जन का मन सदा प्रसन्नता का अनुभव करता। कृतित्व सहज संस्कारी है । मानवीय मूल्यों के प्रति
रहता है। उनके अन्तर्मानस में गहरी आस्था है। वह आस्था
'सती' शब्द 'सत्य और सत्व' के मिलन से न उनके जीवन का अभिन्न अंग है। वे केवल मान- बना है। जिस जीवन में सत्य की अविचल साधना वीय मूल्यों का उत्कीर्तन हो नहीं करती अपितु है, और सत्य के लिए प्राणार्पण करने की सत्वजीती भी हैं। उनके हृदय में जैनागम, जैन आचार शीलता-साहसिकता है-वही है भारतीय परसंहिता के प्रति अगाध-अबाध प्रेम है। उनकी यह म्परा की सती! सती जब गृहस्थजीवन का परिआन्तरिक इच्छा है कि दूसरों के हित के लिए वेश त्याग कर संयमी, अपरिग्रही और मोह-ममता अपने आपको समर्पित कर दूं । उनका व्यक्तित्व
1 से मुक्त होकर भिक्षणी धर्म को स्वीकारती है तो
) सीधा सरल सहज और आदर्श है । कोई आडम्बर,
___ वह 'महासती' कहलाती है। अभिमान या वक्रता नहीं है।
महासती का जीवन त्याग और शौर्य का वे वाणी की धनी हैं। वे अपने विचार सेतु है। महासती श्री कुसुमवती जी का जीवन बहुत ही प्रभावशाली ढग से प्रस्तुत करती हैं। अनेकानेक सद्गुणों का खिला हुआ गुलदस्ता है । उनके विचारों में उलझन नहीं और न भाषा में जिसकी सूवास से सम्पूर्ण स्थानकवासी समाज किसी प्रकार की अस्पष्टता ही है । वाक् चातुर्य, गौरवान्वित है । अभिनन्दन के शुभ प्रसंग पर मैं वाग् विलास के आधार पर न होकर हृदय की उनके आरोग्यमय दीर्घजीवन की शुभकामना के TER सहज सरलता पर आधृत है। उनके प्रवचन में साथ हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। कोई प्रवञ्चना नहीं और न परोपदेशे पाण्डित्यम् की अविश्वसनीयता और कृत्रिमता ही है। वे
सच्चाई और ईमानदारी से सोचती हैं। उनकी Co/ सराहना और उनका प्रस्तुत अभिनन्दन संस्कारों
का सुदृढ़ पाथेय रूप बने । यही मंगल कामना है।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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कुसुमसती चढ़ती रति सती कुसुमवती के साधना सुमन -प्रवर्तक मुनिश्री रूपचन्दजी महाराज -अ० प्र० मुनि कन्हैयालाल 'कमल' ॥ दोहा ॥
सतीजी का नाम
नाम का एक-एक अक्षर अनुपम । "सोहन" शिष्या सोहनी गुणसर पोयणफूल, "कुसुमसती" चढती रती समरस रस मशगूल ॥ पहला अक्षर “कु” हैसोहन श्रुतकर मूंदड़ी ता बिच हीरकणीह,
यह कुमुदनी का बोधक है। "कुसुमसती" चढती रती “रजत" सती रमणीह ॥ करुणामूर्ति सती का हृदय अमरगच्छगण स्वच्छमति सर्चलाइट चमकीय,
कुमुदनी के समान कोमल है। "कुसुमसती" चढ़ती रती यश अजित सुमनीय ॥ दूसरा अक्षर “सु" हैज्ञानवती गुण गजगति यति धर्म दिगधार,
यह सुमन की सुगन्ध का सूचक है । तारक घर की तारणी धन्य "कुसुम" अवतार ।।
सती का मन सुमन,
संयम की सौरभ से सुवासित है। ॥ मनहर छन्दः ॥
तीसरा अक्षर "म" हैपाप पंथ हरि करी संयम को धरी चरी,
___ यह महाव्रतों का आद्यक्षर है । घी भरि करी नाही पम्माय की भावना ।। गुरु पद झूमझूम भर्यो ज्ञान घट कुम्भ,
सती की महिमा जनमन मानव को सुधार इक् आमना ॥
महाव्रतों के मनन से मण्डित है । अमीरस वाणी तेरी जगत पिच्छानी “रूप” चौथा अक्षर "व" हैभेरी ज्ञान गुणगेरी काश्मीर जगावना ।।
यह वक्तृत्व का परिचायक है। "रजत" रसिक जिनवाणी की विशालमति, ___ सती के वचनसती तू कुसुमवती पुष्कर गुरु भावना ॥
वचन-गुप्ति युक्त आदेय वचन हैं। ॥दोहा॥
पाँचवाँ अक्षर “ति" है
यह तिरने तारने का प्रेरक है । दिव्यप्रभा की दिव्यता, दिव्य दिव्यता धार ।। अभिनन्दन सुग्रन्थ को, सज मन करत तयार ॥
सती कुसुमवती का
- प्रवचन तिरन तारन है। अर्हन्त अभिनन्दन का अहर्निश आराधन करने वाली शीलवती सती कुसुमवती का शत-शत अभिनन्दन ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
७
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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महासती जो फले-फूलें
उसके पश्चात् भीलवाड़ा में मिलने का प्रसंग आया।
मैंने अनुभव किया कि साध्वीजी के जीवन में सह-प्रवर्तक श्री अम्बालालजी म. सा० जता है, सरलता व शालीनता है । इन सब गुणों के ___ महासती जी श्री कुमुमवती जी बहत सरल साथ करुणा का भी अद्भुत समन्वय आपके व्यक्तित्व विनीत और चारित्र सम्पन्न साध्वी जी हैं । मेरा में है। उनका जब-जब मिलन हुआ उत्तरोत्तर ये गुण विरागमयता के लिए अपेक्षित निर्मल-छवि से उनमें मैंने वर्धमान देखे । तप संयम के राजमार्ग आप युक्त है । जो भी एक बार उनके सम्पर्क में पर अविराम बढ़ने वाली महासती कुसुमवती जी आता है उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। कर
हमारे श्रमण संघ की एक दैदीप्यमान रत्नकणिका महती प्रेरणाओं से युक्त आपकी वाणी में ओजस्व (EO है । इन्होंने अपनी कुछ श्रेष्ठ शिष्याएँ भी तैयार है साथ ही करुणा भी। आपकी कथन-शैली में CO की हैं जिनसे जिनशासन को बड़ी आशा है । महा- पर्याप्त प्रवाहमयता है । और आकर्षणशीलता है।
सती जी अपने रत्नत्रय की आराधना में निरन्तर अपने तर्कचातूर्य से आप कोई भी गुत्थी सहज । विकास करती हुई फले-फूलें यही शुभकामना ही सुलझा देती हैं। साधना के प्रति अपार निष्ठा if करता हूँ।
व मानव-मात्र के प्रति समर्पणभाव आपके व्यक्तित्व की विशिष्टता है । ऐसा प्रतीत होता है कि वैराग्य
की अनुपमेयता के बिम्ब आपके आकार में उकेरे । of एक अभिवंदनीय व्यक्तित्व :
गये हैं। महासती श्री कुसुमवतीजी
___महासती श्री कुसुमवतीजी की प्रवचन शैली ।
एवं जीवन की अपूर्व सहजता ने मेरे मन को अत्य-प्रवर्तक महेन्द्रमुनि 'कमल' धिक प्रभावित किया है । उनकी संगठन निष्ठा के ।
लिए जितना लिखा/कहा जाय, कम है। साध्वी कुछ चारित्रात्माएँ ऐसी विशिष्ट होती हैं कि श्री चारित्रप्रभाजी, साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी, OLI जिनका अभिनंदन करना पर्याप्त नहीं होता, वे तो साध्वी श्री गरिमाजी जैसी आपकी सुयोग्य शिष्याएँ
अभिवंदनीय होती है। त्यागमूर्ति महासती श्री हैं। आप श्रमणी-समाज की शान हैं। सहज बोलGL सोहनकुंवरजी म० की प्रथम प्रधान शिष्या विदुषी चाल में भी आपकी वाणी-प्रभावकता सिद्ध व 4 महासती श्री कुसुमवतीजी ऐसी ही श्रेष्ठता से युक्त होती है।
हैं। ऐसी श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाली साध्वीजी से समाज आप में अनेक विशेषताएँ हैं पर आप प्रदर्शन व अलंकृत है।
__से कोसों दूर हैं । अतः प्रदर्शन से जुड़कर कुछ भी ___अध्यात्म जगत में महती प्ररणा देने में आपका प्रकट करने की तत्परता नहीं रखती। जो स्वतः योगदान महत्वपूर्ण है। श्रावक-श्राविकाओं को ही प्रकट होकर व्यक्त हो जाए केवल वे ही विशेष
या शालीन और आत्म-बल से युक्त बनाने में संलग्न ताएं और लोग जान पाते हैं ।
पाते हैं। है । आपकी कीति अपूर्व है । विराग-जीवन में आप जीवन की बांसुरी को आपके स्नेह भरे स्वर | दिव्यता की प्रतीक हैं। अपने ही अनुरूप अपनी गृजरित करते से सदा ही लगते हैं। यह निश्चयशिष्याओं का व्यक्तित्व निर्माण आपने किया है। पूर्वक कहा जा सकता है कि महासती श्री कुसुमवती ।
मुझे याद है प्रथम बार महासती श्री कुसुमवती जी ने समाज में नई चेतना जगाई है। संघ की हर । जी म. से अजमेर मुनि सम्मेलन में मिलना हुआ। अपेक्षा में आप खरी-उतरी हैं। संघ की ऐसी ही
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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दीप्तियाँ संघ में सर्वरूपेण उज्ज्वलता भरने में संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी आदि समर्थ होती हैं। संघ आपसे एवं आप संघ से भाषाओं का समीचीन अध्ययन किया है। आपकी गौरवान्वित हैं।
प्रवचन शैली, साहित्यिक, आगमिक भावधारा से ___आपकी दर्शन और चिन्तन की गहराई बहुत अनुगंजित तथा श्रद्धालु भक्तजनों को अनुरंजित करने || विलक्षण है । ईर्ष्या, दंभ, कपट से शून्य आपके वाली है। आपका प्रभावशाली व्यक्तित्व संघ में - निश्छल व्यवहार से हर कोई सहज ही आपकी ओर एकता, सहनशीलता, करुणा का प्रेरणात्मक नाद आकर्षित होता है। आपकी तुलना गुरु गंभीर गुंजाता है। श्रमण संघ की प्रतिभाशाली महासागर से की जा सकती है।
साध्वी अपने संयमी जीवन के पचास वर्ष पूर्ण कर का ___महासती श्री कुसुमवतीजी कुसुम से सुकोमल चुकी है । एतदर्थ मैं आपके संयममय जोवन का भावनाओं से युक्त हैं पर संयमसाधना में दृढ़ता अभिनन्दन करता हूँ, तथा वर्तमान में जिस तरह लिये हुए हैं, पर यह दृढ़ता किसी भी तरह से हठ- आप जनजीवन को जाग्रत कर रही हैं, तथावत् ।
है। दृढता के साथ ही आप में स्थित भविष्य में भी श्रमण संघ की उत्तरोत्तर प्रभावोसमर्पण भाव आपको सहज बनाता है। सहजता के त्पादक ख्याति बढ़ाती रहें तथा प्रस्तुत अभिनन्दन कारण आप अनेकों की प्रेरणा स्रोत हैं । अस्तु ग्रन्थ जिन धर्मदर्शन की विधाओं से अनुरंजित होकर पा
महासती रत्न श्री कुसुमवतीजी के पचास वर्ष जन-जन का मार्ग दर्शक बने, इसी शुभ कामनाओं KC की सुदीर्घ संयम साधना की गरिमापूर्ण सम्पन्नता के साथ । पर हार्दिक अभिनन्दन के साथ उनके सुदीर्घ जीवन की मंगल कामनाएँ अर्पित करता हूँ।
निर्विवाद व्यक्तित्व पर दो शब्द
-सौभाग्य मुनिजी कुमुद
(श्रमणसंधीय महामन्त्री) साध्वीरत्ना का साधनामय जीवन विश्व में निश्चय ही कुछ जीवन ऐसे विलक्षण
- होते हैं, जिनसे हम प्रथमदृष्ट्या --प्रवर्तक रमेश मुनि
प्रभावित नहीं 3- होते, किन्तु जैसे-जैसे उनसे सम्पर्क बढ़ता है वैसे-वैसे | ६) तेजोमय साधना के पचास वर्ष सम्पन्न कर महा- हम न केवल उनसे अधिकाधिक प्रभावित होते हैं, सती श्री कुसुमवती जी ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व अपितु उन्हें हम अपने स्मृति कोष में सदा के लिए को निखारा हैं। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. स्थापित कर लेते हैं । की आज्ञानुवर्तिनी एवं श्रमण संघ की प्रवर्तिनी श्री प्रज्ञा एवं वक्तृत्व कला की प्रतिमूर्ति महासती | सोहनकुंवरजी म० की सुशिष्या श्री कुसुमवती जी श्री कुसुमवतीजी म० को मैं ऐसे ही व्यक्तित्व एक परम विदुषी साध्वी हैं। जिस प्रकार चन्दन की कोटि में लेता हूँ। कह नहीं सकता कि सभी को वृक्ष के समीप जाने से सुगन्धि प्राप्त होती है उसी मेरे जैसा ही अनुभव होता होगा, किन्तु जहाँ तक प्रकार आपके सान्निध्य में रहने वाले को भी परम मेरा प्रश्न है मैंने उन्हें उन विलक्षण व्यक्तित्वों में से आत्मशांति का अनुभव होता है। भूले-भटके राहियों एक पाया, जो प्रथमदृष्ट्या अति साधारण होकर , को आपसे सही मार्गदर्शन प्राप्त होता है। आपका भी अपने आप में अति असाधारण है। साधनामय जीवन अगाध आगम ज्ञान,ज्ञान,दर्शन एवं वयोवृद्धा विश्र त महासतीजी श्री सोहनकुवर चारित्र की त्रिवेणी से प्रभावित, आप्लावित होकर जी म० ने अपने जीवन में अनेक सुसंस्कृत विदुषो । अध्यात्मयोगिनी के रूप में उभरा है । आपने प्राकृत, साध्वीरत्नों की संरचना की और माँ जिनशासन ५
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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भारती को विभूषित किया। उनकी जीवन निर्माण है। इसी संवाद में व्यक्तित्वों के अंकन होते हैं। श्रद्धा की शिल्पकला बेजोड़ थी, वे स्वयं भी अपने आपमें के पुष्प और अश्रद्धा के कंकड़ इन संवादों में ही कर
धीर, गम्भीर और अनुपम थीं। उनके नेतृत्व में सामान्य कहे जाने वाले व्यक्तियों द्वारा फेंक दिये - हि एक चमत्कार-सा था, उन्हीं के हाथों महासती श्री जाते हैं। ये संवाद अर्थहीन तो नहीं होते हैं।
कुसुमवतीजी म० का निर्माण हुआ अतः चारित्र में भले ही कोई उन्हें अधिक महत्व न दे किन्तु ये . ( वैशिष्ट्य का सम्पादन तो अवश्यम्भावी था ही। संवाद किसी यथार्थ की ओर आंगुल्या निर्देश तो
अपनी पूज्या गुरुणीजी को अपने में भावावतरित कर ही देते हैं । संवादों के इन अनौपचारिक प्रकरणों ! ला करने में महासती श्री कुसुमवती जी अधिकाधिक में प्रायः सभी तरह के व्यक्तियों का समावेश हो
सफल रहीं यह अतिशयोक्तिरहित एक सहज तथ्य जाता है, क्या योगी, क्या भोगी सभी वहाँ चर्चित
है, जिसे कोई भी उनमें स्पष्ट पा सकता है। होते रहते हैं, ये प्रकरण व्यक्तियों में व्यक्तित्वों के ET महासती श्री कुसुमवतीजी म. का इक्यावन वर्ष प्रति अनायास ही निर्णय या मूल्य निर्धारित करते
का संयमी जीवन समाज के सामने खुली किताब- रहते हैं। सा स्पष्ट है। हजारों-हजारों व्यक्तियों ने उसे महासती श्री कुसमवती के प्रति आम जनादेश पढा है। कहीं किसी ने कालष्य की काली रेखा अब से जो प्राप्त हआ वह शुभ ही शुभ रहा, यह उनके
तक उनमें पाई हो ऐसा मेरे जानने में नहीं आया। सधे-सधाए जागरूक जीवन की सबसे बड़ी उप६.१, यह सत्य है कि व्यक्ति का वास्तविक अंकन उनकी लब्धि है जो निश्चय ही इने-गिने व्यक्तियों को ही
भावा धारा का अनुशीलन करके ही किया जा उपलब्ध हुआ करती है। सकता है क्योंकि मानव वास्तव में तो वही है जैसा महासतीजी की वक्तृता ने इनकी शुभ्रता में उसका भावजगत है, किन्तु भावोमियाँ मात्र हार्द के और चार चांद लगाए हैं। इनके प्रवचनों ने जैन तट तक ही आकर ठहर जायें और निकटवर्ती बाह्य जगत में अपना एक स्थान बनाया, इससे भला कौन परिवेश को प्रभावित न करें ऐसा सम्भव नहीं। अपरिचित है । मधुर कण्ठ से निःसृत इनके स्वरों से र सम्यक्त्व एक आध्यात्मिकता है किन्तु शम- एक ऐसा आकर्षण और आल्हाद झरता है कि श्रोता o संवेगादि बाह्य प्रवृत्तियों से उसका कुछ न कुछ तो झूम-झूम उठता है । श्रोताओं की यह भावमग्नता
संसचन हो ही जाता है यह सिद्धान्तमान्य सत्य है। अन्ततः उन्हें विरति पथ पर ही अ महासती जी श्री कुसुमवती का अन्तर्जगत सद्भाव करती है। कुसुमों से कुसुमित एवं सुगन्धित रहा है यह अंतिम महासती लम्बे समय तक अध्ययनशील बने निर्णय नहीं होकर भी एक अनुमानित निर्णय तो है रहे, जैन सिद्धान्ताचार्य आदि परीक्षाएँ उच्च श्रेणी
ही जो उनके बाह्य जगत से सहज अनुमानित होता से उत्तीर्ण की और साथ में साधना के क्षेत्र में भी EO है । महासतीजी का हमारा सम्पर्क बहुत पुराना निरन्तर गतिशील रहे । यही कारण है कि आज
होकर भी बहुत अधिक नहीं रह पाया किन्तु इससे उनका अध्ययन केवल वाक-विलास का साधन नहीं किसी व्यक्तित्व की पहचान में कोई अन्तर नहीं होकर जीवन में साधना से एकाकार हो गया। ज्ञान आया करता । एक अच्छे सुसंस्कृत निर्दोष जीवन और साधना का यह अन्तिम सम्मिलन जीवन के की गुण झंकार दूर-दूर तक सहज ही सुनाई दिया चरम क्षणों तक चलता रहे। करती है, फिर चाहे कोई उसे सुनना चाहे या नहीं जिनशासन इनके सद्प्रयत्नकृत प्रगति पुष्पों से भी सुनना चाहे।
सुसज्जित सुवासित होता रहे, इसी शुभ कामना के व्यक्ति चर्चा यह आम व्यक्तियों का एक सामान्य साथ". संवाद है जो निरन्तर जहाँ-तहाँ चलता ही रहता
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एक महकता कुसुम
दायक है ? कितनी महान है ? इसमें कितनी ||
अधिक कल्याणकारिता है ? इसे संस्कृत के एक -श्री ज्ञानमुनि जी महान पण्डित कितनी सुन्दरता से अभिव्यंजित ||
[श्रमण संघीय सलाहकार करते हैंसाधु शब्द का अर्थ है-'साधयति स्व पर चंदनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमा । कार्याणि इति साधुः' जो व्यक्ति अपनी आत्मा को चंद्र-चंदन-योर्मध्ये शीतला साधु संगतिः ॥ साधता है, काम क्रोध मोहादि के आत्मविकारों
संसार में चन्दन शीतल माना जाता है परन्तु म से अपना पिण्ड छुड़ाता है, अपना व दूसरों का हित
चंद्रमा चंदन से भी अधिक शीतल होता है, सम्पन्न करता है, तिण्णाणं तारयाणं के आदर्श को ,
चंदन की शीतलता और चंद्रमा की शीतलत आगे रखकर अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न करता है,
भी अधिक शीतल सन्त जनों की संगति होती है। संसार सागर को स्वयं पार करता है और अपनी चरण-शरण में आये व्यक्ति को संसार सागर से
भक्त राज कबीर ने साधु संगति की महत्ता को पार करवाता है, वह व्यक्ति साधू माना जाता है। कितना सुन्दरता से अंगीकार किया है__ साधु जीवन की इसी विशिष्टता एवं कल्याण- कबिरा संगति साधु की ज्यों गांधी का वास, कारिता के कारण संस्कृत तथा हिन्दी के मनीषी जो कुछ गांधी देत नहीं, तो भी वास सुवास, विद्वानों ने बहुत सुन्दर लिखा है
राम बुलावा भेजिया, दिया कबिरा रोय, साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः। जो सुख साधु संग में, सो बैकुण्ठ न होय, कालेन फलति तीर्थः सद्यः साधु समागमः ॥
जा पल दरसन साध का, ता पल की बलिहारी, साधु पुरुषों का दर्शन पुण्य रूप होता है, इसी- सत्त नाम रसना बसे, लीजो जन्म सुधारी, लिए साधु तीर्थ स्वरूप माने जाते हैं, तीर्थ समय वे दिन गये अकारथी, संगत भई न सन्त, पर फल देता है परन्तु साधुओं का दर्शन शीघ्र ही ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवन्त, फल दे देता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी इसी सत्य को कितनी एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से भी आध, सुन्दर पद्धति से अभिव्यक्त करते हैं--
कबीर संगत साध की, कटे कोटि अपराध, मुद मंगलमय सन्त समाजू,
कबीर संगत साध की, साहिब आवे याद, ज्यों जग जंगम तीर्थ राजू,
लेखे में वाही घड़ी, बाकी दिन बरबाद ।। अकथ अलौकिक तीर्थ राऊ,
सच्चा साधु कोई-कोईदेह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ, भक्तराज कबीर के शब्दों में सन्त जीवन की अनुभव के महारथियों ने सन्त जीवन की चर्चा | गरिमा को देखिये
करते हुए स्पष्ट रूप से यह उद्घोष किया है कि तीर्थ में फल एक है, सन्त मिले फल चार ।
सच्चे सन्त विरले होते हैं। हर जगह ऐसे विरक्त, सद्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ॥
निस्पृह, जर, जोरू, जमीन के त्यागी, सत्य, अहिंसा
के पावन धाम सन्तों का प्राप्त करना कठिन ही साधु संगति की गरिमा
नहीं अपितु असम्भव होता है। जन्म-जन्मान्तर के __ जैन तथा जैनेतर शास्त्रों में साधुसंगति को शुभ कर्मों का सान्निध्य होने पर ही ऐसे हितकारी, सर्वश्रेष्ठ माना गया है, साधुसंगति कितनी फल- उपकारी और मगलकारी सन्तजनों की चरण
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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शरण सम्प्राप्त होती है। सम्भव है इसीलिए एक हैं। कुछ वर्ष ऊपर ६ दशक की आयु चल रही है, सन्त प्रेमी विद्वान् को यह कहना पड़ा हो- तथापि ये भारण्ड पक्षी की तरह पूर्णतया जागशैले शैले न माणिक्यं
रूकता से अपनी संयमयात्रा सम्पन्न कर रही हैं। ___ मौक्तिकं न गजे गजे,
दस वर्षों की छोटी सी आयु में आप दीक्षा के साधवो नहि सर्वत्र,
आसन पर विराजमान हो गये, जब से आप चन्दनं न वने वने
दीक्षित हुए हैं तब से ही जप, तप, शास्त्र स्वा
ध्याय, संयमसाधना, समाज सेवा, और पठन-पाठन जैसे माणिक्य प्रत्येक पर्वत में पैदा नहीं होता, में ही आप अपना अधिक समय लगाते हैं । श्री वर्धo सब हाथियों के मस्तक में मोती नहीं मिलते और मान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के आचार्य
असली चन्दन हर वन में हाथ नहीं लगता, ऐसे ही सम्राट गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी म० फरजगत का कल्याण करने वाले चलते-फिरते तीर्थ- माया करते थे कि संयमसाधना साधुजीवन की राज सन्तों का समागम भी हर स्थान पर सम्प्राप्त शोभा है, सुषमा है, पावन ज्योति है, और आकनहीं होता।
र्षक चमक है। पुष्प की शोभा जैसे उसकी सुगन्ध साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी
से हैं वैसे सन्त-शोभा की महत्ता संयम साधना की
निर्मल सरल और सच्ची आराधना से सम्पन्न साधु संघ में साधु व साध्वी दोनों का परि- हुआ करती है। पूज्य गुरुदेव यह भी फरमाया ग्रहण किया जाता है। अतीत के इतिहास ने हमें करते थे कि संयमसाधना यदि चरम सीमा तक ऐसे-ऐसे साध्वीरत्न समर्पित किये हैं जिनकी पहुँच जाए तो उसमें समस्त ऋद्धि-सिद्धियों के संयमसाधना एक आदर्श संयमसाधना थी, त्याग- दर्शन होने लगते हैं। वैराग्य के दीपक लेकर जो यत्र, तत्र, सर्वत्र, पद- साधना यदि अखण्ड हो. निर्विकार हो, भ्रमण करते रहे और लाखों द्विपद-पंशु-रूप
पावन हो तो संयमी के हाथों पर रखी आग भी मानवों को मानव वनने की पावन कला उसे जला नहीं सकती। यह परम सौभाग्य की बात सिखाते रहे । जिनकी तप-साधना, ब्रह्मचर्य आरा- है कि महामान्या महासती श्री कुसूमवती जी संयम धना, आर वीतराग देव की उपासना इतनी कठोर साधना के महापथ पर बडी दृढता. स्थिरता, एवं विलक्षण रही कि मर्त्यलोक ने ही नहीं स्वर्ग
प्रामाणिकता, सरलता एवं पूर्ण आस्था के साथ लोक ने भी अपनी गरदनें झुका डालीं।
बढ़ती जा रही हैं। महासती जी की संयमसाधना o आज पाठकों के सन्मुख मैं एक ऐसी ही साध्वी के ५० वर्ष सम्पन्न हो चुके हैं, दीक्षा स्वर्ण जयन्ती Oरत्न की जीवन रेखा, प्रस्तुत करने लगा हूँ जो की इस पावन बेला पर यही मंगल कामना करता हूँ
संयमसाधना की जीवित प्रतिमा है। मेरी दृष्टि कि ये सौ वर्ष तक अपनी संयमसाधना के पावन में जो एक आदर्श साध्वीरत्न है। आज ये साधु सौरभ से जन-जन के मन को सुरभित करते रहें। जिगत में परम विदुषी, चारित्रशीला, अध्यात्म- शासनेश प्रभु महावीर से यही अभ्यर्थना योगिनी श्री कुसुमवतो जी म० के नाम से प्रख्यात करता हूँ।
हो रही हैं । जैसे पताशा चारों ओर से मीठा होता ofहै वैसे ही इनका बचपन, इनकी जवानी तथा
इनकी प्रौढ़ावस्था-इनकी ये सभी अवस्थाएँ त्याग वैराग्य की पावन सौरभ से सुरभित दिखाई दे रही
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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अन्तर हृदय का अभिनन्दन __साध्वीरत्नाश्री श्री कुसुमवती जी -श्री रतन मुनि जी
-श्री गिरीश मुनिजी (श्रमण संघीय सलाहकार) जैन धर्म आत्मवादी धर्म है। साधक धर्म के (0)
द्वार पर प्रवेश करता हआ आत्मा की अगाध शक्ति मुझे यह जानकर परम आल्हाद हुआ कि का परिचय प्राप्त कर सकता है। साधना के प्रशांतमना विदूषी साध्वी श्री कुसुमवतीजी म. अपनी आधार पर साधक अपने लक्ष्य-साध्य को सिद्ध कर साधना काल के पचास बसन्त प्रशस्त रूप से शासन आत्मविजयी बन सकता है। सेवा करते हुए सफलतापूर्वक सम्पन्न कर रहे हैं, यह
. जैन धर्म में चार प्रकार के साधक हैं-साधु, प्रसन्नता का विषय है।
साध्वियाँ, श्रावक और श्राविकाएँ।
समाज का परम सौभाग्य है कि परम विदुषी ___ ज्ञान, ध्यान, तपाराधना-ऐसे विशिष्ट गुण
कुसुमवती जी म. साध्वियों में रत्न के समान चमक हैं जिसके द्वारा साधक परितः पूजा जाता है, एवं
रही हैं। अतः वे साध्वीरत्ना है। वे दीक्षा के ५० आदर प्राप्त करता है । आपके इन चारित्रिक गुणों ने जन मानस की श्रद्धा को अपनी ओर आकर्षित
वर्ष पार कर चुकी हैं। अतः वे स्थविरा भी हैं । वे
अनेक भाषाओं का अध्ययन कर सब भाषाओं के किया है, तथा अपने प्रभाव को अभिवृद्ध किया है।
माध्यम से अनेक कोटि के साहित्य में प्रवेश कर आपका अभिनन्दन चारित्र का अभिनन्दन है, गुणों की समुदारता का सुन्दर प्रयास है । आचार्य श्री
सकी हैं अतः वे अनेक भाषाविद् होते हुए साहित्य आनन्द ऋषि जी म. सा. के साथ राजस्थान में
चंद्र भी हैं।
'विहार चरिया मुणिणं पसत्था' इस उक्ति को विहार यात्रा के दौरान भीलवाडा शहर में साध्वी
चरितार्थ करने के लिये सुदूर विहारिणी बन चुकी जी से मिलने का अवसर प्राप्त हआ। साध्वी श्री कुसुमवती जी एक परम विदुषी साध्वीरत्न हैं,
हैं। अतः वे भारत के महाविचरणशील पदयात्री - जो सदा-सर्वदा निस्पृह और निरपेक्ष भाव से ।
भी हैं। | साधना के महापथ पर अविराम गति से मुस्तैदी
शासन देव से ऐसी प्रार्थना है कि अनेक गुण कदम बढ़ाती रही हैं। आपने न्याय, व्याकरण,
सम्पन्ना सती साध्वीजी कुसुमवतीजी दीक्षा शताब्दी काव्य, आगम आदि का गहन अभ्यास कर जीवन
__ को शीघ्र ही पार कर सकें। को चमकाया है, ऋजुता-समता एवं कथनी-करनी
दो मुक्तक की एकरूपता आपकी सहज वृत्ति है, वस्तुतः गुण ___ -पं. उदय मुनि, (जैन सिद्धान्ताचार्य) 0 गम्भीर एवं शान्त प्रकृति की साध्वीरत्ना कुसुम- माता कैलाश सूता श्री सोहन की शिष्या है, 7) वतीजी, मानव समाज की गौरव हैं । मैं अभिनन्दन गरु पुष्कर का पा उपदेश अल्पवय में ली दीक्षा है। | की इस मंगल वेला में अभिनन्दन करते हुए पू० किया बह अध्ययन विहार किया धर्म हित 'उदय', साध्वी जी म० दीर्घायु होकर जीवनसाधना को धार संयम 'कुसूम' ने जग को धर्म को दी शिक्षा है ।। अभिवृद्ध करती रहें यही शुभेच्छा है।
दिनकर किरणें सारे जग को आलोकित करती हैं, गंध फूल की हर-एक को आकर्षित करती है। ) जो देता जग को वही महान होता 'उदय', ) दे धर्म देशना 'कुसुम' जीवन सार्थक करती हैं ।।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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दोक्षा स्वर्ण जयंती (पच्चीसी) -उपप्रवर्तक श्री चन्दनमुनि जी म.
(पंजाबी)
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती जिनकी आई मंगलकारी है महासती श्री कुसुमवती की महिमा जग में भारी है ॥१॥
दौड़ी-दौड़ी दूर-दूर से दुनिया इतनी आई थी कहते हैं तिल धरने को भी जगह नहीं बच पाई थी ॥७॥
ज्ञानी ध्यानी बन व्याख्यानी जिनने धाक जमाई थी सोहन कंवर सती प्रवर्तिनी पूज्या गुरुणी पाई थी ॥८॥
सोमवार छठ आश्विन कृष्णा उगनी सौ बयासी वर्ष नगर उदयपुर ओसवाल कुल
में था छाया भारी हर्ष ॥२॥ GN पिता गणेशलाल कोठारी S बहुत बड़े व्यापारी थे
| दया धर्म के धारी थे तो E पावन प्रेम पुजारी थे ॥३॥
HOSTEOS
उपाध्याय 'मुनि पुष्कर' जिनकी महिमा का न कोई पार मिले आपको गुरुवर ज्ञानी पूरे - पूरे गुण भण्डार ॥६॥
'नजरकंवर' शुभ नाम जन्म का जाने जनता सारी है 'कुसुमवती' पर नाम नव्य क्या केसर की ही क्यारी है ॥१०॥
AAVAN
माता 'श्री कैलाशकंवर' ने मन वैराग बसाया था आगे जाकर जग ठुकराकर महासती-पद पाया था ॥४॥
उन्नीस सौ तिरानवें फागुण सुदी दश आया जब रविवार मुदित 'देलवाड़ा' में दीक्षा in करी 'कुसुम' ने भी स्वीकार ॥५॥
हिन्दी संस्कृत, प्राकृत, आगम आदिक में निष्णात हुये एक नम्बर व्याख्याता बनकर बहुत-बहुत विख्यात हुये ॥११॥
दृश्य निराला दीक्षा वाला कैसे भूलें दर्शक-गण याद यदा आ जाता है, हो जाता है रोमांचित तन ॥६॥
अंधी क्रिया ज्ञान बिन मानी बिना क्रिया के लंगड़ा ज्ञान समाधान यूत भाषण करके जन-गण का करते कल्याण ।।१२।।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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न्यायतीर्थ हैं, काव्यतीर्थ हैं जैन सिद्धान्ताचार्य हैं और साथ साहित्यरत्न कर सभी संवारे कार्य हैं ||१३||
महावीर की वाणी ऐसे मधुर स्वरों में गाई है जगह-जगह जाकर जनता की जड़ से नींद उड़ाई है || १४ ||
महिलाओं की ओर आपका ध्यान बहुत ही जाता है महिलाओं के साथ पता न ऐसा कैसा नाता है ||१५||
भ्रम के भय के अन्धकार में भटक रही जो भारी है उसे बताया अय नारी ! तू सबला है, सन्नारी है ॥१६॥
बड़े-बड़े दिग्गज मुनिवर भी जिसे छुड़ान पाते हैं चुटकी से मिथ्यात्व पता न कैसे आप छुड़ाते हैं ॥१७॥
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जैनागम स्वाध्याय आपको प्राणों से भी प्यारा है एक शब्द में जीवन इस पर
अगर कहें सब वारा है ||१८||
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
मारवाड़, मेवाड़, देहली हरियाणा जम्मू पंजाब उत्तर मध्य प्रदेश प्रान्त में पहुँचे जाकर किया खिताब ॥ १६ ॥
साध्वीश्री चारित्रप्रभा जी दिव्यप्रभा 'गरिमा जी' और
गुणी आपकी शिष्यायें हैं
सेवा समता में सिरमौर ||२०|| 'दिव्यप्रभा जी'
बहन ममेरी दीक्षित आपके पास किए एम. ए. और पी-एच. डी. संस्कृत में, शत-शत शाबाश || २१ ||
' दर्शनप्रभा' सती श्री 'प्रतिभा' सती 'राजश्री' जी गुणखान 'विनयप्रभा जी' 'रुचिकाजी' फिर आगम-ज्ञाता ज्ञाननिधान ||२२||
'अनुपमा' 'निरुपमाजी' श्रमणी श्रमण संघ की शान अहो ! विदुषी सभी प्रशिष्याओं को तप जप निर अभिमान कहो ||२३||
चन्दनमुनि पंजाबी के मन छाई खुशी अनन्ती जी मंगलमय हो सती 'कुसुम' को दीक्षा स्वर्ण जयन्ती जो ||२५||
कठिन बताना कठिन गिनाना जितना पर उपकार किया जहाँ पधारे श्रमण संघ का भारी जय-जयकार किया || २४||
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अभिनन्दन है. अभिनन्दन है
सदगुणा री सौरभ जग में, फैल रही है प्यारी जी महासती श्रीकुसुमवतीजी, महिमा जिन की भारीजी
अगणित गुण जिन में भरे, जीवन प्रातः वन्दनीय है सदा, गावे
पुण्यवान ही पुण्य कमा कर इस धरती पर आते जी निर्मलता और गौरवता से जीवन धन्य बनाते जी सुसंयम की गाथा कथकर गाते हैं नर-नारी जी ।
सती शिरोमणि कुसुमवती जी अमित ज्ञान भण्डार जी ऐतिहासिक आदर्श जीवन जी मृदुता भरी अपार जी प्रतिभासम्पन्न महासतीवर, जावे नित बलिहारी जी ।
जन्म स्थान उदयपुर जिनका वीर-भूमि जी कहलावे गणेशलाल जी गोत्र कोठारी मात कैलाश सुहावे जी उगणी सौ बरियासी विक्रम सोमवार शुभकारी जी
नाम दिया है नजरकुंवर शुभ जन-मन को प्रिय लागे जी सूरत सुहानी है मन मोहन भावना जागे जी धर्म-भावना बढ़ी दिनोदिन बचपन है सुखकारी जी
त्याग
संयम रुचा अन्तर् मानस में और न मन में भावे जी विरक्त अवस्था मोक्षमार्ग है दृढ़ता मन में लावे जी परम पूजनीया गुरुणी श्रीजी सोहनकुंवरजी प्यारीजी
१६
- कविरत्न श्री मगन मुनि जी
वही महान । मंगल गान ॥
म.
'रसिक'
देलवाड़ा में संयम लीनो कुसुमवती दियो नाम जी उगणी सौ इकराणु मांही सफल कियो है काम जी
दस वर्ष की अल्पायु में, संयम व्रत लियो धारी जी
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
उपाध्याय जी श्रमण संघ के पुष्कर मुनिवर प्यारे जी प्रखर प्रवक्ता जन वल्लभ हैं उज्ज्वल नयन सितारे जी
गुरुदेव की सुदृष्टि से, अभिवृद्धि हुई सारी जी न्याय तीर्थ और साहित्यरत्न है व्याकरण का है ज्ञान जी संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी गूर्जर है राजस्थानी ज्ञान जी
आगम का है ज्ञान गहन अति, मृदुभाषी हितकारीजी ओजभरी वाणी मनभावन पुलकित है जन सारा जो जिनवाणी का भर-भर प्याला आप पिलावन हारा जी सन्मति मारग सदा बतावे सूरत मोहनगारी जी वर्ष पचास संयमी जीवन के पूरण आज मनावां जी मंगलकामना हो दीर्घायु हिवड़े हरष भरावां जी अभिनन्दन है अभिनन्दन है, रसिक शत-शत बारीजी ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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'श्री कुसुमाष्टकम्
हे साधिके ! अभिनन्दन
श्री सुकनमल जी म० सा०
--सुभाष मुनि 'सुमन' (श्रमण संघीय सलाहकार उपप्रवर्तक)
संयम पथ की हे ! साधिके अहंत धर्म आराधना, आतम गुण आधार तेरा जीवन निर्मल है धारण कर उर धैर्यता, भव जल उतरे पार
अन्तर् तेरा मां-गंगा सा
अनुपम पावन निश्छल है। संयम गुण है शाश्वता, शारद मुख सरसाय अहो 'शुकन' संसार में, संयम संत सुहाय
यथानाम तथागुण पूरण अमरसिंह मुनि गच्छपति, श्रमणी संघ विशाल
'कुसुम' है श्री कुसुमवती सोहन, सोहन सारिसा, शासन दीप मिशाल
कई भाषा का ज्ञान जिन्हें है ।
तप संयम की ज्योति सती। सोहन बाग कुसुम खिले, संयम साधना साध गुरु पुष्कर नामी मिले, तप जल लेय आराध सरल, सौम्यता और करुणा
जीवन का शृंगार बनाया परम-विदुषी साध्वी, गौरव संघ सवाय
"मित्ति मे सव्व भूएसु' का कुसुमवतीजी महासती, अभिनन्दन जग मांय
घर-घर में जयघोष गुंजाया। सदा साध्वी सरलमना, मधुर वचन सुविशाल विनय, विवेक विद्यागुणी, आगम ज्ञान कमाल
लघुवय में लेकर के दीक्षा
किया है जीवन को पावन कुसुम-कुसुम पर देखिये, शिष्या भ्रमर गुंजाय
नाम दिपाया मात-तात का सरस सिंगाड़ा सोहता, अमर-गच्द्ध के मांय
किया है उज्ज्वल जिन-शासन मेद-पाट मरु, मालवा, उत्तर-भारत माँय।
अभिनन्दन की इस बेला में धर्म-प्रचार नीको करि, विचरत आनन्द मांय ।
___ शतायु की शुभभावना है निर्मल हो जिन पथ बढ़ो, शकुन सिद्धि मिल जाय सदा सफल हो संयम पथ में अभिनन्दन जन-गण करे, श्रद्धा कुसुम चढ़ाय यही हृदय की कामना है।
-: :जहा दीवा दीवसयं पइप्पए सो य दीप्पए दीवो । दीवसमा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति ।
-उत्तराध्ययन नियुक्ति ८१ जिस प्रकार प्रकाशमान दीप अपने प्रकाश-स्पर्श से अनेक दीपक जला देता है, वैसे ही ज्ञानवान सद्गरु (आचार्य) अपनी ज्ञान ज्योति से अन्य सैकड़ों जनों को प्रकाशमान करते हैं।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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अभिनन्दन..!
-गणेश मुनि शास्त्री वीतराग-पथ-साधिका, करती आत्मोत्थान । कुसुम कलि-सी कुसुमवती, अमर गच्छ की शान ।।
श्रमण संघ उद्यान का, सुरभित कुसुम महान। कुसुमवतीजी संघ में, रखती ऊंचा स्थान । जन-जन से पाता सदा, यश-गरिमा सम्मान ॥ कोमल दिल नवनीत-सा, मुख पर नित मुस्कान ।।
गुणग्राही ज्ञानी गुणी, समता भाव प्रधान । दिव्यप्रभाजी महासती, कर नित अनुसन्धान । दिल दर्पण-सा स्वच्छ है, घट में सम्यग्ज्ञान ॥ डॉक्टर बन गई, अब करे, ग्रन्थ रत्न निर्माण ॥
महासती सोहन कुवर, जीवन ज्योतिर्मान। शिष्याएँ सब आपकी, विनयवान गुणवान ! कुसुमवतीजी को मिली, गुरुणी गुण की खान ।। महासती पुनवान है, कहते सब इन्सान ॥
-
करती करवाती सदा, जिनवाणी का पान। खिलता बढ़ता ही रहे, अनुपम कुसुमोद्यान । बढ़ता चिन्तन-श्रवण से, वीतराग विज्ञान ॥ संयम पथ के पथिक ही, कर लेते कल्याण ॥
hमोह माया में मग्न को, करवाती है भान। स्वर्ण जयन्ती पर करें, अभिनन्दन-गुण-गान ।
धर्म-वचन सुन सहज ही, खिल उठते हैं प्रान ।। स्वीकारों शुभकामना, दो जग को वरदान ।।
जीवन ज्योति जले.... जैन जगत में जिनका जीवन, महक रहा बन चन्दन है। महासती श्री कुसुमवती जी, शत-शत-शत अभिनन्दन है.
स्वर्ण जयन्ती दीक्षा की सब, मना रहे हैं नर-नारी । तेज साधना का चेहरे पर,
जीवन सद्गुण फुलवारी !! हर पल है उनका अभिनन्दन तोड़ चुके जो बंधन है। महासती श्री कुसुमती जी, शत-शत-शत अभिनन्दन है...
ज्ञान क्रिया का अदभुत संगम, निर्मल पाई वाणी ।
-प्रवर्तक श्री महेन्द्रमुनि 'कमल' सरल, विनम्र, त्याग की मूरत,
जय-जय जग कल्याणी !! उज्ज्वल यश की धारक ! तारक ! जीवन संयम स्यन्दन है। महासती श्री कुसुमवती जी, शत - शत - शत अभिनन्दन
जीवन ज्योति जले ऐसे ही, नित उजियाला फैलाये। स्वर्ण जयन्ती मना रहे हैं,
हीरक और मनाये !! क्या संशय है इसमें जीवन कमल खरा कुन्दन है। महासती श्री कुसुमवती जी, शत-शत-शत
अभिनन्दन है !!
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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सुखद शताब्दी भी आये
-जिनेन्द्र मुनि (काव्यतीर्थ)
अभिनन्दन के पूण्य पलों में,
पावन प्रतिभा से पूजित हैं, __ करते हैं हम अभिनन्दन ।
शांति धाम जीवन अभिराम । परम विदुषी महासती श्री-,
जन-मन श्रद्धा का सागर है, कुसुमवतीजी को धन-धन ॥१॥
सौम्य स्वभावी लगे ललाम ॥७॥ जननी के संग संयम लेकर,
शान्ति प्रेम का सर्जन करती, जीवन को महकाया है।
अप्रमत्त जीवन की धार । ज्ञान ध्यान जप तप समता से,
अगणित हैं उपकार आपके, जीवन उच्च बनाया है ॥२॥
भूल न पायेगा संसार ॥८॥ आगम ज्ञान गहन है चिन्तन,
भारत के विभिन्न प्रान्त में, प्रवचन पटुता भी भारी ।
धर्म-ध्वजा फहराती हैं। ज्ञानामृत के शुभ सिंचन से,
जिनशासन की सेवा करके, खिल उठती जन-मन क्यारी ॥३॥
जीवन धन्य बनाती हैं ।।६।। हृदय कुसुम-सा कोमल पावन,
अमरसाधिका श्रमणीरत्न हे !, जन-मन सहज लुभाता है।
धर्म-ज्ञान का मंगल दीप । नदी पूर सम जन समूह,
निलिप्त कमल-सी भव्य आत्मा, श्रद्धा से दौड़ा आता है ।।४।।
मन मोती तन सुन्दर सीप ॥१०॥ जलधारा की भाँति जग में,
चारित्र सौरभ दिव्यप्रभा से, जिनवाणी वर्षाती है।
गरिमा उज्ज्वल छा रही है। पुण्यवती गुणवती सतीजी,
अनुपमा और निरुपमादि, नई बहारें लाती हैं ॥१॥
नई रोशनी ला रही है ॥११॥ प्रेम स्नेह सद्भाव सम्प के,
शिष्याएँ भी परम विदुषी, जन मन दीप जलाती हैं।
प्रखरमति गुण विनयवती। सद्गुण सुमनों से शोभित मन,
ज्ञानालोक लोक में करती. जग-जीवन महकाती हैं ॥६॥
एक-एक से ज्ञानवती ॥१२॥ दीक्षा अर्ध शताब्दी आई, सुखद शताब्दी भी आये। गुरु गणेश सह 'मुनि जिनेन्द्र' भी, यही भाव मन में लाये ॥१३।।
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श्रद्धा के दो बोल
है और नर के बिना नारी। इसके अतिरिक्त माता
के रूप में नारी के जो उपकार समाज पर हैं, उनसे -उपप्रवर्तक राजेन्द्र मनिजी कभी भी उऋण नहीं हो सकते । नारी ही पुरुष की
प्रथम शिक्षिका है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति
नहीं है कि प्रत्येक महापुरुष के निर्माण के पीछे एक प्राचीन भारतीय इतिहास के पृष्ठों का जब नारी का ही हाथ होता है। नारी नर की सच्ची अध्ययन करते हैं और उसमें जब नारी की स्थिति मित्र, वफादार साथी, मार्गदर्शक और प्रेरक होती का अवलोकन करते है, तो पाते हैं कि उस समय है। उस नारी के सम्बन्ध में हेय विचार शोभा नहीं नारी की स्थिति काफी सम्मानजनक थी। कई देते।
मामलों में वह स्वतन्त्र थी । उस पर कोई विशेष नारी त्याग की साक्षात प्रतिमा है, उसके मुकार प्रतिबन्ध लगे हुए नहीं थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी बले साधना और सेवा-समर्पण पुरुष नहीं जानता। nा उसका विशेष स्थान था । इसका प्रमाण ऋग्वेद में नारी जितनी कोमल होती है, वह उससे कहीं
रचित कुछ विदुषी महिलाओं की ऋचायें हैं । इतना अधिक दृढ व कठोर भी होती है। एक बार किसी होते हुए भी नारी को उस समय बाल्यकाल में पिता विषय पर जो निर्णय कर लिया, उस पर नारी अथवा भाई के संरक्षण में और विवाह होने के उप- सुमेरु की भांति अडिग-अटल रहती है। पुरुष को रान्त पति के संरक्षण में रहना पड़ता था। बिधवा तो एक बार अपने संकल्प से डिगाया जा सकता है। होने की स्थिति में उसे अपने पुत्रों के संरक्षण में किंतु नारी को उसके पथ से अलग करना, उसके रहना पड़ता था। किन्तु नारी को आध्यात्मिक संकल्प से च्युत करना संभव नहीं है। साधना की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की।
इसके अतिरिक्त नारी में शील, सदाचार,लज्जा, समय के प्रवाह के साथ समाज में भी परिवर्तन दया, क्षमा आदि अनेक सद्गुण हैं जो उसकी कीर्ति
आए और उसी के साथ नारी की स्थिति में भी में चार चाँद लगा देते हैं। प्राचीन काल से लेकर ( परिवर्तन आने लगा। मातृस्वरूपा नारी जिसके आज तक का नारी-जगत का इतिहास देखे तो हमें
लिए कहा जाता था-यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते अनेक ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके कारण हमारा तत्र देवताः-जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ इतिहास गौरवशाली बन गया है। उन सब महान देवताओं का वास रहता है। जैसे उदघोषों के स्थान सन्नारियों की नामावलो गिनाना यहाँ प्रासंगिक
पर नारी पर अनेक प्रतिबन्ध लगने लगे। ज्ञान प्राप्त प्रतीत नहीं होता। 2. करने के लिए प्रतिबन्धित कर दिया गया और नारी जहाँ तक जैनधर्म का प्रश्न है, जैनधर्म में नारी CAL को नरक की खान तक बता दिया गया।
को समान स्थान प्राप्त है। जैनधर्म में साधना की पर यह एक विडम्बना ही है कि जो नारी एक ओर दृष्टि से कोई भेदभाव नहीं किया गया है। यही
लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में तथा दूसरी ओर कारण है कि जैनधर्म में अनेकानेक महासतियाँ हुई शक्ति के प्रतीक रूप में सम्मानित थी वही नरक की हैं, जिन्होंने साधना के पथ पर बढ़ते हुए न केवल खान जैसे शब्दों से प्रताडित की जाने लगी। उसकी आत्मोकर्ष किया वरन् अनेक भव्य प्राणियों को भो गौरव गरिमा की किमी को चिन्ता नहीं रही। आत्मकल्याण करने के लिए प्रेरित किया। अधिक जबकि नारी नर से किसी भी स्थिति में कम नहीं विस्तार में न जाते हुए इतना ही कहना पर्याप्त है । नारी हर क्षेत्र में नर के साथ कन्धे से कन्धा होगा कि ब्राह्मी सुन्दरी ने बाहुबली, राजीमती ने मिलाकर कार्य करती है। नारी के बिना नर अधूरा रथनेमि को प्रतिबोधित किया। श्रेणिक को सत्य
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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मार्ग बताने वाली चेलना थी । चण्डप्रद्योत भगवान स्वयं तो इसके प्रति जागरूक रहती ही हैं अपनी महावीर की शरण में मृगावती के कारण पहुँचे। शिष्याओं को भी सदैव सचेत करती रहती हैं । 12 हरिभद्र को सन्मार्ग का बोध याकिनी महत्तरा ने इसके अतिरिक्त आप अपनी शिष्याओं के अध्ययन कराया और तुलसी को तुलसी रत्नावली ने अध्यापन के प्रति जागरूक रहती हैं। इसी का परिबनाया।
णाम है कि आपकी सभी शिष्याएँ/प्रशिष्याएँ उच्च जैनधर्म में नारी साधना पथ पर विकास करते
शिक्षा प्राप्त हैं और अध्ययन का यह क्रम आज भी हुए तीर्थकर पद तक पहुँच सकती है । इसका ज्व
निरन्तर चल रहा है। लन्त उदाहरण तीर्थंकर भगवती मल्ली हैं।
कुछ वर्षों से महासतियों के साधनामय जीवन जैन साध्वियों की एक सविशाल परम्परा री पर भा अभिनन्दन ग्रन्थों के प्रकाशन का सिलसिला है। आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर
__ आरम्भ हुआ है। अभी तक आचार्यों अथवा भगवान् महावीर तक और फिर वर्तमान तक देखें
विशिष्ट साधुओं को लक्ष्य कर ही इस प्रकार के
' आयोजन होते रहे हैं किंतु अब यह एक नई परम्परा Hा तो हम पाते हैं कि साधुओं की तुलना में साध्वियां - ही अधिक रही हैं । इतना होने पर भी आज साध्वी
चली है जो स्वागतयोग्य है । ऐसे प्रयासों के
माध्यम से जहां एक ओर साध्वी समाज का इतिसमाज का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं होता है । और आज भी समाज इस दिशा में उदासीन ही
हास प्रकट हो जाता है । वहीं अनेक अछूते विषयों
पर भी लेखन सामग्री उपलब्ध हो जाती है तथा बना हुआ है।
जिन महासतीजी के जीवन के वैशिष्टय के प्रति ज्ञानाराधिका, जपसाधिका, दया और सरलता ग्रन्थ समर्पित होता है, उससे समाज परिचित हो । की प्रतिमूर्ति, प्रेम और वात्सल्य की देवी, विनय- जाता है और उनके गण अनुकरणीय हो जाते हैं। विवेकसम्पन्ना, क्षमामूर्ति, मितभाषी, मधुर व्यवहारी,
इस अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से मैं सन्तोष प्रभावक प्रवचनकार, बालब्रह्मचारिणी, परम विदुषी महासती श्री कसमवतीजी म. सा. आचार्य का अनुभव कर रहा हूँ और इस अवसर पर मैं श्री अमरसिंह जी म० सा० के गच्छ की एक विदुषी
- महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा० का हार्दिक साध्वीरत्न हैं। अपने संयमी जीवन के आप पचास
: अभिनन्दन करता हूँ तथा यही शुभकामना करता से भी अधिक वर्ष व्यतीत कर चकी हैं। इस संयम- हूँ कि वे पूर्णतः स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हए दीर्घकालीन जीवन में आपने देश के दरस्थ एवं निकट काल तक जनशासन की सेवा करते हए अपने क्षेत्रों में विचरण करते हुए जैनधर्म की अच्छी .
के अनुयायियों को मार्गदर्शन प्रदान करती रहें । एक प्रभावना की है।
बार पुनः हार्दिक अभिनन्दन ! आपके जीवन की अनेकानेक विशेषताएँ हैं । व्यक्तित्व प्रभावशाली है । प्रवचन शैली मधुर और 7 प्रभावोत्पादक है । आपकी सबसे बड़ी विशेषता तो ऋण, व्रण, अग्नि और कपाय (दोष) इनका छोटायह है कि आपका हृदय करुणा से ओतप्रोत है। सा अंश भी हो, तो उससे सावधान रहना चाहिए। आप पर-दुःख कातर हैं। आप किसी भी प्राणी को
समय पाकर ये विस्तार पा जाते हैं। दुःखी नहीं देख सकती हैं।
-आवार्य भदबाहु संयमपालन के प्रति आप सदैव सजग रहती हैं। प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
(C)
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जीवेम शरदः शतम्
विश्व के रंगमंच में अनेकों नाटक मंडली आती हैं, जाती हैं। पर वही नाटक चिर स्थायित्व को प्राप्त होता है जिसमें जीवन को मोड़ने का दिशा दिग्दर्शन स्थायी भाव लिये होता है । जीवन बोध मिलता है। इस हरीतिमा भरे उद्यान में वही पुष्प आकर्षित करता है जिसके पास पराग हो, खुशनुमा भरा वातावरण हो । इसी प्रकार इस जीवन वाटिका में रस भरे वातावरण में अनगिनत पुष्प खिलते हैं, विकसित होते हैं व जमीं में विलीन बन जाते हैं। आने-जाने के आदिकाल से चले आ रहे इस क्रम के परम्परा में कोई भी नवीनता नहीं है | नवीनता वहाँ होती है जहाँ कुछ विशिष्टता विशेषता परिलक्षित होती हो ।
आना-जाना यही संसार का क्रम है । इस नश्वर असार संसार में कौन किसका है ? विसका कौन सगोत्री भाई बन्धु है । सभी स्वार्थ के वशीभूत हो उसके आसपास मंडराते रहते हैं पर यह जीव तो अकेला आया व अकेला जाने वाला है । पर उस प्राणी मानव का जीवन सार्थक माना जाता है इस धरातल पर जो पुनः नहीं आने के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा करता हो, संसार से विमुख बनकर आगे बढ़ता हो, भोगों से विमुख बनकर सर्वस्व त्याग की श्रेणी में आता हो ।
आज हम उन महापुरुषों के गुण गौरव गान गाते हैं जो जन्म-मरण के चक्रव्यूह से मुक्त होने के लिए संसार से उदासीन होकर राग-द्वेष की मुक्ति के लिए विराग पथ पर अपना कदम बढ़ाते हैं । दूब के समान हजारों बार जन्म लेते है, मर जाते हैं उनका भी कोई जीवन है ?
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- भगवती मुनि 'निर्मल'
जीव की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें अमर बनने की कला है परमात्मा बनने के बीजाणु हैं । महापुरुषों महासतियों का जीवन इसलिए श्रेष्ठतम माना जाता है, जिसका वृत्तान्त श्रवण कर,
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वृत्त को स्मरण करके प्राणियों को आनन्द मिलता है। उसी का जीवन, जीवन माना जाता है । जीवन का महत्व भौतिक धन से नहीं आंका जा सकता । श्रद्धाशील लज्जा संकोच श्रुत, त्याग और बुद्धि ये आध्यात्मिक धन है जिसके पास ये धन है वास्तव में वही धनी है । उसी का जीवन सफल माना जाता है ।
हम विदुषी बा० ब्र० महासति श्री कुसुमवतीजी म० का अभिनन्दन करते जा रहे हैं । जहाँ वीरता भरे व तलवारों के खनखाहट मचाने वाले देश की राजधानी उदयपुर में आपने अपनी आँखें खोलीं तो भक्ति की मधुर रागों साधु सन्तों के संगतियों में आपका शैशवकाल विकसित हुआ । संयोग जिस जीव को जैसा मिलता है, जैसा वातावरण होता है उसी वातावरण में वह अपने आपको ढाल देता है । आपके परिवार का वातावरण धार्मिकता से ओतप्रोत था । संसार की उदासीनता नश्वरता के गीत जहाँ सदा गाये जाते थे तो वहाँ संसार की उदासीनता के भाव मन में क्यों नहीं आयेंगे । आपके बाल्यावस्था की चंचलता में गंभीरता के भाव जम गये । चंचलता शौकीनता के स्थान पर उदासीनता, गंभीरता के भाव जम गये । धैर्यता, गंभीरता, वैराग्यता से आपने बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली । आप विदुषी महासति श्री सोहन कुंवरजी म० सा० की सुशिष्या बनी । बाल्य नाम का आवरण मिट गया। आज आपका सर्व विश्रुत नाम महासति श्री कुसुमवती जी म० अधिक प्रसिद्धि के शिखर पर हैं ।
आपका दर्शन सर्वप्रथम कब किया था यह स्मरण की गहराई में छिप गया है । पर इतना जरूर स्मृति पटल पर है कि मैं इस पथ पर कदम बढ़ा रहा था तो आप इस पथ पर कदम दृढ़ता से बढ़ा चुकी थीं। अब आप शिष्या प्रशिष्या की गुरुणी बन चुकी हैं। आपके इस अभिनन्दन समारोह मेरी अनन्त अनन्त शुभाशा !
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THAR
सरलता की मूर्ति
गतार्थ अजमेर से वहाँ पर पधारी थीं। मैं उस समय
वैराग्य अवस्था में था। गुरुदेव श्री के चरणारवृन्दों -उपप्रवर्तक प्रेम मुनिजी में रहकर धार्मिक अध्ययन कर रहा था। श्रमण संघ की विदुषी महासती श्री कुसमवती सन् १९७३ का वर्षावास गुरुदेव श्री का अजराजी म. से सन् १९७५ में पूज्य गुरुदेव घोर तपस्वी मर पुरी अजमेर में हुआ। उस वर्षावास में विदुषी रोशनलालजी म. के साथ ब्यावर नगर में मिलना महासती कुसुमवती जी, सद्गुरुणीजी श्री पुष्पवती हुआ। शास्त्रीय चर्चाओं के द्वारा मैंने पाया आपको जी और माताजी म० प्रतिभा मूर्ति श्री प्रभावती शास्त्र का गहरा ज्ञान है, आपके व्यवहार से मुझे जी म० आदि सती वृन्द भी वहाँ पर गुरुदेव श्री की मात्र अनुभव हआ कि आप सरलमना, स्वाध्यायी व सेवा सेवा हेतु विराज रही थीं। भोजन कर लौटते समय आदि के गुणों से युक्त हैं। आपने संस्कृत, प्राकृत, मैं महासती जी के दर्शनार्थ उनके स्थान पर जाता हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं का गहन अभ्यास था। महासती जी मुझे बहुत ही मधुर शब्दों में किया है साथ ही आपकी प्रवचन शेली अति प्रभावो- शिक्षा प्रदान करती थीं। वर्षावास के उपसंहार काल MR) त्पादक है। आपके प्रवचनों का श्रोताओं के हृदय में मेरो दीक्षा उल्लास के क्षणों में सम्पन्न हुई । मेरे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जहाँ-जहाँ भी आपने साथ ही वैरागिन बहन स्नेहलता ने भी दीक्षा ग्रहण चातुर्मास किये हैं वहाँ-वहाँ संघ एकता के कार्य हुए को और उनका नाम दिव्यप्रभा रखा गया। हैं, संगठन की भावना प्रबल हुई है। आपने भारत
वर्षावास के पश्चात् गरुदेव श्री अहमदाबाद (ॐ वर्ष के कई प्रदेशों में विहार व चातुर्मास करके ,
पधारे। वहाँ का वर्षावास पूर्ण कर पूना, रायपुर, जिन शासन का प्रभावना की है। आपकी तरह ही बैंगलोर मदास. सिकन्दराबाद. उदयपर, राखी का आपका शिष्या परिवार भी प्रतिभा सम्पन्न व चातर्मास सम्पन्न कर सन १९८१ में जब गरुदेव श्री प्रभावशाली रहा है।
पाली विराज रहे थे तब आप श्री ने पुनः गुरुदेव के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस सुनहरे अवसर पर दर्शन किये । सन् १९८३ में आपश्री का वर्षावास मैं यही मंगल कामना करता हूँ कि आप सदा स्वस्थ गुरुदेवश्री के सान्निध्य में हुआ और सन् १९८६ में रहकर जिनशासन की प्रभावना करते रहें। भी पाली में गुरुदेव श्री के सान्निध्य में वर्षावास
हुए। और सन् १९८८ में गुरुदेव श्री इन्दौर का वर्षावास सम्पन्न कर सन् १९८६ में उदयपुर पधारे
तो आपसे पुनः मिलने का अवसर मिला। जब भी गुणों की खान
मिले हैं तब स्नेह और सद्भावना के साथ मिले हैं।
महासती जी का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा -दिनेश मुनि
है, यह आल्हाद का विषय है। मेरी यही मंगल महासती कुसुमवती जी एक परम विदूषी कामना है कि महासतीजी सदा स्वस्थ रहकर जिनसाध्वी हैं। स्वभाव से सरल, वाणी से मधुर और शासन की निरन्तर प्रभावना करती रहें । हृदय से उदार । प्रथम दर्शन में ही दर्शक उनके चित्ताकर्षक व्यवहार से प्रभावित हो जाता है । मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन पुष्कर में किये । सद्गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म० अजमेर वर्षावास हेतु पधार रहे थे वे भी श्रद्धय गुरुदेव श्री के स्वा
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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गुणों के आगार
और संगीत तथा कला का प्रमुख केन्द्र है। जहाँ
पर अनेकानेक सन्तों, शूरवीरों, देशभक्तों और सती- 1 -नरेशमुनि जी साध्वियों ने जन्म लेकर साधना तपोयुक्त उदात्त
जीवन से वहाँ के कण-कण को आलोकित और है समय नदी की धार कि
गौरवान्वित किया। इस धरा को हो सन्तों की र जिसमें सब वह जाया करते हैं। जन्म भूमि और वीरों की कर्मभूमि होने का गौरव KE है समय बड़ा तूफान कि
प्राप्त हुआ है। सचमुच मेवाड़ ऋषि, महर्षि, सन्त, पर्वत भी झुक जाया करते हैं ।। तपस्वी व चिन्तकों की पवित्र भूमि है। वहाँ की अक्सर दुनिया के लोग
मिट्टी के कण-कण में, अणु-अणु में महापुरुषों के समय में चक्कर खाया करते हैं। तपःपूत व्यक्तित्व के शुभ परमाणुओं की सुगन्ध लेकिन कुछ ऐसे होते हैं
आ रही है । उसी गौरवमय परम्परा की लड़ी की जो इतिहास बनाया करते हैं। कड़ी में स्वनामधन्य जाज्वल्यमान तेजस्वी साध्वी
रत्न महासती श्री कुसमवतीजी एक हैं । लघुवय में जैन शासन की उज्ज्वल ज्योति आदर्श साध्वी साधना के कठिन अग्निपथ को अपनाकर निरन्तर रत्न श्रद्धय परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती उस पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाना आपकी पूर्व जी म० को कौन नहीं जानता ? सब जानते हैं उन्हीं जन्म की महान साधना व पुण्यवानी का प्रतीक है। की शिष्याओं ने गुरुवर्या के दीक्षा ५० वर्ष पूर्ण होने संयम के प्रशस्त मार्ग पर बढ़कर आप वहीं पर ही की प्रसन्नता में एक विशालकाय अभिनन्दन ग्रन्थ अवस्थित नहीं हुई, अपितु जीवन को निखारने के
निकालने का भागीरथ प्रयास किया है। मुझे भी लिए, वैराग्यभाव में अधिकाधिक वृद्धि करने के या उनके सम्बन्ध में कुछ लिखने को कहा गया है मेरे लिए आपने ज्ञान का तलस्पर्शी गहन अभ्य
ऊपर आपका महान उपकार है मुझे सर्वप्रथम ज्ञान, तप और त्याग के रंग में अपने जीवन को रंगा। दर्शन, चारित्र का श्रवण कराने वाली यही शक्ति साधना व संयम का दिव्य सम्बल लेकर अंगड़ाई है जिसके कारण मेरी भक्ति विकसित हुई है। लेती हई तरुणाई में भी निरन्तर आगे बढ़ती रही।
श्रमण संस्कृति की विरलधारा में भोग नहीं, प्रकाश; ___ मैं आपके किन गुणों का अंकन करू और किन
संग्रह नहीं, त्याग; राग नहीं, विराग; अंधकार नहीं, गुणों का अंकन न करूं यह एक गम्भीर समस्या मेरे समक्ष उपस्थित हुई तथापि “अकरणात मंद
प्रकाश; मृत्यु नहीं, अमरता; असत्य नहीं, सत्य; क्षोभ
नहीं क्षमा के सिद्धान्त में डुबकी लगाकर जीवन करण श्रेयः" प्रस्तुत उक्ति के अनुसार नहीं करने
को परिवर्तन किया। महान सरल आत्मा श्री से कुछ करना श्रेयस्कर है (Some thing is
कैलाश वरजी का अपनी शिष्या, प्रशिष्याओं better than nothing) अतः कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
के साथ मदनगज किशनगढ़ नगर में पदार्पण हुआ
था, तभी मुझे उनकी अन्तेवासी शिष्या परम आपकी जन्म स्थली राजस्थान की वीर भूमि विदषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी म० के संपर्क । मेवाड़ है। जिसका नाम इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, आपके प्रथम में बड़े सम्मान के साथ स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। दर्शन से मेरे मन जो आल्हाद उभरा था, उसकी यह वीर भूमि अपनी आन-बान और शान के लिए स्निग्ध स्मति से आज भी मन पुलकित हो उठता विश्व विख्यात है व जो त्याग, बलिदान, साहित्य है, और हृदय आदर से भर जाता है।
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o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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उस प्रथम दर्शन में ही मैंने पाया कि श्री कुसुम- विदुषी है पर विद्वत्ता का-किंचित् मात्र भी अभिवती जी म० सरलचित्त प्रसन्नवदन और मिलन- मान नहीं है। सार स्वभाव की,एक मनस्वी, यशस्वी, तेजस्वी और आपने अथक श्रम से शिक्षा के क्षेत्र में आशावर्चस्वी साधिका हैं। आपके सरल निश्छल और तीत प्रगति की है। आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, आत्मीयता पूर्ण व्यवहार से मेरा मन विभोर हो गजराती आदि अनेक भाषाओं की साधिकार 7EOS जाता था, मुझे लगा कि आप सहृदयता शालीनता प्रकाण्ड पण्डिता हैं । न्याय व दर्शन शास्त्र का भी तथा सौम्यता की एक जीवन्त प्रतीक हैं । आपसे गम्भीर अध्ययन है। जैन सिद्धान्ताचार्य जैसी कई
ज्ञान-ध्यान सीखने में मुझे गौरव व आनन्द की उच्च परीक्षायें समुत्तीर्ण की हैं । , अनुभूति होती थी। कई बार लम्बे समय तक
___आपका स्वभाव सरल है, आप में क्षमा, मृदुता, - वैराग्य काल में व पश्चात आपसे मिलने व साथ
समता सादगी प्रभृति आदि श्रमणी जीवन के गुण में रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
विशेष रूप से झलकते हैं। विनय आपके जीवन का ब्यावर में बहन सरोजकुमारी के पुनीत दीक्षा
मूल मन्त्र है । आपके दिल में दयालुता है, विचार प्रसंग पर दूसरी बार आपके दर्शन करने व चरणों
विशाल और स्वभाव सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं । आप में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उसी दिन की प्रकृति में प्रेम की प्रधानता है आपका जीवन आपके महिमा मण्डित व्यक्तित्व से मुझे दिव्य आक- गलाब की तरह सूवासित, नवनीत के सामान मृदु र्षण की अनुभूति हुई और मैंने-निश्चय कर लिया व कोमल, मिश्री के समान मीठा है । भौतिक चकाकि मुझे भी सांसारिक आसक्ति से विरक्त होकर चौंध के युग में भी प्रभूता प्रदर्शन से दूर रहकर साधना पथ पर अग्रसर होना और जीवन का लक्ष्य ।
आप शान्त स्वभावी, आध्यात्मिक साधिका के रूप बदलना है। जैसे एक कुशल माली नन्हें-नन्हें पौधों में आत्म कल्याण व लोक कल्याण के कार्यो में को जल प्रदान कर और रात-दिन उसका संरक्षण सतत संलग्न हैं। आपके उज्ज्वल अन्तःकरण में कर विशाल वृक्षों के रूप में परिवर्तित कर देता है भविष्य की सुनहली आशाएँ हैं, वर्तमान में गति वैसे ही श्रद्धे या सद्गुरुणी रूपी माली ने मेरा सिंचन शील कदम हैं और भूत की भव्य अनुभूतियाँ हैं । कर विरक्ति भावना का विकास किया है। आप “तिण्णाणं तारियाणं" के पावन लक्ष्य की पूर्ति
महासती श्री कुसुमवती जी स्थानकवासी ही के लिए सदा जागरूक रहती हैं, दीन दुखियों के । नहीं अपितु, सम्पूर्ण जैन समाज की एक ज्योतिर्मान प्रति आपके मानस में करुणा की गंगा सदा प्रवाहित निधि हैं । आपके ओजस्वी, तेजस्वी कृतित्व से रहती हैं। किसी व्यक्ति को जब अन्तर्वेदना से परिसमाज भली-भाँति सुपरिचित है। आप विलक्षण व्याकुल देखती हैं, तो उसके वेदनाजनित परिताप प्रतिभा की धनी उत्कृष्ट साधिका हैं। आप में से आपका कोमल हृदय नवनीत की भांति पिघल विनय सरलता, सहज स्नेह कूट-कूट कर भरा है। उठता है, परहित साधना में यदि कहीं कष्ट का मैंने महासती जी को बहत ही सन्निकटता से देखा भा सामना करना पड़ ता उ
भी सामना करना पड़े तो उससे कभी भी आप जी व परखा है।
नहीं चुरातीं । “परोपकाराय सतां विभूतयः" के
समुज्जवल आदर्श को साकार बनाकर छोड़ती हैं, 'जहाँ अन्तो तहा बाहि जहा वाहि तहा अन्तो' विघ्न और बाधाओं की चट्टानों को चीरती हुई के अनुसार आप जैसी अन्दर हैं वैसी ही बाहर हैं। आगे बढ़ना आपके जीवन का परम लक्ष्य है । जड़ता ) आपके जीवन में बहरूपियापन बिल्कुल नहीं है। व स्थिति पालकता आपको कतई पसन्द नहीं हैं आप स्नेह सौजन्य की साक्षात मूर्ति हैं। आप आप अपने जीवन के अमूल्य क्षण प्रमाद, आलस्य,
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निरर्थक वार्तालाप में, इधर-उधर की विकथा में अभिनन्दन योग्य व्यक्तित्व ध्यतीत नहीं करती। आपकी प्रतिभा, प्रज्ञा, मेधा और स्मरण-शक्ति तीक्ष्ण हैं, आपका चिंतन-शरद
-उदय मुनि 'जैन सिद्धान्ताचार्य' ke कालीन चाँदनी के समान निर्मल है, ज्ञान की अगाध
यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हई कि महासती गंगा हैं, वैराग्य जिनका अंगरक्षक है, संयम जिनका जीवन साथी हैं, आपने साम्प्रदायिक संकीर्णताओं।
श्री कुसुमवती जी म. के संयमी जीवन के ५० वर्ष की दीवारों की तोड़कर संघीय एकता के
पूर्ण होने पर उनके अभिनन्दनार्थ 'कुसुम अभिनंदन महामन्त्रोच्चार में अपना भी स्वर मिलाकर संगठन
ग्रन्थ' का प्रकाशन हो रहा है। की आवाज को बुलन्द किया। जंगल में मंगल कर संयमी जीवन एक प्रेरणास्पद एवं सार्थकजीवन देने वाले आपके चरणों ने अब तक अमरगच्छ को होता है। ऐसे पथ को सांसारिकता के बन्धनों से साधिकाओं में सबसे अधिक हजारों मील की मुक्त होकर अल्पायु में ही अपना कर जो मानव पदयात्रा करके भारत के विभिन्न अंचलों में दीर्घ समय तक संयम एवं धर्माराधना में लीन भगवान महावीर की वाणी का प्रसार और प्रचार रहते हैं, उनका सत्कार-अभिनन्दन कर समाज करके जन-जन तक पहुँचाया है, विद्वेष की आग कृतार्थ हो जाता है। महासती जी म. सा. नेk भड़कती हो, ऐसे अवसर पर भी आप शान्ति से मात्र बारह वर्ष की अल्पायु में दीक्षित होकर विदुषी काम लेती हैं, आपके जीवन का मुख्य ध्येय है महासती श्री सोहन कुवर जी म. एवं गुरुदेव श्री (Simple living and high thinking) सादा उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के सुसान्निध्य जीवन उच्च विचार । आपके जीवन में आचार, में विशद् अध्ययन चिन्तन, मनन, ज्ञानार्जन किया विचार और उच्चार की त्रिवेणी सदा एक रूप, एवं धर्म प्रचार-प्रसार हित अनेक प्रान्तों में पैदल एक रस होकर बहती हैं, वद्ध अवस्था होते हुए भी विहार कर भवीजनों को धर्मदेशना प्रदान की आप मन से पूर्णतः स्वस्थ, उत्साही, प्रयत्नशील और इस प्रकार एक विदुषी, अध्ययनशीला महादृढ़ मनोबली हैं। आयु से वृद्ध जरूर हैं पर युवा
सती के रूप में समाज में अपने ज्ञान-ध्यान, संयमशक्ति से आगे हैं । धर्मसाधना आपका जीवन लक्ष्य
- साधना की सुगन्ध फैलाई। वस्तुतः ऐसे व्यक्तित्व हैं, दृढ़निष्ठा आपका प्रगति-पथ हैं, विवेक और अनुकरणीय, पूजनीय एवं अभिनन्दन योग्य ही 11 विचार आपके मार्गदर्शक हैं। यश प्रतिष्ठा मान
होते हैं । शासन देव महासती जी को दीर्घ संयमी सम्मान आपकी अनुगामिनी हैं। आप में युवा जैसा जीवन प्रदान करे, इन्हीं शुभ भावों के साथ। जोश व वद्धा जैसा होश है। आप में बालक जैसी सरलता युवा जैसी संकल्पशक्ति और साहस तथा वृद्ध जैसा गहन अनुभव है, आप एक में अनेक व अनेक
सारद सलिलं व सद्ध हियया. में एक हैं । आपके मंगलमय दीक्षा के ५० पावन बसंत
विहग इव विप्पमुक्का.... त्याग वैराग्य के साथ व्यतीत होने पर आपका श्रद्धा वसंधरा इव सव्व फास विसहा... से अभिनन्दन हैं। आपके सान्निध्य में आपकी १००वीं दीक्षा जयन्ती का सौभाग्य संघ को प्राप्त हो इसी
--मुनिजनों का जीवन-शरदकालीन नदी के
जल की तरह निर्मल, पक्षी की भांति प्रतिबन्धमंगल पुनीत पावन शुभ भावना के साथ !
रहित और पृथ्वी की भांति सहनशीलता की मूर्ति तुम जिओ हजारों साल,
होता है। ___ हर साल के दिन हो पचास हजार !!
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) शुभ कामना ।
--पं० श्री हीरामुनिजा हिमकर'
अस्थिरं जीवनं लोके, अस्थिरं धन-यौवनं । अस्थिरा पुत्रदाराश्च, धर्म कीर्ति द्वयं स्थिरम् ।।
सतीजी का ज्ञान दर्शन चारित्र निर्मल है, इन्हीं रत्नत्रय का अभिनन्दन किया जा रहा है। आपश्री चिरंजीवी बन जैन धर्म की जाहोजलाली करें, यही मेरी शुभ कामना तथा श्रद्धा सुमनांजलि अर्पित है।
सती सुकुमाला श्री कुसुमवती जी म० का पाबन जीवन सहज रूप से लोकप्रिय बना रहा है। यही मूलभाव है जो जैन जनता आपश्री का हृदय
से अभिनन्दन कर रही है। सतीजी का मन सरल, है वचन में वह जादू है जो सभा प्रवचन सुन मंत्र
मुग्ध रह जाती है। जीवन जिनआज्ञा अनुसार तैयार हो जाये फिर मन की धारी जरूर पार पड़ती है । कहा भी है
साफी की सुधरे सदा, कभी न गोता खात । कभी न पड़े पाधरी, मन मैले की बात ।।
वि० सं० १६६३ के फाल्गुन में महासती जी ने संयम प्राप्त किया और वि० सं० १९६५ का पोसवदी ५ के दिन मैंने भागवती दीक्षा स्वीकार की। यही कारण है कि लम्बे समय से मैं सतीजी का जीवन विकास देखता आ रहा हूँ। सतीजी का हर कार्य प्रगति पर रहा है यह पूर्वकृत पुण्य का फल
वन्दन शत-शत बार
-साध्वी हर्षप्रभा
श्री कुसुमवती गुणवान,
वन्दन शत-शत बार... माता कैलाश की लाडली,
पिता गणेश कुल अवतार"" उदयपुर में जन्मिया,
मेवाड़ प्रान्त उजियार... कुसुम ज्यों आप खिल रह्या,
हाँ सारे विश्व मंझार". लघुवय में संयम लिया,
है तैयार वैराग्य अपार सोहन सती की शिष्या प्रथम,
ये श्रमग संघ शृंगार"" शिष्या आपकी तीन हैं,
तीनों ही गुण भण्डार" मासी गुरुणी युग-युग जोओ,
सदा होवे जय-जयकार" अभिनन्दन करू आपका,
हर्ष को है हर्ष अपार".
नैवाकृति फलति नैव कुलं न शीलं,
विद्यापि नैव न च यत्न कृतेऽपि सेवा। भाग्यानि पूर्व तपसा खलु संचितानि,
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ।। भाग्यवंत वही है जो जीवन सुखमय पले फिर आत्म कल्याण में आगे बढ़े। कहा भी है
सरस-सरस मधुकर लहे, जो सेवे वनराय, घुण सूं जाणे जीवड़ो, सूखा लक्कड़ खाय ।
सतीजी लघुवय में संयम ले सद्गुरुणी सा० श्री सोहनकुंवरजी म. सा० का नाम रोशन कर दिया। आपश्री की शिष्याएं भी सभी शिक्षाशील, विनीत एवं यशस्विनी हैं । यश ही संसार में अमर बना रहता है । कहा है
ल
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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अभिनन्दन के पुण्य पलों में ।
___-श्री गणेश मुनि शास्त्री __ धर्म का स्वरूप मनुष्य के विचारों और आचारों से जाना/पहचाना जाता है। विचारों की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझना। 'आत्मवत सर्वभूतेषु' की भावना रखना, यही आत्मधर्म है । समता, सहिष्णुता, सेवा, सहयोग, साधना, दया, प्रेम, भाईचारा और भलाई के विचारों ने ही समाज को जीवित रख छोड़ा है । यदि ये गुण न होते तो न समाज होता और न हम आज इस अवस्था तक पहुँच पाते।
दूसरा पक्ष आचार का है। केवल विचारों से हो नहीं किन्तु आचार में भी उसका अवतरण होना आवश्यक है । धर्म की बातें बनाना, उपदेश देना, भाषण देना, पुस्तकें लिखना एक अलग बात है और उसे अपने जीवन में ढालना एक अलग बात है । आज इस वैज्ञानिक और भौतिकता के युग में जहाँ कदम-कदम पर भोगोपभोग सामग्री सहज उपलब्ध होते हुए भी आत्म-साधक, संयम के महापथ पर अविकल रूप से अपने कदम बढ़ा रहे हैं। यह धर्म का आचार पक्ष है । कहा भी है-आचारः प्रथमो धर्मः अर्थात् आचार ही मनुष्य का प्रथम धर्म है।
जीवन में विचार और आचार की पवित्र गंगा प्रवाहित होती है तो सहज ही आनन्द की अनुभूति होने लगती है । सद्गुण जीवन से सौरभ महकने लगता है। अतएव समाज में अच्छाइयों का सम्मान आदर हो। आचार प्रतिष्ठित हो । सद्बुद्धि और समता का साम्राज्य स्थापित हो और जो इस तरफ अपने कदम बढ़ा रहा हो उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाना, यह समाज का प्रथम कर्तव्य है। । इससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है तथा जिनशासन की प्रभावना में अभिवद्धि होती है।
सादा जीवन उच्च विचार वाली ऋजुमना परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म० के विचार और आचार की पवित्रता के द्वारा जनता के लिए वे श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई हैं । आपका संयमी जीवन सहजता/स्वाभाविकता/सरलता/सहिष्णुता और सुमधुरता की महक से महक रहा है। आपके अन्तस्तल से प्रवाहित होने वाली अध्यात्म भावधारा जन-मन को सहज ही आकर्षित/प्रतिबुद्ध करती है । म
बाल्यावस्था में ही दीक्षिता होकर साध्वोचित सद्गुणों के कारण महासतीजी म० ने आशातीत आध्यात्मिक ऊंचाइयां अजित की हैं। आपके उपपात में बैठने वाला सहज ही आनन्दानुभव करता है। आपकी साधना से सनी-रसपगी चिन्तनधारा का रसपान करने वाला साधक अनायास आत्मविकास के पथ पर अग्रसर होता है। मिश्री-से मीठे/मधुर बोल सुनते-सुनते श्रोताओं के मन-कमल खिल उठते हैं।
__ समता विभूति महासतीजी की ललित-लेखनी समय-समय पर गद्य और पद्य में शक्तिशाली स्रोत के रूप में अवतरित होती है जिसकी रसानुभूति पाठकगण करते रहते हैं । महामना महासतीजी म० का मंगलमय/प्रेरक मार्गदर्शन साधक/साधिकाओं को प्राप्त होता रहता है जिससे उनमें बल/शक्ति/उत्साह का संवर्धन होता है।
समता साधिका, संयम आराधिका परम विदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी म० के दीक्षा अर्ध शताब्दी के पुण्यपलों में अभिनन्दन समारोह का शुभ आयोजन एवं कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से मेरा हृदय आनन्दविभोर है। मैं महासतीजी म. के प्रति उनके अनन्त भविष्य को सुखद-मंगलकामना करता हूँ इसी आशा/विश्वास के साथ।
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श्रमणा परम्परा की दिव्य ज्योति
-श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ' संसार में सदा काल से त्यागी ज्ञानी गुणियों का सम्मान/अभिनन्दन होता आया है और इसी पावन-परम्परा में आज समाज जिनका अभिनन्दन करने जा रही है वह हैं-वन्दनीय/अभिनन्दनीय वात्सल्य मूर्ति परम विदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी म०। आज आपके त्याग तपोमय संयमी जीवन की किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो रही हैं।
'समता सर्वभूतेषु' एवं 'भारण्ड पक्खी व चरेपमत्त' के सिद्धान्त को जीवन में साकार रूप देने वाली महासतीजी एक आलोकमयी दिव्य ज्योति हैं जिनके निर्मल ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रकाश से चतुविध संघ ज्योतित हो रहा है। सेवा समता साधना की त्रिवेणी संगम के कारण आपका संयमो जीवन तीर्थराज प्रयाग की भाँति पवित्र तथा दर्शनीय बना हआ है। जहाँ हजारों हजार भक्त/साधकों को यथार्थ जीवन जीने का मार्गदर्शन प्राप्त होता है । सादा जीवन उच्च विचारों में जीने वाली इस महान साधिका को मैं लगभग अट्ठाईस वर्षों से देख रहा हूँ और उनके विचार और व्यवहार से भलीभाँति परिचित हूँ ।
__ क्रान्तिकारी जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी म० को पावन परम्परा की महान साधिका एवं चन्दनबाला श्रमणी संघ की प्रमुखा अध्यात्मयोगिनी महासती श्री सोहनकुवरजी म० की प्रधान शिप्या रत्न हैं महासती श्री कुसुमवती जी म० । आपने अपनी जन्मदात्री के संग लघुवय में संयम ग्रहण कर द्वितीया के चाँद की भाँति विकास करती हुई विनय विवेक द्वारा संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, गुजराती आदि विविध भाषा ज्ञान में निपुणता अर्जित की है । जैनागमों का गहन ज्ञान है अतः प्रवचनों में शास्त्रों की गहन बातें आप सहज सरल भाषा में प्रस्तुत करती हैं जो सबके लिए बोधगम्य
ऋजुमना समताविभूति महासतीजी के जीवन की सहजता/सरलता दर्शनीय एवं अनुकरणीय है। आपके निश्छल/निर्मल व्यवहार से सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक इन्सान प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । आप जिनशासनोद्यान का एक महकता/खिलता सुरभित कुसुम हैं जिसकी महक से श्रमण संघ को श्रमणी परम्परा महक रही है।
परम विदुषी महासतीजी म० का व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रभावशाली रहा है । आपने जहाँ-जहां भी विचरण किया है एक अनोखी छाप छोड़ी है । ऐसी विलक्षण/विचक्षण प्रतिभामूर्ति साध्वीरत्न वस्तुतः श्रमण संघ की एक महान निधि हैं/धरोहर हैं।
_प्रतिभामूर्ति महासतीजी महाराज की विदुषी शिष्याओं में महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. एवं महासती श्री दिव्यप्रभा जी म. साध्वी संघ में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखती हैं। विदुषी महासती श्री दिव्यप्रभा जी म. जो पी-एच. डी. हैं, प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ की प्रधान सम्पादिका हैं। वो साधुवाद के योग्य हैं जिन्होंने इस भगीरथ कार्य को हाथ में लेकर सम्पन्नता के शिखर पर पहुँचाया । ग्रन्थ में श्रेष्ठ सामग्री का चयन किया गया है। कुछ लेख प्रसिद्ध साहित्यकार पूज्य गुरुदेव श्री गणेशमुनिजी शास्त्री के सान्निध्य में मुझे भो अवलोकन करने का सुअवसर मिला जिससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ अतीव उपयोगी, पठनीय व संग्रहणीय बनेगा, साथ ही जन-जन का मार्ग प्रशस्त करेगा।
समादरणीया महासतीजी म० के दीक्षा अर्धशताब्दी के पुण्य प्रसंग पर हम आपके स्वस्थ दीर्घायु होने की कामना करते हुए शासनेश प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वो दीक्षा शताब्दी भी मनाने का समाज को शुभ अवसर प्रदान करें। इसी हार्दिक मंगलकामना के साथ"":
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
(263 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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युग युग जीवें महासती
- श्रमण विनय कुमार 'भीम'
परमविदुषी प्रवचन भूषण साध्वी रत्न श्रीकुसुमवतीजी महाराज स्थानकवासी श्रमण संघ की एक प्रभावशाली साध्वी हैं। मैं एक बार गुरुदेव जैन भूषण व्रजलालजी महाराज, गुरुदेव युवाचार्यश्री के साथ ब्यावर में था उस समय महासती श्री कुसुमवतीजी महाराज से मिलन हुआ था । व्यावर स्थित कुन्दर भवन में प्रवचय के दौरान महामती के ओजस्वी महत्वपूर्ण प्रवचन सुनने का मौका मिला। संयम के पचास वर्ष होने पर समाज संघ श्रावक वर्ग आपका अभिनन्दन करना चाहता है । हमारे श्रमण संघ के उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज एवं उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज की साध्वी समुदाय में महासती श्री कुसुमवतीजी का प्रमुख स्थान है । वैसे हमारे भारतीय इतिहास में शुरू से नारी का उज्ज्वल इतिहास रहा है । आगमों, पुराणों में, वेदों में नारी के गौरवपूर्ण आदर्श मिलते हैं। जैन जगत में नारी की गाथाएँ स्थान-स्थान पर मिलती हैं। मुझे अत्यन्त खुशी है, एक सती का अभिनन्दन किया जा रहा है । हमेशा गुणियों का गुणानुवाद होता रहा है । आपने श्रमण संघ में अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाया | साध्वी श्री ने अनेक परीक्षाएँ दीं । हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषा की जानकार हैं । परम विदुषी साध्वीरत्न दिव्यप्रभा कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन कर रही हैं । यह ग्रन्थ छपकर समाज में आएगा तो हर जैन समाज के लोगों को सतीजी के जीवन से प्रेरणा मिलेगी । कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ लोकप्रिय बनें यह मेरी शुभकामना ।
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शुभाशीर्वचन
महासती श्री शीलकुंवर जी महा.
त्याग बगीचे,
वीर- प्रभु के एक अनोखा सुमन खिला । महक फैल रही दिग - दिगंत में देखी जिसकी अजब कला ।
कोठारी वंश को उज्ज्वल कीना 'कुसुमवती जी' महासती । सोहन कुँवर गुरुणी-सा तब, जिनकी भी थी गजब मती ।
उनके वरद हस्त की छाया, मिली आपका भाग्य बड़ा । नत मस्तक चरणों में सीखा, ज्ञान वैराग्य का रंग चढ़ा ।
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श्यामवर्ण ज्ञान से मोटे, तन तो दिखता छोटा है । सम्पर्क पा जन बोल उठे, अहो, जीवन इनका मोटा है ।
विहार क्षेत्र विशाल तुम्हारा, जन-जन को सबोध दिया । शिष्या प्रशिष्या को योग्य बना, जीवन का उत्थान किया ।
दीर्घायु बन जिनशासन की सेवा में तत्पर रहना । सफल साधना बने तुम्हारी, शीलकुँवर का है कहना ।
साध्वीरत्न ग्रन्थ
प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंना
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NROHXEOAC
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एक महान जीवन गौरव रही है। धर्म, समाज, संघ, परिवार में नारी
नारायणी के रूप में प्रतिष्ठित रही है। -महासती श्री पुष्पवती जी
श्रया सद्गरुणी जी श्री सोहन कुवर जी म. सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण महावीर ने अपने पावन
का जीवन त्याग, तपस्या, सयम सेवा का एक ऐसा
आलोक स्तम्भ था जिसमें पवित्रता और प्रशम रस । प्रवचन में यह वज्र आघोष किया कि जितना पुरुष
की किरणें विकीर्ण होती थीं। वे युग-युग तक आध्यात्मिक समुत्कर्ष कर सकता है उतना ही नारी
मानव जीवन को ऊर्ध्वगामिता का पावन सन्देश भी कर सकती है। उन्होंने चतुर्विध संघ की संस्था
सुनाती रहीं। उन्हीं के चरणारविन्दों में मैंने तथा पना की । उसमें दो संघ नारी से सम्बन्धित हैं। यह
ज्येष्ठ गुरु बहिन कुसुमवतीजी ने आहती दीक्षा ग्रहण एक ऐसी मिशाल है जो अन्यत्र ढूंढ़ने पर भी नहीं
की। उन्हीं के नेश्राय में रहकर ज्ञान-ध्यान की मिल सकती।
आराधना की। आज जो कुछ भी है उसी सद्गुरुणी __नारी शक्ति का अक्षय स्रोत है। वह चन्द्रकान्त का आशीर्वाद का ही सुफल है। मणि की तरह अपनी दिव्य किरणों से जन-जन को ।
__महासती कुसुमवती जी मेरी गुरु वहिन रही पथ-प्रदर्शन करती है। अतीत के वे स्वर्ण पृष्ठ इस हैं। उन्होंने मेरे से पूर्व दीक्षा ग्रहण की। साथ ही बात के साक्ष्य हैं कि बाह्मी, सुन्दरी की सुरीली स्वर हमारा परस्पर अत्यधिक स्नेह रहा और वर्षों तक लहरियों ने बाहुबली को जाग्रत किया। राजीमति साथ में हमने संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी, जैन दर्शन और के ओजस्वी व तेजस्वी वचनों ने रथनेमि को प्रबुद्ध
नाम का प्रबुद्ध अन्य दर्शनों का अध्ययन किया। अध्ययन करने किया।
पर भी आप में ज्ञान का अहंकार नहीं है। कुशल __ कमलावती के चिंतन ने राजा इक्षकार को प्रवचन की होने पर भी आपमें सरलता-सहृदयता सत्पथ पर आरूढ़ किया। याकिनी महत्तरा के उदबोधन ने आचार्य हरिभद्र को सत्य के कठोर कंटका
मुझे यह जानकर अपार आल्हाद हुआ कि मेरी कीर्ण मार्ग पर आगे बढ़ने को उत्प्रेरित किया।
गुरु बहिन का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रत्नावली के उपालम्भ ने तुलसीदास को सन्त
__रहा है। जिस ग्रन्थ में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व
र तुलसी बनाया। इस प्रकार सहस्राधिक उदाहरण हैं ।
ह उजागर होगा। मेरी यही मंगल कामना है कि वे जिसमें नारी अपनी उदारता सहृदयता स्नेह
ह सदा-सर्वदा निस्पृह निरपेक्ष भाव से साधना के पावन और सद्भावना से जन-जन के मन में दिव्य तेज का
_पथ पर निरन्तर अप्रमत्त भाव से बढ़ती रहें, और । संचार करती रही है।
अपने ज्ञानादि सद्गुणों की सौरभ दिग् दिगन्त में __ चाहे क्रान्ति हो, चाहे शान्ति हो दोनों ही स्थि- फैलाती रहें। वे चिरंजीवी बनें । और उनके तियों में व्यक्ति भ्रांति के चक्कर में न उलझे अतः जीवन सुमन की लुभावनी महक जन-जन को वह अपना शानदार दायित्व का निर्वाह करती रही लुभाती रहे। है। नारी के विविध रूप रहे हैं। वह कभी ममतामयी माँ रही है तो कभी सहज स्नेह प्रदान करने वाली भगिनी रही है। तो कभी श्रद्धा स्निग्ध सद्भावना को प्रदान करने वाली कन्या रही है। तो कभी सर्वस्व समर्पित करने वाली सहधर्मिणी भी
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
0: साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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___ सद्गुण गुलदस्ता-कुसुमवती जी म.
ऊर्जस्वल-व्यक्तित्व -परम विदुषी चांद कुवर जी म. सा. -उपप्रवतिनी साध्वी श्री कौशल्याजी महाराज महान्-आत्माएँ वे ही होती हैं जो कि शुभ
फूल तो बहुत खिलते हैं, कृत्य दीप जलाकर अपने कर्मक्षेत्र को जगमगा देते
सुगन्ध देता है कोई कोई। हैं उन्हीं में से स्वनामधन्य विदुषी साध्वी पू. कुसुम
पूजा तो बहुत करते हैं, वती जी म. सा. जो अमोल माधुर्य भावों के स्तबक की भांति चुना हुआ सद्गुणयुक्त गुलदस्ता है जो
पूजनीय बनता है कोई कोई ॥ | अनवरत 'कसम' की ही भांति खिलकर संसार-भर शस्य श्यामला भारत वसुन्धरा ऋषि-मुनियों में अपनी गुण सुरभि को संसार भर में लुटा रहे ।
है की प्रसव भूमि रही है। अनेक जाज्वल्यमान रत्न L
मणियों ने विश्व को निज आलोक से आलोकित 'यथा नद्याः स्यंदमाना समुद्रः' जैसे नदियाँ
किया है । रत्नों की श्रृंखला में एक विलक्षण रत्न बहते-बहते समुद्र में समाहित हो जाती हैं। वैसे
है-परम श्रद्धया, महामहिम, परम विदुषी । महान आत्मा की प्रवाहमान जीवनधारा लोकड़ित
महासती श्रीकुसुमवती जी म. सा.। एवं जनकल्याण करती है वैसे ही आपने सरिता आप श्री यथानाम तथागुण हैं। आपका एवं मेघ की तरह शुष्क जीवन में नवचेतना का
आनन सदैव कुसुम की भांति प्रफुल्लित रहता है है संचार करके नीरस जीवन को सरसब्ज बनाकर,
तथा मन शान्ति,ज्ञान और विनम्रता आदि विशिष्ट मन-वच-कर्म में अमृत का झरना बहाकर जन
गुणों से ओत-प्रोत है। मानस को आप्लावित किया।
कान्तिमान श्याम वर्ण, भव्य ललाट, मंझला __आप संयमी क्षणों को स्वर्णमय बनाने प्रतिपल
कद, सौम्य-मुखाकृति, तेजोमय नेत्र, ब्रह्मचर्य का
अखण्ड तेज, ऐसा मन-भावना स्वरूप देखते ही जाग्रत रहे हो, ज्ञान रश्मियों को फैलाकर जन-मन को आलोकित किया है, आपके इन शुभ कृत्य व
नयनों के मार्ग से सीधा हृदय में उतर जाता है। गुणों के प्रति हृदय गद्गद् हो जाता है, अन्तर्मन से
दया, करुणा, अनुकम्पा, सेवा, सद्भावना का दिग्
दर्शन आपके हर व्यवहार में होता है। आपके । यही शुभकामना है कि आपका संयमयात्रा पथ शुभ कृत्य-सुरभि से महकता रहे जिनशासन सेवा
अनेकानेक गुणों की सौरभ से मैं बहुत ही प्रभावित
हूँ। आपके व्यक्तित्व में सब कुछ सुन्दर ही सुन्दर हेतु दीर्घायु-चिरायु बने।
है। विचारों में चुम्बक जैसा आकर्षण, वाणी में । 'कुसुमवत्' है जीवन आपका,
महकते सुरभित कुसुमों सा वर्षण और कर्म में योगी सद्गुणों ने पाया विस्तार। सी एकाग्रता, सीधा-सादा रहन-सहन, सीधा सरल | अभिनंवन वेला में स्वीकारो,
मधुर व्यवहार, निश्चय ही आपके पावन पवित्र शुभकामना का उपहार । व्यक्तित्व का एक मधुर परिचय है।
सरलता सुचिता व्रत साधना, विमलता निर्लेप अकामता । साध्वी कुसुमवती कुसुम समान हैं, विनय-विज्ञ-विवेक. वितान है ।।
प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चना
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आपश्री को बाल्यावस्था से ही संसार की विनश्वरता, क्षणभंगुरता देखकर आपके मन में विरक्ति की भावना उत्तरोत्तर दृढ़ होती गई । दृढ़ संकल्प व्यक्ति को एक न एक दिन उसके लक्ष्य स्थल तक पहुँचा ही देता है । यथोचित समय आने पर आपश्री ने अल्पावस्था में ही साधु जीवन अंगीकार करके गरु चरणों में जैनागमों का गहन अध्ययन- चिन्तन और मनन किया । जैनागमों के साथ अन्य भारतीय दर्शनों का भी सूक्ष्म अध्ययन किया तथा संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत, गुजराती, पंजाबी एवं राजस्थानी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया ।
ज्ञानप्राप्ति के उपरान्त अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा भगवान महावीर के सन्देश को घर-घर तक प्रसारित करने हेतु ग्राम-ग्राम, नगर-नगर की पद | यात्रा करते हुए समाज सुधार के धार्मिक-सामाजिक 3 कार्य सम्पन्न करके जन-मानस में एक नव चेतना उद्बुध की है। हीरा अपनी चमक से स्वयं प्रकाशित होता है और मणि अपनी चमक से तम हरण करती है । अस्तु, आप अपने सद्गुणों से स्वयं जैन जगत में और श्रमणी समुदाय के मध्य में | प्रकाशमान हैं ।
जिस प्रकार पारस के संस्पर्श से लोहा विशुद्ध | स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार महापुरुषों के सम्पर्क में उनसे सम्बद्ध देश-काल, समाज परिवार और व्यक्ति भी चमत्कृत होकर प्रतिष्ठा और परिचय का अधिकारी बन जाया करता है ।
मुझे आपश्री को अति निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। आपका जीवन सदा एक | रूप है
जहा अन्तो तहा बाहिं । जहा बाहिं तहा अन्तो ॥
जैसा पवित्र मधुर हृदय है वैसी ही कोमल मीठी वाणी है, वैसा ही कोमल हृदय है ।
आप एक पहुँची हुई साधिका हैं । संयम साधना का अमिट तेज, जैन- जैनेतर दर्शनों का अगाध प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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पाण्डित्य होने पर भी आप विनम्र और मितभाषी हैं । आपकी वाणी में मधुरता, निर्मलता और स्निग्धता झलकती हैं । आप अप्रमत्त भाव से साधना में तल्लीन रहती है । आपके जीवन में गुणों की माला इस प्रकार गूँथी है जिसका ओर-छोर नहीं, जिधर से पकड़ो सर्वत्र गुण विद्यमान हैं आपका व्यक्तित्व एक अमूल्य हीरे की भाँति देदीप्यमान है ।
किसी साधक के दिव्य गुणरूपी सुमनों को उसी प्रकार एक छोटे से लेख में एकत्रित नहीं किया जा सकता, जैसे माली बगीचे के सभी मनोहर फूलों को एक ही गुलदस्ते में संकलित नहीं कर सकता । जैसे गागर में सागर भरना असम्भव है, वैसे ही आपश्री के असीम गुणों का वर्णन करना मेरी लेखनी से बहर है ।
श्रद्धामूर्ति परम पूज्या महासती श्री के चरग कमलों में अपने हृदय की अनन्त श्रद्धा समर्पित करती हुई अपने को गौरवशालिनी मानती हूँ । हमारी यही मंगल कामना है कि युग-युग तक आपश्री भौतिक युग में धार्मिक श्रद्धा का सुमधुर पाठ पढ़ाते रहें और श्रमण संघ की कीर्ति पताका को ऊँचा उठाते रहें। आपका हार्दिक अभिनन्दन ! अभिनन्दन !!
एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
- विदुषी साध्वी उमरावकु वरजी 'अर्चना'
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि परम विदुषी शासन प्रभाविका साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी महाराज की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन प्रसंग पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है।
अध्यात्मयोगिनी, प्रवचनभूषण, साध्वीरत्न कुसुमवती जी महाराज गत ५२ वर्षों से भारत के
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विभिन्न प्रान्तों में पैदल परिभ्रमण कर जनता जनादन के अन्दर सत्य अहिंसा का जो प्रचार- प्रसार किया है, वह स्तुत्य है, आप सर्वधर्म समन्वय की समर्थक हैं, जिस प्रकार अग्नि का संस्पर्श पाकर काला कलूटा कोयला भी सोने की तरह चमकने लगता है उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है, वैसे ही महासती जी के सान्निध्य से अनेक भव्य जीवों के जीवन में नई चेतना नया आलोक पैदा हुआ है।
मेरी कामना है कि महासती श्री कुसुमवतीजी आध्यात्मिक जीवन की प्रगति करते हुए धर्म एवं समाज के कल्याण में सदा सर्वदा निरत रहें ।
साध्वी दिव्यप्रभा ( एम. ए., पी-एच. डी. )
गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात्परं ब्रह्म तम्मै सद्गुरवे नमः ॥ कभी-कभी जीवन के कुछ क्षण बहुत ही सुहावने होते हैं । गुरुवर्या श्री की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती का पावन प्रसंग है । हृदयोद्गार अभिव्यक्ति को ललक रहे हैं, पर विराट् व्यक्तित्व को शब्दों की परिधि में बाँधना सागर को गागर में भरने के समान दुरूह है ।
श्रद्धार्चन
पूज्या गुरुणीजी महाराज के विषय में कुछ लिखने को उद्यत हुई हूँ पर जो जितना समीप होता है उसके बारे में लिखना उतना ही कठिन होता है । वे अनेक गुणों के पुञ्ज हैं । अनेक विशेषताओं के संगम हैं । उनके गुणों / विशेषताओं को मेरी तुच्छ बुद्धि के द्वारा कैसे अंकन करू? इतना सामर्थ्य नहीं है. आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में
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कल्पान्तवान्त पयसः प्रकटऽपि यस्मान् मत न जलधेनु रत्नराशिः फिर भी मैं कुछ लिखने को तत्पर हुई हैं ।
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गुरुवर्या के प्रति अनन्य श्रद्धा मुझे प्रेरित कर रही है ।
पूज्या गुरुणीजी म. सा. के साथ मेरा दोहरा सम्बन्ध है । एक तो मैं उनकी संसारपक्षीय ममेरी बहिन हैं, दूसरी अन्तेवासिनी शिष्या । जब मैं बहुत छोटी भी तब मेरी मातेश्वरी श्रीमती चौथबाई यदाकदा बताया करती थी कि कैलाशकुंवरजी : महाराज सा. तुम्हारे भुआ महा है और कुसुमवती जी म. उनकी लड़की है । भुआ म. सा. बड़े धीरवीर गम्भीर है तथा बहिन महाराज बहुत पढ़े-लिखे विद्वान् हैं, मातुश्री उनके गुणों का वर्णन करती हुई अघाती नहीं थीं । मेरे बाल मन में भी भावना उद्बुद्ध होती कि भुआ महाराज बहिन म. के दर्शन करूँ लेकिन उस समय वे दूर विचर रहे थे ।
सम्वत् २०२४ सन् १९६७ में विश्वरते हुए म. सा. उदयपुर पधारे। हालांकि दर्शन तो पहले भी किये होंगे, लेकिन स्मृति में नहीं थे। उस समय में नौ-दस वर्ष की थी । माताजी के साथ भुआ महाराज एवं बहिन महा के दर्शन करने गई । उनके दर्शन कर व मधुर वाणी को सुनकर मन मयूर नाच उठा । हृदय प्रसन्नता से भर उठा। घर गई, स्कूल गई लेकिन उनकी मधुर वाणी एवं दिव्य छवि मन प्राणों में बस गई। धीरे-धीरे प्रतिदिन जाने का
क्रम बन गया ।
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सम्वत् २०२४ का वर्षावास उदयपुर ही हुआ । बहिन महाराज मुझे प्रतिक्रमण आदि ज्ञान ध्यान सिखाते थे । कभी-कभी प्रेरणा भी देते कि यह जीवन बहुत पुण्य के उदय से मिला है खेलना-कूदना, खानापीना ही इस जीवन का उद्देश्य नहीं है बल्कि पुण्यवानी से मानव जीवन मिला है तो अपने को महान बनाना चाहिए |
महाराजश्री के सतत् सान्निध्य और सदुपदेश से मेरे मन में भावना हुई कि मैं भी दीक्षा लूं । कुछ समय पश्चात् मैंने मेरी भावना अपनी माताजी के समक्ष रखी । मातुश्री का रोम-रोम धार्मिक भाव - |
प्रथम खण्ड : श्रद्धावना
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...-7127ोटी गई। कल का अध्ययन
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नाओं से ओत-प्रोत था तथा वे पूज्य म. सा. के आपकी ममता माँ की ममता से भी बढ़क प्रति सर्वात्मना समर्पित थे अतः उनको मेरी भावना आपसे माता-सदृश अगाध वात्सल्य प्राप्त हुआ है सनकर प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा-मेरी ओर से जिसे मैं किन शब्दों से अंकित करू ? माँ जैसे तो मना नहीं है लेकिन तेरे पिताश्री की आज्ञा अपने सुख-दुःख की परवाह न करके अपनी सन्तान मिलना बहुत मुश्किल है । मैंने कहा-आपका साथ के लिए सर्वस्व अर्पण करती है ठीक उसी प्रकार होगा तो कुछ भी कठिन नहीं है ।
पूज्य गुरुवर्या माँ है; बचपन से लेकर आज तक समय बीतता गया और समय के साथ-साथ पूज्या गुरुणी प्रवरा का जो अपार वात्सल्य मिला है मेरी भावना भी दृढ़ है
उसे मैं शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकती। भी जारी था । जब भी छुट्टियाँ होतीं कुछ दिनों के
अक्सर देखा जाता है कि जो विद्वान् हैं उनमें लिए म. सा. के पास चली जाती थी। मेरी संयम सेवा का गुण कम ही होता है, लेकिन गुरुणीजी ४ भावना दृढ़ बनती गई । अन्ततः पूज्य गुरुदेव उपा- महाराज इसके अपवाद रहे हैं आपने अपनी गुरुणी ध्याय श्री पुष्करमुनिजी महा. के द्वारा सन् १९७३ तपोमूर्ति श्री सोहनकुंवरजी महाराज को रुग्ण में अजमेर नगर में मेरी आहती दीक्षा सम्पन्न हुई। अवस्था में अथक सेवा की। पूज्य सोहनकुंवरजी मेने बहिन महाराज का शिष्यत्व स्वाकार किया। महाराज पाली में दस माह तक असाध्य व्याधि से दीक्षा के पश्चात् मेरा अध्ययन गुरुवर्या श्री के
पीड़ित रहे। पूज्य माताजी महाराज श्री कैलाश
कुंवरजी म. ब्यावर और अजमेर के बीच छोटे से सान्निध्य में हुआ। आपको आगमों का गहरा ज्ञान है । आप आगम के रहस्यों को जिस सरलता और
गांव खराया में असाध्य व्याधिग्रस्त हो गये । उस
समय रात-दिन की परवाह किये बगैर आपने जो सुगमता से समझाते हैं कि दुरूह से दुरूह विषय भी
सेवा की, उसको कैसे लिखा जाय? मैंने अपनी आँखों सहज समझ में आ जाता है, आगमों का ही नहीं
से देखा है । आप रात-रात भर उनके पास जागते दार्शनिक विषयों का भी गहरा अध्ययन है । आपश्री
बैठे रहते थे। माताजी म. को हार्ट की तकलीफ की ज्ञान गरिमा को देखकर हृदय गद्गद् हो जाता
थी। विहार करते हुए हार्ट में दर्द होने लग जाता, है, मस्तक झुक जाता है।
सोते-बैठे भी सीने में जोरों से दर्द होने लगता । ____ अध्ययन की अपेक्षा अध्यापन कार्य कठिन है।
कठिन है। आप छाया की तरह हर समय उनके साथ रहते अध्ययन में स्वयं को पढ़ना होता है, जबकि अध्या- और उनकी सेवा करते। पन में स्वयं की योग्यता का परीक्षण होता है।
आज भी मैं देखती हूँ, छोटी सतियों को भी अध्ययन करने वालों की योग्यता के अनुसार विषय
कुछ तकलीफ या वेदना होती है तो आप उनकी को संक्षेप और विस्तार से समझाना पड़ता है।
तन-मन से सेवा में लग जाते हैं। आपका हृदय अध्यापन कठिन कार्य है, फिर भी गुरुणीजी महा- किसी की वेदना सहन नहीं कर सकता। आपका राज उसको सहज रूप में सम्पन्न करने में कुशल हैं सेवा भावना को देखकर हर कोई प्रेरणा पा आपने अपनी शिष्याओं, प्रशिष्याओं को तो अध्ययन कराया ही है। अन्य भी अनेक साध्वियों ने
सकता है। अध्ययन किया तथा अनेक बालक-बालिकाओं ने
गुरुणीजी महाराज किसी भी कार्य को अपना धार्मिक ज्ञान सीखा।
लक्ष्य/ध्येय बना लेते हैं तो उस पर निर्भीक होकर आपका हृदय ममता/वत्सलता से परिपूर्ण है।
बढ़ते हैं। उनमें कृतित्व शक्ति गजब की है। प्राणीमात्र के प्रति आपकी वत्सलता प्रवाहित है कश्मीर विहरण के लिए जब जम्मू से विहार प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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किया तो गर्मी के दिनों मई माह में भी आंधी तूफान वर्षा, बर्फ स्खलन होने लगा । ज्यों-ज्यों आगे बढ़ने लगे त्यों-त्यों प्रकृति रास्ता रोक रही थी । श्रावकजन कहने लगे - इस समय तो भयंकर गर्मी होने लगती है, इन दिनों कभी बर्फ नहीं पड़ती है, परन्तु इस बार तो वर्षा हो रही है बर्फ गिर रही है और शीत बढ़ा हुआ है, ऐसी स्थिति में आप कैसे जायेंगे ? गृहस्थ लोगों के पास सब साधन होते हैं फिर भी कश्मीर का ठण्डा मौसम बहुत असहनीय होता है, फिर आपके पास तो ओढ़ने-बिछाने के साधन भी अत्यल्प हैं/सीमित हैं । गुरुणी महाराज इन सब की परवाह किये बगैर चलते चले । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चलते रहे । आधा रास्ता पार हुआ, आखिर प्रकृति को भी बदलना पड़ा । प्रकृति भी अनुकूल हो गई। आंधी, तूफान, वर्षा, बर्फ ब रुक गये । चारों ओर रमणीय दृश्य दिखाई देने लगते । पहाड़ों पर जमा बर्फ चमकता हुआ दिखाई देता था । लोग कहते - आपको दिखाने के लिए ही प्रकृति ने यह दृश्य इस माह में भी उपस्थित किया है।
संकट एवं बाधाएँ तो आती ही हैं लेकिन कर्मठ व्यक्तियों के सामने स्वयं निरस्त हो जाती हैं और उनका पथ प्रशस्त एवं निर्विघ्न हो जाता है कहा भी है
बहादुर कब किसी का आसरा अहसान लेता है । उसी को कर गुजरता है जो दिल में ठान लेता है ।
निरुत्साही व्यक्ति किसी कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करते हैं और कुछ लोग करते भी हैं तो विघ्न बाधाएँ आने पर बीच में ही छोड़ देते हैं, लेकिन जो महान् होते हैं वे प्रारम्भ किये कार्य को करके ही दम लेते हैं ।
गुरुणीजी महाराज की यह विशेषता है कि प्रण के पक्के हैं जिस कार्य को करने का निर्णय लेते हैं उस कार्य को सम्पन्न करके ही विराम लेते हैं । विद्वान होते हुए भी आप अत्यन्त नम्र है, अहं
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ने आपको छुआ ही नहीं है । आप करुगा की महादेवी हैं तो सरलता की प्रतिमूर्ति हैं । समन्वय की साधिका हैं। आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल एवं पवित्र है ।
आपकी प्रवचन शैली चित्ताकर्षक व अनूठी है । आपके हृदय से निकली वाक्धारा श्रोताओं के अन्तर् तक पहुँचती है । मेरा परम सौभाग्य है कि दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर मुझे भी श्रद्धा के दो पुष्प अर्पित करने का अवसर मिला है। अन्त में यही मंगल कामना करती हुई अपनी लेखनी को विराम देती हूँ कि आपका आशीर्वाद व आपकी छत्रछाया मुझ पर सदा बनी रहे ।
श्रमणी उपवन का दिव्य 'कुसुम'
- साध्वी अक्षय ज्योति 'साहित्यरत्न'
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का जब मैंने अवलोकन किया तो एक सुखद गौरव गरिमा से मेरा अन्तस्तल खिल उठा ? क्योंकि जैन परम्परा में श्रमण की तरह श्रमणी परम्परा का भी शीर्ष स्थान है ।
आदि युग 'से लेकर आधुनिक युग तक एक नहीं अनेक तेजस्वी श्रमणियाँ हुई हैं जिन्होंने अपनी अनूठी आन, बान और शान से अपनी कीर्ति कौमुदी को विश्व में चमकाया |
उसी श्रमणी उपवन का एक महकता दिव्य कुसुम है- साध्वीरत्न, सरलमना महासती श्री कुसुमवती जो म० सा० जिनका व्यक्तित्व - कृतित्व अनुपम है । सरलता, सहजता, मृदुता, विनम्रता, कोमलता आदि अनेक सद्गुण पुष्पों से पुष्पित एवं सुरभित है आपका जोवन उपवन ।
आपका साधना काल सुदीर्घ है । महासती जी संयमी जीवन के ५०वें बसन्त में प्रवेश कर रही हैं । इतने अधिक वर्ष के बसन्त यथार्थ बसन्त ही
प्रथम खण्ड : श्रद्धाचना
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रहे हैं ? सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ही व्यतीत तुम हो कमल कुसुम, सुगंध से परिपूर्ण। होता रहा आपका संयमी जीवन का हर क्षण हर तुम्हारी गुणमरिमा देख, बलि-बलि जाऊँ। पल ।
यद्यपि आप से प्रत्यक्ष परिचय दर्शन का मौका (6) ___ मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि मुझे नहीं मिल पाया, तथापि आपकी सुशिष्या 17 श्रद्ध या महासती जी के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के चारित्रप्रभाजी आदि से आपके जीवन-दर्शन, उपलक्ष में एक गौरव ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा व्यक्तित्व कृतित्व से बहत कुछ जानने को प्राप्त हुआ। है, यह कार्य स्तुत्य है । हार्दिक साधुवाद की पात्र है है । मैं साधिकार कह सकती हूँ कि आपश्री ने सन्त, स्नेहशीला साध्वीरत्न दिव्य प्रभाजी महाराज साधु, संन्यासी, भिक्ष एवं मुनि शब्द को अपने जिन्होंने इस विराट आयोजन का उपक्रम किया। जीवन में आत्मसात् किया है। अन्त में आराध्य देव से यही कामना करती हूँ सन्त अर्थात् जो शान्त जीवन जीता है, निर्भय
यू' हों .."लम्बे समय तक आपका होकर सम भाव में स्थिर रहकर मदैव सत् की सान्निध्य संघ समाज को प्राप्त हो एवं हम सबको गवेषणा करता है। आपकी दीक्षा शताब्दी मनाने का सौभाग्य मिले। साधु अर्थात् “साधयति स्व पर कार्याणि इति इसी अक्षय आशा के साथ
साधु" जो स्व पर कार्य में-आत्मोत्थान में सदा हे ज्योति धरा ! हे ज्योति पुंज !
निमग्न रहता हो। लो हार्दिक अभिनन्दन !
___संन्यासी अर्थात् जो स्वयं के लिए कुछ भी न युग-युग ज्योतित करो धरा को,
रखते हए अपने जीवन को देश धर्म व समाज चरणों में शतशत वन्दन !
कल्याण के लिए लगा देता हो।
भिक्षु का अर्थ है-जो अहंकार का त्याग कर पुष्कर तीर्थ के कमल-कुसुम
ऊँच-नीच कुल में समान रूपेण भ्रमण कर स्वल्पा
हार की गवेषणा करते हैं । -साध्वी संघमित्रा जी
मुनि अर्थात् जो वचन गुप्ति के पालन में सदैव मुझे यह जानकर हादिक प्रसन्नता हई है कि जागरूक रहते हुए हित, मित व इष्ट वाणी का स्थानकवासी जैन समाज की विदूषी साध्वी श्री प्रयोग करता है। कुसुमवती जी म० का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित आपके जीवन में संयम की शुद्धि के साथ साथ ( हो रहा है। महान आत्माओं का जीवन तिन्नाणं- मन की विशुद्धि भी है । इसलिए आप मात्र कुसुम तारयाणं का प्रतीक रहा है, उनका जीवन दीपक- ही नहीं कमल कुसुम हैं. कमल के समान उज्ज्वल वत् है जो स्वयं भी प्रकाशित है और चहुँ ओर ही नहीं, संसार रूपी कीचड़ से निर्लेप भी हैं। प्रकाश फैलाता रहता है।
__ऐसे विराट व्यक्तित्व व कृतित्व के धनी महासती ____ आपके सम्बन्ध में कुछ लिखना सूर्य को दीपक जी के इस दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन अवसर है दिखाना है फिर भी अपनी भावना को चन्द शब्दों पर मैं अपनी व अपने साध्वी परिवार की ओर से द्वारा व्यक्त करने का प्रयास कर रही हूँ। आपका शतशत अभिनन्दन करती हुई यही मंगल
तुम्हारी गौरव गाथा को कैसे मैं गाऊँ ? कामनाएँ करती हूँ कि आप दीर्घायु बनकर तुम्हारे चरण सरोज में स्थान कैसे पाऊँ ? हमें सदा मार्ग दर्शन प्रदान करती रहें।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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शत-शत वन्दन अभिनन्दन
समन्वय है, १२ वर्ष की लघुवय में संसार की असा
रता समझकर आपने संयम के महापथ पर कदम --साध्वी मुक्तिप्रभा बढ़ाये हैं, संयम ग्रहण कर आपश्री ने संस्कृत, प्राकृत, (सुशिष्या महासती श्री सिद्धकुवरजी म.) हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं का गहन अध्ययन !
किया, आपकी प्रवचन शैली ओजस्वी व तेजस्वी श्रमण संस्कृति की गौरवशाली परम्परा में जो है। स्थान पुरुषवर्ग का है वही स्थान नारी वर्ग का भी इस अभिनन्दन की पावन पुण्य वेला पर मैं रहा है । पुरुषों की भाँति नारियों ने भी यहां इति- अन्तर् हृदय से यही मंगल कामना करती हूँ कि हास बनाया है । पुरुषों की भाँति नारियों का नाम आप दीर्घायु बनकर जिनशासन की गौरव गरिमा भी सदा सम्मान के साथ याद किया जाता है, जिस में चार चाँद लगाएँ । श्रद्धा के साथ राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध का स्मरण किया जाता है उसी श्रद्धा के साथ चन्दना, सीता, द्रौपदी, सुलसा आदि का स्मरण किया जाता है ।
साधना की ज्योतिर्मय मूति जिनशासन की प्रभावना में जितना योगदान
-साध्वी प्रकाशवती श्रमण वर्ग का रहा है उतना श्रमणी वर्ग का भी है । श्रमणीवर्ग ने जिनशासन की गरिमा को अभि
परम विदुषी साध्वीरत्न कुसुमवती जी म. का वृद्ध किया है, उसी पावन पुनीत श्रमणी परम्परा जीवन निरन्तर ज्ञान-ध्यान-सेवा-सत्कर्म में चलने में यथानाम तथागूण परम विदूषी, सरलता की वाला जीवन है । आपका जीवन उस बहुमूल्य हीरे || साकार प्रतिभा परमादरणीया श्री कसमवतीजी का की तरह है जो अपने मुंह से अपनी प्रशंसा नहीं नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। नाम के करता-हीरा मुख से कब कहे लाख हमारा मोल ।
अनुरूप ही आप में सद्गुणों की सौरभ है। कुसूम आपका हृदय सरल सरस है, मन में कहीं पर भी न कहते हैं-फूल को, जिस प्रकार फूल अपनी भीनी- दुराव-छिपाव नहीं, जितने भाव सुन्दर हैं उतनी
भीनी महक से सारे वातावरण को सरभित कर वाणा भी सुन्दर है। देता है, स्वयं भी सुगन्धित होकर महक को मुक्तमन आपका जन्म राजस्थान की वीरभूमि मेवाड़ में I से दूसरों को लुटाता है, उसी प्रकार आप भी ज्ञान हुआ, आप उस वीरांगना की भाँति हैं जो वीरभूमि ITS रूपी महक से सुवासित हैं और दूसरों को भी सुवा- में युद्ध के नगाड़ों को श्रवण कर घबराती नहीं हैं | .सित कर रहे हैं।
अपित दुगने वेग से झझती हैं। उसी प्रकार आप भी
साधना काल में आए कष्टों में सदा आगे बढती मुझे भी आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला,
रही हैं, श्रमण भगवान महावीर की वाणी आपके मैंने पाया आप एक मधुर स्वभाबी मिलनसार
जीवन में आदर्श बन चुकी है-अप्पाण भयं न ! प्रकृति के धनी हैं, आप एक अच्छी पढ़ी-लिखी
दसए-अपने को कभी भयभीत न होने दो। सुलझे विचारों की धनी हैं, छोटों के प्रति आपके
___अध्ययन की दृष्टि से भी आपने संस्कृत, प्राकृत, ॐ हृदय में अपार स्नेह सद्भावना है, सचमुच आप हिन्दी आदि भाषा का गहन अध्ययन किया है। एक वात्सल्य की मूर्ति हैं।
अनेक परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं। ज्ञान के साथ-साथ आप एक ख्यातिप्राप्त साध्वी हैं, आपके जीवन आपमें ध्यान की व जप की रुचि भी अत्यधिक रही में सरलता, सादगी और सहनशीलता का अद्भुत है।
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आपका शिष्या परिवार भी योग्य है। मेरा कण पौंछता है, आँधियाँ भी आती हैं तो उसके IKES विगत २५ वर्षों से आप से सम्पर्क रहा है क्योंकि मार्ग के कांटों को उड़ा ले जाती हैं। मेरे दोनों सुपुत्र पण्डित श्री रमेश मुनि जी, उप- दैवी जीवन के सद् लक्षण मानव देहधारी प्राणी प्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनि जी ने श्रद्धेय उपाध्याय को यथार्थ मानव का गौरव प्रदान करते हैं, न श्री पुष्कर मुनि जी म० एवं उपाचार्य श्री देवेन्द्र केवल तन से ही, वह मन से भी मानव होकर एक मनि जी म. द्वारा दीक्षित हैं इसी कारण से विशिष्ट दिव्यता का अधिकारी पात्र बन जाता है, इन २५ वर्षों से सम्पर्क बना हुआ है । अभिनन्दन की विश्व बन्धुत्व की महत् धारणाओं का वह न केवल इस पावन वेला पर मैं अपनी ओर से और गुरुणी चिंतक रह जाता है, अपितु अपने जीवन द्वारा प्रवरा श्री नान कुँवर जी म., श्रद्ध या श्री हेमवती प्रस्तुत करता है, कि मुग्ध सामान्य जन जीवन की जी म की ओर से यही हार्दिक मंगल कामना करतीं सार्थकता है, सफलता है। हूँ कि हे महासाध्वी ! चत्वारि तव वर्धन्ति आयुर्विद्या आध्यात्मिक जीवन यशोबलम्-आपके जीवन में आयु-विद्या-यश एवं अपरिमित ज्ञानालोक से जगमगाता जीवन बल में सदा अभिवृद्धि होती रहे।
आध्यात्मिक स्तरीय जीवन है जिसमें सम्यग्ज्ञान की लौ प्रचण्ड प्रकाश को विकीर्ण कर स्वानुकुल आच
रण हेतु न केवल प्रेरणा देती है वरन् इस मार्ग के शासनप्रभाविका
सभी व्यवधान तिमिरों को निर्मूल कर देती है। US
यही आध्यात्मिक जोवन की आधारभूत विशेषता है। एक -साध्वी सत्यप्रभा
आध्यात्मिक जीवन एक मंजूषा है जो रत्नत्रय ॥ भारत के ऋषि-महर्षियों ने जीवन को तीन
की जगमगाहट से सदा ज्योतिर्मय रहती है । सम्यभागों में विभक्त किया है-आसुरी जीवन, दैवी
रज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र की यह त्रिवेणी
गंगा-यमुना-सरस्वती के समान आध्यात्मिक जीवन जीवन, आध्यात्मिक जीवन ।
को तीर्थराज प्रयाग की ही भाँति न केवल गरिमा ___आसुरी जीवन में भोग-विलास, राग-द्वेष व पवित्रता देती है, वह तो उद्धारक रूप का की प्रधानता रहती है। जो जीवन में ईट, डिक एण्ड निर्माण भी करती है। बी मेरी-खाओ, पीओ, मौज करो का समर्थक ऐसे अति उच्च, श्लाघ्य एवं गरिमामय जीवन रहा है, इस प्रकार आसुरी जीवन की बुनियाद है के धनी ही तो हैं परमादरणीया महासती जी श्री अनन्त कामनाएं, वासनाएँ, सांसारिकताएँ, भौतिक ,
कुसुमवती जी। सुखाभिलाषाएं, आदि आदि जो वस्तुतः मृग मरी
मुझे महासती जी के दर्शनों का सौभाग्य समचिकाएँ हैं, और मनुष्य को भटकाती रहती हैं। दडी ग्राम में प्राप्त हुआ। महासती जी का जीवन ___आसुरी जीवन के विपरीत-दैवी जीवन है हिमालय से भी ऊँचा और सागर से भी गहरा है । जिसमें सत्य, स्नेह की मधर सवास बनी रहती है.
र सुवास बना रहता है। आप सूर्य के समान तेजस्वी हैं तो शशि के समान | जहाँ अहिंसा का आलोक हो, प्रेम का प्रदीप हो, निर्मल. स्वच्छ व शीतल भी हैं। प्रकाण्ड विद्वत्ता के करुणा का कमनीय कुंज हो, संयम का शस्त्र हो, धनी होते हुए भी स्वभावतः विनम्र हैं, आपके इस
आत्मानुशासन का आधार हो, मानवोचित समस्त अभिनन्दन की पावन बेला पर मैं शतशः वन्दन । सहजधर्मों और गुणों का समुच्चय हो, इस जीवन में, नमन करती हुई अन्तर्ह दय से यही मंगल कामना
आत्मा का दीपक उसके मार्ग को आलोकित करता करती हूँ कि आप दीर्घायु बन हमें सदा मार्गदर्शन है, शीतल पवन का आंचल उसके श्रमजन्य स्वेद- प्रदान करती रहें।
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3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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ANSIRONS
HOREOGRAOKEOG
आँखों देखा यथार्थ ___ कपट या असत्य किसी भी कोने में दृष्टिगोचर नहीं
होता है। किसी के प्रति द्वष या रोष तो आप को IDA
-साध्वी रुचिका छआ तक नहीं है। महापुरुषों से मिलना और (परम विदुषी श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. की शिष्या) उनके सद्गुणों को अपने जीवन में लाना आपका ON
प्रथम कार्य है। एक संस्कृत कवि ने कहा है :
२. वाणी में मधुरता :हे पथिक ! कुमुद वन की सुषमा और सौरभ का वर्णन तुम क्यों करते हो? उसका वर्णन तो
आपश्री की वाणी में मधुरता अपना विशिष्ट म वहाँ फूलों पर सतत मंडराते हुए, रसपान करते स्थान लिये हुए है। आपकी वाणी से वृद्ध अपने I हुए भ्रमर स्वयं ही मस्त गजारव के मिष निरन्तर
__ बच्चों का सा सुख पाते हैं, युवा अपने हम उम्र में करते ही रहते हैं । हाँ तुम तो सिर्फ उनकी गुञ्जन
जैसा स्नेह लूटते हैं। बच्चे माँ जैसा वात्सल्य - की भाषा सुनो, समझो।
प्राप्त करते हैं । आपको प्रवचन शैली से तो जनता किसी व्यक्ति के विषय में जानना, समझना हो
गद्गद् हो उठती है । एक-एक विषय को बड़े सरल
- ढंग से इस प्रकार समझाती हैं कि अनपढ़ व्यक्ति तो उसके परिचित, निकट सम्बन्धी और उसके सान्निध्य में रहे हुए व्यक्तियों की बात सुनो, वे ही
भी उसे सहज में समझ ले । गायन शैली तो अत्याउसके व्यक्तित्व का यथार्थ स्वरूप बतायेंगे और वही
कर्षक है । कोयल-सी सुमधुर आवाज श्रोतागणों को उसका यथार्थ परिचय होगा।
मंत्र मुग्ध कर लेती है। 'कसम' वन की सषमा एवं सौरभ का परिचय ३. साम्यता :GAR देने वाले भ्रमर समूह में से एक मैं भी आप (गुरुणी ६ नवम्बर, सन् १९८६ से मैं गरुणी जी श्री
जी श्री कुसुमवती जी म. सा.) के अथाह गुण समुद्र कुसुमवती जी म. सा. की सेवा में रहने लगी। में से कुछ एक बूंदें आपके ही चरणों में समर्पित ३० अप्रैल १६८० में मैंने आपकी ज्येष्ठ शिष्या श्री । करना चा आपका जीवन परिचय तो इस चारित्रप्रभा जी म. सा. के चरणों में प्रव्रज्या अभिनन्दन ग्रन्थ में अनेक लेखकों ने दिया होगा। अंगीकार की। तब से आज दिन तक एक बार भी
मैं तो सिर्फ आँखों देखा यथार्थ ही कहेंगी। आपके चेहरे पर क्रोध की रेखा तक नहीं देखी । ब मैं आपकी तृतीय पोत्र शिष्या है। आपके आपके सामने बाल, वृद्ध अथवा युवा कोई भी किसी || चरणों में रहकर जो मैंने देखा, जो अनुभव किया,
म भी समय आ जाये सदा कुसुमवत् मुस्कुराते हुए ४) उसको प्रस्तुत करना चाहेंगी। वैसे तो आपके गण ही दर्शन देते हैं। चेहरे की सौम्यता कैसी भी परि
अनन्त हैं। उनका वर्णन करने के लिये एक ग्रन्थ स्थिति में किसी भी घड़ी या पल में कम नहीं तो क्या ? अनेक ग्रन्थ तैयार हो जायें तो भी आपके होती । अस्वस्थता होने पर भी चेहरा खिला हुआ सदगुणों का पूर्णतया वर्णन नहीं हो सकता फिर भी हो रहता है। मैं अपनी नन्ही-सी लेखनी से एक बच्चे के समान किसी ने आपका नाम बहुत सोच समझकर कर टूटे-फूटे शब्दों में करने का प्रयास करूंगी। दिया और आपने अपने नाम को खूब सार्थकता दी
है। कुममवती अर्थात् कुसुमवत्-कुसुम (फूल) के स्वभाव में सरलता:
समान । वास्तव में आप फूल के समान ही अपनी आपश्री के स्वभाव में जो सरलता मैंने देखी सौरभ फैला रही हैं, फूल के समान ही खिली हुई है, वैसी सरलता अन्यत्र दुर्लभ है । जीवन में छल, रहती हैं और फूल के समान ही स्वयं के सुख की
LARAAVAN
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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परवाह न करके दूसरों को सुख पहुँचाना दायों के चातुर्मास थे। पूरा चातुर्मास सबसे मिलनाचाहती हैं।
जुलना रहा । क्षमा पर्व के दिन आप सभी सन्तों ४. नम्रता :
एवं सतियों के ठिकाने शिष्याओं के साथ पधारे ___ आपश्री की नम्रता का प्रतीक एक संस्मरण मुझे
और सबसे क्षमा-याचना की । आपकी यह प्रवृत्ति
देखकर तेरापन्थी सन्त इतने प्रभावित हुए कि याद आ रहा है । सन् १९७६ में जब आपका चार्तुमस मेरी जन्मभूमि जम्मू में था, एक दिन लगभग
उन्होंने अपने विहार के समय व्याख्यान में फरमाया चार बजे मैं दर्शनार्थ स्थानक में पहुंची। गुरुणी
कि स्थानकवासी परम्परा की साध्वी श्री कुसुमवती " जी श्री कसमवती जी म. सा. अपनी दो शिष्या
. जी म. सा. में इतनी विद्वत्ता एवं इतनी बड़ी दीक्षा
पर्याय होने पर भी जो सरलता, नम्रता एवं विनय श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. एवं श्री दिव्यप्रभा जी म. सा. एवं दो पौत्र शिष्या श्री दर्शनप्रभा जी
हमने देखा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । आप छोटे से म. सा. एवं श्री विनयप्रभा जी म. सा. के साथ
छोटा कार्य भी करने के लिए तत्पर रहती हैं। । विराजमान थीं। मैंने सबको वन्दन किया। आप ५. दयालुता एवं करुणा :
श्री के मुखारविन्द से मंगलपाठ श्रवण किया और करुणा तो आप में कूट-कूट कर भरी पड़ी है। वापस चल दी। अभी जीनों तक ही पहुँची थी कि कोई भी निर्धन व्यक्ति आपके सन्मुख आ जाए, पीछे से आवाज आई, 'ओ बहन जी' ! मैंने सोचा उसको देखकर एकदम द्रवित हो जाते हैं। किसी इतनी मधुर एवं ऊँची भाषा में मुझे किसने तरह से उसकी कमियों की पूर्ति करवाने का प्रयास पुकारा ? परन्तु जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो करते हैं । दुःखी व्यक्ति के दुःख को बड़े प्रेम से
देखती ही रह गई। एक चालीस वर्ष की दीक्षिता सुनते हैं। A साध्वी, और परम विदुषी होने पर भी मुझे इतनी मेरी गुरुणीजी श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. - ऊँची भाषा में पुकार रही हैं ? एक गृहस्थी को? फरमाया करते हैं कि 'मुझे याद नहीं आता कि । मैं उसी समय चरणों में पहुंची तो आपने फरमाया गुरुणीजी श्री कुसुमवती जी म. सा. ने हमको कभी कि यह पुस्तक अमुक श्राविका जी को देनी है। डांट-फटकार दी हो या क्रोध में पुकारा हो । क्या आप पहुँचा देंगी? मैंने कहा, 'अवश्य' पहुँचा- गुरुणीजी तो बस एक अमृत कुम्भ हैं। इस समय ऊँगी । जिनकी वाणी में इतना विनय है, उनके मन आपकी तीन शिष्यायें तथा सात पौत्र शिष्यायें हैं। में और काया में कम नहीं हो सकता। कहते हैं- सबके प्रति आपके दिल में पूर्ण दया एवं करुणा 'वाणी' मन का दर्पण होता है।
आपने कभी छोटे बच्चे को भी तुकारा नहीं ६ स्वाध्याय प्रिय : दिया । जिस शहर या गाँव में आपका चातुर्मास होता है वहां पर अन्य किसी भी सम्प्रदाय की
जम्मू चातुर्मास में मैं जब भी दर्शनार्थ जाती साध्वियां या सन्त हों उन सबसे संवत्सरी के अगले
थी, आप स्वाध्याय में तल्लीन ही मिलते थे। मैं दिन अपनी शिष्या मण्डली के साथ क्षमा याचना
सामने बैठकर आपके मुखकमल को निहारती रहती करके आते हैं। वैसे सबसे मिलते रहना तथा धर्म
थी। मुझे बहुत आनन्द आता था। आपको जब
यह पता चलता था कि शान्ता (रुचिका) सामने ४ चर्चा करते रहना आपका सहज स्वभाव है।
बैठी है तो आप शास्त्र वांचन उच्च स्वर से करने सद् १९८२ का आपका चातुर्मास ठाणा सात लग जाते । शायद इसलिए कि शास्त्र के कुछ शब्द से ब्यावर में हुआ। वहाँ पर और भी कई सम्प्र- इसके कानों तक पहुँचकर उन्हें पवित्र बना दें।
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S
, .
आप रात्रि के ढाई, तीन बजे निद्रा देवी का “चत्तारि पुप्फा पण्णत्ता, तं जहात्याग कर देते हैं । प्रतिक्रमण का समय आवे तब रूप सम्पन्न णामं एगे, णो गंध सम्पन्ने । तक तो आपकी चार-पाँच हजार गाथाओं की स्वा- गंध सम्पन्न णामं एगे, णो रूप सम्पन्न । ध्याय हो जाती है। फिर प्रतिलेखना आदि से निवृत्त एगे रूप सम्पन्न वि, गंध सम्पन्न वि । होकर व्याख्यान और फिर वही स्वाध्याय का क्रम एगे नो गंध सम्पन्न, नो रूप सम्पन्न । प्रारम्भ हो जाता है । आप भोजन भी बहुत अल्प एवम् एव चत्तारि पुरिसजाया ॥" करते हैं ताकि नींद न आये। प्रमाद ने तो आपको
उक्त पंक्तियों में चार प्रकार के फूलों का वर्णन छुआ तक नहीं है। दर्शनार्थ आये हुए श्रावक
आता हैश्राविकाओं से भी शास्त्र सम्बन्धी चर्चा ही करते हैं। इधर-उधर की फालतू बातें नहीं करते हैं ।
"एक सुन्दर किन्तु गंधहीन, उपसंहार :
एक गंधयुक्त किन्तु सौन्दर्यहीन, आपके गुणों का वर्णन करने में समर्थ कहाँ हूँ ?
एक सुन्दर भी एवं गंधयुक्त भी, बस मैं तो शासनदेव से यही प्रार्थना करती हैं कि
एक न सुन्दर, न गंधयुक्त ॥” । आप चिरायु एवं दीर्घायु हों और चिरकाल तक
__ पुष्पों के समान मानव भी चार प्रकार के होते हम जैसे भूले-भटके प्राणियों को सदबोध देकर हैं, तृतीय श्रेणी के पुष्पों के समान जिन महामानवों सन्मार्ग दर्शन कराती रहें । मैं आपकी चरणसेवा के जीवन में करुणा, दया, सत्य, प्रेम, अहिंसा, धैर्य, मैं आपकी ही वस्तु को समर्पित कर रही हैं। स्वी- सहिष्णुता, विनय आदि गुणों की सुरभि हो, एवं | कार करें।
शरीर से भी सुन्दर, सुडौल हों वे ही श्रेष्ठ मानव चरणों पर अर्पित है इसको
कहलाते हैं तथा समस्त मानव जाति के लिए आदर्श ___ चाहो तो स्वीकार करो, बनते हैं, उनके सद्गुणों की सुगन्ध से सारी मानव __यह तो वस्तु तुम्हारी ही है
सृष्टि महक उठती है। ठुकरा दो या प्यार करो।
प्राची में सूर्य के उदित होने पर सारी जगती प्रकाशित हो जाती है । केतकी का फूल जब अपनी
टहनी पर खिलता है, चारों ओर अपनी सुगन्ध साधना में खिलता कुसुम
बिखेर देता है। इसी प्रकार जब कोई असाधारण
विभूति का अवतरण होता है तो वही परिवार नहीं --साध्वी राजश्री समस्त विश्वोद्यान में महक फैल जाती है, प्रफुल्लित
हो उठता है जगती-तल । ऐसी ही विरल विभूति हैं "स्वर्ण-जयन्ती अवसर पर,
गुरुणीजी श्री कुसुमवतीजी म. सा., जिनका आनन । भेजूं क्या उपहार तुम्हें ।
सदैव कुसुमवत् खिला हुआ रहता है, एवं सद् ज्ञान, स्वीकार इसे ही कर लीजे,
विनम्रता, शान्ति आ | ओतप्रोत । शत शत हो प्रणाम तुम्हें ।"
उनके गुणों की महिमा, प्रतिभा एवं गरिमा | श्रमण संस्कृति के लोक-विश्रुत जैन शास्त्र श्री का किस प्रकार वर्णन करूं, समझ नहीं पा रही हूँ, 'स्थानांग सूत्र' की वे पंक्तियों जिनमें चार प्रकार असीम को ससीम शब्दों की परिधि में कैसे व्यक्त के पुष्पों का वर्णन आता है, सहसा ही मेरे मानस करू, क्या लिख ? यही सोचती हूँ--चाहती हूँ उन्हीं पटल पर आ रही हैं
जैसा विकास में भी कर सकूँ।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ G ad
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'मेरी लेखनी में बल कहाँ जो,
__ एक पल्लवित-सुरभित कुसुम ! आपके गुण प्रस्तुत करूं। अनन्त गणों की धारक गरुणी,
--डॉ० प्रभाकुमारी "कुसुम' आप जैसा ही विकास करू॥"
-डॉ० सुशील जैन "शशि" । महापुरुषों एवं सन्नारियों का जीवन-चरित्र न स्थानांग सूत्र में 'कुसुम' चार प्रकार से प्रतितो कागजों में ही लिखा जा सकता है, और न उनके पादित हुए हैं। प्रथम दो प्रकार रंग एवं सुगन्ध में गुणों का अंकन साधारण लेखनी द्वारा ही किया जा परस्पर भिन्नता लिये हुए हैं। तृतीय दोनों से शून्य सकता है । उनमें तप, त्याग और संयम की इतनी एवं अन्तिम दोनों गुणों से युक्त है। कुसुम वही गहराई होती है कि साधारण मसि द्वारा तो वह चित्ताकर्षक होता है, जो रंग एवं सुगन्ध एक साथ वणित ही नहीं हो सकती है। उनके वैराग्य, ज्ञान, लिए होता है। विनय, सेवा, विवेक एवं धर्म के प्रति आस्था की परम-विदुषी, महासती श्री कुसुमवतीजी महा
त्रिम पैमानों से तो किसी भी रूप राज के जीवन पर यदि हम एक अवलोकन दृष्टि र में मापा नहीं जा सकता, अतः मैं तो यही विचार डालते हैं तो हमें उनके संयमी जीवन कुसुम में कर रह जाती हूँ कि
आराधना का रंग और साधना की सुगन्ध दोनों "सब धरती कागज बने,
ही अनुभूत होती है। लेखनी सब वन राय।
____ आपश्री के प्रथम-दर्शन का सुअवसर हमें लगसात समुद्र की मसि बने,
भग १६ वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ था। भावों की सरलता ___ गुरु गुण लिखा न जाय ॥"
के साथ आपकी वाणी भी उतनी ही सरल है । आप मैं तो दीक्षा-स्वर्ण जयन्ती के शुभ अवसर पर
. अपनी प्रत्येक बात सरल एवं मधुर शब्दों में प्रस्तुत
करते हैं, जिससे श्रोता स्वतः प्रभावित हो जाता आपश्री के चरण सरोजों में श्रद्धा-सुमन समर्पित १ करते हुए आपके दीर्घ जीवन की शुभ कामना
. है। भगवान महावीर के अहिंसा, सत्य, अस्तेय,
ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रहादि सिद्धान्तों का यथाशक्य करती हूँ । श्री गुरुणीजी ! आप चिरकाल तक हमें .
प्राणी मात्र में विकसित हो यही लक्ष्य बनाकर आप आशीर्वाद प्रदान करती रहें, एवं आपके द्वारा धर्मोद्योत होता रहे । इन्हीं शुभ कामनाओं के
सदैव प्रयत्नशील हैं। सहित ।
आप अपने संयमी, जीवन, साधना के ५२ वर्ष 卐-0-9
पूर्ण कर रहे हैं। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन
प्रसंग पर हमारी हार्दिक अभिलाषा है-'आपके जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ संयम, साधना, कुसुम की सुवास दीर्घ समय तक एवं अत्तसमाहीए अणिहे । जन-मानस में परिव्याप्त रहे । आपकी मृदुवाणी से
-आचारांग १/४/३ समाज को नई दिशा, नई जागृति मिलती रहे। 19 जिस प्रकार अग्नि सूखे पुराने काठ को भस्म आप ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना कर डालती है, उसी प्रकार अप्रमत्त मुनि ध्यान करते हुए जिनशासन की प्रभावना करें। आप समाधि में लीन होकर कर्म-दल को भस्म कर दीर्घायु बनें, स्वस्थ रहें, यही आपके अभिनन्दन डालता है।
प्रसंग पर शुभकामनाएँ ! 卐-.
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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RRCOACHAR
वंदन-अभिनन्दन
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षी
-जैन साध्वी मधुबाला 'सुमन' (शास्त्री, साहित्यरत्न, एम. ए.) -परम देव का आराधन करने के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने के लिए आपने
सुप्त मन को जगाया। -रमण हो अपने आप में, बाह्य पुद्गलों से परे हट कर स्व पुद्गलों में रमण करें। -महामोहनीय कर्म को दूर करने के लिए जो अनादि काल से इस आत्मा के साथ लगे हैं, उन । सब कर्मों में मोहनीय कर्म जबरदस्त है। उसे दूर करने के लिए १० वर्ष की उम्र में आत्म चिंतन कर बंधु-बांधवों का मोह त्याग निर्मोही बने । -वीतराग वाणी को घर-घर फैलाते हए स्वयं भी आत्मसात् करते हुए स्वपर आत्मा को उज्ज्वल बना रहे हैं । आपका ज्ञान ठोस, हृदयस्पर्शी है। वीतराग वाणी का अध्ययन आपने उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. से किया है। -दुष्कर, महादुष्कर, ब्रह्मचर्य रत्न का आराधन करना, जो भुक्त भोगी बन चुके हैं, वे भी ब्रह्मचर्य का पालन बड़ी कठिनाई से करते हैं । लेकिन धन्य है आपको, बाल अवस्था में जैन आर्हतीK दीक्षा अंगीकार कर असिधारा के समान ब्रह्मचर्य को पालन कर रहे हैं। -सीखा है, आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी भाषाओं का ज्ञान, आगमों का ज्ञान एवं अन्य संस्थाओं से परीक्षा देकर व्याकरण, मध्यमा, काव्यतीर्थ, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, 16
जैन सिद्धान्ताचार्य किया। -साध्य वस्तु को ही साधी जाती है । आत्मा का हित साधने के लिए से अध्यात्म क्षेत्र में
मोड़ने के लिए महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ५२ वर्षों से आत्मसाधना में जुटी हुई है। -ध्वस्त करने आठ कर्मों के वृन्दों का । घन घाती कर्म आत्मा के साथ ऐसे चिपक गये हैं, जैसे उनका आत्मा पर पूर्ण अधिकार हो । अतः जिनका जिस पर अधिकार नहीं उस पर जबरदस्ती - कोई कब्जा करता है, तो मालिक उसे वहां से हटा देता है। ठीक ऐसे ही आत्मा पर कब्जा किए हुए कर्मों को आप स्वामित्व के हिसाब से हटा रही है। -रणकार हो रही है आप्त वाणी की, समदृष्टियो जाग जाओ। जाग गये तो लाभ में रहोगे। यह अवसर बार-बार नहीं मिलता, जो वस्तु जगत में दुर्लभ है, वह अमूल्य है । अमूल्य वस्तु पुनः नहीं मिल सकती। -तन को सजाने से क्या लाभ ? आत्मा को सजाने में ही मजा है। तन तो मिट्टी का पुतला है, ठपक लगते ही फूट जाता है, लेकिन आत्मा अमर रहती है । नाशवान वस्तु से प्रेम नहीं रखा। जाता है । अनाशवान वस्तु से प्रेम रखना ही बुद्धिमानी है ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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1. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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___ --कुअध्यवसाय को छोड़कर सुअध्यवसाय में रमण करना ही श्रेष्ठ है। कुअध्यवसाय चतुर्गति
संसार में परिभ्रमण कराता है । जबकि सुअध्यवसाय चतुर्गति संसार से पार कराता है। अतः
अच्छे विचारों में चित्त लगाना ही श्रेष्ठ है । --सुमन विकसित, पुष्पित, पल्लवित होकर दुनिया को सुगन्ध देता है। उनके दिलो दिमाग को
ताजगी पहुंचाता है। ठीक ऐसे ही जिनशासन में सन्त-सती वृन्द सभी जीवों के प्रति जिन
वाणी रूप सुगंध को पहुँचाते हुए आत्मशान्ति की प्रेरणा देते हैं।। -ममता त्यागना बहुत ही मुश्किल है, जहाँ ममता मूर्छा निकल गई, वहां संसार मन से निकल गया, जहां संसार मन से निकल गया, वहां राग द्वष नहीं रहता। राग-द्वेष से रहित व्यक्ति सरलता से संसार से पार हो जाता है। वंदन करना नम्रता का लक्षण हैं । जहां नम्रता है वहां सभी गुणों का निवास हो जाता है। सभी गुण स्वतः आ जाते हैं, तो दुर्गण टिक नहीं सकते हैं। -तीन बातों को जो ध्यान में रखता है, वह कभी भी अशान्ति प्राप्त नहीं कर सकता वे ये हैं
कम खाना, गम खाना, नम जाना। -जीवन एक अमूल्य मणि है यदि यह हाथ से निकल गई तो पुनः पछताने के सिवाए कुछ हाथ
नहीं लगेगा। -महान गुणों की धारिका, अध्यात्मयोगिनी बाल ब्रह्मचारिणी उपर्युक्त सभी गुणों से सुशोभित महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. जिनशासन को अधिकाधिक दिपावें, दीर्घायु हों इसी हादिक इच्छा के साथ वंदन-अभिनंदन स्वीकार हो ।
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सद्गुणों का आज अर्चन आओ हम भी गुनगुनाएँ
-साध्वी गरिमा एम० ए० का आज कुछ कहता पवन है
गगन भी बहका सा लगता सुरभि से महका चमन है
जगत भी चहका सा लगता 3) आज कुछ गाती दिशाएँ
हम भी आओ मुस्करायें आओ हम भी गुनगुनाएँ
आओ हम भी गुनगुनायें विहग भी अविराम स्वर से
सद्गुणों का आज अर्चन गा रहे अपने अधर से
झूमती हरदिल की धड़कन गरिमामय कुछ-कुछ कथायें
दीप श्रद्धा के चढ़ायें आओ हम भी गुनगुनायें
आओ हम भी गुनगुनायें स्वर्ण जयन्ती का है मेला, 'कुसूम अभिनन्दन' की वेला शीश चरणों में झुकायें, आओ हम भी गुनगुनायें
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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GOAca
साक्षात्कार के स्वणिम क्षण
ऐसे सरलमना, व्यक्तित्व के धनी
के पावन-पाद कमलों में हार्दिक वदना, एवं मंगल -साध्वी निरुपमा कामना है कि आप पूर्णरूप से स्वस्थ रहकर जिन
शासन प्रभावना में अभिवृद्धि करते रहें। परमाराध्या गुरुणी जी का जीवन इतना मधुर तथा इतना अधिक आकर्षणशील है जो जनमानस को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, आपके
अविस्मरणीय साक्षात्कार जीवन में आचार और विचार का, त्याग और
-साध्वी गरिमा, एम० ए० वैराग्य का, संयम और समता का दर्शनीय संगम हुआ है।
मेरा जीवन एक यात्रा है और इस यात्रा में
मैंने अनेक बसन्तों को पार किया, इस यात्रा ___आपकी प्रवचन शैली निराली है, आप जब भी
है, आप जब भा का प्रारम्भिक बिन्दु-जन्म है। किन्तु मेरी आत्मओज भरी वाणी में विषय के तलछट तक पहुँचकर यात्रा. मेरी आत्म-कथा का कोई आदि-बिन्दु नही विश्लेषण करते हैं तब श्रोताजन विस्मय, विमुग्ध है. अतः वह अनादि है। जब से मैं इस जीवनयात्रा हो जाते हैं। आपके प्रवचन जन जीवन के प्रांगण पर अग्रसर हुई, तब से मैंने बहुविध अनुभवों में सत्य, सदाचारशील, संयम का कल्पवृक्ष उगाने
का परिस्पर्श अन्तर्जगत एवं बहिर्जगत में किया। ५ का, उसको श्रद्धा से सींचने का सफल प्रयास है।
सि ह। उन अनुभवों में कतिपय अनुभव ऐसे स्वर्णिम-कोटि सन् १९८४ का वर्ष मेरे जीवन का सर्वाधिक में आते हैं, जो जीवन-पर्यन्त स्मरणीय हैं, संस्मरमहत्वपूर्ण वर्ष रहा है। यह वर्ष मेरे लिए प्रकर्ष णीय हैं और अक्षय सम्पदा के रूप में हैं। हर्ष का वर्ष था इसी वर्ष में मेरे मन का पंछी सन १९७८ में मेरा एक परम विरल-विभूति से संयम के अनन्त असीम गगन उड़ाने भरने हेतु चाक्ष-प्रत्यक्ष हआ, जो शासन ज्योति साध्वी रत्न |
उत्कण्ठित हो उठा और मैं १९८६ में पाली शहर श्री कुसूमवती जी इस संज्ञा से जिनशासन की म में दीक्षिता हुई तब से ही आपके स्वर्णिम सान्निध्य श्रमणी परम्परा में चिर विश्रत हैं। मेरा यह प्रत्यक्ष
में ज्ञान दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी में अवगाहन परिचय का प्रथम-क्षण विलक्षण क्षण सिद्ध हुआ। करती रही और मेरा आप से नित्य, निरन्तर जो क्षण सिद्धि के मंगल द्वार को उद्घाटित करने में साक्षातकार होता रहा । साक्षात्कार के सभी-क्षणो निमित्तभत बना। में मैं आपको अपनी अनुभूति के दर्पण में बहु- फलस्वरूप सन् १९८० में मेरे जीवन का काया: आयामी रूपों में रूपायित होती हुई देख रही हूँ। कल्प हआ। मैं पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर __ आपकी सरलता कृत्रिम सरलता नहीं है प्रस्थित हुई, संसार मार्ग से विमुख हुई और मोक्ष वस्तुतः आप में सहज सरलता के परिदर्शन होते हैं, मार्ग की ओर उन्मुख हुई। यहीं से मेरी आत्मा आपके जीवन में न सजावट है, न बनावट है, न की अभ्युदय-भूमिका प्रारम्भ हुई । तब से अब तक दुराव है, न छिपाव है जो कुछ है वह नख-शिखान्त मैंने आपको पाया कि आप में एक नहीं, अनेक तक सरल ही सरल है । अन्तरंग सरल है, बहिरंग विलक्षण-विशेषताएं हैं। उन अनुपम, दिव्य विशेषसरल है, सचमुच में आप स्वयं सरलता की पर्याय ताओं को अर्थात् गुण-सिन्धु को शब्द-बिन्दु में समाहैं। आपकी सरलता को, छिन्न-भिन्न रूप में हित करना असम्भव है । असम्भव को सम्भव करने देखना असम्भव है।
की दिशा में मेरा यह उपक्रम अनन्त-असीम
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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| आकाश में उदीयमान सहस्रकिरण दिवाकर को सजावट है, न औपचारिकता है, किन्तु जो कुछ भी
छूने जैसा है। फिर भी मैं श्रद्धा और भक्ति का है वास्तविकता है । अपने आपको बनाना उन्हें नहीं - । अक्षय-संबल लेकर अपनी हार्दिक भावना को मूर्त आता। इसलिए उन्हें दिखावट पसन्द नहीं है। । रूप दे रही हूँ।
उनका जीवन वस्तुतः स्फटिक मणि की भांति पार
दर्शी है। जिसमें दुराव और छिपाव की दुरभि___मैंने अनन्त श्रद्धा की आंख से नहीं, किन्तु
सन्धि नहीं है । न दोहरा व्यक्तित्व है, न दोहरा प्रत्युग्र-प्रतिभा और पैनी-दृष्टि से आपके जीवन को
कृतित्व है। वे तात्त्विक के साथ सात्त्विक भी हैं। निरखा है, परखा है, और मुझे स्पष्टत: परिबोध
उनकी तात्त्विकता और सात्त्विकता का मणिहआ-वैडर्यमणि की भांति परम-श्रद्धया गरुणी
कांचन संयोग देखते ही बनता है जिससे आपके जी के जीवन का प्रत्येक पहलू प्रकाशमान है और
जीवन-स्वर्ण में अप्रतिहत निखार आया है। जो भी उनके पावन सान्निध्य में पहुँचता है, वह भी उस अलौकिक आलोक से जगमगा उठता है,
___गुरुणीवर्या का जीवन सरोवर नहीं, गंगा की 70 यह मेरा आत्मानुभव है, आत्मानुभव स्वयं में एक .
कल-कल, छल-छल करती हुई प्रवाहमान निर्मल ||
धारा है, जो अपने निर्धारित-संलक्ष्य की ओर अकाट्य प्रमाण है।
प्रगतिशील है। वास्तव में आपका जीवन सद्गुणों श्रद्धास्पद गुरुणी जी की वाणी सिंहगर्जना के का गुलदस्ता है। जिसकी मधुर-सौरभ से जनजीवन समान अदम्य उत्साह से आपूरित है, साथ ही भी सुवासित है । आपके गुण-गरिमा को, मेरा एक । वीणा के तार के समान मधर झंकार से संयक्त कण्ठ नहीं, लक्ष-लक्ष कण्ठ भी गाने के लिये पर्याप्त 603
होकर जब भाषा के दिव्य-रूप में बाहर निकलती नहीं है। आप उस अखण्ड-अनन्त प्रकाश-पुंज के | है तो श्रोता समूह का मन-मयुर झूम-झूम उठता है, समान हैं, जो अज्ञान की अमावस्या के प्रगाढ़। वे एकाग्रमन होकर प्रशान्त और प्रफल्लित चित्त से तिमिर को भी चुनौती देकर जन-जन के मन-नभ श्रवण करने में विशेष रूप से तन्मय हो जाते हैं। को अपनी शुभ्र ज्योति से प्रकाशमान कर देती है । इसका सम्पूर्ण श्रेय मैं गुरुणी-मैय्या की मधु-मधुर मैंने गुरुणीवर्या के जीवन वृत्त के विषय में जो युक्त वाणी-वीणा को उतना नहीं देती, जितना वर्णन-विवरण किया, वह भावुकता या भक्ति अतितदनुरूप ढले हुए अध्यात्म-साधनामय जीवन को, रेक के प्रवाह में प्रवाहित या आकण्ठ-निमग्न होकर उनकी वैराग्यमयी त्यागवृत्ति को और उनकी परम आलेखित नहीं किया। किन्तु गहराई से उनके सरल अति भव्य आत्मा को।
जीवन-वारिधि की अगाधता को निहारा है, सूक्ष्म
दृष्ट्या देखा है। मुझे अर्न्तबोध हुआ-आपका गुरुणीवर्या के जीवन में उच्चार, विचार एवं जीवन महतोमहीयान् है। शिरसिशेम्बरायमान | आचार की त्रिवेणी सदा एक रूप, एक रस होकर उत्तंग सुवर्ण सुमेरु पर्वत है। प्रवाहित होती रही है। यही प्रमुख कारण है कि ।
____ अन्तर्मन की अतल गहराई से संयमसाधना गुरुवर्या के मुखारविन्द से निःसृत प्रति शब्द प्रति
__की अर्ध-शती पर भावपूर्ण अभिनन्दन और विनम्र भव्य आत्मा द्वारा समादरणीय और समाचरणीय
वन्दनार्चन। होता है । यह एक अनुभूत तथ्य है, ध्रुव कथ्य है।
परमाराध्या गुरुणी मैय्या का जीवन एक अखण्ड-आदर्श जीवन है, जीवन में न वनावट है, न
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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जी
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आराध्यस्वरू
विशिष्ट-प्रतिभा का एवं प्रबल पुरुषार्थ का ज्वलन्त -साध्वी अनुपमा 'शकुन' जीवन्त प्रतीक हैं । ___भारतवर्ष के विविध अंचलों में राजस्थान का
आप तीर्थस्वरूपा हैं, आपके जीवन प्रयाग पर भी अपना गौरवपूर्ण स्थान है। इस प्रान्त में मेवाड़
ज्ञान की गंगा, दर्शन की यमुना, चारित्र की सरको अपनी महिमा और गरिमा है जिसे शब्दबद्ध कर
स्वती इन तीनों का अपूर्व संगम हुआ है। अतएव पाना सचमुच में कठिन है । मेवाड़ का वीरता और
आप प्रयाग-तीर्थ की भांति आकर्षण का केन्द्र हैं। शक्ति सम्पन्नता की दृष्टि से स्वर्णिम इतिहास है।
आप जन-मानस के पाप-पंक प्रक्षालन का पुण्यस्थल ___ जिनशासन के निर्मल गगन में प्रकाशमानतारिका साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी के जीवन में
तीर्थंकर प्रभु महावीर के चार संघ है उनमें संयम पालन की वीरता और आत्मशक्ति की सम्प
श्रमणी संघ भी अपनी अलौकिक महत्ता को लिए न्नता, मणि-कांचन सहयोग हुआ है।
हुए है । यह संघ एक वाटिका के समान है उसमें
अनेक श्रमणी सुमन अपनी सौरभ से महक रहे हैं। ___ आपका जन्म नाम 'नजर' है। नजर का अर्थ परम-पूज्या जी का जीवन सुमन श्रमणी वाटिका में है-दृष्टि, आप अपने नाम के रूप-अनुरूप बाल्य- अपना अनुपम, अलौकिक, अदभुत, अप्रतिम, काल में ही अन्तर्-दृष्टि की दिव्यता को लिए हुए अपरिहार्य स्थान रखता है। हैं। इसलिये आप लघुवय में अन्तर-जगत की प्रशस्त यात्रा पथ पर अ
__ आपका नाम कुसुम है, जिसका अर्थ फूल है । ___त्याग और वैराग्य की ज्योतिर्मयी प्रतिमा, .
यह केवड़े का नहीं किन्तु गुलाब का है । आपके
जीवन उपवन में गुलाब के फूल की भांति ज्ञान की संयम और समता की भव्यमूर्ति परमाराध्य श्रमणी
सौरभ महक रही है। रत्न श्री सोहनकुँवर जी की अन्तर्मुखी दृष्टि आप पर केन्द्रित हुई। फलस्वरूप आप उनकी प्रधान- आपका प्रवचन और चिन्तन, अपार, अनन्त, शिष्या बनीं और उन्होंने आपका नाम महासती महासागर की भांति गम्भीर है। अतः आपके कुसुमवती रखा।
प्रवचन एवं चिन्तन की गहराई में सभाषितों के आपने गुरुवर्या द्वारा प्रदत्त नाम को न केवल दिव्यरत्न, भव्य-आभा से प्रकाशमान है। जो भी नाम निक्षेप से सिद्ध किया अपितु संयम-साधना आपके श्री चरणों में उपस्थित होता है वह
और ज्ञान-आराधना के पावन क्षेत्र में नित्य-निर- दिव्यरत्नों को पाकर न केवल प्रभावित होता है, न्तर विकास किया। जिससे आपने अपने नाम को अपितु लाभान्वित एवं गौरवान्वित होता है। भाव निक्षेप की दृष्टि से भी चरितार्थ किया। अनन्त असीम आकाश-मण्डल में सूर्य और चन्द्र __ परमपूज्या साध्वी रत्न श्री गुरुणी जी ने नव- अपना अखण्ड, अस्तित्व बनाये हुए है। सूर्य | वर्ष की लघुवय में बहिर्जगत से हटकर अन्तर्जगत में तेजस्विता का प्रतीक है, तथा चन्द्र शीतलता का प्रवेश किया। नव का अंक अखण्ड है अतः आपने द्योतक है । इन दोनों में निज-निज गुण का एक दीक्षित जीवन से अखण्ड-रूपेण सर्वतोमुखी विकास दूसरे में सर्वथा अभाव है। पर आपके जीवन में यात्रा प्रारम्भ कर दी। विकास के स्वणिम सोपान शीतलता और तेजस्विता का युग-पत् सद्भाव है - पर आरोहण करते हुए एक ऐसे उच्च-स्थान पर अतः आप सूर्य और चन्द्र इन दोनों से बढ़कर हैं। प्रतिष्ठित हुई जो आपके अप्रमत्त जीवन का, यही आपके जीवन की विलक्षण बिशेषता है।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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सत्यशाल की अमर-साधिका, परमाराध्या जैनागमों का अतीव गम्भीर एवं तल-स्पर्शी परिशीलन व अनुशीलन किया और उच्चस्तरीय परीक्षाएँ समुत्तीर्ण कीं आप जैन सिद्धान्ताचार्य जैसी विशिष्ट उपाधि से विभूषित हुईं। यह उपाधि आपके लिए उपाधि रूप न होकर समाधि-रूप हैं ।
आपने जहां एक ओर साहित्य के क्षेत्र में विकास किया, वहीं दूसरी ओर अध्यात्म के जगत में बहुमुखी प्रगति की। अतः आप 'अध्यात्मयोगिनी' पदवी से सम्मानित हुईं। पर सत्य है कि यह पदवी आप जैसी विरल विभूति से स्वयं गौरवान्वित हुई ।
आपने साहित्य और अध्यात्म की तरह प्रवचन कला में भी विशेष रूप से दक्षता प्राप्त की । आपकी प्रवचन-कला प्रारम्भ से ही चन्द्रकला की भाँति वर्द्धमान होती गई । अतः आप 'प्रवचन भूषण' के महनीय अलंकरण अलंकृत हुई।
आपका विशिष्ट जीवन विलक्षण विशेषताओं का एक ऐसा पावन संगम है कि दर्शक विस्मयविमुग्ध हो उठता है कि एक साधिका में इतने गुणों का सहजरूपेण समावेश कैसे हो गया ? पर जो भी आपके पावन सान्निध्य में आता है, कह उठता है कि यह श्रमणी जगत की दिव्यमणि है ।
मेरा आपसे जिस क्षण साक्षात्कार हुआ वह क्षण मेरे लिए प्रेरणादायी बना और मैं बहिर्जगत से विमुख होकर अन्तर्जगत में प्रविष्ट होने हेतु तत्पर हो गई और मेरी यह उत्कण्ठा नित्य निरन्तर वर्द्धमान होती गई और मेरी मनोभूमि पर बीजारोपण में आपकी तरह आराध्य स्वरूप, | साहित्य व साधना के ज्योतिस्तम्भ श्री राजेन्द्रमुनि जी म. एवं असीम आस्था की भव्य प्रतिमा, वैदुष्य और श्रामण्य की प्रशस्त - प्रतिमा, दिव्यप्रभाजी म० का भी मूल्यवान योगदान रहा जिससे मैं आपके श्री चरणों में दीक्षिता हुई तब से अब तक मेरी अनुभूति के दर्पण में आपके व्यक्तित्व के बहुआयामी आदर्श चित्र प्रतिबिम्बित हुए जिससे मैं स्वयं लाभान्वित
प्रथम खण्ड : श्रद्धाना
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हुई । मेरी मंगलमनीषा है कि आपका आशीर्वाद मेरे लिए वरदान रूप सिद्ध होगा । आपश्री प्रतिपल, प्रतिक्षण, परम स्वस्थ रहें । और आपकी कीर्ति कौमुदी दिग् दिगन्त में जगमगाती रहे तथा मैं ज्ञान, दर्शन व चारित्र के उत्तुंग शिखर पर आरोहण करती हुई, जिनशासन की प्रभावना को बढ़ाती रहूँ ।
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यथानाम तथागुण
- जैन साध्वी इन्दुप्रभा " प्रभाकर"
परम विदुषी साध्वी रत्न महासती जी १००७ श्री कुसुमवती जी म० सा० की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रकाशमान " कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ " में मेरी भी भावों की कुसुमावलि से गुम्फित उद्गार माला समर्पित है ।
आपका प्रेरणादायी पावन जीवन त्याग, तप की अद्वितीय निधि है । चन्दन की तरह आपने सर्वत्र अपनी सौरभ से गाँव-गाँव, नगर-नगर, डगर-डगर सुरभित किया है । आपका सान्निध्य पाकर समस्त मानव समाज धन्य होता रहा है । क्योंकि आपने अपनी गुण सम्पदा से मानव - जोबन को सुवासित किया है । आपका हृदय, करुणा, दया, औदार्यभाव से सदैव ओतप्रोत रहा है ।
आपने सदा जनमानस को श्रेय के लिए प्रेरणा देकर मानव जीवन को सार्थक करने के लिए सन्नद्ध किया है।
किं बहुना ! संयमी जीवन के अर्द्ध शताब्दी के शुभावसर पर महाप्रभु से हार्दिक शुभकामना करती हूँ कि आपश्री का निरोग जीवन जैन-जगत् तथा मानव समुदाय को श्रेय पथ प्रदान करता रहे । इन्हीं भावों की मुक्तावली के साथ ।
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एक महान जीवन गौरव
हृदयोद्गार -महासती किरणप्रभा
- महासती प्रिय दर्शना ___ जीवन तो सभी प्राणी जीते हैं पर जीने की शब्दों की एक सीमा है। वे अन्तर्हृदय के र कला सभी प्राणियों में नहीं होती। वे कूकर और असीम को व्यक्त करने में कभी सक्षम नहीं होते। शकर की तरह जीवन जीकर अपना जीवन बर्बाद असीम भावों को ससीम शब्दावली कभी व्यक्त करते हैं। जीवन जीना उन्हीं का सार्थक है जो नहीं कर पाती। तथापि हृदयाकाश में उमड़तेअपने आपको खपाता हो। दुर्गुणों को जीतकर घुमड़ते भावों को व्यक्त करने का साधन केवल मात्र अपने जीवन को महान बनाता हो।
भाषा ही है । भाषा के रथ पर बैठकर ही भावों परम विदुषी साध्वी रत्न कुसमवती जी म० की यात्रा प्रारम्भ होती है। किसी भी विशिष्ट का जीवन एक विशिष्ट जीवन है। जिनके जीवन व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखना कठिन ही नहीं, में त्याग और वैराग्य की सुगन्ध है। स्वयं कष्ट कठिनतर है । सहन कर दूसरों को प्रेरणा प्रदान करती हैं। परम विदुषी साध्वीरत्न कुसुमवती जी एक अपनी निर्मल वाणी से प्रसुप्त जीवन में अभिनव विलक्षण प्रतिभा की धनी श्रमणी हैं। मेरे सद्चेतना का संचार करती हैं। मैंने अनेकों वार गुरुणी जी पुष्पवती जी की वे ज्येष्ठ गुरु बहिन हैं। आपके दर्शन किये हैं । सद्गुरुणी श्री पुष्पवती जी अतः बहुत ही निकटता से उन्हें देखने के अवसर म० के साथ । मदनगंज-किशनगढ़ में साथ में वर्षा- जीवन में अनेकों बार आये हैं। और जब भी आये : वास करने का भी अवसर भी मिला । मैंने जब भी हैं तब उनके मधुर व्यवहार से मैं प्रभावित हुई । आपको देखा तब आपके चेहरे पर मधुर मुस्कान हैं। उन्होंने कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजअठखेलियाँ करती हई पाई। कभी भी उनके चेहरे
इपाइ । कभी भी उनके चहर स्थान, मध्य-प्रदेश की यात्रा कर जन-जन को पर क्रोध या तनाव व झुलझुलाहट की कुटिल प्रेरणा प्रदान की, जहाँ भी गयी वहाँ जन-मानस रेखाएँ नहीं देखीं । हाँ, अपनी सुशिष्याओं के प्रति में आस्था संचार किया। आत्मकल्याण के साथ | भी आप में वात्सल्य का निर्मल झरना प्रवाहित उन्होंने अनेक जनकल्याणकारी कार्य भी किये हैं। होते हुए देखा है। आपकी प्रवचन कला चित्ता
मैं हृदय से महासती कुसुमवती जी के अभिकर्षक है। उसमें चिन्तन-मनन और अनुभवों का
नन्दन का स्वागत करती हैं। जो अभिनन्दनीय त्रिवेणी संगम है । वाणी में मधुरता होने के कारण
होते हैं उनका सहज अभिनन्दन होता ही है। वह सहज ग्राह्य है। __मैं अपनी अपार श्रद्धा महासती जी के श्री
卐 . चरणों में समर्पित करते हए यह मंगल कामना
जो वाणी से सुन्दर व मधुर बोलता है, करती है कि आपका यशस्वी जीवन संघ के लिए
कर्म से सदा शुभ आचरण करता है, वह प्रेरणास्पद रहे।
व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ की भांति सबको प्रिय लगता है।
-ऋषिभाषित ३३/४ .)
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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भावना के सुमन
- महासती रत्नज्योति ___मैं अपने आपको सौभाग्यशालिनी मानती हूँ परम विदुषी साध्वी रत्न कुसुमवती जी की गुण गरिमा का वर्णन करने का सुनहरा अवसर प्राप्त
हुआ है । जल की नन्हीं सी बूंद में कोई चमत्कार ॥ नहीं होता. पर वही नन्हीं बंद कमलिनी के पत्तों
का संस्पर्श पा लेती है तो अनमोल मोती की तरह चमकने लगती है। ___ नाम के साथ जब गुण का संयोग होता है तब वह नाम यथार्थ होता है । महासती कुसुमवती जी कुसुम की तरह ही कोमल स्वभाव की धनी हैं। उनमें विद्वत्ता है किन्तु विद्वत्ता का अहंकार नहीं है। उनके गले में सहज माधुरी है । जब वे गाती हैं तब श्रोता झूमने लगते हैं। वे जब प्रवचन करती हैं तो उनके प्रवचन पीयूष का पान कर भव्य आत्माएँ त्याग-वैराग्य के पथ पर सहज रूप से बढ़ जाती हैं। आपकी प्रवचन शैली सरल है। कठिन से कठिन विषय को सरल रूप में प्रस्तुत करने में आप दक्ष हैं।
श्रद्धेय सद्गुरुणी जी श्री पुष्पवती जी म० की गुरुणी बहिन होने के कारण अनेकों बार महासती कुसुमवती जी के साथ रहने का अवसर मिला। मदनगंज में साथ-साथ वर्षावास का भी अवसर मिला। बहुत ही सन्निकटता से उनके जीवन को देखने का अवसर प्राप्त हुआ है । उस आधार से मैं कह सकती हैं कि उनमें सरलता, व्यवहार में निश्चलता आदि ऐसे सद्गुण हैं जिनके कारण उनका अभिनन्दन समारोह मनाया जा रहा है । मैं जिन शासन देव से यही मंगल कामना करती हूं कि वे दीर्घायु बनें और जिनधर्म की प्रबल प्रभावना
श्रद्धा-सुमन
-साध्वी श्री चन्द्रावतीजी म. जिनके सद्गुण की महक रही फुलवारी, धन्य कुसुमवतीजी सती बाल-ब्रह्मचारी ।।.... मेवाड़-धरा में देलवाड़ा प्रियकारी, लिया जन्म आपने हर्षित जनता सारी, गणेशलाल जी पिता हुए सुखकारी.... कैलाशकुंवर जी मात आपकी प्यारी, ली दीक्षा साथ में मात-सुता हितकारी, गुरुणी जी सोनकुंवर हुए तपधारी.... गुरुदेव आपके पुष्कर मुनिजी ज्ञानी उपाध्याय हैं और बड़े ही ध्यानी लघुवय में आपने व्रत लिया अतिभारी.... संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती कई भाषा सीखी आगम में रंगराती शिष्या और प्रशिष्या हैं गुणधारी.... युग-युग तक जीओ यही भावना मेरी रहे सौरभ फैलती यही कामना मेरी 'चन्द्रावती' करती अर्ज सुनो गुणधारी....
वन्दन अभिनन्दन
-महासती सिद्धकुवरजी सती 'कुसुम' का अभिनन्दन शत बार है, वन्दना करते सदा सुखकार है।
उदयपुर की पुण्य धरा धन्य है
'कुसुम' महके जहाँ बड़े श्रेयकार है.... मात-पिता का नाम उज्ज्वल कर दिया, त्यागमय जीवन बना प्रियकार है।
बालवय में आपने संयम लिया,
ज्ञान की आई अजब बहार है.... ज्ञानी-ध्यानी ये बड़े विद्वान हैं, जैन शासन के कुसुम श्रृंगार है....
युगों-युगों तक आपकी सौरभ रहे सिद्ध अभिनन्दन करे शत बार है....
मात-उम महधरा
करें।
प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चना
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गुरुणी गुणगाथा
-साध्वी दर्शनप्रभा एम. ए., पी-एच. डी. गुरुणी जी की महिमा का नहीं पार किसी ने पाया है
जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है." कुसुमवती जी नाम है इनका सबको मंगलकारी है उग्र विहारी उच्च विचारी समता के भण्डारी है जिसने इनकी सेवा की है, उसका भाग्य सवाया है जो भी चरण-शरण में आया बेडा पार लगाया है....
बालवृद्ध सब नर और नारी इनकी महिमा गाते हैं एक बार जो दर्शन करते कभी भूल नहीं पाते हैं इनका जीवन दुःखी जगत के लिए शान्ति की छाया है
जो भी चरण-शरण में आया बेडा पार लगाया है श्रमण धर्म पालन करने में सचमुच चन्दनबाला है गुण वर्णन मैं करूं कहाँ तक अमर गुणों की माला है जीवन जिसका अतिशय पावन भक्तों के मन भाया है जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है."
सत्य-अहिंसा दया-धर्म की इनमें ज्योति समाई है त्याग-भाव वैराग्य भाव की इनकी बड़ी बड़ाई है सारे जग में जैन-धर्म का डंका खूब बजाया है
जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है। महावीर के वीर मार्ग पर चलने का संकल्प लिया आत्मोन्नति के शुद्ध-भाव से साध्वी जीवन कल्प किया अनेकांत सिद्धान्त न्याय का जीवन में अपनाया है जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है."
सच्ची जिनवाणी माता की सेवा का व्रत धार लिया झठी जग की माया का जीवन से बोझ उतार दिया आगम वाणी के प्रचार को अपना ध्येय बनाया है
जो भो चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है। चरणों में आई 'दर्शना' इसका बेड़ा पार करो दया करो गुरुणी जी मेरे जीवन का उद्धार करो कृपा आपकी पाकर मैंने जीवन का फल पाया है जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है""
दीक्षा-स्वर्ण-जयन्ती पर मैं श्रद्धा भेट चढ़ाऊँ क्या ? सोच-सोच मन रह जाता है मैं सेवा में लाऊँ क्या ? नमस्कार वन्दन लो मेरा यही समझ में आया है। जो भी चरण-शरण में आया बेड़ा पार लगाया है...
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना CMO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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भूलोक के गौरव !
का संयम हो,
वह जीवन, या शत-शत नमन
वह स्थल, -साध्वी गरिमा, एम. ए. मेरी दृष्टि में, व्यक्तित्व,
महातीर्थ है, चाहे कैसा भी हो,
हे महातीर्थ ! मूल्यांकन की दृष्टि से,
भू-लोक के गौरव, मापना सहज नहीं
स्वर्ण-जयन्ती पर, चाहे कितनी भी सजगता हो,
शत-शत नमन, फिर भी,
युग-युग तक, त्रुटियां, कुछ रह ही जाती हैं,
तेरी सुरभि से, सामान्यजन का मूल्यांकन भी कठिन,
सुरभित रहे ये चमन, तो, फिर,
00 ऐसे व्यक्तित्व के विषय में, कहना या लिखना,
जिनशासन की शान नीलगगन को,
-साध्वी श्री चन्दनबालाजी म. दृष्टि से, मापने के तुल्य,
जिनशासन की शान हैं, महासती गणखान हैं विशाल पारावार को,
ज्ञान गरिमा भारी है, बड़े गुणधारी हैं.... भुजाओं से,
कुसुमवतीजी ज्ञानी हैं, निर अभिमानी हैं तिर जाने सम सम्भव नहीं,
मधुर व्यवहारी हैं, बड़े गुणधारी हैं...... जो,
वाणी में मृदुता है, मन में साधुता है अनेक गुणों का आकर,
काया कोमल वारी है, बड़े गुणधारी हैं.... अनेक रंगों का सम्मिश्रण,
अज्ञान तिमिर हटाते हैं, ज्ञान ज्योति जगाते हैं असंख्य पुष्पों की सुरभिराशि,
भव्य हितकारी हैं, बड़े गुणधारी हैं.... असंख्य दीपों का ज्योतिपुंज हो,
शिक्षा-नित्य देते हैं, जीवन नैया खेते हैं त्रय अपणाओं के संगम से,
सच्ची साधना तुम्हारी है, बड़े गुणधारी हैं.... प्रयाग, तीर्थ बन गया,
बियासी की साल में, कोठारी परिवार में पर, जहाँ,
जन्मे सुखकारी हैं, बड़े गुणधारी हैं..... त्याग और वैराग्य,
श्याम-वर्ण लघुकाया, संयम का पद पाया तप और संयम,
आत्मा ने तारी है, बड़े गुणधारी हैं..... विनय और विवेक,
शिक्षा-दीक्षा दाता थे, तपोधनी ज्ञाता थे समता और सहनता,
सोहन गुरुणी प्यारी हैं, बड़े गुणधारी हैं.... सौम्यता और सहिष्णुता,
आपका अभिनन्दन है, 'चन्दना' का वन्दन है साधना और आराधना,
शत-शत वारी है, बड़े गुणधारी हैं ।..... माधुर्यता और पवित्रता, प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना कर साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOS
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सुवासित कुसुम
—साध्वी चन्दनप्रभा
मंजुल स्नेह देवि
वन्दन-अभिनन्दन । ----साध्वी दिव्यप्रभा, एम० ए, पी-एच० डी०
सागर-सम गम्भीर आप हैं
- नीर जैसा है निर्मल मन सत्य ज्ञान समुज्ज्वलता से
___ ज्योतित होता है अन्तस्तल चंचल मन की सुस्थिरता से
ध्यान-भाव में नित बहते ज्ञान-राशि के रत्न महोज्ज्वल
आत्म-भाव में नित रहते तत्व-बुद्धि को देख आपकी
मन हर्षित हो जाता है प्रतिभाधारी संयमी ज्ञानी
यशोगान मन गाता है वाणी-भाषा मधुर ओजस्वी
तेजस्वी मुख दर्पण है छल-प्रपंच से दूर बहुत ही ।
सरल आपका जीवन है अपनी अमृतमय वाणी से
सबका दुःख मिट भूले-भटके प्राणी जनों को
__आपने मार्ग दिखाया है जन्म ग्रहण करते पुरुषोत्तम
जग का दुःख मिटाने को मौर्य निशाचर दूर भगाते
ज्ञान-ज्योति प्रगटाने को सौरभ फैली जग में आपकी
___जैसे महके चन्दन है दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर तो
वन्दन शत, अभिनन्दन है !
आ आराधना के आराध्य ६ ध्यान की निष्कम्प ज्योति या याज्या ज्यों निर्मल र त्याग की साकार प्रतिमा म मही सम सहिष्णुता यो योगिनी है तन व मन से गि गिरि सम अडोल
नी नीलगगन ज्यों विशाल का काया तक का है नहीं मोह श शतपत्र की भाँति निर्लेप मी मीत तुम सबके बने र रहा न तुमसे कोई प्यारा प्र प्रदीप्त कर जीवन बनाया चा चारु और नयनाभिराम रि रिद्धि तुम्हारे कदम चूमे
का कामना इर्द-गिर्द घूमे म महिमा मण्डित तम-अर्चे कैसे हा हाला पी हम ज्यों हैं बेभान स सहज श्रद्धा भक्ति के वश है ती तीव्र तमन्ना गाए गान
'कुसुम' अपनी सुरभि से सुरभित करती हर डग को मंजुल स्नेह देवी! वन्दन अभिनन्दन शत बार तीनों लोकों में हो जयकार जोयो तुम तो वर्ष हजार
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना !
5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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कुसुम-चालीसा
-साध्वी श्री चारित्रप्रभा जी
साध्य सिद्धि वरदायिनी करुणाकृति अत्यन्त । श्री कुसुम महासती जी जय जय हो जयवन्त । नाम सदा जिनका सुखकारी । गुण गण मण्डित महिमा भारी ।। १ ।। जो भी चरण शरण में आया । उसने ही जीवन फल पाया ।।२।। सम्वत् शुभ उन्नीसो व्यासी। षष्ठी कृष्णा आश्विन मासी ।। ३ ।। जन्म स्थान उदयपुर प्यारा । मात-पिता को अति सुख कारा ॥ ४ ॥ श्री गणेश लाल कोठारी। 'देलवाडा' के श्रावक भारी ॥ ५॥ धर्म पत्नी श्री सोहन बाई।
ओस वंश सबको सुखदाई ॥ ६ ॥ मंगल जन्म हुआ पुत्री का। पुर परिजन सब ही को नीका ॥७॥ घर घर मंगल बटी बधाई। मानो लक्ष्मी तनु धर आई ॥ ८ ॥ देव देवि सम नर और नारी। मुदित नजर हर्षित अति भारी ॥६॥ धर्मवद्ध श्रावक जन आये। सबने आशीर्वचन सुनाये ॥ १० ॥ शुभ संतति मिलती सदा पूर्व पुण्य अनुसार । 'नजर कुंवर' के नाम से किया नाम संस्कार ।। वृद्धि पाय सब विधि सुकुमारी । कल्प वेलि सम प्रिय मन हारी ।। ११ ।। सुखमय अपना समय बिताये । विधि को ये सुख नहीं सुहाये ।। १२ ।। वर्ष चार कछु बीत न पाये। पिताश्री स्वर्ग लोक सिधाये ।। १३ ।।
पत्नी के हिय हुआ अंधियारा । बिछुड़ गया गृहि धर्म सहारा ॥ १४ ।। दुख पहाड असमय में टूटा। क्षण में जीवन साथी छूटा ।। १५ ।। ज्यों त्यों अपना मन समझाया। समझ अनित्य जगत की माया॥१६॥ माँ के भाव पुत्री मन भाये ।। जग असार छोड़न उमगाये ।। १७ ।। माता दर्शन ज्ञान समाना। हुई चारित्र सुता गुण खाना ।। १८ ।। कर्म रोग बन तब हो आये। नजर कवर पर नजर लगाये ॥ १६ ॥ किये उपचार अनेक प्रकारा।
मिटा न रोग दुखी परिवारा ।। २० ।। माता ने प्रण ले लिया यदि पुत्री होय निरोग । इसे संग लेकर समुद धारू संयम योग ।।
सुख का वेदनीय जब आया। हुई निरोग सुता की काया ॥ २१ ।। मां पुत्री ने हर्ष मनाये । मानो भाग्य उदय हो आये ॥ २२ ॥ आतम हित अवसर जब आवे । तब ही समकित रत्न सुहावे ॥ २३ ॥ चरण शरण आये गुरुणी के। प्रगट विचार किये सब जी के ॥ २४ ॥ सोहन कॅवर महासती भारी। दोनों की मति पै बलिहारी ।। २५ ।। 'जहा सुहं' गुरु मंत्र सुनाया। मानो रंक राज पद पाया ।। २६ ॥ हुई दीक्षा की सब तैय्यारी। मुण्डित हुई पुत्री महतारी ॥ २७ ॥ 'देलवाडा' के गली गलियारे । हुए वैराग्य निछावर सारे ।। २८ ।।
सस
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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पुत्री मां के बीच समाई ।
कुसुमाष्टकम् मां पुत्री पर बलि बलि जाई ।। २६ ॥
-साध्वी श्री चारित्र प्रभाजी नर नारी सब मंगल गावें ।
धन्य धन्य जयकार लगावें ॥ ३० ॥ सम्वत् उन्नीसो त्रानवें फाल्गुण शुक्ल सुमास । दशमी तिथि सौभागिनी, पूर्ण हुई सब आस ।
जगन्मान्या धन्या प्रशमनपरा पूर्ण सुयशा,
महासाध्वी रत्ना विजितमनसा सयमधरा । विधि निषेध आगम अनुसारी। परंमूर्तिः स्फूर्तेः सकल जन शान्ते हितरता, मां पुत्री ने दीक्षा धारी ॥ ३१ ॥ सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ।। प्रथम सती हुई सोहन बाई ।
संसार में मान्य, धन्य, प्रशम भाव से युक्त पदम कुँवर सती गुरुणी पाई ॥ ३२ ॥
सुन्दर कीर्ति से सम्पन्न महान साध्वियों में रत्न, नाम कैलास कुँवर अति प्यारा।
मनोविजय के साथ, संयम धारण करने वाली, जग विश्रुत है मंगल कारा ।। ३३ ।। स्फूर्ति की साक्षात् मूर्ति, सभी लोगों की सुख शांति नजर कवर कुसमवती सोहे।
में तत्पर तथा सद्गुणों के सुयोगों से युक्त साध्वी साध्वी रत्न सकल मन मोहे ।। ३४ ॥
कुसुमवतीजी की जय हो। सोहन कुँवर गुरुणी जिन पाई। गुण अनुसार मिली प्रभुताई ॥ ३५ ॥
गणेशाख्यस्तातः जिनमतरता निर्मलमतिः, का मैं अजान नहीं बुद्धि घनेरी।
सुयोग्यात्मा माता गृहिगुण युता सोहनवतीः । जिनकी प्रथम कहाई चेरी ।। ३६ ॥ जनु मिर्यस्योदयपुर पुरी सर्व विदिता, द्वितीया शिष्या दिव्यप्रभा जी।।
सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ।। तृतीया शिष्या श्री गरिमा जी ॥ ३ ॥
__ गणेश नाम के जिनके पिता हैं जो जैन मत में
तत्पर हैं, स्वच्छ बुद्धि हैं, गृहस्थ के गुणों से युक्त नर जीवन जग दुर्लभ जाना।
सोहनवती जिनकी माता है, सुविख्यात उदयपुर अति दुर्लभ सद् गुरुणी पाना ॥ ३८ ॥
जिनकी जन्म भूमि है, सद्गुणों से युक्त ऐसी साध्वी जिनके भाग बड़े जग मांहि । जी कुसुमवतीजी की जय हो । कुसुमवती सी गुरुणी पांहि ॥ ३६ ॥ गुरुणी जी की सेवा पाके । जगे भाग चारित्रप्रभा के॥ ४० ॥ तपश्चर्यायुक्ता निखिलमलमुक्ता शुभयुता। सकल सिद्धि दातार है, गुरुणी जी का नाम ।
महदिव्यैः ज्ञानैः प्रमुदित सुभव्याखिलजना ।।
जनान्मार्गध्वस्तानुपदिशति नित्यं हितकरा। श्रद्धा से जो जपेंगे सिद्ध सभी हो काम ।।
सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ।।
तपस्या में तत्पर, समस्त मलिनताओं से मुक्त, शुभ कार्यों में संयुक्त , अत्यधिक दिव्यज्ञान के प्रभाव
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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)
से समस्त भव्य प्राणियों को प्रमुदित करने वाली, अर्चनीय व पूजनीय है। उत्कृष्ट श्रमण भाव को सन्मार्ग से च्युत प्राणियों को उपदेश देने वाली, धारण करती है, और सुरेश भी जिनकी वन्दना नित्य कल्याणकारिणी, सद्गुणों के सुन्दर योगों से करते हैं। सद्गुणों के सुन्दर लक्षणों से युक्त ऐसी अर्थात् लक्ष्यों से युक्त साध्वी कुसुमवतीजी की जय साध्वी कुसुमवतीजी की जय हो। हो।
( ७ ) ( ४ )
यशः पुञ्जो यस्या प्रसरति मही मण्डल तले । प्रबुद्धा संशुद्धा कुगतिइव रुद्धा सुगतिदा ।
जगदम्या यम्या विमल शिवदा भाषण कला ॥ शरण्या भक्तानां विनय सहितानां प्रतिदिनम् ।। प्रसादादस्यायं विकसति सदा धर्मविटपः ।
सदासर्वाधाराः विशदमतिना संयमपरा। सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ॥ सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ।।
प्रबुद्ध, शुद्ध, कुगतियों को रोकने वाली, सुन्दर जिनका कीर्ति पुञ्ज समस्त पृथ्वी मण्डल पर | गति देने वाली, विनययुक्त भक्तों को प्रतिदिन शरण छा रहा है और जिनकी सुन्दर कल्याणकारी भाषण
प्रदान करने वाली या रक्षक और जिनके प्रसाद कला अत्यन्त रमणीय है, जो सदैव सभी की आधार अर्थात् कृपा से सदैव धर्म वृक्ष विकसित होता रहता प्रेरणा स्रोत है, स्वच्छ बुद्धि के साथ संयम में तत्पर है, सद्गुणों के सुयोगों से युक्त ऐसी साध्वी कुसुम- है। सद्गुणों के सुन्दर लक्षणों से युक्त ऐसी वतीजी की जय हो।
साध्वी कुसुमवतीजी की जय हो ।
गुणज्ञा तत्वज्ञा व्रत-नियम-पूर्णातिविमला। यदीयां सत्कीर्ति कथयति सदा जैनजनता, अनेकान्तान् मार्गाननुसरति नित्यं शुचिधिया | विचारा चाराभ्यामनुचरति सिद्धान्त समताम् । समयातान् जीवान् प्रति दिशति निश्रेयस पदम्। अहिंसा सन्देशान् प्रति दिशति लोकान् रुचिकरान्, सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ॥ सूयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ॥
गुणज्ञ, तत्वज्ञ, व्रत एवं नियमों से परिपूर्ण, जिनकी सत्कीति का वर्णन जैन जनता सदैव अत्यन्त पवित्र अनेकान्त धर्म का अनुसरण करने करती रहती है और जो विचार एवं आचार से वाली, पवित्र बुद्धि वाली, शरण में आये जीवों को सिद्धान्तों का अनुसरण करती है तथा जो लोगों कल्याण पथ प्रदान करने वाली, सद्गुणों के सुयोगों को सुन्दर लगने वाले अहिंसा के सन्देशों का उपदेश से युक्त ऐसी साध्वी कुसुमवतीजी की जय हो। करती रहती है । सद्गणों के सुन्दर लक्षणों से युक्त
ऐसी साध्वी कुसुमवतीजी की जय हो। सुधा सिक्ता वाणी हरति जनतापं च सकलम् । चारित्रान्ते प्रभाख्याहं करोमि कुसुमाष्टकम् । समा संपूज्या जगति जनसंघः सुविधिना ॥
यः पठेत् श्रुणुयान् नित्यं प्राप्नोति स परां गतिम् ।। समुच्चैः श्रामण्यं सुवहति सुरेशोपि नमिता। सुयोगैः संयुक्ता कुसुमवति साध्वी विजयताम् ।।
मुझ चारित्रप्रभा ने इस कुसूमाष्टक की रचना जिनकी वाणी अमृत से सिचिंत है, जो लोगों के
. की है जो नित्य पढ़ेगा व सुनेगा वह परमगति को
प्राप्त करेगा। सम्पूर्ण तापों या दुःखों को नष्ट करने वाली है और जो संसार में लोगों के द्वारा अच्छी प्रकार से
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना o
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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सत
साध्वी निरुपमा
0 विदुषी साध्वी श्री सिद्धकुंवर जी गुरुणी सा गुणों की खान, करे गुणगान
मुझे यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि परम | है सूरत प्यारी, लगती है मोहनगारी विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी म० का अभि-18
नन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। पूजनीया महा- 728 स्वर कोकिल के सम प्यारा है, भव्यों को तिराने वारा है
सती जी हमारी स्थानकवासी जैन परम्परा की | नहीं भरता है दिल ऐसी वाणी प्यारी..."
एक विदुषी साध्वीरत्न हैं। आपका गरिमामय
जीवन महिमा मंडित है, आपके पावन जीवन | व्याख्यान में जादू भरा हुआ,
दर्शन से समाज को दिशा निर्देशन मिलता रहे जिसने भी सुना आनन्द हुआ
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ अन्तर्ह दय से मंगल लगता है सुनते रहें जिन्दगी सारी".....' कामना करती हैं। है नाम 'कुसुम' आनन्द दाता, संघ सारा ही तो गुण गाता महिमा तो फैली आपकी जगत मंझारी........
साध्वी सुप्रभा
गुण इतने हैं नहीं गा सकते, नहीं शब्द है हम पे कह सकते देना ऐसा आशीष हो भव से पारी........
0 साध्वी सुप्रभा इस विश्व पटल पर कई चित्र उभरते रहते हैं पर उनमें से कुछ तो मिट जाते हैं और कुछ चित्र जो उभरते हैं और उभरे हुए ही रहते हैं।
ऐसा ही एक भव्य चित्र है-परम विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी का, १० वर्ष की लघुवय में आपने संयम पथ पर कदम बढाये तभी से आज तक स्व-पर कल्याण में आपने अपने जीवन को लगाया है।
आपका पावन पुनीत जीवन नारी मात्र के लिए एक आदर्श है । मैं इस अभिनन्दन की वेला पर आपके चरणारविन्दों में वन्दन करती हुई यही मंगलकामना करती हूँ कि आप दीर्घायु हों व हमें सदा मार्ग दर्शन प्रदान करती रहें।
कुसुमवतीजी पुण्यवान, बड़ी गुणवान महिमा अपारी, सब गुण गावें नर नारी"""
जन्म उदयपुर में पायो
मा-पितु का नाम चमकाया लघुवय में दीक्षा-व्रत को तुमने धारी"
महासती सोहन गुरुणी पाई
शिया प्रथम तो कहलाई ज्ञान-ध्यान तो किया खूब ही भारी"
वाणी मीठी प्यारी लगती
सबके दिल को यह हर लेती जनता तो सुन-सुन खुश होती है सारी"
ये सागर सम गम्भीरा हैं
व्रत पालन में ये वीरा हैं व्रत-तप-संयम-गुण के तो हैं भण्डारी"
'सुप्रभा' आपके गुण गाती
चरणों में शीष को झुकाती अभिनन्दन शत-शत करते हैं हर बारी"
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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होम
कुस्मश्रीजी म. का कुसुम-सा महकता जीवन जिस मार्ग पर आपश्री जी को जन्मदात्री
-परम विदषी साध्वीरत जननी चली, उसी पथ का अनुसरण आपने भी श्री विजेन्टकमारी जी किया निर्भय होकर, यही तो शूरवीर वीरांगनाएँ
- होती हैं जो कष्टों की भी परवाह किए बिना दुर्गम तारोफ में जिनकी, शब्द ही खो जायें। पथ पर अग्रसर हो जाती हैं। हमारी चरितनाकैसे करें तारीफ उनकी, जरा आप ही बतायें ? यिकाजी (श्री कुसमवती) म० भी संयम के पथ पर
हमारी गौरवशालिनी मातृभूमि सन्तों की तपो- अग्रसर होकर निर्भय रूप से चलीं। मय भूमि रही है । सन्त ही भारतीय संस्कृति के मैं आपकी ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप त्रिवेणी प्राण हैं । श्रमण-श्रमणियों की साधना से ही यह साधना का अभिनन्दन करती हुई, शासनेश संस्कृति अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित हुई है। प्रभु से प्रार्थना करती हूँ कि आप दीर्घायु हों।
गुलाब का फूल जिस वन उपवन में जहाँ भी मेरा मुखरित मन पल-पल स्वयं ही गुजन कर विकसित होता है, वहाँ के वातावरण को सुरम्य ।
उठता है। सुहावना और सुवासित बना देता है । जन मन के
तुम हमारे हो सदा ही, हम तुम्हारे हैं। 1 मानस को तरोताजा बना देता है। उसे इस बात भावनाओं के सुमन, सब आज वारे हैं।
का जरा भी विचार नहीं आता कि कोई मुझे देख कह रहा है यह नित्य, धरती का कण-कण । ह रहा है या नहीं। कोई मेरा गुणगान भी कर रहा
तुम जिओ इतने साल, कि जितने सितारे हैं ॥ 8
तुम जिआ इतन स Pal या नहीं । मैं किसी बहुत बड़े बगीचे में खिला हूँ।
या एकान्त में। IT जीवन का गुलाब सदा कष्टों के काँटों में ही 'संयम पथ की अमर साधिका'
विकसित होता है। काँटों का मधुर मुस्कान से . सुवासित करने वाला जीवन ही महान् जीवन है
__ (साध्वीरत्न श्री विजेन्द्र कुमारी जी म०
की शिष्या) साध्वी 'निधि ज्योति जी' महान साधक व साधिकाएँ कभी कांटों से घबराते नहीं प्रत्युत काँटों को भी फूल बनाने की, उनकी
जग में जीवन श्रेष्ठ वही, Hiचुभन को सुवास में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं। उनका एक ही काम रहता है, विकसित होना
___ जो फूलों सा मुस्कराता है । और अपने सद्गुणों की सौरभ को विस्तृत कर
अपने गुण सौरभ से जग में,
कण-कण को महकाता है। देना।
भारतीय संस्कृति में-श्रमण संस्कृति में उसके परम पूज्या श्रद्धया महासती श्री कुसुमवतीजी
सता श्री कुसुमवतीजी महान सत्पुरुषों व आत्मसाधकों का गौरवपूर्ण म० का जीवन भी एक महकते हुए गुलाब की तरह स्थान है। यहाँ पर आज से नहीं बल्कि अनादिकाल
से तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और अनेक __महासती जी म० के जीवन के कण-कण में और त्यागी, तपस्वी महान आत्माओं ने अवतार लेकर मन के अणु-अणु में साधना और तप का स्रोत बह इस धरा को पवित्र किया, और कर रहे हैं, तथा ह रहा है । जिस प्रकार पुष्प में सुगन्ध, दूध में धव- करते रहेंगे। उनकी सुकीर्ति-सुयश, तप, त्याग लता, चन्द्र में शीतलता समाई हुई है। उसी प्रकार वृत्ति की ऊँचाइयाँ तथा अध्यात्मवाद का दिव्य आपके रोम-रोम में साधना अभिव्यक्त है।
प्रकाश रवि रश्मि सम यत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त है।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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और विश्व का कण-कण उनका सदैव ऋणी है, एवं शासनेश प्रभु से आपके स्वास्थ्य तथा दीर्घायु की 5 ऋणी रहेगा।
मंगल-कामना करती हुई दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पार ऐसी ही कोटि में महान साधिका दिव्य त्याग- पुनात अवसर पर शत-शत अभिनन्दन और भाव । मौत, सरलात्मा, ज्ञाननिधि, करुणावत्सल. तपोधनी. मरा आमनन्दन । महान साधिका श्री कुसुमवती जी महाराज हैं। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती की पुण्य बेला पर, आपश्री जी संयम में मेरु के समान अडिग, अचल,
यही कामना करती हूँ। स्थिर हैं, जिस प्रकार आँधी, तूफान आदि आने
तुम जिओ हजारों साल, पर भी वह चलायमान नहीं होता है, वह स्थिर होता है, उसी प्रकार आप भी अनेक परीषह उपसर्ग
यही भावना भाती हूँ। आने पर संयम-साधना में निष्कम्प तथा अविचल हैं । संयम तो आपके रोम-रोम में समाया हुआ है। ___ बाल्यावस्था में मुझे दिल्ली चाँदनी चौक में अनेक बार आपके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । किन्तु आज भी मेरे स्मृति-फ्टल पर अंकित
जैन साध्वी जयश्री है कि आपका प्रतिभासम्पन्न एवं तप से आलोकित चमचमाता हुआ, वह दिव्य आनन बड़ा ही जीवन चन्द्र से भी शीतल है, जिसका चरित्र क्षीर
जिसका हृदय कुसुम से भी कोमल है, जिसका शान्तप्रिय है । और आपके मुखमण्डल पर भीनी- से भी उज्ज्वल है, ऐसे परम ज्ञान क्रिया के धारक भीनी मुस्कराहट छाई रहती है। आप बड़ ही जैन जगत की उज्ज्वल तारिका महासती श्रीकसमशान्त वीर-धीर-गम्भीर तथा प्रकृति से ही, बच्चों से नदी
वतीजी म. हमारे स्थानकवासी जैन समाज के एक लेकर बुड्ढे-बुजुर्गों के साथ एक ही जैसा प्रेमपूर्वक
ज्योतिर्मय नक्षत्र हैं। आपका जीवन सागर से भी वार्तालाप किया करते हैं ।
अधिक गहन है, पृथ्वी से भी अधिक धैर्यवान है। जैसे कमल सूर्य की ओर ही मुंह किये रहता सुमेरु पर्वत के समान अडोल है, अकम्प है, आकाश है, इसी तरह आपश्री सदैव अपने इष्टदेव प्रभु की से भी अधिक विशाल है। स्वाध्याय में लीन रहते हैं।
जिसने एक क्षण के लिए भी संयम स्वीकार 2 आप महान आत्मा के किन-किन गुणों को उद्- कर लिया हो तो भी वह धन्य बन जाता है तो भाषित करू, आपके जीवन के गुणों की माला तो जिसने संयमसाधना के ५० से भी अधिक वर्ष । इस प्रकार गुथी हुई है, जिसका कोई ओर-छोर ही सम्पन्न कर लिए हों उन्हें जितना भी धन्यवाद नहीं है, जिधर से भी देखो, जिधर से पकड़ो सर्वत्र अर्पण किया जाए उतना ही कम है। आपने अपनी गुण ही गुण दृष्टिगोचर होते हैं।
मातेश्वरी श्री कैलाशकुवर जी के संग संयम शत-शत अभिनन्दन
स्वीकार कर जिनशासन की जो प्रभावना की है।
वह हम सभी साधिकाओं के लिए प्रेरणास्पद है । ____ आपश्री जी संयम-यात्रा के ५२वें वर्ष में मंगल प्रवेश कर चुके हैं। आपकी बहुमुखी साधना से मैं श्रद्धान्वित हूँ, व आपके गौरवमय, प्रेरणाप्रद निर्मल साधनामयी जीवन का हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ,
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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शुभ कामना : अभिनन्दन डॉ. बह्ममित्र अवस्थी
०प० जनार्दनराय नागर (महा महोपाध्याय एस. के. योग इन्स्टीट्युट, दिल्ली)
(उपकुलपति)
राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप महासती कुसुमवती जी के अभिनन्दन की व्यवस्था जन शासन की महिमा और गरिमा साध्वीरत्न कर रही हैं एवं एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर कुसुमवतीजी को उनके संयम साधना के ५४वें वर्ष | रही हैं। वस्तुतः यह अभिनन्दन महासती जी के में प्रवेश करने पर अभिनन्दन ग्रन्थ अर्पित करने की 22 भौतिक स्वरूप का न होकर उनकी साधना का, प्रेरणापन्न योजना है। उनकी तपश्चर्या का अभिनन्दन है। वस्तुतः आज सच तो यह है मैं जैन शासन तथा दर्शन का जब समाज में भौतिकता के मूल्यों की प्रतिष्ठा साधक नहीं हूँ और न ही रहा । मैं तो जिज्ञासु ) बढ़ती जा रही है, उस समय साधना और तपश्चर्या व्यक्ति हूँ तथा भारतीय दर्शन के जीवन विषयक |KC का यह अभिनन्दन मूल्य का अभिनन्दन है, आध्या- आधारभूत तत्वों के लिये कभी-कभी जिज्ञासा करता त्मिकता का अभिनन्दन है। इस प्रकार से यह कार्य हूँ । अतः मैं यही सोचता हूँ कि महिमामयी समाज में आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना का कुसुमवतीजी के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धा अर्पित प्रयास है, भौतिकता से नैतिकता की ओर साधना करूं। और तपश्चर्या की ओर बढ़ना और समाज को आपने मुझे याद किया, यह मेरा परम सौभाग्य बढ़ाने का स्तुत्य प्रयास है और मैं इस प्रयास का है। हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ एवं इस पावन प्रयास की सफलता के लिए अपनी मंगल कामनाएँ प्रेषित
पुखराजमल एस० लूंकड़ करता हूँ।
अध्यक्ष
अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस ए
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि विदुषी साध्वी डॉ. विनोद कुमार त्रिवेदी श्रीकुसुमवतीजी संयमी जीवन के पचास वर्ष पूर्ण कर
(एम. ए. पी-एच. डी. चुकी हैं। दीक्षा की अर्ध शताब्दी अपने आप में एक 19 समस्तीपुर, बिहार) उपलब्धि है । संयमसाधना के साथ-साथ विभिन्न
भाषाओं का ज्ञान और साधना आपकी विशेषता जैन धर्म की महनीय विभूति परम साध्वी रत्न है। कुसुमवती जी का आदर्श जीवन धार्मिक एवं नैतिक व्यक्तिशः मेरा आपसे सम्पर्क नहीं हुआ है किन्तु अवदान की उज्ज्वल परम्परा का अनुगमन करते जैसी जानकारी मिली है उसके अनुसार आप एक हए दिव्यता की पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ एक ओजस्वी वक्ता, प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं साधना आध्यात्मिक और आदर्श जीवन है। उनसे सम्ब- सम्पन्न साध्वी हैं। दीक्षा की स्वर्ण जयंती के अवसर न्धित अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन निश्चय ही एक पर मैं उनके प्रति आदर व्यक्त करते हुए शासन देव महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य है।
से प्रार्थना करता हूँ कि आप संयममय जीवन का ) ____ इस ग्रन्थ की सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभ- एक शतक पूर्ण करते हुए जन-जन को धर्म की कामना स्वीकार कीजिए।
प्रेरणा दें। प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
- साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 0
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D संचालाल बाफना
रमाकांत जैन लखनऊ (भू. पू. अध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्था. जैन कांफ्रेस)
यह ज्ञात कर प्रसन्नता हुई कि विदुषी साध्वी पूज्य महासती श्री कुसूमवती जी महाराज के श्री कुसुमवतीजी को उनकी संयम यात्रा के गौरवदीक्षा स्वर्णजयन्ती महोत्सव के शुभ अवसर पर पूर्ण ५० वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष में 'कुसुम अभिअभिनन्दन ग्रन्ध का प्रकाशन हो रहा है, यह जानकर नन्दन ग्रन्थ' अपित करने की योजना उनकी प्रसन्नता हुई।
शिष्याओं और प्रशिष्याओं द्वारा बनाई गई है। ___गुणीजनों का अभिनंदन वंदन करना मानव इसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं। मात्र का कर्तव्य है। सद्गुणों के जीवन्त रूप जब हमारे सामने होते हैं तो हमें उनके गुणों से
७ सितम्बर, १९२५ को उदयपुर (राजस्थान) प्रेरणा मिलती है, और गुणों के प्रति आकर्षण एवं .
में श्री गणेशलालजी कोठारी के घर में जन्मी कन्या
नजरकवर को साढे ग्यारह वर्ष की वय में दीक्षा उत्साह भी बढ़ता है। हम सद्गुणों की उपासना
दिलायी गई। आराधना करके अपने जीवन को भी गुणी बना । सकते हैं इसलिए गुणीजनों का आदर्श हमारे सामने यह परम सन्तोष का विषय है कि कुसुमवती रहना चाहिए।
नाम से दीक्षित उस बालिका ने संयम-साधना के पूज्य महासती जी का जीवन अनेक विशेष- दृष्कर पथ को प्रशस्त कर उसका पूर्ण सदुपयोग ताओं से युक्त है। वे जितनी सरल और मधुर किया और अध्यात्मयोगिनी' सन्मान की स्वभाव की हैं, उतनी ही गम्भीर और ज्ञान गरिमा अधिकारिणी बनी। से मंडित भी हैं। मैं उनके आरोग्यमय दीर्घ जीवन की शुभ कामना करते हुए हार्दिक अभिनन्दन .. मधुर वाणी में चि
मधुर वाणी में चिंतन की गहराई को उतारने करता हूँ।
में पटु और ओजस्वी प्रवचनों द्वारा सुप्त जनजीवन
को जागृत कर सत्य, सेवा, शील और सदाचार के शांती लाल दूगड
पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने वाणी विदूषी साध्वी (अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस ,
कुसुमवतीजी को उनके सर्वथा योग्य 'प्रवचन भूषण'
युवा अध्यक्ष) की उपाधि देकर स्थानकवासी संघ ब्यावर द्वारा पूज्य कुसुमवती जी म. अपनी ५०वीं संयम सम्मानित किया गया। यात्रा पूर्ण कर चुकी है यह हमारे समस्त जैन समाज की गौरवपूर्ण बात है। इस दुनिया में सभी
___ सरलता, सहनशीलता और करुणा की त्रिवेणी का अभिनन्दन किया नहीं जाता, जिसने अपने
अपने जीवन में प्रवाहित करने वाली अध्यात्म-है जीवन में संपूर्ण संयम यात्रा कोरी सफेद चादर जैसी
योगिनी विदूषी साध्वी श्री कुसुमवती जी स्थानकनिभाई हो. ऐसे ही महानभावों का अभिनंदन किया वासी समाज में तो अभिनन्दनीय हैं ही, अपनी जाता है । जिसमें पूज्य कुसूमवती जी महासती जी सयम-साधना को सफल बनाने के कारण सम्पूर्ण । एक हैं। जिन्होंने हमेशा भगवान महावीर शासन जैन समाज के लिये भी श्रद्धास्पद हैं। उनका को खूब चमकाया है। जनजीवन को जागृत करके साधना पथ आगे भी ऐसा ही प्रशस्त बना रहे इसी सत्य, शील, सेवा, सदाचार के पथ पर बढ़ने की सद्भावना के साथ । हमेशा प्रेरणा दी है। मैं युवाशाखाओं की तरफ से उनका अभिनन्दन करता हूँ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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डॉ. परमानन्द मिश्र, रोसड़ा
0 श्रीमती उषा जैन, कांदला 'कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ' प्रकाशन की महती
यह मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे पूजनीया 2) योजना हेतु आपकी दृढ़तापूर्ण कटिबद्धता का समा
प्रतिपल वन्दनीया महासती श्री कुसुमवती जी म० चार हमारे लिए निश्चय ही प्रेरणा और उत्साह
के सम्बन्ध में कुछ लिखने का अवसर मिला है। का द्योतक है।
एक कहावत चलती है कि 'सूर्य को दीपक दिखाना' परम साध्वी महीयसी कुसुमवतीजी ने भगवान
महासती जी के बारे में मेरा लिखना भी कुछ इसी
प्रकार का लग रहा है, फिर भी मन की भावना महावीर के सिद्धान्तों को आत्मसात करते हुए उनसे अपने जीवन को ही उदात्त और आदर्श नहीं बनाया
को साकार रूप दे हैं। कांदला निवासियों के है अपितु मानवता ने उनसे एक नूतन दृष्टि, नयी
पुण्य स्वरूप सन् १९८० में आपके सान्निध्य में आप चेतना, सहज स्फूर्ति तथा श्रेष्ठ जीवन जीने की की दो शिष्याओं का दीक्षा महोत्सव करने का सूउत्कृष्ट कला भी प्राप्त की है।
अवसर प्राप्त हुआ । कांदला नगरी उत्तर प्रदेश की
अति प्राचीन नगरी है जहाँ बड़े-बड़े आचार्यों के अपने बावन वर्षों की महती जीवन यात्रा में
चातुर्मास हुए हैं, धर्म साधना की दृष्टि से भी इस शीर्षस्थ स्थान प्राप्त करते हए अपने मौलिक एवं
नगरी का प्रमुख स्थान रहा है। उपादेयता पूर्ण शाश्वत धर्मोपदेश से मानव जीवन के जिन उदात्त मूल्यों को अपने पावन संस्पर्श से
श्रद्धया गुरुणो जी म० की कांदला नगरी पर
बड़ी कृपा रही है। आपके निकट सम्पर्क में रहकर IED चमत्कृत किया है उसके लिए मानवता उनकी चिर।
मैंने पाया कि आपके जीवन में सरलता, नम्रता, ऋणी बनी रहेगी और जैन धर्म के इतिहास में
सहजता आदि अनेक गुण हैं, आपकी वाणी में ओज उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होकर चमत्कृत
है, जहाँ-जहाँ पर भी आपके चातुर्मास होते हैं, वहाँ ! बना रहेगा।
की समाज में एक नई जागृति, एक नई धर्म की उनका लौकिक-मौलिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान, विविध विषयों पर उनका असाधारण अधिकार
लहर पैदा होती है । भगवान महावीर से किसी
साधक ने पूछा कि धर्म का निवास स्थान कहाँ है उन्हें महान से महीयसी बनाता है। सुसुप्त मानवीय
तो प्रभु ने कहा-- चेतना के इस आस्थाहीन युग में अपनी महर्घ्य ।
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई ।। कारयित्री प्रतिभा से सम्पन्न उनका उज्ज्वल और
___ जो सरल हृदय का है उसी के जीवन में शुद्ध आदर्श चरित्र वर्तमान का आदर्श ही नहीं भविष्य
धर्म का निवास होता है । पूज्या महासती जी के , का मार्गदर्शक भी है।
जीवन में सबसे बड़ा गूण सरलता का है। ऐसी महीयसी के उदात्त गुणों से प्रेरणा ग्रहण महासतीजी का उत्कृष्ट जीवन मानव मात्र के ! करने तथा जैन सिद्धान्तों की उपादेय एवं सूक्ष्मे- लिए प्रेरणादायी है। आपके पावन जीवन से प्रेरणा (6) क्षिका दृष्टि से परिचित तथा लाभान्वित होने के
पाकर हजारों को मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है। मैं व्यक्तित्व से सम्बन्धित अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन ।
दन ग्रन्थ का प्रकाशन अपनी ओर से, अपने परिवार की ओर से और निश्चय ही श्लाघ्य कर्म है।
समस्त कांदला निवासी जनता की ओर से दीक्षा ___ मैं उस प्राणवती महादेवी के प्रति अपनी समस्त स्वर्ण जयन्ती के पावन अवसर पर शतशः नमन | हार्दिक श्रद्धा एवं भक्ति समर्पित करते हुए इस ग्रंथ वन्दन करती हुई यही मंगल कामना करती हूँके प्रकाशन जैसे महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान की हजारों वर्ष जी करके, सभी को पथ-प्रदर्शन दो। निर्विघ्न सफलता हेतु हार्दिक शुभाशंसा ब्यक्त अध्यात्म की दिव्य ज्योति और ज्ञान का अमृत । करता हूँ।
वर्षण दो॥6
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना 06d690 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Cexib
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गहरीलाल चपलोत भगवान महावीर के सत्य अहिंसा अपरिग्रह अनेका- I
___ मंत्री-राज्यावास न्त सिद्धान्तों को अगर जीवन में आत्मसान कर __ जैन सन्त सतियों का सम्पूर्ण जीवन ज्ञान दर्शन लिये जाएँ तो सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। ५ चारित्र का प्रतीक होता है । परम विदुषी साध्वीरत्न पु,
पूजनीया महासती जी का जीवन तप व त्याग श्री कुसुमवती जी स्थानकवासी जैन समाज की का प्रतीक रहा हैएक सम्माननीया साध्वीरत्न हैं । आपके प्रति सम्पूर्ण
धन्य है वो मां और पिताश्री,
जिनके घर कुल में जन्म लिया, B समाज में एक आस्था है, एक श्रद्धा है। आपमें विद्वत्ता और विनम्रता का अद्भुत संगम है, आपका
अपने अतुलित ज्ञान धर्म से,
हम सबका जीवन धन्य किया। व्यक्तित्व बहुत ही लुभावना व चिन्तन गहरा है, प्रवचन शैली अत्यन्त रोचक है, वाणी मधुरता तथा
इन्हीं रेखाओं के साथ उनके अच्छे स्वास्थ्य __ सहित दीर्घायु की मंगल कामना करता हूँ।
र ओजस्विता से परिपूर्ण है, प्रकृति सरल मिलनसार और गुण सम्पन्न है। आपके बहुमुखी व्यक्तित्व
सोहनलाल सोनी, नाथद्वारा में अनोखा आकर्षण है, संयम साधना उत्कृष्ट है, प्रातःस्मरणीया प्रतिक्षण वन्दनीया परम विदुषी आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में
साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी महाराज जैन जगत की थोवाहारो थोवभणिओ, जो होइ थोवनिदो य। उज्ज्वल तारिका हैं । आपका वर्षावास हमारे नाथथोवोवहि उवगरणो, तस्स हु देवा वि णमंसंति ॥ द्वारा नगर में हुआ। उनके वर्षावास से नाथद्वारा में ____ अर्थात् जो साधक थोड़ा खाता है, थोडा बोलता अनेक नवीन कार्य हुए। संघ में अच्छी जागृति हुई। है, थोड़ी नींद लेता है, थोड़ी ही उपकरण आदि महासती कुसुमवती जी म० ज्ञान के भण्डार 10 सामग्री रखता है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं, ज्ञाननिधि हैं। किसी भी विषय को समझाने के हैं। साध्वी जी म. के जीवन में ये सारी बातें विद्य- लिए वे उसकी गहराई तक पहुँचती हैं, उनके मुख से मान हैं।
विश्लेषित तथ्य अच्छी तरहसे समझ आ सकते हैं। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पुनीत अवसर पर
__ वे सरस्वती की पुत्री हैं। एक-एक शब्द उनका
ऐसा निकलता है जैसे पहाड़ों से झरनों का उद्भव | मैं अन्तर हृदय से यही सद्कामना करता हूँ कि CH आपका जीवन दीर्घायु हो और इसी प्रकार भविष्य
होता है । कहीं कोई अधीरता नहीं, कहीं कोई हड़
बड़ाहट नहीं; एकदम शान्त स्थिर रूप से उनकी में हम श्रावकों को मार्गदर्शन प्रदान करते रहें।
वाग्धारा बहती है। 0 श्रीकृष्ण लोंगपुरिया उनकी वाणी धीर गम्भीर है, हृदय को छूने मुझे यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि जैन वाली है । बड़े-बड़े सन्तों की वाणी सुनकर के श्रोता जगत की प्रख्यात साध्वी श्री कुसुमवती जी म. के ग्रहण कर पाते हैं या नहीं लेकिन आपके उपदेशों दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन अवसर पर समाज को किसी न किसी रूप में ग्रहण किया जाता है। द्वारा अभिनन्दन स्वरूप अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रका- आपके उपदेशों को सुनकर हमारे नाथद्वारा के शन हो रहा है। जैन धर्म के सिद्धान्त जीवन ग्यारह व्यक्तियों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीनिर्माण के लिए बड़े ही सहायक सिद्ध होते हैं, आज कार किया। अपने जीवन को प्रशस्त बनाया। विश्व भयंकर विनाश के कगार पर खड़ा है, सारे मैंने देखा है, वे समाज में फैले अज्ञान अन्धकार संसार में हिंसा का ताण्डव हो रहा है, मानव आज को नष्ट करने में प्रयत्नशील हैं वे समाज में पनराक्षसी वृत्ति धारण कर चुका है, ऐसी स्थिति में पती हुई रूढ़ियों-असत्परम्पराओं को नष्ट ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
(20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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करने में सदा संलग्न हैं। उनके जीवन का रोम- आपके दर्शन किये और इतना प्रभावित हुआ || रोम आत्मोत्थान और समाजोत्थान में लगा हुआ कि अब तो आप जहाँ कहीं विराजते हों, प्रति वर्ष है। उनके इस महनीय प्रयास में हमारे क्षेत्र की दर्शन करता है। महिलाओं ने रोने-धोने की कुप्रथाओं को अत्यल्प आप में एक नहीं अनेक विशेषताएँ हैं, जिन्हें मैं करने के प्रत्याख्यान लिए।
अंकित करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा हूँ। ऐसे महिमामय साध्वीरत्न श्री के पावन आप में सरलता कूट-कूट कर भरी है। आपके चरणों में श्रद्धा से नत हो, मंगल कामना करता हूँ पास चाहे कोई छोटा बच्चा आये या बड़ा व्यक्ति, कि हमें आपका वरद हस्त सदा मिलता रहे। ० चाहे निर्धन आये या धनी, सबके साथ समान व्यव
। पवनकुमार जैन, काँधला हार हमने देखा है। आपका अन्तर्ह दय ममतासन् १९८० का वर्ष मेरे लिए स्वर्णिम था, जब मयी मां के सदृश है । आपके पावन सान्निध्य को ए एक महान् आत्मा के दर्शन का लाभ मिला । मैं पाकर असीम शान्ति का अनुभव होता है, असीम
साधु सन्तों के दर्शन करने कम ही जाता था। मूड वत्सलता का अनुभव होता है । इस वात्सल्य की ही नहीं बनता था।
धारा में अवगाहन कर अपने आपको धन्य सन् १९८० में जम्मू चातुर्मास कर पंजाब आदि मानते हैं। प्रान्तों में विचरते हुए महासती कुसुमवती जी म० आप क्षमा की महादेवी हैं । मैंने आपको निकट कांधला पधारे । कांधला उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले से ही नहीं अति निकट से देखा है । आपका जीवन का छोटा-सा गाँव है जिसे पूज्य काशीराम जी म० कितना शान्त प्रशान्त है । उफान और तूफान का जैसे महान सन्त सतियों की दीक्षा-स्थली बनने का जबाव भी मृदु मुस्कान से देती है । आपके जीवन सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यहां के लोगों में धर्म की में अद्भुत सहनशीलता है। भावना अधिक है।
आप उच्चकोटि की ज्ञान साधिका हैं । आप के महासती जी के पदार्पण से अच्छी रौनक लग ज्ञान का पार पाना बड़ा मुश्किल है । आप ज्ञान के गई । आपके पास दो विरक्ता बहनें थी-एक मेरठ सूर्य हैं, संस्कृत प्राकृत के श्लोक गाथाएँ रटी पड़ी की गीता जी और एक जम्मू की शान्ता जी। संघ हैं। किसी विषय को समझाने के लिए उसके तलछट ने विनति की कि इन दोनों वैरागिनों की दीक्षा तक पहुँच जाती हैं । जहाँ आप में ज्ञान की गहराई यहीं कराई जाये । भाव पूर्ण आग्रह को देखकर है वहीं आप में चारित्र की भी ऊँचाई है। आप अपनी आपने हमारे संघ की विनति स्वीकार की। संयम साधना के प्रति सजग हैं । आप हमारे उत्तर
बडे ठाठ-बाट से दोनों विरक्ताओं को दीक्षा दी भारत में विचरने पधारे। जगह-जगह आपके गई थी, विशाल जलूस था-जिसमें बाजे, हाथी सामने कई समस्याएं आई-माईक में बोलना, || घोडे, रथ, पदाति एवं संवाद करती हई झाँकियाँ पंखे के नीचे बैठना. फ्लश आदि का उपयोग करना थी। गाँव के जैन अजैन यहाँ तक कि मुस्लिम आदि । आपने कई संकटों का सामना किया पर लोगों ने भी-बच्चे-बच्चे ने भाग लिया। लेकिन कभी भी इन सबका उपयोग नहीं किया। दुर्भाग्य से मैं आपसे परिचित नहीं हो सका।
आप में एक नहीं अनेक गुण हैं। मैं अपनी स्वल्प आप हमारे कांधला से विहार कर मेरठ बड़ौत मति से कहाँ तक वर्णन करू । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती होते हुए देहली पधारे। देहली हम अपने व्यापार के पावन प्रसंग पर अपनी आस्था की केन्द्र गुरुणी से जाते रहते थे। चूकि हमारे बड़े भाईसा आपके जो म० के श्री चरणों में सादर श्रद्धार्पित करते हुए पास बहत आते-जाते थे अतः उनके साथ-साथ मैं यही मंगल मनीषा करता हैभी आपके प्रास स्थानक में पहुँचा।
आप जीयें हजारों साल, साल के दिन हों ५० हजार
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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संयम पूर्ण साधना की साक्षात् मूर्ति कुसुमवती जी महाराज ने अपनी साधना के साथ
ज्ञान का समन्वय कर उस पूर्णता की ओर बढ़ने -आचर्य राजकुमार जैन का प्रयास किया है जिस ओर साधना का पथिक
अपनी मंजिल देखता है। समाज में साधु-सन्तों की महत्वपूर्ण भूमिका श्री कुसुमवती जी महाराज का जीवन केवल || रही है। समाज उन्हें धर्म के प्रतिनिधि या अग्रदूत साधनामय ही नहीं है, अपितु वे उन श्रेष्ठ मानCU के रूप में देखता है । अतः समाज में उन्हें विशिष्ट वीय गणों से परिपूर्ण हैं जो जीवन को सार्थकता All स्थान एवं महत्व प्राप्त होता है। विभिन्न सामा- प्रदान करते हैं । आपके जीवन में महिष्णता, सर
जिक एवं वैयक्तिक बुराइयों एवं विकारों से वे दूर लता, करुणा एवं मृदुता का ऐसा अद्भुत समन्वय रहते हैं, अतः समाज एवं देश को वे सही दिशा है जो मानव समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करता । निर्देश देते हैं।
है। आपके मुख मण्डल पर आभा एवं तेज युक्त I
ऐसा सौम्य भाव है कि व्यक्ति सहज स्वाभाविक हमारे देश और समाज में ऐसे साधु-सन्तों की अविरल परम्परा रही है। उस परम्परा की महत्व
रूप से आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। विकार भाव पूर्ण कड़ी है-परम विदुषी, साध्वीरत्न, वन्दनीय
रहित आपकी सौम्य मूर्ति जिस प्रकृति प्रदत्त सहज श्री कुसुमवती जी महाराज । आप एक उच्च कोटि भाव एवं नसगिकता का आभास देती है वह अन्यत्र 1 र की साधिका हैं और साधना के उच्चतम आदर्शों नह' को प्राप्त करना आपके जीवन का मुख्य
निःसन्देह आप जैसी सरल स्वभावी, साधनामय लक्ष्य है।
तपःपूत जीवनयापन करने वाली परम
साध्वीरत्त जैसे व्यक्तित्व के प्रति न केवल समाज साधनामय जीवन के कंटकों को निस्पह भाव
अपितु सम्पूर्ण देश को गर्व है। मैं ऐसे निस्पही से सहन करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहना आपके
व्यक्तित्व के प्रति नतमस्तक हो उनके चरण युगल १ जीवन की मुख्य विशेषता है जो आपकी संयम यात्रा
में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। के गौरवपूर्ण ५० वर्षों के साधना काल में लक्षित होती है । आपने अपनी साधना में संयम को प्रमुख स्थान देकर साधना के महत्व को द्विगुणित किया
है, क्योंकि संयम के बिना साधना की पूर्णता - संदिग्ध है।
तेजस्विता की साक्षात मूर्ति साधना के साथ ज्ञान की अनिवार्यता भी अंगी
-वैद्य सुन्दरलाल जैन कार की गई है। ज्ञान के बिना भी साधना अपूर्ण समझी जाती है। क्योंकि ज्ञान का आलोक ही साधना के क्षेत्र में जैन साध, साध्वी. सन्तों साधक या योगी के अन्तःकरण के उस अन्धकार की ऐसी विशिष्ट परम्परा रही है जो अन्यत्र दुर्लभ
को निर्मूल करता है जो साधना में बाधक है। है। साधना की बात करना और उसे आत्मसात (६ न लौकिक ज्ञान जहां भौतिक दृष्टि से उपयोगी है वहां कर उसमें तल्लीन हो जाना अलग-अलग बात है।
आध्यात्मिक ज्ञान आत्मा के विकास एवं आध्या- जैन साधु, सन्तों में साधना की बात नहीं की जाती त्मिक उत्कर्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पूजनीय है, अपितु उस पथ का अनुगामी बनकर तद्वत्
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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All आचरण किया जाता है। परम विदुषी, साध्वी
प्रतिभाशाली व्यक्तित्व रत्न, वन्दनीय कुसुमवती जी महाराज एक ऐसी परम तेजस्वी साधिका हैं, जिन्होंने मोह, ममता,
-सम्पत जैन, दिल्ली अहंकार, क्रोध, राग, द्वेष आदि विकार भावों पर विजय प्राप्त कर साधना के कण्ट काकीर्ण पथ को
परम विदुषी साध्वी रत्न महासती श्री कुसुमअगाकार किया। साधना ही उनका साध्य है और वतीजी म० का व्यक्तित्व एक महान प्रतिभाशाली वह ऐसा साध्य है जो भौतिक साधन निरपेक्ष है। रहा है । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन अवसर पर आपकी साधना दिखावे के लिए नहीं, अपित आत्म आपके श्री चरणों में एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित
कल्याण के लिए है । आत्म कल्याण भी ऐसा जो किया जा रहा है । इस मौके पर मुझे कुछ संस्मरण ।। प्राणी कल्याण की अपेक्षा रखता है।
याद आ रहे हैं जो ११ वर्ष पूर्व के हैं, जब आपश्री
का चातुर्मास दिल्ली चांदनी चौक में था, मुझे भी सतत् साधना के परिणामस्वरूप आपका मुख भी उस चातुर्मास में एक बार लाला मुन्नालालजी मण्डल तेजस्विता से परिपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता की धर्मशाला में आपके दर्शन प्राप्त हुए थे, मैंने in है कि आप तेजस्विता की साक्षात् मूर्ति हैं । स्वभाव पाया कि आप स्वभाव से मधुर, मिलनसार, प्रसन्न
की सरलता, वाणी की मृदुता और हृदय की बदना, सही मार्ग-प्रदर्शक एव सरलता की प्रतिविशालता के अद्भुत सामजस्य ने आपके आभायुक्त मूति हैं। मख-मण्डल की तेजस्विता को द्विगुणित किया है। मैंने आपके ओजस्वी प्रवचन सने जो कि शास्त्र. सहज गुणों के कारण स्वाभाविक भावों में वृद्धि म
__सम्मत और अनुभवों से परिपूर्ण थे। प्रकृति की देन है। आपकी वाणी में विलक्षण ओज
आपकी शिष्या मण्डली बड़ी भाग्यशाली है है जिसका प्रभाव आपकी वाणी को सुनने वाले पर अवश्य पड़ता है। आपकी वाणी की मधुरता,
जिसे आप जैसी गुरुणीजी की छाया मिली। आप
स्वयं तो जप-तप-स्वाध्याय-ध्यान इत्यादि में लगी । मृदुता और ओजस्विता के कारण आपके प्रवचन इतने प्रभावशाली होते हैं कि वे लोगों के हृदय को
ही रहती हैं, अपनी शिष्याओं को भी खाली नहीं
रहने देती। छू लेते हैं और अपेक्षित प्रभाव डालते हैं।
हे स्वनाम धन्य ! कसमवतीजी आप एक प्रखर __ आपके ज्ञान में गम्भीर्य और चिन्तन में गह- वक्ता के रूप में व दृढ़ सेवाभावी विदुषी साध्वी के राई है। करीतियों और अन्धविश्वासों को आप के रूप में प्रसिद्ध हैं। मितभाषी, अध्ययनशील, प्रबल विरोधी हैं। यही कारण है कि आपके प्रव- जनोपयोगी साहित्य के निर्माण में संलग्न महासती चनों में सामाजिक बुराइयों के प्रति प्रबल कटाक्ष जी के विराट व्यक्तित्व को मेरा शत-शत प्रणाम ! एवं विरोध होता है। आपके प्रवचनों से प्रभावित
होकर अनेक लोगों ने अपने जीवन को सुधार कर -- * सन्मार्ग पर लगाया है।
मन्द कषायी (भव्य) आत्मा के तीन
लक्षण हैं___आप जैसी परम तेजस्वी विदुषी साधिका के
सब जगह प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन प्रति नतमस्तक हो आपके चरणों में अपने श्रद्धा
बोलने वाले को भी क्षमा कर देना, सव के गुण सुमन अर्पित करता हूँ।
ग्रहण करना- -कार्तिकेय अनुप्रेक्षा ६१
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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डा० श्रीरंजन सूरिदेव, पटना
आस्था महासती आर्या कुसुमवती जी का सारस्वत अभि
-जगन्नाथ विश्व नन्दन विशिष्ट दृष्टि से यदि समग्र साध्वी-समाज का समादर है, तो सर्वसामान्यता के ख्याल से समस्त संकल्प ही सुनहरे नए कल का रूप है। नारी-समाज का अभिवन्दन है। अर्हत्कृपा से उन्हें सत्कर्म ही सृजन नये मंगल का रूप है . जो ज्ञान-गरिमा, वैदुष्य-वैभव एवं एक सन्नारी के
मेहनत तो रंग लाती है चट्टान तोड़िये योग्य सभी गुणधर्म प्राप्त हैं, उनका उपयोग वह
पावन पसीना ही तो गंगाजल का रूप है समाज के उन्नयन में अहर्निश करती रहती हैं। उनका तो एकमात्र सिद्धान्त है : 'तदेव ननुपाण्डित्यं
बढ़ते ही रहिए रात-दिन प्रतिज्ञा ठानकर
प्रत्येक चरणचिह्न कहीं मंजिल का रूप है यत्संसारात् समुद्धरेत् ।' अवश्य ही, महासाध्वी
जिसने भी चभन को सहा वो ही महक गया कुसुमवती जी अपने पाण्डित्य को लोकहित एवं समाजोद्धार के लिए अकृपण भाव से वितरित करती
दलदल में मुस्कराये वो 'कुसुम' का रूप है रहती हैं। पर के दुःख का निवारण ही उनका धर्म है। दर्द का उपचार है खुशियां बिखेरना वह यही मानती हैं कि 'परस्साअदुक्खकरणं धम्मो।'
सिखलाये प्रीत-प्यार वो गजल का रूप है ____ मैं जगजागरण में सदा निरत रहने वाली महामहिमामयी 'अध्यात्मयोगिनी' के प्रति अपनी विनम्र वन्दना निवेदित करता हूँ। द्वषादिदोषरहितां विदुषीं करुणामयीम् ।
मंगल-मनीषा वन्दे महासतीं दिव्यां लोकजागरणे रताम् ॥ ॐ
-अजीत नागोरी डूंगला रामचन्द्र द्विवेदी, जयपुर परम साध्वी कुसुमवती जी अपने वैदुष्य, उत्तम
दीक्षा जयन्ती की बहार है साधना, प्रवचन कौशल, आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा
नमन हमारा शत बार है जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये सुविख्यात हैं।
माता सोहन की ये दुलारी है भगवान् महावीर द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना
पिता गणेश की ये प्यारी है का ही यह सुफल है कि जैनसाधु ही नहीं अपितु उदयपुर सुखकार है, लिया जहाँ पे अवतार है - साध्वीगण भी युगों से जैन आदर्श को व्यवहार का इनकी वाणी में अमृत बरसे है रूप देता आ रहा है। तथापि उनके अवदान को
इनको पाकर तो हम हरसे हैं अधिक रेखांकित नहीं किया गया है । यह भारतीय शासन के ये श्रृंगार हैं, जन-जन के आधार हैं 738 समाज की परम्परा दोषपूर्ण है। वस्तुतः साध्वी
इनके चरणों में जो भी आता है समाज का उतना ही महत्त्वपूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व
जीवन में आनन्द वो ही पाता है रहा है जितना कि साधु-गण का। परम विदुषी, सभी को इनसे प्यार है, ये भी करते उपकार हैं | साध्वीरत्न कुसुमवती जी का अभिनन्दन न केवल
दीक्षा जयन्ती इनकी आई है उनके वैयक्तिक गुणों का यशोगान होगा अपितु वह
रग-रग में सबके खुशियाँ छाई हैं साध्वी-परम्परा का भी अभिवन्दन होगा। यह आवश्यक कर्तव्य था जिसे पूरा करने के लिये अभिनन्दन
जियो तुम वर्ष हजार ये ही हमारे उदगार हैं | ग्रंथ के संयोजक एवं संपादक बधाई के पात्र हैं । )
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना 38 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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( १ )
वर्द्धमान महावीर को, हम सबका प्रणाम । वीतराग पद प्राप्त कर पाये आठों याम ॥ ( २ )
श्रद्धा सुमनाञ्जलि
संघ नायक आनन्द हैं, श्रमण संघ की शान । उपाध्याय पुष्कर गुरु, चमके भानु समान || ( ३ ) भावीनायक शास्त्रीजी, उपाचार्य देवेन्द्र | श्रमण संघ में शोभते, ज्यों तारों में चन्द्र ॥ ( ४ ) गुरुणी जी श्री सोहन को, नित्य नमाऊँ शीश । श्रमण संघ प्रवर्तिनी का, फल रहा आशीष ॥ ( ५ ) शासन ज्योति महासती, कुसुमवती महाराज | अभिनंदन वंदन करें, शीश झुकाकर राज ॥ ( ६ ) वीरभूमि मेवाड़ में उदयपुर की शान । जहाँ जन्मे हैं आपश्री, पिता गणेश महान ॥
( ७ )
बालपने शिक्षा मिली, वैराग्य लिया अपनाय । मात सहित संयम लिया, देलवाड़ा के माँय ॥ (5) साल उन्नीसो तराणू, फाल्गुन सुदि तेरस । धन्य हुई शुभ दिन घड़ी, पाया ज्ञान का रस ॥ (ε) सोहन के शुभ चरण में, अर्पित हो गई आप । पात्रता शुभ देखकर ज्ञान दिया अमाप ।। ( १० ) पुष्कर गुरुवर की रही, अनुकम्पा हर बार । वीतराग शुद्ध धर्म को, ले लिया दिल में धार ॥ ( ११ )
सरल हृदय है आपका, सहज सरल सुविचार | सहनशील मध्यस्थता, मधुर रहा व्यवहार ॥ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
- राजेन्द्र मेहता सायरा ( १२ )
विनय धर्म का मूल है, विनय धर्म आधार । विनयवन्त हैं आपश्री, विनय आत्म का सार । ( १३ ) अल्पवय में आपने किया प्राकृत, हिन्दी, संस्कृत, न्याय ( १४ ) कोकिल कण्ठा मधुर वचन, मधुर रहा व्याख्यान । श्रोताजन हर्षित रहे, सुन-सुन मंगल गान ॥ ( १५ )
खूब अभ्यास ! व्याकरण खास ।।
ज्ञानध्यान वैराग्यमय, तप-जप अरु जीवन के ये अंग हैं, आत्मा का ( १६ ) स्वाध्याय अरु साधना, जोवन के दो पक्ष । आत्मा को उन्नत किया, सदा रहा यह लक्ष्य ॥ १७
शिष्या समूह सब सरस है, ज्ञानवान मतिमान || बाल ब्रह्मचारिणी सभी, करते आत्मकल्याण ॥ ( १८ ) परमविदुषी महासती, चारित्रप्रभा गुणवान । दिव्यप्रभा अरु गरिमाजी, शिष्या आपकी जान ॥ ( १६ )
प्रशिष्या दर्शनप्रभा जीवन संयम जान । विनयप्रभा और रुचिका, कर आत्मउत्थान ॥ ( २० )
अनुपमा और राजश्री, प्रतिभा बढ़े अपार । निरुपमा आदि सती, बारह का परिवार ॥ ( २१ ) अभिनन्दन है आपका, सदा रहें सुस्वस्थ । शासन की सेवा करें, धर्म ध्यान में व्यस्त || ( २२ ) स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर, राजेन्द्र के उद्गार । सर्व सुखी संसार हो, घर-घर मंगलाचार ॥
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
स्वाध्याय | व्यवसाय ॥
Re
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महान साधिका
है, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरि-श्रीमती भुवनेश्वरी भण्डारी याणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि भारत के अनेक का
प्रान्तों में आपने विचरण कर जिनशासन की प्रभा(अध्यक्षा : अ. भा. श्वे. स्था, जैन कान्फ्रेंस
वना की है। आप की तरह ही आपका शिष्या महिला-संगठन)
परिवार भी विद्वत्ता से परिपूर्ण है। दीक्षा स्वर्ण भारतभूमि में अनेकों महापुरुषों ने जन्म लिया है । उनका जीवन पर कल्याण के लिए होता है ।
जयन्ती के इस पावन अवसर पर मैं हार्दिक वन्दन
अभिनन्दन करता हुआ यही मंगल कामनाएं अर्पित आपश्री का जीवन भी उच्च आदर्श का अनूठा उदा
कर रहा हूँ कि आप स्वस्थ रहें और विगत वर्षों हरण है। जन मानस में नवचेतना एवं नूतन स्फूर्ति
की भांति आगत वर्षों में भी जिनशासन की प्रभाउत्पन्न करने वाली एक महान श्रमणी और श्रेष्ठ
वना करती रहें, हमें मार्गदर्शन प्रदान करते रहें साधिका हैं । आपका संयमी जीवन रत्नत्रय की
जिससे हम भी धर्म व समाज सेवा में अपनी सेवा सम्यक साधना से समृद्ध है, आपने अहिंसा, संयम
देते रहें।
हो व तप की त्रिवेणी गंगा बहाकर जन मानस को उन्नत किया है । प्रभु महावीर की भव्य दिव्य जन कल्याणी सन्तापहारिणी वाणी का ग्रामानुग्राम
तपोमूर्ति विचरण कर प्रचार-प्रसार कर रही हैं। आप तपोनिष्ठ महान साधिका हैं।
-सम्पत्तिलाल बोहरा, उदयपुर १ दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के शुभ अवसर पर आपश्री
(अध्यक्ष : तारक गुरु जैन ग्रन्थालय) का हार्दिक अभिनन्दन एवं भावभीनी शुभकामनायें
परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म. अपित करती हैं। आप निरन्तर अपने पावन लक्ष्य की ओर उन्मुख हों, यही मेरी हार्दिक कामना है।
स्थानकवासी जैन समाज की एक जानी-मानी, पहचानी हुई साधिका हैं। विगत कई वर्षों से मेरा आपसे सम्पर्क रहा है। किसी भी व्यक्तित्व का
निर्माण उसके आचार व विचार से होता है, जिसके शासन प्रभाविका
जीवन में आचार की ऊँचाई व विचारों की पवि-शान्तिलाल तलेसरा, सूरत त्रता होती है वही जीवन आदर्श बनता है । हमारे भाव परम् विदुषी महासतो श्री कुसुमवतीजी स्थान- राष्ट्र की यही धरोहर है । पूज्या महासतीजी को कवासी जैन परम्परा की एक विदुषी माध्वी रत्न जब हम इन दोनों कसौटियों पर कसते हैं तो वे हैं । विगत कई वर्षों से आपकी सेवा व दर्शनों का एक शुद्ध स्वर्ण के रूप में उभर कर हमारे सामने लाभ मुझे बरावर मिलता रहा है, आपके सम्पर्क आती है। में रहकर मैंने पाया है आप में अनेक गुण हैं, जैनधर्म त्यागप्रधान धर्म है। यह भोग से योग विद्वत्ता के साथ नम्रता, ज्ञान के साथ क्रिया, विनय
नय की ओर, राग से विराग की ओर बढ़ने की पवित्र
र के साथ विवेक आदि अनेक विशेषताएं हैं। आपने प्रेरणा प्रदान करता है यही कारण है कि जन सन्त | वाल्यावस्था में संयम अंगीकार कर निरन्तर आगम शनि अपने जीवन को त्याग-तप की सौरभ से न्याय, व्याकरण, दर्शन का गहन अभ्यास किया व महका रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध बर्नार्ड शॉ ने कहा अनेक परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की हैं।
था-कि मैंने भारतवर्ष में दो अद्भुत वस्तुएँ देखीं । आपका विहार क्षेत्र भी बहुत ही विस्तृत रहा एक महात्मा गाँधी व दूसरी जैन श्रमण व श्रमणियाँ,
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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जो भौतिकवाद के युग में भी तप त्याग के पावन प्रतीक हैं। आज भी जैन शासन में अनेक प्रभावशालो, तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी सन्तसतियां हैं ।
साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी इसी प्रकार की एक प्रतिभा सम्पन्न साध्वी हैं । आप में सेवा के, त्याग के, जप के अनेक गुण हैं । आप जहाँ भी पधारी हैं, वहाँ सम्प एवं संगठन की सौरभ फैलाई है ।
विहार की दृष्टि से भी आपने भारत के विभिन्न अंचलों में हजारों मीलों की पदयात्रा कर लाखों हृदयों को धर्म के निर्मल सरोवर में स्नान कराया है । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन अवसर पर मैं अपनी ओर से व तारक गुरु जैन ग्रन्थालय के समस्त सदस्यों की ओर से आपका हार्दिक वन्दन अभिनन्दन करता हूँ व जिनशासन देव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घायु हों ।
यथानाम तथागुण
परमादरणीया विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म. उस चौथे पुष्प के सदृश हैं जो यथानाम तथागुण के धारक हैं, आप आकृति व प्रकृति दोनों दृष्टि से सुन्दर हैं ।
जैसे लोहा पारस का स्पर्श पाकर स्वर्ण बन प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंना
जाता है उसी प्रकार कुसंस्कारों में पड़ा मानव सन्त सतिजन के संसर्ग से अपने जीवन को स्वर्णवत् बना देते हैं ।
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महासती श्री कुसुमवतीजी म. की कृपा हमारे परिवार पर लम्बे समय से रही है, साथ हो मदनगंज श्रावक संघ पर आपकी विशेष अनुकम्पा रही है । जब भी श्रावक संघ आपकी सेवा में चातुर्मास की प्रार्थना को लेकर पहुँचा, आपने उदारतापूर्वक अपना व अपनी शिष्याओं का चातुर्मास दिया ।
आपका जीवन विविध गुणों से सम्पन्न हैं, विद्या, विनय, विवेक, सरलता, नम्रता, सेवा, शिक्षा आदि कई विशेषताएं मैंने आप में पाई हैं । आप परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. एवं उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म. की विद्वान साध्वी है ।
- चाँदमल मेहता, मदनगंज
स्थानांग सूत्र में ४ प्रकार के पुष्पों का वर्णन है। कितने ही पुष्प दिखने में सुन्दर दिखलाई देते हैं। पर उनमें सुगन्ध - सौरभ का अभाव होता कितने हो पुष्प देखने में सुन्दर नहीं होते हुए भी उनमें सुगन्ध मौजूद रहती है और कितने ही पुष्पों में न तो सुगन्ध होती है और न देखने में ही सुन्दर होते हैं, इसके विपरीत कुछ पुष्प ऐसे भी होते हैं जो देखने में भी सुन्दर व सुगन्ध से भी भरपूर होते हैं ।
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर मैं अपनी व अपने परिवार की ओर से आपका हार्दिक अभिनन्दन वन्दन करता हुआ यही मंगल कामनाएँ प्रेषित करता हूँ कि आप सदा स्वस्थ व दीर्घायु रहकर समाज को मार्ग-दर्शन प्रदान करते रहें ।
हार्दिक अभिनन्दन
- प्रमोद चन्द्र जैन
हमें याद है दिल्ली चांदनी चौक का वह चातुमांस काल जब आप हमारे संघ की विनती स्वीकार कर जयपुर से उग्र विहार कर दिल्ली पधारीं ! आपने पूरे ४ मास तक तीर्थंकर भगवान महावीर की ओजस्वी वाणी से सभी को लाभान्वित किया । आपकी चारित्रनिष्ठा पर समस्त श्री संघको गौरव है । हम वीर प्रभु से यही मंगल कामना करते हैं कि आप जिनशासन का नाम रोशन करते हुए हम मुमुक्षु प्राणियों को जिन-मार्ग पर चलते रहने का प्रतिबोधन देती रहें ।
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प्रेरणा स्रोत
निर्मल बनने के साथ-साथ अनेक साध्वीवृन्द के ||
लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा। -रतनलाल मारू, मदनगज धर्म की प्रभावना हेत इनकी विशेष रुचि रही। परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी इसी कारण आपने सदैव परम्परागत क्षेत्रों का ! म० स्थानकवासी जैन परम्परा की एक महान मोह त्याग कर दूर-दूर तक विहार किया। जिसके साधिका हैं । आपके जीवन में हजारों हजार विशे- फलस्वरूप जम्मू, पंजाब, उत्तरी भारत के अनेक षताएँ हैं जिसे मैं लिखने में असमर्थ हूँ।
क्षेत्रों को आपकी वाणी का लाभ प्राप्त हुआ और राजस्थान की पावन पुण्य धरा नर रत्नों की उनमें धर्म के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई। जन्मभूमि रही है, इस पावन धरा में आध्यात्मिकता 4 के बीज समाए हुए हैं। यहाँ पर अनेक नरवीर और
कृतज्ञता ज्ञापन दानवीर हुए हैं तो अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है जिनकी पावन वाणी से हजारों नर-नारियों ने
-प्रकाशचन्द संचेती, जयपुर आत्म-कल्याण किया है। इसी पावन माटी में परम विदुषी, साध्वीरत्न, अध्यात्मयोगिनी, पूजनीया साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी म. का कुसुमवती महासतीजी के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के | जन्म हआ है। आपने बाल्यकाल में ही सयम सुअवसर पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ पर अपने श्रद्धा । अंगीकार कर शिक्षा के क्षेत्र में एक कीर्तिमान समन अर्पित करते हए, आपके दीर्घायु जीवन की ४ स्थापित किया है। शिक्षा के साथ आचार धर्म का मनोकामना करता हैं। भी आपने उत्कृष्ट पालन किया है। आपके द्वारा आपश्री का स्थानकवासी जैन समाज पर कइयों का उद्धार हुआ है। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के .
__ असीम उपकार है। आपके गरिमामय व्यक्तित्व कर पावन अवसर पर मैं अपनी ओर से और वर्तमान से सभी सुपरिचित हैं। स्थानकवासी जैन श्रावक संघ मदनगंज की ओर से आपका हार्दिक वंदन, अभिनंदन करता हूँ एवं वीत
आप स्वयं अत्यन्त आत्मद्रष्टा साधिका हैं। रागदेव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप सदा
__ आपकी अत्यन्त बुद्धिशालिनी संवर एवं साधना पथ स्वस्थ रहकर हमें मार्गदर्शन प्रदान करते रहें ताकि पर चल रही विदुषी शिष्याएँ हैं। जिनमें प्रमुख हम अपने जीवन को समाज व धर्म के क्षेत्र में सदा
साध्वी श्रीचारित्रप्रभाजी, साध्वी श्रीदिव्यप्रभाजी लगाए रखें।
M.A. Ph.D., साध्वी श्रीगरिमाजी M.A. आदि का
ज नाम लिखे बिना सच्ची श्रद्धार्चना नहीं हो सकती। साध्वीरत्न श्री कुसमवती जी
___ आपश्री ने आपके सुगुरु श्रमण संघीय उपाध्याय
श्रीपुष्करमुनिजी महाराज सा. के नाम को और ६ -शान्तिलाल पोखरना, भीलवाड़ा दैदीप्यमान किया है। मुझे जानकर प्रसन्नता हुई कि परम विदूषी आप अध्यात्मसाधिका हैं, कमल के समान साध्वीरत्न श्री कुसुमवती जी म. सा. की दीक्षा निर्लेप आपका जीवन है। आपको समीप से देखने का के ५० वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में अभिनन्दन ग्रन्थ अवसर कई बार मिला है आप उच्चकोटि की का प्रकाशन किया जा रहा है। यह उनका केवल साधिका हैं। मैं आपके संयमी-स्वस्थ दीर्घायुष्य की अभिनन्दन ही नहीं बल्कि संयमी जीवन का अभि- कामना करता हूँ। नन्दन है। जिससे उनका भविष्य और अधिक ७२
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना ।
को
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विलक्षण प्रतिभा की धनी
प्रेरणा स्रोत -चुन्नीलाल धर्मावत, उदयपुर
-खुमानसिंह काग्रेचा, सिंघाड़ा (कोषाध्यक्ष : तारक गुरु जैन ग्रन्थालय)
भारत की पावन भूमि अनन्त काल से त्याग परमादरणीया महासती श्री कुसुमवती जी म० व तप की स्थली रही है । श्रमण संस्कृति का प्रतिस्थानकवासी जैन समाज की एक प्रतिभा सम्पन्न निधित्व करने वाले अनेक महापरुष स
वाले अनेक महापुरुष समय-समय | AL साध्वीरत्न हैं। आपका अध्ययन विशाल एवं पर यहाँ होते रहे हैं जिन्होंने अहिंसा, सत्य, अपरि
चिन्तन गहरा है। वर्षों से समाज सेवा के कार्य में ग्रह, संयम, क्षमा आदि का प्रचार-प्रसार किया। लगे रहने के कारण मैं साध्वी जी म० के अति उनकी पावन वाणी से हजारों हजार का आत्मनिकट रहा हूँ। कई बार वर्ष में दशनों का लाभ उद्धार हुआ है। महापुरुषों अथवा महासतियों के भी प्राप्त होता है । उदयपुर में एक स्थानक भवन जीवन-चरित्र की यह विशेषता रही है कि उनके की आवश्यकता थी । उस समय आप अजमेर चातु- उपदेशों को श्रवण कर सम्पूर्ण मानव जाति का र्मास हेतु विराजमान थीं। सेठ सम्पतमल जी लोढा मस्तक गौरव से ऊँचा उठता है । विनय और श्रद्धा पाठ का भव्य भवन उदयपुर में था, पूज्या महासतीजी की से सिर झुक जाता है। प्रेरणा से वह भवन हमें मिला जो आज श्री तारक हमारा यह सम्पूर्ण शेरा वाकल व झालावाड़ गुरु जन ग्रन्थालय के नाम से सुविख्यात है।
प्रान्त पूज्य गुरुदेव के प्रति सदा से ही आस्थावान ____ आपके जीवन में सरलता है, सहजता है, समा- रहा है । पूजनीया महासती श्री कुसुमवती जी म° जोत्थान की मंगल भावना सदा आपके दिल में से मेरा लम्बे समय से परिचय रहा है, प्रायः प्रतिसमाई हुई रहती है। गहन अध्ययन होने के बाव- वर्ष आपके दर्शनों और प्रवचनों का लाभ मिलता जूद भी नम्रता का गुण आप में विशेष रूप में है, मैं साधिकार कह व लिख सकता हूँ कि आपका विद्यमान है । आप उदयपुर की पावन पुण्य भूमि जीवन अन्तर् बाहर से सरल व सहज है । जो भी में जन्मी, और सद्गुरुणी श्री सोहनकुवर जी म० आपके सम्पर्क में एक बार पहुँचता है वह प्रभावित । के सान्निध्य को पाकर आपने बाल्यकाल में ही हुए बिना नहीं रह सकता, आपकी मधुर व ओजसंयम धारण किया । आप जैसी विदुषी साध्वी पर पूर्ण वाणी का उसके हृदय में असर होता है। समाज को गौरव है।
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर मैं ____ दीक्षा स्वर्ण जयन्ती की इस पावन बेला पर मैं अपनी ओर से सम्पूर्ण प्रान की ओसवाल समाज ३५ अपनी ओर से एवं श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, की ओर से एवं वर्धमान जैन स्वाध्याय संघ सायरा ) श्री अमर जैन साहित्य संस्थान व अमर जैन की ओर से शतशः वन्दन अभिनन्दन करता हुआ ?
स्वाध्याय भवन उदयपुर के समस्त सदस्यों की आपकी दीर्घायु की मंगल कामना करता हूँ । IB ओर से शुभकामनाएँ समर्पित करता हुआ वीतराग
देव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप चिरायु रह-0 कर हमें सदा मार्गदर्शन प्रदान करते रहें ।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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चरणों में वंदन
सहज स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। आगमों एवं
दर्शनशास्त्र की आप कुशल व्याख्याता हैं। वीतराग ~आनन्दीलाल मेहता, उदयपुर विज्ञान की दिव्य ज्योति आपश्री के असंख्य प्रदेशों
से निरन्तर प्रवाहित होती रही है। मैं विशेष किस अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि परम विदुषी उपमा से आपको उपमित करू। आप चन्दनबाला 0 जिनशासन की प्रभाविका साध्वीरत्न श्री कुसुमवती श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी महान् साध्वीरत्न | जी म० सा० के ५० वर्ष के दीर्घ दीक्षाकाल के उप- श्री सोहनकुंवर जी म० सा० की साक्षात् प्रतिमूर्ति लक्ष में समाज की ओर से आपश्री का अभिनन्दन हैं। करने हेतु एक कुसम अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित ।
महासतीजी का अभिनन्दन किन्हीं शब्दों, किया जा रहा है।
भाषणों अथवा ग्रन्थों से करना उनकी तेजोमय महासतीजी से मेरा निकट का परिचय तब
प्रतिमा को दीपक दिखाने के समान निरर्थक है। हुआ जब मैं सन् १६५७ में डबोक चातुर्मास में उनके मेरी यह शुभ भावना है। आपश्री दीर्घकाल तक ||८ दर्शनार्थ गया था और उनकी अमृतमय मधुरवाणी स्वस्थ रहकर अपने ज्ञान-गरिमा की दिव्य किरणों K का रसास्वादन करते हुए डबोकवासियों
ते हुए डबोकवासियों को मैने से जन-जन के हृदय में रहे हए अज्ञान अन्धकार को KE यह प्रेरणा प्रदान की थी कि ऐसी जानमूर्ति चारित्र दर करते रहें और आप स्वयं वीतराग साधना के आत्मा का अनन्त-अनन्त पुण्योदय से आपके यहाँ द्वारा अपने चरम लक्ष्य (सिद्धि) को प्राप्त करें। चातुर्मास हुआ है । अतः इस चातुर्मास की यादगार इन्हीं शब्दों के साथ यह भावात्मक श्रद्धा सुमन |
को चिरस्थायी बनाने एवं बालक-बालिकाओं में आपश्री के चरणों में समर्पित करता हआ विराम | । धार्मिक ज्ञान का बीजारोपण करने तथा जैनत्व के | सुसंस्कारों का निर्माण करने हेतु एक ज्ञानशाला
की भव्य स्थापना की जाय। मेरी इस प्रेरणा में मुझको ही इस महान कार्य का निर्माता चुन लिया। पूज्या महासती जी एवं श्रीसंघ डबोक के आग्रह
सद्कामनाएँ को मैं टाल नहीं सका । मैंने इसी विभूति से आशीर्वाद प्राप्त कर १८ वर्ष तक प्रति रविवार को निः
-प्रो. अमरनाथ पाण्डेय, वाराणसी शुल्क रूप से डबोक में पाठशाला चलाई जिसमें कई बालक-बालिकाओं ने सामायिक, प्रतिक्रमण, आदरणीया श्री कुसुमवतीजी की संयम-यात्रा प्रवेशिका, प्रथमा तथा जैन सिद्धान्त विशारद तक की अर्द्ध शताब्दी की पूर्ति के अवसर पर मेरी की परीक्षायें श्री तिलोकरत्न स्थानकवासी जैन वधाई। उनका जीवन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी (अहमदनगर) से रहा है और साधना के क्षेत्र में विशेष अभिनन्दनीय सम्पन्न की और आज तक भी वह जैनशाला किसी है। न किसी रूप में अपने उद्देश्य की पूर्ति करने का उन्होंने दर्शन और संस्कृति का विशेष शृंगार सफल प्रयास कर रही है।
किया है और अपनी तपस्या से अनेक गूढ़ रहस्यों .. ___महासतीजी श्री कुसुमवती को मैंने बहत निकट का भी प्रकाशन किया है । से देखा और परखा। आपमें सरलता, सहिष्णुता, विनय, सेवा एवं मधुरभाषिता आदि अनेकों गुण ७४
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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परम ज्ञान साधिका
- नाथूलाल माद्रेचा
परमादरणीया साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म. स्थानकवासी जैन समाज की विदुषी साध्वी हैं । मेरा आपसे परिचय बहुत पुराना है। किसी भी साधनामय जीवन का गुणानुवाद करना भी भाग्य - शाली को हो प्राप्त होता है, आपका व्यक्तित्व असीम और अपरिमित है । आपके मधुरिमापूर्ण व्यक्तित्व को निहारकर दर्शक मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता। आपने संयम और तप की साधना से अपने जीवन को पवित्र किया है। आपके मार्गदर्शन मे जनता को सुख शान्ति की राह उपलब्ध हो रही है | आपका नाम कुसुम है, कुसुम की सदा यह विशेषता रही है कि वह खिलता रहता है। चाहे मित्र या दुश्मन जो भी उसके समीप पहुँचता है वह सदा अपनी सुगन्ध सुवास देता ही रहता है, कभी भी उसमें दुर्गन्ध नहीं आती है ।
आपका पवित्र जीवन एक प्रकाश स्तम्भ की तरह है, जो जन-जन को मार्गदर्शन कराता है । आपकी वाणी में तेज है, ओज है और उसमें चिन्तन का गाम्भीर्य है । जहाँ भी आप पधारों वहाँ की जनता को एक नया मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर मैं अपनी ओर से एवं श्रावक संघ ढोल की ओर से हार्दिक अभिनंदन करता हुआ शासन देव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप सदा स्वस्थ रहें और हमें सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देते रहें ।
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गुणवान व्यक्ति का वचन घी से सींची हुई यज्ञाग्नि की भाँति तेजस्वी और प्रभावकारी होता है, जबकि गुणहीन व्यक्ति का कथन, तैलरहित दीपक की भाँति तेजोहीन !
- आचार्य जिनभद्र गणो
बृह. भा. २४५
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
शत-शत प्रणाम
- सुरेन्द्र कोठारी, उदयपुर
परमादरणीया साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म. का जीवन कुसुम-सा कोमल व पवित्र है । आपके जीवन में सरलता सादगी, नम्रता, विनय, ज्ञानध्यान हैं। आपके पावन जीवन दर्शन से हम युवक-युवजप, स्वाध्याय आदि के अनेकानेक गुण विद्यमान तियों को भी मार्गदर्शन मिलता रहता है । आपकी तरह आपकी शिष्या परिवार भी ओजस्वी तेजस्वी व प्रभावशाली है, हमें गौरव है कि हमारी स्थानकवासी जैन समाज में आज भी ऐसी विदुषी साध्वीरत्न विद्यमान हैं, दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर हम सभी वर्धमान पुष्कर जैन युवा मंच के साथीगण आपका हृदय से शत-शत अभिनन्दन वन्दन करते हुए वीतराग प्रभु यही प्रार्थना करते हैं कि आप सदा स्वस्थ रहें, दीर्घायु रहें व हमें मार्गदर्शन प्रदान करते रहें ।
से
मंगलकामना
- डी. सी. भाणावत, प्राचार्य
महासती कुसुमवतीजी के अत्यल्प सान्निध्यलाभ ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया - पांडित्य प्रदर्शन या उपदेश - प्रवृत्ति से नहीं, बल्कि आत्मीयतापूर्ण सरल व्यवहार से । आँखें ऐसी मानो स्नेहनिर्झर हों और सहज मुस्कान तो मानती ही नहीं मुंह- पत्ती का भी बन्धन ।
उनकी करणी में ओज की गरिमा, वाणी में दिव्य माधुर्य और भावना में अनुपम प्रसाद स्वतः ही प्रस्फुटित होता रहता है । सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी प्रवाहित करती हुई उनकी करी साधना शतायु हो, यही हमारी मंगलकामना है ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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हार्दिक अभिनन्दन
श्रद्धा के दो फूल अर्पित
-काललाल ढालावत
-मुन्नालाल लोढ़ा,
पाली परमादरणीय महासती श्री कुसुमवतीजी का जीवन अमृत तुल्य है, आप राजस्थान की सुप्रसिद्ध काफी वर्षों पहले आपके पूज्या गुरुणी जी साध्वी रत्ना हैं, मैं किन शब्दों में अपनी श्रद्धा भक्ति श्री प्रवर्तिनी श्री सोहनवर जी महाराज साहब के व्यक्त करूं, मैं विगत कई वर्षों से आपको सेवा में साथ में पाली चातुर्मास हुआ था। तब गुरुणी जी का आता-जाता रहा हूँ, मैंने पाया है आपका जीवन की सेवा का मौका हमें भी प्राप्त हुआ था मगर पारस के सदृश है जिसके सम्पर्क से लोह स्वर्ण में काल विकराल ने गुरुणी जी पर आक्रमण कर परिणत हो जाता है उसी प्रकार जो भी आपके दिया और अचानक स्वर्ग पधार गये। श्री पावन सम्पर्क में आया है उसके जीवन में एक नई सोहन कँवर जी म. सा. तो शुद्ध कंचन स्वर्ण के भावना पैदा हुई है।
समान उज्ज्वल क्रिया पात्राणी थे। उनके स्वर्गवास र आप पूज्य उपाध्याय श्री के साध्वी परिवार से स्थानकवासी जैन साध्वियों में भारी कमी पड़ी है की एक तेजस्वी साध्वीरत्न हैं । आपश्री के गुणों से उनकी पूर्ति शीघ्रता से हो यही शासनदेव से प्रार्थना मैं बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ। आपका प्रभावशाली है और स्वर्गीय आत्मा को शान्ति प्रदान हो, एवं व्यक्तित्व सभी के लिए पथप्रदर्शक है। आपके गरुणी जी के नाम को भी सुशिष्या श्री कुसुमवती प्रवचन में इतनी मधुरता, कोमलता तथा प्रभाव- म. सा. ने उज्ज्वल कीर्तिमय किया है जिसका शीलता है कि श्रवण करने वाला मन्त्र मुग्ध हो समाज को गौरव है। जाता है । आपकी प्रेरणा से स्थान-स्थान पर अनेक साध्वी श्री कसमवतीजी ने छोटी उमर में दीक्षा लोकोपकारी कार्य हुए हैं, हमारे तरपाल गाँव में
ग्रहण करके अनेकों भाषा का अच्छा ज्ञान (EPAL भी महासती श्री सोहन कुंवरजी जिनकी यह पावन प्राप्त किया है एवं आगम सूत्रों व धार्मिक कई र
जन्म स्थली है उनके नाम से मानव सेवा समिति थोकडों आदि की जानकारी में भी सफलता प्राप्त का गठन हुआ जो जनकल्याण के कार्य में सेवा दे की है। इसके अलावा व्याख्यान शैली भी बहत हो IC
मधुर व जोशीली तथा समयानुकूल उपयोगी है । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस अवसर पर मैं जिससे जनता मुग्ध हो जाती है । अपनी ओर से, समाज व वर्धमान ज्ञानपीठ तिरपाल आपने शरीर से दुबले-पतले होते हुए भी से एवं श्री पुष्कर गुरु जैन सेवा शिक्षण संस्थान देश-देशान्तरों, अनेकों प्रान्तों में जबरदस्त सेमटाल के समस्त सदस्यों की ओर से आपका करके धर्म प्रचार किया है जो कभी भी भुलाया हार्दिक अभिनन्दन करता है।
नहीं जा सकता है। ___ अतः अ० भा० समग्र जैन चातुर्मास सूची प्रकाशन परिषद आपके दीर्घायु की शुभकामना करता है।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 08635
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सागर वर गम्भीरा
संस्कृत, अधमागधी, हिन्दी आदि भाषाओं पर
आपका अच्छा अधिकार है। यही कारण है कि -पदमचन्द जैन, आज आपका सतीवर्ग विद्वान ही नहीं, आगमों में, दिल्ली दर्शन (दार्शनिक-अध्ययन) में, चिन्तन मनन में
और साध्वी चर्या के प्रति पूर्ण जागरूक है। नदियाँ अपना नीर स्वयं नहीं पीतीं, वृक्ष अपने
समस्त स्थानकवासी समाज को ऐसी विदुषो, फल स्वयं नहीं खाते। इनका नीर या फल-फूल सभी कुछ दूसरों के लिए ही होता है। इसी प्रकार
सरल-आत्मा एवं कर्तव्यपरायण महासतीजी के
सान्निध्य के नाते, श्रद्धावनत होकर बधाई प्रेषित संत भी परोपकार के लिए अपना सौरभ यत्र-तत्र सर्वत्र बिखेरते चलते हैं । वे जहां जाते हैं, अपने तप .
__ करते हुए, शासन की प्रभावना हो, संयम के प्रति संयम की अभिवृद्धि करते हैं और अहिंसा, सत्य,
निष्ठा एवं जागरूकता बनी रहे और भव्य-जीव
सदा-सदा प्रतिबोध पाकर आत्म-कल्याण करते अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप भगवान की । वाणी का अमृत पान कराते चलते हैं। उनके
रहें । ऐसी कामना करता हूँ। जीवन का उद्देश्य ही प्राणीमात्र का कल्याण करना और आत्म-वैभव से सम्पन्न होना और
सुमनाञ्जलि कराना ही होता है।
-रणजीतसिंह सियाल, महासती श्रीकुसुमवतीजी महाराज का व्यक्तित्व
उदयपुर अत्यन्त सहज और सरल है । भोलापन और आत्मीयता से ओत प्रोत है। करुणा से भरपूर है।
__ मैंने कभी कोई लेख लिखा नहीं लेकिन आज आँखों में ज्ञान की एक अजीब सी गहनता है।
। अन्तर हृदय की भावना कुछ लिखने को प्रेरित कर दूरदर्शिता से सम्पन्न है। गुण ग्राह्यता के साथ .
में रही है । महासती कुसुमवतीजी मेरी भुआजी की ५ क्षमा-शान्ति का अद्भुत मिश्रण है। सबके प्रति
पुत्री, बहन है। सम्माननीय भाव रखना आपकी स्वाभाविक गरिमा बचपन में उनके सुन्दर संस्कार और उनका
असीम वात्सल्य मुझे मिला। मेरे पूज्य पिताश्री वट का बीज चाहे छोटा ही होता है परन्तु
कन्हैयालालजी सियाल जिनका जीवन सिद्धान्तउसमें एक विशाल वृक्ष की सत्ता है उसी प्रकार परक और नीतिनिष्ठ था। मेरी पूजनीया मातेश्वरी महासतीजी का शारीरिक संस्थान चाहे बाह्य दृष्टि चौथबाई जो धर्मनिष्ठ श्रद्धालु श्राविका थीं जिनके से विशालता प्राप्त नहीं है, विशेष सशक्त भी नहीं जीवन के कण-कण और मन के अणु-अणु में धर्म दिखता, परन्तु आपका आत्म-विश्वास, ज्ञान का की भावना बहती थी। मेरे पिताश्री की बहिन MOR वैज्ञानिक विश्लेषण एवं तप-संयम की निष्ठा सोहनबाई का विवाह देलवाड़ा किया। वे उदयपुर IKES प्रशंसनीय है। व्यक्ति को पहचानने की आपकी गोद आये थे। उनके एक लड़का और एक लड़की क्षमता अद्भुत है तथा विशाल है इसीलिए महासती दो सन्तान हुई । शादी को पाँच वर्ष ही हुए थे कि जी के चरणों में आने वाला कोई भी व्यक्ति भरी जवानी में २१ वर्ष की उम्र में वे विधवा हो वत हुए बिना नहीं रह सकता ।
गई थीं। लडका भी मर गया। विपत्ति पर विप___महासतीजी का आगमिक अध्ययन तथा
त्तियाँ आयीं । मेरे पिताश्री उनको पीहर ले आये । दर्शन शास्त्र पर पर्याप्त अधिकार है। प्राकृत, सोहनबाई अपनी पुत्री नजर के साथ पोयर में प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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ॐ06-0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Geo
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दुख के दिन व्यतीत कर रही थी। नजर जब ७-८ ने भी विक्रम संवत् २०३० कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी
वर्ष की थी तब मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म से नजर के दिन उनके पास आहती दीक्षा ग्रहण की जो 5 को बहुत खुशी हुई। वे मुझे खिलाती लाड़ लड़ाती आज दिव्यप्रभा जी के नाम से विश्रुत है तथा एम. C - और छोटे भाई को लाड़-प्यार करने का आनन्द ए. पी-एच. डी. की उपाधि से अलंकृत हैं।
लेती। मेरी मातुश्री और भुआजी बताया करती इस प्रकार तीनों ने संयम मार्ग स्वीकार कर. थी कि नन्हे हाथ तुझे उठाने में समर्थ नहीं थे फिर हमारे परिवार की गौरव-गरिमा में चार चाँद भी उठाये उठाये घूमती।।
लगाये हैं, तीनों ने जिनशासन की प्रभावना की है। ___जब मैं दो ढाई वर्ष का था तब दीदी नजर ने आज हमें गौरव है कि हमारे परिवार में ऐसी 12 एवं भुआजी ने दीक्षा लेने की ठान ली । मेरे पिता तेजस्वी सतियाँ हुईं जिनका विश्व में नाम चमक श्री का अपनी भानजी नजर पर अत्यधिक स्नेह था रहा है। वे उनको अपनी पुत्री से भी अधिक प्यार करते थे मेरे पिताश्री का स्वर्गवास दिव्यप्रभाजी की वे किसी भी स्थिति में उनको दीक्षा दिलाना नहीं दीक्षा के २० दिन पूर्व हआ था और मातुश्री का ||KE चाहते, मेरे पिताश्री ने दीक्षा रुकवाने के कई प्रयास स्वर्गवास दो वर्ष पूर्व हआ। मेरी मातुश्री की पूज्या माल किये पर उनकी वैराग्य भावना बहुत प्रबल थी। कसमवतीजी म० पर असीम श्रद्धा थी। वे उनके माता की आज्ञा प्राप्त हो गई थी और माँ ने ससु
लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर करने को तैयार राल से आज्ञा ले ली। इस प्रकार रोकने के सारे थीं। इसी श्रद्धातिरेक के कारण उन्होंने अपनी प्रयास विफल हो गये और संवत् १९९३ फाल्गून लाडली बेटी दिव्यप्रभाजी को उनकी सेवा के लिये
शुक्ला दशमी को दोनों माता-पुत्री ने दीक्षा ले ली। (अनेक परीषहों को स्वयं सहन करते) सहर्ष सम- ८ CB दीक्षा लेने पर नजर कुमारी महासती कुसुमवतीजी पित किया। II के नाम से विश्रु त हुई तथा मेरी भुआजी कैलाश
___ मैंने अनेक बार पूज्या महासतीश्री के दर्शन किये कुवर के नाम से प्रसिद्ध हुई।
हैं, प्रवचन सुने हैं । उनके दर्शन मन आत्मा को भुआ महाराज कैलाशकुवर जी बड़े ही धीर- असीम शान्ति प्रदान करते हैं, उनकी वाणी भवोंवीर गम्भीर थे। विचक्षण बुद्धि के धारक थे । सम- भवों के पाप और ताप का हरण करने वाली है। यज्ञ थे । ज्ञान-ध्यान साधना में अपने जीवन को आपने दीक्षा जयन्ती के ५० बसन्त पार कर लिए हैं. तन्मय बना दिया। बहुत ही सेवाभावी थे। उन्होंने दीक्षा स्वर्ण जयन्ती की इस मंगलवेला में मैं अपनी कार अनेक साध्वियों की सेवा करी।
ओर से, अपने परिवार की ओर से अनन्त-अनन्त __ पूज्या कुसुमवती जी महाराज के जीवन के श्रद्धा समर्पित करता हूँ और यही मंगल कामना निर्माण में उनका अपूर्व योगदान रहा है। वे छाया करता हूँ कि आप दीर्घायु हों हमारे कुल एवं जिन की तरह उनके सुख-दुख में साथ रहीं। उनका शासन को दिपाते रहें । अपार वात्सल्य उनकी पुत्री को तो मिला ही, मुझे --- भी कम नहीं मिला। मेरा लालन-पालन उनके ही
जल ज्यों-ज्यों स्वच्छ होता है, त्यों त्यों उसमें प्रतिहाथों हुआ।
बिम्ब स्पष्टतया दीखने लगता है। मन ज्यों-ज्यों निर्मल पूज्या कुसुमवतीजी महाराज साधना-पथ की होता है त्यों-त्यों उसमें ज्ञान उद्भासित होने लगता है । अमर साधिका बनीं। उनके महान जीवन से प्रभा
-आचार्य भद्रबाहु वित होकर हमारी छोटी बहिन स्नेहलता कुमारी
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शुक्ला
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शत-शत वन्दन
दिशाएँ परिपूरित हो जाती हैं और कण-कण पावन
हो जाता है उनके अवतरण से।। -ऋषभ जैन, अलवर
व्यक्ति की महिमा है उसके व्यक्तित्व और
कृतित्व से । समाज, देश व जाति पर उसका प्रभाव जीवन कण-कण हुआ सुपावन,
नहीं पड़ता किन्तु पड़ता है उसके व्यक्तित्व और ___अणु-अणु में मधु ऋतु छाई।।
कृतित्व का । सूर्य गगनमण्डल में गमकता है किन्तु स्वर्ण जयन्ति अवसर पर,
उसकी रश्मियाँ किरणे भूतल को प्रकाशित कर कुसुमाकर श्री महिमा गाई।।
देती हैं, चमका देती हैं, विराट बना देती हैं उसके दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के शुभ अवसर पर अभि- महत्व को, इसी प्रकार सद्गुणों की सौरभ जीवन वन्दन एवं अभिनन्दन की पावन क्षणिकाओं में परम को महतो महीयान बना देती है। विदुषी, बालब्रह्मचारिणी, चारित्र चूड़ामणि, अध्या- सतीवर्या श्री कुसुमवतीजी म. सा० भी ऐसी त्मयोगिनी, आगम अध्येता, प्रवचन भूषण, पूज्य ही उच्चकोटि की सती हैं। आपने अनेक बाधाओं, । सतीवर्या श्री कुसुमवतीजी म. सा. के पावन चरण झंझावतों, कष्टों को सहन कर अपनी आकांक्षाओं, सरोजों में अपनी आकांक्षाओं के अक्षत अपित करने अरमानों, कामनाओं एवं वासनाओं की होली जला का सौभाग्य प्राप्त कर अत्यन्त ही आनन्द हो रहा कर निरपेक्ष भाव से अपनी साधना को अक्षण्ण
बनाये रखा है। आपकी साधना-आराधना अनुपम भारतीय आध्यात्मिक साधकों की गौरव-गाथाएँ है, अद्वितीय है। सती श्री के हृदय की निर्मलता, (Golden deeds) एक से एक सुन्दर एवं महत्वपूर्ण मन की विराटता, अन्तःकरण की उदारता, बुद्धि रही हैं। वे सुख में रहे हों या दःख में, फलों की की विवेकशीलता, करुणा की संवेदनशीलता, आनन सेज पर अथवा काँटों की तीक्ष्ण धार पर, उनकी की सरलता इतनी महान है कि शब्दों द्वारा व्यक्त साधना अक्षण्ण एवं अविरल रही है. उनका जीवन नहीं की जा सकती। और इसीलिए आप श्रद्धेय, सारभौम होता है। प्राणी मात्र के प्रति उनके मन में आदरणीय एवं उपास्य बनी हुई हैं जन-जन को। कल्याण कामना रहती है, वाणी सर्वोदय एवं व्यव- आपका निरन्तर स्वाध्याय, श्रावक-श्राविकाओं हार प्रेममय होता है।
की शंका का समाधान, शिष्य परिवार का स्नेहभरा
संरक्षण और मानव मन को झकझोर देने वाला पाश्चात्य देशों में जिस प्रकार अमेरिका को ओजस्वी प्रवचन अत्यन्त ही प्रभावशाली रहता है। धन का, ब्रिटेन को राजनीति का, फ्रांस को सुन्दर- आपकी साधना एवं आराधना की विशेषताओं 8 तम नगरों का, जापान को देशभक्ति का और जर्मनी से प्रभावित हो उदयपुर श्रीसंघ ने आपको 'अध्या
को वैज्ञानिक शक्ति का गर्व है उससे भी अधिक त्मयोगिनो' पद से विभूषित किया। तलस्पर्शी, भारत को गर्व एवं गौरव है अपनी धार्मिक संस्कृति, ओजस्वी भाषणों एवं प्रवचनों की महिमा कुसुम के संत, सती परम्परा एवं आध्यात्मिक विकास का। सौरभ की भांति चहुँ ओर प्रसारित हई देख ब्याबर
ऐसे आध्यात्मिक साधकों का जीवन प्रकाश संघ ने आपको 'प्रवचन-भूषण' की उपाधि से अलंकृत स्तम्भ बनकर आलोकित कर देता है जन मन को। किया। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से चमत्कृत ही नहीं ऐसी प्रतिभाशाली सती श्री के जीवन की प्रारकरते बल्कि युगों-युगों तक महका देते हैं आलोक म्भिक रेखाओं का दिग्दर्शन करने की इच्छा किसे को अपनी सौरभ से। उनकी यशोकीर्ति से सभी न होगी, सदभाग्य से ऐसी सतियों के दर्शन होते हैं
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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आपकी साधना एवं आराधना तथा धार्मिक
वन्दना के स्वर ज्ञान-ध्यान-तप-संयम की सौरभ से प्रभावित हो
-श्रीमती प्रमिला मेहता, एम. ए., बी. एड. आपकी शिष्या प्रशिष्या भी कोई कम चमकते हमारे परिवार में सम्वत् १९८२ को एक प्रकाश सितारे नहीं हैं । सतीश्री चारित्रप्रभाजी, श्री दिव्य- किरण का पदार्पण हआ। वह किरण मात्र किरण न ॥ प्रभाजी, श्री गरिमाजी आदि के संयमनिष्ठ जीवन रहकर प्रका बन गई। जिसने केवल घर में ज्ञान-ध्यान तप-संयम की आराधना तथा सम्मानित ही नहीं, सम्पूर्ण जगत् में धर्म का प्रकाश फैलाया। उपाधियाँ, विद्वतडिग्रियों का कहाँ तक उल्लेख किया हम सबको हमारे परिवार से निकली इस अलौकिक जावे, अद्वितीय है। यथानाम तथागुणों से भी सभी ज्योति पर गर्व है। वह ज्योति है-परम विदुषी सम्पन्न विभूतियाँ हैं जिनकी महिमा अत्यन्त महत्व- साध्वीरत्न श्री कसमवतीजी म.। शाली है। आपकी ममेरी बहिन श्री दिव्यप्रभा जी आपने अपनी मातेश्वरी श्री कैलाशकु वरजी भी आपके पास ही दीक्षित हैं-आपने अच्छा ज्ञाना- महाराज के साथ दीक्षा-ग्रहण की। श्री कैलाश- a जन किया है और आप जैन जगत की एक दीप्त- कवरजी महाराज मेरे पिताश्री यशवन्तसिंहजी
मान अलौकिक सती हैं-ऊपर की पंक्तियों में सियाल की भआजी तथा मेरे दादाजी श्री कन्हैया- ८ CH आपका उल्लेख आया हुआ है।
लालजी सियाल की बहिन थीं। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के शुभ प्रसंग पर शत-शत
पूज्य कैलाशकुवरजी महाराज आज हमारे
मध्य नहीं रहे । लेकिन अपनी अमूल्य धरोहर पूज्य वन्दन करते हुए आपश्री की दीर्घ आयु की शुभ
श्री कुसुमवतीजी महाराज को समाज को समर्पित कामना करता हूँ साथ ही शासनेश से प्रार्थना है
कर गई है। कि सती श्री के जीवन से जैन समाज को आलोक
पूज्य कुसुमवतीजी महाराज ने भगवान महाएवं सन्मार्ग प्राप्त होता रहे इन्हीं शुभकामनाओं के ।
वीर के पथ पर अग्रसर होकर ज्ञान, ध्यान, तप, साथ शत-शत वन्दन, अभिवन्दन एवं अभिनंदन ।
शील, सदाचार आदि की कठिन साधना की। हे श्रमण संस्कृति के दिव्य रत्न,
उनका जैसा नाम है 'कुसुम' उसी के अनुरूप ही वे न
अपनी सुरभि फैला रही हैं। जिस प्रकार फूल की तुम अवनितल पर चमको।
सुगन्ध से आकर्षित होकर भंवरे बिना बुलाये ही || जैन जगत के दिव्य भाल पर---
फूल पर मंडराते हैं ठीक उसी प्रकार आपके गुण चन्द्र सूर्य सम दमको ॥ सौरभ से आकर्षित होकर अनेक लोग आपके भक्त का
बन गये हैं।
__ श्रमणसंघ के क्षितिज पर इस ज्योतिपुन्ज चंद्र के जैन जगत के लिये आपश्री
साथ अनेक सुशोभित सितारे भी उदित हुए हैं। 28
उनमें से एक हैं-पूज्याश्री दिव्यप्रभाजी जो संसारमंगलमय वरदान बनो।
पक्षीय मेरी भुआ है। उन्होंने आपके पावन सान्निध्य श्रावक जन सब करें कामना
को प्राप्त कर अपना जीवन उज्ज्वल बना लिया। जैन जग के भव त्राण बनो। वे राजस्थान विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए.
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हैं तथा जैनाचार्य सिद्धर्षि की महत्त्वपूर्ण कृति 'उपमिति भव प्रपंच कथा' पर Ph. D. की उपाधि प्राप्त हैं। वे अपनी दिव्य आभा से संसार को आलोकित कर रही हैं।
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ऐसी महान विभूतियों पर हमारे परिवार को सरलता एवं त्याग की प्रतिमूर्ति गौरव है । महासतीजी के सयंमाराधना के ५३ वर्ष
महासती कुसुमवती जी का जीवन-दर्शन सफलतापूर्वक सम्पूर्ण होने की खुशी में हम परिवारिकजन हार्दिक अभिनन्दन करते हैं।
-कन्हैयालाल गौड़, एस. ए. सा. रत्न उनके जीवन का कण-कण शीतल निर्झर की
मेरी भाषा तेरे विचार । तरह प्रवाहित हो रहा है । उसकी शीतल बयार से
मैं तो निमित्तजगत को आनन्द की अनुभूति होती रहे । उनके
त ही दे रही जगत् को धर्मसार ॥ जीवनरूपी वटवक्ष की अनेक शाखायें, प्रशाखायें भगवान् महावीर के विराट् ज्ञानालोक ने पुष्पित पल्लवित हों, खूब फले-फूलें और उन्नति के अध्यात्मवाद को नया स्वर दिया, 'जे एग जाणई शिखर पर पहुँचें, यही हमारी शुभकामना है। से सव्वं जाणइ' एक आत्मा को जानने वाला सब उनकी दीक्षा अर्द्धशती के पावन प्रसंग पर
- कुछ जान लेता है। आया सामाइए-आत्मा ही हमारा पूरा परिवार हार्दिक अभिनन्दन करता है।
___सामायिक-समता का अधिष्ठान है, यही तप है, यही संयम है, यही ज्ञान है।
धर्म और दर्शन का आधार बिन्दु मनुष्य का वंदना-अर्चना
अध्यात्म-जीवन है। जब तक मनुष्य भौतिकवाद -श्री फूलचन्द जैन सर्राफ, कांधला में भटकता रहता है, तब तक उसे सुख, शान्ति महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. चारित्रवान, और सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता। भारतीय ज्ञानवान, दृढ़संयमी ही नहीं बल्कि एक सुलझी हुई संस्कृति का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है, संघर्ष नहीं वक्ता भी हैं। उनकी व्याख्यान शैली ऐसी है शान्ति है, विषमता नहीं समता है; विषाद नहीं जिसका असर कानों तक ही नहीं बल्कि हृदय पर आनन्द है। जीवन की आधारशिला भोग को मान भी होता है। वे अति-मधुरभाषिणी है। लेने पर जीवन का विकास नहीं, विनाश हो जाता
करीबन दस साल पहले सन् ८० में राजस्थान है। जीवन के संरक्षण, सम्वर्द्धन और विकास के से पानीपत आई थी तब कांधला श्री संघ को लिए आध्यात्मिकता का होना नितान्त आवविनती स्वीकार कर कान्धला पधारी थीं। उस श्यक है।
समय मुझे आपके चरणों में बैठने का सौभाग्य साधक की साधना एक सत्य की साधना है । B मिला । मैंने बहुत नजदीक से देखा और परखा कि सत्य के मूल स्वरूप को पकड़ना ही साधक जीवन
आप इतनी दृढ़संयमी और प्रकाण्ड-विद्वान होने के का मुख्य उद्देश्य है । सत्य अनन्त होता है । भारबावजूद बच्चे जैसी सरल हैं । ऐसी सरल महासती तीय संस्कृति में और विशेष रूप से अध्यात्मवादी जी के लिए हमारे दिल में अगाह श्रद्धा है। सरल दर्शन में मानव-जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति आत्माएँ ही निकट अवतारी होती हैं।
प्राप्त करना ही माना गया है। भव बन्धनों से ऐसी महासतीजी म. सा. के पावन चरण- विमुक्त होने के लिए तत्त्वज्ञान की नितान्त आवकमलों में कोटि-कोटि वन्दन करते हुए शासन-देव श्यकता रहती है। जैन-दर्शन में मोक्ष जीवन की Dil से प्रार्थना करता है कि आप दीर्घाय हों और पवित्रता का अन्तिम परिपाक. रस
आपके ज्ञान, ध्यान, संयम, चारित्र, स्वास्थ्य में खूब देह की आसक्ति और वासना के बन्धन को छोड़ना र वृद्धि हो, आप सदा प्रसन्नचित्त रहें । मुझ पर तथा ही मुक्ति है। प्रत्येक आत्मा में परमात्म-ज्योति मेरे परिवार पर सदा की भाँति आपकी कृपा दृष्टि विद्यमान है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन विराजरहेगी ऐसी आशा ही नहीं पूरा विश्वास है। मान है ।
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जैन-दर्शन का तत्त्व-चिन्तन उस ज्योति प्रकाश पड़ेगी। जिस दिन यह अवसर आया, सभी आश्चर्यऔर परमात्म-तत्त्व की खोज कहीं बाहर नहीं, चकित थे। चंचल पवन क्षण-भर ठहरकर पुनः अपने भीतर ही करता है। वह कहता है कि अप्पा समाचार देने चल पड़ा था। सो परमप्पा अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । 'तत्त्व- सन्तों का तो सहज-स्वभाव ही परोपकार मसि' का अर्थ भी यही है कि आत्मा केवल आत्मा करना होता है । सन्तों के विषय में किसी कवि का ta ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म यह कथन कितना सटीक हैहै और ईश्वर है । आवश्यकता है अपने को जागृत
"पद्माकप दिनकरो विकचीकरोति करने की और आवरण को दूर फेंक देने की । सर
चन्द्रो विकासयति करवचक्रवालम् । लता एवं त्याग की प्रतिमूर्ति महासती श्री कुसुम
नाभ्यथितो जलधरोऽपि जलं ददाति, वतीजी म. सा. का ज्ञान सागर-सा विशाल है, पर
सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः ॥" उस ज्ञान का गर्व नहीं है। इनके विचार में भारतीय दर्शन कहता है कि जगत् की कोई भी आत्मा
अर्थात्-तालाब के पुष्पों को सूर्य विकसित भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर करता है, चन्द्रमा कुमुद समूह को खिला देता है । पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष बादल भी इसी प्रकार बिना प्रार्थना के ही जल मत करो। क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में पर- बरसा कर सृष्टि को हरी-भरी कर दिया करते हैं, मात्म-भाव की जागृति हो जाये । इनके विचारों में उक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संसार की विकारों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है। जीव-मुक्ति सन्तात्माएँ स्वभाव से ही परोपकार के लिए कृत-मर का अर्थ है-जीवन के रहते हुए ही शरीर और निश्चय होती हैं। श्वासों के चलते हुए ही काम, क्रोध आदि विकारों बाल्यावस्था में बालक के कोरे मन पर जो से यह आत्मा सर्वथा मुक्त हो जाये । इनका कथन वैराग्य का रंग चढ़ जाये तो वह जीवन-पर्यन्त है- जैन-दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि उतर नहीं सकता। बाल्यकाल में पड़े संस्कार कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है । राग आजीवन जीवन को प्रभावित करते रहते हैं। एवं द्वष पर विजय प्राप्त करने के लिए ही प्राणी किसी कवि ने कहा है-'यन्नवे भाजने लग्नः, संयम मार्ग की ओर प्रस्थान करता है।
संस्कारोनाऽन्यथा भवेत्' वृद्धावस्था का वैराग्य उत्तम वैराग्य का बीजांकुर
वैराग्य नहीं होता, क्योंकि उस आयु में संस्कारों बाल्यकाल से ही महासतीजी के बालमन पर
में परिवर्तन लाता अत्यन्त कठिन है। इस भाव को । वैराग्य का बीजाकुंर प्रस्फुटित होने लगा था, पर
दृष्टि में रखकर यह कहना कि बाल्यकाल में लिया उसे आवश्यकता थी आधार की । बिना आधार के
गया वैराग्य ही वास्तव में धर्म के महान रथ को बीज भी अंकुरित नहीं हो सकता, उसी प्रकार
खींच सकता है, वृद्धावस्था का वैराग्य नहीं, सर्वथा । बिना मार्गदर्शक के संयमव्रत ग्रहण नहीं किया जा
उचित प्रतीत होता है। बालकों से धर्म के उद्धार सकता। फिर इनका जन्म तो संसार के उपकार
की अधिक आशा की जा सकती है। के लिए हुआ है न कि गृह की चारदीवारी में बन्द आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति बिना दुःखों को रहकर गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए। किसी सहन किये सम्भव नहीं। सन्त शिरोमणि श्रीलालको विश्वास भी नहीं था कि कसम-सी कोमल चन्द महाराज श्रमणलाल के शब्दों मेंबालिका संयम के कठोर मार्ग पर चलकर आत्म- "दुःख बिना सुख है कठे, कल्याण के साथ-साथ जग-कल्याण के लिए निकल
मुख बिना ज्यों नहीं बोल ।
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मैं रुख जोड़ी धर्म सं,
गुर्वाज्ञा करणं हि सर्वगुणेभ्योऽतिरिच्यते । अब कित झुकतो तोल ।"
-त्रिषष्टिशलाका पुरुष० १/६ ___ अर्थात्-दुःख के बिना सहन किये सुख कहाँ अर्थात् गुरु की आज्ञा मानने का गुण शिष्य में रखा है ? दुःख के बिना सुख वैसे ही सम्भव नहीं सब गुणों से बढ़कर होता है। जैसे मुख के बिना वाणी सम्भव नहीं। मैंने तो गुणों का जनक है ज्ञान, इसी कारण जैनागमों | अपना नाता धर्म से जोड़ दिया है, मैं अधिक तोलने में ज्ञान को प्रथम स्थान दिया गया हैYam वाला नहीं हैं, अर्थात् मैं आत्मकल्याण के मार्ग से
"पढम नाणं तओ दया" विचलित होने वाला नहीं हूँ।
और ज्ञान की जननी विद्या है। महासती ___ साध्वी के रूप में बिना गुरु की शुश्रूषा के, साध्वी श्री कसुमवतीजी ने गुरुणी महासती श्री बिना गुरु की कृपा से, बिना गुरु के आशीर्वाद से सोहनकवरजी के चरणों में बैठकर प्राकृत, संस्कृत
परमपद की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? किसी आदि भाषाओं का अध्ययन किया । जैनागम ग्रन्थों TU आचार्य की यह उक्ति सत्याधारित है
और सिद्धान्त ग्रन्थों के अतिरिक्त वैदिक वाङ्मय "बिना हि गुर्वादेशेन सम्पूर्णाः सिद्ध यः कुतः” की भी ज्ञाता हैं। प्रखर प्रतिभाशाली होने के ___ अर्थात्-- कैसे मिल सकती हैं सम्पूर्ण सिद्धियाँ कारण निरन्तर अध्ययन, चिन्तन और मनन द्वारा बिना गुरु के अनुशासन से ? महासती श्री सोहन अपने ज्ञान का विकास किया और कर रही है।। कुंवरजी साध्वी बालिका को अनेक प्रकार की व्यक्तित्व निर्माण-महासती श्री कसुमवतीजी वैराग्य की कहानियां सुनाती थीं, जिससे आध्या- एक ऐसी महान आत्मा है जिन्होंने दीक्षित होने के त्मिक जीवन के उच्च, उच्चतर और उच्चतम पश्चात् पंच महाव्रतों के (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, सोपानों पर चढ़ने के लिए उनके संस्कार सुदृढ ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) पालन के द्वारा कर्मों की बनें, उनका बौद्धिक विकास हो और उनके मन में उत्तरोत्तर निर्जरा करते हुए अपने सहज गुणों को धर्म के प्रति स्थिरता और दृढ़ता आये। समय की पहचान कर, अपने महान व्यक्तित्व का निर्माण प्रगति के साथ-साथ गुरुकृपा से साध्वी का श्रत- किया। ऐसा व्यक्तित्व जिसने बड़े से छोटे तक सब ज्ञान भी प्रगति पथ पर था। विहार में जैसे-जैसे का प्रभावित किया आर स्वय
जैसे को प्रभावित किया और स्वयं न तो विश्व के सती मण्डल के चरण आगे बढ़ते जा रहे थे. वैसे- प्रलोभनों से और न किसी व्यक्ति के तर्क, मानवैसे साध्वी कुसुमवती के संस्कार भी धर्म-क्षेत्र में सम्मान से ही प्रभावित हुई। आगे बढ़ते जा रहे थे। इस समय उनकी आयु प्रदचन-शैली--प्रवचन में रोचकता, धारावामात्र तेरह वर्ष की थी।
हिक वाणी में ओजस्विता, शैली में माधुर्यता। ___ अध्ययन-नवदीक्षित साध्वी श्री कसूमवती इतना सब कुछ होने पर भी प्रवचन में पाण्डित्य की प्रतिभा से प्रभावित होकर गुरुणी महासती श्री का प्रदर्शन नहीं, शैली में बनावट नहीं। दो दिन सोहनकुंवरजी ने तिथिवार की शुद्धि देखकर विद्या प्रवचन सुनने का सौभाग्य मिला। धर्म का विवेचन का आरम्भ भी करा दिया था।
करते हुए कहती हैं___ महासती श्री सोहनकुंवरजी को साध्वी श्री धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। कसुमवती जैसी शिष्या मिलीं जो सुयोग्य शिष्या देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ के सभी गुणों से सम्पन्न हैं । सुयोग्य शिष्या के गुणों
-दशवै सू. १/१ का निर्देश करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--
अर्थात्-संसार का सबसे उत्कृष्ट तत्त्व या प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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मानव कर्तव्य है, धर्म का पालन करना और इस पकड़ जाता है। क्रोधी व्यक्ति सामने आने वाले धर्म की साधना, अहिंसा, संयम और तपश्चर्या प्रतिपक्षी को चुनौती देने लगता है। द्वारा होती है। जिस प्राणी का मन सदा धर्म में शास्त्रकारों ने क्रोध के चार प्रकारों का उल्लेख | निरत रहता है, उनको तो देवता भी नमस्कार किया है, पहला वह जो उत्पत्ति से अन्त तक ज्यों करते हैं।
का त्यों बना रहे। क्रोध की दूसरी अवस्था एक धर्म से बढ़कर दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए वर्ष तक एक-सी रहती है। तीसरे प्रकार का क्रोध उसको कोई शरण देने वाला इस जग में नहीं है, चार मास पर्यन्त एक-सा रहता है। चार माह शास्त्र का कथन है
पश्चात् क्रोध की प्रकृति समाप्त हो जाती है। जरा मरण वेगेणं. वज्झमाणाण पाणिणं । क्रोधी व्यक्ति के मन में महान परिवर्तन आ जाता धम्मो दीवो, पइट्ठाय गई सरणमुत्तमं ॥
है। चौथे प्रकार के क्रोध की स्थिति केवल पन्द्रह उत्तराध्ययन सूत्र २३/६८ दिन तक ही रहती है। यह पानी की लकीर का-सा
क्रोध प्रायः उत्तम व्यक्तियों में ही देखने को अर्थात जरा और मरण के प्रवाह में डूबते हुए मिलता है। प्राणियों की रक्षा के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा
सरल स्वभावी महासती श्री कुसुमवती जी की का आधार है, गति है और उत्तम शरण है।
दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती के पावन प्रसंग पर वीरप्रभु से धर्मो बन्धश्च मित्रश्च धर्मोऽयं गुरुरंगिनाम्। दीर्घाय की कामना करता हूँ। तस्माद् धर्मे मतिं धत्स्व स्वर्मोक्ष सुखदायिनि । -आदिपुराण १०/१०६
मेरा प्रणाम अर्थात् धर्म ही मनुष्य का सच्चा बन्धु है, मित्र
-नेमीचन्द जैन, मेडता सिटी का है और गुरु है। इसलिए स्वर्ग और मोक्ष दोनों की
जैनधर्म त्यागप्रधान धर्म है, दान शील तप भाव प्राप्ति कराने वाले धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर
स्थर का धर्म है, जैन साधु साध्वीगण अपना सम्पूर्ण रखो।
जीवन इसी तप त्याग के लिए अर्पित करते हैं। सम्वत्सरी पर्व पर क्रोध विषय पर प्रवचन दें परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी महाराज तो क्रोध की व्याख्या करते हुए कहती हैं- जिन शासन को उद्योतित करने वाली महान साध्वी
कोहं माणं च मायां च, लोभं च पाववडढणं । रत्न है। वर्म चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो डियमप्पणो
आपके २०४१ के मेडता सिटी के चातुर्मास में -दशवकालिक ८/३७ मुझे भी सत्संग प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हआ, अर्थात्-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों
लम्बे समय तक सम्पर्क में रहकर मैंने पाया कि आप कषाय पाप की वृद्धि करने वाले हैं, अतः अपनी पी
भीतर बाहर से एकदम सरल हैं, आपकी वाणी में आत्मा का हित चाहने वाला साधक इनका परि
ओज है, तेज है। सिंहगर्जनावत् आपके प्रवचन के त्याग कर दे।
प्रखर व ओजस्वी शब्द श्रोताओं के हृदय पर सीधा
प्रभाव डालते हैं। आप संयमनिष्ठ साधिका हैं । मनुष्य को जब क्रोध आता है तो उसके शरीर दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर शतशः में क्रोध के सारे चिह्न प्रकट हो जाते हैं। ओठों में नमन करता हुआ यही शुभ कामनाएँ अर्पित करता
फड़फड़ाहट आरम्भ हो जाती है, आँखें लाल हो हूँ कि आप शतायु बनें और समाज को सदा मार्गGOL जाती हैं और नसों में रक्त का प्रवाह तीव्रगति दर्शन प्रदान करते रहें।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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शत-शत प्रणाम
के प्रकाशन करने के सकारात्मक प्रयत्न जारी हैं।
श्रद्धय महासती जी जैसा नाम वैसा ही गुण वाली -श्रीचन्द डोसी
कहावत चरितार्थ करती हुयी समाज को ऊँचा (अध्यक्ष, मेडता श्रावक संघ) उठाने में, मार्ग भूले हुए पथिकों को सत्य मार्ग बतभगवान महावीर ने ४ प्रकार के तीर्थ प्ररूपित लाते हुए दान दया के शुभ कार्य कराते हुए हजारों किये हैं-साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका । हजारों को सप्रेरणाएँ प्रदान की हैं।। वर्षों से आज भी यह तीर्थ भगवान महावीर के आपकी वाणी में जो प्रभावशाली हृदय को बताये गये त्याग मार्ग पर चलता आया है और छूने वाली शक्ति रही हैं, उससे भक्तबन्धु आपकी आज भी स्थान-स्थान पर पूज्य मुनिराजों के श्रावक वाणी से आकर्षित होकर अपने जीवन को सत्य की संघों द्वारा चातुर्मास कराये जाते हैं। हमारे श्रावक ओर अग्रसर करके सफलता को प्राप्त कर रहे हैं। संघ का परम सौभाग्य रहा कि २०४१ में पूज्या आपकी आत्मा तो सफल है ही, अभिनन्दन की इस महासती जी का चातुर्मास प्राप्त हुआ, उस चातु- पुनीत वेला पर मैं अन्तर् हृदय से यही मंगल मास में दान-शील-तप-भाव की अपूर्व प्रभावना हुई। कामना कर रहा हूँ कि आप सदा स्वस्थता को यह सब आपकी ओजस्वी मधुर वाणी का प्रताप प्राप्त करते हुए समाज को राह बतलाते रहें, भूलेथा, आपकी प्रवचन कला मन-मोहक है, उसमें भटके प्राणियों को भगवान महावीर के मार्ग की तात्विक ज्ञान के साथ ही जीवन जीने की कला का ओर प्रेरित करते रहें, अन्त में मैं अपनी ओर से, भी विश्लेषण होता है। जीवन व्यवहार के अनेक जैन श्रावक संघ कपासन, अखिल भारतीय जैन पहलुओं पर महासती जी प्रकाश डालती हैं जिससे दिवाकर संगठन समिति, स्थानकवासी जैन कांफस जीवन में सुख और शान्ति का संचार होता है। दिल्ली आदि सभी की ओर से श्रद्धा सुमन समर्पित आपका मधुर व्यवहार चुम्बक की तरह हर व्यक्ति कर रहा हूँ। को आकषित करता है।
कोटि-कोटि वन्दन दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस सुनहरे अवसर पर
___-कन्हैयालाल गौड़, उज्जैन मैं अपनी ओर से अपने परिवार व समाज की ओर
वे सविचार को नित जीवन में गति देती. से आपके श्री चरणों में कोटिशः वन्दन करता हुआ पावन दृष्टि लिये जोवन से उलझो रहती, यही शासनेश प्रभु महावीर से प्रार्थना करता हूँ कि आप चिरायु हों और जन-जन के मन में स्नेह
पथ करती सबका प्रशस्त, रखती हृदय विशाल, सद्भाव सत्य अहिंसा की सरिता प्रवाहित करते
हो मगंलमय जीवन उनका रहे यशस्वी भाल ।
है जीवन दिव्य-प्रकाश युक्त देता नूतन संदेश,
0 पाकर दर्शन उनका पूरा हो जाता जीवनका उद्देश्य, श्रद्धा सुमन
गागर में सागर भरने का,जिनमें है साहस औ क्षमता,
ऐसा ही परम-विदुषी के कारण उज्जवल भारत देश । नायुलाल चण्डालिया, कपासन उनमें-सागर-सी गहराई, देख उसे मानवता हर्षायी, . परम श्रद्धय मधुर एवं प्रेरणादायक प्रवचन मैं-अकिंचन माटी का लघुकण करता शत-शत वन्दन, र भूषण विदूषी महासती श्री कुसूमवती जी म० की ज्ञात से अज्ञात की और ही हैजीवन का परम-लक्ष्य, दीक्षा स्वर्णजयन्ती के उपलक्ष्य में समाज द्वारा दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती पर है, कोटि-कोटि अभिनन्दन । साध्वी जी के श्रद्धा सुमन के रूप में अभिनन्दन ग्रंथ
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
। साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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सेवा की साक्षात् मूर्ति
युग युग जीयें -उम्मेदमल जैन, जयपुर
-कमल मेहता, अलवर । परमादरणीया महासती श्री कुसुमवती जी म० भारतभूमि कर्मभूमि ही नहीं धर्मभूमि भी स्थानकवासी जैन समाज की एक सुप्रसिद्ध साध्वी रही है, इस रत्न प्रसूता वसुन्धरा ने समय-समय रत्न हैं, आपके प्रवचनों में दीन दुःखियों के लिए पर अनेक रत्न उत्पन्न किए हैं। उन्हीं रत्नों में एक IN उदारता पूर्वक दान देने की प्रेरणा रहती है
रत्न है मेरी आस्था के केन्द्र पूज्या साध्वी श्री
कुसुमवतीजी म०। आपका दिव्य सान्निध्य मुझे सर्व लाखों आते लाखों जाते,
प्रथम सन् १९८० के अलवर वर्षावास के दौरान दुनिया में वो निशानी है।
प्राप्त हआ और आपके व्यक्तित्व से मैं इतना प्रभाजिसने दुःखियों की सेवा की,
वित हआ कि आज भी मंगलमूर्ति जब-जब भी
आपकी मेरे आंखों के सामने तैरती रहती है । और उसकी अमर कहानी है।
मेरा मन श्रद्धा से नतमस्तक हो उठता है। अगर आप दीन-दुःखियों की सहायता करेंगे,
___आपका दिव्य जीवन साध्वोचित गुणों से युक्त, तो आपके जीवन में सभी प्रकार की शान्ति बनी
प्रदर्शन से दूर सुमेरु सदृश उच्च भेद भाव रहित रहेगी।
और गंगाजी के सलिल के समान शीतल शुद्ध व __ जयपुर चातुर्मास में आपके इन उपदेशों से निर्विकार है। दया क्षमा आर्जव लाघव आदि मेरे हृदय में भी सेवाकार्य की भावना जगी और अनेकों गुणों की आप साक्षात् प्रतिमूर्ति है, आपका || जब भी मैं किसी असहाय को, दीन-दुःखियारे को जीवन महाकवि कालिदास रचित रघुवंश की निम्न
आपके समीप ले गया तब आप उदारतापूर्वक पंक्तियों में सर्वथा चरितार्थ हो रहा हैश्रावकों को प्रेरणा देकर उसके लिए अन्न, वस्त्र, दवा आदि का कार्य करवा देते हैं। महात्मा गांधी आकार सहशः प्रज्ञः, प्रज्ञया सदृशागमः । ने एक स्थान पर लिखा है-सेवा मनुष्य का सब आगमे समारम्भः, आरम्भः सदृशोदयः ।।
से बड़ा गुण है-दूसरे मनुष्य या मनुष्यों को शांति A पहुँचाने के लिए जो काम किया जाता है वही मेरी अर्थात् आपका जीवन आकार के समान प्रज्ञादृष्टि से उत्तम सेवा है।
वाला, प्रज्ञा के सदृश आगमों के अध्ययन से युक्त । __ सेवा की ऐसी साक्षात् मूर्ति साध्वी जी म. के
आगमानुकूल आचार वाला है। इस दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर मैं अपनी ऐसे महान व्यक्तित्व कृतित्व की धनी साध्वी ओर से और भगवान महावीर विकलांग समिति जी म० को अन्तःकरण से शतशः नमन वन्दन अभिजयपुर के समस्त सदस्यों की ओर से शतशः वन्दन नन्दन करता हूँ। अभिनन्दन करता हूँ और प्रभु से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घजीवी होकर हमें सदा मार्ग दर्शन प्रदान करते रहें।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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जिन शासन की ज्योति
भूमिका निभा रही हैं। इस प्रकार आपका जीवन -खबीलाल खोखावत, डबोक आत्म-कल्याण व जन-कल्याण में संलग्न है । वास्तव परम श्रद्धया शान्त. दांत. गणगम्भीरा महा- में आपका जीवन अभिनन्दनीय है। शासनदेव से गुरुणी श्री सोहन कुवर जी म० की प्रथम व विद्वान ।
प्रार्थना है कि आप इसी प्रकार जिन शासन एवं शिष्या पूज्या गुरुणी जी श्री कुसुमवती जी म० का
संघ की दीर्घकाल तक सेवा करते रहें। इन्हीं शुभ-70 हमारे डबोक गांव पर बड़ा उपकार रहा है, आपका
कामनाओं के साथ..."। सर्वप्रथम चातुर्मास सन् १९५७ में डबोक हुआ। उस
यथानाम तथागुण समय आपकी मधुर व ओजस्वी वाणी से संघ में
-कमला माताजी, इन्दौर काफी उत्साह आया, श्रावक संघ की स्थापना के साथ आपकी प्रेरणा से जैन धार्मिक विद्यालय
नामकरण तो बहुत सुन्दर-सुन्दर वाक्य की संस्थापना हुई और यह विद्यालय आज भी रचनाओं से करना मन को अति प्रियकारी लगता निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आपकी प्रेरणा है, लेकिन गुणों के अभाव में वह कागजी फूलों के ||K5) से स्थान स्थान पर अनेक सामाजिक व धार्मिक समान ही सुगन्धविहीन ऊपरी सुन्दरता का धारका रचनात्मक कार्य होते रहते हैं। आप स्थानकवासी होता है। सुगन्धयुक्त रसपान करने वाला भ्रमर जैन समाज की प्रतिभा सम्पन्न साध्वी रत्न हैं। निराश होकर लौट जाता है, लेकिन यहाँ तो यथा आपकी ही भाँति आपका शिष्या परिवार भी तेजस्वी नाम तथा गुणोंयुक्त पूज्य महासतीजी श्री कुसुमहै। दीक्षा स्वर्ण जयन्ति के इस पावन अवसर पर वतीजी म. सा. का दीर्घकालीन साधनामय जीवन मैं तथा समस्त श्रावक संघ के सदस्यों की ओर से ज्ञानदर्शन चारित्र युक्त सौरभ को धारण किये हुए 5 आपके चरणारविन्दों में कोटिशः वन्दन करता हुआ तो है ही, लेकिन चिन्तन की धाराएँ भी अत्यन्त जिनशासनदेव से यही मूक प्रार्थना करता हूँ कि गहरी हैं। जिस प्रकार भ्रमर अनेक फूलों के रसों
आपका स्वास्थ्य सदा स्वस्थ रहे और सदा हमें को ग्रहण कर उन्हें संग्रहीत करता है और वे रस (6) सप्रेरणा व आशीर्वाद प्रदान करते रहें जिससे हम कालान्तर में शहद के रूप को धारण कर लेते हैं, धार्मिक व सामाजिक कार्यों में अपना योगदान शहद शक्तिवर्धक/व्याधि निवारक आदि अनेक गुणों देते रहें।
से युक्त होता है । ठीक उसी प्रकार पूज्य महासती 5 सहज-सौम्य व्यक्तित्व
जी ने अपने चिन्तन युक्त शहद का पान करवाक -अमरचन्द मोदी, ब्यावर जन-जन के कर्म व्याधियों को दूर किया हैं, भव - महापुरुषों के गुणों का वर्णन करना सहज काय भ्रमण करते हुए भूले-भटके प्राणियों को कर्म और नहीं है। परमपूज्य महासतीजी श्री कुसुमवतीजी आत्मा का स्वरूप समझाकर अपने स्वरूप को प्राप्त म. सा. उन विशिष्ट नारीरत्नों में से एक हैं, जिनका करने के लिए मार्गदर्शन किया है। जहाँ कथनी जीवन निर्मल व महान् तथा अन्य सभी के लिए और करनी में समानता होती हैं, वे ही आत्माएँ प्रथप्रदर्शक के रूप में है। उनके उज्ज्वल चारित्र स्वयं संसार सागर से पार होती है और अन्य को की ज्योति साधना पथ पर बढ़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति भी पार करवाती है । ऐसी गुण सम्पन्ना पूज्य महामा के लिए प्रेरणास्रोत है।
सतीजी श्री कुसुमवतीजी म. सा. के अभिनन्दन की आप श्रमण संघ की वाटिका को निरन्तर शुभ बेला पर श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ । शत-शता शोभित कर रही हैं। आपकी छत्र-छाया में रहकर वन्दन-अभिनन्दन युक्त । अनेक शिष्याएँ आज धर्म की प्रभावना में महत्वपूर्ण प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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यह माथे का चन्दन है
- कवि निर्मल 'तेजस्वी', उदयपुर
अभिनन्दन करके हर्षित हम यह माथे का चन्दन है |
गुणग्राहकता से ही फलता है दुनिया का नन्दन वन है ।
कब चाहा था नाम सूर्य ने तिमिर गला जग जान गया तेजस्वी सूरज की ताकत सारा जग पहिचान गया । तुमने भी कब चाहा था नाम मिले बहुमान मिले पर कर्मठता से ही तुमको सारे हो सम्मान मिले ।
यह प्रशस्ति का गीत नहीं है गुण का पूजन अर्चन है अभिनन्दन करके हर्षित हम यह माथे का चन्दन है |
उजली किरण भोर की तुम हो गीत जागरण के नूतन सतत प्रवाहित जल गंगा हो श्रमण संघ की तुम
भूषण ।
ग्रन्थ सुधा का गागर है या फिर बूटी संजीवन है। अभिनन्दन करके हर्षित हम यह माथे का चन्दन है "
मंगल दिवस अनूठा आया आओ इसे मनाएँ हम जीवन की जागृति के सपने आओ सफल बनाएं हम ।
संघ एकता के आरोही हम मंजिल तक जायेंगे जिनवाणी के गीत अनूठे अपनी धुन में गायेंगे |
ये जड़ता के बोल नहीं यह सिंहों का गर्जन है अभिनन्दन
समर्पण
- श्री हीरालाल जैन, खरड़ ( पंजाब )
गुलिस्तां भी है उनसे आबाद वीराने भी हैं तेरे दिवानों में काबा भी है बुतखाने भी हैं शमां पर यूँ तो जला करते हैं परवाने सभी शर्मा खुद ही जलती है जिन पे ऐसे परवाने भी हैं । जिन्दगी लाखों की बनाई तूने सोई तकदीर भी जगाई तूने ज्ञान के प्यासों की है प्यास बुझाई तूने किश्ती लाखों की किनारे पर लगाई तूने ।
बाग था खुश्क उसे तूने ही आबाद किया
तूने ही शाद किया आके जगाया तूने राग सुनाया तूने । तेरे दीवाने बने तेरे परस्तार बने
तू सारंगी हम साज के तार बने मीठी आवाज में पैगाम सुनाया तूने परोपकार में ही जीवन लगाया तूने ।
दिल था नाशाद उसे रंग महफिल में जब सारे मतवालों को जब
प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंना
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खिला कुसुम जग बगिया में
- कवि श्रणीदान चारण, बीकानेर एक कुसुम खिला जग बगिया में जो सब सुमनों से न्यारा है वो और नहीं है कुसुमवती जो जैन धर्म उजियारा है ।
श्वेत वसन धारित तन है गंगा जल सा पावन मन है कोई चाह नहीं जिनको जग से बस एक अहिंसा ही धन है
हिमगिरि सा ऊँचा चिन्तन है सागर सम जिनकी गहराई मधु सा मिठास ले वाणी में देने उपदेश हमें आई ।
संयम पथ कितना दुष्कर है ये हम सांसारिक क्या जाने विरले ही आगे आते हैं इस कंटक पथ को अपनाने ।
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जिसने सांसारिक मोह त्यागा संयम पथ को ही अपनाया कुछ चाह नहीं रखी जन में बस महावीर का मग भाया ।
हरने को जग का अंधियारा अब ज्ञान सुधा जो बाँट रही ज्ञान की गंगा बन बहती अज्ञान अंधेरा छाँट रही ।
इस गंगा को बहते - बहते आधा युग पार उतरता है दर्शन की चाह लिए चारण इन्हें शत-शत वन्दन करता है ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंना
कुसुम नाम वह प्यारा है
- वैरागन गुणमाला चपलोत
श्रमण संघ की बगिया में खिला पुष्प एक न्यारा है । सारा संघ जिससे है सुरभित 'कुसुम' नाम वह प्यारा है । में ही बनी साधिका लघुवय वीर का पथ अपना करके । करुणामयी देवी कहलाई सब जन के दुःख हर करके ।
देश के हर कोने में जाकर जन-जीवन को मोड़ दिया । महावीर सन्देश सुना कर धर्म से जन को जोड़ दिया ।
व्याख्यानों की छटा निराली झम-झूम मन जाता है । 'प्रवचन - भूषण' इसीलिए तो जग सारा ही गाता है ।
चन्दा सम जीवन है शीतल तेज सूर्य-सा लगता है । वाणी में है ओज अनोखा सुन लेता सो जगता है ।
शिव्याएँ हैं सभी आपकी एक से बढ़कर एक महान । चारित्र, दिव्या और गरिमा चमक रही हैं बीच जहान ।
ज्ञान-ध्यान त्याग और तप से जीवन दिव्य बनाया है । त्याग और सेवा की मूर्ति गुण गाये ना जाया है ।
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती आई करे आपका अभिनन्दन । ममतामयी हे ! गुरुणी मैया श्रद्धा से शत-शत वन्दन ।
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युग की मीरा को नमन मेरा
-गीतकार रमेश चैतन्य, बोम्बे मेवाड़ धरा पर सात सितम्बर पच्चीस को नव कुसुम खिला। गुरुदेव पुष्कर मुनि जी से, जीवन में अध्यात्म मिला ।। सती सोहन जी से प्रेरित हो दीक्षा का व्रत ठान लिया। नजर कवर था जन्म नाम दीक्षा ने नाम कुसूम दिया ।। कैलाश कुंवर माता जो भी पुत्री कुसुम संग दीक्षा ली। कैसा संयोग मिला मां पुत्री ने संग में ही शिक्षा ली। 'दिव्य' गरिमा 'अनुपमा' व निरुपमा नित साथ रहे । आज्ञाकारिणी बन गुरुणी की, नित चरणों में ध्यान रहे। सहज सरल व्यक्तित्व आपका अधरों पर रहती मुस्कान । शहर-पाहर और गाँव-गाँव सद् उपदेशों का किया बखान ।। सत्य, शील, और सदाचार पर बढ़ने का आह्वान किया। 'अध्यात्मयोगिनी' 'प्रवचन भूषण' से समाज ने मान दिया ।। ऐसी गरुणी महासती का हम गायेंगे नित ही गुणगान । जो भी अन्तर में भाव उठे, उन भावों से हम करें बखान ।। विशाल-हृदय व दूर दृष्टि है महासती को नमन मेरा। युगों-युगों तक अमर रहे, युग की मीरा को नमन मेरा ।।
-0अध्यात्मयोगिनी...'शत-शत वन्दन
. -अनुराधा जैन, बी. ए., उदयपुर जीवन के सच्चे लक्ष्य का आदर्श आप हैं,
है 'कुसुम' कुसुम सी खिली जग में तो आप हैं । सारे सुखों को त्याग के सुख को ग्रहण किया,
'अध्यात्मयोगिनी' की एक मिसाल आप हैं। अनेक भाषा ज्ञान जिन तत्व की ज्ञाता,
अध्ययन, मनन, चिन्तन को तो त्रिवेणी आप हैं। आया निकट जो आपके बस आपका हुआ,
विचलित हुए मनुज का तो आलोक आप हैं । मेवाड़ धरा धन्य हुई आपको पाकर,
संसार के दल-दल में खिले कमल आप हैं। शेरनी-सा ओज रहा जिनकी वाणी में,
प्रवचन • भूषण इसलिए कहलाई आप हैं । दीक्षा पचास वर्ष पे शत - शत नमन करू',
अभिनन्दनीय और वन्दनीय आप हैं।
प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चना
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जैनाचार्य से कम नहीं
-युवा कवि धर्मेश छाजेड़, सूरत ज्यों ही,
वैसे भी हिन्दुस्तान में कागज, गुरुणी जी के अभिनन्दन ग्रन्थ छपने का, पर्याप्त मात्रा में नहीं है, समाचार पाया,
इसलिए मैंने गुरुणी जी के गुणगान लिखने का
शुरुणी जी के गुणगान लिखने का मन में विचार आया
विचार छोड़ दिया एक दिन गुरुणी जी के गुणणान लिखने का अपनी लेखनी को मैंने अभ्यास किया
हास्य-व्यंग की ओर मोड़ दिया एक छोटा-सा कागज का टुकड़ा लेकर
गुरुणी जी को, कविता लिखने का प्रयास किया
किसो ने 'मेवाड़सिंहनी' के नाम से विभूषित मगर,
किया समस्या यहाँ आकर खड़ी हो गई कि
किसी ने 'अध्यात्मयोगिनी' के नाम से गुरुणीजी के गुणगान की रूपरेखा बड़ी हो गई शोभित किया जैसे कि द्रौपदी का चीर
किसी ने 'काश्मीर प्रचारिका' नाम से पुकारा, मैंने सोचा,
किसी ने 'प्रवचन भूषण' इनका नाम दिया अगर गुणगान लिखने जाऊंगा
मगर धर्मेश छाजेड़ में तो, तो लिखते-लिखते बूढ़ा हो जाऊंगा
इतनी उपाधि से विभ षित करने का दम फिर भी गुणगान नहीं लिख पाऊँगा
नहीं है और तो और
गुरुणी के गुणगान नहीं लिख पाया इतनी कलम कहाँ से लाऊंगा
इसका भी मुझे कोई गम नहीं है इतनी स्याही कहाँ से लाऊंगा
लेकिन गुरुणी कुसुमवती जी इतने कागज कहाँ से लाऊंगा
किसी जैनाचार्य से कम नहीं है । मेरी कविता यही है, तप की देवी को है वन्दन.......
-युवाकवि-गीतकार हरीश व्यास, प्रतापगढ़ ममतामयी त्याग और तप देवी को है वन्दन, तन काशी सा तीर्थ लगे है मन जैसे वृन्दावन। शतशत नमन करू तुमको और बार-बार अभिनदंन । धन्य हुआ मेवाड़ 'उदयपुर' 'कुसुमवती' को पाकर सात सितम्बर उन्नीस सौ पच्चीस को जन्म था पाया 'अध्यात्मयोगिनी"प्रवचन-भूषण' महासती को पाकर मात-पिता 'कैलाशकंवर' 'गणेश' का मन हर्षाया जिनधर्म की बावरी मीरा बनी नैन का अंजन। देलवाड़ा में दीक्षा पाकर तोडा जग से बन्धन"] 'दिव्य प्रभा' ने दिव्यज्ञान से गुरु का मान बढ़ाया जन्म नाम था 'नजरकंवर' और 'कुसुम' हुई दीक्षा से सजन से 'गरिमा' ने जीवन के मर्म का अलख जगाय 'सोहनकॅवर' का आशीष पाया लक्ष्य मिला शिक्षा से 'अनुपमा' और 'निरुपमा' की वाणी निर्मल कंचन"। ज्ञान की सौरभ घर-घर फैली जैसे महके चन्दन । स्वस्थ दीर्घ जीवन हो बस अन्तस की यही दुआ है 'पुष्कर मुनि' से गुरुवर जिसके श्रमण संघ की जान आशीर्वाद का साया बना रहे बस यही दुआ है पथ आलोकित हुआ मिला इस जीवन को बह्मज्ञान दीक्षा के पचास बरस पर मेरा अनुनय वंदन ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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किस विध-नमन करु -श्री भंवरलालजी चपलोत, नाथद्वारा
AD.
किस विधि तुमको नमन करू तर्पण करू सारे अवगुण या, संयमी बन तव गुणगान करूँ
तुम
महासती जी! कुमुमवती जी! तुम्हीं बताओ किस विध तुमको नमन करूं? चरण पखारूँ उपमाओं से या श्रद्धा सुमन अर्पन करूं?
तुम शान्त जैसे ठहरा जल हो 'मुखर' जैसे खिला कमल हो ज्योतिर्मय तुम साधना में लीन अध्यात्मयोगिनी हो
ममतामयी जैसे, अनुरागी माँ हो करुणामयी जैसे स्वयं कृपा हो सदाचारी तुम बहुभाषा विद् प्रवचन भूषण हो
ओ,
प्रवचन भूषण ! तुम्हीं बताओ किस विधि तुमको नमन करू अर्पण करूं सारे गीत या कविता लिख अभिनन्दन करूं ।
ओ,
अध्यात्मयोगिनी ! तुम्हीं बताओ किस विधि तुमको नमन करूं अर्पण करू सारा जीवन
या, साधना में रमन करू तुम, दृढ़ संकल्पी जैसे अडिग हिमालय हो मधुमयी वक्ता जैसे बहता सरिता सलिल हो 'संयमी' तुम पंच महाव्रतधारी पंच शीला हो
'अभिलाषा'
-वनिता चपलोत, बी. ए. नाथद्वारा मेरी अभिलाषा, कि, तुम, थाम पतवार, बनो खिवैया, युग-दृष्टा बनो, बनो राष्ट्र-धर्म उन्नायक, यही कामना, कि, तुम, दीर्घायु हो, तव पल-पल बीते, 'शांत' किसी ध्यानस्थ योगो सा 'सूरभित' किसी वासन्ती सुमन-सा, 'निलिप्त' किसी नीलकमल-सा,
ओ
पंचशीला तुम्हीं बताओ
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
dG.
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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करुणामति—अभिवंदन
क्रोध भी पराजित सम्मुख तुम्हारे, -कन्हैयालाल गौड़, उज्जैन
देख चकित मन,
शांति प्रेम करुणा की, RL ओ अध्यात्मयोगिनी,
साक्षात् प्रतिमूर्ति, तुम बहुगुणी,
जीवन में संकल्पों की दृढता, गुरुभक्त विनयशील,
गति और निर्भयता उर सिन्धु सा विशाल,
मंगलमय, उच्च ललाट,
दीक्षा स्वर्ण जयन्ति पर, दिव्य भाल,
दीर्घायु की करता हूँ, दृष्टि बहुजन हिताय
अंतस से कामना, स्वांतः सुखाय
तुम्हारे आदर्श वाणी में ओजस्विता,
जग पूजित हो, उर में अति आत्मीयता,
मन में उदय हो, प्रकृति शांत धर्मरत जीवन,
विश्व बन्धुत्व की भावना महके सुमन-सुरभित पवन
-श्रीमती विजयलक्ष्मी, उदयपुर 'कुसुम'-'कुसुम' कह महक उठा आज हरेक उपवन । महासती तूम महातपस्विनी है निर्झर सा मन ।। सात सितम्बर सन पच्चीस का सखद वह सोमवार मात-पिता के हर्ष का जब रहा ना परावार पूर्व जन्म के संचित फल से होते तब दर्शन । आई हो कुछ सार खोजने इस असार संसार में। जान लिया छुटपन में ही कि सुख है जन उपकार में । अध्यात्म क्षेत्र में कर पदार्पण किया है नव सृजन। जीवन में साधना प्रचुर औ' वाणी में है ओज । निकल पडी जन-जन में करने भक्ति-भाव की खोज । जहाँ गई हो वहाँ सभी का मिट जाता क्रन्दन।। चिन्तन में गहराई, सेवा सत्य शील आधार । करने लगी जगह-जगह पर ज्ञान का नवल प्रसार । प्रवचन प्रभाव से जन-जन की मिट जाती भटकन। ज्ञान विविध भाषाओं का व्यक्तित्व सहज सरल । गंगा-सम निसृत तव वाणी वहती है अविरल । 'अध्यात्मयोगिनी' बन कष्टों का करती आप शमन | अर्द्ध शताब्दी हुई अध्यात्म में लगी लिये लगन । है शुभकामना यही कि चलती रहे सुगन्ध पवन । योग-क्षेम सत्य शील पुजारिन बारम्बार नमन।
| प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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___'कुसुम' तुम सचमुच कुसुम -श्रीमती विजयकुमारी बोथरा (बी.ए.बी.एड)
मंडी गीदडवाहा (पंजाब) जैसे जैन समाज में नामी नामी सन्त महासती श्री कुसुमजी शोभित है अत्यन्त ।
दिनकर को दीपक यथा दिखलाना बेसूद 'सती कुसुम' में कुसुम के
गुण हैं सब मौजूद । जैसे होती कुसुम में भीनी-भीनी गन्ध त्याग तपस्या कुसुम' की देती परमानन्द ।
कोमलता भी कुसुम का गुण है एक महान कोमल मन है 'कुसुम' का
सचमुच सुमन समान । होता है फिर सुमन में अद्भुत-अद्भुत रूप सतियों का तो शील ही होता रूप अनूप ।
सुमन माल्य में शोभता जैसे कोई सुमन श्रमणी माला मध्य में
श्रमणी आप रतन । काव्यतीर्थ है 'कुसुम' जी न्याय तीर्थ है साथ जैन सिद्धान्ताचार्य है बहुत-बहुत विख्यात ।
महासती सोहनकंवर गुरुणी मिली महान क्यों न होती 'कुसुम' की जग में ऊँची शान ।
अनथक धर्म-प्रचारिका विरली होगी अन्य ऐसी श्रमणी से हुआ श्रमण-संघ है धन्य ।
विजयकुमारी बोथरा . अधिक कहे क्या और श्रमणी है श्री 'कुसुमजी'
श्रमणी-गण सिरमौर। कार उजाला करने एक ज्योति आई !
-कवि माधव वरक, उदयपुर ज्ञानवान गुणवान गुण की निधि हैं आप आत्म-साधना के पथ पर बढ़ी जा रही वाणी में सरसता व नम्रता की मूर्ति हैं जीवन में ज्ञान का प्रकाश बिखरा रही हृदय के भाव उद्गार होते हैं प्रकट समता का स्रोत जैसे नीर सा बहा रही साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी तप और त्यागमय जीवन बिता रही। धन्य है धरा मेवाड़ माटी भी अमोलक है जिस धरती पे वीर सन्त-सती जायेह धरती का मान, प्राणत्याग भी बचाया जहाँ मान-मर्यादा हित प्राण भी गंवाये हैं पन्ना, पदमण, मीरा, नारियाँ जहाँ पे हुई कुसुमवती जी साध्वी सी लख पाये हैं सफल किया है, निज जीवन भी धन्य हुआ प्रतिभा के कानन में फूल सरसाये हैं। उन्नीस सौ पच्चीस का महिना सितम्बर व तारीख थी सात शुभ घड़ी ऐसी आई थी पिताश्री गणेशलाल कोठारी के घर में करने उजाला एक ज्योति चल आई थी कैलाशकुंवर मात धन्य हुई उस दिन कुसूमवती सी कन्या निज गोद आई थी नवल-प्रभात की ही भला दहलीज पर आशा की किरण पहली बार मुस्काई थीं।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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महासती श्री कुसुमवतीजी संयम व ज्ञान की अनुपम ज्योति
- उत्तमचन्द डागा
(संयुक्त मंत्री श्री वर्धमान स्था० जैन श्रावक संघ, जयपुर)
परम विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी म० सा० साधना की अनुपम ज्योति हैं । आपका प्रत्येक क्षण साधना के क्षणों में गुजरता रहा है। वे विराट व्यक्तित्व की तेजस्वी साध्वी रत्न हैं । आपका जीवन निर्मल प्रभात की तरह तेजस्वी रहा है । आप श्री शान्त निर्मल स्वभावी व गम्भीरता से साधना पथ की ओर सदा अग्रसर रहने वाली साध्वी रत्न हैं । आपके जीवन का कण-कण क्षणक्षण साधनामय, तपोमय पथ पर आगे बढ़ता रहा है। आप स्वभाव से विनम्र, शान्त, निर्मल स्वभाव व मधुरभाषी हैं। आपश्री के ज्ञान की आपके प्रवचनों में स्पष्ट झलक मिलती है । इसीलिए आपकी वाणी में मधुरता स्वभावतः पैदा हो जाती है ।
आपका विद्याध्ययन इतना विशाल है कि उसे कहाँ तक लिखा जावे, समझ नहीं पाता । बडे-बड़े शास्त्र आपको कण्ठस्थ याद हैं। आज भी आपका प्रत्येक क्षण कर्म के क्षेत्र पर साहित्य से लगाकर साधना तक गतिशील है । आपके सम्पर्क में जो भी आया उसे कुछ-न-कुछ ज्ञान आपने दिया है । सच्चा साधक भी वही है जो दूसरों को अमृत बाँटता है । आपश्री का व्यवहार से प्रस्फुटित 'अनुकम्पा' का निर्झर सांसारिक ताप से त्रस्त जन-जन को शीतलता प्रदान करता है। आपकी स्वाध्याय व ध्यान में रुचि के अलावा जप- साधना में विशेष रुचि रही है । जब भी समय मिलता आप जाप में ध्यान में संलग्न हो जाती और भक्त जनों को भी जप की महिमा बताकर जप साधना के पथ पर आकृष्ट करती रहती हैं ।
आपने अपने जीवन के साथ अपनी शिष्याओं
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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को नई चेतना-नया चिन्तन देकर संवारा है । पारस के स्पर्श से ही लोहा सोना बन जाता है उसी प्रकार आपने अपनी शिष्याओं को ज्ञान-साधना का अखण्ड पाठ कर ज्योतिर्मय साधक के रूप में प्रज्ज्वलित कर दिया है । वह दिन दूर नहीं जब साधकों के आकाश पर ये साध्वियां अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर सकेंगी। साध्वी श्री चारित्रप्रभा जी, श्री दर्शनप्रभाजी जैसी योग्य शिष्याएँ आज आपके नाम के अनुरूप ही अपने साधना पथ को उज्ज्वलकर रही हैं ।
कहावत है रत्नों के रत्न निकलते हैं। आपश्री की पौत्र शिष्या साध्वी दर्शनप्रभाजी ने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी की सम्प्रदाय में एवं समस्त साध्वी समुदाय में सर्वप्रथम पी-एच०डी० की डिग्री प्राप्त करके आपके गौरव को चार चांद लगाए हैं। इस पुनीत पावन प्रसंग पर मैं हृदय के अन्तःकरण से इस दिव्य तेजस्वी साध्वीरत्न को वन्दन - अभिवन्दन करता हूँ ।
बगिया में - एक कुसुम खिला
- पुरुषोत्तम 'पल्लव' उदयपुर अपनेपन की महक बिखेरी तुमने इस बगिया में इस चन्दा को अपना माना
मगर पराया वह निकला पूनम को बढ़ चढ़कर आया मावस को वह न पिघला
-
दीप जलाकर किया उजाला, तुमने इस रतिया में आज यहाँ और कल वहाँ यह चलता फिरता डेरा था पर्वत से सपने थे अपने यह मन मरुस्थल मेरा था
कुसुम ने अमृत-धारा दो जीवन की नदिया में संध्या मोहक लगती हमको से कई सुन्दर प्रभातों सावन भादों में खो जाते रिमझिम उन बरसातों से
नैया की पतवार तुम्हीं हो, जग की इस दरिया में
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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महिमा का नहीं कुछ पार
- श्रीमती विमलादेवी जैन
मण्डी गीबड़वाहा (पंजाब) महासती श्री कुसुमवती की महिमा का कुछ पार नहीं, इनके गीत गुणों के गाते थकते हैं नर नार नहीं। पढ़ने लिखने में कुछ आलस, इनको है स्वीकार नहीं, ज्ञान, ध्यान, व्याख्यान, तपस्या तजने को तैयार नहीं ।
शान्ति, शील, शम, दम, संयम से कम है कोई प्यार नहीं, समिति-गुप्ति की योग-युक्ति की तजते हैं रफ्तार नहीं । कहदे कोई कुछ भी आकर करते हैं तकरार नहीं,
इनसे मधुर अधिक किसी की सुनी कभी गुफ्तार नहीं । उन्हें जमाने की बेढंगी रुचती है रफ्तार नहीं, कहते हैं यह मानव-जीवन खोने को बेकार नहीं। गया समय फिर हाथ किसी के आता बारम्बार नहीं, हिंसा, वैर, विरोध तजे बिन, मिले मुक्ति का द्वार नहीं ।
दया सत्य का, तप का, जप का होता जहाँ प्रचार नहीं, सन्त सती का प्रिय-प्रभु का, सच्चा वह दरबार नहीं । हर एक ऐसी निर्भयता की, दे सकता ललकार नहीं,
एक शेरनी जैसी सबको, सबल सुलभ हुँकार नहीं ।। • करे प्रशंसा दुनिया इनकी, इनको कुछ दरकार नहीं, प्यारा सत्य प्राण से बढ़कर सकते कभी बिसार नहीं। कभी भूलते महासती जी महामन्त्र नवकार नहीं, उससे बढ़कर-चढ़कर इनको और अन्य आधार नहीं ।
• इन्होंने अब तक किये जगत पर कम कोई उपकार नहीं, लिखने में असमर्थ लेखनी कर सकती विस्तार नहीं । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती इनकी, कम कुछ मंगलकार नहीं, उन्हें बधाई देते थकते कवियों के सरदार नहीं।
999) 159)
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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सम्झी - रयण- सिरी- कुसुमवई
लोगप्पगासण जुत्त कंतिमय सरूवं,
देवेहि थुया विगय कम्ममलामहेस,
पणमामि अहं णिच्चं सम्म सुबोहं सयं
-डॉ० उदयचन्द्र जैन,
( पिऊ कुञ्ज ३), अरविन्द नगर, उदयपुर
जाणाराहणकरणं सतत - समथ्यं ।
रायट्ठाण - पमुह - णयर - अई खणण --संपदा संपण्णो । वरो पुरो उदयपुरो सुसोहइ णिसग्ग- सुन्दरं ॥ ३॥
उदयपुर मंडलंतर
कोठारी परिवारो
वंदे च संमइ - भगवच्चरणारविंदं ॥ १ ॥
वीराण कित्तिगाहा विथिण्णा जस्स गिरि-कंदरेसु अवि । मेवाणणामधेया अजेयजोधा तह पसिद्धा ||४||
दोलत मलकोठारी दो पुत्त एगपुती
प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंना
मणुण्ण - रूव -- कमणीय - - सिहरावली - - - आरावली - गिरी । जस्स सुमज्झभागम्मि सुरम्म - रम्म- कलकलंत - झीला वि ॥५॥
संसार- सायर-तरणं तरणि व्व । पुण्णतित्थ भव-करण - णासणं ॥२॥
जह वीर - पसूयभूमि तह संजम - अजस्सधारा वि । वीर - अज्झप्प-उद्या संगमथली मेवाभूमी ||६||
सम्मभावाराहणं अरहभत्ती जुत्ता
देलवाला अईसुरम्मगामा | तस्सिं सिद्धधम्मणिट्ठी ||७||
माणियवाई | अवि ||८||
अस्सिं यरम्भि एव एगो कुलसेट्ठी गणेसमलो । तस्स भज्जा धम्मिगा सुसाविगा धम्माराहिगा || ||
तस्स भज्जा
जाया धमाणुरागी
संघसेवा - गुणीणं सिद्धा । तु णं कम्ममल-दलणं पयत्ता ॥ १०॥
एगा पुत्ती जाया सिरिमइ - सोहणकुवरकुक्खीए । माया - पिउ - अइपिया, सुकुलभूसणा बालिगा सा ॥ ११ ॥
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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e
पुण्ण दिवस-विक्कम-संवत एग-सहस्स णवसय-अस्सी दो। असोजकण्हपंचमी सुमहुराणंदजुत्तजाया ॥१२॥ णं कूरकालदिट्ठी सुहंगणे गणेसमलं पडि पडिदा ।। पुत्तपूणमचदो वि राहुगसचंदोविव हूओ. ॥१३।।
मामा-मामी-णाणीणाणामासीवग्गाए
ललणा। भयावसवाहिजुत्ता सव्वे अइआउला जाया ॥१४॥ महासई-सोहणकुवर-महामंत-मंगलिअं कहिआ वि । तस्स पहावेणं अवि सा णिच्चेया जाया चेया ॥१५॥
सत संग-पहावेणं किं किं ण जायए भावसुद्धा । सलिलपडिय-जलधारा मुरम्मा णिम्मला दीसइ ।।१६।। बालत्तणबाला सा सामाइय-पडिक्कमणाहिरत्ता । धम्मभावणाजुत्ता अईगहीरा उदहिव्व सा ॥१७॥ सत्त-वासावट्ठाइ समकितभावजुत्ता जाया। रागग्गि डज्झाइ वइरग्गी विसयाणि णस्सेइ ।।१८।। आरंभविणिव्वत्ती तु णिग्गठाणं चेव जायए । ण हि कज्जपरंगमुहे मण्णए कारणं भुवि ण हि ।।१६।। णिग्गंठं हि सुतवो य संसारस्स साहणं वरं । सुमुक्खूण हि सरीरो हेयो किमवरं पुणो अवि ।।२०।।
तत्तणाणविहीणाण णिग्गंठ-साहणं अवि णिप्फलं च । ण हि कज्जकारणेहिं कम्म-कलंकपरिखीयए तु ।।२१।। रागादि-- दोसजुत्तो पाणीणं तारगो ण हवइ । पतंत-जुत्तसयंजो अण्णेसिं किं अवलंबणं ।।२२।। केहिं च आणंदो वि केहिं च जाओ विजोग-भावो । केहिं च गिह-रागो रुदण-रंग-भाव-संजुत्तो ।।२३।। । जेहिं गिह-सोल्लासो उच्छाह-उम्मग्ग-गीयरवो । तेहिं कालंतरे वि हा हा अहिय-लहाओ अवि ।।२४।। संसार-असारमयं सारं किं किं ण जायए लोगे । सुह-संपई-सरीरं इह जल-बुद-बुद-समं दीसइ ।।२५।।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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समण-पहाविगा
अस्सिं लोगे संघा बह-विज्जए जिणसासणे वि। चउविह-तित्था तित्था भगवय-महावीरस्स पच्छा ।२६।। आगम-पवीण-सीसा तम्मि समयम्मि अवि जाया ण । अस्सिं समयम्मि तु अवि सुय-पारंगया दोसते ।।२७।। चंदणवालासई वि महासई णामा विक्खाया। समणी परंपराए सुगुण-गण-समद्धि-संजुत्ता ॥२८।। कुमई-पह-विजेया तु मोक्ख-मग्ग--पवत्ता महासई । सुद्ध-तत्त--णाणह्र सयल-कम्म--विणट्ठ--रत्ता वि ॥२६।। अमर-आणंद-पोक्खर-देविद-सिवाइ-मुणी जस्स संघे । सुमोक्ख-मग्ग-रमंता जण-मण-कल्लाण-सय-अहिरत्ता य ॥३०॥ समण-संघ-पवट्ठिगी गुरणी-सोहण-कुवर-महासई वि । सा तु सेट्ठा जेट्ठा वि गुण-रयण-विभूसिया जुत्ता य ॥३१॥ विज्जागुण-संजुत्ता आगम-धारा-कल्लाण-कारिणी। संजम-सील-सुगंधा किं ण विज्जए इह लोयम्मि ॥३२।। विदुस्सेण हि वंसस्स कित्ति-जस-वइभवं वि उप्पज्जए । जीवाणं जीवणं वि आजीवणं आणंदणं अवि ॥३३॥ उत्तम-गुरुभत्ती अवि किं किं ण साहेइ अस्सिं लोगे। तइलुक्करयणेणं वि बहुमुल्ल-रयणं किं ण सिया ।।३४।। अणादी-संसारे चिर-परिचिय-विस्समहिलं । जो जाणेसि हियाहियं जडमए तत्थेव सत्तो सि किं । अंतासंतिमुवेहि मुंच जडतं संभावय सं-अप्पमं । णिच्चं चेतसि चितमप्पविमलं चिदुवमेगं परं ॥३५॥ चागं विणा व हवेइ मुत्ती
चागं विणा व जणस्स सत्ता। चागो हि लोगोत्तरमत्यि तत्त
चागं विणा णेव रागस्स हाणी ॥३६।। आणंद - चितमय-सुहारस-पाणतित्ता
__ सुद्धोवयोग--महिमाणमुवागओ च । केवल्ल-णाण-भरिय-जण-धाम-धण्णो
पप्पेइ पवित्तितजगं परमप्पराआ ॥३७॥ रे चित्त किं भाससि भूरिविकप्पजाले
कज्ज करय तव समत्थि भवंधकूवे ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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මය
ම ගම්මු අදිශ්ව දෂම මට මල ම
किं खिज्जसे परगिहे स-णिवास-सुण्णं
___ सुहोवयोगमुवयाहि कुण सक्कज्जं ॥३८।। सुसुद्धप्पाणं परं णच्चा णाणारूव-णिरंजणमयं । सा बालणजर-बाला संसार-छेद-करणं पवड्ढए ॥३६॥ संकप्प-विकप्प-सण्ण-हियया णाणेण णाणं कम्मक्खयं । विवेग-विभूसिया सा स-पर-भेय-विण्णाणं सेयं ।।४०।। मामी चोथवाई तु णिरक्खर-सोला अईगुणसीला ।
णजर-सह-संसग्गा तु अक्खर-मालं सुसिक्खिया हि ॥४१।। माउमहासई अवि तु कइलास-कुवर-पव्वयविव दिढसीला । णाणज्झाणतवरत्ता अज्झप्प-सुणिम्मल-गंगा समा अवि ।।४२।।
स-कल्लाणकरणठें भगवइ-दिक्खा-सिक्खं धारेइ । गिह-विहवं परिहरणं उग्ग-तवच्चरणं चरणं ॥४३।। वरंजम्मं हेउं सयल-गुण-वग्गं णियहिए।
__ वरं दीहं कालं गुरु-सरण-मज्झे णिवसिआ। वरं धम्म कम्मं बुहजण-गुणेसुं वि रमिआ।
सु-सज्झायं जुत्तं पवयण-सु-सारे अहिरआ ॥४४।। सिरी-केलास - कुंवर - महसईआ।
वरं धम्मं पातु सुचरण-चरंतं अहिगया । सुसुत्तं-तच्चण्णं जिणपह-सुपत्तं मणरआ।
दुरावं दोहण्णं सिव-सुह-करत्थं अहिरया ॥४५।। परमविउसि-महासई सज्झी-रयण-सिरो-कुसुमवई ।
फग्गुण-सुक्क-दसमीइ सुह-तिहीइ पुत्तीमाया-दिक्खा ॥४६।। विक्कम - संवत - उणवीससय-णवतिय-रविवार-सह-लग्गा । सण-उणवीससय - सत्ततिस - एगवीस - मारच-सुह-दिवसा ।।४७।। कसुमवई-गुणीणं च विज्जापहा-भस्सर-कित्तिमाला। सतकव्वकत्ता अवि तु सुचिकम्म-णिट्ठ-विउस-वरिट्ठा ॥४८।। आयारपूया सया विण्णाण-गही-गुणाहि पवित्ता । सिट्ठा विसिट्ठागुणा सोम्मसीला विणया-वरिण्णा ॥४६॥ वय-तव-चरण-सुविण्णा सेट्ठा-सुधीरा-आगम-पवीणा। जोगप्पवीणा सया गाणाभासा-भासी अवि सा ॥५०॥ चरित्त-दिव्वा-गरिमा दसण-विणय-रुचिग-अणुवम-राजी। पडिह-णिरूवम-सज्झी सीसा-पसीसा णओ उदयचंदो वि ।।५१।। 6
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6600
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सरलता की मूर्ति
- डॉ० गुलाबचन्द जैन, जयपुर
हृदय चेतना-युक्त सुकोमल कुसुम सरीखा है ऐसा
क्रोध-लोभ-मद-मोह रहित मक्खन मानो है जैसा बालब्रह्मचारिणी गृहत्यागी स्नेहमयी ये माता है सभी शिष्य-शिष्याओं के प्रति सदा एक-सा नाता है
स्त्री हो या पुरुष सभी को प्रेम एक-सा देती हैं
धनी-निर्धन-युवा-वृद्ध में समता रस भर देती हैं राग-द्वेष से दूर साम्य-भावों में नित ये बहते हैं तप संयम से ओत-प्रोत प्रतिपल शान्त ये रहते हैं
पुण्य-पाप का मर्म सभी जीवों को ये समझाते हैं
बता मोक्ष का मार्ग सभी भवी जन को यह जगाते है विकथा कभी न मुख पर आती धर्ममयी चर्चा करते महासती श्री कुसुमवती जी क्षण भर में दुष्कृत हरते
मैंने इनको सदा मनन-चिन्तन में डूबा देखा
रहे तपस्या लीन प्रमत्तपन दूर हटाते ही देखा जब भी मैं आकर नवता निज शीश झुकाता चरणों में बोले हितकर वचन सुकोमल मंगलकारी वरणों में
पुष्कर मुनि की सभी योग्य शिष्याओं में यह योग्यतमा
अभिनन्दन मैं करू हृदय से, अपने सब छलछिद्र गमा है मेरा विश्वास कामना भी है मेरी रात और दिन पाकर के निःश्रेयस सुखमय हो जायेंगे एक दिन
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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सरलता की निशानी
-श्री कंवरचन्दजी जैन, मण्डी गीदड़बाहा कुसुम है नाम श्रमणी का, कसुम-सी मुख में वाणी है,
दया की सत्य-समता की सरलता की निशानी है। हुए बावन वर्ष इनको किये स्वीकार संयम को,
जयन्ती स्वर्ण दीक्षा की सभी ने मिल मनानी है। लगाते लोग जयकारे गगन में गंजते नारे,
नहीं होगा पुरुष कोई, खुशी जिसने न मानी है। करो इनके सदा दर्शन सुनो इनके सदा भाषण,
सफल जो आपने अपनी बनानी जिन्दगानी है। कथा कैसी सनाते हैं, सभी श्रोता बताते हैं,
श्री महावीर-गौतम की मधुर जैसी कहानी है । करीतियाँ दूर की जितनी गिनाएँ किस तरह इतनी,
सुधारक आप-सी श्रमणी नजर मुश्किल से आनी है । 'कंवरचन्द बोथरा' कहता तो गीदड़वाहा में रहता, सती की गहन गुण-गाथा सरल सबने सुनानी है। .
-पदमचन्द जैन, (दिल्ली देख न पाया 'दीप' कभी भी निज आभा को
जान न पाया 'रत्न' मूल्य मानव ने आँका जो। सूर्य चन्द्र आलोक-सुधा वर्षा बरसाते नदी नीर-निज, तरु-पुष्प फल देते जाते।
सन्त-सुकोमल-समता-ममता-करुणा दानी
त्याग-तितिक्षा-क्षमा-तपस्या, महा उपकारी । धन्य सती श्री 'कुसुम' शिरोमणि जीवन इनका धन्य परम प्रतापी गुरु सेवा से, पाया संयम, धन्य ।
ऐसा सुन्दर विनयी विवेकी है जिनका आचार
कोटि-कोटि वन्दन चरणों में, ही मेरा स्वीकार । मैं क्या ? मेरी वाणी क्या ? केवल कुछ गुजन नहीं शब्द की शक्ति मुझमें कैसे हो गुण गुथन ।
शब्द योजना जो भी है भक्ति के ही कारण
अल्प-बुद्धि हूँ मैं क्या जानूं, कैसे हो गुण वर्णन । दीप जले, आलोकित कर दे, महिमण्डल को वही सन्त ! पिये गरल, बाँटे अमृत जन-जन को।
'कुसुम' सुगन्ध सुकोमल उपवन की शोभा बढ़े सती-संयम सहिष्णुता, प्रेम, ज्ञान-आभा ! '
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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III
बन
' (जीवन, व्यक्तित्व, धर्मपचार, साहित्यसर्जना)
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रन का मूल्यांकन उसकी निर्मल कांति से होता है, उसी प्रकार किसी व्यक्तित्व को मूल्यांकन उसके तेजोमय कृतित्व से
होता है।
महासती श्री कुसुमवतीजी का जीवन प्रारम्भ से ही तेजस्वी और सक्रिय रहा है। साहस, दृढ़ संकल्प, परोपकार वृत्ति, सेवा एवं सहयोग की भावना, धर्म प्रचार के लिए असीम तितिक्षा एवं बलवती सप्रेरणाएँ उनके बहमुखी जीवन की दिव्य किरणें हैं, जिनसे उजागर प्रभास्वर हैं उनका व्यक्तित्व-मणि ।
पूज्य महासती जी के बहुआयामी व्यक्तित्व का तटस्थ सहज रेखांकन किया है, ग्रंथ की दुशल सम्पादिका विदूषी साध्वी दिव्यप्रभाजी (एम. ए., पी-एच. डी.) ने अपनी सरल भावप्रवण प्रवाहशील भाषा शैली में ।
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विदुषीवर्या साध्वीरत्न महासती श्री कुसुमवती जी
महाराज का
जीवन दर्शन
महिला उत्कर्ष भारतवर्ष में आर्य संस्कृति की दो धाराएँ प्रवाहित हैं (१) वैदिक धारा और (२) श्रमण संस्कृति धारा । श्रमण सस्कृति ने जीवन के आध्यात्मिक चिंतन को जहाँ चरम उत्कर्ष पर पहुँचाया वहीं वैदिक संस्कृति ने भौतिक I जीवन को मधुर, समृद्ध एवं सामाजिकता के एक सूत्र में । आबद्ध कर आध्यात्मिक साधना की सुन्दर पष्ठभूमि का तैयार करने का महनीय कार्य किया है । संस्कृति की इन दोनों धाराओं को अलग-अलग न मानकर दोनों को एकदूसरे का पूरक माना जाये तो दोनों के बीच आज जो दूरी है वह कम हो सकती है, ज्ञान और कर्म निकट आ सकते हैं। संस्कृति के दोनों क्षेत्र, आध्यात्मिक और भौतिक, में पुरुष और नारी का समान योगदान रहा है। यहाँ हमारा मूल उद्देश्य नारी समाज की स्थिति का संक्षिप्त अवलोकन करने का है, जिससे यह स्पष्ट हो । सके कि प्रत्येक क्षेत्र में जितना हाथ या महत्व पुरुष वर्ग का रहा है, उतना ही नारी जाति का भी रहा है।
भारतवर्ष का इतिहास उठाकर देखने से विदित होता है कि प्राचीनकाल में यहाँ नारी को पर्याप्त स्वतन्त्रता मिली हुई थी। वह प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती थी। वर्तमान युग की भाँति उस पर कोई प्रतिबंध नहीं थे। सैंधव सभ्यता में नारी की स्वतन्त्रता के प्रमाण तो मिलते ही हैं, वैदिक काल में नारी की स्थिति का उत्तम उदाहरण वैदिक ग्रंथों में मिलता है। अनेक विदुषी नारियों द्वारा रचित वैदिक ऋचाएँ इस बात का प्रमाण हैं। नारी के अभाव में पुरुष का कार्य अपूर्ण ही रहता था। नारी सामाजिक, PAL साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में पुरुष के समान ही कार्य करती थी। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नारी के बिना पूर्ण नहीं होता था। अपने जीवन साथी के
# -डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा
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चुनाव में भी उसे पर्याप्त स्वतन्त्रता मिली हुई थो । विभिन्न उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में नारी समाज का समाज में पर्याप्त आदर और सम्मान था। तभी तो यह उद्घोष गूंजता था-यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । जहाँ स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहाँ देवताओं का वास होता है । जिस देश में नारी जाति के विषय में इस प्रकार की भावना हो, उससे सहज ही नारी के आदर सम्मान का अनुमान लगाया जा सकता है। कालान्तर में नारी के इस आदर-सम्मान की भावना में कमी आती गई और उस पर अनेकानेक प्रतिबंध लगने लगे। स्थिति यहाँ तक आ गई कि जहाँ पहले 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' का उद्घोष था, वहीं अब नारी को 'नरक की । खान' कहा जाने लगा । संत कवि तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया-ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी । इस प्रकार के विचार नारी जाति के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले तो हैं ही साथ ही पुरुष प्रधान संस्कृति के निम्नस्तरीय सोच को भी उजागर करते हैं।
नारी समाज की गिरती हुई स्थिति पर विचार किया जाये कि ऐसी स्थिति क्यों हुई ? तो ME हमें इसका उत्तर भी सहज ही मिल जाता है । नारी जाति के विषय में ऐसे विचार का मूल कारण स्त्री-शिक्षा का अभाव रहा है। अशिक्षा के कारण समाज में अव्यावहारिकता, अशिष्टता, दुश्चरित्रता आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। इन दुर्गुणों के परिणामस्वरूप नारी समाज का प्राचीन आदर सम्मान समाप्त हआ। यदि नारी समाज का वही प्राचीन गौरव स्थापित करना है तो उसके लिए उसे शिक्षित करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। शिक्षा उसे प्राचीन रूढियों से, खोखली परम्परायों से बाहर निकालकर मुक्त करती है । प्रसन्नता की बात है कि वर्तमानकाल में इस ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
विभिन्न रूपों में नारी :-इतिहास के विभिन्न युगों में नारी की स्थिति एक समान नहीं रही है। उन सबका विवेचन तो यहाँ प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता है किन्त नारी के विविध आयामी व्यक्तित्व पर संक्षिप्त रूप से विचार अवश्य करना है। नारी के ये रूप भी अनेक हैं, उन सबका तो वर्णन हम नहीं करेंगे, हाँ नारी के प्रमुख रूपों की चर्चा अवश्य की जायेगी।
नारी : आदर्श माता :-नारी के विषय में समय-समय पर कुछ भी धारणायें रही हों किन्तु आज तक विश्व में जितने भी महापुरुषों ने जन्म लिया है, उनकी जन्मदात्री नारी ही रही है। फिर 12 मातृस्वरूपा नारी के विषय में ऐसे हीन विचारों को कैसे जन्म मिला ? आश्चर्य की बात है।
माता को बालक की प्रथम शिक्षक के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। माता ही अपनी र संतान को सुसंस्कारित करती है । व्यक्ति में गुणों का विकास करने का श्रेय माता को ही जाता है।
एक ममतामयी माता की दृष्टि में उसकी सभी संतानें समान होती हैं। फिर चाहे रूपवान हो या कुरूप, - बुद्धिमान हो या मूर्ख, शक्ति सम्पन्न हो या निर्बल । यदि इतिहास के पृष्ठ उलट कर देखें तो हम पाते हैं कि प्रत्येक महापुरुष के निर्माण में उसकी माता का ही हाथ लगता है। माना का महत्व प्रकट करते हुए
एक स्थान पर नेपोलियन ने कहा था- 'यदि मुझे बीस श्रेष्ठ माताएँ मिल जायें तो मैं विश्व का साम्राज्य STARS तुम्हारे चरणों में अर्पित कर सकता हैं।'
माता के रूप में नारी वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है, सेवा की प्रतिमूर्ति है। ऐसा आदर्श सेवा भाव Cli जो एक माता के हृदय में अपनी संतान के प्रति देखने को मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। १०४
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___ नारी : एक आदर्श पत्नी :-पत्नी के रूप में नारी अपने पति की सहायिका, मित्र, सलाहकार और मार्गदर्शक भी होती है । अपने पितृकुल को छोड़कर वह अपने पति-कुल के प्रति मन-वचन-कर्म से 12 समर्पित हो जाती है। पति के सुख में सुख और पति के दुःख में अपना दुःख मानती है। पति और | उसका परिवार ही उसके लिए सब कुछ होता है।
यदि अतीत के इतिहास को देखें तो ऐसी अनेक सन्नारियों के नाम मिल जायेंगे जो पति-सेवा में अपना सुख मानती थीं और उसके लिए वे हर प्रकार का कष्ट उठाने के लिए तत्पर रहती थीं। ऐसी ही महान नारियों में सती सीता, महासती दमयन्ती, महारानी द्रौपदी, महासती मदनरेखा, महारानी चेलना, सती सुभद्रा आदि-आदि । इनमें से अनेक अपने पति की धर्माराधना में भी सहयोगी बनीं। इनका विवरण देना प्रासंगिक नहीं है।
इसके अतिरिक्त यहाँ यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अनेक नारियों ने अपने पति के साथ आत्मकल्याण का मार्ग अपनाया । कुछ ने अपनी शील-रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान कर दिया । राजरानी धारिणी इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
राजमति ने अपने होने वाले पति का अनुसरण कर संयमव्रत अंगीकार किया।
इस प्रकार के और भी अनेक उदाहरण आज भी मिल सकते हैं। विस्तारभय से विवरण देना उचित प्रतीत नहीं होता।
नारी : एक कुशल शासिका :-नारो जितनी सुकुमार होती है, आवश्यकता पड़ने पर वह उतनी ही कठोर भी हो सकती है । धर्म क्षेत्र में वह सुकमारता के साथ-साथ आचार पालन में दृढ़ रहती है और अपने समुदाय की साध्वियों को भी ऐसा ही आचरण अपनाने के लिए निर्देश देती रहती है । चौबीस तीर्थंकरों के साध्वी समुदाय का नेतृत्व चौबीस नारियों ने ही किया। इनकी धर्माराधना और नेतृत्व दोनों ही अद्वितीय हैं।
यदि राजनैतिक क्षेत्र में शासिका के रूप में नारी को देखते हैं तो पता चलता है कि एक शासिका के रूप में नारी पुरुष से किसी भी प्रकार उन्नीस नहीं रही, वरन् वह बीस ही प्रमाणित
प्राचीनकाल में वाकाटक वंश की रानी प्रभावती, सल्तनतकाल में रजिया सुलताना, मुगलकाल में चाँद बीबी, रानी दुर्गावती, अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों को दांतों चने चबाने वाली रानी लक्ष्मीबाई, इ (झांसी की रानी), इन्दौर की रानी अहिल्याबाई, अवध की बेगम हजरतमहल, कित्तूर की रानी चिनम्मा आदि अनेक ऐसे नाम हैं जो इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों पर अंकित हैं। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी अनेक नारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और अपना अमूल्य योगदान दिया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब लालबहादुर शास्त्री के पश्चात् श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश का के प्रधानमन्त्री के रूप में कार्यभार सम्हाला तो किसी को विश्वास नहीं था कि श्रीमती गांधी एक शासिका के रूप में नये कीर्तिमान स्थापित कर देंगी। श्रीमती इन्दिरा ने वह सब कर दिखाया जो शायद एक पुरुष शासक भी नहीं कर पाता । उनका युग भविष्य में भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय कहलायेगा। वर्तमानकाल में अनेक नारियाँ शासिका के रूप में कार्यरत हैं और वे अपने-अपने विभागों का कुशलता के साथ संचालन कर रही हैं । द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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इनके अतिरिक्त नारी, बहन-पुत्री आदि के रूप में भी अपना कर्तव्य निर्वाह करती है। वह कई CH स्थानों पर शांति की अग्रदूत बनकर भी सामने आई है । वह अद्भुत साहस की प्रतिमूर्ति भी है।
नारी : त्याग की प्रतिमूर्ति :-नारी के सदृश त्याग और बलिदान आज तक न तो किसी ने किया है और न कोई करेगा।
जहाँ तक अपने लिए त्याग करना, अपने परिवार के लिए त्याग करना आदि बातों का प्रश्न बसा है, नारी के ऐसे त्याग से ग्रन्थों के पृष्ठ भरे पड़े हैं। वास्तव में त्याग का दूसरा नाम ही नारी है। Sil किन्तु अपने स्वामी (मालिक) के लिये अपनी संतान का बलिदान कर देना विश्व इतिहास का एक अनु
पम उदाहरण है। यह सर्वविदित है कि पन्नाधाय ने अपने भावी राजा की प्राण-रक्षा के लिये अपने पुत्र
का बलिदान कर दिया था। क्या विश्व में ऐसे बलिदान का उदाहरण कहीं मिल सकता है ? नहीं, ॐ कदापि नहीं। यह भारतीय नारी का ही साहस है कि वह ऐसा बलिदान कर सकती है । इसके अति( रिक्त अपने शील की रक्षा के लिए हँसते-हंसते जौहर की ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति भी भारतीय नारी ही दे सकती है । रानी पद्मिनी के जौहर जैसा उदाहरण भी मिलना दुर्लभ है।
नारी : कुशल उपदेशिका-माता के रूप में नारी एक कुशल शिक्षक है । साध्वी रूप में उसका यह रूप और भी विकसित हो जाता है। संयमव्रत अंगीकार करने के पश्चात् वह जिनवाणी का प्रचार तो करती ही है, लोगों को अपने उपदेश से प्रतिबोधित भी करती है । उनका पथ प्रशस्त करती है।
यह सर्वविदित है कि भगवान ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहुबली संयम ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष तक तपस्या करते रहे और झूठे अहं में भी रहे। घोर तपश्चर्या करने के पश्चात् भी केवलज्ञान नहीं हुआ। उनको प्रतिबोधित करने के लिए भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी को भेजा। दोनों बहनें वन में उस स्थान पर गईं जहाँ बाहुबली तपस्यारत थे। उनकी उत्कट तपस्या देखकर दोनों र रोमांचित हो उठी । ब्राह्मी और सन्दरी ने उस समय समवेत स्वर से गाया
वीरा ! म्हारा गज थकी उतरो,
गज चढ्या केवल न होसी रे ! जब यह मधुर स्वर बाहुबली के कर्ण कुहरों में पड़ा तो उनका चिन्तन चल गया। अन्तर झकCL झोर उठा। कौन-सा गज ? कैसा गज ? और तभी उन्हें अहसास हुआ 'अहंकार' रूपी गज का। हाँ, मैं कर
अहंकार रूपी हाथी पर बैठा हूँ । अहंकार चूर-चूर हो गया। अनुजों को वन्दना के लिये उनके कदम उठे | और उन्हें केवलज्ञान हो गया।
रथने मि को प्रतिबोध प्रदान कर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करने वाली राजीमति भी तो नारी ही थी।
महासती महत्तरा याकिनी ने हरिभद्र को प्रतिबोध प्रदान कर उनकी दिशा ही पलट दी और राज आचार्य श्री हरिभद्रसरि जैन धर्म में सैकड़ों ग्रंथों के रचयिता विद्वान आचार्य के रूप में विख्यात हैं। र
ये कुछ उदाहरण अवश्य हैं किन्तु ऐसे और भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। इन सबसे नारी 2 की महत्ता प्रतिपादित होती है। इस क्षेत्र में भी नारो नर से पीछे नहीं है ।
जैन धर्म में नारी-इस विषय पर तो बहुत कुछ लिया जा सकता है किन्तु यहाँ हमारा उद्देश्य मात्र यही स्पष्ट करने का है कि जैनधर्म का नारी के प्रति दृष्टिकोण क्या है ? निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो जैन धर्म में लिंग भेद के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। जो स्थान पुरुष को प्राप्त है, वही स्थान
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नारी को भी है । आध्यात्मिक दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है । यदि पुरुष आत्म-साधना करते हुए परमात्म-पद को प्राप्त कर सकता है तो नारी भी यही पद प्राप्त कर सकती है। यहाँ तक कि नारी का तीर्थकर पद भी प्राप्त कर सकती है। इस समानता का ही परिणाम था कि प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में साध्वियों की संख्या अधिक रही। ऐसा करके नारी जाति ने यह भी बता दिया कि संयम व्रत अंगीकार करने में वह पुरुषों से पीछे नहीं आगे ही है। नारी को पुरुष द्वारा हेय समझना अज्ञान, अधर्म एवं एक अतार्किक है। नारी अपने मातृप्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन करती है तथा वासना, विकार और कर्मजाल को काटकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इसीलिए महावीर ने अपने चतुर्विध संघ में साधुओं की भाँति साध्वियों को और श्रावकों की भांति श्राविकाओं को ममान स्थान दिया। उन्होंने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं को तीर्थ कहा और चारों को मोक्ष मार्ग का पथिक बताया। यही कारण था कि महावीर के धर्मशासन में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी। पुरुषों की अपेक्षा नारियों की अधिक संख्या होना इस बात का प्रतीक है कि महाव ने नारी जागृति का जो बिगुल बजाया, उससे नारी समाज में जागृति आई व पतित और निराश नारी साधना के मार्ग पर बढ़ी।
भगवान् महावीर ने दास-दासी प्रथा और नारी क्रय-विक्रय पर रोक लगवाई। उनके धर्म संघ में उन्होंने सभी श्रेणी की नारियों को दीक्षाव्रत अंगीकार करने का अधिकार दिया। यह उनकी उदार एवं समान दृष्टि थी।
महावीर ने साध्वी समाज का नेतृत्व महासती चन्दनबाला के हाथों में सौंपकर भी यह स्पष्ट कर दिया कि नारी में नेतृत्व क्षमता भी है।
अपनी साधना के बल पर नारी तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकती है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण उन्नीसवें तीर्थकर मल्लीनाथ हैं। सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त करने वाली मरुदेवी हैं। केवलज्ञान प्राप्त करने वाली भी अनेक नारियां हुई हैं। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि नारी को आदर-सम्मान और गौरव प्रदान करवाने में जैनधर्म अग्रणी है। इस धर्म में नर और नारी में कोई भेद नहीं किया जाता है। वर्तमान काल में भी अनेक महासतियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपनी साधना और वैदुष्य से समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है । अनेक ऐसी साध्वियां भी हैं जो साधुओं से भी आगे हैं।
प्राणीमात्र में एक समान आत्मचेतना का स्वीकरण श्रमण संस्कृति की धुरा है, उसके चिन्तन-1 मनन की आधारशिला है । इसी धारणा के आधार पर उसके तीन मूल सिद्धान्त स्थिर हुए हैं
१. आत्म-साधना, आत्म-कल्याण की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी को समान अधिकार है, इसलिए उनमें वर्ण, जाति, लिंग, वय आदि किसी भी प्रकार का भेद अतात्त्विक है । अतः जन्म, जाति, पद, लिंग 0 आदि की दृष्टि से न कोई श्रेष्ठ है और न कोई हीन ।
२. प्रत्येक प्राणी में अपने समान ही चेतना है, आत्मा है, अनुभुति एवं संवेदना है, इसलिए किसी को भी कष्ट नहीं देना चाहिए, उत्पीडित नहीं करना चाहिए।
३. जो प्राणी अपनी शान्ति, समृद्धि एवं आनन्द की कामना करता है, उसे उसी रूप में दूसरों की शान्ति, समृद्धि एवं आनन्द की कामना करनी चाहिए।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण संस्कृति ने प्राणीमात्र के बीच अभेद दृष्टि, समत्व बुद्धि एवं मैत्री संस्कार का अमर सूत्र जोड़ने का प्रयत्न किया है। प्रत्येक प्राणी को आत्म-विकास एवं द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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जीवनोत्थान का समान अवसर प्राप्त हो, समान अधिकार प्राप्त हो, यह श्रमण संस्कृति की समानता SI का महान उद्घोष है।
श्रमण संस्कृति प्रारम्भ से ही पुरुष के मिथ्या दर्प को ललकारती रही है। उसने प्राणीमात्र को , आत्म-सखा, बन्धु एवं मित्र दृष्टि से देखने की प्रेरणा दी है । नारी को उसने पुरुष की अर्धागिनी ही नहीं । Oकिन्तु उसकी जननी, जीवन सहायिका एवं उपदेशिका के रूप में भी देखा है । चिन्तकों के कुछ क्षुद्र हृदयों
ने जहां धर्म-साधना, शास्त्र-स्वाध्याय एवं मोक्ष का अधिकार अपने अधीन रखने के लिये प्रकल्पित शास्त्रों GB का निर्माण किया, वहाँ श्रमण संस्कृति एक स्वर से उसे पुरुष के समान धर्मसाधिका के सिंहासन पर आसीन कर नारी के देव-दुर्लभ गौरव का उद्गान करती आई है।
यहाँ श्रमण संस्कृति को विशिष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है। इसलिये हमारे लिये 'श्रमण' शब्द को सार्थ समझना आवश्यक हो जाता है।
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने अपनी पुस्तक 'जैन नोतिशास्त्र : एक परिशीलन' में 'श्रमण' शब्द की विशिष्टताएँ के अन्तर्गत श्रमण की उत्पत्ति पर विचार करते हुए उसके अर्थ को सुन्दर रीति से समझाया है । उन्हीं के अनुसार
'जैनाचार्यों ने 'श्रमण' शब्द को संस्कृत के 'श्रम' धातु से व्युत्पन्न माना है। उनके विचार से श्रम का अभिप्राय है-व्यक्ति अपना विकास स्वयं परिश्रम द्वारा करता है। सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है ।'
विद्वान आचार्यों की यह मान्यता भगवान महावीर के उस उत्तर पर आधारित प्रतीत होती है, जो भगवान ने देवराज इन्द्र को उस समय दिया था जब उसने भगवान की सेवा में रहकर कष्ट-निवारण की अनुमति चाही थी।
प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'श्रमण' संस्कृत विद्वानों ने किया है, किन्तु प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-(१) सम, (२) श्रम और (३) शम । इन तीनों में ही समण अथवा श्रमण शब्द की विशिष्टता का रहस्य छिपा हुआ है । (१) सम-सभी को, प्राणीमात्र को अपने (अपनी आत्मा के) समान मानना । (अप्पसमं मनिज्ज छप्पिकाए)-छह काया (संसार के सभी सूक्ष्म और स्थूल प्राणी) के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझे ।
(२) शम-इसका अभिप्राय है शान्ति । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का शमन (RL करना, सदा अपनी आत्मा को उपशम भाव की शांत-प्रशांत गंगा में निमज्जित करते रहना।
__ जैन परम्परा में तो उवसमसारं खु सामण्णं-श्रमणत्व का सार ही उपशम है, कहकर उपशमशांति का महत्व प्रदर्शित किया गया है।
(३) श्रम-मनुष्य स्वयं ही अपना, अपनी आत्मा का विकास करता है, अपने सुख-दुःख का स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही उसका भोक्ता है।
जैन ग्रन्थों में श्रमण के लिए कहा गया है-सममणइ तेण सो सभणो।
'सममण इ' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-सममणती त्ति तुल्यं वर्तते । यतस्तेनासो समण इति । जो सब जीवों के प्रति समान भाव रखता है, वह 'श्रमण' है । इसीलिए कहा गया है कि श्रमण सुमना होता है, पाप मना नहीं । (जैन नीतिशास्त्र पृष्ठ २१३--३१६) ।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन C . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOOG Por private Percenallee Only
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जैनधर्म में विद्यमान साध्वी संघ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समाज पर बहत उपकार कर रहा है साध्वियाँ समाज में स्त्री-शिक्षा और स्त्री-जागृति का कार्य करके नारी समाज को उन्नति के मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं। वर्तमान काल में तो स्त्री-शिक्षा का विकास हो रहा है, किन्तु विचार कीजिये जब स्त्री-शिक्षा नहीं के बराबर थी तब साध्वी समाज द्वारा बालिकाओं के साथ-साथ युवा एवं प्रौढ़ महिलाओं को भी ज्ञान प्रदान किया जाता रहा है । जिसके परिणामस्वरूप नारियों में एक नई
चेतना उत्पन्न हुई । आज भी साध्वी समाज द्वारा नारी जागरण एवं शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण र | दिया जा रहा है । बालिकाओं में धार्मिक संस्कार उनके द्वारा ही बोये जा रहे हैं। यही कार्य बालकों के IIKE) लिए भी किया जा रहा है। इससे समाज में नैतिक जागृति उत्पन्न होती है, जो आगे चलकर जीवन में अत्यधिक उपयोगी प्रमाणित होती है।
) गौरव गरिमा मण्डित सदगुरुणी परम्परा )
भगवान महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना की। साधुओं में गणधर गौतम प्रमुख थे तो साध्वियों में चन्दनबाला मुख्य थी । किन्तु उनके पश्चात् कौन प्रमुख स हुईं, इस सम्बन्ध में इतिहास मौन है। वैसे आर्या चन्दनबाला के पश्चात् अनेक सन्नारियों द्वारा जैन भागवती दीक्षा लेने का वर्णन मिलता है। इनमें आर्या सुव्रता से लेकर साध्वी धारिणी तक का नाम है किन्तु सुव्यवस्थित परम्परा रूप में नामोल्लेख नहीं है।
प्राचीनकालीन साध्वियाँ
वीर निर्वाण की दूसरी-तीसरी शताब्दी में महामन्त्री शकलाल की पुत्रियाँ और आर्य स्थूलभद्र KI की बहनें यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा इन सातों ने भी प्रव्रज्जा ग्रहण की थी। वे
अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न थीं। उन्होंने अन्तिम नन्द की राज्यसभा में अपनी अद्भुत स्मरणशक्ति के चमत्कार से वररुचि जैसे मूर्धन्य विज्ञ के अहंकार को नष्ट किया था। इन सभी साध्वियों का साध्वी संघ में विशिष्ट स्थान था।
साध्वियों की पट्ट परम्परा भी उपलब्ध नहीं होती है। वाचनाचार्य आर्य वलिस्सह के समय हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार आर्या पोइणी और तीन सौ अन्य साध्वियों की जानकारी मिलती है। कलिंग नरेश महामेघवाहन खारवेल द्वारा वीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी के प्रथम चरण में कुमार गिरि पर आगम परिषद हुई थी, इसमें आर्या पोइणी भी तीन सौ श्रमणियों के साथ उपस्थित हुई थी।। इससे आर्या पोइणी की प्रतिभा का पता चलता है । अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती।
वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी में कालकाचार्य द्वितीय की भगिनी साध्वी सरस्वती का विवरण उपलब्ध होता है । उनके पिता का नाम वैरसिंह और माता का नाम सुरसुन्दरी था। राजकुमार
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कालक का अपनी बहन सरस्वती पर अपार स्नेह था। गुणावर मुनि के उपदेश से दोनों ने जैन दीक्षा ग्रहण की। उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल द्वारा सरस्वती का अपहरण और फिर कालकाचार्य द्वारा शकों की सहायता से अपनी बहन साध्वी सरस्वती को मुक्त कराना, इतिहास की प्रसिद्ध घटना है ।
इसी शताब्दी में आर्य वज्र की माता सुनन्दा ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। उन्होंने कब व किसके एक पास दीक्षा ग्रहण की थी, यह जानकारी उपलब्ध नहीं होती है ।
__वीरनिर्वाण की छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में साध्वी रुक्मिणी का वर्णन मिलता है । वह पाटली-|| पुत्र के कोट्याधीश श्रेष्ठी धन की इकलौती पुत्री थी । आर्य वज्र के अनुपम रूप को निहार कर मुग्ध हो गई । उसने अपने हृदय की बात अपने पिता से कही। वह एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुँचा। किन्तु रुक्मिणी ने वज्रस्वामी के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और रुक्मिणी और वज्रस्वामी के अपूर्व त्याग को देखकर सभी श्रद्धावनत हो गये।
इसी अवधि में एक विदेशी महिला द्वारा आइती दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य तथा निशीथचूणि में वर्णन मिलता है कि मुरुण्डराज की विधवा बहन प्रव्रज्या लेना In चाहती थी। मुरुण्डराज ने साध्वियों की परीक्षा लेने हेतु एक आयोजन किया कि कौन साध्वी कैसी है ? एक भीमकाय हाथी पर महावत बैठ गया और चौराहे पर खड़ा हो गया। जब कोई भी साध्वी उधर से निकलती तब महावत हाथी को साध्वी की ओर बढ़ाते हुए साध्वी को चेतावनो देता कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाय, नहीं तो यह हाथी तुम्हें अपने पैरों से कुचल डालेगा। अनेक साध्वियाँ, परिव्राजिकाएँ, भिक्षुणियाँ उधर से निकलीं। भयभीत होकर उन्होंने वस्त्रों का परित्याग कर दिया। अन्त में एक जैन श्रमणी उधर आई। श्रमणी के धैर्य की कठोर परीक्षा लेने के लिए हाथी ज्योंही उसकी ओर बढ़ने लगा, त्योंही उसने क्रमशः अपने धर्मोपकरण उधर फेंक दिये, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी। किन्तु उसने अपना वस्त्र-त्याग नहीं किया। जब जन-समूह ने यह दृश्य देखा तो उसका आक्रोश उभर आया। मुरुण्डराज ने भी संकेत कर हाथी को हस्तिशाला में भिजवा दिया और उसी श्रमणी के पास अपनी बहन को प्रबजित करवाया । उस साहसी श्रमणी तथा मुरुण्डराज की बहन का नाम उपलब्ध नहीं होता है।
साध्वी रुद्रसोमा-- वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में आर्यरक्षित की माता साध्वी रुद्रसोमा काम नाम भी उल्लेखनीय है। जब आर्यरक्षित गम्भीर अध्ययन कर लौटा था तो उसे पूर्वो का अध्ययन करने हेतु माता रुद्रसोमा ने आचार्य तोसलीपुत्र के पास भेजा था। रुद्रसोमा की प्रेरणा से ही राजपुरोहित सोमदेव तथा उसके परिवार के अनेकों व्यक्तियों ने आहती दीक्षा स्वीकार की और स्वयं उसने भी। उसका यशस्वी जीवन इतिहास की अनमोल सम्पदा है ।
दानवीरा श्रमणी ईश्वरी--श्रमणी ईश्वरी भी वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्त में हुई। उसके पति का नाम श्रेष्ठी जिनदत्त था, जो सोपारक नगर का रहने वाला था। सोपारक नगर में भयंकर दुष्काल पड़ा था। एक लाख मुद्रा से अंजली भर अन्न प्राप्त हो पाया था। उसमें विष मिलाकर सभी ने मरने का निश्चय किया। उसी समय मुनि भिक्षार्थ आये । मुनि दर्शन से ईश्वरी भावविभोर हो गई। आर्य वज्रसेन ने ईश्वरी को बताया कि अन्न में विष मिलाने की आवश्यकता नहीं है। कल से सुकाल होगा। उसी रात्रि में अन्न के जहाज आ गये। जिससे जीवन में सुख-शांति हो गई। ईश्वरी की प्रेरणा
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से सेठ जिनदत्त और उसके चारों पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर के साथ जैन दीक्षा ग्रहण कर ली । उनके नामों से गच्छ और कुल परम्परा प्रारम्भ हुई । साध्वी ईश्वरी ने भी उत्कृष्ट साधना कर अपना जीवन चमकाया ।
इसके पश्चात् अनेक साध्वियाँ हुईं किन्तु उनका किसी प्रकार का कोई परिचय नहीं मिलता है ।
आधुनिककालीन साध्वियाँ
तेजोमूर्ति भाग्यशालिनी भागाजी - इनका जन्म दिल्ली में हुआ था । माता-पिता के नाम ज्ञात नहीं हैं । भागाजी के सांसारिक नाम का भी पता नहीं है । इन्होंने आचार्य अमरसिंहजी म० के सम्प्रदाय में किसी साध्वी के पास आहती दीक्षा ग्रहण की थी। ये महान प्रतिभा सम्पन्न थीं । इनके द्वारा लिखे हुए अनेकों शास्त्र, रास तथा अन्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ श्री अमर जैन ज्ञान भंडार, जोधपुर में तथा अन्यत्र संग्रहीत हैं । लिपि सुन्दर नहीं है, पर शुद्ध है । आचार्य श्री अमरसिंह जी म० के नेतृत्व में पंचेवर ग्राम में संत-सम्मेलन हुआ था, उसमें उन्होंने भी भाग लिया था और जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें उनके हस्ताक्षर भी हैं ।
अनुश्रुति है कि उन्हें बत्तीस क्षेत्र दिल्ली, पंजाब, राजस्थान रहा। वीराजी प्रमुख थीं। वे भी आगमों के परिचय उपलब्ध नहीं होता है। इनकी मुख्य शिष्या सद्दाजी थीं ।
आगम कण्ठस्थ थे । वे स्वाध्याय- प्रेमी भी थीं। उनका विहार महासती श्री भागाजी की अनेक विदुषी शिष्यायें हुई थीं। उनमें रहस्यों की ज्ञाता और चारित्रनिष्ठा थीं । वीराजी का विशेष
मोहजी महासती सद्दाजी - इनका जन्म सांभर- राजस्थान निवासी पीथोजी मोदी की धर्मपत्नी पाटन की कुक्षि से वि० सं० १८५७, पौष कृष्णा दशमी के दिन हुआ था । मालचन्द और बालचन्द ये दो इनके ज्येष्ठ भ्राता थे । सद्दाजी अद्वितीय रूपवती थीं, इस कारण इनका विवाह जोधपुर रियासत में एक अधिकारी सुमेरसिंहजी मेहता के साथ हुआ था । सहाजी को बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार मिले थे । इस कारण वे प्रतिदिन सामायिक करती थीं और प्रातःकाल व संध्या के समय प्रतिक्रमण भी करती थीं ।
एक बार वे एक प्रहर तक संवर की मर्यादा लेकर नमस्कार महामन्त्र का जाप कर रही थीं, उसी समय दासियाँ घबराई हुई और रोती हुईं दौड़ी आई और कहा - "स्वामिन् ! गजब हो गया । मेहता जी की हृदयगति एकाएक रुक जाने से उनका प्राणान्त हो गया है ।" यह सुनते हो सद्दाजी ने तीन दिन का उपवास कर लिया और दूध, दही, घी, तेल और मिष्ठान्न इन पांचों विगय का जीवनपर्यन्त के लिये त्याग कर दिया। भोजन में केवल रोटी और छाछ आदि का उपयोग करना ही रखकर शेष सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया। पति मर गया, पर उन्होंने रोने का भी त्याग कर दिया। सासससुर विलाप करने लगे तो उन्हें भी समझाया कि रोने से कोई लाभ नहीं है । आपका पुत्र आपको छोड़कर संसार से विदा हो चुका है, ऐसी स्थिति में मैं अब श्रमण धर्म स्वीकार करूंगी। सभी ने उन्हें समझाया, पर वे दृढ़ बनी रहीं और अन्त में महासती भागाजी की शिष्या महासती वीराजी के पास वि. सं. १८७७ में बाड़मेर जिले के जसोल गांव में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षोपरान्त उन्होंने अठारह शास्त्र कण्ठस्थ किये, सैकड़ों थोकड़े और अन्य दार्शनिक धार्मिक ग्रन्थ भी । देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण कर सद्दाजी ने धर्म की खूब प्रभावना की । अपने अन्तिम दिनों में वे जोधपुर में स्थिरवास रहीं द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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और यहीं वि० सं० १९२१ भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा के दिन पचपन दिन के संधारे के साथ उनका स्वर्गवास हुआ ।
फत्तूजी की परम्परा - महासती सद्दाजी की अनेक शिष्यायें हुईं। उनमें फत्तूजी, रत्नाजी, नाजी और लाधाजी ये चार मुख्य थीं । महासती फत्तूजी का विहार क्षेत्र मारवाड़ रहा और उनकी शिष्याएँ भी मारवाड़ में ही विचरण करती रहीं । आज पूज्यश्री अमरसिंह जी म० की सम्प्रदाय की मारवाड़ में जो साध्वियाँ हैं, वे सभी फत्तूजी के परिवार की हैं। आपकी अनेक शिष्याएँ भी हुईं किन्तु | सभी का परिचय उपलब्ध नहीं होता है ।
महासती रत्नाजी का विचरण मेवाड़ में रहा । मेवाड़ में जितनी साध्वियाँ हैं, वे रत्नाजी के परिवार की हैं ।
महासती चेनाजी सेवाभावी और महासती लावाजी उग्रतपस्विनी थी । इन दोनों की शिष्या परम्परा उपलब्ध नहीं होती है ।
शासन प्रभाविका लछमाजो - लछमाजी महासती रत्नाजी के परिवार की थीं। इनका जन्म उदयपुर राज्य के तिरपाल ग्राम निवासी रिखबचन्द जी माण्डोत की धर्मपत्नी नन्दूबाई की कुक्षि से सं १९१० में हुआ था। किसना जो और बच्छराज जी आपके भाई थे । आपका पाणिग्रहण मादड़ा ग्राम के सांकलचन्दजी चौधरी के साथ हुआ था। कुछ समय पश्चात् साँकलचन्द जी का निधन हो गया । उसी समय महासती रत्नाजी की शिष्या महातपस्विनी गुलाबकुवर जी मादड़ा पधारीं । उनके उपदेश से लछमा जी के मन में वैराग्य भावना जाग्रत हुई और वि० सं० १९२८ में भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली । वे प्रवृति से भद्र, विनीत और सरल मानस वाली थी । लछमाजी प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं । उनके जीवन की अनेक घटनाओं का चमत्कारिक वर्णन मिलता है । वि० सं० १९५६ ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या के दिन ६७ दिन के संथारे से उनका स्वर्गवास हुआ ।
प्रतिभापुंज रंभाजी- रंभाजी भी महासती रत्नाजी की शिष्या थीं । रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। उनकी शिष्या महासती नवलाजी हुईं । नवलाजी परम विदुषी साध्वी थीं। उनकी प्रवचन शैली अत्यन्त प्रभावक थी । आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं। उनमें से पाँच शिष्याओं की कुछ जानकारी मिलती। है ।
महासती नवलाजी का शिष्या परिवार - महासती नवलाजी की सुशिष्या कंसुबा जी थीं । उनकी एक शिष्या हुई । उनका नाम सिरेकुंवरजी था । उनकी साकरकुंवरजी और नजरकंवरजी नामक दो शिष्याएँ हुई । महासती साकरकुंवर जी की शिष्याओं के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती है ।
महासती नजरकुंवरजी एक विदुषी साध्वी थीं। उनका जन्म ब्राह्मण कुल आगम साहित्य का अच्छा ज्ञान था। आपकी पाँच शिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं(१) महासती रूपकु वरजी - ये उदयपुर के निकट ग्राम देलवाड़ा की निवासिनी थीं । (२) महासती प्रतापकु वरजी - ये उदयपुर राज्य के वीरपुरा ग्राम की थीं । (३) महासती पाटूजी - ये समदड़ी की थीं।
इनके पति का नाम गोडाजी लुंकड़ था । इनकी
दीक्षा वि० सं० १९७८ में हुई थी ।
(४) महासती चौथाजी - इनका जन्म उदयपुर राज्य के ग्राम बंबोरा में हुआ था। इनकी ससुराल वाटी ग्राम में थी ।
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में हुआ था। उन्हें
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(५) महासती एजाजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के शिशोदे ग्राम निवासी भेरुलाल जी की धर्मपत्नी कत्थूबाई की कुक्षि से हुआ था । आपका विवाह वारी (मेवाड़) में हुआ और वहीं दीक्षा भी हई । इनकी कोई शिष्या नहीं है। यह परम्परा यहीं तक है।
__महासती नवलाजी की द्वितीय शिष्या गुमनाजी थीं। उनकी शिष्या परम्पराओं में विदुषी महासती आनन्दकुंवरजी हुईं। उनकी अनेक शिष्याओं में से एक बालब्रह्मचारिणी अभयकँवरजी हुई। आपका जन्म वि० सं० १९५२ फाल्गुन कृष्णा १२ मंगलवार को राजवी के बाटेला गांव (मेवाड़) में हुआ। आपने अपनी माताजी हेमकुंवरजी के साथ महासती आनन्दकुंवरजी के सान्निध्य में वि० सं० १९५० मृगशिर शुक्ला १३ को पाली-मारवाड़ में दीक्षा ग्रहण की । आपकी प्रवचन शैली आकर्षक थी। आप भीम में स्थिरवास रहीं और वि० सं० २०३३ के माघ मास में संथारे सहित आपका स्वर्गवास हुआ।
आपकी दो शिष्याएँ महासती बदामकुँवरजी तथा महासती जसकुवरजी हुईं। महासती नवलाजी की तृतीय शिष्या केसरकुवरजी थीं। उनकी शिष्या छगनकुवरजी हुई।
महासती छगनकुवरजी--आप कुशलगढ़ के सन्निकट ग्राम केलवाड़े की निवासिनी थीं। आपका पाणिग्रहण लघुवय में ही हो गया था। कुछ समय पश्चात् पति का देहावसान हो गया। महासती गुलाबक़ वरजी के प्रवचन से वैराग्य हुआ और दीक्षा ग्रहण कर ली। आपका ससुर पक्ष मूर्तिपूजक आम्नाय के प्रति आकर्षित था । आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं। वि० सं० १९६५ में संथारे के साथ उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती ज्ञानकुंवरजी-आप महासती श्री छगनकुवरजी की शिष्या थीं। आपका जन्म वि० सं० १९०५ में जम्मड़ गांव में हुआ था। आपका विवाह बम्बोरा निवासी शिवलाल जी के साथ हुआ था। आपने वि० सं० १६५० में महासती छगनकुंवरजी के पास जालोट में दीक्षा ग्रहण की । आपके पुत्र हजारीमल ने भी वि० सं० १९५० ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी के दिन समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की और मुनि नाम ताराचन्द जी म० रखा गया। वि० सं० १९८७ में उदयपुर में संथारे सहित आपका स्वर्गवास हुआ।
___ महासती फूलकुवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के अन्तर्गत दुलावतों के गुड़े के निवासी भागचन्दजी की पत्नी चुन्नीबाई की कुक्षि से वि० सं० १९२१ में हुआ। लघुवय में आपका विवाह तिरपाल में हुआ। पति के देहान्त के बाद सत्तरह वर्ष की आयु में महासती छगनकुँवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप तीक्ष्ण बुद्धि थीं। आपको अनेक शास्त्र कंठस्थ थे। आपकी प्रवचन शैली मधुर थी। आपकी सात शिष्याएँ (१) महासती माणककुबर (२) महासती धूलकुगर (३) महासती आनन्दकुगर (४) महासती लाभकुगर (५) महासती सोहनकुनर (६) महासती प्रेमकुगर (७) महासती मोहनकुगर हुईं। आप बारह दिन के संथारे के साथ स्वर्ग सिधारी ।
महासती माणककुवर-आपका जन्म उदयपुर राज्य के कानोड़ ग्राम में वि० सं० १९१० में हुआ । आपकी प्रकृति सरल, सरस थी। सेवा-भावना भी अत्यधिक थी। ७५ वर्ष की आयु में वि० सं० १९८५ के आसोज में आपका उदयपुर स्वर्गवास हुआ।
महासती धूलकुवर-आपका जन्म उदयपुर राज्य के मादड़ा ग्राम निवासी पन्नालालजी चौधरी की धर्मपत्नी नाथीबाई की कुक्षि से वि. सं. १९३५ माघ कृष्णा अमावस्या को हुआ था। तेरह वर्ष की आयु में वास निवासी चिमनलालजी ओरडिया के साथ आपका विवाह हुआ। कुछ समय बाद पति का
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देहान्त हो गया तो आपने वि. सं. १९५६ फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी के दिन वास ग्राम में महासती फूलकुवरजी के पास दीक्षा ग्रहण करली। विनय, वैयावृत्य और सरलता आपके जीवन की विशेषताएँ थीं। आपको अनेक शास्त्र और ३०० थोकड़े कण्ठस्थ थे । महासती आनन्दकुवरजो, महासती सौभाग्यकुवरजी, महासती शम्भु कवरजी, बा. व. शीलकुवरजी, महासती मोहन कवरजी, महासती कंचन कंवरजी, महासती सुमनवतीजी, महासती दयाकुवरजी आदि आपकी शिष्याएँ थीं। आपका विहार क्षेत्र राजस्थान 18 और मध्य प्रदेश रहा । वि. सं. २०१३ कार्तिक शुक्ला एकादशी को चौबीस घण्टे के संथारे के साथ गोगुन्दा में आपका स्वर्गवास हुआ।
- महासती लाभकुवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्यान्तर्गत ग्राम ढोल निवासी मोतीलालजी ॥2 ढालावत की धर्मपत्नी तीजबाई की कक्षि से वि. सं. १९३३ में हआ था। आपका विवाह सायरा के कावेडिया परिवार में हआ था। लघु वय में ही आपके पति का देहान्त हो जाने से महासजी फूलकुंवरजी के पास वि. सं. १६५६ में सादड़ी मारवाड़ में दीक्षा ग्रहण की । आपका कण्ठ मधुर और व्याख्यान कला 0 सुन्दर थी । महासती लहर कुवरजी और महासती दाख कुवरजी-दोनों आपकी शिष्याएं हुईं। आपका स्वर्गवास वि. सं. २००३ के श्रावण में यशवंतगढ़ में हुआ।
महासती लहरकुवर-नान्देशमा निवासी सूरजमलजी सिंघवी की धर्मपत्नी फूलकुवर की कुक्षि से आपका जन्म हुआ। आपका विवाह ढोल निवासी गेगरायजी ढालावत के साथ हुआ था । पति के देहान्त के पश्चात् पुत्री का भी स्वर्गवास हो गया। सात वर्षीय पुत्री अपनी सास को सौंपकर वि. सं. १६८१ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन नान्देशमा में दीक्षा ग्रहण कर ली। आप मिलनसार थीं। महासती
खमानक वरजी आपकी शिष्या हैं। आपका स्वर्गवास वि. सं. २०२६ में माघ कृष्णा अष्टमी को १२ घण्टे ! CI के संथारे के साथ सायरा में हुआ।
महासती प्रेमकुवर-आपका जन्म गोगुन्दा में और विवाह उदयपुर में हुआ था। पति के देहावसान के पश्चात् महासती फूलकवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । आप विनीत, सरल एवं क्षमाशील थीं। वि. सं. १६६४ में उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या महासती पानकुवरजी र हुई थीं जिनका स्वर्गवास गोगुन्दा में वि. सं. २०२४ के पौष माह में हुआ।
महासती मोहनकुंवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के वाटी ग्राम में हुआ था। आपका विवाह मोलेरा ग्राम में हुआ था। महासती फूलकुवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । आपको थोकड़ों का 8 अच्छा अभ्यास था।
- महासतो सौभाग्यकुवरजी-आपका जन्म बड़ी सादड़ी के नागोरी परिवार में हुआ था। बड़ी सादड़ी के ही प्रतापमलजी मेहता के साथ आपका विवाह हुआ था । आपके एक पुत्र भी हुआ। महासती फूलकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर उनके ही पास दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रकृति भद्र थी। वि. सं. २०२७ के आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन तीन घण्टे के संथारे के साथ गोगुन्दा में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती शम्भुकुवरजी--आपका जन्म बागपुरा निवासी गेगराजजी धर्मावत की धर्मपत्नी नाथीबाई की कुक्षि से वि. सं. १६५८ में हुआ था 1 खाखड़ निवासी अनोपचन्द बनोरिया के सुपुत्र धनराज जी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ। आपके दो पुत्रियां हुईं। पति की मृत्यु के पश्चात् अपनी लघुपुत्री के साथ वि. सं. १९८२ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को खाखड़ ग्राम में महासती धूलकुवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। पुत्री अचरजबाई का साध्वी नाम सती शीलकुवर रखा गया। आपको थोकड़े और साहित्य ११४
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का अच्छा ज्ञान था । वि. सं. २०२३ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को गोगुन्दा में आपका संथारे के साथ स्वर्गवास हुआ ।
इस परम्परा में महासती शीलकुंवरजी म. अभी विद्यमान हैं । महासती मोहनकुंवरजी, महासती सायरकुंवरजी, विदुषी महासती चन्दनबालाजी, महासती चेलनाजी, महासती साधनाकु वरजी, महासती देवेन्द्राजी, महासती मंगलज्योति, महासती धर्मज्योति आदि अनेक आपकी शिष्याएँ हैं ।
महासती नवलाजी की चतुर्थ शिष्या जसाजी हुईं। इसी परम्परा में महासती लाभकुंवरजी हुईं। इनका जन्म उदयपुर राज्य के कम्बोल गाँव में हुआ था । लघुवय में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी । आप साहसी और निर्भीक प्रकृति की थीं। आपके जीवन में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं। आपकी अनेक शिष्याएं हुईं। उनमें एक शिष्या महासती छोटे आनन्दकु वरजी थी। आपका जन्म उदयपुर राज्य के कमल गाँव में हुआ था । आप त्यागी भावना वाली थी । प्रवचन प्रभावशाली होते थे । आपकी भी अनेक शिष्याएँ हुईं। जिनमें महासती मोहनकुंवरजी म. और लहरकु वरजी म. का विशेष स्थान है ।
महासती मोहनकुंवरजी - आपका जन्म में ' हुआ था । आपका जन्म नाम मोहनबाई था। एक बार पति-पत्नी तीर्थ यात्रा पर गये थे । हो गयी ।
उदयपुर राज्य के भुताला ग्राम के ब्राह्मण परिवार नौ वर्ष की अल्पायु में आपका विवाह हो गया था । भड़ौच में स्नान करते समय पति की बहकर मृत्यु
महासती आनन्दकु वरजी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भूताला पधारीं । उनके उपदेश से मोहनबाई की वैराग्य भावना जाग्रत हुई । दीक्षा मार्ग में बाधाएँ भी आयीं, किन्तु अन्ततः सोलह वर्ष की आयु में आती दीक्षा ग्रहण की।
आपको अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था । बत्तीस वर्ष की आयु में स्वस्थ होते हुए आपने संथारा ग्रहण करना चाहा किन्तु सद्गुरुवर्या आनन्दकुंवरजी व आचार्य श्री लालजी महाराज ने संथारा करवाने से मना कर दिया । इस सम्बन्ध में महाराणा फतहसिंह ने भी पुछवाया था कि असमय संथारा क्यों किया जा रहा है । आप अपने संकल्प से पीछे नहीं हटीं । अन्त में संथारा ग्रहण किया और गौतम प्रतिपदा के दिन निश्चित समय पर उनका देहावसान हुआ ।
महासती लहरकुंवरजी - आपका जन्म उदयपुर राज्य के सलोदा में हुआ था और यहीं आपका पाणिग्रहण भी हुआ । लघुवय में पति का देहान्त हो जाने के कारण आपने महासती आनन्दकुंवरजी म. के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। आपको आगम साहित्य का अच्छा ज्ञान था । आपने शास्त्रार्थ कर विजय पताका भी फहराई । आपकी वाणी में मिठास और व्यवहार सरल था । सं. २००७ के यशवंतगढ़ चातुर्मास में आपका स्वर्गवास हुआ ।
आपकी दो शिष्याएं हुईं - महासती सज्जनकुंवर जी और महासती कंचनकुंवर जी ।
महासती सज्जनकुंवर जी का जन्म तिरपाल ग्राम के वंबोरी परिवार में भेरूलाल जी की धर्मपत्नी रंगुबाई की कुक्षि से हुआ था । तेरह वर्ष की आयु में कमोल निवासी ताराचन्द्र जी जोशी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ । आपका जन्म जमनाबाई था। पति का देहान्त होने के उपरान्त महासती आनन्दकुंवर जी के पास सं० १९७६ में दीक्षा ग्रहण की। सं० २०३० आसोज पूर्णिमा के दिन यशवन्तगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ । बालब्रह्मचारिणी विदुषी महासती कौशल्या जी आपकी शिया हैं ।
महासती कौशल्या जी की सात शिष्याएं हैं- महासती विनयवती जी महासती हेमवती जी, द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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महासती दर्शनप्रभा जी, महासती सुदर्शनप्रभा जी, महासती संयमप्रभा जी, महासती स्नेहप्रभा जी और महासती सुलक्षणा जी ।
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महासती कंचनकुंवर जी - आपका जन्म कमोल गाँव के दोशी परिवार में हुआ था । तेरह वर्ष की आयु में आपका विवाह पादरड़ा में - और चार माह बाद पति का देहान्त हो गया । महासती लहर कुंवर जी के पास दीक्षा ग्रहण की। नांदेशमा ग्राम में सन्थारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ । आपकी शिष्या महासती वल्लभकुंवर हैं जो बहुत ही सेवाभावी हैं ।
महासती सद्दाजी की पाँचवी शिष्या अमृताजी हुईं। उनकी परम्परा में महासती रायकुंवरजी हुईं जो प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं । उनका जन्म स्थान उदयपुर के निकट कविता ग्राम था । आप ओसवाल तलेसरा वंश की थी। इससे अधिक और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
महासती सूरजकुवर जी - आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी और पाणिग्रहण साडोल (मेवाड़) हनोत परिवार में हुआ था । अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
महासती फूलकुंवर जी – आपकी जन्मस्थली भी उदयपुर थी। आँचलिया परिवार में आपका पाणिग्रहण हुआ था । अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
महासती हुल्लासकुवर जी - आपका जन्म भी उदयपुर में हुआ था । आपका पाणिग्रहण उदयपुर के हरखावत परिवार में हुआ था । महासती जी के उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की । आपकी पाँच शिष्याएं हुई - महासती देवकुंवर जो, महासती प्यारकुंवर जी, महासती पदमकुंवर जी, स्थाविरा महासती सौभाग्यकुंवर जी और सेवामूर्ति महासती चतुर कुवर जी । महासती पद्मकुंवर जी की महासती कैलाशक वर शिष्या हुईं।
महासती सौभाग्यकुंवर जी - आप महासती हुल्लासकुंवर जी की चतुर्थ शिष्या हैं । आपका जन्म उदयपुर निवासी मोड़ीलाल जी खोखावत की धर्मपत्नी रूपाबाई की कुक्षि से हुआ था । आप मधुर स्वभावी हैं । आपकी एक शिष्या हुई - महासती मोहनकुंवर जी जिनका जन्म दरीबा (मेवाड़) में हुआ था और पाणिग्रहण बोक में हुआ । वि० सं० २००७ में आपने दीक्षा ग्रहण की और वि० सं० २०३१ में उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ ।
महासती हुल्लासकुंवरजी की पाँचवी शिष्या महासती चतुरकु वरजी हैं जो सेवापरायणा साध्वी
रत्न हैं ।
महासती रायकु वरजी की चतुर्थ शिष्या हुकुमकुंवरजी थीं। उनकी सात शिष्याएं हुई । महासती भूरकुंवरजी -- आपका जन्म उदयपुर राज्य के कविता ग्राम में हुआ था । पचहत्तर वर्ष की आयु में आपका देहावसान हुआ । आपकी एक शिष्या हुई जिनका नाम महासती प्रतापकुंवरजी था जो भद्र प्रकृति की थीं। लगभग सत्तर वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ ।
महासती हुकुमकुंवर जी की दूसरी शिष्या रूपकुवर जी थीं जिनका जन्म देवास (मेवाड़) में 'उदयपुर मैं आपका स्वर्गवास हुआ ।
महासती हुकुमकुवरजी की तृतीय शिष्या वल्लभकुंवरजी थीं । आपका जन्म उदयपुर के बाफना परिवार में हुआ था और पाणिग्रहण उदयपुर के ही गेलड़ा परिवार में हुआ था । दीक्षा के बाद आपने आगमों का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। आपकी एक शिष्या हुई जिसका नाम महासती गुलाब कुंवरजी था ।
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हुआ था और
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महासती हुकुमकुंवरजी की चौथी शिष्या सज्जन कुवर थीं । आपका जन्म उदयपुर के बाफना परिवार में और पाणिग्रहण दूगड़ परिवार में हुआ था । आपको एक शिष्या मोहन कुवरजो हुई । उदयपुर में आपका स्वर्गवास में हुआ।
महासती हुकुमकुवर जी की पांचवीं शिष्या छोटे राजकुवरजी थीं जो उदयपुर के माहेश्वरी वंश की थी।
महासती हुकमकुवरजी की छठी शिष्या देवकुवरजी थीं, जो उदयपुर के निकट कर्णपुर ग्राम की थीं और पोरवाड़ वंश की थीं । सातवीं शिष्या महासती गेंदकुंवर थीं जिनका जन्म उदयपुर के निकट Nil भुआना के पगारिया परिवार में हुआ था। चन्देसरा गाँव के बोकड़िया परिवार में आपका विवाह हुआ था । आप सेवापरायणा थीं और सं. २०१० में व्यावर में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती मदनकुंवर जी-आपकी जन्म स्थली उदयपुर थी। दीक्षोपरान्त आपने आगम साहित्य का गहन अध्ययन किया । आचार्य श्री मन्नालालजी म० ने, जो स्वयं भी आगम साहित्य के मूर्धन्य विद्वान थे, उदयपुर में महासतीजी से एक प्रवचन सभा में आगमों से सम्बन्धित उन्नीस प्रश्न किए थे। सभी प्रश्नों का महासती मदनकुवरजी ने सटीक और सप्रमाण उत्तर देकर अपने वैदुण्य का परिचय दिया था। आचार्यश्री ने तब कहा था- “मैंने कई सन्त-सतियाँ देखीं, पर इनके जैसी प्रतिमा सम्पन्न साध्वी नहीं वेखी।"
महासती मदनकुवरजी गुप्त तपस्विनी भी थीं। उनमें सेवा गुण भी गजब का था । सन् १९४६ में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में स्वर्गवास हुआ।
महासती सल्लेकुवरजी और महासती सज्जनकुवरजी दोनों संसार पथ से माता और पुत्री थीं। उदयपुर जन्मस्थली थी और मेहता परिवार से सम्बन्धित थीं।
महासती तीजवर जी-आपका जन्म उदयपुर के तिरपाल गाँव में हआ था। आपका जन्मनाम गुलाबदेवी था। आपका विवाह तिरपाल के ही सेठ रोडमल जी भोगर के साथ हुआ था। आपके N दो पुत्र और एक पुत्री थी। पति की मृत्यु के उपरान्त आपने दोनों पुत्र प्यारेलाल, भेरूलाल और पुत्री
खमाकुवर के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। आप उग्र तपस्विनी थीं । सोलह वर्ष तक आपने एक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्ठान्न इन चार विगयों का त्याग किया। एक दिन के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ।
परमविदुषी महासती श्री सोहन वरजी म.
AKAD
आपका जन्म उदयपुर के निकट तिरपाल निवासी रोडमलजी की धर्मपत्नी गुलावदेवी की in कुक्षि से वि० सं० १९४६ (ई० सन् १८९२) में हुआ था। आपका जन्मनाम खमाकुंवर था। नौ वर्ष
की लघुवय में आपका वाग्दान डुलावतों के गुड़े के तकतमलजी के साथ हो गया। किन्तु परमविदुषी महासती रायकुँवरजी और कविवर्य पं० मुनि नेमीचन्दजी महाराज के त्याग-वैराग्ययुक्त उपदेश श्रवण कर आप में वैराग्य भावना जागृत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था, उनका सम्बन्ध छोड़ कर अपनी मातेश्वरी और अपने ज्येष्ठ भ्राता प्यारेलाल एवं भेरूलाल के साथ क्रमशः महासती रायकुंवरजी और कविवर्य पं. मुनि नेमीचन्दजी महाराज के पास जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। आपकी
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दीक्षा पचमड़ा (बाड़मेर) में हुई थी और दोनों भाइयों ने शिवगंज में दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा के समय आपकी आयु नौ साल थी और आपके भ्राताओं की क्रमशः १३ और १४ साल की आयु थी। दोनों k भ्राता बड़े ही मेधावी थे । कुछ ही वर्षों में उन्होंने आगम साहित्य का गहन अध्ययन कर लिया। किन्तु । दोनों ही युवावस्था में क्रमशः मदार (मेवाड़) और जयपुर में संथारा कर स्वर्गस्थ हुए ।
आपका दीक्षा नाम महासती सोहनकुंवर जी रखा गया।
मधुरभाषिणी सोहनकुवरजी म० आपने दीक्षा ग्रहण करते ही आगम साहित्य का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। इसके साथ । ही थोकड़े साहित्य का भी अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । आपने शताधिक रास, चौपाइयाँ तथा भजन भी कण्ठस्थ किये। आपकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी। जिस समय आप प्रवचन करती थी उसमें
विविध आगम रहस्यों के साथ रूपक, दोहे, कवित्त, श्लोक और उर्दू शायरी का भी यत्र-तत्र उपयोग CIL करती थी। विषयानुरूप आपकी भाषा में ओज और कभी शांत रस प्रवाहित होता था और जनता आपके प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाती थी।
अध्ययन के साथ ही तप के प्रति आपकी स्वाभाविक रुचि थी। माता के संस्कारों के साथ तप की परम्परा आपको विरासत में मिली थी। आपने अपने जीवन की पवित्रता हेतु अनेक नियम ग्रहण किए थे, उनमें से कुछ नियम इस प्रकार हैं
(१) पंच पर्व दिनों में आयम्बिल, उपवास, एकासन, नीवि आदि में से कोई न कोई तप अवश्य करना।
(२) बारह महीने में छह महीने तक चार विगय ग्रहण नहीं करना । केवल एक विगय का ही उपयोग करना।
(३) छः महीने तक अचित्त हरी सब्जी आदि का उपयोग नहीं करना । (५) चाय का परित्याग ।
(५) तीन शिष्याओं के पश्चात् शिष्या बनाने का त्याग किया। इनके पहले तीस-पैंतीस साध्वियों को दीक्षा दी किन्तु अपनी शिष्या नहीं बनाई।
(६) प्लास्टिक, सेलुलाइड आदि के पात्र, पट्टी आदि कोई वस्तु अपनी नेश्राय में न रखने का निर्णय ।
(७) जो उनके पास पात्र थे, उनके अतिरिक्त नए पात्र ग्रहण करने का भी उन्होंने त्याग कर दिया।
(८) एक दिन में पाँच द्रव्य से अधिक द्रव्य ग्रहण न करना । (६) प्रतिदिन कम से कम पच्चीस गाथाओं का स्वाध्याय करना । (१०) बारह महीने में एक बार पूर्ण बत्तीस आगमों का स्वाध्याय करना ।
इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन को अनेक नियमों और उपनियमों से आबद्ध बनाया। उनके जीवन में वैराग्य भावना अठखेलियां करती थी। यही कारण है कि अजमेर में सन् १९६३ में श्रमणी संघ
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ने मिलकर आपको चन्दनबाला श्रमणी संघ की अध्यक्ष नियुक्त किया और श्रमण संघ के उपाचार्य श्रीगणेश
लालजी म. समय-समय पर अन्य साध्वियों को प्रेरणा देते हुए कहते कि देखो, विदुषी महासती सोहन है| कुवरजी कितनी पवित्र आत्मा है। उनका जीवन त्याग-वैराग्य का साक्षात् प्रतीक है। तुम्हें उनका । अनुसरण करना चाहिए।
विदुषी महासती सोहनकुवरजी जहां ज्ञान-ध्यान में तल्लीन थी वहां उन्होंने उत्कष्ट तप की भी अनेक बार साधनाएँ की। उनके तप की सूची विस्तृत है। आप जब भी तप करतीं तब पारणे में पौरसी करती थीं या पारणे के दिन आयं बिल तप करतीं जिससे पारणे में औद्दशिक और नैमित्तिक दोष न लगें।
आभ्यन्तर तप की सफल साधिका
बाह्य तप के साथ आन्तरिक तप की साधना भी आपकी निरन्तर चलती रहती थी। सेवा भावना आपमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। आप स्व-सम्प्रदाय की साध्वियों की ही नहीं किन्तु अन्य । सम्प्रदाय की साध्वियों की भी उसी भावना से सेवा करती थी। आपके अन्तर्मानस में स्व और पर का भेद नहीं था।
आचार्य श्री गणेशलाल जी महाराज की शिष्या केसरकुवर जी, जो सायकिल एक्सीडेंट में सड़क पर गिर पड़ी थीं, संध्या का समय था, आप अपनी साध्वियों के साथ शौच भूमि के लिए गईं, तब आपने उन्हें दयनीय स्थिति में गिरी हुई देखा । उस समय आपके पास दो चद्दर ओढ़ने को थीं। उनमें से आप एक चादर की झोली बनाकर और सतियों की सहायता से स्थानक तक उठाकर लाईं और उनकी सेवा-सुश्र षा की। इसी प्रकार महासती नाथकुवर जी आदि की भी आपने अत्यधिक सेवा-सुश्रुषा की और अन्तिम समय में उन्हें संथारा करवाकर सहयोग दिया। आचार्य हस्तीमल जी म० की शिष्याएँ महासती अमरकुवर जी, महासती धनकुवर जी, महासती गोगा जी आदि अनेक सतियों की सुश्रूषा की और संथारा आदि करवाने में अपूर्व सहयोग दिया। चन्दनबाला श्रमणीसंघ की प्रथम प्रवर्तिनी
सन् १९६३ में अजमेर में श्रमण संघ का शिखर सम्मेलन हुआ। उस अवसर पर वहाँ अनेक महासतियां एकत्र हुईं। उन सभी ने चिन्तन किया कि सन्तों के साथ हमें भी एकत्र होकर कुछ कार्य करना चाहिए। उन सभी ने वहां पर मिलकर अपनी स्थिति पर चिन्तन किया कि भगवान् महावीर के पश्चात् आज दिन तक सन्तों के अधिक सम्मेलन हुए, किन्तु श्रमणियों का कोई भी सम्मेलन आज तक | नहीं हुआ और न श्रमणियों की परम्परा का इतिहास ही सुरक्षित है । भगवान् महावीर के पश्चात् साध्वी परम्परा का व्यवस्थित इतिहास न मिलना हमारे लिये लज्जास्पद है जबकि श्रमणों की तरह श्रमणियों ने भी आध्यात्मिक साधना में अत्यधिक योगदान दिया है। इसका मूल कारण है-एकता व एक समाचारी का अभाव । अतः उन्होंने श्री वर्तमान चन्दनबाला श्रमणी संघ का गठन किया और श्रमणियों के १ ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विकास हेतु इक्कीस नियमों का निर्माण किया। उसमें पच्चीस प्रमुख साध्वियों की
एक समिति भी बनाई गई। चन्दनबाला श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी पद पर सर्वानुमति से आपश्री को नियुक्त किया गया जो आपकी योग्यता का प्रतीक था।
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उदार व दीर्घदर्शी दृष्टि
राजस्थान प्रांत में रहने के बावजूद आपका मस्तिष्क संकुचित विचारों से ऊपर उठा हुआ था। यही कारण है कि सर्वप्रथम राजस्थान में साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा के उच्चतम अध्ययन करने के लिए आपके अन्तर्मानस में भावनाएँ जाग्रत हुईं। आपने अपनी सुशिष्या महासती कुसुमवती जी, महासती पुष्पवती जी महासती चन्द्रावती जी आदि को किंग्स कॉलेज, बनारस की संस्कृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्यरत्न प्रभति उच्चतम परीक्षाएँ दिलवाईं । उस समय प्राचीन विचारधारा के व्यक्तियों ने आपश्री का डटकर विरोध किया कि साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी का उच्च अध्ययन न कराया जाय और न परीक्षा ही दिलवाई जाएँ । तब आपने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की - 'साधुओं की तरह साध्वियों को भी अध्ययन करने का अधिकार है । आगम साहित्य में साध्वियों के अध्ययन का उल्लेख है । युग के अनुसार यदि साध्वियां संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन नहीं करेंगी तो आगम और उसके उत्तरकालीन साहित्य को पढ़ नहीं सकतीं और बिना पढ़े आगमों के रहस्य समझ में नहीं आ सकते ।' इसका विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था । आप विरोध को विनोद मानकर अध्ययन करवाती रहीं । उसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा में अनेक मूर्धन्य साध्वियां हुईं। आज अनेक साध्वियां एम० ए०, पी-एच० डी० भी हो गई हैं । यह था आपका शिक्षा के प्रति
अनुराग ।
आपने अनेक व्यक्तियों को प्रतिबोध दिया । जब अन्य सन्त व सतीजन अपनी शिष्या बनाने के लिये उत्सुक रहती हैं तब आपकी यह विशेषता थी कि प्रतिबोध देकर दूसरों के शिष्य - शिष्याएँ बनाती थीं । आपने अपने हाथों से तीस पैंतीस बालिकाओं और महिलाओं को दीक्षाएँ दीं पर सभी को अन्य नामों से ही घोषित किया । अपनी ज्येष्ठ गुरु बहन महासती मदनकु वरजी के आग्रह पर उनकी आज्ञा के पालनार्थ तीन शिष्याओं महासती कुसुमवती जी, महासती श्री पुष्पवती जी महासती श्री प्रभावती जी को अपनी नेश्राय में रखा । यह थी आप में अपूर्वं निस्पृहता ।
आपके जीवन में अनेक सद्गुण थे जिसके कारण आप जहां भी गयीं, वहां जनता जनार्दन के हृदय को जीता । आपने अहमदाबाद, पालनपुर, इन्दौर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर, ब्यावर, पाली, उदयपुर, नाथद्वारा प्रभृति अनेक क्षेत्रों में वर्षावास किये। सेवाभावना से प्रेरित होकर अपनी गुरु बहनों की तथा अन्य साध्वियों की वृद्धावस्था के कारण दीर्घकाल तक आप उदयपुर में स्थानापन्न रहीं !
सन् १९६६ में आपका वर्षावास पाली ( मारवाड़) में था । कुछ समय से आपको रक्तचाप की शिकायत थी, पर आपश्री का आत्मतेज अत्यधिक था जिसके कारण आप कहीं पर भी स्थिरवास नहीं विराज । सन् १९६६ (वि० सं० २०३३ ) में भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को संथारे के साथ रात्रि में आपका स्वर्गवास हुआ। आप महान प्रतिभासम्पन्न साध्वीरत्न थीं । आपके स्वर्गवास से एक तेजस्वी महासती
क्षति हुई। आपका तेजस्वी जीवन जन-जन को सदा प्रेरणा देता रहेगा ।
ऐसी तेजस्वी, मनस्वी, तपस्वी महान आराधिका महासती की सुशिष्या होने का गौरव प्राप्त हुआ ज्ञानाराधिका, जपसाधिका, बालब्रह्मचारिणी, परम विदुषी महासती कुसुमवती जी म० को । जिनका विस्तृत जीवन परिचय प्रस्तुत करने जा रही हूँ ।
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जन्म से दीक्षा तक
जन्मभूमि - त्याग और बलिदान की भूमि है राजस्थान | सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस प्रान्त का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मुख को उज्ज्वल करने वाली महान विभूतियों से भी यह भूखण्ड सदैव परिपूर्ण रहा है। यहाँ की समाजमूलक आध्यात्मिक क्रान्तियों ने समय-समय पर देशव्यापी जनमानस को प्रभावित किया है । सन्तों की समन्वयात्मक अन्तर्मुखी साधना से राष्ट्र का नैतिक स्तर समुन्नत रहा है। उनके सारगर्भित उपदेशों और संयम साधना ने जो आदर्श स्थापित किये, उनसे शताब्दियों तक मानवता अनुप्राणित होती रहेगी । सन्तों का औपदेशिक साहित्य प्राचीन होकर आज भी नवीन और विविध भावनाओं से परिपूरित है । समीचीन तथ्यों का नूतन मूल्यांकन भावी पीढ़ी का समुचित मार्गदर्शन करने में पूर्णतः सक्षम है ।
राजस्थान की भूमि की विशेषता है कि उसने एक ओर अजेय योद्धाओं को जन्म दिया तो दूसरी ओर ऐसे सन्त भी अवतरित हुए जिनके संयम की सौरभ से आज भी दिग्-दिगन्त महक रहा है और जिनकी तपश्चर्या की चमक मुमुक्षु साधक को अनुभव हो रही है। उनकी प्रकाश किरणें और चिन्मय चेतना ऐसा स्फुलिंग है, जो सहस्राब्दी तक अमरत्व को लिए हुए है ।
राजस्थान का एक भाग मेवाड़ - मेदपाट के नाम से सुविख्यात है । उसका स्वर्णिम अतीत अत्यन्त गौरवास्पद रहा है । वीरों की कीर्ति - गाथा से यहाँ की भूमि परिप्लावित होती रही है । नारी जाति का उच्चतम आदर्श यहाँ की एक ऐसी विशेषता है जो अन्यत्र दुर्लभ है ।
मेवाड़ की भूमि में प्रकृति सदैव अठखेलियाँ करती रही है । यहाँ के गिरि-कन्दराओं में आत्मस्थ सौन्दर्य को उद्भुत करने वाली शक्ति और कला के उपादान विद्यमान हैं । इसलिए प्रकृति की गोद में पलने वाली संस्कृति की असस्रधारा का प्रवाह निरन्तर गतिशील रहता है । उसके कण-कण में केवल भौतिक शक्ति का ही स्रोत नहीं बहता अपितु आध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह भी परिलक्षित होता है । एक ओर मेवाड़ की यह वीरभूमि है तो दूसरी ओर यह त्यागभूमि भी है । जहाँ एक ओर देश की रक्षा के लिए यहाँ के वीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया वहीं दूसरी ओर मानवता के नाम पर होने वाले अमानवीय कृत्यों के विरुद्ध शंखनाद करने वाले भी इस मिट्टी में उत्पन्न हुए जिनकी साधना आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है ।
इसी वीर प्रसविनी रत्नगर्भा मेवाड़ भूमि के अन्तर्गत उदयपुर राज्य भी था जो आज राजस्थान का एक भाग है । उदयपुर जिला मुख्यालय है और झीलों की नगरी तथा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण न केवल भारतवर्ष में वरन् विश्व में प्रसिद्ध है । इसी उदयपुर जिले में देलवाड़ा नामक एक सुन्दर कस्बा है । देलवाड़ा में एक कोठारी परिवार अपनी कीर्तिमयी गौरव गाथा के कारण प्रसिद्ध और लोकप्रिय रहा है । कोठारी परिवार की जानकारी प्रस्तुत करने के पूर्व हमारे लिए यह आवश्यक है कि संक्षिप्त रूप से उनके वंश और गोत्र की जानकारी कर लें ।
वंश और गोत्र - यह परिवार ओसवाल वंशीय था । ओसवाल वंश की उत्पत्ति मारवाड़ के
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-सह
'ओसिया' से मानी जाता है आर इसके लिए एक कथा भी प्रचलित है। उसका विवरण देना यहाँ प्रासगिक नहीं है । कोठारी गोत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में बताया जाता है कि राठौड़ रावजुड़ा ने ठाकरसी नामक एक जैन ओसवाल को अपने कोषालय का प्रभारी/कोठारी नियुक्त किया था। इसके पश्चात् ठाकरसी के उत्तराधिकारी अपने नाम के साथ कोठारी पुकारे जाने लगे । और इस प्रकार 'कोठारी' र नाम प्रचलित हो गया।
परिवार-देलवाड़ा में श्री इन्दरमल जी कोठारी एक धर्मनिष्ठ श्रावक था। उनकी धर्मपत्नी सौभाग्यवती माणकबाई धर्मपरायणा और पतिपरायणा सन्नारी थी। उनके दो पुत्र-गणेशमल जी और मा शेषमल जी थे तथा एक पुत्री सुन्दरबाई थी।
गणेशमल जी होनहार और मेधावी थे। युवा होने पर उनका विवाह उदयपुर निवासी सेठ हीरालाल जी सियाल की सुपुत्री सोहनबाई के साथ हुआ । सेठ श्री हीरालाल जी के तीन पुत्र एवं तोन पुत्रियाँ-भंवरवाल जी, कन्हैयालाल जी, एवं फतहलाल जी तथा मोहनबाई, सोहनबाई और बग्गाबाई थीं। सोहनबाई रूप-लावण्य और गुण दोनों में विशिष्ट थीं साथ ही धार्मिक संस्कारों से भी परिपूर्ण थीं।
गणेशमलजी स्वभाव से अत्यन्त कोमल, सरल और विनम्र थे। सरलता की तो वे साक्षात् प्रतिमा थे। सौभाग्य से यह भी संयोग ही था कि उनकी धर्मपत्नी सोहनबाई भी परम विवेकवती थीं। पति सेवा ही उनके जीवन का आदर्श था। सामाजिक मर्यादा, पारिवारिक शील-शिष्टता और लोकलाज का वे सदैव ध्यान रखती थीं।।
पति और पत्नी का पारस्परिक सद्भाव ही कुटुम्ब और समाज में सुख और शांति का संचार करता है । जिस परिवार में यह सुख नहीं है, वहाँ घोर अशान्ति का साम्राज्य रहता है। स्वयं अपना परिवार तो अशांत रहता ही है, पड़ोस के परिवारों की शांति भी भंग हो जाती है। पारिवारिक कलह कभी-कभी भीषण रूप भी धारण कर लेता है। श्री गणेशमलजी और उनकी धर्मपत्नी सोहनबाई अपने पारस्परिक सद्भावपूर्ण पारिवारिक जीवन से अत्यन्त संतुष्ट थे। दोनों का जीवन आनन्द के क्षणों में 6 हँसते-गाते व्यतीत हो रहा था।
श्री गणेशमलजी के विनम्र एवं स्नेहसिक्त व्यवहार को देखकर उदयपुर निवासी स्व० धूलचन्द जी की धर्मपत्नी सरदारबाई ने गोद रख लिया।
पुत्री रत्न की प्राप्ति-श्री गणेशमलजी अपनी धर्मपत्नी सोहनबाई के साथ आकर उदयपुर 0 रहने लगे । पुण्योदय से वि० सं० १९८२ आसोज कृष्णा पंचमी की रात को श्रीमती सोहनबाई की पावन कुक्षि से एक पुत्री रत्न का जन्म हुआ। पुत्री के जन्म से परिवार में प्रसन्नता का निर्झर फूट पड़ा। खुशियों से परिवार के सभी सदस्य झूम उठे । सभी ओर खुशियाँ ही खुशियाँ । कारण कि एक दीर्घ अन्तराल के पश्चात् शून्य आँगन बच्चे की मधुर किलकारियों से गूंज उठा । बालिका के जन्म से गृहवाटिका लहलहा उठी । माता-पिता को प्रसन्नता तो असीम थी । बालिका यद्यपि श्यामवर्णीय थी तथापि उसका मुखमण्डल भव्य और शरीर सौष्ठव मनभावन था : प्रत्येक आगन्तुक को वह बरबस ही आकर्षित करने में समर्थ थी । इस कारण परिवार के सदस्य प्रायः कहा करते थे कि कहीं इसे नजर (दृष्टिविष) न लग जाए । शनैः-शनैः बालिका को सभी 'नजर' नाम से ही पुकारने लगे, सम्बोधित करने लगे और इस प्रकार बालिका का नाम ही 'नजर' पड गया।।
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पुत्ररत्न का जन्म - जब नजर की आयु दो वर्ष की थी तब माता सोहनबाई की पावन कुक्षि से द्वितीय संतान के रूप में पुत्ररत्न का जन्म हुआ । पुत्र जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। परिवार की खुशियाँ द्विगुणित हो गईं । बालक बहुत ही पुण्यवान था । गौरवर्ण, लम्बे कान, घुटने तक लम्बे हाथ, दीप्त उन्नत ललाट, तेजोमय मुखमण्डल एवं पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सौम्य था । बालक का नाम रखा गया पूनमचन्द | जो वास्तव में पूनम का चाँद ही था । श्री गणेशमलजी एवं सोहनबाई ने पुत्ररत्न को पाकर अपने भाग्य को सराहा और अपने आपको धन्य समझने लगे । अब उन्हें किसी प्रकार का कोई अभाव न रहा । वे अपने परिवार सहित आनन्द रस में सराबोर थे । घर का वातावरण आनन्द से उल्लसित था, सभी सुखानुभव कर रहे थे ।
वज्राघात - परिवर्तन जगत का शाश्वत नियम है। दिन के बाद रात रात के बाद दिन, सुख के बाद दुःख व दुःख के बाद सुख नियति का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है । इस परिवार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । बड़े ही सुखपूर्वक हर्षोल्लास वातावरण में इस परिवार के दिन व्यतीत हो रहे थे । बालिका 'नजर' साढ़े तीन वर्ष की थी, तभी गणेशमलजी पुत्र, पुत्री तथा पत्नी को संसार सागर में असहाय छोड़कर अचानक इस लोक से महाप्रयाण कर गये । परिवार पर यह वज्राघात था । परिवार के मुखिया की मृत्यु से परिवार में शून्य उत्पन्न हो गया ।
नारी का सर्वसुख उसका सभी कुछ उसके सौभाग्य पर निर्भर है । यदि वह सौभाग्यवती बनी रही तो इस लोक को स्वर्ग मानती है । चाँद को सुधाकर कहती है और दुःख में भी फूली फूली घूमती फिरती अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रहती है । यदि उसका सुहाग बाग हरा-भरा और फला-फूला न रहा तो उसके लिए अमृत तुल्य संसार भी इतना निस्सार हो जाता है कि वह एक पल भी इसमें रहना स्वीकार नहीं करती । योगियों से भी अधिक वह इस संसार को असार / निःसार समझने लगती है । वह जल्दी से जल्दी इससे छुटकारा चाहती है ।
भारतीय परिवार को स्वर्गीय सुखों की क्रीड़ास्थली बनाने वाली आर्य कुलांगना का अनेक रूपों में से माता और पत्नी का रूप सर्वापेक्षा श्रेष्ठ और महिमामण्डित है । किन्तु जिस समय हिन्दू परिवार की विधवा पर दृष्टि पड़ती है, तो उस समय सारी कामनाओं का भस्म रमाकर बैठी एक तरुण तपस्विनी ही ध्यान में आती है । उसके चारों ओर सर्वेन्द्रिय सुखों की चिताग्नि धधकती रहती है । उसकी लालसाओं की लोल लहरें किसी किनारे तक नहीं पहुँचने पातीं । उसकी अभिलाषाओं की अल्हड़ आँधी हृदय में हाहाकार मचाकर उद्धत बवण्डर की भाँति उसके मस्तिष्क में चढ़ जाती है । सहनशीलता का कैसा निष्ठुर निदर्शन है । सहिष्णुता की फैली गगनाकार सीमा है । आत्म-त्याग का कैसा ज्वलन्त आदर्श है । सामाजिक संध्या का कैसा भयंकर चित्र है ।
गणेश जी की अनायास मृत्यु से सोहनबाई पर वज्र टूट पड़ा। चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देने लगा। पति के स्वर्गवास के पश्चात् ससुराल पक्ष का कोई भी सहारा नहीं मिला । यह भी एक विडम्बना ही है कि जब तक नारी सौभाग्यवती रहती है, तब तक उसे सब मानते हैं, आदर देते हैं, सिर आँखों पर रखते हैं । और पति की मृत्यु होते ही उसके सभी अपने उससे मुँह मोड़ लेते हैं । जो रात-दिन उसका ध्यान रखते हैं वे भी उसके पास फटकते तक नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी उसके शत्रु हो गये हैं ।
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ज्येष्ठ भ्राता श्री कन्हैयालाल जी सियाल ने अपनी अनुजा की स्थिति देखी और वे सहन नहीं कर पाये । अपनी भगिनी को वे अपने घर लिवा लाये । अब पिता और भाई के आश्रय में दिन बीतने लगे ।
आघात पर आघात - विधि का विधान बड़ा ही विचित्र है । यहाँ सुखी और सुखी होता जाता है और दुःख और दुःखी । विधि का विधान प्राणी को कठपुतली की भाँति नचाता रहता है । पल में खुशी और पल में गम देना उसका स्वभाव है। सोहनबाई अपने पति के वियोग का दुःख भूल भी नहीं पाई थीं उन पर एक और महान् आघात हुआ । अभी पति की मृत्यु को छः मास ही व्यतीत हुए थे कि पुत्र पूनमचन्द को भी काल के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। पति के अभाव में माता सोहन बाई के भविष्य का एकमात्र यह पुत्र ही तो सहारा था। वह भी क्रूर काल ने छीन लिया । पुत्र की मृत्यु से सोहनबाई के दुःख की कोई सीमा न रही । दुःखों का पहाड़ उन पर टूट पड़ा। सोहनबाई एकदम हताश एवं निराश हो गयीं। उनकी स्थिति जुए में हारे हुए खिलाड़ी से भी बदतर हो गई । जाने वालों के साथ जाया तो नहीं जाता । अपनी स्थिति को स्वयं ही सम्भालना होता है । पहले पति वियोग और अब पुत्र वियोग को सहते हुए येन केन प्रकारेण समय व्यतीत होने लगा । अब माता सोहनबाई का एकमात्र सहारा और केन्द्र बिन्दु 'नजर' ही थी ।
बाल्यकाल - परिवार में नजर को भरपूर प्यार-दुलार, स्नेह और ममता ओर माँ का अपार वात्सल्य था तो दूसरी ओर मामाजी प्राणों से भी अधिक प्यार हीरालाल जी की आँखों का एकमात्र तारा बन गयी। मौसी बग्गा भी 'नजर' को थीं । इस प्रकार लाड़-प्यार में बचपन बीतने लगा ।
मिल रही थी । एक करते थे । नाना बहुत प्यार करती
इदं शरीरं ब्याधि मंदिरम् | यह कथन ही नहीं सत्य वचन है । जिस समय नजर पाँच वर्ष की भी नहीं हुई थीं । उस समय एक दिन अचानक वह भयंकर व्याधि की जकड़ में आ गई । खाना-पीना आदि सभी बन्द हो गया । 'नजर' के जीवित बच जाने की कोई आशा नहीं थी । इस कारण परिवार के सभी सदस्य चिंतित, व्यग्र, परेशान एवं दुःखी हो गये । मां का हृदय असह्य दुःख से भर उठा। वह अपनी एकमात्र पुत्री को ऐसो स्थिति में देख-देख कर जीवन के क्षणों को जी रही थी । ऐसी विषम परिस्थिति में उल्टे-सीधे विचार भी उत्पन्न होते हैं । उसके मस्तिष्क में विचार उठा - 'यदि इसे कुछ हो गया तो क्या होगा ? पति चल बसे, एक पुत्र था वह भी छोड़कर चला गया । अब तो इसका ही एकमात्र आधार है ।' ऐसा विचार आते ही सोहनबाई के शरीर में कैंपकपाहट उत्पन्न हो गई । उनकी आँखों से सावन-भादों की वर्षा की भाँति अश्रुधारा प्रवाहित हो चली ।
महासतीजी का पदार्पण - जिस समय नजर भयंकर रूप से रुग्ण थी उन दिनों पास के ही एक मकान में महासती श्री सोहनकुवर जी म. सा. विराज रही थीं । उन्हें किसी ने जाकर बताया कि एक छोटी बच्ची की तबियत बहुत अधिक खराब है। माता बिलख-बिलख कर रो रही है । आप उन्हें दर्शन देने पधारो । करुणा की मूर्ति, दया की सागर महासतीजी ने सुना और शीघ्र ही दर्शन देने पधारीं । परिवार के सदस्य भी वहाँ खड़े थे । महासतीजी ने मांगलिक सुनाया। माता को धैर्य धारण करने का कहते हुए फरमाया - " चिन्ता मत करो, वीतराग प्रभु की कृपा से सब ठीक हो जायगा । "
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महासती जी ने बालिका के विशिष्ट चिन्हों तथा रेखाओं को देखते हुए विचार किया कि यदि तो यह बालिका संयम व्रत अंगीकार कर ले तो जिनशासन की प्रभाविका होगी, अपना तथा अज्ञान में भट। कते हए अनेक प्राणियों का उत्थान करेगी । हृदयस्थ भावनाओं को महासती जी ने माता सोहनबाई से कहा- "मेरी एक बात जरा ध्यान से सुनो। यदि यह बच्ची स्वस्थ हो जाए और यदि इसके हृदय में संयम मार्ग अपनाने की इच्छा हो तो तुम इसे रोकोगी नहीं, ऐसा संकल्प लो।"
सोहनबाई ने कहा- “महाराजश्री ! इसके जीने की आशा ही नहीं है और आप दीक्षा की बात कर रही हैं।"
महासतीजी ने फरमाया--"धर्म के प्रताप से सब कुछ अच्छा ही होता है । तुम धर्म पर विश्वास रखो।"
महासतीजी के वचन शिरोधार्य करते हुए सोहनबाई ने प्रतिज्ञा की-“यदि यह बच जाएगी क) तथा दीक्षा लेना चाहेगी तो मैं अन्तराय नहीं दूंगी।"
महासती जी अपने स्थान पर पधार गईं। संकल्प शक्ति का चमत्कार हुआ । जहाँ कुछ समय पहले जोवन मृत्यु की ओर जा रहा था, वहीं अब मृत्यु जीवन की दिशा से भागने लगी । समय व्यतीत होता गया और बालिका के स्वास्थ्य में सुधार होता गया। कुछ ही दिनों में बालिका एकदम स्वस्थ हो
गई। अब वह नियमित रूप से भोजन भी करने लगी। माता एवं परिवार के अन्य सभी सदस्य बालिका P को स्वस्थ एवं हँसते-खेलते देखकर प्रसन्न हो उठे।
___ बालिका के स्वस्थ होने के पश्चात् लोगों में यह चर्चा आम हो गई कि बालिका धर्म के प्रभाव से बच गई । इसी सन्दर्भ से लोगों को अनाथी मुनि का दृष्टांत स्मरण हो आया । एक प्रकार से अनाथी मुनि की घटना की यह एक पुनरावृत्ति थी। अनाथी मुनि की आंख में भयंकर वेदना उठी । बहुत उपचार किये, किन्तु सभी व्यर्थ । अन्ततः उन्होंने संकल्प शक्ति का प्रयोग किया-'यदि वेदना शान्त हो जाए तो मुनि दीक्षा स्वीकार करूंगा।' रात्रि के प्रथम चरण में संकल्प किया और अन्तिम चरण में आंख की वेदना शान्त हो गई तथा अपने संकल्प के अनसार वे मनि बन गए। उनकी साधना से प्रभावित होकर मगध सम्राट श्रेणिक जैनधर्म के अनुयायी बनें।
बालिका नजर का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा । आनन्दपूर्वक हँसते-खेलते पाँच वर्ष पूर्ण हुए। उस समय महासती श्री सोहनकुवरजी म. सा. उदयपुर में ही विराज रहीं थी, क्योंकि उनसे वरिष्ठ एक महासतीजी का वहाँ स्थिरवास था। इसके अतिरिक्त सोहनबाई के चचेरे भाई मुनिश्री हस्तीमलजी म.
सा. भी वहाँ विराजमान थे । मुनिश्री हस्तीमलजी महाराज का प्रारम्भ से ही अर्थात् सांसारिक अवस्था ही में थे तब से ही बहिन सोहन से बहुत स्नेह था।
अपनी माता के साथ बालिका नजरकुमारी भी दर्शनार्थ स्थानक भवन जाती थी। धार्मिक | * संस्कार तो प्रारम्भ से थे ही, संत और सतियों के समागम और उपदेश श्रवण से ये संस्कार और भी
अधिक अभिवृद्धि पा गये । रुग्णावस्था में माता द्वारा किये गये संकल्प की जानकारी नजर को नहीं थी। सत्संग का परिणाम यह हुआ कि 'नजर' के हृदय में वैराग्य भावना हिलोरें लेने लगी । विचारों में वह अपने आपको एक साध्वी के रूप में देखने लगी। उसे अपना यह साध्वी वाला प्रतिबिम्ब अच्छा और आकर्षक लगता । इस लघुवय में बच्चे जहाँ खेलकूद में आनन्द लेते हैं, वहीं बालिका नजर को खेलना अच्छा नहीं लगता था। स्कूल की छुट्टी होते हो वह अपना बस्ता घर पर रखकर सीधी स्थानक में महाद्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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सतीजी के पास पहुँच जाती थी। जिस परिवेश में व्यक्ति रहता है, उसका प्रभाव उसके जीवन पर ॥ अवश्य पड़ता है । और उसके अनुरूप जीवन बनने लगता है/बन जाता है। जैसा परिवेश होगा वैसा !
जीवन होगा। बालिका नजर का परिवेश धामिक था, उसके अनुरूप उस पर प्रभाव पड़ रहा था। सतीजी के सम्पर्क में आने से 'नजर' ने भी त्यागमय भावना के कारण इन छोटी-सी अवस्था में रात्रिभोजन नहीं करना, कच्चा पानी नहीं पीना आदि के त्याग कर लिए। साथ ही सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल आदि सीखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार नजर वैराग्य पथ की ओर अग्रसर रही थी।
वैराग्योत्पत्ति के कारण-स्थानांग सूत्र में वैराग्य के दस कारण इस प्रकार बताए गए हैं(१) छन्दा प्रव्रज्या-अपनी अथवा दूसरों की इच्छा से ली जाने वालो दीक्षा। (२) रोषा प्रव्रज्या-रोष से ली जाने वाली दीक्षा ।
परिद्य ना प्रव्रज्या-दरिद्रता से ली जाने वाली दीक्षा । गरीबी से घबराकर दीक्षा लेना। (४) स्वप्ना प्रव्रज्या-स्वप्न देखने से ली जाने वालो या स्वप्न में ली जाने वाली दोक्षा। (५) प्रतिश्रु ता प्रव्रज्या-पहले से की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली दीक्षा । (६) स्मारणिका प्रव्रज्या-पूर्व जन्मों का स्मरण होने पर ली जाने वाली दीक्षा। (७) रोगिणिका प्रव्रज्या-रोग के हो जाने पर ली जाने वाली दीक्षा । (८) अनाहता प्रव्रज्या-अनादर होने पर ली जाने वाली दीक्षा । (8) देवसंज्ञप्ति प्रव्रज्या-देव के द्वारा प्रतिबुद्ध करने पर ली जाने वाली दीक्षा । (१०) वत्सानुबन्धिका प्रव्रज्या-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली दीक्षा। एक जैनाचार्य ने वैराग्योत्पत्ति के तीन कारण भी बताये हैं । ये इस प्रकार हैं
(१) दुःखगभित नैराग्य-मानव जीवन में सुख-दुःख तो आते रहते हैं । शुभ कर्मों के उदय से सुख और अशुभ कर्मों क उदय से दुःखों का आगमन होता है । दुःखों से, पीड़ा से अथवा संकट से घबरा ON कर जो व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करता है, उसका वैराग्य दुःखभित वैराग्य कहलाता है । जब दुःख समाप्त
हो जाता है तो सृख आ जाता है, व्यक्ति दुःख को भूल जाता है और फिर आनन्दपूर्वक रहने लगता है। इसी जब दुःख का कारण दूर हो जाता है तो इस प्रकार का वैराग्य भाव भी समाप्त हो सकता है । इस कारण दुःखगर्भित वैराग्य को स्थायी नहीं माना जाता है।
(२) मोहभित नैराग्य-माता-पिता, पुत्र, परिजनों के वियोग होने पर जो विरक्त भावली उत्पन्न होते हैं, वह मोहगभित वैराग्य कहलाता है। व्यक्ति अपने जीवन में सूनेपन का अनुभव करता है। मृत्यु की इच्छा करता है, मृत्यु न होने की स्थिति में संसार छोड़कर साधु बन जाता है। मोहवश व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करता है । मोह की डोरी को तोड़ना सरल कार्य नहीं है। फिर भी यह वैराग्य भाव न तो सामान्य है न श्रेष्ठ । इसे मध्यम श्रेणी का वैराग्य कहा जा सकता है।
(३) ज्ञानभित नैराग्य-जन्म-जन्मान्तरों के शुभ कर्मोदय से,गुरु के उपदेशों के कारण, अध्ययन से संसार के प्रति जो विरक्ति होती है, उसे ज्ञानभित वैराग्य कहा जाता है । वैराग्य का यह कारण श्रेष्ठ भी है और स्थायी भी।
जैनागमों का अध्ययन करने के पश्चात् हमें यह विदित होता है कि विशुद्ध वैराग्योत्पत्ति के दो कारण हैं । यथा१२६
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(१) नैसर्गिक - जिस वैराग्य में गुरु दर्शन, साधु-संगति, पठन-पाठन की आवश्यकता नहीं रहती हो, और जो जन्म-जन्मान्तरों के शुभ संस्कारों द्वारा स्वतः उत्पन्न होता है, वह नैसर्गिक वैराग्य कहलाता है ।
(२) आधिगामिक - जिस वैराग्य में बाह्य निमित्त की अपेक्षा हो, संत-संगति, पठन-पाठन का सहयोग अपेक्षित हो वह आधिगामिक वैराग्य कहलाता है ।
वैराग्योत्पत्ति के और भी अनेक कारणों का उल्लेख मिलता है किन्तु इनका विवरण यहाँ देना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है ।
वैराग्योत्पत्ति के कारणों के परिप्रेक्ष्य में यदि हम 'नजर कुमारी' के वैराग्योदय के कारण को देखते हैं तो हम पाते हैं कि उसका वैराग्य 'ज्ञानगर्भित वैराग्य' है । कारण कि नजर को जो वैराग्यभाव उत्पन्न हो रहे हैं, वे ज्ञान के आधार पर हो रहे हैं। माता की प्रतिज्ञा का अभी नजर को अहसास भी नहीं है । अपने ज्ञान चक्षु से अनुभव कर नजर अपने कदम आगे बढ़ा रही है ।
इधर परिवार में मामा कन्हैयालालजी एवं मौसी बग्गा के विवाह की तैयारियाँ चल रही थी । उदयपुर के पास गुडली नामक एक छोटा-सा गाँव । गुडली गाँव में सेठ अमरचन्दजी बागरेचा अपने परिवार के साथ रहते थे । उनके चार पुत्र मगनलालजी, छगनलालजी, कन्हैयालालजी (जो बाद में आचार्यश्री घासीलालजी म. सा. के शिष्य रत्न हुए) तथा खूबीलालजी और एक पुत्री चौथबाई थी । कन्हैयालालजी का विवाह सेठ अमरचन्दजी बागरेचा की इसी सुपुत्री चौथबाई के साथ समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ ।
मामी को अक्षर ज्ञान कराना - चौथबाई अपने माता-पिता की इकलौती पुत्री एवं चार भाइयों की एकमात्र बहन थी । वह रूपवती एवं गुणवती तो थी ही, विनय विवेक से भी सम्पन्न थी, साथ ही धार्मिक संस्कार भी उसमें कूट-कूट के भरे थे। जब वह दुल्हन बनकर ससुराल में आई तब वह बहुत ही छोटी आयु की थी। उस समय उसकी आयु केवल नौ वर्ष की थी। उन दिनों बाल-विवाह का प्रचलन था । सास नहीं थी । ननद सोहनबाई का वह सास के समान ही आदर करती थी, उनकी आज्ञानुसार कार्य करना, आज्ञा मानना वह अपना धर्म समझती थी । बालिका नजर को अपनी ननद के समान मानती थी । नजर भी अपनी प्रिय मामीजी के साथ अत्यधिक घुल-मिल गई थी । दोनों में परस्पर बहुत अधिक स्नेह था ।
कुमारी नजर की बुद्धि कुशाग्र थी । विद्यालय में जो कुछ पढ़ाया जाता, उसे वह बहुत जल्दी आत्मसात कर लेती थी। एक-दो वर्ष की अल्पावधि में ही कुमारी नजर ने अच्छी प्रकार से पुस्तक पढ़ना सीख लिया ।
मामी पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी । उन दिनों बालिकाओं को पढ़ाना-लिखाना आज की भाँति कोई पसन्द नहीं करता था। फिर गाँव में तो यह स्थिति और भी खराब थी । गाँव में कन्याओं को प्रायः पढ़ाया ही नहीं जाता था । चौथबाई की रुचि अक्षर ज्ञान के साथ ही पढ़ने-लिखने के प्रति अधिक थी । किन्तु किससे पढ़े, कैसे पढ़े ? और फिर ससुराल में पढ़ना तो और भी कठिन कार्य था । अथवा यह कहा जाय कि असम्भव था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
अपनी मामी की रुचि और जिज्ञासा का अहसास कुमारी नजर को हो गया और वह अपनी मामी को अक्षर लिख-लिखकर देने लगी और कभी-कभी सिखाने भी लगी । कुमारी नजर के श्रम और
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मामी की लगन के परिमाणस्वरूप मामी चौथबाई ने भी पढ़ना-लिखना सीख लिया। अल्पवय में - कुमारी नजर ने शिक्षिका का कार्य कर दिया।
नैराग्य : परिपक्वता की ओर-नजरकमारी की स्कूली शिक्षा तो चल ही रही थी । अध्ययन में कहीं कोई बाधा नहीं थी। इस शिक्षा के साथ ही वैराग्य रंग भी चढ़ रहा था। रात्रि भोजन का त्याग तो पहले था ही, अब रात्रि में पानी पीने का भी त्याग कर लिया। सात-आठ वर्ष की आयु में प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल, समकित के सतरह बोल, पुच्छिसुणं,नमिपव्वजा आदि ज्ञान कण्ठस्थ कर लिया। तपोमूर्ति श्री सोहनकुवरजी महाराज के त्यागमय जीवन और वैराग्यमय उपदेशों से नजर कुमारी के हृदय में वैराग्य की भावना प्रबल होती जा रही थी।
नानाजी का स्वर्गवास- समय अपनी गति से चल रहा था। चलना उसकी नियति है । किसी के रोकने से भी वह रुकता नहीं है। इधर नानाजी श्री हीरालालजी का स्वास्थ्य अस्वस्थ रहने लगा था और दिन प्रतिदिन गिरता ही जा रहा था। पूत्री सोहनबाई के विधवा होने का उन्हें जबर्दस्त धक्का लगा था और अन्दर ही अन्दर उन्हें चिन्ता का घुन लग गया था। अब वे निरन्तर अस्वस्थ रहने लगे और स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि इस अस्वस्थता में उन्होंने एक दिन अचानक परिवार के सभी सदस्यों को रोता-बिलखता छोड़कर सदा-सदा के लिए अपनो आँखें मूद ली। पिता की मृत्यु से पुत्र कन्हैयालालजी और पुत्री सोहनबाई को अत्यधिक दुःख हुआ। सोहनबाई पर तो मानो पहाड़ ही टूटकर गिर पड़ा हो । नजर भी अब कुछ सयानी हो गई थी और सब कुछ समझने लगी थी। अपने नाना की मृत्यु के बाद वह विचार करने लगी-'यह मृत्यु क्या है ? व्यक्ति मरता क्यों है ? मृत्यु इस प्रकार प्रियजनों को क्यों उठा कर ले जातो है ? क्या मुझे भी इसी प्रकार मृत्यु उठाकर ले जायेगी ? क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं है ? इसी प्रकार के अनेकानेक प्रश्न उसके मानस-पटल पर मंडराने लगे। उसने निश्चय किया कि अपने प्रश्नों के उत्तर गुरुणीजी श्री सोहनकुवरजी महाराज से पूछना चाहिए । सद्गुरुवर्या से ही समाधान / मिलाने की सम्भावना है।
नजरकुमारी सद्गुरुवर्या श्री सोहनकुंवरजी महाराज के पास गईं । अन्य दिनों की अपेक्षा आज गुरुवर्या ने नजर को कुछ गम्भीर और विशिष्ट मुद्रा में देखा । उन्होंने सहज ही पूछ लिया-"नजर ! आज कौन-सी विशेष बात है, जो इतनी गम्भीर हो ।”
"बात विशेष है अथवा नहीं। यह तो मैं नहीं जानती । किंतु आज मैं आपश्री से कुछ पूछना चाहती हूँ। मेरे मानस पटल पर उथल-पुथल मची हुई। आपश्री से समाधान की अपेक्षा है।" नजर ने कहा।
महासती श्री सोहनकुंवरजी महाराज साहब ने जब नन्ही बालिका के मुख से यह कथन सुना तो वे उसे पहले तो कुछ क्षण तक एकटक देखती रही फिर कहा-"अच्छा ! पूछो तो क्या पूछना है तुम्हें ।"
"महाराज सा० मौत क्यों आती है ? बिना किसी भूमिका के नजर कुमारी ने पूछा।
महासती श्रीसोहनकुंवरजी महाराज नजर के इस प्रश्न से एकाएक चौंक उठी। उन्हें इस प्रकार के प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी। उन्होंने शान्त भाव से कहा-"मृत्यु ! हर उस प्राणी की होगी जिसने जन्म लिया है । जिस प्रकार दिन के बाद रात आती है, उसी प्रकार जन्म के बाद मृत्यु का आना स्वाभाविक है।"
क्या मृत्यु से बचने का कोई उपाय है ?" नजर ने दूसरा प्रश्न किया। १२८
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"मृत्यु से बचने का उपाय है । तपों के द्वारा साधना के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।" महासतीजी ने फरमाया।
''ये कर्म क्या हैं ? इनके क्षय की आवश्यकता क्यों पड़ती है ?" नजर ने पूछा।
"मनुष्य जो भी सही-गलत कार्य करता है और उससे उसके आत्मा पर जो बंधन पड़ता है, वह कर्म है । जैनधर्म में वीतराग भगवान ने आठ प्रकार के कर्म बताये हैं । जब तक आठों प्रकार के कर्मों की निर्जरा नहीं हो जाती तब तक मोक्ष नहीं होता । मोक्ष के लिये कर्मों की निर्जरा या क्षय होना जरूरी है।" महासतीजी ने समाधान किया।
"मोक्ष क्या होता है ?" नजर ने पूछा।
"मोक्ष पद प्राप्त होने के पश्चात् यह जीवन-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है ।" महासती जी ने बताया।
"आपका मतलब है कि मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् फिर न तो जन्म होता है और न मृत्यु ।" नजर ने जिज्ञासा से पूछा।
"हाँ, तुमने सही समझा । परन्तु नजर ! इसके लिये बहुत बड़े त्याग और कठोर साधना की आवश्यकता होती है ।" महासतोजी ने समझाते हुए कहा।
"महाराज साहब ! आप तो मुझे वह मार्ग बताने की कृपा करें जिस पर चलकर जन्म और मृत्यु के झंझट से छुटकारा मिल सकता है ।" नजर ने पूछा।
"इसके लिये तो तुम्हें बहुत कुछ करना पड़ेगा। अभी तुम बच्ची हो। साधना का पथ अपनाना अभी तुम्हारे वश की बात नहीं है । संयम मार्ग अपनाना खांड़े की धार पर चलने के समान है।" महासतीजी ने कहा।
"आप तो डराने वाली बात करने लगीं। मुझे किसी प्रकार का भय नहीं है। कठोर से कठोर मार्ग हुआ तो भी मैं उस पर चलने के लिए प्रस्तुत हूँ । कृपा करके आप मार्गदर्शन तो करें।" नजर ने दृढ़तापूर्वक पूछा।
“यदि तुम वास्तव में आत्मकल्याण करना चाहती हो तो उसके लिए सबसे पहले दीक्षाव्रत अंगीकार करना पड़ता है।" महासतीजी ने बताया।
"अर्थात् आप जैसी बनकर आपके शरण में रहना ।" नजर ने तत्काल कहा। उसने पुनः कहा-"दीक्षा लेने के भाव तो मेरे मन में कभी से उठ रहे हैं । मैंने अभी तक किसी को भी नहीं बताया है किन्तु अब बताना ही होगा। मैं आत्मकल्याण करना चाहती हूँ।"
"वीतराग भगवान, तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे। किन्तु ध्यान रहे जो भी कदम उठाना है उसके पूर्व उसके प्रत्येक पक्ष पर गम्भीरता से विचार कर लेना। साथ ही अपने पालकों से भी अनुमति प्राप्त कर लेना। बिना अभिभावकों की अनुमति मिले तुम दीक्षाबत अंगीकार नहीं कर सकोगी।" इन शब्दों के साथ महासतीजी ने नजरकुमारी को मांगलिक सुनाया और फिर नजरकमारी अपने घर आ गई । उसके चेहरे पर हर्ष और संतोष था। जो ऊहापोह उसके मस्तिष्क में मची हुई थी, उसका उसे समाधान मिल गया था।
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माता सोहनबाई भी प्रारम्भ से ही धार्मिक स्वभाव को थो । पति को मृत्यु के पश्चात् उसका ला मन विरक्त हुआ था किन्तु पुत्र और पुत्री के मोह ने उसे बाँध रखा था । पुत्र के देहावसान के पश्चात्
तो वह विरक्त हो चुकी थी और नजर के बड़े होने तथा उसका घर संसार बसाने के पश्चात् संयममार्ग
पर चलने का विचार मन ही मन कर चुकी थी। किन्तु बीच में नजर की बीमारी, महासतीजी द्वारा एक (6 करवाया गया संकल्प आ गया, इसलिए वह अपने अन्तर्मन की बात अभी तक किसी को नहीं बता पाई AMA
थी। बीमारी के समय के संकल्प से उसके मन में एक संतोष यह था कि दीक्षा प्राप्त कर दोनों मां-बेटी साथ-साथ ही रहेंगी। माता सोहनवाई समय की प्रतीक्षा कर रही थी।
एक दिन सोहनबाई और नजरकुमारी अवकाश के क्षणों में बैठी थीं। बीच-बीच में दोनों के र बीच कुछ बातचीत भी हो जाती थी। नजरकमारी दीक्षा लेने वाली बात अपनी माता को बताना
चाहती थी। आज उसे उचित अवसर मिल गया था। उसने बातचीत के दौरान कहा- "माँ! मेरी (ो भावना दीक्षा लेने की हो रही है । आपका क्या विचार है ?"
माता सोहनबाई अपनी पुत्री के ये विचार सुनकर चौंकी नहीं। उन्हें आश्चर्य भी नहीं हुआ। म उन्हें तो नजर के ये विचार सुखद लगे । एक तो वे स्वयं अन्दर से विरक्त थीं। दूसरे नजर के लिए का
| वे पूर्व में इसी प्रकार का संकल्प ले चुकी थी। वे तो केवल अपनी पुत्री के लिए ही संसार पक्ष को छोड़ IC ही नहीं पा रही थी । अपनी पुत्री की बात सुनकर कुछ क्षण तक वे उसकी ओर देखती रही। फिर उसके ।
भावों की दृढ़ता देखने के लिए, उसकी परीक्षा लेने की दृष्टि से कहा-"आज तू यह कैसी बात कर रही पा है। तू तो मेरी इकलौती पुत्री है। मेरी लाड़ली है। मेरे जीवन का एकमात्र आधार है । पुत्री ! मैं तो SAL विचार कर रही थी कि कोई अच्छा परिवार और अच्छा लड़का मिल जाये तो खूब धूमधाम से तेरा । Mi विवाह कर दूं; ताकि तू सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर सके । जहाँ तक दीक्षा का प्रश्न है, उसमें क्या का रखा है ? उसमें सिवाय कष्ट और असुविधाओं के कुछ भी नहीं है ।"
नजर अपनी माताजी की बात बड़े ध्यान से सुन रही थी। अपनी माताजी को गौर से देखकर नजर ने कहा- "माताजी ! मेरे शादी-विवाह का चक्कर तो आप भूलकर भी मत चलाना । मैं किसी भी स्थिति में विवाह करने वाली नहीं हूँ। मुझे ऐसे सांसारिक सुखों की कामना नहीं जिनके कारण मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े। आपने दीक्षा के मार्ग के कष्टों और असुविधाओं की बात कही है। तो संसार पक्ष में क्या कम कष्ट और असुविधाएँ हैं ? यहाँ तो और भी अधिक परेशानियाँ हैं । आप ध्यानपूर्वक सुन 12 लें। मैं दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर चुकी हूँ। कोई भी ताकत बाधा मुझें दीक्षा लेने से रोक नहीं सकती।"
माता सोहनबाई ने अपनी पुत्री को हर प्रकार से समझाने का प्रयास किया किन्तु उस पर तो मंजीठे का रंग चढ़ा हुआ था। कोई प्रलोभन उसे लुभा नहीं सका और कोई भय उसे डिगा नहीं सका। तब माता सोहनबाई ने अपने अन्तर्मन की बात-दीक्षा लेने की उसके सम्मुख प्रकट कर दी। माता और पुत्री दोनों एक साथ दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गईं। अब इन दोनों के सम्मुख प्रमुख समस्या | आज्ञा की थी।
___ दीक्षा की राह और बाधाएँ- सोहनबाई यह जानती थी कि यहाँ आज्ञा भाई से लेनी पड़ेगी .. और वे किसी भी स्थिति में आज्ञा प्रदान नहीं करेंगे । भाई का अपनी बहिन के प्रति असीम स्नेह था। और बहिन से भी बढ़कर अधिक स्नेह और वात्सल्य उन्हें अपनो भानजी नजर पर था। इस स्थिति पर सोहनबाई ने गम्भीरता से विचार किया। १३०
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दीक्षा के पूर्व आज्ञा की आवश्यकता क्यों होती है ? इस प्रश्न का समाधान उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री ने बहुत ही सुन्दर रीत्यानुसार किया है उन्हीं के शब्दों में
___"प्रबज्या ग्रहण करने के लिए दीक्षार्थी को माता-पिता या अन्य अभिभावकगुण की अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक था। उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर ही दीक्षा ग्रहण की जाती रही है । बौद्ध ग्रन्थ महावग्ग में राहुल की प्रव्रज्या का भी ऐसा ही प्रसंग है।
स्वयं महावीर को उनके ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन की आज्ञा प्राप्त नहीं हुई तब तक वे गृहवास में रहे । मेषकुमार, राजर्षि उदयन, गाथापति मकाति महाराज श्रेणिक के पुत्र-पौत्र, मृगावती, धन्य अनगार, अतिमुक्त मुनि आदि शताधिक व्यक्तियों ने अपने अभिभावकों से अनुमति प्राप्त करके ही प्रव्रज्या ग्रहण की है।
यद्यपि अन्तरंग त्याग-वैराग्य की प्रबल भावना से ही साधक दीक्षा ग्रहण करता है, तथापि परिजनों की अनुज्ञा की आवश्कता क्यों है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जा सकता है कि जिस साधना को उसने श्रेयस्कर समझा है, जिस आहती दीक्षा के प्रति उसके मन में दृढ़ आस्था पैदा हुई है, उस साधना-मार्ग के प्रति अभिभावकों की श्रद्धा जाग्रत की जाय और उनके आशीर्वाद को ग्रहण कर साधना के पथ पर प्रसन्नता से आगे बढ़ा जाय । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कोई घर से भागा हुआ या गलत व्यक्ति दीक्षित न हो सके। क्योंकि ऐसे प्रवजितों के कारण श्रमण संघ में अशान्ति और विग्रह का वातावरण बनने की सम्भावना थी तथा संघ का अपयश भी हो सकता था।
आगम साहित्य में एक भी व्यक्ति ऐसा दिखाई नहीं देता जिसने बिना अनुज्ञा दीक्षा ली हो। हाँ, एक बात स्मरण रखनी होगी कि जो स्वयं ही सर्वेसर्वा है या संन्यासी आदि जिसका कोई अधिपति नहीं है उसको किसी की आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रही है, पर सामान्य व्यक्तियों के लिए यह नियम रहा है कि वह अनुमति प्राप्त कर दीक्षा ले। यह एक बहुत ही सुन्दर परम्परा रही है और इस परम्परा का अनुसरण आज भी हो रहा है ।"1
दीक्षा तो ग्रहण करनी ही है। समस्या केवल आज्ञा की है। भाई के साथ रहने से इस शुभ । कार्य में कठिनाई/बाधा आ सकती है। सभी पहलुओं पर पर्याप्त सोच-विचार कर सोहनबाई न भाइस
अलग रहने का निर्णय कर अलग रहने लगी। इस समय बालिका नजर दस वर्ष की हो चुकी थी। वैराग्य की प्रबलता के कारण माता और पुत्री शीघ्र ही संयम-मार्ग पर चलने के लिए कटिबद्ध थीं।
सोहनबाई ने अपने देवर श्री शेषमल जी को देलवाड़ा से बुलबाया और अपनी आन्तरिक इच्छा उनके समक्ष रख दी। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि बालिका नजर भी साथ ही दीक्षित हो रही है । शेषमल जी ने तो यह सोचा भी नहीं था। सोचना क्या कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी भाभी और भतीजी दीक्षा का मार्ग भी अपना सकती हैं। उन्होंने अपनी भाभी की भावना की गम्भीरता
को नहीं समझा और वे अपनी भाभी को नानाविध से समझाने का प्रयास किया। कुछ धौंस भी बताई || कुछ प्रलोभन भी दिये । शेषमल जी ने देखा कि उनकी किसी भी बात का प्रभाव माता और पुत्री पर ।
नहीं हो रहा है। दोनों ही अपने संकल्प पर दृढ़ हैं । अन्ततः दृढ़ इच्छाशक्ति के सम्मुख उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और कहा-“यदि आप देलवाड़ा चलकर दीक्षा ग्रहण करें तो मैं आज्ञा देने के लिए तैयार हूँ।"
१ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ४४८-४४६ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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"नजर छोटी है, किसी भी प्रकार की कठिनाई उपस्थित हो सकती है।" सोहनबाई ने कहा।
"परेशानी अथवा कठिनाई की आप कोई चिन्ता न करें। जो भी होगा, मैं उन सबका सामना करने के लिए तत्पर हूँ।" आश्वासन देते हुए शेषमल जी ने कहा।
__ अपने देवर का आश्वासन पाकर सोहनबाई अपनी पुत्री के साथ देलवाड़ा आ गई । उनकी विनती को स्वीकार करके महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज भी देलवाड़ा पधार गये । खूब धूमधाम से दीक्षा की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई।
उधर देलवाड़ा में दीक्षा की तैयारियां प्रारम्भ हो गई थी और इधर उदयपुर में जैसे ही कन्हैयालालजी को विदित हुआ कि बहिन के साथ भानजी भी दीक्षा ले रही है तो मोह के वशीभूत होकर उन्हें बहुत अधिक क्रोध आया और इसी क्रोध के आवेश में पुलिस में जाकर रिपोर्ट कर दी कि चैत्र कृष्णा
द्वितीया के दिन देलवाडा में एक अबोध बालिका को दीक्षा दी जा रही है, उसको रुकवाया जाय । साथ (E) ही देलवाड़ा के कुछ लोगों ने भी उस दीक्षा का विरोध करते हुए कहा कि नाबालिग लड़की को दीक्षा | || नहीं देना चाहिए । दोक्षा समारोह में एक विघ्न उपस्थित हो गया।
क्या दीक्षा व्रत अंगीकार करने के लिये कोई आयु बंधन है ? इस प्रश्न का उत्तर उपाचार्य श्री 102 देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री के शब्दों में इस प्रकार दिया जा सकता है-"जैन धर्म में वय की दृष्टि से दीक्षा ग्रहण करने पर बल नहीं दिया है । चाहे बालक हो, चाहे युवक हो और चाहे बृद्ध हो, जिसमें भावों की प्रबलता और वैराग्य भावना बलवती हो, वह दीक्षा ग्रहण कर सकता है । बालक भी प्रतिभा का धनी होता है, उसमें भी तेज होता है । यही कारण है कि आगम साहित्य में बाल दोक्षा के उल्लेख प्राप्त होते हैं । भगवती सूत्र के अनुसार अतिमुक्त कुमार ने जब भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी, उस
समय उनकी उम्र छः वर्ष की थी । सर्वज्ञ-सर्वदर्शी महावीर ने अतिमुक्त कुमार ही आंतरिक योग्यता और All क्षमता को निहार कर ही दीक्षा दी थी। पर सामान्य साधकों के लिए आठ वर्ष से कुछ अधिक उम्र होने पर दीक्षा प्रदान करने का विधान है।
गजसकमाल मूनि भी लघुवय के थे। यूवावस्था में प्रवेश करने के पूर्व ही उन्होंने साधना पथ को अपनाया था। चतुर्दशपूर्वधर आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र मणक को और आर्य महागिरि ने वज्रदा स्वामि को बालवय में दीक्षा प्रदान की । इसी प्रकार के उल्लेख अनेक स्थलों पर प्राप्त होते हैं।
शैशवकाल में सहजता, कोमलता और निर्मलता के साथ बुद्धि का अनाग्रह भाव तत्व के रहस्य 2 को ग्रहण करने में जितना सहायक होता है, वह अन्य अवस्थाओं में नहीं। बचपन
परछाई की तरह साथ-साथ चलते हैं किन्तु ढलती उम्र में दिये जाने वाले संस्कार न तो अच्छी तरह आत्मसात होते हैं और न वे चिरस्थाई हो पाते हैं । इसलिये दीक्षा के लिये वय नहीं वैराग्य भाव प्रमुख माना गया है।
जैन साहित्य के इतिहास में ऐसे सैकड़ों साधकों का वर्णन प्राप्त होता है जिन्होंने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण कर जैनधर्म की प्रबल प्रभावना को है। आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय, महान कलाकार आचार्य जीतमलजी, महास्थविर ताराचन्दजी महाराज आदि अनेक व्यक्तियों के नाम गिनाये जा सकते हैं।
आगम साहित्य एवं परवर्ती साहित्य में कहीं पर भी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है। बालकों l की भांति हजारों युवक-युवतियों ने भी दीक्षा ग्रहण की है । आगम साहित्य में उन युवक-युवतियों की
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उत्कृष्ट साधना का निरूपण है । हजारों साधकों के गौरवपूर्ण नाम गिनाये जा सकते हैं । इसी तरह वृद्ध व्यक्तियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की है । श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण को प्रव्रज्या प्रदान की थी । आचार्य जम्बू द्वारा उनके पिता श्रेष्ठी ऋषभदत्त को और आचार्य आर्यरक्षित द्वारा अपने पिता सोमदेव की प्रब्रज्या देने का उल्लेख मिलता
1
दशवेकालिक में स्पष्ट कहा है- जीवन के संध्याकाल में दीक्षा लेकर भी कितने ही व्यक्ति अपनी तेजस्वी साधना से वर्ग और अपवर्ग को प्राप्त कर सकते हैं ।"
इस उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि आयु का बन्धन कोई विशेष महत्व नहीं रखता है । आठ वर्ष के पश्चात् दीक्षा देना और लेना शास्त्र सम्मत है ।
श्री कन्हैयालाल जी द्वारा उत्पन्न व्यवधान तो उनके मोह के कारण था । मोह ने संसार के प्राणियों को घेर रखा है । प्रत्येक को किसी-न-किसी का मोह है । किसी को परिवार का मोह तो किसी को धन-सम्पत्ति का । जब तक यह मोह का बन्धन रहता है तब तक कुछ भी नहीं हो सकता । यही कारण है कि तीर्थंकर भगवंतों ने सबसे पहले मोह पर ही प्रहार किया है । जब तक मोह का क्षय नहीं हो जाता तब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्यक् नहीं होते और अन्य कर्म भी क्षीण नहीं होते हैं । सभो जानते हैं कि गणधर गौतम का भगवान महावीर के प्रति सर्वाधिक मोह था और यही मोह उनके केवल ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा था। जैसे ही उनका मोह बन्धन टूटा वैसे ही वे केवलज्ञानी हो गये । मोह की अदृश्य गाँठ बहुत अधिक मजबूत होती है । इसे तोड़ने के लिये कठोर साधना करनी पड़ती है । इसी मोह के जाल में श्री कन्हैयालाल जी फसे हुए थे । भानजी नजर पर उनका वात्सल्य ममत्व अधिक था । बहिन पर भी असीम स्नेह था । वे नहीं चाहते थे कि ये दीक्षा लेकर साध्वी बने । वे इन्हें अपने पास ही रखना चाहते थे और नजर का विवाह धूमधाम से कर उसका घर बसाना चाहते थे । यहाँ उनकी भावना के प्रतिकूल हो रहा था । इसलिए उन्होंने बाधा उत्पन्न कर दी ।
ममत्व रखने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि वह जो कुछ समझ रहा है, वह सब मिथ्या है । दूसरे तो क्या उसका अपना शरीर भी उसका नहीं है । वह मैं ( आत्मा ) और शरीर में अन्तर नहीं कर पाता है । जब उसका यह भ्रम दूर होता है तब वह वास्तविकता को समझता है । किन्तु यह समझ पाना / आत्मसात कर पाना बड़ा कठिन होता है। कई एक तो ऐसे होते हैं जो वास्तविकता को जानते हुए भी जान-बूझकर मिथ्यावाद में जीते हैं । इसी मिथ्या मोह में कन्हैयालाल जी भी जी रहे थे ।
महासती श्री सोहन कुँवर जी म० सा० बड़े धीर-वीर - गम्भोर थे । उन्होंने परिस्थिति को देखा एवं विचार किया । उन्होंने सभी प्रकार से इस समस्या पर विचार किया । इस सम्बन्ध से उन्होंने प्रमुख श्रावकों से भी विचार-विमर्श किया। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यद्यपि दीक्षा प्रदान करने के लिये परिवारवालों की आज्ञा हमारे पास है तथापि इस समय परिस्थिति अनुकूल नहीं है । किन्तु इस शुभ कार्य को टालना भी उचित नहीं है । क्योंकि इस समय सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं। अतः दीक्षा का दूसरा मुहुर्त भी निकलवा लिया। दूसरा मुहूर्तं निकला फाल्गुन शुक्ला दशमी । पहले मुहूर्त के भी पूर्व । श्रावकों की सहमति से यह निर्णय हुआ कि अनावश्यक विलम्ब करने में कोई सार नहीं है । वरन् कुछ अन्य सम
१ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप पृष्ठ ४४४ से ४४६
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स्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन ही दीक्षा प्रदान करना निश्चित हो ! गया।
दीक्षा का महत्व-दीक्षा एक आध्यात्मिक साधना है। आहती दीक्षा साधक के उस अटकनेभटकने को रोकने का एक उपक्रम है। वह ऐसी अखण्ड ज्योतिर्मय यात्रा है जिसमें साधक असत् से सत् की ओर, तमस् से आलोक की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है । वह ऐसी अद्भुत आध्यात्मिक साधना है जिसमें साधक बाहर से अन्दर सिमटता है। वह अशुभ का बहिष्कार कर शूभ || संस्कारों से जीवन-यापन करता है और शुद्धत्व की ओर अपने हर कदम बढ़ाता है। दीक्षा में साधक अपने आप पर शासन करता है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने दीक्षा को परिभाषा करते हुए लिखा है
दीयते ज्ञानसद्भावः क्षीयते पशुबन्धनाः ।
__ दानाक्ष-परम संयुक्तः दीक्षा तेनेह कीर्तिता ॥ दीक्षा एक रासायनिक परिवर्तन है । सात्विक जीवन जीने की अपूर्व कला है । आत्म-साधना के परम और चरम बिन्दु तक पहुँचाने वाले सोपान का नाम दाक्षा है । दीक्षा में पांचों महाव्रतों का जीवन पर्यन्त पालन करना होता है । 'सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि' के सुदृढ़ कवच को पहनकर ही साधक 100 सद्गुरुदेव के पथ-प्रदर्शन में साधना के पथ पर आगे बढ़ता है तथा अपने पर नियन्त्रण करता है।
दीक्षा अन्तर्मुखी माधना है । मानव-मस्तिष्क सुदीर्घकाल से सत्य की अन्वेषणा कर रहा है। की उसने जड़ तत्व देखा, परखा और गहराई में पैठकर परमाणु जैसे सूक्ष्म तत्व में निहित विराट शक्ति की 10 - अन्वेषणा की। मानव सभ्यता ने विजय फहराकर जन-मानस को मुग्ध किया है, पर यह जड़ की अन्वेषणा वास्तविक शांति प्रदान नहीं कर सकी । किन्तु जब मानव ने अपने अन्दर निहारा तो अपनी अनन्त आत्मशक्ति के दर्शन किये और परम शान्ति का अनुभव किया। इससे सहज ही दीक्षा का महत्व समझ में आ जाता है।
दीक्षोत्सव-फाल्गुन शुक्ला दशमी वि. सं. १६६३ के दिन शुभ मूहर्त में आस-पास के गाँवों से आये सैकड़ों नर-नारियों की साक्षी में महासती श्री सोहनकुवरजी महाराज ने दोनों मुमुक्ष भव्यात्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षास्थल जय-जयकारों के गगनभेदी नारों से गूंज उठा । माता सोहनबाई का नाम महासती श्री कैलाशकुवरजी म. रखा तथा उन्हें महासती श्री पदमकुवरजी म. सा. की शिष्या घोषित किया गया। पत्री नजरकमारी का नाम महासती श्री कसमवतीजी म. सा. गया । वे साध्वीप्रमुखा सद्गुरुवर्या श्री सोहनकुंवरजी म. सा. की शिष्या बनीं। - महासती श्री सोहनकुवरजी महाराज ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी आदि अनेक गुणों के आगार पा थे, वे संयम के पालन में प्रतिपल जागरूक थे, उनको शिष्य-शिष्याएँ बनाने का स्वल्प भी लोभ या मोह नहीं था। उनके मन में संकल्प भी था कि अपने नाम से शिष्या नहीं बनाऊँगी, लेकिन बालिका नजर के हृदय में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी। वह उन्हें ही अपनी आराध्या मान चुकी थी। उसकी एकमात्र इच्छा भी यही थी कि वह उन्हीं की शिष्या बने । महासती श्री सोहनकुवरजी म. नजर के अत्याग्रह और स्नेह समर्पण के सम्मुख इन्कार न कर सके। नजरकुमारी अर्थात् महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. सद्गुरुवर्या श्री सोहनकुवरजी म. का शिष्यत्व पाकर आपको महान् सौभाग्यशाली मान रही थी। सुयोग्य शिष्या को प्राप्त कर गुरुणीजी महाराज भी प्रफुल्लित थे। १ जैन आचार......."पृष्ठ ४३८ । १३४
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ऋजुता-मृदुता की जीवन्तमूर्ति पुण्यश्लोका मातुश्री कैलाशकंवर जी महाराज
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सयम-साधना
विहार - महासती श्री सोहनकंवरजी म. देलवाड़ा दीक्षा के निमित्त से पधारे थे । दीक्षा निर्विघ्न सानन्द हर्षोल्लासमय वातावरण के बीच सम्पन्न हो गई थी । इसलिए दीक्षा सम्पन्न होते ही महासतीजी ने अपने धर्म परिवार सहित देलवाड़ा से उदयपुर की ओर विहार कर दिया। नन्हीं साध्वी कुसुमवतीजी के लिए नंगे पाँव इतना लम्बा पैदल चलना एक नया अनुभव था। कोमल पैर थे । लड़खड़ाते हुए कंकरों पर पड़ रहे थे। कभी पत्थर की ठोकर लग जाती, तो कभी काँटों से पैर बिंध जाते और खून निकल आता । थकावट से मुख कमल मुरझा जाता । गुरुणीजी पूछती - "तुम थक गई होगी ?"
बाल साध्वी श्री कुसुमवतीजी म. अपने उन कष्टों की चिन्ता किये बगैर मृदु हास्य के साथ बोल पड़ती - ' नहीं पूज्याश्री, अभी हम चले ही कितने हैं ।" ऐसा कहकर वे जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने का प्रयास करतीं । थकावट को देखकर कभी-कभी सेवाभावी महासती श्री चतरकुंवरजी महाराज थोड़ी देर के लिए उन्हें कन्धे पर उठाकर विहार करते । महासती श्री कुसुमवतीजी म. बालक सी थीं ही, साथ ही उनका शरीर भी बहुत हल्का था ।
विहार करते हुए महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. अपनी नवदीक्षिता सतियों के साथ मेवाड़ की राजधानी उदयपुर पधारे। सैकड़ों भाई-बहिनों ने अगवानी की और विशाल जुलूस के साथ पूर्ण आदर एवं सम्मान सहित नगर प्रवेश करवाया ।
बड़ी दीक्षा - महासती श्री सोहनकुंवरजी म. एवं सतीमण्डल के आगमन से उदयपुर की जनता में आनन्द की लहर छा गई। एक नये उत्साह और उमंग का संचार हुआ । दीक्षा के आठवें दिन चैत्र कृष्णा द्वितीया सं. १६६३ को दोनों नवदीक्षिता सतियों की समारोहपूर्वक बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई । यह वही दिन है जब प्रथम मुहूर्तानुसार इस दिन दोनों की दीक्षा देलवाड़ा में होने वाली थी । पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि दीक्षा रुकवाने के लिए पुलिस में रिपोर्ट की जा चुकी थी । उस रिपोर्ट पर कार्यवाई करने के लिए जब पुलिस देलवाड़ा पहुँची तो पता चला कि दीक्षा तो एक सप्ताह पूर्व ही हो चुकी है और महाराज ने यहाँ से विहार भी कर दिया। पुलिस को मुँह लटकाये वापस आना
पड़ा ।
संयम मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ते कदम - बालसाध्वी महासती श्री कुसुमवती जी संयम मार्ग पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपने कदम बढ़ा रही थीं । गुरुवर्या श्री सोहनकुंवर जी म. सा. एवं समस्त महासतियाँ जी का आपको अपरिमित स्नेह मिल रहा था, क्योंकि एक तो लघुवय और दूसरे सहजता, सरलता एवं विनम्रता आदि गुण, बरबस हो सभी का मन मोह लेते थे। यों भी परम विदुषी महासती सोहन कुँवरजी म. सा. के अतिरिक्त सती मण्डल में जितनी भी महासतियाँ थीं, सभी ने विवाहोपरांत संयम व्रत अंगीकार किया था। आपके ही बाल ब्रह्मचारिणी होने से सभी का सहज आकर्षण एवं स्नेह था ।
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विद्याध्ययन-वैराग्य काल में ही आपने भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमन्दिर स्तोत्र, रत्नाकर ॥ पच्चीसी, महावीराष्टक आदि स्तोत्र, दशवकालिक सूत्र, सुखविपाक सूत्र, आवश्यक सूत्र, पुच्छिस्सुणं, नमिपवज्जा आदि शास्त्र, पच्चीस बोल, तैंतीस बोल, समकित के सड़सठ बोल, पाँच समिति, तीन गुप्ति, नवतत्व, लघुदण्डक आदि कई थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे ।
दीक्षा के पश्चात् आप ज्ञान-ध्यान में पूर्णतः निरत हो गये । जो स्मरण था उसे पुनः-पुनः दोहराना और नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप सदैव जागरूक रहते। प्रातः चार बजे उठते एवं रात्रि को देर से सोते । इस बीच का समय स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन, मनन, पठन-पाठन, आहार-विहार, एवं
साध्वोचित क्रिया के परिपालन में व्यतीत होता। आप एक मिनट भी प्रमाद में नहीं खोना चाहती। १| जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता तब तक अध्ययन करती रहती। स्वाध्याय एवं ध्यान-साधना में आपकी 9. विशेष रुचि परिलक्षित हुई। अतः स्वाध्याय एवं ध्यान पर संक्षिप्त विचार करना आवश्यक प्रतीत CON होता है।
स्वाध्याय-जैन दर्शन में तप के भेद करते हुए बताया गया है कि तप बारह भेदों में विभक्त है । इनमें छः आभ्यंतर एवं छः बाह्य तप हैं । स्वाध्याय आभ्यंतर तप में चौथा तप है। जैनेतर दर्शनों में भी स्वाध्याय को "स्वाध्याय परमं तपः" कहकर उत्कृष्ट तप के रूप में वर्णन किया है। जैन दर्शन
में "न वि अत्थि न वि य होई सज्झाय समं तवोकम्म" कहकर स्वाध्याय की आभ्यंतर तपों में गणना East की है।
___स्वाध्याय का अर्थ है-सत् शास्त्रों का अध्ययन, वाचन, चिन्तन और प्रवचन । स्वाध्याय दो शब्दों के योग से वना है-स्व+ अध्याय, जिसका अर्थ होता है 'स्व' का अथवा 'स्व' सम्बन्धी अध्ययन करना । दूसरे शब्दों में इसे आत्म-चिन्तन करना भी कह सकते हैं । इस पर प्रश्न उठता है कि क्या इसमें 'पर' चिन्तन के लिए कोई स्थान नहीं है ? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। कारण कि इसका एक अन्य अर्थ है स्वयं अध्ययन करना । अर्थात्-स्वाध्यायी स्वयं ही स्वयं का गुरु और शिष्य होता है।
आवश्यक सूत्र के अनुसार-'अध्ययन अध्यायः शोभनो अध्यायः 'स्वाध्यायः'-अर्थात्श्रेष्ठ अध्ययन ही स्वाध्याय है । जिसके अध्ययन-अध्यापन से आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है, वही स्वाध्याय है। आचार्य अभयदेव के शब्दों में-"सुष्ठु आमर्यादया अधोयते, इति स्वाध्यायः"अर्थात् सत् शास्त्रों का अध्ययन करना, विधिपूर्वक अध्ययन करना, विधिपूर्वक श्रेष्ठ पुस्तकों का वाचन करना स्वाध्याय है । स्वाध्याय का उत्पत्तिजन्य अर्थ इस प्रकार है-'स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायः स्वाध्यायः यानी स्वयं का स्वयं के भीतर अध्ययन. दसरे शब्दों में आत्म-चिन्तन मनन स्वाध्याय है जा सकता है कि आत्मकल्याणकारी पठन-पाठन रूप श्रेष्ठ अध्ययन का नाम ही स्वाध्याय है। स्वयं का अध्ययन कर उस पर चिन्तन और मनन करना, अपना ध्यान कर णों से विग्रह करना, स्वयं की मनोभूमि और चित्तवत्तियों का साक्षात्कार करना, 'स्व' को ओर जाना, 'स्व' की ओर आना, 'स्व' की
ओर देखना, 'स्व' में ही रमण करना और 'स्व' में ही लीन होकर 'स्व' के साथ अन्यान्यों का पथ । 2 आलोकित करना । यही स्वाध्याय है । इस प्रकार स्वाध्याय स्व-पर-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
स्वाध्याय के पाँच भेद बताये गए हैं - (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मोपदेश । जब तक पांचों भेदों की पूर्ति नहीं हो जाती। तब तक स्वाध्याय के उद्देश्य l की भी पूर्ति नहीं होती है।
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स्वाध्याय के नियम चिन्तकों द्वारा इस प्रकार बताये गये हैं
(१) एकाग्रता, (२) निरन्तरता, (३) विषयोपरति, (४) प्रकाश की उत्कंठा और (५) स्थान । इन सब पर प्रकाश डालना यहाँ उचित प्रतीत नहीं होता है। स्वाध्याय के सम्बन्ध में विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है । यहाँ स्वाध्याय पर विस्तार से विचार करना हमारा उद्देश्य नहीं है । हम तो यही बताने का प्रयास कर रहे हैं कि स्वाध्याय क्या है ? स्वाध्याय की स्वल्प जानकारी यहाँ देने का प्रयास है।
स्वाध्याय के परिणाम की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हम पाते हैं कि भगवान महावीर ने कहा है कि स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिल जाती है-"सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणे” (उत्तराध्ययन २६/१०) । जन्म-जन्मांतरों में संचित किए हुए अनेक प्रकार के कर्मों का क्षणभर में क्षय हो जाता है-"बहुभवे संचियंपि हु सज्झाएणं खणे खवइ" (चन्दविज्झगपइन्ना, ६१)। स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय हो जाता है-"सज्झाएण नाणावरणिज्जं कम्म खवेइ" (उत्तरा० २६/१८) । स्वाध्याय सब भावों का प्रकाश करने वाला भी है-'सज्झायं च दओ कुज्जा, सव्व भाव विभावणं' (उत्तरा० २६/३७)। आचार्यश्री अकलंक के द्वारा स्वाध्याय के सात फल इस प्रकार बताए गए हैं
(१) स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। (२) प्रशस्त अध्यवसाय की प्राप्ति होती है। (३) शासन रक्षा होती है। (४) संशय की निवृत्ति होती है। (५) परमतवादियों की शंकाओं के निरसन की शक्ति प्राप्त होती है। (६) तप त्याग की वृद्धि होती है और, (७) अतिचार की शुद्धि होती है।
स्वाध्याय करने के लिये भी समय निर्धारित है। आगमों में मुनि की दैनिकचर्या के साथ स्वाध्याय का भी निर्देश मिलता है।
ध्यान-आभ्यंतर तपों में ध्यान का पांचवां स्थान है। अर्थात् ध्यान भी आभ्यंतर तप है । उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने अपने ग्रंथ 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' में ध्यान पर सुन्दर रूप से प्रकाश डाला है । उसी के आधार पर हम यहाँ ध्यान पर विचार प्रस्तुत कर रहे हैं ।
. साधना पद्धति में ध्यान का अत्यधिक महत्व रहा है। कोई भी आध्यात्मिक धारा उसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुँच सकती है । यही कारण है कि भारत की सभी परम्पराओं ने ध्यान को महत्व दिया है । ध्यान शतक में मन की दो अवस्थाएं बताई गई हैं-(१) चल अवस्था (२) स्थिर अवस्था । चल अवस्था चित्त है और स्थिर अवस्था ध्यान है । चित्त और ध्यान-ये मन के ही दो रूप हैं। जब मन एकाग्र, निरुद्ध और गुप्त होता है, तब वह ध्यान होता है ।
__ "ध्येय चिन्तायाम्"-धातु से ध्यान शब्द निष्पन्न हआ है। शब्दोत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन है किन्तु प्रवृत्तिलब्ध अर्थ उससे जरा पृथक है । इस दृष्टि से ध्यान का अर्थ है-चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-एकाग्र चिन्ता तथा शरीर, वाणी
और मन का निरोध ध्यान है । इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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ANSATORICA
नहीं है अपितु शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति अथवा निष्प्रकम्प स्थिति को ही ध्यान की संज्ञा । दी गई है।
आचार्य पतंजलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही माना है. उनका अभिमत है कि जिसमें धारणा की गई हो, उस देश में ध्येय विषयक ज्ञान की एकतानता जो अन्य ज्ञान से अपरावृष्ट हो, वह ध्यान है । सदृश प्रवाह से तात्पर्य है जिस ध्येय विषयक प्रथम वत्ति हो उसी विषय की द्वितीय और तृतीय हो-ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो । पतंजलि ने एकाग्रता और निरोध ये दोनों चित्त के ही माने हैं । गरुड़ पुराण में ब्रह्म और आत्मा की चिन्ता को ध्यान कहा है ।
विसुद्धिमग्ग के अनुसार ध्यान मानसिक है। पर जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने ध्यान को मानसिक ही नहीं माना, वाचिक और कायिक भी माना है । पतंजलि ने जिसे संप्रज्ञात समाधि कहा है वह जैन परिभाषा में शुक्लध्यान का पूर्व चरण है। पतंजलि ने जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहा है उसे जैन परम्परा में शुक्लध्यान का उत्तर चरण कहा है। जो केवलज्ञानी है, उनके केवल निरोधात्मक ध्यान होता है, किन्तु जो केवलज्ञानी नहीं है, उनके एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक-दोनों प्रकार के ध्यान होते हैं।
मन सहित काया और वाणी को जब एकरूपता मिलती है, वह पूर्ण ध्यान है । उसमें अखण्डता और एकाग्रता होती है । एकाग्रता स्वाध्याय में भी होती है और ध्यान में भी । किन्तु स्वाध्याय में एकाग्रता घनीभूत नहीं होती; जबकि ध्यान में वह घनीभूत होती है।
ध्यान में चेतना की वह अवस्था है जो अपने आलम्बन के प्रति पूर्णतया एकान होती है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है । चेतना के विराट आलोक में चित्त विलीन हो जाता है, वह ध्यान है।
अतीत काल में त्रियोग के निरुन्धन को ध्यान कहा गया । आचार्य भद्रबाहु ने चित्त को किसी भी विषय में स्थिर करने को ध्यान कहा है । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।
आराधनासार में आचार्य ने कहा है-प्रकाण्ड विद्वत्ता प्राप्त भी की हो पर यदि सम्यक् प्रकार से ध्यान नहीं किया गया है तो सभी निरर्थक है । क्योंकि उस विद्वत्ता से आकुलता-व्याकुलता नहीं मिटेगी। आकुलता-व्याकुलता को मिटाने के लिए ध्यान संजीवनी एक बूटी है। ध्यान करते समय पूर्व संस्कारों के कारण यदि मन में चंचलता आये तो घबराकर ध्यान छोडने की आवश किंतु निरन्तर अभ्यास से शनैः-शनैः वह चंचलता भी नष्ट हो जाती है।
ध्यान के मुख्य रूप से दो भेद किए गए हैं-(१) अनशस्त ध्यान और (२) प्रशस्त ध्यान । वैदिक परम्परा में क्लिष्ट और अक्लिष्ट ध्यान कहा है तथा बौद्ध परम्परा ने उन्हें कुशल ध्यान और अकुशल ध्यान शब्द दिए हैं।
ज्ञानार्णव में ध्यान के तीन भेद किए गए हैं-(१) अशुभ (२) शुभ और (३) शुद्ध । ये तीनों भेद आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानों में समाविष्ट हो जाते हैं । आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार अवान्तर भेदों का वर्णन किया है । आचार्य हेमचन्द्र ने इनका भी आगे उपविभाजन किया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में ध्यान करने की इच्छा रखने वाले के लिये कहा है कि उसे तीन बातें जान लेनी चाहिए-वे तीन बातें हैं-१ ध्याता-ध्यान करने वाले में कैसी योग्यता होनी १३८
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चाहिए ? २ - ध्येय - जिसका ध्यान करना है, वह वस्तु कैसी होनी चाहिए ? ३ – ध्यान के कारणों की समग्रता, अर्थात् सामग्री कैसी हो ? क्योंकि सामग्री के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने ध्याता की योग्यता के सम्बन्ध में लिखा है- "जो प्राणों का अवसर आ जाने पर भी संयम-निष्ठा का परित्याग नहीं करता है, अन्य प्राणियों को आत्मवत् देखता है, अपने ध्येय, लक्ष्य से च्युत नहीं होता है, जो सर्दी, गर्मी और वायु से खिन्न नहीं होता, जो अजर-अमर बनाने वाले योग-रूपी अमृत, रसायन को पान करने का इच्छुक है, रागादि दोषों से आक्रान्त नहीं है, क्रोध आदि hari से दूषित नहीं है, मन को आत्माराम में रमण कराने वाला है, समस्त कर्मों में अलिप्त रहने वाला है, काम-भोगों से पूर्णतया विरक्त है, अपने शरीर पर भी ममत्व-भाव नहीं रखता है, संवेग के सरोवर में पूरी तरह मग्न रहने वाला है, शत्रु-मित्र, स्वर्ण-पाषाण, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि में समभाव रखने वाला है, समान रूप से प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करने वाला है, प्राणिमात्र पर करुणा भाव रखने वाला है, सांसारिक सुखों से विमुख है, परीषह और उपसर्ग आने पर भी सुमेरु की तरह अचल- अटल रहता है, चन्द्रमा की भाँति आनन्ददायक और वायु के समान निःसंग - अप्रतिबन्ध विहारी है, वही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध साधक प्रशंसनीय और श्रेष्ठ ध्याता हो सकता है 1
ध्याता के चार लक्षण उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी शास्त्री ने इस प्रकार बताये गये हैं – (१) आज्ञा रुचि, (२) निसर्ग रुचि, (३) सूत्र रुचि और (४) अवगाढ़ रुचि । इन चार लक्षणों से धर्म - ध्यानी की आत्मा की पहचान की जाती है ।
धर्म-ध्यान के चार आलम्बन इस प्रकार हैं- (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा |
धर्म-ध्यान की चार भावनाएँ बताई गई हैं - ( १ ) एकात्वानुप्रेक्षा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा और (४) संसारानुप्रेक्षा ।
इन चार भावनाओं से मन में वैराग्य की लहरें तरंगित होती हैं । सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम हो जाता है और आत्मा शांति के क्षणों में विचरण करता है | 2
ध्यान के जितने प्रकार बताये गये हैं, उसी के अनुरूप उनके आलम्बन भी हैं । और अधिक विस्तार यहाँ अप्रासंगिक प्रतीत होता है। इस विवेचन से ही ध्यान के सम्बन्ध में धारणा स्पष्ट हो
है । ध्यान एक उत्कृष्ट तप है, यह एक ऐसी धधकती ज्वाला है जिसमें कर्म दग्ध हो जाते हैं ।
ऐसे प्रशस्त ध्यान और आत्मकल्याणकारी स्वाध्याय में महासती श्री कुसुमवती जी म.सा. की विशेष रुचि उनकी भविष्य की महान साधना की प्रतीक थी ।
प्रथम चातुर्मास एवं सद्गुरुवर्यों के दर्शन - ज्ञानार्जन और गुरुसेवा करते हुए संवत् १६६४ का प्रथम चातुर्मास उदयपुर शहर में सम्पन्न हुआ । चातुर्मास के पश्चात् माघ शुक्ला त्रयोदशी संवत् १९६४ को उदयपुर निवासी श्री जीवनलाल जी बरडिया की आत्मजा सुन्दरकुमारी ने श्री सोहनकुँवर जी महाराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की । दीक्षोपरांत उनका नाम महासती श्री पुष्पवती जी महाराज रख गया । लघु गुरु बहिन श्री पुष्पवती जी को पाकर आपको हार्दिक प्रसन्नता हुई । दोनों गुरु बहिनों में सहोदरा बहिनों से भी अधिक स्नेह था ।
गुजरात, बम्बई, महाराष्ट्र, खानदेश और मालवभूमि को अपनी चरण रज से पावन करते हुए
१. योगशास्त्र, ७ / २ से ७ ।
२. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ५६८ ।
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पूज्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज, श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ठाणा दो से वर्षों के Ds पश्चात् उदयपुर पधारे । सद्गुरुवरों के आगमन से सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण छा गया। सद्गुरुणी 2 जी महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज, महासती श्री कुसुमवती जी म० और महासती श्री पुष्पवती महा० आदि नवदीक्षिता साध्वियों को लेकर गुरुचरणों में पहुँची । वन्दन और सुख-साता पृच्छा के पश्चात् । गुरुदेव दोनों ही नवदीक्षिता साध्वियों को देखकर प्रसन्न हुए। उसी समय गुरुदेव ने दोनों के आगमिक a ज्ञान की परीक्षा भी ली। दोनों ही साध्वियाँ इस परीक्षा में समुत्तीर्ण रहीं । महास्थविर श्री ताराचन्दजी | महा० की आज्ञा से उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. ने महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज को ! निर्देश देते हुए फरमाया-'लक्षणों के आधार पर ये दोनों साध्वियाँ प्रतिभासम्पन्न प्रतीत होती हैं। इनकी प्रतिभा का समुचित विकास हो सके इसलिये गुरुणी होने के नाते आपका कर्तव्य है कि आप इन दोनों के लिये संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ, जैन आगम साहित्य और उसके व्याख्या साहित्य को पढ़ाने के लिये आवश्यक व्यवस्था अनिवार्य रूप से करें। इन्हें इनका व्यवस्थित अध्ययन करावें। एकएक शब्द के अर्थ को समझने के लिये शब्दार्थ याद करना तो पल्लवग्राही पाण्डित्य है । यदि मूल भाषाओं NT पर इनका अधिकार हो गया तो फिर कैसा भी साहित्य क्यों न हो ये बिना किसी की सहायता के स्वयं ही उसके अर्थ का अभिप्राय न केवल स्वयं समझ लेंगी, वरन् किसी अन्य को भी सरलता से समझा || देंगी।
सद्गुरुवर्यों के प्रथम दर्शन कर दोनों ही साध्वियाँ प्रसन्न थीं। उस पर गुरुदेव का आदेश सुनकर तो उनका हृदय आनन्दित हो उठा। अध्ययन के प्रति उनकी लगन तो प्रारम्भ से ही रही है । अब गुरुदेव के आदेश से तो उनकी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी।
गुरुणीजी श्री सोहनकुँवर जी म. सा० ने सद्गुरुवर्य के आदेश को बहुत ही ध्यान से सुना ।
गहराई से इस बात पर चिन्तन किया। चिन्तन करने का कारण यह था कि उस युग में साधु-NA साध्वियाँ गृहस्थ पण्डितों से नहीं पढ़ा करते थे तथा पढ़ने पर प्रायश्चित्त दिया जाता था। ऐसी परिस्थिति में गुरुणीजी का चिन्तन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था। एक ओर समाज की प्रचलित मान्यताएँ थीं और दूसरी ओर प्रतिभा के विकास का प्रश्न ।
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुँवर जी म० ने विचार किया कि युग बदल चुका है । गृहस्थ कर वर्ग प्रबुद्ध हो रहा है। साधु-समाज इसी प्रकार यदि अध्ययन से कतराता रहा/वंचित रहा तो फिर गृहस्थ का नेतृत्व किस प्रकार कर सकेगा? उनकी ज्वलन्त समस्याओं का समाधान किस प्रकार कर सकेगा? पुरानो रूढियाँ और अन्धविश्वास कब तक मार्ग की बाधा बना रहेगा? होगा। गुरुणीजी साहसी और नवीन परम्पराएँ स्थापित करने, पुरानी रूढ़ियों को समाप्त करने, समाज में युगानुरूप परिवर्तन की पक्षधर थीं। उन्हें अपने गुरुदेव का उक्त आदेश समयोचित प्रतीत हुआ । इस- 15 लिए उन्होंने गुरुदेव के सुझाव को आदेश मानकर उसे कार्य रूप में परिणत करने का विचार किया। साध्वियों को पण्डित पढ़ायेंगे। इस बात को लेकर समाज में कुछ रूढ़िग्रस्त व्यक्ति ऊहापोह भी कर सकते हैं । किन्तु सत्य के लिए डर किस बात का ? महासतीजी ने दृढ़ निश्चय करके दूसरे दिन गुरुदेव के सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया- "गुरुदेव ! मैं दोनों नवदीक्षिता साध्वियों का भविष्य उज्ज्वल और समुज्ज्वल देखना चाहती हूँ। इसलिए उनको व्यवस्थित अध्ययन कराऊंगी। किन्तु इस वर्ष वर्षावास की स्वीकृति सलोदा गाँव की हो चुकी है। उस गाँव में योग्य पण्डित का मिलना कठिन
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है । हाँ, चातुर्मास के पश्चात् इनका अध्ययन दीर्घकाल तक व्यवस्थित रूप से चल सके, इसकी समुचित Sal व्यवस्था हो जाएगी।"
गुरुदेव ने इस पर अपनो स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके पश्चात् गुरुदेव उदयपुर से विहार कर गोगुन्दा, नान्देशमा आदि ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए चातुर्मासार्थ कम्बोल पधार गये ।
___ वर्षावास सं० १९६५-वि० सं० १९९५ का वर्षावास ग्राम सलोदा में करना निश्चित हो चुका था । अतः महासती श्री कुसुमवती जी म. सा० अपनी सद्गुरुवर्या के साथ वि० सं० १६६५, ई० सन् १९३८ के वर्षावास हेतु सलोदा पहुँची। सलोदा हल्दी घाटी के सन्निकट बसा हुआ एक छोटा-ता गाँव है। हल्दीघाटी वही स्थान है जहाँ राणाप्रताप ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए मुगल सम्राट अकबर की सेना से टक्कर ली थी।
सलोदा गाँव में स्थानकवासी जन समाज के पच्चीस-तीस घर थे। उन सबकी आर्थिक स्थिति भी कोई विशेष अच्छी नहीं थी। वे प्रायः कृषिकर्म करके अपना जीवन-यापन करते थे। उस समय वहाँ पर जो और मकई का प्रचलन था । जौ की हथेली जितनी मोटी रोटी बनती थी जिसमें तुष की प्रधानता थी । तुष कांटे की भांति गले में चुभता था । महिलाएं भी प्रायः पाक-कला से अनभिज्ञ थीं। जो की उन तुषयुक्त मोटी रोटियों को बिना पूर्वाभ्यास के कोई खा नहीं सकता था। सब्जी का उपयोग तो नहीं के समान था । केवल चटनी, उड़द की दाल, कड़ी, चाकी और इनके अतिरिक्त राबड़ी, बड़ी या चने की दाल का उपयोग होता था। छाछ में मक्की के टुकड़े करके और फिर उबाल कर राब तैयार करते थे । बस, यही था, उस समय का वहाँ का भोजन ।
महासती श्री कुसुमवतीजी म० ने पहली बार गाँव में चातुर्मास किया। इस प्रकार के खान-पान का उपयोग उन्होंने पहले कभी किया नहीं था। परन्तु वे समभाव में रमण करते हुए उसी आहार को थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लिया करतीं । इस सम्बन्ध में कभी किसी से कुछ नहीं कहा।
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुँवर जी म० सा० ने इस परिस्थिति को देखा और भलीभाँति 0 समझा। उन्होंने विचार किया-“मैंने इन नवदीक्षिताओं के साथ यहाँ चातुर्मास कर उचित नहीं किया । ये शहर की सुकुमार बालिकाएं हैं। ऐसा नीरस आहार इन्होंने कभी किया नहीं होगा। यहाँ ये किस || प्रकार कर रही हैं ? साध्वाचार का उचितरूपेण परिपालन भी कर रही हैं । अब भविष्य में क्षेत्र को 12 देखकर ही चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान करूंगी।"
इतना होते हुए भी यह वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ। यही तो संयमी जीवन की परीक्षा भी है है । सभी प्रकार की सुविधाओं के साथ संयमी जीवन व्यतीत करना हो तो फिर संयम ग्रहण करने की 30 आवश्यकता ही क्या ? सच्चे साध को तो अपने मूल उद्देश्य से मतलब होता है। ज
खा लिया। नहीं मिला तो उपवास कर लिया। समता भाव में रहते हुए अपनी साधना करना ही साधु
का परम लक्ष्य होता है। इस चातुर्मास में नवदीक्षिता साध्वो महासती श्री कुसुमवती जी ने यह प्रमा। णित कर दिया कि संयम की धारा में वह समान रूप से खरी उतरेंगी।
वर्षावास समाप्त हुआ और ग्राम सलोदा से उदयपुर की ओर विहार हुआ । ग्रामानुग्राम धर्मप्रचार करते हुए गुरुणी जी महासती श्री सोहनकुवर जी म० सा० के साथ महासती श्री कुसुमवती जी म० उदयपुर पहुंच गईं। द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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वर्षावास वि० सं० १९९६ - वि. सं. १६६६ का वर्षावास गुरुणीजी महासती श्री सोहनकुँवरजी म.
के साथ उदयपुर में हुआ । वि० सं० १६६६ का चातुर्मास उदयपुर के इतिहास में विशेष महत्व रखता है । कारण कि इस वर्ष उदयपुर में स्थानकवासी परम्परा के दो तेजस्वी और प्रभावक मुनि प्रवरों के वर्षावास थे । पोरवाड़ों के पंचायती नोहरें में आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. के पट्टधर युवाचार्य श्री गणेशलाल जी म.सा. अनेक सन्तरत्नों के साथ विराज रहे थे । ओसवालों के पंचायती नोहरें में जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता श्री चौथमल जी म० सा० अपने शिष्यों के साथ विराज रहे थे। दोनों ही ओर प्रवचन के समय हजारों की संख्या में उपस्थिति रहती थी । उदयपुर की भक्त नगरी में धर्म-रंग की वर्षा हो रही थी ।
महासती श्री सोहन कुँवर जी म. सा. महामहिम आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज साहब के सम्प्रदाय की थीं किन्तु उनका मानस सम्प्रदायवाद के संकीर्ण घेरे में आबद्ध नहीं था और न वे किसी एक हुई थीं । अतः वे दोनों ही स्थानों पर अपनी सुविधानुसार प्रवचन में पहुँचती । श्री गणेशलाल जी म. सा. एवं श्री जैन दिवाकर जी म. सा. दोनों के ही अन्तर्मानस में महासती जी के प्रति अपार स्नेह व सद्भावनाएँ थीं ।
शिक्षण की व्यवस्था - महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने भी इस वर्ष अपनी गुरुणी जी के साथ दोनों ही महापुरुषों के प्रवचन श्रवण का लाभ लिया । वर्षावास के पश्चात आपने मन ही मन यह दृढ़ संकल्प किया कि उन्हें गुरुदेव श्री के आदेशानुसार संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का गहराई से अध्ययन करना है । महासती श्री मदनकुँवर जी म. सा. की शारीरिक स्थिति विहार करने के अनुकूल नहीं थी । इसलिये वे उदयपुर में ही स्थिरवास विराज रही थीं। उनकी सेवा में रहते हुए अध्ययन व्यवस्थित रूप से हो सकता था ।
उदयपुर में संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान पण्डित गोविन्द वल्लभ जी से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। चार-पाँच महोने तक पं० गोविन्द वल्लभ जी ने लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन करवाया । इसके पश्चात पण्डित श्री चम्पालाल जी के द्वारा अध्यापन प्रारम्भ किया गया । इसी बीच पंडित श्री चम्पालाल जी किसी आवश्यक कार्य से अन्यत्र चले गए । अध्ययन में बाधा उत्पन्न हो गई । उस समय उदयपुर में पाणिनीय व्याकरण के महामनीषी विद्वानरत्न पंडित श्री मार्कण्डेय जी मिश्र रहते थे । उनके शिष्य रत्न पं० रमाशंकर झा उन दिनों पं. मिश्र जी के पास अध्ययन कर रहे थे । पं. श्री रमाशंकरजी झा सीदे-सादे चरित्रवान एवं विद्वान व्यक्ति थे । अध्यापन कला में भी वे दक्ष थे । महासतियां जी को पढ़ाने का भार पं. श्री रमाशंकरजी झा को सौंपा गया। जब वे अध्ययन करवाते तब श्रमण-मर्यादा के अनुसार एक श्राविका और एक वरिष्ठ साध्वी जी महासती श्री कुसुमवती जी म. और महासती श्री पुष्पवती जी म. के समीप ही बैठी रहती थी ।
अध्ययन क्रम अपनी गति से चल ही रहा था कि एक दिन यकायक जी म. सा. के शरीर में ज्वर का प्रकोप प्रारम्भ हुआ । उपचार के लिए योग्य दिखाया गया । औषधियाँ दी गईं किन्तु ज्वर का प्रभाव कम नहीं हो पा रहा था । ज्वर का प्रकोप लम्बे समय तक बना रहा । इसके परिणामस्वरूप अध्ययन का क्रम अवरुद्ध हो गया । अपनी गुरुबहिन के अध्ययन में बाधा न पड़े, इसलिये जब कभी भी ज्वर का प्रकोप कम होता, आप किसी सहारे से बैठ जातीं, किन्तु अधिक वेदना होती तो अध्ययन छूट ही जाता था । आपकी अस्वस्थता के कारण पंडित जी अन्य सतियाँ, जो पढ़ना चाह रही थीं, उनको भी आगे नहीं पढ़ाते थे। आपके मन में विचार उत्पन्न
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महासती श्री कुसुमवती चिकित्सकों को बुलाकर
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होता कि मेरे कारण दूसरों को अन्तराय लगती है, परन्तु आपके पास इसका कोई समाधान नहीं था । आप कर ही क्या सकती थी ? स्वस्थ होने पर ही अध्ययन सुचारु रूप से चल सकता था।
सहनशीलता-महासती श्री कुसुमवती जी म. उस वेदना में भी सदैव प्रसन्न रहती थी तथा समभाव से व्यथा को सहन करतीं । वे सोचतीं कि उनके पूर्वबद्ध कर्मों के उदय होने का ही यह परिणाम है । यदि उनके मन में किंचित् मात्र भी विषम भाव आ गया तो नया कर्म बन्धन हो जाएगा। जब आत्मा ने हँस-हंस कर कर्म बाँधा है तो भोगते समय क्यों कतराना? इस प्रकार समत्व भाव धारण कर निराकुल, निविकार मन से उस वेदना को सहन किया। जब भी थोड़ी-सी भी वेदना शान्त होती तब वे स्वाध्याय, ध्यान में तल्लीन हो जातीं।
कर्म सिद्धान्त के प्रति उनके मन में अपूर्व निष्ठा थी । वे विचार करती रहती थीं कि एक दिन र यह असातावेदनीय कर्म दूर होगा और साता का उदय होगा। यदि इस समय वेदना है तो उससे घब
राना नहीं चाहिए। इसका भी एक न एक दिन अन्त/क्षय अवश्य होगा ही । आत्मा तो वेदना से मुक्त या है। मुझे सदैव आत्मभाव में रहना है । जहाँ न व्याधि है, न रोग है। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निराकुल हूँ, म अजर और अमर हूँ । तीन महीने की दीर्घ अवधि तक ज्वर का प्रकोप बना रहा। धीरे-धीरे वेदना दूर हुई तो उसके साथ ही ज्ञान की साधना भी प्रारम्भ हुई।
अध्ययन पुनः प्रारम्भ-पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते ही अध्ययन का क्रम पुनः अवधि गति से प्रारम्भ हुआ। सन् १९४२ में वाराणसी के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, (वर्तमान में सम्पूर्णानन्द । संस्कृत विश्वविद्यालय) से क्वीन्स कालेज उदयपुर के माध्यम से व्याकरण मध्यमा सम्पूर्ण, एक वर्ष में
उत्तीर्ण की । व्याकरण मध्यमा में सिद्धान्त कौमुदी का विशेषरूप से अध्ययन किया था। उसके पश्चात् साहित्य मध्यमा का अध्ययन किया । मध्यमा के पश्चात् साहित्यरत्न का भी अध्ययन किया। व्याकरण एवं साहित्य के साथ दर्शन एवं जैनागमों का भी अध्ययन गहराई के साथ किया।
विद्वष भड़क उठा-दोनों महासतियों की अध्ययन के प्रति रुचि और सफलताओं को देखकर कितने ही ईर्ष्यालु व्यक्ति जल-भुन रहे थे। किन्तु सुखद बात यह थी कि वे व्यक्ति इतना साहस नहीं जुटा पा रहे थे कि महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. के सम्मुख कुछ कर सके। इस कारण वे कुछ करना चाहकर भी नहीं कर पा रहे थे । इसलिए ये विद्वेषी मन ही मन कसमसा रहे थे। यह भी संयोग ही था कि इसी समय उदयपुर जैनागमों के मर्मज्ञ विद्वत्रत्न श्री घासीलालजी म. सा. का उदयपुर में आगमन हुआ। श्री घासीलालजी म. सा. को आगम साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान था। समाज में उनका कुछ
दबदबा भी था। श्री घासीलालजी म. सा. के आगमन से विद्वषी तत्वों को अपने सामने अच्छा अवसर | दिखाई दिया और वे सीधे उनकी सेवा में जा पहुँचे तथा प्रारम्भिक चर्चा के पश्चात् महासतियों के विरुद्ध विष वमन कर दिया।
श्री घासीलालजी म. सा. ने उन लोगों की बात को बड़े ध्यान से सुना था। उन्होंने सुनी हुई सी बातों के तथ्य तक पहुँचने का प्रयास किया और वे स्थविरा महासतीजी श्री मदनकुंवरजी म. सा. को है। दर्शन देने के लिए उनके स्थान तक पधारे । महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. एवं महासती श्री पुष्पवती
जी म. सा. अपने नियमित कार्यक्रमानुसार उस समय अध्ययन कर रही थी। उन दोनों के समीप ही सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. विराजमान थीं । वंदना एवं सुख-साता पुच्छा के पश्चात् सभी ने अपना-अपना आसन ग्रहण किया। एक दो इधर-उधर की बात भी हुईं और उसके पश्चात् त्री
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घासीलालजी म. सा. ने महासती श्री सोहनकुंवरजी महाराज से सीधा प्रश्न पूछा - " संस्कृत और प्राकृत का अध्ययन करने वाली आपकी दोनों शिष्याएँ क्या ये ही हैं ?" यह पूछकर उन्होंने महासती श्री कुसुमवतीजी म. और महासती श्री पुष्पवतीजी म. की ओर संकेत किया तथा पुनः बोले- " मैंने ऐसा भी सुना है कि इन दोनों ने लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन भी समाप्त कर लिया है।"
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. कुछ बोल पातीं इसके पूर्व ही श्री घासीलालजी म. सा. ने लघु सिद्धान्त कौमुदी से सम्बन्धित कुछ प्रश्न अलग-अलग महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. तथा महासती श्री पुष्पवतीजी म. सा. से पूछ लिए। इस पर सद्गुरुवर्या ने मौन रहना ही उचित समझा । गुरुवर्या को अपनी शिष्याओं के ज्ञान, अभ्यास और अध्यवसाय पर पूर्ण विश्वास था । महासती श्री कुसुमवतीजी म. एवं महासती श्री पुष्पवतीजी म. ने उनके प्रश्नों का सटीक उत्तर देकर उन्हें सन्तुष्ट कर दिया। दोनों के उत्तर सुनकर उन्हें पूर्णतः विश्वास हो गया कि दोनों ही साध्वियाँ योग्य, प्रतिभासम्पन्न एवं निर्भीक हैं। दोनों की ज्ञान गरिमा से श्री घासीलालजी म. प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । किन्तु विद्वेषी तत्वों ने उनके कर्ण कुहरों में जो विष उगला था, उसका प्रभाव अभी समाप्त नहीं हुआ था, इसलिए उन्होंने महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. से कहा - "मेरे विचार से अब इन दोनों का अध्ययन यहीं समाप्त कर देना चाहिए। इससे अधिक पढ़ाना उचित प्रतीत नहीं होता। इसका एक कारण और यह भी है कि यदि ये अधिक अध्ययन कर गईं और विशिष्ट योग्यता अर्जित कर ली तो फिर ये आपकी आज्ञा में नहीं रह सकेंगी । इसलिए अच्छा तो यही है कि इनका अध्ययन अब यहीं समाप्त कर दो ।" इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ और भी इसी प्रकार की बातें गुरुवर्या से कही थीं ।
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. ने उनके एक-एक शब्द को बड़े ही ध्यान से सुना था । वे इस प्रकार की चर्चा क्यों कर रहे हैं ? इस बात को भी वे अच्छी प्रकार से समझती थीं । उन्होंने बड़े ही विनम्र और संयमित शब्दों में उत्तर दिया-- "महाराजश्री ! आपश्री जो आज इस प्रकार की बात कर रहे हैं, उससे मैं आश्चर्य चकित हूँ । आपश्री स्वयं प्रकाण्ड विद्वान् है और ज्ञान तथा ज्ञानप्राप्ति के महत्व को अच्छी प्रकार समझते हैं । फिर भी आप महासतियों की ज्ञानप्राप्ति की भावना पर प्रतिबन्ध लगाने का सुझाव दे रहे हैं । मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार आपका सुझाव न तो उचित है और न ही समय के अनुकूल । नीतिज्ञों का कहना तो है- विद्या ददापि विनयम् - विद्या से तो विनय की प्राप्ति होती है, विनय से विवेक की वृद्धि होती है । मुझे तो आश्चर्य इसी बात का हो रहा है कि आपश्री जैसा पारगामी विद्वान् ऐसी विपरीत बातें क्यों सोच रहा है ?"
"मैं अपनी शिष्याओं को भलीभांति जानती हूँ । जिस प्रकार आप सोच रहे हैं, वैसा तो नहीं होगा किन्तु मेरा दृढ़ विश्वास है कि अध्ययन करके ये दोनों जैनधर्म की अच्छी प्रभावना करेंगी और गुरु गच्छ के नाम में चार चाँद लगावेगी । मैं अपना कर्तव्य अच्छी प्रकार समझती हूँ । मैं यह भी समझती हूँ कि मुझे क्या पढ़ाना है और क्या नहीं । अब कृपा कर आप मुझे एक बात बताने की कृपा करें कि आपने अभी जो कुछ भी कहा है, वह अपने अन्तर्मन की पुकार सुनकर कहा है अथवा किसी के कहने में आकर आप मुझे हित- शिक्षा देने आ गये ।”
श्री घासीलालजी म. सा. के लिए अब कहने के लिए कुछ नहीं बचा था। वे यह भी समझ गये कि महासती श्री सोहनक वरजी म. को परिस्थिति का सब ज्ञान है । अब यदि अधिक कुछ कहा तो वास्तविक बात प्रकट हो जायेगी । इसलिए वे कुछ नहीं बोले ।
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अस्तित्व की चिन्ता- श्री घासीलालजी म. सा. महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. के कथन EH के परिप्रेक्ष्य में विचारमग्न हो गये। वे मन ही मन विचार करने लगे कि निःसन्देह इनकी शिष्याएँ | अपूर्व मेधा सम्पन्न हैं। मैंने स्वयं लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन अनेक वर्षों तक किया, तब कहीं Ke जाकर उसे आत्मसात कर पाया। किन्तु इन साध्वियों ने एक वर्ष में ही इसका अध्ययन सम्पन्न कर परीक्षा भी दे दी और उस परीक्षा में प्रथम श्रेणो भी प्राप्त की। वास्तव में यह इनकी अद्वितीय प्रतिभा का प्रतीक है । यदि ये साध्वियाँ और इन्हीं की भाँति अन्य साध्वियां भी ज्ञान के क्षेत्र में इसी प्रकार विकास करती रहीं तो फिर सन्तों की स्थिति क्या होगी? ज्ञानसम्पन्न और प्रतिभासम्पन्न तपस्विनी
साध्वियों के होते हुए कम प्रतिभावान् साधुओं को कौन पूछेगा ! उनके मान-सम्मान का क्या होगा? । यदि ऐसा ही चलता रहा तो फिर भविष्य में तो साधुओं के अस्तित्व का प्रश्न उपस्थित हो जायेगा। IC
इसी प्रकार के और भी अनेकानेक प्रश्न उनके मनमानस को कचोटते रहे। वे इस विषय पर जितना चिन्तन करते वे उसमें और अधिक उलझ जाते। उन्हें कहीं कोई समाधान नहीं मिलता । स्पष्टतः प्रति
बन्धात्मक चर्चा भी नहीं की जा सकती थी। उनका यह सोच पुरुषप्रधान संस्कृति की भावना का पोषक या था। इस सम्बन्ध में आगे फिर कोई चर्चा नहीं हुई।
प्रवचन प्रारम्भ-दीर्घकाल तक उदयपुर में रहते हुए महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. की ज्ञानाराधना चलती रही । जनमानस महासती श्री कुसुमवतीजी म० सा० की अध्ययन के प्रति लगन / भावना से अच्छी प्रकार परिचित था। वह चाहता था कि महासती जी द्वारा अजित ज्ञान का लाम उसे (5)
भी मिले । जन-जन की भावना को मान देते हुए, उनकी मनोकांक्षा को पूर्ण करने के लिये आपने अपनी सद्गुरुवर्या के आशीर्वाद, मार्गदर्शन और सान्निध्य में प्रवचन फरमाना प्रारम्भ किया। आपकी प्रवचन शैली आकर्षक थी। तथ्यों का निरूपण शास्त्रोक्त था। विषयवस्तु की गूढ़ता को किसी दृष्टान्त के माध्यम से सरल कर समझा देती थीं । भाषा सहज एवं बोधगम्य होती थी। बोलते समय आप आरोहअवरोह का बराबर ध्यान रखती थीं । बीच-बीच में संदर्भानुसार काव्य पंक्तियों से आप अपने प्रवचन को सरस भी बना दिया करती थीं । उदयपुर में आपके प्रवचन की चर्चा होने लगी थी और श्रोता आपका प्रवचन श्रवण करने के लिए खिंचे चले आते थे । जिसने भी आपके प्रवचन पीयूष का एक बार भी पान कर लिया वह पुनः पुनः आपकी धर्म सभा में उपस्थित होकर आपके अमृत वचनों का पान करना चाहता था। आपकी प्रवचन कला आज भी वैसी ही प्रभावशाली है बल्कि अब तो उसमें और भी निखार आ गया है। अध्ययन हेतु गुरुकुल में
व्याकरण और साहित्य का अध्ययन तो हो गया था किन्तु अभी बहुत कुछ अध्ययन करना शेष था। जैन न्याय और जैन टीकाओं का अध्ययन करना आवश्यक था। इन विषयों के विद्वान इधर नहीं थे। अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था । यदि इनका अध्ययन नहीं किया जाता है तो ज्ञान अपूर्ण ही रह जाता है । इसलिए वि० सं० २००३, ईस्वी सन् १९४६ में आप अपनी माताजी महाराज और लघु गुरु बहिन महासती श्री पुष्पवती जी म० सा० के साथ ब्यावर पधारी । ब्यावर में देश प्रसिद्ध गुरुकुल था और वहाँ विद्वान अध्यापक अध्यापन कराते थे । ब्यावर में ही जैन न्याय के उद्भट विद्वान पंण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल से जैन न्याय और जैनागमों की टीकाओं का गम्भीर अध्ययन किया । ब्यावर में एक वर्ष तक आपका मूकाम रहा। इस अवधि में गहन अध्ययन और कठोर अध्यवसाय से आपने न्याय-तीर्थ और सिद्धांताचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की।
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कुशाग्रबुद्धि के कारण जिस किसी भी ग्रंथ का आप पारायण करतीं, वह स्मृति पटल पर अंकित ल हो जाता । आपकी स्मरण शक्ति बहुत ही तेज थी । संस्कृत भाषा पर तो आपका इतना अधिकार हो
गया था कि आप धारा प्रवाह संस्कृत बोल लेतीं। इसके साथ ही आपकी लेखन कला भी सुन्दर थी। उस समय आपने जैन दर्शन और साहित्य पर उच्चकोटि के निबन्ध भी लिखे थे। बेकन ने ठीक ही कहा है
रीडिंग मेक्स ए फुल मेन स्पीकिंग ए परफेक्ट मेन
राइटिंग एन एग्जेक्ट मेन । -अध्ययन मानव को पूर्ण बनाता है. अभिव्यक्ति उसे परिपूर्णता देती है, और लेखन उसे प्रामाणिकता प्रदान करता है। तीनों ही दृष्टियों से आपका विकास निरन्तर प्रगतिशील था।
संवत् २००६ में भी आपका वर्षावास अध्ययनार्थ ब्यावर में था। सबसे सुखद बात यह थी कि इस वर्ष आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म० का चातुर्मास भी ब्यावर में ही था। चातुर्मास काल में आचार्यश्री के दर्शन, प्रवचन एवं शास्त्र श्रवण का अच्छा लाभ मिला। आचार्यश्री के अगाध आगमिक ज्ञान को सुनकर हृदय आनन्दविभोर हो जाया करता था।
ब्यावर का अध्ययन समाप्त कर ग्रामानुग्राम धर्मध्वजा फहराते हुए आप उदयपुर संभाग में विचरण कर रहे थे।
महासती श्री मदनकुवरजी का स्वर्गवास महासती श्री मदनकुवर जी म. सा. अनेक वर्षों से उदयपुर में स्थिरवास थीं। उनकी सेवा 1 में महासती श्री सोहनकुवर जी म. सा० तथा अन्य महासतियाँजी रहती थीं। वि० सं० २००७ में संलेखना सहित महासती श्री मदनकुवरजी म. सा. का स्वर्गवास हो गया। संलेखना, संथारा, अनशन आदि के सम्बन्ध में कई लोगों के मन में मिथ्या धारणा है । इसलिए यह आवश्यक है कि संलेखना के सम्बन्ध में कुछ विचार कर लिया जाये, जिससे वास्तविकता स्पष्ट हो सके ।
संलेखना-संलेखना और संथारा के अन्तर को उपाचार्य श्री देवेन्द्रमनिजी शास्त्री ने इस प्रकार स्पष्ट किया है- “संथारा ग्रहण करने के पूर्व साधक संलेखना करता है। संलेखना संथारे के पूर्व ना की भूमिका है । संलेखना के पश्चात् जो संथारा किया जाता है उसमें अधिक निर्मलता और विशुद्धता
होती है।
है तो
संलेखना का महत्व प्रतिपादित करते हुए आपने लिखा है-"श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में 'संलेखना' शब्द का प्रयोग हुआ दिगम्बर परम्परा में 'सल्लेखना' शब्द का । संलेखना व्रतराज है। जीवन की अन्तिम बेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है । जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहाँ तक लिखा है- ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता है।"
१. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ६६७ । २. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ६६७-६६८ ।
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"संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक चलना है ।" 'संलेखना को एक दृष्टि से स्वेच्छा-मृत्यु कहा जा सकता है। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब साधक को शरीर और अन्य पदार्थ में बन्धन की अनुभूति होती है । वह बन्धन को समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है । ""
'संलेखना को मृत्यु पर विजय पाने की कला के रूप में निरूपित करते हुए उपाचार्य ने लिखा है - ' संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है । वह जीवन-शुद्धि और मरण-शुद्धि की एक प्रक्रिया है । जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्म-चिन्तन में लीन रहता है, वही व्यक्ति उस मार्ग को अपनाता है । संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल प्राप्त करता है । उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं, समाधि का कारण है ।"
'संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम संलेखना का लक्षण बताया है और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का । आचार्य शिवकोटि ने 'सल्लेखना' और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। आचार्य उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिये संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुंदकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिये मानते हैं और सलेखना गृहस्थ के लिये ।
इस विषय पर और अधिक चर्चा न करते हुए केवल संलेखना की व्याख्या और संलेखना का समय तथा इसके अधिकारी की चर्चा कर प्रकरण को यहीं समाप्त कर दिया जायेगा ।
'संलेखना 'सत्' और 'लेखना' इन दोनों के संयोग से बना है । सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना। जैन दृष्टि से काय और कषाय को कर्म बन्धन का मूल कारण माना है इसलिए उसे कृश करना संलेखना है । 4
"आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवृत्ति में संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखा है-जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है वह 'संलेखना ' है । ज्ञातासूत्र की वृत्ति में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। प्रवचनसारोद्धार में - शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को संलेखना कहा है । निशीथचूर्णि व अन्य स्थलों पर संलेखना का अर्थ छीलना -- कृश करना किया है । शरीर को कृश करना द्रव्य-संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव-संलेखना है ।"5
संलेखना के समय और अधिकारी का वर्णन करते हुए उपाचार्यश्री ने लिखा है - 'आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है प्रतीकार रहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा व रुग्ण स्थिति में या अन्य कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है ।"
मूलाराधना में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए सात मुख्य कारण दिये हैं(१) दुश्चिकित्स्य व्याधि - संयम को परित्याग किये बिना जिस व्याधि का उपचार करना सभ्भव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर ।
१. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ६६८ ३. वही, ५. वही,
१० ६६६
पृ० ७००
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२. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ६६६ । ४. वही, पृ० ७००-७०१ ।
६. वही, पृ० ७०२-७०३ ।
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(२) वृद्धावस्था - जो श्रमण जीवन की साधना करने में बाधक हो । (३) मानव, देव और तिर्यंच सम्बन्धी कठिनाई उपस्थित होने पर ।
(४) चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये जाते हों ।
(५) भयंकर दुकाल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो ।
(६) भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथभ्रष्ट हो जाय ।
(७) देखने की शक्ति व श्रवण शक्ति और पैर आदि से चलने की शक्ति क्षीण हो जाय ।
संलेखना के सम्बन्ध में ग्रन्थ में आगे और भी अधिक विस्तार से विचार किया गया है। यहां उन बातों पर कुछ लिखना अप्रासंगिक है । इतने मात्र से ही हमारा उद्देश्य पूरा हो जाता है ।
मालवा के आंगन में - उदयपुर में महासती श्री सोहनकु वरजी म० सा० आदि अन्य सतियां जी का रहने का मूल कारण महासती श्री मदनकुँवरजी म. सा. थे । उनकी सेवा सुश्रूषा के लिए उनकी सेवा में रहना आवश्यक था ।
जब महासती श्री मदनकुँवरजी म. सा. का देहावसान हो गया तो महासती श्री सोहनकुंवर जी म. सा. ने अपनी सहवर्ती साध्वियों और शिष्याओं के साथ उदयपुर से शस्य श्यामला मालवभूमि की ओर विहार कर दिया। मेवाड़ क्षेत्र के विभिन्न ग्राम-नगरों में धर्म-प्रचार करते हुए सत्तरह अठारह महासतियों के समूह ने जिस समय मालवा की सीमा में प्रवेश किया तो इनके आगमन का समाचार वायुवेग से मालवा के विभिन्न ग्राम-नगरों में प्रसरित हो गया । जिस नगर में, जिस गाँव में सती - मण्डल के मालव-भूमि में पधारने के समाचार मिलते -- उस नगर गांव की जनता आपके दर्शनार्थ और प्रवचनपीयूष का पान करने के लिए उस ग्राम-नगर की ओर उमड़ पड़ती, जहाँ आप अपने धर्म परिवार के साथ विराजती । इस प्रकार मालवा में आपके पदार्पण ने धर्म जागृति की एक नवीन लहर उत्पन्न कर 1
मन्दसौर, जावरा, रतलाम और इनके बीच में पड़ने वाले छोटे-बड़े गाँव-नगरों को पावन करते हुए, अपने अमृत वचनों से जनता-जनार्दन को तृप्त करते हुए आप महारानी अहिल्याबाई की नगरी इन्दौर पधारीं । श्री संघ इन्दौर के विशेष आग्रह से महानती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. ने इस वर्ष का अपना चातुर्मास इन्दौर किया । इन्दौर में उज्जैन श्रीसंघ के पदाधिकारी और कुछ धर्मप्रेमी श्रावक उपस्थित हुए थे । इन्होंने भी उज्जैन में चातुर्मास के लिए आग्रह भरी विनम्र विनती की थी । श्रीसंघ उज्जैन के अत्याग्रह, धर्म प्र ेम और विनयशीलता को देखते हुए महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. ने महासती श्री कुसुमवती जी आदि कुछ महासतियों को उज्जैन चातुर्मासार्थं भेजा ।
उज्जैन एक ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी है। जैनधर्म सम्बन्धी यहाँ की परम्पराएँ प्राचीन हैं । अनेक महान विभूतियों की यह कर्मस्थली रही है । आचार्यदेव श्री कालकाचार्य ने तो यहाँ इतिहास बनाया है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भी यहाँ की एक महान विभूति थे । इनके पश्चात् भी यहाँ अनेक सुविख्यात जैनाचार्य रहे हैं । क्रियोद्धारक श्री धर्मदासजी म. सा. को यहीं आचार्य पद से विभूषित किया गया था । उज्जैन और जैनधर्म पर तो और भी अधिक विस्तार से लिखा जा सकता है, किन्तु यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है । केवल संकेत मात्र ही पर्याप्त है ।
ऐसी महान ऐतिहासिक नगरी में महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. का चातुर्मास विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ ।
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राजस्थान की ओर चातुर्मास समाप्त हुआ और आपने विहार कर दिया। फिर सद्गुरुवर्या के पास जा पहुँची। मालवभूमि के ग्राम-नगरों को पावन करते हुए सद्गुरुवर्या के साथ आपने राजस्थान के कोटा नगर की ओर विहार कर दिया। उन दिनों मार्ग निरापद नहीं थे। आज की भांति मार्ग सुविधाजनक
भी नहीं थे। अतः विहार और फिर वह भी लम्बा विहार सुविधाजनक नहीं था। फिर भी विभिन्न Mil बाधाओं को पार करते हुए आप अपनी सद्गुरुवर्या के साथ कोटा पधारी और इस वर्ष अर्थात् सं. २००१ A का चातुर्मास श्रीसंघ के अत्यधिक आग्रह से कोटा में किया ।
__ कोटा का यशस्वी चातुर्मास सम्पन्न हुआ और कोटा से मारवाड़ की ओर विहार हुआ। मार्ग 8 में आने वाले ग्राम-नगरों में अपना प्रभाव छोड़ते हुए समय के प्रवाह के साथ सती-मण्डल भी अपने कदम बढ़ाता रहा।
सोजत सम्मेलन में इसी समय सूचना प्राप्त हुई कि सोजत में एक लघु सम्मेलन का आयो। जन किया जा रहा है । इसके पूर्व भी ऐसे ही साधु-सम्मेलनों का आयोजन हो चुका था । महासतीजी ने इस सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए अपना मानस बना लिया और समय पर आप सोजत पधार
गईं। महासती श्री कुसुमवती जी म. को इस अवसर पर सोजत में पधारे हए अनेक मुनि, भगवन्तों अ । महासतियों के दर्शन करने का अवसर मिला । अनेक मर्मज्ञ मुनिराजों, विदुषी महासतियों से भी विचार चर्चा करने का अवसर मिला । वरिष्ठ मूर्धन्य बिद्वान मुनिराजों के प्रवचन श्रवण का भी लाभ मिला । आपके लिए एक प्रकार से यह नवीन अनुभव था। इस सम्मेलन में अनेक प्रश्नों पर खुलकर विचारविमर्श हुआ था। अनेक मुनिराजों और महासतियों से परिचय भी हुआ था। कुल मिलाकर सोजत सम्मेलन आपके लिए ज्ञानवर्द्धक सिद्ध हुआ।
राजस्थान से उग्र विहार करते हुए महासती श्री कुसुमवती जी म. सा., माताजी महाराजश्री कैलाशकुवर जी म. सा., महासती श्री सौभाग्यकुवरजी म. सा. तथा अन्य सतियों के साथ भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली पधारे । अभी दिल्ली पधारे एक माह भी व्यतीत नहीं हुआ था कि गुरुणीजी का आदेश मिला कि महासती श्री पदमकुवर जी म. का स्वास्थ्य ठीक नहीं है अतः शीघ्र मारवाड़ लौट आओ । अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, मार्ग की बाधाओं को पार करते हुए आप दिल्ली पधारे थे । उन दिनों अजमेर से जयपुर का मार्ग बहुत विकट था। आहार-पानी की भी समस्या रहती थी। उपलब्ध भी होता तो बड़ी कठिनाई से । अनेक बार प्रासुक आहार के अभाव में केवल पानी सहारे रहना पड़ता था। विहार भी लम्बे-लम्बे करने पड़ते थे । पन्द्रह-सोलह किलोमीटर चलकर थोड़ा विश्राम करते और फिर चल पड़ते। इतनी कठिनाइयों को सहन करते हए आप दिल्ली पधारे ही थे कि 'गुरोराज्ञा अविचारणीया' समझकर पुनः उसी बीहड़ पथ पर कदम बढ़ा दिये जिसकी थकान अभी उतरी ही नहीं थी। इसका एकमात्र कारण यह है कि महासती श्री कुसुमवती म. सा. अपनी गुरुणी की परम आज्ञाकारिणी थीं।
दिल्ली से विहार कर महासतीजी ब्यावर पधारों। विक्रम संवत २०१३ का वर्षावास ब्यावर में हुआ । उस समय पंजाब केसरी श्री प्रेमचन्दजी म. सा. का वर्षावास भी ब्यावर में था। पंजाबकेसरी श्री प्रेमचन्द जी म० सा० ओजस्वी प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन एवं आगम श्रवण का लाभ इस वर्षा
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वास में मिला। उनके प्रवचन इतने ओजस्वी होते थे कि यदि किसी को नीद भी आ रही होती तो वह जाग जाया करता । महाराजश्री के ज्ञानगभित प्रवचनों को सुनकर मन मन्त्रमुग्ध हो जाता था।
___ गुरुणीजी की रुग्णता- महासती श्री कुसुमवती जी म० सा० ज्ञान-साधना और आत्म-आराधना करते हुए, साथ ही जन-कल्याण की भावना से नगर-नगर, ग्राम-ग्राम विचरण करते रहे और जिनवाणी का प्रचार करते रहे । आपके ज्ञानगभित प्रभावोत्पादक प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक क्षेत्रों के लोग अपने-अपने क्षेत्र की आग्रहभरी विनती लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होते थे। इस कारण आप इच्छा होते हुए भी अपनी सद्गुरुवर्या के सान्निध्य में वर्षावास नहीं कर पाती थीं। किन्तु जैसे ही वर्षावास समाप्त होता आप गुरुवर्या की सेवा में पहुँच जाती थीं । वि० सं० २०२२ का चातुर्मास सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुवरजी म० सा० का जोधपुर में था और आपका चातुर्मास सादड़ी मारवाड़ में था । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात गुरुणीजी म. सा. जोधपुर से विहार कर पाली पधार रहे थे । गुरुणीजी म० गेहट गाँव पहुँचे थे कि यकायक किसी भयानक व्याधि ने उन्हें जकड़ लिया। गुरुवर्या की अस्वस्थता के समाचार महासती श्री कुसुमवतीजी म० सा० को मिले। सद्गुरुवर्या की रुग्णता के समाचारों को सुनकर आपको हार्दिक दुःख हुआ। समाचार सुनते ही आपने ) विहार कर दिया और उन विहार करते हुए आप यथाशीघ्र सद्गुरुवर्या के श्री चरणों में जा पहुँची।
गुरुणी जी म० का स्वास्थ्य अत्यधिक नाजुक था । दस-पन्द्रह सतियाँ जी थीं। गुरुणीजी को डोली में उठाक र पाली मारवाड़ लाये । पाली पहुँचते ही उचित उपचार प्रारम्भ करवाया गया किन्तु | उससे कोई लाभ नहीं हुआ। योग्यतम चिकित्सकों और वैद्यों को दिखाकर भी उपचार कराया फिर भी कोई लाभ होता दिखाई नहीं विया । इधर चातुर्मास का समय भी सन्निकट आ रहा था। विभिन्न क्षेत्रों से महासती श्री कुसुमवतीजी म० की सेवा में चातुर्मास की विनतियाँ भी आ रही थीं। किन्तु अपनी जीवन निर्मात्री सद्गुरुवर्या को रुग्णावस्था में छोड़कर चातुर्मासार्थ अन्यत्र जाना आपने उचित ! नहीं समझा और यह चातुर्मास गुरुणीजी की सेवा में पाली में ही किया। पाली चातुर्मास में गुरुणीजी श्री सोहनकुवरजी म० सा० सहित कुल ग्यारह महासतियाँ थीं।
महासती श्री सोहनकवरजी म. सा० का स्वास्थ्य अस्वस्थ ही चल रहा था। जब से पाली 110) पधारे तब से महासती श्री कुसमवतीजी म० सा० अपनी पीयूषवर्षी वाणी से जिनवाणी की वर्षा कर भव्यप्राणियों को आप्लवित कर रही थीं।
___ गुरुणी जी का वियोग-वर्षावास के कार्यक्रम चल रहे थे । श्रावण और पर्युषण तप त्याग एवं अन्य धार्मिक कार्य पूरे ठाट-बाट से व्यतीत हुए। भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी वि० सं० २०६३ के दिन असाध्य व्याधि को भोगते हुए सती शिरोमणि तपोमूति सद्गुरुवर्या श्री सोहनकवरजी म. सा० का संलेखना-1 संथारा सहित स्वर्गवास हो गया। किसी ने सत्य ही कहा है कि टूटी की बूटी नहीं है । गुरुवर्या और जीवन निर्मात्री के स्वर्गवास से शिष्या समूह में अत्यधिक शोक छा गया। ऐसी महामहिम गुणरत्नों की खान गुरुवर्या का अवसान किसको व्यथित नहीं करता। पाली की धर्मानुरागिनी जनता को भी असीम दुःख हुआ। दो दिन तक पाली का पूरा बाजार बन्द रहा। हजारों धर्मप्रेमी लोगों ने उनकी महाप्रयाण | यात्रा में भाग लिया, उनकी पाथिक देह के अन्तिम दर्शन किये और अपनी भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित की। १५०
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जन्म और मरण इस सृष्टि का ध्रुव नियम है । जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित का है । इससे आज तक कोई भी बच नहीं पाया है । महासती श्री कुसुमवतीजी को अपनी सद्गुरुवर्या का
वियोग अत्यधिक व्यथित कर रहा था। इस व्यथा को हरने वाली यदि कोई औषधि है तो वह समय ही है। है । समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है।
वर्षावास का शेष समय पूरा हुआ और उसके साथ ही सद्गुरुवर्या की चिरस्मृति के साथ अन्तिम आशीर्वाद लिए आपने पाली से विहार कर दिया। मारवाड़ के ग्राम-नगरों को अपनी चरण-रज 7 से पावन करते हुए आपने मेवाड़ की भूमि में अपने कदम रखे । श्री संघ उदयपुर की विनती को मान देते हुए वि. सं. २०२४ को वर्षावास उदयपुर में किया ।
उदयपुर अपनी आन-बान-शान प्राकृतिक सौन्दर्य और अन्य अनेकों विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ जैनधर्मावलम्बियों की संख्या भी विपुल मात्रा में है । अपार जनमेदिनी के मध्य महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. जब प्रवचन फरमाती थीं तो ऐसा लगता था मानो मेघ अमृत वर्षा कर रहे हैं । भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी का दिन सद्गुरुवर्या श्री सोहन कुवर जी म. सा. की प्रथम पुण्य तिथि जपतप के साथ मनाई गई । पाँच सौ आयम्बिल तप एक साथ सम्पन्न हुए । इसी दिन गरीबों को भी भोजन करवाया गया। आपके सदुपदेशों से प्रभावित होकर संसारपक्षीय आपके मामा श्री कन्हैयालालजी सियाल एवं मामी श्रीमती चौथबाई की सुपुत्री सुश्री स्नेहलता कुमारी (वर्तमान में साध्वी दिव्यप्रभा) की वैराग्य भावना जागृत हुई।
प्रथम शिष्या की प्राप्ति-उदयपुर का यशस्वी वर्षावास समाप्त हुआ। वर्षावास समाप्ति के ठीक पश्चात् बगडुन्दा निवासी श्री गोपीलालजी छाजेड़ अपने गाँव में पधारने की विनती लेकर महा। सती श्री कुसुमवती जी म. सा. की सेवा में उपस्थित हुए। उनकी बहिन हीराकुमारी की वैराग्य भावना V/ थी और वे आपके गुणों से प्रभावित होकर आपके पास ही दीक्षा दिलाना चाहते थे। उसी उद्देश्य को
अपने मन में रखकर उन्होंने अपने क्षेत्र को स्पर्श कर पावन करने की अत्यधिक आग्रह भरी विनती की। उनके आग्रह को ध्यान में रखकर महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए बगडुन्दा पधारें।
आपके ज्ञानगर्भित प्रवचनों एवं संगीत की मधुर स्वर लहरी को सुनकर बगडुन्दा की जनता 3|| मन्त्रमुग्ध हो रही थी। प्रवचनों के मध्य जब आपके माताजी महाराज तथा आप स्वयं भजनों की
कड़ियाँ सस्वर गातीं तो ऐसा प्रतीत होता मानो कोकिलाएँ पंचम स्वर से गा रही हों। कुछ समय पश्चात् बगडुन्दा से विहार कर दिया। वैराग्यवती हीराकुमारी भी दीक्षा अंगीकार करने की भावना से आपके साथ थी । वर्षावास डूंगला सम्पन्न हुआ। नाथद्वारा श्री संघ को विदित हुआ कि महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. के माथ एक वैरागिन बहिन है और उसकी दीक्षा भी निकट भविष्य में ही होने वाली है। तो श्री संघ नाथद्वारा ने आपकी सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया-“महाराजश्री ! वैरागिन बहिन के दीक्षोत्सव के आयोजन का लाभ लेने का अवसर हमारे संघ को प्रदान करने की कृपा करें।" श्री संघ नाथद्वारा की इस भावभीनी विनती में विनम्रता के साथ आग्रह भी था । श्री संघ नाथद्वारा की विनती को ध्यान में रखकर महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दीक्षोत्सव के आयोजन की स्वीकृति मिल जाने से श्रीसंघ नाथद्वारा में हर्ष, उमंग और उत्साह का
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आश्चर्यजनक संचार हुआ और विक्रम संवत् २०२५ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को नाथद्वारा में भव्य समा- मन रोह के साथ विशाल मानवमेदिनी के मध्य आपने हीराकुमारी को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर उनका नया साध्वी नाम महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. रखा। दीक्षा के बत्तीस वर्ष बाद वे आपकी प्रथम शिष्या बनी।
अजमेर का यशस्वी चातुर्मास-दीक्षोपरान्त अपनी नवदीक्षिता साध्वी तथा माताजी महा० आदि सतियों के साथ विहार करते हुए महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा० ब्यावर पधारे । ब्यावर में श्री संघ अजमेर आपकी सेवा में वर्षावास की विनती लेकर उपस्थित हआ। अन्य स्थानों से भी वर्षावास की विनतियाँ समय-समय पर आ रही थीं। अजमेर श्री संघ की अत्यधिक आग्रह भरी विनती को देखते हुए आपने वि० सं० २०२६ के वर्षावास की स्वीकृति अजमेर श्री संघ को प्रदान कर दी।
__ माताजी महाराज श्री कैलाश वरजी म. सा०, महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. एवं महासती श्री चारित्रप्रभा जी म० सा० वर्षावास हेतु अजमेर पधारे। श्री संघ अजमेर द्वारा समारोह पूर्वक नगर प्रवेश करवाया गया और भव्य स्वागत सत्कार भी हुआ।
माताजी महाराज का स्वास्थ्य इस समय ठीक नहीं था, सती श्री चारित्रप्रभा जी म. सा० नवदीक्षिता थीं। ऐसे में महासती श्री कुसमवती जी म० सा० अकेले पड़ गये । चातुर्मास काल में वैसे । भी धार्मिक कार्यक्रम तथा तपाराधनाएँ आदि अधिक होती हैं। साथ ही प्रतिदिन प्रवचन भी फरमाना ।
दर्शनार्थियों की जिज्ञासा भी शान्त करना आदि और भी अनेक कार्य होते हैं। सारी परिस्थिति को देखते हुए अजमेर श्री संघ के लोगों के मानस में विचार उठ रहे थे कि अकेले महासती जी सब काम 6 कैसे संभालेंगे? यहाँ का श्री संघ भी बड़ा है। कैसे क्या होगा ? किन्तु ज्यों ही वर्षावास का प्रारम्भ He
हुआ । मेघ की धाराओं के साथ-साथ आपके प्रवचन की धारा भी कुछ इस प्रकार प्रवाहित हुई कि वहाँ 21|| का समाज देखता ही रह गया। सभी कार्य व्यवस्थित होते रहे । कहीं कुछ भी कमी नहीं रही। सभी के (B८ वाह-वाह करने लगे। रिकार्ड तोड़ तपस्याएँ हईं। एक साथ सात सौ सामूहिक तेले तथा एक साथ दो टूक
हजार सामूहिक दयाव्रत हुए। वर्षों में एक साथ दो-दो मासखमण का होना इस चातुर्मास की विशेष उपलब्धि थी। मासखमण तप श्रीमती नोरतबाई धर्मपत्नी श्री उदयलाल जी कोठारी एवं श्रीमान् ॥ श्रीलाल जी कावड़िया की धर्मपत्नी ने किया था । हर तरह से वर्षावास ऐतिहासिक एवं यशस्वी रहा।
चातुर्मास की समाप्ति के दिन अजमेर के प्रसिद्ध श्रावक कवि हृदय श्री जीतमल जी चोपड़ा KE ने भाव भरी कविता द्वारा विदाई देते हुए महासती जी से श्री संघ की ओर से आग्रह भरी विनती की । कि आप कहीं भी पधारें परन्तु वैरागिन स्नेहलता कुमारी की दीक्षा यहाँ के लिए फरमाने की कृपा र करें।
महासती श्री कुसमवतीजी म. सा. ने समायोचित उत्तर देते हए फरमाया-"अभी तो वैरागिन CH को आज्ञा भी प्राप्त नहीं हुई है, फिर अभी किस प्रकार आपको आश्वस्त किया जाये । हाँ आपकी विनती का हमारी झोली में है।"
गुरुदेव के सान्निध्य में पुनः अजमेर-वि० सं० २०३० का गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का चातुर्मास अजमेर हुआ। अजमेर श्री संघ के अत्यधिक आग्रह भरी विनती के कारण महासती श्री ॥ कुसुमवती जी म० सा० का चातुर्मास भी गुरुदेव श्री की सेवा में हुआ । छत्तीस वर्षों में यह प्रथम अवI सर था कि गुरुदेव श्री के सान्निध्य में चातुर्मास किया। १५२
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इस वर्षावास में आगम और उनके व्याख्या साहित्य तथा जन दार्शनिक ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करने का अवसर मिला। चातुर्मास के अन्त में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी वि. सं. २०३० के दिन आपकी ममेरी बहन वैराग्यवती सुश्री स्नेहलता सियाल एवं वैरागी भाई श्री चतरलाल मोदी की जैन भागवती दीक्षा हर्षोल्लासमय वातावरण में भव्य समारोह के साथ सम्पन्न हुई । विभिन्न वस्तुओं की बोलियों पर समाज के लिए लगभग पचास हजार रुपये की धनराशि एकत्र हुई। कुमारी स्नेहलता सियाल आपकी द्वितीय शिष्या बनी और दीक्षोपरांत नाम रखा साध्वी दिव्यप्रभा तथा श्री चतरलाल मोदी का श्री दिनेश मुनि नाम रखकर पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के शिष्य घोषित किया गया।
शिष्याओं के अध्ययन की व्यवस्था-महासती श्री कुसुमवती जी म० सा० का लक्ष्य प्रारम्भ से ही उच्चतम ज्ञान प्राप्ति का रहा। इस लक्ष्य का समुचित ध्यान तो आपने अपने लिए रखा ही, साथ ही आपने अपनी शिष्याओं को भी इसके लिए सदैव प्रेरित किया। आपकी यह मान्यता रही है कि पढ़ीलिखी साध्वियां जिनशासन की विशेष रूप से प्रभावना कर सकती हैं। आपने अपनी शिष्याओं के लिए संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी, साहित्य, व्याकरण, जैनागम एवं दर्शन के समुचित अध्ययन की मार व्यवस्था करवाई। इसके साथ ही माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर | तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की परीक्षाएँ भी दिलवायीं । साध्वियों के अध्ययन और परीक्षाओं के कारण आप लम्बे समय तक अजमेर तथा अजमेर के समीपवर्ती ग्राम-नगरों में ही विचरण करती रहीं। यह आपके ही सुप्रयासों का सुफल है कि आपकी सभी शिष्याएं तथा प्रशिष्याएँ सुशिक्षित कर तथा उच्च उपाधियों से विभूषित विदुषी हैं। आज भी ज्ञान के प्रति इनकी लगन एवं निष्ठा दर्शनीय
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चारित्र का प्रभाव-अपनी शिष्याओं के अध्ययन के निमित्त जिस समय आप अजमेर में विराज रही थीं, उस समय दिल्ली निवासिनी सरोज कुमारी लोढ़ा अपने किसी निजी कार्य से अजमेर एक आईं । सरोज कुमारी लोढ़ा अजमेर में आपके सम्पर्क में आई और आपके उच्च आचार-विचार-व्यवहार को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुई। अन्तर्मन में वैराग्य भावना तो पूर्व से ही थी। योग्य गुरुणी जी को पाकर सरोजकुमारी ने आपके सान्निध्य में ही रहने का निश्चय किया। कुछ समयोपरांत वैराग्य भावना परिपक्व होने पर फाल्गुन कृष्णा पंचमी, वि० सं० २०३२ के दिन सरोजकुमारी लोढ़ा ने आपके सान्निध्य में ब्यावर शहर में आर्हती दीक्षा ग्रहण की और दीक्षोपरांत साध्वी श्री दर्शनप्रभाजी म. सा. के नाम से अभिहित हुई।
माताजी महाराज की अस्वस्थता-निर्धारित समय पर साध्वी श्री दर्शनप्रभा जी म० सा० की बड़ी दीक्षा भी सम्पन्न हुई और फिर आपने अपने माताजी महाराज तथा शिष्याओं के साथ ब्यावर से अजमेर की ओर विहार कर दिया । ग्राम खरवा में ठहरे हुए थे कि वहाँ अचानक माताजी म. श्री कैलाश
कुंवर जी म. सा. अस्वस्थ हो गई । हृदय रोगी तो पूर्व से ही थीं। साथ ही अन्य और भी कई व्याधियों ₹ ने अचानक घेर लिया। डॉक्टर को बुलवाया गया । उपचार प्रारम्भ हुआ किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।
महासती श्री कुसुमवती जी महाराज ने बहुत सेवा की। श्री संघ खरवा ने अपनी सामर्थ्य से भी अधिक जितनी भी हो सकती थी, सेवा को। यहाँ एक दिन ठहरने की भावना थी किन्तु एक माह
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व्यतीत हो गया । उपचार बराबर चलता रहा किन्तु स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ, वरन् स्वास्थ्य दिन पर दिन और अधिक बिगडता गया। माताजी महाराज की अस्वस्थता के समाचार आसपास के ग्राम-नगरों तक भी पहुँच चुके थे। इसके परिणामस्वरूप अनेक श्रद्धालु भक्त स्वास्थ्य पृच्छा एवं दर्शनार्थ भी आने लगे थे । कई लोगों ने ब्यावर-अजमेर ले जाने का भो आग्रह भरा अनुरोध किया था किन्तु उस समय ऐसी स्थिति नहीं थी। जब स्वास्थ्य सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दिये तब श्री संघ ने आग्रह भरी विनती की कि आप अजमेर पधारें । अजमेर में सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहाँ समुचित । उपचार सम्भव है । अन्ततः माताजी महाराज को अजमेर ले जाया गया।
माताजी महाराज का वियोग-अजमेर पधारने के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि माताजी महाराज का उपचार चिकित्सालय में ही करवाया जाये। लेकिन रात्रि में व्याधि अधिक बढ़ गई। चिकित्सालय ले जाना स्थगित कर दिया गया। उस दिन संवत् २०३३ चैत्र शुक्ला सप्तमी को आयम्बिल ओली का प्रारम्भिक दिवस था। पांडाल में ढाई सौ तीन सौ आयम्बिल हो रहे थे। दोपहर के समय संलेखना-संथारापूर्वक माताजी महाराज अपनी पार्थिव देह का त्याग कर अनन्त की यात्रा के महायात्री बन गये । उनके देहावसान से सर्वत्र शोक छा गया ।
काल की महिमा अगम्य है। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ है, उसको कोई नहीं जान । सकता । मृत्यु के समक्ष, तीर्थकर, चक्रवर्ती, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, राजा और रंक किसी भी प्राणी का एक कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। माताजी महाराज के स्वर्गवास से सभी को बहुत दुःख हुआ। महासती श्री कुसूमवतीजी म. सा. को गहरा आघात लगा। जन्म से लेकर इतने लम्बे समय तक वे छाया की तरह आपके साथ रहे। माता का अपनी सन्तान के प्रति स्नेह तो होता ही है लेकिन माताजी महाराज का स्नेह असीम था । वे वत्सलता को साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं। स्वयं के पहाड़ सदृश दुःख को भी वे परवाह नहीं करती थीं लेकिन आपकी स्वल्प-सी रुग्णता भी उन्हें अत्यधिक चिन्तित, बेचैन और व्यथित कर देती थी। माताजी म. से आपको माता की ममता और पिता का स्नेह दोनों ही मिले थे । इसलिए ऐसे माताजी म. के वियोग पर गहरा दुःख होना स्वाभाविक ही है।
स्मृतियाँ और स्मृतियाँ-आपने अपने माताजी महाराज के नेतृत्व में रहकर ही इतना ज्ञानाभ्यास किया और जिनशासन को ज्योति बन सकीं। माताजी महाराज ने आपके जीवन विकास में, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, स्वाध्याय-प्रवचन में सक्रिय सहयोग दिया था । वात्सल्यमूर्ति माताजी महाराज के कारण आपको ज्ञान साधना के लिए पूरा-पूरा समय मिल जाया करता था। गोचरी लाना, पानी लाना (आहार-पानी लाना), पात्रे साफ करना, कपड़े धोना, सिलाई करना आदि सभी कार्य वे कर लेते थे । जब कभी आप करने लगते तो वे कहते-"नहीं, रहने दो। तुम तो ज्ञान-ध्यान की ओर ध्यान दो, वही करो। ये कार्य मैं कर लूंगी।" माताजी महाराज का उद्देश्य यही था कि ज्ञानार्जन करके ये जैनधर्म का प्रचार और प्रसार करें, जिनशासन की प्रभाविका बनें। न केवल अपनी पुत्री के लिए वरन् अन्य सभी साध्वियों के पठन-पाठन में भी उन्होंने पूर्ण सहयोग प्रदान किया था। संसार पक्ष में वे मेरी बुआ सा. थे। मेरे अध्ययन में भी उनका भरपूर सहयोग रहा।
माताजी महाराज में सेवा भावना एवं विनय बहुत अधिक था । छोटे-बड़े अनेक साधु-साध्वियों की उन्होंने सेवा की थी। सेवा के अतिरिक्त वे ज्ञानाभ्यास भी करते थे। अनेक शास्त्र, थोक्डे आदि
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उनको कण्ठस्थ थे । प्रवचन एवं चौपाई भी फरमाते थे । जप- साधना में उन्हें विशेष रूप से अधिक रुचि थी । आगम- स्वाध्याय वे हमेशा करते रहते थे। एक क्षण भी वे व्यर्थ खोना नहीं चाहते थे । चालीस वर्षों की सुदीर्घ अवधि पर्यन्त संयम का पालन किया । संयमोचित क्रिया-साधना के प्रति वे सतत सावधान रहते थे । उनका हृदय निष्कपट था । चित्त सरल था । वे मित एवं मृदुभाषी थे । प्रकृति से भद्र थे ।
ऐसी ममतामयी, संयमयात्रा में सहयोगी माता जी महाराज के वियोग से व्यथित होना स्वाभाविक ही था । परन्तु भेद - विज्ञान की ज्ञाता महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. ने धैर्य से काम लिया । वियोग की असह्य व्यथा को समभाव से सहन किया । सोचा - आत्मा तो ध्रुव है, नित्य है, उसकी कभी मृत्यु नहीं होती । शरीर अस्थायी है, नश्वर है, वह आत्मा का अपना नहीं होता है । अतः शरीर के नष्ट होने पर कैसा शोक, कैसा मोह ? फिर जिसने जन्म लिया है उसको एक न एक दिन मरना ही पड़ता है, यह संसार का ध्रुव सत्य है । फिर शोक करके, मोह में पड़कर कर्मों का बन्धन क्यों बाँधा जाय । ऐसा विचार कर सन्तोष धारण किया । अब तो माताजी महाराज की केवल स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ थीं । जो कुछ भी ग्रहण करना है, उनसे किया जाय ।
अजमेर से बिहार - दीक्षा से लगाकर मृत्यु पर्यन्त चालीस वर्ष तक माताजी महाराज साथ थे । अब उनके स्वर्गवास के पश्चात अपनी शिष्याओं सती श्री चारित्रप्रभा म, सती श्री दिव्यप्रभाजी म. एवं सती श्री दर्शनप्रभाजी म. के साथ अजमेर से विहार कर दिया । ग्रामानुग्राम धर्म प्रचार करते हुए आपने वि. सं. २०३३ का वर्षावास केकड़ी में किया ।
वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् अपनी शिष्याओं के अध्ययन एवं परीक्षा के लिए आप राजस्थान की राजधानी, पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र गुलाबी नगर जयपुर पधारीं । कुछ अपरिहार्य कारणों से परीक्षाओं की तिथि कुछ आगे बढ़ा दी गई थी । इस कारण लम्बे समय तक आपको जयपुर में ठहरना
पड़ा ।
वर्षावास दिल्ली - जब आप जयपुर में विराज रहे थे, तब विभिन्न स्थानों से आपकी सेवा में वर्षावास हेतु बराबर विनतियाँ आ रही थीं । इनमें श्रीसंघ दिल्ली, जयपुर और अलवर का आग्रह अधिक था । उन तीनों में भी श्रीसंघ दिल्ली का अत्यधिक आग्रह था । देश, काल, परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आपने दिल्ली श्रीसंघ को वि. सं. २०३४ के वर्षावास की स्वीकृति प्रदान कर दी । समय कम था और जयपुर से दिल्ली पहुँचना था । परीक्षाएँ समाप्त हुईं तब वर्षावास प्रारम्भ होने में एक माह शेष था । इसीलिए जैसे ही परीक्षाएँ समाप्त हुईं वैसे ही आपने अपनी शिष्याओं के साथ दिल्ली की ओर विहार कर दिया । भीषण गर्मी में लम्बे-लम्बे विहार । मार्ग भी निरापद नहीं था । कहीं बीहड़ की कठिनाई तो कहीं जैन साधुओं एवं उनकी परम्पराओं से सर्वथा अपरिचित लोग, सभी प्रकार की विघ्नबाघाओं को सहन करके २०-२२ दिन में आप दिल्ली जा पहुँचीं । दिल्ली आगमन पर दिल्ली के निवासियों ने आपका भव्य स्वागत किया और समारोहपूर्वक नगर प्रवेश करवाया ।
वर्षावास के लिए दिल्ली के चाँदनी चौक क्ष ेत्र में पदार्पण हुआ । चाँदनी चौक के स्थानक बारादरी (महावीर भवन) में आपके ओजस्वी प्रवचनों की जो धारा प्रवाहित हुई, उससे वहाँ का जनमानस अत्यधिक प्रभावित हुआ । तपश्चर्यायें भी बहुत हुईं। अनेक वर्षों के पश्चात् इस चातुर्मास में द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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श्रीमती उषाजी धर्मपत्नी श्री इन्दरचन्दजी चौरडिया ने मासखमण की उग्र तपस्या की। तपस्या के साथ Kा जो आडम्बर होता था, उसका आपने बहुत विरोध किया । फलस्वरूप इस चातुर्मास में तपस्या पर आड
| म्बर बाजे-गाजे आदि बन्द हो गए। STS बाढ़ पीड़ितों की सहायता- इस वर्ष वर्षाकाल में अत्यधिक वर्षा हुई। जिसके परिणामस्वरूप.
नदियाँ और नालों में भीषण बाढ़ आई और इस बाढ़ ने अपना ताण्डव दिखाया। अनेक स्थानों पर घर मकान ढह गये । लोग बेघर हो गये । अनेक स्त्री और पुरुष तथा बच्चे बाढ़ से घिर गये थे । दया की। मूर्ति, करुणा की सागर महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने जब बाढ़ के प्रकोप का विवरण सुना तो उनका हृदय चीत्कार कर उठा । अब आपके प्रवचनों की धारा का प्रवाह बदल गया। अपने प्रवचनों में बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिये आप बहुत जोर देने लगीं। इसका परिणाम भी सामने आया।
आपके उपदेशों से प्रेरित होकर दानदाताओं ने मुक्त हृदय से दान दिया और एकत्रित धनराशि बाढ़अशा पीड़ितों के सहायतार्थ भेज दी गई। चांदनी चौक दिल्ली का वषावास हर्ष, उमंग और उत्साह के साथ | सानन्द सम्पन्न हआ। वर्षावास के पश्चात चाँदनी चौक दिल्ली में ही आपके सान्निध्य में जयपर निवासिनी वैराग्यवती कुमारी सविता को आहती दीक्षा प्रदान कर साध्वी विनयप्रभा नाम रखा।
- वर्षावास के पश्चात दिल्ली के उपनगरों में विचरण किया । उपनगरों में भी आपके प्रवचनों (EMI का अच्छा प्रभाव रहा। इसी बीच वीर नगर दिल्ली के श्रीसंघ ने आगामी वर्षावास के लिये विनयपुवक
आग्रह कियः । आपका विचार तो अब पुनः राजस्थान की ओर विहार करने का था किन्तु वीर नगर
वालों की विनती अत्यधिक आग्रह-भरी थी और आप उन्हें इन्कार नहीं कर सकी और वि. सं. २०३५ हा के वर्षावास के लिए वीर नगर वालों को स्वीकृति प्रदान कर दी। चातुर्मास निश्चित हो चुका था।
शेष काल में दिल्ली में वि वरते हुए उत्तर प्रदेश की ओर विहार कर दिया। उत्तर प्रदेश के बड़ौत, काँधला, मेरठ, गाजियाबाद आदि अनेक छोटे-बड़े क्षेत्रों को अपनी पावन चरण रज से पावन किया और
धर्म की गंगा प्रवाहित की। आपके सदुपदेशों से प्रतिबोध पाकर मेरठ निवासी गीता कुमारी के हृदय में (ER) वैराग्य भावना जागृत हुई । वह भी आपके साथ-साथ विहार करती हुई दिल्ली आई।
वि. सं. २०३५ का आपका वर्षावास वीर नगर, दिल्ली में हुआ। वीर नगर जैन कालोनी है। वहाँ सभी जैन धर्मावलम्बी रहते हैं। वे सब पंजाबी हैं। पंजाबी जैन लोगों में धर्म की भावना बहत अधिक थी। प्रवचन में प्रतिदिन अच्छी उपस्थिति रहती थी। तपश्चर्यायें भी प्रचुर मात्रा में हुई। स्थानीय संघ ने स्वागत व विदाई का विराट आयोजन किया। वर्षावास की अवधि में पंजाब के विभिन्न
क्षेत्रों के श्रीसंघ भी उपस्थित हए । सभी ने पंजाब की ओर पधारकर अपने-अपने क्षेत्रों को पावन करने 1 का आग्रह किया। यद्यपि आपकी भावना तो राजस्थान की ओर जाने की थी, किंतु पंजाब के लोगों की
धार्मिक भावना, विनयशीलता और आग्रह को देखकर वर्षावास के पश्चात् पंजाब की ओर विहार करने का आपका मानस बन गया।
पंजाब की ओर-वीर नगर, दिल्ली का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न कर आपने दिल्ली से पंजाब की ओर विहार कर दिया। विहार करते हुए आप सोनीपत पधारे । उस समय वहाँ शासन प्रभावक श्री । सुदर्शन मुनिजी म. सा. विराज रहे थे। उनके सान्निध्य में दो वैरागी भाइयों C वाली थी। इसके पूर्व भी कांधला में श्री सुदर्शन मुनिजी म. सा. के दर्शन हो चुके थे और परिचय भी हो
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गया था। श्री संघ ने आपकी सेवा में दीक्षा तक ठहरने की आग्रह भरी विनती की। श्री संघ सोनीपत के आग्रह को स्वीकार करते हुए आप अपनी शिष्याओं सहित दीक्षा तक वहीं ठहरे और दीक्षोपरांत आपने सोनीपत से विहार कर दिया।
पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, अम्बाला आदि छोटे-बड़े ग्राम-नगरों में जिनवाणी और जैनधर्म का प्रचार करते हुए आप पंजाब की राजधानी चण्डीगढ़ पधारे । चण्डीगढ़ आधुनिक तरीके से बसा हुआ एक सुन्दर नगर है। पंजाब के साथ ही हरियाणा की भी यह राजधानी है। नगर विभिन्न सेक्टरों में बसा हुआ है जो दूर-दूर हैं । इस कारण चण्डीगढ़ में प्रतिदिन प्रवचन नहीं हो सके । यहाँ प्रवचन रविवार को ही होता था। जब कभी यहाँ साधु-साध्वियों का पदार्पण होता है तो श्री संघ के सदस्यों को साधुसाध्वियों के पधारने की एवं प्रवचन की सूचना अध्यक्ष या मन्त्री द्वारा पत्र से दी जाती है।
ANSAXEORN
महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. का चण्डीगढ़ में रविवार के दिन प्रथम प्रवचन हुआ। आपके सारगर्भित और सटीक प्रवचन से वहाँ के लोग अत्यधिक प्रभावित हए। उन्होंने अगले रविवार को प्रवचन फरमाने की आग्रह भरी विनती की। श्री संघ की विनती स्वीकार कर मात्र एक दिन के प्रवचन के लिए आपको एक सप्ताह तक रुकना पड़ा। एक सप्ताह तक रुकना बड़ा कठिन था, किन्तु लोगों का आग्रह एवं भावना आदि को देखकर विषम परिस्थिति होने पर भी रुकना पड़ता है । फिर इस ओर जैन साधु-साध्वियों का आगमन कम ही हो पाता था। इस कारण जिनवाणी का पान करने वाले तषितों की प्यास बुझ नहीं पाती थी। आप रुकों और अगले रविवार को ज्ञानभित प्रवचन फरमाकर श्रोताओं को तृप्त किया।
सन्त समागम-चण्डीगढ़ से विहार कर दिया। मार्ग में एक छोटा गांव करौली पड़ता है । करौली पहुँचने पर भण्डारी पदमचन्दजी म. सा., हरियाणा केशरी श्री अमरमुनिजी म. सा. आदि सन्त रत्नों के दर्शन और प्रवचन श्रवण आदि का लाभ मिला। करौली से विहार कर रोपड़ पहुँची । यहाँ शशिकांताजी महाराज, विदुषी श्री सरिताजी म. आदि से मिलना हुआ। इससे पूर्व चण्डोगढ़ आते हुए सरहिन्द गाँव में महासती श्री स्वर्णकांताजी म. सा. से मिलना हुआ था। सभी साधु-साध्वियांजी महाराज का अत्यधिक स्नेह मिला। होशियारपुर पहुँचने पर महासती श्री सावित्रीजी म. सा. एवं महासती श्री बाल शिमलाजी म. सा. ने आपका भावभीना स्थागत किया। यहाँ महावीर जयन्ती धूमधाम से मनाई गई। यहां से विहार कर जब आप मुकेरिया पधारी तो यहाँ श्री सघ जम्मू आपकी सेवा में चातुर्मास की विनती लेकर उपस्थित हुआ। श्रीसंघ की आग्रह भरी विनती को देखकर आपने जम्मू में वर्षावास करने की स्वीकृति प्रदान कर दी । और इसके साथ ही आपके कदम जम्मू की ओर बढ़ चले।
काश्मीर की ओर-चातुर्मास प्रारम्भ होने में अभी दो माह के लगभग दिन शेष थे । इस र अवधि में आपने काश्मीर में धर्म प्रचार करने का विचार किया। विचार दृढ़ हआ और उसके साथ ही विहार भी हो गया। छोटे-बड़े ग्राम-नगरों को अपनी पीयूष वर्षी वाणी से आप्लावित करते हुए, आप काश्मीर की राजधानी श्रीनगर पधारी। आपके साथ आपकी शिष्यायें भी थीं। श्रीनगर में आपका भावभीना स्वागत हुआ । जम्मू से श्रीनगर तक का मार्ग विकट भी है और मार्ग में अधिकांश अजैन क्षेत्र हैं और ये लोग विशेष रूप से सामिषभोजी हैं। उधर के ब्राह्मण जिन्हें काश्मीरी पण्डित कहते हैं, वे भी मांस का सेवन करते हैं। महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. जिस ग्राम में भी पधारी आपने वहाँ के
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निवासियों को मांसाहार को अभक्ष्य प्रमाणित कर उसका त्याग करने के लिए प्ररणा प्रदान की। बहुत-सी महिलाओं को आपने नियम भी करवाये कि आप अपने घर में/रसोईघर में मांस नहीं पकाओगी। उन लोगों में आपने जैनधर्म की शिक्षाओं का भी प्रचार किया। आपने उन लोगों को नमस्कार महामन्त्र का महत्व और उसका अद्भुत प्रभाव भी बताया। इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक स्त्री-पुरुष और बच्चों ने श्रद्धा से नमस्कार महामन्त्र को कंठस्थ किया। आपने लोगों को नमस्कार महामन्त्र के नित्य स्मरण से होने वाले विशिष्ट लाभों को भी बताया।
श्रीनगर प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से जहाँ एक ओर भारत का स्वर्ग है, वहीं दूसरी ओर का पशुओं का मांस लटकने के कारण वीभत्स बना हुआ नरक भी लगता है। यहाँ पशुओं का वध कर उनका मांस खुलेआम बाजारों में बिक्री के लिए लटका दिया जाता है। श्रीनगर में श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी आदि सब मिलाकर जैन मतावलम्बियों के कुल २०-२५ घर हैं। महासतो श्री कुसमवतीजी म. सा. ने इन सभी को साम्प्रदायिक भेद भुलाकर संगठित रूप से एक होकर रहने का उपदेश दिया । आपके प्रवचनों का यहाँ भी अच्छा प्रभाव रहा।
उग्र विहार और अवरोध-जम्मू से विहार कर आप अपनी शिष्याओं के साथ पन्द्रह दिन में 2 श्रीनगर पहुंची थी। दस दिन तक श्रीनगर में ठहरकर आपने जैनधर्म की प्रभावना की। इसके । पश्चात् श्रीनगर से लम्बे-लम्बे विहार कर वर्षावास हेतु आप पन्द्रह दिन में जम्मू पधारी। बीस पच्चीस किलोमीटर का विहार तो आपका प्रायः होता ही था किन्तु एक बार इकत्तीस और एक बार छत्तीस 1 किलोमीटर का विहार किया। उधर मौसम की अनिश्चितता रहती है। कभी वर्षा रोक देती, तो । कभी पहाड़ों पर पड़ी बर्फ ठिठुरा देती अ
र पडी बर्फ ठिठरा देती और मार्ग अवरुद्ध कर देती। जब मार्ग ही बन्द है तो फिर
कस प्रकार सम्भव होता। इसी प्रकार की अनेक कठिनाइयों का सामना करते हए वि. सं. ॥ २०३७ के वर्षावास हेतु जम्मू नगर में आपका पदार्पण हुआ।
वर्षावास जम्मू-जम्मू आगमन पर श्रीसंघ जम्मू ने आपका भावभीना स्वागत किया और टूर Co समारोहपूर्वक नगर प्रवेश करवाया। जम्म महिला संघ की सेक्रेटरी श्रीमती कलावतीजी ने आपका
स्वागत करते हुए कहा-"हमें तो विश्वास ही नहीं था कि आप वहाँ तक पधारकर वापस यहाँ पधार ' जावेगी। क्योंकि इतने कम समय में तीन सौ कि० मी० जाना और वापस आना और उस पर मार्ग
की अनेक बाधायें और असुविधायें, यह सब अति दुष्कर कार्य था। किन्तु आपने जैसा, सोचा वैसा । A कर दिखाया । वास्तव में आप मेवाडसिंहनी हैं। आप जैसी दृढ इच्छा शक्ति वाली साधिका के ही सामर्थ्य का यह कार्य है।"
सम्पूर्ण चातुर्मास काल विभिन्न धर्माराधनाओं में व्यतीत हुआ और इस प्रकार यह ऐतिहासिक चातुर्मास सानन्द उल्लासमय वातावरण में समाप्त हुआ।
विहार और पुनः सन्त-मिलन-चातुर्मास समाप्त होते ही आपने अपनी शिष्याओं के साथ र विहार कर दिया । अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना आदि पंजाब के प्रमुख बड़े-बड़े क्षेत्रों को पावन किया । मार्ग में आने वाले छोटे-छोटे गाँवों में भी धर्म-ध्यान का उपदेश फरमाया ।।
लुधियाना में शान्त-दांत, गुण-गम्भीर, उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्दजी म. सा., कविचक्र चूड़ामणि श्री चन्दनमुनिजी म. सा. आदि मुनिवृन्द एवं साध्वीप्रमुखा महासती श्री लज्जावतीजी म. सा., महासती श्री अभयकुमारी जी म. सा. आदि साध्वी वृन्द के दर्शन हुए। मिलन हुआ। पण्डितरत्न श्री
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1. फूलचन्द जी म. सा. और महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. के मध्य शास्त्रीय चर्चा हुई, अनेक गहन
ला प्रश्न हुए, जिनके आपने सटीक उत्तर दिये। साध्वीवृन्द का मिलन बहुत ही मधुर रहा। मुनिवृन्द और 2. साध्वीवृन्द के साथ आपके ओजस्वी प्रवचन भी हुए।
लुधियाना से बिहार कर अम्बाला, करनाल, पानीपत होते हुए आप उत्तरप्रदेश के कांधला क्षेत्र में पधारे । कांधला पूज्य श्री काशीरामजी महाराज आदि बड़े-बड़े सन्तों की दीक्षा भूमि रही है। कांधला के निवासी बहत ही श्रद्धालु और धर्मनिष्ठ हैं। श्री संघ कांधला ने वैरागिनों की दीक्षा की । विनती की। उनकी अनुरोध भरी विनम्र विनती को मान देते हुए महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने स्वीकृति फरमा दी । बड़े उत्साह के साथ दीक्षा की तैयारियां आरम्भ हो गयीं। दीक्षा के प्रसंग पर मेरठ में विराजित उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री शांतिमुनि जी म० सा० को आमन्त्रित किया गया। अस्वस्थ होने के कारण वे पधारने में असमर्थ थे उन्होंने अपने शिष्य तपस्वीरत्न श्री सुमति प्रकाशजी म.सा., श्री विशाल मुनिजी म. सा. आदि मुनिराजों को भेजा, जिससे दीक्षोत्सव में चार चाँद लग गए। 10
दीक्षा के दिन हाथी, घोड़े, रथ, पदाति एवं सुन्दर-सुन्दर झाँकियां से युक्त जुलूस बहुत लम्बा था। सबसे अन्त में हाथी पर सवार वैरागिन बहिनें थीं। जुलूस का स्थान-स्थान पर जलपान, शरबत आदि से स्वागत किया गया था। सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जैन मतावलम्बियों के अतिरिक्त बिना किसी भेदभाव के अजैन मतावलम्बी भी जलपानादि से स्वागत कर रहे थे। दीक्षा-स्थल पर अपार जनमेदिनी के बीच वैरागिनों को तपस्वीरत्न मुनिश्री सुमतिप्रकाश जी म० सा० ने दीक्षा मन्त्र प्रदान किया। मेरठ निवासिनी वैरागिन गीताकुमारी का नाम साध्वीश्री गरिमाजी म. सा. तथा जम्मू | निवासिनी वैरागिन शान्ताकुमारी का नाम साध्वी श्री रुचिकाजी म. सा. रखा। साध्वी श्री गरिमाजी म. सा. आपकी तृतीय शिष्या बनीं। साध्वी श्री रुचिकाजी म. सा. को महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. सा. की शिष्या घोषित किया गया।
राजस्थान में-दीक्षा के पश्चात् आप अपनी शिष्यामण्डली के साथ मेरठ, दिल्ली होते हुए राजस्थान पधारे। श्रीसंघ अलवर वर्षों से अपने यहाँ चातुर्मास करने के लिए विनती करता आ रहा है था। अलवर श्रीसंघ की आग्रह भरी विनती महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. के ध्यान में थी और उनकी इस बार की विनती को मान प्रदान करते हुए वि. सं. २०३७ के चातुर्मास के लिए अलवर श्रीसंघ को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। चातुर्मासार्थ अलवर पधारने पर अलवर की धर्मप्राण जनता ने आपका तथा आपकी शिष्याओं का हार्दिक स्वागत किया।
___ चातुर्मास काल में धर्म की गंगा प्रवाहित हुई। श्रीसंघ में एक समान उत्साह बराबर बनाए रहा । विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ उल्लासमय वातावरण में चातुर्मास समाप्त हुआ।
मातृभूमि में- चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् अलवर की धर्मप्रिय जनता ने अश्रुपूरित नेत्रों से आपको विदाई दी। अलवर से विहार कर विभिन्न ग्राम-नगरों को पावन करते हुए दी पश्चात् आपका अपनी जन्मभूमि झीलों की नगरी, पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र उदयपुर में चातु
सार्थ पदार्पण हुआ। संवत् २०२४ के वर्षावास के पश्चात् चौदह वर्ष से आपका उदयपृर पदार्पण हुआ था। राम के चौदह वर्ष वनवास के पश्चात् अयोध्या आगमन पर ज्यों अयोध्यावासियों को अपार प्रसन्नता हुई इसी प्रकार आपके पदार्पण से उदयपुरवासियों को भी बहुत प्रसन्नता हुई। आपके आगमन पर उदयपुर श्रीसंघ ने आपका और आपकी शिष्या-प्रशिष्याओं का भव्य स्वागत किया द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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और समारोह के साथ आपका नगर प्रवेश करवाया। इस वर्ष यानी वि. सं. २०३८ में आचार्यश्री
नानालालजी महाराज सा. का चातुर्मास भी उदयपुर में ही था। दूसरी ओर आपका था। आपके का व इधर भी लोगों में बहुत उत्साह था, प्रवचनों में उपस्थिति अच्छी रहती थी।
उपाधि से विभूषित-आपका आध्यात्मिक जीवन प्रेरणा का केन्द्र बन चुका था। आपके आध्यात्मिक जीवन से प्रभावित होकर उदयपुर श्रीसंघ की ओर से माननीय श्रीमान कन्हैयालाल जी नागौरी ने आपको 'अध्यात्मयोगिनी' की उपाधि से विभूषित किया।
विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ उदयपुर का यह चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ।
___ गुरुदेव की सेवा में-सुदीर्घकाल से आपने गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी म. सा. के दर्शन नहीं कर SIR किये थे। गुरुदेव के दर्शनों की आपकी अभिलाषा बलवती हो रही थी । इन दिनों गुरुदेव श्री पुष्कर | मुनिजी म. सा. अपनी शिष्यमण्डली के साथ राखी वर्षावास सम्पन्न कर पाली मारवाड़ विराज रहे ।
। गुरुदर्शन की तीव्र अभिलाषा लिए आपने अपनी शिष्याओं के साथ पाली की ओर विहार कर - दिया । गुरुदेव के दर्शन लम्बे समय से न होने का कारण यह था कि गुरुदेव दक्षिण भारत में विचरण | करते हुए धर्म प्रचार कर रहे थे और आप उत्तर भारत में विचरण कर रही थीं।
महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. अपनी शिष्याओं और प्रशिष्याओं के साथ पाली पहुँची, गुरुदेव के दर्शन कर अपार प्रसन्नता का अनुभव किया। कुछ दिन गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर फिर विहार कर दिया।
'प्रवचनभूषण' से विभूषित-वि. सं. २०३६ का आपका चातुर्मास ब्यावर श्रीसंघ के आग्रह से ब्यावर में हुआ। श्रीसंघ ब्यावर में अच्छी धार्मिक जागृति है। उत्साह भी पूरे चातुर्मास काल में अच्छा रहा। ब्यावर को धर्मनगरी भी कहा जाता है। यहाँ तपस्याएँ भी बहुत रहीं और प्रवचनों की भी खूब धूम रही। आपके ओजस्वी, ज्ञानभित, प्रभावोत्पादक प्रवचनों से प्रभावित होकर श्रीसंघ ब्यावर ने आपको 'प्रवचनभूषण' उपाधि से विभूषित किया।
आपके साधनामय जीवन एवं वैराग्योत्पादक उपदेशों से प्रभावित होकर ब्यावर में रह रहे जामोला निवासी श्री नोरतनमल जी बोहरा की पुत्रियाँ कुमारी शकुन और कुमारी शान्ता के हृदय में वैराग्य भावना जागृत हुई। आगम रहस्य समझने का अवसर
वि. सं. २०४० में आपका चातुर्मास गुरुदेव श्री की सेवा में मदनगंज में हुआ। इस चातुर्मास में गुरुदेव से आगम के रहस्यों को समझने-समझाने का विशेष अवसर प्राप्त हआ। ज्ञानाराधना की दृष्टि से यह चातुर्मास विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। दीक्षा और विहार
चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् श्रीसंघ किशनगढ़ के विशेष आग्रह से व्यावर. निवासी वैरागिन Cil बहिन शकुन कुमारी का वैराग्य परिपक्व होने पर भागवती दीक्षा सोत्साह सम्पन्न हुई। नाम साध्वी श्री
( अनुपमा म० रखा गया। बहुत समय से किशनगढ़ में कोई दीक्षा नहीं हुई थी। इस कारण इस दीक्षो| त्सव में अत्यधिक उत्साह था। संत-सतियां भी इस अवसर पर विशेष रूप से पधारे थे। जिससे समाB. रोह की शोभा द्विगुणित हो गई थी। दीक्षा प्रदान करने के पश्चात् गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी म. सा.
आदि समस्त संत रत्नों ने दिल्ली की ओर विहार किया और महासती श्री कुसूमवती जी म. सा. ने अजमेर की ओर।
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वर्षावास मेड़ता शहर
वि.सं. २००१ का आपका चातुर्मास मेड़ता शहर में हुआ। मेड़ता अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघनजी की साधनाभूमि है तो भक्तिमती मीराबाई की जन्मभूमि भी है । चार माह तक मेड़ता में आपकी प्रवचन गंगा प्रवाहित होती रही और जिनवाणी की प्रभावना होती रही। आपके प्रवचनों से मेड़ता की जनता मन्त्रमुग्ध हो गई । घर-घर में आपके प्रवचनों की. विषय प्रतिपादन की प्रशंसात्मक चर्चा होती रही । चातुर्मास समाप्त होने पर आपने अपनी शिष्याओं / प्रशिष्याओं के साथ मेड़ता शहर से विहार कर दिया ।
शेष काल में ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, जैनधर्म की ध्वजा फहराती रहीं और गुरुगच्छ का नाम उज्ज्वल करती रहीं । श्रीसंघ जयपुर के आग्रह से वि. सं. २०४२ के चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान की। वर्षावास जयपुर
विहार क्रम में आपका पदार्पण पूर्व में जयपुर हो चुका था । अपनी शिष्याओं की शिक्षा के निमित्त दीर्घकाल तक यहाँ स्थिरता भी रहो थी, किन्तु अभी तक यहाँ चातुर्मास नहीं किया था । वि. सं. २०४२ का चातुर्मास जयपुर में प्रथम बार ही हो रहा था । जयपुर राजस्थान को राजधानी है और सर्वत्र गुलाबी नगर के नाम से विख्यात है। जयपुर नगर की स्थापना महाराजा सवाई जयसिंह ने सन् १७२८ में की थी । अनेक यूरोपीय नगरों के नक्शों का अध्ययन करवाने के पश्चात् इस नगर की बसावट की योजना को स्वीकृत कर मूर्त रूप प्रदान किया गया था। यह नगर चारों ओर से लगभग २० फीट ऊँचे और ६ फीट चौड़े परकोटे से घिरा हुआ है, जिसके एक समान आठ प्रवेश द्वार हैं । इस नगर में अनेक ऐतिहासिक महत्व के दर्शनीय स्थल भी हैं, जो पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र हैं । आमेर का सुप्रसिद्ध किला यहाँ से उत्तर-पूर्व में आठ-नौ किलोमीटर है। यह जयपुर रियासत की राजधानी था । जयगढ़ का सुप्रसिद्ध किला भी यहीं है ।
इस चातुर्मास में मासखमण अठाइयाँ आदि अनेक तपस्याएँ हुईं । सकारण सन्तरत्न भी यहाँ विराजमान थे । प्रतिदिन लाल भवन में साथ-साथ ही प्रवचन होते थे । परस्पर अच्छा स्नेहभाव रहा । सम्पूर्ण चातुर्मास काल में जयपुर की धर्मप्रेमी जनता में उल्लेखनीय धार्मिक उत्साह बना रहा। धर्मध्यान के मामले में जयपुर का श्रावक-श्राविका वर्ग वैसे भी सदैव अग्रणी रहता है । पूर्ण हर्षोल्लासमय वातावरण में यह चातुर्मास समाप्त हुआ । चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् जयपुर से विहार हो गया । गुरुदेव के सान्निध्य में - वि. सं. २०४३ का वर्षावास पाली में गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनि की म० सा० के पावन सान्निध्य में हुआ । इस चातुर्मास में ब्यावर निवासी वैरागिन शांताकुमारी की दीक्षा सम्पन्न हुई और साध्वी निरूपमा नाम रखा । स्मरण रहे वि. सं. २०४० में किशनगढ़ में इनकी संसारपक्षीय बहिन ने भी संयम व्रत अंगीकार किया था। जो वर्तमान में साध्वी श्री अनुपमाजी म. सा. के नाम से विद्यमान हैं ।
अमरगच्छ की वर्तमान साध्वी- समुदाय में माता, पुत्री, भुआ, भतीजी आदि तो कई हैं किन्तु सहोदरा बहिनों की यह प्रथम जोड़ी है ।
मेवाड़ में
इस चातुर्मास में सभी सतियाँ जी को अध्ययन का अच्छा सुअवसर प्राप्त हुआ । चातुर्मास समाप्त होने पर महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने अपने धर्म परिवार के साथ गढ़सिवाना, समदड़ी, जालोर, फालना, सादड़ी आदि क्षेत्रों में धर्म प्रचारार्थ भ्रमण किया। उधर धर्मध्वजा फहराकर आपका
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पदार्पण पुनः मेवाड़ में हो गया । मेवाड़ में पहुँचते हो मेवाड़ की धर्मप्रेमी, गुरुभक्त जनता ने सायरा में आपका भव्य स्वागत किया।
वि. सं. २०४४ के वर्षावास के लिए शेरा प्रांत, भीलवाड़ा, डूंगला आदि अनेक श्रीसंघों की । ओर से आपकी सेवा में विनतियाँ आईं। संगठन शक्ति और आग्रह भरी विनम्र विनती को देखते हए आपने अपने चातुर्मास की स्वीकृति शेरा प्रांत स्थित नांदेशमा के श्रीसघ को प्रदान कर दी।
नान्देशमा कोई बड़ा गाँव नहीं है फिर भी लोगों की भक्तिभावना को देखकर आपने चातुर्मास यहाँ किया । चातुर्मास काल में आसपास के सभी श्रीसंघों और जैनेतर लोगों ने भाग लेकर धार्मिक If लाभ अजित किया और इस प्रकार इस चातुर्मास को ऐतिहासिक बनाया । यहाँ की पच्चीस बालकबालकाओं ने प्रतिक्रमण सीखा।
चातुर्मास समाप्त होने के उपरांत आप ग्रामानुग्राम विहार करते हुए उदयपुर पधारे। अस्वस्थता के कारण कुछ दिन उदयपुर में रिथरता रहीं । इसी बीच स्थान-स्थान से चातुर्मास के लिए विनतियाँ आने लगीं। देश-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर आपने सुप्रसिद्ध वैष्णव तीर्थस्थान नाथद्वारा के श्रीसंघ को वि० सं० २०४५ के चातुर्मास को स्वीकृति प्रदान कर दो। वर्षावास नाथद्वारा :
नाथद्वारा के श्रीसंघ में अच्छी/धर्मजागृति है। यहाँ कई लोग तत्वों के जानकार भी हैं । आपके वर्षावास से और भी अच्छी धर्मजागृति हुई। महासती श्री कुममवती जी म० सा० को सद्प्रेरणा से रोने-धोने की कुप्रथा को कम करने का अनेक लोगों ने त्याग किया और अभी भी वहाँ इसका परिपालन किया जा रहा है। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर दस-ग्यारह लोगों ने सजोडे शीलब्रत ||६ ग्रहण किया । आपकी प्रेरणा से यहाँ तपस्याएँ भी खूब हुईं। सामूहिक आयम्बिल, तेले, प्रथम बार आपकी प्रेरणा से हए । नाथद्वारा के इतिहास में प्रथम बार इस वर्ष मासखमण तप हुआ। मासखमण | की यह तपस्या श्रीमती रतनबाई धर्मपत्नी श्री मोहनलाल जी राठौड़ ने की थी। इस प्रकार नाथद्वाग का चातुर्मास समाप्त हुआ और चातुर्मास समाप्त होने के पश्चात् नाथद्वारा से विहार कर अपनी शिष्याओं-प्रशिष्याओं के साथ चित्तौडगढ पधारी। लघु साध्वियों की परीक्षा के कारण आपको लम्बे समय तक ठहरना पड़ा। परीक्षा समाप्त होते ही आपने उदयपुर की ओर विहार कर दिया। उदयपुर की ओर गुरुदेव की सेवा में :
इस समय परम पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि म० सा०, पू. उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा० आदि अपना इन्दौर का यशस्वी चातुर्मास समाप्त कर विभिन्न ग्राम-नगरों को लाभान्वित कर उदयपूर पधारकर अपनी अमृतमयी वाणी से उदयपुर की जनता का ताप मिटा रहे थे। उदयपुर में 20 श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय भवन के स्वाध्याय भवन का उद्घाटन हआ, वर्षी तप के पारणे हुए । सभी अवसरों पर आप अपनी शिष्याओं सहित उपस्थित रहीं । उदयपुर में ही आपका चातुर्मास डूंगला घोषित हुआ।
वर्षावास डूंगला-श्रीसंघ इंगला की अनेक वर्षों से आपके चातुर्मास की विनती चली आ रही थी। डूंगला में भी धर्म के प्रति अच्छी लगन और निष्ठा है । सेवाभावना भी उल्लेखनीय है । दिनांक १३-६-८६ को आपका डूंगला में चातुर्मास प्रवेश समारोह के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ। चातुर्मास प्रारम्भ होते ही धर्मध्यान की , प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ हो गयीं । प्रतिदिन प्रार्थना, प्रवचन, चौपाई आदि तप-जप के महोसत्व हो रहे हैं । इन पंक्तियों के लखने तक विभिन्न धार्मिक आयोजन उत्साह एवं उमंग सहित हो रहे हैं। .
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व्यक्तित्व की विशेषताएँ
तेज से छोटे
छोटा कद, सांवला वर्ण, ब्रह्मचर्य के दीप्त मुखमण्डल, तेजस्वी नेत्र, तीखी नाक, छोटे हाथ-पैर के पंजे और पतली अंगुलियों से मिलकर एक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है, जिसे आज सभी बाल ब्रह्मचारिणी, महाविदुषी, प्रवचनभूषण महासती श्री कुसुमवती जी म० सा० के नाम से जानते मानते और उनके पावन चरणों में अपनी श्रद्धासिक्त वंदना निवेदन करते हैं। ज्ञाना राधिका, जपसाधिका, दया और सरलता की प्रतिमूर्ति, प्रेम और वात्सल्य की देवी, विनय - विवेक सम्पन्ना, क्षमामूर्ति, मितभाषी, मधुर व्यवहारी, प्रभावक प्रवचनदात्री पू० महासती श्रीकुसुमवती जी म० सा० के विराट व्यक्तित्व की कतिपय विशेषताएँ इस प्रकार हैं
बाल ब्रह्मचारिणी - धन जन आदि पदार्थों का परित्याग कर देना इतना कठिन कार्य नहीं है जितना विषय-वासना की काली नागिन को नाथना कठिन है । बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी एवं शक्तिसम्पन्न व्यक्ति भी इसके सामने घुटने टेकते हुए दिखाई दिये हैं । इसी कारण अनुभवी महापुरुषों ने ब्रह्मचर्य को असिधारा व्रत उद्घोषित किया है ।
मन, वचन, कर्म से जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य की विशुद्ध परिपालना एवं आराधना करता है, उसका जीवन कितना महान बन जाता है, उसके सम्बन्ध में उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
देव दाणव गंधव्वा जक्ख रक्खस किन्नरा । बंभयारि नमसंति दुक्करं जे करंति तं ॥
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
विश्व वन्द्य भगवान् महावीर फरमाते हैं कि जो लोग दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत की परिपालना करते हैं, उनके चरणों में देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि सभी शक्तियाँ झुक जाती हैं ।
ब्रह्मचर्य की शक्ति बड़ी अद्भुत है । उसके प्रभाव से विष अमृत बन जाता है । अग्नि शीतल हो जाती है। सिंह जैसे हिंसक प्राणी भी अपनी हिंसक वृत्ति छोड़कर अहिंसक बन जाते हैं । इस प्रकार ब्रह्मचर्य की महिमा अपरम्पार है । इस विषय पर जितना लिखा जाये कम है ।
पूजनीया महासती श्री कुसुमवती जी म० बाल ब्रह्मचारिणी हैं। दस वर्ष की लघु वय से ही आप साधना पथ की पथिका बनीं। इस प्रकार आप ब्रह्मचर्य की परिपालना और आराधना करती आ रही हैं ।
सरलता की प्रतिमूर्ति - सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । आपके जीवन में शान्ति, समता और सरलता का अद्भुत समन्वय है । आपका जीवन सरल ही नहीं अपितु अति सरल है । सरलता आपके जीवन का विशिष्ट गुण है । छल, कपट, प्रपंच एवं दिखावे से आप कोसों दूर रहते हैं । सत्य कहें तो आपमें बालकों सी सरलता है ।
आपके पास चाहे बालक आये, या युवक आये या वृद्ध | चाहे धनवान आये या निर्धन | आपके यहाँ सबके लिए द्वार खुला है । सबके प्रति समान व्यवहार है । आपकी सरलता सभी के द्वारा अनु
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भव की जा सकती है। यह नहीं कि यह छोटा सा बच्चा है, इससे क्या बोलना । आप समान भावना से बात करते हैं । इसी प्रकार आप धनी और गरीब में भी भेद नहीं मानकर समान रूप से व्यवहार करते हैं । गरीबों के साथ तो आपका आत्मीय व्यवहार देखते ही बनता है । आपको धनवानों का ऐश्वर्यं आकर्षित नहीं कर पाता । आप तो अपनी साधना में ही लगन लगाये रहते हैं ।
इसी प्रकार जब आपसे किसी भी सम्प्रदाय, पन्थ, मजहब के सन्त सतियाँ मिलते हैं तब आप बिना किसी भेदभाव के उनके साथ बैठना, बोलना, प्रवचन देना आदि सहज भाव से निभा लेते हैं। सभी आपकी सहजता और सरलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। जिस प्रकार आप गच्छ के बड़े सन्तया सतियों के साथ प्रेम एवं सद्भावपूर्वक व्यवहार करते हैं ठीक उसी प्रकार छोटे सन्त या सतियों से भी आपका व्यवहार आत्मीयता पूर्ण रहता है। आपके तन, मन, जीवन में अहंकार का नाम ही नहीं है । आपकी सरलता के संदर्शन प्रत्येक व्यक्ति आपके सम्पर्क में आकर अनुभव कर सकता है । आप अपने कार्य अपनी छोटी सतियों से कराने के पक्ष में नहीं रहते हैं । आप अपने छोटे बड़े कार्य स्वयं अपने हाथों से ही कर लेते हैं । इस सब कारणों से आपको सहज ही सरलता की प्रतिमूर्ति कहा जा सकता है ।
प्रेम और वात्सल्य की मूर्ति - आपका हृदय स्नेह की स्रोतस्विनी से ओतप्रोत है । अपनी शिष्याओं को आप माता के समान ममता और वात्सल्य प्रदान करती हैं। यह प्रेम और वात्सल्य भाव अपनी शिष्याओं के प्रति तो है ही, साथ ही जो भी आपके सान्निध्य में रहते हैं उनको भी आप अपने निर्मल स्नेह के निर्झर से नहला देती हैं । आपका अपनी गुरु बहिनों एवं उनकी शिष्याओं के प्रति भी असीम स्नेह रहा है । जिस किसी के साथ भी आपने चातुर्मास किये वे आपके स्नेहिल व्यवहार से अत्यधिक प्रसन्न और प्रभावित रहते । उन्हें
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ऐसा अनुभव होता है जैसे वे आपकी ही शिष्याएँ हैं। आपके स्नेहसिक्त व्यवहार के कारण वे भी आपको अपने गुरु गुरुणी जी के समान सम्मान एवं महत्व देते हैं।
विनय विवेक की प्रतिमा- आपका जीवन विनय गुण से ओत प्रोत है । अहंकार तो आपको छूता ही नहीं है । बड़ों के प्रति असीम आदर-सत्कार सम्मान की भावना सदैव बनी रहती है। बड़ों के वचनों को आप ससम्मान स्वीकार करते हैं । गुरुजनों के प्रति आपका विनय प्रशंसनीय है । आप अपनी शिष्याओं को भी सदैव विनय का पाठ पढ़ाती रहती हैं। आपकी मान्यता है कि विनयपूर्ण व्यवहार सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान करने में सहायक होता | 'गुरुराजा अविचार-' णीया' यह आपके जीवन का सिद्धांत है ।
में
क्षमा की देवी - आपकी मान्यता है कि क्षमा ही तप का सार है। इस मान्यता के अनुरूप आप - अद्भुत सहनशीलता है । आपके जीवन में उग्रता तो कभी दिखाई ही नहीं दी । शान्त - प्रशान्त आपका जीवन है । आप सौम्यमूर्ति हैं । आप कटूक्तियों और अपशब्दों का उत्तर भी मधुर मुस्कान सहनशीलता विचलित नहीं होती । कभी से के साथ देती हैं, उफान और तूफान में भी आपकी बोलना तो आपने सीखा ही नहीं । आप अपनी
शिष्याओं को भी डांट-फटकार के रूप में कभी कुछ नहीं कहती ।
अपने प्रति कटु वचन बोलने वाले अथवा दुर्व्यवहार करने वाले को भी आप क्षमा प्रदान कर देती हैं । आप में क्षमा का अद्भुत गुण विद्यमान | है ।
मित एवं मृदुभाषी - 3 - आप आवश्यकता से अधिक नहीं बोलती हैं । बड़े ही संतुलित शब्दों में बोलने के कारण आप में मितभाषी का गुण आ गया है । फिर जो भी बोलती हैं वह मधुरता, मृदुता 'के साथ बोलती हैं। अपनी वाणी के अनुरूप | ही आपका व्यवहार भी मधुर है । मित एवं मृदु
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भाषी और मधुर व्यवहारी होने से आपकी लोक- को देखकर आपके अन्तर् की करुणा सहज ही प्रियता और अधिक विकसित हो रही है। प्रस्फुटित हो जाती है। पीड़ित को देखकर आपका मा ___सेवाभावी-सेवा कार्य प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर हृदय रो उठता है । जो भी दुःखी व्यक्ति आपके || सकता। सेवा में भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। महा- सम्पर्क में आया वह आपको जीवन पर्यन्त नहीं सती श्री कुसुमवती जी महाराज सा० की तो सेवा- भूल सकता । जहाँ तक हो सकता है आप दुःखी भावना अनुपम है। आपने अनेकानेक संत-सतियों व्यक्ति के दुःख को दूर करने का भरसक प्रयास की सेवा की है। पूजनीया गुरुणी जी श्री सोहन- करती है। कुवर जी महाराज की अन्तिम सेवा का लाभ आप अपने प्रवचनों में भी प्रायः दीन-दुखियों आपने ही लिया। माताजी महाराज श्री कैलाश- पर दया-अनुकम्पा करने पर जोर देती रहती हैं | कुवरजी महाराज की भी खूब सेवा की । वे हृदय- आपकी ओजस्वी वाणी में अक्सर मानवता का स्वर रोगी थी। विहार काल में कई बार हृदय का दर्द मुखरित होता है। आपने अपने उपदेशों के द्वारा हो जाता था। उनके सीने पर हाथ फिराते हुए अनेक स्थानों पर स्वधर्मी सहायता फण्ड, मानव आप उनके साथ धीरे-२ चलते थे। अन्तिम समय सेवा संस्था आदि की स्थापना करवाई है और में वे एक महीने तक असाध्य व्याधि से ग्रस्त रहे। प्रायः इसी प्रकार का उपदेश भी आप फरमाती उस अवधि में आपने जो सेवा की उसका वर्णन रहती हैं। नहीं किया जा सकता। एक माह तक दिन-रात प्राणी-वध न हो, इसके लिए भी आप सदैव जागकर आपने उनकी सेवा की। आप स्न्ह के
उपदेश दिया करती हैं। आपको प्रेरणा से कई वशीभूत होकर ही नहीं वरन् कर्तव्य भावना और
बार पर्व दिनों में कसाईखाने बन्द करवाये सेवा भावना से सेवा कार्य करते थे।
गये हैं। ___आपके सान्निध्य में जो साध्वियाँ रहती हैं। उनमें चाहे बड़े हों या छोटे। यदि किसी को कोई यदि आपके सामने कोई पीड़ा से कराह रहा|KC व्याधि या वेदना हो जाती है तो आप बेचैन हो हो तो आप मौन दर्शक की भाँति बैठी नहीं रह (468) उठती हैं तथा आप अपनी स्वयं की चिंता न करते सकती हैं । आप उस समय यह विचार नहीं करती हुए दूसरों के दर्द को दूर करने में लग जाती हैं। कि अभी मैं अपने कार्य में व्यस्त हूँ, बाद में इस स्वयं अपने हाथों से सेवा करती हैं। बिना किसी व्यक्ति के विषय में कुछ पूछताछ कर जो करना ग्लान भाव से आप तन-मन से दसरों की सेवा होगा कर लिया जायेगा। चाहे आधी रात ही क्योंका
न हो आप अपने काम की या नींद की चिन्ता किये करती हैं। सेवा का गुण आपको नैसर्गिक रूप से
बिना अविलम्ब उस पीड़ित व्यक्ति को पीड़ा सुनने मिला हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है।
पहुँच जाती हैं। कोई दुःखो या रुग्ण व्यक्ति आपको ___करुणा की स्रोतस्विनी- संत कवि तुलसीदास दर्शन देने के लिए बुलाता है तो आप उसकी उपेक्षा ने कहा है
नहीं करती हैं। दूसरों को प्रसन्न देखकर आपको 5 दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । महती प्रसन्नता होती है। आपकी करुणा भावनाकार __ तुलसी दया न छोड़िये, जब तकाँघट में प्राण ।। को देखकर आपको करुणा सागर कहा जा सकता . दया करुणा की महिमा सभी धर्म गाते हैं। है। दया, करुणा, अहिंसा जैनधर्म की प्राण हैं। महा- ज्ञान और क्रिया की आराधिका-कहा हैसती श्री कुसुमवती जी म० सा० के जीवन में "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।" आपने | करुणा कूट-कूटकर भरी है। किसी भी दुःखी प्राणी दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् संयमसाधना और द्वितीय खण्ड : जीवन दर्शन
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ज्ञान आराधना को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। नियमित करती हैं। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, आठ दस वर्षों तक निरन्तर अध्ययन में जुटे रहे। अशक्त हों, रुग्ण हों, फिर भी आपका जप निरन्तर आपने आगमों का गहन अभ्यास किया। बत्तीस चलता रहता है। किसी भी स्थिति में आप जप ही आगमों का आपने कई बार अवलोकन/अवगाहन बन्द नहीं करती हैं। किया । लघु सिद्धान्त कौमुदी, सिद्धान्त कौमुदी को प्रभावक प्रवचनदात्री-प्रवचन गद्य-साहित्य की
कण्ठस्थ किया। हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत के अन्य एक विशिष्ट विधा है। साधारण वाणी को वचन Sill साहित्य का अध्ययन भी किया। साहित्यिक कहा जाता है किन्त सन्त मनिराजों और आध्या
अध्ययन के साथ-साथ आपने दार्शनिक ग्रन्थों का त्मिक अनुभवियों और विचारकों का कथन प्रवचन
भी अध्ययन किया। कर्म, आत्मा, जीव-जगत्, कहलाता है। प्रवचन में आत्मा का स्पर्श, साधना ॐ मोक्ष, स्याद्वाद, सप्तभंगी, ईश्वर कर्तृत्व आदि का तेज और जीवन का सत्य परिलक्षित होता है। रहस्यों को जाना-समझा। आपने पाथर्डी
हा प्रवचन का प्रभाव तीर की भाँति बेधकड़ता लिये | परीक्षा बोर्ड से जैन सिद्धान्त आचार्य तक की परी- होता है। उसमें प्रयुक्त शब्द, मात्र शब्द नहीं होते,
क्षाएँ दी और बनारस की व्याकरण मध्यमा परीक्षा वे जीवन की गहराइयों और अनुभवों की ऊँचाइयों CAM भी उत्तीर्ण की। आपने संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी का अर्थ लिये होते हैं। भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है। प्रवचनों में पाण्डित्य का प्रदर्शन न होकर
ज्ञान के साथ-साथ आप आचार के भी प्रबल उनका उद्देश्य शास्त्रों में निहित गूढ तथ्यों/रहस्यों पक्षधर हैं। आप अपनी संयमसाधना के प्रति हर को सरल से सरल शब्दों में अभिव्यक्त कर जन5 समय सजग हैं। साधुमर्यादा के विपरीत चलना मानस तक पहुँचाना है। इसी भावना से अभिप्रेरित GB आपको बिलकुल नहीं सुहाता है। आपने सुदूर होकर महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. प्रवचन
प्रान्तों में भी विचरण किया है। वहाँ विषम परि- फरमाती हैं। स्थितियों में भी आप अपनी मर्यादाओं में दृढ़ रहीं। आप अपने ओजस्वी प्रवचनों के माध्यम से दिल्ली और पंजाब में जब आप पधारी तो अनेक सुप्त जन-जीवन को जागृत कर सत्य, शील, सेवा, स्थानों पर समस्याएँ उपस्थित हो जाती थीं-जैसे सदाचार के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती माइक में बोलने की, व्याख्यान हॉल में पंखे चलने हैं। आपकी मधुर वाणी में संघ एकता, समन्वय, की, फ्लश में निपटने की। लेकिन आप इसका जन-सेवा एवं सामाजिक कुरीतियों के निवारण की स्पष्ट और प्रत्यक्ष विरोध कर देती थीं। आप इस पावन प्रेरणा गूंजती रहती है। बात की चिन्ता नहीं करती थीं कि व्याख्यान में जब आप प्रवचन फरमाती हैं तो श्रोतावर्ग
श्रोताओं की उपस्थिति कम रहेगी। चातुर्मास की मन्त्रमुग्ध हो जाता है। शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को ही स्वीकृति के पूर्व आप लोगों से इस प्रकार की आप सरलतम भाषा में किसी दृष्टान्त के माध्यम
स्वीकृति ले लेती थीं और उसके पश्चात् ही अपनी से स्पष्ट करती हैं। अपने कथन के प्रमाण में स्वीकृति फरमाती थीं।
शास्त्रीय प्रमाण भी प्रस्तुत करती हैं । प्रवचन को || जप साधिका-जपासिद्धिः जपातसिद्धिः सरस और आकर्षक बनाने के लिए बीच-बीच में जपासिद्धि नं संशयः ।
आप काव्य पंक्तियों का भी सस्वर पाठ करती हैं। र आप जप की भी बड़ी दृढ़ साधिका हैं। प्रातः प्रवचन में आपकी भाषा सरल और प्रवाहमयी मातीन चार बजे उठकर जप, माला, ध्यान करती होती है, किन्त वाणी ओजस्वी है। वाणी का प्रभाव
हैं। सायंकाल भी एक घण्टा माला, ध्यान आदि तो यह है कि यदि आपके प्रवचन चल रहे हों और
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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कोई अनजान व्यक्ति उधर से निकल रहा हो तो ३-रूप सम्पन्न भी, गन्ध सम्पन्न भी-कोई वह वाणी सुनकर कुछ देर ठहर जाता है। फूल रूप सम्पन्न भी होता है और गन्ध सम्पन्न भी 2
श्रोताओं को बांधे रखने की कला में भी आप होता है । जैसे-जुही का फूल ।। प्रवीण हैं । श्रोताओं की मनोदशा को समझकर ४-न रूप सम्पन्न, न गन्ध सम्पन्न-कोई फूल ! आप अपने प्रवचन प्रवाह को इस प्रकार मोड़ दे न रूप सम्पन्न होता है और न गन्ध सम्पन्न ही होता देती हैं कि श्रोतावर्ग तन्मय होकर बैठा रहता है। है । जैसे-बदरी (बोरड़ी) का फूल । आपके प्रवचन काफी प्रभावोत्पादक होते हैं। जो महासती श्री कुसुमवती जी महाराज सा. की भी एक बार आपकी वाणी का रसास्वादन कर तुलना तीसरे प्रकार के जुही के फूल से की जा लेता है, वह लम्बे समय तक भूल नहीं पाता है। सकती है। जिसमें रूप और सुगन्ध दोनों हैं । महा-|
नाम की सार्थकता-स्थानांग सूत्र ४/३/३८६ सतीजी के आकर्षक, बाह्य व्यक्तित्व के साथ-साथ में बताया गया है कि पुष्प चार प्रकार के होते हैं। सदाचार की मीठी सुगन्ध भी कूट-कूट कर भरी हुई। यथा
है। ऐसे कुसुमवत् बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व की ||5 १-रूप सम्पन्न, न गन्ध सम्पन्न-कोई फूल धारक श्री कुसुमवतो जी महाराज श्रमण संघ की रूप सम्पन्न होता है, किन्तु गन्ध सम्पन्न नहीं होता। वाटिका को निरन्तर शोभित कर रही हैं और जैसे आकुलि का फूल ।।
अपनी सौरभ से जन-जन के मन को आनन्दित कर २-गन्ध सम्पन्न, न रूप सम्पन्न-कोई फूल रही हैं। गन्ध सम्पन्न होता है, किन्तु रूप सम्पन्न नहीं होता, जैसे-वकुल का फूल ।।
अतीत की स्मृतियाँ
।
ब्रह्मचर्य की उत्कट साधना और जप, तप और चलते रास्ता भूल गये। चारों ओर जंगल हो ध्यान की आराधना से आपके जीवन में अनेक जंगल । चलते-चलते काफी समय हो गया। थकविशेषताएँ, चमत्कारिक घटनायें घटी हैं। साधक कर चूर हो गये। लेकिन कहीं कोई गाँव तो क्या निष्काम भाव से साधना करता है, ऐसे चमत्कारों गाँव के चिह्न भी दिखाई नहीं दे रहे थे। आसपास से उसे कोई प्रयोजन नहीं होता है। लेकिन ये तो कोई व्यक्ति भी दिखाई नहीं दे रहा था। साथ वाली ) स्वतः उसके साथ उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे किसान सभी सतियाँ हैरान-परेशान हो गईं। अब क्या खेती करता है, वह अनाज के लिए न कि घास-फूस होगा ? कहाँ जाएँ ? किधर जाएँ ? यही प्रश्न सब के लिए । लेकिन घास-फूस भी साथ में उग जाता के मानस-पटल पर उभर रहा था। उस समय है । घटनायें तो अनेक हैं, किन्तु विस्तारभय से कुछ आपके मन में जाप चल रहा था। एकाएक एक ही घटनाओं का विवरण यहाँ दिया जा रहा है। व्यक्ति कुछ दूरी पर विपरीत दिशा से आता हुआ यथा--
दिखाई दिया। कुछ ही क्षणों में वह व्यक्ति निकट वह कौन था ?
__ आ गया । उसने वन्दन करते हुए कहा-"आप ) एक बार आप पाली पधार रहे थे । रास्ते के इधर किधर पधार रहो हैं ? इधर तो कोई रास्ता किसी एक गाँव तक पहुँचना था। लेकिन चलते- भी नहीं है । ऐसा लगता है कि आप रास्ता भूल द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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| गई हैं। चलिये, मैं आपको पास के गाँव का रास्ता नहीं दिया । सब कोठी में ठहरे हुए थे और रात बता देता हूँ।"
भर चारों ओर से शेरों की उस व्यक्ति के मिलने से एवं उसके उपर्युक्त थीं । कभी-कभी तो दहाड़ इतने निकट से सुनाई (OX कथन से सभी ने राहत की सांस ली। उस व्यक्ति पड़ती मानो वह कोठी के आसपास ही हो । तपESE ने बहुत देर तक साथ-साथ चलकर गाँव की ओर संयम के प्रभाव से सभी सुरक्षित थे। उधर प्रातः
संकेत कर वहाँ पहुँचने का रास्ता भी बता दिया। होते-होते पू० महासती जी पैर का दर्द गायब हो दस जाते हए उसने कहा-“यह सीधा रास्ता उस गाँव गया। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात्रि में । SIf तक जाता है । आप सीधे ही पधार जाना।" पैर में दर्द था ही नहीं। इससे सभी ने चैन की 2
सांस ली। सभी ने यही सोचा कि यदि पैर-दर्द उस व्यक्ति को धन्यवाद देकर आप अपनी ERA शिष्याओं के साथ उस गाँव की ओर बताए रास्ते
ठीक नहीं हुआ होता तो इस जंगल में क्या
करते ? (E) से आगे बढ़ चलीं। कुछ ही दूरी तक चली होंगी
कि साथ वाली एक साध्वीजी ने पीछे मुड़कर देखा हा तो वह व्यक्ति कहीं भी दिखाई नहीं दिया। उन
वे चुपचाप चले गए साध्वी जी ने कहा-'देखो, वह रास्ता बताने वाला व्यक्ति कह दिखाई नहीं दे रहा है। इतनी जल्दी एक बार जोधपुर से पाली की ओर पधार रहे
वह कहाँ चला गया?" सबने पीछे मडकर देखा तो थे। किसी अपरिहार्य कारणवश गांव तक नहीं मा दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था। आखिर पहुँच पाये और सूर्यास्त हो गया । ऐसी स्थिति में
वह था कौन ? तभी सभी के हृदय में भाव उत्पन्न जंगल में बने एक तबारे में ठहरना पड़ा। उस
हुए कि आज किसी अदृश्य शक्ति ने हमारी सहा- तबारे के समीप एक कुआ भी था। रात्रि प्रतिद यता की है।
क्रमण के पश्चात् सभी चुपचाप बैठे हुए जाप कर
'] रहे थे । जाप करते-करते काफी समय व्यतीत हो पैरों का दर्द गायब
गया। कुछ साध्वियाँ सो गईं, कुछ सोने का विचार
कर रही थीं। आप अभी भी बैठी समता भाव में ___एक बार आप अपने माताजी महाराज एवं रमण करते हुए अपने आराध्य का जाप कर रही
पूज्य महासती श्री सौभाग्यकुवर जी महाराज के थीं। तभी बाहर कुछ आहट हुई और रोशनी भी। 5 साथ प्रथम बार दिल्ली पधारे। दिल्ली से पुनः एक बार तो सभी भयभीत हो उठीं। आप निर्भय । लौटते समय अलवर से जयपुर के रास्ते में होकर शान्त मुद्रा में बैठी रहीं । प्रकाश तबारे के पूजनीया महासती श्री सौभाग्यकुंवरजी महाराज अन्दर भी आया । शायद उन लोगों के पास टार्च सा. से पैर में असह्य दर्द होने लगा। यहाँ भयंकर थी। उनमें से किसी एक ने पूछा- "कौन है जंगल है, जो सुप्रसिद्ध वन्य पशु अभयारण्य अन्दर ! बाहर निकलो और जो कुछ भी पास में 'सिरस्का' के नाम से विख्यात है। यहाँ है हमारे हवाले कर दो।" एक सरकारी कोठी बनी हुई है, उसी में ठहरना आपने निडर होकर कहा-"हम जैन साध्वियाँ पड़ा। पू० महासती श्री सौभाग्यकुंवर जी महाराज हैं। हमारे पास केवल आशीर्वाद है । चाहो तो ले के पैर दर्द के विषय में आपने कहा कि यह दर्द लो।" इसके साथ ही आपने 'दया पालो' भी कहा। | कल प्रातः होते-होते ठीक हो जायेगा। उस समय बाहर कुछ देर मौन रहा। फिर आवाज सुनाई आपकी इस बात पर किसी ने कोई विशेष ध्यान दी-“ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ तो होगा ही।
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जो भी हो वही हमें सौंप दो। वरना"।" शायद भयानक गर्जनाएँ सुनाई देने लगीं। शनैः-शनैः ये ६ ये सब डाकू थे और बोलने वाला उनका सरदार। गर्जनाएँ समीप आती गईं। जिधर से आवाज आभार
"वरना...'वरना.."क्या कर लोगे....'लो....।" रही थी, उधर देखा तो थोड़ी दूर पर दो टिम- II इतना कहकर आपने जोर-जोर से मन्त्राधिराज टिमाते दीये-से दिखाई दिये और उसी के साथ ३ नवकार सुनाना आरम्भ कर दिया। जैसे ही नव- पुनः गजेना । सभी साध्वियों उठकर बैठी हो गई। कार मन्त्र समाप्त हआ वैसे ही बाहर से आवाज प्राण सभा का प्रिय हात ह
प्राण सभी को प्रिय होते हैं। शेर की आवाज से आई-"हमारी भूल माफ करना महाराज सा.।
भय भी लग रहा था । आपने अपना ध्यान आरम्भ
भय भा लग रहा था । अ अब आप निर्भय होकर यहाँ रात बिताओ।" इतना कर दिया । आत्मस्थ हो गयी । थोड़ी देर में शेर कहकर वे वहाँ से हट गये और कूए से पानी पीकर गर्जना करता हुआ चला गया। सबने राहत की अनजान दिशा की ओर चले गये। यह घटना सांस ली और प्रातः होते ही वहां से विहार कर आपकी साधना और साहस की परिचायक है। दिया ।
मासखमण शेर गर्जना करता रहा
सन् १९७८ में आपका वर्षावास चाँदनी चौक ___ एक बार आप अपनी सद्गुरुवर्या के साथ
दिल्ली में था। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर विचरण करते हुए देलवाड़ा से उदयपुर पधार रही
श्रीमती उषादेवी चौरडिया ने मासखमण का तप थीं। मार्ग की विषमता और कुछ अस्वस्थता के
किया। उन्होंने भरे-पूरे परिवार को छोड़कर
तपस्या के दिनों में आपके चरणों का शरणा कारण एक दो साध्वीजी को कमजोरी के कारण चलने में कठिनाई हो रही थी । चोरवा घाटे के
लिया। मासखमण की अवधि में श्रीमती चौरऊपर आते-आते उन्होंने जवाब दे दिया। अशक्तता
डिया कभी-कभी अस्वस्थ हो जाती तो आपके इतनी अधिक हो गई थी कि बिलकुल ही चला नहीं ।
- चरणों में झुक जातीं । आप उनको कुछ सुनाती तो जा रहा था। तब चीरवा घाटे के ऊपर ही ठहरने
वे सुनते ही एकदम स्वस्थ हो जातीं। वे कहती हैं का निर्णय कर लिया। वही समीप ही पुलिस वाले
कि महासतीजी की कृपा से उनका मासखमण का भी थे। पुलिस वालों ने कहा भी कि आप लोग
तप हो सका है। यहाँ न ठहरें। यहाँ रात्रि में शेर आते हैं। यहाँ ठहरना अपने आपको खतरे में डालना है। किन्तु और फिर भी भोजन बच गया जब एक कदम भी चला नहीं जा रहा हो तो आगे किस प्रकार बढ़ा जाये ? बाध्य होकर वहीं ठहर सन् १९८७ का आपका चातुर्मास उदयपुर के
गये। रात्रि में पुलिस वालों ने तो अग्नि जलाकर निकट स्थित छोटे-से ग्राम नान्देशमा में था। यहाँ * अपनी सुरक्षा की व्यवस्था कर ली और उनके पास श्रमणसंघीय आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी
की थीं। अग्नि के जलने से प्रकाश भी म. सा. का जन्म जयन्ती का आयोजन किया गया हो गया।
था। जिस भाई के यहाँ भोजन की व्यवस्था थी, इधर जहाँ आप ठहरी हुई थीं, अन्धकार था उन्होंने अनुमान से लगभग दो सौ व्यक्तियों के किन्तु इस अन्धकार के साथ जाप का, संयम का लिए भोजन तैयार करवा लिया। किन्तु इस दिन अद्भुत प्रकाश था? आधी रात के पश्चात् शेर की आसपास के ग्राम नगरों से लगभग तीन-चार सौ
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लोग आ गये । वह भाई घबरा उठा । आपकी सेवा
उसकी बाधा दूर हुई .. में भी आया। उस समय भी उसकी घबराहट स्पष्ट दिखाई दे रही थी। महासती जी ने उसे बात उन्हीं दिनों की है जब आप जयपुर में इतना ही कहा कि देव, गुरु और धर्म पर विश्वास विराज रही थीं । जयपुर के बाहर गणगौर स्थानक रखो । वीतराग भगवान् सब ठीक ही करेंगे। वह
में एक बाई काम करती थी। आप तो प्रवचन देने भाई अपने घर आ गया। तत्काल अन्य कुछ
के लिए लाल भवन पधारे हुए थे। स्थानक में व्यवस्था क्या हो सकती है ? इस पर भी विचार थोकड़ों के पारंगत सुश्रावक श्री मोहनलालजी मूथा ॥5 करने लगा। इधर आगत अतिथियों ने भोजन छोटी सतियाँ जी को थोकड़ों का अभ्यास करवा
र करना आरम्भ कर दिया। कछ ऐसा चमत्कार रहे थे। वह बाई पास ही बैठी थी। न मालूम क्या
से हुआ कि सब अतिथियों ने भोजन कर लिया और हुआ कि बैठे-बैठे ही वह बाई जोर-जोर से चिल्लाने फिर भी कुछ भोजन बचा रह गया। वह भाई लगी और दो मंजिल ऊपर से नीचे छलाँग लगाने ? आपकी सेवा में उपस्थित हआ और अपनी प्रस
लगी। उसे बड़ी कठिनाई से पकड़कर नीचे बैठाया। न्नता व्यक्त करते हुए बोला-"महाराज साहब यह
तो वह बेहोश होकर फर्श पर गिर गई जब आप सब आपकी कृपा का ही परिणाम है।"
प्रवचन से वापस पधारी तो आपको सब बात बताई
आपने उस बाई को कुछ सुनाया। थोड़ी ही देर में 0 उस बाई ने आँखें खोली। वह ऐसे उठकर काम में -
लग गई, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। बाद में भी पुत्रवधू स्वस्थ हो गई
वह बिलकुल स्वस्थ ही रही और सेवा करती सन् १९८५ में अपनी शिष्याओं के अध्ययन हेतु & आप अजमेर से विहार कर जयपुर पधारे। जयपूर
में प्रवेश करके श्री धर्मीचन्दजी जैन के मकान में । ठहरे। उनके घर में पुत्रवधू बहुत बीमार थी।
सुइयाँ चुभना बन्द हो गया र उपचार भी चल रहा था किन्तु कोई विशेष लाभ जयपुर में ही एक बहुत सम्पन्न घर की महिला र नहीं हो रहा था । पुत्रवधू की अस्वस्थता से परिवार थी। वह बहत ही धार्मिक वृत्ति की थी। समय-समय IC
के सभी सदस्य अत्यधिक परेशान थे। पुत्रवधू पर वह व्रत, उपवास, पौषध आदि करती रहती थी। आपकी सेवा में वन्दन करने आई। आपने उसे धार्मिक क्रिया करते समय उसे अक्सर ऐसा दर्द
मांगलिक सुनाया । उस दिन धर्मीचन्दजी की पुत्र- होता था जैसे सारे शरीर में सुइयाँ चुभ रही हों। ॐ वधू ने दिन में तीन बार मांगलिक सुना । दूसरे और किसी ने बोली बन्द कर दी हो । कई बार वह एक
दिन जब पूजनीया गुरुणी म. सा. ने वहाँ से विहार महिला संकेत से महासतीजी को अपने पास बुलाती II किया तो देखा कि जो बह कई दिन से बीमार थी.
-आप उसके समीप जाकर कुछ देर तक उसे कुछ G वह एकदम स्वस्थ है और अपने बच्चे को स्नान सुनाते । इससे उसकी वेदना शान्त हो जाती थी। KE All करवा रही है। इसके पश्चात् वह नियमित रूप से कुछ दिन तक यही क्रम चलता रहा। धीरे-धीरे
|| मांगलिक सुनने आती रही । अभी भी उनका पूरा उसकी यह बीमारी दूर हो गई । उस महिला की । EL परिवार आपके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है और समय- आप पर अनन्य श्रद्धा है और अभी भी दर्शन लाभ Eph) समय पर दर्शन लाभ लेने आता रहता हैं । लेने आपकी सेवा में आती रहती है।
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द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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सर्प चला गया
आना-जाना शुरू हुआ (मांगलिक सुनने आया था)
डूंगला की यह घटना इसी वर्ष (वि. सं. २०४६) __ यह घटना इसी वर्ष १९८६ की है। आप अपनी की है। यहाँ के श्री भंवरलाल जी मेहता की पुत्रशिष्याओं के साथ चित्तौड़ से उदयपुर पधार रही वध को विवाह के पश्चात् से उसके पितृ परिवारमा
परशन करवाना था। में नहीं भेज रहे थे। लगभग आठ वर्ष बीत गए । उदयपुर से बीस कि० मी० दूर डबोक नामक गाँव समाज के लोगों ने समझाने का प्रयास किया । है। वहीं चौराहे पर श्री शान्तिलाल जी कोठारी के कुछ सन्त-सतियों ने भी समझाया, लेकिन मायके वहां ठहरे । रात्रि प्रतिक्रमण के पश्चात् वहाँ कहीं भेजना स्वीकार नहीं किया। से एक सर्प आ गया। उस सर्प को भगाने का
संयोग से इस वर्ष महासती श्री कुसुमवतीजी प्रयास किया गया, किन्तु वह नहीं गया। नहीं गया, यहा तक तो ठीक था, पर उसने फफकारा भी नहीं म. सा. चातुर्मास डूंगला में हुआ। महासतीजी म. और शान्त बैठा रहा । जब देखा कि सर्प नहीं जा के सम्मुख भी यह समस्या आई । महासती जी के रहा है तो आपने उसे लक्ष्य कर मांगलिक सताया। सरल, शान्त जीवन, प्रभावोत्पादक प्रवचनों एवं मांगलिक सुनते ही वह सर्प चुपचाप चला गया। प्रर
या प्रेरणा का प्रभाव हुआ और पुत्रवधू को मातृ-गृह उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद आसपास देखा. जाने-आने को अनुमति मिल गई। इस आठ वर्ष चारों ओर देखा, किन्तु वह कहीं भी दिखाई पुरानी समस्या को इतनी आसानी से सुलझी हुई, नहीं दिया । जहाँ हम ठहरे थे, उन घर वालों ने जानकर न केवल दोनों परिवारों में हर्ष और आनंद कहा कि हमें यहाँ रहते हुए छः वर्ष हो गये हैं। व्याप्त हो गया, वरन् सम्पूर्ण गाँव में प्रसन्नता को हमने कभी यहाँ सर्प देखा ही नहीं। सभी को इस लहर फैल गई । अब सब आनन्द हो आनन्द है। घटना से बड़ा आश्चर्य हआ। सर्प तो मांगलिक सुनने आया था, सुनकर चला गया।
महासती श्री कुसुमवतीजी महाराज साहब की प्रेरणा से
स्थापित सस्थाओं का परिचय १. तारक गुरु जैन धार्मिक पाठशाला, डबोक- पाठशालायें समुचित व्यवस्था के अभाव में कुछ 0व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ धार्मिक ज्ञान दिन तक चलकर बन्द हो जाती हैं। लेकिन उदय
होना भी आवश्यक है। उसके अभाव में जीवन पुर के समीप ग्राम डबोक में आपकी प्रेरणा से पतनोन्मुख हो सकता है। इसलिए महासती जी स्थापित धार्मिक पाठशाला ३०-३२ वर्षों से नियसदव धार्मिक शिक्षण के लिए भी समाज को प्रेरणा मित चल रही है। प्रदान करती रहती हैं। समय-समय पर आप अपने इस पाठशाला में अभी तक अनेक बालक-
उपदेशों में बालक/बालिकाओं को धार्मिक शिक्षा/ बालिकायें सामायिक, प्रतिक्रमण, स्तोत्र, थोकड़े है संस्कार दिलाने के लिए धार्मिक पाठशालायें स्था- आदि धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ जीवन व्यवहार
पित करने की बात पर भी जोर देती हैं। आपके की शिक्षा एवं संस्कार प्राप्त कर चुकी हैं । इसके सदुपदेशों से अनेक स्थानों पर धार्मिक पाठशालायें परिणामस्वरूप वे अपना सांसारिक जीवन सुखखोली गई। प्रायः ऐसा होता है कि ये धार्मिक पूर्वक व्यतीत कर रहे हैं । द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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२. श्री सोहनकुवर मानव सेवा सहायता है। उन्होंने अपने समाज में अनेक उल्लेखनीय कार्य फण्ड-प्राणिमात्र की सेवा करना मानव का किये हैं। इस मण्डल के द्वारा धार्मिक शिक्षण के
कर्तव्य है। आपके उपदेशों में प्रायः यह भावना साथ-साथ मानव सेवा भी की जाती है। इस (EODY) मुखरित होती रहती है। आपने अनेक स्थानों पर मण्डल की सदस्यायें अस्पताल में जाकर गरीबों में. CO स्थायी/अस्थाई स्वधर्मी सहायता फण्ड खुलवाये। दवाई व दूध-फल आदि का वितरण करती हैं।
आपके विचार विराट हैं और भावना अति उदार आपकी प्रेरणा से यह मण्डल उत्तरोत्तर प्रगति कर
है । स्वधर्मी की तो सहायता करनी ही चाहिए, रहा है । Sill इससे तो पीछे हटना भी नहीं चाहिए। लेकिन ५. महावीर जैन महिला मण्डल, नाथद्वारा
स्वधर्मी से भी अधिक सहायता की आवश्यकता समाज में नारी का विशेष महत्व है। संगठित से ( अन्य मनुष्यों को है । अनेकों को अपनी उदर पूर्ति होकर महिलायें पुरुषों के समान कार्य कर सकती ए
के लिए परिश्रम करते हुए भी भोज्य पदार्थ प्राप्त हैं। इस मण्डल की स्थापना से जो महिलायें पर्दे में , नहीं हो पाते हैं। 'बुभुक्षित किं न करोति पापं" रहती थीं, वे भी आगे आकर सेवा कार्य में भाग ६ पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए अज्ञानी लेने लगी हैं। समारोहों में भाग लेकर अपने का जन पशुओं को मारकर खाते हैं। ऐसे मनुष्यों की विचारों को सबके सामने रखने लगी हैं । इस IIE सेवा/सहायता के लिगे आपने तिरपाल गांव में श्री महिला मण्डल के माध्यम से अनेक रूढ़ियों को भी सोहनकुंवर मानव सेवा सहायता फण्ड को स्थापना मिटाया गया जिनमें मृत्यु के समय रोने-धोने और को है । आपकी सद्गुरुणी श्री सोहनकुँवर जी महा- सबसे बड़ी समस्या दहेज पर भी करारी चोट कर 10 राज इसी तिरपाल गाँव की थी। यह संस्था मानव सकती है। इस मंडल के प्रयास से रोने-धोने की रूढ़ि र सेवा का उल्लेखनीय कार्य कर रही है।
तो कम हई है। इस मण्डल के माध्यम से महिलाएँ । ३. श्री सोहनवर बालिका मण्डल, नान्दे- धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने में रुचि लेने लगी हैं। IKE शिमा-सन् १९८७ में नान्देशमा तहसील गोगुन्दा सही देखा जाये तो इस मण्डल के कारण नाथद्वारा
जिला उदयपुर में आपका वर्षावास था । यह वर्षा- की महिलाओं में नई जागृति उत्पन्न हो रही है। । वास पूरे मेवाड़ संघ की ओर से हुआ था । इस यह आपकी प्रेरणा का ही परिणाम है। वर्षावास में अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजन
६. महावीर जैन महिला मण्डल, डूंगला-इस Mi हुए। आपकी प्रेरणा से यहाँ श्री सोहन कुँवर
मण्डल के माध्यम से डूंगला की महिलाओं में 5 बालिका मण्डल की स्थापना हुई। बालिका मण्डल
धार्मिक चेतना जागृत को जा रही है । सप्ताह में ने आपकी प्रेरणा से अनेक सराहनीय कार्य किये।
एक बार धर्म स्थानक में आकर धार्मिक चर्चा एवं र अनेक सांस्कृतिक कार्य भी किये। बालिकाओं की अभिव्यक्ति की प्रतिभा का विकास भी इस मण्डल
ज्ञान-ध्यान सीखा जाता है । के माध्यम से हुआ। इसके अतिरिक्त यह मण्डल ७. महावीर जैन युवा सण्डल, डूंगला-युवक धार्मिक जागृति में भी उल्लेखनीय योगदान दे रहा राष्ट्र का कर्णधार है। वह समाज का मुख भी है, और है। जो बालिकायें सामायिक, प्रतिक्रमण, भक्तामर, मस्तिष्क भी है। वह शक्ति का अक्षय कोष है। पच्चीस बोल आदि नहीं जानती हैं, उन्हें इस यदि वह संगठित होकर अपनी शक्ति का सदुपयोग मण्डल के माध्यम से सिखाया जाता है।
करे तो निश्चित ही समाज संध व धर्म की उन्नति ४. चन्दनबाला जैन बालिका मण्डल, नाथ- हो सकती है। अतः आपने यूवकों को संगठित C द्वारा- नाथद्वारा का बालिका मण्डल सुशिक्षित होने का आह्वान किया । आपकी प्रेरणा से डूंगला १७२
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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के युवकों ने अपना संगठन बनाया और समाज में जो म० सा० की जन्मभूमि के स्थानक भवन के सक्रिय सहयोग प्रदान कर रहे हैं।
प्रवचन हाल का नाम वहाँ के श्रावक संघ को इनके अतिरिक्त एक उल्लेखनीय कार्य यह प्रेरणा प्रदान कर महान साधिका श्री सोहनकुवर किया कि तिरपाल तहसील गोगुन्दा जिला उदयपुर जी म० सा० के नाम से महासती श्री सोहनकुंवर आपकी सद्गुरुवर्या श्री महासती श्री सोहनकुवर प्रवचन हाल रखा।
PROIN
विशिष्ट व्यक्तित्वों से सम्पर्क बाल ब्रह्मचारिणी, महाविदुषी, प्रवचनभूषण आगम व्याख्याकार आचार्यश्री घासीलाल जी महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा० का सुदीर्घ म०-- उदयपुर में जिस समय महासती श्री कुसुमसंयमकाल में अनेक विशिष्ट व्यक्तियों से सम्पर्क वती जी म. एवं महासती श्री पुष्पवती जी म. हुआ है । उनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण इस अपनी सद्गुरुवर्या के सान्निध्य में अध्ययनरत थीं, CG प्रकार है
उस समय पू. आचार्यश्री घासीलाल जी म. उदय१. उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी म. सा०- पुर में ही विराजमान थे। यदा-कदा आप अपनी पूजनीया महासती श्री कुसूमवती जी म. सा० सदगुरुवर्या के साथ उनके दर्शन करने जाया करती अपने गुरुणी जी म. सा. के साथ उपाचार्य श्री थीं। पं. थी घासीलालजी म. सा. व्याकरण संबंधी गणेशीलाल जी म. सा. के अनेक बार दर्शन करने तथा अन्य भी अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे। एवं प्रवचन सुनने पधारा करते थे। आप कई बार जिनका आप सटीक उत्तर देती थीं। आपकी अध्यअपनी जिज्ञासा उनके समक्ष प्रस्तुत करती थीं यन के प्रति रुचि और सरल व्यवहार से वे बहतमा और उसका समुचित समाधान भी पाती थीं। आप
प्रभावित थे। महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. को उनसे ज्ञान-ध्यान विषयक चर्चा प्रायः करती रहती
आपके पास दीक्षा लेने की प्रेरणा भी आचार्यश्री 3 थीं। लघुवय में आपकी ज्ञान-पिपासा से उपाचार्य घासीलालजी म. सा. ने ही दो। श्री जी अत्यन्त प्रभावित हुए । अत्यन्त प्रभावित हुए।
पंजाबकेसरी श्री प्रेमचन्दजी म० सा०-संवत् २. आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म.सा.- २०१३ में महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. का महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. अपने अध्ययन- वर्षावास ब्यावर था और उसी वर्ष पंजाबकेसरी काल में ब्यावर स्थित गुरुकुल में अध्ययनरत जी का वर्षावास भी ब्यावर में ही था। पंजाबथीं। उस समय आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषि केसरीजी महाराज के गुरु श्री वृद्धिचन्दजी म. सा. जी महाराज का ब्यावर में वर्षावास था। आप उदयपुर जिले के बगडुन्दा गांव के थे। उन्होंने
: उनके दर्शन करने, प्रवचन श्रवण का लाभ अमर सम्प्रदाय में दीक्षा ली थी। फिर विचरण प्राप्त करने तथा ज्ञान चर्चा करने के लिए जाया करते हुए पंजाब पधार गये थे। अतः उधर ही करती थीं।
विचरते रहे । इसी कारण श्री प्रेमचन्द जी म. राजस्थान के ग्राम नगरों में विचरण करते महासती जी को 'ताऊजी की चेलियाँ' बोलते हुए एक बार भीलवाड़ा में आपने आचार्यश्री के थे। क्योंकि श्री ताराचन्दजो म. सा. एवं श्री वृद्धिदर्शन किए। उस समय आपकी सरलता, वैदुष्य, चन्द जी म. सा. गुरुभाई थे । महासतीजी ने अनेक ) प्रवचन पटुता एवं ज्ञानाभ्यास की आचार्यश्री ने भी प्रवचन सुने । कई बार दिन में ज्ञान चर्चा भी प्रशंसा की।
होती थी।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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उपाध्याय श्री अमरचन्दजी म. सा.-कविश्री दिल्ली का यशस्वी चातुर्मास सम्पन्न कर उत्तरप्रदेश CH अमरचन्द जी म. सा. से भी जयपुर, दिल्ली, की ओर विहार किया। ग्रामानुग्राम विहार करते
अजमेर आदि स्थानों पर मिलना हुआ और ज्ञान हुए आप पू० श्री काशीराम जी म० की दीक्षा स्थली चर्चा हुई।
कांधला पधारी । यहां आपका और श्री सुदर्शनलाल उपाध्याय श्री फलचन्द जी म. सा.-महासती
जी म० सा० का स्नेह सद्भावनापूर्व श्री कुसुमवती जी म. सा. जब पंजाब की ओर
दोनों के साथ-साथ प्रवचन भी हुए । दोनों एक-दूसरे विचरण कर रही थीं, तब लुधियाना में उपाध्याय
से अत्यधिक प्रभावित हुए। It श्री फूलचन्द जी म. सा. से मिलना हआ। वे वहाँ जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म. सा०-महा24 स्थिरवास में थे। बड़े ही स्नेह से चर्चा-वार्ता की। सती श्री कुसमवतीजी म.सा. का जैन दिवाकर श्री (ERY! वे आपके वैदुष्य से बहुत प्रभावित हुए। उनके चौथमल जी म. सा० से भी अनेक बार मिलना
साथ ही कवि चूडामणि श्री चन्दन मुनिजी म. सा. हुआ। उनके दर्शन किये और प्रवचन भी सुने । भी विराजते थे । आपके प्रवचन को वे उसी समय अच्छा परिचय, स्नेह सद्भावना रही । विचार चर्चा कविताबद्ध करके जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर देते भी की। थे। श्री फूलचन्द जी म. सा. से आगमिक विषयों आचार्य श्री हस्तीमल जी म० सा०–महासती पर भी चर्चा हुई थी। उन्होंने जो प्रश्न पूछे थे श्री कसमवती जी म० ने आचार्य श्री हस्तीमल जी उनके आपने उत्तर दिये थे।
म० के दर्शन भी किये और प्रवचन भी उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्ली शांतिस्वरूप जी म० चर्चा का सुअवसर भी मिला। किशनगढ़, अजमेर सा०-महासती श्री कुमुमवती जी म. सा. उत्तर आदि स्थानों पर उनकी जन्म जयन्ती समारोहों में भारत में विचरण करती हई अपनी शिष्याओं सम्मिलित होने का अवसर भी मिला। साथ मेरठ पधारी । मेरठ में पूज्य श्री शान्तिस्वरूप आचार्य श्री नानालालजी म. सा०–सन् १९८१ जी म.सा० दीर्घकाल से स्थिरवास थे। श्री शान्ति- में आचार्य श्री नानालाल जी म० सा० का वषावास स्वरूपजीम० के शान्त प्रशान्त जीवन से महासतीजी उदयपर में था। महासती श्री कमवता जा माता अत्यधिक प्रभावित ह । वहा श्री सघ के आग्रह से का वर्षावास भी श्रमण संघ की ओर से उदयपर म
महासतीजी के प्रवचन भी हए। मेरठ से आपकी ही था। क्षमापर्व के दिन महासती श्री आचाया बा भावना हस्तिनापुर की ओर जाने की थी किन्तु श्री के समीप क्षमापना करने पधारा। अपार जन SIM शान्तिस्वरूप जी म० के आग्रह के कारण यहाँ कुछ मेदिनी के बीच आचार्यश्री ने अपना प्रवचन राककर अधिक दिनों तक रुकना पड़ा।
आपसे स्नेह सद्व्यवहार के साथ क्षमत क्षमापना श्री शान्तिस्वरूप जी महाराज प्रतिदिन कई किया। घण्टों का मौन रखते थे। तीन बजे बाद वे सबसे उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा.-महाजा मिलने, चर्चा आदि का समय बेते थे। जब तक आप सती श्री कसमवती म. सा० अमरगच्छ की प्रमुख
वहाँ ठहरी तब तक आगमिक प्रश्नोत्तर एवं अन्य धर्म महासतियों में हैं। वर्तमान में राजस्थान केसरी चर्चा हुई। यहीं पर श्री सुमतिप्रकाश जी म० सा० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की आज्ञा में एवं श्री विशालमुनिजी आदि से भी मिलना हुआ। विचरण कर रही हैं । महासती जी ने अजमेर, मदन
विद्वद्रत्न श्री सुदर्शनमुनि जी म० साल-महा- गंज और पाली में उपाध्याय श्री जी के सान्निध्य में सती श्री कुसुमवतीजी म० ने अपना चांदनी चौक, वर्षावास किये और ज्ञानाभ्यास भी किया । आगमों
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का ज्ञानाभ्यास भी आपके सान्निध्य में ही प्राप्त प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म.सा.- महासतीजी किया।
ने प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म. सा. के भी दर्शन उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा.-उपाचार्य किये। उन्होंने महासतीजी के वैदुष्य, मधुरवक्तृत्व, श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. से आपका बाल्यकाल से एवं मिलनसारिता आदि से प्रभावित होकर अपने ही विशिष्ट परिचय रहा है। इसका कारण यह है क्षेत्र विजयनगर श्री संघ को चातुर्मास कराने के कि उपाचार्य श्री जी की बहिन महासती श्री पुष्प- लिये भी कहा। महासती जी ने आपकी भावना को वती जी म. सा. एवं महासती श्री कुसुमवती जी मान देकर वहाँ तर्मास भी किया। म. सा. दोनों गुरु-बहिनें हैं अतः उपाचार्य श्री
मूर्तिपूजक आचार्य श्री कांति सागर जी म. सा. आपको बहिन महाराज के समान ही आदर एवं
-अजमेर के स्थानक के विशाल पंडाल में महा- IAS स्नेह देते हैं। उपाचार्य श्री एक महान् चिंतक एवं
सती जी का एवं आचार्य श्री कांति सागरजी म. का, मनीषी सन्तरत्न हैं। आपसे कई बार अनेक विषयों पर चिंतन-मनन और चर्चाएं हुईं।
साथ-साथ प्रवचन हआ। महासती जी ने आचार्य मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमलजी म. सा.-महा
श्री का स्वागत किया । आचार्य श्री ने महासती जी कुसुमवती जी म. सा. का मरुधर केसरी जी म.
___ का गुणानुवाद किया। सा. से भी अनेक बार मिलन हआ। अनेक विषयों मृतिपूजक खरतरगच्छीय साध्वी श्री विच-IKC पर चर्चा भी होती थी। महासती जी के ज्ञानाभ्यास क्षण श्री जी म. सा.- केकड़ी चातुर्मास सम्पन्न कर ! से आप भी प्रभावित थे।
महासती श्री कुसुमवती जी म. जयपुर की ओर युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. सा.-महा- पधार रही थीं। बीच में मालपुरा गांव में ठहरना सती श्री कुसुमवती म. सा. ने स्व० युवाचार्य श्री हुआ। मालपुरा में मूर्तिपूजक समुदाय की सुप्रसिद्ध | जी के ब्यावर में दर्शन किये थे। वे शान्त, दान्त साध्वी जी श्री विचक्षण श्री जी म. भी विराज रही का और गुण गम्भीर थे। महासती जी आपके प्रवचन थीं। दोनों के बाजार में सामूहिक प्रवचन हुए । में तथा सेवा में पधारती थीं। महासती जी के सरल इस आयोजन से जनता बहुत प्रभावित हुई। स्वभाव एवं वैदुष्य से युवाचार्य श्री बहुत प्रसन्न और प्रभावित थे। वे आपको समुचित आदर भी
तेरापंथी संत-सतियाँ जी-कई बार तेरापंथी देते थे।
' संघ के साधु साध्वियों के साथ मिलना हुआ और युवाचार्य श्री डॉ. शिवमुनि जी म. सा.-महा- साथ-साथ प्रवचन भी हुए। सती श्री कुसुमवतीजी म सा. का युवाचार्य श्री डॉ० विश्व मैत्री दिवस के अवसर पर कई बार ५ शिवमुनि जी से अजमेर के समीप तीर्थराज पुष्कर सभी सम्प्रदाय के सन्त सातियों के साथ आपके
में मिलना हुआ था। वहां साथ-साथ प्रवचन भी प्रवचन हुए। आप संकीर्ण विचारों से मुक्त हैं ।70) हुए और ज्ञानचर्चा भी हुई थी।
आपका कहना है कि हम साधारण गृहस्थ से प्रेम/kE प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म.सा.-प्रवर्तक श्री स्नेह से बोल सकते हैं तो किसी भी सम्प्रदाय के जी के दर्शनों का लाभ अनेक बार मिला। आपसे साधु-साध्वियों से बोलने में हिचकिचाहट क्यों ?
महासती जी को ज्ञान चर्चा भी हुई। आपश्री के व इन विचारों से आपके विशाल दृष्टिकोण का पता|| AS र महासती जी के बीच सद्भावनापूर्ण व्यवहार है। चलता है।
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द्वितीय खण्ड: जीवन-दर्शन
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महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. का धर्मपरिवार
ऐसा कहा जाता है कि यदि गुरु योग्य होता है शुक्ला पंचमी दिनांक २१ फरवरी सन् १९६६ को तो उसके शिष्य भी योग्य हैं। यह कहावत नाथ द्वारा में दीक्षा ग्रहण की। बाल ब्रह्मचारिणा महासताना कुसुमताजा मता- आपने संस्कृत, प्राकत, हिन्दी भाषाओं का
के सम्बन्ध में सत्य चरितार्थ होती है। जिस प्रकार उच्चस्तरीय अध्ययन किया। आपने जैन सिद्धांतों | आपने अपने जीवन में ज्ञानाराधना कर ज्ञान अजित का भी गहन अभ्यास किया है। आपने हिन्दी
या है, आर अपना प्रातभा का विकास किया ह, साहित्यरत्न, जैनदर्शन में शास्त्री. पाथर्डी बोर्ड
उसी के अनुरूप आपने ज्ञानार्जन हेतु अपनी की सिद्धांताचार्य आदि परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर उपाE८ शिष्याओं/प्रशिष्याओं के लिये भी व्यवस्था करने का धियां प्राप्त की। जैनागमों और दर्शन साहित्य का
सदैव ध्यान रखा । ज्ञानाभ्यास के लिए आपने उन्हें भी अध्ययन किया है। समय और सुविधा भी उपलब्ध करवाई। इसका
आपकी प्रवचन, गायन, विचरण और लेखन Cी परिणाम यह है कि आपकी समस्त शिष्याएँ/प्रशि
कार्य में विशेष रुचि है। आपके द्वारा लिखित/ STI ष्याएँ विदुषी, विवेकशीला और वाक्पटु हैं । संयमा| राधना में भी सभी एक से एक बढ़कर है । दूसरा
संकलित पुस्तकें हैं -चारित्र सौरभ, कुसुम चारित्र ( उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सभी सरल स्वभावी
स्वाध्याय माला, कसुम चरित्र नित्य स्मरण माला और विनयशीला तथा सेवाभावी हैं।
चारित्र ज्योति आदि ।
आपकी प्रेरणा से अनेक संस्थाओं की स्थापना - तीसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सभी ने
भी हुई है जिनमें-महिला मण्डल, चांदनी चौक, GI महासती जी के वैराग्योत्पादक प्रवचनों से प्रभावित
दिल्ली, धार्मिक पाठशाला, अमी नगर सराय, जैन होकर संयम व्रत अंगीकार किया और चौथी विशे
वीरवाल संघ, दोघट, जैन वीर बालिका संघ, षता यह है कि सभी बाल ब्रह्मचारिणी हैं । पांचवां
कांधला, प्रमुख हैं। वैशिष्ट्य यह है कि इस सिंघाड़े में दो साध्वियाँ । Ph. D. उपाधि से विभूषित हैं। ऐसा सिंघाड़ा
आपकी पांच शिष्यायें हैं-(१) श्री दर्शनप्रभा शायद ही अन्य कोई दूसरा हो।
जी म., (२) श्री विनयप्रभा जी म., (३) श्री इस परिप्रेक्ष्य में हम महासती जी के धर्म परि
रुचिकाजी म., (४) श्री राजश्रीजी म. और (५) 5 वार का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
श्री प्रतिभा जी म.। (१) महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. सा.-... आपने राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, P आपका जन्म उदयपुर जिले के ग्राम वगडन्दा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, दिल्ली आदि प्रदेशों में विचनिवासी श्रीमान् कन्हैयालालजी छाजेड़ की धर्म- रण कर धर्म का प्रचार किया है। पत्नी सौभाग्यवती हंसा देवी छाजेड़ की पावन कुक्षि महासती (डा.) दिव्यप्रभाजी म. सा.-आपका से श्रावण कृष्णा अमावस्या सं. २००५ के दिन जन्म उदयपुर निवासी श्रीमान कन्हैयालाल जी हुआ। आपका जन्म नाम हीराकुमारी है। सियाल की धर्मपत्नी सौभाग्यवती चौथबाई की है आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. को पावन कुक्षि से वि. सं. २०१४ मार्गशीर्ष शुक्ला
अपना गुरु बनाकर परम विदुषी महासती श्री कुसुम दशमी दिनांक ३० नवम्बर १९५७ को हुआ था। वती जी म. के सान्निध्य में सं. २०२५ फाल्गुन संसार पक्ष से आप महासती श्री कुसुमवती जी म.
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महासती श्री कुसुमवती जी : शिष्या परिवार के साथ महासती गरिमा जी, पूज्य गुरूणी प्रवरा महासती कुसुमवती जी (मध्य में) महासती श्री दिव्यप्रभा जी, महासती निरुपमा जी
एवं महासती अनुपमा जी :
महासती रुचिका जी महासती चारित्रप्रभा जी, महासती दर्शनप्रभा जी, महासती विनयप्रभा जी, महासती राजश्री जी एवं महासती प्रतिभाश्री जी :
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की ममेरी बहिन हैं। आपका जन्म नाम कु. स्नेह उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री शान्तिस्वरूप जी लता है।
म. सा. के सुशिष्य श्री सुमतिप्रकाश जी म. सा. ___आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ने आपको कांधला में दिनांक ३० अप्रेल १९८० के को गुरु बनाकर परम विदुषी महासती श्री कुसुम- दीक्षा प्रदान की। वती जी म. सा. के पास वि. स. २०३० कार्तिक आपने उत्तर प्रदेश से इण्टरमोएियट तक शुक्ला त्रयोदशी, दि. ३ नवम्बर १६७३ के दिन अध्ययन किया। फिर निरन्तर परीक्षोत्तीर्ण करते अजमेर में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। हुए आपने एम. ए. किया और अभी पुनः आप ||
आपने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से एम. ए. की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं । आपने संस्कृत विषय में एम. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी व अंग्रेजी में अच्छी योग्यता में उत्तीर्ण की । हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य- प्राप्त की है। आपको जैन सिद्धांतों का भी अच्छा रत्न, राज. वि. वि. से जैन दर्शन शास्त्री तथा अभ्यास है। दिल्ली संस्थान से जैन दर्शन आचार्य उत्तीर्ण की। आपको रुचि काव्य रचना, सुसाहित्य का आचार्य श्री सिद्धर्षि के 'उपमिति भव प्रपच
अध्ययन और चित्रकला में विशेष हैं। 'गीतों की कथा' पर शोध प्रबन्ध लिखकर राजस्थान विश्व
गरिमा' नाम से आपकी एक पुस्तक प्रकाशित हो विद्यालय, जयपुर से पी-एच० डी० की उपाधि
चुकी है। प्राप्त की।
आपने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, जम्मू____ आपने रत्नाकर पच्चीसी का हिन्दी अनवाद काश्मीर आदि प्रान्तों में विचरण किया है। किया है और प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रंथ का सम्पादन (४) महासती (डॉ.) श्री दर्शनप्रभाजी म.सा.भी आपने ही किया है । साहित्य के प्रति आपकी आपका जन्म दिल्ली निवासी ओसवाल वंशी, लोढा विशेष रुचि है। यही कारण है कि आप सदैव गोत्रीय श्रीमान रतनलाल जी की धर्मपत्नी सौभाअध्ययन, अध्यापन एवं लेखनादि में व्यस्त रहते ग्यवती कमलाबाई की पावन कक्षि से संवत २०१० | हैं । विश्वास है कि आपकी प्रतिभा का लाभ समाज आश्विन शुक्ला त्रयोदशी, दि. २३ अक्टूबर १९५३ को मिलेगा।
को हुआ । आपका जन्मनाम सरोजकुमारी है। ____ आपकी दो शिष्याएँ हैं-(१) साध्वी श्री अनु- आपने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. पमाजी म. एवं (२) साध्वी श्री निरुपमा जी म.। को गूरु बनाकर महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. दोनों ही सांसारिक रिश्ते में बहिनें हैं।
सा. के पास अजमेर जिले के ब्यावर नगर में सं. ____ आपने राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, जम्मू- २०३२ फाल्गुन कृष्णा पंचमी दिनांक २० फरवरी, काश्मीर आदि में धर्म प्रचार किया है।
१९७६ के दिन दीक्षाव्रत अंगीकार किया। आप (३) महासती श्री गरिमा जी म. सा.--आपका महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. की प्रशिष्या हैं । जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर के निवासी श्रीमान आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्यरत्न, तालेराम जी उज्ज्वल की धर्मपत्नी सौभाग्यवती वर्धा से राष्ट्रभाषारत्न, अहमदाबाद गुजरात से रमादेवी की पावन कुक्षि से दिनांक १५-४-१९६३ जैन दर्शनाचार्य, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर को हआ। आपका जन्म नाम क. गीता (क. से एम. ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की और त गीतिका) है । आपने महासती श्री कुसुमवती जी "आचार्य हरिभद्र एवं उनके साहित्य" पर शोध म. सा. के उपदेशों से प्रेरित होकर उनका शिष्यत्व प्रबन्ध लिखकर राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ग्रहण कर दीक्षाव्रत अंगीकार किया।
से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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आपको संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान है । आपकी रुचि प्रवचनादि में अधिक है ।
आपने राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में विचरण किया है ।
आपने एम. ए., बी. एड. तक व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त किया है। धार्मिक दृष्टि से जैनागम विश्वास है कि आपकी योग्यता और प्रतिभा साहित्य और थोकड़े आदि का भी अध्ययन किया है । जैन सिद्धान्तों का भी आपको अच्छा अभ्यास है । जैन सिद्धान्त परीक्षा भी उत्तीर्ण की है ।
का समाज को लाभ मिलेगा ।
(५) महासती श्री विनयप्रभाजी म० सा०आपका जन्म जयपुर निवासी ओसवाल वंशी, गाँधी गोत्रीय श्रीमान् सुन्दरलालजी की धर्मपत्नी सौभाग्य वती मुन्नीबाई की पावन कुक्षि से दिनांक ५ जून, १९५६ के दिन हुआ था। आपका जन्मनाम सविता कुमारी है ।
आपने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. को गुरु मानकर महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. सा. के पास दिल्ली में दिनांक २४ फरवरी १९७८ सं. २०३४ को दीक्षाव्रत स्वीकार किया। आप महासती श्री कुसुमवतीजी म. की प्रशिष्या हैं ।
आपने संस्कृत, हिन्दी भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है । आपने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर से हायर सेकण्डरी परीक्षा और जैन सिद्धांत विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की।
अपनी गुरुणीजी एवं गुरु बहिनों के साथ आपने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, जम्मूकाश्मीर आदि का भ्रमण किया । आपकी विशेष रुचि 'सेवा कार्य' करने में है ।
(६) महासती श्री रुचिकाजी म० सा० - आपका जन्म काश्मीर के जम्मू नगर निवासी श्रीमान् मनीरामजी आनन्द की धर्मपत्नी सौभाग्यवती राजदेवी की पावन कुक्षि से सं. २०१६ श्रावण शुक्ला षष्ठी, दिनांक ८ अगस्त, १९५६ के दिन हुआ था ।
आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. को 'गुरु मानकर महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. सा. के सान्निध्य में सं. २०३७ वैशाख शुक्ला पूर्णिमा दिनांक ३० अप्रैल, १६८० कांधला में दीक्षाव्रत
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अंगीकार किया । आप महासती श्री कुसुमवतीजी म. की प्रशिष्या हैं ।
हिन्दी, संस्कृत, योग्यता अर्जित की। में है ।
अंग्रेजी में भी आपने अच्छी आपकी विशेष रुचि संगीत
अपनी गुरुणीजी और गुरु बहिनों के साथ आपने दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जम्मू काश्मीर, राजस्थान आदि में विचरण किया है ।
(७) महासती श्री अनुपमाजी म० सा०श्रीमान् नोरतमलजी बोहरा की धर्मपत्नी सौभाग्यआपका जन्म जामोला जिला अजमेर निवासी वती सोहनबाई बोहरा की पावन कुक्षि से सं. २०२४ वैशाख कृष्णा द्वितीय दिनांक १५ अप्रैल, १९६८ को हुआ । आपका जन्मनाम कु. शकुन बोहरा है ।
आपने श्रद्धेय श्री राजेन्द्र मुनिजी म. सा. को गुरु बनाकर महासती श्री दिव्यप्रभाजी म. सा. के पास वि.सं. २०४० माघ शुक्ला त्रयोदशी दिनांक १५ फरवरी, १९८४ को किशनगढ़ जिला अजमेर में जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की ।
आपने जैन सिद्धान्तों के बोल व थोकड़ों का अध्ययन किया है एवं व्यावहारिक शिक्षण बी. ए. की तैयारी कर रही हैं ।
आपने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान अर्जित किया है। आपकी विशेष रुचि भ्रमण, चित्रकला और अध्ययन में है । 'दीक्षा ज्योति' नामक आपकी सम्पादित प्रकाशित गीत रचना है । आपकी बहिन ने भी संयम ग्रहण किया है जिनका नाम साध्वी निरूपमाजी म. है ।
आप महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. की प्रशिष्या हैं और अपनी सद्गुरुणीजी एवं गुरुणी के साथ राजस्थान आदि प्रान्तों में विचरण किया है ।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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(८) महासती श्री राजश्रीजी म. सा.-आपका में दीक्षा ग्रहण की। आप महासती श्री कुसुमवती जन्म ग्राम बगडुन्दा जिला उदयपुर निवासी जी म. सा. की प्रशिष्या हैं। श्रीमान् गोपीलालजी छाजेड़ की धर्मपत्नी सौभाग्य- आपने उत्तर प्रदेश बोर्ड से हाईस्कूल परीक्षा | वती अमृताबाई छाजेड़ की पावन कुक्षि से सं. २०२३ व प्रयाग से विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की है। आप ४ फाल्गुन शुक्ला पंचमी दिनांक १० फरवरी, १९७७ जैन सिद्धान्त विशारद परीक्षा भी उत्तीर्ण हैं। को हुआ । आपका जन्मनाम राधाकुमारी है। थोकड़े आदि कण्ठस्थ हैं। ___आपने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. संस्कृत, हिन्दी भाषाओं का आपको ज्ञान है । 12 को गरु बनाकर विदूषी साध्वी श्री चारित्रप्रभाजी आपकी विशेष रुचि आज्ञापालन में है। म. सा. के पास सं. २०४१ मगसर शुक्ला दशमी,
___ आपने राजस्थान, पंजाब, दिल्ली आदि प्रान्तों 8 दिनांक २ दिसम्बर, १९८४ के दिन चांदनी चौक,
का भ्रमण किया है। दिल्ली में दीक्षा ग्रहण की। आप महासती श्री
(१०) महासती श्री निरुपमाजी म० सा०- II कुसुमवतीजी म. की प्रशिष्या हैं। आपने मेरठ विश्वविद्यालय से बी. ए. की ।
आपका जन्म जामोला (ब्यावर) जिला अजमेर
निवासी ओसवाल वंशी, बोहरा गोत्रीय श्रीमान् । उपाधि प्राप्त की। पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्त ।
__ नोरतमलजी की धर्मपत्नी सौभाग्यवती सोहनबाई | शास्त्री परीक्षा पास की। आपको थोकड़ों और
की पावन कुक्षि से सं.२०२२ माघ शुक्ला पूर्णिमा के शास्त्र का अच्छा ज्ञान है । आप हिन्दी साहित्यरत्न
! दिन हुआ था। आपका जन्मनाम शांताकुमारी है । भी उत्तीर्ण हैं । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं
आपने उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्र मुनिजी म. सा. ICS का आपको अच्छा ज्ञान है । गायन में आपकी ।
को गुरु बनाकर पाली (मारवाड़) में विदुषी साध्वी का विशेष रुचि है।
(डॉ.) श्री दिव्यप्रभाजी म. सा. का शिष्यत्व जैन ___ आपने राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब आहती दीक्षा ग्रहण कर स्वीकार किया। आपकी आदि में विचरण किया है।
दीक्षा सं. २०४३ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी दिनांक PAN (E) महासती श्रीप्रतिभाजी म. सा०-आपका १६ अक्टूबर, १९८६ को हुई थी! आप महासती जन्म जयपुर निवासी ओसवालवंशी श्रीमान् झंवर- श्री कुसुमवतीजी म. सा. की प्रशिष्या हैं। लालजी झाबक की धर्मपत्नी सौभाग्यवती किरणदेवी आपने मैट्रिक पर्यन्त व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त झाबक की पावन कुक्षि से सं. २०२७ भाद्रपद कृष्णा कर संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषाओं का अभ्यास तृतीया दिनांक १५ अगस्त, १९७१ को हुआ था। किया है। आपको अनेक थोकड़े, ढालें, चौपाइयाँ आपका जन्म नाम प्रवीणाकुमारी है।
आदि कण्ठस्थ हैं । महासती श्री अनुपमाजी म. सा. __आपने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. आपकी सांसारिक बहिन हैं। को गुरु बनाकर सं. २०४१ मगसर शुक्ला दशमी सेवा विचरण आदि में आपकी विशेष रुचि है। दिनांक शदिसम्बर, १९८४ को चाँदनी चौक, दिल्ली आप संयम साधना में सदैव अग्रसर रहती हैं। में महासती श्री चारित्रप्रभाजी म. सा. के सान्निध्य आपका विहार क्षेत्र राजस्थान है।
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द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन (0.30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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चातुर्मास सूची
क्षेत्र
संवत् १९६४ १९६५ १९९६ १९९७ १९६८ १९९६ २००० २००१ २००२
सन् क्रम १९३७ २७ १९३८ २८ १९३६ २६ १६४० ३० १६४१ ३१ १९४२ ३२ १९४३ ३३ १६४४ ३४ १६४५ ३५ १६४६ ३६ १९४७ ३७ १६४८ ३८ १९४६ ३६ १९५० १९५१ ४१ १६५२ ४२ १९५३ ४३ १९५४ १९५५
२००३
क्षेत्र उदयपुर सलोदा उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर ब्यावर नाथद्वारा उदयपुर ब्यावर डूंगला उज्जैन कोटा ब्यावर विजयनगर भीलवाड़ा ब्यावर डबोक नाथद्वारा भूपालगंज (भीलवाड़ा) देलवाड़ा बाघपुरा बम्बोरा
२००४ २००५ २००६ २००७ २००८ २००६ २०१० २०११ २०१२ २०१३ २०१४ २०१५ २०१६
संवत् २०२० २०२१ २०२२ २०२३ २०२४ २०२५ २०२६ २०२७ २०२८ २०२६ २०३० २०३१ २०३२ २०३३ २०३४ २०३५ २०३६ २०३७ २०३८ २०३६ २०४० २०४१ २०४२ २०४३ २०४४ २०४५ २०४६
सन् डबोक जोधपुर
१९६४ सादड़ी (मारवाड़) १९६५ पाली (मारवाड़) १९६६ उदयपुर
१९६७ डूंगला
१९६८ सेमा
१९६६ भीलवाड़ा १९७० बनेडा
१९७१ अजमेर
१९७२ अजमेर
१६७३ मदनगंज
१६७४ गुलाबपुरा १९७५ केकड़ी
१९७६ देहली (चाँदनीचौक) १९७७ देहली (वीर नगर) १९७८ जम्मू (कश्मीर) १९७६ अलवर
१९८० उदयपुर ब्यावर
१९८२ मदनगंज
१९८३ मेड़ता सिटी १९८४ जयपुर
१६-५ पाली (मारवाड़) १९८६ नान्देशमा
१९८७ नाथद्वारा
१९८८ १९८६
१९८१
१९५७ ४७ १९५८ १९५६ ४६
२०१७ २०१८ २०१६
१६६० ५१ १९६१ ५२ १९६२ ५३
इंगला
| १८० Cod.
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थGards
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धर्मया
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॥३॥
धर्म का समन्वय मनुष्य की हृदयगत सहज आस्था से है, तो दर्शन का सम्बन्ध मस्तिष्क की तर्क-वितर्क प्रधान बुद्धि और विचारणा से जुड़ा है।
दर्शन, धर्म की आधारभूमि है, तो धर्म, दर्शन को जीवन्त रूप प्रदान करता है। दर्शन की सुदृढ़ भूमिका पर स्थिर धर्म सदा अपनी धुरी पर गतिमान रहता है तो धर्म के रूप में अभिव्यक्त और मूर्तिमान दर्शन हर किसी को अपनी कुशलता और उज्वलता की ओर आकर्षित करता है।
प्रस्तुत धर्म और दर्शन खण्ड में अनेकानेक विद्वान् लेखकों, चिन्तकों के महत्वपूर्ण विचारों का वह गुलदस्ता प्रस्तुत है जिसमें धर्म का रम्य रमणीय स्वरूप विविध पक्षों को उजागर करता है तो दर्शन की सौरभ उन सबको मन्त्रमुग्धकारी रूप प्रदान करती है।
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हमारी दार्शनिक परम्पराओं में अनेक समान विचार विद्यमान हैं । उनको प्रस्तुत करने के विभिन्न प्रकार हैं। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि किसी तत्व का प्रतिपादन निगूढ़ रूप में किया जाता है, जिसका अभिप्राय गहराई से परीक्षण करने पर ही प्रकट होता है | आचार्य किसी एक सूत्र को पकड़ लेते हैं, जिसके आधार पर अनेक विचार प्रकट किये जाते हैं । उन सभी विचारों तथा सूत्रों का परीक्षण सूक्ष्म दृष्टि से करना चाहिए तथा अन्य सन्दर्भो के साथ करना चाहिए । यदि किसी वस्तु का परीक्षण उसके स्वरूप को ही ध्यान में||
रखकर किया जायगा, तो उसका स्वरूप पूर्णतः प्रकाशित नहीं हो एक को जानो
सकता । भारतीय दर्शनों की एक सुदीर्घ परम्परा है। विभिन्न दर्शनों के आलोचन-प्रत्यालोचन से विभिन्न दर्शनों में प्राप्त तत्वों में संवाद दृष्टिगत होता है । यहाँ हम जैन-दर्शन में स्वीकृत वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं और देखने का प्रयास कर रहे हैं कि इस प्रकार की मान्यता उपनिषदों में भी मिलती है। |
प्रत्येक वस्तु के दो प्रकार के धर्म हैं-(१) भावात्मक धर्म, जिन्हें स्वपर्याय कहा जाता है, और (२) अभावात्मक धर्म, जिन्हें परपर्याय कहा जाता है । भावात्मक धर्म में किसी मनुष्य के सम्बन्ध में उसके आकार, रूप, जाति, कुल, जन्मस्थान, आयु, पद आदि के सम्बन्ध में ।
जानकारी दी जाती है, किन्तु इतने से ही उसका सारा स्वरूप प्रका-८ -डा० अमरनाथ पाण्डेय शित नहीं हो पाता । वह एक समुदाय में रहता है, अनेक व्यक्तियों से का
उसके अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं। जब तक उन सम्बन्धों का निरूपण KC प्रोफेसर एवं अध्यक्ष न हो जाय, यह पता न लग जाय कि वह व्यक्ति अन्य व्यक्तियों संस्कृत विभाग
से किन दृष्टियों से भिन्न है, तब तक उस व्यक्ति का पूरा विवेचना
नहीं माना जा सकता । उसमें रहने वाले धर्मों को भी जानना है | काशी विद्यापीठ, वाराणसो और न रहने वाले धर्मों को भी। किसी भी व्यक्ति के स्वरूप का
सर्वाङ्गीण विवेचन उसके भावात्मक तथा अभावात्मक धर्मों को प्रस्तुत करने से ही सम्भव होता है।
स्वपर्याय थोड़े होते हैं, जबकि परपर्याय अनन्त"स्तोकाः स्वपर्यायाः परपर्यायास्तु व्यावृत्तिरूपा अनन्ताः ।"
-षड्दर्शन समुच्चय, गुणरत्न की टीका । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
१८१ Horror साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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जैनदर्शन में कहा गया है कि वस्त अनन्त धर्मों है कि हम उसे पूर्णतः जानते हैं, उसे हम पूर्णतः | न वाली होती है-अनन्तधर्मकं वस्तु । यह एक सूत्र है, नहीं जानते । आज किसी के साथ मैत्री है, तो
जिससे वस्तु के स्वरूप को सरलता से समझा जा कल शत्रुता । आज उसके सम्बन्ध से हमारा लाभ सकता है । जब हम किसी वस्तु के भावात्मक होता है, तो कल हानि। हम किसी से वञ्चित धर्मों के सम्बन्ध में विचार करते हैं, तब हम देखते होते हैं, किन्तु वञ्चना के बाद भी हम पुनः उसके हैं कि उस वस्तु के भावात्मक धर्मों की संख्या कम सम्पर्क में आते हैं और धोखा खाते हैं । यह क्यों - है और जब अभावात्मक धर्मों के सम्बन्ध में होता है ? क्या हम इसके कारणों पर विचार विचार करते हैं, तब यह स्पष्ट होता है कि अभा- करते हैं ? व्यक्ति तो सामान्य रूप से यही सम- VS वात्मक धर्म संख्या में बहुत अधिक हैं । इस प्रकार झता है कि किसी व्यक्ति का इतना काम किया, एक ही वस्तु के अनन्त धर्म हो जाते हैं। समय के फिर भी वह धोखा देता है । इसके पीछे रहस्य यह अनुसार धर्मों में परिवर्तन भी होता रहता है, है कि हम उस व्यक्ति को नहीं समझते, फलतः नवीन धर्मों की उत्पत्ति भी होती रहती है । एक हम दुःखित होते हैं । मूल बात तो यह है कि वस्तु ही मनुष्य की अवस्था आदि के क्रम से अनेक के स्वरूप को ठीक से जाना जाय । जब हम किसी विशेषताएँ होती हैं और इन विशेषताओं में समय- महापुरुष के जीवन के सम्बन्ध में विचार करते हैं, समय पर परिवर्तन भी होता रहता है। किसी तो देखते हैं कि वे व्यवहारों में इस प्रकार दुःखित व्यक्ति की किसी स्थिति में प्रशंसा होती है और नहीं होते, जिस प्रकार हम होते हैं । इसका कारण किसी स्थिति में निन्दा । यह धर्मों में परिवर्तन के यह है कि वे वस्तु अथवा व्यक्ति के स्वरूप को कारण होता है।
ठीक-ठीक जानते हैं, अतः व्यवहार में किसी भी __ हमारे सामने प्रश्न है कि किसी वस्तु को ठीक
प्रकार सन्देह नहीं रहता और न तो आसक्ति ठीक जाना जाय । हम यह भी जानते हैं कि वस्तु ।
रहती है, अतः व्यवहार से किसी भी प्रकार दुःखित के अनन्त धर्म हैं, जो भावात्मक तथा अभावात्मक
होने की बात नहीं उठती। सामान्य व्यक्ति वस्तु
के स्वरूप को नहीं जानता, अतः दुःखित होता है। दोनों हैं । जब हम वस्तु को जानेंगे, तो अनन्त धर्मों को जानेंगे, उसके सारे सम्बन्धों को जानेंगे। वस्तु स्वरूप से सत् है, किन्तु पर रूप से असत्, पूरे जगत् के सन्दर्भ में उसे रखकर उस पर विचार अतः वस्तु सद्सदात्मक हैकरेंगे । वह वस्तु अकेली नहीं होगी, वह जगत् की सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ।। अगणित वस्तुओं के सन्दर्भ में होगी। जब उसका अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।। मूल्याङ्कन होगा, तो अन्य वस्तुओं के स्वरूप का
जब किसी घट के सम्बन्ध में विचार उठता है, भी मूल्याङ्कन होगा । 'अनन्तधर्मकं वस्तु' का यही ।
यही कहा जायगा कि उस घट में घटव्यतिरिक्त रहस्य है। इसके पीछे बहुत बड़ा भाव छिपा
पदार्थो का अभाव है। घट के ज्ञान के लिए घट के हुआ है।
स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है और साथ ही घटव्यतिजब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को पूर्णतः जान रिक्त पदार्थों का भी ज्ञान आवश्यक है, अतः घट लेता है, तब यह कहा जा सकता है कि सभी को जान लेने पर अन्य पदार्थों का भी ज्ञान हो वस्तुओं को जान लेता है। कोई सामान्य व्यक्ति जाता है। आगम में कहा गया है कि जो एक को इस स्थिति में नहीं पहुँच सकता। हम प्रतिदिन जान लेता है, वह सभी को जान लेता है और जो देखते हैं कि जिसके सम्बन्ध में हमारा यह विचार सभी को जान लेता है, वह एक को जान लेता है
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । से मुक्ति होती है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई || जो सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ सत्ता नहीं है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह ब्रह्म 'य एक जानाति स सर्व जानाति ।
ही है, अतः यह कथन समीचीन है कि एक को यः सर्व जानाति स एकं जानाति ॥ जान लेने से सब-कुछ जान लिया जाता है। जैन
आचार्यों ने उपनिषद् के इस रहस्य को समझा था, इसी बात को इस प्रकार से भी प्रकट किया
अतः उन्होंने एक भाव के दर्शन से सभी भावों के गया है
दर्शन की बात कही है। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ।।
__ "यथा सोय केन मृत्पिण्डेन, सर्व मृत्मयं विज्ञातं सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः ।
स्याद् [वाचारम्म्भणं, विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव ।
सत्यम् ।" एको भावः सर्वथा तेन दृष्टाः ।।
–छान्दोग्योपनिषद् ६/१/११ जिसने एक भाव को सब प्रकार से देख लिया
घट, शराब आदि उसके विकार है, उसने सभी भावों को सब प्रकार से देख लिया और मत्तिकापिण्ड के ज्ञान से मिट्टी के सभी है और जिसने सभी भावों को सब प्रकार से देख
विकारों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार तो Ke लिया है, उसने एक भाव को सब प्रकार से देख वाणी के आश्रयभत नाम ही हैं, सत्य तो केवल 5 लिया है।
मिट्टी है, उसी प्रकार यह समझना चाहिए कि ब्रह्म जैन-आचार्यों का यह विवेचन-एक के ज्ञान से ही सत्य है। सबका ज्ञान-नितांत महत्वपूर्ण है। इससे यह प्रकट
अन्य सभी वस्तुएँ नाममात्र हैं। होता है कि जैन-आचार्यों की दृष्टि में एक सत्ता के सभी विलास हैं। जो तत्त्व एक में विद्यमान है वही ,
उपनिषदें कहती हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ अन्य पदार्थों में भी विद्यमान है । इस प्रकार एक के ज्ञान से सभी का ज्ञान सम्भव होता है। वेदान्त
'इदं सर्वं यदयमात्मा'-(बृहदारण्यक २/४/६), दर्शन में भी यह तत्त्व प्रकाशित किया गया है।
_ 'ब्रह्म वेदं सर्वम्' (मु० २/२/१२), वेदान्त मानता है कि एक के अतिरिक्त दूसरा नहीं
'आत्मवेदं सर्वम्' (छा० ७/२५/२) इत्यादि। है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह उस परम सत्ता अद्वतदर्शन में जिस प्रकार एक तत्व के ज्ञान से का ही विलास है।
सभी वस्तुओं के ज्ञान की बात कही गई है, उसी || उपनिषद् कहती है कि एक के ज्ञान से सबका प्रकार जैन-दर्शन में भी एक भाव के ज्ञान से सभी 9 ज्ञान हो जाता है, अतः मुख्य बात यह है कि एक भावों के ज्ञान की बात कही गई है। यह महत्वपूर्ण का ज्ञान प्राप्त किया जाय । जिस एक को जान लेने बात है कि किस प्रकार आचार्य अपने दर्शनों के से सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, उसी को आधार पर चिंतन करते हुए परम तत्त्व का साक्षाजानना चाहिए और वह तत्त्व है-ब्रह्म । ब्रह्म-ज्ञान त्कार करते हैं। १. 'एकेन मृत्पिण्डे न परमार्थतो भेदात्मना विज्ञातेन सर्वं मन्मयं घटशरोवोदञ्चनादिकं मृदात्मकत्वाविशेषाद्
विज्ञातं भवति । यतो वाचारम्भणं विकारो नामधेयंवाचैव केवलमस्तीत्यारभ्यते-विकारो घट: शराव उदञ्चनञ्चेति ।'
-ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य -२/१/१४
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 660
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CHEXECE
विभिन्न दर्शनों में अनेक बातें भिन्न-भिन्न संदर्भो भी यही दिखाई पड़ रहा है। इस प्रकार जैन-दर्शन में प्राप्त होती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं, का अन्तस्थल और बाह्यरूप पूर्णतः निर्मल और किन्तु यदि उनका संयोजन किया जाय, तो यह निष्कपट हो जाता है । यह तभी सम्भव होता है, पूर्णतः भासित होगा कि उन भिन्न-भिन्न सन्दर्भो के जब यह जान लिया जाता है कि एक भाव है, एक द्वारा एक अभेद का उपस्थापन होता है । यह अभेद सत्ता है, एक तत्त्व है, और उसी के सभी विलास ही हमारा लक्ष्य है, क्योंकि उसी से ज्ञान का वास्त- हैं। वर्तमान परिस्थितियों में यह परम आवश्यक विक स्वरूप प्रकट होता है। जो भेद है, वह दृष्टि हो गया है कि एक को जानो, भेद को नष्ट करो। में भेद उत्पन्न करता है और वस्तु के स्वरूप पर जिससे हमारा देश अखण्डित रहेगा, वह अभेद की
आवरण डाल देता है । इसी आवरण को हटाना है दृष्टि है । (9, यह अभेददृष्टि से दूर होता है। इसका उन्मीलन
अद्वत-वेदान्त और जैन-दर्शन में किया गया है। जब-जब समाज में अनेक वादों का प्रचार हुआ या विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जैनदर्शन है, तब-तब विषमताएँ उत्पन्न हुई हैं और मनुष्य का
एक परम तत्त्व की खोज में लगा हुआ है। प्रक्रि- माग धुधला हो गया है। उस परिस्थिति में कोई दायाओं के भेद के कारण भेद दिखाई पड़ रहा है। ऐसा आचार्य उत्पन्न होता है, जो अभेद-दृष्टि का
यह भेद साधनागत भेद है, लक्ष्य का भेद नहीं। उपस्थापन करता है। इससे मानव अपने निश्चित
उस लक्ष्य की खोज करनी है, जो एक है। अनेक लक्ष्य को देख पाता है और उचित मार्ग पर चल (3) की दृष्टि भ्रान्ति दृष्टि है। असत का अपलाप पड़ता है। शंकराचार्य के पहले अनेक वाद प्रचलित थे करना है, क्योंकि उसका कोई भाव नहीं है।
का और मनुष्य निश्चित नहीं कर पाता था कि उसका जानना है उस सत् को, जिसका अभाव नहीं है।
। मार्ग क्या है। शंकराचार्य ने स्थिति की गम्भीरता
को पहचाना और अद्वैत का उपदेश दिया। इससे का जैनदर्शन एक को जानने के लिए जिस पद्धति देश का कल्याण हआ, अखण्ड भारत का स्वरूप (O) का निर्देश करता है, वह भी विविक्त मार्ग है। सामने आया तथा सांस्कृतिक परम्परा की व्याख्या
केवल वही मार्ग है, ऐसी बात नहीं है । जैनदर्शन में का मार्ग प्रशस्त हआ। आज शंकराचार्य के समय विचार की यह उदात्तता है कि वह दूसरे मार्गों के की परिस्थिति विद्यमान है। समाज में अनेक वाद मा भी महत्व को स्वीकार करता है और यह केवल प्रचलित हो रहे हैं और मनुष्य भटक रहा है। इस
स्थूल विचार के धरातल पर नहीं है । इसके मूल में समय समाज को आवश्यकता है अभेद की दृष्टि चित्त के धरातल पर विद्यमान अहिंसा है। यहीं से की। जैनदर्शन में जिस अभेद-दृष्टि की प्रतिष्ठा
निकलती है विचार की उदात्तता और सिद्धान्तों के मिलती है, उसकी निभ्रान्त अवतारणा होनी ERE(गर्भ में पलती है प्रेम की भावना । न केवल विचार चाहिए। इससे देश का कल्याण हो सकेगा और मके क्षेत्र में यह औदार्य है, अपितु व्यवहार के क्षेत्र में विश्व की मानवता को उचित प्रकाश मिल सकेगा।
2G
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यतनाशील (जागरूक) साधक का अल्प, कर्मबन्ध अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र, तीव्रतर । अतः वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
--निशीथ भाष्य ३३३५
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जैन दर्शन- सम्मत
आत्मा का स्वरूपविवेचन
संस्कृत विभाग एस. डी. डिग्री कालेज मठलार
(देवरिया)
'सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः ' इस वचन के अनुसार 'गमन' का अर्थ - डॉ. एम० पी० पटेरिया 'ज्ञान' होता है । इस आधार पर 'अतति - गच्छति जानाति इति आत्मा' - यह व्युत्पत्ति 'आत्मा' की की गई है अर्थात्, शुभ-अशुभरूप कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापार यथासम्भव तीव्र-मन्द आदि रूपों में, समग्रतः ज्ञान आदि गुणों में रहते हैं। ज्ञानादिगुण जीव/आत्मा द्रव्य के हैं । अतः उक्त व्युत्पत्ति, इन्हीं गुणों के आधार पर की गई मानी जा सकती है । अथवा, 'उत्पाद व्यय - ध्रौव्य का त्रिक जिसमें है, वह आत्मा है ।" 'जीव' वह है, 'जो चार-प्राणों से जीवित है, जीवित था, और जीवित रहेगा ।' अर्थात, 'जीवित रहने का गुण जिसमें कालिक / सार्वकालिक है, वह जीव है । प्राणों के यद्यपि दश प्रकार हैं । किन्तु वे मूलतः चार ही माने गये हैं । ये हैं -बाल प्राण, इन्द्रिय-प्राण, आयु प्राण और श्वासोच्छ्वास । इनमें से बल प्राण के तीन प्रकार हैंकायबल, मनोबल और वाक्-बल । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र भेदों से इन्द्रिय-प्राण के पाँच प्रकार होते हैं । इन आठों के
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भारत के दार्शनिक चिन्तन-क्षितिज में आत्म-विचारण के द्योतक दो मौलिक सिद्धान्त, सर्वप्रथम प्रकाश्यमान दिखलाई पड़ते हैं। ये हैं(१) भूतचैतन्यवाद, और (२) स्वतन्त्र जीव / आत्म-वाद ! इनमें प्रथम भूत चैतन्यवादी चिन्तन का विकास विस्तार, कई प्रकार के अवान्तर सिद्धान्तों में परिस्फुरित हुआ, तो दूसरे स्वतन्त्र जीव / आत्मवादी चिन्तन ने विविध चिन्तनपरक स्वतन्त्र विचारणाओं की कई पपपराएँ विकसित कीं । इन सबकी सैद्धान्तिक चर्चा और समीक्षात्मकविचारणा के लिए साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित मेरे लेख को देखा जा सकता है । उन्हीं चर्चाओं के सन्दर्भ में, जैन दार्शनिक आत्म- सिद्धान्तों के अन्तर्गत जीव आत्मा का स्वरूप- अस्तित्वविवेचन इस लेख का लक्ष्य है । जैनदर्शन में छः द्रव्य माने गये हैं-जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । इनमें 'जीव' प्रमुख द्रव्य है । शेष पाँचों द्रव्य 'अजीव' हैं । इन अजीव द्रव्यों के साथ जब जीव का सम्बन्ध जुड़ता है, तब, विश्व का विस्तार होता है; और इस जगत् की समग्र प्रक्रिया सतत् गतिमान बनी रहती है। जैन दार्शनिकों ने 'जीव' द्रव्य के लिये 'आत्मा' शब्द का भी प्रयोग किया है । अतः जहाँ-जहाँ भी 'जीव' की विवेचना की गई है, उसे 'आत्मा' की भी विवेचना मानना चाहिए । तथापि, 'जीव' और 'आत्मा' दो अलग-अलग शब्द हैं । इन दोनों शब्दों का अर्थवोध एक ही द्रव्य में कैसे होता है ? यह जानने के लिये दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति, लक्षण और व्याख्या भी अपेक्षित है ।
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साथ श्वासउच्छ्वास को मिलाकर, प्राणों की दश संख्या हो जाती है।
उक्त चार-प्राणों से युक्त 'जीव' है, यह कथन, व्यावहारिक दृष्टि से किया गया है । निश्चयदृष्टि से तो 'जीव' वह है जिसमें 'चेतना' पाई जाये । यह चेतना, तीनों कालों में निर्बाध और अविच्छिन्न रूप से जीव में रहती है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं - इन्द्रिय-आदि दश प्रकार के प्राण पुद्गल / द्रव्यमय हैं । अतः वे 'द्रव्य प्राण' हैं; और 'चेतना' भाव प्राण है। मुक्त आत्माओं में दश प्रकार के द्रव्य प्राण नहीं रहते । तथापि चेतना रूप भाव प्राणों का अस्तित्व उनमें रहता है । इसी आधार पर उन्हें भी जैन दार्शनिक 'जीव' संज्ञा का व्यवहार करते है ।
जीव का लक्षण
जैन दृष्टि, जीव का लक्षण 'उपयोग' मानती है । उपयोग वह है, जो यथासम्भव ‘'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दोनों प्रकार के हेतुओं का सन्निधान रहने पर ज्ञाता के चैतन्य के अनुविधायी - परिणाम रूप में प्राप्त होता है । उक्त दोनों हेतुओं को 'आत्मभूत' और 'अनात्मभूत' दो-दो प्रकारों में विभाजित किया गया है । आत्मा से सम्बन्धित शरीर की चक्ष, आदि इन्द्रियाँ 'आत्मभूत बाह्य हेतु' हैं, तथा दीपक आदि 'अनात्मभूत वाह्य हेतु' हैं । शरीर, वाणी और मन की वर्गणाओं के निमित्त से आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन पैदा करने वाले द्रव्य योग को 'अनात्मभूत आभ्यन्तर हेतु' कहा गया है । . जबकि, इसी द्रव्य योग के निमित्त से उत्पन्न ज्ञानादिरूप 'भावयोग' को तथा 'आत्मविशुद्धि' को 'आत्मभूत आभ्यन्तर हेतु' कहा गया है ।
उपयोग, दो प्रकार का है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । दर्शनोपयोग 'निर्विकल्पक' तथा ज्ञानोपयोग 'सविकल्पक' होता है। अतः व्यवहारदृष्टि से जीव का लक्षण करते समय कहा जायेगा - 'ज्ञान और दर्शन उपयोग का जो धारक है, वह 'जीव' है ।' किन्तु, शुद्ध निश्चय दृष्टि से को ही जीव का लक्षण माना जायेगा ।"
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जीव का स्वरूप
जीव का स्वरूप दो प्रकार का है - शुद्ध स्वरूप और अशुद्ध स्वरूप । विभिन्न प्रकार के कर्मों के साथ जब तक जीव का सम्बन्ध है और जन्म-मरण- आदि कर्मजन्य विभाव पर्यायों के रूप में उसका परिणमनजब तक हो रहा है, तब तक वह 'अशुद्ध स्वरूप' वाला रहता है । किन्तु जब गुप्ति, समिति-आदि रूप संवर - निर्जरा के द्वारा घातिकर्मों का क्षय करके अनन्तचतुष्टय से युक्त हो जाता है, तब वह 'विशुद्ध' स्वरूप वाला हो जाता है, ओर, बाकी बचे चार अघाति कर्मों को भी जब नष्ट कर देता है, तब, आठ अनन्त गुणों वाला होकर 'परमात्मा' कहलाने का हकदार हो जाता है । इसी अवस्था में उसे 'सिद्ध' कहा जाने लगता है ।" जीव का परिणमन
यह जगत्, पर-परिणमनात्मक है । इसमें, ज्ञानावरण- आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के अनुसार क्रोध, मान आदि रूप जो संख्यातीत मलिन भाव पैदा होते हैं, उन्हें 'वैभाविक ' और 'स्वाभाविक' दो भागों में विभाजित किया गया है । अर्थात् जीव, संसारी अवस्था में, अपनी वैभाविक शक्ति से कर्म निमित्त के अनुसार क्रोध, मान, माया आदि विभाव रूपों में परिणमित होता है; और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाने पर, अपनी उसी शक्ति से, मुक्त-अवस्था में भी वह केवलज्ञानआदि स्वभावरूप में परिणमन करता है । इसी आधार पर जीव परिणमन के उक्त दो प्रकार किये गये हैं । वैभाविक, संक्षेपतः तीन प्रकार का हैओदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक । कर्मों के उदय से प्राप्त 'गति' आदि इक्कीस प्रकार का है औदयिकभाव। जबकि कर्मों के उपशम से उत्पन्न औपशमिक भाव 'उपशमसम्यक्त्व' एवं 'उपशमचारित्र्य' नाम से दो प्रकार का है । 2 कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न क्षायोपशमिक भाव के अट्ठारह प्रकार होते हैं ।" विभाव- कर्मों का उत्पादक-कर्म शुद्ध ज्ञान-दर्शन में मुक्त-अवस्था विद्यमान नहीं रहता । इस कारण वहाँ विभाव
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पर्याय नहीं होते। विभाव-पर्यायों के बीजभूत कर्म करता । यह उसका पारमार्थिक स्वभाव है । अन्य का अभाव होने से मुक्त-अवस्था में विभाव-पर्यायें जीव भी अपनी-अपनी इन्द्रियों के द्वारा इसे नहीं कर उत्पन्न ही नहीं होती। बल्कि अनन्तानन्त-अगरु- जान पाते । क्योंकि, एक तो यह अतीन्द्रिय-पदार्थ लघु गुण के कारण जीव का परिणमन वहाँ 'स्व- हैं; दूसरे, स्व-संवेदनज्ञान से ही इसे जाना जाता धर्म' रूप में ही होता है। जिससे मुक्त-आत्माओं में है। जिस प्रकार धुआ-रूप लिङ्ग-चिह्न को देख और उनके गुणों में भी षड्स्थान पतित हानि-वृद्धि कर 'अग्नि' का ज्ञान होता है, इस प्रकार के किसी
के कारण उत्पाद व्यय रूप स्वाभाविक-पर्याय ही लिंग 'चिह्र को देखकर, किसी भी पदार्थ को आत्मा व उत्पन्न होते हैं ।
नहीं जानता । बल्कि, अपने अतीन्द्रिय-प्रत्यक्षज्ञान जीव की मूर्तता/अमूर्तता
के द्वारा ही यह समस्त पदार्थों को जानता है । जैन दर्शन में आत्मा की कथञ्चित मूर्तता और इसी तरह, दूसरे जीव भी किसी इन्द्रियगम्य लिंग कथञ्चित् अमूर्तता मानी गई है। आत्मा, अनादि- विशेष को देखकर आत्मा का अनुमान नहीं करते। काल से ही पुद्गलरूप कर्मों के साथ नीर-क्षीर जैसा इसीलिये इन्द्रियों से अग्राह्यता, शब्दों से अवाच्यता मिश्रित है । चूंकि, पुद्गल का स्वरूप 'मूर्त' है; इस और अतीन्द्रिय-स्वभावता होने के कारण, आत्मा दृष्टि से जीव की मूर्तता मानी गई हैं। वस्तुतः तो की अलिंग ग्रहणता सिद्ध होती है ।14 आत्मा अतीन्द्रिय-इन्द्रियों से अगम्य-पदार्थ है ।इसी बन्धन-बद्धता शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से उसमें अमूर्तता भी है। यद्यपि आत्मा, वस्तुतः अमूर्त और अतीन्द्रिय *
पुद्गल, रूपी-रूपवान् पदार्थ है। उसमें श्वेत, है, तथापि ज्ञान दर्शन-स्वभावी होने के कारण मूर्त- 10 नील, पीत, अरुण और कृष्ण पाँच-वर्ण, तिक्त, कटु, अमूर्त द्रव्यों का द्रष्टा और ज्ञाता भी है। इस कषाय, अम्ल और मधुर पाँच रस, सुगंध दुर्गन्ध जानने-देखने से ही उसका अन्य द्रव्यों के साथ बन्ध II रूप दो-गन्ध, तथा शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, मृदु- होता है । यदि यह ज्ञाता-द्रष्टा न होता, तो बन्धन ककेश, गरू-लघु रूप आठ स्पर्श भी सदा विद्यमान को भी प्राप्त न करता। चूँकि यह देखता है, INS रहते हैं । पुद्गल से संयुक्त होने के कारण सारे के जानता है, इसी से बन्धन में बंधता भी है।15LNAD सारे वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श का योग आत्मा में
कोई एक बालक, मिट्टी के किसी खिलौने को | भी हो जाता है। अमर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान से रहित
आत्मीयता से देखता है, और उसे आत्मीय/अपना (5) होने के कारण, मूर्त-पञ्चेन्द्रिय विषयों में आसक्त
जानता/मानता है। किन्तु वह मिट्टी का खिलौना, कर । होने के कारण, मूर्त-कर्मों को अर्जित करने के कारण
वस्तुतः उस बालक से सर्वथा भिन्न है। उससे तथा मूर्त-कर्मों के उदय के कारण व्यावहारिक
उसका किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं अपेक्षा से उसे मर्त माना जाता है।13
होता; तो भी, उस खिलौने को यदि कोई तोड़ता शुद्ध निश्चयदृष्टि से तो जीव आत्मा, अमूत- है उससे छीनता है, तो वह बालक खिन्न हो जाता स्वभाव बाला ही है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द है। बालक और खिलौना, दोनों ही वस्तुतः अलग-५
-आदि पुद्गल भावों से वह रहित है। 'चैतन्य' अलग हैं। तब फिर खिलौने के टूट-फूट जाने, या होने के कारण धर्म, अधर्म आदि चार मूर्त-पदार्थों छिन जाने से बालक को खिन्नता क्यों होती है ? | से भी वह भिन्न है, और एकमात्र शुद्ध-बुद्ध-स्वभाव चंकि बालक, उस खिलौने को अपनत्व-भाव से का धारक होने से 'अमूर्त' भी है।
देखता है; अर्थात्, उस बालक का ज्ञान, खिलौने SMS अतीन्द्रियता/अलिंगग्रहणता
के कारण, तदाकार रूप में परिणत हो जाता है। आत्मा, इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का ग्रहण नहीं इसलिए 'पर-रूप' खिलौने के साथ उसका व्यावतृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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का कर्ता
हारिक-सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसी तरह आत्मा राग-आदि विकल्प-उपाधियों से रहित,निष्क्रिय का पुद्गल/द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, और परम चैतन्य भाव से रहित जीव ने राग आदि तथापि अनादिकाल से पुद्गल-क्षेत्र में अवगाहन को उत्पन्न करने वाले जिन कर्मों को उपार्जित कर करते रहने के कारण, उसके प्रति राग-द्वेष-मोह लिया है, उनका उदय होने पर, निर्मल आत्मज्ञान रूप अशुद्धोपयोग बन जाता है। इसी अशुद्ध-उप- को प्राप्त करता हुआ 'भावकर्म' कहे जाने वाले . योग के कारण भावात्मक रूप में पुद्गल/पदार्थ से राग आदि विकल्प-रूप चेतन कर्मों का कर्ता, अशुद्ध बंध जाता है। इस बन्धन को हम 'भाव-बन्ध' कह निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से कहलाता है। शुद्ध सकते हैं।16
निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से तो चेतन कर्मों का ही अशुद्ध-उपयोग से उत्पन्न राग-द्वेष-मोह भावों कर्ता होता है। से जब-जब भी शेय-पदार्थों को आत्मा देखता है, छद्म अवस्था में, शुभ-अशुभ काय-वाङ-मनोया जानता है, तब-तब उसकी चेतना में विकार योग के व्यापार से रहित, एकमात्र शुद्ध स्वभावपैदा होने लगता है। इसी विकार के परिणाम-रूप रूप में, जब जीव का परिणमन होता है, तब में राग-द्वेष-मोह उत्पन्न होते हैं, जो ‘भाव-बन्ध' भावना रूप से विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयदृष्टि का आकार ग्रहण कर लेते हैं। भाव बन्ध का की अपेक्षा से अनन्त-ज्ञान-सुख अ द्ध भावों का प्रारम्भ हो जाने पर, तदनुसारी द्रव्य-कर्मों का बंध कर्ता होता है । जबकि मुक्त अवस्था में, शुद्धनिश्चय भी हो जाता है।
दृष्टि की अपेक्षा से ज्ञान आदि आशय यह है, कि पर-उपाधियों से उत्पन्न, होता है। चेतना के विकार-रूप राग-द्वेष-मोह-परिणामों से जीव में शुद्ध-अशुद्ध भावों के परिणमन का ही आत्मा बंधता है। इन्हीं परिणामों के कारण, एक कर्तृत्व मानना चाहिए, न कि हाथ-पैर आदि व्याही क्षेत्र/स्थान/आकृति में 'जीव' और 'कर्म' का पार रूप परिणमन का। क्योंकि, नित्य, निरञ्जन, पारस्परिक बन्ध होता है । तब, पुद्गल कर्म-वर्ग- निष्क्रिय-स्वरूप भाव से रहित जीव में ही कर्म आदि णाओं की, यथायोग्य स्निग्ध-रूक्ष गुणों के अनुसार का कर्तृत्व बनता है । अर्थात्-आत्मा, व्यवहार से एल होनेवाली पारस्परिक बद्धता जो एक-पिण्ड आकृति पुद्गल कर्मों का, निश्चय से चेतन कर्मों का और न ग्रहण करती है, उसे 'द्रव्य-बन्ध' कहते हैं । शुद्धनय से शुद्धभावों का ही कर्ता होता है ।19 कथञ्चित् कर्तृत्व
कञ्चित् अकर्त त्व आत्मा, व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से पर-पर्यायों परिणाम' और 'परिणामी' में परस्पर अभेद में निमज्जन करता हआ पूद्गल कर्मों का, अशुद्ध- होने से, परिणामी अपने ही परिणामों का कर्ता निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से राग आदि चेतन-भावों/ होता है।20 कि, जीव का परिणमन जीवन-क्रिया कर्मों का, शुद्ध-द्रव्याथिक-निश्चयदृष्टि की अपेक्षा रूप में ही होता है. इसलिए जीव का परिणाम से शुद्ध-ज्ञान-दर्शन आदि आत्मभावों का कर्ता होता जीव ही होता है। जिस किसी द्रव्य में, जो भी
है । यद्यपि, ये ज्ञान-दर्शन-आदि भाव से आत्मा से परिणाम रूप क्रियायें होती हैं, इन क्रियायों के साथ । अभिन्न हैं; तथापि पर्यायार्थिक दृष्टि की अपेक्षा से वह द्रव्य तन्मय हो जाता है। इसी तरह जीव को भिन्न-म्वरूप वाले होने के कारण आत्मा से भिन्न भी अपनी क्रियाओं में तन्मयता के कारण, वे भो। । इसलिए -आत्मा, अपने ज्ञान-दर्शन आदि क्रियाएँ/परिणाम भी जोवमय बन जाते हैं। जो का भी कथञ्चित कर्ता होता है।
क्रियाएँ जीव के द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक की जाती हैं,
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वे 'कर्म' हैं। इसलिए आत्मा, जब राग-द्वेष आदि हुईं हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि लोक के हर- 2 विभाव-परिणाम वाली अपनी क्रियाओं के साथ एक प्रदेश/स्थान में जीवों की सत्ता है और सवत्र तन्मय हो जाता है, तब उसकी 'तन्मयता' उसका ही कर्मबन्ध के योग्य पुद्गल वर्गणाएँ भी विद्यमान 'भावकर्म' बनती है। इसी आधार पर आत्मा हैं। इसलिए जीव, जहाँ भी जिस रूप में परिणमन भावकर्मों का ही कर्ता ठहरता है, द्रव्यकर्मों का करता है, वहाँ, वैसी ही कर्मवर्गणाएँ, उसके परिनहीं 121
णामानुसार बन्ध जाती हैं। इस स्थिति से स्पष्ट है | कि परिणाम और परिणामी में एकल्पता कि आत्मा, कर्मवर्गणाओं को बंधने के लिए प्रेरित र होती है, और परिणामों का कर्ता भी परिणामी ही तक नहीं करता। क्योंकि, जीव जहाँ है, वहाँ 102 होता है । इसलिए पुद्गल का परिणाम भी पुद्गल अनन्त कर्मवर्गणाएँ भी हैं। अतः उन दोनों का || ही होगा। परिणाम रूप क्रियाओं के साथ सारे के पारम्परिक बन्ध, स्वतः ही वहाँ हो जाता है । इससाथ द्रव्य तन्मय बन जाते हैं। अतः पूदगल का लिए, आत्मा, न तो पुद्गल पिण्ड रूप कार्माण- 718 परिणाम भी पुद्गल क्रियामय है, यह मानना वर्गणाओं का कर्ता ठहरता है, न ही उनका वह चाहिए। जो 'क्रिया' है, वही 'कर्म' है। इसलिए प्रेरक होता है । पुद्गल में पुद्गल द्रव्य कर्मरूप परिणामों का ही कथञ्चित् भोक्त त्व कर्तृत्व, एक स्वतन्त्र कर्ता के रूप में बनता है, न व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा को सुख-दुःख रूप कि जीव के भावकर्मरूप परिणामों का। इस तरह, पदगल कर्मफलों का भोक्ता माना जाता है। निश्चय-१४ पुद्गल रूप द्रव्यकर्मों का कर्तृत्व, पुद्गल में ही दृष्टि से तो चेतन भाव का ही वह भोक्ता ठहरता | ठहरता है। आत्मा में द्रव्यकर्मों का कर्तृव्व व्यव- है।25 जो आत्मा, स्व-शुद्ध-आत्मज्ञान से प्राप्त होने स्थित नहीं हो पाता 122
वाले पारमार्थिक-सुखामतरस का भी भोग नहीं द्विप्रदेशी आदि पुद्गल परमाणओं के स्कन्ध, करता है, वही आत्मा, उपचरित-असद्भूत व्यवहार स्निग्ध-रुक्ष-गुणों की परिणमन-शक्ति के अनुसार, दृष्टि की अपेक्षा से, पंचेन्द्रिय विषयों से उत्पन्न ( स्वतः ही उत्पन्न होते हैं । 'सूक्ष्म' और 'स्थूल' जाति इच्छित अनिच्छित सुख-दुःखों का भोक्ता होता है। के पृथ्वी-जल-अग्नि-वायुकायिक भी, स्निग्ध-रुक्ष इसी तरह, अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारदृष्टि की भावों के परिणामों से, पुद्गल स्कन्ध पर्यायों में अपेक्षा से अनन्तसुख-दुःखों के उत्पादक द्रव्यकर्मरूप 5 उत्पन्न होते हैं। इन परिणमनों में आत्माजीव की साता-असाता-उदय को भोगता है। यही आत्मा, आवश्यकता रंचमात्र भी अपेक्षित नहीं होती।23 अशुद्ध-निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से हर्ष-विषाद रूप
अनादिबन्ध के योग से जीव अशुद्ध भाव में सुख-दुःख का भी भोक्ता है। जबकि शुद्ध निश्चय परिणमन करता है। इस अशुद्ध-परिणाम के बहि- दृष्टि की अपेक्षा से, परमात्मस्वभाव के परिचायक रंग/बाह्य-बन्धरूप निमित्त कारण को प्राप्त करके सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का, और इनसे उत्पन्न कर्म वर्गणाएँ, अपनी ही अन्तरंग शक्ति के बल पर अविनाशी-आनन्द-लक्षण वाले सुखामृत का भोक्ता आठ कर्मों के रूप में परिणमित होती हैं। चूकि ये हैं। कर्मवर्गणाएँ, स्वतः ही परिणमनशील हैं। इस- स्वदेह प्रमाणता लिए, इनके परिणामों का कर्ता भी आत्मा नहीं आहार, भय, मैथुन, परिग्रह-प्रभृति समस्त राग होता ।
___ आदि विभाव, देह में ममत्व के कारण हैं। इनमें ) 'लोक' में सर्वत्र अंनतानंत कर्मवर्गणाएँ भरी आसक्ति होने के कारण और निश्चयदृष्टि से स्व
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श्री देहभिन्न, किन्तु केवलज्ञान आदि अनन्तगुणराशि झन के विकल्प से रहित समाधिकाल में आत्मज्ञान
से अभिन्न शुद्ध-आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर पाने रूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी, बाह्य-विशेषके कारण, जीव जिस 'नामकर्म' को उपाजित करता रूप इन्द्रियों का ज्ञान न हो पाने के कारण आत्मा है, उसका उदय होने पर, जिस गुरु-लघु-देह को को 'जड़' भी माना गया है। इसी अवस्था में रागप्राप्त करता है, उसी के प्रमाण वाला वह होता द्वष आदि विभाव परिणामों का अभाव हो जाने | है । आत्म-प्रदेशों के उपसंहार-प्रसर्पण स्वभाव से से उसे 'शून्य' भी कहा जाता है। और, इसे अणु
भी उसकी स्व-देह प्रमाणता सिद्ध होती है। मात्र शरीर वाला कहने के अभिप्राय में उत्सेधSaif जैसे एक दीपक, छोटे से कमरे में रखने पर, घनांगुल-असंख्येय भागमात्र लब्धि-अपूर्णसूक्ष्म-निगोद
सा उस छोटे कमरे में रखी हुई समस्त वस्तुओं को शरीर को ही ग्रहण करने का भाव निहित है न (BEL जिस तरह प्रकाशित करता है, उसी तरह, लम्बे- कि पुद्गलपरमाणु के ग्रहण का भाव।
चौड़े कमरे में उसे रख देने पर, उस पूरे कमरे में यहाँ 'गुरु' शब्द से एक सहस्र योजन परिमाण रखी हुई वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। इसी वाले महामत्स्य शरीर का, और 'मध्यम' शब्द से तरह आत्मा भी गुरु-बड़े आकार के शरीर में मध्यम-आकार वाले शरीरों का ही ग्रहण किया स्थित रहकर अपने प्रसर्पण-स्वभाव से गुरु देह जाता है। आशय यह है कि व्यवहारदृष्टि से प्रमाणता का धारक बनता है। जबकि सूक्ष्म-शरीर- आत्मा, समुद्घात अवस्था को छोड़कर, अपने स्थिति में उपसंहार-स्वभाव से सक्ष्म-शरीर प्रमाणता संकोच-विस्तार स्वभाव से गुरु-लघुदेह प्रमाण वाला का धारक बनता है । किन्तु, वेदना, कषाय, है। निश्चयदृष्टि से तो लोक-प्रमाण-असंख्येय विक्रिया, आहारक, मारणान्तिक, तैजस और केवली प्रदेश वाला है। नामक समुद्घात दशाओं में उसकी देह प्रमाणता देहान्तरता | नहीं रह जाती।
सांसारिक दशा में, क्रमशः होने वाली विभिन्न . 'समुद्घात' का अर्थ होता है-'अपने मूल
_ अवस्थाओं में एक ही आत्मा रहता है। चूंकि, शरीर को छोड़े बिना ही, आत्मा के प्रदेशों का शरीर
- एक शरीर में एक ही आत्मा की प्रवृत्ति होती है, से बाहर निकलकर उत्तर देह की ओर जाना 126
; इसलिए, उस शरीर की समस्त पर्याय-परम्परा में 10 स्पष्ट है, समुद्घात की उक्त सातों अवस्थाओं में,
वही आत्मा रहता है, कोई नया आत्मा, अलगआत्मा, अपने शरीर में ही स्थित नहीं रह जाता,
अलग पर्यायों में पैदा नहीं होता। यद्यपि व्यवहार वरन् तत्तत् समुद्घात दशा के अनुरूप, देह से बाहर
दृष्टि की अपेक्षा से आत्मा और शरीर, दोनों ही, भी निकल पड़ता है।
एक ही शरीर में नीर-क्षीर की तरह मिश्रित एक
ही आकार में रहते हैं। तथापि, निश्चयदृष्टि की लोक-व्यापकता
अपेक्षा से वह, देह में मिश्रित होकर भी एकरूपता ___आत्मा की गुरु-लघु देह प्रमाणता, अनुपचरित प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा, अपने असद्भूत व्यवहार-दृष्टि की अपेक्षा से ही है। स्वरूप के अनुसार देह से भिन्न ही होता है, किन्तु निश्चयदृष्टि से आत्मा लोकाकाश प्रमाण या वही आत्मा, जब शुद्ध-राग-द्वेष परिणामों से असंख्येय प्रदेशप्रमाण ही है । अर्थात् स्व संवित्ति संयुक्त होता है, तब, ज्ञानावरण-आदि कर्मों से समुत्पन्न केवलज्ञान को अवस्था में, ज्ञान की अपेक्षा मलिन होकर संसार में परिभ्रमण करता है ।28 से आत्मा को, व्यावहारिक दृष्टि से 'लोक व्यापक' यद्यपि आत्मा, शरीर आदि पर-द्रव्यों से भिन्न माना गया है। इसी तरह, पाँचों इन्द्रियों और है, तथापि, संसारावस्था में अनादिकम-सम्बन्ध से
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और विभिन्न प्रकार के विभाव भावों का धारण करने से, नये-नये कर्मों से बंधता रहता है । इन्हीं कर्मों के कारण पुनः एक देह से दूसरा देह प्राप्त करता रहता है ।
प्रदेश प्रमाणता
प्रत्येक समय में हो रही षड्गुण हानि वृद्धि से अनन्त - गुरुलघु गुणों की उत्पत्ति होती रहती है । ये गुण, आत्मा के अगुरुलघुस्वभाव से अविनाभावी होते हैं और आत्मा की स्थिति के अतिसूक्ष्म कारण बनते हैं। जितने भी जीव हैं, वे सभी, इन गुणों से परिणत होते हैं । कोई जीव ऐसा भी नहीं है, जिसमें ये गुण न हों। सभी जीव लोक प्रमाणअसंख्येय प्रदेशी हैं । इनमें से कुछ जीव, किसी प्रकार, दण्ड कपाट आदि अवस्थाओं में घनाकार रूप समस्त लोक प्रमाणता को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त जाति कर्मों के उदय से लोकप्रमाण विस्तार को प्राप्त करते हैं । इसी कारण, समुद्घात की अपेक्षा से, कुछ जीवों को लोकप्रमाण माना गया है । समुद्घात की अभाव दशा में जीवों को अवलोक प्रमाण ही माना गया है । नित्यानित्यता
पूर्वलिखित लक्षणों से युक्त जीव को सहज शुद्ध चैतन्य पारिणामिक भावों से अनादि-अनन्तता होती है, और अपने स्वभाव से तीनों ही कालों में टङ्को - त्कीर्ण विनाशी होकर औदयिक एवं क्षायोपशमिक भावों से सादि- सान्तता भी होती है । आत्मा का स्वभाव कर्मजनित है, इस दृष्टि से, कर्मजनित ओदयिक आदि भाव भी उसके हैं । कर्म का स्वभाव है बंधना और निर्जरित होना । अतः कर्म में भी सादि-सान्तता है । इसी अपेक्षा से जीव में भी सादि- सान्तता बन जाती है ।
यही जीव, क्षायिकभाव की अपेक्षा से सादिअनन्त भी होता है । क्षायिकभाव, कर्मों के क्षय उत्पन्न होता है । अतः जीव में सादिता के साथ अनन्तकालिक स्थिति बन जाने से अनन्तता भी आ
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
जाती है । सत्ता - स्वरूप को दृष्टि से तो जीव राशि में अनन्तता रहती ही है ।
'भव्य' और 'अभव्य' भेद से जीव के दो प्रकार हैं | अभव्य जीव अनन्त हैं । इनसे भी अनन्तगुणा अधिक भव्य जीव हैं । अतः भव्य जीव भी अनन्त हैं । अनादि कर्म सम्बन्ध के कारण, आत्मा अशुद्ध भाव से परिणमन करता है । इससे वह 'सादिअन्त' और 'सादि-अनन्त' भी होता है। कीचड़ ' मिला जल अशुद्ध होता है । कीचड़ के 'सम्मिश्रण' और 'अभाव' की स्थितियों के आधार पर उसे क्रमशः 'अशुद्ध' और 'शुद्ध' - जल कहा जाता है । इसी प्रकार, आत्मा में भी कर्म सम्बन्ध की 'संयोग' और 'विप्रयोग' स्थितियों के अनुसार 'सादिअन्तता' और 'सादि - अनन्तता' बन जाती है 129
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इन पूर्वोक्त भाव परिणतियों वाला जीव, जब मनुष्य आदि पर्याय को प्राप्त करता है, तब, उत्पाद - व्यय की अपेक्षा से उसमें 'विनाशात्मकता' जाती है । पर्याय क्योंकि, मनुष्य आदि 'विनाशी' हैं । और, चूँकि देव आदि पर्यायों को उसने प्राप्त नहीं किया है, इससे देव आदि पर्यायें उसके लिए 'उत्पाद' रूप बनी रहती है । इस कारण उसमें 'उत्पादकता' भी बनी रहती है। इस उत्पाद व्ययात्मकता अथवा विनाशउत्पादकता के कारण भी जीव में 'अनित्यता' रहती है । तथापि वह, मनुष्य देव आदि पर्यायों में 'जीव' रूप से सदा विद्यमान रहता है । इससे उसकी 'नित्यता' भी सिद्ध होती है । जैसे जल, तरंग- कल्लोल आदि की अपेक्षा से उत्पाद व्ययात्मक स्वरूप वाला, अतएव 'अनित्य' कहा जाता है । परन्तु जलरूप द्रव्यात्मकता के कारण 'नित्य' भी सिद्ध होता है। ठीक इसी प्रकार, जीव भी द्रव्य दृष्टि से 'नित्य' है। जबकि गुण-पर्यायों की दृष्टि से 'अनित्य' ही है । जीव/आत्मा की नित्या - नित्यता का यही स्वरूप है 130 द्विविधरूपता
द्रव्य की दो शक्तियाँ हैं—क्रियावती शक्ति
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और भाववती शक्ति । 'जीव' और 'पुद्गल' में ये दोनों की शक्तियाँ रहती हैं । किन्तु शेष चारों पदार्थों में केवल भाववती शक्ति ही होती है । इन्हीं शक्तियों से द्रव्यों में परिणमन होता है । भाववती शक्ति से 'शुद्ध- परिणाम' और क्रियावती शक्ति से 'अशुद्ध परिणाम' होता है । अतः भाववती शक्ति के निमित्त से उत्पन्न परिणाम को 'शुद्धपर्याय' कहा जाता है। जबकि क्रियावती शक्ति के निमित्त से उत्पन्न परिणाम को 'अशुद्धपर्याय' कहा जाता है । इसी आधार पर 'जीव-पुद्गल के शुद्ध - अशुद्ध- परिणाम होते हैं । किन्तु शेष चार पदार्थों में केवल भाववती शक्ति ही विद्यमान रहती है । जिससे तज्जन्य-परिणाम | केवल शुद्ध पर्याय रूप में ही होता है ।
जीव में जो स्व- प्रदेश मात्र परिणमन होता है 3 वह उसकी 'शुद्ध पर्याय' होती है । कर्म सम्बन्ध के | कारण जीव को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में | रूपान्तरित करने वाले परिणमन को उसका अशुद्ध पर्याय कहा जाता है । इन्हीं दो परिणमनों के आधार पर, जीव के 'संसारी' और 'मुक्त' दो रूप बन जाते हैं । 31 कर्मसहित जीवों को 'संसारी' और कर्मरहित जीवों को 'मुक्त' कहा जाता है । संसारित्व
अनन्त जीव-समुदाय में अनन्तानन्त - जीव ऐसे हैं, जो अनादिकाल से मिथ्यात्व और कषाय के संयोग के कारण संसारी हैं । देहधारियों को नारकी - तिर्यञ्च मनुष्य गतियों का जो भी शरीर प्राप्त होता है, और उस शरीर के आकार रूप आत्मप्रदेशों में जो परिणमन होता है, उसे 'अशुद्ध आत्म पर्याय' या 'अशुद्ध आत्मद्रव्य' कहा जाता है । इसी को 'अशुद्ध-जीव' या 'संसारी' नामों से | भी व्यवहृत किया जाता है । क्योंकि आत्मा, कर्म - संयोग के निमित्त से ही देशान्तर, अवस्थान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त करता है । 32
आत्मा का जो 'अतीन्द्रिय' - 'अमूर्तिक' स्वभाव है, उसके अनुभव से उत्पन्न सुखामृत - रस-भाब को
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प्राप्त न कर सकने वाले कुछ ही जीव, इन्द्रिय सुख की अभिलाषा से, और इस सुख का ज्ञान हो जाने पर इस सुख में आसक्ति से एकेन्द्रिय जीवों का घात करते हैं । इस घात से उपार्जित त्रस - स्थावर नाम कर्म से उदय से संसारी जीवों के दो भेद'त्रस' एवं 'स्थावर' हो जाते हैं । अर्थात् - एकेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पृथिवी - जल-तेज- वायु और वनस्पति जीव, एकमात्र स्पर्शन-इन्द्रिय वाली 'स्थावर' संज्ञा को प्राप्त करते हैं । जबकि दो-तीनचार-पाँच इन्द्रियों के धारक जीव' 'स' नामकर्म के उदय के कारण, 'स' संज्ञा को प्राप्त करते हैं । संसारी जीवों की यही द्विविधता है । सिद्धत्व
जो जीव, ज्ञानावरण-आदि अष्टविध कर्मों से रहित, अतएव जन्म-मरण से रहित, सम्यक्त्व - आदि अष्टविधगुणों के धारक, अतएव संसार में पुनः वापिस न आ सकने वाले स्वभाव-युक्त, अमूर्तिक, अतएव अभेद्य अच्छेद्य चेतनद्रव्य की शुद्धपर्याय युक्त होते हैं, उन्हें 'सिद्ध', मुक्तजीव' या 'विमल - आत्मा' कहा जाता है | 33
ये सिद्ध-जीव, ऊर्ध्वगामी स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं। क्योंकि जीव, जहाँकहीं पर कर्मों से विप्रयुक्त होता है, तब वह वहीं पर ठहरा नहीं रह जाता, अपितु, पूर्व-प्रयोग, असङ्गता, बन्ध-विच्छेद तथा गति-परिमाण रूप चार कारणों से, अविद्ध कुलालचक्रवत्, ब्यपगतलेपअलम्बुवत्, एरण्डबीजवत् और अग्निशिखावत्, ऊर्ध्वगमन कर जाता है तथा लोकाग्र में पहुँचकर ठहर जाता है । चूँकि, गति में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य की सत्ता, लोक से आगे नहीं है । अतः मुक्त - जीव भी लोक से ऊपर नहीं जा पाता । यद्यपि संसार के कारणभूत द्रव्य-प्राण, सिद्ध-मुक्त जीवों में नहीं पाये जाते, तथापि, भावप्राणों के विद्यमान रहने से कथञ्चित् प्राणसत्ता रहती ही है । इसी दृष्टि से इन्हें 'अमूर्तिक', 'शरीररहित' और 'अवाग्गोचर' आदि शब्दों से व्यवहृत किया जाता है ।
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त्रिविधता
वाला हो और आत्मध्यानी हो। 'मध्यम-अन्तयद्यपि, द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से आत्मा
रात्मा' वे जीव हैं, जो देशव्रतों के धारक गृहस्थ हैं, | एक है, किन्तु परिणामात्मक पर्यायाथिक-नय की अथवा षष्ठ-गुण-स्थानवर्ती निर्ग्रन्थ-साधु हैं । जबकि (0 अपेक्षा से वह 'बहिरात्मा', 'अन्तरात्मा' और 'पर- चतुर्थगुणस्थानवर्ती, व्रतरहित, सम्यग्दृष्टि जीव SAR मात्मा' भेदों से तीन प्रकार का हो जाता है।34 'जघन्य अन्तरात्मा' कहलाते हैं । तीनों ही अन्तरात्मा
संसारी-जीव, शरीर-आदि पर-द्रव्यों में जब अन्तर्दृष्टि वाले और मोक्षमार्ग के साधक होते हैं । तक 'आत्मबुद्धि' बनाये रखता है, अथवा मिथ्यात्व 'परमात्मा' के भी दो प्रकार हैं-'सकल परदशा में अवस्थित रहता है, तभी तक उसे 'बहि- मात्मा' और 'विकल परमात्मा'। घाति-कर्मों के रात्मा' कहा जाता है । किन्तु, जब शरीर आदि विनाशक, सम्पूर्ण पदार्थों के वेत्ता 'अर्हन्त' को सकल 30 में से उसकी आत्मबुद्धि और मिथ्यात्व भी दूर हो परमात्मा' शब्द से अभिहित किया जाता है । जबकि TO जाता है, तब वह 'सम्यग्दृष्टि' बन जाता है। और घाति-अघाति-समस्त कर्मों से रहित,अशरीरी, 'सिद्ध उसे 'अन्तरात्मा' कहा जाने लगता है।
परमेष्ठी' के लिए "विकल-परमात्मा' शब्द का प्रयोग यह अन्तरात्मा भी उत्तम, मध्यम एवं जघन्य किया जाता है । सांसारिक जीव/आत्मा, इसी भेदों से तीन प्रकार का होता है। 'उत्तम-अन्त- स्थिति में पहुँच कर अपने उच्चतम/उन्नत-स्वरूप रात्मा' वह आत्मा होता है, जो समस्त परिग्रहों को प्राप्त करता है। जैनदर्शनसम्मत आत्मा के का त्याग कर चुका हो, निस्पृह हो, शुद्धोपयोग स्वरूप का यही संक्षिप्त-विवेचन है।
- टिप्पण-सन्दर्भ १. साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
२०. प्रवचनसार-२/३० २. वृहद्रव्यसंग्रह-५७
२१. समयसार-१०२ ३. पञ्चास्तिकाय-३०
२२. वही-१०३ ४. वृहद्व्य संग्रह-३
२३. प्रवचनसार-२/७५ ५. तत्वार्थ राजवार्तिक-१/४/७
२४. वही-२/७६ ६. बृहद्रव्यसंग्रह-६
२५. वृहदद्रव्यसंग्रह-१० ७. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-३/४
२६. गोम्मटसार-जीवकाण्ड-६६८ ८ वही-३/७-८
२७. प्रवचनसार-२/४४ ६. तत्त्वार्थसूत्र-१/६
२८. पञ्चास्तिकाय-३४ १०. तत्त्वार्थसत्र-१/३
२६. वही-५३ ११. वही-१/५
३०. वही-५४ १२. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-३/६
३१. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-३/8 १३. द्रव्यसंग्रह-७
३२. वही-३/११ १४. प्रवचनसार-२/८०
३३. वही-३/१० १५. वही-२/८२
३४. मोक्षप्राभृत-४ १६. प्रवचनसार-२/८३
३५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-३/१२ १७. वही-२/८४
३६. वही १८. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-३/१३
३७. समाधितंत्र-५ १६. वृहद्रव्यसंग्रह-८ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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सामाजिक चरित्र के
नैतिक उत्थान में जैनधर्म के दश लक्षणों
को
प्रासंगिक उपयोगिता
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- प्रो० चन्द्रशेखर राय विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, बी० एस० एस० कॉलेज, बचरी, पोरो, भोजपुर, बिहार
आत्म-स्वरूप की ओर ले जानेवाले और समाज को संधारण करने वाले विचार एवं प्रवृतियाँ धर्म हैं । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान भौतिक जगत् के नियमों का अनुसन्धान करता है, उसी प्रकार धर्म नैतिक एव तात्विक जगत् के आन्तरिक नियमों का अन्वेषण करता है । दोनों ही अपने-अपने ढंग से मनुष्य जगत के लिए मोक्ष का द्वार प्रशस्त करते हैं । अतः जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठा कर उत्तम मुख ( वीतराग सुख ) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं । 2
संसार के प्राचीनतम धर्मो में जैन धर्म भी एक है । यह विश्व का एक अति प्राचीन तथा स्वतन्त्र धर्म है । यह स्मरणातीत काल से इस भारतभूमि पर अपना विकास एवं विस्तार कर रहा है। वर्तमान युग में भी इसकी प्रासंगिक उपयोगिता ज्यों की त्यों है। राग-द्वेष रूप दुर्भावों से उत्पन्न मानसिक अवस्थाओं के लिए दस प्रकार के धर्मों का निरूपण किया गया है। इनका आचरण करने से आत्मा में कर्म का प्रवेश रुक जाता है । ये दस धर्म निम्नलिखित हैं
जैन दर्शन में उपशमन के
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यत्ब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
अर्थात् - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शोच, सत्य, संयम, तपत्याग, आकिंचन्य, और ब्रह्मचर्य - ये दस उत्तम धर्म हैं । इन दस धर्मों का सामान्य परिचय इस प्रकार है
(१) उत्तम क्षमा - सहनशीलता अर्थात् क्रोध न करना और साथ ही उत्पन्न क्रोध को विवेक एवं नम्र भाव से दबा डालना ही उत्तम क्षमा है । दूसरे शब्दों में क्रोध की स्थितियों में भी मन के संयम को विकृत न होने देना उत्तम क्षमा है, जिस क्षमा से कायरता का बोध हो, आत्मा में दीनता का अनुभव हो, वह धर्म नहीं है, बल्कि क्षमाभास है, दूषण है । मन पर विजय पाना बहुत बड़े साहसी और वीर पुरुष का कार्य है । शक्ति के अभाव के कारण बदला न लेना क्षमा नहीं है | क्षमा के लिए जीव में निम्नलिखित भावों का होना अनिवार्य बताया गया है
(१) क्रोधोत्पन्न स्थिति में अपने में क्रोध का कारण ढूँढना,
(२) क्रोध से होने वाले दोषों का चिन्तन करना,
(३) दूसरे के द्वारा अपमान किए जाने पर नासमझ समझकर बदले की भावना का परित्याग करना ।
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(४) दूसरे के क्रोध को अपने कर्म का परिणाम सत्य का अर्थ है-असत्य का परित्याग । सत्य का समझना एवं
अर्थ सुनृत बताया गया है। सुनृत का अर्थ है(५) क्षमा से उत्पन्न गुणों का विचार करना। वह सत्य जो प्रिय एवं हितकारी हो । उत्तराध्ययन इन सब भावों से सुशोभित क्षमा के द्वारा मन
सूत्र में क्रोध, लोभ, हास्य, भय एवं प्रमाद आदि ॐ) का संयम होता है, अहिंसा की भावना जागृत होती
इन झूठ बोलने के कारणों के मौजद रहने पर भी है । अतः जैनाचार्यों ने इसको उत्तम धर्म की संज्ञा
मन-वचन-काय तथा कृत-कारि प्रदान की है।
कभी भी झूठ न बोलकर सावधानीपूर्वक हितकारी, AL
सार्थक और प्रिय वचनों को ही बोलना सत्य कहा 12 (२) उत्तम मार्दव-मार्दव का अर्थ है-मृदुता, गया है। कोमलता, विनयभाव, मान का त्याग । कुल, रूप, जाति, ऐश्वर्य, विज्ञान, तप, बल और शरीर आदि
इसी प्रकार निरर्थक और अहितकर बोलाकी किचित् विशिष्टता के कारण आत्मस्वरूप को
गया वचन सत्य होने पर भी त्याज्य है। जैनधर्म
दर्शन में सत्य की पांच भावनाओं का उल्लेख किया न भूलना एवं इनका मदन चढ़ने देना ही उत्तम मार्दव है । अहंकार दोष है और स्वाभिमान गुण ।
गया है जो इस प्रकार हैअहंकार में दूसरे का तिरस्कार छिपा है और स्वा- (१) वाणी विवेक, (२) क्रोध त्याग, (३) लोभ भिमान में दूसरे के मान का सम्मान है। अतः त्याग (४) भय त्याग और (५) हास्य त्याग । अभिमान न करना एवं मन में हमेशा मृदुभाव (६) उत्तम संयम-संयम मानवीय जीवन का रखना उत्तम मार्दव के अन्तर्गत आता है। एक अति महत्वपूर्ण प्रत्यय है । सामान्य रूप से मन,
(३) उत्तम आर्जब--मन,वचन और काय की वचन और काय का नियमन करना अर्थात् विचार, कुटिलता को छोडना-उत्तम आर्जव कहलाता है वाणी, गति और स्थिति आदि में सावधानी करना जो विचार हृदय में स्थित है. वही वचन में रखता संयम है। गोम्मटसार में संयम का स्वरूप स्पष्ट है तथा वही बाहर फलता है अर्थात्-शरीर से भी करते हुए बताया गया हैतदनुसार कार्य किया जाता है, यह आर्जव है। व्रतप्तमितिकषायाणां दण्डानां तपेन्द्रियाणां पंचानाम् । दूसरे शब्दों में मायाचारी परिणामों को छोडकर धारणपालन निग्रहत्यागजण: संयमी भणितः ॥ शुद्ध हृदय से चरित्र का पालन करना उत्तम आर्जव अर्थात्-अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मधर्म है । जो मन में हो, वही वचन में और तदनु- चर्य),अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का धारण करना सार ही शरीर की चेष्टा हो, जीवन व्यवहार में ईर्या भाषा एषणा आदान निक्षेपण उत्सर्ग इन एकरूपता हो । इस प्रकार मायाचार का त्याग, पांच समितियों का पालना, क्रोधादि चार कषायों ऋजुता और सरलता ही उत्तम आर्जव धर्म है। का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का
(४) उत्तम शौच-सुचिता, पवित्रता, निर्लोभ त्याग करना तथा पाँच इन्द्रियों का जय, इसको वृत्ति, प्रलोभन में नहीं फंसना आदि उत्तम शौच संयम कहते हैं। धर्म माना गया है । लोभादि कषायों का परित्याग जैनाचार्यों ने संयम के निम्नलिखित १७ भेदों कर पाप वृत्तियों में मन न लगाना उत्तम शौच की चर्चा की है- पाँच अव्रतों (हिंसा,झूठ, चोरी, कहलाता है । अर्थात् यह पूर्ण निर्लोभता की स्थिति अब्रह्म और परिग्रह) का त्याग । पांच इन्द्रियों
(स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र और चक्ष ) का निग्रह, (५) उत्तम सत्य-भारतीय दर्शन के अनुसार चार कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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जय तथा मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियों का रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं काय-क्लेश त्याग । कहीं-कहीं पर भिन्न-भिन्न तरह के संयम -इस प्रकार 'बाह्य' तप के छः भेद हैं। प्रायके १७ प्रकारों का उल्लेख भी मिलता है, यथा'- श्चिन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और पांच स्थावर और चार त्रस-इन नव के विषय में ध्यान-ये छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। इस तरह संयम, प्रेक्ष्य संयम, उपेक्ष्य संयम, अपद्ध य संयम, तप के कुल १२ भेद हो जाते हैं। इन बारहों प्रकार प्रमृज्य संयम, काय संयम, वाक संयम. मनःसंयम के तपों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैऔर उपकरण संयम । डॉ० सागरमल जैन के अनु- अनशन-सब प्रकार के आहारों का परित्याग सार जैन और गीता के आचार-दर्शन संयम के करना अनशन तप कहलाता है। इसके दो भेद हैं प्रत्यय को मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। -इत्वरिक और यावत्कथित । संयम का अर्थ है-मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन, अवमौदर्य-अपनी भूख से कम आहार ग्रहण संयम और मानव-जीवन ऐसे घुले-मिले तथ्य हैं कि करना अवमौदर्य तप या ऊनोदरी तप कहलाता उनसे परे सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना नहीं की है। जा सकती।
वृति-परिसंख्यान -विविध वस्तुओं में कम ___यों सभी मर्यादाओं का पालन करना संयम लालच रखना वृत्ति-परिसंख्यान तप कहलाता है। नहीं है लेकिन मर्यादाओं का पालन स्वेच्छा से रसपरित्याग-घतादि विशेष पौष्टिक एवं मद्यादि किया जाता है तो उनके पीछे अव्यक्तरूप में संयम विकारी वस्तुओं का त्याग तथा मिष्टादि रसों का का भाव निहित रहता है। सामान्यतया वे ही मर्या- नियमन करना रस परित्याग तप कहलाता है। दाए संयम कहलाती हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्म- विविक्त-शय्यासन-बाधा रहित एकान्त स्थान विकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है।
में वास करना विविक्त-शय्यासन तप कहलाता (७) उत्तम तप-मलिन वृत्तियों को निमल है। करने के उद्देश्य से अपेक्षित शक्ति की साधना के
कायक्लेश-ठण्ड, गर्मी, वर्षा आदि बाधाओं लिये किया जाने वाला आत्मदमन उत्तम तप है। को सहना एवं विविध आसनादि द्वारा कष्ट सहन दूसरे शब्दों में कर्मक्षय के लिये तथा समचित करने को काय-क्लेश तप कहा जाता है। आध्यात्मिक बल की साधना के लिए जीव को जिन प्रायश्चित्त-दोष की विशुद्धि के लिए जो क्रिया उपायों का सहारा लेना पड़ता है-वे सब तप की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके निम्नकहलाते हैं। इसके मुख्यतः दो भेद हैं-(१) बाह्य लिखित नो भेद किये हैं-(१) आलोचन (२) प्रतितप और (२) आभ्यन्तर तप । पुनः इन दोनों क्रमण (३) तदुभय (४) विवेक (५)व्युत्सर्ग (६) तप प्रकार के तपों के ६, ६ प्रकार बताये गये हैं, (७) छेद (८) परिहार (8) उपस्थापन ।11 यथा
विनय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार की अनशनावमौदर्यव तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
साधना में विशेष रूप से प्रवृत्त होना विनय तप कहशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ।"
लाता है। इसके भी यथाक्रम से चार भेद है-ज्ञान,
दर्शन, चारित्र और उपचार ।। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्याना
वयावृत्य-सत्पुरुषों के दुःख-दों को दूर न्युत्त रम ।10
करने के लिए सेवा आदि करना वैयावृत्य तप कह___ अर्थात्---अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, लाता है। इसके भी दस भेद बतलाए गए हैं१६६
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BAERI
LITY-AGAR.
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, निग्रह के भाव का भी अन्तर्भाव होता है। वस्तुतः । संघ, साधु और समनोज्ञ की वैयावृत्य ।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य की रक्षा करना है। वीर्य स्वाध्याय-उचित समय एवं परिस्थितियों में की रक्षा करने के लिए बहत बड़े संयम की आवअध्ययन करने को स्वाध्याय तप कहते हैं। जैना- श्यकता पड़ती है, अतः जैनाचार्यों ने इसे उत्तम तप चार्यों ने इसके निम्नलिखित पाँच भेदों की कल्पना कहा है। इसका आवश्यक रूप से जीवन में आचकी है-(१) वाचना (२) प्रच्छना (३) अनुप्रेक्षा रण करने के लिए पाँच महाव्रतों में स्थान दिया | (४) आम्नाय (५) धर्मोपदेश ।
गया है तथा दश धर्मों में इसे उत्तम धर्म की संज्ञा व्युत्सर्ग-गृह, धनादि बाह्य उपाधियों तथा दी गई है। कुंदकुंदाचार्य ने ब्रह्मचर्य को उत्तम धर्म क्रोधादि अंतरंग उपाधियों का त्याग करना
मानकर इसका निम्नलिखित स्वरूप स्पष्ट किया तप कहलाता है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से इसके भी दो भेद माने गए हैं।
सव्वंग पेच्छतो इत्थीणं तासु भुयदि दुव्भावम् । (८) उत्तम त्याग-दान देना, त्याग की
सो ब्रह्मचर्य भाव सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥12 भूमिका पर आना, शक्त्यानुसार भूखों की भोजन, अर्थात् जो स्त्रियों के सारे सुन्दर अंगों को देख रोगी को औषधि, अज्ञान निवृत्ति के लिए ज्ञान के कर उनमें रागरूप दुर्भाव करना छोड़ देता है, वही साधन जुटाना और प्राणीमात्र को अभय देना, दुर्द्ध र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करता है। देश और समाज के लिए तन-मन आदि का त्याग
पद्मनन्दि पंचबिशतिका में कहा गया हैआदि उत्तम त्याग के अन्तर्गत माना जाता है । समस्त पर-द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और
आत्मा ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो च तत्र चर्मपर, स्वांगा भोगों से उदासीन रहकर सत्पुरुषों की सेवा करना
संग-विवजितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुनेः 113 ही उत्तम त्याग माना गया है । लाभ, पूजा और
अर्थात् ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप ख्याति आदि से किया जाने वाला त्याग या दान
आत्मा है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मउत्तम त्याग नहीं है।
चर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी (8) उत्तम आकिंचन्य-आंतरिक विभाव तथा
सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी को ब्रह्मचर्य ) वाह्य पदार्थों में ममत्व का त्याग उत्तम आकिंचन्य
होता है। कहलाता है। धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा जैनाचार्यों के अनुसार ब्रह्मचर्य के नव अंग हैंशरीर में यह मेरा नहीं है,आत्मा का धन तो उसके (१) स्त्रियों का संसर्ग न करना (२) स्त्री कथा न चैतन्य आदि गुण हैं। 'नास्ति मे किंचन' मेरा कुछ करना, (३) स्त्रियों के स्थान का सेवन न करना, नहीं है, आदि भावनायें आकिंचन्य हैं।
(1) स्त्रियों के मनोहर अंगों को न देखना, न ध्यान भौतिकता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि देना, (५) कामोद्दीपक भोजन न करना, (६) प्राप्त करना आकिचन्य धर्म है। दसरे शब्दों में आहार-पान मात्रा से अधिक न करना, (७) पूर्वकिसी भी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखना उत्तम कृत कामक्रीड़ा का स्मरण न करना, (८) स्त्रियों के आकिंचत्य है।
शब्द, रूप व सौभाग्य की सराहना न करना और (१०)उत्तम ब्रह्मचर्य-अध्यात्म-मार्ग में ब्रह्माचर्य (६) इन्द्रिय सुखों की अभिलाषा न करना। को सर्वप्रधान माना जाता है क्योंकि ब्रह्म में रम उपर्युक्त दस धर्म आत्मा के लिए कल्याणणता वास्तविक ब्रह्मचर्य है । इसके अन्तर्गत क्रोधादि कारक माने गये हैं तथा उनके साथ 'उत्तम' विशे
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षण का प्रयोग इष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ में आज दुनिया मे सौ में निन्यानवे अपराधी घट-६ किया गया है।14
नाओं का कारण अर्थ या काम होता है । अदना-सी ___ ख्याति और पूजा आदि की भावना की निवृत्ति बात पर कौड़ी तक का मूल्य नहीं रखने वाली के अर्थ में उत्तम विशेषण दिया गया है ।15 अर्थात् चीजों के लिए भी लोग हिंसा पर उतारू हो जाते , ख्याति पूजादि के अभिप्राय से ग्रहण की गई क्षमादि हैं, मनुष्य ही मनुष्य की जान का ग्राहक बन गया उत्तम नहीं है।
है। इन मलिन वत्तियों का विनाश आज भी उत्तम ___ जहाँ तक सामाजिक चरित्र के नैतिक उत्थान तप और ब्रह्मचर्य नामक धर्म से किया जा में जैन धर्म के उपर्युक्त दस लक्षणों की प्रासंगिक सकता है। | उपयोगिता का प्रश्न है, इस बात से कोई इन्कार समाज में व्याप्त भखमरी, रोग, अज्ञान की नहीं कर सकता कि धर्म का एक पहलू सामाजिक निवत्ति उत्तम त्याग के द्वारा ही सम्भव है। वास्तचरित्र के नैतिक उत्थान भी रहा है। सामाजिक विक आनन्द शारीरिक सुखों में या भौतिक सुविनैतिकता के मूल्य जब-जब विस्थापित हए हैं, शासनालों
धाओं के अनन्त साधनों को एकत्रित करने में नहीं अमानवीय व्यवहारों की प्रचुरता बढ़ी है तब-तब मिलता। इसकी प्राप्ति मोहमाया के बीच सम्भव उसे धर्म के द्वारा ही मर्यादित किया गया है। नहीं है। भोगतृप्ति राह के प्रत्येक पोड़ पर मनुष्य आज भी जैन धर्म के दसों लक्षणों की उपयोगिता ठगा जाता है। शाश्वत आनन्द की प्राप्ति भौति
ज्यों की त्यों बनी हुई है, क्योंकि आज समाज में कता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिपात करने - आतंकवाद, बलात्कार, चोरी, डकैती, लूटपाट तथा किसी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखते हुए उत्तम ON आदि दुर्गुणों से नैतिक मूल्यों का प्रायः ह्रास हो आकिंचन्य धर्म-पालन करने में ही है।
गया है जिसकी पुनर्स्थापना जैन धर्माचरण से ही सम्भव है।
टिप्पण-सन्दर्भ __ आज के मनुष्य क्रोधी, दम्भी, घमंडी, झूठ १. जैन दर्शन--डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ-२३६ बोलने वाले हो गये हैं। क्षमाधर्म के द्वारा क्रोध को २. महापुराण-२३७
बहुत हद तक समाप्त किया जा सकता है। क्रोध ३. तत्त्वार्थ सूत्र-६/६ O) के शमन से समाज के बहुत से दोष स्वतः निराश्रित ४. उत्तराध्ययन सूत्र-२५/२४
हो जाते हैं। अहिंसा की भावना जागृत होती है ५. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा-४६५ तथा समाज में कोढ़ के रूप में व्याप्त आतंकवाद ६. पं० सुखलाल संघवी-त० सू० टीका, पृष्ठ ३०५ स्वतः समाप्त हो जाता है। अभिमान का त्याग ७. वही कर उत्तम मार्दव धर्म के द्वारा आसानी से समाज ८. देखें जैन धर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. में मृदुता कोमलता विनम्रता आदि भावों का प्रसार ६१-६५ | किया जा सकता है। आज समाज में दोहरे व्यक्ति- ६. तत्त्वार्थ-सूत्र ६/१६
त्व जीने वालों की संख्या बढ़ रही है जिससे समाज १०. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२० में शंका एवं सन्देह का बोलवाला होता जा रहा ११. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२२ | है। एक-दूसरे पर विश्वास करना अत्यन्त कठिन १२. बारस अणुवेक्खा-८०
हो गया है । इस दोष का निरसन आर्जव धर्म से ही १३. प० वि०-१२/२ सम्भव है। इसी प्रकार समाज में बढ़ती हुई लोभ १४. सर्वार्थसिद्धि-६/६ प्रवृत्ति, असत्य भाषण, असंयम का परिहार क्रमशः १५. चारित्र सार-५८/१ शौच, सत्य और संयम से ही सम्भव है।
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जैनधर्म में भगवान् महावीर की देन अद्विताय है, मृत्यु और KC व्यसन इन दोनों में से व्यसन अधिक हानिप्रद है। क्योंकि मृत्यु एक ( बार ही कष्ट देती है पर व्यसनी व्यक्ति जीवन-भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी वह नरक आदि में विभिन्न प्रकार के कष्टों को झेलता है। जबकि अव्यसनी व्यक्ति जीते-जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है और मरने के पश्चात् स्वर्ग-सुख का उपभोग करता है।
व्यसन शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका परिणाम है- कष्ट । यहाँ हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है। जिन प्रवत्तियों का
परिणाम कष्टकर हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा गया है। व्यसन || जैनधर्म में व्यसनमुक्त एक ऐसी आदत है जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता, व्यसनों की
प्रवृत्ति अचानक नहीं होती। पहले व्यक्ति आकर्षण से करता है फिर जीवन का
उसे करने का मन होता है, एक ही कार्य को अनेक बार दोहराने पर
वह व्यसन बन जाता है। तुलनात्मक अध्ययन ____ व्यसन बिना बोये हुए ऐसे विष वृक्ष हैं, जो मानवीय गुणों के na)
गौरव को राख में मिला देते हैं। ये विषवृक्ष जिस जीवनभूमि में पैदा होते हैं, उसमें सदाचार के सुमन खिल ही नहीं सकते।
व्यसनों की तलना हम उस गहरे गर्त से कर सकते हैं जिसकेर ऊपर हरियाली लहलहा रही हो, फूल खिल रहे हों,पर ज्यों ही व्यक्ति | उस हरियाली और फूलों से आकर्षित होकर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करता है त्यों ही वह दल-दल में फँस जाता है। व्यसनशील व्यक्ति की बुद्धिमत्ता, कुलीनता आदि समाप्त हो जाती है। __ यों तो व्यसनों को संख्या का कोई पार नहीं है, वैदिक ग्रन्थों में
व्यसनों की संख्या १८ बताई गई हैं। उन १८ में १० व्यसन कामज हैं। -प्रो. जनेश्वर मौआर और ८ व्यसन क्रोधज हैं।
कामज व्यसन हैं-मुगया (शिकार), जुआ, दिन का शयन, पर-720 निन्दा, परस्त्रीसेवन, मद, नृत्यसभा, गीतसभा, वाद्य की महफिल और व्यर्थ भटकना।
आठ क्रोधज व्यसन हैं-चुगली खाना, अतिसाहस करना, द्रोहा करना, ईर्ष्या, असूया, अर्थदोष, वाणी से दण्ड और कठोर वचन । __ जैनाचार्यों ने व्यसन के मुख्य सात प्रकार बताये हैं-जुआ, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्रीगमन ।
द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापद्धि चौर्य परदारसेगा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके घोरातिधोरं नरकं नयन्ति ।।
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इन सातों व्यसनों में अन्य जितने भी व्यसन हैं तिलांजलि देकर हृदय कठोर बना लेता है ! वह आ उन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है।
अपने पुत्र पर भी दया नहीं रख पाता। ___ आचार्य हरिभद्र ने मद्यपान करने वाले व्यक्ति जैन साधना पद्धति में व्यसन-मुक्ति साधना के र में सोलह वोषों का उल्लेख किया है-वे दोष इस महल में प्रवेश करने का प्रथम द्वार है। प्रकार हैं-शरीर विद् प होना, शरीर विविध
___ जब तक व्यसन से मुक्ति नहीं होती, मनुष्य में PAN| रोगों का आश्रयस्थल होना, परिवार से तिरस्कृत ।
गुणों का विकास नहीं हो सकता। इसलिए जैनाहोना, समय पर कार्य करने की क्षमता न होना,
I' चार्यों ने व्यसन मुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है। कर अन्तर्मानस में द्वष पैदा होना, ज्ञान तन्तुओं का
व्यसन से मुक्त होने पर जीवन में आनन्द का सागर धुधला हो जाना, स्मृति का लोप हो जाना, बुद्धि
ठाठे मारने लगता है। भ्रष्ट होना, सज्जनों से सम्पर्क समाप्त हो जाना, (1) वाणो में कठोरता आना, नीच कुलोत्पन्न व्यक्तियों
जनतन्त्रमूलक युग के लिए व्यसन-मुक्ति एक कुलहीनता, शक्तिह्रास, धर्म-अर्थ-काम
ऐसी विशिष्ट आचार पद्धति है जिसके परिपालन न तीनों का नाश होना।
से गृहस्थ अपना सदाचारमय जीवन व्यतीत कर महाकवि कालिदास ने एक मदिरा बेचने वाले
सकता है और राष्ट्रीय विकास के कार्यों में भी
सक्रिय योगदान दे सकता है। ON व्यक्ति से पूछा-तुम्हारे पात्र में क्या है? मटि
बेचने वाला दार्शनिक था, उसने दार्शनिक शब्दा- दर्शन के दिव्य आलोक में ज्ञान के द्वारा चारित्र म वला में कहा-कविवर ! मेरे प्रस्तुत पात्र में आठ की सुदृढ परम्परा स्थापित कर सकता है। यह एक
दुर्गुण हैं-मस्ती, पागलपन, कलह, धृष्टता, बुद्धि ऐसी आचार-संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के का नाश, सच्चाई और योग्यता से नफरत, खुशी लिए ही नहीं, किन्तु मानवमात्र के लिए उपयोगी का नाश और नरक का मार्ग।
है। यह व्यावहारिक जीवन को समृद्ध व सुखी बना शिकार को जैन ग्रन्थों में पापद्धि कहा गया है सकती है तथा निःस्वार्थ कर्त्तव्य भावना से प्रेरित पापद्धि से तात्पर्य है-पाप के द्वारा प्राप्त ऋद्धि. होकर राष्ट्र में अनुपम बल और ओज का संचार 30| इसलिए आचार्य ने शिकारी की मनोवृत्ति का विश्ले- कर सकती है। सम्पूर्ण मानव-समाज में सुख-शांति
षण करते हुए कहा है-जिसे शिकार का व्यसन व निर्भयता भर सकती है । अतः व्यसनमुक्त लग जाता है वह मानव प्राणीवध करने में दया को जीवन सभी दृष्टियों से उपयोगी और उपादेय है।
MEORIBE
[ जिस तरह श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी श्लेष्म से बाहर निकलने में असमर्थ होती है वैसे ही विषय रूपी श्लेष्म में पड़ा हआ व्यक्ति अपने आपको विषय से अलग होने में असमर्थ पाता है।-इन्द्रिय पराजय शतक ४६]
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मानव सृष्टि के पूर्व तथा पश्चात् जो कुछ भी अस्तित्ववान् था, है | अथवा सम्भावित है, उनके मनन तथा चिन्तन का इतिहास अनादि । है । अनादि परम्परा से सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ किसी शाश्वत अव्यक्त की अभिव्यक्ति तथा संहार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । चाहे वह वैदिक ऋषियों के गहन प्रयोग और अनुभवपरक प्रमाणित किये गये सिद्धान्त वचन हों; वेदान्त दर्शन तथा नास्तिक दर्शनों की क्रान्तिपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्याएँ हों; यूनान, इटली, जर्मनी तथा चीन की दार्शनिक मान्यताएँ हों; अथवा आधुनिक विज्ञान की विभिन्न शाखाएं तथा उनके अध्ययन की सीमाएँ; सबके अध्ययन का विस्तार वहीं तक है, जहाँ तक दृष्टि का, बुद्धि का, मन का प्रसार है । दूसरे
शब्दो में जो कुछ 'अस्ति' की सीमा में आता है, वह सब चिन्तन का INS - जैन पदार्थ-विवेचना में विषय है। हाँ, यह अवश्य है कि अध्ययन की विधि, उद्देश्य तथा
स्वरूप में भिन्नता है । सृष्टि के जड़-चेतन का अथवा जीव-जगत का मूल वैज्ञानिक दृष्टि कारण, मूलभूत तत्व-चाहे वह वेदान्त का ब्रह्म हो अथवा चार्वाकों
का परमाण-स्वभाव, अनादि अनन्त शाश्वत है। चाहे वह एक हो या 8 अनन्त, मूल तत्व या तत्वों की निरन्तर गतिशील परिवर्तन की सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया, तत्वों का संचय और प्रचय, विस्तार और संकोच, सब कुछ किसी स्वचालित, स्वाभाविक ऊर्जा के अजस्र-स्रोत की भाँति 13 अविच्छिन्न-गति से निरन्तर चलता रहता है। यह क्रम ही सष्टि को काल के पथ पर ले जाता हुआ प्रलय, महाप्रलय, सृष्टि, स्थिति की नेमि पर (C) घुमाता रहता है, अविराम यात्री की भांति, जिसका पाथेय ही गम्य हो।
उस अव्यक्त तथा उससे व्यक्त पदार्थ जगत् के स्वरूप, कार्य तथा
गति को देखने, निरीक्षण, परिवीक्षण, अन्वीक्षण तथा व्यक्तीकरण -डॉ. नवलता की क्षमता और दृष्टिकोण की विभिन्नता अवश्य ही परिलक्षित होती
है । जो कुछ भी ज्ञय तथा अभिधेय है, वह या तो दृश्य, मूर्त, भौतिक प्रवक्ता-वि. सिं. स. ध. कालेज,
पदार्थ के रूप में है अथवा अमूर्त प्रत्यय के रूप में। पदार्थ और प्रत्यय कानपुर
भिन्न हैं अथवा अभिन्न ? तात्विक दृष्टि से दोनों का साधर्म्य तथा वैधर्म्य किस सीमा तक बोध्य है ? दोनों की वैज्ञानिक व्याख्या के आधार तथा दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि क्या है ? इस विषय में : वैमत्य रहा है । कुछ विचारकों के मतानुसार प्रत्यय मात्र-वेद्य तत्व की प्रधानता तथा तात्विक सत्ता है, कुछ शास्त्रवेत्ता केवल पदार्थ (ज्ञ य वस्तु-आकार) को ही अध्येय तथा व्याख्येय मानते हैं, कुछ ... दार्शनिक पदार्थात्मक प्रत्ययवाद, तो कुछ प्रत्ययात्मक पदार्थवाद के पोषक हैं।
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पदार्थ शब्द की व्यापक परिभाषा के अनुसार तो प्रत्यय भी पदार्थ की सीमा से परे नहीं है । अपितु दोनों परम एवं चरम सत्य रूप गम्य तक पहुँचने की यात्रा के क्रमिक आयाम हैं, क्योंकि पदार्थ के स्वरूप का अनुशीलन तथा विश्लेषण किये बिना प्रत्यय की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इस दृष्टि से विज्ञान और दर्शन परस्पर सहयोगी तथा सम्पूरक हैं। विज्ञान का कार्य, जो वस्तु जैसी है, उसके यथातथ्य स्वरूप का विश्लेषण है, किन्तु दर्शन उस वस्तु के स्वरूप का बाह्यावरण बेधकर आन्तरिक तत्व का उद्घाटन कर चरम यथार्थ की प्राप्ति का उपाय बताता है । विज्ञान 'क्या' का उत्तर देता है, तो दर्शन 'क्यों' और 'कैसे' का समा
धान ।
आज के अतिविकासवादी युग का विज्ञान अभी तक पदार्थ जगत् के ही सम्यक् तथा आत्यतिक सत्य (तथ्य ) के अनुसन्धान तथा विश्लेषण में सफल नहीं हो सका है, जिसका प्रमाण है नित्यपरिवर्तनशील वैज्ञानिक सिद्धान्त । जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक ने किया उसी को असिद्ध कर अन्य सिद्धान्त का प्रतिपादन दूसरे वैज्ञानिक ने कर दिया । खण्डन- मण्डन की यह परम्परा भी वर्तमान चिन्तन की देन नहीं है । सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे महर्षियों ने, विचारकों ने इस परम्परा का सूत्रपात किया था । यह भारतीय शिक्षा
मौलिक पद्धति भी थी, और चिन्तन का दृष्टिकोण भी । परन्तु भारतीय तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण में यह अन्तर अवश्य था कि पाश्चात्य आधुनिक विज्ञान में एक सिद्धान्त कालान्तर में असिद्ध होकर नये सिद्धान्त को जन्म देता है तथा वह अन्तिम सिद्धान्त ही सर्वमान्य होता है, जबकि दार्शनिक सिद्धान्त अपने आप में कभी असिद्ध तथा अमान्य नहीं होते, उन्हें मानने वाले किसी भी काल में हो सकते हैं । अतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों की परिवर्तनशील प्रकृति का तर्क बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वस्तुतः सिद्धान्त
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व्यवस्था के अपरिवर्तनीय नियम तथा परिवर्तन के आधार होते हैं ।
मूल सिद्धान्तों के निर्धारण में भारतीय विज्ञान के प्रतिपादक वेद, वेदान्त, आस्तिक तथा नास्तिक दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने श्रद्धापरक तर्क द्वारा पदार्थ और प्रत्यय दोनों के स्वरूप की व्याख्या की । वेदों में विश्वास रखने वाले आस्तिक दर्शनों में व्याख्यात्मक जटिलता नास्तिक दर्शनों की अपेक्षा अधिक थी । नास्तिक दर्शनों में जैन दर्शन वस्तुनिष्ठ विश्लेषण तथा संश्लेषण दोनों ही दृष्टियों से जनसामान्य के यथार्थं विषयक दृष्टिकोण के अधिक निकट था, अपि च, इसकी व्याख्याएँ अधिक स्पष्ट तथा वैज्ञानिक थीं । यद्यपि जैन दर्शन के बीज ई० पू० ५००-६०० के लगभग पड़ चुके थे, और विक्रम की प्रथम शताब्दी तक उनका अंकुरण भी हो चुका था । छठी शताब्दी तक वैचारिक प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में न्याय, बौद्ध तथा जैन दर्शन प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में अपने-अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा में लगे थे । यद्यपि न्यायदर्शन की वैज्ञानिकता भी कम नहीं थी, तथापि जैनदर्शन अपने आचार तथा व्यावहारिक पक्ष की प्रबलता के कारण तथ्य को अधिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत कर सका । आधुनिक विज्ञान का प्रारम्भ तो चतुर्दश शताब्दी के पश्चात् हुआ ।
जैनदर्शन का चिन्तन तथा अभिव्यक्ति मूर्त तथा अमूर्त, स्थूल तथा सूक्ष्म, भौतिक तथा अभौतिक सत्ताओं का जिस प्रकार समन्वय करता है, वह निश्चय ही यह मानने के लिए उत्साहित करता है कि जैनदर्शन विज्ञान के आधारभूत घटकों में से एक है। न्यायदर्शन की ही भाँति जैनदर्शन भी उस प्रत्येक घटक को पदार्थ स्वीकार करता है जो सत्तावान् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है । पदार्थ को बाह्य तथा सत् मानने वाले जैन दार्शनिक पदार्थ-ग्रहण के विषय में दो धारणाएँ व्यक्त करते हैं । प्रथम के अनुसार किसी पदार्थ के गुणों तथा विशेषताओं को पदार्थ से अपृथक रूप से ग्रहण किया जा सकता है।
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उदाहरणार्थ 'यह पुस्तक है' इस कथन में पुस्तक के ही आधारित है तथा दैशिक व कालिक परिवर्तनों साथ उसकी विशेषताएँ भी अपृथक् रूप से ग्राह्य का हेतु है। कोई भी वस्तु इस समय जो है, वह
अगले क्षण नहीं रहेगी। जबकि सत्य त्रिकालाबाद्वितीय धारणा के अनुसार पदार्थों से पृथक धित अव्यय होता है; और विज्ञान भी अभी तक एक गुणों का ग्रहण होता है। यह धारणा सभी पदार्थ- किसी ऐसे तत्त्व की खोज नहीं कर पाया है, जो वादी प्राच्य और पाश्चात्य विचारकों तथा वैज्ञा- अव्यय तथा अविनाशो हो। हाँ परमाणओं की मूल निकों को मान्य है । वर्तमान भौतिक विज्ञान किसी स्थिति अविनाशी है, किन्तु गति की स्वाभाविक भी पदार्थ में आकृति, परिमाण तथा गति को अव- सहज क्रिया के कारग उनमें भी निरन्तर कुछ-नश्य ही स्वीकार करता है। ये तीनों ही गुणधर्म कुछ परिवर्तन अवश्य होता है। इस दृष्टि से कोई पृथक सत्ता वाले होते हुए भी पदार्थ में आधेय भाव भी वस्तु त्रिकाल में सत्य नहीं होती। इसी प्रकार (0 से रहते हैं। कोई भी पदार्थ जव ग्रहणविषयता इन्द्रियाँ एक ही समय में किसी वस्तु के पूर्ण स्वरूप TARA वाला होता है, तो उसका परिमाण, आकृति तथा को ग्रहण नहीं कर पातीं। क्योंकि इन्द्रिय का पदार्थ गति ही ग्राह्य होती है।
के सभी पक्षों से सन्निकर्ष एक ही क्षण में नहीं हो जैनदर्शन अपने जिस मौलिक सिद्धान्त के
पाता । इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता कारण लोकविख्यात है. वह है स्याद्वाद या अनेका
है-जिस प्रकार किसी गोले को सामने रखा हआ न्तवाद । स्याद्वाद वस्तुतः पदार्थ के स्वरूप विश्लेषण
दीपक पूर्णरूप से प्रकाशित नहीं करता, अपितु 3 की वस्तुनिष्ठ कल्पना है जो भौतिक विज्ञान के जहा तक आलोक को पहुँच है, वहीं तक गोले को नियमों से तुलनीय है। अनेकान्तवाद के अनुसार
देखा जा सकता है. उसी प्रकार इन्द्रिय का पदार्थ के । कोई भी वस्तु त्रिकाल में न तो पर्ण सत्य है और न
जिस भाग से संन्निकर्ष होता है उसी का ग्रहण हो पूर्णरूप में उसका ग्रहण किया जा सकता है। पाता है। पदार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में सात प्रकार की इस प्रसंग में विज्ञान यथार्थ का उद्घाटन सम्भावनाएं हो सकती हैं, जो सप्तभंगीनय के नाम अन्यान्य भौतिक तथा रासायनिक प्रयोगों द्वारा से विख्यात है।
करता है, जबकि अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन सप्तभंगीनय में सम्भवतः वैज्ञानिक सम्भावना- उसका कारण खोजता है, जिसका पर्यवसान 'जीव' वाद के बीज निहित हों। स्याद्वाद की व्याख्या के के 'अज्ञानाभाव' में होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह लिए हस्ति का उदाहरण प्रसिद्ध है। जिस प्रकार 'अज्ञान' ही सत्य की खोज की अविच्छिन्न परम्परा कोई नेत्रहीन विशालकाय हाथी के संड, कान, पैर को प्रेरित करता है। जैन दर्शन निरपेक्ष सत्य की आदि का स्पर्श करके उन-उन अंगों को ही हाथी प्राप्ति त्रिरत्नों के द्वारा मानता है । ये त्रिरत्न हैं - समझने लगता है उसी प्रकार अज्ञान के आवरण के सम्यकदर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यकचारित्र । कारण जीव पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जान सापेक्षतावादी वैज्ञानिक विचारधारा उस निरपेक्ष नहीं पाता । यह अज्ञान इन्द्रियों के सर्वत्र गमन की तत्त्व तक अपनी दृष्टि का विस्तार अभी तक नहीं अक्षमता ही है। स्याद्वाद का सिद्धान्त वैज्ञानिक कर पाई है, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक-दार्शनिक इस सापेक्षतावाद की पृष्ठभूमि है। आधुनिक भौतिक दिशा की ओर प्रयत्नशील हैं। स्थूल से सूक्ष्म की विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति का सूत्रपात करने वाले ओर गमन का नियम विज्ञान को सूक्ष्मतम व्यक्त आइस्टीन महोदय ने प्रत्येक पदार्थ को गति का तक तो पहुँचाने में समर्थ हुआ है, किन्तु अव्यक्त परिणाम बताया। सापेक्षता भी मूलरूप से गति पर की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उसके स्वरूप, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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गुणधर्म की स्पष्ट और सुनिश्चित व्याख्या अभी करता है । आस्रव की भाँति ही यह भी दो प्रकार - SI तक विज्ञान की सीमा से परे है। रत्नत्रय (सम्यक् का होता है । जीव के जन्मादिभाव का क्षय भाव
ज्ञान, सम्यकदृष्टि तथा सम्यक्चारित्र) बिना संवर तथा कर्मपद्गलों का जीव में न आना द्रव्यअव्यक्त ऊर्जा रूप स्फोटात्मक शक्ति सम्भव नहीं संवर कहलाता है। कर्मफल को जीर्ण कर देना ही जो वर्तमान आविष्कृत परमाण ऊर्जा से भी शत- निर्जरा है। कर्मों का आत्यन्तिक क्षय मोक्ष है सहस्र गुणा सूक्ष्म है तथा जो 'परा' स्थिति है। जीव और अजीव द्रव्य हैं।
___यह तो हुआ पदार्थ के ग्रहण का विज्ञान । अब परवर्ती भौतिक विज्ञान के आविष्कारों तथा A. प्रश्न है पदार्थों की संख्या तथा उनके विश्लेषण अनुसन्धानों द्वारा पदार्थ के विवेचन में आकृति, का । विज्ञान पदार्थ (Matter) को कुछ मूल तत्वों
परिमाण तथा गति को प्रमुख तत्व स्वीकार किया ESS (Elements) के यौगिक के रूप में परिभाषित गया। आकृति तथा परिमाण दोनों गति द्वारा
करता है, किन्तु पदार्थों की संख्या सुनिश्चित नहीं प्रभावित होते हैं। गतिसिद्धान्त आधुनिक भौतिक समझी जा सकती, क्योंकि नवीन अनुसन्धानात्मक विज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त है। वैज्ञानिक प्रयागा द्वारा मूल तत्वा का सख्या हा बढ़ता जा पदार्थ मीमांसा के लिए गति का विश्लेषण अनिरही है। जैन दर्शन भी यद्यपि पदार्थों की संख्या ।
वार्य है। तुलनात्मक अध्ययन से जैनदर्शनसम्मत अनन्त मानता है, किन्तु गुणधर्मों के आधार पर 'कर्म' और वैज्ञानिक 'गति' किन्हीं बिन्दुओं पर पदार्थों का वर्गीकरण सात भागों में करता है । ये
समकक्ष तथा समवर्ती प्रतीत होते हैं । जिस प्रकार सात पदार्थ हैं आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,
आस्रव से लेकर अजीव तक सभी पदार्थों की अभिजीव तथा अजीव। जैनदर्शनसम्मत ये पदार्थ वैशे- व्यक्ति और तिरोधान कर्माश्रित है, उसी प्रकार षिक सप्त पदार्थों से भिन्न हैं। कुछ जैन दार्शनिक
विज्ञान-प्रतिपादित गति समस्त पारमाणविक तथा केवल जीव तथा अजीव को ही पदार्थ मानते हैं ।
स्थूल भौतिक संरचना परिवर्तन (परिणाम) और किन्तु विश्लेषण के आधार पर सात पदार्थ स्वीकार
ध्वंस के लिए उत्तरदायी है। गति के कारण ही करना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इनमें से प्रथम
पदार्थ में निहित ऊर्जा व्यक्त होती हैं। परमाणु पाँच पदार्थ तथा अन्तिम दो मूर्त तथा भौतिक सत्ता
में स्थित न्यूक्लियस या नाभिक के आस-पास ऋण वाले होते हैं। जीव के कर्म ही सभी पदार्थों को
विद्य न्मय कण (इलेक्ट्रान) चक्कर लगाते रहते हैं। प्रभावित करने वाले मूल तत्व घटक हैं।
नाभिक में प्रोटान की स्थिति होती है, जो विभिन्न जनसम्मत उक्त सप्त पदार्थों का स्वरूप तत्वों में विविध संख्याओं में होते हैं। इनके अतिविशुद्ध दार्शनिक होते हुए भी वैज्ञानिक विश्लेषण रिक्त न्यूट्रान विद्य तरहित कण तथा पाजिट्रान का अविषय नहीं हैं। संक्षेप में इन पदार्थों की धनात्मक विद्य तयुक्त कण भी परमाणु में पाये व्याख्या करने पर ज्ञात होता है कि प्रथम पदार्थ जाते हैं। यह विद्य त ऊर्जा रूप तथा अपने से आस्रव कर्मों का जीव में प्रवेश अथवा जन्ममर- अधिक ऊर्जा की उत्पादिका होती है। गति के णादि है । यह दो प्रकार का होता है-भावास्रव कारण प्रत्येक कण परस्पर एक दूसरे को आकर्षित
तथा द्रव्यास्रव । जीव का जन्मादिभाव भावास्रव करता है । यह आकर्षण ही परमाणु संयोग या हो तथा कर्मपुद्गलों का जीव में प्रवेश द्रव्यास्रव कह- परमाणु संघात का कारण होता है। परमाणओं के
लाता है। कर्मों द्वारा जीव को जकडना ही बन्ध संघात के लिए न्यूट्रान है । आस्रव के विपरीत कर्ममार्ग का अवरोध संवर है क्योंकि उसके बिना प्रोटान एकत्र रूप से नहीं कहलाता है । यह जीव को मोक्ष की ओर अग्रसर रह सकते ।' २०४
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यहाँ परमाणुसृष्टि की विशद व्याख्या का अव- जन्ममरणचक्र आस्रव के समकक्ष ही है । जीवविज्ञान काश तथा आवश्यकता नहीं है अपितु इतना ही तथा भौतिक जीव विज्ञान के अनुसार परमाणु में विचारणीय है कि जिस प्रकार कर्म आश्रवादि का चैतन्य उत्पन्न होने पर उसमें अनेक ऐसे गुण उत्पन्न कारण होता है उसी प्रकार सम्भवतः गतिज ऊर्जा हो जाते हैं,जो उसे जड़ से भिन्न करते हैं । वे चेतन अथवा तीव्र विद्य त आवेश तथा भौतिक परमाणु असीमकाल तक गतिशील होते हुए गति क परमाणुओं के संयोग से जैविक सृष्टि (जन्ममरण) द्वारा ही नियन्त्रित होते हुए चक्रवत् स्थित रहते प्रारम्भ होती है । जैविक सृष्टि विषयक विशेष हैं। भौतिक तन्त्रों का संसर्ग होते ही इनका भोग चर्चा जीव पदार्थ के विवेवन का विषय है । भावा- की ओर चुम्बकीय आकर्षण हो जाता है । विचारस्रव तथा द्रव्यास्रव के लक्षणों पर विचार करने से णीय है, क्या 'बन्ध' का वैज्ञानिक स्वरूप इस कर्म और भोग की अविरल गतिशील परम्परा स्वाभाविक प्राकृतिक चेतन सृष्टि प्रक्रिया में देखा 0 सुस्पष्ट होती है । जीव का जन्मादिभाव कर्मपुद्गलों जा सकता है ? के प्रवेश के बिना भोक्तत्व नहीं प्रदान कर सकता तथा कर्मों के द्वारा जन्मादि का निर्धारण होता है। परमाणुओं की स्थिति सदा एक सी नहीं रहती, जहाँ परमाणु सृष्टि का प्रश्न उपस्थित होता है, अपितु निरन्तर गतिशीलता के कारण उसके स्वरूप वहाँ जैन दर्शन अन्य दर्शनों के विपरीत विज्ञान की में उसके अन्दर स्थित प्रोटॉनों की संख्या में तथा भाँति ही परमाणुओं की समरूपता तथा समगुणवत्ता ऊर्जा में भी परिवर्तन होता रहता है । किसी तत्व एव को स्वीकार करता है। इसका तात्पर्य यह है कि विशेष के परमाणुओं में तीव्र गति वेग के कारण । प्रत्येक परमाणु में किसी भी भौतिक पदार्थ को उनकी ऊर्जा दूसरे तत्व में परिणत हो सकती है ।
उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । वे ही परमाणु ऊर्जा का निरन्तर क्षय होता रहता है । तत्व परि27 पार्थिव सृष्टि करते हैं, जो वायवीय, जलीय अथवा वर्तन की यह स्थिति बहुत समय पश्चात् आती है।
तैजस सृष्टि । पदार्थ की भिन्नता में परमाणु-क्रमाङ्क सम्भवतः जैविक, भौगोलिक, आनुवंशिक यहाँ तक प्रभावी होते हैं । 'परमाणु क्रमाङ्क' वे सकेत विशेष कि सांस्कृतिक परिवर्तनों में भी किसी सीमा तक हैं, जो किसी तत्व (Element) के परमाणु में यह कारण रहता हो । जैसे कोई चक्र वेगपूर्वक प्रोटानों तथा इलेक्ट्रॉनों की संख्या का निर्धारण घमाकर छोड़ दिए जाने पर अपने अधिकतम वेग करते हैं। जैसा कि, पूर्व चर्चा की जा चुकी है कि, तक पढेचकर पुनः विपरीत वेग से गतिमान हात प्रोटॉन न्यूट्रॉनों द्वारा एकत्रीभूत होते हैं । पार्थिवादि हा स्थिर हो जाता है, स्थिरता के बिन्दु पर पहुँचते परमाणुओं के परिणाम में गतिज ऊर्जा भी कारण दीपनः वही क्रम प्रारम्भ हो सकता है, उसी प्रकार होती है । ऊर्जा के वेग में अन्तर तथा परमाण- अपरिमित काल तक ऊर्जा का क्षरण शून्यता के क्रमाङ्क के कारण ही कुछ परमाण पाथिव पदार्थ बिन्द तक पहुँचता है, पुनः संकोच-विस्तार चलता की सृष्टि करते हैं तो कुछ तैजस आदि की। रहता है। शुन्यता का यह बिंदु इस प्रकार विनाश
यद्यपि कर्म और गति की जैनसम्मत तथा का बिन्दु न होकर ऊर्जा का तत्त्वान्तर में परिवर्तित विज्ञान प्रतिपादित परिभाषाएँ भिन्न हैं तथापि होने का बिन्दु है। यही वह बिन्दु है, जहाँ कुछ
स्वरूप की दृष्टि से कुछ अधिक अन्तर नहीं । गति विशेष परिस्थितियों में द्रव्य के गुण-धर्म परिवर्तित र में स्वभाव कारण होता है तथा कर्म स्वतः सिद्ध हो सकते हैं। परमाणु क्रमाङ्क अधिक होने से उसमें
होते हुए भी उत्प्रेर्य होता है। परमाणुओं में विक्षप से स्वतः विकिरणें निर्गत होने लगती हैं, जिनका 1 गति या कर्म के ही कारण होता है। इस प्रकार निर्धारण प्रोटॉनों की संख्या देखकर किया जाता
ansaANJFPRs.
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हैं। यह स्थिति गति की लगभग वही अवस्थिति दर्शनों की भांति ही गुण तथा क्रियावान् होना द्रव्य - बतलाती है, जो 'संवर' तथा 'निर्जरा' की है। का लक्षण है, यह विज्ञान स्वीकार करता है।
गति के आत्यन्तिक क्षय के प्रश्न पर विज्ञान मूलतः यह द्रव्य दो प्रकार का है-अस्तिकाय तथा 6) मौन है । जिस प्रकार गति स्वयं सापेक्ष होते हुए
अनस्तिकाय । काल, तम इत्यादि अदृश्य पदार्थ पदार्थों की सापेक्षता के लिए उत्तरदायी है, वैसे ही
अनस्तिकाय तथा जीव और अजीव अरितकाय हैं, कर्म आस्रवादि पदार्थों की सापेक्ष स्थिति के लिए
बयोंकि ये दृश्य है । जीव भी बद्ध तथा मुक्त भेद से उत्तरदायी है। जीव के कर्मों का आत्यन्तिक क्षय
द्विधा है। बद्ध जीवों में एकेन्द्रिय अचर वनस्पति ही जैन मत में मोक्ष है । वैज्ञानिक गवेषणाएँ अभी
आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय तक इस विषय पर प्रयोग तथा निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं ।
(मनुष्य) इन चर जीवों की गणना होती है । यहाँ CY कर पायी हैं, कि अनन्त सृष्टि चक्र के प्रवाह का,
उल्लेखनीय है कि वनस्पति में जीवन का अनुसन्धान अनन्त-चेतन परमाणुओं का पर्यवसान कहीं है
आधुनिक जीव-विज्ञान की खोज समझी जाती है, अथवा नहीं। भले ही यह अप्रासंगिक तथा अप्रा
बल्कि अभी तक यह विवादास्पद विषय है; किन्तु करणिक प्रतीत हो किन्तु, चिन्तन का विषय अवश्य
लगभग २ सहस्र वर्ष पूर्व जैन दर्शन ने कितना वैज्ञाहो सकता है कि जीव के कर्मों का क्षय किस सीमा
- निक निर्णय प्रस्तत किया. इसका प्रमाण द्रव्यों का तक तथा किस रूप में होता है ? जीवों की संख्या
उक्त वर्गीकरण है। अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत धर्म, (E) भी न्यूनाधिक होती रहती है अथवा निश्चित रहती अधम, आकाश, काल पुद्गल की गणना की गई है। oहै ? जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक जैविक तन्त्र में ।
धर्म तथा अधर्म की व्याख्या जैन दर्शन क्रमशः गति - अपने ही समान जैविक तन्त्रों को उत्पन्न करने की सहकारी कारणभूत द्रव्यविशेष तथा स्थैर्य सह
क्षमता होती है। ये जैविक तन्त्र भौतिक तन्त्र से कारी कारणभूत के रूप में करता है जो परम्परागत सम्पर्क टूटने के पश्चात् (म.यु के पश्चात) कहाँ न होकर पारिभाषिक है। एक गति है तो दूसरा | जाते हैं, वे पुनः शरीर धारण किस आधार पर स्थिति । एक प्रेरक है तो दूसरा निष्क्रिय ये अनुमान करते हैं ? क्या कोई ऐसा बिन्दु भी है, जहाँ वे द्वारा सिद्ध हैं। ये जड़ भाव हैं तथा सम्पूर्ण तत्वजैविक तन्त्र परमाणुरूप में विखण्डित हो जाते हैं ? मीमांसा को प्रभावित करते हैं। विज्ञान की भाँति यदि विज्ञान इन प्रश्नों का उत्तर दे सका, तो जैविक ही, जैन धर्माधर्म की धारणा समग्र अभिधेय को तन्त्रों की गति का विराम बिन्द जैन सम्मत (तथा गति तथा स्थिरता इन दो अवस्थाओं में विभक्त अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में भी प्रतिपादित) मोक्ष करती है। विज्ञान की शाखाओं के रूप में जिन गतिकी समस्या का वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत कर विज्ञान (Dynamics) अथवा गति सम्बन्धी विज्ञान सकेगा।
(Kinematics) तथा स्थितिविज्ञान (Statics) की र उक्त पाँचों पदार्थों का भोक्तृभाव से जीव तथा प्रतिष्ठा है, वे भी पदार्थों की इन दोनों प्रकार की (8)
बन्ध है। जीव तथा अवस्थाओं का ही अध्ययन अजीव जैन मत में द्रव्य हैं। द्रव्य गण तथा पर्याय न्यूटन ने गति सम्बन्धी जिन सिद्धांतों को प्रतिसे युक्त पदार्थ है। द्रव्य में रहने वाले तथा स्वयं पादित किया, उनके अनुसार पदार्थ या तो ऋजु गुण न धारण करने वाले धर्म गुण तथा द्रव्य का अथवा वक्र गति वाले होते हैं। स्थिति गति सापेक्ष १ भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में जाकर होना पर्याय कह- है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च, जो निरन्तर लाता है। गुणधर्म नित्य तथा पर्याय अनित्य है। प्रत्येक क्षण में आविर्भाव और लय को प्राप्त होता द्रव्य की यह परिभाषा भी वैज्ञानिक है। न्यायादि है, गति तथा स्थिति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
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चाहे वह त्रिगुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति हो, जगत की उत्पत्ति करता है, जो रसायन विज्ञान की शान्त अवस्था में स्थित परमाणु हो, माया हो अथवा यौगिकों की धारणा के ही समान है । जिस प्रकार र पुद्गल हों ! भेद केवल नाम-रूप का है, चिन्तन के जैन मत में संघात या स्कन्ध से ही स्थूल जगत दृष्टिकोण का है, मूल रूप में एक ही शाश्वत अवि- की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार रसायन विज्ञान नाशी तत्व विद्यमान है, जो अव्यक्त रूप से व्यक्त प्रत्येक पदार्थ को कुछ विशेष मूल तत्वों (Elements) होता है जैसा कि छान्दोग्योपनिषद् का मत के यौगिक के रूप में विश्लेषित करता है।
है।
जैन आकाश को द्रव्य मानकर अनुमान से उसकी ये पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण से युक्त सिद्धि मानते हैं क्योंकि पुद्गलों की व्यापकता के लिए होते हैं । भौतिक पदार्थों का निष्पादन करने वाले 3 कोई आधार अवश्य मानना पडेगा। विज्ञान आकाश इन अणुओ का अपना निश्चित परिमाण तथा
को नहीं मानता, वह दिक और काल (Space and आकार नहीं होता। इनमें गुणगत ध्वंस विद्यमान Time) की सत्ता स्वीकार करता है। आकाश तो है।" वस्तुतः वह सम्पूर्ण रिक्त स्थान है जहाँ कोई पदार्थ नहीं है। यहाँ विज्ञानवेत्ताओं का तर्क हो सकता यह ध्वंस विनाश (प्रध्वंसाभाव) न होकर क्षय है कि परमाण सधन अथवा विरल रूप में सर्वत्र या क्षरण रूप है। परमाण का विरलत्व या सघनत्व व्याप्त हैं; अतः उस आकाश की सिद्धि नहीं होती, वस्तु के आकार को प्रभावित करता है। विज्ञान इस जो रिक्त स्थान का पर्याय है। इसका उत्तर यह तथ्य को मानता है। यही कारण है कि समान दिया जा सकता है कि परमाणुओं का संघनित संख्यक परमाणुओं वाले दो पदार्थ अथवा समान 5 होना दृश्य पदार्थ की स्थिति है। विरल रूप में पर- भार वाले दो पदार्थ परमाणुओं के बिरलत्व या का माणुओं के होते हुए भी पदार्थ एक स्थान से दूसरे संघनत्व के कारण भिन्न आकार के होते हैं। स्थान पर बिना किसी अवरोध के गतिमान होते हैं, क्योंकि परमाणुओं का अपना कोई निश्चित आकार नहीं होता, इसी से आकाश की सिद्धि होती है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों ने HO उपाधिभेद से वही घटाकाश इत्यादि के रूप में
जिन सिद्धान्तों की स्थापना की तथा पदार्थों का KC __ अभिधेय होता है।
जिस प्रकार विवेचन किया वह वैज्ञानिक पद्धति है ।
जो वर्तमान विज्ञान-वेत्ता विकासवाद का मिथ्या 3 ___अन्तिम अजीव द्रव्य पुद्गल है । 'पूरयन्ति उद्घोष करते हुए आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों गलंति च' इस व्युत्पत्ति के आधार पर पुद्गल वे द्रव्य को मानव को चमत्कारपूर्ण बुद्धि का परिणाम हैं; जो अणुओं के विश्लेषण या संघात से स्कन्धादि मानते हैं, वे अपने सहस्रों वर्ष पूर्व प्रतिपादित किए। की उत्पत्ति के कारण होते हैं। ये दो प्रकार गए दार्शनिक विचारों को पुरातन इतिहास कहकर के होते हैं-अणु तथा स्कन्ध या संघात । उनका उपहास करते हैं, किन्तु उन दार्शनिक विज्ञान की भाषा में इन्हें क्रमशः Atomic विचारों को कितने विचार मन्थन के पश्चात् प्रस्तुत तथा Compound कहा जा सकता है । अणु अत्यन्त किया गया था, यह विचार का विषय है । दर्शन सूक्ष्म होने के कारण उपभोग्य नहीं हैं । दयणुक से का क्षेत्र विज्ञान के क्षेत्र से अधिक व्यापक है क्योंकि आरम्भ करके स्कन्धों का निर्माण होता है । पुद्गल विज्ञान ब्रह्माण्ड से भो परे उसे नियन्त्रित करने उपादान तथा मूल इकाई है। संघात ही दृश्य वाली शक्ति के विषय में मौन है जबकि दर्शन किसी।
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पूर्ण सत्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्त सत्ता अथवा स्थिति को आवश्यकता है। इसके लिए अध्येताओं को मानता है चाहे वह ज्ञान मात्र ही क्यों न हो । जैन प्रोत्साहन तथा प्रेरणा प्रदान कर उनमें दर्शनों के 10 पदार्थ मीमांसा को एक-एक कोण से विज्ञान की वैज्ञानिक अनुशीलन के प्रति अभिरुचि जागृत करने तुला पर रखकर निष्पक्ष समन्वयात्मक समीक्षा की की आवश्यकता है।
टिप्पण-सन्दर्भ 1. History of Indian Philosophy-S. N. १०. 'अतएव धर्मास्तिकाय: प्रवत्यनुमेय: अधर्मास्तिकायः Dass Gupta, Page 176
स्थित्यनुमेयः ।'-सर्वदर्शनसंग्रह-पृ. १५२ ।। २. भारतीय दर्शन-डॉ० कुवरलाल व्यासशिष्य- ११. ऋज गति Rectilinear Motion तथा वक्रगति
पृ. १७४
Curvilinear Motion कहलाती है। ३. 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि ।'
Handbook of Elementary Physics-N.
-तत्त्वार्थसूत्र १/१ Koshkin and M. Shirkevich-Translated ४. 'अत्र संक्षे पतस्तावज्जीवाजीवाख्ये द्वे तत्वे स्तः ।' by F. Leic Page 17
-सर्वदर्शन संग्रह-पृ. १४३ १२. वाचारम्भणं विकारोनामधेयम ......। छा० उ०. ५. द्रव्य के गुण-डा. डी. बी. देवधर-पृ.३ ६. विज्ञान का दर्शन-डा. अजित कुमार सिन्हा- १३. 'रूपरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ।' पृ. ७३
-तत्त्वार्थसूत्र ५/२४ ७. विज्ञान का दर्शन-पृ. १४७
१४. भारतीय दर्शन का इतिहास-हरदत्त शर्मा ८. 'गुणपर्यायवद्रव्यम् ।' तत्त्वार्थसूत्र ५/३७
पृ. ८१ ९. सवदर्शन संग्रह पृ. १५४
सूचिरं पि अच्छमाणो, वेरुलिओ कायमणिओ मीसे । न य उतेइ कायभाव, पाहन्न गुणे नियएण ॥
-ओघ नि.७७२
वैडूर्य रत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी काच नहीं होता।
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कर्म - सिद्धान्त : एक समीक्षात्मक
अध्ययन
- साध्वी श्रतिदर्शना
एम. ए.
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कर्म - सिद्धान्त भारतीय दर्शन का आधार है, नाव ह । प्रायः सभी दर्शनों में कर्म को किसी न किसी रूप में माना गया है, भले ही कर्म के स्वरूप निर्णय में मतैक्य न हो, पर अध्यात्मसिद्धि कर्ममुक्ति पर निर्भर है. इसमें मतभिन्नता नहीं है । प्रत्येक दर्शन में किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा की है, जैन दर्शन में इसका चिन्तन बहुत ही गहराई विस्तार एवं सूक्ष्मता से किया गया है ।
कर्म का स्वरूप - लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं । जैसे - खाना, पीना, चलना, बोलना इत्यादि । श्रुति और स्मृति में भी यही अर्थ किया गया है । उपनिषद् और वेदान्त सूत्रों के अनुसार कर्म सूक्ष्म शरीर को चिपकते हैं और जिससे जीव को अवश्य जन्म-मरण करने पड़ते हैं । सांख्य दर्शन में सत्व, रजस, तमत गुण पर कर्म निर्भर हैं ।
परलोकवादी दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक कार्यअच्छा हो या बुरा हो अपना संस्कार छोड़ जाता है । जिसे नैयायिक और वैशेषिक धर्माधर्म कहते हैं । योग उसे आशय और अनुशय के नाम से सम्बोधित करते हैं । उक्त ये भिन्न-भिन्न नाम कर्म के अर्थ को ही स्पष्ट करते हैं तात्पर्य यह है कि जन्म जरा मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी, अज्ञान, अविद्या, मिथ्यात्व से आलिप्त हैं जिसके कारण वे संसार का वास्तविक स्वरूप नहीं समझ सकते, अतः उनका जो भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक है, रागद्वेष का दुराग्रह होता है, इसलिए उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का कारण होता है ।
सारांश यह है कि उन दार्शनिकों के अनुसार कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में रागद्वेष रहते हैं । यद्यपि प्रवृत्ति क्षणिक होती है किन्तु उसका संस्कार फल- काल तक स्थायी रहता है जिसका परिणाम यह होता है कि संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा चलती रहती है और इसी का नाम संसार है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में उक्त मतों से भिन्न है ।
जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है, जो जीव की राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकर्षित होकर जीव के साथ संश्लिष्ट हो जाता है, उसी तरह घुल-मिल जाता है जैसे दूध में पानी । यद्यपि वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया के कारण
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आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बन्ध जाता है । इस प्रकार जैनदर्शन में कर्म को सिर्फ क्रियाअच्छे बुरे कार्य इतना ही नहीं किन्तु जीव के कर्मों
निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे पुद्गल परमाणु भी कर्म कहलाते हैं ।
संसार के सभी प्राणियों में अनेक प्रकार की विषमताएँ और विविधताएँ दिखलाई देती हैं । इसके कारण के रूप में सभी आत्मवादी दर्शनों ने कर्म सिद्धान्त को माना है । इतना ही नहीं अनात्मवादी बौद्धदर्शन में कर्म सिद्धान्त को मानने के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि - " सभी जीव अपने कर्मों से ही फल भोग करते हैं सभी जीव अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म
अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म से ही ऊँचे और नीचे हुए हैं ।" (मिलिंद प्रश्न पृष्ठ ८०-८१)
इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इसमें एकमत है कि
'करम प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करहि तो तस फल चाखा ।। "
प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है—यही कर्मसिद्धान्त का आशय है । अंग्रेजी में कहा है
"As you sow so you reap."
उपर्युक्त प्रकार से कर्म - सिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों और अनात्मवादियों में मतैक्य होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद हैं ।
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अब हम कर्म के फलदान के सम्बन्ध में देखेंगे । प्रायः सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी बध्यमान, सत्
और उदय ये तीन अवस्थाएँ मानी हैं । इनके नामों में अन्तर भी हो सकता है। लेकिन कर्म के बन्ध, उदय व सत्ता के विषय में किसी प्रकार का विवाद नहीं है । लेकिन विवाद है कर्म के स्वयं जीव द्वारा फल भोगने में या दूसरे के द्वारा भोग कराये जाने में, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व में, उसके सदात्मक रूप से बने रहने के विषय में ।
सांख्य के सिवाय प्रायः सभी वैदिक दर्शन किसी न किसी रूप से आत्मा को ही कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता मानते हैं किन्तु सांख्य भोक्ता तो पुरुष को मानता है और कर्ता प्रधान प्रकृति को कहता है । इस प्रकार कुछ तत्वचिन्तकों का मंतव्य है कि जीव कर्म करने में तो स्वतन्त्र है लेकिन उसका फलभोग ईश्वर द्वारा कराया जाता है अर्थात् जीव अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र है - इस तरह कर्म फल देने की निर्णायक शक्ति ईश्वर है, उसके निर्णय के अनुसार जीव कर्मफल का भोग करता है ।
जैसा कि महाभारत में लिखा है
"अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वस्रमेव वा ।। "
अर्थात् अज्ञ प्राणी अपने सुख और दुःख का स्वामी नहीं है । ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है ।
भगवद्गीता में भी लिखा है- 'लभते च ततः कामान् मयैव विहितान हितान् ।' मैं अर्थात् ईश्वर जिसका निश्चय कर देता है, वही इच्छित फल मनुष्य को मिलता है ।
बौद्ध दर्शन ईश्वर को कर्मभोग कराने में सहायक नहीं मानता किन्तु वह जीव को त्रिकाल स्थायी तत्व न मानकर क्षणिक मानता है ।
उक्त दृष्टियाँ एकांगी हैं क्योंकि कृतकृत्य ईश्वर द्वारा सृष्टि में हस्तक्षेप करने से उसकी स्वतन्त्रता
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( एवं निष्पक्षता में बाधा पड़ती है। स्वयं जीव के यदि ईश्वर को फलदाता माना जाये तो जहाँ
आत्मस्वातन्त्र्य की हानि होती है। यदि जीव को एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का घात करता है, वहाँ सिर्फ वर्तमान क्षणस्थायी माना जाय तो कर्म- घातक को दोष का भागी नहीं होना चाहिए, विपाक की उपपत्ति नहीं बन सकती क्योंकि जिस क्योंकि उस मनुष्य के द्वारा ईश्वर मरने वाले को क्षण वाली आत्मा ने कर्म किया है उसी क्षण वाली मृत्यु का दण्ड दिलाता है। जैसे राजा जिन पुरुषों आत्मा को यह कर्म का फल मिल रहा है यह नहीं के द्वारा अपराधियों को दण्ड दिलाता है, वे पुरुष हो सकेगा क्योंकि वे क्षणिक मानते हैं। जड़ पदार्थ अपराधी नहीं कहे जाते क्योंकि वे राजा की आज्ञा चेतन के अभाव में फल भोग नहीं कर सकते हैं। का पालन करते हैं। यह कार्य तो कृतकर्म भोगी पुनर्जन्मवान स्थायी- इसी तरह किसी का घात करने वाला घातक तत्व ही करता है। इस प्रकार से त्रिकालस्थायी भी जिसका घात करता है, उसके पूर्वकृत कर्मों का स्वतन्त्र जीवतत्व का अस्तित्व और उसे अपने ही फल भगवाता है. क्योंकि ईश्वर ने उसके पर्वकृत सुख-दुःख का कर्ता, भोक्ता बताना ही कर्म-सिद्धान्त कर्मों की यही सजा नियत की होगी, तभी तो का प्रयोजन है।
उसका वध किया गया है। यदि कहा जाय कि जैनदर्शन ईश्वर को सष्टि का नियंता नहीं मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातक का मानता है, अतः कर्मफल देने में भी उसका हाथ कार्य ईश्वर-प्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र । नहीं है । कर्म अपना फल स्वयं देते हैं, उनके लिये इच्छा का परिणाम है तो कहना होगा कि संसार अन्य न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे दशा में कोई भी प्राणी वस्तुतः स्वतन्त्र नहीं, सभी
शराब नशा पैदा करती है और दूध ताकत देता है अपने-अपने कर्मों से बँधे हए हैं। पर जो मनुष्य शराब पीता है, उसे बेहोशी होती है कर्मणा बध्यते जन्तु (महाभारत) और कर्म की
और जो दूध पीता है, उसके शरीर में पुष्टता आती अनादि परम्परा है । ऐसी स्थिति में 'बुद्धिकर्मानुहै। शराब या दूध पीने के बाद यह आवश्यकता सारिणी' अर्थात् कर्म के अनुसार प्राणी की बुद्धि नहीं रहती है कि उसका फल देने के लिए दूसरी होती है, के न्यायानुसार किसी भी काम को करने नियामक शक्ति हो । इसी प्रकार जीव के प्रत्येक या न करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस कायिक, वाचिक, मानसिक परिस्पन्द से जिन कर्म स्थिति में यह कहा जाय कि कोई भी व्यक्ति मुक्ति पुद्गलों का बन्ध होता है, उन कर्म परमाणुओं में प्राप्त नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्म से बंधा भी शराब और दूध की तरह शुभ या अशुभ करने हुआ है और कर्म के अनुसार जीव की बुद्धि होती
की शक्ति रहती है। जो चैतन्य के सम्बन्ध से है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि कर्म ११ व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव दिखलाती है अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं । अतः अच्छे 1 और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को
करता है जो उसे सुखदायक और दुःखदायक होते सन्मार्ग पर ले जाती है और उससे मुक्ति लाभ हो हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते सकता है, और बुरे कर्म का अनुसरण करने वाली हैं तो बंधने वाले कर्म परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव बुद्धि कुमार्ग पर ले जाती है जिससे कर्मबन्ध होता पड़ता है और कालान्तर में उससे अच्छा फल है। ऐसी दशा में बुद्धि के कर्मानुसारिणी होने से मिलता है तथा यदि भाव बुरे हों तो बुरा असर मुक्ति लाभ में कोई बाधा नहीं आती है, आत्मा में पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा ही कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों अवसरों मिलता है।
पर स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य फलित होते हैं।
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जैसे कि सहजतया कर्म करने में आत्मा स्वतन्त्र है, वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सकती है, इस प्रकार आत्मा ही स्वयं के भाग्य का निर्माता है न कि ईश्वर के हाथ को कठपुतली । कर्मों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध बनकर मुक्त हो सकती है । किन्तु कभी-कभी पूर्वजनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर सकती है, जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना चाहती है, किन्तु कर्मोदय की बलवत्ता से उस मार्ग पर चल नहीं पाती हैं, फिसल जाती है, यह है आत्मा का कर्तृत्व काल में स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य ।
कर्म करने के बाद आत्मा पराधीन - कर्माधीन ही बन जाती है, ऐसा नहीं । उस स्थिति में भी आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति और रस का ह्रास कर सकती है। विपाक (फलो
का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य रूप में परिवर्तित कर सकती है। इसमें आत्मा का स्वातन्त्र्य मुखर है । परतन्त्रता इस दृष्टि से है कि जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे मुक्ति नहीं होती । भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे
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Rec
जाने वाले कर्म थोड़े समय के लिए भोगे जाय किंतु सबको भोगना ही पड़ता है ।
जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्म क्षय की प्रक्रिया भी सयुक्तिक है । स्थिति के परिपाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना वेदन कराने के बाद झड़ जाते हैं । यह तो कर्मों का सहज क्षय है। इसमें कर्मों की परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं होता है । पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ ही नवीन कर्मों का बन्ध चालू रहता है । इस श्रृंखला को तोड़ने के लिए तप, त्याग, संयम आदि प्रयत्नों की आवश्यकता है। संयम, संवर से नये आते कर्मबन्ध बन्द होगा, तप द्वारा जो कर्म रहे हैं, उनका क्षय होगा । इस प्रकार पुरुषार्थ से आत्मा कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकती है। कर्म तत्व के सम्बन्ध में जैन दर्शन की विशेषताएँ हैं कि कर्म के साथ आत्मा का वन्ध कैसे है ? किन कारणों से होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न होती है, आत्मा के साथ कितने समय तक कर्म लगे रहते हैं, कब फल देते हैं ? इसका विस्तार यहाँ नहीं करते हुए विराम लेती हूँ, क्योंकि लेख की मर्यादा है । कर्म सिद्धान्त सागर-सा विशाल है उसे गागर में भरना बहुत ही कठिन है । इस प्रकार जैन दर्शन में वैज्ञानिक रूप से कर्म सिद्धान्त का निरूपण किया गया है ।
-5
जगत में ऐसा कोई बलवान नहीं है जो उगते हुए सूर्य को रोक सकता हो, वैसे ही लोक में ऐसा कोई नहीं जो उदय में आये हुए कर्म को रोक सकता हो ।
- भग० आ० १७४०
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विश्व-धर्म के रूप में ल जैनधर्म दर्शन की
प्रासंगिकता
SE
आज के विश्व को एक ऐसे धर्म दर्शन की आवश्यकता है जो उसकी वर्तमान समस्याओं का समाधान कर सके । ____ आज भौतिक विज्ञानों ने बहुत विकास किया है। उनकी उपलब्धियों एवं अनुसन्धानों ने मनुष्य को चमत्कृत कर दिया है । ज्ञान का विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि प्रबुद्ध पाठक भी सम्पूर्ण ज्ञान से परिचय प्राप्त करने में असमर्थ एवं विवश है। ज्ञान की शाखा-प्रशाखा में विशेषज्ञता का दायरा बढ़ता जा रहा है। एक विषय का विद्वान् दूसरे विषय की तथ्यात्मकता एवं अध्ययन-पद्धति से अपने को अनभिज्ञ पा रहा है। हर जगह, हर दिशा में नई खोज, नया 1 अन्वेषण हो रहा है। प्रतिक्षण अनुसन्धान हो रहे हैं। जो आज तक नहीं खोजा जा सका, उसकी खोज में व्यक्ति संलग्न है, जो आज तक नहीं सोचा गया उसे सोचने में व्यक्ति व्यस्त है। जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें 'परात्पर परब्रह्म' के धरातल पर अगम्यरहस्य मानकर, उन पर चिन्तन करना बन्द कर दिया गया था वे आज अनुसंधेय हो गई हैं। सृष्टि की बहुत सी गुत्थियों की व्याख्या हमारे दार्शनिकों ने परमात्मा एवं माया के आधार पर की थी। उन व्याख्याओं कारण वे 'परलोक' की बातें हो गई थीं। आज उनके बारे में भी व्यक्ति जानना चाहता है । अन्वेषण की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है । आविष्कार का धरातल अब भौतिक पदार्थों तक ही सीमित होकर नहीं रह गया है । अन्तर्मुखी चेतना का अध्ययन एवं पहचान भी उसकी सीमा में आ रही है। पहले के व्यक्ति ने इस 70 संसार में कष्ट अधिक भोगे थे। भौतिक उपकरणों का अभाव था। उसने स्वर्ग की कल्पना की थी । भौतिक इच्छाओं की सहज तृप्ति की कल्पना ही उस लोक की परिकल्पना का आधार थी। आज का युग दिव्यताओं को धरती के अधिक निकट लाने के प्रयास में रत है। पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है। __ इतना होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं है । यह अशान्ति क्यों ? वह सुख की तलाश में भटक रहा है। धन बटोर रहा है, भौतिक उपकरण जोड़ रहा है । वह अपना मकान बनाता है। आलीशान इमा-मा रत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है। फिर मकान को सजाता , है । सोफासेट, कालीन, वातानुकूलित व्यवस्था, मँहगे पर्दे, प्रकाशध्वनि के आधुनिकतम उपकरण एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव । सब कुछ अच्छा लगता है। मगर परिवार के सदस्यों के बीच जो प्यार, विश्वास पनपना चाहिए उसकी कमी होती जा रही है ।
-डॉ. महावीर सरन जैन एम. ए., डी. फिल्., डी. लिट.
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पहले पति-पत्नी भावना की डोरी से आजीवन इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है बँधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे । दोनों को विश्वास जो मानव हृदय की असीम कामनाओं को सीमित रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ करने की क्षमता रखता है, उसकी दृष्टि को रहेंगे । दोनों का सुख-दुख एक होता था। उनकी व्यापक बनाता है, मन में उदारता, सहिष्णुता एवं इच्छाओं की धुरी 'स्व' न होकर 'परिवार' थी। प्रेम की भावना का विकास करता है। वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थिर स्थित बदले. अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों नहीं रह सकता। समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा की इच्छाओं की पूति में सहायक बनना अधिक समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम एवं विश्वास का अच्छा समझते थे। आज की चेतना क्षणिक, भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक है संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होकर रह धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का अर्थ हैगई है। इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता 'धन धारणे'=धारण करना । जिन्दगी में जो जा रहा है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला धारण करना चाहिए-वही धर्म है। हमें जिन भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए वही अनुभव कर रहा है।
धर्म है। भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल मन की कामनाओं को नियन्त्रित किये बिना चेतना को हमें आस्था प्रदान करनी है। निराश समाज रचना सम्भव नहीं है । जिन्दगी में संयम एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की की लगाम आवश्यक है । मशाल थमानी है। परम्परागत मूल्यों को तोड़ कामनाओं के नियन्त्रण की शक्ति या तो धर्म दिया गया है। उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया में है या शासन की कठोर व्यवस्या में । धर्म का जा सकता क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक अनुशासन 'आत्मानुशासन' होता है । व्यक्ति अपने हो गये हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को पर स्वयं शासन करता है। शासन का अनुशासन नष्ट कर देना ही इच्छा है। हमें नये युग को नये हमारे ऊपर 'पर' का नियन्त्रण होता है । दूसरों के जीवन मूल्य प्रदान करने हैं। इस युग में बौद्धिक द्वारा अनुशासित होने में हम विवशता का अनुभव संकट एवं उलझनें पैदा हुई हैं । हमें समाधान का करते हैं, परतन्त्रता का बोध करते हैं, घुटन की रास्ता ढूढ़ना है।
प्रतीति करते हैं। __ आज विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है। मार्स ने धर्म की अवहेलना की है । वास्तव में लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं । लक्ष्य- मार्क्स ने मध्ययुगीन धर्म के बाह्य आडम्बरों का विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी की मंजिल नहीं विरोध किया है। जिस समय मार्क्स ने धर्म के मिलती।
बारे में चिन्तन किया उस समय उसके चारों ओर _ वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति धर्म का पाखण्ड भरा रूप था। मार्क्स ने इसी को का हमने संग्रह किया है उसका उपयोग किस धर्म का पर्याय मान लिया। प्रकार हो, गति का नियोजन किस प्रकार हो- वास्तव में धर्म तो वह पवित्र अनुष्ठान है यह आज के युग की जटिल समस्या है। इसके जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर तत्त्व है जिससे व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ देखना होगा।
कर पाता है। धर्म दिखावा नहीं, प्रदर्शन नहीं,
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रूढ़ियाँ नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं, मनुष्य धर्म की उपर्युक्त धारणायें आज टूट चुकी हैं। मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं अपितु मनुष्य में मनु- विज्ञान ने हमें दुनियाँ को समझने और जानने का ष्यता के गुणों के विकास की शक्ति है; सार्वभौम तर्कवादी रास्ता बताया है । विज्ञान ने यह स्पष्ट चेतना का सत्-संकल्प है।
किया कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम आज के विश्व के लिए किस प्रकार का धर्म नहीं है । विश्व तथा सभी पदार्थ कारण कार्य भाव एवं दर्शन सार्थक हो सकता है ?
से बद्ध हैं । भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि
जगत में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल ___ मध्य युग में विकसित धर्म एवं दर्शन के पर
रूपान्तर मात्र होता है। इस धारणा के कारण इस म्परागत स्वरूप एवं धारणाओं में आज के व्यक्ति
जगत को पैदा करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं की आस्था समाप्त हो चुकी है । इसके कारण हैं। उठता । जीव को उत्पन्न करने वाली शक्ति का ___मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' प्रतिष्ठित प्रश्न नहीं उठता। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के था। हमारा सारा धर्म एवं दर्शन इसी 'ईश्वर' के सिद्धान्त में विश्वास जगाया है। पदार्थ की अनश्वचारों ओर घूमता था। सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता, रता के सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन पालनकर्ता, संहारकर्ता के रूप में हमने 'परम पाश्चात्य अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का शक्ति' की कल्पना की थी। उसी शक्ति के अवतार निषेध किया है। उसने यह माना है कि मनुष्य का के रूप में, या उसके पुत्र के रूप में या उसके प्रति- सष्टा ईश्वर नहीं है। मनुष्य वह है जो अपने निधि के रूप में हमने ईश्वर, ईसा या अल्लाह को आपको बनाता है। माना तथा उन्हीं की भक्ति में अपनी मुक्ति का इस प्रकार जहाँ मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में मन्त्र मान लिया । स्वर्ग की कल्पना, देवताओं की
___ 'ईश्वर' प्रतिष्ठित था वहाँ आज की चेतना के केन्द्र
ही कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, में मनष्य' प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का अपने देश एवं अपने काल की माया एवं प्रपची से मोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। आज परिपूर्ण अवधारणा आदि बातें हमारे मध्ययुगीन के मनुष्य के लिए ऐसा धर्म एवं दर्शन व्याख्यायित धर्म दर्शन के घटक थे । वर्तमान जीवन की मुसी- करना नोगा जो 'ईश्वरवादी' नहीं होगा, भ बतों का कारण हमने अपने विगत जीवन के कमा वादी नहीं होगा। उसके विधानात्मक घटक होंगे
करना होगा जो 'ईश्वरवादी' नहीं होगा. भाग । कारण हमने अपने विगत जीवन को मान लिया । वर्तमान जीवन में अपने श्रेष्ठ
(१) मनुष्य, (२) कर्मवाद की प्रेरणा, (३) सामाआचरण द्वारा अपनी मुसीबतों को कम करने की
जिक समता। तरफ हमारा ध्यान कम गया, अपने आराध्य की।
____ आज के अस्तित्ववादी दर्शन में, विज्ञान के स्तुति एवं जयगान की ओर अधिक ।
द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में तथा साम्यवादी ईश्वर और मनुष्य के बीच के बिचौ- शासन-व्यवस्था में कुछ विचार प्रत्यय समान हैं। लियों ने मनुष्य को सारी मुसीबतों, कष्टों, विपदाओं से मुक्त होकर स्वर्ग, बहिश्त में मौज की।
(१) तीनों ईश्वरवादी नहीं हैं। ईश्वर के
स्थान पर मनुष्य स्थापित है । जिन्दगो बिताने की राह दिखायी और बताया कि हमारे माध्यम से अपने आराध्यों के प्रति तन, मन, (२) तीनों भाग्यवादी नहीं हैं। कर्मवादी तथा धन से समपित हो जाओ-पूर्ण आस्था, पूर्ण पुरुषार्थवादी हैं। विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ भक्ति करो । तर्क को (३) तीनों में मनुष्य की जिन्दगी को सुखी साधना पथ का सबसे बड़ा शत्रु मान लिया गया। बनाने का संकल्प है । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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SCSTFORMECTIVE
अस्तित्ववादी दर्शन में व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य पर होगा; दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित जोर है तो साम्यवादी दर्शन में सामाजिक समा- मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर नता पर। इन समान एवं विषम विचार-प्रत्ययों के होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की आधार पर क्या नये युग का धर्म एवं दर्शन निर्मित प्रतिष्ठा करनी होगी; उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोकिया जा सकता है ?
पयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा। धर्म एवं
दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो प्राणीमात्र हम देखते हैं कि विज्ञान ने शक्ति दी है । अस्तित्ववादी दर्शन ने स्वातन्त्र्य चेतना प्रदान की है।
को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के साम्यवाद ने विषमताओं को कम कराने पर बल बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दिया है। फिर भी. विश्व में संघर्ष की भावना है;
दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच अशांति है, शस्त्रों की स्पर्धा एवं होड़ है; जिन्दगी में
दीवारें खडी करके चले । धर्म और दर्शन को आधुof हैवानियत है। फिर यह सब क्यों है ?
निक लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत
-स्वतंत्रता, समानता, विश्व बन्धुत्व __ इसका मूल कारण है कि इन तीनों ने 'संघर्ष'
तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी को मूल मान लिया है। मार्क्सवाद वर्ग-संघर्ष पर आधारित है । विज्ञान में जगत, मनुष्य एवं यंत्र का
होना चाहिए। संघर्ष है । अस्तित्ववाद व्यक्ति एवं व्यक्ति के अस्ति- जैन : आत्मानुसन्धान का दर्शन–'जन' साम्प्रत्व-वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों की दायिक दृष्टि नहीं है । यह सम्प्रदायों से अतीत होने उद्भावना एवं प्रेरणा मानता है।
की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बन्धन होता हैं। यह आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रति
बन्धनों से मुक्त होने का मार्ग है। 'जैन' शाश्वत ष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर
जीवन-पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के
जानकर 'आत्मानुसंधान' की प्रक्रिया है। प्रति अपनत्व का भाव जगाना है। मनुष्य एवं मनुष्य
जैनदर्शन : प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता की के बीच आत्म-तुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे उद्घोषणा-भगवान् महावीर ने कहा-'पुरिसा ! परस्पर समझदारी. प्रेम, विश्वास पैदा हो सके। तुममव तुम मिस । मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें पुरुष तू अपना मित्र स्वयं है। जैन दर्शन में आधुनिक चेतना-सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया विश्वास का सन्देश प्रदान करना है।
है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य'
आत्मा ही दूख एवं सूख का कर्ता या विकता है। प्रश्न उठता है कि हमारे दर्शन एवं धर्म का
यानी कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित, संचास्वरूप क्या हो ?
लित, प्रेरित नहीं करती। आप स्वयं ही अपने हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिए जो मानव जीवन के ज्ञान से, चरित्र से उच्चतम विकास कर मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं सकते हैं। यह एक अत्यधिक क्रान्तिकारी विचार पुरुषार्थ को जागृत कर उसको शान्ति एवं सौहार्द है। इसको यदि हम आधुनिक जीवन-सन्दर्भो के का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो। इसके लिए अनरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी; विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इससे जुड़ सकते हैं।
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भगवान् महावीर का दूसरा क्रान्तिकारी एवं साधना कर सके, राग-द्वेष को छोड़ सके तो कोई वैज्ञानिक विचार यह है कि मनुष्य जन्म से नहीं ऐसा कारण नहीं है कि वह प्रगति न कर सके । जब अपितु आचरण से महान बनता है। इस सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है, अपने ज्ञान और के आधार पर उन्होंने मनुष्य समाज की समस्त साधना के बल पर उच्चतम विकास कर सकता है दीवारों को तोड़ फेंका। आज भी मनुष्य और और तत्त्वतः कोई किसी की प्रगति में न तो बाधक मनुष्य के बीच खडी की गई जितने प्रकार की दीवारें है और न साधक तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ हैं उन सारी दीवारों को तोड़ देने की आवश्यकता उठता है ? इस तरह उन्होंने एक सामाजिक दर्शन - है। यदि हम यह मान लेते हैं कि 'मनुष्य जन्म से दिया।
नहीं, आचरण से महान बनता है' तो जो जातिगत प्रत्येक जीव में आत्मशक्ति-सामाजिक समता विष है, समाज की शान्ति में एक प्रकार का जो विष
एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम घुला हुआ है, उसको हम दूर कर सकते हैं । जो
महत्व है। इस परम्परा में मानव को मानव के ४। पढ़ा हुआ वर्ग है उसे निश्चित रूप से इसको सैद्धा
__ रूप में देखा गया है; वर्णो, सम्प्रदायों, जाति, उपन्तिक रूप से ही नहीं अपितु इसे अपने जीवन में
जाति, वादों का लेबिल चिपकाकर मानव मानव आचरण की हाष्ट से भा उतारना चाहिए। को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा बन सकता है-प्रत्येक महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैनदर्शन में व्यक्ति साधना के आधार पर इतना विकास कर हुआ है वह अप्रतिम है । भगवान महावीर ने आत्मा सकता है कि देवता लोग भी उसको नमस्कार करते को स्वतन्त्रता की प्रजातन्त्रात्मक उद्घोषणा की। हैं । 'देवा वि त्तं नमंसन्ति जस्स धम्म सया मणो !' उन्होंने कहा कि समस्त आत्माएँ स्वतन्त्र हैं । विव। महावीर ने ईश्वर की परिकल्पना नहीं की: देव- क्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों ताओं के आगे झुकने की बात नहीं की अपितु मान- का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ वीय महिमा का जोरदार समर्थन करते हुए कहा किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। व्यक्ति अपनी ही इसके साथ-साथ उन्होंने यह बात कही कि जीवन-साधना के द्वारा इतना उच्चस्तरीय विकास
स्वरूप की दृष्टि से समरत आत्माएँ समान हैं ।
अस्तित्व की दृष्टि से समस्त आत्माएँ स्वतन्त्र हैं; कर सकता है कि आत्मा ही परमात्मा बन सकती है।
भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से समस्त
आत्माएँ समान हैं। मनुष्य मात्र में आत्म-शक्ति जैन तीर्थकरों का इतिहास एवं उनका जीवन है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण आकाश से पृथ्वी पर उतरने का क्रम नहीं है अपितु, कर्मों का भेद है । 'जीव' अपने ही कारण से संसारी । पृथ्वी से ही आकाश की ओर जाने का उपक्रम बना है और अपने ही कारण से मुक्त होगा। व्यव
है । नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है हार से बन्ध और मोक्ष के हेतु अन्य पदार्थ को । अपितु नर का ही नारायण बनना है । वे अवतार- जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव स्वयं
वादी परम्परा के पोषक नहीं अपितु उत्तारवादा मोक्ष का हेतू है। आत्मा अपने स्वयं के उपाजित है। परम्परा के तीर्थंकर थे। उन्होंने अपने जीवन की कर्मों से ही बंधती है । आत्मा का दुःख स्वकृत है। । साधना के द्वारा, प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रमाण प्रत्येक व्यक्ति ही प्रयास से उच्चतम विकास दिया; उसे यह विश्वास दिलाया कि यदि वह कर सकता है ।
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जनदर्शन में आत्माएँ अनन्तानन्त हैं तथा परि- जब व्यक्ति सभी जीवों को समभाव से देखता | मा णामी स्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण है तो राग-द्वंष का विनाश हो जाता है । उसका - एक जीवात्मा अपने रूप में रहते हए भी ज्ञान के चित्त धार्मिक बनता है। रागद्वेष-हीनता धार्मिक अनन्त पर्यायों का ग्रहण कर सकती है।
बनने की प्रथम सीढ़ी है।। __स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं।
समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास जीव के सहज गुण अपने मूल रूप में स्थित रहते
होने पर व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है। हैं । पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप शुद्धि-अशुद्धि की
इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने पर मात्रा घटती-बढ़ती रहती है।
की कामना करने वाले हैं। सबको अपना जीवन
प्रिय है। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई आत्म-तुल्यता तथा सामाजिक समता-भगवान राम
नहीं चाहता। जब सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय
minsों ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखने एवं समस्त है तो किसी भी प्राणी को दुःख न पहुँचाना ही संसार को समभाव में देखने का निर्देश दिया। अहिंसा है। अहिंसा केवल निवत्तिपरक साधना 'श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी सार्थकता नहीं है, यह व्यक्ति को सही रूप में सामाजिक बनाने समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में बत- को
। लायी। समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण बनाती है।
अहिंसा के साथ व्यक्ति की मानसिकता का भगवान ने कहा कि जाति की कोई विशेषता
सम्बन्ध है। इस कारण महावीर ने कहा कि नहीं, जाति और कूल से त्राण नहीं होता। प्राणी अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। एक कृषक अपनी मात्र आत्मतुल्य है। से इस कारण प्राणियों के प्रति क्रिया करते हुए यदि अनजाने जीवहिंसा कर भी आत्मतुल्य भाव रखो; आत्मतुल्य समझो, सबके देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती प्रति मैत्रीभाव रखो, समस्त संसार को समभाव नहीं है । भले ही हम किसी का वध न करें, किन्तु से देखो । समभाव के महत्व का प्रतिपादन उन्होंने किसी के वध करने के विचार का सम्बन्ध मानयह कहकर किया कि आर्य महापुरुषों ने इसे ही सिकता से सम्पृक्त हो जाता है। धर्म कहा है।
___ इसी कारण कहा गया है कि रागद्वेष का ___अहिंसा : जीवन का विधानात्मक मूल्य एवं भाव अप्रादुर्भाव अहिंसा एवं उसका प्रादुर्भाव दृष्टि-भगवान् महावीर ने अहिंसा शब्द का व्यापक हिंसा है। अर्थ में प्रयोग किया- मन, वचन, कर्म से किसी
हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, को पीड़ा न देना। यहाँ आकर अहिंसा जीवन का
अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का। विधानात्मक मूल्य बन गया।
दुसरों का अनिष्ट करने की नहीं, अपने कल्याण के ___महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की के चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया। उन्होंने प्रवृत्ति ने मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय संसार में प्राणियों के प्रति आत्मतुल्यता-भाव की बनाया है। प्रकृति से वह आदमी है, नैतिकताजागृति का उपदेश दिया, शत्र एवं मित्र सभी बोध के संस्कारों ने उसमें मानवीय भावना का प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद विकास कर उसके जीवन को सार्थकता प्रदान किया।
की है।
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__ अहिंसा से अनुप्राणित अर्थ तन्त्र : अपरिग्रह- भगवान् महावीर ने पहचाना था। इसी कारण अहिंसा के साथ ही जुड़ी हुई भावनाएं हैं-अपरि- उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा ग्रहवाद एवं अनेकांतवाद । परिग्रह से आसक्ति एव करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन ममता का जन्म होता है। अपरिग्रह वस्तुओं के का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता प्रति ममत्वहीनता का नाम है । जब व्यक्ति अहिंसक है। परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, असत्य, अस्तेय होता है, रागद्वेष रहित होता है तो स्वयमेव अप- एवं कुशील इन चारों पर रोक लगाती है । रिग्रहवादी हो जाता है। उसकी जीवन-दृष्टि बदल जाती है। भौतिक-पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त
परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना हो जाती है। अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति
आवश्यक है। 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाता
ही नहीं, इस लोक के जीवन को सूखी बनाने के है, जिससे किसी अन्य प्राणी के हितों को आघात
लिए भी आवश्यक है। आधुनिक युग में पाश्चात्य 710 न पहुँचे।
जगत के विचारकों ने स्वच्छंद यौनाचार एवं निधि
इच्छा-तप्ति की प्रवृत्ति को सहज मान लिया। इस बहुत अधिक उत्पादन मात्र करने से ही हमारी
कारण पाश्चात्य जगत के व्यक्ति एवं समाज ने सामाजिक समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं। हमें व्यक्ति
'व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा अचेतन मन की संतुष्टि' के चित्त को अन्दर से बदलना होगा। उसकी
आदि सिद्धान्तों के नाम पर जिस प्रकार का संयमकामनाओं, इच्छाओं को सीमित करना होगा तभी
हीन आचरण किया उसका परिणाम क्या निकला हमारी बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को सुल
है ? जीवन की लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, मूल्यविहीन झाया जा सकेगा।
स्थिति एवं निर्बाध भोगों में निरत समाज की ऐसा नहीं हो सकता कि कोई सामाजिक प्राणी स्थिति क्या है ? उनके पास पैसा है, धन-दौलत है, सम्पूर्ण पदार्थों को छोड़ दें। किन्तु हम अपने जीवन साधन हैं किन्त फिर भी जीवन में संत्रास. अविको इस प्रकार से ढाल सकते हैं कि पदाथ हमार श्वास. अतप्ति. वितष्णा एवं कठाएँ हैं। हिप्पी पास रहें किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति न हो, सम्प्रदाय क्या इसी प्रकार की सामाजिक स्थिउनके प्रति हमारा ममत्व न हो।
तियों का परिणाम नहीं है । समाज में इच्छाओं को संयमित करने की
वैचारिक अहिंसा : अनेकान्तवाद -- अहिंसक भावना का विकास आवश्यक है। इसके बिना
व्यक्ति आग्रही नहीं होता। उसका प्रयत्न होता है
र मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'पर- नियों
कि वह दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचावे कल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं को लगाम वह सत्य की तो खोज करता है, किन्तु उसकी म लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं कथन-शेली में अनाग्रह एवं प्रेम होता है। अनेअपरिग्रही भावना का विकास करती है।
कान्तवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है। परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है, उसकी आत्यन्तिक-दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न उसकी मानवीयता को नष्ट करती है। उसकी लगाता है । अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है लालसा बढ़ती जाती है। धनलिप्सा एवं अर्थ- कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म होते हैं। लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर एकदम सम्भव नहीं हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि बढ़ना आरम्भ कर देती है । इसके दुष्परिणामों को से देखने पर हमें वस्तु के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान
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होता है । विभिन्न कोणों से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक स्थान से देखने पर भी विभिन्न दृष्टियों की प्रतीतियाँ भिन्न हो सकती हैं ।
१६ फरवरी, १६८० को सूर्यग्रहण के अवसर पर काल के एक ही क्षण भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों पर व्यक्तियों को सूर्यग्रहण के समान दृश्य की प्रतीति नहीं हुई । कारवार, रायचूर एवं पुरी आदि स्थानों में जिस क्षण पूर्ण ग्रहण हुआ जिसके कारण पूर्ण अँधेरा छा गया, वहीं बम्बई में सूर्य का ८५ प्रतिशत भाग, दिल्ली में ५८ प्रतिशत भाग तथा श्रीनगर में ४८ प्रतिशत भाग दिखाई नहीं दिया ।
भारतवर्ष में ही सूर्यग्रहण आरम्भ एवं समाप्ति के समय में भी अन्तर रहा । कारवार में सूर्यग्रहण मध्याह्न २′१७'२० बजे आरम्भ हुआ तो भुवनेश्वर में २४२ १५ पर तथा कारवार में ४-५२१० पर
समाप्त हुआ तो भुवनेश्वर में ४५६ ३५ पर । पूर्ण सूर्यग्रहण की अवधि रायचूर में २ मिनट ४१ सेकंड रही तो भुवनेश्वर में यह अवधि केवल ४६ सेकंड की ही रही ।
'स्याद्वाद' अनेकांतवाद का समर्थक उपादान है; तत्वों को व्यक्त कर सकने की प्रणाली है; सत्य कथन की वैज्ञानिक पद्धति है ।
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से उन्मुक्त विचार करने की प्रेरणा प्रदान की जा सकती है ।
यदि हम प्रजातन्त्रात्मक युग में वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो 'अनेकांत' से दृष्टि लेकर 'स्याद्वाद प्रणाली' द्वारा कर सकते हैं । चिन्तन के धरातलों पर उन्मुक्तता तथा अनाग्रह तथा संवेदना के धरातल पर प्रेम एवं सहिष्णुता की भावना का विकास कर सकते हैं ।
मिथ्या ज्ञान के वचनों को दूर करके स्याद्वाद ने ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया, एकांतिक चिन्तन की सीमा बतलाई । आग्रहों के दायरे में सिमटे हुए मानव की अंधेरी कोठरी को अनेकांत वाद के अनन्त लक्षणसम्पन्न सत्य - प्रकाश से आलोकित किया जा सकता है । आग्रह एवं असहिष्णुता के बन्द दरवाजों को स्याद्वाद के द्वारा खोलकर अहिंसावादी रूप में विविध दृष्टियों एवं सन्दर्भों है ।
इस प्रकार विश्व-धर्म के रूप में जैन धर्म एवं दर्शन की आधुनिक युग में प्रासंगिकता को व्याख्यायित करने की महती आवश्यकता है। यह मनुष्य एवं समाज दोनों की समस्याओं का अहिंसात्मक समाधान प्रस्तुत करता है । यह दर्शन आज की प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनुरूप है । आदमी के भीतर की अशांति, उद्व ेग एवं मानसिक तनावों को यदि दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को बनाये रखना है तो जैन दर्शन एवं धर्म में प्रतिपादित मानव की प्रतिष्ठा, प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता तथा प्रत्येक जीव में आत्म-शक्ति का अस्तित्व आदि स्थापनाओं एवं प्रत्ययों को विश्व के सामने रखना होगा। जैन धर्म एवं दर्शन मानव मात्र के लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है । सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का चिन्तन प्रस्तुत करता है । पूर्वाग्रह रहित उदार दृष्टि से एक दूसरे को समझाने और स्वयं को तलाशने-जानने के लिये अनेकांतवादी जीवन-दृष्टि प्रदान करता है । समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए समान अधिकार की घोषणा करता प्रत्येक व्यक्ति को 'स्व-प्रयत्न' से विकास करने का मार्ग दिखाता
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पुद्गल विवेचनवैज्ञानिक एवं जैन आगम की दृष्टि में
जैन सिद्धान्त विश्व को छह द्रव्यों से निर्मित मानता है जो सत् हो अथवा जिसकी सत्ता हो उसे द्रव्य कहते हैं । पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद (Modification) एवं व्यय (Disappearance) प्रति समय 10 होता रहता हो तथा गुणों की अपेक्षा से ध्रौव्य (Continuity) हो वह सत् है । विज्ञान की दृष्टि में पदार्थ न तो पैदा किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है किन्तु उसका रूप परिवर्तित हो । सकता है। अतएव उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य का जैन सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक है।
जैन आगमों में द्रव्य के छह भेद बताये गये हैं-जीव, अजीव | (पुद्गल), धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल । यहाँ हम सिर्फ पुद्गल का | जैन आगम एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करेंगे । 'पुद्गल'=पुद्+गल से बना है। "पुद्" का अर्थ पूरा होना अथवा मिलना और “गल" का अर्थ है गलना अथवा नष्ट होना। अतएव जो द्रव्य प्रतिसमय मिलता एवं गलता रहे वह पुद्गल कहलाता है । यहाँ मिलना एवं गलना पर्याय की अपेक्षा से है।
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित “नियमसार" गाथा क्रमांक २१-२४ में पुद्गल का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है
(१) स्थूल-स्थूल-लकड़ी, पत्थर, लोहा जैसे ठोस पदार्थ । (२) स्थूल-जल, तेल आदि द्रव्य पदार्य । (३) स्थूल-सूक्ष्म-प्रकाश, छाया एवं चांदनी ।
(४) सूक्ष्म-स्थूल-ध्वनि ऊर्जा एवं ताप ऊर्जा । इन्हें हम चक्षु इन्द्रिय से नहीं देख सकते हैं किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों से अनुभव कर सकते हैं।
(५) सूक्ष्म-इसमें कार्मण वर्गणाएँ आती हैं। हमारे विचारों तथा भावों का प्रभाव इन पर पड़ता है तथा इनका प्रभाव जीव द्रव्य एवं अन्य पुद्गलों पर पड़ता है। इन्हें पंच-इन्द्रियों से अनुभव नहीं कर सकते हैं।
(६) सूक्ष्म-सूक्ष्म - परमाणु में निहित धन एवं ऋण विद्य त आवेश । कार्मण वर्गणाओं से नीचे के स्कन्ध जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इन्हें भी पंचेन्द्रियों से अनुभव नहीं कर सकते हैं।
पुद्गल का भेद नं० ५ जैन आगम की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
डॉ० रमेश चन्द्र जैन,
प्रवाचक,
सांख्यिकी विभाग,
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
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आधुनिक विज्ञान इस विषय पर मौन है क्योंकि शेष गुण अवश्य होंगे । यह संभव है कि हमारी अभी इस प्रकार के उपकरण निर्मित नहीं हुए हैं जो इन्द्रियाँ इन्हें लक्षित न कर सकें किन्तु आधुनिक किसी पुद्गल पदार्थ पर विचारों एवं भावों का वैज्ञानिक उपकरण शेष गुणों की उपस्थिति लक्षित प्रभाव लक्षित कर सके । झूठ पकड़ने वाली मशीनों कर सकते हैं। पद्गल में अनन्त शक्ति हो की खोज इस दिशा में एक छोटा-सा कदम हो कि विज्ञान द्वारा सिद्ध की जा चुकी है । पुद्गल में की सकता है।
संकोच एवं विस्तार होता रहता है। सूक्ष्म CT
परिणमन एवं अवगाहन शक्ति के कारण विज्ञान ने संसार के समस्त पदार्थों को मुख्यतः तान भागों में विभाजित किया है-ठोस. द्रव और परमाणु एव स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो गैस । इन तीनों में आपस में परिवर्तन होता रहता
जाते हैं। है। आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि आचार्य उमास्वाति द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र, SC पदार्थ ऊर्जा रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता द्वितीय अध्याय के सूत्र नं० ३६ के अनुसार शरीर है। परमाण भट्रियों से विद्य त उत्पादन-प्रक्रिया पाँच प्रकार का होता है-औदारिक, वैक्रियिक, इसका उदाहरण है । जैन सिद्धान्त के अनुसार ठोस, आहारक, तेजस् एवं कार्मण । कार्मण शरीर सूक्ष्म द्रव, गैस एवं ऊर्जा पुद्गल के ही विभिन्न पर्याय हैं है तथा इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता और इन पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । सूर्य हैं । पुद्गल वर्गणाओं में अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्गणा की प्रकाश ऊर्जा से पथ्वी के पेड़-पौधों को पोषण' कार्मण वर्गणा के नाम से जानी जाती है । इसमें 800 मिलता है । यह ऊर्जा का ठोस पर्याय में परिवर्तन जीव द्रव्य का पुद्गल परमाणु के साथ संयोग होता का उदाहरण है।
है। इस संयोग की विशेषता यह है कि यह संयुक्त । पुद्गल में मूलतः चार गुण होते हैं-स्पर्श, रस, यह संयोग नहीं होता है किन्तु संसारी जीव को यह
. होकर भी पृथक्-पृथक् रहता है । मुक्त जीव को गंध एवं रूप अथवा वर्ण। जैनदर्शन में वर्ण
संयोग क्षण-प्रतिक्षण होता रहता है। जिस प्रकार मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है-लाल, पीला, एक चम्बकीय छड लोहे के छोटे कणों को अपनी नीला, कृष्ण (काला) एवं श्वेत । वर्ण पटल में सात
ओर आकर्षित करती है उसी प्रकार जीव द्रव्य रंग होते हैं जो कि क्रमशः कासनी, नीला, हरा,
(आत्मा) क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत पीला, नारंगी एवं लाल हैं । इसमें श्वेत एवं श्याम
होकर कर्मों से प्रदूषित हो जाती है । जीव द्रव्य ा रंग नहीं हैं। किन्तु श्वेत रंग उपर्युक्त सात रंगों के
एवं पुद्गल द्रव्य में बंध का मख्य कारण जीव का मिश्रण से बनता है तथा कृष्ण रंग श्वेत रंग की
अपना भावनात्मक परिणमन एवं पदगल प्रक्रिया अनुपस्थिति दर्शाता है। जैन दर्शन में श्वेत एवं
है। आत्मा जब कर्म द्रव्य के सम्पर्क में आती है तो श्याम वर्ण चाइन्द्रिय की अपेक्षा से हैं । जैन दर्शन ।
वहाँ संगलन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसके वर्ण के अनन्त भेद मानता है जो कि वैज्ञानिक दृष्टि फलस्वरूप नई स्थिति निर्मित होती है। इसे कार्मण से लाल रंग से कासनी रंग तक के विभिन्न तरंग वर्गणा करते हैं। जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कार IN परिणाम भी अनन्त हैं । अतएव वंज्ञानिक-दृष्टि में ही नहीं है किन्त वस्तभत पदगल पदार्थ है । राग, भी वर्ण के अनन्त भेद हैं।
द्वेष से युक्त जीव की मानसिक, वाचनिक एवं विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि किसी शारीरिक क्रियाओं के साथ कार्मण वर्गणाएं जीव में भी पुद्गल में उपर्युक्त चार में से कम से कम कोई आती हैं और जो उसके राग-द्वष का निमित्त एक गुण भी विद्यमान है तो उसमें अप्रकट रूप से पाकर जीव से बंध जाती हैं और आगे चलकर
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अच्छा या बुरा फल देती हैं। इन कार्मण वर्गणाओं लम्बे समय तक रहता है। तत्वार्थसूत्र अष्टम
का फल देने का समय तथा तीव्रता कार्मण वर्ग- अध्याय के सूत्र १४-२० तक विभिन्न कर्मों का । णाओं पर ही निर्भर करती है । जब आत्मा में शुद्ध उत्कृष्ट एवं जघन्य (अधिकतम एवं न्यूनतम) समय तथा सात्विक विचार, प्रेम और सहानुभूति हो तो बताया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं बेदनीय अच्छी कार्मण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं तथा उनके कर्म का अधिकतम समय तीस कोडाकोडी सागर, फल देने के समय आनन्द की अनुभूति होती है। मोहनीय कर्म का अधिकतम समय सत्तर कोडाजब किसी कर्म का फल देने का समय समाप्त हो कोडी सागर, नाम एवं गोत्र कर्म का अधिकतम जाता है तो उस कर्म का अस्तित्व भी समाप्त हो समय बीस कोडाकोडी सागर तथा आयु कर्म का 10 जाता है । पूरे संसार में कार्मण वर्गणाओं का खेल अधिकतम समय तेतीस सागर है । वेदनीय कर्म का
चल रहा है। जिस प्रकार धान का छिलका उतर न्यूनतम समय बारह महर्त का है। नाम एवं गोत्र ? जाने से चावल में उगने की क्षमता भी समाप्त हो का न्यूनतम समय आठ महर्त का है। शेष पाँच
जाती है, उसी प्रकार आत्मा (जीव) पर से समस्त कर्मों का न्यूनतम समय एक अन्तर्मुहर्त का है जो कामण वर्गणाओं की खोल उतर जाने पर आत्मा कि मुहर्त से भी छोटा है। जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है । यदि कर्मों।
निष्कर्ष-वर्तमान समय में परमाणु भट्टी में के क्षय की गति (निर्जरा) तेज हो तो एक मुहूर्त में
रेडियो धर्मी पदार्थों के विच्छेदन से असीम ऊर्जा है भी आत्मा कर्म-रहित हो सकती है।
प्राप्त की जा रही है। इस प्रक्रिया में रेडियोधर्मी वैदिक दर्शन म ईश्वर को जगत का नियन्ता पदार्थ की पर्याय भी बदल जाती है । यह प्रक्रिया ! मानने वाले जीव का कार्य करन में स्वतत्र तथा काफी कठिन है। इसी प्रकार यदि मानव शरीर
उसका फल भोगन में परतन्त्र मानत है। जन रूपी भटी में समस्त कार्मण वर्गणाएँ सच्ची श्रद्धा, दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। सच्चे ज्ञान एवं सच्चे आचरण से भस्म कर दी कार्मण वर्गणाओं के वशीभूत होकर जीव ऐसे कार्य जावें तो आत्मा अपने शुद्धतम रूप में प्रकट हो करता है जो सुखदायक अथवा दुखदायक होते हैं। सकती है। ऐसी शुद्धतमा जन्म, जरा एवं मृत्यु के वर्तमान में जीव पिछले कर्मों का फल भोगता है चक्र से हमेशा के लिए मुक्त होकर सिद्धालय में
तथा वर्तमान में किये जा रहे कर्मों का फल भविष्य स्थापित हो जाती है। में में प्राप्त करता है।
पुद्गल के वर्गीकरण में "सूक्ष्म पुद्गल" __ कर्मों के आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरणीय, आचार्य कुन्दकुन्द की महान उपलब्धि है । विज्ञान है। दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र इसको अभी प्रयोगों द्वारा सिद्ध नहीं कर पाया है
तथा अंतराय । इन आठ कर्मों में मोहनीय कर्म किन्तु भविष्य में यदि विज्ञान इसके अस्तित्व को बड़ा प्रबल है तथा सब कर्मों का नेता है । यह कर्म सिद्ध करता है तो इसके अनुसंधान का सारा श्रेय संसार के सब दुखों की जड़ है। इसका प्रभाव जैन दर्शन को दिया जाना चाहिये।
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वैज्ञानिक शक्ति-मूल्य और ज्ञान-मूल्य
आधुनिक युग विज्ञान का युग है । विज्ञान एक ऐसी सबल मानवीय क्रिया या अनुशासन है जिसने ज्ञान के क्षेत्रों को केवल प्रभावितं । ही नहीं किया है, वरन् विश्व और ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उद्घाटित किया है। वैज्ञानिक-ज्ञान के दो पक्ष हैं जो दो प्रकार के मूल्यों की सृष्टि करते हैं-एक शक्ति-मूल्य और दूसरे प्रेम या ज्ञान-मूल्य । जहाँ
तक शक्ति-मूल्य का सम्बन्ध है, वह तकनीकी विज्ञान से सम्बन्धित है जैन-दर्शन में 'द्रव्य' जो अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर प्रतिस्पर्धा का विषय बनता जा रहा है।
इसके द्वारा शक्ति और संघर्ष मूल्यों को इस कदर वृद्धि होती जा रही । को धारणा और है कि आधुनिक मानव विज्ञान को केवल शक्ति-संचय का साधन
मानता जा रहा है। दूसरी ओर, विज्ञान का वह महत्त्वपूर्ण पक्ष है विज्ञान
जो प्रेम या ज्ञान-मूल्य का सृजन करता है जिसकी ओर हमारा ध्यान । कम जाता है। सत्य में विज्ञान का यह ज्ञान-मल्य ही 'प्रतिमानों की रचना करता है जो मानवीय संदर्भ को अर्थवत्ता प्रदान करता है। इसी से ज्ञान का महत्व मानव तथा विश्व से है और प्रत्येक मानवीय क्रिया मानव और उससे सम्बन्धित विश्व-संदर्भ के लिए ही है। यह ज्ञान प्राप्त करने का मनोभाव विज्ञान का भी सत्य है। रहस्यवादी, प्रेमी, कवि, दार्शनिक, सभी सत्यान्वेषी होते हैं, यह बात दूसरी है कि उनका 'अन्वेषण' उस पद्धति को स्वीकार न करता हो जो वैज्ञानिक अन्वेषण में स्वीकार की जाती है। इस कारण से रहस्यवादी और कलाकार हमारे लिए किसी भी दशा में कम सम्मान के पात्र नहीं है, क्योंकि एक वैज्ञानिक के समान ही वे भी ज्ञान और सत्य के
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह अन्वेषी हैं ।
५-झ-१५, जवाहर नगर
जयपुर-३०२००४
प्रेम के प्रत्येक स्वरूप के द्वारा हम 'प्रिय' के ज्ञान का साक्षात्कार करना चाहते हैं। यह साक्षात्कार शक्ति प्राप्त करने के लिए नहीं होता है, वरन् उसका सम्बन्ध आन्तरिक उल्लास और ज्ञान के साक्षाकार के लिए होता है । अतः ज्ञान स्वयं में एक मूल्य है जो वैज्ञानिक ज्ञान के लिए भी उतना सत्य है जितना अन्य ज्ञान-क्षेत्रों के लिए । विज्ञान का आरम्भ इसी प्रेम-ज्ञान का रूप है क्योंकि वैज्ञानिक भी वस्तुओं, दृश्यों, घटनाओं और पिण्डों आदि से एकात्म को अनुभूति कर उनके रहस्य का उद्घाटन करता है ।
१. द साइन्टिफिक इन्साइट, बड रसेल, पृष्ठ २००
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वैज्ञानिक सापेक्षवाद और स्याद्वाद
इन दोनों तत्त्वों का समान समावेश है। इस सारे || जान के इस व्यापक परिप्रेक्ष्य से एक बात यह
विवेचन से एक अन्य सत्य यह प्रकट होता है कि स्पष्ट होती है कि विज्ञान और जैदर्शन का सम्बन्ध
सत्, द्रव्य, पृद्गल, यथार्थ-सब समान अर्थ देने वाले 'सापेक्षवाद' की आधारभूमि पर माना जा सकता शब्द हैं । इसी से जैन आचार्यों ने 'द्रव्य ही सत् है (0) हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि स्याद्वाद की और सत् ही द्रव्य है' जैसी ताकिक प्रस्थापनाओं को र मान्यताओं का संकेत हमें आइंस्टाइन के सापेक्ष
का निर्देशित किया। उमास्वाति नामक जैन आचार्य ने वादी सिद्धान्त में प्राप्त होता है। यह समानता इस यहाँ तक माना कि 'काल भी द्रव्य का रूप है'। तथ्य की ओर संकेत करती है कि जैन मनीषा में जो बरबस आधुनिक कण-भौतिकी (पार्टिकिल विश्व के यथार्थ के प्रति एक स्वस्थ आग्रह था। फिजिक्स) की इस महत्वपूर्ण प्रस्थापना की ओर - विश्व और प्रकृति का रहस्य 'सम्बन्धों' पर आधा- ध्यान आकर्षित करता हैं कि काल और दिक् भी
रित है जिन्हें हम निरपेक्ष (एब्सल्युट) प्रत्ययों के पदार्थ के रूपांतरण है और यह रूपान्तरण पदार्थ के AR द्वारा कदाचित् हृदयंगम करने में असमर्थ रहेंगे। तात्विक रूप की ओर भी संकेत करता है। पदार्थ ! द्रव्य या पुद्गल की सारी अवधारणा इसी सापेक्ष या द्रव्य का यह रूपय
या द्रव्य का यह रूप यथार्थवादी अधिक है क्योंकि तत्व पर आधारित हैं। वर्तमान भौतिकी तथा गणि
जैन-दर्शन भेद को उतना ही महत्व देता है, जितना तीय प्रत्ययों के द्वारा 'द्रव्य' (मैटर) का जो भी रूप
अद्वैतवादी अभेद को । पाश्चात्य दार्शनिक ब्रडले ने स्पष्ट होता है, वह कई अर्थों में वैज्ञानिक अनुसंधान
भी भेद को एक आवश्यक तत्त्व माना है जिसके में प्राप्त निष्कर्षों से समानता रखता है।
द्वारा हम 'सत्' के सही रूप का परिज्ञान कर सकते मला विकासवाद और जीव-अजीव की धारणाएँ
विज्ञान का एक प्रमुख सिद्धान्त विकासवाद के द्रव्य की रूपान्तरण प्रक्रिया तथा भेद जो हमें विश्व स्वरूप पर एक 'दृष्टि' प्रदान करता जैन-दर्शन की एक महत्वपूर्ण मान्यता यह है है। डाविन आदि विकासवादियों ने जैव और अजव कि द्रव्य-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है । यदि (ऑरगैनिक एण्ड इन-ऑरगैनिक) के सापेक्ष सम्बन्ध विश्लेषण करके देखा जाये तो द्रव्य की अवधारणा को मानते हुए उन्हें एक क्रमागत रूप में स्वीकार में एक नित्यता का भान है जो न कभी कष्ट होता किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैव (चेतन) है और न नया उत्पन्न होता है । उत्पाद और व्यय और अजैव (जड़) के बीच शून्य नहीं है, पर दोनों के बीच एक स्थिरता रहती है (या तुल्यभारिता/15 के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है जो दोनों के 'सत्' स्व- बैलेंस) रहती है जिसे एक पारिभाषिक शब्द ध्रौव्य रूप के प्रति समान महत्व की ओर संकेत करता है। के द्वारा इंगित किया गया है। मेरे विचार से ये NDS जैन-दर्शन में जीव और अजीव की धारणाएँ विज्ञान सभी दशाएँ द्रव्य की गतिशीलता और सजनशीलता में प्राप्त उपर्युक्त जैव और अजैव के समान हैं और का परिचय देती हैं । विज्ञान के क्षेत्र में फेड हॉयल PM ये दोनों धारणाएँ सत्य और यथार्थ हैं। यहाँ पर ने पदार्थ का विश्लेषण करते हुए "पृष्ठभूमि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वेदांत तथा पदार्थ" की कल्पना की है जिससे पदार्थ उत्पन्न चार्वाक दर्शन के समान यहाँ पर द्रव्य (मैटर) चेतन होता है और फिर, उसी में विलीन हो जाता हैया जड़ नहीं है, पर द्रव्य (पुद्गल) की भावना में यह क्रम निरन्तर चला करता है"। इस प्रकार
"
१ जैन-दर्शन डा० मोहन लाल मेहता, पृष्ठ १२४ ३ दि नेचर आफ यूनीवर्स, फ्रेड हॉयल, पृष्ठ ४५
२ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, डा०
हजारीलाल जैन, पृष्ठ १८
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सजन और विलय के बीच समरसता स्थापित किया है । परमाणुवाद का पूरा प्रासाद पुद्गल के ICS Kा करने के लिए "ध्रौव्य" (स्थिरता) की कल्पना की सूक्ष्म विश्लेषण पर आधारित रहा है जो आधुनिक
गई। त्रिमूर्ति (ट्रिनिटी) की धारणा में ब्रह्मा, परमाणुवाद के काफी निकट है। विष्ण और महेश क्रमशः सृजन, स्थिरता या तुल्य- जैन-परमाणवाद और विज्ञान भारिता तथा विलय के देवता हैं जो प्रत्यक्ष रूप से पुद्गल की संरचना को लेकर जैन-दर्शन ने जो एक प्रकृति की तीन शक्तियों (सृजन, सामरस्य और विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वह पदार्थ के सूक्ष्म । विलय) के प्रतीक हैं। द्रव्य का यह अनित्य रूप तत्वों (कणों) की ओर संकेत करता है । विज्ञान विज्ञान के द्वारा भी मान्य है, जहाँ पदार्थ रूपान्त- ने पदार्थ की सूक्ष्मतम इकाई को परमाण कहा है - रित होता है न कि विनष्ट । विज्ञान और जैन मत जिसके संयोग से "अणु" की संरचना होती है, और | में द्रव्य का यह रूप समान है, पर एक अन्तर भी इन “अणुओं" के संघात से उत्तक (टीशू) का है। जैन दर्शन में 'आत्मा" नामक प्रत्यय को भी निर्माण होता है। जवकि संरचना में कोष (सेल) द्रव्य माना गया है जिस प्रकार आकाश या स्पेस सूक्ष्मतम इकाई है जिसके संयोग से अवयव (आकाशास्तिकाय) काल या टाइम (कालास्तिकाय) (आर्गन) का निर्माण होता है। इस प्रकार समस्त आदि को द्रव्य के रूप में ही माना गया है। जैविक और अजैविक संरचना में अणुओं, परमाणुओं विज्ञान के क्षेत्र में द्रव्य को व्यापक अर्थ में ग्रहण कोषों तथा अवयवों का क्रमिक साक्षात्कार होता है । नहीं किया गया है जितना कि जैन-दर्शन में। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण सृष्टि का आधुनिक विज्ञान और विशेषकर भौतिकी, गणित
"क्रमिक विकास हुआ है। जैन आचार्यों की परऔर रसायन की अनेक नवीन उपपत्तियों में पदार्थ
माणु और स्कन्ध की धारणाओं में उपर्युक्त तथ्यों के सूक्ष्मतर तत्वों की ओर संकेत मिलता है।
का समावेश प्राप्त होता है। जैन मतानुसार परप्रसिद्ध वैज्ञानिक-दार्शनिक बन्ड रसेल ने पदार्थ
माणु पदार्थ का अन्तिम रूप है जिसका विभाजन के स्वरूप पर विचार करते हुए कहा है कि "पदार्थ
सम्भव नहीं है । यह इकाई रूप ऐसा है जिसकी न वह है जिसकी ओर मन सदैव गतिशील रहता है,
लम्बाई-चौड़ाई और न गहराई होती है अर्थात् विन्तु "वह" उस तक कभी पहुँच नहीं पाता है।
__ जो स्वयं ही आदि, मध्य और अन्त है । आधुनिक आधुनिक पदार्थ भौतिक नहीं है।"
विज्ञान ने परमाणु को विभाजित किया है और
उसकी आन्तरिक संरचना पर प्रकाश डाला है। जैन-दर्शन में पदार्थ के उपयुक्त स्वरूप से एक परमाण की संरचना में प्राप्त इलेक्ट्रॉन, प्रोटान, बात यह स्पष्ट होती है कि यहाँ द्रव्य एक ऐसा पाजिट्रान तथा न्यूट्रान आदि सूक्ष्म अंशों की प्रत्यय है जो “सत्ता-सामान्य" का रूप है । सत्ता जानकारी आज के विज्ञान ने दी है । दूसरी ओर, सामान्य के छह भेद किये गये हैं-धर्मास्तिकाय से सौर मण्डल की संरचना के समान परमाणु की लेकर कालास्तिकाय तक जिसका संकेत ऊपर संरचना को स्पष्ट किया है। इस वैज्ञानिक प्रस्थाकिया जा चुका है। जहाँ तक पुद्गल या पदार्थ का पना के द्वारा यह दार्शनिक तथ्य भी प्रकट होता सम्बन्ध है, वह द्रव्य का एक विशेष प्रकार है, है जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है। अतः मनि जिसका विश्लेषणात्मक विवेचन जैन आचार्यों ने नगराज जी ने भी यह मत रखा कि विज्ञान में
1 Mitter is something in which Mind is being led, but which it never reaches.
Modern matter is not material. --उद्धत, फिलासिफिकल एसपैक्ट्स आफ माडन साइंस, सी. ई. एम. जोड, पृष्ठ ८३
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१ परमाणु का सूक्ष्म रूप नहीं मिलता है जैसा कि है। श्री बी. एल. शील का भी यही मत है कि जैन - जैन-दर्शन में । यह बात उपर्युक्त विवेचन के दार्शनिक इस तथ्य को पूरी तरह जानते थे कि धन 2 - आधार पर पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि और ऋण विद्य तकणों के संयोग से विद्युत की
अधुनातन वैज्ञानिक प्रगति ने परमाणु की मूल्यवान उत्पत्ति होती है । आकाश में चमकने वाली विद्युत NO व्याख्या प्रस्तुत की है । स्कन्ध की धारणा विज्ञान का कारण भी परमाणुओं का स्निग्ध तथा रूक्षत्व TA की अणु (Molecule) भावना से मिलती है क्योंकि गुण है । वनस्पति तथा प्राणी जगत में भी ऋण || दो से अनन्त परमाणओं के संघात को स्कन्ध तथा धन-विद्य त का रूप यौन आकर्षण में देखा जा र (अण) की संज्ञा दी गई है जो विज्ञान और जैन- सकता है। इस प्रकार धन और ऋण का विस्तार दर्शन के समान प्रत्यय हैं।
समस्त सृष्टि में व्याप्त है और यहाँ आकर
जैन-दर्शन का वैज्ञानिक स्वरूप स्पष्ट स्कन्ध-निर्माण प्रक्रिया
होता है। अब प्रश्न उठता है कि परमाणु स्कन्ध रूप में tal कैसे परिणत होते हैं ? इसका उत्तर विज्ञान तथा
परमाणु के स्पर्श-गुण और विज्ञान जैनदर्शन में अपने-अपने तरीके से दिया है जिसमें जैन-दर्शन में परमाणओं के स्पर्श अनेक माने अनेक समानताएँ हैं । एक सबसे महत्वपूर्ण समा- गए हैं जो प्रत्यक्ष रूप से परमाणुओं के गुण तथा नता यह है कि दोनों में परमाणुओं के संघात से स्वभाव को स्पष्ट करते हैं। इन्हें स्पर्श इसलिए 8 स्कन्ध (अणु) का निर्माण होता है जिसका हेतु धन कहा जाता है कि इन्द्रियाँ इन्हें अनुभूत करती हैं। और ऋण विद्यु त हैं (+तथा-) जिसके आपसी इन स्पर्शों की संख्या आठ है जैसे, कर्कश, मृदु, लघु, II आकर्षण से स्कंध तथा पदार्थ का सृजन होता है। गुरु, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष और शीत। इस प्रकार के जैन आचार्यों ने परमाणुओं के स्वभाव को 'स्निग्ध' विभिन्न गुण वाले परमाणुओं के संश्लेष से उल्का, और रूक्ष (+और-) माना है जिससे रूक्ष तथा मेघ तथा इन्द्रधनुष आदि का सृजन होता है । आधुस्निग्ध परमाणु बिना शर्त बंध जाते हैं। इसके निक भौतिकी भी इसी तथ्य को स्वीकार करती है अतिरिक्त रूक्ष-परमाण रूक्ष से. और स्निग्ध पर- कि उल्का मेघ तथा इन्द्रधनष परमा
का एक माणु स्निग्ध से, तीस से लेकर यावत् अपने गुणों विशेष संघात है। यही नहीं छाया, आतप शब्द । का बन्धन प्राप्त करते हैं। परमाणुओं के ये दो और अन्धकार को भी पुद्गल का रूप माना गया 15 विपरीत स्वभाव उनके आपसी बन्ध के कारण हैं। है। जैनाचार्यों ने पुद्गल के ध्वनिमय परिणाम को ||KC आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ में धन विद्य त 'शब्द' कहा है। परमाणु अशब्द है, शब्द नाना (0 (Positive Charge) और ऋण विद्य त (Negative स्कंधों के संघर्ष से उत्पन्न होता है। यही कारण है - Charge) के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। कि ध्वनि का स्वरूप कम्पनयुक्त (Viberative) होता यहाँ पर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि जैन है और इस दशा में ध्वनि, शब्द का रूप ग्रहण कर विचारकों ने परमाणु तथा पदार्थ के उन तत्वों को लेती है । आधुनिक भौतिकी के अनुसार भी ध्वनि प्राप्त कर लिया था जिनकी ओर विज्ञान गतिशील का उद्गम कंपन की दशा में होता है, उदाहरणस्वरूप
१ जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान, मुनि श्री नगराज, पृ. ८६ । २ पाजिटिव साइन्स आफ एन्णेंट हिन्दूज, बी. एल. शील, पृ. ३६ ३ जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान, मुनि श्री नगराज, पृष्ठ ६५
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CALL स्वर, यन्त्र, घण्टी, ऑरगन पाइप, पियानों के तार बम गलन या वियोग का उदाहरण है । यदि सूक्ष्म
ये सब वस्तुएँ कंपन की दशा में रहती है जबकि वे दृष्टि से देखा जाए तो पुद्गल की संरचना में परध्वनि पैदा करती हैं। अतः विज्ञान के माणुओं का यह गलन और पूरण रूप एक ऐसा अनुसार शब्द का स्वरूप तरंगात्मक है। रेडियो, तथ्य है जिसका संकेत हमें आधुनिक भौतिकी में माइक्रोफोन आदि में शब्द-तरंगें, विद्य त प्रवाह में भी प्राप्त होता है जिस पर परमाणु शक्ति का . परिणत होकर आगे बढ़ती है और लक्ष्य तक पहुँच समस्त प्रासाद निर्मित हुआ है । जैन शब्दावली में कर फिर शब्द रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। एक अन्य शब्द प्रयुक्त होता है-'तेजोलेश्या' जो शब्द को लेकर एक अन्तर विज्ञान से प्राप्त होता पृद्गल की एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया है जो
है क्योंकि विज्ञान, शब्द या ध्वनि को एक ऊर्जा के सोलह देशों को एक साथ भस्म कर सकती है। 2 रूप में स्वीकार करता है न कि पदार्थ के रूप में यही परमाणु की संहारक शक्ति है । आधुनिक परमी जबकि जैन-दर्शन में ध्वनि पौद्गलिक है जो भाणु शक्ति केवल ऊष्मा के रूप में प्रकट होती है, ल लोकांत तक पहुँचती है । इस सूक्ष्म अन्तर के होते पर तेजोलेश्या में उष्णता और शीतलता दोनों गुण न हुए भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि जैन- विद्यमान हैं और शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजो
दर्शन का ध्वनि विषयक चिंतन आधुनिक विज्ञान लेश्या के प्रभाव को नष्ट कर देती है। आधुनिक की मान्यताओं के काफी निकट है जो भारतीय विज्ञान उष्ण तेजोलेश्या को एटम तथा हाइड्रोजन मनीषा का एक आश्चर्यजनक मानसिक अभियान बमों के रूप में प्राप्त कर चुका है, पर इनके प्रतिकहा जा सकता है।
मारक रूपों तक वह अब भी पहुँच नहीं परमाणु-शक्ति और जैन मत
सका है। परमाणु के उपयुक्त स्वरूप के प्रकाश में जैन
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि दर्शन में परमाणु ऊर्जा (शक्ति) के भी न्यूनाधिक
जैन दार्शनिकों ने केवल अध्यात्म के क्षेत्र में ही संकेत प्राप्त होते हैं । परमाणु शक्ति के दो रूप
नहीं, वरन पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सत्यों र एटम तथा हाइड्रोजन बम है जो क्रमशः फिशन तथा
__ का उद्घाटन किया जो आधुनिक विज्ञान के द्वारा मा | फ्युजन प्रक्रियाओं के उदाहरण हैं। फिशन का अर्थ है टूटना (या विखंडन) और एटम बम में यूरेनि- .
न्यूनाधिक रूप में मान्य हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से मा यम परमाणुओं के विखंडन से शक्ति या ऊर्जा का
यह महसूस करता हूँ कि जैन विचारधारा ने सही विस्फोट होता है । दूसरी ओर हाइड्रोजन बम में
रूप में दर्शन और विज्ञान के सापेक्ष महत्व को फ्युजन होता है जिसका अर्थ है मिलना या संयोग ।
उद्घाटित किया है और विश्व तथा ब्रह्मण्ड के REE इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन के चार परमाणुआ कतिपय मालकी
सूक्ष्म अंश 'परमाण' के रहस्य का साक्षात्कार
लीला अनन्त संयोग से हिलियम परमाणु की रचना होती है। इस संयोग से जो शक्ति उत्पन्न होती है, वही हाइ
है और अन्वेषक चिंतक यही चाहता है कि वह
द्रव्य के 'अनन्वेषित प्रदेशों तक पहँच सके-यह ओ ड्रोजन या उद्जन बम का रूप है। परमाणु की ये दोनों प्रक्रियाएँ इस सूत्र वाक्य में दर्शनीय है
- जानने या पहुँचने की सतत् आकांक्षा ही "पूरण गलन धर्मत्वात् पुद्गलः" । हाइड्रोजन बम
"ज्ञान" के गत्यात्मक स्वरूप को स्पष्ट करती है । पूरण या संयोग धर्म का उदाहरण है और एटम
)
१ टेक्स्ट बुक आफ फिजिक्स, आर. एस. विलोज, पृ. २४६ । २ भगवती शतक १५
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ENG
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जैन दर्शन ने दर्शन और ज्ञान में जो अन्तर किया है वह मुझे पूर्णतया प्रमाणित लगता है। उसने चारित्र पर जो बल दिया है वह उसका सर्वश्रेष्ठ पक्ष है । सम्यक्दर्शन, चारित्र तथा ज्ञान - ये विविध व्यापार जिस ज्ञानराशि को उत्पन्न करते हैं उसे मैं संदर्शन कहता हूँ, उससे संदर्शनशास्त्र का जन्म होता है । स्पष्ट है कि जैनों के यहाँ दर्शन शब्द दु यर्थक है। 'सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:" इस सत्र में दर्शन का जो अर्थ है वह उस मोक्षविद्या से भिन्न है जो में मोक्षमार्ग से अभिहित की गई है । वस्तुतः समग्र मोक्षमार्ग दर्शन नहीं प्रत्युत संदर्शन है। इस संदर्शन में दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र के
घटक हैं । ऐसा जैन दार्शनिकों के विश्लेषण से सिद्ध है। प्रमा की नयी परिभाषा
अतः मैं एक नई दृष्टि या दार्शनिकधारा का प्रवर्तन करना चाहता हूँ। उसे मैं संदर्शनशास्त्र कहता हूँ। संदर्शन का मूल अभिप्राय समस्त दर्शनों में संप्राप्त बोध या प्रातिभ ज्ञान की व्यापकता को प्रकाशित करना है और उसी के आधार पर एक सम्पूर्ण विचारधारा का निर्माण करना है। वास्तव में संदर्शन त्रिवलयात्मक है। दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र इसके वलय हैं। इसका तात्पर्य यह है कि संदर्शन की उत्पत्ति में दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र की भूमिका है।
वास्तव में सत्ता की सूचना या उसको बतलाने की शक्ति मात्र ज्ञान में रहती है । दर्शन तथा चारित्र याचितमण्डन न्याय से ही सत्ता के बोधक या वाचक हैं अर्थात् उनके द्वारा जिस प्रकार सत्ता का परि
चय होता है वह ज्ञान से याचित है, ज्ञान से उधार लिया गया है। प्रो. संगमलाल पाण्डेय
ज्ञान भी मात्र ज्ञापक होता है, कारक नहीं। वह विषय की ज्ञापना अध्यक्ष : दर्शन विभाग
करता है, उसकी सृष्टि नहीं करता। दृष्टि-सृष्टि नहीं है वह ज्ञप्ति है
किन्तु दर्शन तथा चारित्र में कारकत्व की विशेषता है। वे गुणाधान इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
करते हैं। जिस सत् का परिचय ज्ञान से होता है वे उसमें गुणों की ॐ इलाहाबाद ।
सृष्टि करते हैं अथवा उसको बौद्धिक प्रकारों में बाँटते हैं। ___उनके ये व्यापार सत्ता का अन्यथाकरण नहीं कर सकते, उसका विद्र पण नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान के किसी प्रकार या सहयोगी में कुर्वद्र पता नहीं है--उसमें अर्थक्रियाकारित्व भी नहीं है। उसमें केवल अर्थप्रकाशकत्व है। गुण-सृष्टि से इस प्रकाश का ही बोध । कराया जाता है वह स्वयं गौण है, मुख्यार्थ नहीं।
सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र में जो सम्यक्त्व है।
उसके कारण मोक्षविद्या जिसे संदर्शनशास्त्र कहा जा रहा है सयम्क्त्व तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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से विशेषित है । संदर्शनशास्त्र में सम् उपसर्ग इसी सवप्रथम इन लक्षणों में 'इद्ध' शब्द की व्याख्या सम्यक्त्व का द्योतक है। वह संदर्शनशास्त्र को अपेक्षित है। कोशकारों ने इद्ध का अर्थ प्रज्वलित सम्यक्दर्शनशास्त्र, सम्यक्ज्ञानशास्त्र तथा सम्यक्- या प्रकाशित किया है यह इन्ध धातु से निष्पन्न चारित्रशास्त्र बनाता है। इस कारण सम्यक्त्व या हुआ है। इसी से ईंधन शब्द बना है जो जलाने की प्रमात्व उसका प्रमुख लक्षण है। संदर्शनशास्त्र सामग्री या वस्तु के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस मूलतः प्रमाशास्त्र है।
___प्रकार 'इद्ध' शब्द का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर प्रमा - अब प्रश्न उठता है कि संदर्शनशास्त्र में प्रमा की उपर्युक्त परिभाषाएँ इस प्रकार रखी जा सकती ) किसे कहते हैं ? प्रमा ज्ञान है। ज्ञान सदैव सत्य होता है उसके विशेषण के रूप में सत्य का प्रयोग (१) बोध से प्रज्वलित वृत्ति प्रमा है। करना गलत है। 'सत्यज्ञान' ऐसी पदावली का जो वृत्ति से प्रज्वलित बोध प्रमा है । प्रयोग करते हैं वे वस्तुतः ज्ञान शब्द के अर्थ से अन- प्रथम लक्षण के अनुसार वृत्ति-ज्ञान तभी प्रमा 19 भिज्ञ हैं । प्रमा ज्ञान है और ज्ञान प्रमा है । पाश्चात्य
होता है जब वह बोध से प्रज्वलित हो अर्थात् बोध दर्शन के प्रभाव के कारण उसे हम सत्यता भी कह
से व्याप्त वृत्ति प्रमा है। यदि वृत्ति बोध से व्याप्ती सकते हैं । सत्यता ज्ञान का गुण नहीं है किन्तु स्वयं
नहीं है तो वह अप्रमा है। इसी प्रकार दूसरे लक्षण ज्ञान है, वह ज्ञान भी आकारता-प्रकारता है।
के अनुसार वृत्ति से व्याप्त बोध प्रमा है और जो पुनश्च जैसा कि ऊपर कहा गया है जान भी बाध वृत्ति से व्याप्त नहीं है वह अप्रमा है। इसी वस्तुतः संदर्शन का एक विशेष घटक है। यह ज्ञान प्रकार दूसरे लक्षण के अनुसार वृत्ति से व्याप्त बोध बोध-रूप तथा वृत्ति-रूप से द्विविध है। इसको
प्रमा है और जो बोध-वृत्ति से व्याप्त नहीं है वह अंग्रेज दार्शनिक जार्ज बर्कले ने बोध (नोशन) द्वारा
अप्रमा है।
यहाँ व्याप्य-व्यापक भाव की व्याख्या अपेक्षित ज्ञान तथा वृत्ति (आइडिया) द्वारा ज्ञान कहा था
_ है। दोनों लक्षणों को एक साथ देखने पर ज्ञात किन्तु वह अनुभववाद से इतना प्रभावित था कि ।
। होता है कि वृत्तिव्याप्य बोध अथवा बोध-व्याप्य वह इन दोनों प्रकारों का एक-दूसरे से मेलापक न
वृत्ति प्रमा है अर्थात बोध तथा वत्ति दोनों में परकर सका। उसकी सूझ इस कारण फलितार्थ नहीं
स्पर व्याप्य-व्यापकभाव है। जैसे बोध व्यापक है हुई। बर्कले मात्र वृत्ति-ज्ञान के विश्लेषण तक
__ और वृत्तिव्याप्य है, वैसे वृत्ति भी व्यापक है और सीमित रह गये। वे यह नहीं समझ पाये कि वृत्ति
बोध व्याप्य है। ऐसा होने पर अनन्यता सम्बन्ध ज्ञान के प्रमापकत्व के लिए बोध की नितांत आव- की सिद्धि होती है किन्तु बोध और वृत्ति में परस्पर श्यकता है। उनसे अधिक गम्भीर विश्लेषणकर्ता
अनन्यता सम्बन्ध नहीं है । कारण दोनों में महान् अठारहवीं शती के अद्वैत वेदान्ती महादेवानन्द अन्तर है। बोध-अखण्ड है. वत्ति खण्डित है। बोध सरस्वती थे जिन्होंने वृत्तिज्ञान की प्रामाणिकता में अव्यभिचरित है, वत्ति व्यभिचरित है। बोध स्वयंबोध की अनिवार्यता पर बल दिया है। उन्होंने सिद्ध या सदावर्तमानस्वरूप हैं, वृत्ति आगन्तुक या अपने ग्रन्थ 'अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ' में जो उनके स्वर- आगमापायी है। बोध वत्ति-व्याप्य है, किन्तु फलचित तत्त्वानुसन्धान की स्वोपज्ञटीका है-कहते हैं व्याप्य नहीं है, परन्तु वत्ति फल-व्याप्य भी है । वह कि प्रमा का लक्षण निम्न दो प्रकारों से किया जा
मात्र बोध-व्याप्य नहीं है । अतः जहाँ तक वृत्ति की .. सकता है
फलव्याप्यता के प्रामाण्य का प्रश्न है. वहाँ तक ) (१) बोधेद्धा वृत्तिः प्रमा
उपर्युक्त लक्षण उस पर लागू नहीं होता। इसका (२) वृत्तीद्धो बोधः प्रमा
स्पष्टार्थ यह है-जब हमें किसो घट का ज्ञान होता २३०
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है तब हमारे मन में घटवृत्ति उत्पन्न होती है यदि इस घटवृत्ति का सन्धान बोध से होता है तो यह वृत्तमा हो जाती है । इसका तात्पर्य यह है कि जब घटवृत्ति प्रमाणित हो जाती है और उसके विषय घट को हम यथार्थ पदार्थ मान लेते हैं । घट घटवृत्ति का फलव्याप्य है, वह घट-वृत्ति का फलितार्थ है | यह फलितार्थ वृत्ति से भिन्न एक वस्तु है । घट-वृत्ति की प्रामाणिकता से प्रायः घट की यथार्थता मान ली जाती है, किन्तु यह लोकमत है । प्रमा के लक्षण द्वारा घटवृत्ति का प्रमात्व तो सिद्ध होता है किन्तु घट की यथार्थता नहीं सिद्ध होती, क्योंकि घट में बोध-व्याप्यत्व नहीं है । घटवृत्ति में बोध-व्याप्यत्व है, अतः वह प्रमा है किन्तु घट में बोध व्याप्यत्व न होने के कारण वह अप्रमा की कोटि में आ जाता है । यही कारण है कि घट के स्वरूप, घट की भूततत्त्व आदि को लेकर वैज्ञा - निकों में विवाद उठते रहते 1 घट मृण्मय है। किन्तु मृतिका क्या है ? उसके घटक क्या हैं ? उन घटकों के घटक क्या हैं ? इस अनुसन्धान परम्परा में अवस्था आ जाती है । इसमें कहीं स्वेच्छा से विराम कर दिया जाता है और एक अभ्युपगम या कल्पना बना ली जाती है । उसी के आधार पर हम कहते हैं कि घट या घट का कोई अन्तर्तत्त्व यथार्थ पदार्थ है । वस्तुतः यह यथार्थ पदार्थ - तथाकथित अभ्युपगम-अधीन या कल्पना - कल्पित है इसीलिए आधुनिक विज्ञान दर्शन में माना जाता है कि सभी तथ्य सिद्धांत वारक हैं । वे किसी सिद्धांत पर अवलम्बित हैं और उसी में ओत-प्रोत हैं । इस अर्थ में कहा जा सकता है कि जो फलव्याप्य वृत्ति है वह भी अन्ततोगत्वा फल - व्याप्य नहीं है प्रत्युत धारावाहिक ज्ञान के अन्तर्भूत होने के कारण वृत्तिव्याप्य ही है परन्तु यह अवांतर प्रश्न है । सामान्यतः वृत्ति-व्याप्यत्व और फल - व्याप्यत्व में अन्तर किया जाता है ।
इस प्रकार वृत्ति-व्याप्यता को केन्द्र में रखकर मा की परिभाषा की गई है । यद्यपि यह परिभाषा मूलतः अद्वैत वेदान्त के अनुकूल है जिसके अनुसार जागतिक वस्तुएँ केवल साक्षिमात्र हैं तथापि तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
इसका समर्थन आधुनिक विज्ञान दर्शन तथा तर्कशास्त्र से भी होता है। प्रकाश्य - प्रकाशक सम्बन्ध ही सत् है ।
'वीचितरंगन्याय' से वह इसी सत् से अविनाभूत है । सत् ही सार है । उसकी वृत्तियों का सार उनकी धारावाहिकता मात्र है ।
पुनश्च बोध वृत्ति रहित नहीं हो सकता। जो लोग वृत्तिशून्यता या वृत्ति निरोध को बोध का लक्षण मानते हैं, उनका मत अस्पष्ट तथा असंगत है । बोध सदैव वृत्ति-व्याप्य रहता है । इसके लिए चेतना के केन्द्र जैसे मन, चित्त, अहंकार बुद्धि या पुरुष या ईश्वर की अपेक्षा रहती है । किन्तु बोध इन सब वृत्तियों से भिन्न है । वह प्राचीन तथा नित्यसिद्ध है तथा ये वृत्तियाँ अर्वाचीन और आग - न्तुक हैं । बोध ऐसी असंख्य वृत्तियों को आत्मसात् किये रहता है और उसके लिये ये वृत्तियाँ मात्र बिन्दु की भाँति हैं जिनका कोई स्वतः अस्तित्व नहीं है । किन्तु बोध और वृत्ति का योगपद्य या सहभाव त्रमा है । वही ज्ञान है । वह विषय - विषयिभाव नहीं है, क्योंकि बोध न तो विषयी है और न वृत्ति विषय है । वह अपरोक्ष अनुभव है और निरपेक्ष सत् है इसी अर्थ में प्रमा सत् है और सत् प्रमा है । अंग्रेज दार्शनिक एफ. एच. ब्रडले इसी संदर्शन से अपने दर्शनशास्त्र का पर्यवसान करते हैं । अ वेदान्त बोध को परब्रह्म तथा सर्वाधिक अव्यभचरित वृत्ति को ईश्वर या अपरब्रह्म कहता है । बोध और वृत्ति का यह सहभाव परापर ब्रह्म का सहभाव है । इसी आधार पर एकेश्वरवाद और निरपेक्ष सद्वाद को अभिन्न माना जाना है ।
वस्तुतः प्रमा की इस नयी परिभाषा से एक प्रकार का नया दर्शनशास्त्र आरम्भ होता है जिसे संदर्शनशास्त्र कहा जा सकता है । उसमें प्राचीन सभी दार्शनिकों को प्रामाणिक अन्तर्दृष्टियों का समावेश है । मुख्यतः यह ज्ञान के बोध- पक्ष और वृत्ति-पक्ष तथा उनके सम्बन्ध को प्रामाणिकता के सन्दर्भ में प्रस्तुत करता है ।
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में जैन आचार्यों के
योगविद्या एक व्यावहारिक विद्या है, साधना की विद्या है, जिसके द्वारा अपने में अन्तनिहित अन्नमय, मनोमय, प्राणमय और आनन्दमय कोशों में अनादि काल से अन्तनिहित शक्तियों को जागृत करके जीवन की अल्पताओं को और उसके कारण प्राप्त पीड़ाओं को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है और उसके फलस्वरूप आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन विविध दुःखों की । आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष को, कैवल्यभाव को, प्राप्त किया जाता
है । इस साधना में त्रिविध ताप की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष की भारतीय योग परम्परा
प्राप्ति जहाँ साधना रूपी यात्रा का चरम लक्ष्य है, अन्तिम पड़ाव है, वहीं शारीरिक और मानसिक निर्बलताओं की निवृत्ति, व्याधि एवं
जरा की निवृत्ति आदि प्रारम्भिक और मध्यवर्ती पड़ाव है। योगदान का मल्यांकन जिस प्रकार किसी मन्दिर अथवा भवन के मध्य में बैठे हुए दस
पन्द्रह-बीस या सौ-दो-सौ-चार सौ अथवा हजार व्यक्ति क्रमशः अपने का प्रास्था
स्थान से उठकर द्वार की लघु यात्रा के लिए अथवा किसी अन्य मन्दिर भवन अथवा तीर्थ नदी पर्वत आदि की दीर्घ यात्रा के लिए प्रस्तुत हों, तो प्रत्येक व्यक्ति के चरण चिन्ह पृथक्-पृथक् ही होंगे, भले ही प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी यात्रा किसी एक नियत स्थल पर खड़े होकर ही क्यों न प्रारम्भ की हो। चरण चिन्हों की यह भिन्नता आकस्मिक नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इसके लिए, भिन्नता को दूर करने के लिए चाहे जितना प्रयत्न किया जाए भिन्नता अवश्य ही रहेगी। हां इस २ भिन्नता को दूर करने हेतु प्रयत्न करने पर स्खलन हो सकता है, गति
तो मन्द होगी और चरण चिन्ह की भिन्नता की निवृत्ति के ही लक्ष्य -डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी बन जाने से मूल लक्ष्य के भी तिरोहित होने की सम्भावना हो सकती
है। ठीक इसी प्रकार विविध तापों से सन्तप्त साधक की साधना यात्रा निदेशक
में भी लक्ष्य एक रहने पर भो साधना की विधि में, प्रक्रिया में कुछ न - स्वामी केशवानन्द योग संस्थान कुछ अन्तर का होना अत्यन्त स्वाभाविक ही है । साधक की शारीरिक
और मानसिक स्थिति, उसकी तैयारी, बौद्धिक स्तर, पूर्वतन संस्कार, ८/३ रूपनगर, दिल्ली ११०००७ वातावरण आदि ऐसे अनेक हेतु हैं, जिनके कारण साधना की विधि में
अन्तर हो सकता है कई बार उद्देश्य भेद अर्थात् चरम लक्ष्य में अन्तर । भी साधना के मार्ग में कुछ या बहुत अन्तर ला सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन की पूर्णता के उद्देश्य से की जाने वाली साधना पद्धतियाँ अनेक हो सकती हैं, व्यक्ति आदि के भेद से अनन्त हो सकती हैं यदि यह कहा जाए तो अनुचित न होगा। और पदक्रम में अन्तर रहने पर भी सभी एक अभीष्ट पर निस्सन्देह पहुँचते हैं।
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। स्वयं स्वीकृत
इसी प्रकार साधना क्रम में अन्तर होते हुए भी क्रम में लक्ष्य और साधक की योग्यता के आधार यदि उसके लक्ष्य के रूप में चित्त की एकाग्रता केन्द्र पर कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। हठयोग और नाथ में विद्यमान है, आध्यात्मिक लक्ष्य विद्यमान है, दुःख सिद्धों की साधना पद्धति की प्रतिष्ठा अथवा प्रचलन की आत्यन्तिक निवृत्ति का प्रयोजन विद्यमान है, तो इस सहज परिवर्तन के प्रमाण हैं। उसे योग साधना कहा जाना चाहिए और योग साधना इन परिवर्तनों के प्रसंग में यह ध्यान रखने कहा भी जाता है । इसके अतिरिक्त वर्तमान में उस वाला तथ्य है कि देश विशेष की सीमाएँ अथवा 4G साधना को, उस क्रिया विधि को भी 'योग' अथवा धर्म विशेष का इस पर कोई प्रभाव नहीं रहा है। 'योगा' कहा जा रहा है जिसका कुछ सम्बन्ध पतं- इसीलिए भारतीय साधना पद्धति, नेपाली साधना IV
जलि के अष्टांग योग से है। आजकल दिल्ली, नियाति प्रादों को अथवा जैत योग. बौद्ध योग ६५ बम्बई, न्यूयार्क, लन्दन जैसे बड़े शहरों में शरीर को ब्राह्मण या वैदिक योग आदि भेदबोधक शब्दों के यू
सुन्दर छरहरा बनाए रखने के लिए कुछ केन्द्र प्रयोग को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए । (व्यावसायिक केन्द्र) खुले मिलेंगे और उनके नाम इस प्रकार के शब्दों के प्रयोगों का केवल इतना ही आदि देखने को सहज ही मिल जाएंगे। इन अर्थ है कि किसी क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित केन्द्रों के साथ योग अथवा योगा शब्द जुड़ा हुआ है, साधना विधि, अथवा जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के
और सामान्य जनता वहाँ की साधना विधि (क्रिया मध्य प्रतिष्ठित आचार्यों के द्वारा स्वयं स्वीकृत विधि) को योग (योगा) कहती भी है, किन्तु उन्हें अथवा उनके द्वारा लिखित साहित्य में मुख्यतया हम योग की सीमा में रखना नहीं चाहेंगे। क्योंकि वणित साधना विधि के कुछ विशिष्ट तत्व। वे ऊपर दी गयी योग की मूल परिभाषा के अन्दर साधना के प्रसंग में इस तथ्य का उल्लेख मैं नहीं आते।
निःसंकोच करना चाहूँगा कि साधना से सम्बन्धित ___ योग साधना की अनेक विधियाँ योगसत्रकार दार्शनिक चिन्तन के सन्दर्भ में जैन आचार्यों द्वारा पतञ्जलि के समय में भी प्रचलित थीं इसका संकेत
लिखित ग्रन्थों में भले ही पतञ्जलि और व्यास के
समान दार्शनिक गम्भीरता न हो, सिद्ध परम्परा के हमें पतञ्जलि के योग सूत्र में ही मिलता है। उसके
__आचार्यों की तुलना में दृढ़ता और स्पष्टता कुछ || अनुसार वैराग्यपूर्वक चित्तवृत्तिनिरोध हेतु अभ्यास, अर्थ भावना पूर्वक प्रणव मन्त्र जपरूप
कम हो किन्तु कष्टसहिष्णतारूप तपश्चर्या के
सम्बन्ध में जितनी दृढ़ता, नियमों में स्पष्टता जैन ईश्वर प्रणिधान, प्राणों की प्रच्छर्दन एवं विधारण रूप विशिष्ट क्रिया प्राणायाम, इन्द्रियों के किसी
सन्तों के साधना क्रम में अथवा जैन आचार्यों द्वारा विषय को आधार बनाकर वहाँ चित्त की पूर्ण
निर्धारित आचार नियमों में मिलती है, अन्यत्र स्थिरता का प्रयास, पूर्ण वैराग्य, अस्मिता मात्र में मिलता है चित्त की स्थिरता का प्रयास, स्वप्न निद्रा अथवा जैन आचार्यों में मुख्यतः हेमचन्द्र एवं हरिभद्र ज्ञान को आश्रय बनाकर चित्त की स्थिरता का सूरि इन दो आचार्यों ने योगशास्त्र के सम्बन्ध में प्रयास अथवा किसी भी अपने अभिमत देव आदि अपनी लेखनी चलाई है । इनकी रचनाओं में हेमका ध्यान भिन्न-भिन्न परम्पराओं में चित्तवृत्ति- चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टिनिरोध के उपाय के रूप में स्वीकृत रहे हैं। उत्तर समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक और योगविशिका काल में भी साधना की पद्धतियों में यथावश्यक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनमें से अन्तिम दो अर्थात् हरिप्रयोग होते रहे हैं और उसके फलस्वरूप साधना भद्रसूरिकृत योगशतक और योगविंशिका अर्ध
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Sata
मागधी प्राकृत में हैं शेष तीन ग्रन्थ अर्थात् हेम- साधना के प्रसंग में साधक की द्वितीय अवस्था । चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टि- वह होती है, कि वह साधना में श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त समुच्चय एवं योगबिन्दु संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। ही नहीं होता बल्कि रखलन से, विचलन से, सुर
इन दोनों ही आचार्यों ने साधना पथ के रूप क्षित रहता है, उसका समस्त व्यवहार, उसका में महर्षि पतन्जलि द्वारा प्रवर्तित अष्टांग को ही समस्त आचार, उसकी समस्त साधना शास्त्रों के प्राय : स्वीकार करते हुए उसका विवरण दिया है अनुकूल, गुरुजनों द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुकूल अथवा उसके प्रभाव की फल की चर्चा करके उस चलती रहती है। साधक की इस अवस्था का नाम अष्टांग योग साधना की ओर जन सामान्य को शास्त्रयोग है। इस अवस्था में प्रमाद का पूर्ण प्रवृत्त करने का प्रयत्न किया है । आचार्य हेमचन्द्र अभाव रहता है। साधना की तृतीय अवस्था में के योगशास्त्र में अष्टांग योग को ही अविकल साधक सभी प्रकार की विघ्न बाधाओं से ही पूर्णतः स्वीकार किया गया है, जबकि हरिभद्रसूरि के अर्ध- सुरक्षित नहीं होता, बल्कि वह सिद्धावस्था के निकट मागधी प्राकृत में निबद्ध योगशतक और योग- पहुँच जाता है । उसे धर्म का, आत्मतत्व का साक्षाविशिका में साधना एवं तपश्चर्या के प्रसंग में कार हो चुका होता है। शास्त्र प्रतिपादित रहस्य सामान्य श्रावकों गृहस्थों अथवा नवदीक्षित मुनियों उसे आत्मसात् हो चुके होते हैं, प्रातिभ ज्ञान, जिसे के लिए अत्यन्त संक्षेप में साधना सम्बन्धी नियमों पतञ्जलि के योग सूत्र में वियेकख्याति कहा गया का अथवा साधना विधि का निबन्धन हुआ है। है, उसे प्रकट हो चुका होता है, यह प्रातिभज्ञान योगबिन्दु में भी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, तत्वज्ञान कहा जा सकता है, जो निश्चय ही श्रुत संस्कृत भाषा में जैन साधकों के लिए अपेक्षित तप- ज्ञान अर्थात विविध शास्त्रों में वर्णित विषयों के | श्चर्या और साधना के पथ का संक्षिप्त परिचय ज्ञान से और अनमान आदि प्रमाणों से प्राप्त ज्ञान प्रस्तुत हुआ है। हरिभद्र सूरि का योगविषयक से कहीं उत्कृष्ट होता है । इस प्रकार वह सर्ववश्यी प्रधान ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय है। यहाँ भी जैसा होता है, साथ ही उसमें अनन्त सामर्थ्य भी होता कि ग्रन्थ के नाम से ही संकेत मिल जाता है, योग है, जिसके फलस्वरूप उसमें किसी प्रकार के प्रमाद साधना के पथ का नहीं बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में की सम्भावना नहीं रहती। हरिभद्र सूरि ने इस | आधार के रूप में विद्यमान योग दृष्टियों का वर्णन ततीय अवस्था का वर्णन करके इसे सामर्थ्य योग हआ है। साथ ही योग साधना की चार स्थितियों संज्ञा प्रदान की है। का भी अत्यन्त प्रशस्त विवरण किया गया है। योग-साधना की सर्वोच्च अवस्था वह है अब
साधना की प्रथम अवस्था वह होती है जब न केवल योगी का ग्रन्थि भेदन हो चुका रहता है साधक शास्त्रों अथवा उससे सम्बद्ध कुछ ग्रन्थों को बल्कि उससे अहंता ममता आदि समस्त भावों का पढ़कर अथवा विद्वान गुरुजनों अथवा आचार्यों, उपशम हो गया है । उसमें न राग है न द्वेष, न मुनियों के मुख से योग साधना की महिमा को कर्तृत्व की भावना हैं न फल की कामना, उसकी जानकर उसके लिए (योग साधना के लिए) संकल्प समस्त आसक्तियाँ पूर्णतया विलीन हो चुकी हैं। लेता है, उसके अनुसार (आचरण के लिए) व्यवहार समस्त संकल्पों का विलय हो चका है। और उसने के लिए प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त भी होता है किन्तु मध्य- सर्व संन्यासमयता की स्थिति प्राप्त कर लो है, मध्य में प्रमाद असंलग्नता नहीं रह पाती, कभी-कभी इस प्रकार वह जीवन्मुक्त हो चुका है । यही साधना में विघ्न हो जाता है, साधना बाधित हो अवस्था साधना की पूर्णावस्था है, मोक्ष की अवस्था जाती है । हरिभद्र सूरि ने साधक की इस अवस्था है अतः इसे साधना की अवस्था कहने के स्थान पर को इच्छा योग के नाम दिया है ।।
सिद्धावस्था कहना अधिक उचित है। योग की इस २३४
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पूर्णावस्था का आचार्य हरिभद्रसूरि ने अयोग नाम को वही घटना दुःख और पीड़ा प्रदान करती है। दिया है । अयोग का अर्थ है सर्वतोभावेन निर्लिप्तता पतंजलि के भाष्यकर व्यास द्वारा निर्दिष्ट क्षिप्त, मूढ़ की स्थिति, जिसे श्रीमद्भगवद् गीता में स्थित- विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ चित्त की ही प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है
अवस्थाएँ हैं जिनका सूक्ष्म विवेचन व्यास ने योग दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । सूत्र भाष्य में किया है। वीतरागभय क्रोधः स्थितधी: मुनिरुच्यते ।।
ज्ञान अथवा तत्वबोध की अवस्था भी मन की
अवस्था विशेष है। जिसे बौद्ध, जैन, वैशेषिक, न्याय यः सर्वत्रानभिस्नेहः तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।।
और वेदान्त दर्शनों में मोक्ष का एकमात्र उपाय नाभिनन्दति न ष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
माना गया है। पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट साधना आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग की उपर्युक्त मार्ग में भी निविचारा सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्थाओं का वर्णन साधना की स्थिति का मूल्यां- स्थिति में पहुँचने पर अध्यात्मप्रसाद और ऋतकन करने के लिए आत्मपरीक्षा के उद्देश्य से भरा प्रज्ञा के उदय की चर्चा की गई है । और
किया है जिससे साधना के मार्ग में साधक अपनी स्वीकार किया गया है कि विवेक ख्याति अपर S स्थिति की पूर्ण जानकारी रखते हुए देश और काल पर्याया ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कार अन्य समस्त
को ध्यान में रखकर अपनी साधना को और संस्कारों का प्रतिबन्धन करते हैं जिसके अनन्तर १. सदृढ़ कर सके, गति दे सके । साथ ही उसके मार्ग- ही साधक निर्बीज समाधि पर पहुँचता है। इस
दर्शक गुरु भी उसकी अवस्था का मूल्यांकन करते प्रकार मन की अवस्थाओं का विवरण योगसाधना हुए उसे अपेक्षित संरक्षण और मार्ग दर्शन प्रदान के क्रम में स्वयं अपनी और अपने शिष्य अथवा कर सके । इस दृष्टि से इन अवस्थाओं का वर्णन सब्रह्मचारी साधक की साधना पथ पर स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण तो है ही, पतञ्जलि के सूत्रों में और साधना पथ के प्रभावी या अप्रभावी होने के
अथवा उनके भाष्य अथवा वृत्तियों में अथवा सिद्ध मुल्यांकन के लिए न केवल अत्यन्त उपयोगी है M सम्प्रदाय के आचार्य गोरक्षनाथ आदि के योग बीज, बल्कि अनिवार्यतः अपेक्षित भी है।
योग शिखा, अमनस्क योग, योग कुण्डलो आदि आचार्य हरिभद्र सरि ने मन की नव अवस्थाओं 32 ग्रंथों में भी इनकी चर्चा न होने से अत्यन्त मौलिक का वर्णन किया है। इन अवस्थाओं में ओघदृष्टि,
जिसे मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं, साधना से रहित साधना के क्रम में साधक की मानसिक अव- अज्ञानी पुरुष की मानसिक अवस्था है। शेष मित्रा स्थाएं भी साधना के मूल्यांकन के लिए, साधक की तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा और परा आठ २ दृष्टि से साधना मार्ग की अनुकूलता प्रतिकूलता का साधक को मानसिक अवस्थाएं हुआ करती हैं ।
मूल्यांकन करने की दृष्टि से अपना विशेष महत्व इनमें प्रथम से अन्तिम तक क्रमशः उच्च उच्चतर रखती हैं। स्मरणीय है कि साधना के क्रम में और उच्चतम स्थिति में पहुँचे हुए साधकों की मन साधक की मनःस्थिति का सर्वाधिक महत्व है। की अवस्थाएं हैं।10 इसीलिए इन्हें योगदृष्टियाँ कहा मनःस्थिति ही साधक को साधना में प्रवृत्ति देती है जाता है। साधकों के मन की ये विशिष्ट स्थितियाँ । और प्रवृत्त रखती है। पूर्ण चित्त-वृत्तिनिरोध रूप हरिभद्रसूरि के अनुसार यम नियम आदि का अभ्यास
समाधि की स्थिति भी मन की ही अवस्था विशेष करने के फलस्वरूप खेद आदि उद्वेगों की निवत्ति होने है । मनःस्थिति के कारण ही लोक की कोई घटना के अनन्तर प्राप्त होती हैं। जब तक चित्त में राग और किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करती है तो किसी द्वेष के वेग विद्यमान रहते हैं और जब तक मैत्रो, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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करुणा और मुदिता आदि वृत्तियों का उदय नहीं होता और चित्त का प्रसादन नहीं होता, तब तक साधक मन की इन स्थितियों को प्राप्त नहीं कर पाता ।
हरिभद्रसूरि के अनुसार योग साधना में संलग्न साधक जब अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन यमों का निष्ठापूर्वक पालन करने लगता है, तब उसके मन में मैत्री भाव प्रतिष्ठित होता है, उसे मित्रा दृष्टि प्राप्त होती है । सामान्य रूप से मैत्रीभाव अथवा मित्रा दृष्टि शब्द से ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह मनोभाव प्रेम से समन्वित मन की स्थिति है, जो दृष्टि वैरभाव का त्याग करने से प्राप्त होती है । पतञ्जलि के अनुसार वैरभाव की निवृत्ति रूप फल की प्राप्ति अहिंसा नामक यम के सम्पूर्णतया पालन से भी हुआ करती है ।" किन्तु यहां वस्तुतः मित्रा दृष्टि में देवों के प्रति श्रद्धा देव कार्यों के सम्पादन में रुचि, उनके हेतु कार्य सम्पादन के प्रसंग में खेद का अभाव अर्थात् देव कार्यों के सम्पादनार्थ अभूतपूर्व बल एवं साधना से सम्पन्न होना उन कार्यों में पूर्ण सफल होने का विश्वास अर्थात् क्रियाफलाश्रयत्व और साथ ही सफलता की स्थिति में उसके प्रति अन्य जनों के हृदय में साथ ही अन्य जनों के प्रति हृदय में निर्वैर भाव की प्रतिष्ठा की स्थिति सभी एक साथ सम्मिलित हैं। मन की इस स्थिति में तत्त्वज्ञान अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में ही रहता है । इसके अतिरिक्त मित्रा दृष्टि का उदय हो जाने पर साधक के चित्त में केवल कुशलकर्म करने की भावना रहती है, अकुशल कर्मों की स्वतः निवृत्ति होने लगती है, उसमें कर्मफल के प्रति आसक्ति सामान्यतः नहीं रहती, सांसारिक प्रपंच के प्रति वैराग्य, दान कर्म में प्रवृत्ति, शास्त्र सम्मत चिन्तन एवं लेखन तथा स्वाध्याय आदि में सहज प्रवृत्ति आदि भावनाएँ एवं क्रियाएँ उनके जीवन की अंग बनने लगती हैं । 14
साधना के क्रम में, हरिभद्र सूरि के अनुसार यमों और साथ-साथ नियमों का भी पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करने से मानसिक स्थिति का कुछ और
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उन्नयन होने पर हितकार्यों के सम्पादन में उगा अभाव, तात्विक जिज्ञासा एवं परम तत्त्व विषयक कथा में अविच्छिन्न प्रीति, योगिजनों के प्रति श्रद्धातिरेक एवं उनकी कृपा, उनके प्रति पूर्ण विश्वास की भावना, अकर्मों से निवृत्ति, द्वेषभाव का अभाव, भव भय से भी निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति । समस्त दुःखों की निवृत्ति की अवश्यम्भाविता का विश्वास आदि मनोभाव चित्त में स्थिर होने लगते हैं। मन की इस स्थिति को तारादृष्टि कहते हैं । पतञ्जलि के अनुसार नियमों की साधना के फलस्वरूप स्वयं अपने शरीर सहित दूसरों के शारीरिक संसर्ग के के प्रति घृणा पूर्ण अरुचि, बुद्धि और मन की पवित्रता, इन्द्रियजय, अतिशय तृप्ति, शरीर और इन्द्रियों में अतिशय सामथ्यं इष्टदेवों की कृपा, चित्त की पूर्ण एकाग्रता, एवं आत्मदर्शन की योग्यता आदि परिणाम साधक को परिलक्षित होते हैं । पतञ्जलि निर्दिष्ट इन फलों में शरीर एवं इन्द्रियों में अतिशय सामर्थ्य, इष्ट देवों की कृपा तथा आत्मदर्शन की योग्यता मन की स्थितियां नहीं है । अतः स्वाभाविक है कि दृष्टियों अर्थात् मनःस्थितियों की चर्चा करते हुए हरिभद्रसूरि इनकी चर्चा नहीं करते । अन्यथा पतञ्जलि -निर्दिष्ट नियम साधना के प्रायः सभी फलों की चर्चा यहाँ समान रूप से हुई है । साथ ही योगीजनों के साथ हृदय संवाद और उन पर पूर्ण विश्वास की चर्चा हरिभद्र सूरि के अनुभव वर्णन में नवीन है। जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि और अनुभव की ओर इंगित करती है ।
यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है कि हरिभद्र सूरि के अनुसार मित्रा और तारा दृष्टियाँ साधना के मार्ग में चलने वाले योगो के मन की प्राथमिक दो स्थितियाँ हैं जिनकी प्राप्ति उनके अनुसार क्रमशः यम और नियमों के पालन करने से होती है । इससे यह भी लगता है कि हरिभद्र सूरि यम और नियमों को साधना के क्रम में क्रमशः अपनाये जाने वाले दो प्राथमिक सोपान के रूप में स्वीकार करते हैं। जबकि पतञ्जलि इन दोनों का प्रथम निर्देश करते हुए भी इन्हें प्रथम द्वितीय
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सोपान के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनके मानसिक अभ्युन्नति का तृतीय स्तर बलादृष्टि है। अनुसार यमों की साधना न तो नियमों के पालन बलादृष्टि का तात्पर्य है मन में दृढ़ता। हरिभद्र - के लिए साधक में योग्यता उत्पन्न करती है, और सूरि के अनुसार इसकी प्राप्ति आसन साधना से न वे ऐसा ही संकेत करते हैं कि नियमों के पालन होती है। तत्त्वदर्शन में दृढ़ता, तत्त्वश्रवण की उत्कट के पूर्व यमों के पालन में सिद्धि अनिवार्य है। और अभिलाषा मानसिक, दृढता के फलस्वरूप विक्षेपों इनमें सिद्धि के बाद ही आसन साधना की जा का अभाव. लौकिक जीवन के साथ ही पारलौकिक सकेगी। वस्तुतः वे इन्हें (यमों और नियमों को) जीवन में भी प्रणिधान, समस्त कर्मफलों का नाश योग साधना में अन्त तक आवश्यक मानते हैं। और निर्बाध प्रगति होने से अभ्युदय की प्राप्ति में इसी कारण वे हिंसा आदि के मूल में लोभ, मोह पूर्ण विश्वास बलादृष्टि की स्थिति में मन में विद्य
और क्रोध का संकेत करके अहिंसा आदि के पालन मान रहते हैं ।18 योगसूत्रकार पतञ्जलि यद्यपि में इन लोभ आदि की निवृत्ति अनिवार्य मानते हैं, आसन साधना के फलस्वरूप क्षुधा-पिपासा, शीतऔर इनकी पूर्णतया निवृत्ति प्रत्याहार सिद्धि के ताप आदि द्वन्द्वों से अनभिघात और उसके फलबाद ही हो सकती है उससे पूर्व नहीं। साथ ही वे स्वरूप प्राणायाम करने की योग्यता की उपलब्धि नियमों में अन्यतम ईश्वर प्रणिधान को समाधि, को ही आसन साधना का फल स्वीकार करते हैं, अर्थात् चित्त की पूर्ण एकाग्रता के प्रति योग साधना किन्तु आसन के अंग के रूप में अनन्त समापत्ति की के अन्तिम अंग के प्रति कारण मानते हैं । यह भी साधना से प्राप्त द्वन्द्वों से मुक्ति के फलस्वरूप मन स्मरणीय है कि पतञ्जलि आसनों को प्राणायाम में जिस दृढता का उदय होता है। और उसके के लिए योग्यता प्राप्त करने में, प्राणायाम को फलस्वरूप जो प्रणिधान सिद्ध होता है उसके कारण धारणा की योग्यता प्राप्त करने में कारण मानते
शभ आध्यात्मिक फलों का सहज भाव से मन में हैं और इस तथ्य का स्पष्ट निर्देश भी “तस्मिन्सति दर्शन मन की एक विशेष स्थिति है जिसका विवरण श्वास प्रश्वासयोः गति विच्छेदः प्राणायामः ।" ततः आचार्य हरिभद्र सूरि के अतिरिक्त किसी आचार्य ने क्षीयते प्रकाशावरणम्, धारणासु च योग्यतामनसः। नहीं किया है। सूत्रों द्वारा करते हैं। इनके अतिरिक्त वे यह भी मन की चतुर्थ अभ्युन्नत स्थिति साधना पथ स्वीकार करते हैं कि आसन, प्राणायाम और प्रत्या- का पूर्वार्ध पार करने पर होती है। दूसरे शब्दों में हार ये प्रथम तीन धारणा आदि तीन की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि इस अवस्था में साधक सामान्य बहिरंग है ।16 एक प्रकार से साधना है। तथा मानव न रहकर असामान्य हो जाता है, अलौकिक धारणा आदि तीन चित्त की एकाग्रता की तीन भाव को प्राप्त कर लेता है। अतएव वह मानव स्थितियाँ भी निर्वीज समाधि के प्रति बहिरंग है। सामान्य में रहने वाले बोध की अवस्था बुद्धि और अर्थात् उनमें भी साध्य साधन भाव है। किन्तु यम ज्ञान के बाद असम्मोह की अवस्था में पहुँच जाता 710 नियमों के सम्बन्धों में वे ऐसा संकेत नहीं करते है। असम्मोह को इस अवस्था में ज्ञान के सभी पक्ष हैं । तीन, तीन के दो वर्ग बनाते हुए अर्थात् प्रथम ज्ञाता को विदित होते हैं । जैन दर्शन में स्वीकृत वर्ग की साधना की स्थूलता एवं द्वितीय वर्ग की सप्तभंगी नय के अनुसार किसी पदार्थ के भिन्नसाधना की सूक्ष्मता की ओर संकेत करते समय भी भिन्न दृष्टियों से जितने विकल्पात्मक स्वरूप हो वें इन दोनों को किसी वर्ग में सम्मिलित नहीं सकते हैं, उन सभी स्वरूपों का उसे यथार्थबोध PAK करते।
रहता है, फलस्वरूप उसके चित्त में संकल्प की कोई - साधना के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सम्भावना नहीं रहती। इसी कारण लौकिक जीवन X|| ततीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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यात्रा के क्रम में उसके शरीर द्वारा सम्पन्न होने में न फंसता है न उद्विग्न होता है, बल्कि आप्त काम वाले कर्म संकल्प विकल्प के अभाव में बन्धन के की भाँति सर्वत्र अनासक्त और निष्काम बना रहता कारण नहीं बनते । और साधक यदि भावातीत है।24 दत्तात्रेय के अनुसार केवल कुम्भक की सिद्धि अवस्था में विद्यमान है तो वे हो कर्म निर्वाण प्रदान के प्रारम्भावस्था में ही योगी का शरीर कामदेव कराने वाले भी हो जाते हैं।
की भाँति सुन्दर हो जाता है, और उसके रूप पर । साधक की इस चतर्थ अवस्था की प्राप्ति प्राणा- मोहित होकर कामिनियाँ उसके साथ संगम की याम साधना के फलस्वरूप होती है। प्राणायाम कामना करती है । हरिभद्र सूरि न योगी की इस साधना के फल के रूप में योगसूत्रकार पतञ्जलि ने मनः अवस्था को कान्ता दृष्टि कहा है। उनके अनुयद्यपि प्रकाश के आवरण का क्षय और धारणा की सार यह अवस्था धारणा की साधना से प्राप्त योग्यता का उत्पन्न होना ही स्वीकार किया है. और होती है। प्रकाश के आवरण-क्षय होने पर बोध की वह अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान है । इसकी स्थिति स्वीकार की जा सकती है जिसे आचार्य साधना में सफलता मिलने पर हरिभद्रसूरि के हरिभद्र सूरि ने असम्मोह कहा है। किन्तु इस प्रसंग अनुसार चित्त में न केवल एकाग्रता आती है बल्कि में दत्तात्रेय योगशास्त्र का वह कथन स्मरणीय है धर्मध्यान में वह लीन रहने लगता है । तत्वबोध के जहाँ प्राणायाम की उत्तर अवस्था केवल कुम्भक साथ सत्य में प्रवृत्ति एवं काम पर पूर्ण विजय इस के सिद्ध होने पर योगी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं अवस्था में योगी में विद्यमान रहती है अर्थात् कामरह जाता यह स्वीकार किया गया है। साथ ही यह विषयक भावना और कामनाओं का किंचिन्मात्र भी माना गया है कि प्राणायाम के सिद्ध होने पर भी उदय उस अवस्था में योगी के हृदय में नहीं साधक योगी जीवन्मुक्त हो जाता है ।
होता। इसके अतिरिक्त ध्यान के फलस्वरूप अन्तर् ___ आचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार योगी की आनन्द की अनुभूति और पूर्ण शान्ति की अनुभूति पंचम मानसिक अवस्था वह होती है. जब तमो- इस अवस्था में होती है। चित्त की इस अवस्था को ग्रन्थि का भेदन हो जाता है, फलस्वरूप उसकी हरिभद्रसूरि ने प्रभादृष्टि नाम दिया है। इस समस्त चर्याएँ शिशु की क्रीड़ा मात्र रहती हैं, और अवस्था में दिव्य ज्ञान तादात्म्य भाव से चित्त में उसके सभी कर्म धर्मविषयक बाधा को दूर करने निरन्तर विद्यमान रहता है इसलिए इसे प्रभादृष्टि वाले ही हुआ करते हैं । इस प्रसंग में श्रीमद्भगवद् नाम दिया गया है।
गीता में योगीराज कृष्ण के धर्म संस्थापनार्थाय योगी के मन की सर्वोच्च अवस्था समस्त आसंग o सम्भवामि युगे युगे ।"23 वचन तुलनीय है । मन की से अलग रहकर समाधिनिष्ठ रहने की है। समाधिAS इस स्थिति को स्थिरादृष्टि कहा जाता है। और निष्ठ होने के कारण इस अवस्था में पहुँचने पर
यह हरिभद्र सूरि के अनुसार प्रत्याहार की साधना उसे किन्हीं लौकिक आचार के पालन की अपेक्षा से प्राप्त होती है।
नहीं रहती। पूर्वकृतकृत्यता और धर्म संन्यास इस all आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगी के मन की छठी अवस्था की मुख्य विशेषता है । जीवनकाल में यह स्थिति वह मानी है जब वह अपनी कमनीयता के योगी ज्ञान कैवल्य अवस्था में रहता है अर्थात् अद्वय कारण सर्वजन प्रिय ही नहीं सर्वजन काम्य हो जाता भाव की अनुभूति उसे सभी काल में बनी रहती है। है। असंख्य स्त्रीरत्न भूता कामिनियाँ उसकी ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटी का भेद उसके | कामना करती हैं किन्तु वह स्थितप्रज्ञ माया प्रपंच मानस से पूर्णतः मिट जाता है। इसे ही उपनिषदों |२३८
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की भाषा में 'अहं ब्रह्मास्मि' रूप महावाक्य द्वारा आज भी सर्वातिशयी बना हुआ है। उनके अनुसार प्रगट किया गया है । यह योगी की पूर्ण सिद्धावस्था साधक को इन्द्रियजय, कषायजय मनःशुद्धि और है । इसे हरिभद्रसूरि ने परा दृष्टि नाम दिया है। रागद्वेषजय के लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। इस अवस्था में पहुँचने के बाद योगी की भवव्याधि एतदर्थ उन्होंने बारह भावनाओं को उद्दीप्त करने है। का क्षय हो जाता है । और वह अपनी इच्छानुसार की विधियों का विस्तार से वर्णन किया है जो निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
साधना मार्ग की पृष्ठभूमि कही जा सकती है । इस जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है हेमचन्द्र
क्रम में उन्होंने समत्वबुद्धि को सर्वाधिक महत्व दिया ।
है। साथ ही आसन, प्राणायाम और ध्यान का ने पतञ्जलि निर्दिष्ट साधना सम्बन्धी सिद्धांतों को सम्पूर्णतया स्वीकार किया है किन्त साथ ही उन्होंने विस्तृत वर्णन किया है। यद्यपि उनकी मान्यता है।
कि साधना के क्रम में प्राणायाम निरर्थक है, कष्टस्थान-स्थान पर जो अपना मौलिक चिन्तन निबद्ध किया है वह साधना के पथ के पथिकों के लिए प्रद है, और इसी कारण मुक्ति में बाधक भी है।
आचार्य हेमचंद्र ने ध्यान पर सर्वाधिक बल 5 अपूर्व है।
दिया है। उनके अनुसार ध्यान की साधना से पूर्व __बारह प्रकाशमय हेमचन्द्र के योगशास्त्र के
साधक को ध्यान, ध्येय और उसके फल को भली प्रथम प्रकाश में ही सम्पूर्णकाल में साधना में रत जान लेना चाहिए अन्यथा ध्यान साधना में सिद्धि रहने वाले मुनियों, अंशकालीन साधकों के लिए भी
की सम्भावना कम रहेगी। आचार्य हेमचन्द्र के सामान्य जीवन में व्यवहार्य साधना विधि अनसार ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का विवरण दिया है । प्रथम प्रकाश में वीणत भेद से मख्यतः चार प्रकार का होता है। ध्यान । साधना विधियों का विस्तार सम्पूर्ण ग्रन्थ साधना के प्रारम्भ में साधक पिण्डस्थ पदस्थ अथवा में हुआ है । इनके द्वारा निर्दिष्ट द्वादश व्रतों में रूपस्थ तीनों में से किसी ध्येय का ध्यान कर सकता अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
है। किन्तु ध्यान साधना की पूर्णता रूपातीत ध्येय पांच अणवत, दिग्विरति, भोगोपभोगमान, अनर्थ
का ध्यान करने में ही है । रूपातीत ध्यान में आज्ञा दण्ड विरमण तीन गुणव्रत तथा सामायिक, देशाव
विचय आदि चार प्रकार का धर्म-ध्यान तथा पृथकाशिक, पौषध और अतिथि संभाग चार शिक्षाव्रत
क्त्व वितर्क आदि चार प्रकार का शुक्ल-ध्यान होता गृहस्थों के लिए ही हैं । गुणवतों में इन्होंने मदिरा है। इनका विस्तारपूर्वक विवरण आचार्य हेमचन्द्र मांस नवनीत मधु उदम्बर आदि के भक्षण का ने योगशास्त्र में दिया है। इस प्रकार हेमचन्द्र ने निषेध करते हुए रात्रि भोजन का भी निषेध किया योगशास्त्र में साधना के व्यावहारिक पक्ष का विस्तार है। गृहस्थों को भी अपनी आध्यात्मिक साधना से से वर्णन करके अन्त में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट कभी विरत नहीं होना चाहिए यह मानकर इन्होंने सुलीन इन चित्तभेदों तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा ब्राह्ममहत में जागरण से लेकर रात्रि तक की दिन- और परमात्मा नाम से आत्म-तत्व का दार्शनिक चर्या का भी स्पष्ट वर्णन किया है जिससे वे भी विवेचन भी किया है। मोक्षपथ के पथिक बने रहें। साधना के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र के योग विषयक विवेचन की | यह निर्देश सर्वप्रथम आचार्य हेमचन्द्र ने ही दिया तलना यदि हम पतञ्जलि से करना चाहे तो हमेंEOS
विदित होता है कि पतञ्जलि ने योग सूत्रों में __सामान्य (मुनि) साधकों के लिए भी आचार्य साधना पक्ष का संकेत मात्र किया है एवं दार्शनिक हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र अपनी मौलिकता से तथा मनोवैज्ञानिक पक्ष का अत्यन्त गम्भीरता से तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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वर्णन किया है, जबकि हेमचंद्रकृत योगशास्त्र में उसके दर्शन पक्ष के अध्ययन के लिए ही सम्भवतः साधना पक्ष का बहुत विस्तार से एवं स्पष्ट विव- होता रहा है । जबकि जैन आचार्यों ने ग्रन्थों में भी रण दिया गया है एवं दर्शन पक्ष की भी उपेक्षा उसका निबन्धन करके तथा सामान्य गृहस्थों के नहीं की गई है । इसी प्रसंग में यदि हम आचार्य लिए एक सीमित मात्रा में उसको अनिवार्य घोषित . हरिभद्रसूरि के योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु कर योग साधना को जन सामान्य तक पहुँचाने योगविशिका और योगशतक के विवेचन को का महनीय कार्य किया है। और यह उनका योगभी सम्मिलित कर लें तो यह निष्कर्ष प्राप्त होगा दान लोक तथा योग विद्या दोनों के लिए एक अविकि पतञ्जलि की परम्परा में योग साधना शिष्य स्मरणोय योगदान मानना चाहिए। को गुरु से ही प्राप्त होती रही है, ग्रंथों का अध्ययन
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सन्दर्भ १ अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। (१.१२) ईश्वर प्रणिधानाद्वा (१ प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणम्य (१.३४) विषयवती वा पंवृत्ति सत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धिंनी (१.३५) विशोका वा ज्योतिष्मती (१.३६)
तीतारागविषयं वा चित्तम् (१.३७)। स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा (१.३८) यथाभिमतध्यानाद्वा (१.३६) । योगसूत्र २ योगद्दष्टि समुच्चय, ३
३ योगदृष्टि समुच्चय, ४ ४ ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा, श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
-योग सूत्र १.४८-४६ ५ योगदृष्टिसमुच्चय ५-
८ ६ योगदृष्टि समुच्चय ११ ७ गीता २.५६-५७
८ क्षिप्तं मढं विक्षिप्तमेकान निरुद्धमिति चित्तभूमयः । योगभाष्य १.१ पृष्ठ १ 8 निविचार वैशारोऽध्यात्मप्रसादः । ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। तज्जः संस्कारोन्य संस्कार प्रतिवन्धी । तस्यापि निरोध सर्वनिरोधान्निर्वीजः समाधिः।।
-योग सूत्र १.४७-४८-५०-५१ १० मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कांता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां""। -योगदृष्टिसमुच्चय १३ ११ यमादि योग युक्तानां खेदादि परिहारतः । अद्वषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सताम्मता। -योगदृष्टि समुच्चय १६
__ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । -यो० सू० २.३५. १३ मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकं तथा । आवेदो देवकार्यादो अद्वेषश्चापरत्र च ।-योगदृष्टि समुच्चय २१ । । १४ वही० २४-२७.
१५ यो. सू. २.४६, ५२-५३ । १६ तदपि बहिरंग निर्बीजस्य । -यो. सू. ३.८। १७ त्रयमन्तरंग पूर्वेभ्यः । -यो. सूत्र. ३७-१ । १८ योगदृष्टि समुच्चय ४६-५६ ।। १६ असम्मोहसमुत्थानि त्वेकान्तपरिरुद्धितः। निर्वाण फलान्याशु भावातीतार्थ यायिनाम् ॥
-वही १२६ २० केवले कुम्भके सिद्ध रेचपूरक वजिते । न तस्य दुर्लभं किंचि लिषु लोकेषु विद्यते ।।
-दत्तात्रेय योगशास्त्र१४-४० २१ वायु निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवेद् ध्र वम् । -वही २४६ २२ योगदृष्टि समुच्चय १५३-१६१।
२३ भगवद्गीता। २४ योगदृष्टि समुच्चय १६२-१६६ । __ कन्दर्पस्य यथारूपं तथा तस्यापि योगिनः। तद्रूपवशगा: नार्यः क्षन्ते तस्य संगमम् ॥
-दत्ता० यो० शा० १०५-१६७
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तुतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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आगम साहित्य में
ध्यान का स्वरूप
मनुष्य के पास जितने भी साधन सुख-प्राप्ति के लिए हैं, उन साधनों के रहते हुए भी मनुष्य उतना ही अधिक तनावग्रस्त, दुखी, चिन्तित दिखाई देता है । बौद्धिक एवं वैज्ञानिक यह बात आग्रहपूर्वक कह रहे हैं कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति शारीरिक कष्ट से उतनी दुखी नहीं है, जितनी मानसिक ताप से। इससे मुक्ति पाने के लिए ध्यान एकमात्र परमौषधि है। ध्यान के द्वारा मनुष्यों की मानसिक पीड़ा नष्ट की जा सकती है । इसीलिए जागरूक एवं ध्यान-साधना में परिपक्व महापुरुषों के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में ध्यान की ओर मनुष्यों को प्रेरित किया जा रहा है, उन्हें आकृष्ट किया जा रहा है । ___'ध्यानं आत्मस्वरूप चिन्तनम्' अर्थात् आत्मस्वरूप का चिन्तन ही ध्यान है। इसमें ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा ये चार बातें आती हैं। ___ ध्यान के महत्व के विषय में भगवान महावीर का एक महत्वपूर्ण सूत्र है
'सीसं जहा सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स च । सध्वस्स साधु धम्मस्स तहा ध्यानं विधीयते ।।'
-समण सुत्तं ४ (४) अर्थात् मनुष्य के शरीर में जैसे सिर महत्वपूर्ण है, वृक्षों में जैसे जड़ महत्वपूर्ण है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। __ध्यान के अभ्यास से आत्मीय शक्तियां विकसित होती हैं । आत्मा की शुद्ध अवस्था प्राप्त होती है। ध्यान के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का मत है कि उत्तम संहनन वाले जीव का किसी पदार्थ में अन्तर्मुहूर्त के लिए चिन्ता का निरोध होता है, वही ध्यान है।
स्थानांग (ठाणांग) सूत्र में चार प्रकार के ध्यान वणित हैं- (१) आर्त ध्यान (२) रौद्र ध्यान (३) धर्म ध्यान और (४) शुक्ल ध्यान । चारों में प्रथम दो ध्यान आर्त और रौद्र संसार भ्रमण कराते हैं।
और अन्तिम दो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान मोक्ष की प्राप्ति करवाने में सहायक होते हैं। ___इन चारों प्रकार के ध्यान का अर्थ भी भली प्रकार समझ लेना आवश्यक है।
(१) आर्त्त ध्यान-स्त्री, पुत्र, रत्न, अलंकार, आभूषण एवं समस्त भोग सामग्री के वियोग को बचाने के लिए तथा इन्हीं की प्राप्ति के लिए जो चिन्तन-मनन होता है, उसी का नाम आर्तध्यान है।
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-युवाचार्य डॉ. शिवमुनि
श्रमण संघ के मंत्री
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(२) रौद्र ध्यान- हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्रो सेवन रूपवती इन पाँच धारणाओं का चिन्तन किया । एवं अन्य भी सभी प्रकार के कलुषित कर्मों से उत्पन्न जाता है। 1 परिणाम के कारण जो चिन्तन होता है वही रौद्र
(व) पदस्थ-पदस्थ ध्यान में पद के साथ सिद्ध EX ध्यान है। रौद्र ध्यान में सभी पापाचार सम्मिलित
अवस्था पर भी चिन्तन किया जाता है। पदस्थ हैं । इस ध्यान के चार उपभेद भी माने गए हैं
ध्यान में बैठा हुआ योगी है, अहँ तथा ॐ पद का (अ) हिंसानूबंधी, (ब) मृषानुबंधी, (स) स्तेनानुबधी ध्यान करता है. कभी पंच नमस्कार मन्त्र का ध्यान तया (द) संरक्षणानुबंधी । इस प्रकार का ध्यान करने
करता है। वाला जीव कृपा के लाभ से वंचित, नीच कर्मों में लगा रहने वाला तथा पाप को ही आनंद रूप मानता
(स) रूपस्थ-रूपस्थ ध्यान में अहंत की विशे
षताओं पर ध्यान किया जाता है । रूपस्थ ध्यान में है । यह ध्यान नतुर्थ गुणस्थान तक रहता है।
बैठा हआ योगी समवसरण में विराजमान अहंत (३) धर्मध्यान-स्त्री, पुत्र, अलकार, आभूषण
परमेष्ठी का ध्यान करता है। कभी उनके सिंहासन तथा सभी प्रकार की भोग सामग्री के प्रति ममत्व
तथा छत्रत्रय आदि आठ महाप्रातिहार्यों का विचार भाव इस ध्यान में कम होता चला जाता है । धीरे
करता है। कभी चार घातिया कमों के नाश से धीरे आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती
उत्पन्न हए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, जाती है। विद्वान लोगों ने इसीलिए धर्म-ध्यान को अनन्तवीर्य इन चार आत्मगणों का चिन्तन करता आत्म-विकास का प्रथम चरण माना है । द्वादशांग है। रूप जिनवाणी, इन्द्रिय, गति, काम, योग, वेद, (द) रूपातीत-रूपातीत ध्यान में विमुक्त कषाय, संयम, ज्ञान, दर्शन, लेश्या, भव्याभव्य, आत्मा के अमर्तत्व और विशद्धत्व पर मन केन्द्रित सम्यक्त्व, सभी असन्नी, आहारक, अनाहारक इस किया जाता है। आठ कर्मों का क्षय हो जाने से
प्रकार १४ मार्गण), चौदह गुणस्थान, बारह भावना, सिद्ध आत्मा के आठ गुण (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, (EO १० धर्म का चिन्तन करना धर्म ध्यान है। धर्मध्यान वीय, क्षायिक समकित, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, अगुरु- Jg
को शुक्लध्यान की भूमिका माना गया है। शुक्ल- लघुत्व) प्रकट हो जाते हैं. और इन गुणों का ही ध्यानवी जीव गुणस्थान श्रेणी चढ़ना प्रारम्भ
ध्यान किया जाता है। यह ध्यान ग्यारहवें और कर देता है । धर्म ध्यान के चार भेद माने गए हैं- बारहवें गुणस्थानवी जीव को होता है, जिसके
(१) आज्ञा विचय-इस ध्यान में सर्वज्ञ प्रवचन संपूर्ण कषाय उपशान्त या क्षीण हो गये हैं। रूप आज्ञा विचारी जाती है, चिन्तन करते समय
धर्मध्यान के चार लक्षणजिनराज की आज्ञा को ही प्रमाण मानना आज्ञा
धर्मध्यान के लक्षणों में मुख्य रूप से चार विचय है।
बातें हैं(२) अपाय विचय-अविद्या और दुःखों से मुक्त (१) आज्ञा रुचि-सूत्र और अर्थ इन दोनों में होने का उपाय सोचना अपाय विचय है।
श्रद्धा रखना। (३) संस्थान विचय-लोक के आकार, स्वरूप (२) निसर्ग चि-सूत्र और अर्थ में स्वाभाविक आदि का विचार करना संस्थान विचय है । संस्थान रुचि रखना । विचय के भी चार उपभेद हैं, (अ) पिंडस्थ-पिंडस्थ (३) सूत्र रुचि-आगम में रुचि रखना। ध्यान में शरीर पर विचार किया जाता है, पिंडस्थ (४) अगाढ रुचि-साधु के उपदेश में रुचि ध्यान में पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणि, तत्व- रखना।
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धर्मध्यान में बाह्य साधनों का आधार रहता गत सूत्र के आधार से उत्पाद व्यय आदि किसी
एक ही पर्याय का विचार करना है। विचार करते धर्मध्यान के चार आलम्बन
समय द्रव्य, पर्याय, शब्द योग इनमें से किसी एक (१) वांचना-शिष्य के लिए कर्म निर्जरार्थ का आलम्बन रहता है। इस अवस्था में पदार्थ पर सूत्रोपदेश आदि देना।
संक्रमण नहीं होता । प्रथम ध्यान में एक द्रव्य या
पदार्थ को छोड़कर दूसरे द्रव्य और पदार्थ की || (२) प्रच्छना-अध्ययन के समय सूत्रों में हुई
प्रवत्ति होती है । परन्तु दूसरे ध्यान में यह प्रवृत्ति ! शंका का गुरु से उसका समाधान प्राप्त करना।
रुक जाती है। शुक्लध्यान के ये दोनों प्रकार सातवें 112 (3) परिवर्तना-सूत्र विस्मृत न हो जाय इस- एवं बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। लिए पूर्व पठित सूत्र का बार-बार स्मरण करना,
(३) सूक्ष्म क्रियाऽ प्रतिपाती-निर्वाण गमनकाल अभ्यास करना।
में उसी केवली जीव को यह ध्यान होता है | -सूत्र अर्थ का बार-बार चिन्तन जिसने मन, वचन एवं योग का निरोध कर लिया। मनन करते रहना । इसके चार भेद हैं।
हो। इस अवस्था में काया को छोड़कर शेष भाग (अ) एकानुप्रेक्षा-आत्मा एक है।
निष्क्रिय हो जाते हैं। यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानवर्ती 13 (ब) अनित्यानुप्रेक्षा--सांसारिक सभी पदार्थ ।
___ को ही होता है। अनित्य हैं, नश्वर हैं-ऐसी भावना करना।
(४) व्युपरतक्रिया निवृत्ति-तीन योग से (स) अशरणानप्रेक्षा-इस विराट विश्व में रहित होने पर यह चतुर्थ ध्यान होता है । इस || कोई भी मेरी आत्मा का संरक्षक नहीं है. इस प्रकार अवस्था में काया भी निःशेष हो जाती है। साधक का विचार करना।
सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। चौदहवें
स्थान में यह ध्यान होता है । पूर्ण क्षमा, पूर्ण मार्दव | (द) संसारानुप्रेक्षा-ऐसा कोई भी पयोय अव- आदि गणों के कारण यह अवस्था प्रकट होती है। शेष नहीं रहा जहाँ आत्मा का जन्म-मरण नहीं हआ हो, इस प्रकार का विचार करना। ये भी भेद- शुक्लध्यान के चार लक्षणउपभेद धर्मध्यान का सुगम बोध कराते हैं।
(१) अव्यथम -व्यथा का अभाव होना। (४) शक्लध्यान-जिस ध्यान से आठ प्रकार (२) असंमोह-मूच्छित अवस्था न रहना, I । के कर्मरज से आत्मा की शुद्धि हो जाती है, उसे प्रमादी न होना। है शुक्लध्यान कहते हैं, इसका उदय सातवें गुणस्थान
विवेक-बुद्धि द्वारा आत्मा को देह से F के बाद ही संभव है । इसके चार उपभेद हैं। पथक एवं आत्मा से सर्व संयोगों को अलग करना। (५) पृथक्त्व वितर्क सविचार-इसमें साधक
(४) व्युत्सर्ग-शरीर एवं अन्य उपाधियों का मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीनों में से
छूट जाना। किसी एक योग का आलम्बन होता है। फिर उसे छोड़कर अन्य योगों का आलम्बन लेता है, वह पदार्थ शुक्लध्यान के चार आलम्बनके पर्यायों पर चिन्तन करता है । यह सब उसके (१) क्षमा, (२) मुक्ति (निर्लोभता), (३) YA आत्मज्ञान पर निर्भर करता है।
आर्जव (सरलता) एवं (४) मृदुता (विनम्रता) ये (२) एकत्व वितर्क अविचार- इस ध्यान में पूर्व- चार शुक्लध्यान के आलम्बन हैं।
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शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं
करते थे। पद्मासन, पर्यंकासन, वीरासन, गोदोहि(१) अनन्तवर्तिता-जीव आदि अनादि है, कासन तथा उत्कटिका इन्हीं आसनों पर ध्यान 6 अनन्त योनियों में भटका है और अभी तक इस
सम्पन्न किया। भगवान् यह बात अच्छी तरह जानते af संसार से इसकी मुक्ति नहीं हो सकी है। यह जीव
थे कि वाक् और स्पंदन का परस्पर गहरा सम्बन्ध चारों गतियों (नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव) में
है। इसीलिए ध्यान से पूर्व मौन रहने का संकल्प
कर लेते थे। कायिक, वाचिक, मानसिक जिस चक्कर लगाता रहा है । ऐसा विचार अनन्तवर्तिता
ध्यान में भी लीन होते, उसमें रहते थे। द्रव्य या
पर्याय में किसी एक पर स्थित हो जाते । उनकी (२) विपरिणामानुप्रेक्षा अधिकांश परिणाम
ध्यान मुद्रा बड़ी प्रभावशाली होती थी। एक स्थान (ई विपरिणाम हैं। पदार्थों की विभिन्न अवस्थाएँ प्रति
पर आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं-भगवान् तुम्हारी पल विपरिणामों में घटित हो रही हैं।
ध्यान मुद्राएँ कमल के समान शिथिलीकृत शरीर (३) अशुभानुप्रेक्षा-जो शुभ नहीं वह अशुभ और नासाग्र पर टिकी हुई स्थिर आँखों में साधना है। जो उत्तम नहीं वह अपवित्र है । अशुद्ध शब्द ही का जो रहस्य है वह सबके लिए अनुकरणीय है। अशुभता का परिचायक या वाचक है ।
पेढाल ग्राम के पलाश नामक चैत्य में एक (४) अपायानुप्रेक्षा-मन-वचन-काया के योग रात्रि की प्रतिमा की साधना की। तीन दिन का से आस्रव के द्वारा ही इन योगों को अशुभ से शुभ उपवास प्रारम्भ में किया । तीसरी रात को कायोकी ओर प्रवृत्त करना अपायानुप्रेक्षा है। त्सर्ग करके खड़े हो गये । दोनों पैर सटे हुए थे और ___ध्यान के विषय में उपर्युक्त विवरण अत्यन्त उनसे सटे हुए हाथ नीचे की ओर झुके हुए थे। संक्षेप में वर्णन किया गया है। ध्यान के सम्बन्ध में स्थिर दृष्टि थी। किसी एक पूद्गल (बिन्दु) पर 119) विस्तृत विवेचन नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, आगम तथा स्थिर और स्थिर इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में NET आगमेतर ग्रंथों में प्राप्त होता है, इसके अतिरिक्त स्थापित कर ध्यान में लीन हो गये। विद्वान आचार्यों ने भी ध्यान के सम्बन्ध में बहुत सानुसट्ठिय ग्राम में भद्र प्रतिमा की साधना लिखा है जिससे ध्यान विषयक सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त प्रारम्भ की। उन्होंने कायोत्सर्ग की मुद्रा में पूर्वकिया जा सकता है।
उत्तर-पश्चिम-दक्षिण चारों दिशाओं में चार-चार - ___ भगवान महावीर की साधना-मौन, ध्यान एवं प्रहर तक ध्यान किया। इस प्रतिमा में उन्हें कायोत्सर्ग
अत्यन्त आनन्द की भी प्रतीति हुई थी और इसी
शृंखला में महाभद्र प्रतिमा की साधना की। चारों ___ आत्मसाक्षात्कार के लिए ध्यान ही एकमात्र
दिशाओं, चारों विदिशाओं, ऊर्ध्व और अधः दिशाओं उपयुक्त साधन है। भगवान् ने ध्यान की निधि
में एक-एक दिन-रात तक ध्यान करते रहे। इस साधना के लिए आत्मदर्शन का अवलम्बन लिया।
प्रकार सोलह दिन रात तक निरन्तर ध्यान प्रतिमा भगवान् महावीर ने सालम्बन और निरावलम्बन
की साधना की। दोनों ही प्रकार के ध्यान का प्रयोग किया। वे एक प्रहर तक अनिमेष दृष्टि से ध्यान करते रहे, इससे
ध्यान की परम्परा अक्षुण्ण है । वेदों का प्रसिद्ध
गायत्री मंत्र मन्त्र ध्यान की ओर ही संकेत करता उनका मन एकाग्र हुआ। ध्यान के लिए भगवान् । नितान्त एकान्त स्थान का चयन करते हए खड़े होकर तथा बैठकर दोनों ही स्थितियों में ध्यान श्वेताश्वतरोपनिषद् (१.११) में आत्मा को
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ज्ञानवान् माना गया है। और उसकी मुक्ति क्लेशों श्रीमदभागवत में कृष्ण ने अपने प्रिय भक्त उद्धव के क्षीण होने से होती है। परन्तु कैवल्य की प्राप्ति को ध्यान की विधि बताते हुए कहा हैतो ध्यान करने से ही होती है।
कणिकायां न्यसेन सूर्य सोमाग्नीनुत्तरोत्तरम् । योगिराज अरविन्द के अनुसार हृदय चक्र पर वन्हिमध्ये स्मरेद्र पं ममे तद् ध्यान मंगलम् ॥ एकाग्रता से ध्यान करने पर हृदय चैत्य (चित्त में
अर्थात् हृदय कमल को ऊपर की ओर खिला 1) स्थित) पुरुष के लिए खुलता है। अरविन्दाश्रम की
हआ वाला बीच की कली सहित चिंतन करें और माँ ने लिखा है, 'हृदय में ध्यान करे, सारी चेतना को
उस कली में क्रमशः सूर्य, चन्द्र और अग्नि की बटोरकर ध्यान में डूब जाये इससे हृदय में स्थित
भावना करें और अग्नि के मध्य में मेरे रूप का ईश्वर का अंश जाग उठेगा। और हम अपने को ।
ध्यान करें। यह ध्यान अति मंगलमय है। . भक्ति-प्रेम-शान्ति के अगाध सागर में पायेंगे।'
कुछ साधक अनाहत चक्र पर द्वादश दलात्मक भ्रू मध्य पर एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने से मान- रक्तकमल का और उसके मध्य में क्षितिज पर उदय सिक चक्र उच्चतर चेतना के लिए खुल जाता है। होते हुए सूर्य का ध्यान करते हैं। उच्चतर चेतना विकसित होने से अह का विलय यह सब विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त है। नियुक्ति. होता है । आत्मा की दिव्य अनुभूति से हमारा तार- चणि, भाष्य, आगम तथा आगमेतर अन्य ग्रन्थों में तम्य (सम्पर्क) हो जाता है।
__ ध्यान के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है । ___ महर्षि रमण के अनुसार यदि आप ठीक से अधिकारी पुरुषों को उक्त ग्रंथों का स्वाध्याय अवश्य ध्यान करते हैं तो परिणामस्वरूप एक अलौकिक करना चाहिए तथा ध्यान के अमोघ लाभ अवश्य विचारधारा उत्पन्न होगी और वह धारा आपके प्राप्त करने चाहिए। मन में निरन्तर प्रवाहित होती रहेगी चाहे आप कोई भी कार्य करें। इसीलिए महर्षि रमण कर्म और ज्ञान में कोई तात्विक भेद नहीं मानते ।
सन्दर्भ १ आवश्यक नियुक्ति गाथा ४८ आवश्यक चूणि पूर्व भाग पृष्ठ २०१ २ आवश्यक चणि पूर्व भाग पृष्ठ ३००
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जह डझइ तणकट्ठ जालामालाउलेण जलणेण । तह जीवस्स वि डज्झइ कम्मरयं झाण जोएण ।।
-कुवलयमाला १७६ जिस तरह तृण या काष्ठ को अग्नि की ज्वाला जला डालती है वैसे ही ध्यानरूप अग्नि से जोव कमरज को भस्म कर देता है।
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0665 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ooo
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मा ध्यान : रूप : स्वरूप
ॐ
-एक चिन्तन
गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा--भन्ते ! किसी एक परमाणु पर मन को सन्निवेश करने से क्या लाभ होता है ? भगवान महावीर ने उत्तर दिया-गौतम ! उससे चित्त का निरोध होता है । चित्त का र निरोध अर्थात् मन की अस्थिरता का स्थिरीकरण ।
मन एक बहत बड़ी शक्ति है, वह जितना सूक्ष्म तत्व है उतना हो व्यापक भी, ऐसे तो वह अनिन्द्रिय है, मूर्त होने पर भी आँखें उसे देख नहीं पातीं। कान, नाक, जिह्वा या त्वचा उसे भाँप नहीं पाते, वह अनूठा अपनी माया बिछाकर समग्र जगत को नचाता है। ऐसे तो मन को एकाग्र करने की अनेक पद्धतियाँ हैं उनमें से एक पद्धति हैध्यान ! जैन दर्शन में ध्यान
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्-किसी एक विषय 1. में अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध-टिकाये रखना ध्यान है।
प्राचीन युग में जैन साधना में ध्यान का महत्त्व सर्वोपरि था, आत्मनिष्ठ साधक शुद्ध स्वरूप में ध्यानमग्न रहते थे । जैन दर्शन में ध्यान तप के बारह प्रकार में ग्यारहवाँ प्रकार है। ऐसे तो तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार हैं, उनमें से ध्यान आभ्यन्तर तप का एक प्रकार है । तप-संयम स्वाध्याय के साथ ध्यानमग्न आत्मा अनन्त गण अधिक कर्म निर्जरा करता है। मुनियों की दिनचर्या में | भी दिन और रात्रि के एक-एक प्रहर अर्थात् छः घण्टे का ध्यान सर्वज्ञ कथित नियोजित है। अतः एक आलम्बन पर मन को टिकाना और मन, वचन और काया की प्रवृत्ति रूप योग का निरोध करना ही ध्यान है। मानसिक उत्तेजना
यहाँ हम 'योग निरोधो वा ध्यानम्' अर्थात् योग निरोधात्मक ध्यान की चर्चा नहीं करते हैं क्योंकि इस ध्यान का समग्र रूप केवली भगवन्तों को होता है । हम सर्व सामान्य मनुज को शक्ति इस पंचम युग में अल्प है। हम अधिक से अधिक एकाग्रता रूप ध्यान का अभ्यास करते हैं और आंशिक रूप में योग निरोध रूप ध्यान भी। फलतः हमारा चंचल मन रूपान्तरित होकर कुछ शान्त जरूर होता है।
ॐ डॉ० साध्वी मुक्तिप्रभा
एम. ए., पी-एच. डी. (बा. ब्र. उज्ज्वलकुमारीजी की
सुशिष्या)
१ उत्तराध्ययन २६/२६ २ पढमपोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई ।
-उत्तराध्ययन २६/१२
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2) 6.0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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मन स्वाभाविक रूप में स्थिर ही है । वृत्तियों से लिए ध्यान एक जाज्वल्यमान अग्नि समान है । ही मन उत्तेजित होता है । अतः जैनागमों में ध्यान का स्वरूप व्यापक रूप में यत्र तत्र उपलब्ध है ।
ध्यान के प्रकार -
उत्तेजित मन अनेक इच्छाओं, विषयों और अपेक्षाओं को जन्म देता है । अनेक प्रकार के अध्यवसाय को अपने मन में स्थान देता है और फिर वे अध्यवसाय चेतन मन से अचेतन मन तक पहुँच जाते हैं । उच्छृंखल अश्व सारथी को उन्मार्ग में ले जाता है वैसे ही राग-द्वेष प्रयुक्त अध्यवसाय साधक को उत्पथ में ले जाते हैं । यह वृत्तियों का दुष्प्रणिधान है । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में हमारी इन्द्रियों की प्रवृत्तियों से दिशा निर्देश मिलता है । और हमारा मन विकृत बन जाता है । इन विषयों से मन की शक्ति कमजोर हो जाती है । विषय और कषाय से क्या कभी किसी भी जीवात्मा को लाभ हुआ है ? मन पर जितने अधिक विषयों आघात लगते हैं, मन उतनी ही अधिक मात्रा में अपनी शक्ति को खोता है । यह है मन का दुष्प्रणिधान ।
जिस साधक में विषय और कषाय की प्रबलता होती है उसकी साधना निष्फल होती है अतः सर्वप्रथम हमें विषय और कषाय का निग्रह करना चाहिए - यह है मन का सुप्रणिधान । किन्तु हमें अनुकूल प्रवृत्ति में राग होता है और प्रतिकूल प्रवृत्ति में द्वेष | यह राग और द्वेष ही मन में विक्षेप पैदा करता है ! विक्षिप्त मन धुंधले दर्पण जैसा है धुंधले दर्पण में प्रतिबिम्ब अस्पष्ट-सा उभर आता है । वह जैसे-जैसे स्वच्छ और निर्मल होता रहेगा, प्रतिबिम्ब भी स्पष्ट उभरता जायेगा । मन का सुप्रणिधान हमें शुभ चिन्तन, शुभ मनन और शुभ अध्यवसाय की ओर ले जाता है । अतः हमारा चित्त परिशुद्ध निर्मल और पवित्र बनता है ।
।
विशुद्ध मन संसार से विमुख और मोक्ष के सन्मुख ले जाता है । मन का विशुद्धिकरण ही ध्यान है । ध्यान से ही मन के समस्त विकारों का उपशम या क्षय होता है । पाप राशि को क्षय करने के
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
मन की एकाग्रता शुभ आलम्बन रूप होती है । ठीक उसी प्रकार अशुभ आलम्बन रूप भी होती है । इस प्रकार शुभ और अशुभ के कारण ध्यान के चार भेद पाये जाते हैं ।
(१) आर्तध्यान - दुःख का चिन्तन, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, प्रतिकूल वेदना, चिन्ता, रोग इत्यादि होना आर्तध्यान है ।
(२) रौद्रध्यान - क्रूरता, हिंसा की भावना, मृषा की भावना, स्तेय-भावना तथा विषय भावना की अभिवृद्धि ही रौद्रध्यान है ।
(३) धर्मध्यान - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय आदि के सतत चिन्तन में मनोवृत्ति को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
(४) शुक्लध्यान - शुक्लध्यान में चित्तवृत्ति की पूर्ण एकता और निरोध सम्पन्न होता है!। केवल आत्म सन्मुख उपशान्त और क्षयभाव युक्त चित्त शुक्ल कहलाता है। एकाग्रचित्त निरोध से पृथकत्व-वितर्क सविचार, एकत्व - वितर्क अविचार, सूक्ष्म क्रिया निर्मल, शांत, निष्कलंक निरामय, निष्क्रिय और अप्रतिपाती समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति रूप सर्वथा निर्विकल्प स्वरूप में स्थित ध्यान ही शुक्लध्यान कहलाता है ।
साधक का दुर्लक्ष्य
शास्त्रकारों ने आत्म तत्व विशुद्धि हेतु ध्यान का निरूपण किया है । परमपद की प्राप्ति के लिए विकल्प मुक्ति, एकाग्रता रूप ध्यान ही साध्य है । किन्तु आज के साधकों का तत्त्व स्पर्शन से, स्वरूप
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जागृति से या ध्यान साधना से जितने दुर्लक्ष्य है व्यापार चलता है क्या इस प्रकार की प्रवृत्तियों से 5 उतना शायद ही दूसरे से ।
किसी के भव-भ्रमण टले हैं ? ये राग और द्वेष ___ ध्यान साधना की उपेक्षा का परिणाम प्रत्यक्ष दूसरे जन्म में भी साथ रहेंगे उसको शृंखला चलती है। साधक साधना करता हआ जरूर प्रतिलक्षित रहेगी और हमारे जन्म बढ़ते रहेंगे। होता है, अनेक प्रकार के धर्मानुष्ठानों का कार्य कदम उठाओ, आगे बढ़ो और हमारे बढ़ते हुए यत्र तत्र सर्वत्र होते हुए दिखलाई देते हैं, किन्तु संसार को अल्प करो। परित्त संसारी होने का सीधा अन्तर्मन टटोलो, वही धर्मानुष्ठानों से पैदा होने उपाय है ध्यान, सात्त्विक भावना का अनुचिन्तन वाला द्वन्द्व चारों ओर दृष्टिगोचर होता है । व्या- तथा अरिहन्त परमात्मा का अभेद । भेद से भय पक साम्राज्य भरा है, और वासना की और अभेद से अभय । शीघ्र पाने का सरल उपाय अनेक फेक्टरियाँ लगी हैं। दम्भ, द्वेष, मत्सर का है ध्यान ।
-0
ध्यान का महत्व
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुभस्स य । सव्वस्स साधु धम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥
-इसि० २२,१४ जो स्थान शरीर में मस्तक का है और वृक्ष के लिए मूल का है वहो स्थान समस्त मुनिधों के लिए ध्यान का है।
ध्यान मित्र के समान रक्षक
झाणं किलेससावदरक्खा रक्खा व सावद-भयम्मि । झाणं किलेसवसणे मित्तं मित्ते व वसणम्मि ।।
-भग० आ० १८९७
जैसे श्वापदों का भय होने पर रक्षक का और संकटों में मित्र का महत्व है, वैसे ही संक्लेश परिणामरूप व्यसनों के समय ध्यान मित्र के समान रक्षक है।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन |
४.
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'संसारी' जीवों का वर्गीकरण -'जीव' अनन्त हैं। इनमें से जो जीव, पुनः-पुनः जन्म-मरणरूप में संसरण करते रहते हैं, उन्हें हम कि 'संसारी' जीव कहते हैं। किन्तु जो जीव सदा के लिए, संसरण से | मुक्ति पा चुके हैं, वे 'मुक्त' जीव कहलाते हैं । मुक्त-जीव 'अशरीरी' हैं। ॐ इनमें भावात्मक-परिणति की अपेक्षा से कोई भेद/अन्तर नहीं है । ये सभी सर्वात्मना ज्ञान, दर्शन, सुख-आदि अनन्त-स्वात्मगुणों से परिपूर्ण || हैं, निजानन्द-रस-लीन हैं। लेकिन, संसारी जीवों में अनन्त-प्रकार की विभिन्नताएँ देखी जाती हैं । जितने जीव, उतनी ही विभिन्नताएँ उनमें 2
रहती हैं। इनमें 'शारीरिक'/'ऐन्द्रियिक' विभिन्नताएँ जितनी प्रकार आत्मा के मौलिक
की हैं, उनसे भी अनन्त गुणी अधिक विभिन्नताएँ 'आन्तरिक' होती हैं। फिर भी, जन सामान्य को सुगमता से बोध कराने के लिए, 'संसारी )
जीवों का वर्गीकरण अध्यात्मविज्ञानियों ने निम्नलिखित आधारों पर गुणों की विकास
किया है :प्रक्रिया के निर्णायक : १. बाह्य/शारीरिक विभिन्नताएँ,
२. शारीरिक/आन्तरिक-भावों को मिश्रित अवस्थाएँ, गणस्थान
३. मात्र आन्तरिक भावों की शुद्धिजन्य उत्क्रान्ति,
अथवा
)
आन्तरिक भावों की अशुद्धिजन्य अपक्रान्ति । उक्त आधारों पर किये गये वर्गीकरण को हम शास्त्रीय परिभाषा में, क्रमशः 'जीवस्थान' 'मार्गणास्थान' और 'गुणस्थान' कहते हैं । ये || तीनों-वर्ग, उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के बोधक हैं। प्रस्तुत लेख में, हम
सिर्फ तृतीय-वर्ग 'गुणस्थान' की दृष्टि से, संसारी-जीवों की स्थिति, 0 श्री गणेश मुनि शास्त्री
उसके मौलिक गुणों को विकास प्रक्रिया की चर्चा करेंगे। (सुप्रसिद्ध साहित्यकार) 'संसार' और 'मुक्ति' के कारण-जैनदर्शन की तरह विश्व केका
सभी चिन्तकों ने, राग-द्वष को संसार के कारण रूप में माना है । क्योंकि, मानसिक-विकार, या तो 'राग' (आसक्ति) रूप होता है, या फिर 'द्वष' (ताप) रूप । यह अनुभव-सिद्ध भी है कि साधारण-जनों की प्रकृति, ऊपर से चाहे कैसी भी क्यों न दिखे, वह या तो रागमूलक होती है, या फिर द्वषमूलक होती है। यही प्रवृत्ति, विभिन्न वासनाओं का कारण बनती है । प्राणी, जाने या न जाने, किन्तु उसकी वासनात्मक-प्रवृत्ति के मूल में, ये 'राग' और 'ष' ही होते हैं । जैसे, मकड़ी, अपनी प्रवृत्ति से स्व-निर्मित जाले में फंसती है, उसी प्रकार प्राणी भी, अपने ही राग द्वेष से अज्ञान, मिथ्याज्ञान और कदाचरण का ऐसा ताना-बाना रचता है, कि संसार में फंसता चला जाता है।
न्याय-वैशेषिक-दर्शन में 'मिथ्याज्ञान' को, योगदर्शन में 'प्रकृति-पुरुष तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
२४६ 30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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वद्धि
के अभेद' को, और वेदान्त आदि दर्शनों में 'अविद्या' किसी न किसी रूप में, आत्मा के ऋमिक-विकास को, संसार के कारण रूप में बतलाया गया है । ये का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। क्योंकि सभी शाब्दिक-भेद से राग-द्वष के ही अपर नाम विकास की प्रक्रिया, उत्तरोत्तर अनुक्र र हैं। इन राग-द्वेषों के उन्मूलक साधन ही मोक्ष के होती है । सुदीर्घ मार्ग को क्रमिक पादन्यास से ही कारण हैं।
पार किया जाना शक्य है। इसी दृष्टि से, विश्व के 7 इसी दृष्टि से, जैन-शास्त्रों में मोक्ष-प्राप्ति के प्राचीनतम, तीन दर्शनों-जैन, वैदिक एवं बौद्ध में, I CL तीन साधन (समुदित) बताये हैं-सम्यग्दर्शन, उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं-कहीं 'ज्ञान' जैनदर्शन में 'गुणस्थान' नाम से, वैदिक दर्शन में और 'क्रिया' को मोक्ष का साधन कहा है। ऐसे 'भूमिका' नाम से, और बौद्ध-दर्शन में 'अवस्था' | स्थानों पर. 'दर्शन'को 'ज्ञान' का विशेषण समझकर उसे ज्ञान में गभित कर लेते हैं। इसी बात को यद्यपि, आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक वैदिक-दर्शनों में 'कर्म', 'ज्ञान', 'योग' और 'भक्ति' विकास का दिग्दर्शन कराने के गुणस्थान' के इन चार रूपों में कहा है। लेकिन, संक्षेप और नाम से जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन जैनदर्शन में पर विस्तार अथवा शब्द-भिन्नता के अतिरिक्त आशय किया गया है, वैसा, सुनियोजित. क्रमबद्ध एवं 12 में अन्तर नहीं है । जैनदर्शन में जिसे 'सम्यक्चारित्र' स्पष्ट विचार, अन्य दर्शनों में नहीं है । तथापि, कहा है, उसमें 'कर्म' और 'योग' दोनों का समावेश वैदिक और बौद्ध दर्शनों के कथनों की, जैनदर्शन के हो जाता है। क्योंकि 'कर्म' और 'योग' के जो साथ आंशिक समानता है। इसीलिए, गुणस्थानों कार्य हैं, उन 'मनोनिग्रह', 'इन्द्रिय जय', 'चित्त शुद्धि' का विचार करने से पूर्व, वैदिक और बौद्धदर्शन एवं 'समभाव' का तथा उनके लिए किये जाने वाले के विचारों का अध्ययन-संकेत भर यहाँ करना उपायों का भी, 'सम्यक्चारित्र' के क्रिया रूप होने उचित है। से, उसमें समावेश हो जाता है। 'मनोनिग्रह' वैदिक दर्शनों में आत्मा की भूमिकाएं-वैदिक 'इन्द्रिय जय' आदि 'कर्ममार्ग' है । 'चित्त शुद्धि' दर्शन के पातंजल-'योगसूत्र' में और 'योगवाशिष्ठ
और उसके लिए की जाने वाली सत्प्रवृत्ति 'योग- में भी, आध्यात्मिक भूमिकाओं पर विचार किया मार्ग' है । सम्यग्दर्शन 'भक्तिमार्ग' है । क्योंकि 'भक्ति'
गया है। पातंजल योगसूत्र में इन भूमिकाओं के में 'श्रद्धा' का अंश प्रधान है और 'सम्यग
नाम-मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारदर्शन' श्रद्धारूप ही है। सम्यग्ज्ञान 'ज्ञानमार्ग' रूप
शेषा उल्लिखित हैं। जबकि योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान' ही है ।
एवं 'अज्ञान' नाम के दोनों विभागों के अन्तर्गत इस प्रकार से, सभी दर्शनों में, मुक्ति-कारणों सात-सात भूमिकाएँ, कुल चौदह भूमिकाएँ उल्लि| के प्रति एकरूपता है । इन कारणों का अभ्यास खित हैं। इनके वर्णन के प्रसंग में, ऐसी बहत-सी आचरण करने से जीव 'मुक्त' होता है।
बातों के संकेत हैं, जिनकी समानता, जैनदर्शनगुणस्थान/भूमिका/अवस्था-जिन आस्तिक सम्मत अभिप्रायों के साथ पर्याप्त मिलती-जुलती दर्शनों में संसार और मुक्ति के कारणों के प्रति है। उदाहरण के लिए, जैन-शास्त्रों में 'मिथ्यामतैक्य है, उन दर्शनों में आत्मा, उसका पुनर्जन्म, दृष्टि' या 'बहिरात्मा' के रूप में, अज्ञानी जीव का उसकी विकासशीलता तथा मोक्षयोग्यता के साथ जो लक्षण बतलाया गया है, वही लक्षण, योग
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आत्मधिया समुपात कायादिः कीयं तेऽत्र बहिरात्मा। -योगशास्त्र, प्रकाश-१२
SH २५०
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वाशिष्ठ और पातंजल योगसूत्र में भी बतलाया १. बीज-जागृत-इस भूमिका में, 'अहं' बुद्धि की गया है। जैनशास्त्रों में 'मिथ्यात्व' का फल 'संसार जागृति तो नहीं होती, किन्तु जागृति की योग्यता, बुद्धि' और 'दुःख रूप' में वर्णित है, यही बात, बीज रूप में पायी जाती है। 'योगवाशिष्ठ' में अज्ञान के फलरूप में बतलाई २. जागृत-इस भूमिका में, अहं बुद्धि, अल्पांश गई है। जैन शास्त्रों में 'मोह' को बंध/संसार का में जागृत होती है। हेतु माना गया है तो, यही बात, प्रकारान्तर से ३. महाजागृत-इसमें 'अहं बुद्धि' विशेष रूप योगवाशिष्ठ में भी कही गई है।" जैनशास्त्रों में से जागृत-'पुष्ट' होती है । यह भूमिका, मनुष्य/देव'ग्रन्थिभेद' का जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन, 'योग- समूह में मानी जा सकती है। वाशिष्ठ' में भी है। योगवाशिष्ठ में 'सम्यग्ज्ञान' ४. जागृत-स्वप्न- इस भूमिका में, जागते हुए
का जो लक्षण बतलाया गया है, वह जैन शास्त्रों भी भ्रम का समावेश होता है। जैसे, एक चन्द्र के 3 के अनुरूप है । जैन शास्त्रों में 'सम्यग्दर्शन' की बदले दो चन्द्र दिखाई देना, सीपी में चाँदी का भ्रम
प्राप्ति, स्वभाव और बाह्यानिमित्त दो प्रकार से होना। बतलाई गयी है। योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान प्राप्ति' ५. स्वप्न-निद्रावस्था में आये स्वप्न का, का, वैसा हो क्रम सूचित किया गया है। जागने के पश्चात् भी भान होना।
६. स्वप्न-जागृत-वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए ___ योगवाशिष्ठ में प्रतिपादित चौदह भूमिकाएँ स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो । ये हैं-(१) 'अज्ञान' की भूमिकाएँ-बीज-जागृत, जाने पर भी इसकी परम्परा चलती रहती है।
जागृत, महाजागृत, जागृत-स्वप्न, स्वप्न, स्वप्न- ७. सुषुप्तक-प्रगाढ़-निद्रा जैसी अवस्था । जागृत, और सुषुप्तक । (२) 'ज्ञान' की भूमिकाएं- इसमें 'जड़' जैसी स्थिति हो जाती है, और कर्म, शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असं- मात्र वासना रूप में रहे हुए होते हैं। सक्ति, पदार्थाभाविनी, और तूर्यगा । इनका संक्षिप्त ८. शुभेच्छा-आत्मावलोकन की वैराग्ययुक्त परिचय निम्नलिखित प्रकार है
इच्छा ।
हाला
यस्य ज्ञानात्मनो ज्ञस्य देह एवात्मभावना। ६ ज्ञप्तिहि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता । उदितेति रुषवाक्ष रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥
मृगतृष्णाम्बुबुद्धया दिशन्ति मात्रात्मकस्वत्वसौ॥ -योगवाशिष्ठ-निर्वाणप्रकरण-पूर्वा०-स०-६
-वही, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग-११८/२३ २ अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिर- ७ अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते ।
विद्या। -पातञ्जलयोगसूत्र-साधनापाद-५ इत्येकोनिश्चयः स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुद्धः॥ विकल्पचषकरात्मा पीतमोहासवो ह्ययम् ।
-वही-उपशमप्रकरण, सर्ग-७६/२ भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधिष्ठिति ॥
८ अ. तन्निसर्गादधिगमाद्वा-त्त्वार्थसूत्र-अध्याय-१/३
-ज्ञानसार-मोहाष्टक ब. एकस्तावद्गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छन्न शनैः । अज्ञानात्प्रसूता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः ।
जन्मना जन्मभिर्वापि सिद्धिदः समुदाहृतः ।। यस्मिस्तिष्ठन्ति राजन्ते विसन्ति विलसन्ति च ।।
द्वितीयास्त्वात्मनवाशु किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा । -योगवाशिष्ठ-निर्वाण-प्रकरण. स०-६
भवति ज्ञानसंप्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥ १५ अविद्या संसृतिबंधो माया मोहो महत्तमः ।
-वही-उपशमप्रकरण, सर्ग-७/२, ४ कम्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभिः ।। ६ वही-उत्पत्तिप्रकरण-सर्ग-११७/२, ११, २४ ।। -योगवाशिष्ठ-उत्पत्तिप्रकरण-स०-१/२०
तथा सर्ग११८/५-१५
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8. विचारणा-वैराग्य-अभ्यास के कारण, से लेकर 'स्वरूप' की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक सदाचार में प्रवृत्ति होना।
की अवस्था का वर्णन, बौद्ध ग्रंथों में, निम्नलिखित १०. तनुमानसा-'शुभेच्छा' और 'विचारणा' पाँच विभागों में विभाजित है। के कारण इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्ति में वृद्धि १-'धर्मानुसारी' या श्रद्धानुसारी' वह कहहोना।
लाता है, जो निर्वाण-मार्ग-मोक्षमार्ग का अभिमुख ११. स्वत्वापत्ति –'सत्य' और 'शुद्ध' आत्मा हो, किन्तु, उसे अभी निर्वाण प्राप्त न हुआ हो। में स्थिर होना ।
२-सोतापन्न- मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुई १२. असंसक्ति-वैराग्य के परिपाक से चित्त आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण SNI में निरतिशय-आनन्द का प्रादुर्भाव होना। 'सोतापन्न' आदि चार विभाग हैं। जो आत्मा,
१३. पदार्थाभाविनी-बाह्य और आभ्यन्तर अविनिपात, धर्मनियत और संबोधि-परायण हो, सभी पदार्थों पर से इच्छाएं नष्ट हो जाना। उसे 'सोतापन्न' कहते हैं। 'सोतापन्न' आत्मा, सातवें
१४. तूर्यगा-भेदभाव का अभाव हो जाने से भव में अवश्य ही निर्वाण प्राप्त करती है। C एकमात्र स्वभावनिष्ठा में स्थिर हो जाना। यह ३-सकदागामी-जो आत्मा, एक ही बार में,
'जीवन्मुक्त' जैसी अवस्था होती है । इस स्थिति के इस लोक में जन्म ग्रहण करके, मोक्ष जाने वाली
बाद की स्थिति, 'तूर्यातीत' अवस्था-'विदेहमुक्ति' आत्मा हो, उसे 'सकदागामी' कहते हैं। E अवस्था होती है।
४-अनागामी-जो आत्मा, इस लोक में उक्त चौदह अवस्थाओं में प्रारम्भ की सात जन्म ग्रहण करके, ब्रह्मलोक से सीधे मोक्ष जाने भूमिकाएँ, अज्ञान की प्रबलता पर आधारित हैं। वाली आत्मा हो। इसलिए, इन्हें आत्मा के मौलिक गुणों के अविकास ५-अरहा-जो सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके क्रम में गिना जाता है। जबकि, बाद की सातों कृतकृत्य हो जाती है, ऐसी आत्मा को 'अरहा'
भूमिकाओं में 'ज्ञान' की वृद्धि होती रहती है। इस- कहते हैं । इसके बाद निर्वाण की स्थिति बनती है। ५ लिए इन्हें 'विकास-क्रम' में गिना जाता है। जैन- उक्त पाँचों प्रकार की आत्माएँ, उत्तरोत्तर,
परिभाषा के अनुसार इन्हें क्रमशः 'मिथ्यात्व' एवं अल्पश्रम से 'मार'-काम के वेग पर विजय प्राप्त 'सम्यक्त्व' अवस्थाओं का सूचक माना गया है। करने वाली होती हैं । 'सोतापन्न' आदि उक्त चार
बौद्धदर्शनसम्मत अवस्थाएँ-बौद्धदर्शन, यद्यपि अवस्थाओं का विचार, जैनदर्शनसम्मत चौथे गुणक्षणिकवादी है। फिर भी, उसमें आत्मा की स्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के विचारों 'संसार' और 'मोक्ष' अवस्थाएँ मानी गई हैं। अत- मिलता-जुलता है, जो, गुणस्थानों से वर्णन से स्पष्ट एव उसमें भी आध्यात्मिक-विकास वर्णन का हो जायेगा। होना स्वाभाविक है। 'स्वरूपोन्मुख' होने की स्थिति बौद्ध ग्रंथों में दश-संयोजनाएं-बंधन वर्णित हैं।
के
इसी को जैनशास्त्रों में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैतीस गुण बताये गए हैं। दृष्टव्य-हेमचंद्राचार्यकृत 'योगशास्त्र-प्रकाश-१ जैनशास्त्रों में 'संयोजना' शब्द का प्रयोग, अनन्त संसार को बांधने वाली 'अनन्तानुबंधी कषाय' के लिए किया हैं। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में भी संयोजना का अर्थ 'बन्धन' लिया गया है। उसके दस नाम इस प्रकार हैं
सक्कायदिछि, विचिकच्छा, सीलब्बतपराभास, कामणा, पट्टीघ, रूपराग, अल्पराग, मान, उद्धच्च और __अविज्जा । -मज्झिमनिकाय (मराठी रूपान्तर) पृष्ठ-१५६, (टिप्पण)
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P/II
उनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच 'उड्ढंभा- ५. सेख-शिल्प-कला आदि के अध्ययन के
गोय' कही जाती है। प्रथम तीन संयोजनाओं का समय की शिष्य-भूमिका । अक्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। ६. समण-गृह-त्याग कर संन्यास ग्रहण
इसके बाद राग-द्वेष-मोह शिथिल होने पर 'सकदा- करना। गामी' अवस्था, पाँच ओरंभागीय संयोजनाओं का ७. जिन-आचार्य की उपासना कर ज्ञान नाश होने पर 'अनागामी' अवस्था तथा दसों संयो- प्राप्त करने की भूमिका।। जनाओं का नाश हो जाने पर 'अरहा' पद प्राप्त ८. पन्न-प्राज्ञ-भिक्षु, जब दूसरों से विरक्त हो होता है।
जाता है, ऐसे निर्लोभ-श्रमण की भूमिका। 20 'आजीवक' मत में आत्मविकास की क्रमिक उक्त आठ में से आदि की तीन भूमिकाएँ,
स्थितियां-आजीवक मत का संस्थापक मंखलिपुत्र अविकास की सूचक और अन्त की पाँच भूमिकाएँ, गोशालक है। जो, भगवान् महावीर की देखा-देखी विकास की सूचक हैं। इनके बाद मोक्ष प्राप्त करने वाला एक प्रतिद्वन्द्वी था। इसलिए उसने भी होता है। आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक विकास की यद्यपि, उक्त योग, बौद्ध और अजीवक-मतस्थितियों के निदर्शन हेतु, गुणस्थानों जैसी परि- मान्य आत्म-विकास की भूमिकाएँ, जैनदर्शन सम्मत कल्पना अवश्य की होगी। किन्तु, उसके सम्प्रदाय गणस्थानों जैसी क्रमबद्धता और स्पष्ट स्थिति की
का कोई स्वतन्त्र-साहित्य/ग्रंथ उपलब्ध न होने के नहीं हैं, तथापि, उनका प्रासंगिक-संकेत, इसलिए Pा कारण, इस सम्बन्ध में, कुछ भी, सुनिश्चित रूप से किया है कि पनर्जन्म. लोक. परलोक मानने वाले
नहीं कहा जा सकता। तथापि, बौद्ध-साहित्य में दार्शनिकों ने. आत्मा का संसार से मुक्त होने का उपलब्ध, आजीवकसम्मत, आत्म-विकास के निम्न
1 चिन्तन किया है। अतएव, उक्त दार्शनिकों के लिखित आठ सोपान माने जा सकते हैं!-मन्द, चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में, जैनदर्शन के दृष्टिकोण से, खिड्डा, पदवीमंसा, उज्जुगत, सेख, समण, जिन आत्म-गणों के विकास का क्रम, और विकास-पथ 2 और पन्न । इनका आशय इस प्रकार है- पर क्रम-क्रम से बढ़ती आत्मा की विशुद्धताजन्य
१. मन्द-जन्म-दिन से लेकर सात दिनों तक, स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए, संक्षेप में, गुणगर्भनिष्क्रमण, जन्म-दुःख के कारण, प्राणी 'मन्द' स्थान क्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है। ल स्थिति में रहता है।
_ 'गुणस्थान' का लक्षण-एक पारिभाषिक शब्द २. खिड्डा-दुर्गति से लेकर जन्म लेने वाला है-गणस्थान । इसका अर्थ है-'गुणों के स्थान' । । बालक, पुनः-पुनः रुदन करता है। और, सुगति से अर्थात्, आत्मा की मौलिक शक्तियों के विकास र आने वाला बालक, सुगति का स्मरण कर हँसता क्रम की द्योतक वे अवस्थाएं, जिनमें आत्मशक्तियों ए जा है । यह 'खिड्डा' (क्रीडा) भूमिका है। के आविर्भाव से लेकर, उनके शुद्ध-कार्यरूप में परि
३. पदवीमंसा-माता-पिता का, या अन्य णत होते रहने की तर-तम-भावापन्न अवस्थाओं STIf किसी का सहारा लेकर, धरती पर बालक का पैर का द्योतन स्पष्ट होता है। यद्यपि, आत्मा अपने रखना।
मौलिक रूप में 'शुद्ध चेतन' और 'आनन्दघन' है। ... ४. उज्जुगत-पैरों से, स्वतन्त्र रूप में चलने फिर भी, जब तक राग-द्वेष एवं तज्जन्य कर्माकी सामर्थ्य प्राप्त करना।
वरण से आच्छादित है, तब तक उसे अपना यथार्थ
१ मज्झिमनिकाय-सुमंगलविलासिनी टीका तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता। लेकिन, जैसे-जैसे 'उत्क्रान्ति' और भी ऊर्ध्वमुखो हो जाती है, जिससे राग-द्वेष का आवरण शिथिल या नष्ट होता है, स्वरूप-स्थिरता बढ़ने लगती है । अन्ततः, प्रयत्नो-1 वैसे-वैसे उसका असली स्वरूप प्रकट होता न्मुखी आत्मा, 'दर्शनमोह' व 'चारित्रमोह' का जाता है।
सर्वथा-नाश करके, पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर ही ___इस विकास-मार्ग में जीव को अनेक अवस्थाएँ विराम लेती है। आत्मा का यही तो परमसाध्य 180 पार करनी पड़ती हैं। जैसे, थर्मामीटर की नली के ध्यय है। अंक, उष्णता के परिणाम को बतलाते हैं, वैसे ही, आशय यह है कि आत्मा के मौलिक-गुणों के उक्त अवस्थाएँ, जीव के आध्यात्मिक विकास की विकास का यह क्रम, 'दर्शन' तथा 'चारित्र' मोह-102 मात्रा का संकेत करती हैं। विकास-मार्ग की इन्हीं शक्ति की शुद्धता के तर-तम-स्वरूप पर निर्भर होता क्रमिक अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं। है । शुद्धता की इसी तर-तमता के कारण, विकासो- )
गुणस्थान-क्रम का आधार-आत्मा की प्रार- न्मुख आत्मा, जिन-जिन भूमिकाओं के स्तरों पर म्भिक अवस्था, अनादिकाल से अज्ञानपूर्ण है। यह पहु'
पहुँचता है, उन्हीं की संज्ञा है-'गुणस्थान'। अवस्था, सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। 'ग्रंथि का स्वरूप और उसके भेदन की प्रक्रिया : इस अवस्था का कारण है-'मोह'। मोह की गुणस्थान क्रम का आधार है-मोह की 'सबलता' प्रधान शक्तियाँ दो हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में और 'निर्बलता', यह पूर्व में ही संकेतित है। इस 'दर्शनमोह' और 'चारित्रमोह' कहते हैं। इनमें से 'मोह' को कैसे निर्बल बनाया जाये, संक्षेप में विचार प्रथम शक्ति, आत्मा को 'दर्शन'-स्व-पररूप का कर ले। निश्चयात्मक निर्णय, विवेक और विज्ञान-नहीं आत्मा का स्वरूप, अनादिकाल से 'अधःपतित' होने देती है। जबकि दूसरी शक्ति, विवेक प्राप्त है। इसका कारण राग-द्वेष रूप मोह का प्रबलतम कर लेने पर भी, आत्मा को तदनुसार प्रवृत्ति नहीं आचरण है। इस तरह के आचरण का ही नाम, करने देती। व्यवहार में देखते हैं कि वस्तु का जैन शास्त्रों ने 'ग्रन्थि' रखा है। लोक में भी हम ) यथार्थ दर्शन/बोध होने पर भी उसे 'प्राप्त करने' देखते हैं कि लकड़ी में जहाँ-जहाँ 'ग्रन्थि' होती है, या 'त्यागने' की चेष्टा, व्यक्ति द्वारा की जाती है। वहाँ से उसको काटना-छेदना दुस्साध्य होता है । आध्यात्मिक विकासोन्मुख आत्मा के लिए भी यही राग-द्वेषरूप ग्रन्थि-गाँठ की भी यही स्थिति होतो दो कार्य मुख्य होते हैं-(१) स्व-रूप दर्शन, और है। रेशमी-गाँठ की तरह यह सुदृढ़, सघन और (२) स्व-रूप स्थिति । 'दर्शनमोह' रूप प्रथम शक्ति दुर्भेद्य होती है । इसी के कारण जीव अनादि काल जब तक प्रबल रहती है, तब तक 'चारित्रमोह' रूप से ससार में परिभ्रमण कर रहा है और विविध दुसरी शक्ति भी तदनुरूप बनी रहती है। स्वरूप- प्रकार के दुःख वेदन कर रहा है। बोध हो जाने पर स्वरूप-लाभ का मार्ग सुगम यद्यपि, इस स्थिति में विद्यमान समस्त आत्माओं होता जाता है। किन्तु, स्वरूप-स्थिति के लिए को हम एक जैसा 'संसारी' 'बद्ध' आत्मा, मानते हैं, आवश्यक है कि मोह की दूसरी शक्ति-'चारित्र- तथापि इनके आध्यात्मिक स्वरूप में एक जैसा मोह' को शिथिल किया जाये। इसोलिए, आत्मा समान-स्तर नहीं होता। क्योंकि, संसारी-जीवों में, उसे शिथिल करने का प्रयत्न करती है, और, जब मोह की दोनों शक्तियों का आधिपत्य, इनमें 'समा-.. वह इसे अंशतः शिथिल कर लेती है, तब, उसकी नता' का द्योतन कराता अवश्य है, किन्तु, प्रत्येक
-
१४ विशेष विस्तार के लिए देखें-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा--११६५ से ११६७तक ।
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जीवात्मा में, इस आधिपत्य का कुछ न कुछ तर- में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर 'हार' तम भाव रहता ही है, जिससे इन सबकी संसार- मानकर अपनी मूल-स्थिति में आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में विभिन्नता आ जाना, सहज हो जाता है। आत्माएँ प्रयत्न करने पर भी राग-द्वेष पर विजय किसी जीवात्मा पर 'मोह' का प्रगाढ़ प्रभाव होता प्राप्त नहीं कर पातीं। अनेकों आत्माएँ ऐसी भी है, तो किसी में उससे कम, किसी में उससे भी कम होती हैं, जो न तो हार खाकर पीछे हटती हैं, और, होता है। जैसे, किसी पहाड़ी नदी में, बड़े-छोटे न ही 'जय' लाभ कर पाती हैं, तथापि, इस आध्यातमाम पत्थर, ऊपर से नीचे की ओर, जल प्रवाह त्मिक युद्ध में चिरकाल तक डटी रहती हैं। किन्तु के साथ लुढ़कते रहते हैं, और वे लुढ़कते, टकराते कोई-कोई आत्माएँ, ऐसी भी होती हैं, जो अपनी हुए गोल, चिकनी या अन्य अनेकों प्रकार की आकृ- शक्तियों का यथोचित प्रयोग करके आध्यात्मिक तियाँ प्राप्त करते रहते हैं । नदी प्रवाह में लुढ़कना, युद्ध में विजय का वरण का लेती हैं। मोह की टकराना, उनकी समान स्थिति का द्योतन करता दुर्भेद्य-प्रन्थि को भेद कर, उसे लांघ जाती हैं । जिन
है, किन्तु उनके लुढ़कने-टकराने से बनी अलग-अलग आत्म-परिणामों से ऐसा सम्भव हो जाता है, उसे - आकृतियाँ, उनमें विभिन्नता-विषमता की प्रतीक 'अपूर्वकरण' कहते हैं। होती हैं।
__अपूर्वकरण रूप परिणाम से राग-द्वेष की गांठ किन्तु, इन जीवात्माओं पर, जाने-अनजाने में, टट जाने पर, जीव के परिणाम अधिक शुद्ध होने 25 या अन्य किसी प्रकार से, मोह का प्रभाव जब कम लग जाते हैं। ये परिणाम, 'अनिवत्तिकरण' रूप 2ी होने लगता है, तब, वह अपने तीव्रतम राग- होते हैं। इनसे राग-द्वेष की अति तीव्रता का उन्मू30 द्वष आदि परिणामों को भी मंद' कर लेती हैं। लन हो जाता है, जिससे दर्शनमोह पर 'जय' लाभ
जिससे उसमें शनैः-शनै, एक ऐसा आत्मबल प्रगट करना सहज बन जाता है। दर्शनमोह पर विजय होने लगता है, जो उसके मोह को छिन्न-भिन्न करने प्राप्त कर लेने पर, अनादिकाल से चली आ रही का कारण बनता है। जैन दार्शनिक शब्दावली में परिभ्रमण रूप संसारी अवस्था को नष्ट करने का इस स्थिति को 'यथाप्रवृत्तकरण' कहते हैं। यथा- अवसर प्राप्त हो गया, मान लिया जाता है । इस प्रवृत्तकरण-बाली आत्माएँ, मोह की सघन-ग्रन्थि स्थिति को, जन-शास्त्रों की भाषा में 'अन्तरात्मभाव' तक पहँच तो जाती हैं, किन्तु उसे भेद पाने में समर्थ कह सकते हैं। क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके, - नहीं बन पाती हैं। इस दृष्टि से इस स्थिति को विकासोन्मुख आत्मा, अपने अन्तस् में विद्यमान शुद्ध 'ग्रन्थिदेश-प्राप्ति' भी कहते हैं। ग्रन्थि-देश की प्राप्ति परमात्मभाव को देखने लगता है हो जाने से 'ग्रंथि भेदन' का मार्ग प्रशस्त बन जाता यथार्थ आध्यात्मिक दृष्टि (आत्म
दृष्टि) होने के कारण 'विपर्यास'- रहित होती है। माना ___ग्रन्थि भेदने का कार्य बड़ा विषम, दुष्कर है। जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावती में इसी को एक ओर तो राग-द्वेष अपने पूर्ण-बल का प्रयोग 'सम्यक्त्व' कहा गया है। करते हैं, दूसरी ओर, विकासोन्मुख आत्मा भी उनकी गुणस्थानों के नाम और क्रम-संसारी दशा में
शक्ति को क्षीण-निर्बल बनाने के लिए, अपनी वीर्य- आत्मा अज्ञान की प्रगाढ़ता के कारण, निकृष्ट * शक्ति का प्रयोग करती है। इस आध्यात्मिक-युद्ध अवस्था में रहता है, यह निर्विवाद है। किन्तु, इस
में, कभी एक तो कभी दूसरा, 'जय' लाभ करता अवस्था में भी अपनी स्वाभाविक चेतना 'चारित्र' है । अनेकों आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो प्रायः आदि गुणों के विकास के कारण प्रगति की ओर ग्रन्थि-भेद करने लायक बल प्रकट करके भी, अन्त उन्मुख होने के लिये आत्मा लालायित रहती है, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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CL तथा शनैः-शनैः इन शक्तियों के विकास के अनुसार वैसे ही 'स्थिरता' की मात्रा भी वृद्धिंगत होती जातो STI उत्क्रांति करती हुई विकास की चरम सीमा-पूर्णता है और अन्ततः चरम-स्थिति तक पहुंचती है । इसी Ke
प्राप्त करती है। प्रथम निकृष्ट-अवस्था से निकल दृष्टि से गुणस्थानों का उक्तक्रम निर्धारित कर विकास की अन्तिम भूमिका को प्राप्त कर लेना किया है। ही आत्मा का परमसाध्य है, और उसी में उसके 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि की पुरुषार्थ की सफलता है।
'वृद्धि' एवं 'ह्रास', तत्तत शक्तियों के प्रतिबन्धक ____ इस 'परमसाध्य' की सिद्धि होने तक, आत्मा संस्कारों की न्यूनाधिकता अथवा तीव्रता मन्दता पर का को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, अनेकों पर अवलम्बित है । इन प्रतिबंधक संस्कारों को चार क्रमिक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है । इन विभागों में विभाजित किया जा सकता हैअवस्थाओं की श्रेणियों को 'उत्क्रांति मार्ग' 'विकास
१. 'दर्शनमोह' और 'अनन्तानुबन्धी कषाय'क्रम' और जैनशास्त्रों की भाषा में 'गुणस्थान यह दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है। शेष तीन||| क्रम' कहते हैं। इस क्रम की विभिन्न अवस्थाओं विभाग. चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। को चौदह भागों में संक्षेपतः विभाजित कर दिया
२. अप्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबंधक, गया है । इसलिये, इसे 'चतुर्दश गुणस्थान' भी कहा 'एकदेश चारित्र' का भी आंशिक विकास नहीं होने जाता है । इनके नाम एवं क्रम इस प्रकार हैं : देता।
१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन (सासादन), ३. मिश्र (सम्यगमिथ्यादृष्टि) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि,
३. प्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबन्धक, 0
'सर्वविरति' रूप चारित्र शक्ति के विकास में बाधक ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८.निवत्ति (अपूर्वकरण) 8. अनिवत्तिबादर सम्प
बनता है। राय, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशांतमोह १२. ४. संज्वलन कषाय-चारित्रशक्ति का विकास / क्षीणमोह, १३. सयोगिकेवली, १४. अयोगिकेवली। हो जाने पर भी उसकी 'शुद्धता' या 'स्थिरता' में US
अंतराय उपस्थित करने में यह प्रतिबन्धक निमित्त ___ उक्त चौदह गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा
बनता है। दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा, अर्थात् पूर्व-पूर्व
प्रथम तीन गुणस्थानों में, पहले प्रतिबन्धक की वर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थानों
) में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की प्रबलता रहता है। जिससे 'दर्शन' और 'चारित्र इस न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की
शक्ति का विकास नहीं हो पाता। किन्तु, चतुर्थ । न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है, और इस स्थिरता
आदि गुणस्थानों में, इन प्रतिबन्धक संस्कारों की की तर-तमता 'दर्शन' एवं 'चारित्र' शक्ति की
__ मन्दता हो जाती है, जिससे आत्मशक्तियों के
विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। शुद्धि के तार-तम्य पर आधारित है । दर्शन-शक्ति का जितना विकास होगा उतनी ही अधिक निर्मलता चतुर्थ गुणस्थान में 'दर्शनमोह' और 'अनन्ताव विकास उसका होगा । दर्शन-शक्ति के विकास के नुबन्धी' संस्कारों की प्रबलता नहीं रह जाती। अनन्तर चारित्र शक्ति के विकास का क्रम आता किन्तु, चारित्र शक्ति के आवरणभूत संस्कारों का है । जितना अधिक चारित्र शक्ति का विकास होगा वेग अवश्य रहता है। इनमें से 'अप्रत्याख्यानाउतना ही उतना 'क्षमा' 'इन्द्रिय जय' आदि चारित्र वरण' कषाय के संस्कार का वेग चौथे गुणस्थान गुणों का विकास होता जाता है। 'दर्शन' और से आगे नहीं रहता, जिससे पंचम गुणस्थान में 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे- चारित्रिक शक्ति का प्राथमिक विकास होता है।
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'प्रत्याख्यानावरण' कषाय नामक संस्कार का तीन स्थितियों में से स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीवों के वेग, पाँचवें गुणस्थान से आगे नहीं होता जिससे लिए 'दूसरा'-'सासादन'-गुणस्थान; अर्ध-सम्यक्त्व 12 चारित्र-शक्ति का विकास और अधिक बढ़ता है। और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीवों के लिए 'तीसरा' इस कारण आत्मा, बाह्य इन्द्रिय भोगों से विरत 'मिश्र' गूणस्थान; और विशुद्ध-सम्यक्त्व किन्तु होकर 'श्रमण'-'संन्यासी' हो जाता है। यह स्थिति चारित्ररहित जीवों के लिये 'चौथा'-'अविरत छठवें गुणस्थान की भूमिका की सर्जिका बनती है। सम्यग्-दृष्टि' गुणस्थान है । इस गुणस्थान में दर्शनछठवें गुणस्थान में चारित्र-शक्ति को मलिन करने मोह शक्ति उपशमित हो जाती है, अथवा सर्वथा वाले 'संज्वलन' कषाय रूप संस्कारों के रहने से क्षय हो जाती है। लेकिन, चारित्र-मोह शक्ति बनी यद्यपि चारित्र-शक्ति का विकास दबता तो नहीं, रहती है। इसलिये, ये चारित्र-रहित सम्यग्दृष्टि- INK किन्त स्वरूप-लाभ की स्थिरता में व्यवधान आते जीव 'चौथे'-अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले रहते हैं। आत्मा, जब इन संस्कारों को अधिक-से- जीव कहलाते हैं।
अधिक निर्बल कर देती है, तब 'उत्क्रांतिपथ' की जो जीव 'सम्यक्त्व' और 'चारित्र' सहित हैं, Lil सातवीं आदि भूमिकाओं (गुणस्थानों) को उलाँघ
उनके भी दो प्रकार हैं-१-एकदेश (आंशिक) कर ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है।
चारित्र के पालक; और २-सर्वदेश (सम्पूर्ण) चारित्र ) बारहवें गुणस्थान में 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति के
का पालन करने वाले। इन दोनों भेदों ८ प्रतिबंधक-संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। अतः
में से 'एकदेशचारित्र' का पालन करने वाले जीवों इन दोनों ही शक्तियों का पूर्णरूपेण विकास यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में हो जाता है, तथापि शरीर का
का ग्रहण करने के लिए 'पाँचवाँ'- 'देशविरतगुण
स्थान' है। सद्भाव, उस आत्मा के साथ बना रहता है। जबकि चौदहवें गुणस्थान में शरीर का भी सम्बन्ध नहीं 'सम्पूर्ण चारित्र का पालन करने वाले जीव भी रह जाता। अतः चारित्र शक्ति, अपने यथार्थ रूप में दो श्रेणियों के हैं-१-प्रमादवश 'अतिचार' यानी विकसित होकर सदा-सर्वदा के लिए एक-सी बन 'दोष'-संपृक्त हो जाने वाले; और २-प्रमाद-रहित जाती है। इसी अवस्था को 'मोक्ष' कहते हैं। निर्दोष'-चारित्र का पालन करने वाले । इनमें से
गुणस्थान चौदह ही क्यों ?:-सामान्यतया प्रमादवश-अतिचार-संपृक्त सर्व-संयमी का ग्रहण ||K आध्यात्मिक दृष्टि से संसारी जीवों के दो प्रकार कराने वाला 'छठा'-यानी 'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान हैं-१-मिथ्यावादी (मिथ्यादृष्टि)-अर्थात्, गाढ- है। जबकि प्रमादरहित, निर्दोष-चारित्र का पालन अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले जीव, २-सम्यक्त्वी करने वाले जीवों का बोधक 'सातवाँ'-'अप्रमत्त (सम्यग्दृष्टि) अर्थात् ज्ञानी, विवेकशील, प्रयोजनभूत संयत'-गुणस्थान है। लक्ष्य के मर्मज्ञ ।
__ यद्यपि, इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव ____ उक्त दोनों प्रकार के जीवों में से प्रथम प्रकार को अभी पूर्ण-वीतराग दश
को अभी पूर्ण-वीतराग दशा प्राप्त नहीं हई है, के जीवों का बोध कराने वाला पहला गणस्थान और 'छद्मस्थ'-'कर्मावत' है, किन्तु, वीतरागदशा ॐ 'मिथ्यात्व' यानी 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान है । सम्यग- प्राप्त करने की ओर उन्मुख है, जिससे, इस गुण- KC दृष्टि-जीवों के तीन प्रकार होते हैं-१-सम्यक्त्व से स्थानवर्ती कितने ही जीव, व्यवस्थित रीति से ) गिरते समय के स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीव, २-अर्ध- कर्मों का क्षय करने के लिये श्रेणी-आरोहण करते सम्यक्त्व और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीव, ३-विशुद्ध हैं। इस तरह के जीवों की आध्यात्मिक-विशुद्धि सम्यक्त्व वाले किन्तु चारित्र-रहित जीव । इन उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। श्रेणी-आरोहण का
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यह क्रम, प्रत्येक समय 'अपूर्व' बनता रहता है। तेरहवें गुणस्थानवी जीव की संज्ञा दी जाती है। लॉ फलतः एक श्रेणी-क्रम की दूसरे श्रेणीक्रम से, दूसरे किन्त, जब शरीर आदि योगों से रहित, शुद्ध-ज्ञान- 12 | श्रेणीक्रम की तीसरे श्रेणीक्रम से तुलना/समानता दर्शनयक्त स्वरूप में रमण करने वाली आत्मा प्रकट नहीं होती है । इसी से, इन श्रेणीक्रमों वाले जीव हो जाती है, तब इस स्थिति को अयोगिकेवली को 'निवृत्ति' यानी 'अपूर्व'-करण नामक आठवें नामक चौदहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। गुणस्थान वाला कहा जाता है।
इस प्रकार, गाढ़ अज्ञान से प्रारम्भ हआ आत्म- श्रेणी-आरोहण से विशुद्धता को प्राप्ति, और
विकास का चरमस्थान, उत्तरोत्तर क्रम से प्राप्त उसमें ऋमिक वृद्धि होते रहने से, यद्यपि कषायों में होता है । इसके 'आदि' और 'अन्त' के अन्तराल में निर्बलता, पर्याप्त आ जाती है, फिर भी, इन बारह 'पडाव'-'स्थान' ही सम्भव बन पाते हैं। कषायों में पुनः उद्रेक होने की योग्यता बनी रहती इन्हें 'आदि' और 'अन्त' यानो 'चरम' के साथ है। अतः ऐसे कषाय-परिणाम वाले जीवों का मिला ले
न संख्या 'चौदह' बन जाती है। बोध कराने वाला 'अनिबृत्तिबादर'-संपराय इसी कारण से जैन शास्त्रों में चौदह गुणस्थानों की नामक नौवाँ गुणस्थान है।
व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। ___इस नौवें गुणस्थान में कषायों को प्रति-समय
___गुणस्थानों का स्वरूप-जीव के विकास की कृश से कृशतर करने की प्रक्रिया चालू रहती है,
प्रक्रिया की सीढ़ी का प्रारम्भिक स्थान हैजिससे एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जिससे मंसार
'मिथ्यात्व' नाम का पहला गुणस्थान। इस की कारणभूत कषायों की मात्र झलक सी दिखाई / देती है। इस स्थिति का ज्ञान कराने वाला दशवाँ
। विकास को पूर्णता प्राप्त होती है 'अयोगि केवली'
नाम के चौदहवें गुणस्थान में । इन चौदहों गुण- 'सूक्ष्मसंपराय' नामक गुणस्थान है।
स्थानों का स्वरूप संक्षेप में, निम्नलिखित रूप में जिस तरह, झलकमात्र जैसी अतिसूक्ष्म अस्तित्व
जाना/समझा जा सकता है। रखने वाली वस्तु या तो तिरोहित हो जाती है, या । नष्ट, उसी तरह, जो कषायवृत्ति अत्यन्त कृश हो .
१. मिथ्यात्व गुणस्थान-'मिथ्यात्व' नाम के गई है, उसके उपशमित अथवा पूर्णरूपेण नष्ट हो मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि जाने से जीव को अपने निर्मल स्वरूप का दर्शन यानी श्रद्धा-प्रतिपत्ति, 'मिथ्या' यानी विपरीतहोने लगता है। इस प्रकार की. यानी कषाय-शांत उल्टी होती है, उसे 'मिथ्यादृष्टि' कहते हैं । जैसेहोने की अथवा कषाय नष्ट होने की, स्थितियों के धतूरे के बीज खाने वाला मनुष्य, 'सफेद वस्तु' को दर्शक गणस्थानों को क्रमशः 'उपशान्त-मोह' और भी पीला' देखता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि 'क्षीणमोह' नामक ग्यारहवाँ -बारहवाँ गुणस्थान जीव के स्वरूप-विशेष को 'मिथ्यात्व'-'मिथ्याकहते हैं।
दृष्टि' कहते हैं। __बारहवें गुणस्थान में दर्शन और चारित्र शक्ति यद्यपि, मिथ्यादृष्टि की दृष्टि विपरीत है। के प्रतिबंधक मोहनीय-कर्म के सर्वथा क्षय होने के तथापि वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों वह जीव भी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि को इन्हीं का क्षय होने से जीव को अनन्तज्ञान-दर्शन आदि रूपों में जानता है, तथा मानना है। इसीलिये, निज गुण प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन, अभी शरीर उसकी चेतना के स्वरूप-विशेष को 'गुणस्थान' आदि योगों का संयोग बना रहता है। इससे इस कहा जाता है । लेकिन, कुछ अंश में यथार्थ होने स्थिति में पहुँचे जीव को 'सयोगि केवली' नामक पर भी, उसे 'सम्यग्दृष्टि' न कहे जाने का कारण २५८
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यह होता है कि उसे सर्वज्ञ के वचन पर 'सम्यग्- करता है, और न 'मरण' को प्राप्त होता है। इस दृष्टि' की तरह अखण्ड अटूट विश्वास नहीं होता है। गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं
२. सासादन गुणस्थान-जो औपशमिक सम्य- हो सकता है और न ही वह 'संयम' ('सकल संयम' क्त्वी जीव, अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से 'सम्य- या 'देशसंयम') ग्रहण कर सकता है। क्त्व' को छोड़कर 'मिथ्यात्व' की ओर झक रहा ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-'हिंसा' है, किन्तु, अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हआ है, आदि सावद्य-व्यापारों के त्याग को 'विरति' कहते ||
से जीव के स्वरूप-विशेष को 'सासादन-सम्यग्दृष्टि हैं । अतएव, जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी कहते हैं। अर्थात्, जिस प्रकार पर्वत से गिर कर प्रकार की 'विरति'-'व्रत' को धारण नहीं कर नीचे की ओर आते व्यक्ति की भूमि पर पहुँचने से सकता, वह जीव 'अविरत सम्यग्दृष्टि' होता है । पहले, मध्यकालवर्ती जो दशा होती है, वह न तो इसी के स्वरूप-विशेष को 'अविरत सम्यग्दृष्टि गुणपर्वत पर ठहरने की स्थिति है, न ही भूमि पर स्थान' कहते हैं। स्थित होने की; बल्कि दोनों-स्थितियों से रहित, इस गूणस्थानवी जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि | 'अनूभय दशा' होती है। इसी प्रकार, अनन्तानुबंधी कहने का कारण यह है कि सम्यग्दर्शन होने पर कषायों का उदय होने के कारण, 'सम्यक्त्व-परि- भी ‘एकदेश सयम' की घातक 'अप्रत्याख्यानाणामों से छूटने' और 'मिथ्यात्व-परिणामों के प्राप्त वरण' कषाय का उदय उसमें रहता है। इस तरह होने के मध्य की अनूभयकालिक-स्थिति में जो के जीवों में कोई जीव 'औपशमिक' कोई 'क्षायोपजीव-परिणाम होते हैं, उन्हें बतलाने वाली जीव- शमिक' और कोई 'क्षायिक' सम्यक्त्वी होते हैं। दशा का नाम है-'सासादन-गुणस्थान' ।।
५. देशविरतगुणस्थान-'सकल संयम' की ३. मिश्रगुणस्थान- इस गुणस्थान का पूरा घातक कषाय का उदय होने के कारण, जो जीव नाम है- 'सम्यग्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान' । इसी का सर्वसावध क्रियायों से सर्वथा तो नहीं, किंतु अप्रत्या-1 संक्षिप्त नाम है 'मिश्रगुणस्थान'।
ख्यानावरण कषाय का उदय न होने से 'देश (अंश) ____ मिथ्यात्व-मोहनीय के 'अशुद्ध'--'अर्धशुद्ध' से, पापजनक-क्रियाओं से विरत' -.-'पृथक्' हो
और 'शुद्ध', इन तीन पुंजों में से अनन्तानुबन्धी सकते हैं, वे 'देशविरत' हैं। इन जीवों के स्वरूपकषाय का उदय न होने से, 'शुद्धता' और 'मिथ्यात्व' विशेष को 'देशविरत'-गुणस्थान कहते हैं । देश- | के अर्धशुद्धपुद्गलों का उदय होने से जब अशुद्धता- विरत को 'श्रावक' भी कहते हैं। रूप अर्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब जीव की इस गुणस्थानवर्ती कोई जीव, एक व्रत लेते हैं, दृष्टि कुछ 'सम्यक्' (शुद्ध) और कुछ 'मिथ्या' कोई दो व्रत, कोई तीन-चार-पाँच आदि बारह व्रत (अशुद्ध) अर्थात्-‘मिश्र' हो जाती है।
तक लेते हैं । ये व्रत 'अणुव्रत' 'गुणवत' और 'शिक्षा __ इस गुणरथान दशा के समय, बुद्धि में दुर्बलता व्रत' इन तीन विभागों में विभाजित हैं । कोई जीव सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हैं । पर न तो 'एकान्त-रुचि' करता है, और न 'एकान्त- इस प्रकार, अधिक से अधिक व्रतों का पालन करने अरुचि'। किन्तु, मध्यस्थ भाव रखता है। इस • वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं, जो पापकर्मों में अनु
प्रकार की दृष्टि वाले जीव का स्वरूप-विशेष मति के सिवाय, परिवार से किसी प्रकार का हो 'सम्यगमिथ्यादृष्टि' (मिश्र) गुणस्थान कहलाता है। सम्बन्ध नहीं रखते हैं। ___इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि सम्यग् ६. प्रमत्त-संयत गुणस्थान-जो व्यक्ति, पापमिथ्यादृष्टि जीव, न तो परभव की आयु का बन्ध जनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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हैं, वे 'संयत' (मुनि) हैं। लेकिन ये संयत भी जब इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण' इसलिए कहा तक 'प्रमाद' का सेवन करते हैं, तब तक, 'प्रमत्त- जाता है कि इसमें निम्नलिखित पाँच बातें विशेष कार संयत' कहलाते रहते हैं। इन्हीं के स्वरूप-विशेष को रूप से होती हैं'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान कहते हैं।
स्थितिघात- कर्मों की बडी स्थिति को अपवयद्यपि 'सकल संयम' को रोकने वाली प्रत्या- तनाकरण द्वारा घटा देना, अर्थात् आगे उदय में ख्यानावरण कषाय का अभाव होने से, इस गुण- आने वाले कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण के द्वारा जा स्थान में 'पूर्ण संयम' तो हो चुकता है, किंतु 'संज्व- अपने उदय के नियत समयों से हटा देना।
लन' आदि कषायों के उदय से संयम में 'मल' उत्पन्न रसघात-बद्ध-कर्मों की तीब्र-फलदान-शक्ति को
करने वाले प्रमाद के रहने से इसे 'प्रमत्त संयत' अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द करना । COAL कहते हैं । इस गुणस्थानवर्ती जीव, सावद्य कर्मों का गुणश्रेणी-उदय के नियत समयों से हटाए
यहाँ तक त्याग कर देते हैं, कि पूर्वोक्त 'संवा- गए-'स्थितिघात' किए गए कर्मदलिकों को समयसानुमति' को भी नहीं सेवते हैं।
क्रम से 'अन्तर्मुहूर्त' में स्थानान्तरित कर देना । ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान-जो संयत (मुनि) गुणसंक्रमण-पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृतियों को 'बध्य Sविकथा' 'कषाय' आदि प्रमादों को नहीं सेवते हैं, मान'--शुभप्रकृतियों में स्थानान्तरित कर देना।
वे 'अप्रमत्तसंयत' हैं। इनके स्वरूप-विशेष को अपूर्व स्थितिबन्ध-पहले की अपेक्षा अत्यन्त
'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान अल्प-स्थिति के कर्मों का बांधना। of में संज्वलन-नोकषायों और कषायों का मंद-उदय इस आठवें गुणस्थान में आत्मा की विशिष्ट
होने से व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुकते हैं। योगीरूप अवस्था आरम्भ होती है। छठे और SUB जिससे इस गुणस्थानवी जीव, सदैव ही ज्ञान, सातवें गुणस्थान में बारम्बार आने से विशेष प्रकार ध्यान, तप में लीन रहते हैं ।
की विशुद्धि-प्राप्त करके औपशमिक या क्षायिक'प्रमत्तसंयत' और 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान भाव रूप विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिए 'चारित्र८ में इतना अन्तर है कि 'अप्रमत्तसंयत' में थोड़ा सा मोहनीय'-कर्म का उपशमन या क्षय किया जाता
भी प्रमाद नहीं रहता, जिससे व्रत आदि में 'अति- है, जिससे 'उपशम' या 'क्षपक' श्रेणी प्राप्त होने
चार'- आदि सम्भव नहीं हो पाते । जबकि 'प्रमत्त वाली होती है। GB संयत' जीव के 'प्रमाद' होने से व्रतों में 'अतिचार' ६. अनिवृत्ति गुणस्थान-इसका पूरा नाम | लगने की सम्भावना रहती है।
'अनिवृत्ति बादर सम्पराय' गुणस्थान है। इसमें ८. निवृत्ति बादर गुणस्थान-इस गुणस्थान 'बादर'- स्थूल, 'सम्पराय'-कषाय, उदय में होता म का दूसरा नाम 'अपूर्वकरण' गुणस्थान भी है। जिस है, तथा सम-समयवर्गी-जीवों के परिणामों समानता Of 'अप्रमत्तसंयत' जीव की अनन्तानुबन्धी 'अप्रत्या- होने-भिन्नता न होने से, इस गुणस्थान को 'अनि
ख्यानावरण' और 'प्रत्याख्यानावरण' रूप कषाय- वृत्ति बादर-सम्पराय' गुणस्थान कहते हैं। CH चतुष्कों की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को इस नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव भा निवृत्तिबादर' गुणस्थान कहते हैं।
दो प्रकार के होते हैं-'उपशमक' और 'क्षपक' ।
१ प्रमाद के पन्द्रह प्रकार होते हैं
चार विकथाएं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चौरकथा, चार कषाएं-क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन
रसन, आदि पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति तथा निद्रा और स्नेह २ 'उपशम' श्रेणि और 'क्षपक' श्रेणि का आशय आगे स्पष्ट किया जा रहा है ।
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चारित्रमोहनीय का शमन करने वाले 'उपशमक' स्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता। और 'क्षय' करने वाले 'क्षपक' कहलाते हैं। मोह- क्योंकि, आगे के गुणस्थान वही प्राप्त कर सकता नीय-कर्म की उपशमना या क्षपणा करते-करते है, जो 'क्षपक' श्रेणी को चाहता है। क्षपक श्रेणी अन्य अनेक कर्मों का भी 'उपशमन' या 'क्षपण' के बिना 'मोक्ष' प्राप्त नहीं होता है। यह गुणकरते हैं।
स्थान उपशम श्रेणी को करने वाला है। उपशमक आठवें और नौवें गुणस्थानों में यद्यपि 'विशुद्धि' का पतन अवश्यम्भावी होता है। होती रहती है। फिर भी प्रत्येक जीव की अपनी- इस गुणस्थान का यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपनी विशेषताएँ होती हैं । जैसे कि आठवें गुण- समय पूरा न हो, और आयु-क्षय से जीव 'मरण' स्थान में सम-समयवर्ती कालिक अनन्त जीवों के को प्राप्त होने से गिरता है तो अनुत्तर-विमान अध्यवसायों का, 'समान-शुद्धि' होने के कारण एक में 'देव'-रूप में उत्पन्न होता है । देवों के ही 'वर्ग' होता है। नौवें गुणस्थान में विशुद्धि 'पाँचवें'-आदि गुणस्थान नहीं होते। प्रथम
इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों चार गुणस्थान होते हैं। अतः उक्त प्रकार न को भिन्नताएँ आठवें गणस्थान के अध्यवसायों को का जीव, चौथे गणस्थान को प्राप्त करके, उस lik CM भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती है।
गुणस्थान में, उन समस्त कर्म-प्रकृतियों का बन्ध१०. सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान-इस गुणस्थान आदि करना आरम्भ कर देता है, जिन कर्म-प्रकृ५ में 'सम्पराय' अर्थात्-लोभ-कषाय के सूक्ष्म-खण्डों तियों के बन्ध, उदय, उदीरणा की सम्भावना उस र
का ही उदय होने से इसे 'सूक्ष्म-सम्पराय' गुणस्थान गुणस्थान में होती है । यदि आयु-शेष रहते, गुण- 10) कहते हैं।
स्थान का समय पूरा हो जाने पर, कोई जीव, इस गुणस्थानवी जीव के भो दो प्रकार- अपने गुणस्थान से गिरता है, तो, आरोहण क्रम ा 'उपशमक' और 'क्षपक' होते हैं । 'लोभ' के अलावा के अनुसार, जिन गणस्थानों को प्राप्त करते हुए IA 'चारित्र-मोहनीय' कर्म की, कोई दूसरी ऐसी जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि का प्रकृति नहीं होती, जिसका उपशमन या क्षपण न विच्छेद उसने किया था, उनको, पतन के समय से हो चुका हो । अतः 'उपशमक' लोभ का उपशमन, सम्बद्ध गुणस्थान-सम्बन्धी-प्रकृतियों के बन्ध, उदय
का क्षपण, इस श्रेणी में करके आदि को, अवरोह-क्रम से. पुनः प्रारम्भ कर देता || SH 'यथाख्यात'-चारित्र से कुछ ही न्यून रह जाते हैं। है । गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरने । अर्थात् उनमें यथाख्यात-चारित्र के प्रकट होने में वाला कोई जीव छठे गुणस्थान में, कोई पाँचवें कुछ ही कमी रह जाती है।
__ गुणस्थान में, कोई चौथे गुणस्थान में और कोई ११. उपशान्तमोह गुणस्थान-इस गुणस्थान दूसरे गुणस्थान में होकर पहले गुणस्थान तक आ का पूरा नाम 'उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ' जाता है। गुणस्थान है । जिनके 'कषाय' उपशान्त हो गये हैं, १२. क्षीणमोह गुणस्थान-मोहनीय कर्म का 'राग' का सर्वथा उदय नहीं है और जिनको 'छद्म'- सर्वथा क्षय होने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त आवरणभूत घाति-कर्म लगे हैं, वे जीव 'उपशान्त होता है। इस गुणस्थान का पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' हैं। इन्हीं के स्वरूप- कषाय वीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान है। इसका विशेष को उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ अर्थ यह हुआ कि जो जीव, मोहनीय-कर्म का गुणस्थान कहते हैं।
सर्वथा क्षय कर चुके हैं, किन्त 'छदम' (घातिकर्म इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुण- का आवरण) अभी भी विद्यमान है, उनको 'क्षीणतृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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कषायवीतराग' कहते हैं और उनके स्वरूप - विशेष को 'क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान कहते हैं ।
मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से इस गुणस्थानवर्ती जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान विमल होते हैं । इस गुणस्थान से 'पतन' नहीं होता है । क्योंकि, इसमें वर्तमान जीव 'क्षपक' श्रेणी वाले ही होते हैं । 'पतन' का कारण 'मोहनीय' कर्म है । किन्तु यहाँ उसका सर्वथा — निःशेष रूप से क्षय हो चुका है ।
इस गुणस्थान तक, आत्म-गुणों के घातककर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से 'योग - निमित्तक'कर्मावरण शेष रह जाता है । इसी की अपेक्षा से 'सयोगि केवली' नामक तेरहवाँ और 'योग' का सम्बन्ध न रहने पर होने वाला 'अयोगि केवली' नामक चौदहवाँ गुणस्थान सम्भव होता है । इनका स्वरूप निर्दिष्ट करने से पहले, कर्मक्षय की विशेष प्रक्रिया रूप 'उपशम' श्रेणी और 'क्षपक' श्रेणी का निर्देश संक्षेप में यहाँ करना उचित होगा ।
यह उपशमन इस क्रम से होता है - सर्वप्रथम 'नपुंसक वेद', पश्चात् क्रमशः 'स्त्रीवेद', 'हास्य- 1 आदि षट्क", पुरुषवेद, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुगल, संज्वलनक्रोध, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मानयुगल, संज्वलमान, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मायायुगल, संज्वलनमाया, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण लोभयुगल को, तथा दशवें गुणस्थान में संज्वनल-1 लोभ को उपशमित करता है । इस प्रकार से मोहनीय कर्म के सर्वांशतः उपशमित हो जाने से इस श्रेणी को 'उपशमक' श्रेणी कहते हैं ।
क्षपक श्रेणी -- इस श्रेणी का आरोहक जीव चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में, सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और दर्शनमोह त्रिक, इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय करता है । अनन्तर, आठवें गुणस्थान में अप्रख्यानावरण- क्रोधादि कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय चतुष्क, इन आठ कर्म प्रकृतियों के क्षय को प्रारम्भ करता है । जब तक ये आठ प्रकृतियाँ 'क्षय' नहीं हो पातीं कि बीच में
उपशम श्र ेणी - इस श्रेणी के प्रारम्भ होने का ही नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में, स्त्यानद्धि- त्रिकक्रम, संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार है
आदि सोलह अशुभ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है और फिर अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण कषाय अष्टक के शेष रहे अंश का क्षय करता है ।
गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य-पट्क, पुरुषवेद, संज्वलन- क्रोध-मानमाया का क्षय करता है । अन्त में, दशवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का भी क्षय कर देता है । इस प्रकार सम्पूर्ण मोहनीय तथा साथ में कतिपयअशुभ प्रकृतियों का क्षय होने से इसे क्षपक श्रेणी कहते हैं ।
चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान वर्तमान जीव, पहले अन'न्तानुबन्धी 'क्रोध' आदि चार कषात्रों का उपशम करता है । तदनन्तर, अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व मोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोह नीय रूप दर्शनमोहनीय त्रिक का एक साथ उपशमन करता है । इसके बाद वह जीव छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार आता-जाता रहता है । अनन्तर आठवें गुणस्थान में होता हुआ नौवें गुणस्थान को प्राप्त करके, वहाँ चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का उपशमन करना प्रारम्भ कर देता है ।
१ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छः नोकषायों की 'हास्यषट्क' यह संज्ञा है ।
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'उपशमक' और 'क्षपक' श्रेणी में विशेषता यह है कि उपशमक श्र ेणी में सिर्फ मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशमित होती हैं, जो निमित्त मिलने
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पर पुनः अपना प्रभाव प्रदर्शित करती हैं। जिससे वचनयोग को रोकते हैं । अनन्तर सूक्ष्म काययोग से पतन होने पर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान तक की उक्त बादरयोग को रोकते हैं । इसी सूक्ष्म काययोग प्राप्ति शक्य है । लेकिन क्षपक-श्रेणी में मोहनीय से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग को रोकते कर्म का तो सर्वथा क्षय होता ही है, उसके साथ हैं । अन्त में, सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान के उन कुछ प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है जो बल से उस सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं। अशुभ वर्ग की हैं । जिससे चतुर्थ गुणस्थान में देखे इस प्रकार से, योगों का निरोध होने से, 'सयोगिगये परमात्मस्वरूप की स्पष्ट प्रतीति-दर्शन होने केवली' भगवान् 'अयोगिकेवली' बन जाते हैं। लगते हैं । शेष रह गये 'छद्म'-घातिकर्म, इतने साथ ही उसी सूक्ष्म क्रियाऽनिवत्ति शुक्लध्यान की
निःशेष हो जाते हैं कि क्षणमात्र में उनका क्षय सहायता से अपने शरीर के भीतरी खाली भागॐ होने पर, आत्मा स्वयं परमात्म दशा को मुख, उदर आदि भाग को, आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर के प्राप्त कर जीवन्मुक्त-अवस्था में स्थित हो जाती देते हैं। उनके आत्मप्रदेश इतने सघन हो जाते हैं कि
वे शरीर के दो तिहाई हिस्से में समा जाते हैं। । १३. सयोगिकेवली गुणस्थान-मोहनीय कर्म इसके बाद, समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान
के माथ शेष-'ज्ञानावरण'- 'दर्शनावरण' और को प्राप्त करते हैं और 'पाँच ह्रस्व-अक्षर' (अ-इ'अन्तराय' इन तीन घाति-कर्मों का क्षय करके उ-ऋ-ल) के उच्चारण काल का 'शैलेशीकरण' 'केवलज्ञान', 'केवलदर्शन' प्राप्त कर चुकने से पदार्थों करके चारों अघाति कर्मो-वेदनीय, नाम, गोत्र को जानने-देखने में 'इन्द्रिय'-'आलोक' आदि की और आयु कर्मों-का सर्वथा क्षय करने पर, समय
अपेक्षा जो नहीं रखते, तथा योग-सहित हैं, मात्र की ऋजूगति से ऊर्ध्वगमन करके 'लोक' के डाउन्हें 'सयोगि-केवली' कहते हैं, और उनके स्वरूप- अग्रभाग में स्थित 'सिद्धक्षेत्र' में चले जाते हैं। विशेष को 'सयोगि केवली' गुणस्थान कहते हैं। लोक के अग्रभाग में विराजमान ये 'सिद्ध' भग
सयोगिकेवली भगवान् 'मनोयोग' का उपयोग वन्त, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों, राग-द्वेष आदि मन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर मन द्वारा देने में भावकों से रहित होकर, अनन्त शांति सहित ज्ञान, करते हैं । उपदेश देने के लिए 'वचन' योग का, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध-अवगाहनत्व, नित्य, तथा हलन-चलन आदि क्रियाओं में 'काय' योग का कृतकृत्य अवस्था में अनन्तकाल तक रमण करते उपयोग करते हैं।
रहते हैं। सर्वथा कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से
पुनः संसार-परिभ्रमण के चक्कर में उनका आगमन सयोगिकेवली यदि 'तीर्थङ्कर' हों, तो 'तीर्थ' नहीं होता है। की स्थापना' एवं 'देशना' द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन कार करते हैं।
यदि किसी सयोगिकेवली भगवान् की आयु
कर्म की स्थिति दलिक कम हो, और उसकी अपेक्षा १४. अयोगिकेवली गणस्थान-जो केवली
वेदनीय, नाम तथा गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति भगवान् मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर, ,
एवं पुद्गलपरमाण अधिक होते हैं, वे आठ समय 5 योगरहित हो शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते वाले केवली-समुदघात' के द्वारा आयकर्म की स्थिति
हैं, वे 'अयोगिकेवली' कहलाते हैं। इन्हीं के स्वरूप एवं पुद्गलपरमाणओं के बराबर वेदनीय, नाम और विशेष को 'अयोगिकेवली' गुणस्थान कहते हैं। गोत्रकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं को कर ___ योग-निरोध का क्रम इस प्रकार है-सर्वप्रथम लेते हैं। परन्तु, जिन केवलियों के वेदनीय आदि बादर (स्थूल) काययोग से बादर मनोयोग और तीनों अघाति-कर्मों की स्थिति और पुद्गल परमाणु तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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'आयुकर्म' के बराबर हैं, वे 'समुद्घात' नहीं करते हैं । और, परम-निर्जरा के कारणभूत तथा लेश्या से रहित अत्यन्त स्थिरता रूप ध्यान के लिये पूर्वोक्त रीति से योगों का निरोध कर अयोगि अवस्था प्राप्त करते हैं ।
गुणस्थानों की शाश्वतता अशाश्वतता - उक्त चौदह गुणस्थानों में से प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और त्रयोदशम् ये पाँच गुणस्थान लोक में 'शाश्वत' हैं । अर्थात् सदा विद्यमान रहते हैं । इन गुणस्थानों वाले जीव, लोक में अवश्य पाये जाते हैं। जबकि शेष नौ गुणस्थास 'अशाश्वत' हैं । 'पर-भव' में जाते समय जीव को पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा, बारहवाँ और तेरहवाँ, ये तीन गुणस्थान 'अमर' हैं । अर्थात्, इनमें जीव का मरण नहीं होता है । पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां और ग्यारहवां, इन पाँच गुणस्थानों का, तीर्थंकर स्पर्श नहीं करते है । चौथे, पांचवे, छठे, सातवें, आठवें, इन पाँच गुणस्थानों में ही जीव 'तीर्थंकर'गोत्र को बांधता है । बारहवां, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये तीन गुणस्थान 'अप्रतिपाती' हैं । अर्थात्
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इन्हें प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीव का पतन नहीं होता है । पहले, चौथे, सातवें, आठवें, नौवें, दशवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें, इन नौ गुणस्थानों को 'मोक्ष' जाने से पूर्व, जीव अवश्य ही स्पर्श करता है । दूसरा गुणस्थान, अधःपतनोन्मुख - आत्मा की स्थिति का द्योतक है। लेकिन, पहले की अपेक्षा इस गुणस्थान में 'आत्मशुद्धि' अवश्य कुछ अधिक होती है । इसलिए इसका क्रम, पहले के बाद रखा गया है । परन्तु इस गुणस्थान को 'उत्क्रांति' करने वाली कोई आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकल कर सीधे ही, तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है । और 'अवक्रांति' करने वाली कोई आत्मा चतुर्थ आदि गुणस्थान से पतित होकर, तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार 'उत्क्रांति' और 'अवक्रांति' करने वाली दोनों ही प्रकार की आत्माओं का आश्रयस्थान 'तीसरा' गुणस्थान है ।
संक्षेप में, गुणस्थान-क्रमा रोहण का स्वरूप यही समझना चाहिए ।
आत्मा के तीन प्रकार
तिप्पयारो सो अप्पो पर-मन्तर बाहिरो दु हेऊणं । आत्मा के तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्सा और परमात्मा । बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर बढ़ना - ऊर्ध्वारोहण है ।
- मोक्ष पाहुड ४
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भारतीय दर्शन : चिन्तन की रूपरेखा
दर्शन का अर्थ __दर्शन का सामान्य अर्थ है, देखना और यह अर्थ सर्वजन प्रसिद्ध है। किन्तु प्रत्येक शब्द का व्यंजनात्मक एक विशिष्ट अर्थ और भी हुआ करता है। उसमें अर्थ-गाम्भीर्य भी अधिक होता है। यह लोक में प्रामाणिक भी माना जाता है। दर्शन शब्द को भी यही स्थिति है । वह अपने अन्तस् में विशेष और गम्भीर आशय गर्भित किये हुए है-सत्य का साक्षात्कार करना । क्योंकि लोक जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति की सत्यता का निर्धारण देखने वाले के कथन से किया जाता है, कानों सुनी बात अप्रामाणिक भी हो सकती है । दृश्य और अदृश्य, भौतिक व आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों के लिये भी यही जानना चाहिये। अतएव यह सिद्ध हुआ कि सत्य का साक्षात्कार करना दर्शन शब्द का वाच्य व वास्तविक अर्थ है। सत्य का साक्षात्कार क्या है ?
इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि सत्य क्या है और उसके साक्षा
त्कार का अभिप्राय क्या है ? पं० देव कुमार जैन प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सत्यवादी मानता है । अपने द्वारा दर्शनाचार्य. साहित्यरत्त प्रतिपादित अनुभूत के प्रति इतना आग्रहशील हो जाता है कि उसके
कथन का अपलाप करने में भी नहीं झिझकता है। इसको जन्मान्धों के खजांची मोहल्ला हस्ति परीक्षण के उदाहरण से समझा जा सकता है। वे सभी हाथी
के एक-एक अंग को समस्त हाथी मान रहे थे। समग्रता की दृष्टि से बीकानेर
उनका कथन सत्य नहीं है । अतएव यह आशय हुआ कि सत्य वह है जो पूर्ण हो और पूर्ण होकर यथार्थ रूप से प्रतीत हो तथा साक्षात्कार का अभिप्राय होगा कि जिसमें सन्देह, विपर्यय, मतभेद, भ्रम आदि न हों । सत्य-साक्षात्कार में भ्रान्ति क्यों ? ___सत्य को जानने और समझने की वृत्ति मनुष्य मात्र में साहजिक है । साधारण-असाधारण सभी जन सत्य के उपासक हैं, सत्य का साक्षात्कार करने की साधना में तल्लीन रहते हैं । परन्तु सत्यान्वेषण, सत्य-निरूपण और सत्य-प्रकाशन की पद्धति सबकी अपनी-अपनी होने से भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। इसका पहला कारण है उनका एक
पक्षीय विचार, जो सत्यांश तो हो सकता है, किन्तु संपूर्णता को स्पर्श तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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नहीं करता है। जिससे वे सभी पूर्ण सत्य का भी चिन्तन के प्रति कदाग्रही बन जाते हैं। कदाग्रह से २ साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। आचार्य सिद्धसेन वस्तु स्वरूप में तो किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर का निम्नोक्त कथन समग्र स्थिति स्पष्ट कर हुआ, किन्तु विचारकों के विचार अवश्य विकृत देता है।
होते हैं। ___"जावइया वयणपहा तावइया चेव हुन्ति कदाग्रह की उत्पत्ति का कारण नयवाया।"
विकृति का कारण कदाग्रह है। अतः यहाँ 15 -सन्म तितर्क ३/३७ -
३/३७ कदाग्रह की उत्पत्ति के कारण का भी विचार कर र अर्थात् जितने भी वस्तु स्वरूप के प्ररूपक कथन हैं, ये एक-एक सत्यांश के बोधक हैं । सत्यांशों का
वस्तु-विचार की परस्पर भिन्न मुख्य दो दृष्टियाँ ग्रहण करना उपादेय तो है, लेकिन किसी एक हैं-१. सामान्यगामिनी और २. विशेषगामिनी। विशिष्ट प्रणाली को ग्रहण करने से समग्र सत्य को सामान्यगामिनी धारा वस्तमात्र में समानता ही प्राप्त नहीं किया जाता है और अपने मान्य सत्य समानता और विशेषगामिनी असमानता असमाका भी निर्णय नहीं हो पाता है। दोनों के आंशिक नता ही देखती है। इन दोनों धाराओं का अस्तित्व व अपूर्ण निर्णय से भ्रम अवश्य उत्पन्न हो जाता परस्पराश्रित है और वस्तु का स्वभाव दोनों
धाराओं का समन्वित पिंड है। ये दोनों धारायें । भ्रम उत्पन्न होने का दूसरा कारण यह है कि स्वानुभव के अन्तिम निष्कर्ष रूप में वस्तु के शुद्ध | प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों की सत्ता है। उन स्वरूप पर पहुँचती हैं, लेकिन दोनों कथन शैली की अनन्त धर्मों की सत्ता की स्वीकृति के लिए प्रमाण भिन्नता के कारण आपस में विरोधी होकर अपने ! की जरूरत नहीं है। ये अनन्त धर्म ही वस्तु का आप तक सीमित रहती हैं और उसके आधार पर स्वरूप है। उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता परस्पर विरुद्ध अनेक विचारधारायें उत्पन्न होने से नहीं होती है। वस्तु की इस स्थिति को सभी ये विचारधारायें अलग-अलग दर्शन नाम से प्रसिद्ध विचारकों ने स्वीकार किया है
हो जाती हैं। 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।' सामान्यतः दर्शन कितने ? -धर्मकीति: प्रमाणवातिक २/२१
यद्यपि विश्व के मानवमात्र के चिन्तन का ये सभी धर्म स्व-पर के द्वारा विद्यमानता आधार उक्त दो धारायें होने से दर्शन के सामाअविद्यमानता का बोध कराते हैं । यथाप्रसंग मुख्य- न्यतः दो भेद हैं । किन्तु पश्चिम दृश्यमान विश्व गौण का भी उपचार करना पड़ता है। इसलिए का विचार करने वाला भौतिकवादी है। यदि उन अनन्त धर्मों को जानना कठिन नहीं है। वे किसी ने लीक से हटकर विचार किया तो हत्या
के विषय बनते हैं। ज्ञान के द्वारा जाने करने से भी नहीं चुका। यनान के प्रसिद्ध दार्शभी जाते हैं। किन्तु शब्दों द्वारा एक साथ एक निक सुकरात को इसलिए विष देकर मार दिया समय में उनका कथन नहीं किया जा सकता है। था कि उसने भौतिकवादी विचारों का विरोध सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भी एक समय में वस्तु के एक धर्म किया था और दूसरे दार्शनिक अफलातूं (प्लेटो) को का कथन, वर्णन, प्रतिपादन करते हैं । उस स्थिति उसके ही भक्त शिष्य ने गुलाम बनाकर सरे बाजार में यथार्थता को नहीं समझने वाले अपने-अपने में बेच दिया था।
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परन्तु पूर्व और मुख्य रूप से भारत में तत्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति सुदूर अतीतकाल से है । इस प्रवृत्ति के दो रूप हैं - प्रज्ञामूलक और तर्कमूलक । प्रज्ञा द्वारा तत्वों का विवेचन और तर्क द्वारा तत्वों का समीक्षण किया जाता है । इन दोनों का एक मात्र लक्ष्य है—आत्मानं-विद्धि, आत्मदर्शन, जो परोक्ष न होकर अपरोक्ष - प्रत्यक्ष हो । आत्मा का अपरोक्ष ज्ञान होना ही दर्शन का प्रयोजन है ।
अतएव अब भारतीय दर्शन के मुख्य भेदों का संकेत करके उनके चिन्तन का विचार करते हैं ।
पूर्व में यह बताया है कि चिन्तन के प्ररूपक जितने कथन हैं, उतने ही दर्शन हो सकते हैं । अतः हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि दर्शन के अनन्त प्रभेद हैं । फिर भी उन अनन्त भेदों में पाई जाने वाली आंशिक समानताओं के आधार पर आगमों में पर समय के रूप में विस्तार से ३६३ ( तीन सौ त्रेसठ ) भेद गिनाये हैं । इन भेदों को भी क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनय वादी इन चार में समाहित करके ३६३ भेदों में से १५० क्रियावादी के, ८४ अक्रियावादी के, ६७ अज्ञान वादी के और ३२ विनयवादी के भेद बताये गये हैं ।
इसी तरह वैदिक ऋषियों द्वारा भी दर्शनों की संख्या व नाम निश्चित किये जाने के प्रयत्न हुए हैं। पुराणों में न्याय, सांख्य, योग, मीमांसा और लोकायत यह दर्शनों के नाम देखने में आते हैं । FT की प्रारम्भिक शताब्दियों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा वैदिक दर्शनों के रूप में माने जाने लगे और मीमांसा के कर्म व ज्ञान यह दो भेद हो गए । जो क्रमश: पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
वेदाश्रित यह छह भेद भी स्वयं वैदिकों ने स्वो कार नहीं किये । यही कारण है कि वाचस्पति मिश्र ने वैशेषिक दर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शन-भेदों की अपनी ग्रन्थों में व्याख्या की तथा वैशेषिक की
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
पृथक् व्याख्या इसलिये नहीं की कि उसके तत्वों का विवेचन न्यायदर्शन में हो जाता है ।
माधवाचार्य ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथ में सोलह दर्शनों के नाम गिनाकर उनकी व्याख्या की है। उनमें वेदाश्रित दर्शन-भेदों के साथ अवैदिक जैन, बौद्ध व चार्वाक दर्शनों का ग्रहण किया है ।
माधव सरस्वती के सर्वदर्शन कौमुदी ग्रंथानुसार योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक और वैशेषिक यह छह वेदाश्रित दर्शन हैं तथा अवैदिक दर्शन के बौद्ध, चार्वाक व आर्हत यह तीन भेद हैं ।
इसी प्रकार से अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टि से दर्शन-भेदों व उनके नामों का उल्लेख किया है । उन सबका परिचय स्वतन्त्र लेख का विषय है |
अतः प्रकृत में उन्हीं दर्शन नामों का संकेत करते हैं, जो वर्तमान में प्रसिद्ध हैं । वे नाम इस प्रकार हैं
१. जैन २. बौद्ध ३. सांख्य ४ नैयायिक ५. वैशेषिक ६. जैमिनीय ( मीमांसा ) |
ये दर्शन दृश्य-अदृश्य, लोक-परलोक, जीव आदि ar अस्तित्व स्वीकार करने वाले होने से आस्तिकवादी के रूप में प्रख्यात हैं और जीव का अस्तित्व नहीं मानने से चार्वाक नास्तिकवादी कहलाता है । इसीलिए विद्वानों ने उसे दर्शन के रूप में तो स्वीकार नहीं किया किन्तु दृष्टि को समझने के लिये उसकी दलीलों का संग्रह कर दिया । भारतीय दर्शनों की चिंतन प्रणालियाँ
भारतीय दर्शन के उक्त छह भेद प्रायः सर्वमान्य हैं । प्रत्येक दर्शन के समर्थ आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उनकी तात्विक व चिन्तन दृष्टि का जो विस्तार से वर्णन किया है, उसकी रूपरेखा का यहाँ उल्लेख करते हैं ।
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जैन दर्शन
काय द्रव्य कहलाते हैं और काल द्रव्य सिर्फ एक
प्रदेशी होने से अस्ति द्रव्य है, बहुप्रदेशी न होने से | यह दर्शन विश्व की संरचना, विकास, विनाश और व्यवस्था का आधार परस्पर विरोधी गुण
- अस्तिकाय द्रव्य नहीं है। धर्मोंवाले जीव (चेतन) और अजीव (अचेतन, जड़) यही छह द्रव्य लोकव्यवस्था के नियामक हैं। इन दो तत्वों को स्वीकार करता है। इन दोनों इनके सिवाय लोक में अन्य कुछ नहीं है। तत्वों में से न चेतन तत्व निष्क्रिय है और न अचे
द्रव्य का लक्षण सत् है, सत् उसको कहते हैं । तन तत्व सक्रिय है। दोनों का आरोपित सत्ता से ।
जिसमें उत्पाद (नवीन पर्याय, अवस्था का उत्पन्न : नहीं किन्तु अपने-अपने गुणधर्म, स्वभाव से अस्तित्व होना) व्यय (पर्वपर्याय का नाश होना) और ध्रौव्यहै, इनमें अपनी-अपनी स्थिति रूप से परिवर्तन होते रहने पर भी नित्यत्व हैं। ये न तो सर्वथा
- रूपता (उत्पाद और व्यय होते रहने पर भी द्रव्य ,
का अपने मूल स्वभाव में स्थिर रहना) हो। नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य ही । उनमें वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक गुण विद्यमान रहते हैं। द्रव्य के उक्त लक्षण का तात्पर्य यह है कि सत्
प्रतिक्षण परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। उसकी जीव और अजीव तत्वों में से अजीव तत्व के श्रा
पूर्व व्यय और उत्तर उत्पाद की धारा अनादि १.धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशस्ति
अनन्त है, कभी विच्छिन्न नहीं होती है। उत्पादकाय ४. पुद्गलास्तिकाय और ५. काल यह पाँच
व्यय ध्रौव्य द्रव्य का स्वभाव है, मौलिक धर्म है कि भेद हैं। जीव का कोई भेद नहीं है । इनके लक्षण
उसे प्रतिक्षण परिणमन करते रहना चाहिए और इस प्रकार हैं
मूल स्वभाव को न छोड़कर परिणत होते रहना १. धर्मास्तिकाय-यह जीव और पुद्गलों की चाहिए। मगर ये परिणमन सदृश, विसदृश एक-13 गतिक्रिया में सहायक द्रव्य हैं।
दूसरे के निमित्त से भी और स्वतः भी होते रहते २. अधर्मास्तिकाय-जीव और पुदगलों की हैं। परिवर्तन कितना भी हो जाये किन्तु द्रव्य की स्थिति में सहयोगी कारण रूप द्रव्य ।
सत्ता कभी नष्ट नहीं होती है । अनन्त प्रयत्न करने ३. आकाशस्तिकाय-सभी पदार्थों को आश्रय,
पर भी द्रव्य के एक भी अंश को नष्ट नहीं किया
जा सकता है। आधार पर देने रूप गुण वाला द्रव्य ।
प्रत्येक द्रव्य में अपनी गुणात्मक स्थिति के ४. पुद्गलास्तिकाय-जिसमें रूप, रस, गंध, कारण ध्रुवता है और पर्यायरूपता के कारण उसमें वर्ण पाये जाएँ, वह पुद्गल द्रव्य हैं।
उत्पत्ति विनाश रूप अवस्थायें हैं । इस नियम का ५. काल-समस्त द्रव्यों के वर्तना, परिणमन कोई अपवाद नहीं है । गुण त्रिकालवर्ती सहभावी आदि के सामान्य कारण को काल कहते हैं।
हैं और पर्यायें एक समयवर्ती क्रमभावी हैं। प्रत्येक |
द्रव्य अपने अनेक सहभावी गुणों का आधार है। ६. जीवास्तिकाय-जिसमें चेतना शक्ति हो।
कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन दर्शन का मत इन्द्रिय, बल, आयु एवं श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों से OL जो जीता है, वह जीव है।
सत्-असत् कार्यवादी है। इसका कारण यह है कि
कि प्रत्येक पदार्थ में मूलभूत द्रव्य योग्यता के होने __ इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच पर भी कुछ तत्पर्याय योग्यतायें भी होती हैं । प्रत्येक द्रव्य बहुप्रदेशी होकर अस्तित्व वाले होने से अस्ति- द्रव्य की अपनी क्रमिक अवस्थाओं में अमुक उत्तर २६८
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन कि साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ x
hi
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पर्याय का उत्पन्न होना केवल द्रव्य योग्यता पर स्याद्वाद से भी । स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधा- II निर्भर नहीं है। किन्तु कारणभूत पर्याय की तत्प- नता है और अनेकान्तवाद में अनेकान्त की । परन्तु र्याय योग्यता पर निर्भर है। प्रत्येक द्रव्य के प्रति दोनों का आशय समान ही है कि स्यावाद जिस समय स्वभावतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से परि- वस्तु का कथन करता है, वह अनेकान्तात्मक, अनेक णामी होने के कारण सब व्यवस्थायें सदसत् धर्मात्मक है । और स्याद्वाद द्वारा जिस वस्तु का कार्यवाद के आधार से व्यवस्थित होती हैं । क्योंकि कथन किया जा रहा है, वह वस्तु अनेकान्तात्मक, विकसित कार्य अपने कारण में कार्य आकार से अनेक धर्मात्मक है, इसका बोध अनेकान्तवाद द्वारा 0 असत् होकर भी योग्यता या शक्ति रूप से सत् हैं। होता है। यदि कारण द्रव्य में यह शक्ति न हो तो उससे वह दसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अनेकान्तकार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता है । जैन दर्शन के वादपर्वक स्यादवाद होता है। अनेकान्त वाच्य है अनुसार यह लोक-व्यवस्था व द्रव्य-व्यवस्था का और स्यादवाद उसका वाचक । स्यादवाद कथन र रूप है। कोई ईश्वर आदि इसका निर्माता या की निर्दोष प्रणाली है और अनेकान्तवाद निश्चित ७ नियामक नहीं है।
वस्तु स्वरूप का बोधक है। यह जैन दर्शन की म ये जीवादि द्रव्य अनेकान्तात्मक होने से प्रमेय- चिन्तन प्रणाली की संक्षिप्त रूप-रेखा जानना बनते हैं। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर जैन दर्शन चाहिये। ने अपने चिन्तन, मनन व कथन को स्पष्ट करने के बौद्ध दर्शन-इसे सुगतदर्शन भी कहते हैं । १. ATHA लिए स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । प्रमेय- सौत्रान्तिक, २. वैभाषिक, ३. माध्यमिक ४. योगाभूत पदार्थ के एक-एक अंश में नयों की प्रवृत्ति होती चार-ये बौद्धों के चार भेद है। है तथा समग्र वस्तु का निरूपण प्रमाण द्वारा किया ।
१. सौत्रान्तिक बुद्ध के सूत्रों को अधिक महत्व ) जाता है।
देते हैं। ये बाह्य जगत् के अस्तित्व को मानते हैं स्याद्वाद का अर्थ है-विभिन्न दृष्टिकोणों का और बाद्य व अन्तः के भेद से सब पदार्थों को दो 27 तटस्थ बुद्धि व दृष्टि से समन्वय करना । स्याद्वाद विभागों में विभक्त करते हैं। बाह्य पदार्थ भौतिक
में स्यात् शब्द का अर्थ एक अपेक्षा, अपेक्षाविशेष, रूप और आन्तर चित-चैत्य रूप हैं। इनके मता* कथंचित् अर्थ का द्योतक हैं और वाद का अर्थ है नुसार पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्मा स्वतन्त्र
कथन करना अर्थात अपेक्षाविशेष से पदार्थ में पदार्थ नहीं है। पांचों स्कन्ध (विज्ञान, वेदना, संज्ञा, । विद्यमान अन्य अपेक्षाओं का निराकरण न करते संस्कार, रूप) ही परलोक जाते हैं । अतीत्, अना
हए भिन्न-भिन्न विचारों का एकीकरण करना। गत्, सहेतुक, विनाश, आकाश और पुद्गल (नित्य, इसीलिये स्याद्वाद को पद्धति का आग्रह नहीं होता व्यापक आत्मा) ये संज्ञामात्र, प्रतिज्ञामात्र, संवृतिहै, किन्तु सत्य प्राप्ति का आग्रह है, जहाँ भी सत्य मात्र और व्यवहार मात्र हैं। तदुत्पत्ति तदाकारता है, उसे ग्रहण करना है।
से पदार्थों का ज्ञान होता है और वह प्रत्यक्ष से न A जैनाचार्यों ने पदार्थ निरूपण के प्रसंग में स्याद्- होकर अन्यथा उपपत्ति रूप अनुमान से होता है।
वाद और अनेकान्तवाद इन दोनों शब्दों का प्रयोग अन्यापोह (अन्य व्यावृत्ति) ही शब्द का अर्थ है। एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये किया है। नैरात्म्य भावना से जिस समय ज्ञान संज्ञान का उसके पीछे हेतु यह है कि वस्तु की अनेकान्तात्मकता उच्छेद हो जाता है, उस समय निर्वाण होता है। अनेकान्त शब्द से भी अभिव्यक्त होती है और २. वैभाषिक अभिकर्म की टीका विभाषा तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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Cil को सबसे अधिक महत्व देते हैं । भूत, भविष्य और आत्मा के सम्बन्ध में बौद्धदर्शन की चार मान्य
वर्तमान को अस्तिरूप मानते हैं। ज्ञान-ज्ञ य दोनों तायें हैं
वास्तविक हैं । बाह्य पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार १. पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्मा कोई 6 करते हैं । प्रत्येक पदार्थ, उत्पत्ति, स्थिति, जरा पृथक् पदार्थ नहीं है । और मरण इन चार क्षयों तक अवस्थित रहता है।
२. पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त आत्मा प्रथक् इसीलिए ये सर्वास्तिवादी कहलाते हैं ।
पदार्थ है। ३. माध्यमिक शून्यवादी अथवा नैरात्मक
३. आत्मा का अस्तित्व तो है, किन्तु उसे अस्ति वादी कहलाते है। इनका कथन है कि पदार्थ का
और नास्ति दोनों नहीं कह सकते हैं। निरोध, उत्पाद, उच्छेद नहीं होता है, न गमन व आगमन होता है । अतः संपूर्ण धर्म माया के समान ४. आत्मा है या नहीं, यह कहना असंभव है। होने से निस्स्वभाव हैं। जो जिसका स्वभाव है, बौद्धदर्शन में प्रमाण और प्रमाण का फल भिन्न
वह उससे कभी अलग नहीं होता है, और अन्य की नहीं है । क्योंकि पदार्थों को जानने के सिवाय GAIB अपेक्षा नहीं रखता । दृश्यमान सभी पदार्थ अपनी- प्रमाण का कोई दूसरा फल नहीं कहा जा सकता है
अपनी हेतु-प्रत्यय सामग्री से उत्पन्न होते हैं । संपूर्ण है। इसलिए प्रमाण और उसके फल को सर्वथा पदार्थ परस्पर सापेक्ष हैं। कोई भी पदार्थ सर्वथा अभिन्न मानना चाहिए। निरपेक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता है । जो पदार्थ भाव
। प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। प्रत्येक वस्तु अपने या अभाव रूप से हमें प्रतीत होते हैं, वे केवल - संवृत्ति अथवा लोक सत्य की दृष्टि से प्रतीत होते
उत्पन्न होने के दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाती है।
___ यदि पदार्थों का स्वभाव नष्ट होना न माना जाए हैं । परमार्थ सत्य की अपेक्षा से निर्वाण ही सत्य
तो घड़े और लाठी का संघर्ष होने पर घड़े का नाश
र है । यह परमार्थ सत्य बुद्धि के अगोचर, अनभि
__नहीं होना चाहिये । अवयवों को छोड़कर अबयवी लाप्य अनक्षर है। अभिधेय-अभिधान से रहित है,
__ कोई भिन्न वस्तु नहीं है। किन्तु भ्रम के कारण फिर भी संसार के प्राणियों को निर्वाण का मार्ग
अवयव ही अवयवी रूप प्रतीत होते हैं। बताने के लिए संवृत्ति सत्य का उपयोग करना पड़ता है।
विशेष को छोड़कर सामान्य कोई वस्तु नहीं | ४. योगाचार को विज्ञानवादी भी कहते हैं। है । क्षणिक पदार्थों का ज्ञान उनके असाधारण रूप इसके मत से भी सभी पदार्थ निस्स्वभाव है। से ही होता है । इसलिए सम्पूर्ण पदार्थ स्वलक्षण विज्ञान को छोड़कर बाह्य पदार्थ कोई वस्तु नहीं। (विशेष रूप) है। अनादि वासना के कारण पदार्थों का एकत्व, अन्यत्व यह बौद्धदर्शन के चिन्तन की सामान्य रूपरेखा उभयत्व और अनुभयत्व रूप ज्ञान होता है। के। वास्तव में तो समस्त भाव स्वप्नज्ञान, माया और
सांख्यदर्शन-शुद्ध आत्मा के तत्वज्ञान को गंधर्व नगर के समान असत् हैं। परमार्थ सत्य से
अथवा सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन करने वाले अथवा स्वप्रकाशक विज्ञान ही सत्य है। दृश्यमान जगत्
प्रकृति पुरुष आदि पच्चीस तत्वों का वर्णन करने EV) विज्ञान का ही परिणाम है और संवृत्तिसत्य से ही
वाले शास्त्र को सांख्यदर्शन कहते हैं। दृष्टिगोचर होता है । चित्त वासना का मूल कारण है। चित्त में सम्पूर्ण धर्म कार्य रूप से उप- सांख्य वेदों व यज्ञ-यागादि को नहीं मानते हैं। निबद्ध होते हैं।
तत्वज्ञान और अहिंसा पर अधिक भार देते हैं।
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आत्मबहुत्ववाद और परिणामवाद को मानते हैं ! प्रकृति आदि पच्चीस तत्वों का ज्ञान होने से मुक्ति हो सकती है । प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण हैं ।
सांख्य और योग ये दोनों प्रायः समानतंत्रीय हैं परन्तु कतिपय भिन्नता भी हैं । सांख्य निरीश्वर सांख्य और योग सेश्वर सांख्य कहलाते हैं । इसका आशय यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है, किन्तु एक पुरुष विशेष को ईश्वर माना है । यह पुरुष विशेष सदा क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासना से अस्पृष्ट रहता है । सांख्य असत् की उत्पत्ति और सत् का नाश नहीं मानते । चेतनत्व आदि की अपेक्षा सम्पूर्ण आत्माएँ समान हैं तथा देह, इन्द्रिय, मन और शब्द में, स्पर्श आदि के विषयों में और देह आदि के कारणों में विशेषता होती है। योग सम्पूर्ण सृष्टि को पुरुष के कर्म आदि द्वारा मानते हैं । दोष और प्रवृत्ति को कर्मों का कारण बताते हैं ।
सांख्यदर्शन तत्वज्ञान पर अधिक भार देता हुआ तत्वों की खोज करता है और तत्वों के ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार करता है। योगदर्शन यम, नियम आदि योग की अष्टांगी प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन कर योग की सक्रियात्मक प्रक्रियाओं के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध होने से मोक्ष की सिद्धि मानता है ।
सामान्य से योग के दो भेद हैं- राजयोग और हठयोग | पतंजलि ऋषि के योग को राजयोग तथा प्राणायाम आदि से परमात्मा के साक्षात्कार करने को हठयोग कहते हैं । ज्ञान, कर्म और भक्ति ये योग के तीन भेद हैं तथा योगतत्व उपनिषद् में मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग यह चार भेद किये हैं ।
वैशेषिक दर्शन - इस दर्शन का मूल ग्रन्थ वैशेषिक सूत्र है और आद्य प्रणेता कणाद ऋषि माने
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
जाते हैं । वैशेषिक, इस नामकरण के सम्बन्ध में मान्यता है कि इसमें आत्मा और अनात्मा के विशेष की ओर विशेष ध्यान दिया गया है और परमाणुवाद का विशेष रूप से वर्णन किया है ।
वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह पदार्थों और प्रत्यक्ष व अनुमान इन दो प्रमाणों को स्वीकार करते हैं । कुछ विद्वानों ने अभाव को सातवाँ पदार्थ स्वीकार किया है । ये अभाव को तुच्छरूप नहीं मानते हैं ।
वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का नाम नहीं है । परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि वैशेषिक दर्शन अनीश्वरवादी नहीं है, किन्तु ईश्वर के विषय में मौन रहने का कारण यह है कि वैशेषिक दर्शन का मुख्य ध्येय आत्मा और अनात्मा की विशेषताओं का प्ररूपण करना रहा है ।
वैशेषिक मोक्ष को निश्रेय अथवा मोक्ष नाम से कहते हैं और शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध छूट जाने पर मोक्ष मानते हैं । तथा बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार और द्वेष इन आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद होना मोक्ष का लक्षण है ।
वैशेषिक पीलुपाक के सिद्धान्त को मानते हैं ।
नैयायिक दर्शन -- इस दर्शन के मूलप्रवर्तक अक्षपाद गौतम कहे जाते हैं । न्याय सूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है | अतः इसे न्याय दर्शन भी कहा जाता है । न्याय और वैशेषिक ये दोनों दर्शन समान तंत्रीय माने जाते हैं । बहुत से विद्वानों ने इस न्यायदर्शन के सिद्धान्तों की व्याख्या करने के लिये वैशेषिक सिद्धान्तों का उपयोग किया है । फिर भी जो भिन्नतायें हैं, उनका यहाँ उल्लेख करते हैं ।
न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर जगत् का सृष्टि कर्ता और संहारक है, वह व्यापक, नित्य, एक और सर्वज्ञ है और इसकी बुद्धि शाश्वती रहती है ।
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ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के सम्बन्ध में मुख्य मार्ग के अनुयायी हैं। यज्ञ आदि के द्वारा देवताओं तीन युक्तियां हैं
को प्रसन्न करके स्वर्ण प्राप्ति को ही अपना मुख्य १. कार्यकारण भाव मलक-जितने भी कार्य कार्य समझते हैं। वैदिकी हिंसा को हिंसा नहीं होते हैं वे किसी बुद्धिमानकर्ता की अपेक्षा रखते हैं,
AH मानते हैं। जैसे घट । पृथ्वी, पर्वत आदि भी कार्य हैं, इसलिये किन्तु अर्वाचीन मीमांसक पूर्वोक्त मान्यताओं
ये भी किसी कर्ता के बनाये हुए हैं। यह कर्ता के विरोधी हैं । ये वेदों के उत्तरवर्ती उपनिषदों के या ईश्वर ही है।
आधार पर से अपने सिद्धान्तों के प्ररूपक होने से ___ २. सत्तामूलक-यदि ईश्वर की सत्ता नहीं।
ही उत्तरमीमांसक वेदान्ती या ज्ञानमीमांसक कहलाते होती तो हमारे हृदय में ईश्वर के अस्तित्व की हैं। इनके भी प्रमुख दो भेद हैं-भाट्ट (कुमारिल भावना नहीं उपजती।
भट्ट) मीमांसक और प्राभाकर (प्रभाकर) मीमां
सक । वेदान्ती मात्र अद्वत ब्रह्म को मानते हैं । ३. प्रयोजनमूलक-हमें सृष्टि में एक अद्भुत
भाट्ट प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। यह व्यवस्था और ,
__ अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों को और इसका सामंजस्य केवल परमाणु आदि के संयोग
प्राभाकर अभाव को प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य मान कर का फल नहीं, इसलिये अनुमान होता है कि कोई
अर्धापत्ति पर्यन्त पाँच ही प्रमाण स्वीकार करते हैं। ऐसी शक्तिशाली महान शक्ति अवश्य है, जिसने इस सृष्टि की रचना की है।
पूर्वमीमांसकों का मत है कि वेद ही प्रमाण
और अपौरुषेय हैं क्योंकि कर्तव्य रूप धर्म अतीनैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन,
न्द्रिय हैं, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं जाना जा दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प
सकता है। धर्म का ज्ञान वेद वाक्यों की प्रेरणा वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान
(मोदना) से ही होता है। उपनिषद भी वेद वाक्यों के इन सोलह तत्वों के ज्ञान से दुःख का नाश होने पर
समर्थक हैं । अतः वेदों को ही प्रमाण मानना चाहिए मुक्ति मानते हैं और मोक्ष के लिए अपवर्ग शब्द
" श०५ तथा वेदों का कोई कर्ता प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से । का प्रयोग करते हैं।
सिद्ध नहीं होता है। जिन शास्त्रों का कोई कर्ता ) नैयायिक दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान देखा जाता है, उनको प्रमाण नहीं कहा जा सकता और आगम (शब्द) इन चार प्रमाणों को माना है। है। इसलिए अपौरुषेय होने के कारण वेद ही आगम के रूप में वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार प्रमाण हैं, वेद नित्य हैं, अबाधित हैं, और धर्म के किया है। अर्थापत्ति, संभव और एतिह्य आदि का प्रतिपादक होने से ज्ञान के साधन में तथा अपौरुप्रत्यक्ष, अनुमान आदि उक्त चार प्रमाणों अन्तर्भाव षेय होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
किया है । नैयायिक दर्शन पिठरपाक के सिद्धान्त वेद शब्दात्मक हैं, इसलिए जैसे वेद नित्य और C को मानता है।
अपौरुषेय हैं, वैसे ही शब्द भी नित्य व सर्वव्यापक मीमांसादर्शन-इसके आद्य प्रस्तावक जैमिनी है। शब्द को नित्य मानने का कारण यह है कि ऋषि माने जाने से इसे जैमिनीय दर्शन भी कहते एक स्थान पर प्रयुक्त गकार आदि वर्गों का उसी है । यह दर्शन उपनिषदों के पूर्ववर्ती वेद को प्रमाण रूप में सर्वत्र ज्ञान होता है तथा एक शब्द का एक मानता है । यह मान्यता प्राचीन है। इसलिये इस बार संकेत ग्रहण कर लेने पर कालान्तर में भी
मान्यता वाले पूर्वमीमांसक कहलाते हैं। ये धूम- उसी संकेत से शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। 5.२७२
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__ ईश्वर को सृष्टि व संहार कर्ता न मानने के न्तिक रूप से नाश होने को मोक्ष कहते हैं। जिसका बारे में मीमांसकों का मन्तव्य है कि अपर्व ही यज्ञ समय शम. दम, ब्रह्मचर्य आदि आदि का फल देने वाला है । अतः ईश्वर को जगत् होने से देह का अभाव हो जाता है, उस समय का कर्ता नहीं माना जा सकता है। वेदों को बनाने मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था के लिए भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, वे तो आनन्द रूप नहीं है, क्योंकि निर्गुण आत्मा में अपौरुषेय होने से स्वतः प्रमाण है।
आनन्द नहीं रह सकता है। मीमांसा दर्शन में पहले नहीं जाने हुए पदार्थों कुमारिल के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति के जानने को प्रमाण का लक्षण माना है, तथा की अवस्था ही मोक्ष है। कुमारिल भी मोक्ष को 22 स्मति ज्ञान के अतिरिक्त सम्पूर्ण ज्ञान स्वतः प्रमाण आनन्द रूप नहीं मानते हैं। है। क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति के समय ही हमें
यह मीमांसा के चिन्तन की रूपरेखा है । पदार्थों का ज्ञान (ज्ञप्ति) होता है। अतएव ज्ञान अपनी उत्पत्ति में और पदार्थों के प्रकाश करने में उपसंहार रूप में यह जानना चाहिए उपयुक्त किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है।
समग्र कथन भारतीय दर्शनों के चिन्तन-सिन्धु का 12 मीमांसा दर्शन में आत्मा के अस्तित्व को माना
बिन्दु और इस बिन्दु का भी शतांश भाग जैसा है । || है तथा उसे शरीर, इन्द्रिय और बुद्धि से भिन्न मान
पाठकगण इस अंश को पढ़कर समग्र दर्शन साहित्य
का अध्ययन करने की ओर प्रयत्नशील हों यही कर आत्मबहत्ववाद के सिद्धान्त को स्वीकार
अपेक्षा है। क्योंकि यहाँ बहुत ही आवश्यक अंश किया गया है। कुमारिल ने आत्मा को कर्ता, भोक्ता, ज्ञान शक्ति वाला, नित्य, विभु, परिणामी
" का वर्णन नहीं भी किया जा सका है। किन्तु आर अहंप्रत्यय का विषय माना है। प्रभाकर ने सुविधानुसार विस्तार से भारतीय दर्शनों के आत्मा को कर्ता, भोक्ता और विभ स्वीकार करने चिन्तन को प्रस्तुत करने की आकांक्षा है। भी आत्मा में परिवर्तन नहीं माना है, इनके मत से इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं आत्मा ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय हैं । ज्ञाता और कि प्रत्येक दर्शन के चिन्तन की धारा अपनी-अपनी ज्ञय एक नहीं हो सकते हैं, इसलिए आत्मा कभी है । परन्तु देखा जाय तो सत्य एक है, परन्तु प्रत्येक स्वसंवेदन का विषय नहीं हो सकती है। यदि दार्शनिक भिन्न-भिन्न देश और काल की परिस्थिति स्वसंवेदक माना जाये तो गाढ़ निद्रा में भी ज्ञान के अनुसार सत्य के अंश मात्र को ग्रहण करता है। मानना चाहिए।
परन्तु ध्येय सबका एक है-पूर्ण सत्य की उपलब्धि । मीमांसा दर्शन में मोक्ष पुरुषार्थ की मान्यता
अध्यात्मयोगी आनन्दधन ने इसी मन्तव्य को सरल
सुगम शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-- 32| अर्वाचीन आचार्यों की देन है। प्राचीन आचार्यों ने धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को मानकर
षट दरसन जिन अंग भणीजे, धर्म को ही मुख्य पुरुषार्थ स्वीकार किया है। वे
न्याय षडंग जो साधे रे। धर्म को सम्पूर्ण सुखों का कारण मानकर स्वर्ग की
नमि जिनवरना चरण उपासक, प्राप्ति करना ही अन्तिम ध्येय समझते थे।
षट्दर्शन आराधे रे ॥ __ प्रभाकर संसार के कारण भूतकालीन धर्म और अधर्म के नाश होने पर हमारे शरीर के आत्य
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8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOOR HD
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जीने के दो तरीके हैं-अंगार और राख ।
तुम्हें जीना है तो अन्तरंग की उष्मा को बनाये रखो, अंगार की तरह तेजस्वी और प्रकाशमान बनकर जीओ ! राख की तरह निस्तेज, रूक्ष और मलिन बनकर नहीं !
___ जीवन एक दर्पण है, दर्पण के सामने जैसा बिम्ब आता है, उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में अवश्य पड़ता है, जब आप दूसरों के दोषों का दर्शन करेंगे, चिन्तन और स्मरण करेंगे तो उनका प्रतिबिम्ब आपके मनोरूप दर्पण पर अवश्य चित्रित होता रहेगा। प्रकारान्तर से वे ही दोष चुपचाप आपके जीवन में अंकुरित हो जायेंगे।
इसीलिए भगवान महावीर का यह अमरसूत्र हमें सर्वदा स्मरण रखना चाहिए-“संपिक्खए अप्पगमप्पएण" सदा अपने से अपना निरीक्षण करते रहना चाहिए । दृष्टि को मूदकर अन्तर्दृष्टि से देखना चाहिए । आत्मा का अनन्त सौन्दर्य दिखलाई पड़ेगा।
जीवन के चार स्तर हैंजो विकार व वासनाओं का दास है-वह पशु है ।
जो विकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है-वह मनुष्य है। जिसने विकारों पर यत्किंचित् विजय प्राप्त करली-वह देव है ।
जो सम्पूर्ण विकारों पर विजय प्राप्त कर चुका-वह देवाधिदेव है।
-उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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॥४॥
इन शोध निबन्धों में धर्म की वैज्ञानिक दृष्टि और जीवन स्पर्शी भूमिका प्रकट होती है तो विज्ञान के साथ धर्म का समेल करने वाली अधुनातम प्रशा का चिन्तन भी स्फुरित है।
संस्कृति-हमारी वह विराट अमूल्य निधि है, जो चक्रवर्ती की मव निधियों की भांति समग्न परम्परा, इतिहास, चिन्तनबोध, चारित्रिक गुण, शिक्षा, संस्कार, व्यवहार नीति आदि सर्वागीण मानवीय बिकास बोर बौद्धिक प्रगति को अभिव्यंजना देती है।
जैन संस्कृति, बमण संस्कृति के रूप में हिंसा, अनेकांत, सर्वोदय विचार, अध्यात्म प्रधान, साहित्यिक अभिरुचि, नैतिक उन्नयन, राजनीति पर धर्म नीति का वर्चस्व आदि बहुआयामों को उद्घाटित करने वाली संस्कृति है। अपने-अपने विषयों के विशेषज्ञ विद्वान, विचारक, शोध छात्र बादि द्वारा लिखित ये गवेषणा प्रधान निबन्ध पाठकों के लिए ज्ञानवर्दक एवं विचारो. तेजक मननीय सामग्री प्रस्तुत करेंगे।
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भारतीय जन जीवन में सांस्कृतिक परम्परा का विशेष . स्थान है। वैसे तो भारतवर्ष में अनेक संस्कृतियाँ प्रचलित हैं किन्तु
संस्कृति की विविधता होते हुए उनमें भारतीयत्व की गहरी छाप लगी है, अतः भारतीयता के नाते समस्त संस्कृतियाँ एक हैं और उनका एकरूपत्व निहित है भारतीय संस्कृति में । अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति शब्द का उच्चारण करने से भारत में स्थित समस्त संस्कृतियाँ उसमें अन्तर्भूत हो जाती हैं। फिर भी प्रत्येक संस्कृति का अपना-अपना पृथक-पृथक अस्तित्व एवं महत्व है। भारत की सांस्कृतिक परम्परा जो समय के उतार-चढाव में से गुजरती हई अपने १ लम्बे मार्ग में भीषण आघातों और कठिनाइयों को झेलती आई है किसी एक जाति, एक सम्प्रदाय, एक विचारधारा की उपज नहीं है, अपितु यह तो अनेक जातियों, अनेक सम्प्रदायों और अनेक विचारधाराओं की उपज है जिनका सम्मेलन भारत की पवित्र धरा पर हुआ है, जिनका इतिहास यहाँ की विविध अनुभूतियों, लोकोक्तियों और पौराणिक कथाओं में छिपा पड़ा है और जिनके अवशेष यहाँ के प्राचीन
जनपदों, प्राचीन पुर और प्राचीन नगरों के खण्डहरों में दबे पड़े हैं। । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त अवशेष इसके साक्षी हैं।
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी
श्रम ण संस्कृति
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यह एक आश्चर्यजनक किन्तु निविवाद तथ्य है कि विचारधाराओं की विविधता होते हुए भी भारतीय संस्कृति में अद्भुत एकरूपता है।
यही कारण है कि विदेशियों के विभिन्न आक्रमणों, आघातों, विनाशहै। लीलाओं और अत्याचारों के बावजूद आज भी उसमें वही स्थिरता
और नूतनता विद्यमान है जो पूर्वकाल में थी। यों तो संसार के प्रायः सभी बड़े देशों ने बड़ी-बड़ी सभ्यताओं और संस्कृतियों को जन्म दिया है। बेबीलोन और फिलस्तीन, मिश्र और चीन, रोम और यूनानी सभी । सभ्यताओं ने अपनी कृतियों से मानवीय गौरव को बढ़ाया है, किन्तु इनमें से किसी को भी वह स्थिरता प्राप्त नहीं हुई जो भारतीय संस्कृति को प्राप्त हुई है। ये सभी संस्कृतियाँ संसार में उषा की भाँति आयीं और संध्या की भाँति चली गयीं किन्तु इस धूप और छाया के माहोल में तथा आंधी और तूफान के झंझावातों में भी अडिग भारतीय संस्कृति सुस्थिर बनी हुई है। यही कारण है कि आज भी विश्व में भारतीय संस्कृति को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसके अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख है भारतीय मनीषियों, महर्षियों और योगियों की चिंतनधारा, प्रबुद्ध विचारकों, आचार्यों, उपाध्यायों और विद्वज्जनों के गम्भीर अनुभवों की आधारशिला तथा समाज के सभी
--आचार्य राजकुमार जैन
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शाा वर्गों की विविधात्मक परम्पराएँ। इन सभी कारणों आरम्भ से ही भारतीय संस्कृति के मूल में ADS
के मूल में वह उच्च आध्यात्मिक आदर्श, जो मानव समानांतर दो विचारधाराएँ प्रवाहित होती रही हैं- 12 2 को वस्तुतः मानव बनने की प्रेरणा देता है और १. वैदिक विचारधारा और २. श्रमण विचारधारा। हि अपने वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक जहाँ श्रमण विचारधारा ने भारतवासियों को
जीवन को समुन्नत करने के लिए सतत् रूप से प्रेरित आंतिरक शुद्धि और सुख-शांति का मार्ग बतलाया करता है।
वहाँ ब्राह्मणों ने बाह्य सुख-शांति और बाह्य शुद्धि विचारों की विविधता, दृष्टिकोण की भिन्नता को विशेष महत्व दिया। श्रमणों ने जहाँ लोगों को IDS तथा मान्यता व परम्पराओं की अनेकरूपता के निर्थ यस एवं मोक्ष का मार्ग बतलाया, ब्राह्मणों ने - कारण भारत ने समय-समय पर अनेक संस्कृतियों वहाँ लौकिक अभ्युदय के लिये विभिन्न उपाय अपनाको जन्म दिया है जो एक ही वृक्ष के नीचे अंकुरित, कर लोगों का मार्गदर्शन किया। श्रमण विचारधारा पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। यही कारण है कि ने व्यक्तिगत रूप से आत्मकल्याण की भावना से 8
संस्कृतियों की विविधता होते हुए भी उनमें आश्चर्य- लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 'जिओ और न 4 जनक एकरूपता है। यद्यपि सभी संस्कृतियों में और जीने दो' के व्यावहारिक रूप में विश्व को
लक्ष्य रूप में मानवता का हित सन्निहित है और यह अहिंसा का सन्देश देकर प्राणिमात्र के प्रति समता सर्वोपरि है, तथापि सामान्यतः भारतवर्ष में प्रच- भाव का अपूर्व आदर्श जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत लित समस्त संस्कृतियों का स्वरूप-विभाजन संक्षेप किया। में दो रूप से किया जा सकता है-सामाजिक और दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ग ने वर्ण व्यवस्था के आध्यात्मिक।
द्वारा न केवल समाज में फैली अव्यवस्था अपितु . भारतीय संस्कृति का सामाजिक स्वरूप विभिन्न सामाजिक विरोधों को दूर कर धामिक काल वह है जो विविध कलाओं, विज्ञान, अनुसन्धान मान्यताओं एवं क्रिया-कलापों को दृढ़मूल किया। एवं आविष्कारों से निरन्तर परिपोषित एवं
श्रमण वर्ग सदा अपनी आत्मा का निरीक्षण करने के होता रहता है। संस्कृति का इससे भिन्न अर्थात् कारण अन्तर्दृष्टि बना रहा जबकि ब्राह्मण विचार- ११ आध्यात्मिक स्वरूप वह है जो प्राणिमात्र के कल्याण धारा ने शरीर के संरक्षण को विशेष महत्व दिया। की महान भावना से परिपूर्ण तथा जीवन की सार्थ- जहाँ श्रमण इसे आदर्श देते रहे वहाँ ब्राह्मण इसे ||५ कता के लिये विविध धार्मिक अनुष्ठानों से युक्त है। विधान के द्वारा पूर्ण करते रहे । जहाँ श्रमण विचार
संस्कृति के इस आध्यात्मिक पक्ष का साकार रूप है प्रवाह वास्तविकता को सिंचित करता रहा वहाँ || श्रमणसंस्कृति, जिममें इहलौकिक, भौतिक व ब्राह्मण समुदाय व्यावहारिक कार्यकलापों से जीवन A
क्षणिक सुखों के लिये न कोई स्थान है और न कोई को पूर्ण बनाते रहे। इस आत्मा और शरीर, आदर्श इत्र
मान्यता। श्रमणसंस्कृति का समग्र स्वरूप पूर्णतः और विधान, निश्चय और व्यवहार के अभूतपूर्व | हा अहिंसात्मक, अपरिग्रहात्मक व अनेकान्तात्मक है सम्मेलन से ही भारत की सर्वलोक कल्याणकारी IN
जिससे जगत में हिंसा का तांडव बन्द होकर सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माण हुआ है और इसी के परिणाम| पापाचार निर्मूल हो, सामाजिक विषमता व अराज- स्वरूप इसे चिरंतन स्थिरता प्राप्त हुई है। किता दूर हो तथा विश्व में स्थायी सुख, शांति व
संस्कृति और श्रमण शब्द का अर्थ समता का साम्राज्य स्थापित हो । आसक्ति, परिग्रह, हिंसा और दुराग्रह के लिये इस संस्कृति में कोई व्याकरण के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है तु स्थान नहीं है।
संस्कार-सम्पन्नता । संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन K.
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की अ
जाती है अथवा कहना चाहिए कि संस्कार किए संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है, दूसरे रूप में NI जाने पर वस्तु अपने में निहित उत्कर्ष को अभिव्य- इसे जैन संस्कृति भी कहा जा सकता है । क्त करने का अवसर प्राप्त करती है, संस्कार किए
श्रमण संस्कृति अथवा जैन संस्कृति में मानवता ॐ जाने पर ही खनिज सुवर्ण शुद्ध स्वर्ण बनता है। के वे उच्च आदर्श, आध्यात्मिकता के वे गूढ़तम मनुष्य भी संस्कृति के द्वारा अपनी आत्मा और
रहस्यमय तत्व तथा व्यावहारिकता के वे अकृत्रिम शरीर का संस्कार परिष्कार कर अपने उच्चतम
- सिद्धान्त निहित हैं जो मानव मात्र को चिरन्तन सत्य ध्येय और संकल्पों को पूर्ण करने के लिए दिशा ।
ते व साक्षात्कार कराते हैं। मानवता के प्राप्त करता है। एक कलाकार अनगढ़ पाषाण में हित साधन में अग्रणी होने के कारण यह मानव छैनी और हथौड़े की सहायता से वीतराग प्रभु का संस्कृति भी कहलाती हैं। मुद्रा अंकित कर देता है। एक चित्रकार विविध रंगों और तूलिका की सहायता से केनवास पर श्रमण और श्रामण्य सुन्दर चित्र बना देता है। इसी प्रकार संस्कृति भी "श्रमणस्य भावः श्रामण्यम-अर्थात श्रमण मनुष्य के अंतस्थ सौन्दर्य को प्रकट कर देती है। के भाव को ही श्रामण्य कहते हैं, संसार के प्रति का यही मनुष्य के आचार-विचार को बनाती और मोह या ममत्वभाव का पूर्णतः त्याग अथवा संसार : संवारती है। ये आचार-विचार और व्यवहार से पूर्णतः संन्यास ग्रहण करना ही श्रामण्य कहलाता संस्कृति के मूल स्रोत के साथ संबद्ध होकर उसका है और इस प्रकार के श्रामण्य से युक्त पुरुष श्रमण परिचय देते हैं।
कहलाता है, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका
है कि निर्गन्थ जैन मुनि ही श्रमण होता है। श्रमण अतः जब हम संस्कृति का सम्बन्ध श्रमण सन्त के साथ करते हैं तो हमारे सामने श्रमण धर्म और
पंच महाव्रतों का पालक एवं समस्त सांसारिक उसके आचार-विचार स्पष्ट हो उठते हैं। श्रमण शब्द
वृत्तियों का परित्यक्ता होता है । वह निष्कर्मभाव KY के अभिप्राय को स्पष्ट करने की दृष्टि से कहा गया
की साधना से पूर्ण एकाग्रचित्तपूर्वक आत्मचिन्तन है-"श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।"
में लीन रहता है, आडम्बरपूर्ण व्यावहारिकता एवं अर्थात्-जो स्वयं तपश्चरण करते हैं तथा क्लेश क्रिया-कलापों के लिए उसके जीवन में कोई स्थान को सहते हैं वे श्रमण कहलाते हैं, अतः श्रमण शब्द
नहीं रहता । सम्पूर्ण बाह्य जगत उसके लिए अन्धका सामान्य अर्थ है निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) मुनि और
काराच्छन्न हो जाता है किन्तु उसका अन्तःकरण A श्रमण संस्कृति का अर्थ हआ वह संस्कृति जिसका
आत्मज्योतिपुंज से आलोकित हो जाता है जिससे
वह संसार के समस्त भावों को अविच्छिन्न रूप से || सम्बन्ध निर्ग्रन्थ जैन मुनि से है तथा जिसके प्रस्तोता व प्रवर्तक निग्रन्थ जैन मनि हैं. और भी देख सकता है । विशुद्ध, परिपूर्ण एवं अव्याहत केवल
" ज्ञान उसमें सम्पूर्ण आत्मप्रदेश को आलोकित करता अधिक स्पष्ट रूप से इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-जिन आचार-विचार, आदर्शों और व्य
हुआ संसार की समस्त सीमाओं व बाधाओं को
लांघकर श्रमण को त्रिकालदर्शी बनाकर परम वहारों का आचरण व उपदेश निर्ग्रन्थ जैन मुनियों
उत्कृष्ट अर्हत् पद पर आसीन कर देता है । यही के द्वारा किया गया है, वह श्रमण संस्कृति
उसके श्रामण्य की चरम सीमा है। - भगवान ऋषभदेव प्रथम निम्रन्थ मुनि हैं और वे ही प्रथम श्रमण हैं, अतः उनके द्वारा आचरित श्रमण के जीवन में संयम एवं तपश्चरण के और उपदिष्ट जिन आचार-विचार, व्यवहार और आचरण का विशेष महत्व है, उसका संयमपूर्ण आदर्शों का प्रचार-प्रसार व प्रचलन हुआ वही जीवन उसे सांसारिक वृत्तियों की ओर अभिमुख ।
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होने से रोकता है और तपश्चरण उसकी कर्मनिर्जरा वेशपरिवर्तन को श्रमण परम्परा कब महत्व देती में सहायक होता है। संयम के बिना वह तपश्चरण है ? साधना के लिए मात्र बाह्य वेष ही पर्याप्त की ओर अभिमुख नहीं हो सकता और तपश्चरण नहीं है अपितु तदनुकूल विशिष्टाचरण भी अपेक्षित के बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति है। में उसका मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मसाधन का ध्येय अपने विशिष्टाचरण एवं त्याग भावना के अपूर्ण ही रह जाता है, अतः सुनिश्चित है कि संयम कारण ही श्रमण सदैव गृहस्थ की अपेक्षा उच्च धर्म तपश्चरण का अनुपूरक है। इस विषय में माना गया है, अतिचार रहित ब्रतों का पालन करना आचार्यों के अनुसार-"इच्छानिरोधो तपः"- ही उसका वैशिष्ट्य है, मनसा, वाचा और कर्मणा अर्थात्-इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता पांच महाव्रतों सहित सत्ताईस मूलगुणों तथा उत्तर
है, तप का यह लक्षण संयम और तप के पारस्परिक गुणों का पालन व अनुशीलन उसकी आत्मा की शुद्धि न सम्बन्ध को स्पष्ट करता है । क्योंकि इच्छाओं व निर्मलता के लिए नितान्त आवश्यक है, इससे ph (इन्द्रियजनित वासनाओं) का निरोध करना ही उसकी आत्मा निरन्तर सांसारिक कर्म बन्धन से
संयम है और उसके सानिध्य से विहित क्रियाविशेष मुक्त होकर मोक्षाभिमुख अग्रसर होता है । ही तपश्चरण है।
श्रमण और गृहस्थ का अन्तर स्पष्ट करते हुए संसार में समस्त इच्छाएँ और वासनाएँ इन्द्रि- कहा गया है-"वह पास भी नहीं है और दर भी यजनित होती है, इनकी अभिव्यक्ति सांसारिक व नहीं है, भोगी भी नहीं है और त्यागी भी नहीं है। भौतिक क्षणिक सुखों के लिए होती है। इन इच्छाओं जिसने भोग छोड़ा, किन्तु आसक्ति नहीं छोड़ी, अतः
एवं वासनाओं को रोककर संसार के प्रति विमुखता वह न भोगी है और न त्यागी है । भोगी इसलिए A इन्द्रियों को अपने अधीन करना तथा चित्तवृत्ति की नहीं है कि भोग नहीं भोगता और त्यागी इसलिए ला एकाग्रता ही संयमबोधक होती है। इस प्रकार के नहीं है कि वह आसक्ति (भोग) की भावना का
संयम का चरम विकास मनुष्य के मुनित्व जीवन में त्याग नहीं कर सका।" O ही संभावित है, अतः संयमपूर्ण मुनित्व जीवन ही "पराधीन होकर भोग का त्याग करने वाला श्रामण्य का द्योतक है।
त्यागी या श्रमण नहीं है, त्यागी या श्रमण वह ____श्रमण परम्परा के अनुसार आपेक्षिक दृष्टि से है जो स्वाधीन भावनापूर्वक भोग से दूर रहता - गृहस्थ को निम्न एवं श्रमण को उच्च स्थान प्राप्त है।"
- दशवकालिक २/२ है। किन्तु साधना के क्षेत्र में निम्नोच्च की कल्पना आत्म-साधना के पथ पर आरूढ़ होकर निरन्तर * को किंचित् मात्र भी प्रश्रय नहीं दिया गया है। पांच महाव्रतों का अखंड रूप से पालन करने वाला,
वहाँ संयम की ही प्रधानता है। इस विषय में उत्त- दस धर्मों का सतत् अनुचिन्तन, मनन और अनुशीलन ( राध्ययन में भगवान महावीर के निम्न वचन अनु- करने वाला, बाईस परीषहजय तथा रत्नत्रय को
करणीय एवं दृष्टव्य हैं-"अनेक गृहत्यागी भिक्षुओं धारण करने वाला, शुद्ध परिणामी, सरल स्वभावी,
की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम प्रधान है और अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार हेतु प्रयत्नशील ॐ उनकी अपेक्षा साधनाशील संयमी मुनियों का संयम तथा श्रमण धर्म को धारण करने वाला साधु ही
प्रधान है ।" इस प्रकार श्रमण संस्कृति में संयमपूर्ण श्रमण कहलाता है और निज स्वरूपाचरण में प्रमाद साधना को ही विशेष महत्व दिया गया है। श्रमण न होना उसका श्रामण्य है। श्रमण सदैव राग-द्वेष परम्परा के अनुसार मोहरहित व्यक्ति गाँव में भी आदि विकार भावों से दूर रहता है । ये ही विकार साधना कर सकता है, और अरण्य में भी। कोरे सांसारिक मोह और ममता के मूल कारण हैं । इन २७८
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विकार भावों से श्रमण की आत्मसाधना में बाधा संस्कृति के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा। उस
उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य से विचलित प्राचीन संस्कृति का मूलतत्व आत्मा था। इस आत्म-2 | हो जाता है, इसी प्रकार कोध-मान-माया-लोभ ये तत्व को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए उप
चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बन्धन में बांधने निषदों की रचना की गई व और आत्मा के सम्बन्ध १२ वाले मुख्य मनोविकार हैं । आत्मस्वरूपान्वेषी साधक में भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का आविष्कार किया गया,
श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, अतः यह निश्चित है कि आत्मा के सम्बन्ध में अन्य ताकि वह अपनी साधना से विचलित न हो सके। संस्कृतियाँ श्रमण संस्कृति से प्रभावित हैं । चंचल मन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण श्रमण संस्कृति और श्रमणत्व की प्राचीनता की नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है। आत्म- दृष्टि से कतिपय प्रमाणों पर दृष्टिपात करना आवसाधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए इस श्यक है, अतः कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैंप्रकार राग-द्वेष आदि विकार भाव, क्रोध आदि
भाव, काध आदि "नाभेः प्रियचिकीर्षयातदवरोधायने मरुदेव्या चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का धर्मान दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमण नामदमन तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है। षीणामर्ध्वमंथिना शुक्लया तनुमावततार ।" श्रमणसंस्कृति की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता
___-भागवत पुराण ५/३/२ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और ऐतिहासिकता अर्थात् महाराज नाभि का प्रिय करने की इच्छा के लिए काल गणना के अनुसार यद्यपि कोई काल से उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि इसकी सर्वा- श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रकट करने के लिए
धिक प्राचीनता निर्विवाद है। कहा तो यहाँ तक वषभदेव शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए। . ना जाता है कि यह संस्कृति अपने अक्षुण्ण स्वरूप के भागवतकार ने आद्य मनु स्वायम्भुव के प्रपोत्र का साथ अनादिकाल से सरित प्रवाह की भाँति भारत नाभि के पुत्र ऋषभ को निर्ग्रन्थ श्रमणों और
की वसुन्धरा पर प्रवाहित होती हुई मानव मात्र का ऊर्ध्वगामी मनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता , कल्याण करती आ रही है, फिर भी ऐतिहासिक माना है, ऋषभदेव ने ही श्रमणधर्म को प्रकट किया रूप से दृष्टिपात करने पर इस संस्कृति के आद्य था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमणमुनि बने । प्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव को मान सकते भागवत में यही उल्लेख निलता हैहैं। भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के आदि तीर्थंकर हैं
नवाभवन महाभागा मुनयो केसंसिनः । तथा वेदों व पुराणों द्वारा उनकी ऐतिहासिकता
श्रमणा वातरशना आत्मविद्या विशारदाः ।। सुविदित है । भगवान ऋषभदेव प्रथम श्रमण हैं। अतः श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक की दृष्टि से उनकी
अर्थात् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से नौ पुत्र जो प्राचीनता ही श्रमण संस्कृति की भी प्राचीनता
बड़े भाग्यवान, आत्मज्ञान में निपुण और परमार्थ | उतनी ही मानी जा सकती है। इसका एक पजल के अभिलाषी थे, वे श्रमण वातरशना मुनि हुए, वे IC प्रमाण यह है कि भारत के उत्तर पश्चिम से प्रविष्ट
अनशन आदि तप करते थे। हुए आर्यों के साथ जो संस्कृति आई उसके पूर्व भी यहाँ श्रमण शब्द से अभिप्राय है-"श्राम्यति । यदि यहाँ कोई संस्कृति थी तो वह श्रमण संस्कृति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो स्वयं
7 थी, बाहर से आए हुए आर्यों का अधिकार सप्तसिंधु तपश्चरण करते हैं वे श्रमण होते हैं । है। तक ही था, पश्चात वे आगे बढ़े तो उत्तर भारत “वातरशना ह वा ऋषयः श्रमण ऊर्ध्वमंथिनो म में अयोध्या, हस्तिनापुर, मगध, काशी की प्राचीन बभूवुः ।"
- तैत्तिरीयारण्यक २/७
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सायण-“वातरशनाख्याः ऋषयः श्रमणास्तप- होता है, उससे मुक्त होने के कारण वह अश्रमण 2 लो स्विनः ऊर्ध्वमंथिनः ऊर्ध्वरेतसः ।"
हो जाता है। श्रमण ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके जैन शास्त्रों में गुणस्थान चर्चा के अन्तर्गत जो ऊर्ध्वगमन करने वाले हुए ।
मुनि क्षपक श्रेणी आरोहण करता है उसके सम्बन्ध ___ सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाने पर जीव स्वभावतः में भी लगभग ऐसा ही वर्णन आता है। श्रेणी ऊर्ध्वगमन करता है और लोक के अन्त तक चला आरोहण करने वाला श्रमण मुनि पाप और पुण्य जाता है । जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का ही दोनों से रहित हो जाता है और कषाय तथा घातिहै और वह सदा इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। चतुष्क का नाश करके कैवल्य की प्राप्ति कर 2 किन्तु कर्मों का भार होने के कारण वह उतना ही लेता है। ऊर्ध्वगमन करता है जितना कर्मों का भार कम श्रमण प्रायः सतयुग में होते हैं ऐसी मान्यता रहता है, किन्तु जब कर्मों का भार बिलकुल हट भागवतकार की है, यथाजाता है और जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पादान् जनैधृतः । है तो अपने स्वभाव के अनुसार वह लोक के अन्त
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोपः ॥ तक ऊर्ध्वगमन करता है । यथा-"तदनन्तरमूज़
सन्तुष्टा: करुणा मंत्राः शान्ता वान्तास्तितिक्षवः । गच्छत्यालोकान्तात् ।" -तत्वार्थ सूत्र १०१५
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ।। जैन शास्त्रों में जहाँ पर भी मोक्ष का वर्णन
-भागवत १२/२/१८-१६ आया है वहाँ पर इसका विस्तार से कथन मिलता
श्री शुकदेवजी कहते हैं-हे राजन् ! कृतयुग में है। सम्भवतः श्रमण वात रशना मुनियों के लिए धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, दया, तप और ऊर्ध्वमयी, ऊर्ध्वरेता कहने में वैदिक ऋषियों दान । इस धर्म को उस समय के लोग निष्ठापूर्वक को जैन शास्त्र सम्मत ऊर्ध्वगमन ही अभीष्ट रहा धारण करते थे । सतयुग में मनुष्य सन्तुष्ट, करुणाहो।
शील, मित्रभाव रखने वाले, शान्त, उदार, सहन__ प्रस्तुत प्रसंग में बृहदारण्यकोपनिषत् का निम्न
शील, आत्मा में रमण करने वाले और समान र उद्धरण भी प्रमाण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण
दृष्टि वाले प्रायः श्रमणजन ही होते थे।
जैनाचार्य श्री जिनसेन ने आदिपुराण में कृत"श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वा
युग में ही ऋषभदेव का जन्म माना है। उस युग
का नामकरण ही ऋषभदेव के कारण हुआ और गतं पापेन ती! हि तदा सर्वान्छोकान् हृदयस्य भवति ।"
वह कृतयुग कहलाया। -वृहदा. ४/३/२२
युगादि ब्रह्मणा तेन यदित्थं स कृतोयुगः । __ श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ॥ जा हैं। उस समय यह पुरुष पुण्य से असम्बद्ध तथा
आषाढ़मासबहुलप्रतिपादि दिवसे कृती । पाप से भी असम्बद्ध होता है और हृदय के सम्पूर्ण कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ।। शोकों को पार कर लेता है।
-आदिपुराण १६/१८६-१६० ___ "श्रमणः परिव्राट् यत्कर्म निमित्तो भवति, स चूकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने | तेन विनिर्मुक्तत्वादश्रमणः"-शांकरभाष्य । इस प्रकार कर्मयुग का आरम्भ किया था, इसलिए ___ श्रमण अर्थात् जिस कर्म के कारण पुरुष परिव्राट् पुराण के जानने वाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते २८०
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हैं। कृतकृत्य भगवान ऋषभदेव आषाढ मास के हे आदरणीय अश्रमण आप श्रमणरहित, दूसरों कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ के द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, मृत्युकरके प्रजापति कहलाये।
वजित, रोगरहित, जरारहित और उत्क्षेपण गतिजैन मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने युक्त हो, किंच आप भेदक (भेदविज्ञानी) किन्तु कर्म की भाँति धर्म का भी उपदेश दिया और जगत दूसरों से भेदन न किये जा सकने वाले बलवान, में उसका प्रचलन किया। उस समय कृतयुग था तृष्णारहित और निर्मोह हो । जब लोगों की प्रवृत्ति धर्म की ओर अधिक थी। उपर्युक्त सूक्त का अभिप्राय यह है कि जिस भार जैन श्रमणमुनियों का सर्वत्र विहार था। यही बात चारित्र से मनुष्य श्रमण कहलाता है उससे मुक्त भागवतकार भी कहते हैं। भागवत के उपर्युक्त अर्थात् आत्मस्थ होने पर वह श्रमण कहलाता है, श्लोकों में प्रायशः शब्द विशेष उल्लेखनीय है । उसका शिथिलाचार रहित तथा मृत्यू, भय, बुढ़ापा, तृष्णा आशय यही है कि अधिकांश श्रमणों में ये गुण पाये और लोभ से रहित कोई भी श्रमण, तपस्वी अन्तजाते थे। प्रायः सभी श्रमणों का जीवन निष्पाप मुहर्त से अधिक काल तक आत्मध्यान के बिना था और उनके जीवन में अनाचार नहीं था। इस नहीं रह सकता. किंच श्रमविष्णवः (उत्क्षेपणावक्षेपप्रकार ऋषभदेव काल की जनता के आचार-विचारों णगत्युपेता) बार-बार ऊपर नीचे गुणस्थान में के सम्बन्ध में दोनों परम्परा एकमत हैं। चढ़ता उतरता रहता है । इसके अतिरिक्त निर्मोही,
ब्रह्मोपनिषद में भी परब्रह्मा का अनभव करने निस्पृह, दुखों और संशयों से रहित, इन सब में वाले की दशा का जो वर्णन आया है उससे भी बलवान होने से वह आदर योग्य और सबसे भिन्न पूर्वोक्त आशय की पुष्टि होती है, यथा
होता है। "श्रमणो न श्रमणस्तापसो न तापसः एकमेव वैदिक काल में श्रमण शब्द का अधिक महत्व । तत्परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।"
रहा है, वैयाकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही -ब्रह्मोपनिषद, पृ० १५१ किमी शब्द विशेष के लिए नियम बनाते थे, अन्यथा श्रमण शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल
नहीं। श्रमण शब्द के सम्बन्ध में व्याकरण ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इस कथा में भी वृहदारण्य- में विशेष नियम उपलब्ध होता है, इससे श्रमण कोपनिषद् की भाँति ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति का
शब्द का महत्व स्वतः सिद्ध होता है । सर्वप्रथम वर्णन किया गया है।
शाकटायन में ऐसा नियम बनाया गया है__तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमण अश्रुथिता
"कुमारः श्रमणादिना" -शाकटायन २/१/७८ अमृत्यवः । अनातुराः अजराः स्थामविष्णावः सपविमो अतृपिता अतृष्णजः ॥
श्रमण शब्द के साथ कुमार और कुमारी शब्द 10 -ऋग्वेद १०/८/६४/११ की सिद्धि विषयक यह सूत्र है, उस काल में कुमार | सायण-"अश्रमणाः श्रमणवर्जिताः अश्रुथिताः श्रमण ऐसे पद लोक प्रचलित थे। यह शब्द संज्ञा अन्यैरंशिथिलीकृताः अमृत्यवः अमारिताः अनातुराः उस तापसी के प्रचलित थी जो कुमारी अवस्था में अरोगाः अजराः जरारहिताः स्थमवय । किंच अप- श्रमणा (आर्यिका) बन जाती थी । श्रमणादि गणविष्णवः उत्क्षेपणवक्षेपणगत्युपेताः हे आवाणः पाठ के अन्तर्गत कुमार प्रवजिता, कुमार तापसी तृदिलाः अन्येषां भेदकाः अतृदिलासः स्वयमन्येना- जैसे विभिन्न शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस भिन्नाः सुपविसः सुबलाः अतृषिताः तृषारहिताः समय कुमारियाँ प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं, यह लोक अतृष्णजः निःस्पृहा भवय ।"
विश्रुत था। भगवान ऋषभदेव की ब्राह्मी और चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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5.
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सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही वस्तुतः ज्ञान और क्रिया का संयुक्त रूप ही श्रमणा पद ग्रहण किया था। विवाह के लिए समु- मोक्ष का हेतु है, जैसाकि कहा गया है-“ज्ञान
द्यत राजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर क्रियाभ्यां मोक्षः इति सर्वज्ञोपदेशः" - सूत्रार्थ HC । श्रमणा (आर्यिका) बन गई थीं । तीर्थकर नेमिनाथ, मुक्तावलि ४५ ।। पार्श्वनाथ और महावीर ने भी कुमार अवस्था में
ब्राह्मणा भुजते नित्यं नाथबन्तश्च भुजते । ही श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। स्वयं शाक्टायन भी
तापसा भुजते चापि श्रमणाचैव मंजते ।। श्रमण संघ के आचार्य थे। जैसा कि निम्न उद्धरण
-बाल्मीकि रामायण वा० ल से स्पष्ट है__"महाश्रमण संघाधिपतिर्यः शाक्टायनः" ।
यहाँ नित्यप्रति बहुत से ब्राह्मण, नाथवन्त, -शाकटायन व्याकरण चि० टीका १ तपस्वी और श्रमण भोजन करते हैं। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी का निम्न सूत्र भी
इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ दृष्टव्य है
रही-श्रमणसंस्कृति की अविच्छिन्न, परम्परा वैदिक "कुमारः श्रमणादिभिः"-अष्टाध्यायी २११/७०
काल में पर्याप्त विकसित तथा पूर्णता प्राप्त थी, "येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः
उस समय इसके अनुयायियों को संख्या भी अपेक्षा श्रमण ब्राह्मणम्" -पातजल महाभाष्य ३/४/8
दृष्टि से बहुत अधिक थी, वर्तमान में मोहन जोदड़ो पाणिनी के इस सूत्र का यह उदाहरण है, के उत्खनन से प्राप्त सांस्कृतिक अवशेषों में अनेक जिनका शाश्वत विरोध है यह सूत्र का अर्थ है। ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिससे
यहाँ जो विरोध शाश्वतिक बतलाया है वह किसी जैनधर्म और श्रमण संस्कृति की प्राचीनता म हेतु विशेष से उत्पन्न नहीं हुआ । शाश्वतिक विरोध निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है, अनेक ऐतिहासिक
सैद्धान्तिक ही हो सकता है । क्योंकि किसी निमित्त प्रमाणों से यह तथ्य सिद्ध है कि वैदिक युग में से होने वाला विरोध उस निमित्त के समाप्त होने व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिपर दूर हो जाता है। किन्तु महर्षि के शाश्वतिक निधित्व जैनधर्म ने किया । धर्म, दर्शन, संस्कृति, पद से यह सिद्ध होता है कि श्रमणों और ब्राह्मणों नीति, कला और शिल्प की दृष्टि से भारतीय इतिका कोई विरोध है जो शाश्वतिक है। इस आशय हास में जैनधर्म का विशेष योग रहा है। से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हए एकेश्वरवाद तथा जैनधर्म और श्रमण संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान से मुक्ति मानते जबकि श्रमण परम्परा अनेके- जहाँ तक प्रश्न है वह सर्वथा निर्मूल एवं अव्यावश्वर तथा अनेकान्त सिद्धांत के आधार पर हारिक है, क्योंकि दो वस्तुओं का पारस्परिक अनासक्ति, त्याग और कटोर तपश्चरण के सम्बन्ध केवल वहाँ होता है जहाँ दो वस्तुओं में द्वारा कर्मों की निर्जरापूर्वक मुक्ति को पृथकता या भिन्नता होती है, यहाँ श्रमण संस्कृति मानते हैं, उनके अनुसार सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान वस्तुतः जैनधर्म से भिन्न या पृथक् नहीं है, दोनों में और सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष की उपलब्धि शाब्दिक भिन्नता अवश्य है । दोनों अभिन्न और एक सम्भव है । इसके अतिरिक्त श्रमण विचारधारा के हैं। जैनधर्म के कारण श्रमण संस्कृति का आध्याअन्तर्गत ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व स्वीकार नहीं किया त्मिक पक्ष इतना समुज्ज्वल और लोक कल्याकारी गया है। श्रमण और ब्राह्मणों का यही सैद्धान्तिक हुआ है, यही कारण है कि यह संस्कृति जैन विरोध शाश्वतिक कहा जा सकता है ।
संस्कृति के नाम से भी व्यवहृत होती व जानी २८२
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम |
REMEONE
हट
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जाती है, जैनधर्म में श्रमण शब्द का व्यापक व्यव- अपने समाज में अपने निम्नोच्च एवं कलुषित भावों हार तथा श्रमणों के आचार-विचार के कारण ही के आधार पर कुछ इस प्रकार की प्रवृत्ति को प्रश्रय जैनधर्म के सांस्कृतिक स्वरूप ज्ञापन करने की दे रखा है जिसके कारण उसके आचरण एवं व्यवदृष्टि से लोक व्यवहार में उसका व्यवहार श्रमण हार से दूसरों में निर्भयता उत्पन्न नहीं हो पाती। संस्कृति के नाम से किया जाने लगा । निर्ग्रन्थ जैन यही कारण है कि सभी प्राणी अपने सजातीय साधु का आचरण करने वालों के लिए प्राचीनकाल अथवा विजातीय प्राणियों से सदा भयभीत एवं में श्रमण शब्द इतना अधिक प्रचलित और प्रसिद्धि शंकाशील बने रहते हैं। समाज की यह स्थिति हिंसाप्राप्त हुआ कि उसके आधार पर तत्सम्बन्धी पूर्ण वृत्ति या आचरण की परिचायक है । प्राणियों सांस्कृतिक परम्परा एवं विचारधारा को श्रमण को इस प्रकार की वृत्ति से मुक्त करना तथा उनमें | नाम से जाना जाने लगा।
समत्वभाव उत्पन्न करना ही श्रमण संस्कृति का श्रमण संस्कृति का स्वरूप एवं व्यापकता मूल है । इसका सैद्धान्तिक, वैचारिक एवं व्यवहा- 710) श्रमण संस्कृति का स्वरूप सदैव व्यापक रहा है,
रिक रूप ही श्रमण संस्कृति का परिचायक तथा पारस्परिक भेदभाव एवं विरोध की भावना ने इस
उसकी व्यापकता का द्योतक है। संस्कृति में कभी प्रश्रय नहीं पाया । यही कारण है।
मानव-जीवन के प्रत्येक पक्ष को समुज्ज्वल बनाने कि प्राणि मात्र में समता भाव का आद
वाली श्रमण संस्कृति वस्तुतः भारतीय संस्कृति करने का श्रेय मात्र श्रमण संस्कृति को ही लब्ध हो
की वह प्रमुख धारा है जिसे अतीत और वर्तमान सका है। समता के आदर्श का मुख्य आधार है सत्य,
में पीड़ित एवं कराहती हुई मानवता को आश्रय अहिसा, अपरिग्रह, अनेकान्त (व्यापक दृष्टिकोण) प्रदान कर हिताहित विवेक द्वारा आत्म-कल्याण तथा पारस्परिक स्नेह, प्रेम और सौहार्द का भाव। करने तथा भूले व भटके हुए प्राणियों को सन्मार्ग मनुष्य में इन भावों का प्रत्यूदगमन उसकी उस में लाकर जीवन का अन्तिम लक्ष्य बतलाने का मानसिक निर्मल वृत्ति का परिचायक है जो क्रमशः
श्रेय प्राप्त है। श्रम-त्याग-तपस्या-शम-इन्द्रिय द्वेष, ईर्ष्या और व क्रोधरहित भाव के जन्म का
विषय-कषायनिग्रह-समताभाव तथा मन-आत्मा हेतु है, यही भाव मानव सुलभ वृत्ति के प्रतिपादक
की निर्मलता, पवित्रता तथा सांसारिक विषयों के होते हैं, जो जीवन की वैषम्यपूर्ण स्थिति में समत्व प्रति अनासक्ति भाव का संयुक्त रूप ही श्रमण
) वृत्ति की प्रेरणा प्रदान करते हैं। यही समत्ववत्ति संस्कृति का वह व्यापक स्वरूप है जो 'सर्वजनहिताय' मानव-जीवन में आने वाली विपत्तियों और जीवन
की पावन भावना से प यापन की दुरूहता का समूलोच्छेन करने में सहायक
आध्यात्मिक अथवा आत्मवादी होने के कारण होती है।
श्रमण संस्कृति ने भारतीय जन-जीवन को अमूल्य प्राणियों में पारस्परिक भय से समत्पन्न मनः- देन दी है। निवृत्तिपरक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए स्थिति ही अनेक विषमभावों की जन्मदात्री है. जब तथा इस परिभ्रमणशील संसार से आत्मा की मूक्ति तक जीवन में भयपूर्ण स्थिति का पूर्णतः उच्छेद के लिए जितना जोर श्रमण संस्कृति ने दिया है, नहीं हो जाता तब तक समत्ववृत्ति का भाव मानव उतना किसी अन्य संस्कृति ने नहीं दिया। श्रमण | मानस में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। जीवन में स्वभावतः मुमुक्षु होता है और उसके लिए अपनी , निर्भयता, ऋजुता और समता भाव की प्रेरणा आत्मा की मुक्ति प्रधान लक्ष्य है । इसीलिए श्रमण केवल अहिंसा से ही प्राप्त होती है। यह अहिंसा ही संस्कृति में आत्मतत्व व मोक्षतत्व मुख्य विचारणीय श्रमण संस्कृति का मूल है, वर्तमान में प्राणियों ने
(शेषांश पृष्ठ २८६ पर देखें) चतुथं खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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आदि तीर्थंकर श्री आदिनाथ के युग में ऋजु और जड़ अधिक थे और अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान महावीर के इस युग में वक्र और जड़ जन अधिक हैं। पाँच महाव्रतों का विधान ____ व्याख्या प्रज्ञप्ति के विधानानुसार इन दोनों युगों में श्रमणों के H लिए पाँच महाव्रतों की परिपालना अनिवार्य मानी गई है। पाँच महाव्रत
प्रथम-अहिंसा महाव्रत द्वितीय-सत्य महाव्रत तृतीय-अचौर्य महाव्रत चतुर्थ-ब्रह्मचर्य महाव्रत पंचम-अपरिग्रह महाव्रत ।
अर्हन्त आदिनाथ के युग में सरलता और जड़ता के कारण और श्रमण महावीर के तीर्थ में वक्रता और जड़ता के कारण पांच महाव्रत पृथक्-पृथक् कहे गए हैं।
जिस युग में सरल और जड़ मानव अधिक होते हैं या जिस युग में वक्र और जड़ मानव अधिक होते हैं उस युग में पाँच महाव्रतों का प्ररूपण किया गया है।
यद्यपि इन दोनों युगों में ऋजु और प्राज्ञ जन भी विद्यमान रहे हैं हो। फिर भी महाव्रतों की आराधना का विधान बहुसंख्यक जनों की अपेक्षा से ही किया जाता है।
अर्हन्त आदिनाथ के शासनकाल में गणधरादि अनेक स्थविर श्रमण ऋजु और प्राज्ञ भी रहे थे किन्तु श्रमण प्रव्रज्या स्वीकार करने वाले श्रमणों में ऋजु और जड़ जन ही अधिक थे।
इसी प्रकार अर्हन्त वर्धमान महावीर के धर्मशासनकाल में अनेक गणधरादि स्थविर ऋजु और प्राज्ञ रहे हैं किन्तु श्रमण संघ में प्रव्रजित होने वालों की अधिक संख्या वक्र और जड़ों की ही थी और है।
निष्कर्ष यह है कि संघ में अधिक संख्या ऋजु जड़ों की होती है या वक्र जड़ों की होती है तो उसी के अनुरूप महाव्रतों की धारणा एवं परिपालना आदि के विधान होते हैं। ____ अन्तर केवल यह है कि ऋजु-जड़ श्रमणादि जड़ होते हुए भी ऋजुता की विशिष्टता से वे संयम-साधना में सफलता प्राप्त करके शिव पथ के पथिक होकर सिद्ध पद प्राप्त कर लेते थे। किन्तु इस आरक के वक्र जड श्रमण वक्रता एवं जडता की अशिष्टता के कारण
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महाव्रतों का युगानुकूल परिवर्तन
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-अ.प्र. मुनि कन्हैयालाल 'कमल'
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जान संयम साधना में सफल होते हैं और न वे शिव तीन यामों (महावतों) का विधान
पथ के पथिक बनकर मुक्त होते हैं क्योंकि संयम आचारांग में महाश्रमण महावीर प्ररूपित तीन साधना की सफलता में सबसे बड़ी बाधा वक्रता एवं याम का विधान भी है। किन्तु किस काल में तीन जड़ता की ही है।
यामों का परिपालन प्रचलित रहा यह स्पष्ट ज्ञात चार यामों (महावतों) का विधान
नहीं होता। अर्हन्त अजितनाथ से लेकर अर्हन्त पार्श्वनाथ
तीन याम तक के सभी संघों में अधिक जनसंख्या ऋज प्राज्ञ प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत भजनों की ही रही थी। वे प्राज्ञ (विशेषज्ञ) होते हुए द्वितीय याम-सत्य महाव्रत भी ऋजु सरल (स्वभावी होते) थे। विशेषज्ञ होकर
तृतीय याम-अपरिग्रह महाव्रत । सरल होना अति कठिन है। यह उस काल की शिष्टता ही थी।
अस्तेय महाव्रत और ब्रह्मचर्य महाव्रत ये दोनों
अपरिग्रह महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिए उस मध्यकाल में ऋजु-जड़ जन और वक्र-जड़ गए थे। जन भी होते थे किन्तु अत्यल्प ।
इस युग के अनुरूप महाव्रतों का विधान ऋजु-प्राज्ञ श्रमण गणों की संयम-साधना अधिक से अधिक सफल होती थी और वे उसी भव में या
यदि इस युग के श्रमण जहावाई तहाकारी' छ भवों की सतत संयम-साधना मानो याने जैसा कथन वैसा आचरण करना चाहें तो जाते थे। अतएव ऋजु-प्राज्ञ श्रमणों के लिए चार उनके लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य इन तीनों का यामो (महाव्रतों) की परिपालना का विधान था। पालन हा पचात हा उस युग में "याम" शब्द महाव्रतों के लिए प्रचलित इस युग के कुछ ऋजु प्राज्ञ श्रमण पाँचों महाथा ।
व्रतों का परिपूर्ण पालन अवश्य करते हैं । प्रचलित चार याम
परम्परा के अनुसार ऐसा मान लेना अनुचित भी
नहीं है किन्तु नीचे लिखी प्रवृत्तियों का जब तक प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत
पूर्ण त्याग न हो तब तक आगमानुसार पाँचों महाद्वितीय याम-सत्य महाव्रत
व्रतों का या सम्पूर्ण जिनाज्ञा का पालन कैसे सम्भव तृतीय याम-अस्तेय महाव्रत
हो सकता है। चतुर्थ याम-अपरिग्रह महाव्रत
(१) प्रतिबद्ध उपाश्रयों में ठहरना अर्थात् उस मध्य युग में ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह
- गृहस्थों के घरों की छत से संलग्न उपाश्रयों में महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट मान लिया गया था
९ ठहरना, क्योंकि वे प्राज्ञ होने के कारण संक्षिप्त कथन से (२) लेखों का, निबन्धों का ग्रन्थों का मुद्रण हेतु भी आशय को समझ लेने वाले थे।
संशोधन-सम्पादन करना,
। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २० उद्देशक ८
२. आचारांग श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ८, उद्देशक १ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 0640 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ@Gy
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(३) सजिल्द मुद्रित पुस्तकें रखना एवं उनकी व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रतिदिन उभय काल प्रतिलेखना न करना,
परिस्थितिवश मूलगुण में, उत्तरगुण में दोष (४) कोई आवे नहीं और कोई देखे नहीं ऐसी लगाने वाले पुलाक बकुश और प्रतिसेवना कुशील (SL स्थण्डिल भूमि के बिना मल-मूत्रादि का परित्याग को निर्ग्रन्थ कहा गया है। करना,
उसके निर्ग्रन्थ जीवन की स्थिति यावज्जीवन
की कही गई है। उनमें तीन शुभ लेश्यायें कही हैं। (५) बिना किसी अपवाद कारण के दूध आदि विकृतियों का तथा विकृतियुक्त आहारों का सेवन इसी प्रकार संघ हित आदि कारणों से न्यूनाकरना इत्यादि संयम को णिशित - संयम को शिथिल करने वाली प्रव
धिक दोष लगाने वाले एवं प्रायश्चित्त ग्रहण करने त्तियों का पूर्ण निग्रह करने वाले ही सर्वथा सर्व- वाले इस युग के श्रमण-श्रमणियाँ भी आराधक हैं । विरत माने जा सकते हैं।
-व्याख्या० श०२५, उ
।
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(श्रमण संस्कृति : शेषांश पृष्ठ २८३ का) विषय रहे हैं । अपने व्यापक एवं कल्याणकारी दृष्टि- की शरण में न जाकर स्वयं अपने पुरुषार्थ के कोण के द्वारा श्रमण संस्कृति ने प्राणिमात्र को द्वारा नर से नारायण बन सकता है, उसकी आत्मा आत्म-कल्याणपूर्वक श्रेयोमार्ग पर अग्रसर होने में स्वयं अपने विकास एवं चरमोत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए अपूर्व संदेश दिया है । यही वह मार्ग है की अपूर्व क्षमता है । आत्मा की दृष्टि से कोई भी जिसका अनुसरण कर प्रत्येक जीवात्मा लोकोत्तर, प्राणी किसी अन्य प्राणी की अपेक्षा न तो छोटा है। चरम, यथार्थ, और अक्षय सुख की अनुभूति और न बड़ा किन्तु वह अपने राग-द्वष आदि आदि । कर सकता है।
वैकारिक भावों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म इस रूप से मानवता के लिए सबसे बड़ी देन
लेकर छोटे-बड़े शरीर को प्राप्त करता है तथा श्रमण संस्कृति-जैन संस्कृति है जिसे हम मानव
अनेकानेक दुःखों को भोगता है, जब इसके रागसंस्कृति भी निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, क्यों- द्वेष आदि विकारभाव नष्ट हो जाते हैं उसकी कि इस संस्कृति का मानवता से सीधा सम्बन्ध है. आत्मा निर्मल होकर दिव्यज्ञान के प्रकाश से। समस्त मानवीय गुणों के विकास के लिए श्रमण आलोकित होकर अपने शुद्ध चैतन्यमय स्वरूप को संस्कृति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्राणिमात्र के प्राप्त कर इस
प्राप्त कर इस संसार से सदा के लिए मुक्त हो प्रति समता का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जाता है। परोपदेश की अपेक्षा स्वयं आचरण के लिए इसमें इस प्रकार यह मानव संस्कृति अपने निर्मल विशेष जोर दिया गया है, इसके अनुसार प्रत्येक प्रवाह से प्राणिमात्र को कल्याण का मार्ग बतलाते चेतनाधारी जीव को अपनी चेतनता के विकास का हुए अजस्ररूप से भारत की भूमि को पावन करते पूर्ण अधिकार है । कोई भी प्राणी किसी एक ईश्वर हुए प्रवाहित हो रही है।
-भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १ई/६ स्वामी रामतीर्थ नगर
नई दिल्ली-११००५५
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श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में एक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर को छोड़कर सर्वसम्मत मत है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते जबकि दिगम्बर मान्यता में अधिकांश आचार्यों का है ये दोनों उपयोग युगपत् ही होते हैं । परन्तु श्वेताम्बर आगम व ग्रंथों में अपनी मान्यता का प्रतिपादन करने वाले स्पष्ट सूत्र मेरे देखने में नहीं आये, प्रायः अर्थापत्ति अनुभव से ही यह मान्यता पुष्ट करते हैं । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा के आगम 'कषाय पाहुड' आदि ग्रन्थों एवं इनकी टीकाओं में दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते इसके अनेक स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं, इन्हीं में से कुछ यहाँ प्रस्तुत करते हैं
(क) गुणधराचार्य प्रणीत कषायपाहुड मूल ग्रन्थ की गाथा १५ से लेकर २० गाथा तक जिन मार्गणाओं के अल्प बहुत्व के रूप में जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा गया है। इसमें उत्कृष्ट काल के अल्पबहुत्व में कहा गया है -
चक्षुदर्शनोपयोग के उत्कृष्ट काल से चक्षु ज्ञानोपयोग का काल दूना है। उससे श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा इन्द्रियों का ज्ञानोपयोग, मनोयोग, वचनयोग, काययोग आदि स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है । स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञानोपयोग से अवायज्ञान का उत्कृष्ट काल दूना है । अवायज्ञानोपयोग के उत्कृष्ट काल से ईहाज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे श्रुतकाल का उत्कृष्ट काल दूना है। श्रुतज्ञान के उत्कृष्ट काल से श्वासोच्छ्वास का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । केवलज्ञान, केवलदर्शन, कषाय सहित जीव के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट काल स्वस्थान में समान होते हुए भी प्रत्येक का उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास से विशेष अधिक है । केवलज्ञान के उत्कृष्ट काल से एकत्व वितर्क अवीचार ध्यान का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इनसे पृथक्त्व वितर्क सवीचार ध्यान का काल दूना है । इससे प्रतिपाती सूक्ष्म सांपराय, उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले का सूक्ष्म सांपराय, क्षपक का सांपराय का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है । सूक्ष्म सांपरायिक जीव के उत्कृष्ट काल से मान कषाय का उत्कृष्ट काल दूना है। इससे क्रोध, माया, लोभ, क्षुद्रभवग्रहण, कृष्टिकरण, संक्रामक, अपवर्तना का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। इससे उपशांत कषाय का काल दूना है। इससे क्षीण कषाय का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे चारित्रमोहनीय के उपशामक का उत्कृष्ट काल दूना है । इससे चारित्र मोहनीय के क्षपक का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
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- कन्हैयालाल लोढा
कुक
केवलज्ञान और केवलदर्शन, दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते
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उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि दर्शनो- अर्थात् चूंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन का पयोग सभी इन्द्रियों, मन, वचन, काया, अवाय उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता
और ईहा व श्र तज्ञान इनका उत्कृष्ट काल श्वासो- है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक च्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है और साथ नहीं होती। यदि केवलज्ञान और केवल-0 केवलज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट दर्शन की एक साथ प्रवत्ति मानी जाती तो तदा काल एक श्वासोच्छवास से अधिक और दो श्वासो- वस्था केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शन के च्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। अर्थात् उपयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नहीं दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल के भीतर में होना चाहिए किन्तु कुछ कम पूर्व कोटि प्रमाण होना केवलज्ञान व केवलदर्शन का उपयोग बदल जाता चाहिए क्योंकि गर्भ से लेकर आठ वर्ष काल के बीत है । अतः जहाँ केवलज्ञान व केवलदर्शन के उपयोग जाने पर केवलज्ञान सूर्य की उत्पत्ति देखी जाती का काल अन्तर्मुहूर्त दिया है वहाँ यह अन्तर्मुहूर्त है। दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम ही सम- उपर्युक्त विवेचन में 'केवलज्ञान व केवलदर्शन झना चाहिए। यह काल सूक्ष्म सांपराय, क्रोध, के उपयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है ।' मान, माया, लोभ क्षद्रभव ग्रहण काल से भी कम ये मूल वाक्य जिज्ञासा के रूप में कहे गये हैं । परंतुल है। यह सत्र के आगे के भाग से स्पष्ट है। इन्हीं जिज्ञासा का समाधान करते हए टीकाकार श्री गाथाओं की टीका के प्रसंग में आचार्य श्री वीरसेन वीरसेनाचार्य ने इन सत्र वाक्यों को न तो नकारा स्वामी ने उस समय विद्यमान अन्य प्रमाण केवल- है और न अप्रामाणिक या मिथ्या कहा है प्रत्युत ज्ञान व केवलदर्शन के युगपत् नहीं होने को पुष्ट इन्हें स्वीकृति प्रदान कर आगे भी पुष्ट किया है । करने वाले दिये हैं यथा
(ग) असरीरा जीवणा उवज्जुत्ता दंसणे य णाणे य । केइं भणंति जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणोत्ति ।
सायारमगायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ (१ सुत्तमवलंवमाणा तित्थयरासायणा भीरू ॥ (३४) ।।
२-६-५६ धवला ७, पृष्ठ ६८. -कषायपाहुड पुस्तक । अर्थात् तीर्थंकर की आसादना से डरने वाले
अशरीर अर्थात् कायरहित शुद्ध जीव प्रदेशों आचार्य 'जं समयं जाणत्ति नो तं समयं पासति जं
से घनीभूत, दर्शन और ज्ञान में अनाकार और समयं पासति तं नो समयं जाणति'
साकार रूप से उपयोग रखने वाले होते हैं, यह इस प्रकार के सूत्र का अवलंबन लेकर कहते हैं
सिद्ध जीवों का लक्षण है। कि जिन भगवान् जिस समय जानते हैं उस समय इस गाथा से यह प्रमाणित होता है कि 'सिद्धों देखते नहीं हैं और जिस समय देखते हैं उस समय में भी ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग होते हैं। जानते नहीं हैं।
यदि सिद्धों में ये दोनों उपयोग युगपत् होते तो -कषायपाहुड पुस्तक, पृष्ठ ३२० इनका उत्कृष्ट काल 'अनन्त काल' होना चाहिये था (ख) "केवलगाण केवलदसणाण मुक्कस्स उव- कारण कि सिद्ध जीव का काल अनन्त व शाश्वत जोग कालो अंतोमुहत्तमेत्तो त्ति भणिदो तेण णव्वदे
ला अतामुहुत्तमत्ता त्ति भाणदा तण व्वद होता है। परन्तु कषाय पाहुड की जहा केवलणाण दंसणाणामुक्कमेण उत्तीण होदि त्ति।" केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग का
___ -कषायपाहुड पुस्तक, पृष्ठ ३१६ उत्कृष्ट काल दो श्वास से कम अर्थात् अन्तर्मुहूर्त ही ?
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१ ध्यान रहे कि मूल गाथा में तद्भवस्थ शब्द नहीं है ।
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Old
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बताया गया है जो दोनों उपयोगों के युगपत् न मानने पर ही सम्भव है ।
यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने की है कि जैनागमों में कहीं यह नहीं कहा है कि ज्ञान के समय दर्शन नहीं होता है और दर्शन के समय ज्ञान नहीं होता है प्रत्युत यह कहा है कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों उपयोग किसी भी जीव को एक साथ नहीं होते। क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण आत्मा के लक्षण हैं । अतः ये दोनों गुण आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं । इनमें से किसी भी गुण का कभी अभाव नहीं होता है । यदि ज्ञान या दर्शन गुण का अभाव हो जाये तो चेतना काही अभाव हो जाये; कारण कि गुण के अभाव होने पर गुणी के अभाव हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । अतः चेतना में ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण सदैव विद्यमान रहते हैं । परन्तु उपयोग इन दोनों गुणों में से किसी एक ही गुण का होता है।
उपर्युक्त तथ्य से यह भी फलित होता है कि ज्ञान गुण और ज्ञानोपयोग एक नहीं है तथा दर्शन • गुण और दर्शनोपयोग एक नहीं है, दोनों में अन्तर है जैसा कि षटखंडागम की धवला टीका पु० २, पृष्ठ ४११ पर लिखा हैः- स्व पर ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं । यह उपयोग ज्ञान मार्गणा और दर्शनमार्गणा में अन्तर्भूत नहीं होता है । इसी प्रकार पन्नवणा सूत्र में भी ज्ञान और दर्शन द्वार के साथ उपयोग द्वार को अलग से कहा है । तात्पर्य यह है कि गुणों की उपलब्धि का होना और उनका उपयोग करना ये दोनों एक नहीं हैं, दोनों में अन्तर है । जैसा कि कषायपाहुड में कहा
--
दंसणणाणावर णक्खए समाणम्मि कस्स होइ पुव्वयरं । होज्ज समोउप्पाओ दुवे णत्थि उवजोगा || १३७|| - कषायपाहुड पुस्तक (१) पृष्ठ ३२१
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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अर्थात् दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय एक साथ होने पर पहले केवलदर्शन होता है या केवलज्ञान । ऐसा पूछा जाने पर यही कहना होगा कि दोनों की उत्पत्ति एक साथ होती है पर इतना निश्चित है कि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग ये दो उपयोग एक साथ नहीं होते हैं ।
इस गाथा से यह फलित होता है कि दोनों आवरणीय कर्मों के एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों गुणों का प्रकटीकरण तो एक साथ होता है और आगे भी दोनों गुण साथ-साथ ही रहते हैं, परन्तु प्रवृत्ति किसी एक गुण में होती है । गुण लब्धि रूप में होते हैं। और उस गुण में प्रवृत्त होना उसका उपयोग है ।
आशय यह है कि उपलब्धि और उपयोग ये अलग-अलग हैं। अतः इनके अन्तर को उदाहरण से समझें :
मानव मात्र में गणित, भूगोल, खगोल, इतिहास, विज्ञान आदि अनेक विषयों के ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है परन्तु किसी ने गणित व भूगोल इन दो विषयों का ज्ञान प्राप्त किया है तो उसे इन दोनों विषयों के ज्ञान की उपलब्धि है यह कहा जायेगा और अन्य विषयों के ज्ञान की उपलब्धि उसे नहीं है यह भी कहा जायेगा । गणित और भूगोल इन दो विषयों में से भी अभी वह गणित का ही चिन्तन या अध्यापन कार्य कर रहा है, भूगोल के ज्ञान के विषय में कुछ नहीं कर रहा है तो यह कहा जायेगा कि यह गणित के ज्ञान का उपयोग कर रहा है. और भूगोल के ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहा है ।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे अभी भूगोल के ज्ञान का अभाव है । उसे इस समय भी भूगोल का ज्ञान उपलब्ध है, इतना अवश्य है कि इस समय उसका उपयोग नहीं कर रहा है । एक दुसरा उदाहरण और लें -- एक धनाढ्य व्यक्ति में अनेक वस्तुओं के क्रय करने की क्षमता है परन्तु
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GAL उसने रेडियो और टेलीविजन ही खरीदा है तथा या भाव का प्रवृत्त होना, उपयोग है परिणाम या - ST इस समय यह रेडियो चला रहा है, टेलीविजन भाव एक समय में एक ही हो सकता है। अतः एक
नहीं चला रहा है तो यह कहा जायेगा कि उस समय में एक ही उपयोग हो सकता है अर्थात् ज्ञानोधनाढ्य व्यक्ति में क्षमता तो अनेक वस्तुओं को पयोग के समय दर्शनोपयोग और दर्शनोपयोग के प्राप्त करने की है, उपलब्धि उसे रेडियो और समय ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता। परन्तु लब्धियाँ । टेलीविजन दोनों की है और उपयोग वह रेडियो ज्ञान-दर्शन गुण ही नहीं, दान, लाभ, भोग आदि । का कर रहा है। यह क्षमता, उपलब्धि और उप- गुणों की भी होती हैं। यही नहीं किसी को भी योग में अन्तर है।
अनेक ज्ञानों की उपलब्धि या लब्धि हो सकती है 12 उपलब्धि और उपयोग के हेतु भी अलग-अलग
परन्तु वह एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग कर
सकता है, जैसा कि कहा है-'मतिज्ञानादिषु चतुर्युत हैं। उपलब्धि या लब्धि, कर्मों के क्षयोपशम या
पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत' तत्त्वार्थ भाष्य रख क्षय से होती है और उपयोग लब्धि के अनुगमन
के अनुगमन अ० १ सूत्र ३१ अर्थात् मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिकरने रूप व्यापार से होता है । जैसा कि उपयोग ज्ञान और मनपर्यायज्ञान इन चार ज्ञानों का उप-5 की परिभाषा करते हुए कहा गया है
योग एक साथ नहीं हो सकता। किसी को भी एक __ उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रतिव्यापार्यते जीवो- साथ एक से अधिक ज्ञान का उपयोग नहीं हो ऽनेनेत्युपयोगः-प्रज्ञापना २४ पद । अर्थात् वस्तु के सकता । कारण कि ये सब ज्ञान, ज्ञान की पर्यायें हैं। जानने के लिये जीव के द्वारा जो व्यापार किया और यह नियम है कि एक साथ एक से अधिक जाता है, उसे उपयोग कहते हैं।
पर्यायों का उपयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए कहा "उभय निमित्त वशात्पद्यमान श्चैतन्यानु
है कि पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं, सहवर्ती नहीं। अतः 115
चारों ज्ञानों की उपलब्धि एक साथ हो सकती है विधायी परिणामः उपयोगः इन्द्रिय फलमुपयोग" सर्वार्थसिद्धि अ०२ सूत्र व १८ अर्थात् जो अंतरंग
परन्तु उनका उपयोग क्रमवर्ती होता है सहवर्ती नहीं और बहिरंग दोनों निमित्तों से होता है और चैतन्य
अर्थात् एक समय एक ही ज्ञान होगा और उस ज्ञान
में भी उसके किसी एक भेद का ही ज्ञान होगा दूसरे का अनुसरण करता है ऐसा परिणाम उपयोग है। भेटों का नहीं जैसे अवाय मतिज्ञान का उपयोग अथवा इन्द्रिय का फल उपयोग है अथवा "स्व-पर
होगा तो ईहा, धारणा आदि मतिज्ञान के भेदों का ग्रहण परिणाम उपयोगः" धवलाटीका पु० २ पृ० ४१ अर्थात् स्व-पर जो ग्रहण करने वाला परिणाम
उपयोग नहीं होगा। उपयोग है।
___अभिप्राय यह है कि जैनागमों में ज्ञान-दर्शन O वत्थु णिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो।
आदि गुणों के एक साथ होने का निषेध नहीं किया
गया है । निषेध किया गया है दो उपयोग एक साथ -पंचसंग्रह प्रा. १/१६८
होने का। यहाँ तक कि वीतराग केवली के भी G अर्थात् वस्तु ग्रहण करने के लिए जीव के भाव दोनों उपयोग युगपत नहीं माने हैं जैसा कि कहा का प्रवृत्त होना उपयोग है।
है-“सव्वस्स केवलिस्स वि युगपदौ णत्थि उपउपर्यत, परिभाषाओं से यह फलित होता है कि ओगो।" -विशेषावश्यक भाष्य ३०६६ ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से या क्षय से होने यहाँ प्रसंगवशात् यह विचार करना अपेक्षित वाले गणों की प्राप्ति को लब्धि कहते हैं और उस है कि श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर एवं लब्धि के निमित्त से होने वाले जीव के परिणाम दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेन आदि ने केवलो के
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दोनों उपयोग युगपत् मानते हैं। यह कहाँ तक का ही उदय हो तो न तो ज्ञानदर्शन गुणों की लब्धि युक्तिसगत है।
होगी और न उपयोग की ही । अतः छद्मस्थ के भो ____ इस सम्बन्ध में प्रथम तो मेरा यह निवेदन है
में उपयोग दोनों कर्मों के आवरणों के क्षयोपशम से ही कि प्राचीनकाल में सभी जैन सम्प्रदायें केवली में होता है । यही तथ्य केवली पर भी घटित होता है। दोनों उपयोगों को युगपत् नहीं मानती थीं जैसा कि
नती थीं जैसा कि अन्तर केवल इतना ही है कि दोनों कर्मों के क्षयोपकषाय-पाहुड में लिखा है-"केवलगाण केवलदंस
शम से छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन गुण आंशिक रूप में मणाण मुक्कस्स उवजोगकालो जेण अंतोमहत्तमेत्तो प्रकट होते हैं और इन दोनों कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से त्ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाणदंसणाण
केवली के ज्ञानदर्शन गुण (पूर्ण रूप) में प्रकट होते मुक्कमेण उत्तीण होदि त्ति ।' कषायपाहुड पु० १ ।।
हैं। इस प्रकार केवली और छद्मस्थ के ज्ञान-दर्शन * पृ० ३१६, अर्थात् चूँकि केवलज्ञान और केवलदर्शन
___ गुणों में अंशों का ही अन्तर है । अतः जो भी युक्तियाँ Bh का उत्कृष्ट उपयोग काल अन्तर्मुहूर्त कहा है इससे ।
केवली के युगपत् उपयोग के समर्थन में दी 110) जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन की
___ जायेंगी ये सब युक्तियाँ छद्मस्थ पर भी लागू होंगी |
___ और छद्मस्थ के भी दोनों उपयोग युगपत् मानने प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। कषायपाहुड के इस
पडेंगे जो श्वेताम्बर-दिगम्बर आदि किसी भी जैन कथन से ज्ञात होता है कि उस समय केवली के
सम्प्रदाय को कदापि मान्य नहीं है। अतः केवली के दोनों उपयोग युगपत् नहीं होने की मान्यता सभी
दोनों उपयोग युगपत् मानने में विरोध आता है। । जैन सम्प्रदायों में प्रचलित थी। विशेषावश्यक
इसी प्रकार छद्मस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् 7) भाष्य की गाथा ३०६६ में इसे स्पष्ट स्वीकार किया
न मानने के लिए जो भी युक्तियाँ दी जायेंगी वे || ही है।
केवली पर भी लागू होंगी और केवली के दोनों ID केवली के दोनों उपयोग युगपत् होने के समर्थन उपयोग युगपत् नहीं होते हैं यह मानना ही पड़ेगा। में धवला टीका पुस्तक १ व १३ तथा कषायपाहुड छद्मस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते, यह ११० १ आदि ग्रन्थों में यह युक्ति दी गई है कि केवली सर्वमान्य सिद्धान्त है । अतः केवली के भी दोनों एक
के दोनों आवरण कर्मों का क्षय युगपत् होने से दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते यह स्वतः सिद्ध हो जाता 0 3 उपयोग भी युगपत् होते हैं और यही युक्ति आचार्य है। अतः अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार से यह ॥ श्री सिद्धसेन ने भी दी है।
सिद्ध होता है कि केवली के युगपत् उपयोग नहीं
होते हैं । सिद्धान्त भी इसका साक्षी है । मैं उपर्युक्त इस सम्बन्ध में यह बात विचारणीय है कि छद्मस्थ जीवों के भी दोनों कर्मों के आवरण का
विषय पर अपने विचार ऊपर प्रस्तुत कर चुका हूँ क्षयोपशम सदैव रहता है जिससे ज्ञान और दर्शन
फिर भी मेरा इस सम्बन्ध में किंचित् भी आग्रह नहीं गुणों की लब्धि प्रकट होती है और उस लब्धि में ।
है। आशा है कि विद्वत् जन तटस्थ बुद्धि से विचार
कर अपना मन्तव्य प्रकट करेंगे। प्रवृत्ति से उपयोग होता है। यदि कर्मों के आवरणों का क्षयोपशम न हो अर्थात् केवल सर्वघातीस्पर्धकों
श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान
साधना भवन, ए-8 महावीर उद्यान पथ, बजाज नगर,
जयपुर (राज.) ३०२०१७
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वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आज भौतिक विज्ञान के विकास के चरण B बढ़ते चले जा रहे हैं। उसका कार्य-क्षेत्र और कर्म-क्षेत्र आशातीत
व्यापक हो चुका है। नित्य नये-नये आविष्कारों और अनुसन्धानों ने सचमुच मानव जगत् को चमत्कृत कर दिया है। यही कारण है कि आज हर एक गाँव, नगर, प्रान्त, राज्य, देश, समाज उन नये-नये आविष्कारों (भौतिक विज्ञान) के साथ जुड़कर आगे बढ़ने के लिए लालायित है। आज का प्रगतिशील तथा अप्रगतिशील समाज न वैज्ञानिक साधन-प्रसाधनों से अपने को अलग-थलग रखना चाहता है और न अपने को उनसे वंचित ही।
क्योंकि-"प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्" के अनुसार आज भौतिकविज्ञान की अनेक विशेषताएँ प्रत्यक्ष हो चुकी हैं । कृत कार्यकलापों की
अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया उपस्थित करने में वह देर नहीं करता। all एक सेकण्ड में हजारों-हजार बल्बों में विद्युत तरंगें तरंगित होने
लगती हैं। कुछ ही मिनटों-घंटों में हजारों मील का फासला तय करवा देता है। आंख की पलक झपकते इतने समय में हजारों मील दूर रहते हुए वे गायक, वक्ता, चित्र के रूप में ही नहीं, आंखों के सामने नाचते, घूमते, दिखने लग जाते हैं। गुरुतर संख्या वाले गणित के
हिसाबों को देखते-देखते कम्प्यूटर सही-सही आँकड़ों में सामने ले का आता है। उपग्रह अनन्त आकाश में उड़ानें भर रहा है। उसका
नियन्ता धरती पर बैठा-बैठा निर्देशन दे रहा है, नियन्त्रण कक्ष (कंट्रोल-रूम) को सम्भाले बैठा है । बीस-पच्चीस कदम दूर बैठा मानव रिमोट कंट्रोल के माध्यम से टी० वी० को चालू कर रहा और बन्द भी, बीच में कोई माध्यम जुड़ा हुआ नहीं है।
वैज्ञानिक साधनों के कारण आज जल, थल और नभ मार्गों की भयावनी यात्रायें सुगम-सुलभ एवं निर्भय सी बन गई हैं। कई वैज्ञानिक उपकरण शरीर के अवयवों के स्थान पर कार्यरत हैं। एक्सरे मशीन शरीरस्थ बीमारियों को प्रत्यक्ष बता देती है। आज ऐसे भी संयंत्र उपलब्ध हैं, जो शारीरिक सन्तुलन को ठीक बनाए रखने में सहायता करते एवं हलन, चलन, कम्पन, स्पन्दन, धड़कन गति को बताने में सक्षम है । वैज्ञानिक साधनों के आधार पर यह पता लगा लिया जाता है कि अमुक खनिज भण्डार, धातु-गैस, रसायन या तरल पदार्थ अमुक स्थान पर धरती के गर्भ में समाहित है । हजारों मानव या पशु जगत जिस गुरुतर काम को करने में महिनों पूरे कर देते हैं, उसे कुछ समय में ही पूर्ण करने की क्षमता विज्ञान में निहित है । २६२
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
भौतिक और अध्यात्म विज्ञान
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-प्रवर्तक श्री रमेश मुनि
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ऐसे भी साधन उपलब्ध हैं जिनका यथास्थान उप- अमेरिका ने एक ऐसे मकान का निर्माण किया योग करने पर बहरा व्यक्ति सुनने में, अन्धा देखने में है, जिसमें अलग-अलग चार कमरे हैं। चारों में
और लंगड़ा-अपंग मानव चलने-फिरने, घूमने लग यन्त्र लगाए गए हैं। प्रथम यन्त्र को चालू करने पर जाता है। मारक और हानिकारक उपकरण के बटन उस कक्ष में वायु भर जाती है । दूसरे यन्त्र को चालू को दबाया कि हजारों-लाखों मानवों, पशु-पक्षियों, करने पर उसमें कृत्रिम बादल छा जाते है । तीसरे || जानवरों का जीवन खतरे के बिन्दु को छूने की यन्त्र को प्रारम्भ करने पर बिजली-गर्जना और र
तैयारी में हो जाता है। उनके मस्तक पर मौत चौथे यन्त्र के बटन दबाने पर वर्षा होने लगती है। है। मंडराने लगती है।
अमेरिका में प्रातःकाल जो हरी घास थी, वह ऐसे यन्त्रों का भी वैज्ञानिक परीक्षण हो चुका छः बजे से नौ बजे के बीच में मशीन द्वारा कागज है जिनका यथास्थान समय पर उपयोग करने पर के रूप में और प्रेस में छपकर अखबारों के रूप में प्राणियों के स्वभाव और आदतों में तत्काल परिव- दनिया के सामने आ जाती है। केवल तीन घण्टे के तन-परिवर्धन देखा जा सकता है। अब स्वभाव अन्दर घास का अखबार के रूप में आ जाना विज्ञान
बदलने की बात असम्भव नहीं रही। मानवों पर की कितनी यडी करामात है। १. प्रयोग हो रहे हैं । पशुओं पर अनेक प्रयोग-परीक्षण इलेक्ट्रॉनिक 'रॉबोट' नाम के मानव का o हो चुके हैं । बन्दरों, मेढकों, चूहों और पेड़-पौधों निर्माण किया गया है । यद्यपि उसमें आत्मा (Soul)
पर प्रयोग हुए और हो रहे हैं । शरीरस्थ उन केन्द्रों का सद्भाव नहीं है परन्तु कृत्रिम आत्मा रूपी l का ठीक-ठीक पता लगाया जा चुका है,जिन्हें उत्ते- विद्य त का उसमें संचार है जिसके सहारे वह कई 6 जित करने पर प्राणी के स्वभाव में परिवर्तन आ काम करता हुआ मानव की बड़ी सहायता करने में | जाता है।
तत्पर है। दो बिल्लियाँ हैं-एक के सिर पर इलेक्ट्रोड लगा यह निर्विवाद सत्य है कि इलेक्ट्रॉनिक जगत् 8 कर उसके भूख-केन्द्र को शांत कर दिया गया। दोनों आविष्कार और अनुसन्धान के तौर पर काफी Ex के सामने भोजन रखा गया। एक बिल्ली तत्काल ऊंचाइयों को छूने लगा है। कल्पनातीत करिश्मेउसे खाने लगी और दूसरी शान्त बैठी रही। करतब उपस्थित कर रहा है। आज विज्ञान ने
बन्दर के हाथ में केला दिया, वह खाने की भौतिक, रासायनिक व जीवविज्ञान आदि सभी तैयारी में था कि उसके सिर पर इलेक्टोड लगाकर क्षेत्रों में काफी प्रगति की है तथापि निष्पक्ष दृष्टि उसके भूख-केन्द्र को शान्त कर दिया गया। उसने से अगर चिंतन करें तो हम उसी निष्कर्ष पर पहुँतत्काल केला नीचे डाल दिया। आहार, भय, निद्रा चते हैं कि आज प्रत्येक राष्ट्र और प्रत्येक मानव
और वासनाजन्य केन्द्रों को विद्य त झटके देकर समाज पूर्वापेक्षा अत्यधिक अशांत, उद्विग्न और शान्त कर दिया जाता है। विज्ञान ने उन सभी आकुल-व्याकुल की स्थिति में हैं। विषमता, अनैकेन्द्रों को खोज निकाला है।
तिकता से दम घुटता जा रहा है । क्लेष, द्वेष, वैर, चूहे और बिल्ली का पारस्परिक जन्मजात वैर विरोध, विश्वासघातमय प्रदूषणात्मक विषैली गैस रहा है, परन्तु दोनों के मस्तक पर इलेक्ट्रोड लगा से आज सभी भयाक्रांत हैं। इस इलेक्ट्रॉनिक युग में दिये गये । बस, न बिल्ली के मन में वैर, न चूहे आज सभी अपने को विनाश से अरक्षि के मन में भय पैदा हुआ। चूहा और बिल्ली दोनों समता, सहिष्णुता, सद्भावना, धीरता, गम्भीरता सप्रेम आपस में खेलने लग गए । इस तरह स्वभाव की पर्याप्त कमी महसूस कर रहे हैं । स्नेह, शान्ति, परिवर्तन आज सम्भव हो गया है।
समर्पण भावों की तरंगें कम होती जा रही हैं। चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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घर-घर और गाँव-गाँव में शुभ मंगल स्वराज का मधुमास क्यों नहीं खिला ? जबकि भौतिक सुख साधनों की सभी क्षेत्रों में प्रचुरता परिलक्षित हो रही है । पग-पग और डग डग पर साधन उपलब्ध हैं । कुछ भी हो, भौतिक विज्ञान का सर्वोपरि विकास हो जाने पर भी विज्ञान अपने-आप में अपूर्ण और अधूरा ही रहने वाला है । वह इसलिए भी कि भौतिक विज्ञान प्राणी जगत् के शारीरिक, मानसिक, वाचिक, इन्द्रिय, मनविषयक एवं पेट, परि वार, पद, प्रतिष्ठाओं की क्षणिक पूर्ति करने तक ही सफल रहा है । माना कि उसने संसार को कुछ सुख-सुविधा के लिए तीव्रगामी वाहनों का विकास कर, यात्रा की अनुकूलता दी, तरंगों पर कंट्रोल कर एक ज्वलंत समस्या का समाधान खोज निकाला, राकेट - उपग्रह शक्तियों की शोध कर भूगोल, खगोल सम्बन्धी जानकारियाँ दीं और टेलीफोन, टी० वी० का आविष्कार कर हजारों मील दूर रहे समाचारों से अवगत किया, कराया ।
दूसरे पहलू से देखा जाय तो भौतिक विज्ञान से प्राणी जगत् की हानियां कम नहीं हुई हैं । विकास और विनाश दोनों पहलू भौतिक के रहे हैं । एक बाजू पर विकास और सुख-सुविधा का सरसब्ज वाग का लेबल लगा है तो दूसरी ओर विनाश और दुविधा का ज्वालामुखी छिपा हुआ है ।
भोपाल में घटित गैस काण्ड के घाव अभी तक भरे नहीं हैं । विषाक्त गैस रिसने से हजारों नरनारियों, बालकों की ज्योति को बर्बाद कर दिया, साथ ही पशु-पक्षी जगत् भी उससे बच नहीं पाया ।
वस्तुतः वैज्ञानिक सुविधाजन्य प्रवृत्तियों से आज मानव समाज सुविधाभोगी, अधिक आरामी अवश्य बना है किन्तु जीवन में निष्क्रियता निष्कर्म - यता का विस्तार हुआ है, साथ ही मानव परापेक्षी पंगु बनता हुआ व्यसन और फैशन की चका'चौंध में अपने को भूलता जा रहा है । यह सब क्या है ? इसे विज्ञान की देन समझना चाहिए । इस
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दृष्टिकोण से विज्ञान मानव समाज के लिए वरदान नहीं अभिशाप बनता जा रहा है ।
इस विज्ञान में सुन्दरता है किन्तु मूल तत्व शिव अर्थात् कल्याण का अभाव रहा है। प्रकृति का अन्वेषण-अनुसंधान करना, नाशवान वस्तुओं का परिवर्तन-परिवर्धन एवं नवनिर्माण करने तक ही विज्ञान की अगणित उपलब्धियाँ हस्तगत होने पर भी आज सामाजिक, राष्ट्रीय और पारिवारिक जीवन निराशा के झूले ही झूल रहा है । इन्द्रियजन्य सुख-सुविधा के साधनों की विपुलता ही सब कुछ नहीं है; चिरस्थायी शांति एवं आत्मानन्द-आत्मधन आत्म-विकास सम्बन्धी समस्या का समाधान भौतिक विज्ञान में खोजने का मतलब होगा - रिक्तता से रिक्तता की ओर लक्ष्यविहीन अंधी दौड़ लगाने जैसी स्थिति !
वस्तुतः यथार्थ आत्मशांति के लिये प्रत्येक पिपासु मानव को अध्यात्म विज्ञान के दरवाजे खटखटाने होंगे | अध्यात्म विज्ञान के उद्गमदाता, द्रष्टा व सृष्टा भ० ऋषभदेव से महावीर प्रभृति व राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध आदि महात्माओं ने अध्यात्म-विज्ञानोदधि में अवगाहन किया, शनैः-शनैः साधना-उपासना की गहराइयों में उनकी चेतना पहुँची, चिंतन का मंथन हुआ, अंत में सर्वोपरि सर्वोत्तम आत्म-विकास का साध्य फल मोक्ष प्राप्त किया और कई करेंगे ।
अध्यात्म-विज्ञान (Soul - Science ) का कार्यक्षेत्र, कर्म-क्षेत्र उभय जीवन अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर जीवन को अन्तर्मुखी और ऊर्ध्वारोहण की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है । अध्यात्म विज्ञान विकास के अवरोधक इन्द्रियों और मन के विषयों- शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श पर नियन्त्रण पाने के लिये ध्यानी- ज्ञानी प्रवृत्तियों और योगासन का विधान करता है । अहिंसा भगवती की अर्चा से सुख-शांति के स्रोतों का प्रस्फुटन, संयमी वृत्ति से अनैतिकता का अन्त, तपाराधना से शुभाशुभ कर्मवर्गणा का आत्मस्वरूप से पृथक्करण होना और
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उतने उतने रूप में आत्म-स्वरूप में निखार आता चला जाता है । इस तरह सुप्त आत्मिक शक्तियों को जागृत होने का, आत्मिक ऊर्जा ऊष्मा के उद्गम केन्द्रों को सक्रिय होने का अवसर मिलता है ।
आत्म-विज्ञान की अनूठी विशेषता भास्कर की भांति तेजस्विता प्रखरता का प्रतीक रही है । जिसमें "सत्यं शिवं सुन्दरम् " इन तत्वों का समन्वित रूप ही उसकी सार्थकता, सम्पूर्णता और शाश्वतता स्वयंसिद्ध हैं । आत्म-विज्ञान जितना सत्य है, उतना ही सुन्दर और जितना सुन्दर उतना ही शिवदायक रहा है । यह विशेषता भौतिक विज्ञान में कहाँ ? अध्यात्म विज्ञान ने बताया, तू आत्मा है । जो तेरा स्वभाव है, वही तेरा धर्म है। जो कभी मिथ्या नहीं होता। तीनों काल में सत्य ही सत्य रहता है । चित् का अर्थ चैतन्य रूप, ज्ञान का प्रतीक, जो कभी जड़त्व में नहीं बदला, और आनन्दरूप जो कभी दुख में परिवर्तित नहीं हुआ । आत्मा का अपना धर्म यही है । आत्मा से भिन्न विजातीय कर्म के मेल के कारण ही यह सब दृश्यमान मिथ्या प्रपंच है । यही कारण है कि संसारी सभी आत्माओं में पर्याय की दृष्टि से विभिन्नता परिलक्षित होती है । विभिन्नता का अन्त ही अभिन्नता है । वही आत्मा का सर्वोपरि विकास है और उस विकास की बुनियाद रही है - अध्यात्म विज्ञान |
अध्यात्म विज्ञान ने जिस तरह जीव विद्या विज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसी तरह जड़ जगत् का भी अति सूक्ष्म रीति से शोधन-अनुसंधान कर हेय - उपादेय का प्रतिपादन किया है । इतना ही नहीं अध्यात्म विज्ञान की दूसरी विशेषता यह रही है कि वह पुनर्जन्म, परलोक, स्वर्ग-अपवर्ग आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, संसार- मोक्ष, धर्म-कर्म दृष्टि, ध्यान ज्ञान, योग- अनुष्ठान, जीव-अजीव और जगत् इस तरह अध्यात्म एवं भौतिक विषयों का तलस्पर्शी अनुसंधान-अन्वेषण करता हुआ, वस्तु स्थिति का यथार्थ निर्देशन प्रत्यक्ष रूप से करा देता है। यही नहीं आत्मा के उन अज्ञात सभी गुण शक्तियों के केन्द्रों को उजागर में ले आता है । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साधक आत्मा नहीं चाहती कि मुझे भौतिक सम्पदा की प्राप्ति हो तथापि घास-फूस न्यायवत् अध्यात्म-साधना की बदौलत अनायास कई लब्धियों के अज्ञात केन्द्र खुल जाते हैं । साधक के चरणों में कई सिद्धियाँ लौटने लगती हैं। जैसे पांचों इन्द्रियाँ - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन एक-एक विषय को अपना ग्राह्य बनाती रही हैं किन्तु जब आत्मविज्ञ साधक आत्मा को संभिन्न श्रोत नामक लब्धि की प्राप्ति हो जाती है, तब शरीर के दे अज्ञात केन्द्र स्वतः खुल जाते हैं और वह साधक आत्मा सभी इन्द्रियों से सुनने, देखने, सूंघने लगती है या इन लब्धि वाले साधक को रूप, रस, गंध और स्पर्शन का ज्ञान अनुभव किसी भी इन्द्रिय से हो जाता है, उक्त विशेषता भौतिकविज्ञान में कहाँ ?
प्राणघातक बीमारियाँ जैसे- जलोदर, भंगदर, कुष्ठ, दाह, ज्वर, अक्षिशूल, दृष्टि- शूल और उदरशूल इत्यादि रोग लब्धिधारी साधक के मुंह का थूक (अमृत) लगाने मात्र से मिट जाते हैं । चौदह पूर्व जितना लिखित अगाध साहित्य आगम वाङ् मय को यदि कोई सामान्य जिज्ञासु स्वाध्याय करने में पूरा जीवन खपा दे तो भी सम्पूर्ण स्वाध्याय नहीं
पावेगा किन्तु वे लब्धि प्राप्त साधक केवल ४८ मिनट में सम्पूर्ण १४ (चौदह) पूर्व का अनुशीलनपरिशीलन करने में सफल हो जाते हैं । ऐसी एक नहीं अनेक सिद्धियां भ० महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम - सुधर्मा गणधर के अलावा और भी अनेकों महामुनियों को प्राप्त थी ।
अध्यात्म-विज्ञान-साधना की पृष्ठभूमि जब उत्तरोत्तर शुद्ध शुद्धतर बनती चली जाती है, निखार के चरम बिन्दु को छूने लगती है, वहीं आत्म-परिष्कार की सर्वोत्तम कार्य सिद्धि हो जाती है, तब आत्मा शनैः-शनैः मध्यस्थ राहों का अतिक्रमण करती हुई सम्पूर्ण विकास की सीमा तक पहुँच जाती है । सदा-सदा के लिये कृतकृत्य हो जाती है । भूत, भविष्य, वर्तमान के समस्त गुण ( पर्यायों की ज्ञाता दृष्टा बनकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु रूप हो जाती हैं ।
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-डा. श्रीमती शारदा स्वरूप 'ब्रज आश्रम' बाँसमण्डी, मुरादाबाद-२४४००१
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सर्वोदयी विचारों की अवधारणा के प्रेरक जैन सिद्धान्त
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___'जैनधर्म ने संसार को अहिंसा का सन्देश दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के हाथों में यह सद्गुण शक्तिशाली शस्त्र बन गया, जिसके द्वारा उन्होंने ऐसी आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त की, जिन्हें आज तक विश्व ने देखा ही न था। क्या यह कहना उचित न होगा कि गाँधीवाद जैनधर्म का ही दूसरा रूप है ? जिस हद तक जैनधर्म में अहिंसा और संन्यास का पालन किया गया है वह त्याग की एक महान् । शिक्षा है।। _ 'महात्मा' बनने से पूर्व, जब गाँधी में 'महान् आत्मा' के गुणों का क्रमिक विकास हो रहा था, श्री रायचन्द जी से जैनागम की शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख उन्होंने स्वयं 'हरिजन' में किया है। 'अहिंसा' महात्मा गाँधी का स्पर्श पाकर विश्व में अमर हो गई। _ 'सर्वोदय' की व्यापक, महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भावना, सिद्धांतरूप से, जैनदर्शन की जड़ों में रची-बसी है। वहाँ से ग्रहण कर, स्वतन्त्र भारत के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में, व्यावहारिक रूप में उसे प्रस्तुत करने का श्रेय महान सन्त विनोबा भावे को है।
'युक्त्यनुशासन' के रचयिता, आचार्य श्री समन्तभद्र का स्थितिकाल आज से १७०० वर्ष से भी अधिक पूर्व माना जाता है। उन्होंने महावीर के उपदेश को 'सर्वोदय-तोर्थ' की संज्ञा दी है
सर्वान्तवत्तद्गुण मुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ यहाँ 'सर्वोदय' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ की ओर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। 'सर्वेषां उदयः = सर्वोदयः-सबका उदय । उत् उपसर्गपूर्वक, गत्यर्थक इण् (धातु) में अच् प्रत्यय लगाने से उदय भाववाचक संज्ञा बनती है। 'सबकी उन्नति' इसका अभिप्राय हुआ। सबकी उन्नति ही सर्वोदय है।
उपर्युक्त श्लोक में 'तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित, अनादिकाल से समागत' जिन-सिद्धान्त सभी आपदाओं का अन्त करने वाला सबके विकास का हेतु है । इसी तत्व को रेखांकित किया गया है। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त हों, सुख और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार न हो, सर्वोच्च पद किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग विशेष को सम्पत्ति न हो-यही है सर्वोदयी स्थिति । १ दष्टव्य-श्री पी. एस. कुमारस्वामी की कृति-भगवान् महावीर और
उनका तत्त्वदर्शन-पृ. सं. ५३७, प्रकाशक-जैन साहित्य समिति,
देहली। २ दृष्टव्य- युक्त्यनुशासन श्लोक ६१
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एक प्रकार से विचार किया जाय, तो 'सर्वो- महत्ता है-उसको पहचानना, उसके प्रति यथादय' इस छोटे-से पद में जैनधर्म के सभी प्रमुख सम्भव उदारता का व्यवहार करना । “Do unto the सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है। कर्तावाद का, others as you would like them to do unto यहाँ निषेध है । कोई सर्वशक्तिमान, सृष्टि का कर्ता you." दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करना धर्ता-हर्ता नहीं है और न ही कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य चाहिए जैसा कि हम अपने लिए अपेक्षा करते हैं । HR का कर्ता-हर्ता है। एक कर्त्तावाद और बह-कर्ता- लिंग, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्रीयता आदि के || वाद दोनों ही अमान्य हैं। इसी प्रकार जैनागम भेद होते हुए भी जीवन का पवित्र अस्तित्व है। जगत् को स्वयंसिद्ध मानता है। यह अनादि है भारतवासी भी उतना ही श्रेष्ठ है जितना अफ्रीका अनन्त है। इसका कभी सर्वथा नाश नहीं होता। अथवा अमरीका देश में रहने वाला। परिवर्तन का क्रम निरन्तर जारी रहता है । “यह
“शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः र
शुद्ध्याऽस्तु तादृशः । नित्यानित्यात्मक है, इसकी नित्यता स्वतःसिद्ध है।
९ जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ।।13। और परिवर्तन इसका स्वभावगत धर्म है।" जैनदर्शन में 'धर्म' का शब्द का अर्थ अति व्यापक
जैन आचार-शास्त्र यह मानता है कि ऐसा
शुद्र भी जिसके उपकरण व आचरण शुद्ध हों एवं वैज्ञानिक है।
उच्च वर्गों के समान धर्म-पालन करने योग्य है; वह 'ध्रियते लोकोऽनेन' अथवा 'धरति लोकम्
क्योंकि जाति से हीन आत्मा भी कालादिक लब्धि
। मात्र न होकर स्वभाव (Nature, disposition, को पाकर जैनधर्म का अधिकारी होता है। अभिessential quality, attribute) को द्योतित करता प्राय यही हआ कि योग्य गुणों के अस्तित्व पर है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है, अग्नि जाति निर्भर करती है। इसी तथ्य को सातवीं शताब्दी का दाहकता है, आत्मा का धर्म है 'मोहक्षोभविहीन- के प्रसिद्ध संस्कृत-नाटककार भवभूति ने इस प्रकार 15 समतापरिणाम'। इसकी सर्वग्राह्य परिभाषा रत्न- व्यक्त किया हैकरण्ड श्रावकाचार के द्वितीय श्लोक में आचार्य
"शिशुत्वं स्त्रैणं वा भवतु ननु वन्द्यासि जगतम् । समन्तभद्र ने निम्नांकित शब्दों में प्रस्तुत की है
गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः ।।4 ___ "संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।" । अर्थात्-जो प्राणियों को संसार दुःख से निकालकर ,
पूजनीया अरुन्धती तथा पिता जनक के सम्मुख उत्तम सुख में पहुँचा दे, वही धर्म है। संसार का ।
सीता भले ही छोटी बालिका सरीखी हों परन्तु प्रत्येक प्राणी सुखोपलब्धि की आकांक्षा रखता है।
वन्दनीय है । लिंग अथवा आयु किसी की महनीयता |
के मापदण्ड नहीं होते । गुणियों में गुण ही पूजा के और दुःख से दूर भागता है। यह भी उसका स्व
CE भाव ही है।
अधिष्ठान होते हैं। अहिंसा जैनदर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
सत्य बोलना और दूसरे की सम्पत्ति के अधिइसका अभिप्राय है-प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और कार को स्वीकार करना भी सर्वोदय के पोषक २
१ दृष्टव्य-सर्वोदय तीर्थ, पृ० ८ लेखक-डा० हुकुम-
चन्द भारिल्ल । दष्टव्य-Practical Sanskrit-English Dic- tionary, V. S. Apte, p. 522.
३ दृष्टव्य-सागारधर्मामते, आशाधरः-"भगवान्
महावीर और उनका तत्त्वदर्शन"-१० सं०२६० । ४ दष्टव्य-उत्तररामचरितम्-चतुर्थ अंक, श्लोक
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तत्त्वों में है । संसार के समस्त मतभेद, वैर, वैम- है । विशाल परिप्रेक्ष्य में, यही वैचारिक वैमत्य, Mi नस्य, कथनी और करनी के अन्तर के कारण उत्पन्न टकराहट को-स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा को, विवाद
होते हैं तथा जर, जन और जमीन अर्थात् स्त्री, और युद्ध को जन्म देता है। परन्तु जिस प्रकार कोई धन और भूमि को लेकर पनपते हैं। व्यक्तिगत व्यक्ति पूर्ण नहीं, निर्दोष नहीं, उसी प्रकार कोई भी उदारता, पारस्परिक विश्वास एवं सुरक्षा भावना मत, धर्म, दर्शन सर्वांगसम्पन्न नहीं। सभी एकाँगी आज मानव-जीवन से लुप्तप्राय हो गई है। इन हैं, अपूर्ण हैं । परन्तु जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त कल्याणमयी भावनाओं का शुभारम्भ, परिवार, सभी टकराहटों को आत्मसात् कर लेता है । सहिकुटुम्ब और प्रतिवेशी से लेकर विस्तार तो समाज, ष्णुता के शीतल जल से अभिसिंचित् करता है जैन राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक अपेक्षित है। विचारधारा से पादप केभौतिक सुख-सुविधाओं और आवश्यकताओं
"अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, (ER) का अन्त नहीं । इच्छा-पूर्ति की अन्धी दौड़ ने मानव
वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । जीवन से सुख-शान्ति को कोसों दूर भगा दिया है। आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो, आवश्यक है ऐन्द्रिक सुख की लालसाओं और
गुणानपेक्षे नियमे पवादः ।। सम्पत्ति के अधिग्रहण पर संयम रखना। इससे
अर्थात्-जिस प्रकार 'वृक्षाः' यद पद अनेक सामाजिक न्याय को बल मिलेगा और उपभोग्य
वृक्षों का वाचक होते हुए भी स्वभाव से ही पृथक वस्तुओं के वितरण की समस्या सुलझेगी। समाज
एक वृक्ष का भी द्योतन करता है, इसी प्रकार प्रत्येक के अल्प प्रतिशत व्यक्ति अधिकांश सम्पत्ति के ठेके
पद का वाच्य एक तथा अनेक दोनों होते हैं । एक दार बनकर बैठ जाते हैं जिससे दुर्बल वर्ग प्रति
धर्म का कथन करते समय सहवर्ती दूसरे धर्म का दिन की जीवनोपयोगी वस्तुएँ भी नहीं जुटा पाता।
लोप होने न पावे इस अभिप्राय से स्याद्वादी अपने समाज में असन्तुलन बढ़ता है, अपराधिक प्रवृत्तियाँ
प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात्कार का प्रयोग करता है। भी पनपती हैं । सन्तोषमूलक अपरिग्रह का पालन
यह निपात गौणीभूत धर्म की अपेक्षा न करते हुए सरकर कानून बनाकर नहीं करवा सकती।
भी उसका सर्व लोप होने नहीं देता है। 'कबहुँक हौं यह रहनि रहौंगो।
ईश्वर जगत् का निर्माता नहीं है-किसी को Cil यथालाभ सन्तोष कबहुँ काहू से कुछ न चहौंगो।' हानि-लाभ पहुँचाने से उसे कोई सम्बन्ध नहीं। वह
यथालाभ सन्तोष पद का प्रयोग कर तलसी पूजनीय है उन गुणों के कारण जिन्हें हम अपने ने अपरिग्रह के महत्व को रेखांकित कर दिया है। जीवन में उतारकर तत्सदृश शुद्धात्म स्वरूप प्राप्त
कर सकते हैं। स्कार, परिवेश, पालन-पोषण, खानपान
___महावीर स्वामी से पूर्व तेईस तीर्थकर जलवायु, भौगोलिक स्थिति, शिक्षा, व्यक्तिगत अनु
हुए। सभी सामान्य जन-क्षत्रिय सन्तान-सांसाभवादि जनेक तत्वों से प्रभावित होती है मनुष्य की
रिक क्षुत्पिपासा, शीतोष्ण, मायामोह की सीमाओं चिन्तन प्रक्रिया। यही कारण है कि एक माता-पिता
__ में बँधे हुए थे। उन्होंने अपनी तपस्या के द्वारा केवलकी अनेक सन्तानों का भी सोचने का ढंग-किसी घटना विशेष के प्रति प्रतिक्रिया पृथक्-पृथक् होती
__ ज्ञान प्राप्त किया-तीर्थकरत्व प्राप्त किया अपने___ अपने युग की अपेक्षाओं के अनुकूल । स्पष्ट है, कि
(शेष पृष्ठ ३१० पर देखें) १ दृष्टव्य जैनधर्मसार श्लोक संख्या ४०४
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जागरण का शंखनाद ! जीवन-निर्माण के लिए
जागे युवा शक्ति !
- उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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तीन अवस्थाएँ
प्रकृति का यह कैसा अटल नियम है, कि प्रत्येक चेतन पदार्थ की तीन अवस्थाएँ होती हैं - बचपन, यौवन और बुढ़ापा । चाहे आप जगत की महानतम शक्ति-सूर्य को देखिए, चाहे एक नन्हें से पुष्प को । सूर्य उदय होता है, उसकी किरणें कोमल और सुहावनी होती हैं, प्रातःकाल की कोमल धूप अच्छी लगती है । मध्यान्ह में सूर्य पूरे यौवन पर आता है तो धूप प्रचंड और असह्य हो जाती है । शरीर को सुहावनी लगने वाली किरणें जलाने लग जाती हैं । सायंकाल होते-होते सूर्य बुढ़ापे की गोद में चला जाता है, तब तेज, मन्द पड़ जाता है, किरणें शान्त हो जाती हैं ।
पुष्प, अंकुर और प्रत्येक जन्मधारी प्राणी इन्हीं तीन अवस्थाओं से गुजरता है | भगवान महावीर ने इन्हें तीन याम 'जाम' कहे हैं । 'तओ जामा पण्णत्ता, पढमे जामे मज्झिमे जामे दिन के तीन प्रहर की भाँति प्रत्येक जीवन के तीन प्रहर - अर्थात् तीन अवस्थाएँ होती है ।
अर्जन का काल : बाल्यकाल
प्रथम याम - अर्थात् - उदयकाल है - बचपन का सुहावना समय है, उदयकाल में प्रत्येक जीवधारी शक्तियों का संचय करता है । प्राण शक्ति और ज्ञान शक्ति, दोनों का ही अर्जन-संचय अथवा संग्रह बाल्यकाल में होता है । बाल्यकाल कोमल अवस्था है । कोमल वस्तु को चाहे जैसा आकार दिया जा सकता है, चाहे जिस आकृति में ढाला जा सकता है । बाल्यकाल में शरीर और मन, बुद्धि और शरीर की नाड़ियां, नसें सभी कोमल होती हैं, अतः शरीर को बलवान, पहलवान बनाना हो तो भी बचपन से ही अभ्यास किया जाता है। अच्छे संस्कार, अच्छी आदतें, बोलने, बैठने की सभ्यता और संस्कार, काम करने का सलीका, बचपन से ही सिखाये जाते हैं। मानस शास्त्री कहते हैं - 'यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत' जो संस्कार, आदतें बचपन में लग जाती हैं, वे जीवन भर मिटती नहीं, इसलिए बचपन 'अर्जुन' का समय है । बल संचय, विद्या अर्जन और संस्कार निर्माण - यह बचपन की ही मुख्य देन हैं ।
यौवन : सर्जन का समय
जीवन की दूसरी अवस्था है - जवानी | कहने को जवानी को दिवानी कहते हैं । शरीर, बुद्धि, संस्कार - सभी का पूर्ण विकास इस अवस्था में जाता है । छोटा-सा पौधा धीरे-धीरे जड़ें जमाकर
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A अपना विकास कर लेता है और फूल तथा फल बसन्त में सभी वृक्ष, लता, पौधे खिल जाते हैं,
देने में समर्थ हो जाता है । इस अवस्था में विकसित होकर झमने लगते हैं और All स्वाभाविक ही रक्त में उष्णता, स्फूर्ति और व फलों से अपना सौन्दर्य प्रकट करते हैं, उसी E५ प्रवाहशीलता अधिक होती है, इसलिए मनुष्य का प्रकार यौवन भी उत्साह व स्फूर्ति की लहरों से
शरीर कष्ट सहने में अधिक सक्षम रहता है, तरंगित होकर कुछ न कुछ करने को ललकता है, काम करने में फुर्तीला और समर्थ रहता है। निर्माण करने को आतुर होता है। यदि जवानी में बचपन में जो बल-शक्ति घुटनों में थी, वह अब किसी को निर्माण करने का अवसर नहीं मिलता हृदय में संचारित हो जाती है, इसलिए युवक में है, सर्जन करने की सुविधा व मार्गदर्शन नहीं
साहस और शक्ति का प्रवाह बढ़ने लगता है। मिलता है, तो उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती ( बाल्यकाल में यदि शिशु अच्छे संस्कार व अच्छी हैं, कुण्ठा व आन्तरिक तनाव से वह भीतर ही
आदतें सीख लेता है, खान-पान आदि के संयम के भीतर घुटन महसूस करता है। साथ रहता है तो युवा अवस्था में उसमें अद्भुत
मानव-जीवन भी तीन अवस्थाओं में गुजरता शक्ति व स्फूर्ति प्रकट होती है, उसके शरीर में संचित वीर्य, ओज, तेज बनकर उसके तेजस्वी,
है, बचपन अधूरा होता है, बुढ़ापा अक्षम होता है, प्रभावशाली और सुदर्शन व्यक्तित्व का निर्माण
विकास की अन्तिम सीढ़ी पर खड़ा होता है । करते हैं, इसलिए माता-पिता, जो अपनी सन्तान
यौवन ही वह समय है, जो जीवन को समूचेपन से को तेजस्वी बनाना चाहते हैं, आकर्षक व्यक्तित्व
भरता है, समग्रता देता है, परिपूर्णता देता है। वाला बनाना चाहते हैं, उन्हें बचपन से ही उनके
यौवन सोचने की सामर्थ्य भी देता है और करने संस्कारों की तरफ ध्यान देना चाहिए।
की क्षमता भी, इसलिए 'यौवन' मनुष्य की अन्तर्
बाह्य शक्तियों के पूर्ण विकास का समय है। इस __ संसार में जितने भी तेजस्वी और प्रभावशाली
अवस्था में मनुष्य अपने हिताहित का स्वयं निर्णय व्यक्तित्व हुए हैं, उनके जीवन-निर्माण में जागरूक
कर सकता है और स्वयं ही उसको कार्यरूप दे माता का हाथ उसी प्रकार रहा है, जैसे अच्छे
सकता है । बचपन और बुढ़ापा-परापेक्ष हैं, परावफलदार वृक्षों के निर्माण में कुशल माली की देख
लम्बी हैं। यौवन स्व-सापेक्ष है, स्वावलम्बी है। रेख रहती है।
भगवान महावीर ने इसे जीवन का मध्यकाल . जिन बच्चों की बचपन में देखरेख नहीं रहती बताया है, जागरणकाल बताया है और निर्माणजिन्हें अच्छे संस्कार नहीं मिलते, योग्य शिक्षण काल भी। व संरक्षण नहीं मिलता, वे जवानी आने से पहले
मज्झिमेण वयसा एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिता (Eph) ही मुर्झ जाते हैं, दीपक प्रज्वलित होने से पहले
ही बुझ जाते हैं । वृक्ष, फलदार बनने से पहले ही यौवन वय में कुछ लोग जाग जाते हैं, स्वयं की सूखने लग जाता है, अतः कहा जा सकता है, यौवन पहचान कर लेते हैं, अपने व्यक्तित्व की असीम उन्हीं का चमत्कारी और प्रभावशाली होता है, क्षमताओं का अनुमान कर लेते हैं और पुरुषार्थ की जिनका बचपन संस्कारित रहता है।
अनन्त-अनन्त शक्ति को उस मार्ग पर लगा देते हैं, ___ बचपन अर्जन का समय है तो यौवन-सर्जन का
जिस पथ पर बढ़ना चाहते हैं, उस पथ को अपनी
सफलताओं की वन्दनवार से सजा देते हैं। समय है । तरुण अवस्था नव-सर्जन की वेला है। बचपन शिशिर ऋतु है, तो जवानी बसन्त ऋतु है। जो युवक होकर भी, यौवन में अपनी क्षमता
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A का उपयोग नहीं कर सकता, या अपने को पहचान भी २८ वर्थ की अवस्था में गृहत्याग कर यौवन
नहीं पाता, वह जीवन की बाजी हार जाता है। को तपाते हैं और बुद्धत्व प्राप्त करते हैं । सिकन्दर, इसलिए यौवन का क्षण-क्षण, एक-एक पल कीमती चन्द्रगुप्त, अशोक, गाँधी, नेहरू, मार्क्स, लेनिन, है, इसको व्यर्थ मत जाने दीजिए सिर्फ कल्पना या चचिल, रूजवेल्ट, सभी का इतिहास उठा कर देख स्वप्न देखना छोड़कर निर्माण में जुट जाइए। लीजिए । २५ से ४५ वर्ष का जीवनकाल ही सबके उत्साह : यौवन की पहचान है
अभ्युदय और सफलता का महान समय रहा है। हा मैं एक युवक सम्मेलन में उपस्थित हुआ था,
___ आयु का यही वह समय है, जब मनुष्य कोई महान " सैंकड़ों युवक बाहर से आये थे, स्थानीय कार्यकर्ता
। कार्य कर सकता है, अथक परिश्रम व कष्ट सहने ने युवकों का परिचय कराया, तो एक युवक को ।
। की क्षमता, आपत्तियों का मुकाबला करने की
शक्ति, संघर्ष की अदम्य चेतना यौवन काल में ही सामने लाकर बोले-महाराज साहब, यह हमारे दीप्त रहती है । यौवन में न केवल भुजाओं में बल गाँव का उत्साही युवक है।।
रहता है, किन्तु सभी मानसिक शक्तियाँ भी पूर्ण मैंने उसे गौर से देखा, और सोचा-"उत्साही जागृत और पूर्ण स्फूर्तियुक्त रहती हैं, उनमें ऊर्जा द युवक", इसका क्या मतलब ? उत्साह तो युवक भी भरपूर रहती है और ऊष्मा भी। इसलिए सफ
की पहचान है, उत्साह युवक का पर्याय है, जिस लता का यह स्वर्ण काल कहा जा सकता है । नवपानी में तरलता व चंचलता नहीं, वह पानी ही सर्जना का यह बसन्त और श्रावण मास माना जा नहीं, जिस घोड़े में स्फूर्ति नहीं, तेजी नहीं, वह सकता है । भगवान् महावीर ने इसे ही जीवन का
मरियल टट्टू कोई "अश्व" होता है ? इसी प्रकार मध्यकाल कहा है । * जिस युवक में उत्साह नहीं, वह कोई युवक है ?
हाँ, अगर कोई कहता, ये "उत्साही बुजुर्ग है" कि हाँ. अगर कोई करता. या
विसर्जन का समय : बढापा । तो उत्साह उसकी शोभा होता, "उत्साही-युवक" बचपन का अर्जनकाल, यौवन का सर्जनकाल कर यह युवक का विशेषण नहीं, या युवा की पहचान पूर्ण होने के बाद, बुढ़ापे का विसर्जनकाल आता । नहीं, किन्तु यौवन का अपमान है, उसकी शक्तियों है। बचपन में जो शक्ति संचित की जातो है, वह की अवगणना है।
यौवन में व्यय होती है, और नव-सर्जन में काम
आती है, किन्तु अर्जन और सर्जन परिपूर्ण होने के यौवन में ही महान कार्य हुए हैं
बाद "विसर्जन" भी होना चाहिए। जगत से, ____संसार के महापुरुषों का इतिहास उठाकर प्रकृति से, समाज से और परिवार से जो कुछ प्राप्त / देखिए, जितने भी वीर, योद्धा, प्रतिभाशाली, देश- किया है, उसे, उसके लिए देना भी चाहिए । जो भक्त, धर्मनेता, राष्ट्रनेता, वैज्ञानिक, आवि- ज्ञान, अनुभव, नया चिन्तन और विविध प्रकार की | कारक, महापुरुष और अपने क्षेत्र की हस्तियाँ हुई जानकारियाँ आपको दीर्घकालीन श्रम के द्वारा, ||5) हैं, उन सबका अभ्युदय काल यौवन ही है । यौवन साधना के द्वारा प्राप्त हुई हैं, उनको समाज के
की रससिक्त ऋतु ने ही उनके जीवन वृक्ष पर सफ- लिए, मानवता के कल्याण हेतु विसर्जन करना भी - लता के फल खिलाये हैं । भगवान् महावीर ३० वर्ष आपका कर्तव्य है । जो धन-समृद्धि, वैभव आपको, न की भरी जवानी में साधना-पथ पर चरण बढ़ाते हैं, अपनी सूझ-बूझ, परिश्रमशीलता और भाग्य द्वारा
और यौवन के १२ वर्ष तपस्या, साधना, ध्यान उपलब्ध हुआ है, उन उपलब्धियों को चाहे, वे आदि में बिताकर तीर्थंकर बनते हैं। गौतम बुद्ध भौतिक हैं, या आध्यात्मिक हैं, मानवता के हित
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कल्याण हेतु उनका अर्पण-विसर्जन करना भी अनि- व विपक्ष पर 'छु' करके छोड़ देते हैं । वे युवकों को वार्य है। सरोवर में या कुए में जल भरता ही नाना प्रलोभन देकर, सरसब्ज बाग दिखाकर दिग-112 रहे, कोई उस जल का उपयोग न करे, तो वह जल भ्रांत किये रखते हैं। इस मृगतृष्णा में पड़ा युवक गन्दा हो जाता है, खारा हो जाता है, किन्तु जल न तो अपना स्वतन्त्र चिन्तन कर कुछ निर्माण कर प्रवाह बहता रहे, तो जल स्वच्छ और मधुर बना सकता है और न ही उनके चंगुल से छूटने का साहस रहता है । इसलिए प्रौढ़ अवस्था के बाद मनुष्य को ही दिखा सकता है। दूसरों के इशारों पर कलासमाज-सेवा, राष्ट्र-सेवा तथा दान एवं परोपकार बाजी दिखाना और विद्रोह-विध्वंस में अपनी शक्ति का की तरफ विशेष रूप से बढ़ना चाहिए। यह सेवा का दुरुपयोग करते रहना-यह युवा-शक्ति के लिए परोपकार एवं दान ही "विसर्जन" का रूप है, जो शर्म की बात है । अब विद्रोह और विध्वंस का नहीं
मुख्य रूप में वृद्ध अवस्था, या परिपक्व अवस्था में किन्तु निर्माण का रास्ता अपनाना है। यद्यपि ENA किया जाता है, किन्तु यहाँ अधिक इस विषय में विध्वंस करना सरल है, निर्माण करना कठिन है। C)
अभी नहीं कहना है, यहाँ हमें युवाशक्ति के विषय किसी भी सौ-दो सौ वर्ष पुरानी इमारत को एक पर ही चिन्तन करना है।
धमाके के साथ गिराया जा सकता है ____ मैंने कहा था कि समाज में, संसार में चाहे ।
___ निर्माण करने में बहुत समय और शक्ति लगती है। o जिस देश का या राष्ट्र का इतिहास पढ़ लीजिए,
मैं युवकों को कहना चाहता हूँ, प्रत्येक वस्तु आपको एक बात स्पष्ट मिलेगी कि धार्मिक या को रचनात्मक दृष्टि से देखो, विरोध-विद्रोह, सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक, जिस किसी
विध्वंस की दृष्टि त्यागो, जो परिस्थितियाँ हमारे क्षेत्र में जो क्रान्तियाँ हुई हैं, परिवर्तन हुए हैं, और
___ सामने हैं, जो व्यक्ति और जो साधन हमें उपलब्ध 5 नवनिर्माण कार्य हुए हैं, उनमें पचहत्तर प्रतिशत
हैं, उनको कोसते रहने से या गालियाँ देते रहने से 10 युवाशक्ति का योगदान है। इसलिए युवाशक्ति कुछ नहीं होगा, बल्कि सोचना यह है कि उनका यानी क्रान्ति की जलती मशाल ! युवा शक्ति यानी उपयोग कसे, किस प्रकार से कितना किया जा नवसृजन का स्वर्णिम प्रभात !
सकता है ताकि इन्हीं साधनों से हम कुछ बन सकें, मान
कुछ बना सकें। रचनात्मक दृष्टिकोण रखिए :
राम ने जब लंका के विशाल साम्राज्य के साथ __ मैंने बताया कि यौवन सर्जन का काल है, यह युद्ध की दुन्दुभि बजाई तो क्या साधन थे उनके बसन्त का समय है, जिसमें जीवन के प्रत्येक पहलू पास ? कहाँ अपार शक्तिशाली राक्षस राज्य और पर उमंग और उल्लास महकता है, कुछ करने की कहाँ वानरवंशी राजाओं की छोटी-सी सेना। ललक उमंगती है इसलिए यौवन एक रचनात्मक सीमित साधन ! अथाह समुद्र को पार कर सेना ? काल है। आज के युवावर्ग में रचनात्मक दृष्टि का को उस पार पहुँचाना कितना असंभव जैसा कार्य ।
अभाव है। वे दूसरों की तो आलोचना तो करते हैं, था, किन्तु उन सीमित साधनों से छोटी-सी सेना मा नारेबाजी और शोर-शराबा करके विद्रोह का को भी राम ने इस प्रकार संगठित और उत्साहित विगुल भी बजा देते हैं। वे किसी भी निहित स्वार्थ किया जो रावण के अभेद्य दुर्ग से टक्कर ले सकी। वालों के इशारों पर अपनी शक्ति का दुरुपयोग राम ने अभावों की कमी पर ध्यान नहीं दिया, करने लग जाते हैं । आजकल के राजनीति छाप समुद्र पर पुल बनाने के लिए और कुछ साधन नहीं ) समाज नेता, युवाशक्ति को अलसे शियन कुत्ते की मिले तो पत्थरों का ही उपयोग कर अथाह समुद्र तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन्हें किसी भी विरोधी की छाती पर सेना खड़ी कर दी। ३०२
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तो इस प्रकार अल्प साधना नगण्य सहयोग की की दृष्टि से संसार का सर्वाधिक सम्पन्न और सब तर्फ नहीं देखकर जो उपलब्ध है उसे ही सकारात्मक ऋतुओं के अनुकूल वातावरण वाला महान देश रूप देना है, रचनात्मक दृष्टि से लेना है और छोटे भारत गरीब राष्ट्रों की गिनती में आता है। और
छोटे तिनकों से हाथियों को बांध देना है। युवा छोटे-छोटे देशों से भी कर्ज लेकर अपने विकास हर वर्ग इस प्रकार जीवन में रचनात्मक दृष्टि से सोचने और निर्माण कार्य कर रहा है। भारत के हजारों, की आदत डालें।
लाखों युवा वैज्ञानिक और लाखों कुशल डाक्टर शक्ति का उपयोग सर्जन में हो
विदेशों में जाकर बस गये, अपनी मातृभूमि की ।
सेवा न करके, अन्य राष्ट्रों की सेवा में लगे हैं, का युवाशक्ति-एक ऊर्जा है, एक विद्य त है। इसका क्या कारण है ? मेरी समझ में सबसे मुख्य विद्य त का उपयोग संसार में निर्माण के लिए भी कारण है-युवाशक्ति में दिशाहीनता और निराशा होता है, और विध्वंस के लिए भी । अणु-शक्ति का छाई हुई है, कर्तव्य भावना का अभाव और देश व उपयोग यदि शान्तिपूर्ण निर्माण कार्यों के लिए मानवता के प्रति उदासीनता ही इस विनाश और
होता है, तो संसार में खुशहाली छा जाती है और विपत्ति का कारण है। Neil यदि अणबम या अणयुद्ध में उसका उपयोग किया इसलिए आज यवाशक्ति को कर्तव्यबोध करना 419) 30 गया तो सर्वत्र विनाश और सर्वनाश की विभीषिका है। जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य और दिशा स्पष्ट 5 छायेगी । यूवाशक्ति भी एक प्रकार की अणुशक्ति करती है।
है, इस शक्ति को यदि समाज-सेवा, देश-निर्माण, राष्ट्रीय-विकास और मानवता के अभ्युत्थान के
संस्कृत में एक सूक्ति हैकार्यों में लगा दिया जायेगा तो बहत ही चमत्कारी यौवनं धन-संपत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता। मा परिवर्तन आ जायेंगे । संसार की दरिद्रता, बेकारी, एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ? पीड़ाएँ, भय, युद्ध, आतंक आदि समाप्त होकर प्रेम, भाईचारा, खुशहाली, सुशिक्षा, आरोग्य, और सभी योवन, धन-सम्पत्ति, सत्ता, अधिकार और को विकास के समान अवसर मिल सकेंगे । आप अविवेक (विचारहीनता)- ये प्रत्येक ही एक-एक देख सकते हैं, जापान जैसा छोटा-सा राष्ट्र जो पर- दानव हैं, यदि ये चारों एक ही स्थान पर एकत्र हो
माणु युद्ध की ज्वाला में बुरी तरह दग्ध हो चुका हो जायें, अर्थात् चारों मिल जाएँ, तो फिर क्या All था, हिरोशिमा और नागासाकी की परमाण विभी- अनर्थ होगा ? कैसा महाविनाश होगा ? कुछ नहीं म षिकाएँ उसकी समूची समृद्धि को मटियामेट कर कहा जा सकता।
चुकी थीं, वही राष्ट्र पुनः जागा, एकताबद्ध हुआ, युवक, स्वयं एक शक्ति है, फिर वे संगठित हो युवाशक्ति संगठित हुई और राष्ट्रीय भावना के ।
. हो जायें, एकता के सूत्र में बंध जायें, अनुशासन में साथ नवनिर्माण में जुटी तो आज कुछ ही समय में संसार का महान धनाढ्य और सबसे ज्यादा प्रगति
___ चलने का संकल्प ले लें, विवेक और विचारशीलता
' से काम लें, तो वे संसार में ऐसा चमत्कारी परिशील राष्ट्र बन गया है।
वर्तन कर सकते हैं कि नरक को स्वर्ग बनाकर दिखा कर्तव्य बोध कीजिए
सकते हैं, जंगल में मंगल मना सकते हैं। इसलिए आज भारत की युवापीढ़ी बिखरी हुई है, दिशा- चाहिए, कुछ दिशाबोध, अनुशासन, चारित्रिक हीन है, और निर्माण के स्थान पर विध्वंस और नियम, अतः मैं इसी विषय पर युवकों को कुछ विघटन में लगी हुई है, इसलिए प्राकृतिक साधनों संकेत देना चाहता हूँ । | चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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अनुशासन में रहना सीखो
औद्योगिक क्षेत्र में, वह हर जगह अपना अलग ही
स्थान बनायेगा, उसका व्यक्तित्व अलग चमकेगा, __ युवा वर्ग को आज सबसे पहली जरूरत है
सबको प्रभावित भी करेगा; और सभी क्षेत्रों में अनुशासित रहने की, संगठित रहने की । छोटे-छोटे
प्रगति, उन्नति एवं सफलता भी प्राप्त करेगा। स्वार्थों के कारण, प्रतिस्पर्धा के कारण, जहाँ युवक अप परस्पर टकराते हैं, एक-दूसरे की बुराई और एक- अनुशासन भी कई प्रकार के हैं सबसे पहला दूसरे को नीचा दिखाने का काम करते हैं, वहाँ और सबसे आवश्यक अनुशासन है- 'आत्मानुशासन।' कभी भी निर्माण नहीं हो सकता, नवसृजन नहीं जिसने अपने आप पर अनुशासन करना सीख लिया हो सकता।
वह संसार में सब पर अनुशासन कर सकता है और
. सब जगह सफल हो सकता है। ___अनुशासन, प्रगति का पहला पाठ है । जो स्वयं । अनुशासन में रहना जानता है, वह दूसरों को भी आत्मानुशासन का मतलब है-अपनी अनावअनुशासित रख सकता है । जहाँ सब मिलकर एक- श्यक इच्छाओं पर, आकांक्षाओं पर, गलत आदतों जुट होकर काम करते हैं, वहाँ प्रगति, समृद्धि और पर, और उन सब भावनाओं पर बुद्धि का नियन्त्रण सत्ता स्वयं उपस्थित होती है। तथागत बुद्ध ने कहा रखना, जिनसे व्यर्थ की चिंता, भाग-दौड़, परेशानी, था-'जब तक वैशाली गणराज्य के क्षत्रिय परस्पर हानि और बदनामी हो सकती है । मनुष्य जानता है । मिलकर विचार करेंगे, वद्धजनों का परामर्श मानेंगे, कि मेरी यह इच्छा कभी पूरी होने वाली नहीं, (६) एक-दूसरे का सन्मान करेंगे और संगठित-एकमत या मेरी इस आदत से मुझे बहुत नुकसान हो सकता होकर कोई कार्य करेंगे, तब तक कोई भी महा- है, बोलने की, खाने की, पीने की, रहन-सहन की, शक्ति इनका विनाश नहीं कर सकती।
ऐसी अनेक बुरी आदतें होती हैं, जिनसे सभी तरह
की हानि उठानी पड़ती है, आर्थिक भी, शारीरिक भारत जैसे महान राष्ट्र के लिए भी आज यही भी। कभी-कभी इच्छा व आदत पर नियन्त्रण न बात कही जा सकती है, यहाँ का युवावर्ग यदि अपने कर पाने से मनुष्य अच्छी नौकरी से हाथ धो बैठता वृद्धजनों का सन्मान करता रहेगा, उनके अनुभव से है, अपना स्वास्थ्य चौपट कर लेता है और धन लाभ लेता रहेगा, उनका आदर करेगा और स्वार्थ बर्बाद कर, दर-दर का भिखारी बन जाता है, अतः की भावना से दूर रहकर धर्म व राष्ट्रप्रेम की जीवन में सफल होने के लिए 'आत्मानुशासन' सबसे । भावना से संगठित रहेगा, एक-दूसरे को सन्मान महत्त्वपूर्ण गुर है । देगा तो वह निश्चित ही एक दिन संसार की महा
आत्मानुशासन साध लेने पर, सामाजिक अनुशक्ति बन जाएगा । कोई भी राष्ट्र इसे पराजित तो शासन, नैतिक अनुशासन और भावनात्मक अनुशाक्या टेढ़ी आंख से भी देखने की हिम्मत नहीं करेगा सन, स्वतः सध जाते हैं, अतः युवा वर्ग को सर्वप्रथम अतः सर्वप्रथम युवावर्ग को 'अनुशासन' में रहने की
भगवान् महावीर का संदेश पद-पद पर स्मरण आदत डालनी चाहिए। अनुशासित सिपाही की रखना चाहिए-'अप्पादन्तो सुही होई' अपने र भांति, संगठित फौज की भांति उसे अपनी जीवन
आप पर संयम करने वाला सदा सुखी रहता है। शैली बनानी चाहिए।
अपनी भावना पर, अपनी आदतों पर और अपनी ___ जो व्यक्ति अनुशासित जीवन जीना सीख लेता हर गतिविधि पर स्वयं का नियन्त्रण रखे । है, वह चाहे राजनैतिक क्षेत्र में रहे, धार्मिक क्षेत्र पाँच आवश्यक गुण में रहे, प्रशासनिक क्षेत्र में रहे, या व्यापारिक, यह माना कि 'युवा' आज संसार की महान
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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शक्ति है। 'युवावस्था' जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिर श्रद्धा का दीपक जलायें। श्रद्धाशीलता हो । घड़ी है, किन्तु इस शक्ति को, इस समय की सन्धि मनुष्य को कर्तव्य के प्रति उत्साहित करती है, को हम तभी उपयोगी बना सकते हैं, जब वह अपनी कर्तव्य से बाँध रखती है। श्रद्धा कर्ण का वह कवच सकारात्मक शक्तियों को जगायेगी। अपनी सकारा- है जिसे भेदने की शक्ति न अर्जुन के वाणों में थी त्मक शक्तियों को जगाने के लिए युवा वर्ग को इन और न ही भीम की गदा में। पाँच बातों पर ध्यान केन्द्रित करना है
___ श्रद्धा अज्ञानमूलक नहीं, ज्ञानमूलक होनी १. श्रद्धाशील बनें-आज का युवा मानस
. चाहिए। इसलिए पहले पढ़िये, स्वाध्याय कीजिए, श्रद्धा, आस्था, विश्वास, फेथ (Faith) नाम से
ज्ञान प्राप्त कीजिए। सत्य-असत्य की पहचान का
थर्मामीटर अपने पास रखिए और फिर सत्य पर नफरत करता है, वह कहता है-श्रद्धा करना बूढ़ों का काम है, युवक की पहचान है-बात-बात में
श्रद्धा कीजिए, लक्ष्य पर डट जाइए। यदि आपमें तर्क, अविश्वास और गहरी जाँच-पड़ताल । मैं
श्रद्धा की दृढ़ता नहीं होगी तो आपका जीवन बिना समझता हूँ-युवा वर्ग में यही सबसे बड़ी भ्रान्ति
नींव का महल होगा, आपकी योजनाएँ और कल्पया गलतफहमी हो रही है। श्रद्धा या विश्वास एक
नाएँ, आपके सपने और भावनाएँ शून्य में तैरते ऐसा टॉनिक है, रसायन है जिसके बिना काम करने गुड़
- गुब्बारों के समान इधर-उधर भटकते रहेंगे । इस1 की शक्ति आ ही नहीं सकती। जब तक आप अपने लिए युवा वर्ग को मैं कहना चाहता है, सर्वप्रथम
स्वयं के प्रति श्रद्धाशील नहीं होंगे, अपनी क्षमता पर श्रद्धा का कवच धारण करें। विश्वास करना सीखें हा भरोसा नहीं करेंगे, तव तक कुछ भी काम करने की तो सर्वत्र विश्वास प्राप्त होगा। अफवाहों में न हिम्मत नहीं होगी। श्रद्धाहीन के पाँव डगमगाते उड़ें, भ्रान्तियों के अंधड़ में न बहें, स्वयं में स्थिरता, रहत है, उसकी गति में पकड़ नहीं होती, स्थिरता हढ़ता और आधारशीलता लायें। नहीं होती और न ही प्रेरणा होती है। हम एक २. आत्मविश्वासी और निर्भय बनें-श्रद्धाशीलता व्यक्ति पर, एक नेता पर, एक धर्म सिद्धान्त पर, का ही एक दूसरा पक्ष है-आत्मविश्वास । एक नैतिक सद्गुण पर या भगवान नाम की किसी विश्वास' जीवन का आधार है। जीवन के हर क्षेत्र परम शक्ति पर जब तक भरोसा नहीं करेंगे, श्रद्धा
में विश्वास से ही काम चलता है। सबसे पहली बात नहीं करेंगे तब तक न तो हमारे सामने बढने का हैं, दूसरों पर विश्वास करने से पहले, अपने आप कोई लक्ष्य होगा, न ही मन में बल होगा, उत्साह
पर विश्वास करें। जो अपने पर विश्वास नहीं कर
सकता, वह संसार में किसी पर भी विश्वास नहीं होगा और न ही समर्पण भावना होगी। प्रेम जैसे
कर सकता। विश्वास करने की उसकी सभी बातें है। समर्पण चाहता है, राष्ट्र वैसे ही बलिदान चाहता है और भगवान् श्रद्धा चाहता है । नाम भिन्न-भिन्न
झूठी हैं, क्योंकि आपके लिए सबसे जाना-पहचाना
और सबसे नजदीक आप स्वयं हैं, इससे नजदीक का हैं, बात एक ही है, अन्तर् का विश्वास जागृत हो।
मित्र और कौन है ? जब आप अपने सबसे अभिन्न जाये तो श्रद्धा भी जगेगी, समर्पण भावना भी बढ़ेगी।
अंग आत्मा पर, अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि और अपनी और बलिदान हो जाने की दृढ़ता भी आयेगी।
कार्यक्षमता पर भी विश्वास नहीं कर सकेंगे तो . इसलिए मैं युवा वर्ग से कहना चाहता हूँ- दुनिया में किस पर विश्वास करेंगे ? माता, भाई,
आप 'श्रद्धा' नाम से घबराइए नहीं । हाँ, श्रद्धा के पत्नी, पुत्र, मित्र ये सब दूर के एवं भिन्न रिश्ते हैं। है नाम पर अंधश्रद्धा के कुएं में न गिर पड़ें, आँख खुली आत्मा का रिश्ता अभिन्न है, अतः सबसे पहले में रखें, मन को जागृत रखें, बुद्धि को प्रकाशित, और अपनी आत्मा पर विश्वास करना चाहिए।
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आपकी आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं। धर्म- और दूसरे साथियों को भी उत्साहित करें, जीवन शास्त्र की भाषा में आत्मा अनन्तशक्तिसम्पन्न है। लक्ष्य को प्राप्य करें, मन की शक्तियों को केन्द्रित और आज के विज्ञान की भाषा में मानव शरीर, करें, आत्मा को बलवान बनायें--'नायमात्मा बलअसीम अगणित शक्तियों का पुंज है। कहते हैं, हीनेन लभ्यः' यह आत्मा या समझिए, संसार का एक पश्चिम के मानस शास्त्रियों ने प्रयोग करके बताया भौतिक व आध्यात्मिक वैभव बलहीन, दुर्बल TH है कि मनुष्य अपनी मस्तिष्क शक्तियों को केन्द्रित व्यक्तियों को प्राप्त नहीं हो सकता, 'वीरभोग्या ICT करके उनसे इतनी ऊर्जा पैदा कर देता है, कि एक वसुन्धरा'- यह रत्नगर्भा पृथ्वी वीरों के लिए ही लम्बी ट्रेन १०० किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से चल जाती है। हजारों, लाखों टन वजन की ट्रेन
आत्म-विश्वास जगाने के लिए किसी दवा या चलाना, क्रन उठाना, यह जब आपकी मस्तिष्कीय
___टॉनिक की जरूरत नहीं है, किन्तु आपको ध्यान, THERA ऊर्जा से सम्भव हो सकता है, तो कल्पना कीजिए, योग, जप. स्वाध्याय,जैसी विधियों का सहारा लेना आपकी मानसिक ऊर्जा में कितनी प्रचण्ड शक्ति पडेगा। ध्यान-योग-जप, यही आपका टॉनिक है, (पावर) होगी।
यही वह पावर-हाउस है, जहाँ का कनेक्शन जुड़ते प्राचीन समय में मन को एकाग्र करके मन्त्र- ही शक्ति का अक्षय स्रोत उमड़ पड़ेगा। जाप करने से देवताओं का आकर्षण करने की घट
अतः बन्धुओ ! जीवन में सफलता और महान । नाएँ होती थीं, क्या वे कल्पना मात्र हैं ? नहीं।
आदर्शों के शिखर पर चढ़ने के लिए स्वयं को मानव, मन की प्रचण्ड शक्ति से करोड़ों मील दूर बैठे देवताओं का आसन हिला सकता है, तो क्या।
__ अनुशासित कीजिए, आत्म-विश्वास जगाइये, अपने आस-पास के जगत् को, अपने सामने खड़े
निर्भय बनिये और स्वयं के प्रति निष्ठावान !
रहिये........। व्यक्ति को प्रभावित नहीं कर सकता? इसमें किसी प्रकार के मैस्मेरिज्म या सम्मोहन की जरूरत नहीं
३. चरित्रबल बढ़ाइये-चरित्र मनुष्य की है, किन्तु सिर्फ मनःसंयम, एकाग्रता और दृढ इच्छा सबसे बड़ा सम्पत्ति है । एक अंग्रेजी लेखक ने कहा शक्ति की जरूरत है।
___ "धन गया तो कुछ भी नहीं गया, स्वास्थ्य ___आज के युवा वर्ग में देखा जाता है, प्रायः इच्छा शक्ति का अभाव है, न उसमें मानसिक संयम है,
गया तो बहुत कुछ चला गया और चरित्र चला
गया तो सब कुछ नष्ट हो गया।" चरित्र या न एकाग्रता और न इच्छा शक्ति और यही कारण
मॉरल एक ही बात है, यही हमारी आध्यात्मिक है कि आज का यूवक दीन-हीन बनकर भटक रहा
और नैतिक शक्ति है, मानसिक बल है, हमें किसो है । जीवन में निराशा और कुण्ठा का शिकार हो
भी स्थिति में किसी के समक्ष बोलने, करने या डट रहा है। असफलता की चोट खाकर अनेक युवक जाने की शक्ति अपने चरित्रबल से मिलती है। आत्महत्या कर लेते हैं, तो अनेक यूवक असमय
चरित्र या नैतिकता मनुष्य को कभी भी पराजित में ही बुड्ढे हो जाते हैं, या मौत के मुह में चले
___ नहीं होने देती, अपमानित नहीं होने देती । सच्चजाते हैं।
रित्र व्यक्ति, अपनी नैतिकता का पालन करने ____ मैं अपने युवा बन्धुओं से कहना चाहता हूँ, वे वाला कभी भी किसी भी समय निर्भय रहता है जागे, उठे-उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्य वरान्, और वह हमेशा सीना तानकर खड़ा हो सकता निबोधत ! स्वयं उठे, अपनी शक्तियों को जगायें है। चरित्रवान् की नाक सदा ऊँचो रहती है।
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___ युवा वर्ग को अपनी शक्तियों का उपयोग करने राष्ट्र का उत्थान करना है तो सबसे पहले स्वयं के hi के लिए यह जरूरी है कि वह सर्वप्रथम अपने चरित्र व नैतिक बल को सुदृढ़ व सुरक्षित रखना आचरण पर ध्यान देवें, चरित्रवान बनें ।
होगा। ____ आज की परिस्थितियों में चरित्रवान या सदा- ४. सहनशील बनिए-सहिष्णुता एक ऐसा गुण ! चारी बने रहना कुछ कठिन अवश्य है, परन्तु है जो मनुष्य को देवता बना देता है । कहावत हैअसम्भव नहीं है और महत्व तो उसी का है जो सौ-सौ टाँचे खाकर महादेव बने हैं । पत्थर, हथौड़ी कठिन काम भी कर सकता हो।
और छैनी की मार खा-खाकर ही देवता की मूर्ति
बनती है। मनुष्य भी जीवन में कष्ट सहकर सफल आज खान-पान में, व्यवहार में, लेन-देन में,
, होता है। बिना आग में तपे सोना कुन्दन नहीं * मनुष्य की आदतें बिगड़ रही हैं । व्यसन एक फैशन बन गया है। बीड़ी-सिगरेट, शराब-जुआ-सिनेमा,
होता, मिट्टी का घड़ा भी आग में पकने पर ही गन्दा खाना और फिजूलखर्ची-यह सब युवा
उपयोगी होता है। उसी प्रकार मनुष्य भी विप
त्तियों, असफलताओं और परिस्थितियों से संघर्ष शक्ति के वे घुन हैं जो उसे भीतर-भीतर खोखला
__ करके, प्रतिकूलताओं से जूझकर, कष्टों को सहन कर रहे हैं। इन बुरी आदतों से शरीर शक्तियाँ
करके अपने चरित्र को निखार सकता है। क्षीण होती जाती हैं, यौवन की चमक बुढ़ापे की 1 झुरियों में बदल जाती हैं, साथ ही मानसिक दृष्टि युवा वर्ग में आज सहनशीलता की बहत कमी से भी व्यक्ति अत्यन्त कमजोर, हीन और अबि
है। सहनशीलता के जीवन में दो रूप हो सकते श्वासी बन जाता है । आज का युवा वर्ग इन बुरा- ह
.. हैं-पहला कष्टों में धैर्य रखना, विपत्तियों में भी इयों से घिर रहा है और इसलिए वह निस्तेज और
- स्वयं को सन्तुलित और स्थिर रखना तथा दूसरा निरुत्साह हो गया है । वह इधर-उधर भटक रहा रूप है-दूसरों के दुर्वचन सहन करना, किसी अनहै। परिवार वाले भी परेशान हैं, माता-पिता भी जाने या विरोधी ने किसी प्रकार का अपमान कर चिन्तित हैं और इन बुरी आदतों से ग्रस्त व्यक्ति दिया, तिरस्कार कर दिया तब भी अपना आपा न स्वयं को भी सुखी महसूस नहीं कर पाता है, किन्त खोना । स्वयं को सँभाले रखना और उसके अपवह बुरी आदतों से मजबूर है। स्वयं को इनके मान का उत्तर अपमान से नहीं, किन्तु कर्तव्यचंगुल से मुक्त कराने में असमर्थ पा रहा है। यह पालन से और सहिष्णुता से देवें । उसकी सबसे बड़ी चारित्रिक दुर्बलता है।
युवक एक कर्मठ शक्ति का नाम है । जो काम पहले व्यक्ति बुराइयों को पकडता है फिर करता है उसे समाज में भला-बुरा भी सुनना पड़ता फिर बुराइयाँ उसे इस प्रकार जकड़ लेती हैं कि वह
है। शारीरिक कष्ट भी सहने पड़ते हैं और लोगों आसानी से मुक्त नहीं हो पाता। वे बुराइयाँ,
की आलोचना भी सुननी पड़ती हैं क्योंकि लोग मनुष्य के मानसिक बल को खत्म कर देती हैं।
र आलोचना भी उसी की करते हैं जो कुछ करता नतिक भावनाओं को समाप्त कर डालती हैं और है। जो निठल्ला बैठा है कुछ करता ही नहीं शरीर शक्ति को भी क्षीण कर देती हैं इस प्रकार
उसकी आलोचना भी क्या होगी, अतः कार्यकर्ताओं उसका नातक एवं शारीरिक पतन होता जाता है। को समाज में आलोचनाएँ भी होती हैं।
युवक क्रान्ति की उद्घोषणा करता है, परियुवाशक्ति को शक्तिशाली बनना है और वर्तन का बिगुल बजाता है, समाज व राष्ट्र की अपने आत्मबल एवं चरित्रबल से समाज तथा जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं को सुधारना, अन्धविश्वास
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की जगह स्वस्थ उपयोगी कार्यक्रम देना चाहता है और समाज में जागृति लाना चाहता है, इन सुन्दर स्वप्नों को पूरा करने के लिए उसे समाज के साथ संघर्ष भी करना पड़ता है, परन्तु ध्यान रहे, इस संघर्ष में कटुता न आवे, व्यक्तिगत मान-अपमान की क्षुद्र भावनाएँ न जगें, किन्तु उदार व उदात्त दृष्टि रहे । आपका संघर्ष किसी व्यक्ति के साथ नहीं, विचारों के साथ है । भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र दिन में भले ही अलग-अलग विचारों के खेमे में बैठे हों, किन्तु सायं जब घर पर मिलते हैं तो उनकी वैचारिक दूरियाँ बाहर रह जाती हैं और घर पर उसी प्रेम, स्नेह और सोहार्द की गंगा बहाते रहें—यह है वैचारिक उदारता और सहिष्णुता | जैनदर्शन यही सिखाता है कि मतभेद भले हो, मनभेद न हो । " मतभेद भले हो मन भर, मनभेद नहीं हो कण भर ।" विचारों में भिन्नता हो सकती है, किन्तु मनों में विषमता न आने दो । विचारभेद को विचार सामंजस्य से सुलझाओ, और वैचारिक समन्वय करना सीखो ।
युवा पीढ़ी में आज वैचारिक सहिष्णुता की अधिक कमी है और इसी कारण संघर्ष, विवाद एवं विग्रह की चिनगारियाँ उछल रही हैं, और युवा शक्ति निर्माण की जगह विध्वंस के रास्ते पर जा रही है।
मैं युवकों से आग्रह करता हूँ कि वे स्वयं के व्यक्तित्व को गम्भीर बनायें, क्षुद्र विचार व छिछली प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर यौवन को समाज व राष्ट्र का शृंगार बनायें ।
धन को नहीं, त्याग को महत्व दो
आज का युवा वर्ग लालसा और आकांक्षाओं से बुरी तरह ग्रस्त हो रहा है। मैं मानता हूँ भौतिक सुखों का आकर्षण ऐसा ही विचित्र है, इस आकर्षण की डोर से बंधा मनुष्य कठपुतली की तरह नाचता रहता है । आज का मानव धन को ही ईश्वर मान
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बैठा है - 'सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते' सभी गुण, सभी सुख धन के अधीन हैं, इस धारणा के कारण मनुष्य धन के पीछे पागल है और धन के लिए चाहे जैसा अन्याय, भ्रष्टाचार, अनीति, हिंसा, तोड़फोड़, हत्या, विश्वासघात कर सकता है । संसार में कोई पाप ऐसा नहीं जो धन का लोभी नहीं करता हो ।
इच्छाएँ, अपेक्षायें इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि आज के जीवन में मनुष्य की आवश्यकताएँ, उनकी पूर्ति के लिए धन की जरूरत पड़ती है, इस लिए मनुष्य धन के लोभ में सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। कुछ युवक ऐसे भी हैं, जिनमें एक तरफ धन की लालसा है, भौतिक सुख-सुविधाओं की इच्छा है तो दूसरी तरफ कुछ नीति, धर्म और ईश्वरीय विश्वास भी है। उनके मन में कभीकभी द्वन्द्व छिड़ जाता है, नीति-अनीति का, न्यायअन्याय का, धर्म-अधर्म का, प्रश्न उनके मन को मथता । है, किन्तु आखिर में नीतिनिष्ठा, धर्मभावना दुर्बल हो जाती है। लालसायें जीत जाती हैं । वे अनीति व भ्रष्टाचार के शिकार होकर अपने आप से विद्रोह कर बैठते हैं ।
युवावर्ग आज इन दोनों प्रकार की मनःस्थिति में है । पहला- जिसे धर्म व नीति का कोई विचार
नहीं है वह उद्दाम लालसाओं के वश हुआ बड़े से बड़ा पाप करके भी अपने पाप पर पछताता नहीं ।
दूसरा वर्ग - पाग करते समय संकोच करता है कुछ सोचता भी है, किन्तु परिस्थितियों की मजबूरी कहें या उसकी मानसिक कमजोरी कहें - वह अनीति का शिकार हो जाता है ।
एक तीसरा वर्ग ऐसा भी है - जिसे हम आटे में नमक के बराबर भी मान सकते हैं जो हर कीमत पर अपनी राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, धर्म एवं नैतिकता की रक्षा करना चाहता है और उसके लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी भी करने को तैयार रहता है। ऐसे युवक बहुत ही कम मिलते हैं; परन्तु अभाव नहीं है ।
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___ मैं आप युवा वर्ग से कहना चाहता हूँ शायद मनुष्य मनुष्य का शत्र बन जाता है । मित्रता, प्रेम, HD आप पहली या तीसरी कोटि में नहीं है। आप में त्याग और सेवा से ही मिलती है, प्रशंसा और कीर्ति । से अधिकांश दूसरी स्थिति में हैं, जिनके मन में धर्म धन से नहीं, कर्तव्य-पालन से मिल और नीति के प्रति एक निष्ठा है, एक सद्भावना प्रसन्नता और आत्म-सन्तोष धन से कभी किसी को है, किन्तु भौतिक प्रलोभनों का धक्का उस निष्ठा मिला है ? नहीं ! इसलिए युवा वर्ग को अपना की कमजोर दीवार को गिरा सकता है अतः आपसे दृष्टिकोण बदलना होगा। इन आंखों में लक्ष्मी के | ही मेरा संदेश है कि आप स्वयं को समझें, अपने सपने नहीं किन्तु कर्तव्य-पालन और सेवा एवं सह-IN महान लक्ष्य को सामने रखें । महान लक्ष्य के लिए योग के संकल्प सँजोओ! स्वयं बलिदान करने वाला मरकर भी अमर रहता
अधिकार बनाम कर्तव्य . एक उर्दू शायर ने कहा है
आज चारों तर्फ अधिकारों की लड़ाई चल रही 10) जी उठा मरने से, जिसकी खुदा पर थी नजर,
है। परिवार में पुत्र कहता है-मेरा यह अधिकार |IKES जिसने दुनियां ही को पाया, था वह सब खोके मरा! हा
__ है, पुत्री कहती है- मेरा यह अधिकार है। पत्नी
माता-पिता, सभी अपने-अपने अधिकार की लड़ाई 3
में कर्तव्य एवं प्रेम का खून बहा रहे हैं । इसी प्रकार जो जीना हो तो पहले जिन्दगी का मुद्दआ समझे समाज में वर्ग संघर्ष बढ़ रहा है। नौकर अपने एक खुदा तोफीक दे तो आदमी खुद को खुदा समझे! अधिकार की माँग करता है, तो मालिक अपने
अधिकार की माँग करता है। अधिकार की भावना धन, सुख-सुविधायें, ऊंचा पद, ऐशो-आराम यह मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है, ये तो एकमात्र जीने
ने ही वर्ग संघर्ष को जन्म दिया है, परिवारों को के साधन हैं । साधन को साध्य समझ लेना भूल है।
तोड़ा है, घर को उजाड़ा है, और समाज-संस्था संसार में लाखों, करोड़ों लोगों को अपार सम्पत्ति
को भिन्न-भिन्न कर दिया है। अधिकार की और सुख साधन प्राप्त हैं, फिर भी वे बेचैन हैं और
लड़ाई में आज कर्तव्य-पालन कोई नहीं पूछता । लूखी-सूखी खाकर भी मस्ती मारने वाले लोग
पुत्र का अधिकार है, पिता की सम्पत्ति में, परन्तु
कोई उससे पूछे, उसका कर्तव्य क्या है ? माता- 15 दुनिया में बहुत हैं।
पिता की सेवा करना, उनका दुःख-दर्द बांटना, युवकों का दृष्टिकोण-आज धनपरक हो रहा क्या पुत्र का अधिकार नहीं है । अधिकार की माँग || है या सुखवादी होता जा रहा है। धन को ही करने वाला अपने कर्तव्य को क्यों नहीं समझता ? सब कुछ मान बैठे हैं । उन्हें धन की जगह त्याग यदि युवक, अपने कर्तव्य को समझ ले, तो अधिऔर सेवा की भावना जगानी होगी । संसार धन से कारों का संघर्ष खत्म हो जायेगा, स्वयं ही उसे नहीं, त्याग से चलता है, प्रेम से चलता है। एक अधिकार प्राप्त हो जायेंगे। माता पुत्र का पालन-पोषण किसी धन या उपकार
एक सूक्ति है-'भाग की चिन्ता मत करो, की भावना से नहीं करती, वह तो प्रेम और स्नेह के कारण ही करती है। क्या कोई नर्स जिसको
भाग्य पर भरोसा रखो । भगवान् सब कुछ देगा।' आप चाहें सौ रुपया रोज देकर रखें, माँ जैसी सेवा मुझे एक कहानी याद आती है-एक बड़े परिचर्या कर सकती है ? धन कभी भी मनुष्य को, धनाढ्य व्यक्ति ने एक नौकर रखा, उसको कहा मनुष्य का मित्र नहीं बनने देता । धन के कारण तो गया, तुम्हें यह सब काम करने पड़ेंगे, जो हम
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ना चाहते हैं । नौकर ने कहा- मुझे आप लिस्ट बना- शिखर पर पहुँचे हैं, उनमें कर्तव्य-पालन की भावना
कर दे दीजिए, जो-जो काम करना है, वह पूरी अवश्य रही है । युवक जीवन में इन मुख्य गुणों के 12 वफादारी से करूगा । उस व्यक्ति ने एक लम्बी साथ-साथ कुछ ऐसे गुण भी आवश्यक हैं, जिन्हें । लिस्ट (सूची) टाइप करवाकर सर्वेन्ट को दे दी। हम जीवन-महल की नींव कह सकते हैं, या जीवन सुबह से शाम तक, यह तुम्हारी ड्यूटी है। उसने पुस्तक की भूमिका कहा जा सकता है। वे सुनने 110) देखा-सुबह, सबसे पहले बॉस टहलने के लिए में बहुत ही सामान्य गुण हैं, किन्तु आचरण में 'मोरनिंग-बाक' के लिए जाते हैं, तब उनके साथ- असामान्य लाभ देते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, साथ जाना है।
सदाचार, विनम्रता और सदा प्रसन्नमुखता-ये __एक दिन मालिक नहर के किनारे-किनारे .
गुण ऐसे साधारण लगते हैं, जैसे जीने के लिए
पानी या हवा बहुत साधारण तत्व प्रतीत होते हैं, टहल रहा था, टहलते हुए उसका एक पाँव फिसल
किन्तु जैसे पानी व पवन के बिना जीवन संभव गया और छपाक से नहर में डुबकियाँ लगाने लगा,
नहीं है, उसी प्रकार इन गुणों के बिना जीवन में | चिल्लाया-'बचाओ' ! 'निकालो' ! पीछे-पीछे आता नौकर रुका, बोला, ठहरो-अभी देखता हूँ,
सफलता और सुख कभी संभव नहीं है।
___आज का युवा वर्ग अपने आप को पहचाने, अपनी ड्यूटी की लिस्ट में मालिक के नहर में
अपनी शक्तियों को पहचाने. और उन शक्तियों को गिरने पर, निकालने की ड्यूटी लिखी है,
जगाने के लिए प्रयत्नशील बने,जीवन को सुसंस्काO नहीं ?
रित करने के लिए दृढ-संकल्प ले, तो कोई तो इस प्रकार की भावना, मालिक और नहीं कि युवा शक्ति का यह उद्घोष-इस C नौकर के बीच हो, परिवार और समाज में हो, धरती पे लायेंगे स्वर्ग उतार के सफल नहीं हो। तो वहां कौन, किसका सुख-दुःख बांटेगा? कोई अवश्य सफल हो सकता है । आज के युग में शिक्षा किसी के काम नहीं आयेगा ? अतः आवश्यक है, प्रसार काफी हुआ है, मगर संस्कार-प्रसार नहीं हो । आप जीवन में कर्तव्य पालन की भावना जगाएँ। पाया है, अतः जरूरत है, युवा शक्ति को संस्कारित एक अधिकार के लिए कुत्तों की तरह छीना-झपटी न संगठित और अनुशासित होने की।"...""जीवन करें । संसार में जितने भी व्यक्ति सफलता के निर्माण करके राष्ट्र-निर्माण में जुटने की 0 5 (शेष पृष्ठ २६८ का) प्रत्येक आत्मा जिनागम में प्रतिपादित, मुक्तिमार्ग का जयजगत्' लिखकर विश्व को अपना आशीर्वाद का पालनकर ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है । सहि- प्रदान किया है । भूदान-पद के सम्बन्ध में अपनी ष्णुता, समानता, सर्वजीवसमभावादि की नींव पर देश-व्यापी यात्राओं में सन्त विनोबा दिलों को ही तो टिका है 'सर्वोदय' का दीप-स्तम्भ, जो आज जोड़ने का स्तुत्य प्रयास करते रहे। उनका 'जयकी भटकी मानवता का मार्ग आलोकित कर सकता जगत्' का उद्घोष अहिंसा, अनेकान्तादि समन्वय
वादी सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने से ही 'सर्वोआचार्य विनोबा भावे की प्रेरणा से 'जैनधर्म- दय' को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। सबकी सार' नामक उपयोगी पुस्तक श्री जिनेन्द्रवर्णीजी ने उन्नति से विश्वबन्धुत्व और विश्व-नागरिकता को तैयार की। उसके 'निवेदन' के अन्त में 'विनोबा सही दिशा मिल सकती है।
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१ जैनधर्मसार, श्लोक ३-४ ३१०
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प्रायः यह कहा जाता है कि महावीर के सिद्धान्त बड़े कठोर और जटिल हैं । उनको समझना और समझकर उनके अनुरूप अपना जीवन चलाना वर्तमान परिस्थितियों में अत्यन्त कठिन है, पर जरा गहराई से चिन्तन करें तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होगा कि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं है । यह हमारे समझ की ही कमी है कि हम उनके सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन सन्दर्भों में नहीं देखकर दार्शनिक समस्याओं और मान्यताओं के सन्दर्भ में देखते और उनका मूल्यांकन करते हैं ।
सत्य को अनुभूति के
भगवान् महावीर ने बारह वर्षों से अधिक समय तक कठोर साधना और तपस्या कर जीवन और प्रकृति के स्तर पर समझा था । उन्होंने यह महसूस किया कि सभी प्राणियों में आत्म-चेतना का तत्व व्याप्त है, सबमें अपनी-अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार सुख-दुःख को अनुभव करने की क्षमता है, सबमें अपनी सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर चेतना का चरम विकास करने का सामर्थ्य और स्वाधीन भाव हैं। सभी प्राणियों में मानव श्र ेष्ठ है । उसमें संयम और धर्माराधना का विशिष्ट गुण है । राग-द्वेषरूप कर्म बीजों को नष्ट कर वह समता भाव में रमण करने की साधना में प्रवृत्त हो सकता है । उसमें श्रद्धा और साधना में प्रवृत्त होने की अद्भुत शक्ति है । महावीर ने मानव की इस शक्ति को धर्माराधना के केन्द्र में प्रतिष्ठापित किया और विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं के प्रति रही हुई दीन भावना को मिटाया। उन्होंने मनुष्य के अन्तर्मानस में रही हुई कर्म शक्ति और पुरुषार्थ साधना को सर्वोपरि माना ।
पर यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि महावीर को हुए ढाई हजार वर्षो से अधिक समय हो गया है, फिर भी हम मानवीय शक्ति और उसकी पुरुषार्थ साधना को अपनी गतिविधियों के केन्द्र में प्रतिष्ठापित नहीं कर पाये हैं | विविध अन्धविश्वासों, भाग्य प्रेरित विधि-विधानों जादू-टोनों, मनोतियों आदि में हमारा विश्वास है । अज्ञात लोक के रहस्यों व भीति प्रसंगों से हम आक्रान्त और भयभीत हैं । लगता है महावीर के मन, वचन और कर्म संस्कार से हमारी चेतना के तार नहीं जुड़े । हम जुड़े हैं उन संस्कारों और प्रसंगों से जिनको आत्मचेतना के साक्षात्कार में बाधक समझकर, महावीर ने ठुकरा दिया था । लगता है हमने अपने जीवन पथ को ही गलत दिशा की ओर मोड़ दिया है । इसलिए निरन्तर चलते रहने पर भी हम अपने गंतव्य को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं ।
महावीर का जीवन समुद्र की अनन्त गहराई और प्रशान्तता का
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सी-२३५ - ए, दयानन्द मार्ग, तिलकनगर, जयपुर-४
-डॉ० नरेन्द्र भानावत
भगवान् महावीर के सिद्धान्तों का दैनिक जीवन में उपयोग
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CL जोवन था, जिसमें आत्मगुणों के अनेक मोती धर्म अर्थात् सदाचरण स्थित रह पाता है । आज SAI अवस्थित थे । हमारा जीवन समुद्र की ऊपरी सतह चारों ओर अशुद्धता ही अशुद्धता है । यह अशुद्धता
पर उछल कूद मचाने वाली लहरों का जीवन है, खाद्य पदार्थों से लेकर जीवन-व्यवहार के सभी ER जिसमें हलचल, उथल-पुथल और उत्तेजना ही उत्ते- क्षेत्रों में व्याप्त है । विडम्बना तो यह है कि प्रकृति CON जना है। महावीर का जीवन शाश्वत जीवन मूल्यों ने जिन तत्वों को अशुद्धता-निवारक माना है, वे
के लिए समर्पित था, जिसमें त्याग, प्रेम, दया, भूमि, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि तत्व भी
करुणा, मैत्री और सत्य का आलोक व्याप्त था पर अशुद्ध होते जा रहे हैं। इसका कारण है-अत्यन्त दे हमारा जीवन सम-सामयिक बाजार मल्यों का भोगलिप्सा और उसकी पूर्ति के लिए प्रकृति का 2|| जीवन है, जिसमें सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति निर्मम शोषण ! यदि हम अपनी बृत्तियों पर संयम
IAS की प्रतिस्पर्धा में मन्डी के भावों की तरह उतार- कर आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें, अपने EN) चढ़ाव आते रहते हैं। महावीर का जीवन हार्दिकता क्षणिक सुख के लिए दूसरों का शोषण न करें तो
से संचालित था। हमारा जीवन यांत्रिकता से हमारी चेतना शुद्ध रह सकती है। शुद्धता की मा संचालित है। महावीर ज्ञानोपयोग और दर्शनोप- स्थिति ही स्वस्थता और स्वाधीनता की स्थिति
| योग में विचरण किया करते थे। हम इन्द्रिय भोग है । जो शुद्ध नहीं है, वह स्वस्थ नहीं है और जो A और मनोरोग में विचरण करते रहते हैं। यही स्वस्थ नहीं है, वह तनाव-मुक्त नहीं है। वह कुण्ठा
कारण है कि महावीर के सिद्धान्तों को हम बौद्धिक ग्रस्त है, हताश, निराश, दीन-हीन और शरीर Eqा स्तर पर समर्थन देते हैं, वाणी से उनका गुणान- रहते हुए भी मृत-मूच्छित और जड़ है । महावीर ने
वाद करते हैं, पर कर्म से उसे आचरण में नहीं ला इस जड़ता के खिलाफ क्रांति की और सदा जाग्रत पाते, जीवन में नहीं उतार पाते । सिद्धान्त और रहने का रास्ता बताया। उठते-बैठते, चलते-फिरते आचरण का यह गतिरोध और द्वत भाव वर्तमान
खाते-पीते जो सजग और सावधान है, वह कभी । सभ्यता की सबसे बड़ी दुःखान्तिका है।
- अशुद्ध नहीं होता, अस्वस्थ नहीं होता।
इस जागरण के लिए उन्होंने जो मार्ग का संकेत ___ महावीर ने बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत का प्रति- किया वह मार्ग है-अहिंसा, संयम और तपरूप पादन नहीं किया। अपनी अनुभूति के क्षणों में मार्ग । अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी को मनसदाचरण के आधार पर जो कुछ जीया, वही उन वचन और कर्म से दुःखी नहीं करना; जो दुःखी हैं, का धर्म सिद्धान्त बन गया। आज हम उनकी अनु- उनके दुःख को दूर करने में सदा सहयोगी बनना, भूतियों को आसानी से अपने जीवन के लिए प्रेरणा प्रेम, करुणा और मैत्री के भावों से उनके हृदय के स्रोत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, पर इसमें तारों के साथ अपने हृदय के तार जोड़ना, संकट के धिक है-हमारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण, समय उनकी रक्षा करना, उनकी स्वतन्त्रता में बाधक क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारों के प्रति कारणों को दूर करना । संयम का अर्थ है अपने मन
आसक्ति, दूसरों को हीन समझने की वृत्ति और वचन और कर्म की पवित्रता, अपनी आवश्यकताओं दचित्तवृत्ति की वक्रता। इन बाधाओं को दूर की पूर्ति में न्यायपूर्वक, विवेकपूर्वक सामग्री का उपESY) कर महावीर के चरित्र को अपने लिए अनु- योग, अपने अर्जन का समाजहित और लोकहित के
करणीय बनाने के लिए जीवन में शुद्धता और लिए विसर्जन, अपनी वृत्तियों का संयमन और १२ मन में सरलता का भाव आवश्यक है। आत्मानुशासन । तप का अर्थ है अपने मानसिक
चेतना की शुद्धता और सरलता होने पर ही विकारों को नष्ट करने के लिए सदाचरण की आग
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में तपना, पकना, कठिनाइयों और मुसीबतों में धैर्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी संयोग धारण करने का अभ्यास अनुकूल, परिस्थितियों में सम्बन्ध हैं, वे आज जैसे हैं, वैसे सदा रहने वाले II रोगासक्त न होना, कष्टसहिष्णुता और सहनशीलता नहीं हैं । फिर उन पर क्यों आसक्ति ? उनके लिए का भाव विकसित करना, बिना स्वार्थ के लोकहित क्यों संघर्ष ? उनमें क्यों भोग-बुद्धि ? यों सोचतेके लिए अपने को खपाना और शरीर तथा आत्मा सोचते जब आपकी विवेकवती बुद्धि प्रज्ञावती बुद्धि ) के भेद को समझकर समताभाव में रमण करते हुए जागृत होगी, तब आप तनाव में नहीं रहेंगे, कषाय चिन्मयता से साक्षात्कार करना।
कलषित नहीं रहेंगे. समतायुक्त बनेंगे. समतादर्शी
बनेंगे । आपका दैनिक जीवन दैविक जीवन में | अहिंसा, संयम और तप रूप इस धाराधना जोगा। में प्रवेश करने के लिए महावीर ने चार द्वारों की
आज हमारी बुद्धि भोगबुद्धि और वृत्ति उप-PRAM ओर संकेत किया है। वे हैं-धर्म, निर्लोभता. सर
भोगवृत्ति बनती जा रही है। यही कारण है कि TOD लता और नम्रता । हम अपने दैनिक जीवन में यदि
हम दिन को भी रात बनाकर जीते हैं । हम महाइन द्वारों में होकर निकलने की कला सीख जायें
वीरता को अपनी चेतना के स्तर पर नहीं उतार-- तो हमारे रागद्वेष, लड़ाई-झगड़े, कलह-क्लेश शान्त कर, जो अपने से परे जीव जगत है, उसे शासित हो सकते हैं । जब भी कोई परिस्थिति आये हम उसे करने में उन पर अधिकार जमाने में, उनकी स्वा- || अनकान्त दाष्ट स दख, वावध काणा स उस पर धीनता छीनने में. उसके सख-दःख पर अपना नियविचार करें, विभिन्न अपेक्षाओं से उसे तोलें। फिर
भिन्न अपक्षाआ स उस ताल । फिर त्रण करने में अपनी वीरता-महावीरता का प्रदर्शन धीरे-धीरे आप अनुभव करेंगे कि आपका क्रोध कम करते हैं। पर यह महावीरता. महावीरता नहीं है, 5 होता जा रहा है और क्रोधी व्यक्ति पर आपके मन यह तो पाशविकता है, बर्बरता है, क्रूरता है, कठो-मा में दया और क्षमा का भाव प्रकट होता जा रहा है। रता है। जब हम अपने मन को आस्थावान, सबल, रु जब भी टेढ़ेपन अथवा वक्रता की बात आए आप उज्ज्वल, निर्मल, वीतराग बनायेंगे तब कहीं सच्ची अपने मन को हल्का कर लें, सरल बना लें। मन महावीरता प्रकट होगी। महावीर की जीवनमें निर्लोभता, तटस्थता का भाव ले आयें और यह साधना का यही सन्देश है । काश! हम इस संदेश सोचें कि जो क्षण वर्तमान में है, वह रहने वाला, को चेतना की गहराई में उतारें। टिकने वाला नहीं है। पर्याय नित्य बदलती है ।
यह तार पर यह मारता-महावी अपना नियं
कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई। कामना, नामना तथा कामभोगों की अति लालसा वाले मानवों की वे इच्छाएँ, आकांक्षाएँ तो तृप्त हो नहीं पाती, अतृप्त होकर भी उनकी दुर्गति होती है।
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0 बाल ब्रह्मचारिणी महासती उज्ज्वलकुमारी जी की सुशिष्या
-डॉ० साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए. पी-एच. डी.)
श्रमण संस्कृति का व्यापक दृष्टिकोण
-0-- श्रमण एक शाब्दिक अर्थ
श्रमण संस्कृति का मूलाधार स्वयं श्रमण शब्द ही है। प्राकृत में यह शब्द 'समण' के रूप में मिलता है । परम्परा से रूपान्तर होते हुए 2 यह शब्द तीन स्वरूप में उपलब्ध है-१. श्रमण-२. समन३. शमन।
(१) श्रमण किसे कहते हैं- श्रमण शब्द श्रम धातु से बना है । इसका अर्थ है श्रम करना। अर्थात् जो संयम में श्रम करे उसे श्रमण कहते हैं। श्रमण अपना विकास अपने ही परिश्रम से करता है। वह अन्तरंग उपयोग के साथ, विषय-वासना से पर होकर, यश, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा की आंतरिक इच्छा से शून्य, मनसा, वाचा, कर्मणा से निश्चल, निष्कंप, एकाग्र बनकर, तप, त्याग, वैराग्य भाव में अनुरक्त होकर, उसी में चितन-मनन, निदिध्यासन करते हए केवल निजात्मा को कर्ममल से विशुद्ध बनने का सतत श्रम करता है। अतः उस आत्म तत्त्व की प्रवृत्ति रूप श्रम में यदि उन्हें लाभ-अलाभ, सुखदुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा या मान-अपमान जो कुछ भी होवे, सर्वत्र वह स्वयं उत्तरदायी है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि श्रमण की व्याख्या करते हुए कहा है कि 'नवि मुण्डिएण समणो । समयाए समणो होइ ।' साधक केवल मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता किन्तु श्रमण होता है समता की साधना से।
(२) समन किसे कहते हैं-समन का अर्थ है समताभाव ।
समन शब्द सम शब्द से व्युत्पन्न है। 'सममणई तेण सो समणो' जो जगत के सर्व जीवों को तुल्य मानता है वह समन है।
सूत्रकतांग सूत्र में भगवन्त ने कहा है कि मुनि गोत्र, कुल आदि का मद न करे, दूसरों से घृणा न करे, किन्तु सम रहे जो दूसरों का तिर- IC स्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे किन्तु सम रहे । __महत् पुरुषों की दृष्टि में राजा हो या रंक, सेठ हो या सेवक, मूर्ख हो या पण्डित, सभी समान होते हैं इसलिए ही चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्वदीक्षित अपने सेवक के सेवक को भी वन्दन करने में
संकोच नहीं करता। किन्तु समत्व का आचरण करता है। समत्वयोगी | विषय-कषायादि पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है ।
१ २
सूत्रकृतांग १/२/२/१ सूत्रकृतांग १/२/२/२
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आराम
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दशवेकालिक नियुक्तिकार ने कहा है कि जिसका मन सम होता है, वह समन है। जिसके लिये कोई भी जीव न द्वेषी होता है, न रागी, वह अपनी सम मनःस्थिति के कारण समन कहलाता है । वह सोचता है जैसे मुझे दुःख अप्रिय है उसी प्रकार सर्व जीवों को दुःख अप्रिय ही है । ऐसी समत्व दृष्टि से जो साधक किसी भी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाता वह अपनी समगति के कारण समन कहलाता है ।"
इस प्रकार जो साधक अनासक्त होता है, कामविरक्त होता है, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह की विकृतियों से रहित होता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष इत्यादि जितने भी कर्मदान और आत्मा के पतन के हेतु हैं सबसे निवृत्त रहता है । इसी प्रकार जो इन्द्रियविजेता है, मोक्षमार्ग का पथिक है मोह ममत्व से पर है वह समन कहलाता है ।
(३) शमन किसे कहते हैं - शमन का अर्थ हैअपनी वृत्तियों को शान्त रखना । वृत्तियाँ शुभ भी होती हैं और अशुभ भी शुभ वृत्तियों से साधक का उत्थान होता है और अशुभ से पतन ।
शमन का सम्बन्ध उपशम से भी है । जो छोटेमोटे पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप का क्षय होने के कारण शमन कहलाता है ।
शान्त पुरुष शम के द्वारा मंगल पुरुषार्थ का आचरण करते हैं । फलतः वे मुनि शम के द्वारा ही स्वर्ग में जाते हैं । इस प्रकार कई ऋषि-मुनियों ने शम को परम मोक्ष- साधन माना है । श्रमण की दिनचर्या
(१) श्रमण - सर्व दुःखों से मुक्त होने का प्रयत्न
करे ।
चतुर्थखण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
(२) श्रमण - पंच महाव्रतों को आत्महित के लिए विशुद्ध भाव से स्वीकार करे ।
(३) श्रमण - विनय का प्रयोग आचार प्राप्ति हेतु या कर्म निर्जरा हेतु करे ।
(४) श्रमण - केवल जीवनयापन के लिए भिक्षा ग्रहग करे ।
(५) श्रमण - वस्त्र, पात्र या उपकरण का ग्रहण और उपयोग जीवननिर्वाह के लिए करे ।
(६) श्रमण - उपसर्ग - परीषह आदि को कर्म निर्जरा हेतु धर्म समझकर सहन करे ।
(७) श्रमण - चित्त निरोध के लिए, ज्ञानप्राप्ति के लिए, स्वात्मा में संलग्न रहने के लिये और दूसरों को धर्म में स्थित करने के लिए अध्ययन करे ।
(८) श्रमण - तप और त्याग न तो सुख-सुविधा के लिए करे न तो परलोक की समृद्धि हेतु करे न तो अपने मान-सम्मान या प्रतिष्ठा के लिये करे किंतु केवल आत्म-शुद्धि के लिये करे ।
(ह) श्रमण - अनुत्तर गुणों की संप्राप्ति हेतु गुरु को समर्पित होकर गुरु की आज्ञा में मोक्षमार्ग की आराधना करता रहे ।
(१०) श्रमण - हाथी जितना विस्तृत काय वाला हो या कुंवे जितना सूक्ष्म हो किन्तु सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता अतः भ्रमण प्राणी-वध का वर्जन करे ।
(११) श्रमण – असत्य सत्पुरुषों की दृष्टि में गहित है जिससे उभयलोक की हानि समझकर श्रमण उसका सर्वथा त्याग करे ।
(१२) श्रमण - अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, अनर्थ की खान है, अतः नरक में ले जाने वाले दुराचारों से श्रमण सर्वथा दूर रहे |
श्रमण और अहिंसा
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जइ मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्व जीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणो ॥
- दशकालिक नियुक्ति गा. १५४
भगवान् महावीर ने कहा कि मेरी वाणी में
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आस्था रखने वाला श्रमण छहों निकायों को अपनी आत्मा के समान माने । त्रस और स्थावर प्रत्येक जीवों की हिंसा से पर होवे । कीट, पतंग आदि जीव शरीर या उपकरणों पर चढ़ भी जाय तो श्रमण सावधानीपूर्वक उन्हें एकान्त में रखे । किन्तु स जीवात्मा की किसी भी प्रकार से हिंसा न करे, न करावे, न करने वालों की अनुमोदना करे मनसा वाचा कर्मणा ।
श्रमण न स्वयं असत्य बोले, न दूसरों को असत्य बोलने की प्रेरणा दे और न असत्य का अनुमोदन
। क्रोध से या भय से अपने लिए या दूसरों के लिए झूठ न बोले । सत्य हो किन्तु प्रिय न हो तो भी न बोले किन्तु सत्य का प्रतिपक्षी बना रहे ।
श्रमण ग्राम नगर या अरण्य आदि कहीं भी अल्प या बहुत, छोटी या बड़ी, सचित्त या अचित्त कोई भी वस्तु बिना दी हुई न ले, न दूसरों को प्रेरित करे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करे इतना ही नहीं तप, वय, रूप और आचार भाव की भी चोरी न करे किन्तु अचौर्य भाव में अनुरक्त रहे ।
श्रमण देव, मनुष्य या तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन न स्वयं करे, न दूसरों को प्रेरित करे न मैथुनसेवन का अनुमोदन करे किन्तु नववाड विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करे ।
श्रमण किसी भी पदार्थ के प्रति फिर वह बड़ा हो या छोटा, अल्पमात्रा में हो या बहुमात्रा वाला हो, सचित्त हो या अचित्त ममत्व न रखे । न दूसरों को ममत्व रखने के लिए प्रेरित करे, न ममत्व का अनुमोदन करे तथा खाद्य पदार्थ का संग्रह न करे ।
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वस्त्र, पात्र तो क्या इस शरीर पर भी ममत्व न रखे ।
श्रमण ईर्ष्या का संशोधन करता हुआ प्रकाशित मार्ग पर दया भाव से प्राणियों की रक्षा करने के लिए चार हाथ जमीन देखकर चले ।
सोलह प्रकार की भाषा का परित्याग कर हित, मित और मधुर भाषा का प्रयोग करे ।
वीर चर्या के द्वारा प्राप्त हुए और श्रावकों द्वारा भक्तिभावपूर्वक दिये गये निर्दोष आहार को यथोचित समय और मात्रा में ग्रहण करे ।
श्रमण अपने उपकरणों को उपयोग से ले और रखे । तथा किसी प्रकार के जीवों को बाधा पीड़ा उपस्थित न होवे ऐसा स्थान को देखकर श्रमण मलमूत्रादि त्यागे ।
तथा श्रमण तीन गुप्तिओं से युक्त होवे - (१) मनगुप्ति - राग-द्वेष की निवृत्ति या मन का संवरण |
( २ ) वचनगुप्ति - असत्य वचन आदि की निवृत्ति या वचन का मौन ।
(३) कायगुप्ति - हिंसादि की निवृत्ति या कायिक संवरण |
इस प्रकार जैन श्रमण संस्कृति में श्रमण का अत्यन्त महत्व है । आध्यात्मिक विकास क्रम में उसका छठा गुणस्थान है । इसी प्रकार श्रमणोचित प्रक्रिया में यदि श्रमण निरन्तर साधना करता रहे तो क्रमशः ऊर्ध्वमुखी विकास करता हुआ अन्त में चौदहवें गुणस्थाम तक पहुँचकर अजर-अमर सिद्ध, और मुक्त हो जाता है ।
बुद्ध
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जैन धर्म साधना तथा आचार का भव्य प्रासाद पंच आयामों की पुष्ट आधारशिला पर टिका हुआ है। कहते हैं कि भगवान महावीर
के पूर्व जैन धर्म चतुआयामी ही था, उन्होंने इसमें पंचम आयाम h) 'ब्रह्मचर्य' की जोड़कर जैन धर्म को पंच आयामी धर्म बनाया। पंच
आयाम इस प्रकार हैं-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४)
अपरिग्रह एवं (५) ब्रह्मचर्य । प्रस्तुत निबन्ध में तृतीय आयाम 'अस्तेय' दो की विवेचना करना अभीष्ट है । 'दशवकालिक सूत्र' में इसकी व्याख्या र करते हुए कहा है
चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहं से अजाइया ।। तं अप्पणा न गिण्हन्ति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणंपि नाणजाणन्ति संजया ।
-अध्याय ६ गाथा १४-१५ अर्थात्-पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने वाली सींक जैसी तुच्छ वस्तु ही क्यों न हो, पूर्ण Lil संयमी साधक दूसरों की वस्तु को उनकी अनुमति के बिना न तो स्वयं
ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करते हैं और
न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करते हैं। आशय यह है कि जो । व्यक्ति दूसरों को तृणमात्र वस्तु भी यदि स्वयं चुराता है या चोरी । o करने की इच्छा करता है अथवा दूसरों को चुराने हेतु प्रेरित या उनके
चुराने का अनुमोदन करता है वह चोर है और जो व्यक्ति इस प्रकार के कृत्यों का सर्वदा और सर्वथा त्याग करता है वह अस्तेय का पालक है । स्तेय का अर्थ है चोरी करना और चोरी न करना अस्तेय कह
लाता है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात दोहराई गयी है (अध्याय 24| १६ गाथा २७)। 'सूत्रकृतांग' की गाथाएँ और भी स्पष्ट उद्घोषणा १५ करती हैं
तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसूय पडुच्च । जे लूसए होई अवत्तहारी, ण सिक्कई सेय वियस्स किंचि ।। उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहिं पाएहि य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा ।।
-सू. ५/१/४, १/१०/२ ___ अर्थात् जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क्र रतापूर्वक हिंसा करता है, उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाता है एवं दूसरों की चोरी करता है और आदरणीय व्रतों का कुछ भी चतुर्य खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
ॐ जैन साधना का तृतीय आयाम
अदत्तादान-विरमण की वर्तमान प्रासंगिकता
9000000000000000000000-00000000000000000PEOER
क, दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय,
-ब्रजनारायण शर्मा 0
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पालन नहीं करता वह भयंकर क्लेश और विषाद वैदिक परम्परा में भी अस्तेय पर पर्याप्त उठाता है । अतः संयमी साधक को ऊँची-नीची तथा विचार-विमर्श हुआ है। मनुस्मृतिकार यमों की तिरछी दिशाओं में जहाँ कहीं भी त्रस और स्थावर महत्ता बतलाते हुए कहते हैंप्राणी रहते हों-विचरते हों उन्हें संयम से रहकर यमान सेवेत सततं न नियमान केवलान बुधः। अपने हाथों से, पैरों से या किसी भी अंग से पीड़ा यमान पतत्य कुर्वाणो नियमान केवलान भजन ॥ नहीं पहुँचानी चाहिए। दूसरों की बिना दी हुई।
अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों को सतत यमों का वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करना चाहिए।
सेवन (पालन) करना चाहिए, केवल नियमों का परवस्तहरण चौर्य कर्म है और इस कूटेव का नहीं क्योंकि नियमों का पालन करने वाला यमों पर सर्वथा परित्याग अचौर्य या अस्तेय है। अचौर्य या के पालन के अभाव में गिर जाता है। महर्षि पतंजलि अस्तेय का अर्थ चोरी न करना तो है ही परन्तु यह ने अपने 'योगसूत्र' के साधनपाद के सूत्र ३० में ! पद निषेधपरक ही नहीं है। इसकी विधिपरक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्माचर्य को व्याख्या भी की जा सकती है। ईमानदारी, अधि- यम कहा है। यहां भी अस्तेय के ऊपर दो और कार और कर्तव्य के प्रति जागरूक रहकर उनका नीचे दो यम रखे गये हैं अर्थात् अस्तेय तृतीय स्थान सम्यक् उपभोग करना भी अचौर्य वृत्ति में सम्मि- पर ही रखा गया है। यम-नियम के पालन के बिना लित है।
कोई भी साधनारत अभ्यासी योगी नहीं बन ____ अधिकारों का अपहरण, शोषण करना, सकता। योगाभ्यासी या अधिकारी ही नहीं वरन् दूसरों को अपना गुलाम (दास) बनाना, लोगों के इनका पालन सभी आश्रमवासियों के लिए आवस्वत्व छीनकर उन्हें अपने आदेश मनवाने हेतु बाध्य श्यक है। यमों का सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव समाज करना आदि गर्हित कार्य स्तेय वृत्ति के ही उपजीवी
पालन में सभी परहैं। किसी भी अवस्था में जीवनोपयोगी आवश्यक तन्त्र हैं। ये मानव के परम कर्तव्य हैं। इसीलिए मूल्यों का अपहरण न करना ही अस्तेय है। अगले इकत्तीसवें सूत्र में महर्षि पतंजलि ने इन यमों
श्रमण परम्परा के दूसरे स्तम्भ बौद्ध धर्म में भी को जाति, देश, काल तथा समय (अवस्था विशेष पंचशील के अन्तर्गत अस्तेय की गणना की गयी है। या विशेष नियम) की सीमा से परे बतलाया है। अष्टांगिक आर्य मार्ग के पंचम सोपान की चर्चा इन्हें सार्वभौम महाव्रतों की संज्ञा दी गयी है। करते हुए बौद्ध धर्म में भी कहा गया है कि जीवन- आशय यह, कि यमों का पालन किसी जाति विशेष, यापन तथा जीवन-रक्षण हेतु मानव मात्र को किसी देश विशेष, काल विशेष या अवस्था विशेष के मानव | न किसी जीविका को अपनाना आवश्यक है किन्तु ममदाय के लिए नहीं वरन भ-मण्डल पर रहने वाले जीविका सम्यक होनी चाहिए। इससे न तो किसी समस्त मानव समाज के लिए इनका पालन करना प्राणी को किसी प्रकार का क्लेश पहुँचना चाहिए उपाय और अपरिहार्य है । यम का अर्थ ही शासन
और न उनकी हिंसा। इसीलिए 'लक्खण सुत्त'- और व्यवस्था बनाये रखने वाले नियमों से है ! ३ में भगवान बुद्ध ने निम्नांकित जीविकाओं को अभाव सर्वदा भाव निरूपण के अधीन रहता है। गर्हणीय और हेय बतलाया है-तराजू की ठगी, इसीलिए सूत्र ३० की व्याख्या में भाष्यकार व्यास कंस की ठगी, मान की ठगी, रिश्वत लेना, वंचना, जी ने लिखा है, "अशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः ) कृतघ्नता, डाका-लूटपाट आदि। इस धर्म में भी स्वीकरणं स्तेयम् । तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयअस्तेय को पंचशीलों में तृतीय शील ही बतलाया मिति ।" स्तेय को परिभाषित करते हुए उसके
प्रतिषेध को अस्तेय कहा है। स्तेय वृत्ति अशास्त्र३१८
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
गया है।
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१६]
पूर्वक है। किसी की आज्ञा के बिना किसी अन्य अशक्तता के कारण दीनता दिखलाना या कठोर व्यक्ति के द्रव्यों का अपहरण करना स्तेय है। उसका संयम का पालन न करने के कारण भाग उठना प्रतिषेध ही नहीं प्रत्यूत मन में अन्य व्यक्ति के द्रव्य महावीर शिक्षा नहीं है। क्योंकि महाव्रतों के पालन को ग्रहण करने की इच्छा का अभाव ही अस्तेय तथा अन्यत्र भी वे “णो हीणे, णो अतिरित्ते (आचाकहा जाता है।
रांग सूत्र ७५) किसी को हीन या महान मानने के
पक्ष में नहीं जान पड़ते। उनके मत में संयम की पातंजल योग में विवेचित यम को सार्वभौम
भट्टी में उग्र तप किये बिना कोई भी व्यक्ति जिन महाव्रत कहा गया है। जैन और बौद्ध श्रमण पर
नहीं बन सकता। क्योंकि जीव दया, इन्द्रिय संयम, म्परा में वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था को अमान्य ठह
सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यक्ज्ञानदर्शन, राते हुए सभी वर्गों के लिए धर्म के द्वार खोल दिये
तप ये सभी शील के ही परिवार हैं। [शीलपाहुड गये हैं । ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वश्रेष्ठ होने की मान्यता को भी धराशायी कर दिया गय इसी प्रकार आश्रम व्यवस्था में भी इन्हें दो ही महर्षि पतंजलि और भगवान महावीर की अपआश्रम गृहस्थ और संन्यास रुचिकर लगे और तद- वादविहीन महाव्रत पालन करने की क्षमता धीरेनुरूप इन्हें अपने-अपने संघों के चार विभाग-साधु धीरे क्षीण होती गई और कालान्तर में जैन गृहस्थ और साध्वी (मुनि-आर्यिका) अथवा भिक्षु और श्रावक-श्राविका समाज ने भी बड़ी कुशलता तथा भिक्षुणी तथा श्रावक और श्राविका इष्ट हैं। अधि- प्रावीण्य के साथ अपने लिए कंसेशनों-सुविधाओं की कारी की दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ढील जोड़ ली और गलियाँ ढूँढ़ लीं । कठोर संयम, में साधु और साध्वियों के लिए इन व्रतों का अप- उग्र तप-व्रतों का अपवादरहित पालन मुनि-आर्यिवादरहित कठोरता से पालन करने का उपक्रम काओं के जिम्मे छोड वह बरी हो गया। परिग्रह रचा गया। इसलिए इनके लिए ये महाव्रत समझे तथा स्तेय के नित नये हथकण्डे अपनाने लगा।
गये । गृहस्थ श्रावक और श्राविकाओं के लिए यथा- जैन समाज ही इसका शिकार नहीं है अपितु सम्पूर्ण । 7 शक्ति और क्षमता के अनुरूप इनके पालन का भारतीय या विश्व-मानव समाज इन बुराइयों से विधान किया गया। इसलिए इनके लिए ये व्रत कहाँ बच पाया है। अणुव्रत माने गये। इस तरह जैन और बौद्ध धर्मों में मानव संघ को दो आश्रमों और दो वर्गों में जब तक व्यक्ति केवल अपने तक ही सीमित विभाजित किया है।
एकाकी रहता है तब तक उसके सामने महत्वा
कांक्षा और उसकी पूर्ति हेतु परिग्रह या संग्रह जहाँ तक मुझे विदित है मेरे अल्प अध्ययन के अयवा चोरी, संग्रह के लिए शोषण-अपहरण, इस आधार पर मैं कह सकता हूँ कि भगवान महावीर विधा को सुचारु अग्रसर करने के लिए बौद्धिक ने व्रतों के पालन में कभी कोई ढील दी हो अथवा कौशल और शारीरिक शक्ति का विकास एवं किसी व्यक्ति विशेष को समय-काल-परिस्थिति के बौद्धिक-शारीरिक बल के लिए विद्या का दुरुपयोग, आधार पर इनके पालन में कोई सुविधा (कंसेशन) दुरभिसंधि, स्पर्धा आदि समस्याएँ उत्पन्न नहीं दी हो मझे ज्ञात नहीं है । तप और संयम के प्रसंग होती। किन्तु अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु में वे सर्वदा असमझौतावादी ही बने रहे हैं। अपने व्यक्ति ज्योंही समाज में प्रवेश करता है त्योंही वह | व्रत पर अडिग रहना ही उनकी विशेषता है। न अपनी दुर्बलता का प्रतिकार करने के लिए और दैन्यं, न पलायनम्' अर्थात् शारीरिक कमजोरी या महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु स्पर्धा और शक्ति संचय चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
___ ३१६
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COPIEDOGROLOGROOOORReOORCED
की अंधी दौड़ में लग जाता है। यह दौड़ उसे शोषण श्रेणियों में इनको मुख्यतया बाँटा जा सकता है। cार करना सिखाती है । शोषण से अव्यवस्था, अशांति, इन श्रेणियों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की चोरियों का
क्लेश, तनाव उत्पन्न होते हैं। उपद्रव, विद्रोह, में अहर्निश लगे हुए हैं । अधिकांश लोग अस्तेय रोग विप्लव, युद्ध तथा संघर्ष आरम्भ हो जाते हैं। समाज से ग्रस्त हैं। अपनी ही अधिकार मर्यादा में सन्तुष्ट का ढाँचा चरमराने लग जाता है। तब उसकी रहने वाले ईमानदार और कर्तव्यपरायण व्यक्ति पुनर्व्यवस्था हेतु दण्डनीति, अनुशासन एवं न्याय आज अंगुली पर गिनने लायक ही होंगे। वस्तुतः | व्यवस्था जन्म लेती है। मर्यादाहीनता को मिटाने चोरी करना गुलाब की सेज नहीं है वरन् यह साहस के लिए धर्म संहिता तथा दण्ड संहिताओं का निर्माण का कार्य है । प्रायः लोग चोरी करने की सोचते तो किया जाता है । समाज की महत्वपूर्ण घटक इकाई हैं पर वे मानसिक रूप से हिम्मत नहीं जुटा पाते । होने के कारण व्यक्ति अपने आचार-विचार तथा ऐसे लोग मौका लगते ही हाथ साफ करने में नहीं
समाज के अन्य घटकों को भी प्रभा- चकते। अतः ये भी चौर्य कर्म के भागी हैं। मोटे बित करता रहता है । इसीलिए व्यक्ति की उच्छृख- तौर पर इन नव श्वेत हस्तियों के कारनामों का लता-उद्दण्डता-स्वार्थ लोलुपता को रूपान्तरित करने विवरण इस प्रकार अंकित किया जा सकता हैके लिए महापुरुष समाज में व्रत विधान की एक १. अधिकारजीवी सवर्ण-संकुचित विचार-fine ओर व्यवस्था संजोता है और दूसरी ओर भीषण धारा वाले संकीर्ण हृदय सवर्ण ऊंची जाति के कहयातनाओं सहित राजकीय दण्ड नीति द्वारा उस पर लाने वाले समृद्ध तथा असमृद्ध अपने आपको धर्म अंकुश भी लगाता है। यदि हर व्यक्ति नैतिक सदा- का ठेकेदार मानने वाले लोग इस श्रेणी में समाचरण करे, ईमानदारी के साथ कर्तव्यपरायण हो विष्ट होंगे। ये तथाकथित ऊँची जाति वाले गरीब जाये तो समाज में सुख-शान्ति और समृद्धि लायी दीन-हीन पिछड़ी या नीची जाति के लोगों को अस्पृजा सकती है। अतः समाज को सुसंगठित सुसंस्कृत, श्य समझने वाले लोग हैं जो उनके धार्मिक, सामा-1022 एवं सबल बनाने के लिए धर्माचरण के मलमंत्र व्रतों जिक, नागरिक अधिकारों को हड़पकर इठलाते हैं। को अपनाना अनिवार्य है। वैदिक तथा श्रमण परं- ये लोग उनके जीवनोपयोगी अधिकारों का दिन-18 पराओं में इसीलिए अपने-अपने ढंग से व्रतों को यम रात हरण करने में तल्लीन रहते हैं । जैन परम्परा अथवा शील का अनिवार्य अंग बनाया गया है। ही नहीं वरन् सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों
_ ने जीवात्मा को ऊर्ध्वगमनशील मान्य किया है । केवल छिपकर किसी की वस्तु को अथवा धन
आत्मोन्नति करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध र को चुराना ही अस्तेय नहीं है परन्तु किसी चोर को।
अधिकार है। यही नहीं, मानव देह पाकर अपने AN स्वयं या दूसरे द्वारा चोरी करने के लिये प्रेरित ।
1 स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का प्रयास करना मानव करना या कराना या अनुमोदन अथवा प्रशसा का परम उद्देश्य या परुषार्थ भी है। सर्वोदय की / करना तथा चोरी करने के लिए उपकरण प्रदान लगाने वाले ये मदान्ध सवर्ण हरिजनों और 4 करना, चोरी के माल को बेचना या बिकवाना भी।
निम्न जाति के निरीह-निर्दोष दीन-हीन जनों के चोरी है।
झोंपड़ों में आग लगाकर. उन्हें धधकती ज्वाला में वर्तमान संदर्भ में अस्तेय पालन की परम आव- अपने प्राणों की आहुति देने के लिए बाध्य कर देते श्यकता है। कई दिन भूख से तंग आकर कोई भूखा हैं। इस प्रकार उनके जीवित रहने के अधिकार को व्यक्ति यदि किसी हलवाई की दुकान से कुछ खाने हडप कर जाते हैं और जब वे लोग त्राण पाने के की वस्तु चुरा लेता है तो वह इतना गुनाहगार नहीं लिए धर्मान्तरण कर लेते हैं तो उन पर मगरमच्छी है जितने कि निम्नलिखित श्रेणी वाले लोग । नव अश्र पात करते हैं। ३२०
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम | C
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ATMAINTAI
२. धनजीवी, उद्योगपति, व्यापारी और साहू- वाटर का इंजेक्शन लगा अपनी फोस वसूल करने कार-इस वर्ग में वे सब श्रावक-श्राविका तथा में डॉक्टर अपने आपको कृतकृत्य समझ अन्य धनाढ्य श्रेणी के लोग समाविष्ट हैं जिनका आज बिना पैसे दिये मजाल है कोई मरीज ऑपरेतीर्थकर, तथागत, भगवान्, अल्लाह या गॉड लाभ शन थियेटर में पहुँच जाये अथवा उचित औषधि ) है । अनुचित लाभ कमाने की होड़ में ये कम अस्पताल से पा जाये । दवायें चोरी से बेचना या तोलते हैं, चोरी का माल औने-पौने दामों में खरी- मुह देखकर बड़ों को तिलक लगाने के फलस्वरूप दते हैं, चोरी करवाते हैं, वनस्पति में गाय की उन्हें महंगी दवायें मुफ्त देकर अपने लिए अन्य चर्बी, हल्दी में पीली मिट्री, धनिये में भूसा आदि सविधायें जटाना डॉक्टरी का पवित्र व्यवसाय बन मिलाते हैं। यही नहीं नकली दवा निर्माण और गया है। अस्पताल में जिम्मेदारी डयूटी से न कर उनमें मिलावट कर ये जन-जीवन से खिलवाड़ घर पर क्लीनिक चला, दोनों हाथों से धन बटोरना करते हैं। दूसरों को येन-केन-प्रकारेण ठगना इनका मुख्य व्यवसाय बन गया है। वकील दोनों इनका व्यापारिक कौशल बन गया है। ब्याज की पक्षों से मिलकर जजों को यथायोग्य दक्षिणा देकर ऊंची दर ऐंठकर महाराज साहब या मुनि या साधु निर्णय अपने पक्ष में करवाने में माहिर होते जा रहे कि की शरण में जा शांति खोजने का नाटक रचते हैं। है। न्यायालयों में फैसले कानून के अनुसार नहीं टैक्स चोरी इनका प्रिय खेल है और बेईमानी वरन् कितनी रकम कौन दे सकता है और जज को । शगल ।
क्रय कर सकता है उस पर प्रायः निर्भर होते जा रहे । ३. रिश्वतजीवी राजकीय अराजकीय कर्मचारी हैं । बाबुओं को भूर-सी बँटवाने में भी वकीलों का और अधिकारी-आज के समाज में ऐसा कोई हाथ रहता है ताकि वे उनकी जायज-नाजायज विभाग शायद ही बचा हो जो किसी न किसी इच्छाओं की पूर्ति कर सकें । इंजीनियर और ठेकेभ्रष्ट आचरण से अछता हो। शासकीय और दारा की साठ-गाँठ रेत से ढहने वाले बाँधों-पलोंअशासकीय संस्थान भ्रष्टाचार के ज्वलंत अड्डे मका
के मकानों में कहर ढा रही है। बड़े-बड़े खेतों के बनते जा रहे हैं । रिश्वत आज के युग में शिष्टा
स्वामी जमींदार स्वयं तो हल की मूठ नहीं पकड़ते चार बन गयी है। जितनी बड़ी सीट उतना बड़ा
पर खेतिहर मजदूरों को बन्धुआ बनाकर बेगार में 70 दाम । बिना पैसे दिये मजाल है कि फाइल एक
जोत गुलछरें उड़ाते हैं । सब चोर हैं । चोरी करने | इंच भी आगे खिसक जाये । समय पर काम नहीं के ढग अलग-अलग हैं। करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। ठीक भी है, ५. चन्दाजीवी नेतागण-विभिन्न बहाने लेकर यदि समय पर आसानी से जनता का कार्य निपट ।
नेताजी चन्दा बटोरने में दिन-रात ल जाये तो उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो मन्त्री, विधायक तथा सांसद भी इस कार्य में पीछे 8 इनको रिश्वत चुपड़ी रोटी डालें। कामचोरी देश नहीं हैं । अपना सर्वस्व जनता के लिए न्यौछावर | को रसातल में ढकेल रही है । पर परवाह किसे है ? कर उसकी सेवा करने के दिन लद गये । आज सेठों । छोटे कर्मचारी से अपना-अपना शेयर वसूल कर और पूजीपतियों के हाथों कठपुतली-सा नाच न बड़े-बड़े अधिकारी सीधे भी व्यापारी और उद्योग
नाचने वाले तथा उच्च अधिकारियों के माध्यम से पतियों से बहुत बड़ा अंशदान वसूलने में अहर्निश अपनी चौथ वसूलने वाले ये नेतागण रातोंरात (छ लगे हुए हैं।
___लखपति और यदि चुन लिए गए तो अपने कार्यकाल I ___४. अवैध आयजीवी, डाक्टर, वकील, इन्जी- में सात पीढ़ियों तक चलने वाला धन बटोर लेते र नियर, ठेकेदार व जमींदार-मुर्दे को डिस्टिल हैं। चोर दरवाजा इनका साहूकारी का प्रमाण है।
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६. विद्याजीवी, शिक्षाविद्, पत्रकार-सम्पादक- ६. परधनोपजीवी साधु-संन्यासी-मठाधीशप्रकाशक एवं लेखक-आज शिक्षाविद् अपनी उच्च पण्डित एवं धर्म प्रचारक-प्रातः स्मरणीय पूजनीय शिक्षा के बलबूते पर नये-नये हथकंडे खोजने में रत जैन साधु-मुनिगण वास्तव में स्तुत्य हैं क्योंकि वे रहते हैं ताकि उनके पास भी नम्बर दो की आय अन्य मठाधीशों की भाँति किसी प्रकार का कोई का की वर्षा होने लगे और वे भी लखपति बन कारों- परिग्रह नहीं पालते । अस्तेय का पालन कैसा होता बंगलों-कोठियों में ऐश करें। मां शारदा का पुजारी है इनसे सीखा जाना चाहिए। ये जनता को अस्तेय
भी लक्ष्मी की शरण में जाकर अपना पवित्र व्यव- की ओर प्रेरित करते हैं। अन्य मतों में भी नागा Hai साय बिसरा-सा रहा है। प्रकाशक-सम्पादकगण परमहंस उच्च कोटि के हैं जो समाज को देते ||
लेखकों का शोषण करना अपना फर्ज-सा मान बैठे ही देते हैं बदले में तृण की इच्छा भी नहीं | हैं । लेखकगण भी परिश्रम न कर इधर-उधर की रखते । किन्तु इनकी संख्या नगण्य मात्र है। शेष र दो-चार किताबों से सामग्री चुराकर अपना नाम सभी मठाधीश कभी किसी यज्ञ, कभी किसी अनु- ( रोशन करने में लगे हुए हैं। पीत पत्रकारिता पत्र- ष्ठान, कभी किसी मन्दिर का निर्माण आयोजित ६ कारों का दूसरे रास्ते से पैसा ऐंठने का व्यवसाय
कर धर्म की आड़ में अपनी रोटियाँ सेकते हैं। बनता जा रहा है।
समाज के पैसे पर इनमें कई सुरा और सुन्दरी की ७. श्रमजीवी कृषक और मजदूर-'पैसा पूरा मौज में ऐश कर रहे हैं। न कोई काम, न कोई किन्तु काम नहीं' आज के श्रमिक का नारा है। चिन्ता। पूरी मजदूरी पाकर भी कृषक, खेतिहर मजदूर तथा यद्यपि जितने चोर हैं उतने ही उनके चोरी के अन्य श्रमिकगण काम पूरा करना अपनी जिम्मेदारी ढंग हैं । 'चोर अनन्त चोरी अनन्त' फिर भी सुविधा नहीं समझता। बीड़ी पीना, सुस्ताना, धीमी गति की दृष्टि से समस्त चोर कर्मों को उक्त नवकोटियों पर से कार्य करना इनका शगल बन गया है। श्रम पर में रखा जा सकता है। अस्तेय पलकर भी ये श्रम का मूल्य नहीं आँकते। उचित प्रकार की कोई छूट नहीं है। चार प्रकार की मजदूरी न पाने पर उसके प्रति विद्रोही स्वर उठाने हिंसाओं में से जीवन संरक्षण हेतु कुछ हिंसा तो का साहस इनमें नहीं होता। इसीलिए श्रमिक नेता करनी ही पड़ेगी । 'जीवो जीवस्य भोजनम्'-जीव इनके कन्धे पर बन्दूक रखकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि ही जीव का भोजन है। इस सिद्धान्त के अनुसार की गोली आये दिन दागते रहते हैं। ईमानदार संसार में रहकर मानव ही नहीं प्राणीमात्र पूर्ण तथा हितैषी मालिक, जो आजकल बिरले ही हैं, अहिंसक नहीं बन सकता। जीवन जब दाव पर उनके विरोध में भी ये हडताल का अस्त्र अपना कर लगा हो तो वहाँ असत्य भाषण भी क्षम्य बतलाया B उस उद्योग और उद्योगपति को धराशायी करने का गया है । जीवन-यापन करने के लिए कुछ न कुछ है प्रयास करते हैं।
परिग्रह तो पालना ही होगा तथा संतानोत्पत्ति और . लटजीवी, चोर-उच्चक्के, तस्कर एवं संसार चलाने हेतु ब्रह्मचर्य की भी छूट सभी डाकू-इन श्रेणियों के लोग तो घोषित चोर हैं ही। आचार शास्त्रों में दी गयी है। वाल ब्रह्मचारी रह इनमें भी ऊँचे दर्जे के तस्कर और सबाज दिन कर इस कमी को संन्यासीगण पूरा करने का प्रयास के उजाले में भले मानुष तथा रात्रि के अन्धकार करते हैं किन्तु चैल या अचैल (वस्त्रधारी या दिगमें काले कारनामे करते हैं । दिन दूना और रात म्बर) साधुगण भी स्तेय को किसी भी अवस्था में 2 चौगुना धन बटोर कर भी उनकी धनलिप्सा और नहीं अपना सकते । इसी प्रकार गृहस्थगण भी चौर्य हबस नहीं मिटती ।
(शेष पृष्ठ ३२७ पर)
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जन आगम साहित्य तथा अन्य जैन साहित्य का अध्ययन अभी । तक जैनधर्म-दर्शन के लिए हुआ उतना अन्य विषय के लिए नहीं हुआ। यह माना कि जैन आगम साहित्य धार्मिक ग्रन्थ हैं। उनमें जैनधर्म और दर्शन विषयक विपुल सामग्री है। इसका अर्थ यह तो नहीं कि
उन ग्रन्थों में अन्य विषयों से सम्बन्धित सामग्री नहीं है। धर्म-दर्शन१ प्रधान ग्रन्थ विषय होते हुए भी इन ग्रन्थों में इतिहास, समाजशास्त्र,
विज्ञान, अर्थशास्त्र, गणित, आयुर्वेद, राजनीति विज्ञान, प्रभृति विषयों से सम्बन्धी ज्ञान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है । जैन अध्येता-मुनियों ने धर्मदर्शन के अतिरिक्त कुछ कार्य ज्योतिष पर भी किया है। यदि व्यवस्थित रूप से इन आगम ग्रन्थों और इनसे सम्बन्धित अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किया जाये तो उपर्युक्त विषयों से सम्बन्धित नई-नई जानकारियाँ मिल सकती हैं । इस लघु निबन्ध में जैन साहित्य में वर्णित दण्डनीति पर संक्षेप में विचार करने का प्रयास किया जा रहा है।
अभी तक जनमानस के सम्मुख इस प्रकार की सामग्री प्रकाश में नहीं * आई है या लाने का प्रयास ही नहीं किया गया है । यदि इस निबन्ध से
कहीं आगे कुछ कार्य होता है तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समझंगा । इस निबन्ध से जैन साहित्य में वर्णित दण्डनीति का विकास और स्वरूप समझने में सहायता मिलेगी।
8 जैन साहित्य में वर्णित üggggggggggggggggggggggggggggggggggggggggggga
प्राचीन भारतीय दण्डनीति
११ अंकपात मार्ग, गली नं० २, काजीबाड़ा उज्जैन (म. प्र.) ४५६००६ BOODDOODDEDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDLIDIODDDDDDDDDDD
-डॉ० तेजसिंह गौड़
____ इस प्रकार के संकेत हैं कि जैन साहित्य के अनुसार प्रारम्भ में ३. सतयुग जैसी स्थिति थी। किसी प्रकार का कोई झगड़ा-फसाद नहीं
था । कुलकरों की व्यवस्था के अन्तर्गत सब कार्य सुचारु रूप से चल रहे थे किन्तु जैसे-जैसे कल्पवृक्षों की क्षीणता बढ़ती गई वैसे-वैसे युगलों का उन पर ममत्व बढ़ने लगा । इससे कलह और वैमनस्य की भावना का जन्म हुआ और अपराधों का भी जन्म हुआ । इससे समाज में अव्यवस्था फैलने लगी। जन-जीवन त्रस्त हो उठा और तब अपराधी मनोवृत्ति को दबाने के उपाय खोजे जाने लगे । उसी के परि
णामस्वरूप दण्डनीति का प्रादुर्भाव हुआ। यहाँ यह स्पष्ट करना ) प्रासंगिक ही होगा कि इसके पूर्व किसी प्रकार की कोई दण्डनीति नहीं
थी, क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं हुई। जैन साहित्य के अनुसार सर्वप्रथम 'हाकार', 'माकार' और 'धिक्कार नीति' का प्रचलन हुआ। जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
JAs:
१. दण्ड: अपराधिनामनुशासनस्तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः तयो दण्डनीति ।
-स्थानांगवृत्ति प. ३६९-४०१
DDDDDDDDDDDD
३२३
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हाकार नीति- इस नीति का प्रचलन कुलकर विमलवाहन के समय हुआ । इस नीति के अनुसार अपराधी को खेदपूर्वक प्रताड़ित किया जाता था'हा !' अर्थात् - तुमने यह क्या किया ? देखने में यह केवल शब्द - प्रताड़ना है किन्तु यह दण्ड भी उस समय का बहुत बड़ा दण्ड था । इस 'हा' शब्द से प्रताड़ित होने मात्र से ही अपराधी पानी-पानी हो जाता था । इसका कारण यह था कि उस समय का मनुष्य वर्तमान काल के मनुष्य की भाँति उच्छृंखल एवं मर्यादाहीन नहीं था । वह तो स्वभाव से संकोची और लज्जाशील था । इसलिए इस 'हा' वाले दण्ड को भी वह ऐसा समझता था मानो उसे मृत्युदण्ड मिल रहा हो । 1 यह नीति कुलकर चक्षुष्मान के समय तक बरावर चलती रही ।
माकार नीति - कोई एक प्रकार की नीति स्थाई नहीं होती है । यही बात प्रथम 'हाकार' नीति के लिए भी सत्य प्रमाणित हुई । 'हाकार' नीति जब विफल होने लगी तो अपराधों में और वृद्धि होने लगी, तब किसी नवीन नीति की आवश्यकता अनुभव को जाने लगी । तब चक्षुष्मान के तृतीय पुत्र कुलकर यशस्वी ने अपराध भेद कर अर्थात्छोटे-बड़े अपराध के मान से अलग-अलग नीति का प्रयोग प्रारम्भ किया । छोटे अपराधों के लिए तो 'हाकार नीति' का ही प्रयोग रखा तथा बड़े अपराधों के लिए 'माकार नीति' का प्रयोग आरम्भ किया । 2 यदि इससे भी अधिक कोई अपराध करता तो ऐसे अपराधी को दोनों प्रकार की नीतियों से दण्डित करना प्रारम्भ किया ।" 'माकार' का अर्थ था - 'मत करो ।' यह एक निषेधात्मक महान दण्ड था । इन दोनों प्रकार की दण्डनीतियों से व्यवस्था पन कार्य यशस्वी के पुत्र 'अभिचन्द्र' तक चलता रहा ।
१ जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, कालाधिकार, ७६ २ स्थानांगवृत्ति प. ३६६
३ त्रिषष्टिशलाका १/२/१७६-१७६
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धिक्कार नीति-समाज में अभाव बढ़ता जा रहा था । उसके साथ ही असन्तोष भी बढ़ रहा था । जिसके परिणामस्वरूप उच्छृंखलता और धृष्टता का भी एक प्रकार विकास ही हो रहा
था । ऐसी स्थिति में हाकार और माकार नीति से कब तक व्यवस्था चल सकती थी । एक दिन माकार नीति भी विफल होती दिखाई देने लगी और अब उसके स्थान पर किसी नई नीति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी । तब 'माकार नीति' की असफलता से 'धिक्कार नीति' का जन्म हुआ । यह नोति कुलकर प्रसेनजित से लेकर अन्तिम कुलकर नभिराय तक चलती रही। इस 'धिक्कार नीति' के अनुसार अपराधी को कहा जाता था - 'धिक्' अर्थात् तुझे धिक्कार है, जो ऐसा कार्य किया ।
जैन विद्या के सुविख्यात विद्वान उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ने अपराधों के मान से इन नीतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है
जघन्य अपराध वालों के किए 'खेद'
मध्यम अपराध वालों के लिए 'निषेध' और उत्कृष्ट अपराध वालों के लिए 'तिरस्कार' सूचक दण्ड मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे । "
कुलकर नाभि तक अपराध वृत्ति का कोई विशेष विकास नहीं हुआ था, क्योंकि उस युग का मानव स्वभाव से सरल और हृदय से कोमल था । "
अन्तिम कुलकर नाभि के समय में ही जब उनके द्वारा अपराध निरोध के लिए निर्धारित की गई धिक्कार नीति का उल्लंघन होने लगा और अपराध निवारण में उनकी नीति प्रभावहीन सिद्ध हुई, तब युगलिक लोग घबरा कर ऋषभदेव के पास आए और उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए सहयोग की प्रार्थना की।
४ स्थानांगवृत्ति प. ३६६
५
ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृष्ठ १२३ ६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार-सूत्र १४
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ऋषभदेव ने कहा-"जनता में अपराधी मनो- छविच्छेद-करादि अंगोपांगों के छेदन का वृत्ति नहीं फैले और मर्यादाओं का यथोचित पालन दण्ड देना। हो उसके लिए तीन प्रकार की दण्ड व्यवस्थाओं का
ये चार नीतियाँ कब चलीं, इनमें विद्वानों में प्रचलन हआ था, अब कालानुसार अपराधों में
विभिन्न मत हैं। कुछ विज्ञों का मन्तव्य है कि वद्धि हो रही है, मर्यादाओं का अतिक्रमण हो रहा
प्रथम दो नीतियाँ ऋषभदेव के समय चलीं और 5 है उनके शमन-निमित्त अन्य दण्ड व्यवस्थाओं का
और दो भरत के समय । आचार्य अभयदेव के । विधान आवश्यक हो गया है और यह व्यवस्था
मन्तव्यानुसार ये चारों नीतियाँ भरत के समय राजा ही कर सकता है क्योंकि शक्ति के समस्त
चलीं । (स्थानांग वृत्ति ७/३/५५७, आवश्यक भाष्य स्रोत उसमें केन्द्रित होते हैं। तत्पश्चात् ऋषभदेव
गाथा ३) । आचार्य भद्रबाहु और आचार्य मलयप्रथम राजा बने और उन्होंने सारी व्यवस्था की।
गिरि के अभिमतानुसार बन्ध (बेड़ी का प्रयोग) ऋषभदेव ने अपने शासनकाल में दण्ड नीति का
और घात (डण्डे का प्रयोग) ऋषभनाथ के समय जो निर्धारण किया उसका विवरण साहित्य मनीषी
में आरम्भ हो गये थे। (आवश्यकनियुक्ति, गाथा || उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी ने इस प्रकार दिया
२१७, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, १९६-२०२) । का
और मृत्यु दण्ड का आरम्भ भरत के समय हुआ। "शासन की सुव्यवस्था के लिए दण्ड परम (आवश्यकनिर्यक्ति २१८, १९६/२)। जिनसेनाआवश्यक है। दण्डनीति सर्व अनीति रूपी सपों को चार्य के अनसार बध-बन्धनादि शारीरिक दण्ड वश में करने के लिए विषविद्यावत् है। अपराधी भरत के समय चले । (महापुराण ३/२१६/६५) उस
को उचित दण्ड न दिया जाये तो अपराधों की संख्या समय तीन प्रकार के दण्ड प्रचलित थे जो अपराध SH निरन्तर बढ़ती जायेगी एवं बुराइयों से राष्ट्र की के अनुसार दिये जाते थे-(१) अर्थहरण दण्ड (२)
रक्षा नहीं हो सकेगी। अतः ऋषभदेव ने अपने शारीरिक क्लेश रूप दण्ड (३) प्राणहरण रूप दण्ड । समय में चार प्रकार की दण्ड व्यवस्था निमित (आदि पुराण : ४२/१६४)।"
___ उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री संस्कृत, (१) परिभाष, (१) मण्डल बन्ध, (३) चारक,
प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् तो हैं ही, वे आगम मर्मज्ञ ||KS (४) छविच्छेद ।
भी हैं । अनेकानेक ग्रन्थों का आलोड़न कर अद्यावधिक _परिभाष-कुछ समय के लिए अपराधी व्यक्ति
आपने अनेक अमूल्य ग्रन्थ रत्नों से माँ भारती के | को आक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने का दण्ड
भण्डार को अभिवृद्धि की है । 'भगवान् महावीर : || देना।
एक अनुशीलन' नामक शोध प्रधान ग्रंथ में आपने ____ मण्डल बन्ध-सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड
उत्तराध्ययन सुखबोधा, अंगुत्तर निकाय, निशीथ-15) देना।
भाष्य, उत्तराध्ययन चूर्णि, उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, || चारक-बन्दीगृह में बन्द रहने का दण्ड ज्ञातृधर्मकथा, दशकुमार चरित, विपाक सूत्र, प्रश्न देना।
व्याकरण आदि ग्रन्थों के आधार पर अपराधों और
की।
१ ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृष्ठ १४० २. वही, पृष्ठ १४३-१४४
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दण्ड विधान पर संक्षेप जो अपराध शास्त्र पर ग्रन्थ पर्याप्त मार्गदर्शन प्रदान यहाँ उद्धृत किया जाता है
चोर-कर्म - उस समय अपराधों में चौर्य-कर्म प्रमुख था । चोरों के अनेक वर्ग इधर-उधर कार्य रत रहते थे। लोगों को चोरों का आतंक हमेशा बना रहता था | चोरों के अनेक प्रकार थे
(१) आमोष - धन-माल को लूटने वाले । (२) लोमहार - र-धन के साथ ही प्राणों को लूटने वाले ।
विवरण दिया है, वह तैयार करने के लिए करता है । उसी को
(३) ग्रन्थि - भेदक - ग्रन्थि - भेद करने वाले । (४) तस्कर - प्रतिदिन चोरी करने वाले । (५) कण्णुहर - कन्याओं का अपहरण करने वाले ।
लोमहार अत्यन्त क्रूर होते थे । वे अपने आपको बचाने के लिए मानवों की हत्या कर देते थे । ग्रन्थिभेदक के पास विशेष प्रकार की कैंचियाँ होती थी जो गाँठों को काटकर धन का अपहरण करते थे ।
निशीथ भाष्य में आक्रान्त, प्राकृतिक, ग्रामस्तेन, देशस्तेन, अन्तरस्तेन, अध्वानस्तेन और खेतों को खनकर चोरी करने वाले चोरों का उल्लेख है ।
कितने ही चोर धन की तरह स्त्री-पुरुषों को भी चुरा ले जाते थे । कितने ही चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ अपना माल छिपाने को अपने कुटुम्बीजनों को मार भी देते थे । एक चोर अपना सम्पूर्ण धन एक कुएँ में रखता था । एक दिन उसकी पत्नी ने उसे देख लिया, भेद खुलने के भय से उसने अपनी पत्नी को ही मार दिया । उसका पुत्र चिल्लाया और लोगों ने उसे पकड़ लिया ।
१.
३२६
भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृष्ठ ८२-८३
उस समय चोर अनेक तरह से सेंध लगाया करते थे- १. कपिशीर्षाकार २. कलशाकृति ३. नंदावर्त संस्थान ४. पद्माकृति ५. पुरुषाकृति ६. श्रीवत्स संस्थान |
चोर पानी की मशक और तालोद्घाटिनी विद्या आदि उपकरणों से सज्जित होकर प्रायः रात्रि के समय अपने साथियों के साथ निकला करते थे ।
चोर अपने साथियों के साथ चोरपल्लियों में रहा करते थे । चोरपल्लियाँ विषम पर्वत और गहन अटवी में हुआ करती थीं । जहाँ पर किसी का पहुँचना सम्भव नहीं था ।
दण्ड- विधान - चोरी करने पर भयंकर दण्ड दिया जाता था । उस समय दण्ड व्यवस्था बड़ी कठोर थी । राजा चोरों को जीते जी लोहे के कुम्भ में बन्द कर देते थे, उनके हाथ कटवा देते थे । शूली पर चढ़ा देते थे। कभी अपराधी की कोड़ों से पूजा करते । चोरों को वस्त्र युगल पहनाकर गले में कनेर के फूलों की माला डालते और उनके शरीर को तेल से सिक्त कर भस्म लगाते और चौराहों पर घुमाते व लातों, घूसों, डण्डों और कोड़ों से पीटते । ओंठ, नाक और कान काट देते, रक्त से मुँह को लिप्त करके फूटा ढोल बजाते हुए अपराधों की उद्घोषणा करते ।
तस्करों की तरह परदारगमन करने वालों को भी सिर मुंड़ाना, तर्जन, ताड़ना, लिंगछेदन, निर्वासन और मृत्युदण्ड दिये जाते थे। पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी दण्ड की भागी होती थीं, किन्तु गर्भवती स्त्रियों को क्षमा कर दिया जाता था। हत्या करने वाले को अर्थदण्ड और मृत्युदण्ड दोनों दिये जाते थे ।"
कारागृह का विवरण इस प्रकार दिया गया
'कारागृह की दशा बड़ी दयनीय थी । अपरा
है -
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धियों को दारुण कष्ट दिए जाते। उन्हें वहाँ पर क्षुधा तृषा और शीत-उष्ण आदि अनेक तरह के कष्ट सहन करने पड़ते थे । उनका मुख म्लान हो जाता था । अपने ही मल-मूत्र में पड़े रहने के कारण उनके शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते, उनका प्राणान्त हो जाने के पश्चात् उनके पैर में रस्सी बाँधकर खाई में फेंक देते । भेड़िए, कुत्ते, शृगाल, मार्जार आदि वन्य पशु उनका भक्षण कर जाते । कैदियों को विविध प्रकार के बन्धनों से बाँधते । बाँस, बेंत व चमड़े के चाबुक से उन्हें मारते थे । लोहे की तीक्ष्ण शलाकाओं से, सूचिकाओं से उनके शरीर को बींध देते थे । 1
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समय के प्रवाह के साथ-साथ अपराधों में भी वृद्धि होती गई और उसके अनुरूप ही दण्ड व्यवस्था में भी परिवर्तन होता गया ।
१. भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृष्ठ ८३-८४
(शेष पृष्ठ ३२२ का )
कर्म को गहित ही मानते हैं और इससे सदा वचने का प्रयास करते हैं ।
वर्तमान युग में जितना भी तनाव, मानसिक कुण्ठाएँ और त्रास मनुष्य बरबस भुगत रहा है उसका एकमात्र उपाय अस्तेय का पालन, कठोरता के साथ, करना है । चोरी के नित नये हथकण्डों का आयोजन जैसे वह छोड़ देगा वैसे ही उसके समाज में व्यवस्था, शान्ति और समृद्धि भी आती जायेगी और वह अन्य व्रतों का पालन निष्ठापूर्वक करने लगेगा |
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कठोर दण्डनीति का विधान इसलिए किया गया प्रतीत होता है ताकि अपराध करने वाला दण्डनीति से डरकर अपराध न करे। कई बार इस प्रकार की कठोर नीति सफल भी रही है । मानस पटल पर एक विचार उद्भूत होता है कि जैसे-जैसे सभ्यता और संस्कृति का विकास होता जा रहा है वैसे-वैसे अनाचार, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, राग-द्वेष, मेरा-तेरा, हिंसा, चोरी-डकैती, तस्करी, अपहरण, बेईमानी जैसी भावनाएँ और अपराधों में निरन्तर वृद्धि होतो जा रही है । इस प्रकार की प्रवृत्ति का ठहराव कहाँ आएगा ? कुछ नहीं कहा जा सकता । यहाँ तो इतना ही कहना है कि जैन साहित्य का समुचित अनुशीलन कर इस विषय पर व्यवस्थित रूप से विस्तार में लिखने की आवश्यकता है । हो सकता है कि जो लिखा जाए वह देश और समाज का मार्गदर्शन करे ।
0
निष्कर्षतः जब परकीय वस्तु में किसी प्रकार का राग न होगा तो अस्तेय में प्रतिष्ठित होकर साधक की रत्नों में प्रतिष्ठा हो जाती है और लक्ष्मी उसको चेरी बन जाती है । जैनेतर भारतीय समाज की अपेक्षा आज भी जैन समाज में व्रतों का पालन बड़ी निष्ठा और आस्था से किया जाता है । यही कारण है कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर आज तक जैन धर्म अक्षुण्ण है ।
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जैन दर्शन के अध्येता की दृष्टि में भगवान् महावीर की मौलिक 12 देन है- अनेकान्तवाद । इसलिए जहाँ कहीं भी प्रसंग आया है, इस I विषय पर विशदता से प्रकाश डाला गया है। वैचारिक क्षेत्र में अनेकान्तवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है. इसे हम किसी भी स्थिति में IA
नकार नहीं सकते। किन्तु इस सार्वभौम तथ्य के अतिरिक्त भगवान् ___ महावीर ने एक ऐसा भी तत्त्व दिया था, जो आचार क्षेत्र में गृहस्थ libs
समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सामान्यतः हर दर्शन प्रणेता अपने अनुयायियों के लिए आचार का निरूपण करता है। किन्तु गृहस्थ समाज के लिए अतिरिक्त रूप से नैतिकता का चिन्तन देने वाले भगवान् महावीर ही थे । वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में 718 भगवान् महावीर का वह चिन्तन जन-जन को नया आलोक देने वाला है। ____ मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव समाज में कुछ ऐसी वृत्तियाँ पनपने लगीं जो मनुष्य के आचार को खतरा पहुँचाने । वाली थीं। इन वृत्तियों के मूल में व्यक्ति की स्वार्थ-भावना अधिक काम करती है। इसलिए मनुष्य वैयक्तिक स्वार्थ का पोषण करने के लिए दूसरों को सताना, झूठे आरोप लगाना, झूठी साक्षी देना, व्यापार में अप्रामाणिक व्यवहार करना, संग्रह करना आदि-आदि प्रवृत्तियों में सक्रिय होने लगा। इस सक्रियता से नैतिक मानदण्ड टूट गये । फलतः - वही व्यक्ति पूजा, प्रतिष्ठा पाने लगा जो इन कार्यों के द्वारा अर्थोपार्जन करके अपने समय की समस्त सुविधाओं का भोग करता
-डॉ० रामजीराय, आरा और उनके द्वारा संस्थापित नैतिक मूल्य भगवान् महावीर
4
था।
)
भगवान् महावीर के युग में भी नैतिक मूल्य स्थिर नहीं थे । नैतिकता के मूल्य ही जब विस्थापित हो गये तब अमानवीय व्यवहारों पर रोक भी कैसे लगाई जा सकती थी ? मूल्य की स्थापना की कसमकस के समय एक ऐसी आचार संहिता की अपेक्षा थी, जो नैतिकता की हिलती हुई नींव को स्थिर कर सके।
भगवान महावीर इस स्थिति से अनजान नहीं थे। क्योंकि उनके पास अव्याबाध ज्ञान था। उन्होंने मुनि धर्म (पाँच महाव्रतों) की प्ररूपणा करके जीवन-विकास के उत्कृष्ट पथ का संदर्शन किया। किन्तु हर व्यक्ति में उस पर चलने की क्षमता नहीं होती, इसलिए उन्होंने अणुव्रतों की व्यवस्था की है । स्थानांगसूत्र में उन अणुव्रतों का नामोल्लेख करते हुए लिखा गया है-पंचाणुवत्ता पन्नत्ता, तं जहाथूलातो पाणाइवायातो वेरमणं, थूलातो मुसावायातो वेरमणं, थूलातो अदिन्नादानातो वेरमणं, सदार संतोसे, इच्छा परिमाणे ।
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यह एक मानवीय दुर्बलता है कि मनुष्य व्रत स्वीकार करने के बाद भी स्खलित हो जाता है, इसलिए भगवान् ने व्रतों के अतिचारों का विश्लेषण करके व्यक्ति को व्रतों के पालन की दिशा में और अधिक जागरूक बना दिया ।
प्रथम अणुव्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए उस व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं, किंतु आचरणीय नहीं हैं । जैसे१. बन्ध - क्रोधवश, त्रस जीवों को गाढ़ बन्धन से बाँधना |
२. वध - निर्दयता से किसी जीव को पीटना । ३. छविच्छेद – कान, नाक आदि अंगोपांगों का छेदन करना ।
इच्छा परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं
४. अतिभार लादना - भारवाहक मनुष्य, पशु १. क्षेत्र - वास्तु आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना । आदि पर बहुत अधिक भार लादना ।
२. हिरण्य - सुवर्ण
५. भक्त - पान- विच्छेद - अपने आश्रित जीवों के
३. द्विपद - चतुष्पद
आहार- पानी का विच्छेद करना ।
४. धन-धान्य
५. कुप्य
स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं
ये पांचों ही अणुव्रत नैतिक आचार-संहिता के आधार स्तम्भ है । इनके आधार पर अपनी जीवन पद्धति का निर्माण करना ही भ्रष्टाचार की बढ़ती हुई समस्या का सही समाधान है । प्रत्येक युग सत्तारूढ़ व्यक्ति भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए नए-नए विधानों का निर्माण करते हैं । किन्तु जब वे विधान स्वयं विधायकों द्वारा ही तोड़ दिए जाते हैं तब दूसरे व्यक्ति तो उनका पालन करेंगे ही क्यों ?
१. सहसा अभ्याख्यान - सहसा किसी के अनहोने दोष को प्रकट करना ।
२. रहस्य अभ्याख्यान—किसी के मर्म का उद्
घाटन करना ।
३. स्ववदार-मन्त्र-भेद - अपनी स्त्री की गोपनीय बात का प्रकाशन करना ।
४. मृषा उपदेश - मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि के लिए झूठे मन्त्र सिखाना ।
५. कूटलेखकरण - झूठा लेखपत्र लिखना । स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पाँच अतिचार हैं
१. स्नेध - चोर की चुराई हुई वस्तु लेना । २. तस्कर प्रयोग - चोर की सहायता करना । ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम- राज्य द्वारा निषिद्ध व्यापार करना ।
४. कूट तौल, कूट माप-कम तौल-माप करना । ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार - अच्छी वस्तु दिखा कर खराब वस्तु देना, मिलावट करना ।
चतुर्थखण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
स्वदार संतोष व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं१. इत्वरिक परिगृहीत गमन-अल्प समय के लिए क्रीत स्त्री के साथ भोग भोगना अथवा अपनी अल्पवय वाली स्त्री के साथ भोग करना ।
२ अपरिगृहीत गमन - अपनी अविवाहित स्त्री (वाग्दत्ता ) के साथ भोग भोगना अथवा वेश्या आदि के साथ भोग भोगना ।
३. अनंग कोड़ा - कामविषयक क्रीड़ा करना । ४. पर विवाहकरण - दूसरे के बच्चों का विवाह
कराना ।
५. कामभोग तीव्राभिलाषा - अपनी स्त्री के साथ तीव्र अभिलाषा से भोग भोगना ।
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एक बात यह भी है कि राज्य की दृष्टि में वही कर्म भ्रष्टाचार की कोटि में आता है, जिससे राजकीय स्थितियों में उलझन पैदा होती है। किंतु सच तो यह है कि भ्रष्टाचार कैसा भी क्यों न हो तथा किसी भी वर्ग और परिस्थिति में हो उसका प्रभाव व्यापक ही होता है । भ्रष्टाचार की जड़ों को उखाड़ने के लिए व्यक्ति में नैतिकता के प्रति निष्ठा के भाव पनपाने होंगे, क्योंकि निष्ठा के अभाव में वृत्तियों का संशोधन नहीं हो सकता और
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आदि आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में श्रावक के बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं का विशद् विश्लेषण किया है। आचार्य वसुनन्दि ने अपने ग्रन्थ वनन्दि श्रावकाचार में लिखा है- 'लोहे के शस्त्र तलवार, कुदाल आदि तथा दण्ड और पाश आदि को बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और झूठे मापक पदार्थ नहीं रखना तथा क्रूर प्राणी बिल्ली, कुत्ते आदि का पालन नहीं करना अनर्थ दण्ड- त्याग नामक तीसरा अणुव्रत है ।' (वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक २१६ )
'शारीरिक शृंगार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प आदि का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग निवृत्ति नामक द्वितीय शिक्षाव्रत कहा जाता है ।
'पर्व, अष्टमी, चतुर्दशी आदि को स्त्री-संग त्याग तथा सदा के लिए अनंग-कीड़ा का त्याग करने वाले को स्थूल ब्रह्मचारी कहा जाता है ।'
इस प्रकार श्रावक धर्म की प्ररूपणा के माध्यम से एक सार्वजनिक आचार संहिता देकर भगवान् महावीर ने अनैतिकता की धधकती हुई ज्वाला में भस्म होते हुए संसार का बहुत बड़ा उपकार किया है । भगवान् महावीर के इस चिंतन के आधार पर ही वर्तमान में आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के रूप में एक नई आचार-संहिता का निर्माण किया है । लगता है कि अब और तब की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं था । इसीलिए भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त का उत्तर- भगवान् महावीर का वह चिन्तन इस युग के जनवर्ती आचार्यों ने भी प्रसार किया है । समन्तभद्र, मानस के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सोमदेव, वसुनन्दि, अमितगति, आशाधर, पूज्यपाद रहा है । [D] अहिंसा की विशिष्टता
O
वृत्तियों की स्वस्थता बिना मानव समाज भी स्वस्थ नहीं हो सकता ।
भगवान् महावीर ने व्रतों की जो व्यवस्था दी, उसमें वैयक्तिक हितों के साथ सामाजिक और राजनैतिक हितों को भी ध्यान में रखा गया है । प्रथम व्रत के अतिचारों में मानवतावाद की स्पष्ट झलक है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करे यह मानवीय आचार संहिता का उल्लंघन है । इसलिए मैत्री भावना का विकास करके समग्र विश्व के साथ आत्मीयता का अनुभव करना प्रथम व्रत का उद्देश्य है ।
दूसरे व्रत के अतिचारों में सामूहिक जीवन की समरसता में बाधक तत्वों का दिग्दर्शन कराया गया है । तीसरे व्रत में राष्ट्रीयता की भावना के साथ व्यावसायिक क्ष ेत्र में पूर्ण प्रामाणिक रहने का निर्देश दिया गया है । चौथे व्रत में कामुक वृत्तियों को शान्त करने के उपाय हैं और पाँचवें व्रत में इच्छाओं सीमित करने का संकल्प लेने से अर्था भाव, मँहगाई और भुखभरी को लेकर जनता में जो असन्तोष फैलता है, वह अपने आप शांत हो जाता ।
अपने आपको भगवान् महावीर के अनुयायी मानने वाले जैन लोग भी यदि इस नैतिक आचार संहिता के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें तो वर्तमान समस्याओं को एक स्थायी और सुन्दर समाधान मिल सकता है ।
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यह भगवती अहिंसा प्राणियों के, भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों को आकाशगमन के समान हितकारिणी है, प्यासों को पानी के समान है, भूखों को भोजन के समान है, समुद्र में जहाज के समान है, चौपायों के लिए आश्रम (आश्रय) के समान है, रोगियों के लिए औषधियों के समान है और भयानक जंगल के बीच निश्चिन्त होकर चलने में सार्थवाह के समान सहायक है ।
- भगवान महावीर ( प्रश्नव्याकरण)
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अनेकधर्मात्मकः संसारः । नानाभावात्मकं च वस्तु । प्रतिपिण्डम् अनन्तगुणाः । प्रतिखण्डं नैके पर्यायाः । तथापि अखण्डा वस्तुनः अभिव्यक्ति: । अत्र विरोधाऽविरोधयोः विचार आपेक्षिकः । विधिप्रतिषेधविकल्पतले वचनविन्यासो भंगी प्रियः । किन्तु व्याख्यानच्छलेन मूलतत्त्वं नानायते । तथापि एकान्ततो न विधिः न वा निषेधः । देशकालयोः परिच्छिन्नपरिधिः विवेचनस्वरूपे नियामकः । विवक्षा सापेक्षिकी । विवक्षितपदार्थः न सर्वात्मना गौणः न वा प्रधानः । अतः स्यात्कारः अप्रयुक्तोऽपि व्यवस्थापकः । अनेकान्तो वाच्यरूपेण व्यवस्थाप्यः । दृष्टिरत्र प्रतिपक्षसापेक्षिणी । अविरोधानुरोधेन विमर्शो वस्तुनः स्वरूपं स्पृशति । अतः वस्तुविश्लेषणे अहिंसामयी प्रक्रियाऽत्र अभिव्यक्त ेः सामञ्जस्यं वहति । स्यात्कारश्च न सम्भावितार्थे, न कथंचित्पर्याये, न सन्देहपरिसरे, न वा अज्ञेयवादस्य अचिन्त्य कोलाहले पर्यवस्यति ।
वस्तुतः मैत्रीभावनातले अहिंसादृष्टिः अनेकान्तवादिनी । दृष्टिसीमां परिबध्नाति स्यान्निश्चयः । नेतिकारं परिपुष्णाति अविद्वेषविवेकः । नेतिकारे विरोधः शाश्वतिकः । परं दृष्टिभेदे विरोधो भिन्नः । अविरोधे अविद्वेषः अवश्यम्भावी । किन्तु ह्रास- विकासयोः प्रवाहप्रसरे धरा परिणामिनी । वस्तु परिवर्त्तते । अर्थोऽपि विवर्त्तते । अतः प्रथमकल्पे अहिंसा हिंसाया नेतिकारे नियमबद्धाऽभूत् । तदनुभावात्मकः कश्चित् कल्प उदितः । हिंसाभावस्य निषेधः सिद्धान्तरूपेण स्वीकृतः । विचारे तत्वं पर्युषितम् । हिंसाया लक्षणनिरूपणे कर्मवाद उत्थापितः । कर्मणश्च सीमांकनं स्पष्टीकृतम् । हिंस्रसंज्ञया प्रवृत्तिप्रसरो निरूपितः । अहिंसाया भावरूपा अभिव्यक्तिः मैत्रीरूपं निजीकृतवती, जीवनयज्ञस्य कर्मवलये इयम् आचारस्तरं समागता । आचारे नियमो लिपिबद्धः । आचारस्य अनुशासनरूपेण अहिंसा कल्याणस्य सरणिरभूत् । ततश्च धर्मविधो एषा भिन्नदिशा विकसिता । सकलकर्मबन्धे अस्याः तत्वं समुपस्थापितम् । इयं च सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता । तदनु सकलभावकर्मणां मूल बिंदु रूपेण अहिंसा परमविद्या संजाता । सैद्धान्तिकस्तरे महाभारतकाले अहिंसायाः पूर्णविकासः परिलक्ष्यते - " अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा - परं तपः | अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्त्तते ।" (अनुशासन पर्व, ११५ / २३) पुराणप्रवर्तितधर्मेषु उत्तमधर्मरूपेण अहिंसा पुण्यसाधिका संजाता । कालेऽस्मिन् हिंसाविरोधभावस्य कश्चित् प्रगुणितकल्पः जनसम्मुख उपस्थापितः । अक्लेशकारित्वं च अहिंसाया निर्यासरूपेण चतुर्थं खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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दर्शन - प्राध्यापक श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय पूरी - ७५२००२
--डॉ० केशवचन्द्र दाश:
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
अहिंसाया अन्तलिपि:
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स्फुटीकृतम् । समनन्तरकाले परपीडाविवर्जनरूपं इत्यपि सन्दर्भसारः संजातः । वस्तुतः विश्वस्य हिंसाविरोधकर्म अहिंसायाः सामूहिकसमुद्घोषः धार्मिक प्रवत्तंनासु ईश्वरनश्वरयोः अन्तरतमचेतनासंजातः । न केवलं मानसिकस्तरे अपितु कर्मस्तरे तले अहिंसायाः न केवलं वैचारिकपक्षः अपितु अहिंसा पुण्यस्य प्रथमा भित्तिरिति सिद्धान्तितम्। आचारकल्पः प्रमुख विन्दुरूपेण निदानायितः । सर्वत्र वस्तुतः अनेन प्रत्यक्षकर्मणि प्रायोगिकस्तरे वा अहि- सर्वदा च कालदृष्टया परिस्थितिरेव अहिंसाया । सायाः प्रतिफलनं स्पष्टतरं नाऽभूत् । सिद्धान्तरूपेण नियामिका प्रतीयते । अस्याः महत्वं प्रतिष्ठापितम् । तथापि व्यवहारे
जैननये तु अहिंसा विशेषनीतित्वेन अंगीकृता। का सम्यकरूपता नोपलब्धा । अतः अभ्यासनिमित्तं
ज्ञानाधिकारे ज्ञयत्वाधिकारे चारित्राधिकारे च कश्चित् दार्शनिको विधिः परिकल्पितः । योगशास्त्रे
- अहिंसा परिणामस्वरूपिणी एका आधारशिला। अहिंसा यमरूपेण (अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्य-परि
शुद्धिप्रकरणे इयमेव नियन्त्रिका । अतएव हिंसानिग्रहाः यमाः-योग सूत्र २/३०) परिगणिता।
र्वचने प्रथमतः 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' ___ अपरन्तु "सर्ववर्णानां स्वधर्मानुष्ठाने परमपरि- (उमास्वाति-तत्त्वार्थसूत्रम्-७/८.) इति प्राणव्यमितं सुखम्" (अश्वलायन धर्म सूत्र २.१.२२) इति परोपणस्य प्राधान्यं दत्तम् । प्राणपर्याये भावप्राणवचनव्याख्यानपुरःसरं अहिंसातत्वविनिश्चये मध्य- द्रव्यप्राणभेदो विनिश्चितः । हिंसायाः कारणकोटिषु काले काचित् विप्रतिपत्तिः व्यवहारकलापम् अवा- विषयकषायादीनाम् अन्तर्भावो विहितः । स्वहिंसारुणत् । आत्म-देश-समाज-रक्षादृष्टया अहिंसामुर- परहिंसा-प्रकारद्वये हिंसाया विभागः कृतः । हिंसारीकृत्य विचारः प्रवर्तितः । अहिंसा तत्वे रक्षातत्वं व्यापारे 'हिंस्य-हिंसक-हिंसा' इति स्तरत्रयं निर्णीसन्निविष्टम्। रक्षातत्वस्य ऐकान्तिकशुद्धपक्षः तम् । भावहिंसायां द्रव्यहिंसायां वा कषाय एव मूल अहिसानिर्यासे अन्तर्भावितः । अतएव आचारसंहि- भित्तिरिति निर्धारितम् । अयं च कषायः प्रवृत्ती 12 तायां "मित्रता" अहिंसार्थमलंकृतवती । इयं मित्रता प्रमादः अथवा आविलता इत्यपि विनिश्चितम् ।। यथा भावात्मिका तथैव आचारात्मिका । दृष्टिभेदे अहिंसाया विधेयात्मकपरिसरे प्रधान्येन दया अहिंविप्रतिपत्तिमाशंक्य हितमात्रबुद्धि पुरस्कृत्य सार्थयामखीकरोति । दयापदेन द्रव्यदया-भावदयाअहिंसानिर्वचनं विहितम् । आचारसंवलिता इयं स्वदया-परदया-प्रभृतयः प्रतिपाद्यन्ते । तथापि सैद्धामित्रता कल्याणमित्रता नाम्ना परिचिता । तथापि तिकपक्ष-व्यवहारपक्षयोः समन्वये कचित् विच्युतिः
कर्मनिरूपणे अहिंसासिद्धान्तस्य दृढ़ता न स्फुटतरा। अहिंसातत्त्वे असामञ्जस्यमुपस्थापयति । हिंसाया | अतः परकाले सिद्धान्तेऽस्मिन् "समता" परिपोषक- निषेधात्मक व्यापारे हि सर्वत्र गुरुत्वं दृश्यते । सर्व
क. निषेधात्मक व्यापारे हि सर्वत्र गुरुत्वं दृश्यते । सर्वरेखारूपेण मार्ग निरदिशत् । व्रतधारायां तु अहिंसा तोभावेन हिंसाया न्यूनीकरणमेव अहिंसाया प्रायोयथा विधेयात्मिका तथैव निषेधात्मिका आसीत् । गिकतत्त्वमिति सिद्धान्तितम् ।
प्रचलितासु धार्मिकपरम्परासु रुचिवैचित्र्यात् आधुनिककालेऽस्मिन् अहिंसा न केवलं । अहिंसा प्रीतिप्रधाना दयाभावापन्ना च उपलभ्यते । दयापर्याये अपितु त्यागधर्मे सन्निविष्टा। अहिंसाया मूलतत्त्वे प्रीतिप्राणता लनवद्यकलारूपेण त्यागोऽत्र न संसारत्यागः । किन्तु स्वार्थत्यागः । मानविकसद्भावस्य उद्घोषिकाऽभवत् । तत्र च अहमर्थस्य परिधिपरिसरे यावत् दुष्प्रवृत्तिपरित्यागः। जीवमात्र दया आचारस्य मौलिकी अनुक्रमणी विमर्शविशेषे इयमेका मानसिकी स्थितिरूपेण संजाता । अहिंसाया आध्यात्मिक पक्षः धर्मप्रचारस्य चित्रिता, पुनश्च सत्यस्य अधिष्ठाने अहिंसाया स्वआदर्शोऽभवत् । अयमादर्शः जीवमात्रस्य अधिकार रूपं विशदीकृतम् । धार्मिकक्षेत्रे नैतिक जीवने च । ३३२
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अहिंसायाः प्रयोगो बहुलतया प्रतिफलितः । किन्तु अहिंसा नाम न केवल दया न वा केवला अनु- HI सामाजिकजीवने न सत्यनिष्ठाया न बा अहिंसायाः कम्पाभावना, न हिंसाविरोधिता, न वा केवला तथा प्रभावः परिलक्षितः ।
मैत्रीचेतना। न पूनः काचित एकचक्ष का सत्य__ एवं वैदिकयुगतः सांप्रतिककालपर्यन्तम् अहिंसा शीला नीतिः । न वा केवलः परित्यागः । सर्वमेतत् धर्म-व्रत-दयाभावेन, पुण्यस्य निदानरूपेण, विधेया- अहिंसायाः परिपोषक तत्त्वम् । निवृत्तिस्वाधिष्ठाने त्मक पूण्य व्यापाररूपेण, श्रेष्ठाचाररूपेण, विशेष- प्रतीकारपरायणता अत्र अहिंसा । इयं च करुणापदेन नीतिरूपेण, त्यागस्य आधाररूपेण, हिंसायाः न्यूनी- सामञ्जस्यमावहति । अतः अहिंसायाः अन्तलिपिः कृतकल्परूपेण, सत्यस्य पुष्पिततात्पर्यभावेन, शान्तेः करुणा । करुणाऽत्र करणीयं प्रस्तौति । प्रतिभावं आधारशिलात्वेन उपबणिता।
किमपि करणीयमस्ति । करणोयं च विसर्गपरकम् । परन्तु युगोऽयम् अर्थकैन्द्रिकः । स्वार्थाय जनानां भावश्च प्रतीकारात्मकः । स च वैपुल्यसिक्तः।। प्रवत्तिः । प्रवृत्त: निषेधस्तु कोलाहलाय भवति । पारम्परिक व्युत्पत्तया करुणा 'कृ'-धातुतो * निषेधद्वारा न लाभः । अपरन्तु हानिः । अतः प्रवत्तेः (V कृ.+उनन्- कृ.वृदारभ्य उनन्'-उणादिसूत्रम्
परिष्करण संस्कारो वा अपेक्ष्यते । संस्कारो नाम -३३३) निष्पन्नः । अर्थोऽत्र विक्षिप्तभावः अथवा का 14 अत्र दोषापनयनं गुणाधानं च । तत कथं भवेदिति विकीर्णता । प्राशस्त्यमत्र अन्तः स्वरः।
* चिन्ताया विषयः । वस्तुतः अत्र काठिन्यं नास्ति । अतः निवत्तिस्वाधिष्ठाने प्रशस्तचेतसा वैपुल्येन L ON अहिंसातत्त्वे स उपायो निहितः। तस्य उपयोग प्रतीकारपरायणता एव अहिंसा इति सिद्धयति ।।
आवश्यकः ।
----सन्दर्भ स्थल--- सहायक ग्रन्थसूची१. अमर मुनि (सम्पादक) : जैन तत्व कलिका आत्मज्ञानपोठ, मनसा मण्डी (पंजाब) १९८२ २. जगदीशचन्द्र जैन : मल्लिषेण सूरिकृत स्याद्वाद मञ्जरी, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम,
(व्याख्याकार) गुजरात, १९७० ३. भागचन्द्र जैन : अनेकान्तवाद वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७ ४. मोहनलाल मेहता : अन्तनिरीक्षण जैन संस्कृत संशोधन मण्डल बनारस, १९५१ ५. लालचन्द्र जैन : जैनदर्शन में आत्मविचार पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
१९८४ ६. वशिष्ठनारायण सिन्हा : जैन धर्म में अहिंसा सोहनलाल जैनधर्म प्रचारकसमिति गुरु बाजार,
अमृतसर, १९७२ ७. सुखलाल संघवी : उमास्वातिकृत तत्वार्थ सूत्रम् पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, __ (व्याख्याकार)
वाराणसी, १९५२ 5. Nathmal Tatia : Studies in Jaina Philosophy P. V. Research Institute Jaina
shram, B. H. U. Varanasi 1951
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- विजयकुमार, शोध छात्र
दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ जैन शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा
__ मानव-जीवन में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा का प्रारम्भ कब से हुआ यह निश्चित कर पाना उतना ही कठिन है 12 जितना कि मानव की उत्पत्ति का। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि जबसे मानव है तब से शिक्षा भी है। बच्चा जन्म लेता है और जन्म से मृत्यु पर्यन्त वह हमेशा कुछ न कुछ सीखता ही रहता है । यह 'सीखना' ही शिक्षा है। शिक्षा शब्द 'शिक्ष' धातु से निष्पन्न है। जिसका अर्थ होता है-'सीखना और सिखाना ।' शिक्षा के लिए ज्ञान, विद्या आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। परन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ, 'शिक्षा' और 'विद्या' में अन्तर है। शिक्षा एक प्रक्रिया है जिससे समाज का विकास होता है, प्रगति होती है। किन्तु विद्या के अन्तर्गत चौर्य विद्या भी आती है जिससे व्यक्ति या समाज की प्रगति की अपेक्षा उसके विकास में बाधाएं उत्पन्न होती हैं । यद्यपि मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार विद्या ही है। कहा भी गया है-विद्या ददाति विनयम् ।
जैन ग्रन्थ आदिपुराण में विद्या के महत्व को प्रकाशित करते हुए कहा गया है-विद्या ही मनुष्यों को यश प्राप्त कराने वाली है, विद्या ही पुरुषों का कल्याण करने वाली है, विद्या ही सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है, कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ और कामरूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है । विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ-साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। अतः कन्या या पुत्र दोनों को समान रूप से विद्योपार्जन कराना चाहिए।
इदं वपूर्वयश्चेदमिदं शीलमनोदशम् । विद्यया चेद्विभुष्येत सफलं जन्मवामिदम् ।। विद्यावान् पुरुषो लोके संमति याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिम पद्म ।। विद्या यशस्करी पुंसां विद्या श्रेयस्करी मता। सम्यगाराधिता विद्यादेवता कामदागिनी ।। विद्या कामदुहा धेनुर्विद्या चिन्तामणिणाम् । त्रिवर्गफलितां सुते विद्या संपत्परम्पराम् ।। विद्या बन्धुश्च मित्रं च विद्या कल्याणकारकम् । सहयापि धनं विद्या, विद्या सर्वार्थसाधनी ॥ तद् विद्याग्रहणं यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् । सत्संब्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ।।
-१६/६७-१०२, आदिपुराण
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जैन शिक्षा के उद्देश्य
ही रह गया है। वह शिक्षा जो मानव को मानव प्राचीनकाल में बालकों का पूर्ण शिक्षा-क्रम ही नहीं अपितु मुक्त बनाने वाली थी, जो दुःखों से चरित्र शुद्धि पर आधारित था। काय-मन और मुक्तकर शाश्वत सुख प्रदान करने वाली थी, आज वचन शुद्धि पर विशेष बल दिया जाता था। केवल धन और आजीविका का एकमात्र साधन आचार-व्यवहार की शिक्षा के साथ-साथ बौद्धिक, रह गया है । इस यान्त्रिक युग में शिक्षा भी यान्त्रिक मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक विकास की भी हो गयी है। जिस प्रकार यन्त्र बिना सोचे-समझें शिक्षा दी जाती थी । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मा- अपना कार्य करता रहता है उसी प्रकार वर्तमान चयं आदि ज्ञानार्जन के मुख्य अंग थे। प्राचीन युग का विद्यार्थी भी किताबों को अक्षरशः रटकर भारतीय शिक्षा पद्धति का उद्देश्य ही था-चरित्र डिग्री हासिल कर नौकरी प्राप्त करना ही शिक्षा का संगठन, व्यक्तित्व का निर्माण, संस्कृति की का उद्देश्य मान बैठा है । यह भूल न तो विद्याथियों रक्षा तथा सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों को की है और न शिक्षकों की ही बल्कि गलती उस सम्पन्न करने के लिए उदीयमान पीढ़ी का प्रशि- समाज को है जिसने शिक्षा से ज्यादा धन को क्षण ।
महत्व दे रखा है। आज जो शिक्षा समाज में दी
जा रही है वह विद्यार्थी को डॉक्टर, इंजीनियर जैन शिक्षा का लक्ष्य बताते हुए डॉ० नेमिचन्द्र EV शास्त्री ने कहा है-आन्तरिक दैवी शक्तियों की
आदि बनाने में तो सक्षम है परन्तु मानव को सच्चा
इन्सान नहीं बना पा रही है। क्योंकि शिक्षा के र अभिव्यक्ति करना, अन्तनिहित महनीय गुणों का
साथ सेवा और श्रम का भाव व्यक्ति के मन में विकास करना तथा शरीर, मन और आत्मा को सबल बनाना, जगत् और जीवन के सम्बन्धों का बोलबाला है। स्वार्थपति के लिए भयंकर से भयं
उत्पन्न नहीं हो रहा है। चारों ओर स्वार्थता का ज्ञान, आचार, दर्शन और विज्ञान की उपलब्धि ,
__ कर पाप किये जा रहे हैं। परिणामतः मनुष्य की करना, प्रसुप्त शक्तियों का उद्बोधन, अनेकान्ता
नैतिकता गिरती जा रही है। त्मक दृष्टिकोण से भावात्मक अहिंसा की प्राप्ति,
ऐसी स्थिति में हमारी केन्द्रीय सरकार ने नई कर्तव्य पालन के प्रति जागरूकता का बोध तथा शिक्षा नीति (१०+२३) निर्धारित किया है विवेक दृष्टि की प्राप्ति आदि जैन शिक्षा के उद्देश्य
जिसका मुख्य उद्देश्य सवको नये रोजगार के अवहैं।' अभिप्राय यह है कि जैन शिक्षा शास्त्र के
सर प्रदान करना तथा देश को इक्कीसवीं सदी के अन्तर्गत आत्मसाक्षात्कार, सत्य की खोज, चरित्र
मध्य संसार के अन्य देशों के समकक्ष खडा करना निर्माण, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण, सामा
है। इस नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत त्रिभाषा जिक एवं धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना आदि
फार्मूला पारित किया गया है-(क) राष्ट्रभाषा शिक्षा के उद्देश्य समझे जाते थे।
हिन्दी, (ख) विदेशी भाषा, (ग) प्रादेशिक भाषा । आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य
इस त्रिभाषा फार्मूला में संस्कृत, प्राकृत और आज की शिक्षा का उद्देश्य मात्र धनोपार्जन पालि को कोई स्थान नहीं दिया गया है । परिणा
१. Infusion of spirit of a piety and religiousness, formation of character, developinent of
personality, inculcation of civic and social duties, promotion of scial efficiency and preservation and spread of national culture may be described as the chief aim and ideal of ancient Indian education. --Altekar, Education in Ancient India, P. 8-9 आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, प० २५६ ।
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मतः संस्कृत, प्राकृत और पालि जिनमें भारतीय अतः यह कहा जा सकता है कि जैन शिक्षण संस्कृति का मूल स्वरूप निहित है, नष्ट हो प्रणाली में विद्यार्थी को विघ्न-बाधाओं से लड़ना का जायेगा।
तथा दर्गणों का त्याग कर सदगणों को आत्मसात || जैन शिक्षण प्रणाली
करना सिखाया जाता था। गुरु-शिष्य के सम्बन्ध जैनकालीन शिक्षा मन्दिरों. आश्रमों और मठों प्रेमपूर्ण थे। विद्यार्थी भी अपने गुरुओं के प्रति में दी जाती थी। शिक्षा देने वाले आचार्य प्रायः सम्मान और श्रद्धा के भाव रखते थे। सन्तोष, समाज से दुर वनों में रहते थे, जो त्यागी, तपस्वी, निष्कपट व्यवहार, जितेन्द्रियता और शास्त्रानुकुल ब्राह्मण या साधु हुआ करते थे । शिक्षा का माध्यम प्रवृत्ति आदि गुरुकुलवास के मुख्य प्रयोजन थे।। संस्कृत, प्राकृत, पालि तथा प्रान्तीय भाषाएँ थीं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जनशिक्षण प्रणाली जैन शिक्षण प्रणाली में जब बालक पाँच वर्ष में विद्यार्थी को विनयशील, सदाचारी, मृदुभाषी ५० का हो जाता है तब उसका लिपि संस्कार करने का आदि बनाने के साथ ही चरित्र-निर्माण पर विशेष विधान है। जिसके अन्तर्गत बालक घर में अ, आ, बल दिया गया है। जिसका आज की शिक्षण । इ, ई आदि वर्ण का ज्ञान तथा अंक आदि का ज्ञान प्रणाली में सर्वथा अभाव पाया जाता है। प्राप्त करता है। तत्पश्चात् जब बालक आठ वर्ष का हो जाता है तब उसकी उपनीति क्रिया होती है
आधुनिक शिक्षण-प्रणालीजिसके अन्तर्गत केशों का मुण्डन, मंज की मेखला, आधुनिक शिक्षण प्रणाली तत्कालीन भारतसफेद वस्त्र, चोटी सात लर का यज्ञोपवीत धारण सचिव लार्ड मैकाले द्वारा मानी जाती है। जिसकी से करना तथा जिनालय में पूजन करना, भोजन के नाद मकाल ने अपन पारपत्र द्वारा सन् १९२५ लिए भिक्षावृत्ति तथा ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन डाली थी। जिसका उद्देश्य था भारत के उच्च तथा 19 करने का विधान है। ये सभी नियम प्रत्येक विद्यार्थी मध्यम वर्ग के स्तर को ऊँचा उठाना। अपने इस के लिए अनिवार्य माने गए हैं चाहे वह निर्धन कुल उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने मदरसे खोले जिसके का हो या राजकुल का, सभी को जैन शिक्षणप्रणाली परिणामस्वरूप भारतीय केवल रंग के भारतीय में समान भाव से देखा जाता था। क्रिया के पश्चात् तथा मन से यूरोपीय सभ्यता के अनुयायो बनकर विद्यार्थी गुरुकुल में होता था। उपनीति क्रिया रह गये। शिक्षा का धर्म और नैतिकता से सम्बन्ध के पश्चात् व्रतचर्या संस्कार का विधान है टूट गया तथा शिक्षा का क्षेत्र इहलोक तक ही सीमित २ जिसमें विद्यार्थी का एक ही लक्ष्य रहता है संयमित होकर रह गया। जीवनयापन करते हुए विद्याध्ययन करना। चौथा अंग्रेजी शिक्षण-प्रणाली का ही दुष्परिणाम है। और अन्तिम संस्कार है-- व्रतावरण क्रिया। जो कि जो शिक्षा और संस्कार बालक को मिलना समस्त विद्याओं के अध्ययन के पश्चात् होती है। चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। आज की शिक्षा यह संस्कार बारह अथवा सोलह वर्ष बाद गुरु के अव्यावहारिक तथा अधूरी है जो समाज को, देश को साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके करने का बेरोजगारी की ओर अग्रसर कर रही है। इस विधान है।
प्रणाली ने छात्र को किताबी कीड़ा तो बना दिया १ ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञ य: क्रियाविधिर्नामा लिपि संख्यान् संग्रह। -आदिपुराण ३८/१०२
२ वही-३८/१०४ | ३ वहो-३८/११०-११३
४ वही-३८ | १२३-१२४ ३३६
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है लेकिन विषय का मर्मज्ञ नहीं बना सकी। यह इस प्रकार हम जैन-शिक्षा और आधुनिक शिक्षा कहना भी अनुचित नहीं होगा कि ये आधुनिक पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि जैन शिक्षा में शिक्षा नैतिकता, सहनशीलता, चरित्र-निर्माण, त्याग, इहलौकिकता के साथ-साथ पारलौकिकता की भी तप, अनुशासन तथा विनम्रता आदि गुण की दृष्टि शिक्षा दी जाती थी वहीं आज की शिक्षा जिसे से सर्वथा असफल रही है । आज न वे अध्यापक हैं, आधुनिक शिक्षा के नाम से जाता है, में केवल इहन वह छात्र और न वह शिक्षण केन्द्र ही, जहाँ गुरु लौकिकता का ही समावेश है। यद्यपि वर्तमान
और शिष्य दोनों पिता-पुत्र के समान रहते थे। परिवेश में अब प्राचीन शिक्षण प्रणाली नहीं अपA समय के अनुकूल हर चीज में परिवर्तन होता रहता नायी जा सकती किन्तु शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति के सा है । अतः यह कहा जा सकता है कि समय और युग अनुकूल शिक्षा को बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र के अनुकूल मानव समस्या, आवश्यकता और उनकी में पहल करने के लिए सर्वप्रथम बालक को समाज आकांक्षाओं के अनुरूप शिक्षा का आयाम भी बढ़ता के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। जिसके लिए जा रहा है।
परिवार और विद्यालय के बीच सार्थक संवाद होना - आज के इस विज्ञान और तकनीकी युग में हम आवश्यक है। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से लेकर शिक्षा को तीन श्रेणियों में विभाजित करके देख उच्च शिक्षा तक समाज हितोपयोगी आध्यात्मिक सकते हैं-(क) उच्चतम, (ख) मध्यम और (ग) ज्ञान की शिक्षा का होना आवश्यक है। परन्तु निम्न । उच्चतम श्रेणी में चिकित्सा, आभियान्त्रिकी, आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का भी सामंजस्य ही कम्प्यूटर आदि की शिक्षा मानी जाती है। मध्यम होना चाहिए । जैसा कि जैन शिक्षण प्रणाली में है ।
श्रेणी में कला, वाणिज्य आदि की शिक्षा तथा इतना ही नहीं प्रत्येक शिक्षार्थी को रुचि के अनुकूल निम्न श्रेणी में संस्कृत, साहित्य, वेद-वेदांग आदि जीविकोपार्जन के लिए कुशल बनाया जाए। की शिक्षा मानी जाती है।
पत्राचार का पताविजयकुमार जैन, शोध छात्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
आई.टी. आई. रोड, वाराणसी-५ 0---- ------- अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ।।
--उत्तरा. ११/३ जिस व्यक्ति में अहंकार अधिक है-गर्व में फूला रहता हो, बातबात में क्रोध करता हो, शरीर में आलस्य भरा रहता हो, किसी प्रकार को व्याधि अथवा रोग से ग्रस्त हो, जो शिक्षा प्राप्ति में उद्यम अथवा पुरुषार्थ न करे-ऐसे व्यक्ति को शिक्षा की प्राप्ति
नहीं होती।
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- डा० (श्रीमती) हेमलता तलेसरा विद्याभवन जी० एस० शिक्षक महाविद्यालय, उदयपुर
-0-0-0-0-- वर्तमान समय में जहाँ मानव ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा 12
9 प्रौद्योगिकी की दृष्टि से निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होता जा रहा 6 है; नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से पतन की ओर बढ़ रहा 0 | है। व्यक्ति के भौतिकवादी बनने के साथ-साथ भ्रष्टाचार, हिंसा, बेई-70
मानी, संकुचितता तथा अनुशासनहीनता ने समाज में अपनी जड़ें | अत्यधिक गहरी बना ली हैं । जीवन की समस्याएँ बढ़ रही हैं। नई पीढी धार्मिक और नैतिक बातों को मिथ्या आडम्बर मात्र समझती
है। धर्म के तत्त्वज्ञान, ज्ञानशास्त्र और नीतिशास्त्र के प्रति अज्ञानता । विकसित हो रही है । आज नैतिकता मात्र चर्चा का विषय बन गयी TD है । आचरण इस पर सबसे कम किया जा रहा है।
एक प्रसिद्ध दार्शनिक के अनुसार आज मनुष्य समुद्र में मछली HC । की तरह तैर सकता है, आकाश में पक्षियों की तरह उड़ सकता है,
परन्तु वह यह नहीं जानता कि पृथ्वी पर मनुष्य की तरह किस प्रकार
चले ? आज वह मनुष्य का मूल गुण भूल गया है। इसके पीछे | मानसिक तनाव तथा अशान्ति का हाथ है। आज व्यक्ति को सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों से जोड़ने हेतु धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता निरन्तर बढ़ रही है। धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा क्या है ?
धर्म एक प्रकार के कर्तव्य के द्वारा कुछ उपयोगी तथा आत्मउपयोगी गुणों को धारण करना है। मानव धर्म के अंग के रूप में 20
व्यक्ति का कर्तव्य आत्मा, परमात्मा और संसार के प्रति होता है। । प्रसिद्ध दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार धर्म एक प्रकार
की भावनात्मक तथा ऐच्छिक प्रतिक्रिया है। पश्चिमी शिक्षाशास्त्री रॉस के अनुसार धर्म व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में सत्यं शिवं सन्दरम् की प्राप्ति में सहायक एक शक्ति है। बाइबिल में दीन दुखियों की सेवा को ही धर्म बताया गया है।
नैतिकता आचरण में लक्षित होती है। सद्-असद् विवेक इसके । अन्तर्गत आता है । नैतिक जागृति से व्यक्ति का समुचित विकास P होकर समाज में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की स्थापना होती है । नैतिक
बल, भावनाएँ एवं तर्क-संगति के परिणामस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण | होता है और उसी के अनुपात में व्यक्ति का समाज में प्रभाव होता ० है । उसी के साथ-साथ नैतिक बल का निर्माण भी होता चला
। जाता है। --0-0-0-0-- धर्म नैतिकता को पूर्व आवश्यकता है। यदि धर्म कारण है तो ३३८
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा : चारित्रिक संकट से मुक्ति
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नैतिकता परिणाम | यदि विश्व के धर्मों की तुलना करें तो पता चलेगा कि उनमें तत्वज्ञान, ज्ञानशास्त्र और कर्मकाण्ड में भिन्नता हो सकती है पर नीतिशास्त्र सभी में लगभग एक जैसा है। नैतिक आचरण के पीछे धर्म की स्वीकृति की आस्था उठ जाने से समाज लड़खड़ा जायेगा - न कहीं सत्य होगा, न सदाचार, न ईमानदारी और न अहिंसा ही ।
धार्मिक तथा नैतिक सम्प्रत्यय के आधार पर धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा का अभिप्राय ऐसी शिक्षा से है, जिसमें विद्यार्थियों को सद् तथा असद् में अन्तर करके विवेकसम्मत निर्णय लेने और सदाचार का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (१९८६) के अनुसार बच्चों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास नैतिक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है । शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान एवं कुशलता प्रदान करने के साथ-साथ उनमें ऐसे मानवीय 'गुणों जैसे--प्रेम, सेवा, सहानुभूति, सत्य, सहयोग, संयम, सहिष्णुता, कर्तव्यपरायणता, अहिंसा, देशभक्ति आदि का विकास करना है, जिससे वे एक आदर्श सदाचारी नागरिक बन सकें । नैतिक शिक्षा के अन्तर्गत शारीरिक शिक्षा, मानसिक स्वस्थ चरित्र, आचरण, उचित व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक अधिकार, कर्तव्य तथा धर्म आदि सम्मि - लित होते हैं । यह वास्तव में उचित मनोभावों, भावनाओं एवं संवेगों को विकसित करने की पद्धति है ।
समाज में शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए नैतिक मूल्यों का विकास किया गया है । वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बाईबिल, कुरान आदि महान ग्रन्थों में धर्म और दर्शन के साथ-साथ श्र ेष्ठ नैतिक मूल्यों का संग्रह है । महावीर, गौतम बुद्ध, ईसामसीह, मुहम्मद, जरथुस्त, बाल्मीकि, व्यास, तुलसीदास, कबीर, इकबाल, टैगोर, अशोक, हर्षवर्धन, अकबर, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, बालगंगाधर तिलक, अरविंद घोष और गाँधी आदि ने बालक के जीवन में
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नैतिक विकास करने वाली शिक्षा पर अधिक बल दिया था ।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारतवर्ष में अति प्राचीनकाल से ही धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा को महत्त्व दिया जाता रहा है। वैदिककाल में ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना भरना व पवित्र चरित्र निर्माण शिक्षा के मुख्य लक्ष्य माने जाते थे । जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति था, जिसमें धर्म को सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया। प्राचीन विद्यालयों का वातावरण धार्मिक कार्यों जैसे यज्ञ, संध्या, प्रार्थना, संस्कार व धार्मिक उत्सवों से परिपूर्ण रहता था । उस समय के समाज का लक्ष्य उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करना था, यही शिक्षा का ध्येय भी था । मध्यकाल में शिक्षा के लिए मन्दिर, मस्जिद तथा धार्मिक स्थानों का प्रयोग किया जाता था । यूरोपीय ईसाई मिशनरी ने धर्म प्रचार हेतु विद्यालयों में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की । १८५४ के वुड घोषणा-पत्र में शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा नैतिक विचारधारा की पुष्टि की गई । १८८२ के भारतीय शिक्षा आयोग ( हन्टर कमीशन) ने पाठ्यक्रम में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का कोई स्थान नहीं रखा । १६१७१८ के कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने शिक्षा के धार्मिक एवं नैतिकरूप को झगड़े की वस्तु मानकर कोई विचार नहीं किया । १६३७-३८ की गाँधी जी की बेसिक शिक्षा योजना में 'सत्य' को धार्मिक शिक्षा का अंग बनाया गया । १६४४-४६ में बिशप जी. डी. बार्न समिति ने धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की आवश्यकता तो अनुभव की किन्तु इसका दायित्व घर तथा समुदाय तक ही रखा ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद बने पहले शिक्षा आयोग (१९४८-४९ ) ने विद्यालयों में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा को विभिन्न कार्यक्रमों में सम्मिलित किये जाने पर बल दिया । १९५२-५३ के माध्यमिक
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शिक्षा आयोग ने चरित्र की शिक्षा पर बल दिया श्यकता है, जो नैतिकोन्मुखी हो। यही कारण है तथा घर, विद्यालय एवं समाज की नैतिकता आच- कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत नैतिक रण के प्रति आस्था को चरित्र-निर्माण के लिए मूल्यों के शिक्षण तथा प्रशिक्षण की व्यवस्था पर महत्वपूर्ण बताते हुए शिक्षक एवं विद्यालयीन जीवन बल दिया गया है। जिससे राष्ट्रीय समस्याओं को को समृद्ध किए जाने की सिफारिश की। १६५८- हल करने हेतु एक नया प्रकाश प्राप्त हो सके। ५६ में नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता एवं सम्भावनाओं पर विचार हेतु श्रीप्रकाश ।
राष्ट्रीय समस्याओं के हल हेतु महत्वपूर्ण 5 समिति का गठन किया गया। इस समिति ने नात
नैतिक मूल्यों का शिक्षा में समावेश होविद्यालयों में नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का देशवासियों में एकता की भावना विकसित शिक्षण वांछनीय माना तथा विद्यालयों का कार्य करने हे
करने हेत शिक्षा में सार्वजनीन तथा शाश्वत मल्यों क्रम मौन प्रार्थना से शुरू करने का सुझाव दिया। का विकास करना होगा जिनसे धार्मिक १९६२ की भावात्मक एकता समिति ने भी राष्ट्रीय विश्वास, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा तथा भाग्यएकता के सन्दर्भ में चरित्र-निर्माण को महत्वपूर्ण वाद का अन्त किया जा सके और विद्यार्थियों में बताते हुए धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की आवश्य- राष्ट्रीय एकता का दृष्टिकोण विकसित किया जा कता पर बल दिया। १९६४-६६ के कोठारी शिक्षा सके। छात्रों को एक-एक क्षण का सदुपयोग करना आयोग ने नई पीढ़ी में मूल्यहीनता पर चिन्ता सिखाने के लिए विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रम व्यक्त की तथा शिक्षा में नैतिक, आध्यात्मिक एवं सहगामी क्रियाओं जैसे स्काउटिंग, एन० एस० एस०, ON सौन्दर्यात्मक मूल्यों के विकास को अत्यधिक महत्व- एन० सी० सी०, खेलकूद आदि का आयोजन रखा पूर्ण माना । विभिन्न आयोगों के अतिरिक्त शिक्षा जाये । विद्यालयों में साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं की राष्ट्रीय, राज्य तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बनी आने देने के लिए साम्प्रदायिकता की शिक्षा न समितियों ने एकमत से मूल्य संकट तथा चारि- देकर आध्यात्मिक व धार्मिक त्रिक संकट से देश को बचाने हेतु नैतिक तथा बल दिया जाना चाहिए । छात्रों को सामाजिक एवं धामिक शिक्षा को किसी न किसी रूप में विद्यालयीन आथिक परिस्थितियों से परिचित कराकर उन्हें कार्यक्रम के साथ जोड़ना अत्यधिक आवश्यक इस योग्य बनाया जाय कि वे अपने विचार तथा
लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा जगत में किये व्यवहार में उदार बन सकें, भाषा, सम्प्रदाय, जाति. जाने वाले अब तक के अनेक प्रयास तथा योजनाएँ लिंग पर आधारित पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर हमारी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने में राष्ट्रीय हितों की बात सोच सकें। इसके लिए सफल नहीं हो पायी हैं। शिक्षा की इस गम्भीर आवश्यक है कि विद्यालय ही नहीं बल्कि घर का स्थिति को ध्यान में रखते हुए ही देश में एक नई वातावरण ऐसा सरस व सुन्दर बनाया जाए कि शिक्षा नीति १९८६ में लाग की गयी है, जो राष्टीय नैतिक मूल्यों का विकास हर सदस्य अपना सामूएकता तथा अखण्डता को बनाए रखकर राष्ट्रीय हिक उत्तरदायित्व समझे । विद्यालयी शैक्षिक तथा आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और भारतीय सहशैक्षिक कार्यक्रमों में सभी धर्मों के त्यौहारों को संविधान के संकल्पों के अनुसार नई पीढ़ी को प्रति- समान रूप से मनाना, महापुरुषों के जीवन से योगिता के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर आत्मविश्वास के प्रेरणा देने हेतु विचार गोष्ठी रखना, वादविवाद साथ खड़ी करने में समर्थ कर सके । इसके लिए आयोजित करवाना तथा सामाजिक सेवा कार्यक्रमों का अपने कर्तव्यों के प्रति उन्मुख नागरिकों की आव- को आवश्यक रूप से जोड़ा जाना चाहिए।
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शिक्षा द्वारा छात्रों में आत्म-सम्मान की भावना सकें कि उन्हें उपदेश देने का प्रयास किया जा की का विकास कर उन्हें आध्यात्मिक/धार्मिक दिशा रहा है।
हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। सभी धर्मों के प्रति भगवान महावीर ने नैतिक जागरण के लिए सहिष्णता तथा समान आदर भाव रखने हेतु छात्रों बौद्धिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन परिमार्जित को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। छात्रों के करने पर बल दिया था जिससे अहिंसा, अपरिग्रह सामने ऐसी समस्याएँ प्रस्तुत की जाएं, जिनसे वे और अनेकान्त के माध्यम से युद्ध, शोषण तथा सद्-असद् में अन्तर करना सीख सकें। चूंकि अनु- तनाव को समाप्त किया जा सके, शान्ति, समानता करण का बालकों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, और सह-अस्तित्व के वातावरण से मानव-कल्याण इसलिए अध्यापकों तथा माता-पिता को स्वयं नैतिक का मार्ग प्रशस्त हो सके। महाकवि रवीन्द्रनाथ नियन्त्रण के अन्तर्गत ही रहने का प्रयास करना ठाकूर ने विद्यार्थियों के लिए एक आचार संहिता चाहिए । यदि अध्यापक तथा पिता खुलेआम धूम्र- को अनिवार्य माना है। पान करता है तो छात्रों को उस कार्य से कैसे रोक सकेगा? और ऐसा करने से छात्रों पर नकारात्मक भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था विकसित की जाए प्रभाव ही पड़ेगा 'Action speaks louder than यदि हम अपने अतीत की ओर मुड़कर देखें तो tongue.' यह बात निर्विवाद सत्य है।
पायेंगे कि जिस भारतीय संस्कृति के गरिमामय
रूप पर हम आज भी गौरवान्वित अनुभव करते हैं विद्यालय में तथा माता-पिता की ओर से वह क्या था? और आज इससे हटकर हिंसा, तोड़- 728 बालकों में नई शिक्षा नीति द्वारा दिये गये 'राष्ट्रीय फोड, आन्दोलन, घेराव, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, पंचशील' के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया अनैतिकता, मल्यहीनता तथा दिशाहीनता की जाना अत्यधिक आवश्यक है। इन सिद्धान्तों से
स्थिति में हम क्यों फँसे जा रहे हैं? प्राचीन भारसम्बन्धित मूल्य स्वच्छता, सत्यता, परिश्रम, समा- तीय संस्कृति सदैव धार्मिक-नैतिक चेतना से | नता और सहयोग है।
अनुप्राणित रही है । मनुष्य में सात्त्विक वृत्तियों को 2 __ महाभारत में नैतिक शिक्षा के स्वरूप का संकेत
परत जाग्रत करके रजस-प्रभुत्व द्वारा कामनाओं तथा ) स्पष्ट है-'महाजनो येन गतः स पन्था' । बालकों
तृष्णाओं को नियन्त्रित कर तमस-अज्ञानांधकार को महापुरुषों के चारित्र्य का अनुसरण करना का उन्मूलन कर उसे ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ सिखाया जाए, न कि चरित्र का । आज तक शिक्षा बना
बनाती थी, समन्वय की ओर अग्रसर करती थी, में विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा मात्र चरित्र का ही
विजातीय संस्कृतियों को आत्मसात करना सिखाती अनुसरण करने का मन्तव्य स्पष्ट होता है, जबकि महापुरुषों के जीवन से मरने तक का इतिहास इतना सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी महान् सांस्कृतिक महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनके जीवन के प्रेरणास्पद, परम्पराओं को लेकर चलने पर भी हम संस्कृति से चरित्र-निर्माणकारी और लक्ष्यबोधक पावन प्रसंगों निरन्तर पिछड़ते गये और न तो सांस्कृतिक विराका समावेश । नैतिक शिक्षण में यदि यह कहा जाए सत का विकास ही कर पाए तथा न ही नवीन 'सत्य बोलो, मिलकर रहो' तो कभी भी सही प्रभाव जीवन मूल्य आयाम समाज को दे पाये। इसी ) नहीं दिखाई देगा अतः आवश्यक है।
भी कारण जीवन में भटकाव, बिखराव, स्खलन ही कहा जाये साहित्यिक मन्तव्य “कान्तासम्मित उप- अधिक हुआ है। आज हम आदर्शप्रधान संस्कृति देश युजे" अवश्य हो किन्तु श्रोता अनुभव न कर को भूलकर अर्थप्रधान संस्कृति को अपना चुके हैं। चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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इसी कारण भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं पाठ्यक्रम, पाठ्य-चर्चा, पाठय-विषयों एवं पाठ्यका विघटन ही हुआ है। अनुकरण के नाम पर क्रमोत्तर क्रियाओं द्वारा विद्यालय के वातावरण को गुणों, आदर्शों, मूल्यों के नाम पर कुत्सित, अनैतिक सहज सौहार्दपूर्ण बनायें। मात्र परीक्षा उत्तीर्ण जैसी चीज को अपना रहे हैं । यही कारण है कि करना ही अपना उद्देश्य नहीं बनाएँ वरन् छात्रों मानवीय गुणों के विपरीत आज अपराधों में वृद्धि को मानव तथा निष्ठावान नागरिक बनाने में मदद हुई है । मूल्यों, व्यवहारों आदि को बदलते रहने करें। उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजके कारण व्यक्ति का 'स्तत्व' 'अपनापन' खो गया नैतिक व्यवस्था का व्यावहारिक ज्ञान देकर समाज है । वह तय नहीं कर पाता है कि पिता का सेल्स- के अनुरूप तैयार करें। टेक्स, इन्कम टेक्स बचाने वाला, मिलावट का धन
विद्यालयों के अतिरिक्त समाज के अन्य अभिकमाने वाला रूप सही है या घर-समाज में ईमान
__ करण, सभी वर्ग भी पूर्ण ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता दारी तथा कर्तव्यपरायणता की डुगडुगी पीटने
का उदाहरण प्रस्तुत करें। समाज में अपनी-अपनी वाला रूप ?
भूमिका सही रूप में निभाएं तभी समाज में नैतिक युवा-शक्ति एवं मूल्य संक्रमण की समस्या आज आध्यात्मिक एवं मानवीय गुणों की महक सुवासित हमारे समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ी है । आव- होगी । ऐसा वातावरण निर्मित किए जाने पर बल दि श्यकता इस बात की है कि शिक्षक, शिक्षार्थी, दिया जाए जिससे मूल्यहीनता, दिशाहीनता, कूपअभिभावक, नेता, समाज-सुधारक, अधिकारी आदि मण्डूकता से बाहर निकला जा सके। नैतिक एवं सभी लोग अपने दायित्व को समझें, आदर्श प्रस्तुत सांस्कृतिक मूल्यों के विकास हेतु हर वर्ग यदि सहकरें, सुदृढ़ चरित्र रखें, ज्ञान कर्म तथा भावना से योग करेगा तभी आतंकित एवं त्रस्त मानवता को नैतिक आचरण करें। शिक्षा संस्थाएँ शिक्षा के मुक्ति मिल सकेगी।
र
पियंकरे पियवाई से सिक्खं लडु गरिहइ ।
-उत्तरा. ११/१४
वही शिष्य अथवा शिक्षा प्राप्ति के लिए समुत्मक, उद्योगी अपनी अभीष्ट शिक्षा (विद्या अथवा कला) को सीख सकता है, जो प्रिय वचन बोलता है और अन्य लोगों (विशेष रूप से शिक्षक, सहपाठी, मित्र जन, माता-पिता, बन्धु बान्धवों) को प्रिय लगने वाले कार्य करता है।
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आज मानव चिन्तन एक विचित्र वैचारिक ऊहापोह से संत्रस्त और ग्रस्त है । एक विचारधारा है, जो हिंसा, प्रतिशोध और सत्ता को मनुष्य की प्रकृति का जन्मजात और आवश्यक अंग गिनती है तो दुसरी अहिंसा, समता, सहिष्णुता, मैत्री और सहअस्तित्व को । नीट्शे ने कहा था कि दयनीय और दुर्बल राष्ट्रों के लिए युद्ध एक औषधि है। रस्किन ने माना कि युद्ध में ही राष्ट्र अपने विचारों की सत्यता और सक्षमता पहचानता है। अनेक राष्ट्र युद्ध में पनपे और शांति में नष्ट हो गये। मोल्टेक युद्ध-हिंसा को परमात्मा का आन्तरिक अंग गिनता था। उसकी धारणा थी कि स्थायी शान्ति एक स्वप्न है और वह भी सुन्दर । डार्विन का शक्ति सिद्धान्त तो ज्ञात है हो । स्पेंगलर जैसा इतिहासज्ञ भी युद्ध को मानवीय अस्तित्व का शाश्वत रूप गिनता है। आर्थर कीथ ने युद्ध को मानवीय उत्थान की छंटाई गिना । वैज्ञानिक डेसमोन्ड मोरिस, 'नैकड एप' में राबर्ट आड्रे 'दि टेरीटोरियल इम्पेरेटिव' में, कोनार्ड लारेंज 'आन एग्रेसन' में फ्राइड की मान्यता के पक्षधर हैं कि आक्रामकता और हिंसा मनुष्य की जन्मजात, स्वतंत्र, सहज एवं स्वाभाविक चित्तवृत्ति है।
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अहिंसा और सामाजिक परिवर्तन : आधुनिक सन्दर्भ
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इन भ्रान्त धारणाओं के विपरीत दूसरा व्यापक और स्वस्थ मत है उन विचारकों का, जो अहिंसा के सिद्धांत और दर्शन को आज चिन्तन के नये धरातल पर प्रतिष्ठित कर उसे केवल धर्म और अध्यात्म का ही नहीं, दर्शन और मुक्ति का साधन ही नहीं, सामाजिक परिवर्तन, अहिंसक समाज, विश्वशांति और सार्वभौम मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में भी स्वीकार कर रहा है। यूनेस्को जैसी संस्था ने भी इस पर गम्भीर विचार-विमर्श के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित की, सामाजिक सर्वेक्षण और शोध योजनाओं को विविध रूपेण क्रियान्वित किया। आज सभी देशों, वर्गों और समाजों के प्रबुद्ध चिन्तक यह स्वीकारते हैं कि स्थायी विश्वशान्ति के लिए आमूल राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्रान्ति की अपरिहार्य आवश्यकता है, वह केवल महावीर, बुद्ध व गाँधी की अहिंसा से सम्भव है । यों कहना अधिक संगत होगा कि मानव सभ्यता का 'भविष्य अहिंसा व शान्ति पर ही निर्भर करता है। सम्भवतः यही । कारण था कि महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने कक्ष में महात्मा गाँधी का चित्र लगाया। किसी राजनेता और वैज्ञानिक का नहीं । मानव समाज की मूल प्रक्रिया, मानवीय अभिप्रेरणा व प्रयोजन चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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l की संरचना शांति, सुव्यवस्था और समता की ओर सैकेण्ड पर एक बालक, चिकित्सा के अभाव में | उन्मुख रही है।
विकलांग हो रहा है । अमेरिका नाभिकीय युद्ध के सामाजिक मनोविज्ञान का मूलाधार जिस लिए रसायनिक और जेविक तत्त्वों के मिश्रण से व्यवस्था और संस्थावाद को प्रमुखता दे रहा है, ऐसे अस्त्र बना रहा है, जो विशेष जातियों और उसकी निर्मिति मैत्री, समता और भ्रातृत्व पर ही नस्लों को पहचानकर समाप्त कर देंगे एवं मानवीय आधुत है। प्रसिद्ध विद्वान सी० राइट मिल का इच्छाओं का दमन कर जनता की मानसिकता और कथन है कि आज मनुष्य की समस्त चिन्ताधारा आचरण क्षमता को स्वचालित यन्त्र में बदल देंगे । तृतीय विश्व युद्ध को यथार्थ मानकर भ्रमवश विश्व इसके विपरीत प्रेमचन्द के शब्दों में 'विश्व समर शांति की सम्भावना स्वीकार नहीं करती। पी० का एकमात्र निदान है विम्व-प्रेम ।' इस सन्दर्भ में
सोरोकिन का भी यही अभिमत है। उसकी दृष्टि आज विश्व साहित्य में तकनीकी संस्कृति का घोर o में आज सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक जीवन विरोध हो रहा है। ब्रस मेजलिस ने १९८० में
मल्यहीन, प्रत्ययहीन, आस्थाहीन हो गए हैं और लिखा कि आविष्कारों की महानता और उनके Gll स्पर्धा एवं संकटग्रस्त होकर चारों ओर विनष्टि- परिणामों के हीनता की घोर विषमता से मैं हैरान वादी कटुता का बोलबाला है।
हूँ। नारमन कंजिल्स ने कहा कि 'अंतरिक्ष की ___ आइन्सटीन ने तो स्पष्ट कह दिया था, 'हमें मानवयात्रा का महत्व यह नहीं है कि मनुष्य ने मानवता को याद रखना है जिससे हमारे समक्ष चन्द्रमा पर पैर रखे पर यह है कि उसकी दृष्टि १ स्वर्ग का द्वार खुल जायेगा अन्यथा सार्वभौम मृत्यू वहाँ भी अपनी पृथ्वी पर ही लगी रही।' यही । को ही झेलना होगा। कोई अंधी मशीन हमें अपने सोचना है कि मनुष्य की इस सर्वव्यापी चारित्रिक |
विकराल वज्र दन्तों में जकड़ लेगी।' एक ओर आन्तरिक बाह्य अस्मिता के संकट से मुक्ति का CV/ विश्व संहार का यह भय और आतंक है, तो दूसरी उपाय अहिंसक क्रान्ति देकर क्या स्थायी शांति और /
ओर यह मान्यता जोर पकड़ रही है कि रचनात्मक सुव्यवस्था का प्रमाण बन सकती है ? इसी दृष्टि से पदार्थवाद और नैतिक क्रान्ति मानवीय मूल्यों के आज गम्भीर विचारक और चिन्तक अहिंसा के । मानदण्ड के रूप में ही अहिंसक समाज व संस्कृति दार्शनिक और धार्मिक पक्ष के साथ-साथ उसकी के लिए स्थायी विश्वशान्ति के हेत बन सकते हैं। सामाजिक, आथिक और राजनैतिक उपयोगिता सामाजिक व सांस्कृतिक विकास आज द्वयर्थक हो और इयत्ता पर उन्मुक्त भाव से विचार कर रहे हैं । रहा है। एक ओर तकनीकी व वैज्ञानिक आवि- एक उदाहरण पर्याप्त होगा। कारों ने राष्ट्रों के आचार-विचार-व्यवहार में परि- टी. के. उन्नीथन एवं योगेन्द्रसिंह के सर्वेक्षण के वर्तन कर दिया है तो दूसरी ओर सत्ता व शासन की अनुसार आज नेपाल, श्रीलंका और भारत का अमित महत्वकांक्षाओं ने चुनौतियाँ उत्पन्न करतनाव ७० प्रतिशत कुलीन बर्ग और ६३८ सामान्य वर्ग और संघर्ष उपस्थित किया है। कोई राष्ट्र अन्य उन्नत अहिंसा को प्रधानतः राजनीतिक और सामाजिक राष्ट्रों से पिछड़ना नहीं चाहता, दूसरी ओर सामान्य स्वरूप में स्वीकार करता है। ये वर्ग सभी धर्मों के जनता शान्ति, सुव्यवस्था और सामाजिक परि- हैं । इन वर्गों की दृढ़ मान्यता है कि अहिंसा की वर्तनों की मांग कर परस्पर सौमनस्य और सौरस्य उपलब्धि से मानव जाति का नैतिक और आध्याका आग्रह कर रही है । युद्ध की भयावहता इससे त्मिक विकास होगा। उन्नीथन ने अहिंसा की। ही स्पष्ट है कि आज संहार अस्त्रों पर तीस हजार संगति और स्वीकृति का समाजशास्त्रीय पद्धति से डालर प्रति सैकेण्ड खर्च हो रहे हैं और उधर हर दो विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि "हमारे । ३४४
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समक्ष दो ही विकल्प हैं-या तो परम्परा से प्राप्त हीन अधिग्रहण और अवाप्ति की लालसा ने उसकी ! नतिक व्यवस्था स्वीकार करें या फिर समाज से स्वस्थ मानसिकता नष्ट कर दी है। हिगेल के शब्दों 12 निःसृत उसकी प्रायोगिक मान्यता को । परन्तु यहीं में 'मनुष्य सबसे सौभाग्यपूर्ण प्राणी है क्योंकि वह प्रश्न उठता है कि, वर्तमान अनैतिक समाज से अकेला (रोबिनसन क्रू सो की भाँति) नहीं रह 0 हम किस प्रकार नैतिक व्यवस्था प्राप्त कर सकते सकता, पर वह सबसे अभागा भी है क्योंकि अन्य हैं ? सत्ता और व्यवस्था की संकल्पना लोकोत्तर मनुष्यों के साथ सौमनस्य और प्रेम से भी नहीं ४ होनी चाहिए, जो विद्यमान परिस्थितियों से उत्पन्न रहता'- अर्थात् सामाजिकता की प्रकृत आकांक्षा के
प्रत्ययात्मक और पारम्परिक हो ।" डा. राधा- साथ ही उसमें विकृत असामाजिकता है। कृष्णन के शब्दों में 'अहिंसा कोई शारीरिक दशा वह प्रकृति के सनातन नियमों को भूल गया नहीं है, अपितु यह तो मन की प्रेममयी वृत्ति है।' है। आर्थिक व राजनैतिक जीवन की केन्द्रस्थ मानसिक स्थिति के रूप में अहिंसा केवल अप्रति- यान्त्रिकता में, वह व्यक्तित्व की स्वतन्त्रता खी रोध से भी भिन्न है। वह जीवन का एक समर्थ बैठा । उसके दिल और दिमाग पर शासन तन्त्र रचनात्मक पक्ष है । मानव कल्याण की भावना ही की क्रूरता और निरंकुशता हावी है। समाजसच्चा बल और सर्वश्रेष्ठ गुण है। वाल्मीकि कहते शास्त्रियों ने व्यक्ति की इस विकृत मानसिकता का हैं- “योद्धा का बल घृणित है, ऋषि का बल ही विशद् विवेचन किया है। सामाजिक, आर्थिक सच्ची शक्ति है-धिग्बलम क्षत्रिय बलम, ब्रह्म तेजो- दृष्टि से एक ओर वह अतीव परिग्रहवादी है, बलं बलम् ।" अहिंसक मनि, ऋषि या संन्यासी दूसरी ओर वह वर्तमान संस्कृति की जड़ता से प्रत्यक्षतः सामाजिक संघर्ष में भाग नहीं लेते पर विच्छिन्न । इसी को समाजशास्त्र में 'एनोमो' और उनका योगदान निविवाद है।
'ऐलिनेशन' कहा गया है। मार्क्स ने अपने सिद्धांतों
में भिन्न दृष्टि से व्यक्ति के ऐलिनेशन पर विचार पुनः डा. राधाकृष्णन के अनुसार वे “सामा- किया। एलिनेशन की विवेचना करते हुए गर्सन | जिक आन्दोलन के सच्चे निदेशक हैं। उन्हें देख
का मत है कि तकनीकी-औद्योगिक क्रान्ति, ISI कर हमें अरस्तू की 'गतिहीन प्रेरक शक्ति' का
नौकरशाही, विलास वैभवपूर्ण जीवन प्रक्रिया, स्मरण हो जाता है।" ताल्सताय ने अपने प्रसिद्ध
प्रसिद्ध आदर्शों का लोप, नैतिक मूल्यों का ह्रास, विकृत उपन्यास 'युद्ध और शान्ति' में लिखा है-"युद्ध मनोविज्ञान (फ्राइड आदि का) इस मानसिक एक सामूहिक हत्या है, जिसके उपकरण हैं, देश विच्छति के कारण हैं। इसका अर्थ है कि आज द्रोह को प्रोत्साहन, मिथ्याभाषण, निवासियों का व्यक्ति एकाकीपन, अनैक्य, असन्तोष का शिकार | विनाश आदि ।"
होकर वह अपने वृहत् सामाजिक सम्बन्धों को पहले हम अहिंसा द्वारा सामाजिक परिवर्तन विस्मृत कर रहा है। उसे न तो अपने से सन्तोष है की सम्भावनाओं पर विचार करें। एरिक फ्रोम के और न अपनी उपार्जन क्षमता से । वह असंयत अनुसार आज साधन को ही साध्य समझना सामा- है। सांस्कृतिक संकट उसे हतप्रम कर रहा है
जिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विसंगति है । भौतिक उसकी आकांक्षाओं और उपलब्धियों में प्रचुर 4 समृद्धि के लिए उत्पादन और उपभोग के साधन व्यवधान है। उसकी एषणाओं का अन्त नहीं।
हमारे साध्य बन गए हैं इसी से आज सम्पूर्ण समाज वह अर्थरहित, मूल्यविहीन, एकाकी, आत्मअपने आदर्श और उद्देश्य से च्युत हो गया है। निर्वासित और शक्तिहीन है । यही उसका सांस्कृमनुष्य मनुष्य से भयभीत है । उसकी वैयक्तिक अन्त- तिक विघटन है। आज यह आत्मविमुखता और
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ला सांस्कृतिक अलगाव चारों ओर व्याप्त है। एनौमी है। इसी संवेदना का अनुभव कर परमहंस श्री
वह मानसिक दशा है, जिसमें नैतिक जड़ें नष्ट हो रामकृष्ण ने पत्त, फूल और पौधों को छूना तक द जाती हैं-मनुष्य विशृंखलित होकर अपना नैरन्तर्य नहीं चाहा। हि खो बैठता है-आध्यात्मिक स्तर पर वह अनुर्वर हमें यह मानना चाहिए कि अहिंसा आज के
और निर्जीव है । उसका दायित्व बोध किसी के प्रति विघटित, संत्रस्त और किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य को. नहीं है । उसका जीवन पूर्णतः निषेधात्मक है । उसके निश्चित सुव्यवस्था देकर अहिंसक समाज की रचना जीवन में न तो अतीत है, न वर्तमान और न भविष्य करने में समर्थ है। -केवल इनकी एक क्षीण संवेदना ही विद्यमान है। सिकन्दर, चंगेजखां, नादिरशाह महमूद
(मेक्लवर) उसकी यह विक्षिप्त मानसिकता गजनवी, आदि आतंकवादो और आततायी हि सामाजिक परिवेश का परिणाम है। एलीनेशन इतिहास में केवल नाम और घटना बनकर रह
जहाँ मनोवैज्ञानिक है, एनौमी वहाँ सामाजिक- गए । मानव जाति ने उन्हें इससे अधिक महत्त्व सांस्कृतिक । एनीमी समाज की नियामक संरचना नहीं दिया। के ह्रास का फल है, क्योंकि व्यक्ति को आकांक्षा पर अमर हैं बुद्ध, महावीर, गांधी, और उसकी पूति में भारी व्यवधान और सकट है। ईसा, मुहम्मद और नानक, कनफ्यूसियस आदि इस दुरवस्था के निवारण के लिए हृदय और क्योंकि उन्होंने मनुष्यजीवन को उच्चतम नैतिक मस्तिष्क का परिष्करण या दर्शन और ज्ञान का भूमि पर ले जाकर उसे मानवीय गुणों से समन्वित उदात्तीकरण आवश्यक है और यह व्रत साधन से ही किया। जिन्होंने मानव जाति के विनाश का स्वप्न
संभव है। व्रत साधन का व्यष्टि से प्रारम्भ होकर देखा, वे विस्मत हो गए और जिन्होंने उसके उत्थान CL समष्टि की ओर अभिनिविष्ट होना ही सही उप- का सत्संकल्प किया, उसमें योगदान दिया, वे अज चार है।
अमर । संस्कृति के विकास में उनकी देन अक्षय है। ___हमें स्मरण रखना चाहिए कि समष्टि यह इस सत्य का प्रमाण है कि मनुष्य की आन्त
चेतना और सामूहिक संश्लिष्ट ऐक्य मानवेतर रिकता मूलतः सर्वतोभावेन अहिंसक, शान्ति-प्रिय, सृष्टि में भी जब सहज, स्वसंभूत और सुलभ है, प्रेममय, करुणाश्रित और नैतिक है। जीवन के तब मनुष्य में ही क्यों आज इसका अभाव है ? सभी आदर्शों के मूल में अहिंसा है। अहिंसक समाज विख्यात मनोवैज्ञानिक इरिक इरिकसन इसे ही के लिए व्यक्ति का अहिंसक होना आवश्यक है। 'किंकर्तव्यविमूढ़ता' कहते हैं। उनके अनुसार मनुष्य कौशेयवली ने अहिंसक व्यक्ति और अहिंसक समाज यह नहीं जानता कि वह क्या है, उसकी संलग्नता के पारस्परिक और अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पर कहाँ और किससे है ? यह एक भीषण मानसिक
कसस ह ! यह एक भाषण मानासक प्रकाश डालते हए लिखा है कि मन, वचन और रोग है।
कर्म से अहिंसक व्यक्ति समाज में सर्वत्र मैत्री, प्रेम ___इसके विपरीत मानवेतर सृष्टि को देखें। और सद्भाव का नियमन करता है। वह समूचे एडवर्ड विल्सन ने अपने आविष्कारों से यह प्रमा- समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। णित कर दिया कि प्रवाल, चींटी, सर्प आदि जीव- इसी से विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा को सर्वोच्च जन्तु भी पूर्णतः सामाजिक और संवेदनशील हैं, धर्म कहा । हिन्दू हो या इस्लाम, ईसाई हो या उनकी सामाजिक संरचना अत्यन्त सुव्यवस्थित है। यहदी, सिख हो या पारसी, सूफी या शिन्तो, सभी आज तो विज्ञान ने पेड-पौधों में भी संवेदनशीलता, ने इसे स्वीकारा। भारतीय वाङमय तो इसी का आत्मसुरक्षा और ज्ञप्ति को प्रमाणित कर दिया उद्घोष है । वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, स्मृति, पुराण,
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महाभारत, धर्मशास्त्र आदि सब अहिंसा को किसी मय, इसी की साक्षी देता है। भारतीय संस्कृति की न किसी प्रकार मनुष्यजीवन का प्राण तत्व गिनते नैतिकता धर्म पर सर्वाश्रित है। महावीर का तो 12 हैं, ‘मा हिंस्यात् सर्व भूतानि' । अहिंसा का नैतिक जीवन ही इसका दिव्य संदेश है। इतिहास में राज्य ही सर्वोत्तम है । छांदोग्य उपनिषद कहता है महावीर (और बुद्ध) शाश्वत ज्योतिष्पुज हैं, जो कि यज्ञों में बलि नैतिक गुणों की ही देनी चाहिए मानवजीवन के अन्तर्बाह्य अन्धकार को अहिंसा 'अथयत् तपोदानं आर्जवं, अहिंसा, सत्यवचनं इतिता व करुणा से, अपरिग्रह व मैत्री-भावना से दूर कर | अस्य दक्षिणाः' - (३-१७)-आरुणिकोपनिषद सदा-सदा आलोक विकीर्ण करते रहेंगे। महावीर शाण्डिल्योपनिषद ने भी यही माना।
का जीवन, व्यक्तित्व और कर्तुत्व ही इसका उदा
हरण है। कितने परीषह और उपसर्ग आये, कितनी ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्य च यत्नेनहे
चुनौतियाँ उन्होंने झेली, कितनी उपेक्षाएँ सही, पर रक्षतो हे, रक्षतो हे, रक्षत इति (आरुणिको- वह-'आलोक पुरुष मंगल-चेतन' शान्त, स्थिर 10 पनिषद-३)
और दृढ़ निश्चय से अहिंसा द्वारा मनोगत अन्धकार |
को विनष्ट कर हमें ज्योतिर्मय कर गया। आभ्यमनु जैसे आचार्यों ने 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर भी यह कहा 'अहिंसयेव
न्तर व बाह्य दासत्व से उसने हमें मुक्ति दी। भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम्' (३-१५६) महाभारत
'सत्वापि सार्मथ्ये अपकार सहनं क्षमा' की वे मूर्ति की तो स्पस्ट घोषणा रही- अहिंसा सकलोधर्मो
थे। हिंसा धर्मस्तथाहितः' (शान्ति पर्व २७२---२०) रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार 'यदि तौर डाक अनुशासन और शान्ति पर्व इसी अहिंसक समाज की शुनै कोई न आशे, तबै एकला चलो रे'-वे अकेले संकल्पना करते हैं---'अहिंसा परमोधर्मः अहिंसा ही यात्रा करते रहे-निर्भय और निःशंक होकर । परमं तपः, अहिंसा परमं सत्यं ततो धर्म प्रवर्तते'- अपरिचितों से न भय था और न परिचितों में आदि । महाभारत के अन्त में महर्षि व्यास तक को आसक्ति । उनका जीवन पराक्रम, पुरुषार्थ और UNE कहना पड़ा कि 'परोपकार पुण्याय पापाय परपीड़- परमार्थ से सम्पूर्ण था। संकीर्ण मनोवृत्ति का उन्होंने एक नम् ।' पद्मपुराण कहता है
त्याग किया। चंडकौशिक हो या संगम, यक्ष या (EP ___ "अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पं इन्द्रिय निग्रहः । सर्व
कटूपतना, गौशालक हो या इन्द्रभूति गौतम सबके
प्रति वही समभाव, वही सद्भाव । क्रोध, मान, भूत दया पुष्पं, क्षमा पुष्पं विशेषतः ।' महाभारत
लोभ, मोह कहाँ गये थे कषाय । समाप्त हो गये । में राजविचक्षण , वृहद् धर्म पुराण में परशुराम
महावीर का जीवन ही उनकी साधना का रहस्य और शिव का संवाद इसके प्रमाण हैं।
है, अहिंसा की मंजूषा है। उन्होंने बताया कि __ वायु पुराण का यह कथन पर्याप्त है--'अहिंसा अहिंसा का दर्शन सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान सर्वभूतानां कर्मणा मनसा गिरा।' विष्णु पुराण में है। हिंसा के पारिवारिक रूप की चर्चा की गई है। आज जब पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, प्राकृ- 102 अनृत, निकृति, भय, नरक, सन्तान, माया, वेदना, तिक संतुलन बिगड़ रहा है, पशु-पक्षी, जन्तु मनुष्य व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा, क्रोध उसकी परम्परा की हिंसक वृत्ति से समाप्त हो रहे हैं, महावीर ने है। इसके विपरीत अहिंसा के लिए ब्रह्म पुराण आचार-विचार और व्यवहार के साथ-साथ आहार स्पष्ट कहता है 'सर्व भूतदयावन्तो विश्वास्याः का शाकाहार का भी प्रमाण दिया-वे केवली थेसर्वजन्तुषु' । पुराण ही क्यों,समस्त भारतीय वाङ - त्रिकालज्ञ, दिव्य । हिंसा पाप है, रोद्र है, भय है, चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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श्रा मोह है : एसो सो पाणवहो पावो, चण्डो, रुद्दो... अधिकारलिप्सा और वित्तषणा ही हिंसा और Min मोह महब्भयत्तवहओ।
परिग्रह के हेतु है, 'गंथेहिं तह कसाओ, वड्ढइ और अहिंसा, समस्त जीवों विज्झाई तेहि विणा ।' आधुनिक समाजशास्त्र व के प्रति संयमपूर्ण आचरण-व्यवहार है-'अहिंसा मनोविज्ञान में भी क्रोध, मान, माया और लोभ निऊणा दिट्ठा, सव्व भूएस संजमो।' वे सदा यही का वैज्ञानिक पद्धति से निरूपण मिलता है । क्रोध सिखाते रहे कि मनुष्य का चरित्रात्मक आन्तरिक को ही लें। क्रोध प्रतिशोध माँगता है, वह मानरूपान्तरण मुख्य है, और इसके साधन है अहिंसा, सिक और शारीरिक संतुलन नष्ट कर देता है। सत्य, अपरिग्रह और समता। यही मानवतावाद भगवती सूत्र में इसकी विभिन्न अवस्थाओं का या समष्टिवाद की आधारशिला है। एक जैना- विवरण प्राप्त होता है। भगवान महावीर कहते चार्य का कथन है अहिंसा ही प्रमुख धर्म है, अन्य हैं क्रोध-उचित अनुचित का विवेक नष्ट करने तो उसकी सुरक्षा के लिए है-'अबसेसा तस्स रख- वाला है, वह प्रज्वलन रूप आत्मा का दुष्परिणाम णट्ठा ।' आध्यात्मिक चेतना की ऊर्ध्व गति से ही
आज मनोविज्ञान ने भी इस तथ्य को भलीसम्भव है--सनातन मूल्यबोध । वीर प्रभु ने इसी
भाँति उजागर कर दिया है। चरक ने तो यही 12 से शान्ति मार्ग पर चलने को कहा
बताया कि क्रोध आदि विकार से व्यक्ति ही नहीं,
उसके आसपास का वातावरण भी विकृत हो जाता बुद्ध परिनिव्वुडे चरे
है। व्यक्ति और समाज में सार्वदेशिक शान्ति तभी गाम गए नगरे व संजए।
सम्भव है जब हम अपनी जीवन प्रक्रिया में आमूल सन्ति मग्गं च बूहए
परिवर्तन करें । प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक इरिक बर्न का समयं गोयम ! मा पमायए। कथन है
- उत्तराध्ययन सूत्र १०/३६ 'मनुष्य की रचनात्मक जिजीविषा और संहारा- अहिंसा की साधना ही शान्ति का मार्ग है। वे त्मक विजीगिषा वह कच्चा माल है, जिसका आज | कहते हैं 'बुद्ध, तत्बज्ञ और उपशान्त होकर पूर्ण मनुष्य और संस्कृति को उपयोग करना है-समाज संयतभाव से गौतम ! गाँव एवं नगर में विचरण और मानवजाति की संरक्षा के लिए उसे संहारा- ७ कर । शान्तिपथ पर चल । अहिंसा का प्रचार कर। त्मक विजीगिषा समाप्त कर रचनात्मक जिजीविषा क्षण भर भी प्रमाद न कर ।' उन्होंने बताया कि को आध्यात्मिक व जागतिक समृद्धि में लगाना धर्महीन नीति समाज के लिए अभिशाप है और होगा।' नीतिहीन धर्माचरण केवल वैयक्तिक । धर्म व्यवहार व्यक्ति का मानसिक विकास और सामासे उत्पन्न है, ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण जिक शान्ति इस पर निर्भर करती है कि वह इन किया वे व्यवहार और आचरण ही अपेक्षित हैं। जन्मजात शक्तियों का किस उद्देश्य से प्रयोग करे। इस प्रकार महावीर ने अहिंसा को वृहत् और व्या- व्यक्ति का मानसिक संतुलन ही सामाजिक संतुलन का पक सामाजिक धरातल दिया। उनका विधान था का प्रथम चरण है। महावीर ने अपनी सारी शक्ति । 'चारित्तं धम्मो' सदाचार ही चारित्र धर्म है । व्यक्ति इसी में लगाई । उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त को of की हो, चाहे समाज या शासनतन्त्र की, हिंसा का मनुष्य या पशु हिंसा तक ही सीमित न रखकर
कारण भय और क्रोध है। जैनधर्म कषाय को समस्त सचराचर जगत पर, षटकाय जीवों पर, न! कालुष्य का कारण मानता है-आवेश, लालसा, जीवन के प्रत्येक पहलू और पक्ष पर अनिवार्य
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| समझा । अहिंसा के निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूपों पर गहन विचार किया । भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा का सर्वांगीण विवेचन कर हिंसा के पाँच समादान बताए । उन्होंने कहा -- 'अहिंसा निउणादिट्ठा सव्व भूसु संजमो ( दशवैकालिक ६-९) क्योंकि सभी प्राणियों को जीवन प्रिय हैसुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल । 'अप्पिय वहा, पिय जीवणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं' ( आचारांग १-२-७) महावीर की इस अहिंसा संस्कृति को ही आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने अपनाया, विनोबा भावे ने सर्वोदय सिद्धान्त में प्रमुख माना ।
नीग्रो नेता मार्टिन किंग लूथर का उद्धरण भी यहाँ समीचीन होगा 'अहिंसक व्यक्ति की यह मान्यता है कि अपने विरोधी की हिंसा के समक्ष भी वह आक्रामक भाव न रखे अपितु यह सत्प्रयास करे कि उसकी हिंसात्मक या आक्रामक शक्ति का निरसन अहिंसा से संभव हो सकेगा ।' लूथर कहता है 'धिक्कार के बदले धिक्कार वापस लौटाने से धिक्कार का गुणन होता है, अन्धकार कभी अन्धकार दूर नहीं करता - हिंसा से हिंसा की वृद्धि होती है ।' महात्मा गाँधी ने इसको ही सार्वभौम प्रेम और सर्वाधिक दम कहा था । अहिंसा व्यक्ति को अभय करती है और दूसरों को भी । अभयं वै ब्रह्म मा षी - यही उसका मंत्र है । विनोबाजी के शब्दों में इससे मनुष्य सत्यग्राही होता है ।
बेलजियन समाजवादी चिन्तक बार्ट डे लाइट ने लिखा- 'हिंसा का प्राचुर्य जितना अधिक होगा, क्रांति उतनी ही कम । ऐसीमोव का वाक्य है 'हिंसा असमर्थ आदमी का अन्तिम आश्रय है ।' हिंसा और कटुता के मध्य सामाजिक परिवर्तन अपनी शक्ति और अर्थवत्ता समाप्त कर देता है । आज की जनतांत्रिक पद्धति की मूलभूत आवश्यकता हिंसाविहीन शासन तन्त्र से ही संभव है । महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा का विज्ञान ही
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यथार्थ प्रजातन्त्र की स्थापना का समर्थ साधन है ( यंग इंडिया - मार्च १६, १९२५) हिंसा सामाजिक दुराग्रह है, अहिंसा सत्याग्रह | वर्तमान समय में जनता का विरोध व्यक्ति और सम्पत्ति के विरुद्ध हिंसापरक बन जाता है, ऐसा विरोध सामाजिक परिवर्तन का उपकरण कभी नहीं बन सकता, वह तो अव्यवस्था, तनाव और निराशा को पनपाकर और अधिक हिंसात्मक कार्रवाई का निमित्त बनता है । आधुनिक चिन्ताधारा के अन्य सिद्धान्तों का तथ्यानुशीलन भी करें।
स्वीडन अर्थशास्त्री एडलर कार्लसन ने इस दृष्टि से 'विपर्यस्त उपयोगितावाद' की व्याख्या करते हुए लिखा है - 'हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण मनुष्य के कष्टों को कम करने के लिए करना चाहिए । जो आज धनी और समृद्ध हैं उनका आर्थिक स्तर बढ़ाना एक खोखला व सारहीन विचार है । जब तक प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति न हो जाए, कोई भी अधिक समृद्ध न हो इसके लिए आवश्यक है - नैतिक साधन न कि भौतिक उपाय ' ये नैतिक साधन ही व्यक्ति और समाज को शांति लाभ दे सकते हैं । इसी से मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा अब (जूलियस सेगल के शब्दों में ) - मानसिक रोग और पीड़ा से मुक्ति के लिए आत्मपरितोष पर अधिक बल देती है - आत्मोपलब्धि पर, क्योंकि इसी से व्यक्तित्व का स्वस्थ और समीकृत विकास संभव है । मनुष्य के प्रकृत मूल्य बोध से अव्यवस्था को भी सुव्यवस्था में परिगत किया जा सकता है । ल्योन आइजनबर्ग ने इस पर जोर दिया है कि 'हमें मनुष्य की प्रकृति का हो मानवीकरण करना है क्योंकि मानवीय हिंसा सामाजिक दमन का हेतु नहीं उसकी प्रतिक्रिया का परिणाम है ।'
वर्तमान विसंगति यह है कि आज बालक या किशोर वर्ग जब युवावर्ग को संघर्ष और हिंसारत देखता है, जब जातीय नेता स्वार्थ व सत्ता
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के लिए यही मार्ग अपनाते हैं, तो वह भी इस दुष्प्रभाव में आकर उसी पथ पर चलता है— उनका अनुकरण करता है । इसी से ल्योन आइजनबर्ग कहता है कि हिंसा दुष्परिणाम है अन्तरवर्ग संघर्ष का, जिसे हमारे नेता बढ़ावा दे रहे हैं। हमें समस्त मानव समाज को अविभक्त इकाई के रूप में ग्रहण कर मानवीय मूल्यों का विकास करना होगा । भ्रातृत्व और मैत्री का सिद्धान्त प्राचीन है, पर आज मानव अस्तित्व की रक्षा की वह प्रथम अनिवार्यता है ।
हमें यह निःसंकोच स्वीकार करना होगा कि मनुष्य ही अपना भाग्यविधाता है व पुरुपार्थ ही उसका नियामक है। प्रसिद्ध विचारक बन्ड रसल ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों में जीवन की इस आंतरिक प्रक्रिया को अहिंसा, सत्य, समता, अपरिग्रह और सात्विक आचरण को ही प्रमुख गिना है ।
ये विद्वान विचारक आज जिस तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं, शताब्दियों पूर्व भगवान महावीर ने यही बताया था। उन्होंने 'आयओ बहिया पास तम्हा न हन्ता न विघाइए ।' अहिंसा के द्वारा विश्व मंत्री का संदेश दिया, मनुष्य मनुष्य को समान
बताया
"चरणं हवइ सधम्मो सो हवइ अप्पसमा वो' सो राग रोस रहिओ जीवस्स अण्ण परिणामो ।"
न कोई जाति उच्च है और न कोई हीन - नो होणो णो-अइरित्त णो पीहए' उन्होंने सत्य की सापेक्षता के साथ-साथ सहअस्तित्व पर जोर दिया, पुरुषार्थ के लिए कहा - पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त, किं बहिया मित्तमिच्छसि । कषाय व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति का मार्ग बताया, आध्यात्मिक विकास के साथ मानवीय उच्चता और चारित्र पर दृष्टि रखी । उनका उद्घोष था - ' सच्चं मिधिति कुबह ।' जहाँ सत्य है वहाँ भय नहीं । 'न भाइयव्वं ।' वे
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समझाते रहे 'विसंकटकओव्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ।'
सबके साथ मैत्री भाव रखो, किसी से वैरविरोध न हो यदि युद्ध ही करना है तो अपने से करो । आन्तरिक शुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ है, बाह्य शुद्धि सुमार्ग नहीं । धन और संग्रह प्रमाद का कारण है - 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।' 'लाभस्सेसो अणु फासो मन्न अन्नय राभावे' उन्होंने सदैव जाग्रत रहने को कहा - विनय और विवेक को आत्मज्ञान को पीठिका बताया । शोषण और परिग्रह का खुलकर विरोध किया - क्योंकि 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो-पव ड्ढइ ' परिग्रही को शान्ति, सुख और सन्तोष कहाँ -- वह तो 'सव्वतो पिच्छतो परिमसदि पलादि मुज्झदिय ।' यही तो अहिंसा का राजपथ है - शान्त, स्थिर, सौम्य और श्रेष्ठ ।
आज की भयभीत संत्रस्त और अभिशप्त मानव जाति के लिए यही तो परमोषधि संजीवनी है, लोकहित और सर्वभूतहित की, सर्वोदय की, सामाजिक परिवर्तन की । महावीर की परम्परा में ही महात्मा गाँधी ने भी यही मार्ग अपनाया और कहा - सामाजिक और आर्थिक अहिंसा ही स्थायी शान्ति की जननी है | अहिंसा से ही मानवसमाज वर्तमान विभीषिका, विजीगिषा और विसंगति से मुक्त हो सकता है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि एक सच्चा अहिंसक व्यक्ति समस्त समाज का रूपान्तरण कर सकता है। महावीर ने यही किया और यही कहा । श्रीगुणवन्त शाह ने ठीक हो कहा है कि आज जैन ( और अहिंसा) दर्शन की सार्थकता अहिंसक समाज की रचना की स्थापना में है ।
ऐसे समाज में शाकाहार का बोलवाला होगा, प्रदूषण न्यूनतम होगा, शोषण नहीं के बराबर और आर्थिक असमानता एकदम कम होगी और युद्ध सदा के लिए नहीं होगा। आज हमें अहिंसा को
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जीवन के साथ जोड़ना है। अहिंसक समाज का अर्थ है प्रेम, करुणा और मित्रता का समाज । इसी
आज के संघर्ष में अहिंसा के धार्मिक मूल्य के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और 'मानवीय मूल्य एवं अर्थवत्ता भी नितान्त आवश्यक है, यदि यह नहीं होता है तो पृथ्वी पर जीवन के नाश के चिह्न स्पष्ट है । महावीर को विचार क्रांति ही हमारे आचार का आश्रय है, सम्बल है । सामा
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१] Carles Ronmolo
२ C. Wright Mill ३ P. Sorokin
४ Eihustin
५ T. Unnithan Yogendra Singh
६ J. S. Mathur P. C. Sharma
9 Unto Tahzinen
Kausleya Walli
& S. Radhakrishnan
१० P. Sorokin
११ Eric Berne
१२ वी. एन. सिन्हा गुणवंतशाह
१३ युवाचार्य महाप्रज्ञ
१४ मुनि नथमल १५ बेचरदास शास्त्री
१६ E. Hytton
१७ Alduous Muxley
१८ Edward Wilson
१६] M. Francis Abraham
२० सर्व सेवाश्रम प्रकाशन २१ श्रीचन्द रामपुरिया २२ निर्मल कुमार
२३ डा. भागचन्द शास्त्री
२४ मुनि अमोलक ऋषि २५ गुणवन्त शाह
जिक परिवर्तन के लिए सूक्ष्म और महत् अहिंसा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अनिवार्य हैवही केवल मात्र साधन है । आणविक युद्ध के न होने पर भी, पृथ्वी मौन भाव से हमारी जीवन कृत प्रक्रिया के कारण नष्ट हो रही है, उसे यदि बचाना है तो उसमें आमूल परिवर्तन करना अति आवश्यक और अनिवार्य और यह अहिंसा की अपरिमेय व्यक्ति से ही सम्भव है ।
- सन्दर्भ स्थल
6
: Truth and Non-Voilence ( UNESCO - SYMPOSIUM)
: The Causes of World War Three, 1950
: The Reconstruction of Humanity.
Jain Education Internationa
: Interview, July, 1955
: Sociology of Non-Voilence.
: Non-Voilence and Scial Change Ahinsa
: Ahinsa in Indian Thought.
: Religion and Society
: Social and Cultural Dynamics
: A Layman's Guide to Psychiatry and Psychoanalysis
: जैन धर्म में अहिंसा । महामानव महावीर
: महावीर की साधना का रहस्य
: अहिंसा तत्व दर्शन
: Sociobiology
: Sociobiology: Modern Social Theory
: समता सूत्र
: महावीर वाणी
: भगवान महावीर
: जैनदर्शन व संस्कृति का इतिहास
: जैन धर्म व दर्शन
: महामानव महावीर
विभिन्न जैनागम, यंग इण्डिया, अमेरिकन रिव्यू आदि पत्रिकाएँ ।
: महावीर वाणी
: Non-Voilence and Developmental Work
: Ends and Means
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संस्कृत साहित्य और मुस्लिम शासक
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- श्री भँवरलाल नाहटा
४. जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता- ७००००७
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भारत में राज्यतन्त्र के माध्यम से इस्लाम का विस्तार हुआ और अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी की भाँति राज्यभाषा होने के कारण अरबी, फारसी और उर्दू का प्रचार हुआ किन्तु जन-जीवन में सभी प्रान्तों में अपनी मातृ भाषा ही विशेषतया प्रचलित थी । साहित्यिक भाषाओं में संस्कृत का प्रचार सर्वव्यापी था । लोक भाषाओं का विकास प्राकृत से अपभ्रंश के माध्यम से प्रान्तीय भाषाओं के रूप में होकर निर्माण हुआ था अतः मुसलमानों को भी अपनी मातृभाषा का गौरव था । किवामखानी नियामतखाँ आदि के ग्रन्थों में अपनी भाषा और चौहान वंश का गौरव पद पद पर परिलक्षित है । अबदुर्रहमान का सन्देश रासक अपने पूर्वजों की भाषा का ज्वलन्त उदाहरण है । उस पर लक्ष्मी निवास ने संस्कृत टीका का निर्माण किया था । यह इस्लाम का साहित्यिक योगदान ही कहा जाएगा । संस्कृत भाषा की भाँति प्राकृत भाषा सजीव थी, उसका पर्याप्त प्रचार था । आज प्राकृत दुरूह लगती है पर मध्यकाल 'वह बोलचाल की भाषा के निकट होने से संस्कृत से भी सरल पड़ती थी । यही कारण है कि सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी ठक्कुर फेरू ने अपने सभी वैज्ञानिक ग्रन्थों का निर्माण प्राकृत भाषा में किया । यद्यपि उसमें बोलचाल की भाषा के शब्दों को देश्य प्राकृत रूप में प्रयोग करने में कठिनाई नहीं थी पर जब प्राकृत लोक भाषा के विकास और परिवर्तन के कारण दूर पड़ने लगी तो उन्हें समझने के लिए व अर्थ विस्तार के लिए संस्कृत टीकाओं का निर्माण अपरिहार्य हो गया । अतः पर्याप्त मात्रा में उसका अस्तित्व सामने आया । ब्राह्मण वर्ग में वैदिक संस्कृत जो एक तरह की प्राकृत ही थी, जनता से बिल्कुल अलग हो चुकी थी तो गत दो सहस्राब्दियों से संस्कृत ही बहुजनसंमत और जीवन्त समृद्ध भाषा हो गई । राजसभा में विद्वद् गोष्ठियाँ और शास्त्रार्थ आदि संस्कार सम्पन्न लोगों के लिए उच्चस्तरीय माध्यम था । सम्राट् विक्रमादित्य, भोज, पृथ्वीराज, दुर्लभराज, सिद्धराज जयसिंह आदि की परम्परा सभी शासकों में चलती आई थी, भले ही वह किसी भी वर्ग के रहे हों । सोमसुन्दरसूरि को खम्भात में दैफरखान ने वादि गोकुल संकट विरुद दिया था । मुस्लिम शासकों के दरबार में गोष्ठियाँ, शास्त्रार्थ आदि की गौरवपूर्ण परम्परा थी। और इससे साहित्य की अनेक विधाओं को प्रोत्साहन मिलता था । यहाँ हमें इस्लाम धर्म के अनुयायी शासकों के संस्कृत साहित्य के योगदान के सम्बन्ध में किंचित् विवेचन अपेक्षित है ।
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सम्राट अलाउद्दीन खिलजी
दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के मन्त्रि मंडल में ठक्कुर फेरू चिरकाल रहा था । वह परम जैन ठक्कर चन्द्र का पुत्र और धाँधिया गोत्रीय श्रीमाल था । उसने अपने ग्रंथों में सुलतान को कलिकाल चक्रवर्ती लिखा है । वह कन्नाणा ( महेन्द्रगढ़ ) निवासी था । उसने सं. १३७२ में सम्राट के रत्नागार के अनुभव से रयणपरीक्खा ( रत्न परीक्षा ) ग्रन्थ की रचना की जिसका अनुवाद मैंने कई वर्ष पूर्व करके प्रकाशित किया था । उसी वर्ष : फेरू ठक्कुर ने 'वास्तुसार ग्रंथ का निर्माण किया, जिसमें देवालय प्रतिमाओं की अनेक विधाओं के सम्बन्ध में विशद् वर्णन है । पं० भगवानदास जैन ने इसे सानुवाद प्रकाशित किया । इसी वर्ष ठक्कुर फेरू ने ४७४ श्लोकों में ज्योतिषसार की रचना की । गणितसार भी ३११ गाथाओं में रचित है जिसमें क्षेत्रों के माप, मुकाता, राजकीय कर आदि सभी विषय के गणित का विषय प्रतिपादित है । सं. १३७५ में फेरू दिल्ली टकसाल के गवर्नर पद पर नियुक्त था । वहाँ भी इस प्रतिभाशाली विद्वान ने गहरा अनुभव प्राप्त किया और उसके आधार से १४६ श्लोकों में द्रव्य परीक्षा ग्रन्थ का निर्माण किया । इस ग्रन्थ में उस समय प्राप्य चंदेरी, देवगिरि, दिल्ली, मालव, मुल तान कशालों के बने सिक्कों के अतिरिक्त खुश सान आदि के विदेशी सिक्कों का भी वर्णन है । तत्कालीन प्राप्त सिक्कों में विक्रम, तोमर राजाओं, कांगड़ा के तथा अनेक सिक्कों में कितना प्रतिशत सोना, चाँदी, तांबा है और तत्कालीन सिक्के के विनिमय का मोल तोल आदि वर्णित है । धातु शोधक आदि के प्रकार भी लिखे हैं । कहना न होगा कि मुस्लिम शासन के उस समय तक के सभी सिक्कों का वर्णन है । यह ग्रन्थ विश्व साहित्य में
है जिसका मेरे अनुवाद का प्रकाशन वैशाली के प्राकृत जैन शास्त्र अहिंसा शोध संस्थान से हुआ है । अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर एस. आर.
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शर्मा इसका अंग्रेजी अनुवाद सम्पादन कर रहे हैं तथा रत्न परीक्षा का अंग्रेजी अनुवाद उन्होंने प्रकाशित भी करवा दिया है । द्रव्य परीक्षा के साथ ही ठक्कुर फेरू का धातुत्पत्ति ग्रन्थ ( गा० ५७ ) वैशाली से प्रकाशित है ।
ठक्कुर फेरू के अन्य ग्रंथों में युगप्रधान चतुष्पदिका (सं. १३४७) प्रकाशित है परन्तु भू-गर्भशास्त्र अभी तक अप्राप्त है । सं. १४०४ की प्रति का १ पत्र लुप्त है, संभवतः उसी में वह था । मालवा-मांडवगढ़ के सुलतान
मुस्लिम शासकों के विशिष्ट मंत्रियों में मांडव - गढ़ के श्रीमाल सोनगरा वंश के मंडन और धनदराज का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है । ये वहाँ के सुलतान के मंत्री थे । समकालीन पं० महेश्वर कृत काव्य मनोहर में इनका परिचय दिया है । मं. झांझण के छः पुत्र थे जो वहाँ के सुलतान के मंत्री थे । द्वितीय पुत्र बाहड़ का पुत्र मंडन मांडवगढ़ के सुलतान का मंत्री था । अलपखानआलमखान होशंग शाह गोरी ने ३ वर्षं राज्य किया था । सं. १४६० में मुहम्मद खिलजी होशंग शाह की खिताब धारण कर गद्दी पर बैठा जिसने सं. १५०५ तक राज्य किया । उसके पुत्र गयासुद्दीन ने सं. १५५६ तक राज्य किया था। मंत्री मंडन और धनदराज एवं उनके ग्रन्थों का परिचय दिया जाता है ।
मंत्री मंडन व्याकरण, अलंकार, संगीत तथा अन्य शास्त्रों का महान् पण्डित था । उसने १ सारस्वत मंडन, २ काव्य मंडन, ३ चम्पू मंडन, ४ कादम्बरी मंडन, ५ अलंकार मंडन, ६ चन्द्र विजय, ७ शृंगार मंडन, ८ संगीत मंडन, & उपसर्ग मंडन, १० कवि कल्पद्र म नामक ग्रन्थों का निर्माण किया । इसकी प्रति सं. १५०४ में विनायक दास कायस्थ के हाथ से लिखी हुई पाटण के ज्ञान भण्डार में विद्य
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___ मंत्री मंडन पर बादशाह का बहुत प्रेम था। आलमशाह को गुजरात के बादशाह का गर्व तोड़ने
उसके सत्संग से वह भी संस्कृत साहित्य का बड़ा वाला लिखा है। अपने पिता के लिए उसने-वे या अनुरागी और रसिक हो गया था। एक दिन सायं- सत्पुरुषों में दिनमणि विरुद्धारक एवं खरतर K
काल विद्वद्गोष्ठी में बादशाह ने मंडन से कहा- मुनियों से तत्वोपदेश सुनने वाले-लिखा है और RAT मैंने कादम्बरी की बड़ी प्रशंसा सुनी है, इसकी कथा अपनी माता का नाम गंगादेवी लिखा है। सूनने की इच्छा है किन्तु बड़े ग्रन्थ को सुनने का
मालव का सुलतान गयासुद्दीन बड़ा उदार समय नहीं मिलता। तुम बड़े विद्वान हो, उसे और साहित्यप्रेमी था। उसने अपने मित्र श्रीमाली संक्षिप्त रचना कर सुनाओ। तब सुलतान की मेघ को माफर मलिक का विरुद् दिया था। उसके आज्ञा से मंडन ने चार परिच्छेदों में 'कादम्बरी
भाई जीवन के पुत्र पुजराज ने सारस्वत व्याकरण मंडन' बनाकर सुनाया।
पर टीका लिखी। एक बार पूणिमा के दिन सायंकाल मंडन मांडवगढ के सलतान महम्मद खिलजी के पहाड़ के आंगन में बैठा था। साहित्य चर्चा में विश्वासपात्र भंडारी ओसवाल संग्रामसिंह ने बुद्धिचन्द्रोदय हो गया। मंडन ने चन्द्र के उदय से लेकर सागर नामक सर्वमान्य अत्यूपयोगी ग्रन्थ की रचना - अस्त तक की अलग-अलग दशाओं का वर्णन ललित की। पद्य में किया। अस्त के समय खिन्न होकर कहासूर्य की भाँति भ्रमण करते चन्द्र का भी अधःपात साहित्य प्रेम, धर्म प्रेम और सत्संग के प्रताप हुआ, सूर्य किरणों से प्रताड़ित होकर चन्द्रमा भाग से मालव सुलतान गयासुद्दीन उदा रहा था, सूर्य ने उसे कान्तिहीन करके समुद्र में उसने राणकपुर जिनालय के निर्माता धरणाशाह | गिरा दिया। इससे सूर्य पर ऋद्ध होकर १४१ पद्यों के भ्राता रत्नसिंह के पुत्र चालिग के पुत्र सहसा में 'चन्द्रविजय' की रचना की जिसमें चन्द्रमा के को अपना मित्र बनाया था। तथा मांडवगढ़ के साथ युद्ध कराके हराया। फिर उदयाचल पर उदय संघपति वेला ने भी तीर्थयात्रा के लिए संघ निकाहोने का वर्णन कर चन्द्र की उत्पत्ति
साथ लने का फरमान प्राप्त किया था। देवास के माफर वर, चन्द्रमा की विजय और तारों के साथ विहार मलिक के मंत्री सं० देवसी ने २४ देवालय व चतूबतलाया है ।
विशति पित्तलमय जिनपट आदि बनवा के प्रति
ष्ठित किये थे। संघ यात्रा, सत्र शाला, प्रतिष्ठा काव्य मंडन में १२ सर्ग और १२५० श्लोकों में
आदि के अनेक उदाहरण हैं पर यहाँ लिखना अप्राकौरव-पांडव की कथा का वर्णन है । चम्पू मंडन में संगिक है फिर भी यह साहित्य प्रेम-सत्संग का ही ७ पटल हैं जिनमें भगवान् नेमिनाथ का चरित्र प्रताप था जिससे जीवदया के अनेक फरमान निकले वणित है।
व प्रजा के साथ सहिष्णु वृत्ति प्रोत्साहित रही। ___ मंडन का चचेरा भाई-चाचा देहड़ का पुत्र दिल्ली के सुलतान मुहम्मद तुगलक धनदराज या धनराज भी नामाङ्कित विद्वान था। उसने मंडप दुर्ग (मांडवगढ़) में सं. १४६० में भर्त- दिल्ली के तत्कालीन सुलतानों में ये सर्वाधिक हरि शतक की भाँति ही शृंगार धनद, नीति धनद उदार सम्राट हुए हैं। खरतरगच्छाचार्य महान और वैराग्य धनद संज्ञक धनद त्रिशती की रचना प्रभावक श्री जिनप्रभसूरिजी के सम्पर्क में आने की। उसकी प्रशस्ति में मांडव ने बादशाह गौरी पर सुलतान जैन धर्म के प्रति बड़ा श्रद्धालु हो गया
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था। श्री जिनप्रभसुरिजी एक सर्वतोमुखी प्रतिभा- सं. १६३६ में तपागच्छ नायक श्री हीर विजय सम्पन्न बहुत बड़े प्रभावक और साहित्यकार थे। सुरि से सम्राट अकबर को उपदेश मिला । अकबर सम्राट द्वारा उपाश्रय, मंदिर का निर्माण हुआ, ने दीन-ए-इलाही धर्म स्थापित किया जिसमें हीर शत्रुञ्जय यात्रा, फरमान पत्रादि से जीवदया के विजय सूरि और भानुचन्द्र गणि को सदस्य बनाया कार्य हुए। इनके सम्बन्ध में महोपाध्याय विनय- था । यहाँ विविध धर्म वालों के साथ धार्मिक सागर जी कृत "शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ विचारगोष्ठी होती थी
मसून्दर जी के और उनका साहित्य" देखना चाहिए।
ग्रन्थ संग्रह को सम्राट ने सूरिजी को भेंट किया।
उनके निस्पृह रहने से आगरा में ज्ञान भन्डार स्थामुगल सम्राट अकबर
पित किया गया । आचार्यश्री के उपदेश से सम्राट मुगलवंश का सम्राट अकबर एक महान ने अनेक सर्वजन हितैषी कार्य जैसे गोहत्या बन्दी, दयालु शासक था। उसके दरबार में प्रारम्भ से ही जजिया टैक्स हटाना, तीर्थों के फरमान व अमारि धर्म समन्वय और सहिष्णुतापूर्वक शोध को भावना फरमान आदि जारी किये । होने से विविध धर्मानुयायी विद्वानों का जमघट रहता था। नागपुरीय तपागच्छ (पायचन्द गच्छ)
श्री हीर विजय सूरि जी के गुजरात पधारने पर के वाचक पद्मसुन्दर शाही दरबार में चिरकाल रहे
सं. १६४५ में उनकी आज्ञा से सम्राट के कृपा पात्र थे । ये बड़े विद्वान थे और इनके द्वारा रचित
शान्ति चन्द्र उपाध्याय रहे । सम्राट उनके पास रस संस्कृत व भाषा के अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं।
कोश प्रशस्ति प्रतिदिन श्रवण करता, वे शतावधानी बीकानेर की अनुप संस्कृत लायब्ररी में इनकी रच
थे, सम्राट व अनेक नृपतियों का सद्भाव प्राप्त नाओं में अकबरशाही शृंगार दर्पण उपलब्ध हुआ
किया था। उनके जाने के बाद भानुचन्द्र गणि और जो प्रसिद्ध है । इन्होंने शाही सभा में वाराणसी के उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र गुरु शिष्य अकबर के पास विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इनके
रहे । भानुचन्द्र जी से सम्राट प्रत्येक रविवार को ज्ञान भण्डार के महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्राट के पास
सूर्य सहस्र नाम संस्कृत में सुनता था। सिद्धिचन्द्र - संरक्षित थे।
के शतावधान देखने से प्रभावित होकर सम्राट ने 70 उन्हें 'खुशफहम' का खिताब दिया था। इन्होंने
कादम्बरी टीका आदि अनेक ग्रन्थों का निर्माण सं. १६२५ में खरतरगच्छ के विद्वान वाचक दयाकलश जी के प्रशिष्य वाचकः साधुकीति जी
किया था। वदाउनी २, ३३२ में लिखता है कि आगरा पधारे और षट्पर्वी पौषध के सम्बन्ध में सम्राट ब्राह्मणों की भांति पूर्व दिशा की ओर मुह
0 शाही दरबार में तपागच्छीय बुद्धिसागरजो के साथ करके खड़ा होता और आराधना करता था एवं शास्त्रार्थ हुआ। उसमें अनिरुद्ध, महादेव मिश्र सूर्य सहस्र नामों का भी संस्कृत में उच्चारण करता MOD आदि सहस्रों विद्वानों की उपस्थिति में साधुकीति था। जो ने विजय प्राप्त की। इसका विशद् वर्णन कवि सं. १६४८ में खरतरगच्छ नायक श्री जिनचन्द्र कनमसोमकृत जइत पद वेलि में है जो हमारे ऐति- सूरिजी को सम्राट ने लाहौर बुलाया और उनसे हासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है। उसमें प्रतिदिन ड्योढी महल में धर्मगोष्ठी किया करता ) 'साधुकीर्ति संस्कृत भाखइ, बुद्धिसागर स्यु-स्युं था । सूरिजी के साथ ३१ साधु थे जिनमें ७ तो दाखइ तथा साधुकीति संस्कृत बोलइ शब्दों से पहले ही वा० महिमराज (जिनसिंह सूरि) के साथ सम्राट का संस्कृत प्रेम स्पष्ट है।
लाहौर आ गये थे। इनमें सूरिजी के प्रशिष्य समय
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सुन्दर जी भी थे। एक बार सम्राट की विद्वद् सभा साधु और पंचानन महात्मा को लेकर धर्म प्रचार में किसी दार्शनिक विद्वान ने जैनागमों के 'एगस्स हेतु कठिन पदयात्रा करके गए। मंत्रीश्वर कर्म-कार सुत्तस्स अनन्तो अत्थो' अर्थात् एक सूत्र के अनन्त चन्द्रादि भी साथ थे। काश्मीर में जीव रक्षा, अर्थ होते हैं वाक्य पर व्यंग्य कसा। उससे मर्माहत तालाब के मत्स्यों को अभयदान के फरमान मिले। होकर कवि समयसुन्दरजी ने जैन शासनसु की रक्षा, वापस आने पर सम्राट ने सूरि जो को युगप्रधान प्रभावना और आगम वाक्यों की अक्षुण्णता रखने पद, महिमराज जी को आचार्य पद, जयसोम व के लिए सम्राट से कुछ समय मांगकर जैनागमों के रत्ननिधान को उपाध्याय पद एवं समयसुन्दर व कथन को सत्य प्रमाणित करने का प्रस्ताव रखा। गुण विनय को वाचक पद से अलंकृत कराया। कविवर ने 'रा जा नो द दते सौ ख्यं' इन आठ अक्षरों मंत्रीश्वर ने बड़ा भारी उत्सव किया। तीर्थरक्षा पर आठ लाख अर्थों की संरचना की। इस ग्रन्थ खंभात की खाड़ी के जलचर जीवों के रक्षार्थ तथा का नाम अर्थ रत्नावली रखा । वस्तुतः इन्होंने दस आषाढी अष्टाह्निका के फरमान निकलवाए। लाख से भी ऊपर अर्थ किए थे पर छद्मस्थ दोष शाह सलीम के मूल नक्षत्र प्रथम पाद में पुत्री से पुनरुक्ति आदि परिमार्जनार्थ पूर्त्यर्थ केवल आठ होने पर अष्टोत्तरी स्नात्र कराने में तपागच्छ बरलाख सुरक्षित अर्थों वाली अष्ट लक्षी प्रसिद्ध तरगच्छ के साधुओं का निर्देश व मंत्री कर्मचन्द्र की किया।
प्रधानता थी। और भी एक बार अष्टोत्तरी स्नात्र सं. १६४६ श्रावण सदि १३ को सायं को लाहौर कराया जिसका कर्मचन्द्र मंत्री वंश प्रबन्ध में वर्णन नगर के बाहर कश्मीर विजय के हेत प्रस्थान करके है। आरती में उपस्थित होकर दस हजार भेंट राजश्री रामदास की वाटिका में प्रथम प्रवास किया करने व भगवान् का स्नात्र-जल शाही अन्तःपुर में और वहाँ समस्त राजाओं, सामन्तों और विद्वानों ले जाकर शान्ति विधि का वर्णन बड़ा ही प्रभावो- " की परिषद में पूज्य आचार्य श्री जिनचन्द्र सरिजी त्पादक है। जयसोम उपाध्याय ने इस विधि के फY को शिष्यों सहित आशीर्वाद प्राप्त्यर्थ बुलाया । इस
ग्रन्थ की रचना की थी। अवसर पर कविवर ने सबके सामने वह ग्रन्थ सना जिनप्रभ सूरि आदि विद्वानों की अनेक रचकर जिनागम की सत्यता प्रमाणित करते हुए कहा नाएँ फारसी भाषा में भी उपलब्ध हैं। समयसुन्दर कि मेरे जैसा साधारण व्यक्ति भो एक अक्षर का जी के प्रशिष्य राजसोम का भी फारसी भाषा में आठ लाख अर्थ कर सकता है तो सर्वज्ञ की वाणी स्तोत्र पाया जाता है। इन सब कामों से पारस्पमें अनन्त अर्थ क्यों न होंगे ? इस बात से चमत्कृत रिक प्रेम सौहार्द की वृद्धि हुई। होकर सभी विद्वानों के सन्मुख सम्राट ने इस ग्रन्थ प्रस्तावित विषय पर यह केवल जैन साहित्यको प्रमाणित ठहराते हुए अपने हाथ में लेकर कवि- परक अभिव्यक्ति है । शाही दरबार में हिन्दू समाज वर को समर्पित किया और कहा कि इसकी नकलें के भिन्न-भिन्न समुदायों से सम्बन्धित अनेक विद्वान, । कराके सर्वत्र प्रचारित किया जाय ।
ब्राह्मण पण्डितादि भी धार्मिक, साहित्यिक चर्चा में
पर्याप्त भाग लेते थे। उनकी मध्यस्थता से शास्त्रासम्राट के समक्ष खरतरगच्छीय उ० शिव
र्थादि होते थे अतः संस्कृत साहित्य और मुस्लिम निधान के गुरु हर्षसार के मिलन और शास्त्रार्थ से
शासकों के विषय में शोधपूर्ण तथ्य प्रकाश में आना कीर्ति प्राप्त करने के तथा जयसोम उपाध्याय के
आवश्यक है। देश की ऐक्यता में यह भी महत्वपूर्ण शाही सभा में विद्वान से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कदम होगा। करने का उल्लेख पाया जाता है।
४, जगमोहन मल्लिक लेन सम्राट के साथ महिमराज वाचक हर्षविशाल
कलकत्ता-७००००७ ३५६
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जैन साहित्य शिक्षा और इतिहास
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साहित्य वह दर्पण है, जिसमें संस्कृति, शिक्षा, इतिहास और परम्परा की गति, प्रगति, चिन्तन-मनन, वर्तन-व्यवहार का समग्र प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। समाज विकास का इतिहास लिखने वाला साहित्य की धरोहर का पर्यालोचन करके ही स्पष्ट दिशा-दर्शन पाता है।
पुरातत्व के आलेख, स्तोत्र एवं भक्ति साहित्य, काव्य, आगमों की टीका एवं व्याख्या ग्रन्थों में विकीर्ण गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान के सूचक सारपुर्ण सन्दर्भ, नीति एवं अध्यात्म की मान्यताएं, भाषा, योग एवं विज्ञान मूलाधारित अवधारणाएँ।
इन सभी का एक तथ्यपरक अध्ययन, अनुशीलन और निष्कर्ष परायण चिन्तन-प्रस्तुत खण्ड में संग्रहीत है। अपनेअपने विषय के ख्याति प्राप्त विशिष्ट विद्वानों के मौलिक लेखों में।
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डाक्टर जगदीशचंद्र जैन (अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान् ।
भारतीय पुरातत्व की अवहेलना
१९७३ में पेरिस में भरने वाली अन्तर्राष्ट्रीय पूर्ण है ५ लाख साल पुराने पेकिंग-मानव के अवशेष ४ ओरिटिवल कान्फरेन्स में भाग लेने के लिए जब और तत्सम्बन्धी खोपड़ी, दाँत, जबड़े, पत्थर के
पेरिस की यात्रा करनी पड़ी तो यहाँ के सांस्कृतिक औजार तथा अब से साढ़े तीन हजार साल पहले । केन्द्रों की चहल-पहल देखकर आश्चर्यमुग्ध हुए भविष्य जानने के लिए उपयोग में ली जाने वाली बिना न रहा गया । कितने ही तो यहाँ संग्रहालय भविष्य-सूचक हड्डियाँ । हैं जिनमें दर्शकों की भीड़ लगी रहती है। लोग संग्रहालय देखने के लिए मेरे साथ आने वाले पहले से टिकट खरीदकर संग्रहालयों में प्रवेश करते दो और प्रोफेसर थे-एक कनाडा के विश्वविद्या८ हैं और वहाँ रखी हई वस्तुओं को बड़े गौर से लय में और दसरे अमरीका के विश्वविद्यालय में देखते हैं। एक सड़क तो कलागृहों की ही सड़क है भारतीय विद्या के अध्यापक थे। संग्रहालय का ॥
जहाँ छोटे-छोटे कक्षों में नवयुवक कलाकारों की चीनी कक्ष देखकर हम लोग बड़े प्रभावित हुए थे। || JI कृतियाँ बड़े करीने से सजाकर रखी गई हैं । कला- लेकिन साथ ही एक दूसरा प्रश्न हमारे मस्तिष्क
रसिकों का तांता लगा हुआ है, उदीयमान कला- को झकझोरने लगा, वह था इस विश्वप्रसिद्ध संग्रall कार दीवाल पर लगी हुई कलाकृतियों का अध्ययन दालथ में भारतीय कक्ष का अभाव ! हम सब की करने में व्यस्त हैं, कुछ अपनी डायरी में नोट्स भी
यही राय थी कि भारतीय पुरातत्ब इतना विपुल, लिख रहे हैं।
समृद्ध, मूल्यवान एवं उपयोगी है, फिर भी उसकी ___ एक संग्रहालय में इतने अधिक कक्ष हैं कि थोड़े चर्चा यहाँ क्यों नहीं सुनाई पड़ती ? क्या इसे भारत
समय के अन्दर सबको देख पाना सम्भव नहीं। सरकार का दुर्लक्ष्य कहा जाये या और कुछ ? NI इनके देखने में कई दिन लग जाते हैं, फिर भी अभी हाल में भारत सरकार ने भारत की U कला के प्रेमी इनका पूरा-पूरा लाभ उठाये बिना पाचीन संस्कृति का प्रचार व प्रसार करने के लिए नहीं छोड़ते । कुछ लोग तो वहीं आसन जमाकर
जमाकर विदेशों में उत्सवों का आयोजन किया था। फलबैठ जाते हैं किसी कलाकृति का सांगोपांग अध्ययन
स्वरूप सोवियत रूस, संयुक्त राष्ट्र अमरोका और | करने के लिए।
फ्रांस आदि देशों में भारतीय कलावेत्ताओं के साथ____ इन कक्षों में से एक कक्ष में चीनी पुरातत्व से साथ शिल्पकला की दृष्टि से अभूतपूर्व, बहुमूल्यबान सम्बन्ध रखने वाली खास-खास वस्तुओं का संग्रह एवं दुर्लभ मूर्तियाँ भो भेजी गई थीं। निश्चय हो सुरक्षित है । पेकिंग (आजकल बेजिंग) और उसके विदेशी प्रजा भारतीय कला-कौशल, नृत्य-संगीत, आसपास के प्रदेशों की खुदाई में प्राप्त कितनी ही खेल-तमाशे, स्थापत्य एवं शिल्पकला आदि से प्रभाप्राक् ऐतिहासिक कालीन वस्तुओं का प्रदर्शन किया वित हुए बिना नहीं रही होगी। खूब वाहवाह रही, गया है । इनमें सबसे अधिक आकर्षक और महत्व- खूब जश्न मनाये गये, मेलों का आयोजन किया
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास TOGG70 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 3G
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गया, व्याख्यानों की भरमार रही और प्रशंसा पत्र पढ़े गये । लेकिन अत्यन्त खिन्न मन से लिखना पड़ता है कि हमारी कितनी ही दुष्प्राप्य कलाकृतियाँ खण्डित पाई गईं और कुछ तो लापता ही हो गई । बहुमूल्यवान हमारी ये कलाकृतियाँ हमसे सदा के लिए दूर चली गईं। पटना संग्रहालय की अभूतपूर्व यक्षिणी की कलापूर्ण कृति इनमें से एक है । जहाज द्वारा विदेशों में भेजे जाने के पूर्व इन कलाकृतियों का लाखों रुपये का बीमा कराया गया था। ऐसी हालत में किसी मूर्ति के खण्डित हो जाने पर हम चाहें तो उसकी एवज में रुपया वसूल कर सकते हैं लेकिन वह दुर्लभ मूर्ति तो हमें कभी प्राप्त होने वाली नहीं, जिस मूर्ति के रूप सौन्दर्य को गढ़ने और संवारने में हमारे शिल्पियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था ।
आइये, अब जरा अपने गरेबान में झांक कर भी देखा जाये । हम अपने पुरातत्व के ज्ञान से कितने परिचित हैं ! हमारे कॉलेजों और विश्व विद्यालयों में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पढ़ाने वाले कितने अध्यापक ऐसे मिलेंगे जिन्हें संस्कृत, पालि और प्राकृत का ज्ञान होजिन भाषाओं में लिखा हुआ साहित्य पुरातत्व विद्या की आधारशिला है । केवल अंग्रेजी में लिखे हुए ग्रन्थों को पढ़कर प्राचीन भारतीय इतिहास एवं कला में प्रवीणता प्राप्त नहीं की जा सकती । जबकि विदेशी विश्वविद्यालयों में यह बात नहीं है । भारतीय विद्या का अध्ययन करने के लिए संस्कृत आदि भारत की प्राचीन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है । इस सम्बन्ध में सर विलियम जोन्स, चार्ल्स विलकिन्स, हेनरी कोलब्रुक, एच. एच. विल्सन, फ्रान्ज बॉप, जेम्स प्रिंसेप, जॉन मार्शल, व्हीलर, कीथ, श्री एवं श्रीमती राइस डैविड्स, हरमान याकोबी, रिशार्ड पिशल आदि कतिपय विदेशी विद्वानों का नामोल्लेख करना पर्याप्त होगा जिन्होंने भारत की प्राचीन भाषाओं
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और साहित्य का गहन अध्ययन कर अपने-अपने क्षेत्र में वैशिष्ट्य प्राप्त किया ।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि विश्वविद्यालयों की उच्च कथाओं में पढ़ने वाले कितने ही छात्र और छात्राएँ भारत की प्राचीन संस्कृति, उसकी कला और इतिहास के ज्ञान से सर्वथा ही वंचित रहते हैं । उन्हें बम्बई के पास स्थित एलीफैण्टा टापू को त्रिमूर्ति, उड़ीसा के कोणार्क, राजस्थान के रणकपुर मन्दिर एवं दक्षिण भारत के एक से एक कलापूर्ण मन्दिरों के सम्बन्ध में अत्यन्त अल्प, नहीं के बरावर जानकारी है ।
भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तत्वावधान में जो कभी-कभार उत्खनन का कार्य चलता है उसकी जानकारी भी साधारण जन को प्रायः कम ही मिलती है। इसके सम्बन्ध में प्रायः भारीभरकम अँग्रेजी की पत्रिकाओं आदि में हो लेख प्रकाशित किये जाते हैं जो सामान्य जन की पहुँच के बाहर हैं। इसके अलावा, हमारी कितनी ही कलाकृतियाँ तो चोरी चली जाती हैं जो देश-विदेश में बहुत ऊँची कीमत पर बिकती हैं ।
सुप्रसिद्ध सम्राट् अशोक (२७४-२३७ ई. पू.) ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक जगह-जगह शिला लेख उत्कीर्ण कराये और बड़े- बड़े स्तूप स्थापित किये । लेकिन आगे चलकर हम इन ऐतिहासिक महत्वपूर्ण | स्तूपों का मूल्य आकलन करने में असमर्थ होकर इन्हें पराक्रमी भीम की लाट कहकर पुकारने लगे, या फिर शिवजी का लिंग मानकर इनकी पूजाउपासना करने लगे। बिहार राज्य में परम्परागत कितने ही मठ-मन्दिर आज भी मौजूद हैं जहाँ भक्त गणों द्वारा मूर्ति के ऊपर सतत जल प्रक्षेपण किये जाने के कारण मूर्ति का वास्तविक रूप ही भ्रष्ट हो गया है तथा चन्दन और सिन्दूर पोते जाने के कारण वह ओझल हो गया है ।
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दिल्ली-तोपरा अशोक-स्तंभ विशाल लिंग समझकर उसकी मनौती कर
और इसके निर्माण का श्रेय दिया जाता है गदा- 12 यह स्तंभ अंबाला और सरसावा (जिला सहा- धारी भीमराज को ! रनपुर) के बीच अवस्थित है जिसे लोग भीम-स्तंभ,
वैशाली की खुदाई सुवर्ण-स्तंभ, फीरोजशाह-स्तंभ आदि नामों से पूका
प्राचीनकाल में वैशाली वज्जि गणतंत्र की रते हैं । सुलतान फीरोजशाह (१३५१-१३८८ ई.) राजधानी रही है, जिस गणतंत्र को भगवान महाइस स्तंभ की गरिमा देखकर अत्यन्त प्रभावित वीर ने अपने जन्म से पवित्र किया था। विशाल d ) हआ। उसने सोचा कि अवश्य ही यह स्तंभ उसके गुणयुक्त होने के कारण इसको वैशाली कहा जाना इस महल की शोभा में चार चांद लगा सकेगा। स्वाभाविक है। सुप्रसिद्ध उज्जैनी नगरी को भी उसने इस विशाल स्तंभ को पहले दिल्ली मंगवाया, विशाला कहा गया है। संभवतः नाम सादृश्य के वहाँ से ४२ पहियों वाली बड़ी ट्रक से जमना नदी
कारण वैशाली को भगवान महावीर का जन्मस्थल के किनारे लाया गया। फिर बड़े-बड़े बजरों पर
न मानकर, उज्जैनी को उनकी जन्मभूमि कहा जाने लादकर नदी के बीचों बीच प्रवाहित कर दिया ।
लगा। कुछ लोग कुण्डलपुर (कुण्डग्गाम अथवा गया। और इसके फीरोजाबाद पहुँचने पर, पहले कण्डपर-वैशाली का एक भाग-के नाम सादृश्य से तैनात मल्लाहों ने इसे नदी में से निकालकर के कारण) को महावीर की जन्मभमि कहने लगे । शाही कर्मचारियों के सुपुर्द कर दिया। लोजिये, इससे यही पता चलता है कि प्राचीनकाल में भो सुलतान का शाही महल इस स्तंभ के लगने से जग- हम इतिहास और भूगोल के सही ज्ञान से वंचित मगा उठा।
थे । आचार्य अभयदेव जैसे विद्वान से भी इस तरह बिहार का चंपारण जिला महात्मा गांधी के की भूलें हुई हैं । अस्तु, अब तो यह निश्चय हो गया सत्याग्रह के कारण सुप्रसिद्ध है । यहाँ के लौडिया है कि महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था | (लकुट का अपभ्रंश) अरेराज और लौडिया नंदनगढ़ और इसीलिये उन्हें वैशालीय कहा गया है। नामक अशोक-स्तंभ सर्वविदित है। यहाँ के निवासी वैशाली नगरी की खोज के लिए हम में इन स्तंभों को विशाल शिवलिग समझकर इनकी जनरल एलेक्जैण्डर कनिंघम के सदा ऋणी रहेंगे पूजा-उपासना करने लगे और दोनों को लौड़ कहने जिन्होंने अपनी सूझ-बूझ से यह पता लगाने का लगे-दोनों गाँव ही लौडिया कहे जाने लगे। आगे साहस किया कि वसाढ़ नामक गाँव ही प्राचीन का चलकर जब सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता मेजर-जनरल वैशाली के रूप में मौजूद है। उनकी प्रेरणा से ही एलेक्जेण्डर कनिंघम का यहाँ आगमन हुआ तो भारत की ब्रिटिश सरकार ने भारत के पुरातत्व के उन्होंने दोनों को जुदा करने के लिए पहले को उद्धार के लिये आर्कियोलोजीकल सर्वे नामक लौडिया अरेराज (गांव के पडौस के शिवमंदिर के विभाग की स्थापना को, और इसके सर्वप्रथम डाइनाम पर) और दूसरे को लौडिया नंदनगढ़ नाम से रैक्टर बनने का सौभाग्य डा. कनिंघम को प्राप्त कहना शुरू किया। दोनों ही सुन्दर स्तंभ पालिश आ। सन १८६२ से १८८४ के बीच कनिंघम ने 45 किये हुए बलुआ पत्थर के एक ही खण्ड से निर्मित यहाँ आकर कई बार डेरा लगाया तथा आजकल किये गये हैं, जो भारत की उत्कृष्ट कला का अनु- के राजा विशाल का गढ और अशोक स्तंभ के (0 पम नमूना है । लेकिन हमें भूलना न चाहिये कि आसपास खुदाई का काम शुरू कर दिया। कहने इस उत्कृष्ट कला-सौन्दर्य से अनभिज्ञ हमारी की आवश्यकता नहीं कि इस खुदाई में उन्हें बहुत सामान्य अनपढ़ जनता इन्हें शिवजी · महाराज का सी महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई, यद्यपि फिर भी
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निश्चयपूर्वक यह कहना कठिन था कि जिस वैशाली सिद्ध हो गया है कि यह बज्जियों लिच्छवियों की ॥ 0 की वे तलाश करने में लगे हैं, वह यही है। लेकिन वही रमणीय नगरी है जिसका सरस वर्णन जैन एवं 9 | उन्होंने हिम्मत न हारी। आगे चलकर उनके बौद्धों के आगम ग्रन्थों में उपलब्ध है। उद्योग से १६०३-४ में डाक्टर टी. ब्लाख को और
पुनश्च : लेख समाप्त करने के पहले, यहाँ एक १६१३-१४ में डाक्टर डी. बी. स्पूनर को यहाँ भेजा और बात लिख देना आवश्यक है। श्वेतांबरीय गया । इस खुदाई में मिट्टी की मुहरों पर उत्कीर्णं आवश्यक चूर्णी (ईसा की ७वीं शताब्दी) के आधार |
लेखों की प्राप्ति हुई जिससे कनिंघम साहब का सपना से इन पंक्तियों के लेखक ने भगवान महावीर की पान म सार्थक सिद्ध होता हुआ दिखाई दिया। अब यह सिद्ध विस्तृत विहार-चर्या का विवरण मानचित्र के साथ TE हा गया कि यह वसाढ़ हा प्राचीन वाला है। अपनी रचनाओं “भारत के प्राचीन जैन तीर्थ" जैन र
लेकिन यह काफी नहीं था, अभी बहुत कुछ संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी, १६५०; "लाइफ की करना बाकी था। भारत सरकार आर्थिक कठिनाई इन ऐन्शियेण्ट इण्डिया ऐज डिपिक्टेड इन जैन कैनन के कारण खुदाई के काम को आगे बढ़ाने में अपनी एण्ड कमेण्टरीज," मुशीराम मनोहर लाल, नई 6 असमर्थता व्यक्त कर रही थी। इस समय हिन्दी के दिल्ली, (संशोधित संस्करण, १९८४) में प्रस्तुत किया सुप्रसिद्ध नाटककार श्री जगदीश चन्द्र माथुर, आई. है। वैशाली प्राकृत संस्थान (मुजफ्फरपुर) में | सी. एस. जो हाजीपुर के एस. डी. ओ. बनकर यहां १६५८.५६ प्रोफेसर पद पर आसीन रहकर, पद
आये थे, वैशाली के गौरव से सुपरिचित थे। उनके यात्रा द्वारा भगवान महावीर की विहार-चर्या ART प्रयत्न से १९४५ में वैशाली संघ की स्थापना की सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के सम्बन्ध में एक
गई । इस संघ की ओर से ७ हजार रुपये की रकम विस्तृत योजना संस्थान के डाइरैक्टर के समक्ष KE प्राप्त कर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के प्रस्तुत की गई थी। दुर्भाग्य से वह योजना कार्या
वरिष्ठ अधिकारी श्री कृष्णदेव के अधीक्षण में न्वित न की जा सकी । अभी हाल में उक्त संस्थान II १९५० में खुदाई का कार्य फिर से शुरू किया गया। की कार्यकारिणी का सदस्य होने के नाते, फिर से
इस बार राजा विशाल का गढ़ और चक्रम दास संस्थान के डाइरैक्टर का ध्यान आकर्षित किया o स्थानों पर ही खुदाई केन्द्रित की गई। पांचवीं बार गया, और अनुरोध किया गया कि संस्थान के
बिहार सरकार के काशीप्रसाद जायसवाल अनू- किसी शोध विद्यार्थी को शोध के लिए उक्त विषय संधान प्रतिष्ठान ने डाइरैक्टर सूप्रसिद्ध इतिहास दिया जाये जिससे कि वह छात्र वैशाली के आसतत्ववेत्ता प्रोफेसर ए. एस. आल्तेकर ने चीनी पास के प्रदेशों में पदयात्रा द्वारा भगवान महावीर यात्री श्वेन च्वांग के अभिलेखों के आधार पर की बिहार चर्या सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत कर सके। खुदाई का काम हाथ में लिया । इस समय अभिषेक इस सम्बन्ध में आरा के सुप्रसिद्ध उद्योगपति दिवंगत पुष्करिणी के पास मिट्टी के बने एक स्तूप में से सेठ निर्मल कुमार चक्रेश्वर कुमार जैन के उत्तरा
भगवान बुद्ध के शरीरावशेष की एक मंजूषा धिकारी परम उत्साही श्री सुबोध कुमार जैन को CIB मिली। आगे चलकर १९७६-७८ में भारत सरकार यथाशक्ति आर्थिक सहायता देने के लिये भी राजी
के पुरातत्व विभाग की ओर से फिर से खुदाई की किया जा सकता है। यदि यह योजना आज भी गई । यह खुदाई कोल्हुआ गांव में निर्मित अशोक सम्भव हो सके तो निश्चय ही भारतीय पुरातत्व के स्तम्भ के आस पास की गई और इस खुदाई में जो क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो सकती है। वर्तमान १.. बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हुई उससे वैशाली का समस्त में वैशाली स्थित वैशाली प्राकृत शोध संस्थान का इतिहास प्रकट हो गया। और अब यह पूर्ण रूप से यह महान् योगदान कहा जायेगा।
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डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी एम० ए०, पी-एच० डी० डी० लिट० उज्जैन (म० प्र०)
जैन-स्तोत्र-साहित्य के सन्दर्भ में । आकार-चित्ररूप स्तोत्रों का संक्षिप्त निदर्शन
-
स्तोत्र-रचना का प्रमुख उद्देश्य
बनता है । इष्टदेव का नाम-स्मरण और उसके मा विश्व-साहित्य की सृष्टि का मूल स्तुति-स्तोत्रों गुण
र गुणों का कथन किसी भी रूप में किया जाये, वह IK Rमें निहित है। यह रचना मानव के जन्म से मरण-
'स्तोत्र' ही है।
18 ' और पर्यन्त ही नहीं, अपितु मरणोत्तर की कामनाओं स्तोत्र की काव्यात्मकता
को भी अपने में समेटे हई है। इस दृष्टि से मम्मट काव्य-स्वरूप निर्धारण में रचना की 'बन्धके काव्य-लक्षण में प्रयुक्त 'शिवेतर-क्षति' पद स्तोत्र- सापेक्षता और बन्ध-निरपेक्षता' दोनों ही महत्वपूर्ण रचना के प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति करता है । संसार रीढ हैं । इसके साथ ही उक्ति-वैशिष्ट्य जब इसमें 12 की विचित्र गतिविधि के समक्ष मानव अपनी प्रविष्ट होता है तो वह काव्यात्मक स्वरूप को प्राप्त विह्वलताओं से छुटकारा पाने के लिए अपने इष्ट हो जाती है। स्तोत्र में रमविशेष का समावेश के प्रति जो काव्यमयी वाणी में कथन करता है, सहज होता है। कथा की अथवा कथन को पर
वही 'स्तुति' अथवा 'स्तोत्र' कहलाता है। इनमें स्पर-सापेक्षता अपेक्षित नहीं होती। अतः . 'सुख की आकांक्षा, कृपा की कामना, अपेक्षित की प्रार्थना, स्तोत्र को 'मुक्तकों का समूह' भी कहा जाता है । | उपेक्षणीय की निवृत्ति' आदि भावनाओं का प्रकटन बन्ध की सापेक्षता स्तोत्र के क्षेत्र में उतनी महत्वall होता है और सबके मूल में रहती है "इष्ट की पूर्ण नहीं मानी गई है और वह सम्भव भी नहीं है। प्रशंसा ।"-कृतज्ञता-ज्ञापन तथा आत्मनिवेदनरूपी होती । क्योंकि स्तोत्र में आने वाले पद्यों में से एक । दो तटों के मध्य बहती हुई स्तोत्र-सरिता में पद्य भी अपने आप में परिपूर्ण भावों को व्यक्त कर
स्तोतव्य के प्रशंसनीय गुणों का आख्यान ही स्तोत्र देता है। इतना होने पर भी स्तोत्र की काव्यात्म
१ काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिवतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥
-काव्यप्रकाश, १-१ १२ गुणकथनं हि स्तुतित्वं, गुणानामसद्भावे स्तुतित्वमेव हीयते । -शास्त्रमुक्तावली, पू. नी. १-२-७ । १ ३ प्रतिगीत-मन्त्रसाध्यं स्तोत्रम् । छन्दोबद्धस्वरूपं गूणकीर्तनं वा ।
-ललिता सहस्रनाम, सौभाग्यभास्करभाष्य, पृ. १८८ ।
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कता में सभी काव्योचित गुणों की स्थिति तो त्रगत पद्य की रचना की जाती है, तब उसे हम अवश्य ही समाविष्ट रहती है, जो काव्य की 'एक चित्रालंकार युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे और यदि
आत्मा को उल्लसित करते हैं, उसमें शिवत्व की एक ही स्तोत्र में अनेक प्रकार के चित्रालंकारों का हि । प्रतिष्ठा करते हैं और अशिवन्व की निवृत्ति के प्रयोग किया जाता हो तो उसे 'अनेक चित्रालंकार
लिए उत्प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही काव्य युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे । जैनाचार्यों ने इन दोनों शरीर को औज्ज्वल्य प्रदान करने वाले वे तत्व भी प्रकारों को अपने स्तोत्रों में अपनाया है। इस दृष्टि स्तोत्रों में पूर्णतः विकसित होते हैं जिन में साहित्य से प्रथम 'एक चित्रालंकार-युत स्तोत्र' की परम्परा
की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अलंकारों का का परिचय || साहचर्य प्राप्त किया जाता है । अलंकार 'शब्दगत, १-स्तुति विद्या : आचार्य समन्तभद्र (0) अर्थगत और शब्दार्थगत' ऐसे तीन प्रकारों में दिगम्बर जैन स्तुतिकारों में आद्य स्तुतिकार व्याप्त हैं। इनमें 'शब्दगत अलंकार' शब्द-स्वरूप
आचार्य श्री समन्तभद्र ने ईसा की द्वितीय शताब्दी की सौन्दयोपयोगी प्रयोगगत व्यवस्था से 'भाषा की
में 'स्तुति विद्या' नामक इस 'जिन-शतक' में परिष्कृत सृष्टि, नाद संसार की परिव्याप्ति, चम
चतुर्विशति जिनों की भावप्रवण स्तुति की है । यह कर त्कार-प्रवणता, भाव-तीव्रता और विशिष्ट अन्त
- पूरी स्तुति 'मुरज बन्धों' के अनेक रूप प्रस्तुत करती हूँ ष्टि का सहज आनन्द' प्राप्त करते हैं।
है। रचना 'गति-चित्रों' की भूमिका पर निर्मित होने ___वस्तु जगत् के प्रच्छन्न भावों को गति प्रदान के कारण चक्र-बन्धों की सष्टि में भी पूर्णतः समर्थ करने वाले इस शब्दालंकार के अनेक भेद-प्रभेद हैं, है। यहाँ तक कि कछ पद्य तो 'अनुलोम-विलोमरूप' उनमें 'चित्रालंकार' भी एक है । इसमें 'चित्र' शब्द
___ में भी पढ़े जाने पर एक पद्य से ही द्वितीय पद्य की 'आश्चर्य और आकृति' के अर्थ में प्रयुक्त है । वौँ सष्टि करते हैं। प्रायः सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द में हैं की की संयोजना के द्वारा श्रोता और पाठक दोनों का एक पद्य द्रष्टव्य हैविस्मित कर देना और रचनागत वैशिष्ट्य से आनन्दित कर देना इसका सहज गुण है। इसका
. रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः । ही एक प्रभेद-'आकृतिमुलक चित्रालंकार' है।
भो विभोनशनाजोरुनम्रन विजरामय ॥८६॥ यह विभिन्न आकृतियों में पद्य अथवा पद्यों को यही पद्य चौथे पद के अन्तिमाक्षर से विपरीत लिखने से प्रकट होता है । इस विशिष्ट विधा को पढ़ने पर अन्य पद्य बनता है और स्तोत्रकार आचार्यों ने बहुत ही स्वाभाविक रूप से स्तुति प्रस्तुत करता है। अपनाया है। यहाँ जैन स्तोत्रकारों द्वारा स्वीकृत २-शान्तिनाथ स्तोत्र : आचार्य गुणभद्र चित्रालंकार-मूलक स्तोत्रों में 'आकार-चित्ररूप स्तोत्रों
दिगम्बर सम्प्रदाय के ही आचार्य गुणभद्र ने का संक्षिप्त निदर्शन' प्रस्तुत है।
आठवीं शताब्दी में एक 'शान्तिनाथ-स्तोत्र' की आकार चित्रकार
न-स्तोत्र
रचना की जिसमें 'अष्टदल कमलबन्ध' की रचना की 'आकार-चित्र-काव्य' में किसी एक प्रकार- है जिसमें पंखडियों में ३-३ अक्षर और मध्यकणिका विशेष को ध्यान में रखकर स्तोत्र की अथवा स्तो- में एक अक्षर 'न' श्लिष्ट है । यथा
SHREE
वस्तुत: 'चित्रालंकार' के परिवेष में-१-स्वर, २--स्थान, ३-वर्ण, ४---गति, ५-प्रहेलिका, ६-च्युत, ७-गूढ, ८-प्रश्नोत्तर, 8-समस्या-पूर्ति, १०-भाषा और ११---आकार आदि मुख्य भेद एवं इन प्रत्येक के विविध उपभेद हैं । द्रष्टव्य-'शब्दालंकार-साहित्य का समीक्षात्मक सर्वेक्षण, पृ० १२६ से १३४ ।
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J.
पद्माभेन धृतो येन समयो नयपावनः । ५-पञ्चजिन हार-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि स्वर्लोकेन कृतामानः पूयाज्जिनः स नो मनः ॥७।। कूलमण्डन सरि १३वीं शती ई. के अन्तिम
इत्यादि। चरण में हुए थे। आपने अनेक स्तोत्रों की रचना की | ३- सर्वजिन-स्तव : श्री धर्मघोष सूरि
थी। उनमें उपर्युक्त स्तोत्र २३ पद्यों में निर्मित है। प्रस्तुत स्तोत्र द्वारा कवि ने चौबीस दलवाले इसमें ४ पद्य ऋषभ, ४ शान्ति, ५ नेमि, ४ पार्श्व RO) 'कमल-बन्ध' की योजना की है। इसमें कूल ८ पद्य और ४ महावीर से सम्बद्ध हैं। 'हार-बन्ध' की IKE हैं जिनमें अन्तिम पद्य पुष्पिका-रूप है। पहला पद्य योजना पुष्पमाला के समान है तथा उसमें कहीं परिधि में लिखा जाता है अन्य छह पद्यों के प्रत्येक छोटे और कहीं बड़े पुष्प हैं, इसके कारण उनके दलों चरण के तीन-तीन खण्ड एक-एक पत्र में रहते हैं। की संख्या भी विषम है। मध्य में एक स्वस्तिक के चरण में ५-५ और ६ अक्षरों के बाद के अक्षर तीन आकार वाला चन्द्रक (लॉकेट) भी है । इस दृष्टि से बार आवृत्त होते हैं जो २४ लघुकणिकाओं में निवष्ट यह बन्ध अति श्रम साध्य तो है ही। इसका प्रारम्भहैं । प्रथम पद्य इस प्रकार है
पद्य इस प्रकार हैनम्राखण्डल मौलिमण्डलमिलन्मन्दारमालोच्छलत्
गरीयो गुणश्रेण्यरेणं प्रवीणं,
परार्थे जगन्नाथ धर्म धुरीणम् । सान्द्रामन्द मरन्दपूर सुरभीभूतक्रमाम्भोरुहान् ।
धराधारमादिप्रभो रंगरम्यं, श्रीनाभिप्रभवप्रभुप्रभृतिकाँस्तीर्थकरान् शंकरान् स्तोष्ये साम्प्रत काललब्ध जननान् भक्त्या चतुर्विशतिम्
स्तुवे त्वां बुधध्येय धौतारिवारम् ॥१॥
॥१॥ ६-श्री वीर हरि-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि श्री धर्मघोष सूरि श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के इस स्तव में कवि ने विविध छन्दों का प्रयोग आचार्य थे तथा इनका समय सन् १२२८ ई० माना करते हुए १७ पद्यों में 'हार-बन्ध' की रचना की है। जाता है।
हार में २० मणियाँ हैं । बीच में २-२ चतुर्दलात्मक ४-सर्वजिन साधारण स्तवन : श्री धर्मशेखर पंडित पुष्प, मध्य में 'नायक दल' और उस पर सप्तदल
पुष्प तथा मध्य में दोरक ग्रन्थि है। पण्डित प्रवर श्री धर्मशेखर का यह स्तोत्र २१ पद्यों में निर्मित है। इसमें कवि ने '६४ दलवाले
: ७-श्री वीरजिन स्तुति : श्री कुलमण्डन सूरि कमलबन्ध' की योजना की है। अन्तिम पद्य परिधि
इस स्तुति में पहला और इक्कीसवाँ । T रूप है। इनका समय सन् १४४३ ई० (?) माना
ME
लविक्रीडित में हैं तथा अन्य पद्य २ से १६ तक अनु- TR गया है, किन्तु कुछ विद्वान इन्हें १३वीं शती का ष्टुप् में छन्द हैं । अन्तिम पद्य में विशेष रूप से १६ मानते हैं । रचना में गाम्भीर्य और कौशल दोनों
" बन्धों द्वारा श्रीवीर की स्तुति करने का परिचय भी
दिया है। किन्तु यह 'अष्टादशार चक्रबन्धमय स्तुति' है । ही स्पृहणीय हैं । यथा
इसमें कणिकाक्षर 'त' है और उसी से सभी पद्यों जीयास्त्वं देव भद्र प्रवर कुट जगच्चन्द्र देवेन्द्रवन्धः । का आरम्भ होता है। इस प्रकार यह स्तति अत्यन्त काल) श्री विद्यानन्द दान-प्रवर-गुणनिधे धर्मघोष प्रवीणः ।। महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें 'एक चित्र बन्धरूप' और मुक्तासोम प्रभाली-धवल गुरुयशोनाथ नि:शेषविश्वं, 'अनेक चित्रबन्धरूप' दोनों प्रक्रियाओं का प्रयोग हुआ स्फारस्फूर्जत् प्रभावः शमदमपरमानन्दयाशु प्रकामम् ।।७॥ है। इसका और भी एक महत्व स्मरणीय है कि
१ इस स्तव का मूलपाठ हमने 'महावीर परिनिर्वाण स्मृति ग्रन्य' (लालबहादुर शास्त्री) केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ,
नई दिल्ली, से प्रकाशित में 'महावीरस्य चित्रकाव्यार्चना' में दिया है।
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द इसके चित्रण ने जो चक्र बनता है, उसके स्वरों में श्री वर्धमानं ह्यभिनौम्यमानममानदेवैः परिणूयमानम् ।
लिखित अर्धालियों में क्रमशः ४, ८, १२ और १६ अहं महं तं सुगुणैरनन्तं पवित्रछत्राकृति-काव्यबन्धात् ।। संख्या के अक्षर चक्रावर्तित क्रम से एकत्र करने पर उनसे एक शार्दूलविक्रीडित पद्य भी पृथक् बनता है।
-- कमल-बन्ध-स्तवः श्री उदयधर्मगणि १ जिसका पहला अक्षर श्लिष्ट होकर १९वें अक्षर के इस कृति का पूरा नाम 'महावीर जिन स्तवन'
रूप में प्रयुक्त होता है। इसका द्वितीय पद्य इस है। १३वीं शताब्दी के बृहत् तपागच्छीय रत्नसिंह प्रकार है
सूरि के शिष्य श्री उदयधर्म गणि द्वारा निर्मित यह र तनुते यन्नति जम्भजिद्राजी मुद्रिता दूतम् । स्तवन १८ पद्यों का है। १६ पद्यों से ३२ दलों का
तं स्तुवे बीततन्द्राजी-भयं भावेन भास्वता ।।१।। कमलबन्ध' बनता है और सत्रहवां पद्य परिधि में (ER इस पद्य से 'मुशल बन्ध' भी बनता है। रुद्रट कवि लिखा जाता है, जिसके कुछ अक्षर पत्राक्षरों से । ने इस प्रकार के 'अष्टार चकबन्ध' का उदाहरण दिया।
श्लिष्ट होते हैं । इस पद्य से कविनाम, काव्यनाम है और उसी से प्रेरित होकर यह स्तति १८ अक्षर और गुरुनाम भी प्राप्त होते हैं । यथातक पहुँचाई है । इसमें जो अन्य बन्ध बनते हैं, उन ।
सन्नमत त्रिदशवन्द्यपदं श्रीवर्द्धमानममलं विजित्तारम् । का सूचन निम्नलिखित पद्य में द्रष्टव्य है
संस्तवीमि भवसागरपारं प्राप्तुरिच्छरुरु सद्गुणरत्नम् ।२।
अन्तिम पद्य पुष्पिकारूप है, जो 'श्री सिद्धार्थचक्रोऽयोमुख-शूल-शङ ख-सहिते सुश्रीकरी-चामरे,
नरेन्द्र नन्दन' इत्यादि पद से प्रारम्भ होता है। ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ सीरं भल्ल-शरासने असिलता शक्त्यातपत्रे रथः। १०-श्री वीरजिन-स्तव-श्री जिनप्रभ सूरि १४ १५ १६ १७ १८ १९ श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य श्री का कुम्भार्धम्रम-पड कजानि च शरस्तस्मात् त्रिशूलाशनी, जिनप्रभ के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि वे 'प्रतिचित्ररेभिरभिष्टुतः शुमधियां वीर ! त्वमेधिश्रिये।२०। दिन एक स्तुति की रचना करके ही आहार ग्रहण
वस्तुतः इस स्तुति में १८ अन्य चित्र बन्ध हैं करते थे ।' इनकी सात सौ स्तुतियाँ थीं, जिनमें से । और १ यह महाचक्र बन्ध बनता है। अतएव इसे अब कुछ ही प्राप्त हैं। उनमें भी आकार चित्रकाव्य 'अष्टादश-चित्र-चक्र-विमलं' कहा ग
रूप स्तुतियों में उपर्युक्त स्तोत्र अनेक चित्र-काव्यों
___ से संश्लिष्ट है । इसकी रचना में-'कमल (८ दल ८-वर्धमानजिन-स्तवः : श्रीधर्मसुन्दर(सिद्धार और २४), खडग, चक्र (षडर), चामर, त्रिशूल, ____ इसी शती के कनकसूरि के शिष्य धर्मसुन्दर धनुष, पद, बीजपूर, मुरज, मुशल, शक्ति, शर, एक द्वारा रचित वर्धमानजिन स्तव 'आतपत्र-बन्धमय हल, हार आदि बन्ध तथा लोम-विलोम पद्य, है। यह साधारण छत्र-बन्धों की अपेक्षा अपना निर्मिल हैं । विशेषतः यहाँ स्तुत्यनामगर्भ बीजपूर विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें १५ पद्य हैं और और कविनाम गुप्त षडरचक्र-तथा चामर बन्धों इसका चित्रण सिंहासन सहित उस पर लगे हुए की योजना महत्वपूर्ण है । स्तोत्र के प्रारम्भ में चित्र छत्र के समान है। इसका प्रथम पद्य इस प्रकार स्तवन की प्रतिज्ञा श्री जिन भ सूरि ने इस प्रकार
की है
१-२ इनके भी मूल शुद्ध पाठ वहीं द्रष्टव्य हैं।
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चित्र: स्तोष्ये जिनं वीरं, चित्रकृच्चरितं मुदा । प्रतिलोमानुलोमाद्यैः, स्वङ गाद्यैश्चारुभिः ॥ 'चामर-बन्ध' का पद्य इस प्रकार है
श्रीमद्धामसमग्रविग्रह ! मया चित्रस्तवेनामुना, नूतस्त्वं पुरुहूतपूजित विभो सद्यः प्रसद्येधि माम् । ख्यात ज्ञातकुलावतंस सकलत्रैलोक्य- क्लृप्तान्तरस्फार क्रूरतरज्वरस्मरतरत्संरब्धरक्षारत ! ।।२७ । इस प्रकार अपूर्व प्रतिभा के धनी आचार्य जिन प्रभसूरि के स्तोत्र अत्यन्त महनीय गुणों से मण्डित हैं । इनका स्थिति-काल १३०८ ई. का है ।
११ - वीरजिन स्तोत्र - श्रीसोमतिलक सूरि
कविवर सोमप्रभसूरि के पट्टधर, १३वीं शती के समर्थ आचार्य श्री सोमतिलक सूरि ने अन्यान्य अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त 'वीरजिनस्तोत्र' के नाम से चित्रकाव्यात्मक स्तोत्र बनाया है । इसमें विविध दल वाले विभिन्न कमल - बन्धात्मक पद्य हैं । कवि ने स्वयं कहा है
चतुरष्ट षोडश-द्वात्रिंशच्चतुरधिकषष्टिदलं कलितम् । श्रीवीरस्तुति कमलं मवयतु सहृदयजनालि-कुलम् ||१०||
इस स्तोत्र के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षरों का चयन करने पर एक पद्य बनता है जिसमें गुरुनाम, कविनाम और स्तोत्र - प्रकार का निर्देश किया गया है -
श्रीसोमप्रभसूरीश पादाम्भोज प्रसादतः । श्रीसोमतिलकसूरिरकृत स्तुति- पङ्कजम् ॥ इनके अन्य स्तोत्र भी रचना वैशिष्ट्य के कारण स्पृहणीय हैं ।
१२ -- जिनस्तोत्ररत्नकोश - मुनि सुन्दरसूरि
मुनि सुन्दरसूरि सहस्रावधानी थे। आपने 'जिन स्तोत्ररत्न कोश', जिनस्तोत्र महाहद, सूरिमन्त्रस्तोत्र, तपागच्छपट्टावली और 'त्रिदशतरङ्गिणी' आदि ग्रन्थों की रचना की थी । चौदहवीं शती के प्रथम चरण में आपने जो विज्ञप्ति-काव्य पत्र के रूप में
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लिखकर अपने गुरु देवसुन्दर सूरि के पास भेजा था, उसके सम्बन्ध में हर्ष भूषणमुनि ने 'श्राद्ध विधि-विनिश्चय' में लिखा है कि वह १०८ हाथ लम्बा था और उसमें अनेक चित्रकाव्य अङ्कित थे । उपर्युक्त स्तोत्र भी उसी में था । सम्पूर्ण त्रिदशतरङ्गिणी में लिखित ऐसे स्तोत्रों में ३०० चित्र बन्धों की योजना थी, जिनमें - प्रासाद, पद्म, चक्र, चित्राक्षर, अर्धभ्रम सर्वतोभद्र, मुरज, सिंहासन, अशोक, भेरी, समवसरण, सरोवर, अष्टमहाप्रातिहार्य आदि विशिष्ट हैं ।
१३ -- विज्ञप्ति त्रिवेणी - उपाध्याय श्री जयसागर
सन् १४२७ के निकट वर्तमान उपा० श्री जयसागर ने इस त्रिवेणी सरस्वती, गङ्गा और यमुनानामक तीन वेणियों में विज्ञप्ति प्रेषित की है । इसमें मुक्तक-प्रासङ्गिक स्तोत्रों के रूप में छत्र, कमल, गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, बीजपूर, आसन, चामर, अष्टारचक्र, स्वस्तिक आदि चित्रालङ्कारों को योजना की है । यह पूरो रचना १०१२ श्लोकप्रमाण है।
१४ -- चतुर्हारावली - चित्रस्तव - श्रीजयशेखर सूरि
प्रस्तुत रचना १५वीं शती के आरम्भ की है । यह चार हारावलियों में विभक्त है तथा प्रत्येक में १४-१४ पद्य हैं । इनमें क्रमशः वर्तमान, अतीतअनागत और विहरमाण तीर्थङ्करों की चौबीसियों की स्तुतियाँ हैं । अन्तिम पद्य चारों हारावलियों के समान हैं । इसकी विशेषता यह है कि पूर्व और पश्चिम के एक-एक तीर्थङ्कर नाम के अक्षररूप हार से यह ग्रथित है । चार-चार चरणों के आद्यक्षरों से 'श्री ऋषभ', अन्त्याक्षरों से 'महावीर' आदि नाम निकलते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक हारावली का १३ वाँ पद्य अन्य चित्रबन्धों की भी सृष्टि करता है, जिनसे २४ दल कमल, स्वस्तिक, वज्र और बन्धुक स्वस्तिक बन्ध बनते हैं ।
१५ - अष्टमङ्गल चित्र ( बन्ध) स्तव - श्री उदय माणिक्य गणि
दस पद्यों से निर्मित यह स्तव जैन धर्म में
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प्रसिद्ध १ - दर्पण, २ - भद्रासन, ३- शराव- सम्पुट ४ - मत्स्य युगल, ५ – कलश, ६ - स्वस्तिक ७ - श्री वत्स और ८ - चामरयुगल' की अष्टमङ्गलों की आकृतियों में बनाये गये स्तुति-पद्यों से अलंकृत है । इस प्रकार के आकार - चित्र पद्य कवि के द्वारा स्वप्रतिभा से प्रथम ही निर्मित हुए हैं। इन पद्यों के पठन का क्रम कवि ने नहीं दिखलाया है | अतः हमने अपने ग्रन्थ "चित्रालंकार- चन्द्रिका" में इनके लक्षण-पद्य बना दिये हैं । रचना अत्युत्तम है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है
चन्द्रातपप्राय सुकीतिरामं, चन्द्रानन सारगुणाभिरामम् । यः स्तौति चन्द्रप्रभमस्त सारं यमीस आप्नोति भवाब्धि पारम् ||३|| इसका निवेश 'शराव- सम्पुट' में किया गया है । रचनाकार का समय १५ वीं शती माना गया है । १६- शतदल कमल बन्धमय- पार्श्वजिनेश्वर - स्तुति श्री सहजकति गणि
यह स्तुति २६ पद्यों में रचित है जिनमें २५ पद्यों से १०० दल वाले कमल की आकृति में बन्धपूर्ति की गई है तथा अन्तिम पद्य पुष्पिका रूप है । यह स्तोत्र लोधपुर (गुजरात) में एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्णं है । कुछ अंश खण्डित भी हो गया है, जिसकी पूर्ति हमने अपने शोध-प्रबन्ध में कर आकृति - सहित मुद्रित किया है और लक्षण भी बना दिया है । इसका आद्यपद्य इस प्रकार हैश्रीनिवासं सुरश्रेण्यसेव्य क्रम,
वामकामाग्नि-सन्ताप नीरोपमम् ।
माधवेशादि - देवाधिकोपक्रम,
तस्वसंज्ञानविज्ञानमव्याश्रमन् ||३||
यहाँ कणिका में 'म' अक्षर के साथ अनुस्वार, विसर्ग अथवा केवलाक्षर सम्बुद्ध यन्त आदि के रूप में पढ़ा जाता है जो चित्रकाव्य के लिये दोष नहीं माना जाता है। इसकी रचना १५४२ ई० में हुई है । छन्द प्रयोगों में वैविध्य है । प्रत्येक चरण को एक - एक दल में लिख कर अन्तिम अक्षर को श्लिष्ट
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बनाया है जो १०० बार पढ़ा जाता है । कवि ने पुष्पिका में लिखा है
इत्थं पार्श्वजिनेश्वरो भुवनदिक्कुम्भ्यङ्गचन्द्रात्मके,
वर्षे वाचकरत्नसार कृपया राका दिने कार्तिके ।. मासे लोद्रपुररस्थितः शतदलोपेतेन पटुमन सन्, नूतोऽयं सहजादि कीर्तिगणिना कल्याणमालाप्रदः ||२६|| १७-१८ - शृङ्खला और हारबन्धमय पार्श्वनाथ स्तोत्र - श्री समयसुन्दरगणि
सन् १५६४ से १६४३ ई० में विराजमान श्री समयसुन्दर गणि ने अनेक स्तोत्रों की रचना की है। उनमें उपर्युक्त दो स्तोत्र चित्र बन्धमय हैं । ये 'समय- सुन्दर-कृति - कुसुमाञ्जलि' में नाहटा - बन्धु द्वारा प्रकाशित हैं ।
१६ - सहस्रदल कमल बन्धरूप- अरनाथ स्तव-श्री वल्लभ गणि
वनवैभवात्मक चित्रबन्ध काव्यों की परम्परा में आश्चर्यकारी कीर्तिमान स्थापित करने वाला यह स्तोत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है । खरतरगच्छ के ज्ञानविमल मणि के शिष्य, वाचक श्रीवल्लभ गणि ने इस स्तोत्र में अरनाथ स्वामी की स्तुति की है । १००० दल के कमल में ५५ पद्य समाविष्ट है । प्रत्येक पद्य की वर्ण योजना इस प्रकार की गई है कि दो-दो अक्षरों के बाद तीसरा अक्षर 'र' ही आता है जो कणिका में श्लिष्ट होकर एक हजार बार पढ़ा जाता है । इस महान् प्रयास की सिद्धि के लिये कवि ने 'एकाक्षरी कोश' का भी आश्रय लिया है । लेखक ने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी बनाई है । हमने इसके खण्डितांशों को पूर्ण करके आकृति के अभाव की भी पूर्ति की है तथा पठन प्रक्रिया ज्ञान के लिये लक्षण भी बनाया है । दृष्टव्य- 'संस्कृत साहित्य में शब्दालंकार' शीर्षक शोध-प्रबंध | इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है
असुर- निर्जर-बन्धुर- शेखर- प्रचुरभव्यरजोभिरयं जिरम् । क्रमरजं शिरसा सरसं वरं,
जित-रमेश्वर - मेदुर- शङ्करम् ॥१॥
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२०- शान्ति - जिन स्तुति - ( महास्वस्तिक बन्धमयी) - अज्ञात कवि
किसी अज्ञात रचनाकार ने इस स्तुति का निर्माण किया है। इसके पद्यों से " महास्वस्तिक बन्ध' की रचना होती है । आकृति में स्वस्तिक, कोणयष्टि, परिधि और विदिक् चतुष्कोणों का समावेश है । सन्धि स्थल और कणिका में निहित अक्षर श्लिष्ट हैं । उदाहरण के लिये एक पद्य दर्शनीय है
कल्याणकेलिकदलीगृहसं निवासं, संसारपारकरणककला विलासम् । संवेगरङ्ग गणसंनिहितप्रियासं, संसारिणां सुखकरं निखिलं जिनेनम् ॥ इस स्तुति का चित्राकार ही प्राप्त हुआ है और उसके कोने कट गये हैं, तथापि हमने इसकी पूर्ति ' करके लक्षण- सहित “ सङ्गमनी" पत्रिका में"चित्रबन्ध साहित्ये स्वस्तिक बन्धाः " नामक लेख में प्रकाशित किया है ।
२१- पार्श्वनाथ - स्तव - जिनभद्र सूरि
सन् १६३३ ई० के निकट १८ पद्यों में इस स्तव की रचना हुई है । इसमें जिन चित्रबन्धों की रचना हुई है, उसका निर्देश कवि ने प्रथम पद्य में ही इस प्रकार कर दिया है
चक्रेण ध्वजचामरे सुरुचिरे छत्रोत्पले दीपिकामुद्दामासनदर्पणौ च दधता श्रीवत्सशङ खावपि । घण्टाहारलतां विमानमनघं सत्तोरणं स्वस्तिकं, प्रेङ खन्तं कलशं सुरेन्द्रसहितं श्रीपार्श्वनाथं स्तुवे ॥ १॥ शेष १८ पद्यों से १८ बन्ध बनते हैं । 'दीपिका - बन्ध' का पद्य इस प्रकार है
सदा समसमापाय-हरामाय वचस्तव । वरानराणां धीराणां स्तुत्यराव श्रये धनम् ||७|| स्तव - इन्द्र
२२- नागपाशबन्धमय - महावीर सौभाग्यगणि
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इसकी रचना की है। अजितसेन ने 'अलङ्कारचिन्तामणि' में जो 'नागपाश चित्रबन्ध' दिया है, उसकी अपेक्षा इसकी रचना-पद्धति विशिष्ट है । इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है ।
श्रीमद्वीर जिनाधीशं शङ्करं जगदीश्वरम् । रम्यच्छवि- कनकाभं भजध्वं सुरपूजितम् || २३ - साधारण - जिनस्तव - अज्ञात कर्त क
यह स्तुति किसी प्राचीन आचार्य द्वारा अनेक विचित्रबन्धों से निर्मित है । इसमें छत्र, सिंहासन, चामर आदि के चित्रबन्ध पद्य बनाये हैं । ऐसे ही कुछ अन्य नवीन बन्धों की सृष्टि में भी कवि ने मौलिकता प्रदर्शित की है और इसके अनुकरण की प्रेरणा भी दी है । यह स्तुति अप्रकाशित है और हमें भी पुण्यविजय जी महाराज द्वारा प्राप्त हुई थी । एक-दो पद्य उदाहरण के लिए दर्शनीय हैं
तपोवीर रमाधीश शर्म-कानन-वारिद । दक्ष कक्ष क्षमाक्षन्तः शमिशैक्षविभो जय || १ || ( छत्रबन्ध )
देवदेव स्फुरज्ज्ञान मनोरम-महोदय । यशसा सारयत्वार्य जय संनय गीश्चिरम् ||७| ( पूर्णकलश बन्ध ) - चतुविशति - जिनस्तुति - विविध चित्रबन्धमयअज्ञातकर्त
२४-
गदा,
यह स्तुति भी किन्हीं प्राचीन आचार्य द्वारा निर्मित है । इसमें - 'ओङ्कार, ह्रीङ्कार, नमः, शङ्ख, सुदर्शनचक्रबन्ध, हार, गोमूत्रिका, दर्पण, सुसक, रवि, चन्द्र, वज्र, बीजपूर, खड्ग, शर, धनुष्, छुरिका, हल, कमल, नागपाश, तूणीर, स्वस्तिक और त्रिशूल' आदि चित्र-बन्धों के पद्य दिये हैं । यह स्तुति अपने विविध नये-नये बन्धों की निर्मिति से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह भी अब तक प्रकाशित है और हमने इसका सम्पादन किया
सत्रहवीं शती में पद्यों में इन्द्रसौभाग्यगणि ने है । इसके एक-दो पद्य इस प्रकार हैं
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मुक्तेः पदं विपदमानवदानधर्म,
आचार्य श्री नथमल मुनि और आचार्य श्री तुलसी ॥ मायाभिमानदजनप्रिय लब्धशातम् ।
जी के मार्गानुयायी साधु-साध्वीजी द्वारा भी कुछ 12 त्वं देहि विश्वततकान्तिविराजमानं,
ऐसी स्तुतियों और प्रकीर्ण बन्धों की रचनाएँ हुई | कासारजन्ममुखयत्नकरोदयाय ।।२।। (ह्रीं-बन्ध) हैं जिन्हें उनके हस्तलिखित पत्रिकाओं में देखा जा कलुषपङ्कखरांशनिभं जिनं,
सकता है। नमत पारगतं नलिनद्युतिम्
श्वेताम्बर स्थानकवासी विद्वान साधू जनिमहीरूह-मत्तगजोपम,
की भी इसी प्रकार की रचनाएं यत्र-तत्र प्राप्त हैं। II कजमुखं विमलं सदयं सदा ॥३॥
मूर्तिपूजक साधुवर्ग में भी ऐसी रचनाएं बनी हैं। 12 अन्य अप्रकाशित चित्र-बन्धमय स्तुति-स्तोत्र
इनमें मैं मुनि धुरन्धरविजय जी (श्री प्रेमसूरि जी || ___ भारतीय वाङमय की इस अभिनव-शैली को
के संघ के) का नाम देना चाहूँगा । इन मुनिजी में
चित्र-बन्ध काव्य रचना का गुण सहज प्राप्त है। उर्वरित रखने के अनेकानेक जैन आचार्यों और
बहुत छोटी आयु में ही अपने आचार्यश्री प्रेमसूरिजी I कवियों ने पर्याप्त प्रयास किया है । खेद का विषय :
के प्रति दो 'विज्ञप्ति-पत्र' लिखे हैं जिसमें प्रथम में ५ यह है कि इस दिशा में विद्वानों का विशेष ध्यान
चित्रबन्ध और द्वितीय में ३५० चित्र-बन्धों की योजना 102 और प्रयास न होने से शताधिक स्तुतिकाव्य आज
है । भटेवा-पार्श्वनाथ-चित्र-स्तोत्र (अष्टप्राति-IN भी अप्रकाशित और अपरिचित पड़े हुए हैं। हमने
हार्य-स्तव) इनका महत्वपूर्ण है। 'अजित शान्ति- री इस दिशा में जब प्रयास किया तो कुछ स्तोत्र हमें
स्तव' के चित्रबन्धों का उन्मीलन भी आपने ही और भी प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ के नाम इस किया है. जिसका संशोधन सम्मान्य श्री पुण्यविजय KE प्रकार हैं
जी महाराज के आग्रह से हमने किया था। इसी १. जिनस्तुति-अनेकचित्रबन्धमयी-उदयवल्लभ- प्रकार स्व० मुनिराज श्री अभयसागरजी महाराज गणि, २. श्रीपार्श्वनाथस्तव-कल्पवृक्षबन्धमय, की प्रेरणा से कुछ जैन-स्तोत्रों की रचनाएँ की हैं, ३. पार्श्वनाथस्तव-३२ दलकमलबन्धमय, ४. चित्र- जिनमें 'भटेवा-पावं जिन-चित्रस्तव' की सं. २०२४ बन्ध स्तोत्र-गुणभद्र ५. साधारण जिनस्तव-अनेक में की है जिसमें-.१२ दलकमल, दर्पण, श्रीवत्स, बन्धमय, ६. श्री हीरविजय-सूरिस्वाध्याय-अनेक स्वस्तिक, सिंहासन, शरावसम्पुट, मत्स्ययुगल,
चित्रबन्धमय, ७. वर्धमानजिनस्तव ३२ दलकमल- कलश और छत्र-बन्ध हैं। इसमें ११ पद्य हैं। || बन्धमय, ८. पार्श्वनाथस्तोत्र-चलच्छृङखलागर्भ, चित्र-बन्धात्मक स्तोत्रों के परिसर म यह केवल
६. आदिनाथस्तव-कामघटबन्धमय, १०. सीमन्धर- 'आकार-चित्ररूप संक्षिप्त आकलन' है। चूंकि चित्रालस्वामिस्तवन-चक्रबन्धमय, ११. अजित-शान्तिस्तव- कार की परिधि में -स्वर, स्थान, वर्ण, गति, प्रहेअनेक चित्तबन्धमय (अर्धमागधी) नन्दिषेणकृत तथा लिका, च्युत, गूढ, प्रश्नोत्तर, समस्या, भाषा और आधुनिक विभिन्न जैन पन्थानुयायी दिगम्बर, आकार-चित्र एवं इनके अनेक भेद-प्रभेद भी आते हैं, || श्वेताम्बर (स्थानक एवं मन्दिरमार्गी) साधु, उपा- अतः इन सभी प्रकारों को स्तुतियों का भी समावेश ध्याय और आचार्यों द्वारा निमित जैन स्तोत्र । किया जाए तो यह जैन-सम्प्रदाय के एक महान्
दाय को विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत कर संस्कृतसाम्प्रतिक स्थिति
स्तुति-साहित्य की परम्परा में अभूतपूर्व कोर्तिमान । वर्तमान वर्षों में भी वैसे तो यह धारा सूखी स्थापित करने का गौरव प्राप्त कर सकेगा। नहीं है, किन्तु क्षीण अवश्य होती दिखाई देती है।
(शेष पृष्ठ ३७४ पर)
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डा० परमेश्वर झा. यूनिवसिटी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, गणित विभाग, बी. एस. एस. कालेज, सुपौल, सहर
भारतीय गणित के अंध युग में
जैनाचार्यों की उपलब्धियाँ
भारतीय संस्कृति अति प्राचीन है, इसकी समृद्ध विधियों का विवेचन किया गया है । एक लम्बी परम्परा है। यहाँ के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ हैं अवधि के बाद वक्षाली हस्तलिपि (२०० ई० लगवेद (३००० ई० पू०)। तत्पश्चात् ब्राह्मण ग्रन्थ, भग) की रचना हुई, जिससे प्राचीन भारत के अंकउपनिषद्, पुराण, वाल्मीकि रामायण एवं महा- गणित एवं बीजगणित के विकास पर प्रचुर मात्रा भारत जैसे अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना में प्रकाश मिलता है। फिर ४वीं शताब्दी के लगहुई । इन ग्रन्थों में आध्यात्मिक सिद्धान्तों के साथ- भग सौर, पोलिश, रोमक, वाशिष्ठ एवं पैतामहसाथ वैज्ञानिक तथ्य भी बीज रूप में पाए जाते हैं। इन पाँच प्रमुख सिद्धान्तों का निर्माण हुआ। ५वीं ज्योतिर्विज्ञान एवं गणित की नींव भी धार्मिक शताब्दी से १२वीं शताब्दी का काल भारतीय कार्यों के सम्पादन के लिए ही पड़ी । ऋग्वेद, शत- गणित का स्वर्ण युग है जिस अवधि में आर्यभट पथ ब्राह्मण, यजुर्वेद, मैत्रायणी एवं तैत्तिरीय संहि- (४०६ ई०), ब्रह्मगुप्त, भास्कर प्रथम, लल्ल, श्रीधराताओं में ग्रहण, व्यतीपात, मुहूर्त, नक्षत्र-गणना, चार्य, महावीराचार्य, श्रीपति, भास्कराचार्य (१११४ अंक-संज्ञाओं की सूची, विभिन्न प्रकार के भिन्न, ई०) जैसे अनेकानेक प्रतिभासम्पन्न गणितज्ञों एवं द्विघातीय समीकरण के साधन आदि विषयों का भी ज्योतिर्विदों का प्रादुर्भाव हुआ। इन विद्वानों ने
समावेश है। पुनः ज्योतिर्विज्ञान सम्बन्धी स्वतन्त्र ज्योतिष एवं गणित में अनेक ऐसे मौलिक एवं । ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष (१२०० ई०प०) की रचना वैज्ञानिक सिद्धान्तों-सत्रों की स्थापना को जिनका IC
हुई। तत्पश्चात् ८००-५०० ई० पू० के काल में आविष्कार अन्य देशों में सैकड़ों वर्षों बाद हुआ। बौधायन, आपस्तम्ब, कात्यायन, मंत्रायण आदि ५वीं शताब्दी ईसा पूर्व से ५वीं शताब्दी ईस्वी शुल्व-सूत्रों का निर्माण हुआ जहाँ वेदियों की संर- की अवधि में क्या यहाँ गणित में कोई मौलिक कार्य चना के क्रम में अनेक ज्यामितीय रचनाओं, द्विघा- नहीं किया जा सका ? क्या किसी गणितीय ग्रन्थ तीय एवं युगपद अनिणिति समीकरणों के हल की की रचना नहीं की जा सकी ? भारतीय गणित का
OGR90989092009RDS
१. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य शंकर बालकृष्ण दीक्षित, भारतीय ज्योतिष, लखनऊ, १९६३, पृ० १-६३ एवं
बी. बी. दत्ता एण्ड ए. एन. सिंह, हिस्टरी आफ हिन्दू मैथमैटिक्स, भाग १, बम्बई, १९६२, पृ. ६ एवं १८५ २ द्रष्टव्य बी. बी. दत्ता, दि साइन्स आफ दी शुल्व, कलकत्ता, १६३२ एवं सत्य प्रकाश तथा उषा ज्योतिष्मती, दि
शुल्ब सूत्राज, इलाहाबाद, १९७६
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स्वर्ण युग क्या एकबारगी आ गया ? आदि प्रश्न योगों (समूहों) में विभाजित किया गया है जिनमें स्वाभाविक रूप से उठते हैं । ऐसे प्रश्नों के समी- एक करणानुयोग है, जिसे गणितानुयोग भी कहा चीन उत्तर के लिए हमें इस काल की रचनाओं का जाता है। गणितीय साधनों द्वारा सृष्टि-संरचना
अवलोकन करना होगा। इस अवधि में रचित को स्पष्ट करना तथा कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या HREE पिंगल के छन्द सूत्र (२०० ई० पू०), बौद्ध साहित्य- करना जैनाचार्यों का प्रमुख दृष्टिकोण है । इसलिए
ललित विस्तर (प्रथम शताब्दी ई० पू०) आदि रच मात्र करणानुयोग का ही नहीं अपितु द्रव्यानुयोग नाओं में बीजगणितीय सिद्धान्तों का समावेश है के ग्रन्थों का भी अध्ययन गणित के परिपक्व ज्ञान
तथा बड़ी-बड़ी संख्याओं (यथा लल्लक्षण = १०७3 के बिना सम्भव नहीं है। जैन गणितज्ञ महावीरा271 की चची है, पर जिन ग्रन्थों में गणितीय सामग्री चार्य ने गणित की महत्ता बतलाते हुए कहा | (ER प्रचुर मात्रा में मिलती है वे हैं जैन आगम ग्रन्थ । है
ये ग्रन्थ भारतीय गणित की श्रृंखला की टूटी हई लौकिक वैदिके वापि तथा सामायिकेऽपि यः । 78 कड़ी को जोड़ने का कार्य करते हैं। अतः इन ग्रन्थों व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते ॥ में उपलब्ध गणितीय सिद्धान्तों का अध्ययन एवं अर्थात्---सांसारिक, वैदिक तथा धार्मिक आदि संकलन अति आवश्यक है । इस बीच कुछ विद्वानों सभी कार्यों में गणित उपयोगी है। यही कारण है,
का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है। एम० रंगा- कि जैन आगम ग्रन्थों में गणितीय तत्त्व प्रत्यक्ष एवं (चार्य, बी० बी० दत्ता, हीरालाल जैन, नेमिचन्द्र परोक्ष रूप में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है । साथ ही इन
शास्त्री, ए० एन० सिंह, टी० ए० सरस्वती, मुकुट जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने शिष्यों की सुविधा हेतु बिहारी अग्रवाल, लक्ष्मीचन्द जैन, अनुपम जैन जैसे अनेक गणितीय एवं ज्योतिष सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों ! विद्वानों ने इस दिशा में श्लाघनीय प्रयास किये हैं की रचना भी की जिनमें कुछ तो उपलब्ध हैं और जिससे बहुत सारे तथ्यों का रहस्योद्घाटन हो सका कुछ कालक्रम से नष्ट हो चुके हैं।
सूर्य-प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीप पज्ञप्ति गणित अनवरत रूप से जैन मुनियों के चिन्तन प्राचीन जैन ज्योतिष के प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाते एवं मनन का विषय रहा है। संख्यान (अंक और हैं. जिनकी रचना का समय लगभग ५०० ई०५० ज्योतिष) उनकी ज्ञान-साधना का अभिन्न अंग है। समझा जाता है । प्राकृत भाषा में रचित इन ग्रन्थों शिक्षा के चौदह आवश्यक अंगों में इसे प्रमुख स्थान के अतिरिक्त ज्योतिष्करंडक एवं गर्ग-संहिता के नाम दिया गया है तथा बहत्तर विज्ञानों एवं कलाओं में भी इस सूची में जोड़े जाते हैं। इन ग्रन्थों में ज्योअंकगणित को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। तिष गणितीय विचारधारा दृष्टिगोचर होती है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण जैन वाङमय को चार अनु- सूर्य-प्रज्ञप्ति में तो पाई () के दो मान-३ एवं
M. १ बी. बी. दत्ता एण्ड ए. एन. सिंह, संदर्भ-१, पृ० ११ तथा ए. के. बाग, बाईनोमियल थ्योरम इन एसिएंट इंडिया,
इंडियन जनरल आफ हिस्टरी आफ साइन्स, अंक १, १९६६, पृ. ६८-७३ २ दृष्टव्य जे. सी. जैन, लाईफ इन एंसिएंट इंडिया एज डेपिक्टेड इन दी जैन केनन्स, बम्बई, १९४७ पृ. १७८ एवं
बी. बी. दत्ता एण्ड ए. एन. सिंह, सन्दर्भ-१, पृ. ६ ३ लक्ष्मीचन्द जैन (सं.), गणित-सार-संग्रह, सोलापुर, १९६३, संज्ञाधिकारः श्लोक ६, पृ.२
द्रष्टव्य परमेश्वर झा, जैनाचार्यों की गणितीय एवं ज्योतिष सम्बन्धी कृतियाँ एक सर्वेक्षण, तुलसी प्रज्ञा, खण्ड-१२,
अंक-३, १९८६, लाडनूं, पृ. ३१ ३७०
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१० की भी चर्चा है । पुनः जैनधर्म के प्रसिद्ध एवं अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ( ३१८ ई० पू० ) के दो ज्योतिष ग्रन्थों - सूर्य - प्रज्ञप्ति पर टीका एवं भद्रबाहुसंहिता का उल्लेख मिलता है ।" ठाणांग, प्रश्नव्याकरणांग, समवायांग, सूयगडांग आदि द्वादशांग साहित्य (४००-१००० ई० पू० ) में नौ ग्रह, नक्षत्र, राशि, दक्षिणायन एवं उत्तरायण, सूर्यचन्द्र ग्रहण आदि तथ्यों का विवेचन है ।" जैन धर्म के महत्वपूर्ण ग्रन्थ स्थानांग सूत्र ( ३२५ ई० पू० ) के निम्नलिखित श्लोक में गणित के दश विषयों की चर्चा है
'परिकम्म वबहारो रज्जु रासी कला सवण्णेय । जावन्तावति वग्गो घणो ततः वग्गावग्गो विकप्पो व ॥
अर्थात् परिकर्म (मूलभूत प्रक्रियाएँ), व्यवहार ( विभिन्न विषय), रज्जु ( विश्व माप की इकाई, ज्यामिति), राशि (समुच्चय, त्रैराशिक ), कलासवर्ण ( भिन्न सम्बन्धी कलन ), यावत तावत ( सरल समीकरण), वर्ग (वर्ग समीकरण ), घन (घन समीकरण ) वर्ग वर्ग (द्विवर्ग समीकरण) एवं विकल्प (क्रम चयसंचय) - गणित के ये दश विषय हैं जिनका प्रयोग विशेष रूप से कर्म - सिद्धान्त की स्थापना के लिए किया जाता है । इससे इस तथ्य की भी पुष्टि होती है कि तत्कालीन जैनाचार्यों को गणित के इन विषयों का समुचित ज्ञान हो गया था। इन विषयों का विशद विवेचन-विश्लेषण महावीराचार्य ( ८५० ई०) ने अपने ग्रन्थ गणित - सार-संग्रह में किया है ।
उत्तराध्ययन एवं भगवती सूत्र ( ३०० ई० पू० ) में वर्ग, घन, संचय आदि अनेक महत्त्वपूर्ण गणितीय
विषयों की चर्चा है । भगवती सूत्र ( सूत्र ३१४ ) में एक संयोग, द्विक् संयोग, (त्रिक संयोग आदि शब्दों का प्रयोग पाया जाता है जिससे संचय - सिद्धान्त की जानकारी मिलती हैं । साथ ही सूत्र ७२६-२७ में विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों-रेखा, वर्ग, घन, आयत, त्रिभुज, वृत्त एवं गोल की बनावट के लिए कम से कम कितने बिन्दुओं की आवश्यकता होती है - इसकी व्याख्या की गयी 14 जैन धार्मिक ग्रन्थ के एक प्रमुख ग्रन्थकार उमास्वाति (अथवा उमास्वामी) ने ( १५० ई० पू० ) में तत्त्वार्थाधिगम-सूत्रभाष्य नामक एक विशाल ग्रन्थ का प्रणयन किया जिसमें सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को सार रूप में संकलित किया गया है । इसमें स्थानमान -सूची, भिन्नों का अपवर्तन, गुणा-भाग की विधियाँ, वृत्त के क्षेत्र फल, परिधि, जीवा, चाप की ऊँचाई एवं व्यास सम्बन्धी सूत्र आदि अनेक गणितीय सिद्धान्त निहित हैं । वे स्वयं गणितज्ञ थे अथवा नहीं, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता, पर इतनी बात निश्चित है कि उनके समय में कोई गणितीय ग्रन्थ अवश्य उपलब्ध रहा होगा जिससे उन्होंने अपनी रचना में कुछ गणितीय सूत्र उद्धत किए। इसके अतिरिक्त ने जम्बूद्वीप समास नामक एक ज्योतिष-ग्रन्थ के भी रचयिता माने जाते हैं ।
जैन आगमिक साहित्य अनुयोगद्वार सूत्र ( प्रथम शताब्दी ई० पू० ) में भी प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग आदि का प्रयोग पाया जाता है जिससे यह ज्ञात होता है कि प्रथम शताब्दी ई० पू० में जैनाचार्यों को घातांकों के नियमों का ज्ञान हो गया था । साथ
१ अगरचन्द नाहटा, आचार्य भद्रबाहु और हरिभद्र की अज्ञात रचनाएँ, जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, चुरू, १९७६, पृ. १०७-८
२ नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, दिल्ली, १६७०, पृ. ५४-७७
३
स्थानांग सूत्र ७४३
४ विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तराध्ययन, अहमदाबाद, १६३२ एवं भगवती सूत्र ( अभयदेव सूरी की टीका सहित ) सूरत, १६१६
५. बी. बी. दत्ता, दि जैन स्कूल आफ मैथमैटिक्स, बुलेटिन, कलकत्ता मैथमैटिकल सोसाईटी, कलकत्ता, खंड २१, अंक २, १६२६, पृ. १२६
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ना ही इस ग्रन्थ में स्थानों के नाम में 'कोटि-कोटि' तक आरोपित करने की एक अनोखी रीति का विश्लेषण SI की चर्चा है जिससे यह प्रमाणित होता है कि उस है जिसे वर्गित संवर्गित की संज्ञा दी गयी है । अनंत
समय तक संख्याओं की दशमलव पद्धति की जान- शब्द को परिभाषित कर उसके भेदों-प्रभेदों का कारी हो गयी थी। जैनाचार्यों की परम्परा में निर्धारण किया गया है तथा ११ प्रकार के अनन्तों का स्थान पाने वाले आचार्य कुन्दकुन्द (५२ ई० पू० से उल्लेख किया गया है । विभिन्न प्रकार के परिमित, ४४ ई० तक) ने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें अपरिमित एवं एकल समुच्चयों के उदाहरण भी समय-सार, प्रवचन-सार, नियम-सार, पंचास्तिकाय उपलब्ध हैं। साथ ही पाई (ग) का मान ३५५/११३ ॥ सार एवं अष्ट पाहुड आदि प्रमुख हैं । पंचास्तिकाय स्वीकार किया गया है जिसे चीनी मान कहा जाता सार में समय एवं निमिष की परिभाषा दी गयी है. पर ऐसा अनुमान है कि चीन में प्रयोग होने से है, एक संख्य, असंख्य, अनन्त आदि का प्रयोग पूर्व ही जैनाचार्यों ने इसका प्रयोग किया है। किया गया है । प्रवचन-सार में तो प्रायिकता का आध्यात्मिक संत एवं जैन दार्शनिक विद्वान | मूल सिद्धान्त भी निहित है जिसके आविष्कार एवं यतिवषभ ने प्राकृत भाष में लोकानुयोग का सर्वाविकास का श्रेय गेलिलियो, फरमेटे, पास्कल, बर- धिक प्राचीन एवं महत्वपूर्ण उपलब्ध ग्रन्थ तिलोयनौली आदि पाश्चात्य गणितज्ञों को दिया जाता पण्णत्ती (त्रिलोक-प्रज्ञप्ति) की रचना की। साथ
ही उन्होंने कसायपाहुड पर चूणि सूत्रों की टीका की दो प्रमख रचनाओं आ० आर्य भी लिखी। कछ विद्वानों के मतानुसार वे आर्यभट र मुख एवं आ० नागहस्ति द्वारा रचित कषायप्राभूत (४०६ ई०) के समकालीन अथवा समीपर्वी थे, पर (कसाय पाहुड) एवं आ० पुष्पदंत एवं भूतवली नेमिचन्द शास्त्री ने पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर द्वारा रचित षट् खंडागम (प्रथम अथवा द्वितीय उनका समय १७६ ई० के आस-पास निर्धारित किया शताब्दी) में भी गणितीय सामग्री की बहुलता है। है। जो भी हो, इतना निश्चित है, कि जैन साहित्य षट् खंडागम पर वीरसेनाचार्य (९ वीं शताब्दी) के अन्तर्गत तिलोयपण्णत्ती का विशिष्ट स्थान है। द्वारा लिखी गयी धवला नाम की एक महत्वपूर्ण नौ महाधिकारों में विभक्त यह एक विशाल ग्रन्थ है टीका में प्राकृत में रचित अनेक ग्रन्थों के गणितीय जिसमें अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेख एवं उद्धरण उद्धहरण पाए जाते हैं । आठों परिकर्मों-संकलन प्राप्त होते हैं । इसमें विश्व रचना के कर्म-सिद्धान्त व्यकलन, गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन एवं धन- एवं अध्यात्म-सिद्धान्त का विशेष विवेचन तो है मूल, भिन्नों, वितत भिन्नों, घातांक एवं लघुगणक ही, साथ ही अनेक गणितीय सिद्धान्तों का भी के नियमों, विभिन्न प्रकार के समुच्चयों पर संक्रि- विश्लेषण है। काल-माप एवं लोक माप बताने याओं आदि गणितीय विषयों का विस्तृत रूप से हेतु विशाल संख्याओं एवं इकाइयों को परिभाषित विवेचन किया गया है। दीर्घ संख्याओं को व्यक्त किया गया है जहाँ काल की सूक्ष्मतम इकाई समय करने की प्रक्रिया में संख्या पर स्वसंख्या का वर्ग है तथा सबसे बड़ी संख्यात इकाई अचलात्म है ।
१ एच. आर. कपाडिया (सं.). गणित तिलक, बरोदा, १९३७, इन्ट्रो., पृ. २२ २ अनुपम जैन, आ. कुन्दकुन्द के साहित्य में विद्यमान गणितीय तत्व, अर्हत् वचन इन्दौर, अंक १,१९८८, पृ. ४७-५२ ३ लक्ष्मीचन्द जैन, बेसिक मैथमैटिक्स, भाग-१, जयपुर, १९८२, पृ. २८-३४ तथा ए. एन. सिंह, हिस्टरी आफन
मैथमैटिक्स इन इण्डिया फोम जैन सोसेंज, जैन एंटिक्वरि, आरा, खंड १५, १६४६, प.४६-५३ एवं अनुपम जैन, दाशनिक गणितज्ञ आ० वीरसेन, अर्हत वचन, अंक २, इन्दौर, १९८८, ५.२५-३७
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जिसका मान (८४)31x (१०) वर्ष है । संख्यात, जटिल ग्रन्थ विद्यमान था। आचार्य नेमिचन्द्र असंख्यात एवं अनन्त के विभिन्न प्रकारों एवं उनके सिद्धान्त चक्रवर्ती (१०वीं शती) कृत त्रिलोकसार पारस्परिक सम्बन्धों को स्थापित किया गया है। में भी 'वृहत्तधारा' नामक धाराओं से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आकृतियों के क्षेत्रफल, वृत्ताकार एक प्राचीन जैन ग्रन्थ की चर्चा है जो उस समय आकृति की परिधि, वृत्त खण्ड का क्षेत्रफल, वाण, तक उपलब्ध था, पर अब अनुपलब है। इतना जीवा एवं चापकर्ण के मान तथा विविध आकारों ही नहीं, भास्कर प्रथम (७वीं शताब्दो) कृत आर्यके सांद्रों के घनफल निकालने की छेद विधि का भटीय-भाष्य में भी पाँच प्राकृत गाथाएँ मिलती हैं विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । समान्तर एवं जो अंकगणित सम्बन्धी किसी प्राचीन प्राकृत ग्रंथ गुणोत्तर श्रेणियों से सम्बन्धित सूत्रों के साथ-साथ से उद्ध त हैं । सम्भवतः वह किसी जैनाचार्य की ही तत्सम्बन्धी उदाहरण भी दिए गए हैं। साथ ही कृति होंगी। भास्कर प्रथम की रचना से यह भी पाई (ग) का जैन परम्परानुसार स्थूल मान ३ और ज्ञात होता है कि मस्करि, पूरण, मृद्गल, पूतन सूक्ष्म मान । १० स्वीकार किया गया है। सबसे आदि गणितज्ञों ने आठ व्यवहारों में से प्रत्येक पर बड़ी विशेषता यह है कि विविध गणितीय प्रक्रियाओं स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की थी। सम्भावना है, को संकेतों के माध्यम से व्यक्त किया गया है । कि इनमें से कुछ प्राचीन जैनाचार्य ही हों। इस
इन आगम ग्रंथों में गणितीय सिद्धान्तों के अति- तरह गणित सम्बन्धी अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थों के रिक्त कुछ प्राचीन ग्रंथों की ऐसी गाथाओं को भी सम्बन्ध में यत्र-तत्र सूचना मिलती है, पर दुःख है
उद्ध त किया गया है जो गणित की विभिन्न शाखाओं कि वे सभी अभी उपलब्ध नहीं हैं। A से सम्बन्धित हैं । धवला टीका में तो कुछ ऐसे ग्रन्थों उपरोक्त सूचनाओं से स्पष्ट है कि ५वीं |
का नामोल्लेख भी है-अग्गयणिय, दिठिवाद, शताब्दी ई. पू. से ५वीं शताब्दी इस्वो तक की अवधि परिकम्म, लोयविणिच्छय, लोकविभाग, लोगाइणि में रचित प्रमुख जैन आगम ग्रन्थों में गणित की
आदि । धवला में ही 'परियम्म-सूत'-प्राकृत विभिन्न शाखाओं से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सिद्धान्तों गद्यमय ग्रन्थ की चर्चा है जिससे कई गाथाएँ उद्ध त का प्रतिपादन एवं अनेकों सूत्रों का उपयोग किया की गई हैं। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ गया है । इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इन गणित एवं करणानुयोग से सम्बन्धित है। आचार्य गणितीय सिद्धान्तों का ज्ञान यहाँ के लोगों को यतिवृषभ ने एक करण-सूत्र नामक ग्रन्थ का उल्लेख बहुत पूर्व में ही हो गया था। साथ ही इन ग्रन्थों किया है । इसी तरह 'करण भावना' नामक एक से इसका भी आभास मिलता है कि आलोच्य और जैन ग्रंथ की चर्चा है। वीरसेनाचार्य (हवी अवधि में गणित के स्वतन्त्र ग्रन्थ भी भारत में शती) की सिद्धभूपद्धति पर लिखी टीका से ज्ञात लिखे जा चुके थे जो प्रायः वर्तमान समय में अनुपहोता है कि उनके समय तक क्षेत्रगणितविषयक कोई लब्ध हैं । इस तरह भारतीय गणित के अंध गयु में १ लक्ष्मीचन्द जैन, वही, पृ. २१-२७ एवं अनुपम जैन, दार्शनिक गणितज्ञ आ० यतिवृषभ, वही, पृ० १७-२४ २ लक्ष्मीचन्द जैन, संदर्भ-५, प.ह ३ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल, जैन गणितीय साहित्य, अर्हत वचन, इन्दौर, अंक १, १९८८, पृ. ३१ ४ वही, पृ. २४-२५
५ वही, पृ. २४ ६ वही, पृ. २८-२६ एवं कृ. शं. शुक्ला (सं.) आर्यभटीय-भाष्य, दिल्ली, १९७६, पृ.५६ (इंट्रोडक्शन) ७ कृ. शं. शुक्ला, वही, पृ. ७ एवं ६७ एवं टी० ए० सरस्वती, ज्योमेट्री इन एंसिएंट एण्ड मेडियेवल इण्डिया,
दिल्ली, १९७६, पृ० ६६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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भी यहाँ गणित का विकास होता रहा जिसमें ग्रंथों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन-मनन हो । तभो ! जैनाचार्यों का अमूल्य योगदान रहा। आवश्यकता हम जैनाचार्यों की गणितीय उपलब्धियों का सहीइस बात की है कि शोधकर्ताओं एवं अध्येताओं का सही मूल्यांकन कर सकेंगे तथा विश्व के समक्ष ध्यान इस ओर आकृष्ट हो, विभिन्न ग्रंथागारों में गणित के विकास में भारतीय अवदान का सही उपलब्ध पांडुलिपियों का अन्वेषण हो एवं बचे हुए चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकेंगे।
(शेष पृष्ठ ३६८ का) उपसंहार तथा कर्तव्य-निर्देश
तो स्तोत्र के अतिरिक्त रचना करके भी अपने वस्तुतः ऐसे स्तोत्रों की परम्परा अतिविस्तृत कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं किन्तु साधुजीवन 12 है । जिस प्रकार संस्कृत अलङ्कार शास्त्रों में चित्रा- को स्वीकार किए हुए मुनिगणों की तो एकमात्र लङ्कारों की क्रमशः उपेक्षा की गई उसी प्रकार वृत्ति होती है 'प्रभु कृपा-प्राप्ति' । अतः वे यदि कवि जैनाचार्यों द्वारा निर्मित 'चित्रकाव्यात्मक स्तोत्रों' होते हैं तो अपनी वाणी को स्तुति-रचना द्वारा ही की भी पर्याप्त उपेक्षा हई है। एक काल ऐसा सार्थक करते हैं । रमणीयता के रूप को साकार | अवश्य रहा होगा, जिस समय प्रत्येक स्तोत्रकार, बनाने के लिए नए-नए आयामों को अपनाते हैं ! भक्ति, दर्शन और विनय के साथ ही स्तोत्रों में तथा प्रौढ़-पाण्डित्य के निकषभूत चित्रालङ्कार-पूर्ण शब्द-विन्यास की इस महनीय शैली का अनुसरण स्तुतियों की अभिनव सृष्टि करते हैं। किए बिना अपनी कृति को पूर्ण नहीं मानने का अतः विद्वज्जनों से हमारा यही निवेदन है किआदी हो गया होगा ! अब न तो वैसे विद्वान साधु- सर्वाङ्ग मदुलाऽपि यात्र यमक श्लेषादिभिः सन्धिषु, गण ही दिखाई देते हैं और न वैसे रचनाकार। प्रौढत्वेन दधाति यत् समुचितं काठिन्यमापाततः । सारल्य के मोह में पड़कर वैसी प्रौढ़ रचना करना दोषाय न मन्यतां बधजनां! आस्ते तदावश्यक, हेय माना जा रहा है, यह दुर्भाग्य की बात है। लावण्येन सहैव सङ घटनमप्यङगेषु काव्यश्रियः ।। __ जैन-भाण्डागारों में ऐसे अनेक ग्रन्थ और गैर्वाण्याश्चिररक्षणाय मनसा बद्धादरा धीथना-- प्रकीर्ण पत्र पड़े हुए हैं, जिनमें ऐसी विशिष्ट स्तक्त्वा मोहमवाप्तपुस्तकधन संरक्ष्यतां यत्नतः । स्तुतियाँ लिखी हुई सुरक्षित हैं । कवित्व का प्रथम तस्मिन् माऽस्तु मतिः कदासि विरसा क्लिष्टत्वदृष्टया वृथा, उन्मीलन स्तुति से ही होता है । सांसारिक प्राणी क्लिष्ट-ग्रावहृदो न कि सतिमिता गङ गा जगत्पावनी ।।
ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन (म. प्र.)
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0 डा. पुष्पलता जैन
प्राध्यापिका एस. एफ. एस. कालेज, नागपुर
जैन भूगोल का व्यावहारिक पक्ष
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समग्र भारतीय वाङमय की ओर दृष्टिपात जहाँ तक भौगोलिक मान्यता का प्रश्न है, यह करने से यह निष्कर्ष निकालना अनैतिहासिक नहीं विषय भी कम विवादास्पद नहीं। तीनों संस्कृतियों होगा कि उसका प्रारम्भिक रूप श्रुति परम्परा के के भौगोलिक सिद्धान्तों का उत्स एक ही रहा होगा माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी गुजरता हुआ उस समय जिसे लगता है, कुछ परिवर्तन के साथ सभी ने अपने संकलित होकर सामने आया जबकि उसके आधार ढंग से विकसित कर लिया। इस संदर्भ में जब हम पर काफी साहित्य निर्मित हो चुका था। यह तथ्य भारतीय भौगोलिक ज्ञान के ऊपर दृष्टिपात करते वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों संस्कृतियों के प्राचीन हैं तब हम उसके विकासात्मक स्वरूप को आठ पन्नों के उलटने से उद्घाटित होता है । ऐसी स्थिति प्रमुख युगों में विभाजित कर सकते हैंमें प्राचीन सूत्रों में अपनी आवश्यकता, परिस्थिति १. सिन्ध-सभ्यता काल (आदिकाल से लेकर
और सुविधा के अनुसार परिवर्तन और परिवर्धन १५० होता ही रहा है । वेद, प्राकृत और जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक साहित्य का विकास इस तथ्य
२. वैदिक काल (१००० ई० पू० तक) का निदर्शन है।
३. संहिता काल (१५०० ई० पू० तक) ____इसी प्रकार यह तथ्य भी हमसे छिपा नहीं है ४. उपनिषद् काल (१५०० ई० पू० से ६०० ई० कि तीनों संस्कृतियों ने अपने साहित्य में तत्कालीन पू० तक) प्रचलित लोककथाओं और लोकगाथाओं का अपने- ५. रामायण-महाभारत काल (१६०० ई० पू० अपने ढंग से उपयोग किया है। यही कारण है कि से ६०० ई० पू० तक) | लोककथा साहित्य की शताधिक कथाएँ कुछ हेर- ६. बौद्ध काल (६०० ई० पू० से २०० ईसवी फेर के साथ तीनों संस्कृतियों के साहित्य में प्रयुक्त तक)
७. नया पौराणिक काल (२०० ने ८०० इन कथा सूत्रों के मूल उत्स को खोजना सरल हो नहीं है । किस सूत्र को किसने कहाँ से लेकर आत्मसात् किया है इसे निर्विवाद रूप से हल नहीं किया ८. मध्यकाल (८०० ई० से लगभग १७वीं शताजा सकता। इसलिये यह मानकर चलना अधिक ब्दा तक) उचित होगा कि इस प्रकार के कथासूत्र लोककथाओं भारतीय भौगोलिक ज्ञान का यह काल विभार के अंग रहे होंगे जिनका उपयोग सभी धर्माचार्यों ने जन एक सामान्य दृष्टि से किया गया है । इन
अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन की पृष्ठभूमि कालों में मूल भौगोलिक परम्परा का विकास सुमें किया है।
निश्चित रूप से हुआ है।
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भूगोल (Geography) यूनानी भाषा के दो पदों निचला पर्त, जिसमें ऋतु, जलवायु की विभिन्नताएँ Ge तथा grapho से मिलकर मिला है। ge का होती हैं। अर्थ पृथ्वी और Grapho का अर्थ वर्णन करना है। (४) पृथ्वी के सौर सम्बन्ध । इस प्रकार Geography की परिधि में पृथ्वी का
पृथ्वी को केन्द्र में रखकर जर्मनी, फ्रांस, अमेवर्णन किया जाता है।
रिका, सोवियत संघ आदि देशों में काफी शोध हए भूगोल जिसे हम साधारणतः पौराणिकता के हैं और हो रहे हैं। वहां के विद्वानों की भौगोलिक ||5 साथ जोड़ते चले आये हैं, आज हमारे सामने एक विचारधाराओं को हम एक-दूसरे की परिपूरकता प्रगतिशील विज्ञान के रूप में खड़ा हो गया है। के सन्दर्भ में समझ सकते हैं। उनके अध्ययन में दो उसका उद्देश्य और अध्ययन काफी विस्तृत होता पक्ष उभरकर सामने आते हैंचला जा रहा है । उद्देश्य के रूप में उसने मानव
१. वातावरण और परिस्थिति विज्ञान की उन्नति और कल्याण के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण
२. प्रादेशिक विभिन्नताएँ और मानवीय प्रगति योगदान दिया है इसलिये आज वह अन्तर्वैज्ञानिक
' तथा कल्याण में असमानतायें और असन्तुलन । (Interdisciplinary) विषय बन गया है।
इस सन्दर्भ में जब हम प्राचीन भूगोल और 12 जैसे-जैसे भूगोल के अध्ययन का विकास होता गया विद्वानों ने उसे परिभाषाओं में बाँधने का
__ अर्वाचीन भूगोल की समीक्षा करते हैं तो हम इस MMS प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वानों में एकरमेन, ल्यूकर
निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राचीन भूगोल कतिपय मेन, यीट्स, रिट्टर, हेटलर आदि विद्वान प्रमुख हैं
लोकाख्यानों पर आधारित रहा है और आधुनिक 18 जिनकी परिभाषाओं के आधार पर भूगोल की
भूगोल वैज्ञानिक तथ्यों पर अवलम्बित है जहाँ मान | निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की जाती है-'भूगोल
- वीय साधनों की क्षमता और योग्यता पर अधिक
" बल दिया जाता है । प्राचीन भगोल आर्थिक प्रगति वह विज्ञान है जो पृथ्वी का अध्ययन तथा वर्णन
। से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रखता, जबकि आधु-4 मानवीय संसार या मानवीय निवास के रूप में (१) क्षेत्रों या स्थानों की विशेषताओं (२) क्षेत्रीय
निक भूगोल का तो यह केन्द्रीय तत्व ही है इसलिये एक विविधताओं तथा (३) स्थानीय सम्बन्धों की पृष्ठ
__ आधुनिक भूगोल को व्यावहारिक भूगोल(Applied Hg भमि में करता है । इस प्रकार भूगोल पृथ्वी पर
Geography) कहा जाने लगा है । इसमें मुख्य रूप ||G वितरणों का विज्ञान (Science of distribution on
से-१. समूह व्यवहार-(Group behaviour) Earth) है।
तथा व्यावहारिक क्षेत्र में मानसिक समायोजन
जैसे तत्वों पर विशेष विचार किया जाता है। इस परिभाषा के आधार पर यह कहा जा र सकता है, भूगोल की अध्ययन सीमा में पृथ्वीतल
प्रारम्भ से ही भूगोल का उद्देश्य और उपयोग का अध्ययन प्रमुख है। इस कथ्य में चार तथ्य
व्यक्ति और समाज का हित-साधन रहा है। चाहे वह सम्मिलित है
आध्यात्मिक रहा हो या लौकिक । आधुनिक व्याव-५
हारिक भूगोल में आध्यात्मिक दृष्टि का कोई विशेष (१) पृथ्वीतल पर समस्त थल खण्डों और महा
सम्बन्ध नहीं है। इसलिए व्यावहारिक भूगोल | सागरों के तल ।
की परिभाषा साधारण तौर पर इस प्रकार की (२) पृथ्वीतल से थोड़ी गहराई तक का सीधा जाती है- "समाज की आवश्यकताओं की पूर्तियों ने प्रभावकारी पर्त ।
के लिए भौगोलिक वातावरण के समस्त संसाधनों (३) वायुमण्डल, विशेषतः वायुमण्डल का को विवेकपूर्वक करने के लिए भौगोलिक आचार
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विचार ज्ञान पद्धतियों एवं तकनीकों का व्यावहारिक जम्बूद्वीप तीनों संस्कृतियों में स्वीकार किया H उपयोग ही व्यावहारिक भूगोल है।"
गया है। भले ही उसकी सीमा के विषय में विवाद 12 इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि व्यावहारिक रहा है । जैन संस्कृति में तो इसका वर्णन कितने । भूगोल का उपयोग समाज के हित के लिए किया अधिक विस्तार से मिलता है जितना जैनेतर * १ जाता है और इसीलिए इसके अध्ययन की परिधि साहित्य में नहीं मिलता। पर्वत, गुफा, नदी, वृक्ष, 720
में मानव, स्थान तथा संसाधन का अध्ययन आता अरण्य, देश, नगर आदि का वर्णन पाठक को हैरान है। इसे हम निम्नलिखित वर्गीकरण के माध्यम से । कर देता है। इसका प्रथम वर्णन ठाणांग और समसमझ सकते हैं
__ वायांग में मिलता है। इन दोनों ग्रन्थों के आधार | १. भौतिक अध्ययन-भ-आकृति, जलवाय. पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति और चन्द्र प्रज्ञप्ति समुद्री विज्ञान आदि इसके अन्तर्गत आता है।
की रचना हुई है। इन सभी ग्रन्थों को हम लगभग २. आर्थिक अध्ययन-इसमें कृषि, औद्योगिक,
५वीं शताब्दी की रचना कह सकते हैं। आचार्य
यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति भी इसी समय के व्यापार, यातायात, पर्यटन आता है।
आसपास की रचना होनी चाहिए। श्री पं० फूल३. सामाजिक, सांस्कृतिक अध्ययन-इसमें
चन्द सिद्धान्तशास्त्री इस रचना को वि. सं. ८७३ जनसंख्या, अधिवास, बस्ती, नगरीय, राजनीतिक, के बाद की रचना मानते हैं. जबकि श्री पं० जगलप्रादेशिक, सैनिक आदि का अध्ययन होता है।
किशोर मुख्तार उसे ईसवी सन् के आसपास रखने ४. अन्य शाखाएँ-जीव (वनस्पति), चिकित्सा, का प्रयत्न करते हैं। मौन चित्रकला आदि का अध्ययन होता है।
जम्बूद्वीप जैन संस्कृति में समस्त पृथ्वी अर्थात् जैन भूगोल यद्यपि पौराणिकता को लिए हुए मध्यलोक का नामांतरण है जिसे सात क्षेत्रों में है, फिर भी उसका यदि हम वर्गीकरण करें तो हम विभक्त किया गया है। इसके सारे सन्दर्भो को व्यावहारिक भूगोल के उपयुक्त अध्ययन प्रकरणों रखने की यहाँ आवश्यकता नहीं है, पर इतना ) से सम्बद्ध सामग्री को आसानी से खोज सकते हैं। अवश्य है कि पर्वत, नदी, नगर, आदि की जो इस दृष्टि से यह एक स्वतन्त्र शोध प्रबन्ध का स्थितियाँ करणानुयोग में वर्णित हैं उन्हें आधुनिक विषय है।
भूगोल के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न किया | जैसा हमने पहले कहा है जैन भूगोल प्रश्न- जाए । उदाहरण के तौर पर जम्बूद्वीप को यूरेशिया कट चिन्हों से दब गया है। आधुनिक भूगोल से वह खण्ड से यदि पहचाना जाए तो शायद उसकी | निश्चित ही समग्र रूप से मेल नहीं खाता, इसका अवस्थिति किसी सीमा तक स्वीकार की जा सकती ) तात्पर्य यह नहीं कि जैन भूगोल का समूचा विषय है। इसी तरह सुमेरु को पामेर की पर्वत श्रेणियों - अध्ययन और उपयोगिता के बाहर है । इस परि- के साथ किसी सीमा तक रखा जा सकता है। स्थिति में हमारा अध्ययन वस्तुपरकता की मांग ।
हिमवान को हिमालय, निषध को हिन्दुकुश, नील करता है। आगमिक श्रद्धा को वैज्ञानिक अन्वेषणों को अलाई नाम, शिखरी को सायान से मिलाया 10) के साथ यदि हम पूरी तरह से न जोड़ें और तब जा सकता है । रम्यक की मध्य एशिया या दक्षिणी तक रुक जाएँ, जब तक उन्हें वैज्ञानिक स्वीकार न पश्चिमी की सीक्यांग से, हैरण्यवत् की उत्तरी ) कर लें तो हम उन्मुक्त मन से दोनों पहलुओं को सीक्यांग से, उत्तरकुरु की रूस तथा साइबेरिया से 10 और उनके आयामों को अपने परिधि के भीतर रख सकते हैं।
(शेष पृष्ठ ३८२ पर)
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COAC श्री सौभाग्य मुनिजी 'कुमुद' (श्रमण संघीय महामन्त्री)
भगवती सूत्र में परामनोविज्ञान एवं पराशक्तियों के तत्त्व
मानव मन ज्ञात, अज्ञात, असंख्य अनन्त संवेद- मानस अध्ययन का क्रम भी वहाँ प्रचलित हुआ नाओं का समूह-सा है, प्रतिक्षण उसमें संवेदना तरंग और मानवीय सभ्यता के चरम विकास में यह भी तरंगित होती रहती है । हम प्रत्यक्ष में जो अनुभव अपनी चरम योग्यता के साथ उपस्थित रहा। करते हैं वह मानसिक संवेदनाओं का ही प्राकट्य
शास्त्र, ग्रन्थ, शिलालेख एवं पुरातत्व से सम्ब- का है। किन्तु यह तो उसकी अनुभवित संवेदनाओं का वित वस्तओं से हमें अपनी प्राचीन सभ्यताओं के RAVI न्यनातिन्यन भाग है। जो अप्रकट तथा असवित् प्रमाण मिलते हैं। श्रीमद भगवती सुत्र श्रमण है, वह तो अपार है।
संस्कृति का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ-राज है । भगवान् विश्व में अनेक प्राकृत रचनाएँ बड़ी जटिल हैं महावीर द्वारा.प्ररूपित तत्व जो सुधर्म स्वामी के द्वारा जिन्हें समझना मानव के लिए बड़ा कठिन है। उन सूत्रित किये गये हैं। इसमें बड़ी संख्या में उपलब्ध सभी दुरूह जटिल रचनाओं में मानव का मन है। जीव और जगत सम्बन्धी हजारों विषयों पर जटिलतम पदार्थ है इसका अध्ययन कठिन ही नहीं कहीं संक्षिप्त, कहीं विस्तृत प्रकाश डाला गया है कठिनतम है।
यही कारण है कि जैन वाङमय में इस ग्रन्थ-राज । मनोविज्ञान. मानसविज्ञान, लेश्या अंकन मन- का अप्रतिम स्थान है। संवित, संज्ञासंज्ञान ये सारे शब्द व्याख्या की कुछ- प्रश्न और उत्तर के रूप में हजारों प्रज्ञप्तियाँ कुछ भिन्नता के साथ एक ही विषय को अभिव्यक्त इसमें संकलित हैं। इस सूत्र-राज में परामनोविज्ञान करते हैं।
से सम्बन्धित अनेक ऐसे संकेत सूत्र और व्याख्या मानव मन की जटिलतम गुत्थी को ज्यों-ज्यों सूत्र है, जिनका आधुनिक शैली से विश्लेषण करने सुलझाया गया, प्रायः देखा गया है कि उसके आर- से परामनोविज्ञान के अनेक तथ्य उद्घाटित हो पार अनेकानेक नवीन विशेषताएँ उदघटित होती सकते हैं । इस क्षेत्र के विद्वानों का इस तरफ ध्यान रहीं । अपरा-परा अनेक शक्तियों का उसमें खजाना
आकर्षित करने के लिए यहाँ हम उन संकेत सूत्रों खुलता गया।
में से कतिपय सूत्र उपस्थित करते हैं । मानस की परा-अपरा शक्तियों को समझने
परभविक ज्ञान परखने और उन्हें उद्घाटित करने का प्रयत्न वैज्ञा- १-गौतम स्वामी भगवान् महावीर से एक निक युग में ही सम्भव हो सका, ऐसा सोचना कूप- बार प्रश्न करते हैं कि प्रभु ! ज्ञान इहभविक है, मंडकता होगी। भारत ही नहीं विश्व-भर में जहाँ- परभविक है, या तदुभयभविक है ? जहाँ मानवीय सभ्यता का तनिक भी उत्थान हुआ उत्तर में भगवान महावीर कहते हैं कि ३७८
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गौतम ! ज्ञान इहभविक भी हैं परभविक भा हैं देख सकते हैं । ऐसा संसूचन उपर्युक्त सूत्र से उपऔर तदभयभविक भी हैं ?
लब्ध हैं। ___इस सूत्र से परभविक ज्ञान के अस्तित्व की पराशक्तियाँ स्पष्ट स्वीकृति है। परभविक ज्ञान उसे कहते हैं एक प्रश्न के उत्तर में यह भी स्पष्ट हआ कि जो मृत्यु के बाद नये जीवन में भी साथ रहे। तप संयम के साधक मुनि अपूर्व बलशाली और शक्ति इससे एक जन्म में पूर्वजन्मों की स्मृति होना सिद्ध सम्पन्न हो जाते हैं, वे बाह्य अण परमाणओं को होता है।
ग्रहण कर न केवल अपने अनेक रूप बना सकते हैं भविष्य की बात जान लेना
अपितु वे दुर्लध्य पर्वतों को भी लांघ जाते हैं ऐसा २-भगवान महावीर गौतम को कहते हैं । वे वैक्रिय नामक पराशक्ति से करते हैं। गौतम ! आज तुम अपने पूर्वभव के साथी से वैक्रिय नामक पराशक्ति से सम्पन्न मुनि के द्वारा मिलोगे?
ऐसे और भी अनेक विलक्षण कार्य सम्पन्न हो सकने भगवान ! मैं आज किस साथी से मिलूंगा? के उल्लेख इसी क्रम में उपलब्ध होते हैं। भगवान ने कहा-तु स्कंद परिव्राजक से मिलेगा। माय और समाधान
फिर गौतम पूछते हैं कि क्या वह आपके पास दो देवों ने मन में ही भ. महावीर को प्रश्न दीक्षित होगा?
किया कि आपके कितने मुनि सिद्ध होंगे। भ. महाभगवान महावीर ने इसका उत्तर स्वीकृति में वीर ने उस मानस प्रश्न का मानस उत्तर देते हये दिया ।
कहा-मेरे ७०० शिष्य सिद्ध होंगे। परोक्ष को प्रत्यक्ष जानना-देखना
__ ये मानसिक प्रश्नोत्तर मन की अद्भुत निर्ग्रन्थ मुनि के एकाग्रतापूर्वक ज्ञान करने के विशेषताओं का परिचय देते हैं। एक प्रश्न के उत्तर में भ. महावीर ने कहा कि कभी पुनर्जन्म का स्मरण वह वृक्ष के बाह्य को ज्ञात कर लेता है, देखता है श्रावक सुदर्शन को भ. महावीर ने धर्मोपदेश ! किन्तु अन्तर को न ज्ञात कर पाता है और न देख दिया उसे श्रवण कर वह अत्यन्त हर्षित हुआ तथा पाता है। कभी बाह्य को ज्ञात नहीं कर पाता किन्त पवित्र अध्यवसाययुक्त हआ तभी उसे "सण्णी पुव्व || अन्तर् को ज्ञात भी कर लेता है और देख भी लेता जाईसरणो समुप्पन्ने" अर्थात् अपने पूर्व संज्ञी जन्म
को स्मृत करने वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ। ____ कभी ऐसा होता है कि न बाह्य और न अन्तर सुदर्शन गृहस्थ मानव था फिर भी उसको अपने | 3 को ज्ञात कर पाता है, न देख ही पाता है किन्तु कभी अध्यवसाय के निरन्तर विकास से पूर्व-जन्म की दोनों को देख भी लेता है और जान भी लेता है। स्मृति हो गई यह एक महत्वपूर्ण बात है।
तप आदि विशिष्ट साधना करने वाले मुनि को पूर्व-जन्म के अनेक उदाहरण गत कुछ वर्षों में ||5 कुछ ऐसी परामानस शक्तियाँ उपलब्ध हो जाती हैं प्राप्त हुए उनका वैज्ञानिक प्रविधियों से अंकन भी का कि वे मुनि उनसे परोक्ष वस्तु को प्रत्यक्ष जान व हुआ किन्तु इस प्रश्न की चुनौती अभी तक ज्यों की
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१. भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक सूत्र क्रम ५४
३. भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशक ४ , ५. भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४
२. भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ ४. भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशक ५
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त्यों बनी हुई है। इतना ही नहीं इस क्षेत्र में वैज्ञा- भगवान् महावीर उस समय चम्पा नगर के || निकों ने जितना अध्ययन किया उससे अनेक ऐसे बाहर पूर्णभद्र उद्यान में विराजित थे । उन्होंने ॥ नये प्रश्न खड़े हो गये कि जिनका समाधान मिलना वहीं उदायन के विचारों को जान लिया और वहाँ और दुश्वार हो गया है ।
से लम्बे भूखण्ड को पार कर वीतिभय पधारे। उदाअब तक प्राप्त पुनर्जन्म के प्रकरणों में अधिकांश यन ने भगवान् महावीर का बड़ा सम्मान किया, ऐसे ही प्रकरण हैं जिनके पात्र बालक या बालिका उनका उपदेश सुना और उनके पास दीक्षित हो हैं। जो बड़ी उम्र के नहीं हो गये हैं ऐसे बच्चों गया, मूनि बन गया। में पूर्व-जन्म की स्मृति जन्म से ही सतत बनो रही, प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्ति के विचारों को fil अभिव्यक्ति का सामर्थ्य आने पर उसने प्रकट की। जानने-समझने का प्रयत्न प्रायः करता ही है। कुछ अभी ऐसा उदाहरण एक भी नहीं मिल पाया कि ऐसे संकेत भी मानव पकड़ लेता है जिससे सामने कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति अपने मानस क्रम को वाले या दूरस्थ व्यक्ति के विचारों का वह जान ।। विकसित कर पूर्व-जन्म स्मृति का पात्र बना हो। सके और कई बार उसका जाना हुआ सच भी । यहाँ सुदर्शन का जो प्रसंग उपस्थित किया
or सिद्ध होता देखा गया है तो इससे यह तो सिद्ध है ।।
स. गया है इसकी यह विशेषता है कि यह एक बड़ो
कि व्यक्ति का मन परभाव ज्ञप्ति की एक शक्ति उम्र का गृहस्थ था। साथ ही पहले पूर्व-जन्म स्मृति
___ अपने आप में रखता अवश्य है। यह एक अलग बात || से शून्य था किन्तु किसी विशेष अवसर पर वह है कि कुछ व्यक्तियों में यह शक्ति प्रसुप्त रहती है। अपना मानस क्रम इतना विकसित कर पाया कि तो कुछ व्यक्ति इसे जाग्रत कर लेते हैं। मानस वह उस उम्र में भी पूर्व जन्म की स्मति का पात्र शक्ति जागरण के भी अनेक स्तर हैं। कुछ अमुक वन गया।
स्तर तक ही अपने में जागृति पा सकते हैं, तो कुछ - यद्यपि इस घटना का शास्त्रोक्त उल्लेख के ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें पूर्ण जागृति विक- 10 अलावा कोई चिन्ह उपस्थित नहीं है फिर भी इस सित हो चुकी हो । परभाव ज्ञप्ति के हजारों उदाहघटना से इतना तो संसूचन हो हो जाता है कि रण प्रायः सभी धर्मग्रन्थों में पाये जाते हैं, उनकी मानव का मानस क्रम यदि विकसित हो सके तो सम्यक् समीक्षा होनी चाहिए। उसमें अनेकानेक आश्चर्यजनक संजप्तियों की यह निश्चित तथ्य है कि मानव मन में निश्चय अपार सम्भावनाएँ उपलब्ध हैं ।
ही ऐसी पराशक्तियाँ विद्यमान हैं जो सामान्यतया परभाव ज्ञप्ति
कल्पनातीत हैं। ग्रन्थों आख्यानों से इस विषय की बहुत दूर रहते हुए व्यक्ति के विचारों को जान जितनी भी सामग्री उपलब्ध हैं उस सभी का व्यवलेना मानस की एक ऐसी प्रतिभा है जिस पर आम स्थित संकलन होकर उनकी गम्भीर समीक्षा हो इस व्यक्ति प्रायः विश्वास नहीं किया करते किन्तु यह तो इस विषय में अनेक अनुद्घाटित तथ्य प्रकाशित एक ऐसा सत्य है जो युगों-युगों से प्रकट होता रहा हो सकते हैं। है। वीतिभय नगर का राजा उदायन अपनी पौषध ज्वलनशील पराशक्तिआराधना में स्थित है और अपने भाव बनाता है श्रीमद भगवती सूत्र के गोशालक आख्यान में कि भगवान महावीर प्रभु यहाँ पधारें तो मैं उनकी तेजोलेश्या का एक ऐसा अद्भुत प्रसंग है जिसे पढ़उपासना करूं।
कर चेतना की एक ऐसी पराशक्ति का परिचय
१ भगवती सूत्र शतक १३ उद्देशक ६
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मिलता है जो सचमुच आश्चर्यजनक है । गोशालक इस प्रकरण में "उत्कारिका" रूप विशिष्ट पराएक तपस्वी वेश्यायन को देखकर उसे तिर- शक्ति विचारणीय विषय है। स्कृत करता है, यह तपस्वी गोशालक पर कुपित तीव्रातितीव्र गमन पराशक्ति होता है और उस पर एक ऐसा तेज फेंकता है जो भगवती सत्र के बीसवें शतक के हवं उद्देशकः (Vy ज्वलनशील है। गोशालक जल ही जाता उस तेज से में चारण मुनियों की तीव्रगति का विषय व्याख्या- र किन्तु भगवान् महावीर उस पर करुणा कर तत्काल यित हुआ है । विद्या चारण एवं जंघा चारण दो शीतल तेज प्रकट करते हैं और वह शीतल तेज उस तरह के चारण मनि होते हैं और उनकी गगन- र उष्ण तेज को नष्ट कर देता है। गोशालक बच गामिनी शक्ति आश्चर्यजनक होती है वे एक चुटकी जाता है। शास्त्रीय भाषा में 'उष्ण तेज को लगाने जितने थोडे से समय में जम्बुद्वीप के चारों IIKE तेजोलेश्या कहा है तथा शीतल तेज को 'शीतल तरफ चक्कर लगा आते हैं । यह अद्भुत पराशक्ति तेजोलेश्या" कहा है।
भी मुनि को विशेष तप साधना से ही प्राप्त होती प्रस्तुत प्रसंग में 'तेजोलेश्या" जिसे कहा गया है। ऐसा विधान है। वह तपस्वी के शरीर से बाहर प्रकट हुई है, इसी इस तरह भगवती सूत्र में परामनोविज्ञान और | तरह 'शीत तेजोलेश्या' भी भगवान् महावीर के पराशक्तियों के अनेक उल्लेख उपस्थित हैं। यद्यपि देह से बाहर आई है।
ऐसे उल्लेख प्रथम दृष्टया आश्चर्यजनक तथा अतिचेतना की यह तेजोमय पराशक्ति नितान्त रंजित प्रतीत होते हैं किन्तु यह अपनी स्थूलग्राही है। अद्भुत और आश्चर्यजनक है। इसी आख्यान में दृष्टि का ही परिणाम है । जीवन में निहित अनन्त
तेजस्वी पराशक्ति "तेजोलेश्या" को अपने में उप- सम्भावनाओं के सन्दर्भ में यदि ये तथ्य देखे जाएँ Kलब्ध करने का उपाय भी प्राप्त होता है। उपाय तो ये कदापि असम्भव नहीं होंगे। आज जीवन की LD Milf स्वरूप जो बताया गया वह एक उग्र किन्तु कठोर पराशक्तियों को तर्कप्रधान विज्ञान ने न केवल
तप है और उसके साथ सूर्य ताप को निरन्तर स्वीकार किया इस क्षेत्र को शोध का विषय भी सहते हुए छह माह साधना करने का विधान है। बनाया है। सूत्रगत यह आख्यान इतना तो स्पष्ट करता ही है अभी अमेरिका आदि अनेक यूरोपियन देशों ने कि चेतना एक ऐसा शक्ति का केन्द्र है जिसमें शक्ति और भारत में पराशक्तियों पर अनुसन्धान चल रहे का अपार कोष निहित है उन शक्तियों को विशिष्ट हैं। श्री अम्बागुरु शोध संस्थान ने भी अपना एक प्रयोगों से प्रकट भी किया जा सकता है। उपक्रम इस दिशा में स्थापित किया है । परा-क्षेत्र एक में अनेक रूप पराशक्ति
में ज्यों-ज्यों वैज्ञानिकों की पैठ हो रही है, त्यों-त्यों भ० महावीर के सामने एक प्रश्न आया कि अनेक अज्ञात रहस्य हस्तामलकवत् निःसंशय और क्या चौदह पूर्वधर मनि एक घडे में से हजार घड़े प्रत्यक्ष होते जा रहे हैं। दिखा सकते हैं ? समाधान देते हुए भ० महावीर ने यहाँ हमने मात्र भगवती सूत्र से प्राप्त कतिपय कहा कि हाँ ऐसा वे कर सकते हैं। जब प्रतिप्रश्न परा-प्रसंग उपस्थित किये हैं, इसी ग्रन्थ में और हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है, तो समाधान था भी अनेक परा-संसूचक वृत्त उपस्थित हैं, ऐसे ही कि चौदह पूर्वधर "उत्कारिका भेद" द्वारा भिन्न जैन वाङमय के सूत्रों ग्रन्थों जीवन वृत्तों में और | अनन्त द्रव्यों को प्राप्त करते हैं। और उनसे ही वे भी अनेक घटनाएँ उल्लिखित हैं । आर्यों की आत्मा | ऐसा कर सकते हैं।
सम्बन्धी विचार पद्धति में आत्मा को अनन्त शक्ति
१ भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४
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२ भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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मान द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है जीवन अपार है । परा-मनोविज्ञान और पराशोध उन्हीं आत्मा का परिणमन ही है इसमें पुरुषार्थ एवं क्षयो- विषयों को खोलने का प्रयत्न कर रहा है। पशम की विचित्रता से अनेकानेक आश्चर्यजनक आशा है वैज्ञानिकों का यह प्रयास भविष्य में | परिणाम भी होते रहते हैं । वे परिणमन आत्म- जीवन के ऐसे अद्भुत किन्तु परम सत्य तथ्य प्रकाश शक्ति के उद्भव-पराभव के परिणामस्वरूप हैं। में ला सकेगा जो प्रत्येक जीवन में शाश्वत स्वधर्म जीवन का व्यक्त अंश अत्यन्त अल्प है अव्यक्त तो रूप निर्बाध रूप से स्थित हैं।
00000000000000000000000000006
(शेष पृष्ठ ३७७ का) तुलना की जाए तो संभव है हम इन स्थलों की चित्रण किया है, साथ ही सांस्कृतिक परम्पराओं ME पहचान कर सकते हैं। इसी प्रकार और स्थलों का भी मूल्यांकन किया है। इन सारे सन्दर्भो को की भी तुलना करना उपयोगी होगा।
यदि वैज्ञानिक रीति से संकलित किया जाए तो 12 ___ इस प्रकार जैन भूगोल को आधुनिक भूगोल के निश्चित हो व्यावहारिक भूगोल की सुन्दर रूपरेखा व्यावहारिक पक्ष के साथ रखकर हम यह निष्कर्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत हो सकती है। यहाँ शोधकों निकाल सकते हैं कि जैन भूगोल का समूचा पक्ष को भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ कोरा बकवास नहीं है। उसके पारिभाषिक शब्दों सकता है। कवियों ने राजाओं, नदियों, पर्वतों और को आधुनिक सन्दर्भो के साथ यदि मिलाकर समझने नगरों आदि के अभिस्रोतों का भी अनुवाद कर की कोशिश की जाए तो संभव है कि हम काफी दिया है, जिससे उनके यथार्थ नामों का पता करना । सीमा तक जन भौगोलिक परम्परा को आत्मसात् दुष्कर हो गया है । इसी तरह संख्या आदि के समय कर सकेंगे।
अतिशयोक्ति का उपयोग किया जाता है जिससे ___इस सन्दर्भ में यह दृष्टव्य है कि जैनाचार्यों ने साधारण पाठकों का विश्वास डगमगाने लगता भूगोल को इतना प्रमुख विषय नहीं बनाया। परन्तु है। इन सारे सन्दर्भो का समाधान खोजते हुए देश, नगर, पर्वत आदि का वर्णन करते हुए समय, व्यावहारिक भूगोल की संरचना की जाना आवजलवायु, आकृति आदि का वर्णन अवश्य किया है। श्यक है। उन्होंने कृषि, उद्योग, व्यापार आदि का भी सुन्दर ___-न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर ।
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-डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन
अनेकान्त शोध पीठ (बाडवली-उज्जैन) जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक
मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
(१) जम्बूद्वीप-वैदिक मान्यता
यात्राएँ भी करते थे तथा सौ दाढ़ों वाली लम्बी वैदिक लोगों को जम्बूद्वीप का ज्ञान नहीं था। जहाज बना लेने की विद्या से भी परिचित थे । उस समय की भौगोलिक सीमाएँ निम्न प्रकार थीं ऐतरेय ब्राह्मण (८/३) में आर्य मण्डल को है -पूर्व की ओर ब्रह्मपुत्र नदी तक गंगा का मैदान, पांच भागों में विभक्त किया गया है जिसमें उत्तर
उत्तर-पश्चिम की ओर हिन्दुकुश पर्वत, पश्चिम की हिमालय के उस पार उत्तर कुरु और उत्तरमद्र | ओर सिन्धु नदी, उत्तर की ओर हिमालय तथा नामक जनपदों की स्थिति थी। ऐतरेय ब्राह्मण दक्षिण की ओर विन्ध्यगिरि ।
(८/१४) के अनुसार कुछ कुरु लोग हिमालय के वेद में पर्वत विशेष के नामों में "हिमवन्त, उत्तर की ओर भी रहते थे जिसे 'उत्तर कुरु' कहा
का नाम आता है। तैत्तिरीय आरण्यक गया हैं। (१७) में “महामेरु" का स्पष्ट उल्लेख है जिसे (२) जम्बूद्वीप-रामायण एवं महाभारतकालीन कश्यप नामक अष्टम सूर्य कभी नहीं छोड़ता, प्रत्युत मान्यता सदा उसकी परिक्रमा करता रहता है । इस उल्लेख रामायणीय भूगोल- वाल्मीकि रामायण के से प्रो० बलदेव उपाध्याय' इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बाल, अयोध्या एवं उत्तर काण्डों में पर्याप्त भौगोमहामेरु से अभिप्राय "उत्तरी ध्रुव" है।
लिक वर्णन उपलब्ध है, किन्तु किाष्कन्धाकाण वेदों में समद्र शब्द का उल्लेख है. किन्त ४०वें सर्ग से ४३वे सगे तक सुग्रोव द्वारा सीता को पाश्चात्य विद्वानों के मत में वैदिक लोग समद से खोज में समस्त वानर-नेताओं को वानर-सेना के परिचित नहीं थे। भारतीय विद्वानों की दृष्टि में साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भेजने के प्रसंग में तत्काआर्य लोग न केवल समुद्र से ही अच्छी तरह परिचित लीन समस्त पृथ्वी का वर्णन उपलब्ध है। थे अपितु समुद्र से उत्पन्न मुक्ता आदि पदार्थों का वाल्मीकि ऋषि जम्बूद्वीप, मेरु तथा हिमवान् भी वे उपयोग करते थे। वे समुद्र में लम्बी-लम्बी पर्वत एवं उत्तरकुरु से सुपरिचित थे
१. प्रो० बलदेव उपाध्याय, 'वैदिक साहित्य और संस्कृति', शारदा मन्दिर काशी, १९५५, दशम परिच्छेद, "वैदिक
भूगोल तथा आर्य निवास", पृष्ठ ३५५ । २. वही, पृष्ठ ३६२ ।
३. वही, पृष्ठ ३६४ ।
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'उत्तरेण परिक्रम्म जम्बूद्वीपं दिवाकरः । देश्यों भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रमम् ।
'तेषां मध्ये स्थितौ राजा मेरुसत्तमपर्वतः । '
जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा में क्रमशः भागीरथी, सरयू आदि नदियाँ, ब्रह्ममाल, विदेह, मगध आदि देश - ( रामा. ४/४० / ५८/५६ ) तत्पश्चात् लवणसमुद्र, यवद्वीप (जावा), सुवर्णरूप्यक द्वीप (बोर्नियो), शिशिर पर्वत, शोणनद, लोहित -- ( रामा. ० / ४२ / ३८ ) समुद्र, कूटशाल्मली, क्षीरोदसागर, ऋषभपर्वत, 'अन्वीक्ष्य परदाश्चैव हिमवन्तं विचिन्वय' सुदर्शन तडाग, जलोद-सागर, कनकप्रभ पर्वत, उदय पर्वत तथा सोमनस पर्वत । इसके पश्चात् पूर्व दिशा अगम्य है । अन्त में देवलोक है ।
- ( रामा. ४-४३-१२) 'उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यपरिश्रमाः ।' - ( रामा. ४-४३ - २८ )
जैन परम्परा में उत्तरकुरु को भोगभूमि कहा गया है । रामायण के तिलक टीकाकार भी उत्तरकुरु को भोगभूमि कहते हैं
'तत आरम्य उत्तरकुरुदेशस्य भोगभूमित्वकथनम् ' - ( रामा० ४-४३ - ३८ पर तिलक टीका ) जैन साहित्य में भोगभूमि का जैसा वर्णन प्राप्त होता है वैसा ही वर्णन उत्तरकुरु का रामायण के बाईस श्लोकों (४-४३-३८ से ६० ) में उपलब्ध है । उनमें से कुछ श्लोक इस प्रकार हैं
'नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्रस्थाकुलाः । दिव्यगन्धरसस्पर्शाः सर्वकामान् स्रवन्ति च ॥ नानाकराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः । सर्वे सुकृतर्माणः सर्वे रतिपरायणाः । सर्वे कामार्थसहिता वसन्ति सहयोषितः ॥ तत्र नामुदितः कश्चिन्मात्र कश्चिदात्प्रियः । अहन्यहविवर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः || - ( रामा. ४-४३, ४३-५२ )
प्रो० एस० एम० अली, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूगोल विभाग, सागर विश्वविद्यालय, रामायणीय - जम्बूद्वीप की स्थिति पृथ्वी के बीच में मानते हैं जो कि भूगोल की जैन परम्परा से पर्याप्त मेल खाती है ।
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रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में जम्बूद्वीप का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है
जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में क्रमशः विन्ध्यपर्वत नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ, मेखल, उत्पल, दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, आन्ध्र, चोल, पाण्ड्य, केरल आदि देश, मलय पर्वत, ताम्रपर्णी नदी, महानदो, महेन्द्र, पुष्पितक, सूर्यवान्, वैद्य त एवं कुमार नामक पर्वत, भोगवती नगरी, ऋषभ पर्वत, तत्पश्चात् यम की राजधानी पितृलोक ।
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जम्बूद्वीप के पश्चिम में क्रमशः सौराष्ट्र, बाह्लीक, चन्द्रचित्र (जनपद), पश्चिम समुद्र, सोमगिरि, पारिमाल, वज्रमहागिरि, चक्रवात तथा वराह (पर्वत) प्राग्ज्योतिषपुर, सर्व सौवर्ण, मेरु एवं अस्ताचल (पर्वत) और अन्त में वरुण लोक ।
इसी प्रकार जम्बूद्वीप के उत्तर में क्रमशः हिमवातु (पर्वत) भरत, कुरु, भद्र, कम्बोज, यवन, शक (देश), काल, सुदर्शन, देवसखा, कैलास, क्रौंच, मैनाक (पर्वत), उत्तरकुरु देश तथा सोमगिरि और अंत में ब्रह्मलोक |
महाभारतीय भूगोल - महाभारत के भीष्म आदि, सभा, वन, अश्वमेघ एवं उद्योग पर्वों में भारत का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है। तदनुसार जम्बूद्वीप और क्रौंच द्वीप मेरु के पूर्व में तथा शक द्वीप मेरु के उत्तर में है ।
१ श्री एस० एम० अली एफ० एन० आय० 'दि ज्याग्रफी आफ दि पुरान्स' पीपुल्स पब्लीशिंग हाउस, नई दिल्ली, १९७३, पृष्ठ २१ - २३ । ( संक्षिप्त रूप - 'जियो आफ पुराणास ) ' ।
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महाभारतीय भूगोल में पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत है । इसकी उत्तर दिशा में पूर्व से पश्चिम तक )
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फैले क्रमशः भद्रवर्ष, इलावर्ष तथा उत्तरकुरु हैं। (४) जम्बूद्वीप-जैन मान्यता तत्पश्चात् पुनः उत्तर की ओर क्रमशः नील पर्वत, समस्त जैन पुराण, तत्त्वार्थ सूत्र (तृतीय श्वेत वर्ष, श्वेत पर्वत, हिरण्यक वर्ष, शृंगवान् अध्याय), त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि में समस्त विश्व पर्वत हैं। पश्चात् ऐरावत वर्ष और भीर का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध होता है। लोक के समुद्र है। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में पश्चिम से तीन विभाग किये गये हैं-अधोलोक, मध्यलोक पूर्व तक फैले हुए केतुमाल वर्ष एवं जम्बूद्वीप हैं। तथा ऊर्ध्वलोक । मेरु पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वलोक, पश्चात् पुनः दक्षिण की ओर क्रमशः निषध पर्वत, नीचे अधोलोक एवं मेरु की जड़ से चोटी पर्यन्त हरिवर्ष, हेमकूट या कैलाश, हिमवतवर्ष, हिमा- मध्यलोक है। लय पर्वत, भारतवर्ष तथा लवण समुद्र है।' यह मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र वर्णन जैन भौगोलिक परम्परा के बहुत निकट है। से घिरा है । लवण समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड (३) जम्बूद्वीप-पौराणिक मान्यता
नामक महाद्वीप है। धातकीखण्ड द्वीप को कालोप्रायः समस्त हिन्दू पुराणों में पृथ्वी और उससे दधि समुद्र वेष्टित किये हुए है । अनन्तर पुष्करवर सम्बन्धित द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदी, क्षेत्र आदि का द्वीप, पुष्करवर समुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र वर्णन उपलब्ध होता है। पुराणों में पृथ्वी को सात हैं । पुष्करवरद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है द्वीप-समुद्रों वाला माना गया है। ये द्वीप और जिससे इस द्वीप के दो भाग हो गये हैं । अतः जम्बूसमुद्र क्रमशः एक-दूसरे को घेरते चले गये हैं। द्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्कराध द्वीप इन्हें
इस बात से प्रायः सभी पुराण सहमत हैं कि मनुष्य क्षेत्र कहा गया है। जम्बूद्वीप पृथ्वी के मध्य में स्थित है और लवण जम्बूद्वीप का आकार थाली के समान गोल है। समुद्र उसे मेरे हुए है। अन्य द्वीप समुद्रों के नाम इसका विस्तार एक लाख योजन है। इसके बीच
और स्थिति के बारे में सभी पूराण एकमत नहीं में एक लाख चालीस योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। हैं । भागवत, गरुड़, वामन, ब्रह्म, मार्कण्डेय, लिंग, मनुष्य क्षेत्र के पश्चात् छह द्वीप-समुद्रों के नाम इस कूर्म, ब्रह्माण्ड, अग्नि, वायु, देवी तथा विष्णु पुराणों प्रकार हैं-वरुणवर द्वीप-वरुणवर समुद्र, के अनुसार सात द्वीप और समुद्र क्रमशः इस प्रकार क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, घृतवरद्वीप-घृतवर
समुद्र, इक्षुवरद्वीप-इक्षवर समुद्र, नन्दीश्वर-द्वीप१-जम्बूद्वीप तथा लवण समुद्र,
नन्दीश्वर समुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवर समुद्र, २-प्लक्ष द्वीप तथा इक्षु सागर,
इस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात ३-शाल्मली द्वीप तथा सुरा सागर,
द्वीप समुद्र हैं। ४-कुशद्वीप तथा सपिषु सागर,
__ जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सात क्षेत्र, छह कुला५.-क्रौंच द्वीप तथा दधिसागर,
चल और चौदह नदियाँ हैं। हिमवान्, महाहिम६-शक द्वीप तथा क्षीर सागर और वान्, निषध, नील, रुक्मो और शिखरी ये छह ७-पुष्कर द्वीप तथा स्वादु' सागर
कुलाचल हैं। ये पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हैं । ये
१ श्री एस० एम० अली, "दि ज्याग्राफी आफ द पुरान्स' पृ० ३२ तथा पृ० ३२-३३ के मध्य में स्थित, चित्र म सं०२ 'दि वर्ल्ड आफ महाभारत-डायनामेटिक' ।
२ "जियो ऑफ पुरान्स" पृष्ठ-३८, अध्याय-द्वितीय-"पुराणिक कान्टीनेन्ट्स एण्ड औशन्स"। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 00-600 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000
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जिन सात क्षेत्रों को विभाजित करते हैं उनके नाम हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । इन सातों क्षेत्रों में बहने वाली चौदह नदियों के क्रमशः सात युगल हैं, जो इस प्रकार हैं
गंगा, सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी - नरकान्ता, सुवर्णकुला रूप्यकुला तथा रक्ता रक्तोदा । इन नदी युगलों में से प्रत्येक युगल की पहली पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है और दूसरी दूसरी नदी पश्चिम समुद्र को ।
भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन है । विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरतक्षेत्र के विस्तार से दूना दूना है। उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान हैं ।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देवकुरु और उत्तरकुरु नामक दो भोगभूमियाँ हैं । उत्तरकुरु की स्थिति सीतोदा नदी के तट पर है । यहाँ निवासियों की इच्छाओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है । इनके अतिरिक्त हैमवत, हरि, रम्यक तथा हैरण्यवत क्षेत्र भी भोगभूमियाँ हैं । शेष भरत, ऐरावत और विदेह (देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर) कर्मभूमियाँ हैं ।
भरतक्षेत्र हिमवान् कुलाचल के दक्षिण में पूर्व - पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित है । इस क्षेत्र में सुकौशल, अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिंग, बंग, अंग, काश्मीर, वत्स, पांचाल, मालव, कच्छ, मगध, विदर्भ, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कोंकण, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चोल, केरल शूरसेन, विदेह, गान्धार, काम्बोज, बाल्हीक, तुरुष्क, शक, कैकय आदि देशों की रचना मानी गई है ।
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(५) जम्बूद्वीप - प्राचीन एवं आधुनिक भौगोलिक
मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
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(क) सप्तद्वीप - विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण वायुपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण प्रभृति पुराणों में सप्तद्वीप और सप्तसागर वसुन्धरा का वर्णन आया है । वह वर्णन जैन हरिवंश पुराण और आदिपुराण की अपेक्षा बहुत भिन्न है । महाभारत में तेरह द्वीपों का उल्लेख है । जैन मान्यतानुसार प्रतिपादित असंख्य द्वीप समुद्रों में जम्बू, च और पुष्कर द्वीप के नाम वैदिक पुराणों में सर्वत्र आए हैं ।
समुद्रों के वर्णन के विष्णु पुराण में जल के स्वाद के आधार पर सात समुद्र बतलाए हैं । जैन परम्परा में भी असंख्यात समुद्रों को जल के स्वाद के आधार पर सात ही वर्गों में विभक्त किया गया । लवण, सुरा, घृत, दुग्ध, शुभोदक, इक्षु और मधुर जल । इन सात वर्गों में समस्त समुद्र विभक्त हैं । विष्णु पुराण में 'दधि' का निर्देश है, जैन परम्परा में इसे 'शुभोदक' कहते हैं । अतः जल के स्वाद की दृष्टि में सात प्रकार का वर्गीकरण दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है ।
१
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री - " आदिपुराण में प्रतिपादित भारत", गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, १६६८, पृष्ठ ३६ - ६४; आदिपुराण में; प्रतिपादित भूगोल प्रथम परिच्छेद तथा तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका, सम्पा
दक पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६६५, तृतीय अध्याय, पृष्ठ २११-२२२ ।
२
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत', पृष्ठ ३६-४० ।
जिस प्रकार वैदिक पौराणिक मान्यता में अन्तिम द्वीप पुष्करवर है, उसी प्रकार जैन मान्यता में भी मनुष्य लोक का सोपान वही पुष्करार्ध हैं । तुलना करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य लोक की सीमा मानकर ही वैदिक मान्यताओं में द्वीपों का कथन किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में मान्य जम्बू, धातकी और पुष्करार्ध, इन ढाई द्वीपों में वैदिक परम्परा में मान्य सप्तद्वीप समाविष्ट हो जाते हैं । यद्यपि क्रौंच द्वीप का नाम दोनों मान्यताओं में समान रूप से आया है, पर स्थान निर्देश की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है । 2
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बौद्ध परम्परा में केवल चार द्वीप माने गए हैं। (ग) जम्बू (इण्डिया), कौंच (एशिया माइनर), समुद्र में एक गोलाकार सोने की थाली पर स्वर्ण- गोमेद (कोम डी टारटरी-Kome die Tartary), - मय सुमेरुगिरि स्थित हैं। सुमेरु के चारों ओर पुष्कर (तुर्किस्तान), शक (सीथिया), कुश (ईरान, । सात पर्वत और सात समुद्र हैं। इन सात स्वर्णमय अरेबिया तथा इथियोपिया), प्लक्ष (ग्रीस) तथा 0 पर्वतों के बाहर क्षीरसागर है और क्षीरसागर में शाल्मली (सरमेटिया Sarmatia)4 चार द्वीप अवस्थित हैं-कुरु, गोदान, विदेह और किन्तु प्रसिद्ध भारतीय भूगोलशास्त्री डा० जम्बू । इन द्वीपों के अतिरिक्त छोटे-छोटे और भी एस० एम० अली उपर्युक्त चारों मतों से सहमत HD दो हजार द्वीप हैं ।
नहीं हैं । पुराणों में प्राप्त तत्तत्प्रदेश की आवहना आधुनिक भौगोलिक मान्यता
(climate) तथा वनस्पतियों (Vegetation) के पौराणिक सप्तद्वीपों की आधनिक भौगोलिक विशेष अध्ययन से सप्त द्वीपों की आधुनिक पहचान पहचान (Identification) तथा स्थिति के विषय में के विषय में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह इस दो प्रकार के मत पाए जाते हैं । प्रथम मत के अनुसार प्रकार हैसप्तद्वीप (जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, जम्बूद्वीप (भारत), शक द्वीप (मलाया, श्याम, शक तथा पुष्कर) क्रमशः आधुनिक वह महाद्वीप- इण्डो-चीन, तथा चीन का दक्षिण प्रदेश), कुश द्वीप एशिया, योरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया,उत्तरी अमे- (ईरान, ईराक), प्लक्ष द्वीप (भूमध्यसागर का रिका तथा दक्षिणी अमेरिका एवं एण्टार्कटिका पठार), पुष्करद्वीप (स्कैण्डिनेवियन प्रदेश, फिनलै (दक्षिणी ध्र व प्रदेश) का प्रतिनिधित्व करते हैं। युरोपियन रूस का उत्तरी प्रदेश तथा साइबेरिया)
द्वितीय मत के अनुसार ये सप्तद्वीप पृथ्वी के शाल्मली द्वीप (अफ्रीका, ईस्ट-इंडीज, मेडागास्कर) आधुनिक विभिन्न प्रदेशों के पूर्वरूप हैं। इसमें भी तथा क्रौञ्च द्वीप (कृष्ण सागर का कछार)। तीन मत प्रधान हैं।
(ख) मेरु पर्वत-जैन परम्परा में मेरु को (क) जम्बू (इण्डिया), प्लक्ष (अराकान तथा जम्बूद्वीप की नाभि कहा है-'तन्मध्ये मेरुर्नाभि तो 6 वर्मा), कुश (सुन्द आर्चीपिलागो), शाल्मली (मलाया योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः' (तत्त्वार्थ सूत्र प्रायद्वीप), कौंच (दक्षिणी इण्डिया), शक (कम्बोज) ३/९) अर्थात् मेरु, जम्बूद्वीप के बिल्कुल मध्य में तथा पुष्कर (उत्तरी चीन तथा मंगोलिया है। इसकी ऊंचाई १ लाख ४० योजन है । इसमें से
(ख) जम्बू (इण्डिया), कुरु (ईरान), प्लक्ष एक हजार योजन जमीन में है, चालीस योजन की (एशिया माइनर), शाल्मली (मध्य योरोप), क्रौंच अन्त में चोटी है और शेष निन्यानवे हजार योजन (पश्चिम योरोप), शक (ब्रिटिश द्वीप समूह) तथा समतल से चूलिका तक है। प्रारम्भ में जमीन पर पुष्कर (आईसलैण्ड)
मेरु पर्वत का व्यास दस हजार योजन है जो ऊपर
१ एच० सी० रायचौधरी-“स्टडीज इन इण्डियन एण्टीक्वीटीज, ६६, १ष्ठ ५। २ कौल गिरिनी-'रिसर्चेज आन पेटोलेमीज' ज्याग्राफी आफ ईस्टर्न एशिया ( , पृष्ठ ७२५ । ३ एफ० विल्फोर्ड-'एशियाटिक रिसर्चेज' वाल्यू०८, पृष्ठ २६७-३४६ । ४ वी० वी० अय्यर--'द सेवन द्विपाज आफ द पुरान्स'-द क्वाटरली जनरल आफ दि मिथीकल सोसायटी
(लन्दन), वाल्यूम-१५, नं० १, पृ० ६२, नं० २, पृ० ११६-१२७, नं० ३, पृ० २३८-४५, वा० ११)
नं०४, पृ० २७३-८२ । ५ डा० एस० एम० अली, 'जिओ आफ पुरान्स', पृ० ३६-४६ (अध्याय २ पुरानिक कान्टीनेन्ट्स एण्ड ओशन्स)।
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क्रम से घटता गया है । मेरु पर्वत के तीन काण्ड योजन है, जिसमें से १६ हजार योजन पृथ्वी के हैं। प्रत्येक काण्ड के अन्त में एक-एक कटनी है। नीचे और चौरासी हजार योजन पृथ्वी के ऊपर यह चार वनों से सुशोभित हैं-एक जमीन पर है। चोटी पर उसका घेरा बतीस हजार योजन
इन तीन कटानियों पर । इनके क्रम से तथा मल में सोलह हजार योजन है. अतः इसका (५ नाम हैं-भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक। आकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पृथ्वी रूपी इन चारों वनों में, चारों दिशाओं में एक-एक वन कमल का 'कमलगट्टा' (Seedcup) हो। पद्ममें चार-चार इस हिसाब से सोलह चैत्यालय हैं। पुराण के अनुसार इसका आकार धतूरे के पुष्प पाण्डुकवन में चारों दिशाओं में चार पाण्डुक जैसा घण्टे के आकार (Bell shape) का है । वायुशिलाएँ हैं, जिन पर उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न पुराण के अनुसार चारों दिशाओं में फैली इसकी हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। इसका रंग शाखाओं के वर्ण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पीला है।
में क्रमशः श्वेत, पीत, कृष्ण और रक्त है । सीलोन ___ वेदों में मेरु नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक के बुद्धिष्ट लोगों के अनुसार मेरु का घेरा सर्वत्र (१-७-१-३) में 'महामेरु' है किन्तु इसकी पहचान एक जैसा है । नेपाली परम्परा के अनुसार मेरु का के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। रामायण, आकार ढोल जैसा है । महाभारत, बौद्ध एवं जैन आगम साहित्य में इसके आधनिक भौगोलिक मान्यता परिमाण तथा स्थान के बारे में प्रायः एक जैसे ही मेरु की उपर्युक्त स्थिति को ध्यान में रखते व कथन उपलब्ध हैं।
हए अब हमें उसके वर्तमान स्वरूप और स्थान के परशियन, ग्रीक, चायनीज, ज्यूज तथा अरबी विषय में विचार करना चाहिए। लोग भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों में मेरु का वर्णन
पन-अपन धमग्रन्थी में मेरु का वर्णन हिमालय तथा उसके पार के क्षेत्र (Himalकरते हैं । नाम एवं स्थान आदि के विषय में भेद ayan and Trans-Himalayan Zone) में पांच होते हुए भी केन्द्रीय विचारधारा वही है जैसा उन्नत प्रदेश हैं। पुराणों में प्राप्त मेरु के विवरण के हिन्दू-पुराणों में इसका वर्णन है। जोरोस्ट्रियन आधार पर, इन उन्नत प्रदेशों की तुलना मेरु से की धर्मग्रन्थ के अनुसार अल-बुर्ज (Al-Burj) नामक जा सकती है। ये प्रदेश है : पर्वत ने ही पृथ्वी के समस्त पर्वतों को जन्म दिया १. कराकोरम (Kara-Koram) पर्वत शृंख- ६
और इसी से विश्व को जल से आप्लावित करने लाओं से घिरा क्षेत्र, वाली नदियां निकलीं । यही अल-बुर्ज मेरु है। २. धौलगिरि (Dhaulgiri) पर्वत शृंखलाओं चाइनीज लोगों का विश्वास है कि सिग लिंग' से घिरा क्षेत्र, (Tsing-Ling) ही मेरु पर्वत है। इसी से विश्व के
३. एवरेस्ट (Everest) पर्वत श्रृंखलाओं से समस्त पर्वत और नदियां निकलीं।।
घिरा क्षेत्र, ___ मेरु के परिमाण और आकार के विषय में ४. हिमालय आर्क्स (Himalayan Arcs) तथा विष्णुपुराण में उल्लेख है कि सभी द्वीपों के मध्य कुन-लुन (Kun-lun) पर्वत से घिरा हुआ तिब्बत 2 में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्य में स्वर्ण का पठार, तथा गिरि मेरु है। इसकी समस्त ऊंचाई एक लाख ५. हिन्दूकुश (Hindukush) कराकोरम, टीनd
१ सर्वार्थसिद्धि' भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, तृतीय अध्याय, पृष्ठ २११-२२२ AL २ डा० एस० एम० अली-जिओ आफ पूरान्स अध्याय-३ (दि माउन्टेन सिस्टम आफ वि पूरान्स पृष्ठ-४७-४८
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शान (Tien shan) तथा एलाइपार पर्वत श्रृंखला (Trans Ali system) की बर्फ से ढकी चोटियों से घिरा पामीर का उन्नत पठार ।
इन पांचों उन्नत प्रदेशों में से 'पामीर के पठार' से मेरु की तुलना करना और भी अधिक सही और युक्तयुक्त प्रतीत होता है । पामीर और मेरु में नाम का भी सादृश्य है । पा= मीर = मेरु ।
यदि पामीर के पठार से मेरु की तुलना सही है तो पुराणों में प्रतिपादित जम्बूद्वीप के पार्श्ववर्ती प्रधान पर्वतों की भी पहिचान की जा सकती है ।
पुराणों के अनुसार मेरु के उत्तर में तीन पर्वत हैं- नील, श्वेत (जैन परम्परा के अनुसार " रुक्मी") और श्रृंगवान् (जै० प० शिखरी) ये तीनों पर्वत, रम्यक, हिरण्मय ( जै० प० हैरण्यवत्) तथा कुरु ( जै० प० ऐरावत् ) क्ष ेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं । इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में भी तीन पर्वत हैं - निषध, हेमकूट (जै० प० महाहिमवान् ) तथा हिमवान् (ये तीनों पर्वत) हिमवर्ष (जै. म. हरि ) किम्पुरुष ( जै० प० हेमवत) और भारतवर्ष (जै० प० भरत) क्षेत्रों सीमान्त पर्वत हैं । ये छहों पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र तक फैले हैं ।
जैन परम्परा के अनुसार भी मेरु के उत्तर में तीन वर्षधर पर्वत है-नील, रुक्मी और शिखरी । दोनों (जैन - वैदिक) परम्पराओं में केवल नील पर्वतमाला का ही नाम सादृश्य नहीं है, अपितु रुक्मी (श्वेत) और शिखरी (श्रृंगवान्) पर्वतमाला का भी नाम सादृश्य है । इन पर्वतों की आधुनिक भौगोलिक तुलना हम विभिन्न पर्वतमालाओं से कर चुके हैं ।
इन पर्वतमालाओं तथा उत्तरी समुद्र (आर्क
इन सभी पर्वतों की तुलना वर्तमान भूगोल से टिक ओशन) अर्थात् लवण समुद्र के बीच क्रमशः इस प्रकार की जा सकती है :
१. श्रृंगवान् ( शिखरी) की कराताउ - किरगीज वर्तमान पर्वत श्रृंखला (Kara Tau Kirghis Ket - man Chain) है।
२. श्वेत ( रुक्मी) की नूरा ताउ - तुर्किस्तान अतबासी पर्वत श्रृंखला (Nura Tau - Turkistan Atbasi Chain) से,
५. हेमकूट ( महाहिमवान् ) की लद्दाख - कैलाशट्रान्स हिमालयन पर्वत श्रृंखला (Laddakh-Kailash-Trans-Himalayan chain) से, तथा
६. हिमवान् की हिमालय पर्वत श्रृंखला ( Great Himalayan Range ) से 11
(ग) जम्बूद्वीप - जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, पुराणों में मेरु (पामीर) के उत्तर में क्रमशः तीन पर्वतमालाएँ हैं जो पूर्व-पश्चिम लम्बी हैनील, जो कि मेरु के सबसे निकट और सबसे लम्बी पर्वत माला है, श्वेत, जो कि नील से कुछ छोटी और उससे उत्तर की ओर आगे है, तथा अन्तिम श्रृंगवान्, जो कि सबसे छोटी तथा श्वेत से उत्तर की ओर आगे है ।
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नील और श्वेत ( रुक्मी) के बीच रम्यक या रमणक (जैन परम्परा में रम्यक) वर्ष, श्वेत और शृंगवान् (जै० प० में शिखरी) के बीच हिरण्मय या हिरण्यक ( जै० प० में हैरण्यमान् ) तथा श्रृंगवान (जैन पर० में ऐरावत) नाम के वर्ष क्षेत्र है । 2 जम्बूद्वीप का उत्तरी क्षेत्र
३. नील का जरफशान ट्रान्स आलाइ - टीनशान पर्वत श्रृंखला से, (Zarafshan - Trans Alei Tien - shn Chain)।
सबसे पहले हम रम्यक क्षेत्र को लेते हैं । जैन परम्परा में भी इसका नाम रम्यक वर्ष क्षेत्र है । इसके दक्षिण में नील तथा उत्तर में श्वेत पर्वत है । हमारी पहचान के अनुसार नील, नूर ताउ — तुर्किस्तान
४. निषध की हिन्दुकुश तथा कुनलुन पर्वत पर्वत मालाएँ है और श्वेत, जरफसान - हिसार श्रृंखला से । पर्वत मालाएँ हैं ।
१ डा० एस० एम० अली 'जिओ० आफ पुरान्स" पृ० ५० से ५८ तक ।
२ डा० एस० एम० अली - "जिओ० आफ पुरान्स" अध्याय- ५, 'रीजन्स आफ जम्बूद्वीप- नार्दन रीजन्स पृष्ठ ७३ ।
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यह प्रसिद्ध है कि एशिया के भू-भाग में अति अर्थ है-हिरण्यवती का अर्थ है-जहाँ सुवर्ण प्राप्त प्राचीनकाल में दो राज्यों की स्थापना हुई थी- हो, सुवर्णकूला अर्थ है-जिसके तट पर सुवर्ण हो
आक्सस नदी (oxus River) के कछार में बैक्ट्रिया और जरफशान का अर्थ है-सुवर्ण को फैलाने ro (Bactria)तथा जरफसान नदी और कशका दरिया वाली (Scatterer of Gold) ।
(River Jarafshan and Kaska Daria) के कछार में तृतीय क्षेत्र, जो कि शृंगवान् पर्वत के उत्तर
सोगदियाना (Sogdiana) राज्य आज से २५०० में है, उत्तरकुरु है। जैन परम्परा में इसे ऐरावत श्रा या २००० वर्ष पूर्व ये दोनों राज्य अत्यन्त घने रूप पर्वत कहा गया है। यह प्रदेश आधुनिक इटिश ५
से वसे थे । यहाँ के निवासी उत्कृष्ट खेती करते थे। (Irtish) दी औब (The Ob) इशीम (Ishim) in यहाँ नहरें थीं। व्यापार और हस्तकला कौशल में तथा टोबोल (Tobol) नदियों का कछार प्रदेश है। भी ये राज्य प्रवीण थे।
दूसरे शब्दों में आधुनिक भौगोलिक वर्गीकरण के 4 __ ऐसा कहा जाता है कि "समरकन्द" की अनुसार यह क्षेत्र साइबेरिया का पश्चिमी प्रदेश है। स्थापना ३००० ई० पू० हई थी। अतः "सोग- इस प्रकार जम्बूद्वीप का यह उत्तरी क्षेत्र एक भी दियाना" को हम मानव संस्थिति का सबसे बहुत लम्बे प्रदेश को घेरता है जो कि उराल पर्वत प्राचीन संस्थान कह सकते हैं। "सोगदियाना" का
और कैस्पियन सागर से लेकर येनीसाइ नदी नील और श्वेत पर्वतमालाओं से तथा पडौसी (Yenisai River U.S.S.R.) तक तथा तुर्किस्तान । राज्य, बैक्ट्रिया (केतुमाल) जिसका आगे वर्णन टीन शान पर्वतमाला से लेकर आर्कटिक समुद्रतट करगे, से विशेष सम्बन्धों पर विचार करने पर दम तक जाता है। इस निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि पौराणिक "रम्यक जम्बूद्वीप का पश्चिमी क्षेत्र-केतुमाल वर्ष प्राचीनकाल का "सोगदियाना" राज्य है।
। मेरु (पामीर्स) का पश्चिम प्रदेश केतुमाल है। बुखारा का एक जिला प्रदेश, जिसका एक नाम
- जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पश्चिम भाग "रोमेतन" (Rometan) है, सम्भवतः "रम्यक" का
है। इसके दक्षिण में निषध और उत्तर में नील ही अपभ्रंश है।
पर्वत है। निषध पर्वत को आधनिक भगोल के अन-19
सार हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्वतमाला (Hinduदूसरा क्षेत्र जो कि श्वेत और शृंगवान् पर्वत- Kush Kunlun) माना गया है। यह केतुमाल प्रदेश मालाओं के मध्य स्थित है, हिरण्यवत् है । हिरण्य- चक्षनदी (Oxus River) तथा आमू दरिया का र वत् का अर्थ है सुवर्णमाला प्रदेश । जैन परम्परा में कछार है। इसके पश्चिम में कैस्पियन सागर इसे "हैरण्यवत्" कहा गया है। इस क्षेत्र में बहने (Caspian Sea) है जिसमें आल्पस नदी अकार | वाली नदी का पौराणिक नाम है "हिरण्यवती"। मिलती है। उसके उत्तर-पश्चिम में तुरान का र
आधुनिक जरफशान नदी इसी प्रदेश में बहती है। रेगिस्तान है। इस प्रदेश को हिन्दू पुराण में इलास जैन परम्परा के अनुसार इस नदी का नाम सुवर्ण- वर्त कहा गया है। इस प्रदेश में सीतोदा नदी
कूला है । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि हिरण्यवती, बहती है। इसी प्रदेश में बैक्ट्रिया राज्य था सुवर्णकूला और जरफशान तीनों के लगभग एक ही जिसे हम पहले कह चुके हैं।
१. डा० एस० एम० अली-जिओ० आफ पूरान्स पृष्ठ ८३.८७ (अध्याय पंचम रीजन्स आफ जम्बूद्वीप, नार्दन
रीजन्स-रमणक, हिरण्यमय एण्ड उत्तरकुरु) २. वही पृष्ठ ८८-६८ (अध्याय ६, रीजन्स आफ जम्बूद्वीप केतुमाल)
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- जम्बूद्वीप का पूर्वी क्षेत्र-भद्रवर्ष
(घ) जम्बूद्वीप और भारतवर्ष : पौराणिक मा मेरु के पूर्व का यह प्रदेश भद्रवर्ष के नाम से इतिहास-विष्णुपुराण (२-१) के अनुसार स्वयंभ ) हिन्दू पुराणों में कहा गया है। जैन भूगोल के अनु- मनु के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद । प्रिय. A सार यह विदेह का पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में व्रत ने समस्त पृथ्वी के सात भाग (सप्तद्वीप) ट्र
नील (Tien Shan Range) तथा दक्षिण में निषध करके उन्हें अपने सात पुत्रों में बाँट दिया-. . (Hindu Kush-Kunlun) पर्वतमाला है। इसके अग्नीध्र को जम्बूद्वीप, मौधातिथि को प्लक्ष, पश्चिम में देवकट और पूर्व में पूर्व समुद्र है। अमुष्यत् को शाल्मली, ज्योतिष्मत् को कुश, का
आधुनिक भूगोल के अनुसार यह प्रदेश तरीम पुलिमत् को क्रौंच, मध्व को शक और शबल को ke तथा ह्वांगहो (Tarim and Hwang-Ho) नदियों पुष्कर द्वीप। कछार है। दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण सिक्यिांग जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र के नौ पुत्र थे । (Sikiang) तथा उत्तर-चीन प्रदेश इसमें समाविष्ट उन्होंने जम्बू देश के नौ भाग करके उन्हें अपने नौ है। यहाँ सीता नदी बहती है । संक्षेप में हम कह पुत्रों में बाँट दिया-हिमवन् का दक्षिण भाग हिम सकते हैं कि इस भद्रवर्ष (पूर्व विदेह) प्रदेश के (भारतवर्ष) नाभि को दिया। इसी प्रकार हेमकूट का अन्तर्गत उत्तरी चीन, दक्षिणी चीन तथा त्सिग सिम्पुरुष को, निषध हरिवर्ष को, मेरु के मध्य वाला लिंग (Tsing Ling) पर्वत का दक्षिणी भाग आता भाग इलावृष को, इस प्रदेश और नील पर्वत के है। यहाँ के निवासी पीत वर्ण के हैं।
मध्य वाला भाग राय को, इसके उत्तर वाला श्वेत ___आधुनिक भूगोल के अनुसार इस नदी का नाम प्रदेश हिरण्यवत को, शृंगवान् पर्वत से घिरा श्वेत किजिल सू (Kizil-Su) है ।।
का उत्तर प्रदेश कुरु को, मेरु के पूर्व का प्रदेश जम्बूद्वीप का दक्षिणी क्षेत्र
भद्र को तथा गन्धमादव एवं मेरु के पश्चिम का जम्बूद्वीप के दक्षिण प्रदेश का वर्णन मेरु के प्रदेश केतुमाल को दिया। प्रसंग में दिया जा चुका है। तदनुसार मेरु नाभि के सौ पुत्र थे उनमें ज्येष्ठ भरत थे। (पामीर) के दक्षिण में निषध, हेमकूट (जैन पर- नाभि ने अपने प्रदेश “हिम" अर्थात् भारतवर्ष को 10) म्परा में महाहिमवान्) तथा हिमवान् पर्वत है और नौ भागों में विभक्त करके अपने को पुत्रों बाँट || इन पर्वतों से विभाजित क्षेत्र के नाम हैं, क्रमशः दिया। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भारतवर्ष के ये 12 हिमवर्ष (जैन परम्परा में हरि) किम्पुरुष (जैन नौ भाग इस प्रकार है-इन्द्रद्वीप, ताम्रपर्ण, परम्परा में हैमवत) और भारतवर्ष (जैन परम्परा मतिमान्, नाव द्वीप, सौम्य, गन्धर्व,वरुण तथा कुमामें भरत)।
रिका या ब्यारी। यह सभी प्रदेश मेरु (पामीर्स) से लेकर हिन्द जैन परम्परा के अनुसार नाभि और मरुदेवी महासागर तक का समझना चाहिए। भारत के के पुत्र, ऋषभ, प्रथम युगपुरुष थे। उन्होंने विश्व || दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम में जो क्रमशः हिन्द महा- को असि, मसि, कृषि, कला, वाणिज्य और शिल्प सागर एवं प्रशान्त तथा अरब सागर हैं वहीं लवण रूप संस्कृति प्रदान की। उनके एक सौ एक पुत्र समुद्र है।
थे। इनमें भरत और बाहुबली प्रधान थे । संसार (2
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१. डा. एस. एम. अली, "जिओ० आफ पुरान्स" पृ० ६६-१०८, अध्याय-७, रीजन्स ऑफ जम्बूद्वीप
भाद्रवर्ष ।
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से विरत होकर दीक्षा ग्रहण करने से सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य अपने समस्त दिया । बाहुबली को पोतनपुर का भरत चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ ।
इस पौराणिक आख्यान से तीन बातें स्पष्टतः प्रतीत होती हैं
(अ) किसी एक मूल स्रोत से विश्व की मानव का प्रारम्भ हुआ । यह बात आधुनिक विज्ञान की उस मोनोजेनिस्ट थ्योरी (Monogenist theory) के अनुसार सही है जो मानती है कि मनुष्य जाति के विभिन्न प्रकार प्राणिशास्त्र की दृष्टि से एक ही वर्ग के हैं ।
पूर्व ऋषभ ने पुत्रों को बांट राज्य मिला । नाम से यह
(ब) किसी एक ही केन्द्रीय मूल स्रोत से निकलकर सात मानव समूहों ने सात विभिन्न भागों को व्याप्त कर स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् मानव सभ्यता का विकास किया । यह सिद्धान्त भी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव है जिसमें कहा गया है कि विश्व की प्राथमिक जातियों ने पृथ्वी के विभिन्न वातावरणों वाले सात प्रदेशों को व्याप्त कर तत्तत्प्रदेशों के वातावरण के प्रभाव में अपनी शारीरिक विशिष्ट आकृतियों का विकास किया ।
(स) पश्चात् पृथ्वी के इन सात भागों में से एक भाग में (पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप में) नो मानव समूहों में जो नौ प्रदेशों को व्याप्त किया उनमें भारतवर्ष भी एक है ।"
(ङ) भारतवर्ष - भारतवर्ष से प्रायः इण्डिया उपमहाद्वीप जाना जाता है। किन्तु प्राचीन विदेशी साहित्य में इस इण्डिया उपमहाद्वीप के लिए कोई एक नाम नहीं है ।
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वैदिक आर्यों ने पंजाब प्रदेश को 'सप्तसिंधव' नाम दिया । बोधायन और मनु के समय में आर्यों ने इस क्षेत्र को 'आर्यावर्त' नाम दिया । रियस ( Darius) तथा हेरोडोट्स ( Herodotus) ने सिन्धु घाटी तथा गंगा के ऊपरी प्रदेश को 'इण्ड' या 'इण्डू' (हिन्दू) नाम दिया। कात्यायन और मेगास्थनीज ने सुदूर दक्षिण में पांड्य राज्य तक फैले सम्पूर्ण देश का वर्णन किया है। रामायण तथा महाभारत भी पाण्ड्य राज तथा बंगाल की खाड़ी तक फैले भारतवर्ष का वर्णन करते हैं । ·
अशोक के समय में भारत की सीमा उत्तरपश्चिम में हिन्दकुश तक और दक्षिण-पूर्व में सुमात्राजावा तक पहुँच गई थी । कनिंघम ने उस समस्त प्रदेश को विशाल भारत ( Greater India ) नाम दिया और भारतवर्ष के नवद्वीपों से उसकी समा
नता स्थापित की 12
इस प्रकार आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं के
अनुसार जम्बूद्वीप का विस्तार उत्तर में साइबेरिया प्रदेश (आर्कटिक ओशन) दक्षिण में हिन्द महासागर और उसके द्वीपसमूह, पूर्व में चीन- जापान ( प्रशान्त महासागर ) तथा पश्चिम में कैस्पियन सागर तक समझना चाहिये ।
अन्त में हम प्रसिद्ध भूगोलशास्त्रवेत्ता, सागर विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रो० एस० एम० अली के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना, कर्त्तव्य समझते हैं जिनके खोजपूर्ण ग्रन्थ, 'दि ज्याग्राफी आफ द पुरान्स' से हमें इस निबन्ध के लेखन में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई ।
१. डा० एस. एम. अली, 'जिओ० आफ पुरान्स' पृष्ठ - ६-१० ( प्रस्तावना)
२. डा० एस. एम. अली, 'जिओ आफ पुरान्स' पृष्ठ - १२६ अध्याय अष्टम, 'भारतवर्ष - फिजिकल' ।
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डा० गदाधर सिंह विश्वविद्यालय प्रोफेसर स्नातकोत्तर हिन्दी-विभाग ह० या० जैन कालेज, आरा ।
जैन-स्तोत्र-साहित्य : एक विहंगम दृष्टि
2
अकम
ज्ञान, कर्म और उपासना-ये तीनों भारतीय श्रद्धा से ही सत्य स्वरूप परमात्मा प्राप्त होता है। साधना के सनातन मार्ग रहे हैं। ज्ञान हमें कर्म- स्तुति का महत्व । अकर्म से परिचित करा शाश्वत लक्ष्य का बोध
'भक्ति रसायन' में लिखा कराता है, कर्म उस लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास
काम क्रोध भय स्नेह हर्ष शोक दयादयः । करता है और उपासना के द्वारा हम उस लक्ष्य के पास बैठने तथा उससे तादात्म्य-भाव स्थापित
ताप काश्चित्तजतुनस्तच्छान्तौ कठिनं तु तत् ॥ करने में समर्थ होते हैं। इन तीनों के सम्मिलित
चित्त को लाख के समान कहा जाता है। वह (8 रूप को ही भक्ति कहते हैं। स्तोत्र या स्तवन उसी काम, क्रोध, भय, स्नेह, हर्ष, शोक आदि के संसर्ग IIKC भक्ति का एक अंग है।
में आते ही पिघल जाता है। जिस प्रकार पिघली स्तुति म गुण कथनम् ॥ -महिम्न-स्तोत्र की हुई लाक्षा में रंग घोल देने पर, वह रंग लाक्षा के टीका (मधुसूदन सरस्वती)।
कठोर होने पर भी यथावत् रहता है, उसी प्रकार गुणों के कथन का नाम स्तुति है।
द्रवित चित्त में जिन संस्कारों का समावेश हो गुण कथन तो चारण या भाट भी करते हैं जाता है, वे संस्कार चित्त के भीतर अपना अक्षुण्ण ARRY) किन्तु वह स्तुति नहीं है । प्राकृत जन या नाशवान
स्थान बना लेते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हें तत्त्वों की प्रशंसा स्तुति नहीं है, वरन् सत्य स्वरूप
ही 'वासना' कहते हैं। भगवान् के दिव्य मंगलपरमात्मा की प्रशंसा ही स्तुति के अन्तर्गत आयेगी।
विग्रह के दर्शन से, उनकी लीलाओं के श्रवण से सत्यमिद्वा उतं वयमिन्द्र स्तवाम् नानृतम् ।।
तथा उनके स्वरूप का ध्यान करने से चित्त भी
एक विशेष रूप में द्रवीभूत हो जाता है और इस
-ऋग्वेद ८/५१/१२. हम उस भगवान् की स्तुति करें, असत्य पदार्थों
प्रकार का द्रवीभाव व्यक्ति को लोकोत्तर आनन्द
की दिशा में अभिप्रेरित करता है। स्तोत्र का ||KE की नहीं। तमुष्टवाम् य इमा जनान् ॥ -ऋग्वेद ८/८/६
महत्व इसी रूप में है। हम उस भगवान् की स्तुति करें जिसने यह स्तोत्र के माध्यम से भक्त आराध्य के गुणों का सारी सृष्टि उत्पन्न की है।
स्मरण करता है और उनके स्मरण से उसमें उन्हीं , ___इस स्तुति या प्रशंसा के पीछे हृदय की उदात्त गणों को अपनाने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। वृत्ति श्रद्धा मिली रहती है-श्रद्धया सत्यमाप्यते आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि प्रार्थना से भक्त । (यजु० १६।३०)।
भगवान के गुणों को पा लेता हैपचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म
यह सत्य है कि जैन-दर्शन के अनुसार मोक्ष की पाई ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ प्राप्ति के लिए जीव को अपने पुरुषार्थ के अतिरिक्त
___ अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों किसी बाहरी सहायता की अनिवार्यता नहीं है PRER का भेदन करने वाले वीतरागी, विश्व के तत्वों को किन्तु यह भी सत्य है कि जैसे दर्पण में मुंह देखने से
जानने वाले सर्वज्ञ, आप्त (अर्हन्त) की भक्ति उन्हीं मनुष्य अपने चेहरे की विकृति को यथावत् देख के गुणों को पाने के लिए करता हूँ।
सकता है और देख लेने के उपरान्त उसे दूर करने जैनधर्म में भक्ति का स्वरूप
का प्रयत्न कर सकता है, उसी प्रकार जैनधर्म
मानता है कि परमात्मा के दर्शन से हम अपने मनजैनधर्म आचार और ज्ञान-प्रधान धर्म है।
वचन की विकृति को दूर करके अपने वास्तविक इसमें जीव अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता स्वयं ही
स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं । यद्यपि जीव कर्म है। जैन-दर्शन में आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत
करने में स्वतन्त्र है किन्तु परमात्मा की स्तुति उसे की गई है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि की उच्च
शुभ कर्म करने की प्रेरणा देती है। प्रार्थना से वह तम अवस्था ही मोक्ष है। जीव अपने बंधाबंध के
__मल नष्ट हो जाता है और अन्तःकरण शुद्ध एवं लिए स्वयं उत्तरदायी है। इसी आधार पर कुछ
स्वच्छ हो चमकने लगता है। कल्याण मन्दिर स्तोत्र लोगों का तर्क है कि यदि आत्म-पूरुषार्थ से ही
(८) में कहा गया हैजीव अपने कर्मों का क्षय कर सकता है तो उसे ।
हृतिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति भगवत्-अनुग्रह की क्या आवश्यकता ?
जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । एक तथ्य और है जिससे जैनधर्म को भक्ति
सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग, विरोधी प्रमाणित किया जाता है। भक्ति के मूल
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। में राग है। ज्ञाता के हृदय में ज्ञय के प्रति जब तक राग की भावना नहीं आती तब तक भक्ति का
हे कर्म बन्ध विमुक्त जिनेश ! जैसे जंगली र उद्भव नहीं हो सकता। भक्ति का अर्थ परात्म- मयूरों के आते ही चन्दनगिरि के सुगन्धित चन्दन विषयक अनुराग ही है-सा परानुरक्तिरीश्वरे वृक्षों में लिपटे हुए भयंकर भुजंगों की दृढ़ कुण्ड(शांडिल्य सूत्र १/१/२)। जैन-दर्शन में किसी भी लियाँ तत्काल ढीली पड़ जाती हैं, वैसे ही जीव के प्रकार के राग को आस्रव का कारण माना गया
मन-मन्दिर के उच्च सिंहासन पर आपके अधिष्ठित है। अतः इस तर्क के आधार पर भक्ति भी बन्धन होते हो अष्ट कर्मों के बन्धन अनायास ही ढीले पड़ का ही कारण सिद्ध होती है।
जाते हैं।
आचार्य समन्तभद्र जिन्हें 'आद्य स्तोतकार' होने तोसरी बात यह है कि जब तक भक्ति का आलम्बन सगुण और साकार नहीं होता तब तक
का गौरव प्राप्त है लिखते हैंभक्ति सिद्ध नहीं हो सकती। यद्यपि जैनधर्म में
त्वदोष शान्त्या विहितात्म शान्ति भक्ति के आलम्बन अर्हत, सिद्ध आदि सगुण और
शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । साकार हैं किन्तु वीतरागी होने के कारण इन्हें
भूयोद् भवक्लेश भवोपशान्त्य, भक्तों के योग-क्षेम से कोई प्रयोजन नहीं होता।
शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ।। ___ अतः उपर्युक्त परिस्थितियों में भक्ति की
-स्वयम्भू स्तोत्र ११ अनिवार्य भाव-भूमि के लिए जैन धर्म अनुर्वर है, हे शान्तिजिन! आपने अपने दोषों को शान्त ऐसा कहा जाता है।
करके आत्मशान्ति प्राप्त की है तथा जो आपकी ३६४
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शरण में आये हैं, उन्हें भी आपने शान्ति प्रदान की जब वे स्वयं वीतरागी हैं तब किसी के सुख-दुःख से 5 1 है। अतः आप मेरे लिए भी संसार के दुःखों-भयों उनका क्या प्रयोजन ? इसका उत्तर 'दशभक्त्यादि का को शान्त करने में शरण है।
संग्रह' में दिया है कि यद्यपि भगवान फल देने में जहाँ तक दूसरे तर्क का प्रश्न है वहाँ यही
निस्पृह हैं किन्तु भक्त कल्पवृक्ष के समान उनके ( कहना पर्याप्त है कि जो राग लौकिक अभ्युदय या '
निमित्त से भक्ति का फल पा जाता है।
यथा निश्चेतनाश्चिन्ता मणिकल्प महीरहाः । प्रयोजन के लिए किया जाता है वही बन्धन का
कृत पुण्यानुसारेण तदभीष्टफलप्रदाः ।। कारण होता है किन्तु इसके विपरीत जो राग
तथाहदादयश्चास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । वीतराग से किया जाता है, वह तो मुक्तिदायक
भक्त भक्त्यनुसारेण स्वर्ग मोक्षफलप्रदाः ।। होता है । गीता में इसी को व्यापक अर्थ में सकाम
-दशभक्त्यादि संग्रह ३/४ निष्काम कर्म से समझाया गया है। सकाम कर्म
जिस प्रकार चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष यद्यपि बन्ध का कारण होता है और निष्काम कर्म मोक्ष
अचेतन हैं फिर भी वे पुण्यवान पुरुष को उसके अभीष्ट का । जैन-भक्त अर्हन्त भगवान से कुछ पाने की
के अनुकूल फल देते हैं उसी प्रकार अर्हन्त या सिद्ध ॥5 कामना नहीं करता वरन् उसका भाव निष्काम होता है । कल्याण मन्दिर (४२) में कहा गया है
राग, द्वेष रहित होने पर भी भक्तों को उनकी
भक्ति के अनुसार फल देते हैं। इस तथ्य की पुष्टि यद्यस्ति नाथ भवदङ घ्रि सरोव्हणां,
आचार्य समन्तभद्र के वचनों से भी होती। भक्तेः फलं किमपि सन्तत सञ्चितायाः ।
न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः,
न निंदया नाथ ! विबान्तवैरे। स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ।।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः हे नाथ ! आपकी स्तुति कर मैं आपसे अन्य
पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ किसी फल की चाह नहीं करता, केवल यही चाहता यद्यपि वीतराग देव को किसी की स्तुति, हूँ कि भव-भवान्तरों में सदा आप ही मेरे स्वामी प्रशंसा या निन्दा से कोई प्रयोजन नहीं फिर भी रहें। जिससे आपको अपना आदर्श बनाकर अपने उनके गुणों के स्मरण से भक्त का मन पवित्र हो को आपके समान बना सकू।
जाता है। दूसरी बात यह है कि 'पर' के प्रति राग-बन्धन
अन्तिम शंका जो जैनधर्म को भक्ति-विरोधिनी का कारण होता है किन्तु 'आत्म' का अनुसन्धान
सिद्ध करने के लिए की जाती है वह यह है कि जैन का तो मुक्ति का कारण है । परमात्मा 'पर' नहीं, 'स्व'
धर्म वस्तुतः ज्ञानप्रधान धर्म है। इसमें भक्ति के " है-एहु जु अप्पा सो परमप्पा (परमात्म प्रकाश,
लिये कोई स्थान नहीं हो सकता। वस्तुतः भारतीय | १४७) । अतः जिनेन्द्र का कीर्तन करने वाले अपनी
धर्म-साधना में ज्ञान और भक्ति को एक दूसरे से मार | आत्मा का ही कीर्तन करते हैं, आत्मा का ही
" पृथक् करके नहीं देखा गया है क्योंकि दोनों के मूल श्रवण, मनन और निदिध्यासन करते हैं । उपनिषद्
में श्रद्धा है । श्रद्धावां लभते ज्ञानम्-यह गीता का (वृहदा० ४/५-याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद) का भी
__ मत है । भक्ति की जड़ में तो श्रद्धा है ही । आचार्य
फन्दकन्द ने भक्ति से ज्ञान-प्राप्ति की प्रार्थना भगयही मत है।
वान से की हैतीसरी आलोचना भगवान के वीतराग-भाव से इमघायकम्म मुक्को अठारह दोस वज्जियो सयलो सम्बन्धित है। क्या वीतराग की भक्ति या उपासना तिहवण भवण पदीवो देउ मम उत्तम बोहिं।। से दुःख या दुःख के कारणों का अभाव सम्भव है ?
-भावपाहुड १५२वीं गाथा
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यद्यपि ज्ञान बुद्धि का विषय है फिर भी हृदय ३. आराध्य के समक्ष आत्म-निवेदन तथा का भाव-बोध देकर हो सन्तों ने उसे स्वीकार किया लौकिक-पारलौकिक फल-प्राप्ति की कामना
। निगेणियां सन्तों ने भक्ति की आधारशिला ४. दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण । पर ही अपनी साधना का प्रासाद निर्मित किया ५. काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन
जैनस्तोत्र-परम्परा ज्ञान को भक्ति का आलम्बन स्वीकार करने में जैन स्तोत्र-परम्परा प्रारम्भ में स्तोत्र और सबसे बडी बाधा यह बताई जाती है कि भक्ति द्वैत स्तव के बीच भेद करती थी। शान्तिसरि ने 'स्तव' If बुद्धि पर आधारित होती है किन्तु आत्म-साक्षा- को संस्कृत में तथा 'स्तोत्र' को प्राकृत में निर्मित त्कार के उपरान्त सभी प्रकार की दतबुद्धि या माना है। सभी प्रकार के भेद नष्ट हो जाते हैं। फिर वहाँ आचार्य नेमिचन्द के गोम्मटसार कर्मकाण्ड भक्ति की कामना ही कैसे हो सकती है ? प्रकरण में कहा गया है कि 'स्तव' में वस्तु के सर्वांग ___आद्य शंकराचार्य ने 'त्रिपुर सुन्दरी रहस्य का और स्तुति में एक अंग का विवेचन विस्तार या (ज्ञान खण्ड) में इस पर विचार किया है। उनका संक्षेप से रहता है। वस्तुतः ये भेद प्रारम्भिक कहना है कि यह सत्य है कि उस समय अभेदज्ञान अवस्था में कुछ दिनों तक भले रहे हों किन्तु बाद में हो जाता है किन्तु भक्त आहार्य ज्ञान द्वारा भेद की यह अन्तर समाप्त हो गया और दोनों एकार्थवाची कल्पना कर लेता है। इस प्रकार की भेद-बुद्धि
औरत हो गए। बन्धन का कारण नहीं होती बल्कि सैकड़ों मुक्तियों प्राकृत-स्तोत्र-साहित्य से भी बढ़कर आनन्दप्रद होती है । दूसरी बात यह जैन-साहित्य में स्तोत्र-परम्परा मूल आगमों से है कि आत्मस्वरूप का ज्ञान होने के पूर्व द्वैतभाव ही प्रारम्भ होती है । आगमों में तीर्थंकरों की स्तुति कर बन्धन का कारण होता है किन्तु विज्ञान के बाद सुन्दर एवं आलंकारिक शैली में की गयी है और भेद-मोह के निवृत्त होने पर भक्ति के लिए भावित देवों द्वारा १०८ पद्यों में स्तुति करने का निर्देश द्वैत अद्वैत से भी उत्तम है ।
दिया गया है। प्राकृत स्तोत्रों में गौतम गणधर का यही कारण है कि यद्यपि जैनधर्म ज्ञान-प्रधान
'जय तिहुअण स्तोत्र सबसे अधिक प्राचीन है। है किन्तु भक्तिशून्य नहीं है। जैन भक्तों, कवियों भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट होते एवं दार्शनिकों ने विपूल परिमाण में स्तोत्र-ग्रन्थों समय गौतम ने इसी स्तोत्र से उनकी अभ्यर्थना की की रचना की है। ये स्तोत्र अर्हन्त, गुरु, सिद्ध, पंच
थी। परमेष्ठि आदि से सम्बन्धित हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने चीबीस तीर्थ
करों की स्तुति में 'तित्थयर सुदि' की रचना की - इन स्तोत्रों में निम्न तथ्यों की सर्वांगपूर्ण विवे
थी जिसे श्वेताम्बर समाज में 'लोगस्स सुत्त' कहते हैं चना हुई है
१. आराध्य के स्वरूप की सौंदर्यपूर्ण व्यंजना भयहर स्तोत्र मानतुग सूरि विरचित है। २. आराध्य की लीलाओं का गान
इसके २१ पद्यों में भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति
१ प्रकाशक-जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम
जन स्तोत्र संदोह (द्वितीय भाग), चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद
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निवेदित की गई है । मानतुग का समय विक्रम की नाथ की सम्मिलित प्रार्थना है। इस स्तोत्र के सातवीं शताब्दी है।
अनुकरण पर १२ वीं शती में जयवल्लभ ने 'अजित उवसग्गहर स्तोत्र' भद्रबाह की रचना है। ये शान्ति स्तोत्र' और वीरनन्दि ने 'अजिय संतिथय' भद्रबाहु श्रु त केवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका स्तोत्र की रचना की। समय विक्रम की छठी शताब्दी है । इसमें कुल २० शाश्वत चैत्यस्तव-इसकी रचना देवेन्द्रसूरि गाथाएँ हैं । इसमें भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति है। हकी
ने की है। इनका समय १३ वीं शताब्दी है । इसकी। यह स्तोत्र इतना लोकप्रिय है कि अनेक भौतिक
२४ गाथाओं में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा मान्य रोगों के उपचार में इसका प्रयोग किया जाता है।
अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या और उनकी भक्ति ऋषभ पञ्चाशिका के रचयिता धनपाल (१० प्रदर्शित है। वीं शती) हैं । इसमें कुल ५० पद्य हैं जिसके प्रारम्भ
निर्वाणकाण्ड-यह प्राकृत का प्राचीन स्तोत्र के २० पद्यों में भगवान ऋषभ के जीवन की गाथाएँ
है। इसमें कुल २१ गाथाएँ हैं । जैनों के दिगम्बर हैं और शेष ३० में उनकी प्रशंसा की गयी है। ____महावीर स्तोत्र-इसके रचयिता अभयदेव सूरि
__ सम्प्रदाय में इसकी बहुत मान्यता है। जिन-जिन हैं। इसमें २२ पद्य हैं।
स्थानों पर जैन तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया का पंचकल्याणक स्तोत्र-जिमवल्लभ सूरि (१२ वीं
उनकी प्रार्थना इसमें हैं । एक तरह से इसे जैन तीर्थ शती) ने इसकी की है। इसमें कूल २६ पद्य हैं। इस स्थानों का इतिहास करना चाहिए। पर कई टीकाएँ लिखी गयी हैं।
लब्धजित शान्तिस्तवन-इसकी रचना अभयचतुविशति जिनकल्याणकल्प और अम्विकादेवी देवसूरि के शिष्य जिनवल्लभ सूरि द्वारा विक्रम की - कल्प-यह जिनप्रभ सूरि (१४ वीं शताब्दी) रचित बारहवीं शती में हुई। इस स्तोत्र पर धर्मतिलक l है । सूरिजी का स्थान जैन स्तोत्रकारों में बहुत मुनि ने सं. १३२२ वि. में वृत्ति लिखी है। इसमें
ऊँचा है । आपने ७०० स्तोत्रों की रचना की थी कुल १७ पद्य हैं । कविता बड़ी मनोरम एवं लालिकिन्तु अभी आपके ७० स्तोत्र ही उपलब्ध हैं। इन त्यपूर्ण है। स्तोत्रों में यमक, श्लेष, चित्र तथा विविध छन्दों का निजात्माष्टकम -इसके रचयिता ‘परमात्मचमत्कार देखा जा सकता है।
प्रकाश' के प्रसिद्ध रचयिता योगेन्द्रदेव हैं। इसमें ___अजित संतिथय-यह नंदिषेण रचित है ( कुल आठ पद्य हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक भावधारा वीं शताब्दी)। इसमें भगवान अजितनाथ एवं शांति- से ओतप्रोत है।
ROY
१ साराभाई मणिलाल नबाव द्वारा प्रकाशित 'प्राचीन साहित्य और ग्रन्थावलि' में संग्रहीत सन् १९३२ ई. २ काव्यमाला सप्तम गुच्छक-प. दुर्गाप्रसाद और वासुदेव लक्ष्मण सम्पादित सन् १९२६ ई० । ३ जैन स्तोत्र संदोह (प्रथम भाग), पृ. १६७-६६ ४ मुनि जिनविजय सम्पादित विविध तीर्थकल्प, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्ति निकेतन सं. १६६० वि. ५-६ प्राचीन साहित्य और ग्रन्थावलि में संग्रहीत, सन १९३२ ई. ७ वैराग्य शतकादि ग्रन्थ पञ्चकम् में पृ. ५० पर; देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फंड द्वारा सूरत से सन् १९४१
में प्रकाशित । - 'सिद्धान्तसारादि संग्रह' में संकलित, प्रकाशक-दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई वि. सं. १९०६
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___ अरहंत स्तवनम्-इसके रचयिता समन्तभद्र किया है । इनके द्वारा रचित एक और स्तोत्र हैहैं जो सम्भवतः प्रसिद्ध समन्तभद्र से भिन्न हैं। द्वात्रिंशिका स्तोत्र। इस में भगवान महावीर की इसका कलेवर छोटा है किन्तु काव्यगुण दृष्टि से स्तुति है। इसका विशिष्ट महत्व है।
३. आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद रचित स्तोत्रइन स्तोत्रों के अतिरिक्त प्राकृत में और भी इन्होंने सिद्धभक्ति, श्रु तभक्ति, तीर्थंकरभक्ति आदि । अनेक स्तोत्र लिखे गए हैं जिनमें मानतुंग का भय- से सम्बन्धित बारह स्तोत्रों की रचना की है जो हर स्तोत्र, जिनप्रभसूरि का पासनाह लघुथव, धर्म- 'दसभक्ति' नामक प्रकाशित ग्रन्थ में संकलित है। HD घोषकृत इसिमंडल थोत्त, देवेन्द्रसूरि कृत चत्तारि- ४. पात्रकेशरी स्तोत्र-इसके रचयिता विद्याअट्टदसथव आदि बहत प्रसिद्ध हैं।
नन्दि हैं। इसके ५० पद्यों में भगवान महावीर की संस्कृत स्तोत्र-जैन भक्तों ने प्राकृत के अति- स्तुति की गई है। रिक्त संस्कृत, अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय ५. भक्तामर स्तोत्र-इस स्तोत्र का सम्मान भाषाओं में विपुल परिमाण में स्तोत्र-ग्रंथों की जैनधर्म में बहुत अधिक है । इसके रचयिता आचार्य रचना की है । साधारणतः संस्कृत पद्यों का निर्माण मानतुंग हैं। इसमें कुल ४८ श्लोक हैं । इसका अनुछन्दशास्त्र में उल्लिखित छन्दों में ही किया जाता वाद हिन्दी और अंग्रेजी में भी हुआ है। है किन्तु जैन कवियों की यह विशेषता है कि उन्होंने ६. चतविशति जिन स्तोत्र-यह बप्पभट्रि (सन् । लोकरुचि को ध्यान में रखकर विविध राग-रागि- ७४८-८३८ई०) का लिखा हआ है। इसमें ९६ पद्य नियों एवं देशियों का उपयोग अपने स्तोत्रों में हैं। किंवदन्ती है कि रचयिता ने कन्नौज के राजा किया है । गुजरात एवं राजस्थान के सैकड़ों लोक- यशोवर्मा के पुत्र अमरराज को जैनधर्म में दीक्षित गीत जो अब विस्मृति के गर्भ में विलीन हो चुके हैं किया था। इनके द्वारा रचित एक 'सरस्वती स्तोत्र वे पूरे-के-पूरे जैन कवियों द्वारा रचित रासों, ग्रन्थों भी मिलता है। एवं स्तोत्रों में सुरक्षित हैं। इस दृष्टि से इनके उप- ७. शोभन स्तोत्र-शोभन कवि लिखित होने के कार को साहित्य-संसार भूल नहीं सकता।
कारण इसे 'शोभन स्तोत्र' कहते हैं। इनका समय १. स्वयंभ स्तोत्र-संस्कृत में आचार्य समन्तभद्र विक्रम की दसवीं शती है। इसका शब्द-चमत्कार | एवं सिद्धसेन दिवाकर आद्य स्ततिकार माने जाते दर्शनीय है। कवि के भाई घनपाल ने इसकी हैं । आचार्य समन्तभद्र का स्वयम्भू स्तोत्र प्रसिद्ध है टीका लिखी है। जिसका अनुवाद हिन्दी के अनेक जैन कवियों ने द.स्तति चविशतिका-इसके रचयिता सन्दरकिया है। इसके अतिरिक्त इनके कुछ अन्य स्तोत्र गणि हैं जो अकबर के प्रबोधक खरतरगच्छाचार्य भी प्रसिद्ध हैं। जैसे देवागम स्तोत्र, जिनशतक श्री जिनचन्द्रसरि के शिष्य हर्ष विमल के शिष्य थे। (व आदि।
इसमें १३ प्रकार के छन्द हैं। इसमें यमक की छटा २. कल्याण मन्दिर स्तोत्र-यह आचार्य सिद्ध दर्शनीय है। इसकी प्रत्येक स्तुति के चार पदों में सेन दिवाकर द्वारा रचित है। इसमें कुल ४४ पद्य प्रथम में किसी एक तीर्थकर की स्तुति, दूसरे में हैं । इस स्तोत्र की मान्यता जैनों के सभी सम्प्रदायों सर्व जिनों की, तृतीय में जिन प्रवचन और चौथे में में है। हिन्दी के जैन कवियों ने इसका भी अनुवाद शासन-सेवक देवों का स्मरण किया गया है।
१ अनेकान्त वर्ष १८, किरण ३ में प्रकाशित ।
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- इसकी प्रेरणा से रचित कुछ अन्य रचनाएँ प्रसिद्ध आदि; १६वीं शती में रामविजय, क्षमाकल्याण
हैं। जैसे मेरुविजय की जिनानन्द स्तति चविश- आदि स्तोत्रकार हए हैं। तिका, यशोविजय उपाध्याय की ऐन्द्रस्तुति चतुर्वि- अगरचन्द नाहटा ने पुण्यशील रचित 'चर्विशतिका, हेमविजय रचित चतुर्विंशतिका आदि । शति जिनेन्द्र स्तवनानि' की भूमिका में अनेक स्तोत्र ६. विषापहार स्तोत्र-इसके रचयिता धनंजय
ग्रन्थों की सूचना दी है। (८-6वीं शती) हैं । ऐसी मान्यता है कि इसके पाठ
'Ancient Jain names' नामक एक पुस्तक का से सर्प का विष दूर हो जाता है।
सम्पादन Charlottle Krause नामक एक जर्मन १०. वादिराजसूरि के स्तोत्र-'एकीभावस्तोत्र',
विद्वान द्वारा हुआ है जो ‘उज्जैन सिन्धिया ऑरि'ज्ञानलोचन स्तोत्र' और 'अध्यात्माष्टक'--ये तीन
यन्टल इन्स्टीट्यूट' द्वारा सन् १९५२ ई० में प्रकास्तोत्र प्रसिद्ध हैं। 'एकीभाव स्तोत्र' का अनुवाद
शित हो चुका है। इसमें आठ स्तोत्र संग्रहीत है जो हिन्दी के अनेक जैन कवियों ने किया है।
भाषा और भाव, दोनों दृष्टियों से उत्तम हैं।
अपभ्रंश स्तोत्र ११.आचार्यहेमचन्द्र के स्तोत्र-आचार्यहेमचन्द्र ने कुमारपाल की प्रार्थना पर वीतरागस्तोत्र' की रचना
अपभ्रंश भाषा में भी जैन भक्तों ने कुछ स्तोत्रों की । इसके बीस भाग हैं और प्रत्येक भाग में आठ की रचना की है किन्तु इनकी संख्या संस्कृत एवं है या नव स्तोत्र हैं । भाषा बडी कवित्वमयी है। इनके प्राकृत की तुलना में अत्यल्प है। काव्य के प्रसंग रचे दो और स्तोत्र हैं-महावीर स्तोत्र और महा
के भीतर लिखे गए कुछ स्तोत्र भाषा और भाव की देव स्तोत्र।
दृष्टि से उत्कृष्ट हैं किन्तु स्वतन्त्र रूप में लिखे गए स इनके अतिरिक्त और भी स्तोत्रकार हुए हैं
स्तोत्र काव्य गुण की दृष्टि से बहुत महत्व नहीं
रखते। जिन्होंने बडी ललित पदावली में अपने आराध्यों
___ स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' एवं पुष्पदन्त के महाकी भक्ति में स्तोत्र ग्रन्थों का प्रणयन किया है । १४ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिनरत्नसूरि, अभय- में की गयी है।
. पुराण में जिनदेवता की स्तुति बड़े भावपूर्ण शब्दों तिलक, देवमूर्ति, जिनचन्द्रसूरि एवं उत्तरार्द्ध में जिनकुशल सूरि, जिनप्रभसूरि, तरुणप्रभसूरि, लब्धि
धनपाल (११ वीं शती) ने भगवान महावीर निधान, जिनपद्मसूरि, राजेशखराचार्य आदि स्तोत्र
• की प्रशंसा में 'सत्पुरीय महावीर उत्साह' स्तोत्र की * कर्ता हुए हैं।
रचना काव्यमयी भाषा में की है । १३ वीं शती के ||
जिनप्रभ सूरि ने कुछ स्तोत्र ग्रन्थों की रचना की () १५ वीं सदी में जिनलब्धसूरि, लोकहिताचार्य,
लब्धसूरि, लोकहिताचार्य, है जिनमें प्रसिद्ध है-जिनजन्म महः स्तोत्रम्; जिन 720) | भुवनहिताचार्य, विनयप्रभ, मेरुनन्दन, जिनराज जन्माभिषेक. जिन महिमा. मनिसवत स्तोत्रम | सूरि, जयसागर, कीर्ति रत्नसूरि आदि स्तोत्रकर्ता आदि । इनका काल विक्रम की १३ वीं शताब्दी र
है। श्री धर्मघोष सूरि (सं. १३०२-५७ वि.) ने २७ . १६ वीं शती में क्षेमराज, शिवसुन्दर, साधु पद्यों में 'महावीर कलश' की रचना की है । महा- IKE ३, सोम आदि; १७ वीं शती में जिनचन्द्रसूरि, समय- कवि रइधू न आत्म सम्बोधन, दश लक्षण जयमाल |
राज, सूरचन्द्र, पद्मराज, समय सुन्दर, उपाध्याय और संबोध पंचाशिका स्तोत्र की रचना अपभ्रंश गुणविजय, सहजकीत्ति, जीव वल्लभ आदि । १८ में की है । गणि महिमासागर ने 'अरहंत चौपई' वीं शती में धर्मवद्धन, ज्ञानतिलक, लक्ष्मीवल्लभ नामक स्तोत्र का प्रणयन किया है।
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डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा संपादित प्राकृत में उनका 'उवसग्गहर स्तोत्र वृत्ति' प्रसिद्ध का राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सची में भी है। बहुत से स्तोत्र-ग्रन्थों की नामाबलि मिल सकती प्राचीन हिन्दी में इन्होंने 'चतुर्विशति जिनहै। 'स्तवन' ग्रन्थों की विस्तृत सूची डा० प्रेमसागर स्तुति', 'स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन', 'विरहमान जैन रचित 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में उप- जिन स्तवन' आदि की रचना की है। इनके अतिलब्ध है।
रिक्त 'जिनकलशसूरिचतुष्पदी' में सूरिजिनकुशल हिन्दी जैन-स्तोत्र-साहित्य
की महिमा का इन्होंने गान किया है। हिन्दी में स्तोत्र-साहित्य का ग्रथन मौलिक रूप ४. श्री पद्मतिलक (१५वीं शती का उत्तरार्द्ध)में नहीं हआ है। अपनी लोकप्रियता एवं काव्य- इनके द्वारा रचित 'गर्भ विचार स्तोत्र' प्रसिद्ध है । । सम्पदा के कारण पंचस्तोत्रों-'भक्तामर', 'कल्याण इस स्तोत्र ग्रन्थ में गर्भवास के दुःखों के वर्णन की 18 मन्दिर', 'विषापहार', 'एकीभाव' और चविंशति पृष्ठभूमि में इससे छुटकारा दिलाने की प्रार्थना || स्तवन' ने हिन्दो जैन कवियों का ध्यान अपनी भगवान ऋषभनाथ से की गयी है। ओर आकृष्ट किया है और फलस्वरूप इनके ५. विनयप्रभ उपाध्याय (सं० १५१२)-इन्होंने 1 बीसियों पद्यानुवाद प्रस्तुत किये हैं। इन अनुवादों अनेक स्तुतियाँ लिखी हैं जिनमें 'सीमन्धर स्वामि में यद्यपि कवियों ने अपनी मौलिक प्रतिभा का उप स्तवन' प्रसिद्ध है। योग कर इन्हें रस-संवेद्य बनाने की चेष्टा की है, ६. अभयदेव (सं० १६२६)-इनके 'थंभण पार्श्वकिन्तु, इतना होते हुए भो एक भी अनुवाद ऐसा नाथ स्तवन' में स्तंभनपुर में विद्यमान भगवान नहीं हुआ है जो मूल ग्रन्थ की समकक्षता प्राप्त कर पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रार्थना है। सके । इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही कृति ७. गणिक्षतिरंग- इनका 'खैराबाद पार्श्व जिन | के अनेक अनुवाद भिन्न-भिन्न कवियों द्वारा प्रस्तुत स्तवन' खैराबाद स्थित भगवान पार्श्वनाथ की किए गए हैं । इन अनूदित स्तोत्रों के अतिरिक्त कुछ प्रतिमा को लक्ष्य कर लिखा गया है। मौलिक स्तोत्र भी हिन्दी के जैन कवियों द्वारा
८. ब्रह्मजिनदास-ये संस्कृत, प्राकृत एवं देश्यप्रणीत हुए हैं। इन स्तोत्रों को तीन वर्गों में विभा
भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। संस्कृत में आपने जित किया जा सकता है
अनेक पूजाएँ लिखी हैं। हिन्दी में इन्होंने 'कथा (क) विनती (ख) स्तुति (ग) प्रार्थना । इन
कोष संग्रह' लिखा जिसमें 'पंचपरमेष्ठी गुण वर्णन' स्तोत्रों की रचना करने वालों में कुछ प्रमुख हैं- संगृहीत है। इसमें पंचपरमेष्ठियों की प्रार्थना की
१. विनयप्रभ-इनकी पाँच स्तुतियाँ प्रसिद्ध हैं। गयी है। प्रत्येक स्तुति में २०-३० के लगभग पद्य हैं । 'सीम- ह. ठकरसी-सोलहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध न्धर स्वामि स्तवन' को भी इन्हीं की रचना माना
माना कवियों में इनकी गणना की जाती है। अन्य ग्रन्थों गया है।
के अतिरिक्त स्तोत्र से सम्बन्धित इनकी दो रचनाएँ २. मेरुनन्दन उपाध्याय (सं. १४१५)-इनके प्राप्त हुई हैं-चिन्तामणि जयमाल और सीमंधर दो स्तवन 'अजित शान्ति स्तवन' और 'सीमन्धर स्तवन । जिन स्तवनम्' प्राप्त हैं।
१० पद्मनन्दि-इनके दो स्तोत्र ग्रन्थ प्रकाश ३. उपाध्यय जयसागर (सं. १४०८-६५)-ये में आये हैं-देवतास्तुति तथा परमात्मराजसंस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे। स्तवन । ४००
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११. भट्टारक शुभचन्द (सं० १५७३ बि० ) - इनकी लिखी हुई ४० से अधिक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें निम्नलिखित स्तोत्र प्रसिद्ध हैं -- (१) चतुविशति स्तुति, (२) अष्टाह्निका गीत, (३) महावीर छन्द, (४) विजयकीर्ति छन्द, (५) गुरु छन्द, (६) नेमिनाथ छन्द ।
१२. आनन्दघन - इनका स्थान जैन कवियों में अप्रतिम है । इनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं - चौबीसी और बहत्तरी । चौबीसी गुजराती में है जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है ।
१३. उदयराज जती (सं० १६६७ ) - रचनाएँभजन छतीसी, चौबीस जिन सवैया ।
१४. कल्याण कीर्ति - जीराबली पार्श्वनाथ स्तवन, नवग्रह स्तवन, तीर्थंकर विनती, आदीश्वर
बधावा ।
१५. कनककति – मेघकुमार गोत, जिनराज - स्तुति, श्रीपाल स्तुति, पार्श्वनाथ की आरती, विनती ।
१६. कुमुदचन्द्र - मुनिसुव्रत विनती, आदीश्वर | विनती, पार्श्वनाथ विनती, त्रेपनप्रिया विनती, जन्मकल्याणक गीत, शील गीत आदि ।
१७. कुशल लाभ - पूज्यवाहणगीतम् । १८. गुणसागर - शान्तिनाथ स्तवन, पार्श्वजिनस्तवन ।
१६. जयकीर्ति - महिम्न स्तवन ।
२०. पाण्डे जिनदास - जिन चैत्यालय पूजा (संस्कृत) एवं मुनीश्वरों की जयमाल ।
२१. नरेन्द्र कोर्ति-बीस तीर्थंकर पूजा (संस्कृत), | पद्मावती पूजा (संस्कृत), ढाल - मंगल की (forat) I
२४. भगवतीदास ये भैया भगवतीदास से | भिन्न हैं । इनकी २३ रचनाएँ प्राप्त हैं जिनमें स्तोत्र
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सम्बन्धी निम्नलिखित रचनाएँ हैं - बीर जिनेन्द्र गीत, आदिनाथ स्तवन, शान्तिनाथ स्तवन ।
"
२५. रामचन्द्र - इनके द्वारा रचित तीन स्तवन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं - बीकामेर आदिनाथ स्तवन, सम्मेद शिखर स्तवन और दशपंचक्खाण ।
२६. महारक शुभचन्द्र - संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त हिन्दी में लिखे इनके स्तोत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । जैसे- चतुर्विंशति स्तुति, अष्टाह्निकागीत, क्षेत्रपालगीस, महावीर छन्द, आरती, गुरु छन्द आदि ।
२७. मुनि सकलकीर्ति - पार्श्वनाथाष्टक | २८. पाण्डे रूपचन्द्र - इनके भी कई स्त्रोत प्रसिद्ध हैं ।
२६. सहजकीर्ति - प्राती, जिनराजसूरि गीत. साधु कीर्ति, जैसलमेर चैत्य प्रवाडी ।
३०. सुमतिकीर्ति - जिनवरस्वामी विनती, जिन विनती, क्षेत्रपाल पूजा ।
३१. हर्ष कीर्ति - जिनभक्ति,
बीस तीर्थंकर जकडी, पार्श्वनाथ पूजा, बीस विहरमाण पूजा ।
३२. पं० हीरानन्द --- समवशरण स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र ।
पाण्डेय हेमराज, अखयराज और धनदास ने 'भक्तामर स्तोत्र' का पद्यानुवाद किया है। हेमराज का यह अनुवाद सरल और स्पष्ट तो है ही उसके मूलभाव को भी स्पष्ट करता है । कुमुदचन्द्र कृत 'कल्याण मन्दिर स्तोत्र' बहुत ही लोकप्रिय स्तोत्र रहा है और इसी कारण हिन्दी के अनेक कवि इसकी ओर आकृष्ट हुए हैं। इसके अनुवादकर्त्ताओं
२२. ब्रह्मगुलाल - समवसरण स्तोत्र |
२३. बनारसीदास --' बनारसी विलास' में इनके में महाकवि बनारसीदास, अखयराज, भेलीराम ६ स्तोत्र संगृहीत हैं ।
आदि अग्रय हैं। महाकवि बनारसीदास का अनुबाद सोलह मात्रा के चौपाई छन्द में है । भक्त संस्कृत मूल स्तोत्र से जो आनन्द प्राप्त करता है
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३३. मुनि हेमसिद्ध - आदिनाथ गीत । ३४. द्यानतराय - स्वयम्भू स्तोत्र तथा 'धर्म विलास' में निबद्ध दस पूजा ग्रन्थ । ३५. हेमराज - भक्तामर स्तोत्र |
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वही आनन्द बनारसीदास के अनुवाद से एक इसी पद्य को मूधरदास ने अधिक कुशलता से हिन्दी-भाषी को उपलब्ध होता है । जैसे- ग्रहण किया है। उन्होंने 'मणिदीप' को ज्यों का .
सुमन वृष्टि जो सुरकरहि, हेठ वीट मुख सोहि । त्यों रहने दिया है। ज्यों तुम सेवत सुमनजन, बन्ध अधोमुख होहिं ॥ सिवपुर केरो पन्थ पाप तम सों अति छायो। कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय । दुःख सरूप बहु कूप खण्ड सों बिकट बतायो । भाव सहित जो जिन नमें, तसुगति ऊरध होय ॥
स्वामी सुख सों तहाँ कौन जन मारग लागें । -क्रम संख्या २१, २३ प्रभु प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगें ॥ 'एकीभाव स्तोत्र' हिन्दी-कवियों को बहुत प्रिय रहा है । इसका अनुवाद पं० हीरानन्द, अखयराज,
'विषापहार स्तोत्र' का अनुवाद विद्यासागर ने मूधरदास, जगजीवन और द्यानतराय ने प्रस्तुत
किया है। कवि का यह अनुवाद बड़ा सटीक एवं किया है। 'एकीभाव' के चौदहवें श्लोक का
सार्थक हुआ है। इसी प्रकार भूपाल कवि कृत
'चतुर्विशति स्तोत्र' का अनुवाद भी सुन्दर रूप में अनुवाद करते हुए द्यानतराय लिखते हैंमुकति पन्थ अघ तम बहुभयो,
प्रस्तुत किया गया है । दोहा-चौपाई शैली में कवि ने गढे कलेस विसम विसतरी मूल भावों की पूर्णतः रक्षा की है। सुख सौं सिवपद पहुँचे कोय,
इन अनूदित स्तोत्रों के अतिरिक्त मौलिक जो तुम वच मन दीप न होय ॥ स्तोत्रों की रचना भी प्रचुर परिमाण में ही है। ध्यान देने की बात यह है कि जहाँ वादिराज इस प्रकार जैन-स्तोत्र-साहित्य गुण एवं परिमाण, । ने 'रत्नदीप' लिखा है वहाँ द्यानतराय ने मात्र दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है और एक स्वतन्त्र GI 'दीप' ही रहने दिया है । अवश्य 'मन' शब्द अधिक शोध की अपेक्षा रखता है । ला है । घोर तमिस्रा के बीच 'दीप' की तुलना में
'रत्नदीप' अधिक सटीक एवं सार्थक है।
नोट-लेख में वणित अनेक धारणाएँ लेखक की अपनी स्वतन्त्र हैं। श्वेताम्बर परम्परा की धारणाओं से भिन्नता भी है, अत: लेखक एवं पाठक से निवेदन है, वे इस विषय पर सन्तुलित चिन्तन करें।
-सम्पादक
भद्र भद्रमिति ब्रूयात् भद्रमित्येव वा वदेत् । शुष्कवरं विवादं च न कुर्यात् केनचित् सह ॥
-मनुस्मृति ४/१३६ मानव के लिए उचित है कि सदा ही भद्र-मधुर शब्दों का प्रयोग करे । अच्छा है, उचित है-सामान्य रूप से ऐसा ही कहना उचित है। किसी के भी साथ व्यर्थ की शत्रता अथवा विवाद करना उचित नहीं है।
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० डॉ० गंगाराम गर्ग प्राध्यापक महारानी श्री जया कालिज, भरतपुर
नीतिकाव्य के विकास में हिन्दी
जैन मुक्तक काव्य की भूमिका
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संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य की तरह देवीदास, जयपुर के वुधजन और पार्श्वदास जैसे हिन्दी में भी नीतिकाव्य की समृद्ध परम्परा रही महाकवियों ने 'बनारसी विलास' के अनुकरण पर है।'कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे' की धारणा के अनु- क्रमशः 'धर्मविलास', 'परमानन्द विलास', 'बुधजन सार नीति-सिद्धान्तों की प्रेरणाप्रद चर्चा साहित्य का विलास', 'पारस विलास' जैसे विशाल काव्यग्रन्थों का चरम लक्ष्य भी है।
प्रणयन किया। इनमें अनेक गेय पदों के अतिरिक्त उत्तर मध्यकाल में शासक का लक्ष्य स्वार्थ- लघु रचनाओं के रूप में पर्याप्त अगेय मुक्तक भी लिप्सावश प्रजा का शोषण रह गया तथा अधिकांश हैं। जिनका प्रधान विषय नीति प्रतिपादन है। समाज नीतिभ्रष्ट होकर सुरा-सुन्दरी में लिप्त जैन नीतिकाव्य की इसी परम्परा में अध्यात्म होना अपना आदर्श मानने लगा। हिन्दी के अधि
___ मत के अनुयायी कोसल देश के विनोदीलाल, दादरी कांश कवि भी अर्थलोलुप होकर घोर शृंगारिक देश के धामपुर निवासी मनोहरदास तथा लक्ष्मी
तथा पतनोन्मुखी प्रेम प्रसंगों व झूठे प्रशस्तिगान को चंद ने कवित्त-सवैयों की रचना की। पं. रूपचंद ६ । अपना कर्तव्य मानकर शब्दों का इन्द्रजाल दिखाने
की 'दोहा परमार्थी' हेमराज के 'दोहा शतक' और लगे। तब अनेक जैन कबियों ने समसामयिक
मसामायक 'बुधजन सतसई' के दोहे का प्रमुख प्रतिपाद्य भी वातावरण से प्रभावित न होकर ब्रजभाषा और
नीति ही रहा । गुजरात और राजस्थान में विहार का || उसमें प्रयुक्त दोहा, कवित्त, सवैया आदि छन्दों में
करने वाले महान् सन्त योगिराज ज्ञानसार की ही ऐसा काव्य प्रस्तुत किया, जो व्यक्ति, समाज स्तवनपरक और भक्तिपरक रचनाएँ राजस्थानी में 8 और शासन को आदर्श पथ प्रशस्त कर सके। होते हुए भी दो नीति प्रधान रचनाएँ सम्बोध
__ श्रीमाल परिवार में जन्मे श्वेताम्बर जैन बना- अष्टोत्तरी और प्रस्ताविक अष्टोत्तरी पश्चिम हिन्दी रसीदास ने विभिन्न मत-मतान्तरों का रसपान कर की रचनाएँ हैं। सद्यप्राप्त सोनीजी की नशियाँ एक नया भक्ति-रसायन तैयार किया. जिसमें आत्म- अजमेर में विद्यमान क्षत्रशेष कवि द्वारा विरचित चिन्तन और सदाचार का पुट था। अब निर्गुण ५०० कवित्तों का ग्रन्थ 'मनमोहन पंचशती' नीतिसन्त कवियों के समान जैन संतों की भक्ति और काव्य का अनुपम ग्रन्थ है। उक्त सभी ग्रन्थों में उपासना-पद्धति में सदाचार ने पहले से ज्यादा विद्यमान जैन नीति परम्परा का समन्वित रूप स्थान पा लिया। यही कारण है कि बनारसीदास भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है। नीति के परवर्ती दिल्ली के द्यानतराय, बुन्देलखंड के परम्परा के चतुर्मुखी रूप-आचारनीति, अर्थनीति पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private Personal use only
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අමූලිඉමෙම මුදල මැවෙම,
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B
जेनाच
.
अतप्ति
सामाजिक नीति एवं राजनीति मध्यकालीन हिन्दी इन्द्रिय-निग्रह--स्पर्श, दर्शन, श्रवण, स्वाद व ५ जैन काव्य में उपलब्ध हैं।
__सूंघना पांचों कर्मों के व्यवहार से प्राणी की पहचान का आचार नीति-प्रत्येक मनुष्य के आचरण करने होती है, किन्तु नीतिकारों ने इन इन्द्रिवजन्य कर्मों KE योग्य नैतिक सिद्धान्त आचार नीति के अन्तर्गत का सेवन मर्यादानुकूल और सीमित ही माना है। आते हैं। इन नीति-सिद्धान्तों की अपेक्षा समाज अधिकांश जन नीतिकारों ने हाथी, पतंग, मृग, मीन और शासन की तुलना में व्यक्ति के निजी व्यवहार
और अलि का उदाहरण देते हुए उक्त पाँचों कर्मों के लिए अधिक होती है। मनष्य के निजी आचरण के अत्यधिक सेवन का निषेध किया है। बुधजन र के लिए उपयोगी मानी गई नीतिगत मान्यताएँ दो कहत हैरूपों में प्रस्तुत की गई हैं-विधेयात्मक और गज पतंग मृग मीन अलि, भये अध्य बसि नास । निषेधात्मक । हिन्दी के जैन मुक्तक काव्य में उपलब्ध जाके पांचौ बसि नहीं, ताकी कैसी आस ।।१६।। । आचारगत मूल्य इस प्रकार है
पं० रूपचन्द ने दोहा परमार्थी में इनको दुःखविधेयात्मक आचार नीति
दायी और तृष्णा बढ़ाने वाला कहा है। उनको __ अहिंसा-अहिंसा का सिद्धान्त जैनाचार का धारणा है कि अस्थि का चर्वण करने वाले कुसे के
में अहिंसा की सीमा किसी जीव समान विषया क सवन से विषयो मन की हत्या न करने तक ही सीमित नहीं। महाकवि बनी रहती है, फिर भी अज्ञानता के कारण वह * बुधजन ने चोरी, चुयली, व्यभिचार, क्रोध, कपट, अपनी ही हानि करता रहता हैमद, लोभ, असत्य-भाषण तक को हिंसा का अंग विषयन सेवत हो भले, तिस्ना ते न बुझाइ । मानकर उनके त्याग की प्रेरणा दी है। किसी भी ज्यौं जल खारी पीव तै, बाढे तिस अधिकाय ।।। व्यवहार से अन्य प्राणी का चित्त दुःखाना अहिंसा विषयन सेवत दुख मले, सुष विति हारे जाँन । का उच्चतम आदर्श है । बुधजन के शब्दों में- अस्थि चवत निज रुधिर तै, ज सुख मानत ये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल विभिचार
स्वान ।। क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरम्भ असत विचार। इन्द्रिय-निग्रह का आधार है मन पर नियंत्रण ।
६६८ मनुष्य इन्द्रिय-लोलुप तभी रहता है, जब उसका अपरिग्रह :
मन मतवाले हाथी के समान अंकूश की अवहेलना ___ अध्यात्मी बनारसीदास चित्त की स्थिरता और कर देता है । बनारसीदास का कथन है-- शान्ति के लाभ के लिए अपरिग्रह वत्ति को ग्राह्य ज्यों अंकुस मानें नहीं, महा मत्त गजराज । बतलाते हैं
त्यों मन तिसना में फिर, गिणन काज अकाज ॥१०॥ जहां पवन महिं संचरै, तहं न जल कल्लोल।
-ज्ञान पच्चीसी त्यौं सब परिग्रह त्याग तें, मनसा होय अडोल ।। कवि भगवतीदास ने मन के स्वतन्त्र स्वभाव
-ज्ञान पच्चीसी का चित्रण 'मन बत्तीसी' में करते हुए उस पर क्षमा-दश लक्षण धर्मों में प्रमुखतम, क्षमा- विवेक का अंकुश लगाये रखने का संकेत दिया हैभाव एक अज्ञात कवि की बारहखड़ी रचना 'कको मन सौं बली न दूसरी, देष्यो यहि संसारि। में संघर्ष को दूर करने वाला कहा गया है- तीन लोक मैं फिरत हो, जाइ न लागै बार षषा षुटक निकारि के, विमा भाव चित्त ल्याव । मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप। षुले कपाट अभ्यास के, घिरे कर्म दुखदाय। मन सब बातन जोग है, मन की कथा अनूप ।।
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सत्संग-मध्यकाल में अध्यात्म-उपासना के शत्रु को दीजिए वैर रहै नहीं, प्रारम्भकर्ता साम्प्रदायिक वर्म भेद से दूर महान्
भाट को दीजिए कीरति गावै। सन्त बनारसीदास ने सत्संग के सामर्थ्य को प्रति- साध को दीजिए मोख के कारन, पादित करते हुए कहा है कि जिस प्रकार मलया
हाथ दियो न अकारथ जावै ।४५। चल की सुमन्धित पचन नीम के वृक्ष को चन्दन के जैन परम्परा में दान के चार प्रकारसमान सुगन्धित बना देती है, उसी प्रकार साधु औषधिदान, अन्नदान, अभयदान और ज्ञान-IN का साथ कुर्जन को भी सम्जन बना देता है- दान महत्वपूर्ण माने गए हैं। बत्तीसढाला के रच-साडू निंबादिक चंदन करै मलयाचल की बास। यिता टेकचन्द ने चारों दानों का प्रतिफल इस दुर्जन ते सज्जन भयो, रहत साधु के पास । २० प्रकार कहा है
-ज्ञान पच्चीसी जो दे भोजन दान, सो मनवांछित पावै । मनोहरदास ने 'पारस' के संसर्ग से 'कंचन' में औषदि दे सो दान, ताहि न रोग सतावै । परिवर्तित होने वाले लोहे और 'रसायन' का सह- सूत्र तणां दे दान, ज्ञान सु अधिको पावै ।। योग पा सुस्वादु बनने वाले 'कत्था' का भी उदा- अभैदान फल जीव, सिद्ध होइ सो अमर कहावै ॥३२॥ हरण देकर सत्संग का माहात्म्य पुष्ट किया है- हेमराज गोदीका के मत से सम्पत्ति दान देने चंदन संग कीये अनि काठि
से शोभा और वृद्धि को प्राप्त करती हैजु चंदन गंध समान जुहो है।
संपति खरचत डरत सठ, मत संपति घटि जाय । 10 'पारस' सों परसे जिम लोह,
इह संपति शुम दान दी, विलसत बढ़त सवाइ ।६६|| जु कंचन सुद्ध सरूप जु सोहै। योगिराज ज्ञानसार जी ने अपना-पराया तथा पाय रसायन होत कथीर
पात्र-अपात्र का विचार किये बिना बड़ी उदारता||Ka जू रूप सरूप मनोहर जो है।
से दान देने का निर्देश दिया हैत्यो नर कोविद संग कीयै
अनुकंपा दांने दियत, कहा पात्र परखंत । सठ पंडित होय सबै मन मोहै। सम विसमी निरखै नहीं, जलधर धर बरसंत ।१५|| दान-दान अपरिग्रह का प्रकट रूप है । अतः
-प्रस्तावित अष्टोत्तरी दान की महिमा सभी जैन मुक्तककारों ने थोड़ी वचन-सृष्टि के अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत अवश्य कही है। महाकवि द्यानतराय की मनुष्य को वाणी की सुविधा परमात्मा की एक ५२ छन्द की रचना दान बावनी के अनुसार निर्धन, अद्भुत कृपा है। महाकवि बनारसीदास और सेवक, भाट, साधु को दिया गया दान ही लाभ- ज्ञानसार दोनों ने ही कर्कश वचन त्यागकर मृड ) कारी नहीं होता, अपितु शत्रु को दिया गया दान वचन कहना प्रियता और टूटे दिलों को जोड़ने का || वैरभाव को समाप्त कर देने का महत्वपूर्ण काम साधन बतलाया हैकरता है
जो कहै सहज करकश वचन, सो जग अप्रियता लहै || दीन को दीजिये होय दया मन,
-वच. रत्न कविस-४ मीत को दीजिये प्रीति बढ़ावै ।। मन फाटे कू मृदु वचन, कह्यो करन उपचार। सेवक को दीजिए काम करै बहु,
टूक टूक कर जुड़न कू, टांका देत सुनार ।४४। | ____ साहब दीजिए आदर पावै।
- संबोध अष्टोत्तरी पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000
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टेकचन्द के विचार से बिना समझकर बोलने गुन हीये करै जु धाय, ओगुन नहि चितलाय ।
मधुर बैन बोले, सुमारिंग को लेत जूं | २२ समतावान व्यक्ति क्रोधी व्यक्ति को भी शान्त कर देता है
से अपयश का भागी बनना होता हैवचन बोलिये समझ के द्रव्य क्षेत्तर जोइ । बिन समझे बोलति है, अपजस लेह सोइ |२७|
महाकवि बुधजन ने जिह्वा पर नियंत्रण रखकर अधिक खाने के अतिरिक्त अधिक बोलने की मनाही भी की है
रसना राखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलतें, निहच हो है हांन ॥ २१७
अवसरोचित व्यवहार -- मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसम्पन्न प्राणी है । अतः उसमें अवसरानुकूल व्यवहार की चतुराई जैन नीतिकारों ने भी आवश्यक मानी है । प्रकृति के सभी कार्य यथावसर सम्पन्न होते हैं इसलिए कवि 'गद' मनुष्य को अवसर न चूकने का उपदेश देते हैं-
अवसरि घनहर गुड़, फूल पणि अवसरि फूलै । अवसरि बालित बल गहर, निसाण गहीलै । अवसरि बरसे मेह, गीत पणि अवसर गावै । अवसर चूकै मूढ़ तकै, पाछे पिछतावे । अवसरि सिंगार कांमणि करै,
अवसर भ्रात परखिये । कवि 'गद' कहै सुण राय हो,
सो अवसर कबहु न चूकिये । बुधजन बोलने और मौन रहने के लिए भी अवसर का ध्यान रखना अपेक्षित समझते हैं-ओसर लखि के बोलिये, जथा जोगता बैन । सावन भादों बरस तैं, सबही पावै चैन । ११६ | बोल उठे औसर बिना, ताका रहै न मान । जैसे कातिक बरस तें निन्दै सकल जहांन | ११७ | समता - निन्दा अथवा स्तुति, द्वेष और राग को बढ़ाती है, अतः नीतिकारों ने समता भाव धारण करने पर बल दिया है समता भाव से व्यक्ति की वाणी सहज ही मधुर हो जाती हैनिंदा न करें काहू, औगुन परिगुन जाइ । संवर मन करि कैं, समता रस धारि जू |२१|
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अति शीतल मृदु वचन तें, क्रोधानल बुझ जाय । ज्यूँ उफणतें दूध कू, पानी देत समाय ॥१६॥
- ज्ञानसार कृत प्रस्तावित अष्टोत्तरी । महाकवि द्यानतराय समतावान् से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह शत्रु का भी सम्मान करेथावर जंगम मित्र रिपु, देखे आप समान । राग विरोध करें नहीं, सोई समतावान । - तत्त्वसार भाषा, छंद ३८ निज शत्रु जो घर माँहि आवै, मान ताको कीजिए । अति ऊँच आसन मधुर वानी, बोलिकै जस लीजिए । -दान बावनी छंद २७
दया— कविवर विनोदीलाल ने अपनी रचना 'नवकार मंत्र महिमा' में सभी उपासना पद्धतियों में श्रेष्ठ व उत्तम साधना कहकर 'दया' को सर्वाधिक महत्व दिया हैद्वारिका के न्हाये कहा, अंग के दगाये कहा,
संख के बजाये कहा राम पाइतु है । जटा के बढ़ाये कहा, भसम के चढ़ाये कहा,
धूनी के लगाये कहा सिव ध्यायतु है । कान के फराये कहा, गोरष के ध्याये कहा, सींग के सुनाये कहा सिद्ध ल्याइतु है । दया धर्म जाने आपा पहिचाने बिनु, कहै 'विनोदी' कहूँ मोष पाइतु है । ३३ । मर्यादा -रक्षण - अपने कर्त्तव्य अथवा लक्ष्य की पूर्ति में जुटे रहने व उसमें सर्वस्व होम देने का संकेत सभी नीतिकारों ने दिया है। सतसईकार बुधजन का कहना है
लाज काज खरचे दरव, लाज काज संग्राम | लाज गये सरबस गयौ, लाज पुरुष की मांग । ११ । शील - 'कको' नाम की बारहखड़ी रचना में
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शील को तप और 'वैराग्य' के समकक्ष महत्व दिया परधन चोरी अर वेश्या को त्याग करी परनारी।
_'सूरति' इस भव में सुख पावे, परभव सुख अधिस सा सील सरीसो तप नहीं सील बड़ो वैराग ।
कारी ॥२६॥ सील सरपन बावड़े, सीला सीतल आग । विनोदीलाल ने सप्त व्यसनों में रत व्यक्ति को
क्षत्रशेष शील को विघ्नविनाशक, दुःखहर्ता नरक में जाने का भय दिखाया हैतथा पूर्व कर्मबंधों को विघटित करने वाला मानते हिंसा के करैया, मुख झूठ के बुलैया,
हैं। शील ही यश और सुख का दाता है। अन्य परधन के हरैया, करुणा न जाकै हीये हैं। 4 गुणों का समूह तो शील के पालन होने पर स्वतः ही हृदय में बस जाता है
सहत के खवईया, मदपान के करइया,
कन्द मूल के षवइया, अरु कठोर अति हीये हैं। सील ते सकल गुन आप हिय वास करें,
सील तें सुजस तिहु जग प्रघटत है। सील के गमइया, झूठी साखि के करइया, सील ते विघन ओघ रोग सोग दूर होय,
__महा नरक के जवइया जिन और पाप कीए हैं। सील तें प्रबल दोस दुष विघटत है। नीतिकार लक्ष्मीचन्द ने सातों व्यसनों को * सील तें सुहाग भाग दिन दिन उदै होय, त्यागने की शिक्षा उपदेशात्मक शैली में श्रावक को
पूरब करम बंध दिननि घटत है। इस प्रकार दी हैसील तें सुहित सुचि दीसत न आंनि जग,
जूवा मति षेलो जानि, मांस अति षोटो मांनि, सील सब सुष मूल वेद यों रटत है।
मद सब तजि अर वेश्यां तजि नर तू निषेधात्मक आचार नीति
आखेट न कीज्यो मुक्ति चोरी न करो । मनुष्य को जिन मनोवृत्तियों और दुर्गुणों से
भूल पर बनिता तजि हित निज नारी करिजू । - दूर रहने को कहा जाता है, उन्हें निषेधात्मक मूल्य कहा जा सकता है। जैन मुक्तकों में ये मूल्य इस ऐहि सात विसन जांनि, त्यागि भव उर आंनि। प्रकार हैं
कहै जिनवानी में पोटे चित धरि जू ।।२४॥ ||5 सप्त व्यसन-अधिकांश जैन नीतिकारों ने रीति- सामन्तों की विलासप्रियता को बढ़ाने वाले 12 काल के प्रमुख दुर्गुण द्य तक्रीड़ा, मद्यपान, मांस- अर्थलोलुप दरबारी कवियों को परकीया-प्रेम के भक्षण, पर-नारीगमन, शिकार, स्तेय और वेश्या- अमर्यादित आकर्षक चित्र खींचने में कोई संकोच
गमन आदि दुर्गुणों की कई स्थानों पर तीव्र नहीं रहा था, उनका आचरण भारतीय आचार-700 1 भर्त्सना की है। बारहखड़ी के रचयिता जैन कवि विचार के बड़ा प्रतिकूल था। जैन कवियों को | * सूरति सप्तव्यसन के त्याग को ही सुख पाने का इससे बड़ी खीझ रही । अतः उन्होंने उग्र स्वरों में | आधार बतलाते हैं
परकीया-प्रेम की भर्त्सना की । लक्ष्मीचन्द परनारी बबा विसन कुविसन है, विसन सात तू त्यागि। को विष की झाल और अग्निदाह की संज्ञा देकर बसि करि पाँचों इंद्रीनि कौं सुभ कारिज कौं लागि उसकी भयानकता इस प्रकार प्रकट करते हैंशुभ कारज को लाग करि विसन सात ये भारी। परनारी परतषि जानि अति विष की झाला। जूवां आमिस, सुरापान, मधु षेटक नाम बिसारी। परनारी परतषि मान, तुव अगनि विसाला । | पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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परनारी परतषि, सील गुन भांजे छिन में । परनारी परतषि, जानि षोटी अति मन में । एह जानि भवि पर नारि को,
'लक्ष्मी' कहत रावन गये,
तजी सील गुन धारि कै ।
कषाय - जैन आचार परम्परा में काम, क्रोध, मोह और मान चार कषाय माने गये हैं, जिनका त्याग श्रावक को आवश्यक माना है । नीतिकारों ने कषाय का विवेचन इस प्रकार किया है ।
।
नरक भूमि निहारि कै।
बैन चलाचल नैन टलावल
चैन नहीं पल व्याधि भर्यो है । अंग उपांग थके सरवंग प्रसंग किए
राय ने वृद्धावस्था की दुर्दशा का चित्रण सो कामातल करि कै दहत, करते हुए लोभ द्वारा नियन्त्रित रहने की भर्त्सना प्रेरणाप्रद स्वरों में की हैभूख गई घटि, कूख गई लटि,
सूख गई कटि खाट पर्यो है ।
नाक सर्यो है । 'arva' मोह चरित्र विचित्र, गई सब सोभ न लोभ हट्यो है | ३६ - धर्मरहस्य बावनी
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वृद्धावस्था में भी काम-वासना की निरन्तरता बने रहने की स्थिति बुधजन को पीड़ित करती है । तभी वे कामासक्त मनुष्य को प्रतारणा देते , हुए कहते हैं
तो जोबन में भामिनि के संग, निसदिन भोग रचावै । अंधा धन्धे दिन सोबै,
बूड़ा नाड़ हलावै । जम पकरे तब जोर न चाले, सैन
बतावै ।
मंद कषाय हूवै तो भाई,
भुवन त्रिक पब पावै ॥
देवीदास ने कामाग्नि को शीलरूपी वृक्ष को भस्म करने वाली बतलाकर व कामान्ध व्यक्ति को नीच, महादुःख का भोगी, अपने लक्ष्य में सर्वथा असफल होने वाला व्यक्ति प्रतिपादित कर उसकी कटु शब्दों में भर्त्सना की हैकाम अंध सो काम अंध सो
पुरिष, सत्य करि सके न कारज । पुरिष, तासु परिणाम न आरज । काम अंध तह क्रिया मिले, इक रंग न कोई । काम अंध अधम नहीं, जग में जम सोई । गति नीच महा दुष भोगवस
- षड पाठ
सो सब काम कलंक फल ।
परम सील तरुवर सबल ॥
क्रोध होने की स्थिति में व्यक्ति को नीति अनीति का ज्ञान तो रहता ही नहीं, वह आत्म पीड़ित भी होता है । बुधजन का मत है
नीति अनीति लखे नहीं, लखै न आप बिगार । पर जारे आपन जरै, क्रोध अगनि की झार ६७२ |
काम, क्रोध, लोभ या मोह के अतिरिक्त चौथे कषाय अभिमान की निन्दा उसकी निरर्थकता के तर्क से प्रतिपादित की है। संसार में सहज गति से होने वाले निर्माण एवं विमाश के कार्यों में व्यक्ति स्वयं को कर्त्ता मान लेता है; यह एक भ्रम मात्र है । हेमराज गोदीका का कथन है
होत सहज उत्पात जग, बिमसल सहज सुभाष । मूढ़ अहंमति धारि के, जनमि जनमि भरमाइ ||
तृष्णा - किसी वस्तु को हर स्थिति में प्राप्त करने की सामान्य इच्छा लोभ और तीव्रतम इच्छा तृष्णा कही जा सकती है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा प्रकृति की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने के बाद भी मनुष्य किसी अप्राप्य वस्तु के लिए चितिस रहता है तथा उसको प्राप्त करने की अमर्यादित चेष्टा करता है। एक अज्ञात कवि ने अपने ३२ दोहों में से एक दोहे में आशा या तृष्णा की स्थिति को पराधीनता-मूलक कहा है
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जे आसा के दास ते पुरुष जगत दास के दास । बाह्याचार-आसक्ति-अध्यात्मचिन्तन में आसा दासी तास की, जगत दास है तास ॥ पर्याप्त-स्वतन्त्रता होने के कारण भारत में
महाकवि पार्श्वदास ने हितोपदेश पाठ में मनुष्य उपासना पद्धतियाँ विभिन्न रूपों में बढ़ती की बढ़ती हुई तृष्णा को उसके लक्ष्य में बाधक माना
रही हैं। स्वार्थ की प्रबलता के कारण इन
उपासना-पद्धतियों का लक्ष्य उपास्य के प्रति निष्ठा विषय कषाय चाय तृष्णावति होवै।
को अनदेखा कर प्रदर्शन और रूढाचार की ओर हित कारिज की बात कबूं नहिं जोवै ।।
मुड़ता गया है। इसके विरोध में निर्गण सन्तों ने धन उपार्जन करू विदेसां जावू ।
तो अपने उद्गार प्रकट किये ही, जैन नीतिकार भी वा राजा महाराजा . रिझवायूँ ।
इसकी उपेक्षा नहीं कर सके । मिथ्यात्व से छुटकारा ब्याह करू तिय कं, गहणां ।
पाये बिना शास्त्र पठन, कायाकष्ट, योगासन आदि लाणि बांटि जाति में, नाम करवायूँ ।
बाह्याचार के प्रति जैन कवि विनोदीलाल ने कबीर गेह चुनावू और सपूत कहलावू ।
जैसे तेवर ही दिखलाए हैंविषय कषाय बढ़ाय, बड़ा हो जावू । ग्रन्थन के पढ़े कहा, पर्वत के चढ़े कहा यूं तृष्ना वसि मिनष जन्म करि पूरो।
कोटि लक्षि बढ़े कहा रंकपन में । हित कारिज करणे में रह्यो अधूरो ॥२०॥ संयम के आचरे कहा, मौन व्रत धरे कहा,
द्यानतराय ने अपनी 'धर्म रहस्य बावनी' में तपस्या के करे कहा, कहा फिरै वन में । 3 तृष्णा को हृदयपीड़क कहा है। तृष्णाहीन व्यक्ति दाहन के दये कहा, छंद करैत कहा, बेपरवाह होकर अत्यन्त सुख पाता है
जोगासन भये कहा, बैठे साधजन में । चाह की दाह जलै जिय मूरख,
जो लों ममता न छूट, मिथ्या डोर ह न टूटे, बेपरवाह महासुषकारी ॥२॥
ब्रह्म ज्ञान बिना लीन लोभ की लगन में । चिन्ता-अप्राप्य जानकर भी किसी वस्तु को मुक्तककार हेमराज ने शास्त्रपठन, तीर्थस्नान प्राप्त करने के लिए मानसिक पीडा पाना चिन्ता तथा विरक्ति भाव को सदाचार के अभाव में का भाव है। चिन्ता को चिता के समान बतलाकर
निरर्थक माना हैद्यानतराय ने पुरानी परम्परा का ही निर्वाह पढ़त ग्रन्थ अति तप तपति, अब लौं सुनी न मोष । किया है।
दरसन ज्ञान चरित्त सों, पावत सिव निरदोष ॥२७।। ५ चिंता चिता दूह विष, बिंदी अधिक सदीव । कोटि बरस लौं धोइये, अढसठि तीरथनीर । चिंता चेतनि को दहै, चिता दहै निरजीव ॥१८॥ सदा अपावन ही रहै, मदिरा कुंभ सरीर ॥३०॥
भाग्यवश जो प्राप्त हो जाय, वह यथेष्ट है। निकस्यो मंदिर छोड़ि के, करि कुटम्ब को त्याग । Cil इस परम्परागत संस्कार के कारण द्यानतराय कुटी मांहि भोगत विष, पर त्रिय स्यों अनुराग ॥२८॥ | चिन्ता की स्थिति में कोई तर्क संगति भी नहीं बनारसीदास के गुरु पं० रूपचन्द अपनी रचना देखते
'दोहा परमार्थी' में तत्व चिन्तन के बिना बाह्याचार । रेनि दिना चिन्ता, चिता मांहि जल मति जीव । का कोई मूल्य नहीं मानते- . जो दीया सो पाया है, और न देय सदैव ॥४४॥ ग्रन्थ पढ़े अरु तप तपो, सही परीसह साहु। ।
-सुबोध पंचाशिका केवल तत्व पिछानि बिनु नहीं कहूँ निरबाहु ||६४॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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शोक-पश्चात्ताप अथवा 'शोक' की स्थिति खात न खरचत, विलसयत, दान दियन को बात । GND
भी जैन नीतिकारों ने अच्छी नहीं मानी। दूरजय लोभ अचित गति, सचित धन मर जात 1८३॥ लक्ष्मीचन्द कहते हैं कि शोक करने से व्यक्ति का
सामाजिक नीति-निश्चित भूभाग पर निश्चित सुख नष्ट हो जाता है । 'शोक' या 'पश्चात्ताप'
सामाजिक मर्यादाओं के साथ जीवन व्यतीत करने करने से बिगड़े काम में कोई सुधार भी नहीं हो
वाले व्यक्ति समाज का निर्माण करते हैं। भारतीय सकता
नीतिकारों ने गुरु, नारी, तथा सामाजिक व्यवहार सोच कब न कोज, मन परतीत लोज्यौ, आदि विषयों पर नीतिपरक उक्तियों अभिव्यक्त की मार तेरी सोच कीये, कह कारिज न सरिहै, है। सोच कीये दुष भास, सुष सब ही जन नासै
__ गुरु-निर्गुण एवं सगुण भक्ति काव्य की तरह
॥२५॥ जैन नीतिकारों ने गुरु का सर्वाधिक महत्व माना दष्कर्म-दष्कर्म के उदय मात्र से धार्मिक और है। गुरु ही मनुष्य को समाज में : सदाचार की बातें कतई नहीं सुहाती, इसी भय से जीने योग्य बनाता है। परम्परागत नीतिकारों की दुष्कर्म से बचते रहने की सीख कविवर बनारसीदास तरह बनारसीदास के गुरु पण्डित रूपचन्द गुरु का ने अपनी 'ज्ञान पच्चीसी' में दी है
महत्व इस प्रकार प्रकट करते हैंज्यों ज्वर के जोर से, भोजन की रुचि जाय। गुरु बिन भेद न पाइये, को पर को निज वस्तु । तैसें कुकरम के उदय, धर्म वचन न सुहाय ।।२।। गुरु बिन भव सागर विषै, परत गहै को हस्तु ।१७।
दुष्कर्म का एक छोटा अंश भी समस्त अच्छाइयों गुरु माता अर गुर पिता अरु बंधव गुरु मित्त । को उसी प्रकार खत्म कर देता है जिस प्रकार मीठे
हित उपदेश कवल ज्यों विगसावै जिन चित्त ६६ दूध को छाछ की एक बूंद खट्टा बना देती दुर्जन-सज्जन-समाज में भले-बुरे दोनों ही
प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं। तुलसीदास आदि टटा टपको छाछि को, मटकी दुध में डार। सभी प्रमुख कवियों ने प्रवृत्तियों के आधार पर मीठा सो षाटो करै, यहै कर्म विचारि । ११ ।कको. दुर्जन और सज्जन दोनों वर्गों की विशेषताएँ अंकित
___ की हैं। जैन नीतिकारों ने दुर्जन को सर्प और 3 __अज्ञात कवि की रचना 'क को' में किसी काम
सज्जन को कल्पवृक्ष के रूप में प्रस्तुत कर क्रमशः की सम्पन्नता के लिए दूसरे की बाट जोहना या
__ उनकी कुटिलता और उदाराशयता की ओर इंगित उसके आधीन रहना दुःखदायी कहा है
किया है । लक्ष्मीचन्द और अज्ञात कवि के दो छन्द हाहा हू व्योहार है के परवश दुखदाय । इस प्रकार हैं
क्यों न आप बसि हूजिये, होय परम सुखदाय ।३६। दुरजन सरप समान बिई छल ताकत डोले । NIE
कृपणता-कविवर विनोदी लाल ने अपनी दुरजन सरप समान, सति वचन कबहु न बोले। सम्वादात्मक रचना कृपण पच्चीसी में पति-पत्नी के दूरजन सरप समान, दूध किम पावो भाई। संवाद के माध्यम से कृपण पति के स्वभाव पर दुरजन सरप समान, अंति विष प्रान हराई। फब्तियाँ कसी हैं ? संत ज्ञानसार तो धन का सदु- दुरजन सम नहीं जान तुव तीन लोक में दृष्टजन। पयोग न करने वाले कृपण को 'मृत' के समान ऐह जांनि भवि तुम धीजमति, तिरस्कृत मानते हैं
लिषमी कहैत भवि लेहु सुन ।१०॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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तोतकशन
सज्जन परितुछ गुन करै, मानै गिर गुन भाय। भूख-अध्यात्मसाधना, सदाचार, कुलमर्यादा तातै सज्जन पुरुष सब, कलप ब्रष सम थाय। का पालन भूख की स्थिति में नहीं हो सकता, अतः 1
सामाजिक व्यवहार-पारस्परिक मेलजोल से अच्छे समाज के निर्माण की भावना रखने वाले रहने व एक-दूसरे का सम्मान करने से ही अच्छे राष्ट्र-निर्माताओं को सबको 'रोटी' की व्यवस्था समाज का निर्माण होता है। नीतिकार बुधजन ने करनी चाहिए । 'मनमोहन पंच शती' के रचनापारस्परिक व्यवहार में उत्तम शिष्टाचार की अपेक्षा कार छत्रशेष का की है
तन लोनि रूप हरे, थूल तन कृश करै, आवत उठि आदर करै, बोले मीठे बैन ।
मन उत्साह हरै, बल छीन करता । जात हिलमिल बैठना जिय पावे अति चैन ।१४८॥ छिमा को मरोरै गही, दिढ़ मरजाद तोरै, र भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार ।
सुअज सहेन भेद करै लाज हरता। जस लीजिए, नातर अजस तैयार ।१४६। धरम प्रवृत्ति जप तप ध्यान नास करै, समाज में व्यवहार करते समय अधिक सरलता
धीरज विवेक हरै करति अथिरता। ॥ की अपेक्षा थोड़ी चतुराई का भाव रखना चाहिए- कहा कुलकानि कहा राज पावे गुरु, अधिक सरलता सुखद नहीं, देखो विपिन निहार ।
आन क्षुधा बस होय जीव बहुदोष करता। सीधे विरवा कटि गये, बांके खरे हजार ।।१६।। रोजगार-बेरोजगारी का कष्ट आज ही नहीं,
-बुधजन सतसई मध्यकाल से ही व्यक्ति अनुभव करता रहा है। नारी-काम की प्रबलता के विरोध के कारण रोजगार से ही व्यक्ति को समाज और परिवार में मध्यकालीन काल में नारी के प्रति कटुक्तियाँ प्रतिष्ठा मिलती है। म अधिक कह दी गई हैं, जिससे नारी की गरिमा रोजगार बिना यार, यार सों न करै बात,
को हानि हुई है। 'राजमती' और 'चन्दनबाला' रोजगार बिन नारि नाहर ज्यों धूरि है। के आदर्श चरित्र प्रस्तुत करने वाले जैन काव्य में रोजगार बिना सब गुन तो बिलाय जाय, कटूक्तियाँ अपेक्षाकृत कम हैं । नारी का एक सुखद
एक रोजगार सब, औगुन को चूर है । चित्र जैन कवि साधुराम ने इस प्रकार प्रस्तुत
रोजगार बिना कछू बात बनि आवै नहीं, किया है
बिना दाम आठौ जाम, बैठा धाम झूर है। नारी बिना घर में नर भूत सो,
रोजगार बिना नांहि रोजगार पांहि, नारी सब घर की रखवारी।
असो रोजगार येक धर्म नारि चषावत है षट् भोजन,
निर्धनता का एक भयावह चित्र मनोहरदास ने PM नारि दिखावत है सुख भारी। भी प्रस्तुत किया हैनारी सिव रमणी सुष कारण,
भूष बुरी संसार, भूष सबही गुन मोवै । पुत्र उपावन कू परवारी।
भूष बुरी संसार, भूष सबको मुष जोवै । और कहाय कहा लूं कहूँ तब,
भूष बुरी संसार, भूष आदर नहीं पावै । साष बड़ी मन रंजनहारो। भूष बुरी संसार, भूष कुल कान घटावै । आर्थिक नीति-भूख, रोजगार, निर्धनता, धन भूष गंवावै लाज, भूष न राषै कारमें । के उपयोग सम्बन्धी उक्तियाँ आर्थिक नीति का मन रहसि मनोहर हम कहें, अंग हैं।
भूष बुरी संसार में ॥११॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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महाकवि बनारसीदास ने कु-कलाओं के अभ्यास भूपति विसनी पाहुना, जाचक जड़ जमराज।। की निन्दा करते हुए दरिद्रता को प्रतिष्ठा का घातक ये परदुःख जोवै नहीं, कीयै चाहै काज ।।२६३॥ बतलाया है
राजा से परिचय थोड़ा-बहुत अवश्य लाभदायक कूकला अभ्यास नासहि सुपथ,
होता हैदारिद सौ आदर टलै ।
महाराज महावृक्ष की, सुखदा शीतल छाय। निर्धन हो जाने पर लोगों के सम्पर्क तोड़ देने सेवत फल लाभ न तो, छाया तो रह जाय ॥१२॥ की निर्दयता पर ज्ञानसार ने व्यंग्य किया है
प्रजा को राजा के आदेशों व नीति का अनुधन घर निर्धन होत ही, को आदर न दियंत ।
सरण करना चाहिए। ज्यों सूखे सर की पथिक, पंखी तीर तजत ।।
नृप चाले ताही चलन, प्रजा चले वा चाल ।
जा पथ जा गजराज तह, जातजू गज बाल । 'अपरिग्रह' दान के रूप में धन की सीमितता
॥१३८॥ और सदुपयोग तथा 'लोभ' व कृपणता की निन्दा
__ राजा और प्रजा के मधुर सम्बन्ध बनाये रखने के रूप में धन की समुचित उपयोगिता की उक्तियाँ
| में मन्त्री को बड़ी भूमिका रहती हैआर्थिक नीति के अन्तर्गत भी समाहित की जा सकती है।
नृप हित जो पिरजा अहित, पिरजा हित नृप रोस ।
दोउ सम साधन करै, सो अमात्य निरदोष ॥२१०॥ राजनीति-शासक एवं शासित की प्रवृत्तियाँ, अच्छे मन्त्रियों के अभाव में राजा अपने आदर्शों शासन के अंग और उनके कर्तव्य तथा शासन-व्यवस्था से सम्बन्धी उक्तियाँ राजनीति के अन्तर्गत आती हैं।
से च्युत हो जाता हैअधिकांश जैन नीतिकारों के मक्तकों में राजनीति नदी तीर को रूखरा, करि बिनु अंकुश नार । नहीं है। दीवान के रूप में जयपर राज्य में काम राजा मंत्री ते रहित, बिगरत लगै न बार ॥१२४॥ करने वाले कवि बुधजन ने राजनीति के सम्बन्ध में
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी जैन अपने विचार प्रकट किये हैं।
मुक्तक काव्य में वैयक्तिक व्यवहार, समाज, राज्य ___ बुधजन के अनुसार शासक अथवा राजा ढीले ५
एवं अर्थ से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का गम्भीरता-C चित्त का नहीं होना चाहिए, नहीं तो दृढ़तापूर्वक
पूर्वक विवेचन किया गया है। भारतीय नीति अपने आदेश नहीं मनवा सकेगा
साहित्य के विकास में शिपिलाचार के युग में लिखी 1122
गई इन रचनाओं का सामयिक योगदान तो है ही, | 1 - गनिका नष्ट संतोष तें, भूप नष्ट चित्त ढील। उक्त रचनाएँ भारतीय चिन्तन की संवाहक होने पर
॥१७७।। के कारण आज भी मूल्यवान् हैं। राजा अपने कार्य की पूर्ति के लिए किसी की भारतीय चिन्तन और काव्य के विकास में MOL पीड़ा को सहृदयतापूर्वक नहीं विचारता- इनका उल्लेख अतीव आवश्यक है ।
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-हजारीमल बांठिया. कानपुर
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जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरि और श्री हेमचन्द्रसूरि
जैन साहित्यकाश में कलियुग-केवली आचार्य इनका समय वि. सं. ११४५ से १२२६ तक माना श्री हरिभद्रसूरि एवं कालिकाल-सर्वज्ञ आचार्य श्री गया है । इनकी माता का नाम पाहिनी एवं पिता हेमचन्द्रसूरि दोनों ही ऐसे महान् दिग्गज विद्वान का नाम चाच था। हरिभद्र राजस्थान के सूर्य थे आचार्य हुए हैं-किसको 'सूर' कहा जाए या किस तो हेमचन्द्र गुजरात के । इन्हीं दोनों आचार्यों के को 'शशि'-यह निर्णय करना दुष्कर कार्य है। प्रभाव के कारण ही आज तक गुजरात और राजवीर-प्रसूता भूमि चित्तौड़गढ़ में उच्च ब्राह्मण कुल स्थान जैन धर्म के केन्द्र बने हुए हैं। हरिभद्र के में जन्मे श्री हरिभद्र चतुर्दश ब्राह्मण विद्याओं में गुरु का नाम जिनदत्तसूरि था और हेमचन्द्र के गुरु पारंगत उद्भट विद्वान थे। इनके पिता का नाम का नाम देवचन्द्रसूरि था। शंकर भट्ट और माता का नाम गंगण या गंगा था। दोनों ही आचार्य उदारमना थे। उनके दिल । हरिभद्र पण्डितों में अपने आपको अजेय मानते थे। में हठान रंचित मात्र नहीं था। हजारों वर्षों के यू इसलिए चित्रकूट नरेश जितारि ने उनको अपना बीत जाने पर भी हरिभद्रसूरि का जीवन प्रकाशराजगुरु मानकर राजपुरोहित जैसे सम्मानित पद मान सूर्य की तरह आभा-किरणें बिखेर रहा है। पर नियुक्त कर दिया था। कलिकाल-सर्वज्ञ हेम- उनमें जैसे उदारमानस का विकास हुआ वैसा चन्द्राचार्य भी चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज एवं बिरले पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है । उनका उदात्तसम्राट कुमारपाल के राजगुरु थे । श्री हरिभद्रसूरि घोष आज भी सुविश्रुत है। प्राकृत भाषा के पण्डित थे तो हेमचन्द्राचार्य संस्कृत 'पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । . भाषा के। पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय जी ने युक्ति मद् वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः ।३८। श्री हरिभद्रसूरि का समय वि. स. ७५७ से ८२७ तक अर्थात्-वोर वचन में मेरा पक्षपात नहीं। निर्णीत किया है और सभी आधुनिक शोध विद्वानों कपिल मुनियों से मेरा द्वेष नहीं, जिनका वचन का ने भी इस समय को ही निर्विवाद रूप से मान्य तर्कयुक्त है-वही ग्राह्य है। किया है । इस तरह श्री हरिभद्रसूरि विक्रम की इसी प्रकार जब हेमचन्द्राचार्य ने सोमनाथ - आठवीं शताब्दी के ज्योतिर्धर आचार्य थे तो हेम- मन्दिर में सम्राट कुमारपाल के साथ शिव मन्दिर
त्रन्द्राचार्य विक्रम की बारहवीं शताब्दी के । इनका में प्रवेश किया तो संस्कृत के श्लोकों द्वारा शिव की जन्म वणिक-कुल में धंधू का (गुजरात) में हुआ। स्तुति की। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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'भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।"
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अर्थात् - -भव बीज को अंकुरित करने वाले राग-द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त करली है, भले वे ब्रह्मा, विष्णु, हरि और जिन किसी भी नाम से सम्बोधित होते हों उन्हें मेरा नमस्कार 'महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥ अर्थात् - जिसने महाराग, महाद्व ेष, महामोह और कषाय को नष्ट किया है वही महादेव है ।
इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य द्वारा शिव की उदारमना स्तुति करने पर सम्राट कुमारपाल तो प्रभावित हुआ ही किन्तु उनसे द्वेष भाव रखने वाले शैव- पण्डित भी दाँतों तले अंगुली दबा गये ।
आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के परगामी विद्वान तो थे ही फिर भी उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी यदि किसी दूसरे धर्मदर्शन को मैं समझ न सका तो मैं उसी का शिष्य बन जाऊँगा। एक बार रात्रि को राजसभा से लौटते समय राजपुरोहित हरिभद्र जैन उपाश्रय के निकट से गुजरे । उपाश्रय में साध्वी संघ की प्रमुखा 'महत्तरा याकिनी' निम्न श्लोक के स्वर लहरी में जाप कर रही थी
'चक्कि दुगं हरिपणगं,
पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव,
garat केसीय चक्किथा | राजपुरोहित हरिभद्र ने यह श्लोक सुना तो उनको कुछ भी समय में नहीं आया तो अर्थ- बोध पाने की लालसा से उपाश्रय में प्रवेश कर याकिनी महत्तरा से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने कहाइसका अर्थ तो मेरे गुरु श्री जिनदत्त सूरि ही बता सकते हैं।
जब गुरु के पास प्रातःकाल हरिभद्र गये तो श्री जिनदत्तसूरि ने कहा- जैन मुनि बनने पर ही इसका अर्थ समझ में आयेगा - तब तत्काल राजपुरोहित हरिभद्र ने जैन मुनि बनना
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स्वीकार कर राजपुरोहित से धर्म पुरोहित बन गये । जब इसका अर्थ गुरु से समझ लिया तो जैन शास्त्र ज्ञान की तरफ उनका झुकाव हो गया और अल्प समय में ही आगम, योग, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण, प्रमाण शास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता और आगमवेत्ता बन गये और कई ग्रन्थों की टीकायें लिखीं ।
हंस और परम हंस हरिभद्रसूरि के भानजे थे भी जैन साधु बन गये । आचार्य श्री के मना करने पर भी वे बौद्ध दर्शन अध्ययन करने बौद्धमठ में गये ।
जैन - छात्र हैं, यह सन्देह होने पर बोद्ध प्राध्यापकों ने हंस को वहीं मार दिया और परमहंस किसी तरह भाग निकले किन्तु वह भी चित्तौड़ आकर मारे गये ।
अपने दोनों प्रिय शिष्यों के मर जाने से हरिभद्रसूरि को बहुत दुःख हुआ और बोद्धों से बदला लेने के लिए उन्होंने १४४४ बोद्ध-साधुओं को विद्या के बल से मारने का संकल्प लिया किन्तु गुरु का प्रतिबोध पाकर हिंसा का मार्ग छोड़कर १४४४ ग्रन्थों की रचना का संकल्प लिया और माँ भारती का भण्डार भरने लगे । दुर्भाग्य से इस वक्त ६० करीब ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं । जिसमें से आधे तक अब ही प्रकाशित हुए हैं।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने उच्चकोटि का, विपुल परिमाण में विविध विषयों पर साहित्य की रचना की है । उनके ग्रन्थ जैन शासन की अनुपम सम्पदा है । आगमिक क्षेत्र में सर्वप्रथम टीकाकार थे। योग विषयों पर भी उन्होंने नई दिशा व जानकारी दी। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार - इन आगमों पर टीका रचना का कार्य किया ।
'समराइच्चकहा ' आचार्य हरिभद्रसूरि को अत्यन्त प्रसिद्ध प्राकृत रचना है । शब्दों का लालित्य, शैली का सौष्ठव, सिद्धान्त सुधापान कराने वाली कांत - कोमल पदावली एवं भावभिव्यक्ति का अजस्र
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बहता ज्ञान निर्झर कथा वस्तु की रोचकता एवं इस प्रकार हम देखते हैं दोनों आचार्यों के रचित सौन्दर्य प्रसाद तथा माधुर्य इसका समवेत रूप- ग्रन्थ जैन ही नहीं अपितु विश्व साहित्यकाश के इन सभी गुणों का एक साथ दर्शन इस कृति से बेजोड़ नक्षत्र हैं। सुधी पाठक स्वयं ही निर्णय करे होता है । इस ग्रन्थ का सम्पादन जर्मन के डा० कलिकाल केवली आचार्य श्री हरिभद्रसूरि या कलिहरमन जैकोबी ने सन् १९२६ में किया था जो रायल काल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि कौन 'सूर' है एशियाटिक सोसायटी कलकत्ते से छपा है। लिखने या कौन 'शशि' है। का सारांश यह है कि लाखों श्लोक परिमाण
पुरातत्वाचार्य स्व० मुनि जिनविजयजी आचार्य साहित्य की रचना आचार्य हरिभद्रसूरि ने की है। श्री हरिभद्रसरि से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ___ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी इतना ही विपुल हरिभद्रसरि की मूत्ति स्वयं अपने अर्थ से निर्मित साहित्य संस्कृत में रचा है, उसका भी परिमाण कराई और हरिभद्रसरि के चरणों में अपनी मूर्ति लाखों श्लोकों का है। आचार्य हेमचन्द्र का भी पूरा भी खूदवा दी और चित्तौड़गढ़ के प्रवेश मार्ग पर साहित्य उपलब्ध नहीं हैं। इनकी भी प्रतिभा हेम-सी ही श्री हरिभद्रसूरि ज्ञान मन्दिर बनवा दिया जिसका निर्मल थी।
संचालन आजकल श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ वे ज्ञान के विपल भण्डार थे। पाश्चात्य कलकत्ता कर रहा है। विद्वानों ने तो आचार्य हेमचन्द्र को 'ज्ञान-समुद्र' कह कर सम्बोधित किया है। हेम शब्दानुशासन
मुनिजी को इस बात का गहरा दुःख व्याकरण और त्रिषष्ठि शलाका परुष चरित था कि वर्तमान में जैन समाज ने हरिभद्रआचार्य श्री की अद्भुत रचनायें हैं। जर्मनी के डा० सूरि को भुला दिया है, उनको यथोचित्त सम्मान जार्ज वल्हर ने हेमचन्द्राचार्य के ग्रन्थों से प्रभावित नहीं मिला। होकर जर्मनी भाषा में आचार्य हेमचन्द्रसूरि का सर्व- जैनियों को हरिभद्रसूरि के नाम से विश्व प्रथम जीवन चरित्र लिखा जिसका अनुवाद हिन्दी विद्यालय खोलना चाहिए था-गुजरात में में स्व० श्री कस्तूरमल जी बाँठिया ने किया है। हेमचन्द्राचार्य को तो बहुत आदर से याद किया
हेमचन्द्र की पारगामी प्रज्ञा पर दिग्गज विद्वानों के जाता है, जगह-जगह उनकी प्रतिमायें व चरण हैं 11 मस्तिष्क झुक गये। उन्होंने कहा
भारत सरकार का कर्तव्य है ऐसे दो महान ज्ञानकिं स्तुमः शब्द पयोधे हेमचन्द्र ते मंतिम् । पुंज भारतीय जैन आचार्यों का यथोचित सम्मान ___ एकेनासीह येने दृक् कृतं शब्दानुशासनम् । कर उनकी स्मृति में ज्ञान मन्दिर-विद्या मन्दिर
___ अर्थात्-शब्द समुद्र हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा बनवाये। 17 की क्या स्तुति करें जिन्होंने इतने विशाल शब्दानु
शासन की रचना की है।
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कन्हैयालाल गौड़ एम. ए. साहित्यरत्न, (उज्जैन)
जैन परम्परा के व्रत/उपवासों का आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य
जीवन का नीतियुक्त आचरण ही मनुष्य का बढ़ सकता है और धीरे-धीरे सच्ची मानवता उसमें चारित्र कहलाता है । चारित्र का संगठन सदाचार आने लगती है। सच्चारित्र्य से स्वास्थ्य में भी से ही होता है । पर सदाचार के लिये यह ज्ञान वृद्धि होती है। होना चाहिए कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है वैदिक परम्परा में धर्म के नौ साधन बताये गए तथा इस ज्ञान से अच्छे आचरणों को ग्रहण करके हैं और जैन परम्परा में बारह व्रत । इन व्रतों को बुरे आचरणों को त्याग देना चाहिए। इस विधि धारण किये बिना सुचरितवान अथवा सुचारित्र्यवान को जैनधर्म में सम्यक्-चारित्र का ग्रहण कहा गया आयुष्मान/स्वस्थ नहीं बन सकता, रह सकता। है। इस सदाचरण अथवा सम्यक्चारित्र के लिए जैन परम्परा में कहे हुए बारह व्रतों में प्रारम्भिक ग्रहण करने और त्यागने योग्य क्या है ? याज्ञवल्क्य पाँच अणुव्रत, लघुव्रत कहलाते हैं । वे सच्चारित्र्यस्मृति के आचार नामक अध्याय में कहा गया है वान, आयुष्मान होने वाले जिज्ञासुओं के लिए ही कि
हैं । बारह व्रतों में प्रथम अहिंसा ब्रत के विषय में __ अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। कहा
दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्म-साधनम्। पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, (चोरी न करना)
उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, परोपकार, दया, मन का प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता, क्षमा । यह नौ बातें सबके लिए धर्म का
स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ साधन है । इसी प्रकार जैन परम्परा में बारह व्रत अर्थात-पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काया बताये गये हैं और इन बारह व्रतों को धारण करने यह तीन बल, श्वासोच्छवास और आयुष्य-यह से मनुष्य सदाचारी बन सकता है । इन व्रतों को दस प्राण कहलाते हैं और इन प्राणों का वियोग धारण करने वाले के हृदय में व्रत धारण करते करना ही हिंसा कही जाती है। हिंसा जनित । समय जो उच्चाभिलाषाएँ होती हैं, उनके पालन पदार्थ जीवों के इन दस प्राणों का वियोग करने की उसमें सामर्थ्य होनी चाहिए और जब अपने से ही उत्पन्न होते हैं और इसलिए इन वस्तुओं का धारण किये हुये व्रत को वह यथोचित प्रकार से त्याग अणुव्रत रूप से अहिंसा की प्रतिज्ञा ग्रहण पाल सकता है, तभी सच्चारित्र्य में उत्तरोत्तर आगे करने वाले को भी करना योग्य है ।।
१ कर्तव्यकोमुदी द्वितीय ग्रन्थ (खण्ड १-२) रचयिता भारतभूषण शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज पृ. ३०-३१
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अहिंसा का मार्ग प्रदर्शित करते हुए भगवान नीति में भी वाचिक पाप के रूप में केवल असत्यमहावीर ने कहा है-सर्व प्राणों, सर्वभूतों, सर्व- वाद झूठ बोलने को ही नहीं माना; चुगली, कठोर
जीवों और सर्व सत्वों को नहीं मारना चाहिये, न भाषण आदि को भी वाचिक पाप कहा गया है। । पीड़ित करना चाहिए और न उनको मारने की हिंसा स्तेयामन्यथाकामै, बुद्धि से स्पर्श ही करना चाहिए।
पैशुन्यं परुषानृते । प्रत्येक जीव स्वतन्त्र होना चाहता है, बन्धन से
संभिन्नालापाव्यापामुक्ति चाहता है, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहता है ।
दमभिध्या - दृग्विपर्ययम् ॥ अहिंसा उसकी इस इच्छा की पूर्ति का अचूक साधन
अर्थात् हिंसा, चोरी तथा अगम्यागमन-यह 5है । सत्यशील व्रत आदि की माता मानी गई है- तीन कथित पाप हैं और पर द्रोह का चिन्तन पर। अहिंसा। जितने भी यम, नियम, व्रत, आराधना, धन की इच्छा और धर्म में दृष्टि का विपर्ययउपासना आदि के विधान धर्म-शास्त्रों में मिलते हैं,
यह मानसिक पाप है। सत्य शब्द का शास्त्रीय उन सबके मूल में अहिंसा है।
अर्थ 'सद्भ्यो हितं सत्यम्' अर्थात् जो सज्जनों के अहिंसा जहाँ मानव को विश्वमैत्री एवं विश्व- लिए हितकारक है वह सत्य है, इसके लिए 'न बन्धुत्व का पाठ पढ़ाती है वहाँ आत्मा पर आच्छा- सत्यमपि भाषेत पर पीडाकरं वचः' अर्थात जिस है। दित कर्म समूह को भी नष्ट करती चलती है और बात से दूसरों को दुख हो, आत्मा का क्षय हो, मोक्ष द्वार को निकट लाती है।
सत्य होने पर भी ऐसी बात न बोलनी चाहिए। . उत्तराध्ययन में अहिंसा की परिभाषा की है।
(३) अस्तेय व्रत-किसी की कोई भी वस्तु घर : मन, वचन, काय तथा कृत-कारित और अनुमोदन
__ में पड़ी हो या मार्ग में या वन में गिर गई हो तो
के से किसी भी परिस्थिति में त्रस, स्थावर जीवों को
___ उसके मालिक की आज्ञा के बिना चोरी के विचार दुखित न करना अहिंसा महाव्रत है।
से मन, वचन और काया इन तीन करणों से उसे ___ व्यावहारिक, सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय उठाना न चाहिए और न किसी के द्वारा उठवाना 9 और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में अहिंसा का प्रयोग चाहिए और न चोरी के काम में किसी प्रकार एवं उपयोग अव्यवहार्य नहीं है।
सहायता न करनी चाहिए-इसका नाम दत्त ___अहिंसा समस्त प्राणियों का विश्राम-स्थल है, व्रत-अस्तेय व्रत है । यह व्रत बुद्धिमान मानव को क्रीड़ा भूमि है और मानवता का शृंगार है। अहिंसा पूर्ण आयु प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को अवश्य र का सामर्थ्य असीम है।
__ मानना चाहिए। (२) सत्य व्रत-मन, वचन और काया इन जैन-धर्म में इसे अदत्तादान कहते हैं। अदत्त ] तीनों करणों से असत्य का सेवन न करना ही यानी किसी का न दिया हुआ और आदान यानी
सत्य व्रत कहलाता है । सत्य व्रत ग्रहण करने वाले ग्रहण करना-किसी का न दिया हुआ ग्रहण करना, का व्यक्ति को असत्य का त्याग करना चाहिए। शुक्र यही व्रत की दृष्टि से चोरी है। और चोरी का
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१ दैनिक ब्रिगेडियर १२ नवम्बर ८५ लेख भगवान महावीर की शिक्षा में विश्व कल्याण के सूत्र-ले. महासती
श्री उमरावकुवरजी अर्चना । २ मुनि द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ १९७३ लेख जैन धर्म का प्राण तत्व अहिंसा पृ० ११८-१२० ले. साध्वी श्री
पुष्पलता जी।
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माल अथवा वस्तु का उपभोग करने से आयु घटती है । स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है । अस्तेय व्रत की व्याख्या करते हुए कहा है
आहृतं स्थापितं नष्टं विस्मृतं पतितं स्थितम् । नाददीताऽस्वकीय स्वमित्यस्तेयमणुव्रतम् ॥ अर्थात् हरण करके लाया हुआ, रखा हुआ, खोया हुआ, भूला हुआ, गिरा हुआ या रहा हुआ किसी दूसरे का धन ग्रहण न करना - यह अस्तेय नाम का अणुव्रत है। जैन परम्परा में पांच अतिचार कह गये हैं, इन अतिचारों को त्याग कर अस्तेय व्रत ग्रहण करने का निर्देश शास्त्रकार देते हैं । वे अतिचार इस प्रकार हैं
स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं वैरुद्धमामुकम् । प्रतिरूप क्रियामानान्यत्वं वा स्तेय संश्रिता ॥
अर्थात् चोर को आज्ञा देना, चोरी का द्रव्य लेना, राजा की ओर से निषेध किए हुए कामों को करना, किसी एक वस्तु में, दूसरी वस्तु मिलाकर बेचना और झूठे बाँट रखना - यह सब अस्तेय व्रत के दोष हैं । "
( ४ ) ब्रह्मचर्य व्रत - यदि मन भली-भांति दृढ हो तो सर्वथा ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए । और यदि दृढ़ वृत्ति न हो तो स्वदार संतोष वृत्ति रखनी चाहिए ।
विषयाभिलाषा जब तक जिस काल तक उत्पन्न होती है, तभी तक उसका दमन करना हितावह है - सच्चा व्रत है । व्रत ग्रहण करने से मन और वाणी का यह मार्ग भी बन्द हो जाता है और जब यह दोनों मार्ग बन्द हो जाते हैं तभी ब्रह्मचर्य व्रत का आध्यात्मिक लाभ - इन्द्रिय दमन का परम लाभ प्राप्त होता है ।
पर-नारी के सेवन से जैसी शारीरिक और आत्मिक हानियाँ होती हैं, वैसी ही हानियाँ अति
१ कर्तव्य -कौमुदी [ खण्ड १-२ ] पृ. ३८-३६
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स्त्री सेवन और विषय कोड़ा से होती है। आयुर्वेद के 'भाव - प्रकाश' नामक ग्रन्थ में कहा गया है । शूल कास ज्वर श्वास कादर्य पाड्वा मय क्षयाः । अति व्यवाया ज्जायन्ते रोगाच्चा शेष कादवः ॥
अर्थात् - अधिक स्त्री सेवन करने से शूल, कास, ज्वर, श्वास, कृशता, पांडुरोग, क्षय और हिचकी आदि रोग होते हैं । इसी प्रकार आसनादि के द्वारा की जाने वाली अनन्त क्रीड़ाएँ भी विषय वृत्ति को बढ़ाने वाली और शरीर तथा आत्मा का अहित करने वाली हैं ।
ब्रह्मचर्य बन्द द्वार की अर्गला की आवश्यकता तो पूरी करता है । पर इस व्रत के बिना अनेक चतुर मनुष्य भी विषय की अन्धकारमयी खाई में पड़े और ख्वारो खराब हो गये हैं । कहा भी हैविषयार्त मनुष्याणां दुःखावस्था दश स्मृताः । पापान्यपि बहून्यत्र सारं किं मूढ पश्यसि ॥2
अर्थात - विषय पीड़ित मानव की दस दुःखद अवस्थाएँ होती हैं और उनमें अनन्त पाप समाविष्ट है । इन दस अवस्थाओं में दूसरी चिन्ता (८) रोगोत्पत्ति (६) जड़ता (१०) मृत्यु- मुख्य हैं । ये सभी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं। शरीर में रोगोमें त्पत्ति हो जाने पर अन्त वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । अथर्ववेद में इसका महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्र विरक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥ ११।५।१६
अर्थात् - ब्रह्मचर्य के तप से ही राजा राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ होता है । आचार्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही शिष्य को अपने शिक्षण एवं निरीक्षण में लेने की योग्यता सम्पादन करता है ।
प्रो. एल्फ्रेड फोनियर शेल्स नगर में १६०२
२ कर्त्तव्य कौमुदी खण्ड १-२ पृ. ४६
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ई० में हुई संसार भर के बड़े-बड़े डाक्टरों की सभा में स्वीकृत हुए इस प्रस्ताव को उद्धत करते हैं कि - " नवयुवकों को यह शिक्षा देनी चाहिए कि ब्रह्मचर्य के पालन से उनके स्वास्थ्य को कोई हानि नहीं पहुँच सकती वरन् वैद्यक और शरीर शास्त्र की दृष्टि से तो ब्रह्मचर्य एक ऐसी वस्तु है, जिसका बड़ी प्रवलता से समर्थन किया जाना चाहिये ।"1
नूतन जीव शास्त्र के प्रसिद्ध लेखक डॉन काउएन एम. डी. कहते हैं- "ब्रह्मचारी को कभी ज्ञात ही नहीं होता कि व्याधिग्रस्त दिवस कैसा होता है । उसकी पाचन शक्ति सदैव नियमित होती है । उसकी वृद्धावस्था बाल्यावस्था जैसी ही आनन्दमयी होती है ।"
डा० जटाशंकर स्वानुभव के आधार पर कहते हैं---" जिन रोगियों ने चिकित्सा के दौरान ब्रह्मचर्य पालन किया था, वे शीघ्र ही रोग मुक्त हो गये थे, और उनके रोग जनित कष्ट दायक चिन्ह अल्प कष्ट दायक हो गए थे ।"
ब्रह्मचर्य पथ को अपनाये बिना कोई भी व्यक्ति अपने उत्कर्ष, जीवन की महत्ता एवं सुख शांति को प्राप्त नहीं कर सकता |
५. परिग्रह मर्यादा व्रत - धन, धान्य, भूमि, घर, पशु, नौकर चाकर आदि अनेक वस्तुएँ जगत में विद्यमान हैं। उनकी मर्यादा सीमा बाँधना परिग्रह परिमाण व्रत कहलाता है । तृष्णा को जीतने के लिए यह व्रत अति ही उपयोगी है । तृष्णा छिन्धि भज क्षमां जहि मदम् इत्यादि - तृष्णा को काट डाल, क्षमा धारण कर, भद त्याग । तृष्णा को काट डालने के लिये परिग्रह की मर्यादा का व्रत उपयोगी है ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते अन्त तक वह संसार के काम-क्रोध, लोभ, मद, मोह तथा
मत्सर रूपी षड्रिपुओं से घिरा रहता है और घिरे हुये हो मौत के मुख में चला जाता है। आयुर्विज्ञान कहता है यदि मानव को स्वस्थ रह कर आत्मिक शांति प्राप्त करनी है तो तृष्णा को त्याग कर परिग्रह - मर्यादा व्रत का पालन करना चाहिये ।
तृष्णा का निरोध भी सन्तोष प्राप्ति का द्वार है । और संतोष प्राप्ति के मन्दिर में प्रवेश करने पर ही परार्थ साधना करने की तत्परता मनुष्य में आती है । पाश्चात्य वैज्ञानिक श्री कूपर का कथन है कि
It is content of heart
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gives nature power to please The mind that feels no smart En-livens all it-sees.
अर्थात् - जो हृदय संतुष्ट है, वह प्रकृति में आनन्द देखता है और जो मन चंचलता असंतुष्टता से रहित है । उसे सर्वत्र आनन्द का ही प्रकाश दृष्टि गोचर होता है । 3
परोपकार करने की इच्छा वाले और अपना जीवन सुख सन्तोष से व्यतीत करने तथा चित्त की निवृत्ति का आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की कामना वाले मनुष्य को अपने सब संयोगों पर विचार करके अनेक प्रकार के परिग्रहों की मर्यादा निर्धारित करना उचित है ।
( ६-७ ) दिशाओं और भोग्य वस्तुओं की मर्यादा निर्धारित करने के व्रत -- पूर्व और पश्चिम आदि दिशाओं का मान करने से सुख देने वाला छठा व्रत निष्पन्न होता है और भोग के साधन वस्त्राभूषण, खान-पान, औषधि आदि की मर्यादा निर्धारित करने से सातवाँ व्रत सिद्ध होता है । लकड़ियाँ जलाकर कोयले बनाना, वनों को कटवाना आदि प्रत्येक पापजनक कर्मादान रूपी कहे जाने वाले पंद्रह
उद्धृत
१ ब्रह्मचर्य विज्ञान - ले. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी. पू. २२-२३ से २ वही पृ. ४३
३ कर्तव्य कौमुदी खण्ड १-२ पृ. ६१.
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प्रकार के कामों का त्याग भी सातवें व्रत में किया द्वेष अथवा कषाय के कारण अपने आत्मा की जो गया है । परिणति हुई हो, उसे दूर करने के लिये समभाव उत्पन्न करने वाले सामायिक व्रत का ग्रहण करना चाहिये | दो घड़ी शुभ ध्यान पूर्वक एक स्थान पर बैठकर शुभचिंतन, धर्म विचार और वृत्ति को उच्चतर बनाने वाले मनन में समय व्यतीत करने को सामायिक कहते हैं ।
यदि मानव विचित्र विचित्र भर भटकता रहे तो फिर उसके ही होती जाती । ऐसे व्यवहार रूपी खारे समुद्र में तो सम + आय + इक = समत्व का लाभ कराने वाली सामायिक की आवश्यकता जैन परम्परा में ही नहीं वरन् अन्य धर्म परम्परा के धर्माचार्यों ने
चित्त को समता का परिचय कराने के लिए इस की आवश्यकता बतलाई है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- 'मन ही बंध और मोक्ष का कारण है ।' अतः मन की अधोगति न हो, इसके लिए उसे समता में लीन करने का यत्न करना आवश्यक है । कहा
इन दोनों व्रतों को धारण करने वाला एक प्रकार की तपश्चर्या में ही प्रवेश करता है - ऐसा कहा जा सकता है । इससे गमन की वृत्ति का ओर भोग वस्तुओं के उपभोग की लालसा का अवश्य निरोध होता है । कहा है
जगदा क्रम प्रमाणस्य प्रसरल्लोभ वारिधेः । स्खलनं विद्धे तेन येन दिग्विरतिः कृता ॥
अर्थात् - जो मनुष्य इस दिग्विरति व्रत को ग्रहण करता है, वह इस जगत के आक्रमण करने वाले लोभ रूपी महासमुद्र का स्खलन कर देता हैयह सत्य है ।
परिग्रह की मर्यादा निर्धारित करने से तृष्णा का निरोध होता है, शरीर स्वस्थ रहता है, पर जब तक भोगोपभोग के पदार्थों की मर्यादा निर्धारित न की जा, तब तक मन तथा इन्द्रियों का पूरा निरोध नहीं होता । 1
(८) निष्प्रयोजन पाप निवृत्ति रूप व्रत -अप ध्यान, प्रमाद, हिंसक - शस्त्र संचय और पापोपदेश यह चार अनर्थ दण्ड कहे जाते हैं । इनसे निवृत्त होना अर्थात् चाहे सम्पत्ति की हानि हो, चाहे पुत्रादि की मृत्यु हो जाय, फिर भी मन में तनिक भी सोच न करना, जीवन रक्षणादि के काम में तनिक भी आलस्य न करना, प्राण नाशक शस्त्र और आयुधों का संग्रह न करना तथा किसी भी पापानुष्ठान के विषय में किसी को प्रेरित न करनाकर्म के समूह को रोकने वाले इस व्रत का परिलक्षण है । इस व्रत को ग्रहण करने से मानव निरर्थक पापों से दूर रहने की वृत्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है, चित्त प्रसन्न तथा शरीर निरोग रहता है । (e) सामायिक व्रत - बाह्य प्रवृत्ति में राग१-२-३ वही पृ. ६४, ६६, ६९, ७१
४२०
तप्येद्वर्ष शतैर्यश्च, एक पाद स्थितो नरः । एकेन ध्यान योगेन, कलामार्हति षोडशीम् ॥
वृत्तियों में जीवन मन की अधोगति
अर्थात् - ध्यान योग रूपी सामायिक का मूल्य देह दमन से अधिक आँका गया है। आगे कहा है कि
दिवसे दिवसे लक्खं देई सुवण्णस्स खंडियं एगो । इयरो पुण सामाइयं करेइ न पहुप्पए तस्स ॥
अर्थात् - एक पुरुष दिनों दिन लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करे और दूसरा सामायिक करे, स्वर्ण का दान सामायिक की बराबरी नहीं कर सकता । चित्त वृत्ति को स्थिर - सम करना, यह एक मानसिक योग का प्रकार है |
वृत्ति को पतित होने से रोक कर अभ्यास से उसे स्थिर भी किया जा सकता है । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है
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अथ-चित्तं समाधातुन शक्नोपि भवि स्थिरम् । होकर सद्विचार में लीन रहना पौषध व्रत कहलाता अभ्यास-योगेन ततो मामिच्छाप्तु धनंजय !॥ है। 'पौष धर्मस्य धत्ते यत्तद् भवेत्पौषधं व्रतम्' अर्थात्
सामायिक का चित्त को स्थिर रखने का लाभ जिसमें धर्म की पुष्टि हो, वह पौषध-व्रत कहलाता अभी अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। है। मुमुक्षु-गृहस्थ को पर्वदिनेषु अर्थात् अष्टमी, । चित्त की शुद्धि के लिए सामायिक उपयोगी चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या आदि पर्व-तिथियों
है। पर प्रातःकाल मन की समता के लिए जितना में इस व्रत को ग्रहण करना चाहिए और निर्दोषलाभदायक है उतना दूसरा समय नहीं, इसीलिए रीति से आत्मा की विशुद्धि के साथ पालन करना प्रातःकाल में सामायिक को तो 'अवश्यं विदद्यात्' चाहिए। ऐसा कहा है। उपासना के द्वारा मन और तन के (१२) अतिथि दान व्रत-जिस महात्मा ने दोषों को मिटाने की चिकित्सा करने वाले डा० तिथि, पर्व, उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया हो, एप्टन सिंक लेयर और डा० मेकफेडन ने भी क्षुधित वह अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथि हमारे आँगन अवस्था में मन को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाने में आ पहुँचें, तो उन्हें आदर के साथ अन्न-वस्त्रादि वाली घटना का विशद वर्णन किया है।
का दान करना । इस ब्रत को अतिथि संविभाग व्रत (१०) देशावकाश--व्रत-छठे व्रत में दिशाओं कहते हैं । a का जो परिमाण बांधा गया हो, उसे संकुचित अतिथि ऐसा सन्त होना चाहिए कि जिसे धन
करके द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से यदि आदरपूर्वक संग्रह करने की इच्छा न हो, केवल शरीर की रक्षा उसकी पुनः सीमा बाँधी जाय और इस प्रकार के लिए जीवन की आवश्यकताएँ एक दिन में एक आश्रय का निरोध किया जाय तो उसे मुनिगण दिन के योग्य ही हों। देशावकाश नाम का ब्रत कहते हैं। वह ब्रत चार अतिथि सत्कार में मुख्यतः अन्नदान का ही
घड़ी, एक रात या एक दिन तक इच्छानुसार ग्रहण महत्व समझा जाता है। चूंकि अन्न को प्राण माना १५ करना चाहिए और उसे छ: कोटि से ठीक-ठीक गया है-'अन्नं वैः प्राणः' एवं जल को जीवन कहा पालन करना चाहिए।
है, इसीलिए किसी अतिथि का अन्न-जल से सत्कार इस व्रत से पाप की प्रवत्ति में मानव संयम करने का अर्थ होता है उसे प्राण एवं जीवन का दान रखना सीखना है और ज्यों-ज्यों वह अपने गमना- किया जा रहा है। गमन आवश्यकताओं की दिशाओं को कम-से-कम जो भी ज्ञान, चिन्तन की दशा में उन्मुख होता करता जाता है, त्यों-त्यों उसकी अन्तम खता को है, विचारों की गहराई में, उतरता है वह विज्ञान विकसित होने का अवसर मिलता है।
कहलाता है। विज्ञान का अर्थ है-विशेष जानकारी।
इस दृष्टि से, जैन परम्परा के बारह ब्रतों का (११) पौषध-व्रत-एक प्रातः से लेकर दूसरे आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य स्वतः सिद्ध हो जाता है । प्रातः तक चौबीस घण्टे का उपवास करके सांसा- फिर भी शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है-इसरिक वस्त्र, आभूषण, माल्य आदि को त्यागकर, लिए शरीर को संभालकर रखना आवश्यक है। पाप के सभी कर्मों को छोड़कर नियमपूर्वक धर्म- शरीर को स्वस्थ रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थान में एक अहोरात्रि पर्यन्त धर्म ध्यान-परायण आवश्यक है ।
१ वही पृष्ठ ७३ ३ वही पृ० २०६
२ साधना के सूत्र : प्रवचनकार युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी पृ. २३६ अतिथि सेवा
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जो सन्त-महात्मा-गृहस्थ-साधु इन बारह व्रतों उपवास करके सतत् तपस्या आरम्भ करनी चाहिए, को धारण कर नियमपूर्वक उनका पालन करते हैं- पश्चात् एक-एक दिन के अन्तर से उपवास करना वे स्वस्थ एवं चिरायु होते हैं, उनके शरीर का चाहिए और ज्यों-ज्यों शक्ति बढ़ती जाय, त्यों-त्यों Va संस्थान सुन्दर एवं सुडौल हो जाता है, उनके तपस्या में वृद्धि करते जाना चाहिए और अन्त में शारीरिक अवयव सुदृढ हो जाते हैं, वे तेजस्वी और संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। यदि नित्य या अति शक्तिशाली होते हैं । भोजन के अपच होने की एक-एक दिन के अन्तर से भी उपवास की शक्ति न ८ शिकायत नहीं होती और न ही खट्टी डकारें आती हो तो प्रतिदिन ऊनोदरी तप करना चाहिए । यानी 8 हैं । रक्त-चाप कम-ज्यादा नहीं होता । नाड़ी-संस्थान, जितना भोजन नित्य किया जाता है, उसको कम आमाशय और हृदय की गति सुचारु रूप से अपना- कर देना चाहिए । वस्त्रादि उपकरणों को भी घटा अपना काम करती हैं। शरीर में रक्त-संचालन देना तथा क्रोधादि कषायों में भी कमी करनी (Blood Circulation) बिना किसी रुकावट होता चाहिए । है जिससे चेहरा प्रसन्नता से खिला रहता है। यही इन्द्रियों-वत्तियों पर कठोर प्रहार करके उन्हें कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि मुनि दीघायु होत ग्लान बना देना तप का देत नहीं है और न इससे का) थे, उन्हें किसी प्रकार की औषधि एवं उपचार की तप सिद्ध होता है। आवश्यकता नहीं पड़ती थी। व्रत-ग्रहण करने से
रस रुधिर मांस-भेदोऽस्थिमज्जा आहार में कमी आती है। आयुर्वेद विज्ञान की
शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । सूक्ति है-स्वल्पाहारी स जीवति-स्वल्प आहार
कर्माणि चाशुभानीत्य तस्तपो करने वाला दीर्घ-जीवी होता है। ___ जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी एवं अल्पाहारी हैं उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की।
___ अर्थात्-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा 13 आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, स्वयं
और शुक्र तथा अशुभ कर्म इससे तपित हो जाते हैं, ही स्वयं के चिकित्सक हैं। दस प्रकार के सखों इसलिए इसका नाम तप रखा गया है। शक्ति से में-आरोग्य पहला सुख माना गया है। आरोग्य
आ बाहर, दबते हुए या जबर्दस्ती सहन करते हुए उप-10 ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है, सबसे बड़ा लाभ है।
, वासादि तपस्या करना बिल्कुल अनिष्टकारक है, | महषि धन्वन्तरि ने स्वास्थ्य की परिभाषा करते इसीलिए कहा ह हुए लिखा है जिसके देह में वात-पित-कफ तीनों सो अ तवो कायव्वो जेण मनोमंगलं न चितेइ। ) दोष, अग्नि, रस, रक्त आदि सातों धातुओं की जेण न इंदिय हाणी जेण जोगा न हायंति ॥ मल क्रिया ये सब सम हैं, तथा जिसकी आत्मा, अर्थात्-जिस तप के करने से मन दुष्ट न हो, मन एवं इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, वह स्वस्थ कहलाता है। इन्द्रियों की हानि न हो, और योग भी नष्ट हो, व्रत से समस्त प्रकार के विकार दूर होते हैं। वही तप करना चाहिए । इस प्रकार शान्ति समाधि ___ शारीरिक वर्चस्व/बौद्धिक प्रतिभा/स्मरण शक्ति पूर्वक तप करना और उसमें आगे बढ़ने के लिए। (ज्ञान तन्तु) का विकास होकर जीवन में उत्कृष्ट धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहिए। पहले कई दिनों सफलता मिलती है।
में उपवास करना चाहिए। फिर एक-एक दिन के ____ उपवास-तप के इच्छुक को पहले कभी-कभी अन्तर से करना चाहिए और बाद में एक साथ दो,
नाम नरुक्तम् ॥
१-२. वही पृष्ठ २२६-२२७ । ४२२
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फिर तीन, फिर चार इस प्रकार धीरे-धीरे आगे आयु को बढ़ाने वाला है । जैन परम्परा में उपवास बढ़कर, ज्यों-ज्यों तप करने की शक्ति बढती जाये, अनशन तप के दो मुख्य प्रकार बतलाये गये हैंत्यों-त्यों छहों प्रकार के बाह्य तप सिद्ध करना एक स्वल्प समय के अनशन का और दूसरा जीवन KC चाहिए, अन्तिम संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। भर के अनशन का। इन दोनों के अनेक उपभेद हैं। इस विधान में सतत् शब्द का हेतु पूर्वक व्यवहार सामान्य उपवास चाहे कितनी संख्या के हों, वे किया है। अनेक वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के द्वारा स्वल्प समय वाले कहे जाते हैं और जीवन भर का सिद्ध किया है। इसमें प्रमुख डॉ० एडवर्ड हुकर अनशन संस्तारक कहा जाता है। मन को बिना AT ने अनेक प्रयोगों के पश्चात अपना अभिमत प्रकट ग्लान किये, सद्बुद्धि से, कर्मबन्धन तोड़ने के उत्साह किया है कि- उपवास से मानसिक बल बिलकूल से जीवन भर का अनशन ग्रहण करना, उल्लासनष्ट नहीं होता। कारण कि मस्तिष्क का पोषण पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करने का कार्य है। यह करने वाला तत्व मस्तिष्क में ही उत्पन्न होता है। मन की परम उच्च दशा है और इससे इस तप का उसका पोषण करने के लिए शरीर के और किसी अन्तिम प्रकार माना जाता है। भाग की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसके लिए अन्न आगे कहा गया है यदि पहले समग्र पूर्ण उपवास की भी आवश्यकता नहीं है, कारण कि वह स्वतः कठिन प्रतीत हों और इसके कारण चाहे कोई ऊनोअपना पोषण करता है और अपना काम नियमित दरी तप करे, परन्तु जिन्होंने उपवास करने की रूप में किये जाता है।
- शक्ति को विकसित किया है, उन्हें ऊनोदरी तप, से जीवन की समस्त शक्तियों का उद्भव मस्तिष्क साधारण उपवास से कठिन प्रतीत होता है और 7 में ही होता है। जब मस्तिष्क काम करने से थक ऊनोदरी तप को जिसे विद्वानों ने उपवास के बाद
जाता है, तब उसकी थकान भोजन से दूर नहीं स्थान दिया है वह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कठिनता NI होती, विश्राम से होती है। निद्रा का विश्राम, का विचार करके ही दिया जाता है। उपवास में
मस्तिष्क का उत्तमता से पोषण करता है और दिन भूख मर जाती है और इसमें ऊनोदरी के समान में किये हुए परिश्रम से विगलित हुए शरीर में- परीषह नहीं सहन करना पड़ता । एप्टन सिंक लेयर रात्रि के विश्राम के कारण प्रातःकाल ताजगी नामक वैज्ञानिक ने प्रतिदिन एक छोटा फल खाकर और प्रसन्नता उत्पन्न हो जाती है।
कई दिनों तक ऊनोदरी करने का निश्चय किया जब मनुष्य मानसिक चिन्ता या राग-द्वषादि था, परन्तु इससे उपवास से भी अधिक कष्ट मालूम विकारों से घिरा रहता है तब उसकी भूख सबसे होने लगा और इससे उन्होंने फल खाना छोड़कर पहले नष्ट हो जाती है। और शरीर में जब कोई पूर्ण उपवास करना ही पसन्द किया। कहा है
रोग-विकार उत्पन्न हो जाता है, तब भी भूख मर कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधोयते । 0) जाती है। भूख का मर जाना, रोग या विकार का उपवासः स विज्ञेयः शेषःलङ घनक SN चिह्न है, मानव की प्रकृति का संघटन कुछ ऐसा है अर्थात् जिस उपवासादि में कषाय, विषय और IKE
कि रोग या विकार को मिटाने के लिए ही भूख का आहार का त्याग किया जाय, उसे उपवास समझना । ॐ नाश या उपवास, उपचार के लिए निर्मित हुए हैं। चाहिए, शेष लंघन है। है। इसी कारण आयुर्वेद विज्ञान ग्रन्थों में भी स्पष्ट कहा व्रत उपवासों से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का
गया है कि शरीर मन और आत्मा की शुद्धि करने विकास सम्भव है। इनसे किसी प्रकार की हानि वाला उपवास रूपी तप एक बड़ो दिव्योषधि है, होने की सम्भावना नहीं है ।। १ कर्तव्य कौमुदी [खण्ड १-२] पृष्ठ ४८६, ४८७, ४८८, ४८६, ४६०, ४६१ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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0 डॉ० छगनलाल शास्त्री एम. ए. (त्रिधा), पी-एच. डी. प्रोफेसर-मद्रास विश्वविद्यालय
आचार्य हरिभद्र के प्राकृत योग ग्रन्थों का मूल्यांकन
__ भारतीय वाङमय में प्राकृत का अपना महत्व- प्रयोग की दृष्टि से अवश्य ही कतिपय प्रादेशिक पूर्ण स्थान है। विभिन्न प्राकृतों का यत्किचित् प्रादे- बोलियाँ रही होंगी। शिक भेद के साथ भारोपीय भाषा-परिवार या महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारंभ आर्यभाषा-परिवार के क्षेत्र में भारत के पश्चिमी, में व्याकरण या शब्दानुशासन का लक्ष्य निरूपित पूर्वी, उत्तरी एवं मध्य भाग में जन-जन में लोक करते हुए लिखा हैभाषा के रूप में व्यापक प्रचलन रहा है।
"जो शब्दों के प्रयोग में कुशल है, जो शब्दों
का समुचित रूप में उपयोग करना जानता है, वह - भाषाशास्त्रियों ने भाषा-परिवारों का विश्लेषण व्यवहार-काल में उनका यथावत् सही-सही उपयोग करते हुए प्राकृतों की मध्यकालीन भारतीय आर्य
करता है।" 9197377 (Middle Indo Aryan Languages) Å
भाषा के शुद्ध प्रयोग की फलनिष्पत्ति का जिक्र परिगणना की है। उनके अनुसार भारतीय आर्य- करते हए वे कहते हैं-"ऐसा करना न केवल इस भाषाओं के विकास-क्रम के अन्तर्गत प्राकृत का लोक में उसके लिए श्रेयस्कर होता है, वरन् परकाल ई. पू. ५०० से माना जाता है, पर यदि हम लोक में भी यह उसके उत्कर्ष का हेतु है। जो गहराई में जाएं तो यह विकासक्रम का स्थूल निर्धा
अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करता है, वह दोषभाक् । रण प्रतीत होता है। प्राचीन आर्य भाषाएँ (Early in Indo Aryan Languages) जिनका काल ई० पू० • आगे उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है१५०० से ई. पू. ५०० माना जाता है, का प्रारम्भ "एक एक शब्द के अनेक अपभ्रंश-रूप प्रचलित छन्दस् या वैदिक संस्कृत से होता है। ऐसा हैं।" अपभ्रष्ट रूपों में उन्होंने गो के अर्थ में प्रचलित प्रतीत होता है कि यह विवेचन छन्दस् के गावी, गोणी, गोपतलिका का उल्लेख किया है । साहित्यिक रूप को दृष्टिगत रखकर किया इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि महाभाष्यकार गया है । वैदिक संस्कृत जन-साधारण की बोलचाल का संकेत उन बोलियों की ओर है, जो छन्दस्काल. की भाषा रही हो, ऐसा संभावित नहीं लगता। में लोक प्रचलित थीं। बोलचाल की भाषाओं में तब वैदिक संस्कृत के समकक्ष लोगों में दैनन्दिन रूप-वैविध्य का होना सर्वथा स्वाभाविक है ।
१. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ. ७ ।
२. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ.८ ।
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ऐसा प्रतीत होता है,विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित वह प्राचीनतम साहित्य है, जिसका न केवल जैन वे बोलियाँ प्राचीन प्राकृतें रही हों, जिनका लोग धर्म एवं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की व्यवहार करते थे। उन्हीं के आधार पर परिष्कार- दृष्टि से ही महत्व है, वरन तत्कालीन भारत के पूर्वक छन्दस् या वैदिक संस्कृत का स्वरूप निर्मित लोक-जीवन, समाज, रीति-नीति, व्यापार, कृषि, हुआ हो।
प्रशासन, न्याय, व्यवस्था, भोजन, वस्त्र आदि यद्यपि यह अब तक विवाद का विषय रहा है
जीवन के सभी अपरिहार्य पक्षों पर मैं । कि संस्कृत तथा प्राकृत में किसे प्राचीन माना जाये विशद प्रकाश डालता है।
पर प्राकृत की प्रकृति देखते ऐसा कहा जाना असंगत दिगम्बर परम्परा का प्राचीन साहित्य शौरसेनी नहीं होगा कि छन्दस् के काल में भी जन-व्यवहार्य में है। शौरसेनी का भारत के पश्चिमी भाग में भाषा के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। अतः प्रचलन था। षट्खण्डागम के रूप में शौरसेनी में उसकी प्राचीनता छन्दस् से परवर्ती कैसे हो सकती जो साहित्य हमें उपलब्ध है, वह निश्चय ही कर्म
सिद्धान्त पर विश्व के दर्शनों में अपना अप्रतिम भगवान महावीर एवं बुद्ध के समय में और स्थान लय हा आगे भी प्रायः समग्र उत्तर भारत में मागधी, अर्द्ध धर्म-सिद्धान्तों के निरूपण से संपृक्त होने के मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची आदि का जन- कारण जैन परम्परा का प्राकृत के साथ जो तादाभाषाओं के रूप में अव्याबाध प्रचलन रहा है। त्म्य जुड़ा, वह आगे भी अनवरत गतिशील रहा। महावीर द्वारा अपने उपदेशों के माध्यम के रूप में यह भी ज्ञातव्य है, अपने प्रचलन-काल में अर्द्ध मागधी का स्वीकार तथा बुद्ध द्वारा मागधी प्राकृत की व्यापकता केवल जैनों तक ही सीमित (पालि) का स्वीकार यह सिद्ध करता है। नहीं रही। प्राकृत जन-जन की भाषा थी। संस्कृत
समवायांग सूत्र, आचारांग चूणि, दशवकालिक नाटकों में जहाँ शिष्ट-विशिष्ट पात्रों के लिए वृत्ति आदि में इस आशय के उल्लेख हैं कि तीर्थंकर संस्कृत का प्रयोग हुआ है, वहाँ लोकजनीन पात्रों अर्द्धमागधी में धर्म का आख्यान करते हैं।1 के लिए, जिनमें व्यापारी, किसान, मजदूर, भृत्य, __फलतः प्राचीनतम श्वेताम्बर जैन वाड मय जो स्त्रियाँ, बालक आदि का समावेश है, विभिन्न द्वादशांगी के रूप में विश्र त है, उसमें से ग्यारह प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। उससे प्राकृत की सर्वअंग हमें अर्द्धमागधी में प्राप्त हैं। बारहवाँ अंग जन भोग्यता सहज ही सिद्ध होती है । दृष्टिवाद विच्छिन्न माना जाता है । अंगों के आधार आगे चलकर साहित्यिक भाषा के रूप में महापर उपांग, छेद, मूल, आवश्यक, प्रकीर्णक आदि के राष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ, जिसमें साहित्य की ए रूप में विपुल साहित्य अर्द्धमागधी में ही सजित विभिन्न विधाओं में रचना हुई। हुआ।
इस सन्दर्भ में आगे बढ़ते हुए हम आ० हरिभद्र विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक सूरि के काल में प्रविष्ट होते हैं। यद्यपि वह तथा तत्परवर्ती बौद्ध साहित्य पालि में रचित साहित्य के क्षेत्र में लौकिक संस्कृत (Classical
Sanskrit) का उत्कर्षकाल था, दर्शन, न्याय, व्या___ अर्द्धमागधी आगम एवं बौद्ध पिटक भारत का करण, काव्य आदि पर संस्कृत में लिखने को लेखक/403
हुआ।
१. (क) समवायांग सूत्र ३४. २२, २३
(ख) दशवकालिक वृत्ति पृ. २२३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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LAB अधिक उत्साहित थे, पर जैन लेखकों ने प्राकृत में प्राप्य-अप्राप्य लगभग पचास ग्रन्थ ऐसे हैं. जिन्हें
भी लिखना चालू रखा। आ० हरिभद्रसूरि इसके आचार्य हरिभद्र-रचित माना जाना सन्देहास्पद उदाहरण हैं।
नहीं है। आ० हरिभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों ने प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य हरिभद्र द्वारा जैनकाफी ऊहापोह किया है। अन्ततः पुरातत्त्व के योग पर प्राकृत में रचित कृतियों पर विचार प्रख्यात विद्वान तथा अन्वेषक मुनि जिनविजय ने करेंगे । उस पर सूक्ष्म गवेषणा की। उन्होंने आचार्य हरि- वह एक ऐसा समय था. जब भारतवर्ष में कर भद्रसूरि का समय ई. सन् ७००-७७० निर्धारित
विभिन्न धर्म-परम्पराओं में योग के नाम से आध्याकिया, जिसे अधिकांश विद्वान् प्रामाणिक मानते त्मिक साधना के अनेक उपक्रम गतिशील थे। योग छ
शब्द का पतंजलि ने चित्तवृत्ति-निरोधके रूप में जो प्राचीन लेखकों तथा आधुनिक समीक्षकों उपयोग किया है, जैन परम्परा में वैसा लगभग नहीं द्वारा किये गए उल्लेखों के अनुसार हरिभद्र रहा है। वहाँ योग आस्रव है, जो मानसिक, ब्राह्मण-परम्परा से श्रमण-परम्परा में आए वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों से जुड़ा है । चैतसिक थे । वे चित्रकूट >चित्तऊड चित्तोड़ या चित्तौड़ के शुद्धि, अन्तःपरिष्कार या कर्म-निर्जरण के लिए जैन राजपुरोहित वंश से सम्बद्ध थे। अपने समय के परम्परा में तप का स्वीकार हुआ है । औपपातिक उद्भट विद्वान थे। याकिनी महत्तरा नामक जैन सूत्र आदि आगम-ग्रन्थों में तप के सम्बन्ध में विस्तृत साध्वी के सम्पर्क में आने से जैन धर्म की ओर विश्लेषण है। आकृष्ट हुए । जैन धर्म में श्रमण के रूप में प्रवजित । हुए । वैदिक परम्परा के तो वे महान पण्डित थे ही तपश्चरण का क्रम भारतवर्ष में बहुत प्राचीनमोरनी काल से प्रायः सभी धार्मिक परम्पराओं में रहा है। शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया। फलतः
महान् प्रज्ञा पुरुष पं० सुखलालजी' संघवी के अनउनके वैदुष्य में एक ऐसा निखार आया, जो निःसं
सार कभी इस देश में ऐसे साधकों की परम्परा देह अद्वितीय था।
रही है, जो सांसारिक भोग, सुख-सुविधाएँ, मान
अपमान आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों __ आ० हरिभद्र की भारतीय वाङमय को बहुत से सर्वथा अलिप्त, असंस्पृष्ट रहते हुए घोर तपोमय, बड़ी देन है। उन्होंने अनेक विषयों पर विपुल पशु-पक्षी जैसा सर्वथा निष्परिग्रह जीवन जीते थे। साहित्य रचा, आगमों पर व्याख्याएँ लिखीं, धर्म उन्हें अवधूत शब्द से अभिहित किया जाता रहा
व दर्शन पर रचनाएँ की, कथा-कृतियाँ भी रचीं। है। भागवत में ऋषभ का एक अवधूत योगो के मा परम्परा से उन्हें १४००, १४४० या १४४४ प्रकरणों रूप में वर्णन आया है। वर्तमान अवसर्पिणी के
का रचनाकार माना जाता है। यह स्पष्ट नहीं है प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का जैन साहित्य में कि प्रकरण का तात्पर्य एक पुस्तक है अथवा पुस्तक जो वर्णन आता है, उससे भागवत का वर्णन तितिक्ष के अध्याय या भाग। सारांशतः छंटाई करने पर दृष्टि से बहुत कुछ मिलता-जुलता सा है । भागवत
१. योगसूत्र १.२ । ३. तत्त्वार्थ सूत्र ६.३, १९-२० । ५. समदर्शी आ. हरिभद्र पृ. ६३-६५ ।
२. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-२ । ४. औपपातिक सूत्र ३० । ६. भागवत ५.५, २८-३५, ५.६, ५.१६।
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। के ११वें स्कन्ध में अवधूत दत्त या दत्तात्रेय की चर्चा आ० हरिभद्रसूरि इन सब परम्पराओं का गह
है, जिन्होंने अपने द्वारा विविध रूप में गृहीत राई से अध्ययन कर चुके थे । जिन तपःक्रमों, शिक्षाओं के कारण अपने चौबीस गुरु माने थे। साधना पद्धतियों, यौगिक क्रिया-प्रक्रियाओं के परि___ आचारांग का धृताध्यायन (प्रथम श्र तस्कन्ध पार्श्व में विकास पाती योग-साधना उनके समय षष्ठ अध्ययन) तथा विशुद्धिमग्ग का धतांग-निर्देश तक जिस रूप में पनप चुकी थी, उससे वे भलीभांति 15 अवधूत परम्परा की ओर संकेत करते प्रतीत होते परिचित थे । समय की मांग को देखते उन्हें यह हैं। भाषा-विज्ञान में निर्देशित प्रयत्नलाघव या आवश्यक प्रतीत हुआ कि जैन चिन्तनधारा को संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया के अनुसार 'अव' उपसर्ग केन्द्र में रखते हुए योग का एक ऐसा रूप उपस्थित हटाकर केवल धूत रख लिया गया हो। धुत 'ध' किया जाए, जो तत्सम्बन्धी सभी विचारधाराओं कम्पने का कृदन्त रूप है। अवधूत के सन्दर्भ में का समन्वय लिए हुए हो, जिसे अपनाने में किसी इसका आशय उस साधक से है, जिसने कर्म-शत्रुओं को कोई आपत्ति न लगे। को कंपा डाला हो, झकझोर दिया हो, हिला दिया योग के क्षेत्र में इस प्रकार का चिन्तन करने के हो।
वाले आ० हरिभद्र सम्भवतः पहले व्यक्ति थे। ___ साथ ही साथ तापसों की भी विशेष परम्पराएँ क्योंकि तत्पूर्ववर्ती लगभग सभी योगाचार्यों ने अपनी इस देश में रही हैं, जिनकी तपःसाधना ब्राह्मण और अपनी परम्पराओं को ही उद्दिष्ट कर साहित्यश्रमण परम्परा का मिला-जुला रूप लिए थीं। रचना की। औपपातिक सूत्र आदि में जो विभिन्न परिव्राजकों, आ० हरिभद्र ने योग पर चार ग्रन्थ लिखे-१. तापसों का वर्णन आया है, वह इस पर प्रकाश योगदृष्टिसमुच्चय, २. योगबिन्दु, ३. योगशतक तथा डालता है । आ० हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा में ४. योगविशिका। कुलपति आर्जव कौण्डिन्य, सुपरितोष नामक तपोवन योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु संस्कृत में हैं। तापस-आश्रम और वहाँ दीक्षित अग्निशर्मा के तप ये अपेक्षाकृत विस्तृत हैं । योगदृष्टिसमुच्चय में २२८ का जो उल्लेख किया है, उससे तापस-परम्परा की तथा योगबिन्दु में ५२७ श्लोक हैं। सभी अनुष्टुप् प्राचीनता अनुमित होती है।
छन्द में हैं । इन ग्रन्थों में लेखक ने अन्यान्य योग___ आगे जाकर साधकों की पुराकालवर्ती अवधूत परम्पराओं में स्वीकृत विचारों के साथ तुलनात्मक एवं तापस परम्परा के परिष्करण तथा नवीकरण समन्वयात्मक दृष्टि से जैन साधनाक्रम को योग की में पतंजलि का योगसूत्र बहुत प्रेरक बना, ऐसा शैली में उपस्थित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। (s सम्भावित लगता है। क्योंकि उत्तरवर्ती काल में योगदृष्टि समुच्चय में इच्छायोग, शास्त्रयोग, साधना के सन्दर्भ में जो विकास हुआ, उसमें दैहिक सामर्थ्ययोग मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, अभ्यास का स्थान अपेक्षाकृत गौण होता गया और कान्ता, प्रभा, परा-आठ योगदृष्टियों', ओघदृष्टि धारणा, ध्यान एवं समाधिपरक आन्तरिक शुद्धि योगदृष्टि तथा कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृत्तचक्रकी ओर साधकों का आकर्षण बढ़ता गया। योगी, निष्पन्नयोगी के रूप में योगियों के भेदों का
१. औपपातिक सूत्र ७४-६६ । ३. योगदृष्टिसमुच्चय २-११ । ५. योगदृष्टिसमुच्चय १४-१६ ।
२. समराइच्चकहा प्रथम भव । ४. योगदृष्टिसमुच्चय १३, १४ । ६. योगदृष्टिसमुच्चय २०७-१२ ।
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जो विवेचन किया है, वह सर्वथा मौलिक है, अन्यत्र योगशतक :* प्राप्त नहीं होता।
भारत में शतपद्यात्मक कलेवरमय रचनाएँ । ___इसी प्रकार योगबिन्दु में पूर्वसेवा आदि प्रकरण शतकों के नाम से होती रही हैं। जिनभद्रगणि क्षमा | हैं, जो योग के क्षेत्र में नवीनता जोड़ते हैं। श्रमण कृत ध्यानशतक तथा आ० पूज्यपाद रचित एक एक और बड़े महत्व की बात है, जिसका उल्लेख समाधिशतक ऐसी ही रचनाएँ हैं। आगे भी यह
परिहार्य है। आ० हरिभद्र ने योगबिन्द्र में क्रम गतिशील रहा, जिसमें आ० हरिभद्र का योगगोपेन्द्र तथा कालातीत नामक योगाचार्यों का शतक आता है। इसमें एक सौ एक उल्लेख किया है, जिनकी सूचना अन्यत्र कहीं नहीं आर्या छन्द में हैं, जो प्राकृत में गाथा के नाम से
मिलती। उन्होंने समाधिराज' तक की चर्चा की प्रसिद्ध है। ( है, जो योग पर एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे उत्तम ग्रन्थकार ने योगशतक में मंगलाचरण के (EOHI समाधि के अर्थ में समझने की भूल होती रही। पश्चात योग की परिभाषा तथा उसके भेद बतलाते |
यह संस्कृत प्राकृत के मिले-जुले रूप में रचित ग्रन्थ हए लिखा हैहैं, जिनके चीनी भाषा भाषा में भी अनुवाद
निच्छयओ इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह संबंधो। कार हुए। आ० हरिभद्र का दृष्टिकोण बड़ा अनैकान्तिक,
मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ॥२॥ उदार, समन्वयवादी और सर्वथा गुणनिष्ठापरक निश्चयदृष्टि से सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन तथा र था। यही कारण है, वे निःसंकोच कह सके- सम्यक्चारित्र--इन तीनों का आत्मा के साथ संबंध
होना योग है । वह आत्मा का मोक्ष के साथ योजन पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।।
या योग करता है, इस कारण योगवेत्ताओं ने उसे
- योग की संज्ञा दी है। वह निश्चय-योग है। अब -लोकतत्व निर्णय ३८
तक पातंजल योग स्वीकृत चित्तवृत्ति-निरोध तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं योगबिन्दु में इस जैन-दर्शन स्वीकृत मनोवाक्काय-कर्म के अर्थ में संप्रआशय के और भी प्रसंग आये हैं, जो आ० हरिभद्र युक्त योग शब्द का यह तीसरा अर्थ आ० हरिभद्र ने की असंकीर्ण चिन्तनधारा के द्योतक हैं।
उद्घाटित किया, जिसका युज्! योजने धातु के ___ योगशतक एवं योगविंशिका आ० हरिभद्र की 'जोड़ना' अर्थ से सीधा सम्बन्ध है। प्राकृत-रचनाएँ हैं, जिनमें व्यापक चिन्तनधारा के
ग्रन्थकार ने योगविंशिका की पहली गाथा में परिपार्श्व में जैनसिद्धान्तों के केन्द्र से योग का योग की इसी रूप में परिभाषा की है। लिखा हैनिखार हुआ है । ग्रन्थकार ने जैन तत्त्वदर्शन और
___ मोक्खेण (मुक्खेण) जोयणाओ जोगो तद्गभित साधनामुलक आचारविधा को योग की
सव्वो वि धम्मवावारो। नई शैली में अपनी इन कृतियों में उद्भासित किया
- परिसुद्धो विन्ने ओ ठाणाइगओ विसेसेण ।।। है, जिससे जैन-दर्शन को गरिमा का प्राशस्त्य बड़ा
जो आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, वह सभी
१. योगबिन्दु १००। ३. योगबिन्दु ४५६ । ५. योगबिन्दु ५२५ ।
२. योगबिन्दु ३०० । ४. शास्त्रवार्तासमुच्चय २०८, २०६, २३७ ।
nate.
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कार का धर्म - व्यापार - धर्मोपासना के वे सभी उपक्रम योग हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में योग का आशय आसन, ध्यान आदि से है ।
योगदृष्टि समुच्चय में सामर्थ्ययोग के योगसंन्यास नामक भेद का स्वरूप समझाते हुए लिखा है
अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन, सर्वसन्यासलक्षणः ॥
यहाँ योग को मोक्षयोजनभाव के रूप में व्याख्यात किया है । अर्थात् वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, वह आत्मभाव का परमात्मभाव के साथ योजक है । यह योजकत्व ही योग की वास्तविकता है ।
इस श्लोक में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यहाँ योग द्वारा अयोग प्राप्ति - योगराहित्य स्वायत्त करने का संकेत किया गया है । अर्थात् यहाँ योग द्वारा ध्यान आदि आत्म-साधना के उपक्रमों, उपायों द्वारा योग - मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध कर अयोग योगरहित बन जाने का भाव उजागर हुआ है । आत्मा की वह सर्वोत्तम उन्नतावस्था है, जहाँ वह ( आत्मा ) सर्वथा अपने स्वरूप स्वभाव में सम्प्रतिष्ठ हो जाती है । स्वरूप- सम्प्रतिष्ठान के पश्चात् कुछ करणीय बच नहीं जाता । वहाँ कर्त्ता, कर्म और क्रिया की त्रिपदी ऐक्य प्राप्त कर लेती है । वह आत्मा की देहातीता वस्था है, सहजावस्था है, परम आनन्दमय दशा है, योगसाधना की सम्पूर्ण सिद्धि है । सभी प्रवृत्तियाँ, जिनका देह, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध है, वहाँ स्वयं अपगत हो जाती है । यह योग द्वारा योगनिरोधपूर्वक अयोग की उपलब्धि है । अयोग ही योगी का परम लक्ष्य है । यह तब सधता है, जब नैश्चयिक दृष्टि से आत्मा में ज्ञान की अविचल ज्योति उद्दीप्त हो जाती है, निष्ठा का सुस्थिर सम्बल स्वायत्त हो जाता है। तदनुरूप साधना सहज रूप में अधिगत हो जाती है ।
१. योगबिन्दु १७६-७८ ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इस सम्बन्ध में हरिभद्र ने जो तात्त्विक समाधान दिया है, वह उनकी गहरी सूझ का एवं जैन दर्शन की मर्मज्ञता का सूचक है । उन्होंने लिखा है
अहिगारी पुण एत्थ विन्नेओ अपुणबंधगाइत्ति । तह तह नियत्तपयई अहिगारोऽगभेओ त्ति ॥६॥
अपुनर्बन्धक - चरम पुद्गलावर्त में अवस्थित पुरुष योग का अधिकारी है, ऐसा जानना चाहिये । कर्म प्रवृत्ति की निवृत्ति - कर्म - पुद्गलों के निर्जरण की तरतमता से प्रसूत स्थितियों के अनुसार गुणनिष्पन्नता की दृष्टि से उसके अनेक भेद हो सकते हैं ।
अध्यात्म जागरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत योगबिन्दु' में भी यह प्रसंग विशद रूप में चर्चित हुआ है ।
अपुनर्बन्धक तथा चरम पुद्गलावर्त के सन्दर्भ में जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीव अनादिकाल से शरीर, मन, वचन द्वारा संसारस्थ पुद्गलों का किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन करता आ रहा है । कोई जीव विश्व के समस्त पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन कर चुकता है - सबका भोग कर लेता है, वह एक पुद्गल परावर्त कहा जाता है ।
यह पुद्गलों के ग्रहण -त्याग का क्रम जीव के अनादि काल से चला आ रहा है । यों सामान्यतः जीव इस प्रकार के अनन्त पुद्गल - परावर्ती में से गुजरता रहा है । यही संसार की दीर्घ श्रृंखला या चक्र है । इस चक्र में भटकते हुए जीवों में कई भव्य या मोक्षाधिकारी जीव भी होते हैं, जिनका कषायमान्द्य बढ़ता जाता है, मोहात्मक कर्म प्रकृति की शक्ति घटती जाती है । जीव का शुद्ध स्वभाव कुछकुछ उद्भासित होने लगता है । ऐसी स्थिति आ जाने पर जीव की संसार में भटकने की स्थिति
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परिमित, सीमित हो जाती है। संसार के पुद्गलों धर्मशास्त्रों में निरूपित विधि के अनुरूप गुरुजन को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग का विनय, शुश्रूषा-सेवा, परिचर्या करे, उनसे तत्त्व सके, मात्र इतनी अवधि बाकी रह जाती है, ज्ञान सुनने की उत्कण्ठा रखे तथा अपनी क्षमता के उसे चरम पुद्गल परावर्त या चरमावर्त कहा अनुरूप शास्त्रोक्त विधि-निषेध का पालन करे । जाता है।
अर्थात् शास्त्र-विहित का आचरण करे, शास्त्रजैन-दर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य कम से निषिद्ध का आचरण न करे। कम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक दो प्रकार की पावं न तिव्वभावा कूणइ न बह मन्नई भवं घोरं । आवधिक स्थितियां मानी गयी हैं। आठ प्रकार के उचियदिठई च सेवइ सव्वथ वि अपुणबंधो त्ति ।१३। कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। मोहनीय की अपनर्बन्धक तीव्र भाव-उत्कट कलुषित भावनाउत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम है, पर
पूर्वक पाप-कर्म नहीं करता, घोर-भीषण, भयावह जिसका मुख्य कारण जीव का तीव्र कषाययुक्त
संसार को बहुत नहीं मानता। उसमें आसक्त-रचाहोना है।
पचा नहीं रहता। लौकिक, सामाजिक, पारिवारिक, जब जीव चरम-पुद्गल-परावर्त-स्थिति में होता
वैयक्तिक, धार्मिक-सभी कार्यों में उचित स्थितिहै, उस समय कषाय बहुत ही मन्द रहते हैं । फलतः
न्यायपूर्ण मर्यादा का पालन करता है। वह फिर सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता। उसे अपुन
पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं ।। बन्धक कहा जाता है। अपुनर्बन्धकता की स्थिति गुरुदेवातिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च ॥२५॥ पा लेने के पश्चात् जीवन सन्मार्गाभिमुख हो जाता प्रथम भूमिका का साधक दूसरों को पीड़ा न है। उसकी मोहरागमयी कर्म-ग्रन्थी टूट जाती है। दे। गुरु, देव तथा अतिथि का सत्कार करे, दीन सम्यक्दर्शन प्राप्त हो जाता है।
जनों को दान दे, सहयोग करे। साधक की यह वह स्थिति है, जब वह योग- आ० हरिभद्र के अनुसार ये लोक-धर्म हैं, जो साधना के योग्य हो जाता है, किन्तु योग-मार्ग पर प्रथम भूमिका के साधक के लिए अनुसरणीय है । आरूढ़ होने के लिए, उस पर अनवरत गतिशील आगे उन्होंने कहा हैरहने हेतु कुछ और चाहिए। वह है ऐसे सात्विक, .. सौम्य, विनीत, सेवासम्पृक्त, करुणाशील जीवन ।
सदधम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध। की उर्वर पृष्ठभूमि, जिसमें योग के बीज अंकुरित,
जिणपूय-भोयणविही संझा-नियमो य जोगं तु ॥ उद्गत, अभिवद्धित, पुष्पित एवं फलित हो सकें।
चियवंदण-जइविस्सामणा य सवणं इसके लिए आ. हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्वसेवा के रूप में वैसे सद्गुणों का विवेचन किया। योग
गिहिणो इमो वि जोगो किं पुण जो शतक में ग्रन्थकार ने "पूर्वसेवा" पद का प्रयोग तो
भावणा-मग्गो ॥३०,३१॥ नहीं किया है, किन्तु व्यवहार योग, योगाधिकारी सद्धर्म के अनुपरोधपूर्वक-सद्धर्म की आराकी पहचान, मार्ग दर्शन, कर्तव्य बोध आदि के रूप धना में बाधा न आए, यह ध्यान में रखते हुए गृही में वही सब कहा है, जो पूर्व सेवा में प्रतिपादित साधक अपनी आजीविका चलाए, विशुद्ध-निर्दोष ) है। लिखा है
दान दे, जिनेश्वरदेव-वीतराय प्रभु की पूजा करे, गुरु-विणओ सुस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु । यथाविधि- यथानियम भोजन करे, सायंकालीन तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ती ॥५॥ उपासना के नियमों का पालन करे। ४३०
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च धम्मविसयंति ।
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चैत्य-वन्दन, यति - संयमी साधु को स्थान, पात्र आदि का सहयोग, उनसे धर्म-श्रवण इत्यादि सत्कार्य करे, भावना-मार्ग का - बारह भावनाओं का एवं मैत्री, मुदिता, करुणा तथा माध्यस्थ्य भावना का अभ्यास करे |
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भावनाएँ चैतसिक परिष्कार का अनन्य हेतु हो सकती हैं, यदि उनका यथाविधि योग की पद्धति से अभ्यास किया जाए । ऐसा प्रतीत होता है, जैन परम्परा में कभी भावनाओं के अभ्यास का कोई वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक क्रम रहा हो, जो हमें आज उपलब्ध नहीं है ।
योगबिन्दु और योगशतक में शील, सदाचार आदि लोकधर्मों के परिपालन की जो विस्तार से चर्चा की गयी है, उसका एक ही अभिप्राय है, साधक जीवन में मानवोचित शालीनता सहज रूप में स्वायत्त कर सके, जिससे आगे वह योग-साधना की लम्बी यात्रा में अविश्रान्त रूप में बढ़ता जा सके ।
एवं चि अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रणे पहप भट्टो वट्टाए वट्टमोरई ||२६||
जैसे वन में मार्ग भूले हुए पथिक को पगडंडी बतला दी जाए तो उससे वह अपने सही पथ पर पहुँच जाता है, वैसे ही वह साधक लोक धर्म के . माध्यम से अध्यात्म में पहुँच जाता है ।
लोक धर्म और अध्यात्म का समन्वय जीवन की समग्रता है । जहाँ यह नहीं होती, वह जीवन का खण्डित रूप है, जिससे साध्य नहीं सधता । इसी तथ्य को आत्मसात् कराने हेतु हरिभद्र ने अनेक रूपों में इसकी चर्चा की है ।
इसी आशय को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने उससे सामायिक शुद्ध होती है ।
लिखा है
श्रेणी के साधकों की चर्चा की है, जहाँ उत्तरोत्तर लोकोत्तर धर्म-संयम, व्रत तथा सामायिक साधना से साधक को जोड़ने का उनका अभिप्रेत है । 1
१. योगशतक २७-२६ ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
जैन साधना में सामायिक का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । वह चारित्र का मुख्य अंग है ।
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० हरिभद्र ने सामायिक को योग की भूमिका में परिगृहीत कर उसे जो सम्मार्जित, संस्कारित रूप प्रदान किया, वह उनकी गहरी सूझ का परिचायक है । उन्होंने सामायिक को अशुद्धि से बचाने पर बड़ा जोर दिया है । कहा हैuse से विहिएसु य ईसिरागभावे वि । सामाइयं असृद्ध ं सुद्ध ं समयाए दोसुं पि ॥ १७॥
शास्त्रों में जिनका प्रतिषेध निषेध किया गया है, ऐसे विषयों कार्यों में द्वेष तथा शास्त्रों में जिनका विधान किया गया है, उनमे थोड़ा भी राग सामायिक को अशुद्ध बना देते हैं, जो इन दोनों में - निषिद्ध तथा विहित में समभाव रखता है,
० हरिभद्र ने इस गाथा द्वारा साधक को चिन्तन की उस पवित्रतम भूमिका से जोड़ने का प्रयत्न किया है, जहाँ मन समता-रस में इतना आप्लुत हो जाए कि वह पाप से अप्रीति या घृणा तथा पुण्य से प्रीति या आसक्ति से ऊँचा उठ सके।
राग, द्वेष, मोह आदि दोषों के परिहार हेतु साधक अपने चिन्तन को कैसा मोड़ दे, इस पर सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए ग्रन्थकार ने बतलाया है। उन्होंने योगशतक में आगे द्वितीय और तृतीय कि राग अभिसंग -- आसक्तता - प्रीतिमत्ता से
जुड़ा
जैन दर्शन कर्म सिद्धान्त पर टिका है । अतः ग्रन्थकार ने ५३ से ५८ गाथा तक छह गाथाओं में कर्मवाद का संक्षिप्त किन्तु बड़ा बोधप्रद विश्लेषण किया है ।
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है तथा द्वेष अप्रीति से । ये दोनों ही मोह- प्रसूत अवस्थाएँ हैं । साधक यह दृष्टि में रखते हुए गहराई से विचार करे कि इनमें मुझे दृढ़ता से डटकर, अत्यधिक रूप में कौन पीड़ित कर रहा है ? यह समझता हुआ उन दोषों के स्वरूप, परिणाम, विपाक आदि पर एकान्त में एकाग्र मन से भली-भाँति चिन्तन करें। 1
यह चिन्तन की अन्तःस्पर्शी सूक्ष्म प्रक्रिया है, जो साधक को शक्ति, अन्तः स्फूर्ति प्रदान करती है ।
आगे उन्होंने प्रत्येक दोष के प्रतिपक्षी भावों पर गहराई से सोचते हुए दोष-मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया है ।"
समग्र चिन्तन, चर्या एवं अभ्यास - ये सब शाश्वत जैन सिद्धान्तों की धुरी पर टिके रहें, अतएव उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य का संक्ष ेप में तात्त्विक शैली में निरूपण किया है, ताकि साधक की मनोभूमि सत्योन्मुख दृढ़ता से परिपोषित रहें | 3
आहार-शुद्धि पर प्रकाश डालते हुए ग्रन्थकार गृहत्यागी साधकों को, जिनका जीवन भिक्षाचर्या पर आधृत है, जो समझाया है, वह बड़ा बोधप्रद है । उन्होंने भिक्षा को ज्ञान-लेप से उपमित किया है । फोड़े पर, उसे मिटाने हेतु जैसे किसी दवा का लेप किया जाता है, उसी प्रकार क्षुधा, तृषा आदि मिटाने हेतु भिक्षा ग्रहण की जाती है, दवा कितनी ही कीमती हो, फोड़े पर उतनी ही लगायी जाती है, जितनी आवश्यक हो । उसी प्रकार भिक्षा में प्राप्त हो रहे खाद्य, पेय आदि पदार्थ कितने ही सुस्वादु एवं सरस क्यों न हों, वे अनासक्त भाव से उतने ही स्वीकार किये जाएँ, जितनी आवश्यकता हो । ऐसा न करने पर भिक्षा सदोष हो जाती है ।
१. योगशतक ५६ - ६० ।
३. योगशतक ७२-७३ ।
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कल
ज्यों-ज्यों योगांगों की सिद्धि होती जाती है, योगी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं, जिन्हें पतंजलि ने विभूतियाँ कहा है, बोद्ध परम्परा में जो अभिज्ञाएँ कही गयी हैं, जैन परम्परा में वे लब्धियों के नाम से अभिहित हुई हैं । ग्रन्थकार मे ८३, ८४, ८५ गाथाओं में संक्षेप में रत्न आदि, अणिमा आदि आमोसहि (आमोषधि) आदि लब्धियों की ओर संकेत किया है ।
ऐसा माना जाता है, जिस योगी को आमोसहि सिद्ध हो जाती है, उसके स्पर्श मात्र से रोग दूर हो जाते हैं ।
योग-साधना के सार रूप में ग्रन्थकार ने मनोभाव के वैशिष्ट्य की विशेष रूप से चर्चा की है । उन्होंने बताया है कि कायिक क्रिया द्वारा - मात्र देहाति बाह्य तप द्वारा नष्ट हुए दोष मण्डूक चूर्ण के समान हैं । वे ही दोष यदि भावना द्वारा, शुद्ध अन्तवृत्ति या मानसिक परिशुद्धि द्वारा क्षीण किये गये हों तो मण्डूक- भस्म के समान हैं ।
मण्डूक- चूर्ण तथा मण्डूक-भस्म का उदाहरण कायिक क्रिया एवं भावनानुगत क्रिया का भेद स्पष्ट करने के लिए प्राचीन दार्शनिक साहित्य में प्रयोग में आता रहा है । ऐसा माना जाता है कि मेंढक के शरीर के टुकड़े-२ हो जाएँ तो भी नई वर्षा का जल गिरते ही उसके शरीर के वे अंग परस्पर मिलकर सजीव मेंढ़क के रूप में परिणत हो जाते तो फिर चाहे कितनी ही वर्षा हो, वह पुनः सजीव हैं। यदि मेंढ़क का शरीर जलकर राख हो जाए नहीं होता ।
योगसूत्र के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका ( तत्ववैशारदी) में इस उदाहरण का उल्लेख किया है ।
ग्रन्थकार ने मनः शुद्धि या मनोजय पर बड़ा जोर
२. योगशतक ६७-७० ।
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दिया है। उन्होंने बोधिसत्त्व का उदाहरण देते हुए विजय ने टीका की रचना की, जो प्रस्तुत कृति में बताया है कि वे कामपाती होते हैं, चित्तपाती नहीं अति संक्षेप में प्रतिपादित विषयों के स्पष्टीकरण होते । क्योंकि उत्तम आशय-भाव या अभिप्राय के की दृष्टि से बहत उपयोगी है। कारण उनकी भावना-चित्त-स्थिति शुद्ध होती योगविंशिका की प्रयम गाथा में लेखक ने आत्मा
का मोक्ष से योजन रूप योग का लक्षण बतलाकर यहाँ कहने का आशय यह है कि जब तक देह उसके भेदों की ओर इंगित किया है। in है, कर्म का सर्वथा निरोध नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी गाथा में उन्होंने योग के भेदों का विश्ले
मन या भावना का परिष्कार हो सकता है, जिसके षण करते हुए कहा हैलिये साधक सतत् सप्रयत्न, सचेष्ट रहे, वहाँ विकार ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो। न आने पाये।
दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोगो उ ।।२।। इस प्रकार आ० हरिभद्रसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ के तन्त्र में-योगप्रधान शास्त्र में स्थान, ऊर्ण,अर्थ, 500 केवल १०१ श्लोकमय छोटे से कलेवर में योग के आलम्बन तथा अनावलम्बन-योग के पाँच भेद ||5
सन्दर्भ में बोधात्मक, तुलनात्मक दृष्टि से इतना कुछ बताये हैं । इनमें पहले दो-स्थान और ऊर्ण को कह दिया है, जो साधना की यात्रा
कर्मयोग तथा उनके पश्चाद्वर्ती तीन-अर्थ, आलयोगी के लिए एक दिव्य पाथेय सिद्ध हो
म्बन तथा अनावलम्बन को ज्ञानयोग कहा गया है। योगविशिका
स्थान-स्थान का अर्थ स्थित होना है। योग में
आसन शब्द जिस अर्थ में प्रचलित है, यहाँ स्थान ___ आचार्य हरिभद्रसूरि की प्राकृत में योग पर
शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दूसरी कृति योगविशिका है।
__ वास्तव में आसन के लिए स्थान शब्द का प्रयोग 3 भारतीय वाङमय में बीस-बीस, तीस-तीस विशेष संगत तथा युक्तिपूर्ण है। आसन का अर्थ I R) आदि पद्यों की पुस्तकात्मक रचनाओं का एक विशेष बैठना है । सब आसन बैठकर नहीं किये जाते ।
र क्रम रहा है । बौद्ध जगत् के सुप्रसिद्ध लेखक वसु- कुछ आसन बैठकर, कुछ सोकर तथा कुछ खड़े होकर || बन्धू ने विशिका-त्रिशिका के रूप में पुस्तक-रचना किए जाते हैं। देह की विभिन्न स्थितियों में अवकी, जिनमें उन्होंने विज्ञानवाद का विवेचन किया। स्थित होना स्थान शब्द से अधिक स्पष्ट होता है।
किसी विषय को समग्रतया बहुत ही संक्षेप में ऊर्ण योगाभ्यास के सन्दर्भ में प्रत्येक क्रिया के या व्याख्यात करने की दृष्टि से विशिकाओं की पद्धति साथ जो सूत्र-संक्षिप्त शब्द - समवाय का उच्चा
को उपयोगी माना गया । आ० हरिभद्र ने इसी रण किया जाता है, उसे ऊर्ण कहा जाता है । प्राचीन शैली के अनुरूप बीस विशिकाओं की रचना ऊर्ण को एक अपेक्षा से पातंजल योग-सम्मत की। वे सब प्राकृत भाषा में हैं। उनमें १७वों विशिका जप-स्थानीय' माना जा सकता है। योगविशिका है। इसमें आर्या छन्द का प्रयोग हुआ अर्थ-शब्द-समवाय-गभित अर्थ के अवबोध है। रचनाकार ने केवल बीस गाथाओं में योग के का व्यवसाय-प्रयत्न यहाँ अर्थ शब्द से अभिहित
सारभूत तत्त्वों को उपस्थित करने का प्रस्तुत पुस्तक हुआ है। PL में जो विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया है, वह गागर में आलम्बन-ध्यान में बाह्य प्रतीक आदि का
सागर संजोने जैसा है। इस पर उपाध्याय यशो- आधार आलम्बन है ।
१. योगसूत्र १.२८ ।
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हेमचन्द्र के योगशास्त्र, ' शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव' तथा भास्करनन्दी के ध्यानस्तव आदि में वर्णित पिण्डस्थ, पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान से यह तुलनीय है ।
अनालम्बन - ध्यान में रूपात्मक पदार्थों का सहारा न लेना अनावलम्बन कहा गया है । योगशास्त्र', ज्ञानार्णव' तथा ध्यानस्तव' में वर्णित रूपातीत ध्यान से इसकी तुलना की जा सकती है ।
० हरिभद्र ने योग के इन पाँच भेदों में से प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि के रूप में चार-चार भेद और किये हैं । यों योग के बीस भेद हो जाते हैं ।
इनकी व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया है कि योगाराधक सत्पुरुषों - योगियों की चर्चा में प्रीति, स्पृहा, उत्कण्ठा का होना इच्छायोग है ।
नवाभ्यासी के मन में ऐसी स्पृहा का उदित होना उसके उज्ज्वल भविष्य का सूचन है । प्रवृत्ति -
उपशम भावपूर्वक योग का यथार्थ रूप में पालन प्रवृत्ति योग है ।
स्थिरता
आत्मबल द्वारा, बाधा जनक स्थितियों की चिन्ता से अतीत होकर सुस्थिर रूप से योग का प्रतिपालन स्थिरतायोग है ।
सिद्धि -
साधक जब उपर्युक्त पंचविध योग साध चुकता है, तब वह न केवल स्वयं ही आत्म-शान्ति का अनुभव करता है, वरन् जो भी उस योगी के सम्पर्क में आते हैं, सहज रूप में उससे उत्प्रेरित होते हैं । योगी की उस स्थिति को सिद्धियोग कहा जाता है ।
१. योगशास्त्र, प्रकाश ७-६ ।
३. ध्यानस्तव २४-३१ । ५. ज्ञानार्णव सर्ग ४० ।
४३४
० हरिभद्र के अनुसार जो पुरुष पूर्वोक्त रूप में योगाभिरत है, उसका अनुष्ठान सदनुष्ठान कहा जाता है ।
सदनुष्ठान को उन्होंने चार प्रकार का बतलामा है - १. प्रीति- अनुष्ठान, २, भक्ति - अनुष्ठान, ३. आगमानुष्ठान तथा ४. असंगानुष्ठान ।
योग के पूर्वोक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के ये चार-चार भेद और होते हैं । इस प्रकार उसके अस्सी भेद हो जाते हैं ।
योगाभ्यास के सन्दर्भ में आ० हरिभद्र द्वारा किये गये योग के ये भेद साधक को योगसाधना की सूक्ष्मता में जाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । इनका सूक्ष्मता से संस्पर्श कर साधक अपने में आत्म-स्फूर्ति का अनुभव करता है । फलतः वह योग के मार्ग पर उत्तरोत्तर, अधिकाधिक प्रगति करता जाता है ।
योगविंशिका में गाथा १० से १४ तक आ० हरिभद्र ने योग के परिप्रेक्ष्य में चैत्य-वन्दन के सम्बन्ध में चर्चा की है, जिसका योग से कोई सीधा सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता ।
वे चैत्यवन्दनसूत्र की सार्थकता अर्थंयोग और आलम्बन योग को साध लेने से ही मानते हैं । अर्थयोग सम्यक् अर्थ के अवबोध की दिशा में चिन्तनपरक उपक्रम है और आलम्बन योग प्रतीक - विशेष के सहारे ध्यान- प्रक्रिया |
अर्थ और आलम्बन योग जहाँ सिद्ध हो जाते हैं, वहाँ चैत्यवन्दन साक्षात् मोक्ष हेतु से जुड़ जाता है ।
जहाँ स्थान एवं ऊर्ण योग ही सिद्ध होते हैं, अर्थ एवं आलम्बन नहीं, वहाँ चैत्य-वन्दन मोक्ष का साक्षात् हेतु तो नहीं बनता, परम्परा से वह मोक्ष हेतु होता है । आगे उन्होंने लिखा है -
२. ज्ञानार्णव सर्ग ३७-३६ ।
४. योगशास्त्र १०.५ ।
६. ध्यानस्तव ३२-३६ ।
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जो व्यक्ति अर्थयोग एवं आलम्बन योग से रहित में ऐसा होता है. उसके साधुओं में साधुत्व का मूल ! है, जिसने स्थान-योग और ऊर्ण-योग भी नहीं साधा गुण ही नहीं रहता। है, उसका चैत्यवन्दनमूलक अनुष्ठान केवल कायिक वे स्त्रियों के समक्ष गाते हैं, अंटसंट बोलते हैं, IN चेष्टा है अथवा महामृषावाद है-निरी मिथ्या मानो वे अनियन्त्रित बैल हों। वे अशुद्ध आहार 0 प्रवंचना है, इसलिए अधिकारी-सुयोग्य व्यक्तियों को लेते हैं । जल, फल, पुष्प आदि सचित्त पदार्थ, 70 ही चैत्यवन्दन सूत्र का शिक्षण देना चाहिये । जो स्निग्ध व मधुर पदार्थ तथा लौंग, ताम्बूल आदि का || देशविरतियक्त हैं-आंशिक रूप में व्रतयक्त हैं. वे सेवन करते हैं। नित्य दो-तीन बार भोजन करते हैं। DS ही इसके सच्चे अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्यवन्दन वे चैत्य. मठ आदि में निवास करते हैं। पजा सूत्र में "कायं वोसरामि" देह का व्युत्सर्ग करता हूँ, में आरम्भ समारंभ-हिंसा आदि सावध कार्य इन शब्दों से कायोत्सर्ग की जो प्रतिज्ञा प्रकट होती करते हैं, देव-द्रव्यों का भोग करते हैं। जिन-गृह है, वह सुव्रती के विरतिभाव या व्रत के कारण ही और शाला आदि का निर्माण करते हैं। घटित होती है-इस सत्य को भलीभांति समझ वे ज्योतिष बतलाते हैं, भविष्य कथन करते हैं, लेना चाहिये।
चिकित्सा करते हैं। मंत्र-टोना-टोटका करते हैंसाथ ही साथ इस सन्दर्भ में इतना और ज्ञातव्य जो कार्य पापजनक हैं, नरक के हेतु हैं। है कि देशविरत से उच्च सर्वविरत साधक तत्त्वतः संबोध-प्रकरण के इस वर्णन से साध-संस्था की इसके अधिकारी हैं तथा देश विरति से निम्न स्थान- हीयमान चारित्रिक स्थिति का पता चलता है । वे, या वर्ती अपुनर्बन्धक या सम्यक्दृष्टि व्यवहारतः इसके जैसा पहले संकेत किया गया है, चैत्यों में आसक्त अधिकारी माने गये हैं।
थे । चैत्यवंदन के नाम पर अपने आपको धार्मिक आ० हरिभद्र को योग जैसे विषय के अन्तर्गत सिद्ध करने के सिवाय उनके पास चारित्र्य नाम की चैत्यवन्दन जैसे विषय को इतने विशद रूप से कोई वस्तु बच नहीं पायी थी । उनको सन्मार्ग पर व्याख्यात करना, प्रस्तुत विषय से सम्पृक्त करना, लाने के लिए हरिभद्र ने चैत्यवन्दन के साथ योग को क्यों आवश्यक प्रतीत हुआ, इसका एक कारण है। जोड़ा है । जहाँ योग नहीं, वहाँ चैत्यवन्दन की वह युग चत्यवासियों का युग था, जिनमें आचार- प्रक्रिया नितान्त स्थूल है, बाह्य है। उससे धर्म की
शुन्यता व्याप्त हो रही थी, जो केवल साधुत्व का आराधना कभी सध नहीं सकती। - वेष धारण किये हए थे, साधुत्व के नियमों का बिल- आ० हरिभद्र केवल एक महान ग्रन्थकार ही का
कल पालन नहीं करते थे, चैत्यों में निवास करते थे नहीं थे, वे एक क्रान्तिकारी धर्मनायक भी थे। KI और उनका धर्म लगभग चैत्यवन्दन तक ही सीमित अस्त-निश्चय ही योग के क्षेत्र में आ० हरि
हो गया था। साधु समाज की इस अधःपतित दशा भद्र की वह महान देन है, जो सदा स्मरणीय रहेगी। से आ० हरिभद्र बड़े चिन्तित थे। उन्होंने उनको प्रस्तुत निबन्ध में योगशतक और योगविशिकाजगाने के लिए संबोध-प्रकरण नामक ग्रन्थ की
उनकी दो प्राकृत कृतियों के आधार पर जो कहा + रचना की । वहाँ उनके आचार आदि के बारे में गया है, वह तो एक संकेत मात्र है। आशा है, लिखा है
प्रस्तुत विषय विद्वज्जन को गहन अनुशीलन और | वे साधु भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे, सुन्दर, अनसंधान की दिशा में प्रेरित करेगा। धूपवासित वस्त्र धारण करते हैं। जिस श्रमण संघ १. योगविशिका १७।
२. योगविशिका १८। ३. संबोध प्रकरण ४६, ४६, ५७, ६१, ६३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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चिन्तन सूत्र
पुण्य और पाप
काले कलूटे कोयले ने अश्रु बहाते हुए हीरे से कहा- हम दोनों एक ही खदान से पैदा हुए हैं पर दोनों के रंग और रूप में कितना अन्तर है। तुम्हारी ज्योतिर्मय किरणें जन जन के मन को मुग्ध करती हैं । सभी तुम्हारे को स्नेह और सद्भावना से अपनाते हैं। विविध आभूषणों में तुम्हें सजाते हैं और मखमल बिछी हुई तिजोरी में तुम्हें सुरक्षित रखते हैं पर मेरा कोई भी स्पर्श करना पसन्द नहीं करता। यदि भूल से स्पर्श हो भी जाए तो साबुन से वस्त्र और हाथ साफ करते हैं । प्रज्वलित आग में डालकर सदासदा के लिए मेरा अन्त कर देते हैं। बताओ भैया ! मेरा ऐसा कौन-सा गुनाह हुआ जिसके कारण लोग मेरे से घृणा करते हैं।
हीरे ने मुस्कराते हुए कहा-भैया ! इसका मूल कारण है मैंने उज्ज्वल परमाणु ग्रहण किये थे और तुमने काले परमाणु किये जिससे मेरा सन्मान है और तुम्हारा अपमान है ।
हीरे और कोयले के संवाद को सुनकर मैं चिन्तन के सागर में डुबकी लगाने लगी । विश्व के सभी प्राणियों की यही स्थिति है। पाप अशुभ परमाणु है और पुण्य शुभ परमाणु है । अशुभ परमाणुओं को ग्रहण करने वाला आत्मा सदा अनादर को प्राप्त होता है और शुभ परमाणुओं को ग्रहण करने वाला आत्मा सर्वत्र आदर प्राप्त करता है ।
-महासती श्री कुसुमवतीजी
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विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में
जैन परम्परा की
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परिलब्धियाँ
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परम्परा-वह मध्य कड़ी है, जिससे अतीत इतिहास का एक छोर बंधा है, तो वर्तमान और भविष्य का दूसरा छोर भी बंधा रहता है। परम्परा की परिभाषा ही है-जो चलती आई है, चलती रहेगी।
जैन परम्परा अपने आप में अत्यन्त गौरव मंडित रही है।
समाज, राष्ट्र के नवजागरण संदेश के साथ मानवता का कल्याणोन्मुखी प्रवाह-निरंतर-निरंतर बहता रहता है, अनेक स्रोतों में ।
प्रस्तुत खण्ड में विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन परम्परा की परिलब्धियों पर एक सार्थक परिचर्चा है, पर्यवेक्षण है और प्रतिपत्ति है, विद्वान विचारकों की अपनी-अपनी दृष्टि
से....
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- भारतीय स्वातन्त्र्यान्दोलन की अहिंसात्मकता में
महावीर के जीवन दर्शन की भूमिका
-प्रह्लाद नारायण बाजपेयी (साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर)
SD
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम ब्रिटिश साम्राज्य की निरंकुश एवं नृशंस सत्ता के विरुद्ध देश के 3 कोटि-कोटि जन की अन्तरात्मा का संघर्ष था । असत् के विरुद्ध जैसे सत् का संघर्ष था । यह भौतिकता के
चरमोत्कर्ष का सामना करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति का शंखनाद था। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध गूंजने वाला जनता जनार्दन का शाश्वत निनाद था। सच तो यह है कि अन्धकार के विरुद्ध यह
का संघर्ष था, आलोक का जागरण था। हिंसा और आतंक के विरुद्ध अहिंसा का संघर्ष था। यही कारण है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम ने मानवता के परम्परागत इतिहास में आत्मशुद्धि के । माध्यम से अहिंसा के शस्त्र द्वारा किसी युद्ध को जीत कर एक नये अध्याय की रचना को है जिससे विश्वशान्ति की रचना का स्वप्न साकार किया जा सकता है।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शस्त्र की भांति प्रयोग की गई अहिंसा तीर्थंकर महावीर के जीवन दर्शन से प्रभावित है जो मानव मंगल के किसी भी अभियान के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है । g) तीर्थकर महावीर ने आत्मा की विकास यात्रा में आत्म-दमन के चरम बिन्द पर अहिंसा के जि
| विकास यात्रा में आत्म-दमन के चरम बिन्दु पर अहिंसा के जिस आलोक का निर्माण किया। उसी को आदर्श मानकर स्वतन्त्रता संग्राम में अहिंसात्मक आन्दोलन को तेजस्विता ने सामाजिक मर्यादाओं में सार्वजनिक चैतन्य के माध्यम से बहुजनहिताय एवं बहुजनसुखाय की जिजीविषा का निर्माण कर लक्ष्य सिद्ध कर दिखाया। अहिंसा व्यक्ति के लिए परम धर्म है किन्तु समष्टि के लिए अहिंसा का समाजीकरण स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिंसा की सम्भावना मात्र से आन्दोलनों को स्थगित किये जाने की परम्परा के निर्वाह द्वारा सम्पन्न किया गया है।
मर्यादाहीन एवं उच्छृखल जोवन में समरसता एवं शान्ति लाने के लिए अहिंसा ही वह आधार) शिला है जिस पर परमानन्द का प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। अहिंसा के परिपार्श्व में तीर्थंकर 3) महावीर ने बताया कि प्राणी मात्र जीना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता। सुख सभी के लिए अनुकूल हैं एवं दुःख सभी के लिए प्रतिकूल है ।।
___ स्वतन्त्रता आन्दोलन में इसी के आधार पर यह स्वर प्रखर होकर नारा बना था-हम मारेंगे नहीं किन्तु हम मानेंगे भी नहीं। साथ ही यह धारणा भी विकसित हुई थी-पाप से घृणा करो, पापी से नहीं । संघर्ष के लिए यह दृष्टिकोण अपनाया गया-हमें ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष
१ आचा० १/२/३ ।
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करना है । ब्रिटिश जनता के, ब्रिटिश लोगों के विरुद्ध संघर्ष का या घृणा का भाव मन में पनपने देना नहीं चाहिए ।
तीर्थंकर महावीर ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था- आत्मा एक है ( ऐगे आया ) अर्थात् सबकी आत्मा एक रूप है, एक समान है । खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे । तीर्थंकर महावीर अहिंसा को तप और संयम की श्रेणी में रखा है। अहिंसा को मंगलकारी मानते हुए तीर्थंकर महावीर ने बताया कि अहिंसा को देवता भी नमस्कार करते हैं । 2
स्वतन्त्रता आन्दोलन में जहाँ यह मर्म वाक्य मन्त्र के समान घोषित हुआ, गूंजा - स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है । वहीं समता के सिद्धान्त को सबसे अधिक प्रतिष्ठा दी गयी । समता मूलक अहिंसावादी समाज की स्थापना के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्धा में एक ऐसे आश्रम को रूपायित किया था जहाँ क्रम क्रम से प्रत्येक आश्रमवासी स्वेच्छा से हर काम अपने हाथ से करने का अभ्यास था । झाड़ देना, सूत कातना, कुएँ से पानी भरकर लाना, चर्खा चलाना, रसोई में काम करना एवं मैला उठाना आदि सभी काम स्वयं करने का अभ्यास हर आश्रमवासी करता था । अर्थात् तीर्थंकर महावीर के समतावादी सिद्धान्त को मूर्त रूप देने के लिए आत्मवत् सर्वभूतेषु के चैतन्य को चरितार्थ करने का प्रयास किया गया था ताकि मानव जीवन में समता का सिद्धान्त आत्मसात् कर आचरण में उतारा जा सके ।
अहिंसा पर अगाध विश्वास जहाँ समता का वातावरण बनाता है वहीं अहिंसा पर अनास्था, जातिगत अहं को सृष्टि करती है और हीन भावना का विस्तार करने में प्रमुख कारण बनती है । अनास्था के कारण ही जाति के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उदात्त नहीं बन पाता । इसीलिये ऊँचनीच, छुआछूत आदि के बन्धन प्रभावशाली हो जाते हैं ।
महात्मा गाँधी अहिंसात्मक आन्दोलन के सूत्रधार थे । उन्होंने तीर्थंकर महावीर के समतावादी सिद्धान्त का मर्म समझा था । इस सिद्धान्त को हृदयंगम करके ही उन्होंने वर्धा में ऐसे आश्रम की स्थापना की थी जहाँ कर्म के माध्यम से अन्ततः सभी जन सभी आश्रमवासी एकाकार हो जाते थे । स्वतन्त्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी ने अस्पृश्यता निवारण को सबसे अधिक महत्व देते हुए जीवन-मरण का प्रश्न बना दिया था। वह तो यहाँ तक कहते थे कि अस्पृश्यता निवारण और स्वतन्त्रता दोनों में से किसी एक का चयन करने के लिये मुझसे कहा जाय तो मैं अस्पृश्यता निवारण को प्राथमिकता दूँगा । उनकी स्पष्ट घोषणा थी अस्पृश्यता यदि कायम रहे तो इसके कायम रहते मुझे स्वतन्त्रता भी स्वीकार नहीं है । यही कारण था महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जो आन्दोलन चला उसमें एकता का भाव था । आन्दोलनकारियों में न कोई ऊँच था न नीच । न कोई अछूत था न कोई छूत । सारे भेद-भाव भुलाकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये संघर्ष करने वाले एकजुट होकर प्राण पण से संघर्ष करते रहे थे ।
अहिंसा नित्य, शाश्वत व ध्रुव सत्य है । जो हिंसा करता है, करवाता है अथवा कर्त्ता का अनु
१ दशवं० १/१ ।
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कम्णा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । इस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||
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२. उत्तरा २५ / ३३
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ
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मोदन करता है। वह अपने साथ अर्थात् अपनी आत्मा के साथ वैर भाव की वृद्धि करता है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक शरीर में एक आत्मा है और आत्मा हर शरीर की समान है । अतः हिंसा करने | का अर्थ आत्मा के साथ वैर भाव की वृद्धि करना तो है ही। तीर्थंकर महावीर ने ज्ञान और विज्ञान का सार बताते हुए कहा कि किसी भी प्राणी की हिंसा न की जाय । एवं खु णाणिणो सारं, जं न हिसइ किंचणं ।
____ अहिंसा समयं चैव, एनावंत वियाणिया ॥1 महात्मा गाँधी ने अहिंसामूलक धर्म को स्वीकार करते हए ऐसे समाज की संरचना करने का संकल्प लिया था जहाँ हिंसा न हो। उन्होंने उस मदन लाल धींगरा को भी क्षमा दान दिया था जिसने उन्हें मार डालने के लिये उन पर बम फेंका था क्योंकि वह नहीं चाहते थे किसी भी प्राणी की हिंसा की जाय । यदि गोलियां लगने के बाद बोलने की क्षमता उनमें शेष रहती तो वह निश्चय ही हत्यारे नाथू राम गोडसे को भी क्षमा दान दे ही जाते क्योंकि वह तो एक अहिंसक समाज की रचना करने की साधना में रत थे।
___ व्यक्ति के लिये अहिंसा परम धर्म तो है ही परम तप भी है किन्तु जब एक सम्पूर्ण समाज को | अहिंसा के आचरण में दीक्षित करना हो तो आत्मसंयम का तप निश्चय ही बहुत कठिन हो जाता है । तीर्थंकर महावीर इस सत्य से परिचित थे क्योंकि वह सर्वज्ञ थे। उन्होंने कहा भी है-दुर्दम आत्मा का दमन करने वाला व्यक्ति ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है । आत्मदमन आत्मपीड़न का पर्याय है । आत्मा के अनुकूल वेदनीयता सुख है और प्रतिकूल वेदनीयता दुःख है ।
अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो ।
अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य । तीर्थंकर पुरुष चूंकि सर्वभूतहित के आकांक्षी होते हैं, इसलिए वे प्रतिकूल वेदनीयता पर विजय पाने के निमित्त आत्मदमन या आत्मपीड़न करते हैं। सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति पर दुःख के विनाश मूलक उदारता की उदात्त भावना से ओतप्रोत है ।
स्वतन्त्रता संग्राम की अवधि में महात्मा गाँधी ने इस आत्मदमन का परिचय कई बार दिया है। उन्होंने जब भी स्वतन्त्रता आन्दोलन को अहिंसा के मार्ग से विचलित होते देखा, आन्दोलन स्थगित | कर दिया और उपवास के माध्यम से आत्म-शुद्धि के तप का निर्वाह किया। यह उपवास यदा-कदा र आमरण अनशन की पराकाष्ठा तक जा पहुँचा है ।
इसमें सन्देह नहीं तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवन काल में आत्म पीड़न की चरम परिणति के माध्यम से अहिंसा के सिद्धान्त को उन बुलन्दियों तक पहुँचा दिया था जिसका अनुकरण कर मानव महानता के आलोक का निर्माण कर सकता है। किन्तु यह भी सत्य है कि महात्मा गाँधी ने आत्म-शुद्धि के यज्ञ को अपनी बलिदान भावना से अप्रतिम प्रतिष्ठा प्रदान की। स्वतन्त्रता आन्दोलन अपनी इसी / तेजस्विता के वरदानस्वरूप अपने लक्ष्य तक पहुँच पाया।
अपनी धारणा को ही पूर्ण सत्य मानना एक हठधर्मी है जिसे उदात्त व्यक्ति स्वीकार नहीं कर
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१. सूत्रकृतांग श्रु १, अ. १, गा. ६ २. उत्तरा. १/१५ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ
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सकता। महात्मा सुकरात ने इसीलिए कहा था जो हम सत्य समझते हैं, वह वास्तव में सत्य का एक अंश है । हमें दूसरों की भी धारणा सुननी और माननी चाहिये क्योंकि सबकी धारणाओं के मिला देने से ही एक पूर्ण सत्य का उदय होता है।
तीर्थंकर महावीर ने कहा था-यदि तुम अपने को सही मानते हो तो ठीक है परन्तु दूसरे को गलत मत समझो क्योंकि एक अंश की जानकारी तुम्हें है तो दूसरे अंश की जानकारी अन्य को हो सकती है। इसी आधार पर उन्होंने स्यादवाद् के सिद्धान्त को स्थापित किया था। (१) कथञ्चिद् है।
(२) कथञ्चिद् नहीं है। (३) कथञ्चिद् है और नहीं है। (४) कथञ्चिद् अवक्तव्य है । (५) कथञ्चिद् है किन्तु कहा नहीं जा सकता। (६) कथञ्चिद् नहीं है तथापि अवक्तव्य है । (७) कथञ्चिद् है, नहीं है पर अवक्तव्य है।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने महान सिद्धान्त सापेक्षवाद को इसी भूमिका पर प्रतिष्ठित किया था। यह उदार दृष्टिकोण विश्व के दर्शनों, धर्मों, सम्प्रदायों एवं पंथों का समन्वय करता
है
।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के काल में संघर्ष के क्षणों में भी वार्ता के द्वार हमेशा खुले रखे ट्र O गये क्योंकि हर समय दूसरों के विचारों का आदर करने का क्रम निभाया गया । दूसरों की धारणाओं
को भी प्रतिष्ठा दी गई। यही कारण है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में सभी विचारधाराओं के लोगों ने एकजुट होकर भाग लिया और त्याग व बलिदान की परम्परा को विकसित कर विजयश्री को वरण किया ।
__ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की अहिंसात्मकता ने विश्व में एक आदर्श तो प्रतिष्ठित किया ही है कि अहिंसा के द्वारा एक साम्राज्यवादी शक्ति को पराजित किया जा सकता है। इसे अनुकरणीय आदर्श मानकर विश्व में अन्यत्र भी इसका उपयोग किया गया। दक्षिण अफ्रीका में तो आज भी इस
तरह का प्रयोग चल रहा है । इस अहिंसात्मकता के आदर्श की पृष्ठभूमि में तीर्थकर महावीर के जीवन म दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
अत्थि सत्थं परेण परं,
नत्थि असत्थं परेण परं। -शस्त्र, अर्थात् हिंसा के साधन एक से बढ़कर एक है, अनेक प्रकार के हैं, जिनकी मारक क्षमता एक दूसरे से बढ़कर है। लेकिन अशस्त्र, अहिंसा सबसे बढ़कर है, इसकी शक्ति अपरिमित है, इसकी साधना से सभी का कल्याण होता है, सभी निर्भय बनते हैं।
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पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में जैन नैतिक अवधारणा
- प्रोफेसर एल० के० ओड
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में जीव सृष्टि के बारे में जैन अवधारणा को एक लघु सूत्र इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
"परस्परोपग्रहः जीवानाम्"
अर्थात् प्रत्येक जीव एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, एक दूसरे पर आश्रित है । सृष्टि का चक्र इसी अन्योन्याश्रय की ऊर्जा से संचालित होता है । प्रत्येक जीव अन्य जीवों से जीवन शक्ति (ऊर्जा) ग्रहण करता है और अपने आश्रित जीवों को जीवन शक्ति देता है । इसका एक स्थूल उदाहरण है - हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाई ऑक्साइड वनस्पति के जीवों को जीवन शक्ति देता है और वनस्पति द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन हमारे लिए प्राणवायु बनाता है। ऐसे स्थूल रूप से दृष्ट अदृष्ट तथा बुद्धि द्वारा ज्ञात-अज्ञात असंख्य उदाहरण मिल सकते हैं, जो उक्त अवधारणा को पुष्ट करते हैं । यह व्याख्या पूर्णतया वैज्ञानिक है, जिसमें परिकल्पना अथवा तर्क के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती ।
जैन दर्शन में जीवन सम्बन्धी सम्प्रत्यय भी बहुत व्यापक है, जिसमें स्थावर श्रेणी के अन्तर्गत अनेक ऐसे तत्वों का भी समावेश कर लिया गया है, जिन्हें अन्य दर्शनों ने तथा विज्ञान ने भौतिक तत्व के अन्तर्गत रखा है । इसी कारण आचार्य को “जीवानाम्" के साथ "अजीवानाम्" जोड़कर अवधारणा को और अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । यदि उक्त सूत्र को 'परस्परोपग्रहः जीवाजीवानाम्' कर दिया जाए, तब भी व्याख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं आता ।
जैन दर्शन के अनुसार हमारी यह सृष्टि जोव इसका कोई अपवाद भी नहीं है । ऐसा कोई परमात्मा या दो तत्वों में न समाविष्ट होता हो । अशरीरी मुक्त आत्माएँ अर्थात् सिद्ध भी जोव की श्रेणी में ही आते हैं। हमारी इस सृष्टि में एक सन्तुलन है और ग्रह-तारा-नक्षत्र, जीव, अजीव सब एक दूसरे से इस प्रकार हैं हन्तुलन सतत् बना रहता है । यह सृष्टि अनादि तथा अनन्त है और इसका रहस्य है " परस्परोपग्रहः" । जब कभी इनमें से कोई घटक सृष्टि के इस अन्योन्याश्रय में कोई विक्षेप डालता है, तब सृष्टि में थोड़ा असन्तुलन आता है परन्तु अन्य जीवाजीवों की पूरक क्रिया-प्रतिक्रिया उसमें पुनः संतुलन कायम कर देती है । कभी-कभी संतुलन बिगाड़ने वाले तत्व इतने जबर्दस्त भी होते हैं कि पूरा का पूरा ग्रह या तारा अपना अस्तित्व खो देता है परन्तु इतना बड़ा परिवर्तन भी इस अपार सृष्टि को अनन्त ही बनाए रखता है । सन्तुलन बनाए रखना सृष्टि का अनन्त नियम है ।
जीवों की चार श्रेणियों में देव तथा नारक तो कृतकर्मों का उपभोग मात्र करते हैं, स्वयं कर्म करते नहीं हैं, जो सहज कर्मों का बन्धन होता है उस पर उनका वश नहीं है । तिर्यंच श्रेणी के जीवों के संज्ञा अथवा मन नहीं होता । उनका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों (Instincts) से संचालित होता है । अतः षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ
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तथा अजीव इन दो तत्वों से निर्मित है और ब्रह्म या सृष्टि निर्माता नहीं है, जो इन
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वे भी सुचिन्त्य रूप से कर्म करने की शक्ति से रहित होते हैं । सृष्टि में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे स्थूल ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त सूक्ष्म 'मन' जैसी इन्द्रिय भी प्राप्त हुई है। विकासवादियों के अनुसार यह इन्द्रिय सृष्टि के विकास क्रम से मनुष्य ने अजित की है। स्थिति जो भी हो, वर्तमान में यह मनुष्य जीव का अभिन्न अंग है। 'मन' की इस वत्ति का विकास उच्च से उच्चतर होता गया और मानवीय संस्कृति निरन्तर समृद्ध होती गई। आज तो यह मानने में कोई संकोच नहीं करता कि शरीरजन्य सहज क्रियाओं (Reflex actions) के अलावा मानव का सभी दृष्ट-अदृष्ट व्यवहार संस्कार-प्रेरित होता है। मानवीय व्यवहार का समाजीकरण होता है ।
भौतिक सृष्टि का सन्तुलन कुछ तो परमाणु पुद्गल के अनवरत घात-संघात के फलस्वरूप बना रहता है, परन्तु जब जीव और अजीव सृष्टि के बीच तथा विभिन्न श्रेणियों के जीवों बीच अन्तक्रिया चलती है, तब सन्तुलन को कायम रखने के लिए सचेष्ट रहना पड़ता है । जहाँ तक स्थावर जीवों का प्रश्न है, वे पूरी तरह प्रकृति के सन्तुलन नियम से संचालित होते हैं और सृष्टि सन्तुलन में वे लगभग उसी प्रकार आचरण करते हैं, जिस प्रकार कि भौतिक पदार्थ । असंज्ञी अर्थात् मनरहित तिर्यंच प्राणी जब परस्पर अन्तक्रिया करते हैं, तब थोड़ा सन्तुलन बिगड़ने का भय रहता है, परन्तु सामान्यतया असंज्ञी प्राणि-जगत का व्यवहार भी प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है। स्थावर जीवों तथा असंज्ञी त्रस जीवों की अन्तर्किया का नैसर्गिक चक्र बना हुआ है । इस नैसर्गिक चक्र में परस्परोपग्रह की स्थिति देखी जा सकती है । इस चक्र में हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्र भी चलता है, परन्तु यह हिंसा प्रतिहिंसा भी आत्मरक्षा, जीवन-संचालन, संतति-पालन, प्रजनन आदि मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित होती है । कुल मिलाकर यह सब उपक्रम प्राकृतिक सन्तुलन को कायम रखने में मदद करते हैं। असंज्ञी प्राणी स्मरण, तर्क, कल्पना, चिन्तन, निर्णय, संकल्प आदि मानसिक क्रियाओं से रहित होते हैं अतः उनके लिए प पर आश्रित रहने वाली सामाजिक नैतिकता कायम नहीं की जा सकती। उनकी नैतिकता केवल मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित है। उदाहरण के लिए हिंसक पशु क्षुधा लगने पर या आत्मरक्षा के लिए हो दूसरे प्राणी पर आक्रमण करता है, अन्यथा नहीं। प्रजनन के लिए प्रकृति से प्रेरित होकर ही पशु काम-क्रीड़ा में संलग्न केवल काम तष्णा की तप्ति के लिए नहीं । इसी कारण असंज्ञी प्राणी जगत के लिए ब्रह्मचर्य या परिवार नियोजन या अपरिग्रह जैसे नैतिक नियम बनाने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये मर्यादाएँ तो उनके जीवन में सहज ही विद्यमान रहती हैं।
__ मनुष्य संज्ञी (मनयुक्त) प्राणी है, जिसने प्राकृतिक नियमों से अपने आपको ऊपर उठा लिया है । क्षुधा लगने पर ही वह भोजन-प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता, अपितु वह खाद्यवस्तुएँ भविष्य के लिए संग्रहीत करके रख सकता है, और इसी कारण वह अपनी आवश्यकता की सीमा का अतिक्रमण करके भोजन करता है, जबकि कुछ अन्य प्राणियों को भूखा ही रह जाना पड़ता है। आवश्यकता से अधिक खाने वाला भी रोग-ग्रस्त होता है और भूख से कम खाने वाला भी अशक्त बनता है । दूसरी ओर भमि पर दबाव बढ़ता जाता है और इस प्रकार सन्तुलन बिगड़ने लगता है।
मनुष्य का व्यवहार मन से संचालित होने के कारण बिना प्रजनन-प्रेरणा के भो वह निरन्तर कामैषणा में लीन रहता है। काम विकारों को बढ़ाने वाले साधनों की वृद्धि करता है और इस प्रकार ऐन्द्रिक सुखों की लिप्साएँ बढ़ती जाती हैं, मनुष्य उन्हें तृप्त करने के लिए जूझता जाता है और तृष्णाएँ कभी समाप्त नहीं होती, जैसा कि कहा भी गया है४४२
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न जातु कामः कामानामुपभोगेन श्याम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव पुनरेवाभिवर्धते । अर्थात् कामनाओं की तुष्टि से कामनाएँ शान्त नहीं हो जातीं परन्तु और भी बढ़ती हैं, जैसे कि अग्नि में हवि (घृत आदि) डालने से अग्नि शान्त नहीं होती और भी बढ़ती है । मानव प्रकृति के सम्बन्ध में यही बात उत्तराध्ययन सूत्र में कही गई है
कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणा वि न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ।। जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निटि ठयं ।।
-अध्याय ८ गाथा १६-१७ अर्थात् मानव की तृष्णा बड़ी दुष्पूर है । धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि एक G) - व्यक्ति को दे दिया जाए, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों म लोभ बढता है । इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढता ही जाता है। दो माशा सोने की अभिलाषा ॥K
रने वाला करोडों से भी सन्तष्ट नहीं हो पाता । किसी की अनन्त तष्णाएँ दूसरे व्यक्ति की मूल आव- I श्यकताओं का भी हनन करती हैं। उत्पीड़ित व्यक्ति भी आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करने के लिए कभी र न कभी जाग ही उठता है और इस प्रकार द्वन्द्व की शुरुआत होती है, वर्ग-संघर्ष पनपता है, प्रकृति का शोषण किया जाता है, निरीह प्राणि-जगत को हटाकर मनुष्यों के लिए अधिक सुविधाएँ जुटाई जाती हैं, G जंगल काट कर खेती के लिए जमीन उपलब्ध की जाती है और फरनीचर, वाहन, ईंधन तथा अन्य इसी प्रकार के मनुष्यों के उपभोगार्थ लकड़ी उपलब्ध की जाती है। दूसरी ओर जंगल के स्थान पर बने खेत तथा उद्यान भी अतिशीघ्र आवासीय, वाणिज्यीय तथा औद्योगिक प्रयोजन हेतु अधिग्रहीत कर लिए जाते हैं । मनुष्य की अनन्त तृष्णा ने खनिज सम्पदा का दोहन करने के लिए पर्वतों को पोला कर दिया है, आर्द्र हवाओं को शुष्कता में परिणत करने के लिए पर्वतीय अर्गलाओं को खोल दिया है, जिससे कि मनुष्य अपने वाहनों के साथ प्रकृति को रौंद सके । मनुष्य की सौन्दर्य भावना नष्ट हो रही है। वह प्रकृति को अपने अनछुए व अक्षत रूप में देखना ही नहीं चाहता। उसकी आदत तो सूर्य के प्रकाश को बिजली के बल्वों में, स्वच्छन्द हवा को छत में लगे पंखों में, प्रकृति के अनहद नाद को टेप किए हुए रेकार्डों में तथा झरने के स्वच्छ जल को नल की टोंटी में से निकलती हई क्षीण धारा में देखने का आदो हो गया है।
मनुष्य को चिन्तन को शक्ति मिली है । इसी कारण वह प्राचीन अनुभवों को संचित रखर सकता है, उनमें समय-समय पर परिवर्तन तथा संशोधन कर सकता है, अन्य अवसरों पर उनका लाभकारी उपयोग कर सकता है, नई कल्पनाएँ कर सकता है, प्राकल्प निर्माण, प्राकल्प परीक्षण, विश्लेषण, संश्लेषण तथा सामान्यीकरण की मानसिक क्रियाओं द्वारा नई खीजें कर सकता है तथा प्रकृति को समृद्ध करने या विनष्ट करने के उपाय ईजाद कर सकता है। मन की शक्ति ने मनुष्य को अतुल शक्ति प्रदान कर दी है।
जब जब मनुष्य अपनी बौद्धिक शक्ति का उपयोग, उपभोगों को बढ़ाने में लगाता है, तब तब भोगवादी संस्कृति पनपती है, प्रकृति का विध्वंस होता है, सृष्टि का सन्तुलन बिगड़ता है और इस षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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सन्तुलन को पुनः कायम करने के लिए मानवीय संस्कृति में एक भूचाल आता है । इतिहास में इस प्रकार के उदाहरणों की कमी नहीं है । दूसरी ओर जब मनुष्य प्रकृति, स्थावर जीव, संज्ञी जीव, असंज्ञी जीव, अजीव सबके साथ “परस्परोपग्रह " भावना से संस्कारयुक्त जीवन जीता है, तब प्रकृति फलती फूलती है, मनुष्य तथा अन्य सभी जीव सुखपूर्वक जीते हैं और सृष्टि सन्तुलित रूप से संचालित होती है । आज पुनः मानवीय संस्कृति का झुकाव भोगवाद की तरफ है ।
मनुष्य यदि अपनी भोग वृत्ति को थोड़ा संयत कर दे, तो प्रकृति का चक्र स्वतः ही अपनी सहज गति में आ जायेगा । यदि वन रहेंगे तो स्वेच्छाचारी शाकाहारी पशु भी रहेंगे और उनकी संख्या को सीमित करने वाले हिंसक वन्य पशु भी रहेंगे और ये पशु रहेंगे तो परिस्थितिक (Ecological ) सन्तुलन भी बना रहेगा परन्तु इनको कायम रखने के लिए मनुष्य को अपनी शिकार वृत्ति पर नियन्त्रण रखना होगा, छोटे प्राणियों को भी बचाना होगा, वनस्पति की भी रक्षा करनी होगी और इनके नव-प्रजनन तथा वृद्धि के लिए आवश्यक जलाशय, आर्द्रता, हरीतिमा, पहाड़ों की गुफाएँ इन सबको अक्षत रूप में जिन्दा रखना होगा । अनाज की रक्षा हेतु चूहों को मारने की झुंझलाहट में हम यह भूल जाते हैं कि चूहों के न रहने से कीड़े भी तो परेशान करेंगे और सांपों का तथा बिल्लियों का भोजन आपने छीन लिया, तो यह अन्य प्रकार के उत्पात मचायेंगे । यदि ये भी मर गये, तो जीवन चक्र की गति में और झटके आने लगेंगे । एक ओर मत्स्य उत्पादन तथा वृद्धि के लिए जलाशयों में मत्स्य बीज डाले जाते हैं, और दूसरी ओर मछली पकड़ने वाले ठेकेदारों ने ऐसी युक्तियाँ निकाल ली हैं कि अल्प समय में ही सभी मछलियाँ पकड़ ली जायें और जलाशय की प्राकृतिक स्वच्छता प्रक्रिया को समाप्त कर दिया जाये । अब आगामी ऋतु में वर्षा हो तो पुनः मछलियाँ आयें और जल की स्वच्छता प्रक्रिया पुनः आरम्भ हो । तब तक जल के अन्य जन्तु भी मरें, पशु-पक्षी भी विवशतापूर्वक इस निर्जीव पानी से ज्यों-त्यों जीवन गुजारें ।
मनुष्य की भोगवादी संस्कृति ने बड़ी-बड़ी फेक्ट्रियों को जन्म दिया, जो प्राकृतिक सम्पदा का इतनी तेज गति से दोहन करती हैं कि प्राकृतिक विधि से उनका पुनः संस्थापन नहीं हो पाता । यह बात केवल खनिज सम्पदा तक ही सीमित नहीं है अपितु भूमि से उत्पादित अन्न तथा भूमिगत जल के बारे में भी उतनी ही सही है । हमारी नगरीय संस्कृति में रहन-सहन के तरीकों में जिस प्रकार का परिवर्तन आया है, उससे हमारा जल उपभोग पहले की तुलना में आज दस गुना बढ़ गया है। दूसरी ओर बड़ी फेक्ट्रियों में भी शुद्ध पेय जल प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त होता है । स्थान-स्थान पर बांध बंध जाने से नदियाँ सूखी पड़ी हैं । अब लोगों की कुदृष्टि भूमिगत जल पर पड़ी है। उसे भी विद्युत शक्ति द्वारा इतनी तेजी से बाहर निकाला जा रहा है कि प्राकृतिक आपूरण शक्ति उसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाती । वनों के कटने से तथा पारिस्थितिकी समन्वय के विषम हो जाने से वर्षा ने भी अपना रुख बदल लिया है । कहीं अकाल वर्षा है, कहीं बाढ़ें आ रही हैं और कहीं सूखा पड़ रहा है । वर्षा की कमी अधिकांश भागों में अनुभव की जा रही है ।
जल और भूमि का शोषण करने के बाद हमारी भोगवादी संस्कृति अन्तरिक्ष की ओर बढ़ी है । आये दिन भूमि से अन्तरिक्ष में छोड़े जाने वाले रॉकेट, उपग्रह तथा खोजी यानों के द्वारा अन्तरिक्ष
दूषित गैसें भर गई हैं और उनकी प्रतिक्रिया अन्य ग्रहों पर होना आरम्भ हो गई है । हमारे युद्धोन्माद तथा एक-दूसरे की भूमि सम्पदा हड़प कर अन्य मनुष्यों को पराधीन बनाने की दूषित मनोवृत्ति ने अनेक आणविक, आग्नेय तथा रासायनिक अस्त्र-शस्त्रों को जन्म दिया है जो स्वचालित होने के साथ आका
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शीय मार्ग में यात्रा करते समय पर्याप्त प्रदूषण बिखेर देते हैं । बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाली गैसीय दुषित हवाओं ने तो पृथ्वी के निकटस्थ आकाश को ही दूषित किया है परन्तु इन आग्नेयास्त्रों तथा रासायनिक मारकों ने पृथ्वी से बहुत ऊपर व्यापक क्षेत्र में प्रदूषण फैलाया है, जिनका प्रभाव सदियों तक रह सकता है ।
आज हमारी मानसिक शान्ति नष्ट हो गई है। सड़कों पर वाहनों की कर्कश आवाज, कारखानों में थका देने वाली यांत्रिक ध्वनि, उद्यानों, मंदिरों तथा खुले स्थानों पर ध्वनि प्रसारक यन्त्रों से निकलने वाले विविध प्रकार की गीतमय, अगीतमय, तथा कर्कश स्वर और घर पर आइये तो रेडियो, टेलीविजन अथवा टेपरिकार्डर आदि से प्रसारित होने वाले गाने । इन सब पागल कर देने वाली आवाजों में बच्चों की तुतलाती वाणी, पत्नी की मनुहार भरी शिकायत और भाई-बहनों या भाभी ननदों आदि के निश्छल हास-परिहास की आवाजें दब गई हैं । प्रार्थना, स्तवन तथा भजन तो अब टेप किये जा चुके हैं । उनमें भावों का तादात्म्य नहीं है, यांत्रिक एकरसता है । आज ध्यान, मौन, शांति सब शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं। यह ध्वनि प्रदूषण हमारे स्नायु संस्थान पर दबाव डाल रहा है । अनेक प्रकार की मानसिक व्याधियों से हम ग्रस्त होते जा रहे हैं। आज हम बौद्धिक दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुके हैं, भौतिक सम्पदा के हम धनी हैं, उपभोग वस्तुएँ हमारे घरों में अटी पड़ी हैं परन्तु फिर भी अपने आपको अकिंचन पाते हैं । हमारी आत्मिक शान्ति नष्ट हो गई है । भविष्यशास्त्रियों का अनुमान है कि यदि इसी गति से हम प्राकृतिक स्रोतों का दोहन करते रहे तथा वातावरण में प्रदूषण फैलता रहा, तो यह पृथ्वी इक्कीसवीं शताब्दी भी शायद ही सुखपूर्वक पूरी कर सके। पर्यावरण को और अधिक न बिगड़ने देने तथा जो कुछ अब तक बिगड़ चुका है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अब विश्व समाज सोचने लगा है । भारत सरकार भी इस ओर सचेष्ट हुई है तथा केन्द्र सरकार में पर्यावरण संरक्षण का एक पृथक मंत्रालयी विभाग बना है । यह चेतना तो ठीक है परन्तु जब तक पर्यावरण संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का सहज आचरण नहीं बन जाता तब तक इस दिशा में प्रगति संभव नहीं है । गृहस्थों के लिए निर्धारित जैनाचार संहिता पर्यावरण संरक्षण में बहुत बड़ा योगदान कर सकती | जैनाचार संहिता इतनी व्यापक है, तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक है कि उसका सर्वव्यापी प्रचार तथा अंगीकार करना अशान्त मानवता के लिए वरदान साबित हो सकता है। आइये, उनमें से कुछ पर विचार करें ।
जैन आचार संहिता का मूलाधार 'अहिंसा' है । सभी नैतिक आचरण अहिंसा से उद्भूत होते हैं और अहिंसा के मूल्य के अनुपूरक हैं । जैन अहिंसा मनुष्य जगत् तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसका प्रसार सभी चराचर जीवों तक व्याप्त है । पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु भी जीवों की परिधि में आ हैं । वनस्पति को तो जीवन माना ही जाता है । गृहस्थ मनुष्य के सन्दर्भ में अहिंसा के आचरण का अभिप्राय यही है कि मनुष्य अपने जीवनयापन की प्रक्रिया में जब अन्य जीवों के साथ अन्तक्रिया करता है, तो वह ऐसी होनी चाहिए कि अकारण किसी जीव को कष्ट न हो । जीवों की आवश्यक हिंसा उतनी ही की जाए, जितनी कि जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य हो । प्राकृतिक जीवों से जितना लिया जाए उतना प्रतिदान के रूप में उन्हें लौटाया भी जाए तथा जीवनचर्या को ऐसी बनाया जाए कि यदि अपने जीव- निर्वाह के लिए हम अन्य जीवों पर आश्रित हैं, तो कुछ जीव हम पर भी निर्भर हैं । हम स्वयं भी जिएँ तथा दूसरों को भी जीने दें क्योंकि
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउ । तम्हा पाणिवहं घोरं निगंथा वज्जयन्ति णं ॥
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अर्थात् सब जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। इसीलिये घोर प्राणिवध का निर्ग्रन्थ परिहार करते हैं। जल संरक्षण
शुद्ध पेय जल की कमी सारे विश्व में अनुभव की जा रही है। जल को बचाना आज हमारे लिए परम आवश्यक हो गया है । जब हमें जल प्रचुरता के साथ मिलता है, तब हम उसका अपव्यय करते हैं । और तभी गवत्ति विवशतापूर्वक धारण करते हैं, जब जल सीमित रूप में उपलब्ध होने लगता है। हमें यह अभिवृत्ति बनानी होगी कि जल सीमित है और यदि हम आवश्यकता से अधिक उसका उपभोग का करते हैं, तो कुछ अन्य प्राणियों को उससे वंचित रखते हैं । उपयोग किए हुए दुषित जल के पुनः शुद्धीकरण का प्रयास भी साथ-साथ चलना चाहिये । नहाने, कपड़े धोने तथा बर्तन धोने से अवशिष्ट पानी का उपयोग वृक्षों को जीवन दान देने के लिए होना चाहिए । ऊर्जा संरक्षण
वृक्षों के नष्ट होने तथा वन उजड़ने का एक मुख्य कारण लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयुक्त होना है । ऊर्जा चाहे लकड़ी से प्राप्त हो, या कोयले से या गैस से या विद्य त से, उसकी कमी सदा रहती है और रहने वाली है । हमारी भोगवादी संस्कृति द्वारा विद्य त ऊर्जा का अपव्यय बहुत होता है । ऊर्जा ।। को बचाना भी हिंसा को रोकना है । ऊर्जा के कुछ प्राकृतिक साधन ऐसे भी हैं, जिनसे वातावरण दूषित नहीं होता और परम्परागत ऊर्जा की बचत भी होती है । सूर्य ऊर्जा का अनन्त स्रोत है। भोजन बनाने में तथा अन्य कामों में सूर्य ऊर्जा का प्रयोग किया जाए तो हिंसा भी कम होती है, स्वास्थ्य-रक्षा भी। होती है और ऊर्जा की बचत भी होती है। वनस्पति संरक्षण
वनस्पति में जीवों का अस्तित्व सभी स्वीकार करते हैं। भारतीय संस्कृति में वृक्षों की देवता के समान पूजा की जाती है। उसके पीछे दृष्टि यही है कि यदि वृक्ष हमें जीवन, वायु, फल, फूल, पत्ते और छाया प्रदान करके हम पर उपकार करते हैं, तो हमें प्रतिदान में अन्य उपयोग से बचे हुए पानी तथा निरर्थक वस्तुओं का खाद देकर उनका प्रतिदान करना चाहिये तथा उन्हें नष्ट नहीं करना चाहिये । हम आवश्यकतानुसार वृक्षों से ग्रहण करें, उनको बढ़ने के लिए प्रतिदान करें तथा उन्हें न स्वयं नष्ट करें, न दूसरों को नष्ट करने दें। वायु संरक्षण
वायु प्रदूषण के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार कारखाने हैं। इस प्रदूषण से न केवल हमारा वायुमंडल दूषित हो रहा है बल्कि अनेक गगनचारी, जलचर तथा स्थलीय जीवों का प्राण-घात हो रहा है । प्रत्येक कारखाने के लिए यह कानूनी अनिवार्यता होनी चाहिए कि वह दूषित गैिसों के लिए उपचार यन्त्र का प्रावधान करे ताकि वायु प्रदूषण से होने वाली हिंसा को रोका जा सके। भू संरक्षण
कृषि कर्म कभी जैनों का व्यावसायिक कर्म माना जाता था। आज अधिक उत्पादन तथा अनाज संरक्षण के पागलपन ने कीटनाशक दवाइयाँ पृथ्वी की ऊपजाऊ शक्ति को एक साथ ऊपर लाकर कालान्तर में समाप्त कर देने वाले रासायनिक खाद, पृथ्वी की अत्यधिक गहरी जुताई आदि ऐसे दूषित
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उपक्रम आरम्भ किए हैं, जिनसे भूमि की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाने का खतरा है। कीटनाशक दवाएँ उपकारी कीटों को भी नष्ट कर रही हैं और उत्पादित खाद्य वस्तुएँ मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रही हैं । कृषि कर्म में जीवाजीव संगम तथा जीवों की अन्योन्याश्रितता को कायम रखना आवश्यक है।
आज खनिजों का दोहन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है, उनका पुनर्स्थापन नहीं हो पा रहा । है । इस गति को संतुलित करना आवश्यक है अन्यथा मनुष्य दरिद्र हो जाएगा। स जीवों का संरक्षण
सृष्टि में प्रत्येक जीव सृष्टि संचालन में अपनी महती भूमिका निभाता है। कीट-पतंगे, चूहे, C साँप, छिपकली, सिंह, व्याघ्र, शाकाहारी, मांसाहारी, गगन-चारी, जल-विहारी तथा भूतलगामी सब (ॐ) जीव सृष्टि को संतुलित बनाये हुए हैं । यह दलील बिल्कुल बेतुकी है कि कुछ जीवों की उत्पत्ति इतनी
तेजी से होती है कि यदि वे सब जीवित रहने दिए जाएँ तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जायेगा। 3) प्रकृति का कुछ विधान ही ऐसा है कि उनकी उत्पत्ति और ह्रास की परिस्थितियाँ जीव लोक में ही 2
विद्यमान रहती हैं। असंज्ञी जीव जगत में होने वाली हिंसा प्रकृति-प्रदत्त है, मनुष्य उससे असम्पक्त है। का असंज्ञी प्राणि जगत की कोई संस्कृति नहीं होती, उनका कोई समाज नहीं होता और इसी कारण उनकी कोई नैतिकता नहीं होती। मनुष्य का समाज होता है, उसकी संस्कृति होती है और उसमें मनुष्यों के अलावा अन्य आश्रित जीव भी होते हैं अतः उसकी नैतिकता होती है। मानवीय नैतिकता का आधार है अनावश्यक हिंसा का त्याग । हमारे संविधान की धारा ५१ का संशोधन करके मूल अधिकारों के साथ मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया है, जिन्हें धारा ५१ ए का भाग माना गया है। मूल कर्तव्यों में दो कर्तव्य विचारणीय हैं
१. सभी जीवधारियों के प्रति दयाभाव रखना, तथा २. नैसर्गिक पर्यावरण में समरसता कायम रखना।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो जैनों की आचार संहिता अब प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। जैन न्याय संहिता में तो हिंसा से कर्मबन्धन होता है, जिसका दुखद उपभोग अनिवार्यतः । करना पड़ता है परन्तु भारतीय संविधान की न्यायिक व्यवस्था में इन कर्तव्यों का उल्लघन करने पर व्यक्ति के लिए दण्ड की व्यस्था है।
पुरस्कार तथा दण्ड भी समाज व्यवस्था को कायम रखने में सहायक होते हैं परन्तु उनका १५ प्रभाव अल्पकालिक होता है । आज हमें स्वयं इस बात का अहसास होना चाहिए कि मानवीय सृष्टि का
को बचाने के लिए सभी जीवों को जीने देने का उसी प्रकार अधिकार देना होगा, जिस प्रकार हम स्वयं अपने लिए इस अधिकार को चाहते हैं। हमारे अन्दर किसी को प्राण देने की शक्ति नहीं है तो प्राण हरण करने का अधिकार हम कैसे ले सकते हैं ? आवश्यक सूत्र के इस जीवन मूल्य "मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ ण केणइ" (अर्थात् मेरी सभी जीवों के साथ मैत्री है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है) को हमारी संस्कृति का मूल मन्त्र बनाना होगा । तभी सृष्टि का सन्तुलन कायम रखने में मनुष्य की सही भूमिका मानी जाएगी।
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विवाद - परिवाद के समाधान हेतु अनेकान्तवाद
नासमझी में न जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी गयीं । अनेक विवाद और परिवाद हुए। मन-मुटाव हुए और वे खण्ड-खण्ड हो गये । आज चारों तरफ जो हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा है चाहे वह पंजाब क्षेत्र हो या आसाम या श्रीलंका या इराक-ईरान हो । कोई भी भूमण्डल हो सकता है इसका आबजेक्ट । पर सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि यह सब घटनाएँ / दुर्घटनाएँ हो क्यों रही है ? क्या दुर्घटनाएँ / घटनाएँ विकासशील होने का प्रतीक हैं या हमारी मानसिक स्थिति इतनी संकुचित हो गयी है कि हम सोच-विचार की स्थिति से पलायन कर गये हैं ? या हम निरे मूढ़ बन गये हैं । क्या जंग लग गयी है या विचार मंथन का व्याकरण हमसे छूट सा गया है। होने का, लड़ाई और हिंसा का कोई तो आधार होगा ही । है, आधार है । अस्थायी और अस्पष्ट । उसका स्थायीपन तब तक ही है जब तक कि हम, हमारा बौद्धिक पहलू निष्क्रिय है । वैचारिक क्रान्ति होते ही हममें सोच की पहल प्रारम्भ हो जायेगी । फिर जो हम करेंगे उसमें सकारात्मक रूप होगा तब फिर निम्न पंक्तियाँ अपने आप ही उभरने लगती हैं
बुद्धि की प्रयोगशाला में आखिर इस खण्ड-खण्ड लेकिन वह बिल्कुल ही
- प्रो० डॉ० संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' ३९४ सर्वोदय नगर, अलीगढ़
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इसलिए सोच का सकारात्मक रूप ही अनेकान्त का पर्याय माना जा सकता है । और अनेकान्तवाद ही एक ऐसा टॉनिक है जो विवाद परिवाद के समाधान हेतु आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है ।
आँख खोलकर जब हम किसी वस्तु की जानकारी लेते हैं तो वह जानकारी अपेक्षाकृत सही के ज्यादा निकट होगी और आँख बन्दकर जब हम जानकारी लेते हैं तो हो सकता है कि वह मिथ्या जानकारी हो । हाथी का दृष्टान्त इस अर्थ की समीचीनता को सपाट उद्घाटित करता है । यहाँ 'हो' की दृढ़ता नहीं रहती । यहाँ तो केवल 'भी' की उपयोगिता उजागर होती है । तब समस्या चाहे घर की हो या समाज की या देश की, उसके लिए समाधान का पैमाना कोई छोटा-बड़ा नहीं होता । हाँ, समाधान हेतु 'विकल्प' एक से अनेक हो सकते हैं ।
"बिना बिचारे जो करे, सो पाछै पछिताय ।
काम बिगारे आपनो, जग में होत हँसाय ॥"
हम जब एकपक्षीय होकर निष्कर्ष ले लेते हैं तो उसमें झगड़े की सम्भावना बनी रहती है और यदि हम किसी समस्या को अनेक पहलू से सोचते हैं, खोजते हैं तो हम झंझट की सीमा समेट देते हैं । तब फिर झगड़े- टंटे का द्वार खुलने की बात ही नहीं उभरती । उदाहरण के लिए भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी को ही लीजिए - वे देश की इन तमाम समस्याओं को हल करने के लिए जो समझौता करते हैं। वह समझोता हो तो उभय मार्ग है और यही पथ तो अनेकान्त का पथ है । इसीलिए अनेकान्त एक से
( शेष पृष्ठ ४५८ पर)
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जैन विचारधारा में शिक्षा ( शिक्षक - शिक्षार्थी स्वरूप एवं सम्बन्ध )
व्यक्ति और समाज के निर्माण एवं विकास में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । शिक्षा राष्ट्र का दर्पण है, जिसमें वहाँ की संस्कृति की झलक देखी जा सकती है और शिक्षित व्यक्तियों के आचार-विचार से किसी राष्ट्र के स्वरूप का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
विज्ञान की चहुँमुखी प्रगति के साथ शिक्षा जगत में भी पर्याप्त प्रगति हुई है । इस शैक्षिक प्रगति के फलस्वरूप मानव ने भौतिक विकास की ऊँचाइयों को हस्तगत किया है, इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु इन ऊँचाइयों को हस्तगत करके भी वह आज अशान्त है, द्वन्द्व और संघर्ष से ग्रस्त है । इसका एक बड़ा कारण है शिक्षा में भौतिकता के साथ अध्यात्म और धर्म का सामंजस्य नहीं रहा । अध्यात्म और धर्म शिक्षा में क्या मूलभूत परिवर्तन ला सकता है, इस दृष्टि से विचार करने हेतु इस निबन्ध में जैन विचारधारा में शिक्षक और शिक्षार्थी के स्वरूप तथा उनके संबंधों पर विवेचन किया गया है । जैन विचारधारा में चर्चित एतद्विषयक योगदान के आधार पर शिक्षा में आवश्यक परि वर्तन करके उसके मंगलकारी स्वरूप को पुनः स्थापित किया जा सकता है । .
चांदमल कर्णावट, उदयपुर
शिक्षक और शिक्षार्थी - शिक्षा के पावन पुनीत कार्य में शिक्षक और शिक्षार्थी दो प्रमुख ध्रुव हैं । समुचित शिक्षा व्यवस्था की दृष्टि से इन दोनों के स्वरूप एवं इनके पारस्परिक संबंधों को समझना परम आवश्यक है । शिक्षार्थी के लिए शिक्षक आदर्श होता है और शिक्षक भी अपने शिक्षार्थी को समझकर उसकी योग्यता रुचि, विकास और पात्रता को पहचानकर ही उसे शिक्षा प्रदान करने का सफल उपक्रम कर सकता है । शिक्षक कैसा हो और शिक्षार्थी कैसा हो ? यह जानने के लिए जैन विचारधारा में प्रदर्शित शिक्षक और शिक्षार्थी के स्वरूप का विवेचन किया जा रहा है ।
शिक्षक का स्वरूप - जैन विचारधारा में शिक्षक के लिए 'गुरु', 'आचार्य' एवं ' उपाध्याय' के नाम उपलब्ध होते हैं । उपाध्याय के लिए आचार्य शीलांक ने 'अध्यापक' शब्द का भी प्रयोग किया है ।
जैन विचारधारा में मुक्ति या मोक्ष मार्ग के साधन रूप तीन तत्त्वों को प्रमुख माना गया है । वे हैं - देव, गुरु और धर्म । सम्यग्दर्शन या दर्शनसम्यक्त्व के पाठ में इन तीनों का उल्लेख हुआ हैअरिहन्तो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो, जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं 11
१. आवश्यक सूत्र - दर्शन सम्यक्त्व का पाठ
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मुक्तिमार्ग के तीन तत्त्वों में देव और धर्म के साथ गुरु को भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । गुरु ही देव और धर्म का बोध कराते हैं । जिससे सुदेव और जिनप्ररूपित धर्म की आराधना दा करके साधक मुक्ति मार्ग पर सफलता से अग्रसर होता है।
जैनधर्म के नमस्कार मंत्र में सिद्ध भगवान से पहले णमो अरिहन्ताणं' पद में अरिहन्तों को र वन्दन किया गया है क्योंकि मुक्ति प्राप्त सिद्धों की अनुपस्थिति में संसार को कल्याण का मार्ग बताने | वाले अरिहन्त ही हैं। वे ही विश्व के गुरु हैं । सूत्र दशवैकालिक में गुरु की महिमा और गरिमा को | व्यक्त करते हुए कहा गया है कि संभव है अग्नि न जलाए अथवा कुपित जहरीला साँप न खाए । संभव है ला समुद्रमन्थन से प्राप्त घातक विष न मारे, किन्तु आध्यात्मिक गुरु की अवज्ञा से परम शान्ति संभव ही 20 नहीं है।
जैन विचारधारा में आचार्य और उपाध्याय दोनों को गुरु/शिक्षक माना गया है। वे साधुसाध्वियों को शास्त्रों की वाचना या शिक्षा देते हैं। वे स्वयं शास्त्र का अध्ययन करते और अन्यों को भी अध्ययन कराते हैं । यद्यपि शिक्षण का कार्य मुख्यतया उपाध्याय के द्वारा ही संपन्न होता है, तथापि आचार्य भी अपने पास अध्ययन करने वाले साधु-साध्वी वर्ग को अध्ययन करते हुए शिक्षण का कार्य करते हैं।
उपाध्याय-ये शास्त्रों के रहस्य के ज्ञाता एवं पारंगत होते हैं। ज्ञान और क्रिया से युक्त इनका संयम या चारित्र शिष्य वर्ग को गहन प्रेरणा प्रदान करता है। ये २५ गुणों के धारक होते हैं । ११ अंग १२ उपांग सूत्रों के ज्ञाता होने के साथ चरणसत्तरी एवं करणसत्तरी रूप चारित्रिक गुणों के धारक होते हैं। ये स्वमत एवं परमत अर्थात् अन्य दर्शनों धर्मों के भी ज्ञाता होते हैं। अपने शिष्यों को उनकी योग्यता एवं पात्रता के अनुरूप शिक्षण देते हुए वे हेतु, दृष्टांत, तर्क एवं उदाहरणों से तत्त्वों की व्याख्या करते हैं जो शिक्षण को सरस, रुचिप्रद, बोधगम्य एवं हृदयग्राही बनाता है। उपाध्याय में ८ प्रभावक गुण होते हैं जो उनके जीवन की महनीयता को प्रकट करते हैं:
१. प्रवचनी-जैन व जैनेतर आगमों के मर्मज्ञ विद्वान । २. धर्मकथी-धर्मकथा (धर्मोपदेश) करने में कुशल । ३. वादी-स्वपक्ष के मण्डन और परपक्ष के खंडन में सिद्धहस्त । ४. नैमित्तिक-भूत, भविष्य और वर्तमान में होने वाले हानि-लाभ के ज्ञाता । ५. तपस्वी-विविध प्रकार के तप करने में निपुण । ६. विद्यावान-रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि १४ विद्याओं में निष्णात । ७. सिद्ध-अंजन आदि विविध प्रकार की सिद्धियों के ज्ञाता । ८. कवि-गद्य, पद्य, कथ्य, गेय चार प्रकार के काव्यों की रचना करने वाले ।
जितना उनका ज्ञान पक्ष प्रबल है, उतना ही उनका चारित्र या क्रियापक्ष भी सुदृढ़ होता है । संघ में जो सम्मान आचार्य को दिया जाता है, वही सम्मान उपाध्याय को भी प्राप्त होता है । उपाध्याय
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१. दशवकालिक सूत्र अध्ययन ह गाथा ७ २. आवश्यक सूत्र ३. संकलित-जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप-उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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भावश्रमण को, अर्थात् जो साधु धर्म का भावपूर्वक शुद्ध पालन करते हैं, ही वाचना देते हैं या अध्ययन कराते हैं, केवल वेशधारी साधु को नहीं । यदि वे ऐसा नहीं करते तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। इसका अभिप्राय है कि अध्यापक शिष्य की पात्रता को देखकर परखकर ही उसे अध्ययन करावें । तभी अध्ययन-अध्यापन फलीभूत होता है । शिक्षण-प्रक्रिया में उपाध्याय अपनी विद्वत्ता एवं बुद्धि का सम्यक् प्रयोग करते हुए आचरण का आदर्श शिष्यों के समक्ष रखते हैं । इससे शिष्यवर्ग में गुरु के प्रति श्रद्धाभाव दृढ़ बनता है।
व्यवहार सूत्र में दीक्षा पर्याय अर्थात् कौन श्रमण कितने वर्षों से साधु जीवन का पालन कर रहा है, इसे लक्ष्य करके विविध शास्त्रों को वाचना लेने या शिक्षा प्राप्त करने हेतु साधुओं को अधिकृत किया गया है । जैसे तीन वर्ष का साधु जीवन जो श्रमण-श्रमणी पूर्ण कर चुका, उसे आचारकल्प, आचार रांग, निशीथादि सूत्रों का अध्ययन कराया जा सकता है, आदि ।
इस प्रकार श्रमण शिष्यों की पात्रता के अनुसार उन्हें वाचना या शिक्षण प्रदान करते हुए उपाध्याय स्वयं जैसी वाचना देते हैं वैसा ही वे स्वयं आचार का भी परिपालन करते हैं।
आचार्य-ये साधु-साध्वी, श्रावक-श्रादिका (व्रतधारी सद्गृहस्थवर्ग) रूप संघ के नायक होते हैं। इस चतुर्विध संघ में धर्म का उद्योत हो और संघ के सदस्य धर्माराधना में अग्रसर हों, इस हेतु आचार्य उन्हें नेतृत्व प्रदान करते हैं। संघ में आचार्य भी अपने शिष्यों तथा अन्य श्रमणों को अध्ययन कराते हैं । वे शास्त्रों के पाठी होते हैं और शास्त्रों के मर्मज्ञ होते हैं । शास्त्र में आचार्य के ३६ गुणों का उल्लेख उपलब्ध होता है। वे आजीवन अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का पूर्णरूपेण मन, वचन, कर्म से पालन करते हैं । ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों का पालन करते. पाँच इन्द्रिय जी
पाँच इन्द्रिय जीतते, क्रोधादि चार कषाय जीतते, ६ बाड़सहित ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पाँच समिति तीन गुप्ति का शुद्ध पालन करते हैं । वे स्वयं आचार का पालन करने से आचार्य कहलाते और अन्यों को भी आचार पालने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
सूत्र दशाश्रु तस्कन्ध में आचार्य की आठ सम्पदाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, आचारसम्पदा आदि । आचार सम्पदा के अनुसार आचारनिष्ठा आचार्य का प्रमुख गुण है। वे आचार में दृढ़ और ध्रुव होते हैं । आचार सम्पन्न होने पर भी उन्हें किंचित् भी अभिमान नहीं होता। वे सदा संयम में जागृत रहते और अन्यों को भी जागृत रखते हैं । श्रुतसम्पदा में उनके ज्ञान की समृद्धि दर्शाते हुए शास्त्रकार ने बताया है कि वे आचार्य परिचितश्रुत अर्थात् आगमों के सूत्र-अर्थ के मर्मज्ञ, बहुश्रुत अर्थात् बहुत आगमों के ज्ञाता, विचित्रश्रुत अर्थात् स्वमत तथा अन्यमत के गहन अध्येता तथा घोषविशुद्धिकारकता में शब्द प्रयोग में अलंकृतत्व, सत्यत्व, प्रियत्व, हितत्व तथा प्रासंगिकता आदि में कुशल होते हैं।
'शरीर सम्पदा' में आचार्य के शरीर के बलवान, कान्तिमान, सुरूपवान एवं पूर्णेन्द्रिय, सन्तुलित आकार-प्रकार आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य को केवल आचारवान, श्र तवान एवं मतिमान ही नहीं बताया गया है, अपितु उनके शरीर के उत्तम रूप, आकार, बल को भी उनकी विशेषताओं में स्थान दिया गया है।
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१. निशीथसूत्र उद्दे. १६ सूत्र २७ ३. आवश्यक सूत्र -अरिहंतादि पंचपद भाववन्दन
२. व्यवहार सूत्र उद्देशक १० सूत्र २१ से ३७ ४. दशाश्रुतस्कन्धसूत्र अध्ययन ४ सूत्र ३ से १०
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आचार्य की वाचना सम्पदा या अध्यापन शिक्षण सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन एवं उसको व्याख्या करना यहाँ अत्यन्त प्रासंगिक है।
प्रत्येक सम्पदा की तरह 'वाचना सम्पदा' के भी चार भेद किए गए हैं । वे हैं-(अ) विदित्वोशिति (ब) विदित्वा वाचयति (स) परिनिर्वाप्य वाचपति (द) अर्थ निर्यापकता । प्रथम विदित्वोदिशति में या शिक्षण की विशेषता में सर्वप्रथम आचार्य शिष्य का किस आगम में प्रवेश हो सकता है, ऐसा जानकर उनका अध्यापन करते या वाचना देते हैं । प्रारम्भ से ही आचार्य का लक्ष्य शिक्षार्थी होता है न कि शिक्षण सामग्री या पाठय वस्तु । वे शिष्य को जानकर और पहचानकर ही शिक्षण-क्रिया का प्रारम्भ करते हैं। विदित्वा वाचयति में शिष्य की धारणाशक्ति की और उसकी योग्यता को जानकर प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टान्त एवं युक्ति आदि से सूत्र अर्थ और दोनों की शिक्षा देते हैं। इसका अभिप्राय है कि शिक्षार्थी ही शिक्षण का केन्द्र रहता है । आचार्य पाठ्य ग्रन्थों से भी अधिक शिष्य को जानने का प्रयास करते हैं । यही शिक्षण का मर्म भी है । परिनिर्वाप्यवाचयति में सर्व प्रकार से पूर्व पठित विषय को शिष्य ने भलीभांति ग्रहण कर लिया है, यह जानकर ही वे शिष्य को आगे शिक्षण करते या वाचना देते हैं । 'अर्थ निर्यापकता' में सूत्र में निरूपित तत्त्वों का निर्णय रूप परमार्थ का अध्यापन वे पूर्वापर सगति द्वारा, उत्सर्ग, अपवाद, | स्यादवाद आदि से स्वयं जानकर शिष्यों को सिखाते हैं। अर्थात आचार्य का निजी अध्ययन, अध्यापन क्रिया के साथ गतिमान रहता है । आचार्य का शिक्षण भी रुचिकर और सुबोध बनता है क्योंकि वे हेतु, दृष्टांत, युक्ति, उदाहरण आदि का प्रयोग करते हुए विषय का स्पष्टीकरण करते हैं।
आचार्य चूंकि संघ के अनुशास्ता होते हैं, अतः वे प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा सम्प्रदाओं में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परिज्ञान एवं निर्णय करके अपने शिष्यों के लिए सर्वतोभावेन व्यवस्था देखते हैं। यह उनका अनुशासन का/शिक्षा-प्रबन्ध का एक रूप होता है। उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति सान्निध्य में रहने वाले शिष्यों के लिए आदर्श होती है। उन व्यवहारों को देखकर शिष्य उनका अनुकरण करते और जीवन में अग्रसर होते हैं।
शिक्षार्थी या शिष्य का स्वरूप-जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल शरीरमय नहीं होता । उसमें एक परमशक्तिशाली ज्ञानवान आत्मतत्त्व भी होता है। इसी प्रकार शिष्य भी केवल शरीरधारी व्यक्ति ही नहीं, एक अनन्त शक्ति एवं ज्ञान सम्पन्न आत्मा भी होता है । जैन सिद्धान्त 'अप्पा सो परमप्पा' के अनुसार 'आत्मा'ही परमात्मा है।' प्रत्येक आत्मा में परमात्मस्वरूप पाने की क्षमताएँ निहित होती हैं, भले ही वे कर्मों के आवरण से प्रकट नहीं हो पा रही हों। शिष्य भी इन शक्तियों का पूज है और शिक्षा इन शक्तियों और क्षमताओं को विकसित करती और प्रकट करती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, उपयोग और वीर्य सभी आत्माओं के समान गुण हैं। इन गुणों से युक्त सभी आत्माएँ एक हैं । यह प्राणीमात्र की एकता का सुदृढ़ आधार है। शिष्य की पहचान भी उनके ज्ञान एवं विकास के ला आधार पर ही की जा सकती है, जाति, वर्ण, भाषा आदि के आधार पर नहीं ।
सभी जीवों में चेतना और आत्मा समान रूप से विद्यमान है, तथापि उसका विकास सभी ८ जीवों में समान नहीं होता। जैन दर्शन में विकास के आधार पर जीवों के ५ भेद किए गए हैं-एकेन्द्रिOF यादि । इस प्रकार जीवों में आत्मतत्व की समानता होते हुए भी विकासीय भिन्नता विद्यमान है । यह
१ ठाणांग ५ सूत्र ४३३
४५२
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विकास उनके सम्यक् पुरुषार्थ पर निर्भर होता है। शिष्य में भी यह सिद्धान्त चरितार्थ होता है । शिष्य वर्ग का विकास भी समान नहीं होता परन्तु पुरुषार्थ द्वारा शिष्य अपना उत्कृष्ट विकास करने में समर्थ होते हैं । शिष्य वर्ग की भिन्नता को दृष्टिगत कर पाठ्य सामग्री और शिक्षा के स्वरूप में भी तदनुसार भिन्नता होनी चाहिये।
शास्त्र उत्तराध्ययन में उल्लेख है कि गुरुकुल में गुरु के सान्निध्य में रहते हुए शिष्य उपधान अर्थात् शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विशिष्ट तप में निरत रहता है, वही शिष्य शिक्षा प्राप्ति के योग्य होता है । तपाराधना से शरीर के मानसिक प्रभाव के फलस्वरूप शिक्षार्थी शिक्षा में एकाग्न बन सकेगा। यह सम्यक्तप सम्यक्पुरुषार्थ का ही एक रूप है।
जैनदर्शनानुसार प्रत्येक आत्मा को ही कर्ता और भोक्ता माना गया है। स्वयं आत्मा ही अपना नियामक और नियंता है। वह अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगता है। शिष्यों को शिक्षण का
समान वातावरण, शिक्षक आदि प्राप्त होने पर भी कतत्व और भोक्तृत्व तो शिष्यों में ही निहित होता 37 है। शिक्षक के मार्गदर्शन में वे स्वयं ही अपने कर्म से परम और चरम विकास करते हैं। शिक्षक वर्ग को
इस दार्शनिक तथ्य एवं सत्य को समझकर शिष्य वर्ग का समुचित सम्मान करते हुए उनकी स्वायत्तता का आदर करना चाहिए, जिससे शिष्य वर्ग में स्वतन्त्र चिन्तन एवं निर्णय की सामर्थ का विकास हो सके।
शिक्षार्थी की पात्रता के सम्बन्ध में सत्र निशीथ में उल्लेख प्राप्त होता है कि वे शिष्य वाचना या है। शिक्षा देने योग्य नहीं हैं जो रूक्षस्वभावी, चंचल चित्त, अकारण एक गण से गणान्तर में जाने वाले, दुर्बल
चरित्र अर्थात् मूल (महाव्रत) उत्तरगुणों के विराधक, अधीर और आचार्य के प्रतिभाषी हैं । शिष्य को * शिक्षण की पात्रता प्राप्त करने हेतु उक्त दोषों का परित्याग करके मधुर स्वभावो, एकाग्रचित्त, एक स्थान पर टिककर अध्ययनरत रहने वाला, धैर्यवान, दृढ चरित्र एवं गुरु का सम्मान करने वाला बनना आवश्यक है । शिष्य के इन गुणों में आन्तरिक और बाह्य व्यवहारपरक गुण देखे जा सकते हैं । इसी सूत्र में उल्लेख है कि जो भिक्षु (आचार्य या उपाध्याय) अपात्र शिक्षार्थी को वाचन या शिक्षा देता है या अन्य को वाचना का अनुमोदन करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
मूत्र उत्तराध्ययन में उल्लेख है कि जो शिक्षार्थी या शिष्य अभिमानी, क्रोधी, प्रमादो (आलस्यादि) रोगी और आलसी होता है, वह शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकता। इसके आधार पर विद्यार्थी को BAI शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों दृष्टियों से योग्य होना आवश्यक है। शिक्षार्थी की पात्रता में
जैन विचारधारा केवल आध्यात्मिक गुणों की ही अपेक्षा नहीं करती अपितु शारीरिक नीरोगता, स्फूर्ति आदि गुण भी अपेक्षित मानती है । इसके अतिरिक्त शिक्षार्थी में निम्न गुण भी अपेक्षित हैं--वह अहसनशोल, जितेन्द्रिय, मर्म प्रकट न करने वाला और शीलवान होना चाहिये। साथ ही वह रसनेन्द्रिय का लोलुपी न हो और क्रोध पर निग्रह करके सत्य में दृढ़ प्रीतिवान हो।
आहार में सादगी और संयम भी शिक्षार्थी के आवश्यक गुण हैं । सूत्र उत्तराध्ययन, अध्ययन ११ गाथा ४-५ में ब्रह्मचर्य समाधि के ६ स्थानों में भोजन संयम के अन्तर्गत प्रणीत या सरस भोजन का
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१. उत्तराध्ययन ११/१४ ३. निशीथ सूत्र उद्देशक १६ सूत्र २०० (भाष्य) ५. वही ११/३
२. उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७ ४. उत्तराध्ययन सूत्र १६/१६
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तथा अतिआहार का निषेध किया गया है। यह निर्देश प्रत्येक मुनि की तरह शिक्षार्थी मुनि के लिए भी पालनीय है । ऐसा करके शिक्षार्थी मुनि सादा जीवन जीते हुए अधिक मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने में समर्थ हो सकेगा। शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध
(अ) सान्निध्य या निकटता-जैन आचार्य या उपाध्याय के पास अध्ययन करने वाला साधुवर्ग उनके सान्निध्य में ही निवास करता है। शास्त्रों में इसीलिए शिष्य के लिए 'अन्तेवासी' या निकट ८ में रहने वाला शब्द प्रयुक्त हुआ है। गुरु के सान्निध्य में रहकर उनके प्रत्यक्ष व्यवहारों को देखते हुए शिष्य अनेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। सान्निध्य में रहने से गुरु शिष्य को और शिष्य गुरु को भलीभ जानते और समझ लेते हैं। इससे शिक्षण क्रिया में शिष्य और गुरु दोनों को पर्याप्त सहयोग प्राप्त होता है।
(ब) सेवा,सहयोग और स्नेहपूर्णता-सूत्र उत्तराध्ययन में साधु-समाचारी के १० भेदों में अभ्युत्थान समाचारी में बताया गया है कि शिष्य (मुनि) अपने आचार्य उपाध्याय रूपी शिक्षक के आने पर खड़ा होकर उनका सम्मान करता है और उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए सदैव तत्पर रहता है। छन्दना का समाचारी के अनुसार शैक्ष साधु गुरुजनों का संकेत पाकर बाल, ग्लाम और शैक्ष (अध्ययनरत श्रमण) श्रमणों को आहारादि के लिए आमन्त्रण करता है । यह बाल (छोटे साधु) और रोगी तथा शिक्षार्थी साघुओं के प्रति गुरु के स्नेहभाव का द्योतक है । अभ्युत्थान में गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा एवं सेवा भावना व्यक्त हुई है । यह सभी कार्य उपकार या प्रतिकार की भावना से न करते हुए आत्मशुद्धि की भावना से किया । जाता है। कितनी निरीहता है गुरु-शिष्य के इन सम्बन्धों में जो उल्लेखनीय और अनुकरणीय है। अध्यापक भी वाचना या शिक्षा का कार्य केवल आत्मशुद्धि या कर्म-निर्जरा के हेतु ही करते हैं।
(स) विनयपूर्णता-जैन विचारधारा में 'विनय' को शिक्षार्थी का मूलगुण माना गया है। 'विणओ धम्मस्स मूलो' अर्थात् विनय धर्म का मूल है । विद्यार्थी निस्वार्थभाव से गुरुजन का विनय करके वैनयिकी बुद्धि प्राप्त करता है। इस प्रकार की बुद्धि से विनयवान शिष्य कठिनतम प्रसंगों को भी सुलझा लेता है और नीतिधर्म के सार को ग्रहण करता है । इस प्रकार विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ ज्ञान अभीष्ट फल प्रदाता बनता है। भगवान महावीर ने अन्तिम समय में उपदेश देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्याय में विनय की ही विवेचना की है। दशवैकालिक सूत्र में भी विनय समाधि का वर्णन उपलब्ध होता है । विनयवान शिष्य आत्मसमाधि या आत्मशांति को प्राप्त करता है।
(द) समानता-जैन दर्शन में माना गया है कि सभी जीवों में एक ही चेतना या आत्मतत्त्व विद्यमान है । सूत्र दशवैकालिक में बताया गया कि साधक को प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझकर सभी जीवों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए। रागद्वेष भाव आत्मा के पतन का कारण बनते हैं। यह जानकर और मानकर आचार्य और उपाध्याय शिक्षक अपने शिक्षार्थी के साथ समान व्यवहार करते हैं । वे दोनों समताभाव से अर्थात् शिष्य को आत्मवत् समझते हुए शिष्यों को वाचना या शिक्षा देते हैं। उनके दोषों पर कभी क्रोध नहीं करते। शिष्य मुनियों के विकास को दृष्टिगत करके वे उन्हें समान भाव से वाचना देते हैं।
२. वही, अध्ययन २६ गाथा ५ से ७
१. उत्तराध्ययन ११॥३ ३. नंदीसूत्र गाथा ७३
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आधुनिक शिक्षा को योगदान-उपर्युक्त तथ्यों एवं उनके विश्लेषण के आधार पर जैन विचारधारा में शिक्षा आधुनिक शिक्षा जगत को निम्नांकित योगदान कर सकती है
(i) जैनविचारधारा में शिक्षक को ज्ञानवान होने के साथ-साथ उतना ही आचारनिष्ठ भी बताया गया है । ज्ञान और आचार दोनों को समान महत्त्व दिया गया है। आज शिक्षित लोगों के गिरे हुए आचरण से समाज दुखी है । चारित्रिक मूल्यों को शिक्षानीति में रेखांकित किया जाना चाहिए। क्रिया या चारित्र के अभाव में ज्ञान अभीष्ट फलदायी नहीं हो सकता।
___ आज शिक्षक का चयन मुख्य रूप से उसकी अकादमिक योग्यता के आधार पर ही किया जाता है। उसके आचरण या चरित्र की प्रायः उपेक्षा ही की जाती है। आचरण से गि किस प्रकार चरित्रवान छात्रों का निर्माण कर सकते हैं। इसलिए शिक्षक के चयन के मापदण्डों में उसके आचरण को भी प्रमुख मानदण्ड (Criteria) निर्धारित किया जाना चाहिए । इस परिवर्तन से चरित्रवान शिक्षक प्राप्त हो सकेंगे। व्यक्तित्व, अभिरुचि एवं अभिवत्ति परीक्षणों से यह कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार शैक्षिक वातावरण और अबोहवा में एक मूलभूत परिवर्तन लाना आवश्यक है। यह भी महत्वपूर्ण है कि शिक्षण में शिक्षार्थी ही केन्द्र बिन्दु रहना चाहिए।
(i) शिक्षार्थी की पात्रता पर भी गम्भीर विचार करना आवश्यक है। अनिवार्य शिक्षा. जो सभी के लिए है, उसे छोड़कर उच्च शिक्षा में प्रवेश छात्रों की रुचि, अभिवृत्ति आदि के परोक्षण के आधार पर किया जाना वांछनीय है। जैन विचारधारा में शिक्षार्थी 'मुनि' की पात्रता पर कितना
विचार किया गया है। अपात्र छात्र को अध्ययन कराने वाला आचार्य स्वयं प्रायश्चित्त का भागी होता 37 है। अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में छात्र की पात्रता के मानदण्ड निर्धारित होने के
शक्षा व्यवस्था में छात्र की पात्रता के मानदण्ड निर्धारित होने चाहिए। उसमें भी ||5 SH आचरण पर विशेष बल होना चाहिए । इसका निर्धारण परीक्षणों द्वारा किया जा सकता है । इससे एक 7 ओर रुचिशील, योग्य एवं सकारात्मक अभिवृत्ति वाले विद्यार्थी प्राप्त होंगे, वहाँ दूसरी ओर उच्च शिक्षा । के लिए भारी भीड़ पर भी नियन्त्रण किया जा सकेगा। साथ ही इससे राष्ट्र छात्र समस्याओं से भी मुक्ति पा सकेगा।
(iii) शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों में निकटता आवश्यक है। जैन विचारधारानुसार शिक्षार्थी शिक्षक के सान्निध्य में रहकर अध्ययन करता है । वह 'अन्तेवासी' होता है । शिक्षार्थी शिक्षक के सान्निध्य में रहकर उसके जीवन व्यवहारों से जितना सीखता है, उतना अन्य किसी प्रकार से नहीं। आज की दूरस्थ शिक्षा (Distance Education) में छात्र-शिक्षक के सम्बन्ध लुप्तप्राय हो रहे हैं। इन सम्बन्धों में निकटता की रक्षा हर प्रकार से की जानी चाहिए। इसे अधिकाधिक छात्रावासों की स्थापना से हल किया जा सकता है।
(iv) शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों में समानता, सेवा, स्नेह एवं सहयोग जैसे गुणों को भी विकसित | किया जाना चाहिए । भारतीय परिवेश में ये गुण सांस्कृतिक विरासत में मिलने चाहिए । परन्तु ऐसा भी नहीं हो रहा है । जैन शिक्षानुसार शिक्षक और शिष्य शिक्षण को आत्मशुद्धि का कार्य मानते हैं, व्यवसाय
नहीं। - शिक्षा के व्यापक अर्थ को लेकर इन बिन्दुओं पर पुनर्विचार करना अति आवश्यक है, क्योंकि अच्छे शिक्षकों-शिक्षार्थियों एवं उनके मधुर सम्बन्धों से ही कोई राष्ट्र वास्तविक अर्थ में समृद्ध और सम्पन्न बन सकता है।
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षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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क्या हम बदल गये हैं ?
-डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' साहित्यश्री एम० ए० (स्वर्ण पदक प्राप्त), पी-एच० डी०, डी० लिट प्राध्यापक : हिन्दी विभाग : दयालबाग एजूकेशनल इन्स्टीट्यूट
(गेम्ड विश्वविद्यालय), क्यालबाग आगरा
आप सोच रहे होंगे कि शायद यह वाक्य किसी कवि की कविता-पंक्ति है । जनाब, ऐसा नहीं 15 है। यह प्रश्न है मेरे जहन का। जो सायं की टहल के क्षणों में कौंध गया था। कई क्षण इस प्रश्न के। आपरेशन में बीत गये। सोच के गलियारों में कई बार चक्कर लगा आया। प्रश्न था कि जो बार-बार खिल-खिलाते हुए व्यवस्था-वातायन से झांक जाता-क्या हम बदल गये हैं ?
प्रश्न सुनकर आपके चेहरे पर नाराजगी की रंगत क्यों आ रही है ? क्या मैंने कोई अनुचित । बात कह दी है ? जी नहीं, जनाब ! हमारे रहन-सहन में, वेष-परिवेश में, खाँसने-विखारने में, खाने-पीने में, बोलने-चलने में क्या बदलाव नहीं आया है। सचमुच, हमारी प्रत्येक क्रिया में बदल के बादल छा ! गये हैं । शायद, हम अक्ल से ज्यादा अन्धता का भरोसा कर बैठे हैं। आज व्यक्ति का अपने ऊपर से विश्वास जो उठ गया है तभी तो वह बाहरी विश्वास के आकर्षण में लिपटा फँसा है। यह आत्मविश्वास-हीनता का कारवां श्रम, साधना और सृजन से हाथ धो बैठा है। शॉर्ट कट के लिए, छोटे रास्ते । के लिए, सुविधा के लिए, जल्दी लक्ष्य पर पहुँचने के लिए, कम प्रयत्न में अधिक पाने के लिए और कम ८ देकर ज्यादा कीमत वसूल करने के लिए आदमी आज का दौड़ रहा है। साधारण के लिए असाधारण को खोया जा रहा है। कितनी अबोधता है कि छोटे रास्ते से जल्दी मंजिल पाने की धुन में व्यक्ति अपने L को बरबाद कर रहा है। लोक को उचित चलना सडक का, चाहे फेर क्यों न हो कितनी सार्थक है। हम सही दिशा में गमन करें, सही राह पर चलें, भले ही वह राह लम्बो हो, ऊबड़-खाबड़ हो, देरी ही क्यों न हो?
आज व्यक्ति की दिमागी हालत पर विस्मय होता है कि वह अपने पिता पर, पत्र पर, पत्नी पर, मित्र पर विश्वास ही नहीं करता । वह बाहरी ताकतों पर, चमत्कारों पर भरोसा किया करता है। उसने अपना विश्वास, अपना ज्ञान बलाये ताक पर रख दिया है। वह किसी बहम के वशीभूत संयोग से प्राप्त सफलताओं में मस्त हो रहा है । "जितना करोगे उतना पाओगे" यह मन्त्र उसकी संकीर्ण समझ से उतर गया है । सचमुच वह भटक गया है। आज का समय और व्यक्ति का मानस युद्ध और संघर्ष से क्लान्त और दुष्कर्मों से उन्मन एवं उद्भ्रान्त है। तनाव का तांडव नृत्य चल रहा है । मन उलझनों की भूल-भुलैया में भटक रहा है। जीवन दुःखमय हो रहा है । क्यों न हो ? उसकी निष्ठा चमत्कारों की धार्मिक सट्ट'बाजी में रच-रम गई है। हाथों से श्रम की पतवार छूट गई है। सागर की गहराई के क्या ४५६
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कहने ? उसमें मोती हैं और मौत भी। छलांग लगाइये, देखिये, क्या पाते हैं ? सुख का घाट या फिर मौत के भंवर में फँसते-डूबते हैं । यह सवाल समय का मुंह देख रहा है।
सोचता है, क्या श्रम के उस सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व की पूर्ण अनुभूति हमें हो सकेगी? - क्या हम इसे छोटी-सी शब्द-आरती से अपनी इतिश्री नहीं समझे हुए हैं ? क्या हम वंचना का वरण " किये हुए नहीं हैं ? दूसरों को ही नहीं अपने को भी धोखा दे रहे हैं। लगता है आपको मेरा प्रश्न उलझा
हुआ लग रहा है । लीजिए, मैं उसके खोल को हटा देता हूँ। बहुत पहले किसी ने संन्यासी से पूछा था कि "श्रेष्ठ पिता कौन है ?" संन्यासी ने उत्तर दिया था-"वह पिता श्रेष्ठ है जो अपने पुत्र से पराजय का की कामना करे । जो चाहे कि मेरा पुत्र मुझसे हर बात में श्रेष्ठ हो, आगे हो।" जनाब ! आइये, हम अपने पिता से श्रेष्ठ बनें। हमारा जीवन हमारे परिवार को पहले से ऊँचा उठाने वाला हो, हम अपने
यग से आगे बढ़े. हमारा जीवन राष्ट्र को, युग को प्रगति देने वाला हो। हम अपने जीवन का मूल्य । आँकें और हम वही सब कुछ करें जिससे हमारी मुलाकात हमारे अभीष्ट से हो जाये । हमारे भाल पर गिरावट की कालिख न पुत-लिप जाय और हम उठे तथा हमारे साथ दूसरे सभी उठ जायें । सचमुच, हमारा जीवन श्रम और आस्था की रोशनी से जगमगा जायेगा।
एक बार चौराहे पर खड़े व्यक्ति ने सोचा कि मैं किस ओर बढ़ ? एक ओर उपदेश हैं तो दूसरी ओर आचरण । तीसरी ओर प्रचार है तो चौथी ओर मौन समाधि । किस राह पर चला जाये? वह निर्णय पर नहीं पहुँच पाया। संयोग से दीपक लिए एक अध्यात्मपुरुष का उधर से गुजरना 78) हआ। उसने व्यक्ति को अंधेरे में भटकते हए देखा तो अपने जलते दीपक से रोशनी दी-"राही! उपदेश ! । में गर्व होता है और आचरण में बलिदान । प्रचार में लोकषणा है और मौन में आत्मोपलब्धि।" कोरे * उपदेश से भला कौन किसे सुधार सकता है ? उसका उपदेश मोह-ममता में जो जकड़ा हुआ है । निःस्वार्थ
भाव से प्रदत्त उपदेश में एक सात्विक गौरव है। जनहित में किया गया नैतिक प्रचार लोकेषणा नहीं जीवनैषणा है । जिसको जो रुचे उसी मार्ग पर चल पड़े। बस, मर्यादा की मन्दाकिनी में अवगाहन अवश्य । न करता रहे।
व्यक्ति जब व्यक्ति रहता है तब क्रूरता, वध, असहिष्णता आदि की अभिव्यक्ति नहीं होती। , परन्तु जब उसकी इकाई समूह में विलीन हो जाती है, तब दोष उभर आते हैं । जहाँ दो होते हैं, वहीं
शत्रुता का भाव उगता-उपजता है और मैत्री की कल्पना भी जन्मती-पनपती है। जहाँ और जब शत्रु
भाव का उत्कर्ष होता है, तब जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है । सर्वत्र, व्यक्ति-व्यक्ति में, कुटुम्ब-कुटुम्ब १ में, समाज-समाज में, देश-देश में तथा राष्ट्र-राष्ट्र में अराजकता फैल जाती है और अशान्ति की कुहेलिका 1 मंडराने लगती है । जनजीवन जलता है और उसकी आहों से मिश्रित धूप की उमियों से सारा वाता
वरण विषमय बन जाता है । मित्रभाव का जब उत्कर्ष होता है, तब अशान्ति की अन्त्येष्टि हो जाती है । - सर्वत्र, शान्ति का साम्राज्य छा जाता है । वहाँ प्रत्येक व्यक्ति सुख से जीने लगता है और वह दूसरे के र सुख पूर्ण जीवन जीने के अधिकार में कभी हस्तक्षेप नहीं करता है।
आज शत्रु भाव चरम सीमा पर है । प्रत्यक्ष-परोक्ष परस्पर में सभी शत्रु हैं। इसे मिटाने के लिए मैत्री का दरवाजा खटखटाना होगा। हमें अभय, अनाक्रमण, विश्वास और सहिष्णुता की चार पहियों वाली गाड़ी में बैठना होगा। कहते हैं अभय का आधार निर्मोह है। मोह की न्यूनता अभय को बढ़ाती है और अभय से मोह की न्यूनता होती है । इस परिधि में मैत्री की लता फल-फूल सकती है।
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जब अपना स्वार्थ दूसरों पर हावी होना चाहता है, तब व्यक्ति तिलमिला उठता है । मित्र भी शत्रु-सा प्रतीत होने लगता है । ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आस्था का दीपक जलाना होगा। स्वार्थों और विचारों की विविधता में समानता का सौरभ महक उठेगा । उदारमना सहिष्णु होता है । इसके लिए वह विवश नहीं सहज होता है । अस्तु आक्रमण की बात ही नहीं आती। इस वृत्ति से अभय से की पय स्विनी बहने लगती है और जन-जन स्नेह-सिक्त हो जाता है। अभय और अनाक्रमण से विश्वास पनपता है। विश्वास मैत्री का आधार है, पुष्ट पोषक भी। दैहिक कष्टों को सहना शूरवीर जानते हैं किन्त वैचारिक असमानता को सहने वाले विरले होते हैं। सहना महानता की अनुपम कसौटी है। महात्मा ईशु ने संसार के लिए यह उपदेश दिया कि अपने शत्रु से भी प्यार करो। भगवान महावीर ने | कहा कि किसी को अपना शत्र ही मत समझो। असल में, किसी को शत्र न मानकर सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करना उत्तम है । उपचार होने से पूर्व रोग न होने देना अच्छा है।
मतभेद विचारों का हो या फिर आचार-विचार में मनमुटाव । वह पति-पत्नी में हो, पडौसीपडौसी में हो, जाति-जाति में हो, धर्म-धर्म में हो या राज्य-राज्य में हो, यदि उसमें सहि और सामंजस्य का तालमेल बैठ गया है तो क्या कहने ? जनाब ! आप सोच की खिड़की तो खोलिए । 'ताल' और 'मेल' शब्दों की गहराई में उतरिए । सचमुच, अपने विश्वास पर दृढ़, मजबूत रहते हुए भी दूसरे के विश्वास का आदर करके तो देखिए कि फिर हमारा जीवन आनन्द की वर्षा से भींग जाएगा।
(शेष पृष्ठ ४४८ का) ५ अनेक पहलू पर विचार करने और अन्ततः निचोड़ में अधिक हित की विद्यमानता का सार्वबोध कराता है।
आज के इस विषम वातावरण में अनेकान्तवाद की अहं आवश्यकता है। यद्यपि आज का व्यक्ति प्रगतिशील है किन्त उसकी यह प्रगति केवल भौतिक सख-साधनों में होने वाली वृद्धि तक ही सीमित है। आज आम आदमी सम्पन्नता को शायद प्रगति का प्रतीक मान बैठा है । पर यर्थात् उससे भी ऊपर उठा हुआ सत्य है कि 'प्रगति' केवल बाह्य सुख-साधनों का संचय करना ही नहीं है अपितु आन्तरिक आत्म-प्रदेश में भी जागृति लाना है। केवल लड-लड़कर अपने अस्तित्व की परिधि को समाप्त करना निरी-नादानी नहीं तो और क्या है ? हम किसी तथ्य के एक पहलू को ही ठीक और केवल ठीक मानकर अहम् के उच्च शिखर तक पहुँच गये हैं । कब टूटकर गिर जायें, इसका ज्ञान तो शायद हमें नहीं। है पर अपने ही ढोल की आवाज को व्यापक और सघन मान बैठना तो अपनी ही भूल होगी न ! अनेकान्त, अन्यों के विचारों को सुनने, समझने तथा उपयुक्तता की तह तक पहुँचने का मार्ग सुझाता है। तब व्यक्ति खण्ड-खण्ड नहीं अपितु अखण्डित होने की ओर उन्मुख होने लगता है। अतः यदि विवाद १ और हिंसा जैसी समस्या सुलझाना है तो हमें निश्चित ही अनेकान्तवाद की शरण में जाना होगा । शायद
वही अभीष्ट भी होगा।
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सर्वोदयी विचारों की अवधारणा के प्रेरक जैन.सिद्धान्त
-लक्ष्मीचन्द जैन 'सरोज' (एम० ए०)
भगवान महावीर के स्वर्णोपदेशों को अथवा धर्म रूपी तीर्थ को आचार्य प्रवर समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ संज्ञा दी है और ईसा की प्रथम सदी में ही सुस्पष्टतया यह घोषणा की है कि जैन सिद्धान्त अपनी पृष्ठभूमि में सर्वोदयी विचारों की अनेक अवधारणा लिए हैं।
सर्वोदय : धर्म-तीर्थ १. सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय, सबका कल्याण । एक मनीषी के विचार के धरातल में सर्वोदय वह उच्चतम शिखरस्थ मनोभावना है, जो विश्व-प्रेममयी है और स्व-पर कल्याणकारिणी है। यह आधुनिक आपाधापी के युग में अतीव आवश्यक या अनिवार्य इसलिए भी हो गई है कि इसका
सम्बन्ध प्राणी मात्र से जुड़ा है । चौरासी लाख योनियों के जीवात्माओं से यह सुदृढ़तम सम्बन्ध स्थापित 3 किये हैं। इसका मुलभत आधार 'आत्मवत्सर्वभतेष' है और एकात्मवाद का प्रचार
संवर्धन इसका उद्देश्य है । इसके क्षेत्र में स्वतन्त्रता और समानता, सह-अस्तित्व और भ्रातृत्व का क्षीरसागर लहरें मार रहा है। एक वाक्य में सर्वोदय जीवन मंगल, सत्य, शिव, सुन्दर शब्द है । शब्द कोश में यह शब्द है तो वह सफल है अन्यथा शब्दकोश निष्फल है । सर्वोदय वह शिखरस्थ शब्द है, जो आज भी विश्व व्यक्तियों का विशेषतया भगवान महावीर के पद-चिह्नों पर चलने वाले राजचन्द्र, काउण्ट लियो टालस्टाय, जॉन रस्किन, महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर, जार्ज बर्नार्डशा आदि के ध्यानआकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बना है और उनके अनुयायियों को आज भी प्रेरणा दे रहा है कि स्वार्थ के चक्रव्यूह से निकलकर परमार्थ के पथ पर उतने अग्रसर हो कि जितना भी शक्य और सम्भव हो अन्यथा वे आने वाली सदी का सहर्ष सहस्र बार स्वागत करने में अक्षम सिद्ध होंगे। जब तक व्यक्ति और समाज के लिए-रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या सुलझाने के लिए कार्य-आजीविका पूर्णतया न्यायमय नहीं मिलता है तब सामाजिक-धार्मिक जीवन भी सफल नहीं होगा।
२. सर्वोदय : धर्म-तीर्थ है। वह अपने में महर्षि कणाद् की अर्थ विषयक परिभाषा को आत्मसात् किये हैं। यह लौकिक अभ्युदय के साथ पारलौकिक निःश्रेयस् का भी आकांक्षी है। केवल जैनाचार्यों ने ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के आचार्यों ने भी सर्वोदयी : धर्म-तीर्थ की महिमा गाई है कि सभी सुखी हों, तथा नीरोग हों, सभी कल्याण देखें, किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो । समग्र संसार का कल्याण
-युक्त्यनुशासन
१ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । . सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ २ यतोऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्मः । ३ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिदुख भाग्भवेत् ।। षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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Sil हो, सभी प्राणी परस्पर पर-हित में निरत हों, फलतः दोष जड़-मूलतः नष्ट हों तो समग्र संसार सही अर्थों
में सुखी हो। सभी राज्यों की प्रजाओं का कल्याण हो, पृथ्वीपालक नरेश बलवान और धार्मिक हो, | वारिद समय-समय पर जल-वष्टि करें, इन्द्र सदृश श्रेष्ठ सज्जन पुरुष लोक की व्याधियों का विनाश करें,
क्षग भर के लिए भी लोक-जीवन में न कहीं दुर्भिक्ष हों और न स्तेयवृत्ति । जिनेन्द्र का धर्म-चक्र सभी प्राणियों के लिए सुख में सतत् अभिवृद्धि करे। ये पंक्तियाँ हैं पूजन के परिणाम सी शान्ति पाठ को।
३. यह कहना अथवा लिखना मुझ मन्दमति के लिए सम्भव नहीं कि वर्तमान में सर्वोदय और धर्म-तीर्थ में से किस शब्द का अधिक प्रयोग हो रहा है पर विस्मयमयी वार्ता यह है कि दोनों का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होने पर भी न तो सर्वोदयी समाज का सृजन हो रहा और धर्म-तीर्थ ही अपनी संज्ञा सार्थक कर पा रहा है। आज के समाज में समता की सरिता उतनी नहीं बढ़ी है जितनी विषमता को विषधरी बढी है और हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध छायावादी कवि समित्रानन्दन पन्त की 'गूजन' के शब्दों में जग के जन सुख-दुःख से अति पीड़ित हैं, जीवन के सुख-दुःख परस्पर बंट नहीं पा रहे हैं। सबका उदय सर्वोदय है पर सबको समान उन्नति के स्वर्ण अवसर मिल नहीं पा रहे हैं, समाज का प्रत्येक व्यक्ति प्रतिभा-योग्यता के बावजूद भी सर्वोच्च पद पर नियुक्त-प्रतिष्ठित नहीं हो पा रहा है, सभी पूर्ण सुखी
और ज्ञानी बनने में आज भी अक्षम हैं फलतः तथाकथित शब्द सर्वोदय : धर्म-तीर्थ अपने अन्तस्तल में विराट होकर भी बौने बने हैं; वे कह पाते तो मानव-समाज से अवश्य ही यह कहते कि विचारा शब्द क्या करे ? शब्द का अर्थ कोई भी नहीं जानता, भले-भटके कोई शब्द का अर्थ जानता भी तो कोई शब्द के भाव को धारण करना नहीं स्वीकारता, इसलिए व्यक्तिशः आर्थिक अभ्युदय हो रहा है पर औसतन उन्नति नहीं हो पा रही है। स्वार्थ की पूर्ति जितनी हो रही है उतनी परमार्थ की नहीं। संख्यातीत संस्थाएँ भी सर्वोदय : धर्म-तीर्थ को अब तक आगे नहीं बढ़ा पा रही हैं।
४. इसलिए आज के युग में अनिवार्य हो गया कि मौखिक जबानी सर्वोदय : धर्म-तीर्थ शब्द नहीं हो बल्कि मानवीय व्यवहृदय सर्वोदय : धर्मतीर्थ दैनिक जीवन में अवतरित हो तो मनुष्य देवता बने और पृथ्वी स्वर्ग बने । सर्व धर्म समभाव का जैसा सुस्पष्ट सर्वाधिक वर्णन जैनागमों में सहज सुलभ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। चूंकि समानता और स्वतन्त्रता भी सर्वोदय का मूलभूत आधार है । अतएव जैनधर्म में एक ईश्वर नहीं बल्कि असंख्यात ईश्वर सिद्धों के रूप में सम्मान्य किए गए। सभी आपत्तियों से सुरक्षित, सर्वोदय तीर्थ के प्रतिष्ठापक भगवान महावोर को वाणो में स्वतन्त्रता के साथ समानता को भो
शिवमस्तु सर्व जगतः परहितनिरताः भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः । काले काले च'सम्यग्वर्षतु मेघा व्याधयो यान्तु नाशम् ।। दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके ।
जैनेन्द्र धर्म-चक्र प्रभवतु सततं सर्व सौख्यप्रदायि ।। ३ जग पीड़ित है, अति सुख से ।
मानव-जीवन में पॅट जावे। जग पीड़ित है, अति दुख से ।।
सुख दुख से औ दुख सुख से ॥ ४ इकसिद्ध में सिद्ध अनन्तजान । अपनी अपनी सत्ता प्रमान । ४६०
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महत्वपूर्ण स्थान मिला है, उनकी धर्म-सभा या समवसरण में नर-नारी, पशु-पक्षी सभी को धर्म-श्रवण कर धारण करने का और आत्मविकास करने का स्वर्ण अवसर मिला था; किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। वस्तु और व्यक्ति स्वातन्त्र्य, पूर्वापर ऊहापोहमयी सुविचारित परम्परा ही वीर-वाणी में अतीत में ग्राह्य हुई, आज ढाई सहस्रवर्ष बाद भी ग्राह्य है और अनागत में भी (अन्य तीर्थकर नहीं होने । तक) बखूबी ग्राह्य रहेगी।
५. सर्वोदय और धर्म-तीर्थ, दोनों परस्पर पूरक हैं। जिस समाज-राष्ट्र-विश्व में सर्वोदय की भावना नहीं है, वह समाज-राष्ट्र-विश्व अनुदार होने से असफल है। जिस समाज-देश-विश्व में धर्मतीर्थ की स्थापना का मनोभाव नहीं है वह समाज-देश-विश्व भी संकुचित अनुदार होने से असफल है। सफलता के लिए आकाश सी विराटता, पृथ्वी सी सहिष्णुता अपेक्षित है। केवल इतना ही नहीं बल्कि दुरंगी दुनियां सी दुहरी ऊहापोहमयी नीति और जीवाजीवतत्वमयी सुचेतना भी चाहिये । देवता में जहाँ वोतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता चाहिये वहाँ शास्त्र में देव-प्रणीत अविरोध पूर्वापर एकरूपता हितग्राहिता होनी चाहिये और गुरु में विषय-वासना से मुक्ति, अयाचकता-आपेक्षता चाहिए और लोकालोक मांगल्य की भावना चाहिए । सर्वोदय-धर्मतीर्थ का सम्मेलन तो गंगा-जमुना के संगम सा सुखद है, दोनों का विरोध और वियोग तो दोनों के लिए घातक है। दोनों के अभाव में तो जीवन मृत्यु का अन्य नाम हो जावेगा।
सर्वोदय-धर्म-तीर्थ-सिद्धान्त ६. सर्वोदय का आधार समानता है और धर्म-तीर्थ भी समानता की घोषणा करता है । जैसे - सर्वोदय के क्षेत्र में व्यक्तिगत भेदभाव को स्थान नहीं है वैसे ही धर्म-तीर्थ-क्षेत्र की परिधि में भी किसी
प्रकार का अलगाव-बदलाव-दुराव नहीं है । ईसा की प्रथम सदी में ही आचार्य प्रवर उमास्वामी ने अपने , अमर ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्र या मोक्ष शास्त्र में मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता भावनाओं के निरन्तर चिन्तवन की बात लिखी है। वही बात दसवीं शताब्दी में आचार्य अमितगति ने अपनी भावना बत्तीसी (संस्कृत कविता) के प्रथम श्लोक में प्रकारान्तर से लिपिबद्ध की है तथा पूर्वोक्त चारों भावनाओं के 10 सन्दर्भ को लिए हुए जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' ने अपनी अमर कविता या राष्ट्र-प्रार्थना अथवा 'मेरी भावना' में भी आचार्यों की परम्परा का प्रसार और निर्वाह किया है। मंत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता में सर्वोदय की भावना अधिक है या धर्म-तीर्थ की कामना अधिक है ? वह तो विद्वानों के विचारने की वार्ता है, मैं मन्दमति तो इतना ही लिख सकता हूँ कि यदि जीवन कला है तो पूर्वोक्त चारों भावनाओं का आधार लेकर कोई भी शीर्षस्थ सर्वोदयी बन सकता है और धर्म-तीर्थ के
-अ०७ स० ११
१. मैत्री प्रमोद कारुण्यं माध्यस्थानि च सत्व गुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु । २. सत्वेषु मंत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् ।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विदधात देवः ।। मैत्री भावजगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन क्रू र कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ।।
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शिखर पर आसीन हो सकता है। इस दिशा में सूर्य सत्य यह भी है कि पूर्वोक्त चारों भावनाओं के प्रयोग से ही वर्तमान विकल विश्व सुख-शान्ति पावेगा।
७. सर्वोदय धर्म-तीर्थ का अन्य आधार व्रत धारी होना है। जीवनधारा सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान हो, इसके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि व्यक्ति श्रावक अथवा नागरिक रूप में श्रद्धा-विवेक-क्रिया लिए अणुव्रती बने । वह पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत स्वीकार किये उज्ज्वल जीवन जीने की कला सीखे । 'जिओ और जीने दो' की भावना का ज्वलन्त उदाहरण बने। व्रत-विहीन होकर वर्षाकालीन सरिता सी भोग विलासमयी बाढ़ नहीं लादे अन्यथा अपने साथ अन्य जनों का भी अकल्याण करेगा । वह हिंसा के क्षेत्र में संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्यागी हो और आरम्भी, उद्योगी, विरोधी हिंसा में भी सावधानी का परिचय देता रहे । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का शक्तिशः और व्यक्तिशः पालन अनिवार्यतः हो। वह एक हाथ से जुटावे तो दस हाथ से लुटाने का भाव रखे । महाव्रत को स्वीकार कर साधु, श्रमण बने तो भोग से योग, शरीर से आत्मा, सष्टि से शिव की ओर चलने का सतत सुदृढ़ सत्संकल्प करे । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करने में अणु भर भी प्रमाद नहीं करे प्रत्युत संयम को ही जीवन समझे । कम से कम लेकर समाज को अधिक से अधिक देने के लिए। सन्नद्ध रहे। मानवीय दैनिक जीवन में वह अपना एक सुस्पष्ट सुभेदक चिह्न अवश्य लगावे, जिससे समग्र समाज उसके पद-चिह्नों पर चलने के लिए अतीव आतुर हो । जीवन के अन्तिम क्षणों में सल्लेखना या समाधिमरण के लिए श्रावक और श्रमण दोनों ही प्रयत्न करें जिससे उन्हें चारों गतियों से मुक्ति मिले ।
८. अप्पा सो परमप्पा यह सर्वोदय : धर्मतीर्थ का अनन्यतम सिद्धान्त है अर्थात् आत्मा सो परमात्मा या नर ही नारायण है । आत्म तत्व की निश्चयात्मक दृष्टि से सभी जीव समान हैं। निगोदराशि और सिद्ध शिला आसीन जीव में आत्मिक दृष्टि से अन्तर नहीं है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है । जैनाचार्यों ने आत्मा के तीन प्रकार स्वीकार किए हैं-(१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा । जो पूर्णतया बहिर्मुखी है, विषय-वासना-भक्त है, धर्म-कर्म से सुदूर है, तो लोकायत सदृश चारुवाक् या चार्वाक है, जो लोक को ही मान्यता देकर, केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर अन्यत्र आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, जो देह और आत्मा को एक-विपरीत अन्यथा मानता है वह बहिरात्मा है। यह लोक मांगल्य की आड़ लेकर पुनर्जन्म को नकारता है और आत्मा को भी शरीर सदृश मरणशील मानता है । जो जल में भिन्न कमल सा जीवन जीता है, जो सांसारिक विषयवासनाओं के प्रति विराग-विरक्ति का भाव लिए है, जो लौकिक कार्यों की अपेक्षा धार्मिक कार्यों को अधिक महत्व देता है, जो अपने लिए संसारवर्धक काया-माया-बाल-जाल से बचता है जो व्रताचारी, अणव्रती, महाव्रती बन गया है, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। जिसकी दृष्टि अन्तर्मुखी है वह अन्तरात्मा । है । जो विषय-वासना और आरम्भ-परिग्रह रहित है तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन है वह तपस्वी
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अन्ते समाहिम रणं चउगइ दुक्खं निवारेई।। बहिरात्मा अन्तरआत्म परमातम जीव त्रिधा है। देहजीव को एक गिने बहिरातम तत्व मुधा है। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी । मध्यम अन्तरआतम हैं जे देशवती आगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टी तीनों शिव-मगचारी।
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साधु आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि से प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि परमात्मा बनने का भी पात्र है ।' साधु स्वादु नहीं होता है, मुनि मनमार होता है, यति संसार में विराम/विश्राम नहीं चाहता है, अनगार कहीं . भी घर नहीं बनाता है बल्कि मोह क्षीण करके, निर्ग्रन्थ स्नातक जिनकेवलज्ञानी होता है लेवलज्ञानी नहीं । - अर्हन्त जीवन्मुक्त सकल परमात्मा हैं और सिद्ध निकल परमात्मा है । बहिरात्मा १ से ३ गुणस्थान तक हैं। ४ से १२ तक अन्तरात्मा हैं । १३-१४ तक परमात्मा हैं । सिद्ध गुणस्थानातीत है।
६. सर्वोदय : धर्मतीर्थ-आत्मज्ञान का प्रतिष्ठापक है । आत्मा और ज्ञान अभिन्न है । आत्माS ज्ञाता दृष्टा है, ज्ञानी दर्शक है । आत्मज्ञान ही स्वयं का ज्ञान है । प्रत्येक ज्ञानी द्रव्याहिंसा और भावहिंसा l को पूर्णतया सर्वथा हेय ही मानता है भले वह अपनी दुर्वलता के कारण पूर्णतया हिंसा का त्याग करने में . असमर्थ रहे, पर अपनी शक्ति के अनुसार वह त्याग-तपस्या स्वीकारता है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और १ तप की आराधना अंगीकार करता है । बहिरात्मा बहिर्मुखी अशुभ भावी होता है । अन्तरात्मा अन्तर्मुखी की बहभाग में शुभ भावी होता है। परमात्मा पूर्णतया शुद्ध भावी ज्ञाता-दृष्टा भावातीत तुल्य होता है।
आत्मा जीव की निधि है इसलिए जीव जीवित रहा था, रहा है, रहेगा सही है । बहिरात्मा अन्तरात्मा हो और अन्तरात्मा परमात्मा हो । यही काम्य और ग्राह्य हो।
१०. सर्वोदय-धर्म तीर्थ का एक विशिष्ट सिद्धान्त स्वतन्त्रता व समानता है। जैसे पुद्गलजन्य शरीर सभी का पृथक है वैसे ही सभी जीवों की आत्मा भी स्वतन्त्र है, जैसे शरीर के परमाणु स्वतन्त्र समान हैं वैसे ही आत्मा के प्रदेश भी स्वतन्त्र समान है। आत्मा शरीर के आधीन नहीं है और शरीर आत्मा के आधीन नहीं है । यदि आत्मा शरीर के आधीन होता तो कदापि त्रिकाल में भी कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता और शरीर आत्मा के आधोन होता तो संसार के प्राणियों के समान ही सिद्धों के साथ भी होता । शरीर और आत्मा-पानी और दूध से एक क्षेत्रावगाही होकर मिले भले रहे हों, पर वे एक नहीं पृथक है । प्रत्येक आत्मा प्रत्येक शरीर स्वतन्त्र है, कोई किसी के आधीन नही है । सब आत्माएं समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं, सभी के प्रदेश बराबर हैं। प्रत्येक आत्मा सूविकसित होकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य सम्पन्न अर्हन्त हो सकती है । आत्मा ही नहीं, बल्कि सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ समान रूप से स्वतन्त्रता लिए परिणमनशील है । अपने को पहचानना प्रकारान्तर से अर्हन्त को पहचानना है । आत्मधर्म का चरम विकास होना यानी अर्हन्त (जीवन्मुक्त) और सिद्ध (सर्वदा को मुक्त) होना है।
११. सर्वोदय-धर्मतीर्थ भेद-विज्ञान मूलक है। पुद्गलजन्य शरीर जड़ है, ज्ञानमूलक आत्मा चेतन है । शरीर, शस्त्र से कटता है, अग्नि में जलता है, पानी में गलता है, हवा से सूखता है, पर आत्मा न शस्त्र से कटता है, न आग में जलता है, न पानी में गलता है, न वायु से सूखता है। शरीर रूपरस-गन्ध-स्पर्शमय दृश्य है पर आत्मा अरूप-अरस-अगन्ध-अस्पृश्य अदृश्य है । जो आत्मा है वह शरीर नहीं, और जो शरीर है वंह आत्मा नहीं, गुण-कर्म विभाजन सूर्य प्रकाश-सा सुस्पष्ट है । स्व-पर भेद
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१ विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः ।
ज्ञान ध्यान तपो रक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ॥ २ श्री अरहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी ।
ज्ञान शरीरी विविध कर्ममल वजित सिद्ध महन्ता । | ३ नंनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैन क्लेदयन्त्यापे न शोषयति मारुतः ।।
-भगवद्गीता अ.५
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विज्ञान जैन ग्रन्थों में मौलिकता लिए है। इसे ही लक्ष्य कर गीता में सम्भवतः यह पंक्ति लिखी गई । होगी कि स्व अपने (आत्मा के) धर्म पर जाना अच्छा है परन्तु पर अन्य (शरीर के) धर्म को स्वीकारना | निरापद नहीं है। जितने या अर्हन्त सिद्ध हुए वे सभी भेदविज्ञान के कारण हुए। अल्पज्ञानी शिवभुति । ने भेदविज्ञानी होकर मोक्ष पा लिया, पर बहुज्ञानी अभव्यसेन भेदविज्ञान बिना संसार की ही शोभा या बढ़ाते रहे । लोक जीवन में भी भेद-विज्ञान का अपना महत्व है।
१२. षटखण्डागम का दोहन करके आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड ग्रन्थ लिखे । जीव ८ काण्ड में जीब की परिभाषा आचार्य श्री ने यह लिखी-जो अतीत में जीता था, वर्तमान में जी रहा है, अनागत में जीवेगा, वह जीव है । जीव के स्वरूप को मार्गणा अधिकार की एक गाथा के माध्यम से संक्षेप में इस प्रकार भी समझा-समझाया जा सकेगा कि
(१) गति-नरक-तियञ्च, मनुष्य-देव गति के अतिरिक्त सिद्ध गति में भी जीव हैं । (२) इन्द्रिय-एक इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक के जीव इसमें आते हैं । (3) काय-औदारिक-वैक्रियक-आहारक-तैजस-कार्माण शरीर वाले जीव हैं। (४) योग-मन-वचन-काय योग वाले जीव हैं । सभी जीव ४ से १० प्राण वाले हैं। (५) वेद- स्त्रीवेद, पुवेद और नपुसकवेद वाले जीव हैं । अन्य वेदी नहीं है।
(६) कषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय वाले जीव हैं । ८, १६ और २५ कषाय वाले जीव हैं । अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, संज्वलन कषाय वाले जीव हैं । कषाय करने वाले नहीं बल्कि निष्कषाय जीव शीघ्र मुक्ति पाते हैं।
(७) मति, श्र त-अवधि-मनः पर्याय और केवलज्ञान वाले भी जीव है । दो ज्ञान मति-श्रुत सभी के होते हैं । एक जीव के अधिक से अधिक चार ज्ञान होते हैं ।
(८) संयम-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार यथोचित संयम रखते हैं।
(६) दर्शन-अपनी योग्यतानुसार चक्ष दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन वाले भी जीव ही हैं । ज्ञान से पहले दर्शन होता ही है ।।
(१०) अपने कर्मानुसार कषाय और योगमूलक छह लेश्यायें भी जीवों के ही होती हैं । लेश्याओं के नाम कृष्ण-नील-कापोत-पीत-पद्म-शुक्ल हैं। लेश्या के दो भेद हैं -एक द्रव्यलेश्या दूसरी भावलेश्या। भावलेश्या द्रव्यलेश्या से जल्दी बदलती है।
(११) भव्य-वह है जो सम्यग्दृष्टि है जिसे मुक्तिश्री मिलने की सम्भावना है । जीवत्व, भव्यत्व अभव्यत्व इन तीन भावों वाले भी जीव ही हैं।।
(१२) सम्यक्त्व-चारों गतियों में अपने साधनों की अपेक्षा लिए सम्भव है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तीन भेद सम्यक्त्व के हैं।
(१३) संज्ञी -संज्ञी (सैनी/समनस्क) असंज्ञी (असैनी/अमनस्क) भी जीव हैं।
(१४) आहार-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाव मन पर्याप्ति वाले भी जीव ही हैं। कर्म नोकम जैसे आहारों वाले जीव ही हैं । आहार करने वाले और आहार न करने वाले भी जीव
(शेष पृष्ठ ४७४ पर) १ स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । १२ गइ इंदियेसु काये जोगे वेद कसाय णाणे य । संजमदंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ।
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ध्यान : एक विमर्श
- डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य
यों तो सभी धर्मों और दर्शनों में ध्यान, समाधि या योग का अल्पाधिक प्रतिपादन है । योगदर्शन तो उसी पर आधृत है और योग के सूक्ष्म चिन्तन को लिए हुए है । पर योग का लक्ष्य अणिमा, महिमा, वशित्व आदि ऋद्धियों की उपलब्धि है और योगी उनकी प्राप्ति के लिए योगाराधन करता है । योग द्वारा ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयोजन भी लौकिक प्रभाव दर्शन, चमत्कार - प्रदर्शन आदि है । मुक्ति-लाभ भी योग का एक उद्देश्य है । पर वह योग दर्शन में गौण है ।
जैन दर्शन में ध्यान का लक्ष्य मुख्यतया आध्यात्मिक है । और वह है आत्मा से चिर-संचित कर्ममलों को हटाना और आत्मा को निर्मल बनाकर परमात्मा बनाना । नये कर्मों को न आने देना और संचित कर्मों को छुड़ाना इन दोनों से कर्ममुक्ति प्राप्त करना ध्यान का प्रयोजन है । यद्यपि योगी को योग के प्रभाव से अनेकानेक ऋद्धियाँ सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । किन्तु उसको दृष्टि में वे प्राप्य नहीं हैं, मात्र आनुषङ्गिक है । उनसे उसका न लगाव होता है और न उसके लिए वह ध्यान करता है । वे तथा स्वर्ग आदि की सम्पदाएँ उसे उसी प्रकार प्राप्त होती हैं जिस प्रकार किसान को चावलों के साथ भूसा अप्रार्थित मिल जाता है । किसान भूसा को प्राप्त करने का न लक्ष्य रखता है और न उसके लिए प्रयास ही करता है । योगी भी योग का आरावन मात्र कर्म-निरोध और कर्म - निर्जरा के लिए करता है । यदि कोई योगी उन ऋद्धि-सिद्धियों में उलझता है - उनमें लुभित होता है तो वह योग के वास्तविक लाभ से वचित होता है । तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ ने स्पष्ट लिखा है कि तप ( ध्यान ) से संवर (कर्मास्रव निरोध) और निर्जरा ( संचित कर्मों का अभाव ) दोनों होते हैं । आचार्य रामसेन ने भी अपने तत्त्वानुशासन में ध्यान को संवर तथा निर्जरा का कारण बतलाया है । संवर और निर्जरा दोनों से कर्माभाव होता है और समस्त कर्माभाव ही मोक्ष है । इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन में ध्यान का आध्यात्मिक लाभ मुख्य है ।
ध्यान की आवश्यकता
ध्यान की आवश्यकता पर बल देते हुए द्रव्य संग्रहकार नेमिचन्द्र सिद्धान्ति देव ने लिखा है कि 'मुक्ति का उपाय रत्नत्रय है और वह व्यवहार तथा निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है । यह दोनों
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१ 'आस्रवनिरोधः संवर:', 'तपसा निर्जरा च ' -त. सू. ६-१, ३ ।
२ ' तद् ध्यानं निर्जरा हेतुः संवरस्य च कारणम् ' -- तत्वानु. ५६ ।
३ ' बन्धहेत्वभाव - निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः । ' - त. सू. १०-२ ।
४ दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदिजं मुणी नियमा ।
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पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ||
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प्रकार का रत्नत्रय ध्यान से ही उपलभ्य है। अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मुनि को निरन्तर ध्यान का । अभ्यास करना चाहिए । आ. अमृतचन्द्र भी यही कहते हैं। यथार्थ में ध्यान में जब योगी अपने से भिन्न र किसी दूसरे मन्त्रादि पदार्थ का अवलम्बन लेकर अरहन्त आदि को अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण का विषय बनाता है तब वह व्यवहार मोक्षमार्ग है और जब केवल अपने आत्मा का अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण का विषय बनाता है तब वह निश्चय मोक्ष-मार्ग है। अतः मोक्ष के
साधनभूत रत्नत्रय-मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए योगी को ध्यान करना बहुत आवश्यक है। GAL ध्यान की दुर्लभता
मनुष्य के चिरन्तन संस्कार उसे विषय-वासनाओं की ओर ही ले जाते हैं और इन संस्कारों की जनिका एवं उद्बोधिका पाँचों इन्द्रियाँ तो हैं ही, मन तो उन्हें ऐसी प्रेरणा देता है कि वे न जाने योग्य स्थान में भी प्रवृत्त हो जाती हैं। फलतः मनुष्य सदा इन्द्रियों और मन का दास बनकर उचित-अनुचित प्रवृत्ति करता है। परिणाम यह होता है कि वह निरन्तर राग-द्वेष की भट्टी में जलता रहता एवं कष्ट उठाता रहता है । आचार्य अमितगति ने ठीक लिखा है कि जीव संयोग के कारण दुःख परम्परा को प्राप्त होता है। अगर वह इस तथ्य को एक बार भी विवेकपूर्वक समझ ले, तो उस संयोग के छोड़ने में उसे एक क्षण भी नहीं लगेगा। तत्त्वज्ञान से क्या असम्भव है ? यह तत्त्वज्ञान श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान ध्यान है। अतः ध्यान के अभ्यास के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण । जब तक उन पर नियन्त्रण न होगा तब तक मनुष्य विषय-वासनाओं में डूबा रहेगा-आसक्त रहेगा और कष्टों को उठाता रहेगा। पर यह तथ्य है कि कष्ट या दुःख किसी को इष्ट नहीं है-सभी सुख और शान्ति चाहते हैं । जब वास्तविक स्थिति यह है तब मनुष्य को सद्गुरुओं के उपदेश से या शास्त्र ज्ञान से उक्त तथ्य को समझकर विषय-वासनाओं में ले जाने वाली इन्द्रियों तथा मन पर नियन्त्रण करना जरूरी है।
उनके नियन्त्रित होने पर मनुष्य अपनी प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी अवश्य करेगा, क्योंकि मनुष्य का आत्मा की 1 ओर लगाव होने पर इन्द्रियाँ और मन निविषय हो जाते हैं। अग्नि को ईंधन न मिलने पर वह जैसे बुझ जाती है।
यह सच है कि इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण करना सरल नहीं है, अति दुष्कर है। किन्तु यह भी सच है कि वह असम्भव नहीं है। सामान्य मनुष्य और असामान्य मनुष्य में यही अन्तर है कि जो कार्य सामान्य मनुष्य के लिए कठिन और दुष्कर होता है वही कार्य असामान्य मनुष्य के लिये सम्भव होता है। अतः इन्द्रियों और मन को प्रारम्भ में नियन्त्रित करना कठिन मालूम पड़ता है। पर संकल्प और दृढ़ता के साथ उन पर नियन्त्रण पाने का प्रयास करने पर उन पर विजय पा ली जा सकती है। उसके प्रधान दो उपाय हैं-१. पारमात्मभक्ति और २. शास्त्रज्ञान । परमात्मभक्ति के लिये पंच परमेष्ठी का जप, स्मरण और गुणकीर्तन आवश्यक है। उसे ही अपना शरण (अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम) माना जाय । इससे आत्मा में विचित्र प्रकार की शुद्धि आती है। मन और वाणी निर्मल होते हैं । और उनके निर्मल होते ही आत्मा का झुकाव ध्यान की ओर होता है तथा ध्यान के द्वारा उपर्युक्त
१ निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।
-तत्वार्थ सार २ संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःख परम्परा । तस्मात्संयोग सम्बन्धं त्रिधा सर्व त्यजाम्यहम् ॥
-सामायिक पाठ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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दोनों प्रकार का मोक्षमार्ग प्राप्त होता है ! परमात्मभक्ति में उन सब मन्त्रों का जाप किया जाता है, जिनमें केवल अर्हत्, केवल सिद्ध, केवल आचार्य, केवल उपाध्याय, केवल मुनि या सभी को स्मरण किया जाता है । आचार्य विद्यानन्द ने लिखा है कि-परमेष्ठी की भक्ति (स्मरण, कीर्तन, ध्यान) से निश्चय ही श्रेयोमार्ग की संसिद्धि होती है । इसी से उसका स्तवन बड़े-बड़े मुनिश्रेष्ठों ने किया है।
इन्द्रियों और मन को वश में करने का दूसरा उपाय श्रुतज्ञान है । यह श्रु तज्ञान सम्यक्शास्त्रों के अनुशीलन, मनन और सतत अध्यास से प्राप्त होता है । वास्तव में जब मन का व्यापार शास्त्रस्वाध्याय में लगा होता है-उसके शब्द और अर्थ के चिन्तन में संलग्न होता है तो वह अन्यत्र नहीं जाता। और जब वह अन्यत्र नहीं जायेगा, तो इन्द्रियाँ विषय-विमुख हो जावेगी। वस्तुतः इन्द्रियाँ मन के सहयोग से सबल रहती हैं। इसीलिये मन को ही बन्ध और मोक्ष का कारण कहा गया है । शास्त्र-स्वाध्याय मन को नियन्त्रित करने के लिए एक अमोघ उपाय है। इसी से "स्वाध्यायं परमं तपः" स्वाध्याय को परम तप कहा गया है।
ये दो उपाय हैं इन्द्रियों और मन को नियन्त्रित करने के। इनके नियन्त्रित हो जाने पर ध्यान हो सकता है । अन्य सब ओर से चित्त की वृत्तियों को एक विषय में स्थिर करने का नाम ही ध्यान है। चित्त को जब तक एक ओर केन्द्रित नहीं किया जाता तब तक न आत्मदर्शन होता है और न आत्मज्ञान होता है, न आत्मा में आत्मा की चर्या । और जब तक ये तीनों प्राप्त नहीं होते तब तक दोषों और उनके जनक आवरणों की निवृत्ति सम्भव नहीं। तत्त्वानुशासन में आचार्य रामसेन कहते हैं कि जिस प्रकार सतत अभ्यास से महाशास्त्र भी अभ्यस्त हो जाते हैं उसी प्रकार निरन्तर के ध्यानाभ्यास से ध्यान भी सुस्थिर हो जाता है। वे कहते हैं कि 'हे योगिन् ! यदि तू संसार बन्धन से छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को ग्रहण करके बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादिक के त्यागपूर्वक निरन्तर सध्यान का अभ्यास कर । ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह का नाश कर चरमशरीरी योगी तो उसी पर्याय में मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और जो चरमशरीरी नहीं है, वह उत्तम देवादि की आयु प्राप्त कर क्रमशः कुछ भवों में मुक्ति पा लेता है। यह ध्यान का ही अपूर्व माहात्म्य है।'
निःसन्देह ध्यान एक ऐसा अमोघ प्रयास है जो इस लोक और परलोक दोनों में आत्मा को सुखी बनाता है। यह गृहस्थ और मुनि दोनों के लिये अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार हितकारी है। ध्यान के इस महत्त्व को समझकर उसे अवश्य करना चाहिये। तत्त्वार्थ सूत्र, ज्ञानार्णव आदि में इसका विशेष विवेचन है।
-आप्तपरीक्षा, का. २१
१ श्रेयोमार्गसंसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । . इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौमुनिपुङ्गवाः ।।
यथाऽभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युम हान्त्यपि ।
तथा ध्यानमपि स्थैर्य लभतेऽभ्यासवर्तिनाम् ॥ ३ वही, श्लोक २२३, २२४ ।
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सती प्रथा और जैनधर्म
-प्रो० सागरमल जैन (निदेशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी)
'सती' शब्द का अर्थ
__'सती' की अवधारणा जैनधर्म और हिन्दूधर्म दोनों में ही पाई जाती है। दोनों में सती शब्द का प्रयोग चरित्रवान स्त्री के लिए होता है। श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा में तो आज भी साध्वी/श्रमणी को सती या महासती कहा जाता है। यद्यपि प्रारम्भ में हिन्दू परम्परा में 'सती' का तात्पर्य एक चरित्रवान या शीलवान स्त्री ही था, किन्तु आगे चलकर हिन्दू परम्परा में जबसे सती प्रथा का विकास हुआ, तब से यह 'सती' शब्द एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतया हिन्दूधर्म में 'सती' शब्द का प्रयोग उस स्त्री के लिए होता है जो अपने पति की चिता में स्वयं को जला देती है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि जैनधर्म की 'सती' की अवधारणा हिन्दू परम्परा की सतीप्रथा से पूर्णतः भिन्न है। यद्यपि जैनधर्म में 'सती' एवं 'सतीत्व' को पूर्ण सम्मान प्राप्त है किन्तु उसमें सतीप्रथा का समर्थन नहीं है।
जैनधर्म में प्रसिद्ध सोलह सतियों के कथानक उपलब्ध है और जैनधर्मानुयायी तीर्थंकरों के नाम स्मरण के साथ इनका भी प्रातःकाल नाम स्मरण करते हैं
ब्राह्मी चन्दनबालिका, भगवती राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा ।। कुन्ती शीलवती नलस्यदयिता चूला प्रभावत्यपि ।
पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥ इन सतियों के उल्लेख एवं जीवनवृत्त जैनागमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य तथा प्राचीन जैनकाव्यों एवं पुराणों में मिलते हैं। किन्तु उनके जीवनवृत्तों से ज्ञात होता है कि इनमें से एक भी ऐसी नहीं है, जिसने पति की मृत्यु पर उसके साथ चिता में जलकर उसका अनुगमन किया हो, अपितु ये उन वीरांगनाओं के चरित्र हैं जिन्होंने अपने शील रक्षा हेतु कठोर संघर्ष किया और या तो साध्वी
१ देखें-संस्कृत-हिन्दी कोश (आप्टे) पृ० १०६२ २ देखें-हिन्दू धर्म कोश (राजबली पाण्डेय) पृ. ६४६ N३ जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह भाग ५ प. १८५ ४ ब्राह्मी आदि इन सोलह सतियों के जीवनवृत्त किन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में है, इसलिए देखें
(अ) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग ५ पृ० ३७५ (a) Prakrit Proper Names, part I and II
सम्बन्धित नाम के प्राकृतरूपों के आधार पर देखिये ।
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जीवन स्वीकार कर भिक्षुणी संघ में प्रविष्ट हो गईं या फिर शीलरक्षा हेतु मृत्यु अपरिहार्य होने की स्थिति में मृत्युवरण कर लिया। आगमिक व्याख्या साहित्य में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता घारिणी आदि कुछ ऐसी स्त्रियों के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने सतीत्व अर्थात् शील की रक्षा के लिए देहोत्सर्ग कर दिया । अतः जैनधर्म में सती स्त्री वह नहीं जो पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर उसका अनुगमन करती है अपितु वह है जो कठिन परिस्थितियों में अपनी शीलरक्षा का प्रयत्न करती है और अपने शील को खण्डित नहीं होने देती है, चाहे इस हेतु उसे देहोत्सर्ग ही क्यों न
A करना पड़े।
ARE
ASKRRY.
सती प्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न
सतीप्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न एक बहुचर्चित और ज्वलन्त प्रश्न के रूप में आज भी उपस्थित है। निश्चित ही यह प्रथा पुरुष-प्रधान संस्कृति का एक अभिशप्त-परिणाम है । यद्यपि इतिहास के कुछ विद्वान, इस प्रथा के प्रचलन का कारण मुस्लिमों के आक्रमणों के फलस्वरूप नारी में उत्पन्न असुरक्षा की भावना एवं उसके शील-भंग हेतु बलात्कार की प्रवृत्ति को मानते हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में इस प्रथा के बीज और प्रकारान्तर से उसकी उपस्थिति के प्रमाण हमें अति प्राचीनकाल से ही मिलते हैं । सती प्रथा के मुख्यतः दो रूप माने जा सकते हैं, प्रथम रूप जो इस प्रथा का वीभत्स रूप है इसमें नारी को उसकी इच्छा के विपरीत पति के शव के साथ मत्यूवरण को विवश किया जाता है। दूसरा रूप वह है जिसमें पति की मृत्यु पर भावुकतावश स्त्री स्वेच्छा से पति के प्रति अपने अनन्य प्रेम
के कारण मृत्यु का वरण करती है। कभी-कभी वह इसलिए भी पति की चिता पर अपना देहात्सर्ग कर 30 देती है कि भावी जन्म में उसे पुनः उसी पति की प्राप्ति होगी। जैनाचार्यों ने सती-प्रथा के इन रूपों को
उचित नहीं माना है। किन्तु इन रूपों से भिन्न एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने उचित माना है जिसमें स्त्री-मात्र अपने शील की रक्षा के लिए पति के जीवित रहते हए या पति की मत्यु के उपरान्त मृत्यु का वरण कर देहोत्सर्ग कर देती है।
उपर्युक्त स्थितियों में जहाँ तक पति के स्वर्गवास के पश्चात् उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मात्र इस विचार से कि परलोक में वह उसे उपलब्ध होगी उसके साथ दफना देने या जला देने की प्रथा का प्रश्न है, यह अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मिस्र में भी इस प्रथा के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, यह पुरुष-प्रधान संस्कृति का सर्वाधिक घृणित रूप था, जिसमें स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु थी और उसके उपभोग की अन्य वस्तुओं के समान उसे भी उसके साथ दफनाना आवश्यक माना जाता था। जहां तक जैनधर्म और उसके साहित्य का प्रश्न है, हमें ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है, जहाँ इस प्रथा का उल्लेख और इसे अनुमोदन प्राप्त हो। यद्यपि जैनकथा साहित्य में ऐसे उल्लेख अवश्य मिलते हैं, जिसमें एक भव के पति-पत्नी अनेक भवों तक पति-पत्नी के रूप में एक दूसरों को
उपलब्ध होते रहे हैं, किन्तु किसी भी घटना में ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला, जहाँ मात्र इसी * प्रयोजन से स्त्री के द्वारा मृत्युवरण किया गया हो और जिसका जैनाचार्यों ने अनुमोदन किया हो । अतः
सतीप्रथा का यह रूप जैनधर्म में कभी मान्य नहीं रहा ।
१
१ आवश्यकचूर्णि भाग १ पृ. ३२० २ देखें-(अ) हिन्दूधर्म कोश पृ. ६४६
(ब) धर्मशास्त्र का इतिहास (डा० काणे) भाग २ पृ. ३४८ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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जहाँ तक स्वेच्छा से, असुरक्षा का अनुभव करके या पति के प्रति अनन्य प्रेमवश पति की मृत्यु पर उसका सहगमन का प्रश्न है-जैन साहित्य में सर्वप्रथम निशीथचूणि (७ वीं शताब्दी) में हमें एक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार सोपारक के एक राजा ने करापवंचन के अपराध में नगर के पाँच सो व्यापारियों को जीवित जला देने का आदेश दिया, उनकी पत्नियाँ भी अपने पतियों का अनुसरण करते हुए जलकर मर गई। यद्यपि जिनदास गणि महत्तर इस घटना का विवरण प्रस्तुत करते हैं, किन्तु वे किसी भी रूप में इसका अनुमोदन नहीं करते हैं । यद्यपि इस कथानक से इतना अवश्य फलित होता है कि यह सतीप्रथा भारत में मुस्लिम शासकों के आक्रमण के पूर्व भी अस्तित्व में थी, वैसे हमें ७वीं शती के पूर्व निर्मित हिन्दू पौराणिक साहित्य में ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जहाँ पत्नी-पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर सहगमन करती है। अतः जैन स्रोतों से भी इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह प्रथा मुस्लिम शासकों के पूर्व भी अपना अस्तित्व रखती थी- इतना अवश्य हुआ कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण और नारी जाति के प्रति उनके और उनके सैनिकों के दुर्व्यवहार से नारी में असुरक्षा की। भावना बढ़ती गयी एवं अपनी शील-रक्षा का प्रश्न उसके सामने गम्भीर बनता गया। फलतः भारतीय मानस सतीप्रथा का समर्थन करने लगा और नारी ने पति की मृत्यु के पश्चात् दूसरों की भोगलिप्सा का शिकार होकर नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा मृत्यु-वरण को श्रेष्ठ मान लिया ।
फिर भी जैनाचार्यों ने कभी भी इस प्रथा का समर्थन नहीं किया-उनके अनुसार यदि स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् मरने को विवश किया जाता है तो यह कृत्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हत्या का बर्बर कृत्य ही माना जायेगा अतः वह कृत्य धार्मिक या धर्मसम्मत कृत्य नहीं है अपितु महापातक ही है और मारने वाला उस पाप का दोषी है । यदि दूसरी ओर स्त्री स्वेच्छा से असुरक्षा की भावनावश या अनन्य प्रेमवश मृत्यु का वरण करती है तो उसका यह कृत्य रागयुक्त होने के कारण आत्महत्या की कोटि में जाता है, यह आत्म-हिंसा है अतः यह भी पापकर्म है। पुनः जैनधर्म की मान्यता है कि परलोक में व्यक्ति को कौनसी योनि मिलेगी यह तो उसके कर्मों (सदाचरण या दुराचरण) पर निर्भर करती है, पति की मृत्यु पर उसका सहगमन करने पर अनिवार्य रूप से पतिलोक की प्राप्ति हो, यह आवश्यक नहीं है। अतः इस भावना से कि सती होकर वह स्त्री पतिलोक को प्राप्त होगी, स्त्री का पति की चिता पर जलाया जाना या जलना जैनधर्म की दृष्टि से न तो धार्मिक है और न नैतिक ही। इसके विपरीत डा. जगदीश चन्द्र जैन की सूचनानुसार महानिशीथ (वर्तमान स्वरूप ईस्वी सन् ८वीं शती के पूर्व) में एक उल्लेख आता है कि राजा की एक विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रकार की ! परम्परा नहीं थी अतः उसने अपना विचार त्याग दिया। इस घटना के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है,
१ तेसि पंच महिलासताई ताणि वि अग्गिं पावटठाणि ।
-निशीथचूणि भाग ४ पृ० १४ -बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति भाग ३ पृ० २०८ २ देखें-(अ) विष्णुधर्मसूत्र २५॥१४ उद्धृत हिन्दूधर्मकोश पृ० ६४६
(ब) उत्तररामायण १७.१५ , , , (स) महाभारत आदिपर्व ६५।६५ , "
(द) महाभारत मौसलपर्व ७११८,७७३-८४,, , । ३ देखें-हिन्दू धर्म कोश पृ. ६५०
४ महानिशीथ प० २६ देखें-जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज प. २७१
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का मत्यूपरपमा
उस युग में सम्पूर्ण समाज में सती होने की परम्परा नहीं थी अपितु राजकुलों में भी केवल कुछ ही राजकुलों में ऐसी परम्परा थी।
श्री अगरचन्दजी नाहटा ने भी पट्टावलियों के आधार पर यह उल्लेख किया है कि श्री जिनदत्त । सूरि (ई० सन् ११ शती) ने जब वे झंझुणु (राज.) में थे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा को उपदेश
देकर सती होने से रोका और उसे जैनसाध्वी की दीक्षा प्रदान की। इसी प्रकार १७वीं शती के सन्त आनन्दघन ने भी सती प्रथा की आलोचना करते हुए ऋषभदेव स्तवन में लिखा है कि परलोक में पति मिलेगा इस आकांक्षा से स्त्री अग्नि में जल जाती है, किन्तु यह मिलाप सम्भव नहीं होता है। अतः पति
यू पर पत्नी द्वारा देहोत्सर्ग कर देना जैनधर्म में कभी भी अनुमोदित नहीं था।
किन्तु दोनों रूपों से भिन्न अपने शील की रक्षा के लिये देहोत्सर्ग कर देना सतीत्व का एक ऐसा है। भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने मान्यता दी है। उनके अनुसार चाहे पति जीवित हो या उसका स्वर्गवास
हो चुका हो यदि स्त्री इस स्थिति में आ गई है कि शीलरक्षा हेतु मृत्युवरण के अतिरिक्त उसके 28 सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया है, तो ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना ही श्रेयस्कर है । जैनाचार्य मात्र ऐसी स्थिति में ही स्त्री के मत्यूवरण को नैतिक एवं धार्मिक मानते हैं। जैनाचार्यों की दृष्टि में पतिव्रता होना स्त्री के लिये अति आवश्यक है, किन्तु पतिव्रता होने का यह अर्थ नहीं है कि वह पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी मुत्यु का वरण करे, उनकी दृष्टि में पतिव्रता होने का अर्थ है शीलवान या चारित्रवान होना और पति की मृत्यु होने पर पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना । पति की मृत्यु पर स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता था कि वह संयम-100 पूर्ण जीवन जीते हुए अपनी सन्तान का पालन-पोषण करे-जैसा कि राजगृही की भद्रा सार्थवाही ने किया था अथवा सन्तान के योग्य हो जाने पर चारित्र (दीक्षा) ग्रहण कर साध्वी का जीवन व्यतीत ) करे । प्राचीन जैनाचार्यों ने सदैव ही पति की चिता पर जलने के स्थान पर श्रमणी बनने पर बल दिया। प्राचीन जैन कथा साहित्य में हमें अनेकों ऐसे कथानक मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ श्रमण जीवन अंगीकार कर लेती हैं । जहाँ महाभारत एवं अन्य हिन्दू पुराणों में कृष्ण की पत्नियों के सती होने के उल्लेख हैं। वहाँ जैन साहित्य में उनके साध्वी होने के उल्लेख हैं। हिन्दू परम्परा में सत्यभामा को छोड़कर कृष्ण की शेष पत्नियाँ सती हो जाती हैं, सत्यभामा वन में तपस्या के लिए चली जाती है, जबकि जैन परम्परा में कृष्ण को सभी पटरानियाँ श्रमणी बन जाती हैं । हिन्दू कथाओं में सीता पृथ्वी में समा जाती है, जैन कथा में लव-कुश के युवा हो जाने पर वह श्रमणी बन जाती है। ये कथाएँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से काल्पनिक हों किन्तु इनसे जैनाचार्यों के दृष्टिकोण का पता तो चल ही जाता है कि वे सती प्रथा के | समर्थक नहीं थे।
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१ बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका पृ० ६५ की पाद टिप्पणी २ केई कंतकारण काष्ट भक्षण करै रे, मिलसु कत नै धाय । ए मेलो नवि कइयइ सम्भवै रे, मेलो ठाम न ठाय ।
-आनन्दघन चौबीसी-श्री ऋषभदेव स्तवन ३ आवश्यकचूणि भाग १ पृ० ३७२ ।। ४ (अ) महाभारत, मौसलपर्व ७।७३-७४, विष्णुपुराण ५।३८।२
ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, पृ०३४८ ५ अन्तकृतदशा के पंचम वर्ग में कृष्ण की ८ रानियों के तीर्थकर अरिष्टनेमि के समीप दीक्षित होने का उल्लेख है। ६ पउम बरियं १०३।१६५-१६६ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियां
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जैनधर्म में सती प्रथा के विकसित नहीं होने के कारण
जैनधर्म में सतीप्रथा के विकसित नहीं होने का सबसे प्रमुख कारण जैनधर्म में भिक्षुणी संघ का अस्तित्व ही है । वस्तुतः पति की मृत्यु के पश्चात् किसी स्त्री के सती होने का प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण असुरक्षा एवं असम्मान की भावना है । जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को अधिकार है कि वह सन्तान की समुचित व्यवस्था करके भिक्षुणी बनकर संघ में प्रवेश ले ले और इस प्रकार अपनी असुरक्षा की भावना को समाप्त कर दे । इसके साथ ही सामान्यतया एक विधवा हिन्दू समाज से तिरस्कृत समझी जाती थी, अतः उस तिरस्कारपूर्ण जीवन जीने की आशंका से वह पति के साथ मृत्यु का वरण करना ही उचित मानती है । जैनधर्म में कोई भी स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती है तो वह समाज आदरणीय बन जाती है । इस प्रकार जैनधर्म भिक्षुणी संघ की व्यवस्था करके स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त कर देता है ।
स्त्री द्वारा पति की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति में अधिकार न होने से आर्थिक नारी की एक प्रमुख समस्या है जिससे बचने के लिए स्त्री सती होना पसन्द करती है । जैन नारी सम्मानजनक रूप से भिक्षा प्राप्त करके आर्थिक संकट से भी बच जाती थी, हिन्दूधर्म के विरुद्ध सम्पत्ति पर स्त्री के अधिकार को का उल्लेख मिलता है, जो पति के स्वर्गवास के अतः यह स्वाभाविक था कि जैनस्त्रियाँ वैधव्य के ही । यही कारण थे कि जैनधर्म में सती प्रथा को विकसित होने के अवसर हो नहीं मिले ।
यद्यपि प्रो० काणे' ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में सती प्रथा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि बंगाल में मेघातिथि स्त्री को पति की सम्पत्ति का अधिकार मिलने के कारण ही सतीप्रथा का विकास हुआ, किन्तु यदि यह सत्य माना जाये तो फिर जैनधर्म में भी सतीप्रथा का विकास होना था किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं हुआ । स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार मिलने की स्थिति में हिन्दू धर्म में स्त्री स्वयं सती होना नहीं चाहती थी अपितु सम्पत्ति लोभ के कारण परिवार के लोगों द्वारा उसे सती होने को विवश किया जाता है किन्तु अहिंसा प्रेमी जैनधर्मानुयायियों की दृष्टि में सम्पत्ति पाने के लिए स्त्री को आत्मबलिदान हेतु विवश करना उचित नहीं था, यह तो स्पष्ट रूप से नारी हत्या थी । अतः सम्पत्ति में विधवा के अधिकार को मान्य करने पर भी अहिंसा प्रेमी जैनसमाज सतीप्रथा जैसे अमानवीय कार्य का समर्थन नहीं कर सका । दूसरे, यह कि यदि वह स्त्री स्वेच्छा से दीक्षित हो जाती थी तो भी उन्हें सम्पत्ति का स्वामित्व तो प्राप्त हो ही जाता था । अतः जैनधर्म में सामान्यतया सतीप्रथा का विकास नहीं हुआ अपितु उसमें स्त्री को श्रमणी या साध्वी बनने को ही प्रोत्साहित किया गया । जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा के लिए भिक्षुणी संघ का सम्मानजनक द्वार सदैव खुला हुआ था । जहां वह सुरक्षा और सम्मान के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी कर सकती थी । अतः जैनाचार्यों ने विधवा, परित्यक्ता एवं विपदाग्रस्त नारी को भिक्षुणी संघ में प्रवेश हेतु प्रेरित किया, न कि सती होने के लिए । यही कारण था कि जैनधर्म में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्रमणियों या भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की अपेक्षा बहुत अधिक रही है । यह अनुपात १ : ३ का रहता आया है । "
संकट भी हिन्दू श्रमणी जीवन में साथ ही जैनधर्म मान्य करता है । जैनग्रन्थों भद्रा आदि सार्थवाहियों पश्चात् अपने व्यवसाय का संचालन स्वयं करती थीं । कारण न असम्मानित होती थीं और न असुरक्षित
१. धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १ पृ० ३५२ २. कल्पसूत्र, १३४
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पुनः जैनधर्म में संलेखना (समाधिमरण) की परम्परा भी प्रचलित थी। अतः विधवा स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में रहते हए भी तप-त्यागपूर्वक जीवन बिताते हए अन्त में संलेखना ग्रहण वस्तुपाल प्रबन्ध में वस्तुपाल की पत्नी ललितादेवी और तेजपाल की पत्नी अनुपमा देवी द्वारा अपने पतियों के स्वर्गवास के पश्चात् गृहस्थ जीवन में बहुत काल तक धर्माराधन करते हुए अन्त में अनशन द्वारा देहत्याग के उल्लेख हैं। किन्तु यह देहोत्सर्ग भी पति की मृत्यु के तत्काल पश्चात् न होकर वृद्धावस्था में यथासमय ही हुआ है। अतः हम कह सकते हैं कि जैनधर्म में सती प्रथा का कोई स्थान नहीं रहा है। परवर्तीकाल में जैनधर्म में सतीप्रथा का प्रवेश
यद्यपि धार्मिक दृष्टि से जैनधर्म में सतीप्रथा को समर्थन और उसके उल्लेख प्राचीन जैन धार्मिक ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। किन्तु सामाजिक दृष्टि से जैन समाज भी उसी बृहद् हिन्दू समाज से जुड़ा हुआ था जिसमें सती प्रथा का प्रचलन था। फलतः परवर्ती राजपूत काल के कुछ जैन अभिलेख ऐसे हैं जिनमें जैन समाज की स्त्रियों के सती होने के उल्लेख हैं। ये सहवर्ती हिन्दू समाज का प्रभाव ही था जो कि विशेषतः राजस्थान के उन जैनपरिवारों में था जो कि निकट रूप से राज-परिवार से जुड़े हुए थे।
श्री अगरचन्दजी नाहटा ने अपने ग्रन्थ बीकानेर जैन लेख संग्रह में जैनसती स्मारकों का १८ उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि जैनधर्म की दृष्टि से तो सती-दाह मोहजनित एवं अज्ञानजनित
आत्मघात ही है, किन्तु स्वयं क्षत्रिय होने से वीरोचित जाति-संस्कारवश, वीर राजपूत जाति के घनिष्ठ सम्बन्ध में रहने के कारण यह प्रथा ओसवाल जाति (जैनों की एक जाति) में भी प्रचलित थी । नाहटाजी ने केवल बीकानेर के अपने अन्वेषण में ही २८ ओसवाल सती स्मारकों का उल्लेख किया है। इन लेखों में सबसे प्रथम लेख वि० सं०१५५७ का और सबसे अन्तिम लेख वि० सं० १८६६ का है। वे लिखते हैं कि बीकानेर राज्य की स्थापना से प्रारम्भ होकर जहाँ तक सती प्रथा थी वह अविच्छिन्न रूप से जैनों में भी जारी थी। यद्यपि इन सती स्मारकों से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि सामान्य जैन समाज में यह सती प्रथा प्रचलित थी उचित नहीं होगा। मेरी दृष्टि में यह सती प्रथा केवल उन्हीं जैनपरिवारों में प्रचलित रही होगी जो राज-परिवार से निकट रूप से जुडे हए थे। बीकानेर के उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त भी राजस्थान में अन्यत्र ओसवाल जैनसतियों के स्मारक थे। श्री पूर्णचन्द्र न
द्र नाहर ने भामाशाह के अनुज ताराचन्दजी कापडिया के स्वर्गवास पर उनकी ४ पत्नियों के सती होने का सादड़ी के
अभिलेख का उल्लेख किया है। स्वयं लेखक को भी अपने गोत्र के सती-स्मारक की जानकारी है । अपने । गोत्र एवं वंशज लोगों के द्वारा इन सती स्मारकों की पूजा, स्वयं लेखक ने भी होते देखी है। अतः यह स्वीकार तो करना होगा कि जैनपरम्परा में भी उधर मध्यकाल में सती प्रथा का चाहे सीमित रूप में ही क्यों न हो किन्तु प्रचलन अवश्य था । यद्यपि इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह प्रथा जैनधर्म एवं जैनाचार्यों के द्वारा अनुशंसित थी, क्योंकि हमें अभी तक ऐसा कोई भी सूत्र या संकेत उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी जैन ग्रन्थ में किसी जैनाचार्य ने इस प्रथा का समर्थन किया हो । जैन ग्रन्थ और जैनाचार्य तो सदैव ही विधवाओं के लिए भिक्षणी संघ में प्रवेश की अनशंसा क
अतः परवर्ती काल के जो सती स्मारक सम्बन्धी जैन अभिलेख मिलते हैं वे केवल इस तथ्य के सूचक हैं कि सह
१ बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका पु० ६४-६६ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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वर्ती हिन्दू परम्परा के प्रभाव के कारण विशेष रूप से राजस्थान की क्षत्रिय परम्परा के ओसवाल जैन समाज में यह प्रथा प्रवेश कर गई थी। और जिस प्रकार कुलदेवी, कुलभैरव आदि की पूजा लौकिक दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों द्वारा की जाती थी उसी प्रकार सती स्मारक भी पूजे जाते थे। राजस्थान में बीकानेर से लगभग ४० किलोमीटर दूर मोरखना सुराणी माता का मन्दिर है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय पद्माणंदसूरि के पट्टधर नंदिवर्धनसूरि द्वारा हुई थी। ओसवाल जाति के सुराणा और दुग्गड़ गोत्रों में इसकी विशेष मान्यता है। सुराणी माता सुराणा परिवार की कन्या थी जो दूगड़ परिवार में ब्याही गई थी। यह सती मन्दिर ही है। फिर भी इस प्रकार की पूजा एवं प्रतिष्ठा को जैनाचार्यों ने लोकपरम्परा ही माना था, आध्यात्मिक धर्मसाधना नहीं। बीकानेर के दो स्मारक माता सतियों के हैं, इन्होंने पुत्रप्रेम में देहोत्सर्ग किया था, जो एक विशिष्ट बात है।
अतः निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से सती प्रथा को कोई है प्रश्रय नहीं मिला क्योंकि वे सभी कारण जो सती प्रथा के प्रचलन में सहायक थे जैन-जीवन दृष्टि और संघ व्यवस्था के आधार पर और जैनधर्म में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था से निरस्त हो जाते थे।
%3
(शेष पृष्ठ ४६४ का)
(१३) णमोकार मन्त्र में उल्लिखित अर्हन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधु सभी सर्वोदयी । हैं। धर्म-तीर्थ-प्रेमी है । पाँच पद उनके सर्वोदयी होने के कारण है । जैसे लोग एक सत्य को अनेक प्रकार ना से कहते हैं, जैसे एक व्यक्ति अन्य जनों से अनेक प्रकार सम्बन्धों की स्थापना किये है वैसे साधु, उपाध्याय,
आचार्य, अर्हन्त, सिद्ध सभी उत्तरोत्तर उत्कर्ष लिए हैं। इनके अनुयायी जो श्रद्धा-ज्ञान-क्रियावान श्रावक हैं, वे भी सर्वोदयी विचारधारा लिये हैं । जैसे णमोकार मन्त्र व्यक्ति विशेष के लिये नहीं है। वैसे ही आचार्य मानतुग का भक्तामर काव्य भी किसी विशेष एक व्यक्ति के लिये नहीं है । अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, कर्मवाद, स्याद्वाद, अनीश्वरवाद, विश्वबन्धुत्ववाद भी किसी एक के लिये नहीं बल्कि अनेक के लिये है। जैनधर्म के सिद्धान्तों में सर्वत्र सर्वोदय की गूंज थी, है और रहेगी। आज इतना ही मुझे प्रस्तुत निबन्ध में लिखना है।
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*प्रवचन आदि
विचार
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"विचार-मंथन" सातवां खण्ड अपने आप में एक अद्भुत रोचकता, नवीनता और बोधशीलता लिए हुए है । पूज्य गुरुणी जी महासती कुसुमवती जी के अभिनन्दन-ग्रन्थ में उनके विचार-चिन्तन का आस्वाद न मिले, उनके प्रेरक प्रवचनों की प्रेरणा न पाये तो यह ग्रन्थ-आयोजन अपने आप में अपुर्णता प्रकट न करेगा? इस अपूर्णता की परिपूर्णता का प्रयास है. इस खण्ड में।
पूज्य गुरुणी जी की विदुषी शिष्या डा० साध्वी दिव्य प्रभा जी आदि द्वारा संकलित/संग्रहीत/संपादित पूज्य महासती जी के विचार - मन्थन से प्राप्त नवनीत यहाँ सर्वसाधारण के लिए सुलभ है ।
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प्रवचन
१. साधना का सार-तत्व समता
मध्याह्न का समय था। चिलचिलाती धूप भिखमंगे ! तु इस समय कहाँ से चला आया ? हट्टे। चारों ओर फैली हुई थी। जमीन आग उगल रही कट्टे हो तो भी तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं *
थी। गर्म-गर्म हवा चल रही थी। एक श्रेष्ठी के आती ? चले जाओ यहाँ से । द्वार पर एक भिक्षुक जाकर खड़ा हुआ । भिक्षुक की सेठ की फटकार को सुनकर संन्यासी ने शान्त। शाम वेशभूषा को देख कर श्रेष्ठी विस्मय-विमुग्ध मुद्रा में देहरी से बाहर कदम बढ़ाया कि श्रेष्ठी ने
मुद्रा में बोला- आपने ये श्याम वस्त्र क्यों धारण पुनः आवाज दी। बाबा कहाँ जाते हो ? आओ किये हैं ? श्याम वस्त्र शोक के प्रतीक होते हैं इसी- बैठो, कुछ बात करेंगे । संन्यासी प्रसन्न मुद्रा में लिए राजस्थान के किन्हीं-किन्हीं प्रान्तों में विधवा लौट आया और ज्यों ही लौटकर वह आया त्यों ही बहनें ये वस्त्र धारण करती हैं। क्या आपका भी सेठ ने कहा-निर्लज्ज ! शर्म नहीं आती तुझे ? | कोई स्नेही मर गया है? जिस कारण आपने यह पुनः चला आया, चला जा यहां से। संन्यासी पूनः O अनोखी वेशभूषा धारण की है।
उलटे पैरों लौट गया। दो कदम आगे बढ़ा ही था ____ संन्यासी ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा- कि पुनः सेठ ने आवाज दी। अरे ! बिना भिक्षा श्रेष्ठी प्रवर ! मेरे अत्यन्त स्नेही मित्रों की मृत्यु लिये कहाँ जा रहा है ? आ, भिक्षा लेकर के जाना। हो गयी है, जिनके साथ मैं दीर्घकाल तक रहा। संन्यासी पुनः चला आया। सेठ ने अपने नौकर को 112
श्रेष्ठी ने साश्चर्य पूछा-आपके किन मित्रों आवाज दी। यह भिखमंगा मान नहीं रहा है। की मृत्यु हो गयी ? आप तो सन्त हैं। सन्त के तो सुबह से ही इसने मेरा मूड बिगाड़ दिया। आओ, संसार के सभी प्राणी मित्र होते हैं । वे विशेष मित्र धक्का देकर इसे मकान के बाहर निकाल दो । सेठ कौन थे आपके ?
_की आवाज सुनते ही नौकर आया और संन्यासी ____संन्यासी ने गम्भीर मुद्रा में कहा-मेरे चिर को धक्का देकर और घसीट का बाहर निकाला। साथी थे--क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष । संन्यासी गिरते-गिरते बचा। जिनके साथ मैं अनन्त काल तक रहा। प्रत्येक श्रेष्ठी ने संन्यासी के चेहरे को देखा वही जीवयोनि में वे मित्र मेरे साथ रहे। पर अब प्रसन्नता, वही मधुर मुस्कान उसकी मुखमुद्रा पर उनकी मृत्यु हो जाने से मैंने ये श्याम वस्त्र धारण अठखेलियाँ कर रही है । श्रेष्ठी अपने स्थान से उठा किये हैं । ये श्याम वस्त्र उनके वियोग के प्रतीक हैं। और संन्यासी के चरणों में गिर पड़ा।
सेठ ने सुना, उसे आश्चर्य हुआ कि संन्यासी उसने निवेदन किया- मेरे अपराध को क्षमा अपनी प्रशंसा कर रहा है । यह अतिशयोक्तिपूर्ण बात करें । मैंने परीक्षा के लिए आपका अनेक बार अपहै। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ की मृत्यु होना मान किया। कठोर शब्दों में प्रताड़ना दी, पर कभी सम्भव नहीं। जब तक परीक्षण प्रस्तर पर आप बिना किसी प्रतिक्रिया के घर में आये और इसे कसा न जाये, तब तक कैसे पता लग सकता है बिना किसी प्रतिक्रिया के लौट गये। आपके चेहरे कि काम, क्रोध, मद, मोह की मृत्यु हो गई है। पर एक क्षण भी क्रोध की रेखा उभरी नहीं और ___ श्रेष्ठी ने क्रोध की मुद्रा बनाते हुए कहा-अरे न मान का सर्प ही फुफकारें मारने लगा। आपने का सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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जो बात कही कि मेरे मित्र मर गये हैं। बिल्कुल जैन साहित्य में वर्णन है कि अढाई द्वीप के सही है । धन्य हैं आपकी सहिष्णुता को, क्षमा को। बाहर एक अष्टापद नाम का पक्षी होता है । अन्य आप परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे हैं। पक्षियों की तरह वह जमीन पर या वृक्ष पर किसी
संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा-सेठ ! आप घोंसले में बच्चा नहीं देता। अनन्त आकाश में निरर्थक प्रशंसा के पुल बाँध रहे हैं। मैंने कोई बड़ी उडान भरते समय ही भारण्ड पक्षी की मादा बच्चा
बात नहीं की है । यह बात तो एक कुत्ता भी करता देती है और वह बच्चा जब जमीन पर गिरता है GAL है। उसे घर से निकालो, वह निकल जायेगा और तो चुम्बक की तरह जंगल में रहे हुए बारह हाथियों ।
तू-तू कर उसे बुलाओ तो वह पुनः चला आयेगा। को अपनी ओर खींच लेता है और बारह हाथियों
मैं कुत्ते से तो गया गुजरा नहीं हूँ। आपने निकल को लेकर आकाश में उड़ जाता है ऐसा वीर होता ५ जाने के लिए कहा, मैं चला गया और आपने पुनः है वह अष्टापद पक्षी। जन्मते हुए बालक में जब बुलाया तो आ गया।
इतनी अपार शक्ति होती है तो युवावस्था में उसमें । प्रस्तुत प्रसंग हमें चिन्तन करने के लिए कितनी शक्ति हो सकती है। यह हम सहज कल्पना
है कि क्षमा की बात करना सरल कर सकते हैं। ऐसे वीर अष्टापद पक्षी यदि दस लाख है, पर समय पर यदि कोई हमारा तिरस्कार करता एकत्रित किये जायँ उतनी शक्ति होती है बलदेव में है उस समय क्रोध न आये यह सबसे बड़ी बात है। और बीस लाख अष्टापद पक्षी की शक्ति होती है क्रोध और मान दोनों सहचर हैं। जरा सा अपमान वासदेव में और चालीस लाख अष्टापद पक्षी की होने पर इन्सान अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रख शक्ति होती है एक चक्रवर्ती में। तीनों कालों के सकता । उसका अहंकार गरज उठता है कि मैं कौन चक्रवतियों को मिलाने पर जितनी शक्ति होती है हूँ? क्या तुम मुझे नहीं जानते ? मैं तुम्हें ऐसा छठी उतनी शक्ति एक देव में होती है और तीनों काल का दूध पिलाऊँगा कि तुम जीवन भर याद करोगे। के देवों की शक्ति मिलाने पर जो शक्ति होती है
जैनधर्म ने धर्म के दस प्रकार बताये हैं । ठाणांग उतनी शक्ति होती है एक इन्द्र में और तीनों कालों सूत्र के दसवें स्थान में उन दस धर्मों का उल्लेख के इन्द्रों की शक्ति मिलाने पर उससे भी अधिक हुआ है। द्वादश अनुप्रेक्षा में आचार्य कुन्दकुन्द ने शक्ति तीर्थंकर अरिहंत की एक अंगुली में होती है। भी उन दस धर्मों का वर्णन किया है। आचार्य अरिहंत 'क्षमाशूर' होते हैं । इसलिए शास्त्रकार ने
उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में, आचार्य वट्टकेर ने स्थानांग सूत्र में 'खंतिसूरा अरिहंता' कहा है। द मूलाचार में, नेमिचन्द्र सूरि ने प्रवचनसारोद्धार उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान ने स्पष्ट उद्घोषणा । में, जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकचूणि में उन की है कि जो मेधावी पण्डित हैं, वे क्षमा को धारण
दस धर्मों का उल्लेख किया है। कुछ क्रम भेद रहा करते हैं। कुरानशरीफ में भी लिखाहैजो गुस्सा है वर्णन करने में, पर सभी में एक स्वर से क्षमा पी जाते हैं और लोगों को माफ कर देते हैं, अल्लाको प्रथम धर्म माना है।
ताला ऐसी नेकी करने वालों को प्यार करते हैं। क्षमा धर्म का प्रवेश द्वार है। किसी व्यक्ति को मोहम्मद साहब ने अपनी तलवार की मूठ पर किसी मकान में प्रवेश करना है तो मुख्य द्वार से ये चार स्वर्ण वाक्य खुदवाये थे कि १. तेरे साथ यदि प्रवेश करता है। वैसे ही क्षमा धर्म का प्रवेश द्वार कोई अन्याय करे, तो तु उसे क्षमा कर दें। २. काटहै बिना क्षमा के धर्म में प्रवेश नहीं होता। क्षमा कर जो अलग कर देता है, उसके साथ मेल कर। करना कायरों का काम नहीं, जो वीर होते हैं वे ही ३. बुराई करने वाले के साथ भलाई कर, और ४. क्षमा कर सकते हैं।
सदा सच्ची बात कह, तेरे खिलाफ भी क्यों न हो?
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हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि दिनकर ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात लिखी है
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो । जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की, क्षमा वहाँ निष्फल है । गरल घूंट पी जाने का विष है वाणी का छल है ॥
जैन आगम साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं जो क्षमा के महत्व को उजागर करते हैं । गजसुकुमाल मुनि जो एकान्त शान्त स्थान पर ध्यानमुद्रा में खड़े थे । सोमिल ने उन्हें देखा और वह क्रोध से तिलमिला उठा । इस दुष्ट ने मेरी पुत्री के साथ विवाह करने का सोचा था पर यह साधु बन गया है । इसने मेरी पुत्री के साथ छल किया है । अब मैं इसे दिखाता हूँ इस छल का चमत्कार । क्रोध से अन्धे बनकर उसने गीली मिट्टी की सिर पर पाल बाँधी और उसमें खैर के अंगारे रख दिये । यदि गजसुकुमाल मुनि आँख उठाकर भी देख लेते तो वह वहीं पर जलकर भस्म हो जाता, पर उस क्षमा के देवता ने क्षमा का जो ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया वह किससे छिपा हुआ है ? मेतार्य मुनि की कहानी, आर्य स्कन्दक मुनि का पावन प्रसंग सभी के लिए प्रेरणा स्रोत है जब हम उन पावन प्रसंगों को पढ़ते हैं तब हमारा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है ।
हमारे श्रद्धेय सद्गुरुणीजी श्री सोहनकुँवरजी महाराज क्षमा की साक्षात् मूर्ति थे। मैंने अनेकों बार देखा कि कैसा भी कटु से कटु प्रसंग आने पर भी उनका चेहरा गुलाब के 'फूल की तरह सदा खिला रहता था । कटु बात का भी मधुर शब्दों में उत्तर देती थीं । उनकी सहिष्णुता, नम्रता, सरलता का जब भी स्मरण आता है तब मेरा हृदय श्रद्धा से . नत हो जाता है ।
हमें जैनधर्म जैसा पवित्र धर्म मिला है इस धर्म का यही पावन सन्देश है कि हम कषाय को कम करें । कषाय भव भ्रमण का कारण है । संन्यासी
सप्तम खण्ड : विचार - मन्थन
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की तरह हम भी अनन्त काल के उन मित्रों को, जो हमारे साथ अत्यन्त अविकसित अवस्था निगोद में भी रहे हैं और नरक में भी उन्होंने हमारा साथ नहीं छोड़ा, न देवलोक में ही, वे हमारे से बिछुड़े । मित्र वनकर रहे, पर उन्होंने सदा दुश्मनों का पार्ट अदा किया। लेकिन हम भूल से उन्हें मित्र मानते रहे ।
एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन मार्ग में बैठे हुए थे । एक व्यक्ति ने नसीरुद्दीन को पूछा कि अमुक गांव कितना दूर है ? नसीरुद्दीन ने कहा - नजदीक भी है और दूर भी है। उसने कहा- तुम तो पहेली बुझा रहे हो । नजदीक भी बता रहे हो और दूर भी । नसीरुद्दीन ने कहा- तुम जिस गाँव की बात कर रहे हो, वह गाँव तो पीछे छूट गया है यदि पीछे लौटोगे तो गाँव नजदीक है और आगे बढ़ोगे तो गाँव दूर होता चला जायेगा । हम भी यदि कषाय के क्षेत्र में पीछे हटेंगे तो मोक्ष दूर नहीं है और यदि आगे बढ़ते चले गये तो मोक्ष दूर होता चला जायेगा । इसलिए हम कषाय से पीछे हटेंगे तो मोक्ष प्राप्त हो जायेगा । यदि हम कषाय के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले गये तो मोक्ष दूर होता चला जायेगा । आपको यह स्मरण होगा कि नमस्कार महामन्त्र के पाँच पद हैं। उन पदों का आचार्यों ने रंग बताया है । नमो अरिहंताणं का रंग श्वेत | सिद्धाणं का रंग रक्त है। आचार्य का रंग पीत है । उपाध्याय का रंग नीला है और साधु का रंग श्याम है। रंगों की अपनी दुनिया है । श्वेत रंग पवित्रता का प्रतीक है, रक्त रंग अप्रमत्तता का द्योतक है। यह रंग अतीन्द्रियता की ओर ले जाता है । पीला रंग मन को सक्रिय बनाता है । नीला रंग शान्ति प्रदान करता है। तथा श्याम रंग दृढ़ता का प्रतीक है । वह अवशोषक है । इसीलिए श्वेत वस्त्रधारी श्रमणों का रंग श्याम बताया है । क्योंकि वह कषाय के मित्रों को सदा के लिए मिटाने के लिए उद्यत रहता है और इसीलिए वह प्रबल पुरुषार्थ करता है । हम साधना के क्षेत्र में तभी आगे बढ़ेंगे जब कषाय नष्ट होगा । O
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२. अन्तर्यात्रा : एक दृष्टि
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प्रथम देवलोक के इन्द्र, 'शकेन्द्र' आनन्द सम्राट के सन्निकट जब वह मायावी साधु विभोर होकर कहने लगे-धन्य है श्रेणिक सम्राट पहुँचा, तब सम्राट ने कहा-तुमने कन्धे पर को, जिनके अन्तर्मानस में देव, गुरु और धर्म के यह जाल क्यों डाल रखी है ? श्रमण वेश को क्यों प्रति अनन्त आस्था है। कोई देवशक्ति भी उनकी लज्जित कर रहे हो? श्रद्धा को हिला नहीं सकती। धन्य है क्षायिक
उस मायावी साधु ने मुस्कराते हुए नाटकीय सम्यक्त्वधारी सुश्रावक को।
ढंग से कहा-राजन् ! मैं पहले क्षत्रिय था । मांस शकेन्द्र के मुखारविन्द से भावपूर्ण उद्गार और मछलियाँ खाने की आदत थी। भगवान् श्रवण कर एक देव ने कहा-स्वामी ! आप अत्य. महावीर के सभी साधु मांसाहार और मत्स्याहार । धिक भावुक है । भावना के प्रवाह में आप बहते करते हैं उनके परम भक्त लोग उन्हें गुप्त रीति से रहते हैं । मानव की क्या शक्ति है जो हमारे सामने लाकर दे देते हैं। पर मैं भोला रहा, मेरे कोई 1 टिक सके। कपूर की तरह उसकी श्रद्धा प्रतिकूल भक्त नहीं, जिस कारण विवश होकर मुझे मछ- पवन चलते ही उड़ जायेगी। यदि आपको लियाँ पकड़ने हेतु सरोवर पर जाना पड़ रहा है। विश्वास न हो तो मैं इसे सिद्ध कर बता दूंगा। सभी श्रोतागणों की श्रद्धा डगमगा गई। उनके शक्रन्द्र मौन रहे और वह दव परीक्षा की कसौटी
मुखारविन्द से अनास्था के स्वर फूट पड़े, पर पर कसने हेतु उसी क्षण वहाँ से चल पड़ा।
सम्राट श्रेणिक ने कहा-तुम मिथ्या बोल रहे राजगृह नगर के निवासी भगवान महावीर के हो । अपना पाप उन महान् पुण्य पुरुषों पर मंढ़ने आगमन के समाचारों को सुनकर आनन्द विभोर का प्रयास कर रहे हो। धिक्कार है तुम्हें, जो इस थे । सम्राट श्रेणिक ने सुना। उसका मन मयूर प्रकार मिथ्या प्रलाप करते हो। नाच उठा, हृदय-कमल खिल उठा। वह सपरिवार सम्राट की सवारी आगे निकल गई। चतुरंगिणी सेना सजाकर श्रमण भगवान् महावीर लोगों ने देखा-एक सगर्भा साध्वी किसी दुकान के दर्शन हेतु चल पड़ा। ज्योंही मध्य बाजार के से अजमा, किसी दुकान से सोंठ और किसी दुकान बीच सवारी पहुँची, त्योंही उस देव ने अपनी माया से घी की याचना कर रही है । वह कह रही हैफैलाई । देव ने एक श्रमण का वेश धारण किया। "मैं आसन्नगर्भा हूँ इसलिए मुझे इन वस्तुओं की पर कन्धे पर मछलियों को पकड़ने का जाल पड़ा आवश्यकता है ।" हुआ था। वह मछली पकड़ने हेतु सरोवर की सम्राट के साथ वाले व्यक्तियों ने कहाओर जा रहा था। उसे देखकर कुछ व्यक्तियों ने स्वामी ! आपने पहले गुरुदेव के दर्शन किये अब उपहास के स्वर में कहा-महाराज ! देखिये, वे गुरुणी जी के भी दर्शन कर लीजिए । देखिये, भग
आपके गुरुवर आ रहे हैं । पहले उनके दर्शन कर वान् महावीर के श्रमण और श्रमणियों का कितना GN लीजिए।
नतिक पतन हो चुका है ?
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सम्राट के सामने वह साध्वी आकर खड़ी हो तरह वह सदा परीक्षण प्रस्तर पर खरा उतरता गई और कहने लगी-मेरे प्रसूति की व्यवस्था है। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि करवा दीजिए। आप सोचते होंगे कि मैं पतिता श्रावकों का वर्णन आता है जिनकी देव परीक्षा लेते हूँ, पर भगवान् महावीर की सभी साध्वियाँ इसी हैं। पर वे मेरु पर्वत की तरह अडोल रहे, अकम्प तरह चरित्रहीना हैं।
रहे । पर आज हमारी श्रद्धा कितनी कमजोर है, सम्राट ने सक्रोश मुद्रा में कहा-तुम पतिता मन्दिर की पताका की तरह अस्थिर है। हम मिथ्या हो और अपने दोष को छिपाने हेतु तप और त्याग और कपोल कल्पित बात को सुनकर ही विचलित al की ज्वलन्त प्रतिमाओं पर लांछन लगा रही हो ? हो जाते हैं, हमारी आस्थाएं डगमगा जाती हैं। धिक्कार है तुझ । यह कहकर सम्राट ने अपनी हम कहलाने को सम्यग्दृष्टि और श्रावक कहलाते सवारी आगे बढ़ा दी। कुछ ही दूर सम्राट की हैं पर हमें थर्मामीटर लेकर अपने अन्तर्हृदय को सवारी आगे पहुँची कि एक दिव्य पुरुष ने प्रकट मापना है कि हमारे में सम्यग्दर्शन है या नहीं। होकर कहा-धन्य है, जैसा शकेन्द्र ने कहा था केवल बातें बनाने से सम्यग्दर्शन नहीं आता । उससे भी अधिक आपको आस्थावान देखकर मेरा कदाचित् भ्रमवश मन में कुशंका उत्पन्न हो जाए हृदय श्रद्धा से आपके चरणों में नत है। मैंने ही तो सम्यग्दृष्टि साधक का दायित्व है उस कुशंका परीक्षा लेने हेतु साधु और साध्वी का रूप धारण का पहले निवारण करें। सम्यग्दृष्टि भाडरप्रवाही किया था, पर आप परीक्षा में पूर्ण सफल हुए। नहीं होता । वह अपनी मेधा से सत्य-तथ्य का निर्णय
सम्राट् श्रेणिक न बहुश्रु त थे, न महामनीषी करता है। थे, न वाचक थे, पर सम्यग्दृष्टि होने के कारण जैन साहित्य में आई हुई एक घटना है । एक GAL आगमी चौबीसी में वे तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद महान् आचार्य अपने विराट शिष्य समुदाय सहित C को प्राप्त करेंगे । कहा है
विहार करते हुए एक नगर में पधारने वाले थे । न सेणिओ आसि तया बहुस्सओ
जब नागरिकों ने सुना तो उनका हृदय बाँसों उछल न यावि पन्नतिधरो न वायगो। पड़ा। हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण आचार्य सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सई
प्रवर के स्वागत हेतु बरसाती नदी की तरह उमड़ते ___समिक्ख पन्नाह वरं खु सणं ।। हुए आगे कदम बढ़ा रहे थे। आचार्य प्रवर कहाँ तक सम्यग्दर्शन के दो प्रकार है । एक व्यावहारिक आ गये हैं यह जानने हेतु एक जिज्ञासु ने सामने से सम्यग्दर्शन है और दूसरा निश्चयसम्यग्दर्शन । आते हुए राहगीर से पूछा-बताओ, हमारे गुरुदेव व्यवहारसम्यग्दर्शन वह कहलाता है जिसमें साधक कहाँ तक आ गये हैं। सर्वज्ञ सर्वदर्शी अट्ठारह दोष रहित वीतराग प्रभु राहगीर ने कहा-रास्ते में जो तालाब है उस को देव के रूप में स्वीकार करता है । पाँच महाव्रत, तालाब पर वैठकर वे पानी पी रहे थे। मैं उन्हें
पाँच समिति, तीन गुप्ति के धारक निर्ग्रन्थ संत को तालाब में पानी पीते छोड़ आया हैं। GN गुरु रूप में मानता है। अहिंसा, संयम, तपरूप धर्म राहगीर के मुंह से अप्रत्याशित बात सुनकर
को स्वीकार करता है । इस प्रकार देव, गुरु धर्म के सभी एक-दूसरे का मुंह झांकने लगे। एक दूसरे से
प्रति जो पूर्ण निष्ठावान होता है वह व्यवहार की कहने लगे-बड़ा अनर्थ है । आचार्य होकर तालाब * दृष्टि से सम्यग्दृष्टि कहलाता है । उसके जीवन के में पानी पीये, जो श्रमणमर्यादा के विपरीत है । ON कण-कण में, मन के अण-अण में देव गुरु धर्म के हम तो उन्हें आचारनिष्ठ मान
प्रति अपार आस्थाएं होती हैं । सम्राट् श्रेणिक की कलियुग आ गया है। आचार्य भी आचार्य की
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मर्यादा को विस्मृत हो चुके हैं फिर दूसरे सन्तों का आचार्यदेव को अनास्था का कारण ज्ञात हो तो कहना ही क्या ? आगे बढ़ते हुए कदम एक क्षण गया और उन्होंने कहा कि यहाँ के प्रमुख विवेकमें रुक गये और सभी श्रद्धालुगण नगर की ओर शील श्रद्धालुओं को तुम संदेश दो कि आचार्य प्रवर लोट पड़े ।
तुम्हें बुला रहे हैं। सन्देश सुनते ही श्रद्धालुगण है धीरे-धीरे रास्ते को पार करते हुए आचार्य उपस्थित हुए । आचार्यप्रवर ने कहा-जिस व्यक्ति नगर में पहुँचे । पर चारों ओर अनास्था का वाता
ने यह बात कही कि हम तालाब में पानी पी रहे वरण था। न स्वागत था, न सन्मान था। पूछते- थे आप उस व्यक्ति को जरा बुलायें । सनते ही कुछ पाछत आचार्य प्रवर धर्मस्थानक में पहुँचे । आचार्य तमाशबीन यह सोचकर कि अब बड़ा मजा आयेगा का प्रवर सोचने लगे कि इस नगर के श्रद्धालओं की उसे पकड़कर बाजार से ले आये। भक्ति के सम्बन्ध में मैंने बहत कछ सन रखा है पर आचार्यप्रवर ने उस राहगीर से पूछा-तम JA आज तो बिल्कुल विपरीत ही दिखाई दे रहा है। उधर से आ रहे थे और हम लोग तालाब की पाल 71 श्रद्धालुओं की श्रद्धा क्यों डगमगा गई है ? इनका पर बैठे हुए थे, बताओ तालाब में पानी था या आचरण ही इस बात का साक्षी है कि इनके मन में नहीं ? उस राहगीर ने कहा-उस तालाब में तो एक कहीं भ्रम का भूत पैठ गया है और जब तक वह बूद भी पानी नहीं था। फिर हम पानी कहाँ से पी नहीं निकलेगा तब तक उनका अन्तनिस ज्योति- रहे थे? उस राहगीर किसान ने कहा-तुम्हारे पास ।। र्मय नहीं बनेगा।
जो लकड़ी के पात्र रहते हैं। उसमें जो पानी था । ____ आचार्य प्रवर ने एक भद्र श्रावक को अपने
वह पानी तुम पी रहे थे। पास बुलाया और स्नेहसुधा स्निग्ध शब्दों में उससे ।
आचार्य देव ने श्रोताओं को कहा-बताओ,
इसमें हमने किस दोष का सेवन किया। हम जिस पूछा कि बताओ हमने तुम्हारे नगर की बहुत ,
गाँव से आये थे, वहाँ से अचित्त पानी साथ लाये प्रशंसा सुनी थी । यहाँ की भक्ति सुनकर ही हम यहाँ पर विविध कष्ट सहन कर आये हैं पर आज
थे । क्षेत्र मर्यादा समाप्त हो गयी थी, इसलिए हमने
वहाँ पर पानी का उपयोग कर लिया था। सभी न तो एक श्रावक दिखाई दे रहा है और न एक
श्रोताओं को अपनी भूल ज्ञात हुई कि हमने बिना श्राविका ही । क्या बात है ?
निर्णय के ही आचार्यदेव पर और संतों पर लांछन उस भोले श्रावक ने बताया कि हम, हमारे लगाया। सभी ने उठकर नमस्कार कर अपने अपसंघ के सभी प्रमुख श्रावक और श्राविकाएं आपको राध की क्षमायाचना की । इस प्रकार कई बार लिवाने हेतु मोलों तक पहुँचे। बहुत ही उल्लास भ्रम से भी अनास्था पैदा हो जाती है । पर सम्यऔर उत्साहमय वातावरण था । सभी अपने आपको दृष्टि साधक भ्रम के जाल में उलझता नहीं। वह १ धन्य अनुभव कर रहे थे। सामने से राहगीर ने सत्य तथ्य को समझता है । वह जानता है कि शंका
हमारी जिज्ञासा पर बताया था कि आप तालाब कुशंकाओं से सम्यक्त्व का नाश होता है । सम्यक्त्व C पर पानी पी रहे हैं इसलिए हमारे सभी के मन का आलोक धुंधला होता है। चाहे देव के सम्बन्ध
अनास्था से भर गये । जैन सन्त कच्चे पानी को में हो, चाहे गुरु के सम्बन्ध में हो और चाहे स्पर्श भी नहीं करता पर आप तो अपने शिष्यों के धर्म के सम्बन्ध में हो, वह पूर्ण रूप से आस्थावान साथ तालाब पर पानी पी रहे थे। हमारा अनमोल बनता है। सिर ऐरे-गैरे के चरणों में झुकने के लिए नहीं है। सम्यक्त्व के पांच दूषण है। शंका, काँक्षा, इसीलिए हम सब लौट आये ।
विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड
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संस्तव । इन दूषणों से साधक को प्रतिपल प्रतिक्षण है, अभौतिक है । शरीर में ज्ञान नहीं, पर आत्मा बचते रहना है । ज्ञानमय है दर्शनमय है वह ज्ञाता द्रष्टा है । पर शरीर अनित्य है, विनाशी है, सड़न गलन स्वभाव वाला पुद्गल है । जबकि आत्मा नित्य है, अविनाशी है । वह न पानी से गलता है, न हवा से सूखता है, न शस्त्र उसे काट सकता है, न अग्नि उसे जला सकती है । वह न सड़ता है और उसका न विध्वंस ही होता है ।
व्यवहार सम्यक्त्व को पाँच रूप से देखा जा सकता है, जिसे सम्यक्त्व के पाँच लक्षण कहे हैंसम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । इस सम्बन्ध में इस समय विवेचन नहीं करूँगी |
समयाभाव
अब हमें समझना है कि निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन क्या है ? निश्चयदृष्टि से आत्मा ही देव है, आत्मा ही गुरु है और आत्मभाव में रमण करना ही धर्म है । आत्मा अकाम निर्जरा के द्वारा सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को कम करते-करते जब प्रदेश न्यून कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति वाला बन जाता है । तब आत्मा में सहज उल्लास समुत्पन्न होता है । यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनि वृत्तिकरण से रागद्व ेष की ग्रन्थी का जब भेदन करता है, तब निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । निश्चय सम्यग्दृष्टि साधक भेदविज्ञान के हथौड़े से आत्मा पर लगे हुए कर्मबन्धनों को तोड़ डालता है, जन्म-मरणरूपी संसार का उच्छेद कर देता है । भेद विज्ञान के प्रथम प्रहार में ही कषाय चेतना चूर चूर होने लगती | जन्म-मरण के चक्र मिटने लगते हैं । भेदविज्ञान से आत्मा अपने स्वभाव में अवस्थित हो जाता है ।
आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में भेदविज्ञान का तात्पर्य समझाते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है
अन्नमिमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एवं कयबुद्धी | दुक्ख परिकिलेसकरं छिन्द ममत्तं सरीरओ ।। यह शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है । इस प्रकार तत्त्व- बुद्धि से दुःखोत्पादक और क्लेशजनक शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता है ।
यह स्पष्ट है कि आत्मा और शरीर इन दोनों का स्वभाव, धर्म, गुण, प्रभृति भिन्न-भिन्न है । दोनों में आत्मीयता और तादात्म्य कभी हो नहीं सकता । शरीर जड़ है, भौतिक है, पुद्गल है । आत्मा चेतन
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
इसीलिए सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मानस का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है
सम्यग्दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर थी न्यारो रहे ज्यों धाय खिलावे बाल ॥ धाय पन्ना ने अपने पुत्र का बलिदान करके भी महाराणा उदयसिंह की रक्षा की थी । वह अन्तर्मन में समझती थी, उदयसिंह मेरा पुत्र नहीं है तथापि वह कर्तव्य से विमुख नहीं हुई वैसे ही सम्यग्दृष्टि संसार में रहकर भी संसार से अलग-थलग रहता में रहता है । वह सदा निजभाव और परमात्मभाव है । उसका तन संसार में रहता है किन्तु मन मोक्ष में रमण करता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने यह उद्घोषणा की कि
"समत्तदंसी न करेइ पावं । "
निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से हमने सम्यग्दर्शन पर चिन्तन किया है । निश्चय सम्यग्दर्शन एक अनुभूति है और व्यवहार सम्यग्दर्शन उसकी अभिव्यक्ति है । दोनों का मधुर सम न्वय ही परिपूर्णता का प्रतीक है इसीलिए मैंने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में सम्राट श्रेणिक का उदाहरण देकर यह तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि वे क्षायिक सम्यक्त्व के धारी थे । वे आत्मभाव में रमण करते थे तथापि देव, गुरु और धर्म के प्रति उनके अन्तर्मन में कितनी अपार श्रद्धा थी ? आज का साधक उस आदर्श को अपनाएगा तो उसका इहलोक और परलोक दोनों ही सुखी होंगे ।
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३. वाणी-विवेक
जैनदृष्टि से यह आत्मा अनन्त काल तक मानव इन्द्रियों का सदुपयोग भी कर सकता है और निगोद अवस्था में रहा। जहाँ पर एक औदारिक दुरुपयोग भी कर सकता है । इन्द्रियों का सदुपयोग शरीर के आश्रित अनन्त जीव रहते हैं । यह आत्मा कर वह साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त कर की पूर्ण अविकसित अवस्था है। अकाम निर्जरा के सकता है और दुरुपयोग कर नरक और निगोद की द्वारा जब आत्मा पुण्यवानी का पुञ्ज एकत्र करता भयंकर वेदनाओं की भी प्राप्त कर सकता है । है तब वह वहाँ से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय मैं इस समय अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में चिंतन , और वायुकाय में आता है। और वहाँ पर वह न कर रसना इन्द्रिय के सम्बन्ध में अपने विचार आत्मा असंख्यात काल तक रहता है। इन पाँचों व्यक्त करने जा रही हूँ । अन्य चार इन्द्रियों का निकाय में केवल एक इन्द्रिय होती है और उस कार्य केवल एक-एक विषय को ग्रहण करना है। स्पर्श इन्द्रिय का नाम है-स्पर्श इन्द्रिय । केवल स्पर्श इन्द्रिय केवल स्पर्श का अनुभव करती है। घ्राण इन्द्रिय के द्वारा ही उन आत्माओं की चैतन्य शक्ति इन्द्रिय केवल सुरभिगंध और दुरभिगन्ध को ग्रहण अभिव्यक्त होती है। इन पांचों निकायों में आत्मा करती है। चक्षु इन्द्रिय रूप को निहारती है और
अपार वेदनाओं का अनुभव करता रहा किन्तु उस श्रोत्रेन्द्रिय केवल श्रवण ही करती है । चार इन्द्रियों || अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास का केवल एक एक विषय है। पर रसना 5 स्पर्श इन्द्रिय के अतिरिक्त कोई माध्यम नहीं था। इन्द्रिय के दो विषय हैं-एक पदार्थ के रस का अनु-११ ___जब भयंकर शीत ताप प्रभृति वेदनाएँ भोगते. भव करना और दूसरा बोलना है। यह इन्द्रिय पाँचों । भोगते कर्म दलिक निर्जरित होते हैं और पुण्य का इन्द्रियों से सबल है । जैसे कर्मों में मोहनीय कर्म प्रभाव बढता है तब आत्मा को द्वितीय इन्द्रिय प्राप्त प्रबल है। वैसे ही इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय प्रबल है होती है।उस इन्द्रिय का नाम है रसना इन्द्रिय, रसना इसीलिए शास्त्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा हैइन्द्रिय की उपलब्धि द्वीन्द्रिय अवस्था में हो जाती 'कम्माणं मोहणीय अक्खाणं रसनी। है और वह उसका उपयोग वस्तु के आस्वादन बेइन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी प्राणी हेतु तथा अव्यक्त स्वर के रूप में करता है । उसकी बोलते हैं पर बोलने की कला सभी प्राणियों में नहीं। वाणी अविकसित होती है । तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, होती। विवेकयुक्त जो व्यक्ति बोलना जानता है वह असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय तक इन्द्रियों का वचन पुण्य का अर्जन कर सकता है और अविवेक विकास होता है तथापि इन्द्रियों में जो तेजस्विता, युक्त वाणी से पाप का अर्जन होता है। वाणी के द्वारा उपयोगिता होनी चाहिये वह नहीं हो पाती । नार- ही अठारह पापों में मृषावाद, कलह, अभ्याख्यान, कीय जीव, तिर्यञ्च जीव भी पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पैशुन्य, परपरिवाद, माया-मृषावाद-ये पाप वाणी हैं किन्तु मानव की भाँति वे इन्द्रियों का सदुप- के द्वारा ही होते हैं। इसीलिये भारत के तत्वचितकों। योग जन जन के कल्याण के हेतु नहीं कर पाते। ने भले ही वे श्रमण भगवान महावीर रहे हों या ।
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- तथागत बुद्ध रहे हों अथवा महर्षि व्यास रहे हों, डाली और पूछा-तुम मौन क्यों हो? बताओ,
उन सभी ने जन-जन को यह प्रेरणा प्रदान की कि तुम्हारी दृष्टि से इस संसार में मीठी वस्तु क्या है ? | तुम अपनी वाणी का सदुपयोग करो। तुम्हारी बीरबल ने कहा-जहाँपनाह ! सबसे मधुर है | वाणी विषवर्षिणी नहीं, अमृतवर्षिणी हो । पर खेद वाणी । वाणी की मधुरता के सामने अन्य पदार्थों है कि हजारों वर्षों से इतनी पावन प्रेरणा प्राप्त की मधुरता कुछ भी नहीं है। बादशाह ने कहाहोने पर भी मानव अपनी वाणी पर अभी तक बता बीरबल, इसका प्रमाण क्या है? नियन्त्रण नहीं कर पाया। वाणी के कारण ही वीरबल ने कहा-जहाँपनाह समय पर आपको
अशान्ति, कलह, विग्रह, द्वेष के दावानल सुलग रहे मैं यह सिद्ध कर बता दंगा कि वाणी से बढ़कर 5 हैं जिससे मानवता का वातावरण विषाक्त बन गया ,
अन्य कोई भी पदार्थ मधुर नहीं है। पन्द्रह-बीस है । स्वर्गापम भूमण्डल नरक के सदृश बन गया है।
दिन का समय व्यतीत हो गया । एक दिन बीरबल भी उन्हें यह स्मरण रखना होगा कि वे मृत्यु दूत नहीं
। ने कहा-जहाँपनाह ! मेरी हार्दिक इच्छा है आप - हैं, जो विष उगलें। जो मानव जन्म मिला है बेगम साहिबान के साथ मेरी कटिया पर भोजन ही जिस मानव जीवन की महत्ता के सम्बन्ध में आगम, हेतु पधारें। बीरबल के स्नेह-स्निग्ध आग्रह को
वेद और त्रिपिटक एक स्वर से गा रहे हैं, मानव को बादशाह टाल न सका और भोजन की स्वीकृति ॐ अमृतपुत्र कहा है वह अमृत की वर्षा न कर यदि प्रदान कर दी। निश्चित समय पर बादशाह बेगम कर जहर की वर्षा करता है, वह मानव जीवन को साहिबान के साथ बीरबल के यहाँ पर भोजन हेतु
कलंकित करता है । स्नेह और सद्भावना की सुमधुर पहुँचे । बीरबल ने बादशाह के लिए विविध प्रकार वृष्टि करना ही उसका लक्ष्य होना चाहिये । के स्वादिष्ट पकवान बनाये थे तथा विविध प्रकार ___ मानव जब जन्म लेता है तब से उसकी माँ की नमकीन वस्तुएं भी तैयार की थीं। भोजन उसे अमृत सदृश मधुर दूध पिलाकर उसका संपोषण करते-करते बेगम साहिबान तो मन्त्र मुग्ध हो गयी। करती है । दूध उज्ज्वल होता है, मधुर होता है। भोजन की प्रशंसा करते हुए उसने बादशाह से इसलिए मां अपने प्यारे पुत्र को यह संदेश देती है कहा-इतना स्वादिष्ट भोजन तो अपने यहाँ भी कि वत्स ! मैंने तेरी जबान को दूध से धोयी है अतः नहीं होता । बीरबल ने कितना सुन्दर भोजन बनाया मैं चाहूँगी कि तू मेरे दूध की लाज रखेगा। दूध है। भोजन कर बादशाह आह्लादित मन से विदा की धवलिमा तेरे जीवन के कण-कण में व्याप्त हो, हुआ। बादशाह के मुखारविन्द से भोजन की
तेरी वाणी से अमृत झरे, तेरी वाणी मिश्री से भी प्रशंसा सुनकर बीरबल मौन रहा। - अधिक मधुर हो । यदि वाणी में मधुरता है तो बादशाह द्वार तक पहुँचा। बेगम पीछे चल 2) अन्य सारी मधुरता उसके सामने तुच्छ है। रही थी। बीरबल ने अपने अनुचर को आदेश दिया
___एक बार बादशाह अकबर की राजसभा में कि दूध से उस स्थान को साफ कर देना जहाँ पर विचार चर्चा चल रही थी कि इस विराट् विश्व में तुर्कणी बैठी थी क्योंकि वह स्थान अपवित्र हो सबसे अधिक मधुर पदार्थ क्या है ? किसी ने कहा गया है । बीरबल ने शब्द इस प्रकार कहे थे कि वे कि दही मीठा होता है, किसी ने कहा दूध मधुर शब्द बेगम साहिबान के कर्ण कुहरों में गिर जाएँ होता है, किसी ने कहा गुड़ मधुर होता है तो किसी और ज्योंही ये शब्द बेगम ने सुने उसका क्रोध ने कहा शहद मधुर होता है । सबके अपने विचार सातवें आसमान में पहुँच गया, सारा भोजन जहर थे। बादशाह अकबर ने बीरबल की ओर दृष्टि बन गया, आँखों से अंगारे बरसने लगे। उसने
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बादशाह को कहा-देखो, सुना आपने, वह काफिर युद्ध हुआ। परिवार, समाज और राष्ट्र में जब भी Mi क्या बोल रहा है । उसने मुझे तुर्कणी कहा है और संघर्ष की चिनगारियाँ उछलती हैं। उसका मूल
जहाँ मैं बैठी थी उस स्थान को उसने दूध से धोने कारण होता है वाणी पर नियन्त्रण का अभाव । को कहा है, उसके मन में कितना हलाहल जहर वाणी और पानी दोनों ही निर्मल और मधुर होने । भरा पड़ा है। बादशाह ने सुना और साक्रोश मुद्रा पर ही जन-जन को आकर्षित करते हैं। समुद्र में ? में बीरबल को आवाज दी । बीरबल सनम्र मुद्रा में पानी की कोई कमी नहीं है पर वह पानी इतना आकर खड़ा हुआ।
अधिक खारा है कि कोई भी प्राणी उस पानी को मार बादशाह ने सरोष मुद्रा में बीरबल से पूछा- पीकर अपनी प्यास शान्त नहीं कर सकता । समुद्र में तुम्हें इस प्रकार के शब्द बोलते हुए शर्म नहीं जितनी स्टीमरें चलती हैं, नौकाएं घूमती हैं। उनमें || आयी ? तुमने हमें भोजन इसलिए कराया कि बैठने वाले यात्रीगण अपने साथ पानी लेकर जाते हमारा अपमान हो । आज तुम्हारे मन का परदा हैं और कई बार जब पीने का पानी समाप्त हो । फाश हो गया और तुम्हारा असली स्वरूप उजागर जाता है तो उन नौकाओं में रहने वाले व्यक्ति छट-17 हो गया कि तुम्हारे मन में हमारे प्रति कितनी नफ- पटा कर अपने प्रिय प्राणों को त्याग देते हैं पानो रत है । दिल चाहता है कि तलवार से तुम्हारा में रहकर के भी वे प्यास से छटपटाते हैं इसका सिर उड़ा दिया जाए।
मूल कारण है खारा पानी पीने योग्य नहीं है । वैसे । ___ बीरबल ने अपनी आकृति इस प्रकार बनायी ही खारी वाणी भी दूसरों के मन को शान्ति नहीं है। कि मानो उसे कुछ पता ही नहीं हो। उसने कहा- प्रदान कर सकता। जहाँपनाह ! मैंने ऐसी क्या बात कही है जिसके मेरी सद्गुरुणी श्री सोहनकँवर जी महाराज IN कारण आपश्री इतने नाराज हो गये हैं।
अपने प्रवचनों में कहा करती थीं कि पहले बोले- बादशाह ने कहा है, अब भोला बन रहा है। श्रावकजी थोड़ा बोले, दूसरे बोले-श्रावकजी काम तेने तुर्कणी नहीं कहा ? तेने उस स्थान को दूध से पड़या बोले, और तीसरे बोले-श्रावकजी मीठा धोने के लिए नहीं कहा ?
बोले । हमारे प्राचीन जैनाचार्यों ने श्रावक के मार्गाहाँ-हाँ भूल गया पर वे शब्द मैंने इसलिए कहे नुसारी के गुण बताये हैं उनमें एक गुण है- वाणी थे कि आपश्री ने उस दिन राजसभा में कहा था की मधुरता । श्रावक और साधक की वाणी अत्यंत
कि बीरबल सिद्ध कर बता कि वाणी सबसे अधिक मधुर होती है। वह सत्य को भी मधुर वाणी के fy 2|| मधुर कसे है ? जहांपनाह ! मैंने बढिया से बढ़िया द्वारा ही कहता है हमारे शरीर में जितने भी अंगो-||
आपश्री को भोजन करवाया, जिसकी आप स्वयं ने पांग है उन सभी में हड्डियाँ हैं हड्डियाँ कठोरता और बेगम साहिबान ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। की प्रतीक हैं पर जबान में हड्डो नहीं है। क्यों नहीं पर वह सारा भोजन एक क्षण में एक शब्द में है। इसका उत्तर एक शायर ने दिया हैजहर बन गया । वाणी की कडवाहट ने भोजन को कुदरत को नापसन्द है सख्ती जुबान में विष में परिवर्तित कर दिया। अब तो आपथी को इसलिए पदान हुइ हड्डा जुबान म । यह विश्वास हो गया होगा कि वाणी से बढ़कर यदि हम आगम साहित्य का अध्ययन करें तो इस विश्व में अमृत भी नहीं है, और न जहर ही है हमें यह सहज ज्ञात होगा कि महापुरुषों की वाणी मधुर वाणी अमृत है तो कटु वाणी जहर है। में कितना माधुर्य था ? तीर्थंकर प्रत्येक साधक को, ___वाणी के दुरुपयोग के कारण ही महाभारत का 'भो देवाणु प्पिया' शब्द से सम्बोधित करते हैं।
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भगवान के मुखारबिन्द से अपने लिए भक्त देव- उसकी वाणी जहर उगलती थी इसलिए वह जन-II ताओं का वल्लभ शब्द सुनत
शब्द सनता है तो उसका अन्त- जन का घणा का पात्र बना। थाप तन के रंग को हूं दय बांसों उछलने लगता है वह सोचता है मैं बदल नहीं सकते, पर वाणी को बदलना आपके कितना सौभाग्यशाली हूँ कि प्रभु ने मुझे देवताओं के स्वयं के हाथ में है। आप वाणी को बदलकर जनवल्लभ शब्द से पुकारा है। प्राचीन युग में पत्नी पति जन के प्रिय पात्र बन सकते हैं । मूर्ख व्यक्ति वह को आर्यपुत्र कहकर सम्बोधित करती थी और पति है जो बोलने के पश्चात् सोचता है कि मैं इस || भी देवी कहकर पत्नी को सम्बोधित करता था। एक प्रकार के शब्द नहीं बोलता तो संक्लेश का वातादूसरे के प्रति कितनी शिष्ट भाषा का प्रयोग होता वरण तो उपस्थित नहीं होता। यदि मैं वाणी पर मा था। पर आज ससभ्य कहलाने वाले लोग किस नियन्त्रण रख लेता तो कितना अच्छा होता पर प्रकार शब्दों का प्रयोग करते हैं । वार्तालाप के प्रसंग समझदार व्यक्ति वह है जो बोलने के पूर्व उसके में अपशब्दों का प्रयोग करना, गाली-गलौच देना परिणाम के सम्बन्ध में सोचता है वह इस प्रकार के आज सामान्य बात हो गई है। यदि आपने अपनी शब्दों का प्रयोग नहीं करता, जिससे किसी के दिल पत्नी को गधी कहा है तो आप स्वयं गधे में दर्द पैदा हो, हृदय व्यथित हो। इसीलिए मैंने बन गये । इसलिए शब्दों का प्रयोग करते समय अपने प्रवचन के प्रारम्भ में आपसे कहा कि वाणी 12 विवेक की अत्यधिक आवश्यकता है।
अत्यन्त पुण्यवानी के पश्चात् प्राप्त हुई है । जिस ||
वाणी को प्राप्त करने के लिए आत्मा को कितना भारत के महामनीषियों ने वाणी की तीन प्रबल पुरुषार्थ करना पडा है? कितने कष्ट सहन कसौटियाँ बताई हैं, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् । सबसे करने पड़े हैं जो इतनी बहमूल्य वस्तु है हम उसका प्रथम हमारी वाणी सत्य हो पर वह सत्य कटु न दुरुपयोग तो नहीं कर रहे हैं यदि दुरुपयोग कर हो, अप्रिय न हो, इसलिए दूसरी कसोटी "शिव" लिया तो बाद में अत्यधिक पश्चात्ताप करना होगा । की रखी गई है । हमारे मन में सत्य के साथ यदि अन्त में मैं इतना ही कहना चाहूँगी कि यदि दुर्भावना का पुट हो तो वह सत्य शिव नहीं है आपकी वाणी अमृतवर्षण नहीं कर सकती है तो
और साथ में सत्य को सुन्दर भी होना आवश्यक आप मौन रहें। मौन सोना है और बोलना चाँदी है । सौन्दर्य वाणी का आभूषण है । तन का सौन्दर्य है। मौन शान्ति का मूलमन्त्र है और बोलना विवाद | कुदरत की देन है। यदि किसी का चेहरा कुरूप का कारण है । मौन के लिए कुछ भी पुरुषार्थ करने || है तो वह क्रीम, पाउडर आदि सौन्दर्यवर्द्धक की आवश्यकता नहीं। मौन से आप अनेक विग्रहों 1102 साधन का उपयोग करेगा तो उसका चेहरा बहु- से बच सकेंगे और दीर्घकाल तक यदि आपने मौन || रुपिये की तरह और भद्दा बन जायेगा। कृत्रिम साधना कर ली तो आपकी वाणी स्वतः सिद्ध हो सौन्दर्य प्रसाधन से वास्तविक सौन्दर्य निखरता जायेगी। योगियों की वाणी इसीलिए वचनसिद्ध थी नहीं है । आप जानते हैं श्री कृष्ण वासुदेव का रंग कि वे लम्बे समय तक मौन रहते थे । यदि बोलना | श्याम था किन्तु उनकी वाणी इतनी मधुर थी कि ही है तो विवेकपूर्वक बोलें जिस वाणी से सत्य, लोग उनकी वाणी को सुनने के लिए तरसते थे। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के तथा समता, जब कृष्ण बाँसुरी की मुरली तान छेड़ते तब गायें नम्रता, सरलता के सुमन झरें। आशा है आप वाणी भी दौड़कर उनके आसपास एकत्रित हो जाती थीं। का महत्व समझेंगे और अपने जीवन में मधुर बोलने गोपियों के झुण्ड के झुण्ड उनके पास पहुँच जाते का और कम बोलने का अभ्यास करेंगे । तो आपकी थे । इसका एकमात्र कारण उनकी वाणी से अमृत वाणी में एक जादू पैदा होगा और वह जादू जन-जन स्रोत फूटना था। दुर्योधन का वर्ण गौर था किन्तु के मन को मुग्ध कर देगा। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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४. संयम का सौन्दर्य
एक राजा रुग्ण हो गया। अनेक उपचार कर- राजा ने अपने मन्त्री से कहा-चलो, लम्बा समय | वाये तो भी राजा स्वस्थ नहीं हुआ। अन्त में एक हो गया है महलों में बैठे-बैठे। जी घबरा उठा है।
अनुभवी वैद्य ने राजा को कहा मैं आपको पूर्ण मन बहलाने के लिए बगीचे में घूमने की इच्छा हो स्वस्थ बना सकता हूँ, पर शर्त यही है कि आपको रही है।
मेरी बात माननी होगी । मैं नो भी कहूँ वैसा आपको मंत्री ने कहा-राजन ! धमने के लिए महल Call करना होगा । ब्याधि से संत्रस्त राजा ने स्वीकृति की छत बहत ही बढिया है, यदि वह पसन्द नहीं है
सूचक सिर हिला दिया। चिकित्सा प्रारम्भ हुई तो तालाब के किनारे चलें, जहां पर शीतल मंद और कुछ ही दिनों में राजा पूर्ण स्वस्थ हो गया।
सुगन्ध पवन चल रहा है, नौका विहार करें । पर वैद्य ने विदाई लेते हुए कहा-राजन् ! आप रोग से ,
राजा तो बगीचे में जाने हेतु तत्पर था। मंत्री उस मक्त हो चके हैं पर अब आपको मेरे बताये हुए बगीचे में ले जाना चाहता था जिस बगीचे में आम पथ्य का अच्छी तरह से पालन करना होगा। के पेड नहीं थे। पर राजा ने यह हठ की कि मुझे ||
राजा ने पूछा-बताओ, कौन-सा परहेज है, आम खाने की मनाई की है, किन्तु आम के पेड़ों की ऐसी कौन सी वस्तु है जिसका उपयोग मुझे नहीं की हवा खाने की थोड़े ही मना की है। करना है।
____ मंत्री ने कहा-राजन् जिस गाँव में नहीं जाना। वैद्य ने कहा-आम का फल आपके लिए जहर है, उस गाँव का रास्ता क्यों पूछना ? वैद्य ने आपके है जीवन भर आपको आम नहीं खाना है। लिए स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है। कृपा कर ___राजा को आम अत्यधिक प्रिय थे। वह हर ऋतु आज आम के बगीचे की ओर घूमने हेतु न पधारें। में आम खाता था। जब उसने यह सुना कि आम राजा ने कहा-तुम बहुत ही भोले हो। वैद्य नहीं खाना है तो उसने पुनः वैद्य से जिज्ञासा प्रस्तुत तो केवल मानव को डराने के लिए ऐसी बात कहते की-बताइये, दिन में कितने आम खा सकता हूँ। हैं । वैद्य की बात माननी चाहिए, पर उतनी ही जो
वैद्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एक भी आम उचित हो। आप नहीं खा सकते । यदि भूलकर आपने आम खा मंत्री ने कहा-आप अपनी ओर से मौत को लिया तो फिर किसी भी वैद्य और चिकित्सक की निमन्त्रण दे रहे है । मेरी बात मानिये और आम शक्ति नहीं कि आपको बचा सके। इस परहेज का के बगीचे की ओर न पधारिये। पालन करेंगे तो आप सदा रोग से मुक्त रहेंगे। राजा ने कहा-वैद्य ने आम खाने का निषेध
राजा ने वैद्य की बात सहर्ष स्वीकार ली । चैत्र किया है, आम के पेड़ों की हवा खाने के लिए का महीना आया । आम के फल वृक्षों पर मंडराने निषेध नहीं किया है । चलो कई महीनों से आम के लगे । कोयल के कुहूक की आवाज कुहकने लगी। बगीचे में नहीं गये हैं। राजा आम के बगीचे में
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पहुँच गया । वृक्षों पर पके हुए आम हवा से झूम आचार्य ने कहा-वत्स ! यदि राग-द्वेष के रहे थे । बगीचे में घूमकर राजा आम के पेड़ के प्रवाह में न बहे, समभाव में अवगाहन करें तो इन्द्रियाँ नीचे विश्रान्ति हेतु बैठ गया । मंत्री ने निषेध किया परम मित्र की तरह उपयोगी हैं। यदि इन्द्रियों में पर वह नहीं माना । ज्योंही वह वृक्ष के नीचे बैठा राग-द्वष का प्रवाह प्रवाहित होने लगता है तो एक त्योंही एक आम का फल राजा की गोद में आकर इन्द्रियाँ शत्रु बन जाती हैं। गंगा का पानी पवित्र गिर पड़ा। राजा हाथ में लेकर फल देखने लगा। और निर्मल है पर जब गंगा में फैक्ट्रियों का, शहरों उसकी मीठी-मीठी मधुर गंध पर वह मुग्ध हो की गन्दी नालियों का पानी मिल जाता है तो गंगा गया । मंत्री राजा के हाथ से फल छीनना चाहता का पानी भी दूषित हो जाता है, उसकी पवित्रता था, पर राजा ने कहा-जरा-सा आम चूसने से नष्ट हो जाती है। जब इन्द्रियों के निर्मल ज्ञान में कोई नुकसान होने वाला नहीं है । मंत्री मना करता काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग और द्वेष का रहा पर राजा ने आम को चूस ही लिया और कूड़ा-करकट मिलता है तब इन्द्रिय ज्ञान भी दूषित देखते ही देखते राजा के शरीर में पुराना रोग उभर हो जाता है। उस समय इन्द्रियाँ शत्रु बन जाती हैं। आया और कुछ क्षणों तक छटपटाते हुए राजा ने राग-द्वेष का जब तक मिश्रण नहीं होता तब तक संसार से विदा ले ली।।
इन्द्रिय-ज्ञान गंगा के पानी की तरह निर्मल रहता है प्रस्तुत उदाहरण भगवान् महावीर ने अपने पर राग-द्वेष के मिश्रण से वह विषाक्त बन जाता है। पावापुरी के अन्तिम प्रवचन में दिया है और कहा हम जैनागम साहित्य का गहराई से अनुशीलन है जिस प्रकार राजा अपथ्य आहर कर अपने करें तो यह सत्य हमें सहज रूप से समझ आ आपको, अपने राज्य को गंवा बैठा, वैसे ही संयमी सकेगा। इन्द्रियाँ केवलज्ञानियों के भी होती हैं। वे साधक इन्द्रियों के प्रवाह में बहकर अपने संयम भी चलते हैं किन्तु उनकी इन्द्रियों में राग-द्वष का धन को गंवा देता है। इन्द्रियाँ उच्छृखल हैं जो मिश्रण न होने से उनको केवल ईपिथिक क्रिया इसके प्रवाह में बहता है, वह साधना के पथ पर लगती है। साम्परायिक क्रिया नहीं। ऐर्यापथिक नहीं बढ़ सकता एतदर्थ ही शास्त्रकारों ने इन्द्रिय क्रिया में राग-द्वेष न होने से कर्म बन्धन नहीं संयम पर बल दिया है। इन्द्रिय संयम करने वाला होता । भगवती सूत्र में स्पष्ट वर्णन है कि केवलसाधक साधना के पथ पर निरन्तर बढ़ता है। ज्ञानी को पहले समय में कर्म आते हैं, दूसरे समय
एक शिष्य ने आचार्य से जिज्ञासा प्रस्तुत की- में वेदन करते और तीसरे समय में वे कर्म निर्जरित शास्त्रों में लिखा है कि इन्द्रियाँ प्रबल पुण्यवानी से हो जाते हैं। कर्म बन्धन के लिए असंख्यात समय प्राप्त होती हैं । एकेन्द्रिय अवस्था में केवल एक ही चाहिए और बिना राग-द्वेष के कर्म का बन्धन नहीं । इन्द्रिय होती है पर ज्यों-ज्यों अकाम निर्जरा के होता। जब इन्द्रियों रूपी तारों में राग-द्वेष का करंट द्वारा प्रबल पुण्य का संचय होता है तब क्रमशः प्रवाहित होता है तभी कर्म बन्धन होता है इसीलिए इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। आप पुण्य से प्राप्त उन ज्ञानियों ने प्रेरणा दी कि इन्द्रियों का संयम करो। इन्द्रियों के नियन्त्रण हेतु क्यों उपदेश देते हैं ? हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं। वे बाहर के
क्योंकि बिना इन्द्रियों के न ज्ञान हो सकता है, न पदार्थों को ग्रहण करतो हैं और राग-द्वष से संपृक्त है। ध्यान हो सकता है। इसलिए इन्द्रियाँ हमारी शत्रु होकर कर्मों का अनुबन्धन करती है जितना
नहीं मित्र है। विकास के मार्ग पर हमें अग्रसर अधिक तीव्र राग या द्वेष होगा उतना ही अधिकार करने वाली है। फिर उनके नियन्त्रण का उपदेश । बन्धन होगा, निकाचित कर्म बन्धन का मूल कारण क्यों ?
इन्द्रियों में राग-द्वष का तीव्र प्रवाह
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| प्रवाह जब प्रवाहित होता है तब तीब्र गाढ़ बन्धन विकसित करने के लिए इन्द्रिय संयम आवश्यक ही ला होता है। जब इन्द्रियों का प्रवाह अन्तर्मुखी होता नहीं अनिवार्य है। है वह संयम कहलाता है।
__ एक रूपक है । राजप्रासाद में एक दासी प्रतिभारतीय साहित्य में कूर्म का उदाहरण बहुत दिन राजा और महारानी की शय्या तैयार करती हो प्रसिद्ध रहा है चाहे जैन परम्परा रही हो, चाहे थी। एक दिन उस मुलायम शय्या को देखकर उनके
वैदिक परम्परा और चाहे बौद्ध परम्परा । सभी ने के अन्तर्मानस में यह विचार उद्बुद्ध हुआ-शय्या हा कूर्म के रूपक द्वारा यह बताया है कि कूर्म जब तो बहुत ही मुलायम है दो क्षण सोकर देखू कितना SN खतरा उपस्थित होता है, तब वह अपनी इन्द्रियों आनन्द आता है और ज्योंही उसने सोने का उप21 को गोपन कर लेता है । जब इन्द्रियों को गोपन कर क्रम किया त्योंही उसे गहरी निद्रा आ गई। उसे
लेता है तब कोई भी शक्ति उसे समाप्त नहीं कर पता ही नहीं चला, कितना समय बीत गया है। सकती । इन्द्रिय संयमी साधक को भी कोई भी जब सम्राट सोने के लिए महल में पहुँचे अपनी | बाह्य पदार्थ अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता। शय्या पर दासी को सोया हुआ देखकर उनका क्रोध CB जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य स्थूलभद्र का सातवें आसमान में पहुँच गया और जो हाथ में बेंत STI उदाहरण आता है। स्थूलभद्र कोशा वेश्या के वहाँ की छड़ी थी, उससे जोर से उसकी पीठ पर मारी।।
पर १२ वर्ष तक रहे। पिता की शवयात्रा देखकर दासी हड़बड़ाकर उठ बैठी। सम्राट को देखकर वह
उनके मन में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई और वे एक क्षण स्तम्भित रह गईं। सम्राट ने कहा- तेरी (C) साधना के महापथ पर वीर सेनानी की तरह बढ हिम्मत कैसे हई ? मेरी शय्या पर त तु कैसे सो गई?
गये । तथा गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर वे चार और उन्होंने दूसरी बेंत उसकी पीठ पर दे मारी। GB माह तक कोशा के वहाँ पर रहे । उस रंगमहल में दासी खिलखिलाकर हँसने लगी। ज्यों-ज्यों बेंत लग मा रहकर भी उनका मन पूर्ण विरक्त रहा और वेश्या रहे थे रोने के स्थान पर वह हंस रही थी। र को भी उन्होंने वैराग्य के रंग में रंग दिया। यही सम्राट ने अन्त में उसे हंसने का कारण पूछा। 5 कारण है मंगलाचरण में भगवान महावीर और उसने कहा-राजन् ! मैं भूल से कुछ समय सो गई गौतम के पश्चात् उनका नाम आदर के साथ स्मरण जिससे इतनी मार सहन करनी पड़ी है। आप तो किया जाता है । एक आचार्य ने तो लिखा है- इस पर रात-दिन सोते हैं तो बताइये आपको इन्द्रिय विजेता स्थूलभद्र मुनि का नाम चौरासी कितनी मार सहन करनी पड़ेगी। नरक में कितनी चौबीसी तक स्मरण किया जाएगा।
दारुण वेदना भोगनी पड़ेगी। इतिहास के पृष्ठ इस बात के साक्षी हैं कि जो दासी की बात सुनकर सम्राट को चिन्तन करने राजा-महाराजा और बादशाह इन्द्रियों के गुलाम के लिए बाध्य होना पड़ा कि इन्द्रिय असंयम कितना बने उनका पतन हो गया। और उनके कारण देश खतरनाक है। इन्द्रिय असंयम के कारण ही आत्मा परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा गया। देश को विविध योनियों में भटकता है और दारुण वेदना परतन्त्र बनाने वाले इन्द्रियों के गुलाम रहे। इसी- का अनुभव करता है। इसलिए इन्द्रिय संयम का लिए महामात्य कौटिल्य ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है महत्व समझें । एक-एक इन्द्रिय के आधीन होकर कि शासक और सामाजिक प्राणी को इन्द्रियविजेता प्राणी अपने प्यारे प्राणों को गँवा बैठता है पर जो होना चाहिए । शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी, पाँचों इन्द्रियों के अधीन होता है उसको कितनी आध्यात्मिक जीवन के लिए अतीन्द्रिय चेतना को वेदना भोगनी पड़ती है ? ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को
(शेष पृष्ठ ४६२ पर) सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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५. मन ही माटी, मन हो सोना
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एक युवक एकान्त शांत स्थान पर बैठकर एक देवी ने पूछा-वत्स ! यह बताओ तुम्हारे घर देवी की उपासना कर रहा था। चिरकाल तक में अनुचर होंगे, वे तो तुम्हारी बात को बहुत ही उपासना करने के बाद देवी ने स्वयं प्रकट होकर श्रद्धा से सुनते होंगे? तुम्हारे संकेत पर अपने प्यारे कहा कि तुमने मुझे क्यों स्मरण किया है ? बोलो, प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते होंगे ? तुम्हें क्या चाहिए?
युवक ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहायुवक ने देवी को नमस्कार कर कहा-माँ ! आज के युग में नौकर मालिक बनकर रहते हैं। मेरे अन्तर्मानस में एक इच्छा है कि
मार
मालिक को नौकर की हर बात को मानना पड़ता मेरे वश में हो जाए। मैं जिस प्रक
है। यदि मालिक उनके मन के प्रतिकूल करता है प्रकार वे कार्य करें।
तो वे हड़ताल पर उतारु हो जाते हैं । मालिक को स देवी ने कहा--वरदान देने के पूर्व मेरे कुछ
' सदा यह चिन्ता रहती है कि कहीं नौकर नाराज न प्रश्न हैं ? क्या तुम उन प्रश्नों का उत्तर दोगे ?
हो जाए और इसलिए मालिक सदा नौकर की (NS हाँ, क्यों नहीं दूंगा ? जो भी इच्छा हो, सहर्ष खुशामद करता है कि वे कहीं नाराज होकर न चले आप पूछ सकती हो।
जाएँ इसलिए सदा उनकी बातों पर ध्यान देना _देवी ने पूछा-तुम जहाँ रहते हो। तुम्हारे होता है। म आसपास में अनेक पड़ोसियों के मकान हैं। वे देवी ने अगला प्रश्न किया-अच्छा यह बताओ, अड़ोसी-पड़ोसी तुम्हारे अधीन हैं न ?
तुम्हारे पुत्र और पुत्रियां तो तुम्हारे अनुशासन में उत्तर-माँ ! अड़ोसी-पड़ोसी पर मेरा क्या हैं ना ? वे तो तुम्हारी आज्ञा की अवहेलना नहीं सा अधिकार है, जो मेरे वश में रहें । वे तो सर्वतन्त्र करते होंगे ? स्वतन्त्र हैं । सभी पड़ोसी अपनी मनमानी करते हैं। युवक ने कहा-माँ ! आधुनिक शिक्षा प्राप्त
देवी ने कहा-वत्स ! अड़ोसी पड़ोसी पर बालक और बालिकाओं के सम्बन्ध में क्या पूछ १ तुम्हारा अधिकार नहीं तो यह बताओ कि तुम्हारे रही हो? वे राम नहीं है और न कृष्ण और महा
परिवार के जितने भी सदस्य हैं वे तो तुम्हारे वीर ही हैं जो प्रातःकाल उठकर माता-पिता को संकेत पर नाचते होंगे न?
नमस्कार करते थे। उनकी आज्ञा का पालन करते युवक ने निःश्वास छोड़ते हुए कहा-माँ! थे। पर यह तो कलियुग है, इसमें माता-पिता की आज तो कलियुग है। परिवार के सारे सदस्य आज्ञा का पालन करना तो कठिन रहा, यदि अच्छे अपनी मनमानी करते हैं, न बड़ों का मान है और भाग्य हों तो वे माता-पिता का उपहास नहीं न छोटों पर प्यार है । मेरी शिक्षा भरी बात को करेंगे। आज तो माता-पिताओं को पुत्रों की
भी वे इस तरह से उड़ाते हैं जैसे पतंग आकाश में आज्ञाओं का पालन करना होता है। | उड़ाई जाती है।
देवी ने कहा-वत्स ! यह बताओ तुम्हारी सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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पत्नी तो पूर्ण आज्ञाकारिणी है न ? वह तो सीता थे। सेर का दूसरा अर्थ सिंह भी है। उस शेर के T की तरह तुम्हारी बात को मानती है न?
भी चार पांव होते हैं। चालीस शेरों को जीत __युवक ने कहा-आधुनिक पत्नियाँ घर की जितना कठिन है उससे भी अधिक कठिन है मन मालकिन होती हैं। उनके संकेत पर ही पति को को जीतना।
कार्य करना होता है। यदि पति पत्नी की आज्ञा कुरुक्षेत्र के मैदान में वीर अर्जुन ने श्रीकृष्ण । | का पालन न करे तो उसे रोटी मिलना भी कठिन से कहा-यह मन बड़ा ही चंचल है। वायु की तरह र हो जाता है।
इस पर नियन्त्रण करना कठिन है। ऐसा कौन
सा उपाय है जिससे कि मन अपने अधीन में हो देवी ने कहा-अब मेरे अन्तिम प्रश्न का भी
जायउत्तर दे दो । वह प्रश्न है कि तुम्हारा मन तो
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवददृढम् । तुम्हारे अधीन है न ? तुम मन के मालिक हो या
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। गुलाम हो?
श्रीकृष्ण ने चिन्तन के सागर में डुबकी लगाई __ युवक ने कहा-माँ ! मन तो बड़ा चंचल है।
। और उन्होंने कहा-मन को वश में करने के दो ही प्रतिपल प्रतिक्षण नित्य नई कल्पनाएँ संजोता रहता
उपाय हैं अभ्यास और वैराग्य । निरन्तर अभ्यास है । मैं जितना मन को वश में करने का प्रयत्न
करने से मन एकाग्र होता है और संसार के पदार्थों करता रहता हूँ, उतना ही वह अधिक भागता है।
के प्रति मन में वैराग्य भावना उद्भूत होती है तो बहत प्रयास किया पर मन मानता नहीं। __ देवी ने कहा-वत्स ! जब तुम्हारा मन ही
मन चंचल नहीं होता। तुम्हारे अधीन नहीं है तुम उसके स्वामी नहीं हो तो अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी एक फक्कड सन्त संसार पर तुम्हारा नियन्त्रण कैसे होगा? जिसने थे। आध्यात्मिक साधना में सदा तल्लीन रहने मन को नहीं जीता, वह संसार को जीत नहीं वाले थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों पर सारगर्भित सकता । इसलिए गीर्वाण गिरा के एक यशस्वी अन- और दार्शनिक भावना से संपृक्त चौबीसी का भवी चिन्तक ने कहा है-'मनोविजेता जगतो- निर्माण किया। बड़ी अद्भुत है वह चौबीसी । जब ? विजेता ।' जिसने मन को जीत लिया. वह संसार भी साधक उन पद्यों को गाता है तो श्रोतागण को भी जीत सकता है और जिसने मन को नहीं
में श्रद्धा से झूम उठते हैं। उन्होंने कुन्थुनाथ की प्रार्थना - जीता, वह संसार को कभी जीत नहीं सकता।
में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहो कि 'मन' The
शब्द संस्कृत में नपुंसकलिंग है। नपुसक व्यक्ति में देवी की बात इतनी मार्मिक थी कि युवक के शक्ति नहीं होती। वह कभी भी रणक्षेत्र में जझ एम पास उसका उत्तर नहीं था। मन बड़ा ही चंचल है नहीं सकता। पर मन एक ऐसा नपूसक है जो बड़े बड़े-बड़े साधक भी मन को वश में नहीं कर सके, बड़े वीर शक्तिशाली मर्दो को भी पराजित कर वे भी मन के प्रवाह में बह गये।
देता है। रावण कितना शक्तिशाली था, जिसने हमारे श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्रीपुष्कर देवी शक्तियों को भी अपने अधीन कर रखा था। मुनिजी महाराज ने एक बार कहा कि मन को देवी शक्तियाँ भी उसके सामने काँपती थीं, वह जीतना चालीस सेर से भी अधिक कठिन है । राज- महाबली रावण भी मन का गुलाम था। मन को स्थानी में 'मन' और 'मण' ये दो शब्द हैं । मण जो वह भी न जीत सका । मन के अधीन होकर ही वह एक नाप विशेष है, प्राचीन युग में वह चालीस सेर सीता को चुराने के लिए चल पड़ा। सीता के का एक होता था और एक सेर के चार पाव होते सामने हाथ जोड़कर दास की तरह खड़ा रहता
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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था । सीता उसे फटकारती, कुत्ते की तरह धुत्कारती, तथापि वह गुलाम कुत्ते की तरह दुम हिलाता रहता था। यह नपुंसक मन की शक्ति थी जिसने रावण को भी पराजित कर दिया था इसलिए कवि ने कहा
मैं
लिंग नपुंसक सकल मरद ने ठेले एहने कोइ न झेले न बाझे
बीज बातें समरथ छे नर हो कुन्थुजिन मन किम राजस्थान की एक लोक कथा है कि एक सेठ ने को अपने अधीन किया ! भूत ने कहा कि मैं भूत तुम्हारा जो भी कार्य होगा कर दूंगा पर शर्त यह है कि मुझे सतत् काम बताना होगा जिस दिन तुमने काम नहीं बताया उस दिन मैं तुम्हें निगल
जाऊँगा ।
सेठ बड़ा चतुर था। उसने सोचा कि मेरे पास इतना काम है कि यह भूत करते-करते परेशान हो जायेगा। हजारों बीघा मेरी जमीन है धान्य के ढेर लग जाते हैं तथा अन्य भी कार्य हैं । सेठ ने भूत की शर्त स्वीकार कर ली और कहा जाओ जो मेरी खेती है सबको काट डालो । अनाज का ढेर एक स्थान पर करो और भूसा एक स्थान पर करो । अनाज की बोरियाँ घर में भर दो, कोठार में भर दो । आदेश सुनकर भूत चल पड़ा और कुछ ही क्षणों में कार्य सम्पन्न कर लौट आया। उसने दूसरा कार्य बताया, वह भी उसने कर दिया । उसने पुन: आकर कहा--- बताओ कार्य, नहीं तो मैं तुम्हें खा जाऊँगा । प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न श्रेष्ठी ने भूत से कहा - चौगान में एक खम्भा गाड़ दो और मैं जब तक नया काम न बताऊँ तब तक तुम उस पर चढ़ते और उतरते रहो ।
भूत श्र ेष्ठी की बात सुनकर सोचने लगा कि यह बड़ा चालाक और बुद्धिमान है । मेरे चंगुल में कभी भी फैंस नहीं सकता। वह श्रेष्ठी के चरणों में गिर पड़ा। भारत के उन तत्वदर्शी मनीषियों ने इस लोक कथा के माध्यम से इस सत्य को उजागर किया है कि मन भी भूत के सदृश है । खाली मन सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
शैतान का घर होता है । मन को कभी भी खाली न रखो । मन बालक के सदृश है । बालक के हाथ यदि शस्त्र है तो वह स्वयं का भी नुकसान करेगा और दूसरे का भी । यदि बालक के हाथ से शस्त्र छीनकर ले लिया जायेगा तो वह रोयेगा चिल्लायेगा । समझदार व्यक्ति बालक के हाथ में चमचमाता हुआ खिलोना देता है और उसके पास से शस्त्र ले लेता है | वैसे ही मन रूपी बालक के हाथ में विषय-वासना, राग-द्वेष के शस्त्र हैं, विकथा का शस्त्र है तो उसके स्थान पर उसे स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन का यदि खिलौना पकड़ा दिया गया तो वह अशुभ से हटकर शुभ और शुद्ध में विचरण करेगा । जो मन मारक था वह तारक बन जायेगा ।
जैन साहित्य में एक बहुत ही प्रसिद्ध कथा है । प्रसन्नचन्द्र नामक राजर्षि एकान्त शान्त स्थान में ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे । उस समय सम्राट श्रेणिक सवारी सजाकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए जा रहा था । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यान मुद्रा को देखकर उसका हृदय श्रद्धा से अभिभूत हो गया । सम्राट नमस्कार कर समवशरण की ओर आगे बढ़ गया। कुछ राहगीर परस्पर वार्तालाप करने लगे कि प्रसन्नचन्द्र तो साधु बन गये हैं पर इनके नगर पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया है और वे नगर को लूटने के लिए तत्पर है । ये शब्द ज्योंही राजर्षि के कर्ण -कुहरों में गिरे, उनका चिन्तन धर्म ध्यान से हटकर आर्त्त और रौद्र ध्यान में चला गया और वे चिन्तन करने लगे कि मैं शत्रुओं को परास्त कर दूंगा । मेरे सामने शत्रु एक क्षण भी टिक नहीं सकेंगे । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन में युद्ध की कल्पना प्रारम्भ की । शत्रु सेना दनादन मर रही है । स्वयं युद्ध के लिए सन्नद्ध हो चुके हैं । मन में संकल्प है सभी शत्रुओं को समाप्त करके ही मैं संसार को बता दूंगा कि मैं कितना वीर हूँ ।
सम्राट श्रेणिक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन कर पूछा भगवन् ! मैं श्री चरणों में आ रहा
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था, मैंने मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यानस्थ पूछा कि भगवन् वे मरकर कहाँ जाएँगे इसीलिए अवस्था में देखा। वे इस समय काल कर जाएँ तो मैंने सातवीं नरक की बात कही और जब यद्ध में की कहाँ पर पधारेंगे?
उनका हाथ सिर पर गया और उन्हें स्मरण हो । - भगवान् ने जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे, कहा- आया कि मैं तो साधु हूँ, साधु होकर मैं कहाँ भटक 'श्रेणिक ! इस समय यदि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आयु गया। पश्चात्ताप की आग में सुलगने लगे और कर्मों। पूर्ण करें तो सातवीं नरक में जायेंगे। श्रेणिक के की निर्जरा करते हुए उन्होंने केवलज्ञान और केवल ।। आश्चर्य का पार न रहा । एक महासन्त जो ध्यान- दर्शन को प्राप्त कर लिया है। इसीलिए भारत के lir स्थ है मेरु पर्वत की तरह अडोल है, वे सातवीं नरक महामनीषियों ने कहा है-'मन एव मनुष्याणां D में कैसे जाएँगे। कुछ क्षण रुककर पुनः जिज्ञासा कारणं बन्ध मोक्षयोः ।' मन से ही कर्मों का बन्धन प्रस्तुत की इस समय आयु पूर्ण करेंगे तो कहाँ होता है और मन से ही कर्मों की मुक्ति भी होती है। जाएँगे। भगवान ने कहा-छट्ठी नरक में । पुनः मन विष भी है और अमृत भी है। प्रश्न उठा । अब कहां जाएँगे ? भगवान ने पांचवीं, एक तिजोरी है। वह तिजोरी जिस चाबी से || चोथी, तीसरी, दूसरी और पहली नरक की बात खोली जाती है उसी चाबी से वह तिजोरी बन्द भी कही। उसके पश्चात् स्वर्ग में उत्तरोत्तर विकास होती है। केवल चाबी को घुमाने से ही तिजोरी । की स्थिति बताई और सम्राट सोच ही रहे थे कि बन्द भी होती है. और खुलती भी है । वैसे ही मन यह गजब की पहेली है । कहाँ सातवीं नरक और की तिजोरी भी अशुभ विचारों से कर्म का बन्धन र कहाँ सर्वार्थसिद्ध देवलोक कुछ ही क्षणों में पतन से करती है और शुभ विचारों से कर्म को नष्ट भी उत्थान की ओर गमन ? इतने में सम्राट के कर्ण करती है इसलिए हमें अशुभ विचारों से हटकर शुभ कुहरों में देव दुन्दुभि गडगडाने की आवाज आई। विचारों में रमण करना चाहिए। इसीलिए मैंने सम्राट ने पूछा कि देव दुन्दुभि की आवाज कहाँ से प्रवचन के प्रारम्भ में रूपक की भाषा में उस सत्य आ रही है भगवन् ! भगवान् ने स्पष्टीकरण किया को उजागर किया कि जब तक तुम अपने मन पर कि प्रसन्न चन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान और केवल नियन्त्रण नहीं कर सकोगे, तब तक विश्व पर नियंदर्शन हो चुका है।
त्रण नहीं कर सकते । मन हमारा मित्र भी है और सम्राट श्रेणिक ने सहज जिज्ञासा प्रस्तुत की- दुश्मन भी है। मन से ही मोक्ष मिलता है। बिना ६ मैं इस अबूझ पहेली को नहीं बुझा सका हूँ। यह मन वाले प्राणी को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और न रहस्यमयी बात मेरी समझ में नहीं आई है। भग- अणवत और महावत ही प्राप्त होते हैं अतः हम वान ने समाधान की भाषा में कहा-प्रसन्नचन्द्र मन को साधे । मन को अपने नियन्त्रण में रखें तभी
राजर्षि के अन्तर्मानस में जो द्वन्द युद्ध चल रहा था आनन्द का महासागर ठाठे मारने लगेगा। (EPh) और वे युद्ध की पराकाष्ठा पर थे तब तुमने मेरे से
(शेष पृष्ठ ४८८ का) . सातवीं नरक में ले जाने वाला इन्द्रियों का असंयम वाले राजा की कहानी बताई। आप सम्यक प्रकार
था। अरणक मुनि जब इन्द्रियों के प्रवाह में बहे से समझ गए होंगे कि इन्द्रिय संयम की कितनी तो साधना से भटक गये और जब इन्द्रियों पर आवश्यकता है । आज भौतिकवाद के युग में इन्द्रिय उन्होंने नियन्त्रण किया तो मोक्ष में पहुँच गये । हम असंयम के अनेक साधन उपलब्ध हैं। हम उनके 8 भी इन्द्रिय संयम कर अपने जीवन को महान बना प्रवाह में न बहें तभी आत्मा से परमान्मा और नर। सकते हैं । इन्द्रियों के प्रवाह में न बहें इसीलिए मैंने से नारायण बन सकेंगे। प्रारम्भ में आपको इन्द्रिय प्रवाह में प्रवाहित होने ४६२
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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चिन्तन सूत्र
१. सुख और दुख
मध्याह्न का समय था। मैं स्वाध्याय, ध्यान और चिंतन में तल्लीन थी । मैं जहाँ पर बैठी हुई थी। उसके सामने ही एक सद्गृहस्थ का मकान था । यकायक मेरी दृष्टि उधर गई। मैंने देखा कि पोस्टमेन डाक वितरण करता हआ, उसके द्वार पर रुका। उसने द्वार खटखटाया। घर की मालकिन ने द्वार खोला, पोस्ट-मेन ने उसके हाथों में बीस हजार रुपये का मनीआर्डर थमाया । मालकिन बीस हजार रुपये लेकर प्रसन्नता से झूम उठी । पोस्टमेन को चाय पिलाकर मालकिन ने विदा किया।
प्रतिदिन की तरह उसी स्थान पर बैठकर जब मैं ध्यान और स्वाध्याय से निवृत्त हुई तब पोस्टमेन की आवाज से मेरा ध्यान भंग हो गया। मैंने देखा-पोस्टमेन आज मनीआर्डर नहीं लेकर आया है। वह तो वी. पी. लेकर आया है । जिस वी. पी. को मालकिन ने पैसा देकर छुड़वा लिया।
मैं चिन्तन करने लगी-पोस्टमेन हमेशा मनीआर्डर हो नहीं लाता। कभी वी. पी. लाता है और कभी मनीआर्डर । पर दोनों ही स्थिति में घर की मालकिन के चेहरे पर किसी प्रकार की शिकायत नहीं है । मनीआर्डर लेने में भी प्रसन्न है तो वी. पी. लेने में भी। हमारे जीवन में भी कभी सुख का मनीआर्डर आता है तो कभी दुख की वी. पी. भी आती है। हम सुख का मनीआर्डर लेने में खुश हैं पर दुख की वी. पी. लेने से कतराते हैं। पर साधक वह है जो सुख और दुख की दोनों ही स्थितियों में सम रहता है ।
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सप्तम खण्ड: विचार-मन्थन
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चिन्तन सूत्र
२. जीवन का अभिशाप-दुर्व्यसन
प्रातःकाल का समय था। रुग्ण श्रेष्ठी ने अपनी पत्नी से कहा कि आज रात्रि में मेरा स्वास्थ्य काफी खराब रहा । जरा पुत्र को फोन कर कह दो कि वह आकर मेरे शरीर का परीक्षण करें। क्योंकि मैं स्वयं चलकर उसके हॉस्पीटल नहीं पहुँच सकूगा।
पत्नी ने उसी समय फोन किया। फोन मिलते ही डाक्टर कार में बैठकर पिता की सेवा में पहुँच गया। उसने पिता के शरीर को अच्छी तरह से देखा और कहा-पूज्य पिताश्री ! यदि आप पूर्ण स्वस्थ बनना चाहते हैं तो सिगरेट को छोड़ना होगा। धूमपान बन्द करना होगा। जब तक ध्र मपान बन्द न करेंगे आप रोग से मुक्त नहीं हो सकेंगे।
पिता ने दीर्घ श्वास लेते हुए कहा-वत्स ! मैंने तुझे पढ़ाने के लिए घर के आभूषण बेच दिये, बंगला बेच दिया। खेती की जमीन भी मैंने गिरवी रख दी। अब तो केवल एक ध्र मपान बचा है वह तो रहने दे।
पिता पुत्र का संवाद चल ही रहा था कि मैं अपनी शिष्याओं के साथ सेठ की रुग्णता के समाचार सुनकर मंगलपाठ सुनाने पहुँच गई थी। मैं वार्तालाप को सुनकर चिन्तन करने लगी कि दुर्व्यसन एक धागा है और प्रतिपल-प्रतिक्षण हम उस धागे को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करते रहते हैं। एक दिन वह दुर्व्यसन हमारे पर इतना आधिपत्य जमा लेता है कि हम उस व्यसन से मुक्त नहीं हो सकते।
मैंने देखा है टायर के अन्दर पड़ा हुआ छोटा सा छिद्र टायर को फोड़ देता है और चलती हुई ट्रक या बस एक क्षण में रुक जाती है । छोटासा व्यसन भी एक दिन जीवन को बरबाद कर देता है। एक दिन व्यक्ति व्यसन को पकड़ता है पर वही व्यसन उस पर हावी हो जाता है।
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सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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चिन्तन सूत्र
३. सद्गुणों का प्रचार हो
मैं एक बार सोक्रेटिस के जीवन प्रसंगों को पढ़ रही थी। पढतेपढ़ते एक ऐसा प्रसंग आया जिसने मेरे मन मस्तिष्क को झकोर दिया।
प्रसंग था-सोक्रेटिस की पत्नी अत्यन्त ऋद्ध प्रकृति की थी। छोटीछोटी बात पर उसका मूड़ बिगड़ जाता था। एक बार ऋद्ध होकर उसने ठण्डे पानी का घड़ा सोक्रेटिस के सिर पर उड़ेल दिया और ज्योंही घड़ा उड़ेला त्योंही सोक्रेटिस घर से बाहर निकल गये ।
एक व्यक्ति जो दूर से यह दृश्य देख रहा था वह खिल-खिलाकर हँस पड़ा और मुस्कराते हुए कहा-तुम तो बड़े कायर निकले । जो घर छोड़कर भाग रहे हो।
सोक्रेटिस ने गम्भीर मुद्रा में कहा-मैं कायर नहीं हूँ। पति और पत्नी के बीच का यह झगड़ा तमाशा का रूप न ले ले इसीलिए मैं घर से बाहर निकल पड़ा हूँ।
मैं इस प्रसंग को पढ़कर सोचने लगी कि उस युग में सोक्रेटिस को यह पता नहीं था कि दो की लड़ाई टी. वी. के माध्यम से घर-घर में फैल जाएगी। आज जहाँ कहीं भी झगड़ा, खून आदि होता है वे दृश्य टी. वी. पर दिखाये जाते हैं और समाचार पत्रों में भी इसी प्रकार की सूचनाएँ आकर्षक रूप में छापी जाती हैं और उसका परिणाम कितना विकृत हो रहा है, यह हम स्वयं आँखों से निहार रहे हैं। रामायण को टी. वी. के पर्दे पर निहार कर करोड़ों व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भी राम नहीं बना, न भरत बना और न लक्ष्मण ही और न सीता का ही किसी ने आदर्श उपस्थित किया पर दुर्गुणों को मानव सहज रूप से ग्रहण करता है। आवश्यकता है दुर्गुणों का प्रचार रोका जाए और सद्गुणों का प्रचार किया जाए।
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सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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चिन्तन सूत्र
४. तर्क और श्रद्धा
सड़क पर कार सरपट दौड़ी जा रही थी। एक व्यक्ति सड़क के किनारे चल रहा था। कार की झपट में आ गया और देखते-देखते कार उस पर से होकर आगे बढ़ गयी । खून के फव्वारें छूट गये । इस करुण दृश्य को देखकर एक दयालु व्यक्ति का हृदय द्रवित हो उठा उसने कार के नम्बर नोट किये और कार के ड्राइवर पर कोर्ट में केस कर दिया।
ड्राइवर की ओर से वकील ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि ड्राइवर निरन्तर दस वर्ष से कार चला रहा है इसलिए उसका कोई गुनाह नहीं है ।
उस व्यक्ति के वकील ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि जो व्यक्ति मारा गया है वह व्यक्ति तीस वर्ष से सड़क पर निरन्तर चल रहा था। इसलिए उसका कोई कसूर नहीं है।
जब मैंने प्रस्तुत घटना समाचार पत्र में पढ़ी तो सोचने लगी कि तर्क दुधारी तलवार है । जिसकी बुद्धि तीक्ष्ण है, वह उतनी ही तीक्ष्ण तर्क प्रस्तुत करता है । इस संसार में तर्क से कभी समाधान नहीं हुआ है जब तक श्रद्धा न हो तब तक तर्क भटकाती है । श्रद्धायुक्त तर्क ही सम्यग्दर्शन का भूषण है । आगम साहित्य में जहाँ शंकाएं उत्पन्न होती हैं वहाँ पर श्रद्धा भी साथ में है। आज हम तर्क करना जानते हैं पर बिना श्रद्धा का तर्क केबल बौद्धिक खिलवाड़ है।
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लघु निबन्ध
नारी नारायणा
भारतीय संस्कृति अत्यधिक प्राचीन और किये, ऐसी अत्यन्त सुकुमार नारियाँ भी जब साधना विशाल संस्कृति रही है। प्रस्तुत संस्कृति रूपी के क्षेत्र में आगे बढ़ीं तो कठोर कंटकाकीर्ण महासरिता का प्रवाह विविध आयामों में विभक्त होकर मार्ग पर उनके मुस्तैदी कदम रुके नहीं । भीष्मप्रवाहित होता रहा । यदि हम उन सभी प्रवाहों को ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में भी वीरांगना की दो धाराओं में विभक्त करें तो उसकी अभिधा होगी तरह नंगे पाँव निरन्तर आगे बढ़ती रहीं। उन्होंने वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति । इन दोनों यह सिद्ध कर दिया कि 'जे कम्मेसूरा ते धम्मे सूरा' KC धाराओं का सम्मिलित रूप ही भारतीय संस्कृति भगवान् महावीर के शासन में छत्तीस हजार है। इन दोनों संस्कृतियों का साहित्य, वेद, उप- श्रमणियाँ थीं जिनमें साध्वीप्रमुखा थी महातपनिषद, आगम और त्रिपिटिक रहा है। जब हम उस स्विनी चन्दनबाला । जिन्होंने उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं तो नारी की महिमा की प्रवर्तिती पद प्रदान किया था। भगवान महाऔर गरिमा का भी वर्णन मिलता है तो दूसरी वीर के शासन में श्राविकाओं की संख्या तीन लाख ओर नारी के निन्दनीय रूप की भी उजागर किया अठारह हजार थी। उनमें अनेक प्रतिभासम्पन्न गया है । यह सत्य है कि वैदिक महर्षियों की अपेक्षा श्राविकाएं थीं । भगवती सूत्र में जयन्ति श्रमणो-43) श्रमण संस्कृति के तीर्थंकरों ने नारी के जीवन के पासिका का उल्लेख आता है जिसने श्रमण भग-IKe उदात्त और उदार रूप को विशेष अपनाया है। वान महावीर से अनेक तात्विक प्रश्न किये जो || तथागत बुद्ध प्रारम्भ में नारी के प्रति असहिष है उसकी प्रकृष्ट प्रतिभा के द्योतक रहे पर जैन संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित होकर नारी यों वैदिक संस्कृति में भी गार्गी महाविदुषी के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार बन गया। रही । अनेक ऋचाओं का निर्माण भी वैदिक संस्कृति 5 ___ जैन साहित्य में नारी का जो रूप हमें प्राप्त में पली-पुसी नारियों ने किया। बौद्ध परम्परा में होता है। उसे पढ़कर चिन्तकों के मस्तक श्रद्धा से शुभा और संघमित्रा जैसी प्रतिभासम्पन्न नारियों नत हो जाते हैं। श्रमण भगवान महावीर ने अपने ने इतिहास को एक नई दृष्टि प्रदान की। नारी का चतुर्विध संघ में दो संघ का सम्बन्ध नारी से रखा सर्वतोमुखी विकास जैन और बौद्ध ग्रन्थों में देखने है। एक श्राविका है और दूसरी श्रमणी। धर्म के का मिलता । क्षेत्र में नारी के कदम पुरुषों से आगे रहे हैं । अन्त- नारी मानवता के इतिहास की प्रधान नायिका कृद्दशांग सूत्र में काली, महाकाली, सुकाली आदि है जिसके आधार पर राष्ट्रों ने प्रगति की, धर्मों श्रमणियों ने तप के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित का उदय हुआ। मानव हृदय एक दूसरे से मिले, किया है वैसा कीर्तिमान सभी श्रमण स्थापित परस्पर के सम्बन्धों में सुधार हुआ, मधुरता का नहीं कर सके । जो नारी एक दिन पुष्पों पर चलने संचार हुआ। सेवा और समर्पण की प्रतिमूर्ति नारी से भी कतराती थी जिन्होंने सूर्य के दर्शन भी नहीं ने अपनी विभिन्न भूमिकाओं में समाज को जो दिया
(शेष पृष्ठ ५०१ पर) सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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इनिवन्ध
जैन दर्शन में अनेकान्त
जैन दर्शन के भव्य प्रासाद के चार मुख्य स्तम्भ तरंगों से तरंगित होता हुआ अनन्त धर्मात्मक वस्तु हैं, उन्हीं के आधार पर यह महल टिका हुआ है- का सुस्पष्ट प्रतिपादन करता है जिससे समग्र विरोध CM (१) आचार में अहिंसा, (२) विचारों में अनेकान्त, उपशान्त हो जाते हैं। इस विरोध मथन करने 21 (३) वाणी में स्याद्वाद और (४) समाज में अपरि- वाले अनेकान्त को आचार्य अमृतचन्द्र ने नमस्कार |
ग्रह। यदि इन चारों में से एक की भी कमी हो किया है
जाती है तो जैन दर्शन का प्रासाद डगमगाने लगता परमागमस्य बीज अा है । हमें इन चारों की रक्षा करनी चाहिए । आज के
निषिद्ध जात्यन्ध सिन्दूर विधानम् ।। || युग में जैन दर्शन के अनुयायियों में इसकी कमी सकल नय विलसितानां देखी जाती है और यह कमी ही जैन धर्म के ह्रास
विरोधमथनं नमामि अनेकान्तम् ।। Dil का कारण है। बुद्धिजीवी जैन दार्शनिकों, अणु
अर्थात् जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति विधान का ( व्रती-महाव्रतियों तथा धर्मश्रद्धालु श्रावकों का ध्यान ।
निषेधक समस्त नयों से विलसित वस्तु स्वभाव के इस ओर जाना चाहिए कि हम अनेकान्ती हैं वस्तु- विरोध का शामक उत्तम जैन शासन का बीज स्वरूप के ज्ञाता हैं फिर क्यों परस्पर वैमनस्य भाव
अनेकान्त सिद्धान्त को मैं (आचार्य अमृतचन्द्र) नम-K रखकर झगड़ते हैं।
स्कार करता हूँ। ___ भगवान महावीर ने वस्तु को अनेक धर्मात्मक
इसी प्रकार सन्मति तर्क के कर्ता न्यायावतार के बतलाया है उस अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि या नयदृष्टि का प्रयोग।
लेखक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी अनेकान्त
को नमस्कार किया हैबतलाया है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तू का परिजा ज्ञान अनेक दृष्टियों अर्थात् विभिन्न पहलुओं से ही जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा न निव्वइए । ना हो सकता है । एक से नहीं । 'अन्त' शब्द का अर्थ तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ॥ धर्म होता है जिसमें अनेक धर्म पाये जायें वह
-सन्मति तक ३/६८ अनेकान्त है । इस अनेकान्त विचारधारा को स्या- अर्थात् जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा (RL द्वाद की निर्दोष भाषा से अभिव्यक्त किया जाता है। नहीं चल सकता उस तीन भुवन के एकमात्र गुरु
जब यह अनेकान्तवाद स्याद्वाद की गंगा में बहता अनेकान्तवाद को मैं नमस्कार करता हूँ। है तब किनारे के मिथ्यावादों का स्वतः निरसन हो इससे सिद्ध होता है कि यह अनेकान्तवाद जाता है । यह वाद अपनी अलौकिक नाना नयों की समस्त विरोधों को शान्त करने वाला, लोक व्यव
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हार को सुचारु रूप से चलाने वाला और वस्तु- भी अनेकान्त का द्योतक अथवा एकान्त दृष्टि का स्वरूप का सच्चा परिचायक है। इसके जाने बिना निषेधक है । इसी की पुष्टि में आचार्य विद्यानन्दी का पग-पग पर विसंवाद खड़े होते हैं। न केवल अन्य- ने कहा हैवादियों के विरुद्ध ही अपितु अपने स्वयं के वादों में "स्यादिति शब्दोऽनेकान्तद्योति प्रतिपत्तव्यो"
ही विवाद उपस्थित हो जाते हैं । इसमें कोई सन्देह अर्थात् स्यात् शब्द को अनेकान्त का द्योतक समझना | नहीं कि भगवान महावीर के अनुयायियों में भी जो चाहिये। स्वामी अकलंक देव ने भी स्यावाद का ||7G फिरकापरस्ती, लड़ाई-झगड़े, खींचतान देखने को पर्याय अनेकान्त को ही बताया है और बतलाया है । मिलती है वह इस अनेकान्तवाद को न समझने के
कि यह अनेकान्त सत् असत, नित्यानित्यादि सर्वथा कारण ही है।
एकान्त का प्रतिक्षेप लक्षण है। "सदसन्नित्यादि यह अनेकान्त अपेक्षावाद के नाम से भी प्रख्यात सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" अर्थात् सर्वथा है । मुख्य और गौण विवक्षा या अपेक्षा ही इसका एकान्त का विरोध करने वाला अनेकान्त कथञ्चित् आधार है। वस्तु के एक-अनेक, अस्ति-नास्ति, नित्य- अर्थ में स्यात् शब्द निपात हैअनित्य, तत्-अतत्, सत्-असत् आदि धर्म अपेक्षा से "सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तता द्योतकः कथ-मा ही कहे जा सकते हैं । वक्ता की इच्छा के अनुसार ञ्चिदर्थ स्याच्छब्दो निपातः" । समंतभद्र ने भी कहे जाते हैं । ज्ञानी को उसके अभिप्राय को जानकर स्याद्वाद का लक्षण अपने देवागमस्तोत्र में कितना ही वस्तु को समझने में उपयोग लगाना चाहिए। सन्दर किया हैबिना अपेक्षा के वस्तु का सही स्वरूप नहीं कहा जा
स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किं वृत्तचिद्धिधि । सकता है और न समझा जा सकता है। आचार्य
सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ श्री उमास्वाति ने : 'अर्पितानर्पित सिद्ध:'-अर्थात् वक्ता जब एक धर्म का प्रतिपादन करता है तो
___कहने का तात्पर्य है कि सभी जैनाचार्यों ने दसरा धर्म गौण कर देता है और जन सोशको अनेकान्त एवं स्याद्वाद को सर्वथा एकान्तवाद का कहता है तब अन्य धर्म को गौण कर देता है । यही
खण्डन करने वाला, विधि निषेध को बताने वाला, वस्तु के कथन का क्रम है और यही समझने का।
हेयोपादेय को समझाने वाला कहा है। जब तक हम पंचाध्यायी कर्ता ने लिखा है
इस अनेकान्त को व्यावहारिक नहीं करेंगे और मात्र
शास्त्रों की वस्तु ही रखेंगे तब तक कल्याण नहीं हो स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं
सकता । जैसे आम की अपेक्षा आंवला छोटा होता
त्वनकमेक च। किन्तबेर की अपेक्षा बड़ा होता है। उसी प्रकार || तदतच्चेतिचतुष्टययुग्मैरिव गुम्फितं वस्तु ।। म
मनुष्यत्व की अपेक्षा राजा और रंक समान होते हैं, अर्थात् स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् नित्य, पण्डित और मूर्ख समान होते हैं किन्तु फिर भी स्यात् अनित्य, स्यात् एक, स्यात् अनेक,स्यात् सत्, उनमें परस्पर कितना अन्तर होता है । इसे कोई || स्यात् असत् इस प्रकार चार युगलों की भाँति वस्तु इनकार नहीं कर सकता। पिता-पुत्रादि के नाते भी IS | अनेक धर्मात्मक है।
अपेक्षाकृत कहे जाते हैं। इस प्रकार यह अनेकान्त |. इस प्रकार अनेकान्तवाद अपेक्षावाद कथञ्चिद्- अथवा अपेक्षावाद शास्त्रों में ही नहीं, व्यवहार* वाद और स्याद्वाद ये सब एकार्थवाची हैं । स्यात् परक भी सिद्ध होता है। द्रव्यदृष्टि वस्तु के ध्रौव्य )
का अर्थ कथञ्चित् अर्थात् किसी अपेक्षा से है । स्यात् रूप का द्योतन कराती है तो पर्यायदृष्टि उसकी शब्द व्याकरण के अनुसार अव्यय है, जिसका अर्थ उत्पत्ति व विनाश का ज्ञान कराती है । कोई भी
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वस्तु मूल रूप से सर्वथा नष्ट नहीं होती, उसकी पर्याय ही नष्ट होती है । जैसे कोई स्वर्णाभूषण है, चाहे उसे कितनी ही बार गलाकर बदल लें, बदल जायेगा । आज वह कुण्डल है तो कालान्तर में उसका कटक बनाया जा सकेगा फिर कभी अन्य आभूषण बन जायेगा परन्तु वह अपने स्वर्णपन से च्युत नहीं होगा इसी भाँति वस्तु में परिवर्तन पर्यायापेक्षा से होता है । द्रव्य अपेक्षा से नहीं । आज जो गेहूँ है वही आटा बन जाता है । फिर वही रोटी भोजन, मल, खाद आदि नाना पर्यायों को धारण करता है | इतना होने पर भी कोई विरोध नहीं आता । उसी प्रकार अनेकान्त के सहारे वस्तु को समझने में कोई विरोध नहीं आता । आज कोई धनादि के होने से धनाढ्य है तो कल वही उसके अभाव में रंक गिना जाता है । आज कोई रोग से रोगी है तो कल वह निरोगी कहलाता है । जोवन और मरण का क्रम भी इसी प्रकार हानोपादान के माध्यम से चलता रहता है । स्याद्वादी अनेकान्तवादी कभी भी दुखी या मायूस नहीं होता । वह वस्तु का परिणमनशीलपना भलीभांति जानता है । परिणमन के अभाव में वस्तुत्व धर्म समाप्त हो जाता है । जो व्यक्ति इसको नहीं जानता वह दुःखी होता है। संयोग और वियोग का सही स्वरूप जिसे ज्ञात नहीं है वह अज्ञानी इष्ट वस्तु के संयोग में हर्ष और वियोग में दुःखी होता है । ज्ञाता इससे विपरीत माध्यस्थ भाव धारण करता है । इसी विषय पर स्वामी समन्तभद्र ने लिखा हैघटमोलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक, प्रमोद माध्यस्थं जनोयाति सहेतुकम् ||
के
अर्थात् जैसे सोने के कलश को गलाकर मुकुट बनाया गया तो कलशार्थी को दुःख होगा । मुकुट इच्छुक को प्रसन्नता होगी किन्तु जो मात्र स्वर्ण ही चाहता है उसे न हर्ष होगा न विषाद । वह मध्यस्थ रहेगा । इसी प्रकार लोक में विभिन्न वाद अपनी-अपनी मान्यता को लेकर उपस्थित होते कोई शून्यवादी है तो कोई सदैश्वरवादी । कोई द्व ेत
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५००
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वादी है तो कोई अद्वैत को मानते हैं । कोई नित्यवादी है तो कोई सर्वथा अनित्यवादी है, क्षणिक वादी है । अनेकान्त का ज्ञाता कभी इनसे विवाद नहीं करता । वह अपने अनेकान्त से वस्तु के असली स्वरूप को समझकर नय-विवक्षा लगाता है और सभी को स्वीकार करता है कि वस्तु कथञ्चित् नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी है अनेक भी है । द्वैत भी है और अद्वैत भी है । वह सब दशाओं में 'भी' से काम लेता है 'ही' से नहीं । वह कभी नहीं कहेगा कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य ही है, एक ही है, अनेक ही है, अतः स्पष्ट ही है कि अनेकान्तदर्शन समस्त वादों को मिलाकर वस्तु तत्व को निखारता है । अनेकान्ती जानता है कि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । न केवल सामान्य है तो न केवल विशेष । न सर्वथा भाव स्वरूप है तो न सर्वथा अभाव रूप । स्वामी समन्तभद्र ने इसी तथ्य को युक्त्यनुशासन में कहा है
व्यतीत सामान्य विशेषवाद्विश्वाखिलापाऽर्थ
विकल्पशून्यम् । खपुष्पवत्स्यादसदेव तत्वं प्रबुद्ध तत्वाद्भवतः परेषाम् ॥
अर्थात् एकान्तवादियों का तत्व सामान्य और विशेष भावों से परस्पर निरपेक्ष होने के कारण 'ख' पुष्पवत् असत् है क्योंकि वह भेद व्यवस्था से शून्य है । तत्व न सर्वथा सत् स्वरूप ही प्रतीत होता है। और न असत्स्वरूप ही, परस्पर निरपेक्ष सत् असत् प्रतीति कोटि में नहीं आता किन्तु विवक्षावशात् अनेक धर्मों से मिश्रित हुआ तत्व ही प्रतीति योग्य होता है ।
कुछ कहते हैं कि जो वस्तु अस्ति रूप है वह नास्ति रूप कैसे हो सकती है ? इसी के साथ उभय रूप, अनुभय रूप, वक्तव्य अव्यक्तव्य कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि - उक्त सातों भंग विधि प्रतिषेध रूप प्रश्न होने पर सही स्थिति में सिद्ध होते हैं । कहा भी है
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"प्रश्नवशादेकत्र वस्तूनि अविरोधेन विधि प्रति- के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म प्रमुख होता है तब षेध कल्पना सप्तभंगी।"
दूसरा गौण हो जाता है। इसमें संशय और मिथ्या(१) स्यादस्ति,(२) स्यादनास्ति, (३) स्यादस्ति- ज्ञानों की कल्पना भी नहीं है । अन्य मतावलम्बियों * नास्ति, (४) स्याद् अवक्तव्य, (५) स्यादस्ति अव
ने भी अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है । अध्यात्म क्तव्य, (६) स्यान्नास्ति अवक्तव्य, (७) स्यादस्ति
उपनिषद में भी कहा हैनास्तिअवक्तव्य । ये सातों भंग विधि प्रतिषेध
भिन्नापेक्षायथैकत्र, पितृपुत्रादि कल्पना । TH कल्पना के द्वारा विरोध रहित वस्तु में एकत्र रहते
नित्यानित्याद्यनेकान्त, स्तथैव न विरोत्स्यते ।। है और प्रश्न करने पर जाने जाते हैं । वस्तु स्वद्रव्य, वैशेषिक दर्शन में कहा है-सच्चासत् । स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा अस्तिरूप यच्चान्यदसदस्तदसत । है तो परद्रव्य, परक्षत्र, परकाल और परभाव को इस प्रकार अन्य दर्शनों में भी अनेकान्त की अपेक्षा नास्तिरूप है। उक्त सात भंगों में 'स्यात्' सिद्धि मिलती है। हमको अनेकान्तदृष्टि द्वारा ही शब्द जागरूक प्रहरी बना हुआ है जो एक धर्म से वस्तु को ग्रहण करना चाहिए। एकान्तदृष्टि वस्तु दूसरे धर्म को मिलने नहीं देता, वह विवक्षित सभी तत्व का ज्ञान कराने में असमर्थ है। अनेकान्त धर्मों के अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा करता है । इस कल्याणकारी है, और यही सर्व धर्म समभाव में स्यात् का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है । वक्ता कारणरूप सिद्ध हो सकता है ।
__(शेष्ठ पृष्ठ ४६७ का) है, उसका सही मूल्यांकन करना बहुत ही कठिन है देह को प्रस्तुत किया जाय । जो नारी माता-भगिनीसामाजिक कदर्थनाओं के यन्त्र में पिसी जाकर भी पुत्रो जैसे गरिमामय पद पर प्रतिष्ठित रही, जो इक्षु की तरह वह सदा मधुर माधुर्य लुटाती रही सत्य और शील की साक्षात्मूर्ति रही, उनको चन्द
चांदी के टुकड़ों के लोभ में फंसे हुए इन्सान जिस नारियो ! युग की पुकार है । तुम्हें जागना है। रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हमारी संस्कृति के वासना के दलदल से तुम्हें मुक्त होना है। तुम्हारा साथ धोखा है । भारतीय संस्कृति में नारी नारागौरव इसमें नहीं कि विज्ञापनों में तुम्हारे अर्धनग्न यणी के रूप में प्रतिष्ठित रही है।
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सम्यग्दर्शन का स्वरूप
सम्यग्दर्शन क्या है ? सम्यग्दर्शन से जीवन में के हृदय में भय का प्रगाढ़ अन्धकार छाया
तन होता है ? यह एक चिन्तनीय विषय रहेगा तब तक यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा । है। इस विषय को समझे बिना हमारे जीवन में जा सकता कि उसने सम्यग्दर्शन का दिव्य प्रकाश विकास नहीं हो सकता । अध्यात्म-साधक अन्य कुछ प्राप्त कर लिया है। निश्चय ही जिसने सम्यग्दर्शन हुन भी न समझे, किन्तु सम्यग्दर्शन के वास्तविक स्वरूप के समुज्ज्वल रत्न को उपलब्ध कर लिया है उसके को उसे समझना होगा । सम्यग्दर्शन रूपी दिव्य- जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहेगा। रत्न को पाया, तो सब कुछ ही पाया। यदि इस अतएव यह सुस्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन की साधना रत्न को नहीं पाया, तो कुछ भी नहीं पाया । इस और आराधना अभय की साधना है,आराधना है । वतन्यस्वरूप आत्मा ने अनन्त बार स्वर्ग का सुख जो साधक कदम-कदम पर भयग्रस्त हो जाता है, पाया और भमण्डल पर राज-राजेश्वर का अपार वह अपनी साधना में सफलता अधिगत नहीं कर वैभव पाया परन्तु इस अमूल्य रत्न के अभाव में सकता । साधना के मंगलमय मार्ग पर वह बहुत अपनी आत्मा का ज्योतिर्मय रूप नहीं पा सका। आगे नहीं बढ़ सकता । मोक्ष की साधना में सबसे नारकीय दुःख तथा स्वर्गीय सुख पवित्रता प्रदान पहली और महत्वपूर्ण बात है-निर्भय होने की। नहीं कर सकते । जिस प्रकार दुःख आत्मा का एक निर्भयता का उद्भव सम्यग्दर्शन से होता है। दूषित भाव है उसी प्रकार सुख भी आत्मा का आत्मा अनादिकाल से सदा एक समान रहा मलिन भाव है । यह भी सत्य है कि सुख आत्मा है । वह कभी भी जीव से अजीव नहीं बना है, चेतन को प्रिय है और दुःख उसे अप्रिय रहा है किन्तु सुख से अचेतन नहीं बना है। इसके मौलिक स्वरूप में एवं दुःख दोनों ही आत्मा के मलिन भाव हैं। कभी कोई न्यूनता एवं अधिकता नहीं हुई । उसका आत्मा की मलिनता को दूर करने का एकमात्र एकांश भी कभी बना नहीं, बिगड़ा नहीं, आत्मा अमोघ साधन यदि कोई हो सकता है तो वह सम्यग्- सदा-सदा से आत्मा ही रहा है। आत्मा कभी दर्शन है। यदि आप अध्यात्म-साधना के भव्य- अनात्मा नहीं बन सकता और अनात्मा भी आत्मा मन्दिर में प्रवेश करके आत्मदेव की उपासना नहीं बन सकता । फिर भी जीवन में किस बात की करना चाहते हैं--तो उस रमणीय मन्दिर में कमी है कि यह संसारी आत्मा क्यों विलखता है, प्रविष्ट होने के लिए आपको सम्यग्दर्शन के द्वार से क्यों रोता है ? आत्मा अविनाशी एवं अजन्मा मान प्रवेश करना होगा। यदि सम्यग्दर्शन की दिव्य- लेने पर तो जीवन में अभाव नहीं रहना चाहिए ज्योति अन्तरंग और अन्तरात्मा में जगमगा उठी फिर भी यह मानव इधर से उधर और उधर से और अपने ज्योतिर्मयस्वरूप और अनन्तशक्ति की इधर क्यों भटकता है ? दो बातें हो सकती हैंपहचान हो गई । सम्यग्दर्शन रूप चिन्तामणि रत्न या तो उसे अपनी चैतन्य स्वरूप आत्मा की अमरता को पाकर भयभीत आत्मा अभय हो जाता है । भय पर आस्था नहीं है, विश्वास नहीं है । और यदि उसे आत्मा का एक विकारी भाव है। जब तक साधक विश्वास है तो वह उस विश्वास को सुदृढ़ नहीं कर ५०२
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सका है । आत्मतत्व की अमरता पर विश्वास हो चाहिए कि दर्शन गुण की उक्त दोनों ही पर्यायें का जाने पर जब तक उसकी दिव्य-उपलब्धि नहीं होती कभी एक साथ नहीं रहती हैं। जब मिथ्या पर्याय IN हैं तब तक जीवन-संघर्ष के मूल का उन्मूलन नहीं का सदभाव है तब सम्यग् पर्याय नहीं रहेगी और न हो सकता । आत्मा की अमरता का परिज्ञान एक
जब सम्यग् पर्याय है तब मिथ्यापर्याय कभी नहीं महान उपलब्धि है । परन्तु यह तथ्य भी ज्ञातव्य है
रह सकती। जहाँ रजनी है वहाँ रवि नहीं है और ॥ कि आत्मा की सत्ता का भान और उसकी अनन्त
जहाँ रवि है वहाँ रजनी नहीं है। इसी प्रकार जहाँ । शक्ति का परिज्ञान एक चीज नहीं है। पृथक-पृथक दर्शन की मिथ्या पर्याय है वहाँ सम्यग् पर्याय नहीं 43 चीजें हैं । आत्मा की असीम, अक्षय सत्ता की रह सकती और जहाँ दर्शन की सम्यग पर्याय है ॥ प्रतीति होने पर भी, जब तक उसकी अनन्त-अनन्त वहाँ मिथ्या पर्याय नहीं रहती। मेरा स्पष्ट मन्तव्य की शक्तियों का परिज्ञान नहीं होता और उसकी प्रयोग इतना ही है कि वस्त तत्व में उत्पाद और व्यय विधि का ज्ञान नहीं है,तो शक्ति के रहते हुए भी वह पर्याय की अपेक्षा से है, द्रव्यदृष्टि और गुणदृष्टि कुछ कर नहीं सकता। सम्यग्दर्शन का एक मात्र से नहीं । द्रव्यदृष्टि से विराट विश्व की प्रत्येक वस्तु | परम-उद्देश्य यही है कि आत्मा को अपनी क्षमता सत् है, असत् नहीं है क्योंकि जो वस्तु सत् है वह का और शक्ति की जो विस्मृति हो गई है, उसे दूर करना तीन काल में भी असत् नहीं हो सकती और जो || है । जो असत्यपूर्व है और जिसकी मूल स्थिति नहीं असत् है वह भी तीन काल में सत् नहीं हो सकती, की है. जिसका कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है परन्तु जिसे किन्त पर्याय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ सत् और 3 आत्मा ने अपनी अज्ञानता के कारण से सब कुछ जान असत् दोनों हो सकते हैं । जब मैंने सम्यग्दर्शनरूपी लिया है, समझ लिया है उस भ्रान्ति को दूर करना। दिव्य-रत्न प्राप्त कर लिया तब इसका अभिप्राय जैन दर्शन का स्पष्ट आघोष है कि सम्यग्दर्शन यह नहीं होगा कि पहले मेरे में सम्यग्दर्शन का उपलब्ध करने का अर्थ यह नहीं है कि पहले कभी सद्भाव नहीं था और आज ही वह नये रूप में दर्शन का सद्भाव नहीं था और अब वह नये रूप उत्पन्न हो गया। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है में उत्पन्न हो गया। दर्शन को मूलतः समुत्पन्न कि आत्मा का जो 'दर्शन' नामक गुण आत्मा में मानने का अभिप्राय यह होगा कि एक दिन वह अनन्तकाल से विद्यमान था उस दर्शन गुण की विनष्ट हो सकता है। सम्यग्दर्शन के उद्भव का मिथ्या पर्याय को परित्याग कर मैंने उसकी सम्यग् अर्थ किसी नवीन पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि पर्याय को प्राप्त कर लिया। आगमीय भाषा में सम्यग्दर्शन की समुत्पत्ति का तात्पर्य इतना ही है इसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कहा जाता है । जैन कि वह विकृत से अविकृत हो गया। वह पराभि- दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि मूलतः कोई नवीन मुख था, स्वाभिमुख हो गया और वह मिथ्यात्व से चीज प्राप्त करने जैसी बात नहीं है बल्कि जो सदा सम्यग् हो गया। आत्मा का जो श्रद्धान नामक से विद्यमान रही है उसको शुद्धतम रूप से जाननेगुण है, आत्मा का जो दर्शन नामक गुण है, सम्यग् पहचानने और देखने की बात है। सम्यग्दर्शन की
और मिथ्या ये दोनों आत्मा की पर्याय हैं । मिथ्या- उपलब्धि का यही अभीष्ट अर्थ है। दर्शन एवं सम्यग्दर्शन इन दोनों में दर्शन शब्द पड़ा अध्यात्मसाधक के जीवन में सम्यग्दर्शन की हुआ है । जिसका अभिप्रेत अर्थ है-दर्शन गुण कभी कितनी गुरुता है, कितनी महिमा है, और कितनी मिथ्या भी होता है, और सम्यग भी होता है। गरिमा है-शास्त्र इसके प्रमाण हैं। सम्यग्दर्शन
मिथ्यादर्शन का फल 'संसार' है और सम्यग्दर्शन वस्तुतः एक वह विशिष्ट कला है, जिससे आत्मा 1 का फल मोक्ष है। किन्तु इतना अवश्य ही जानना स्व और पर के भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता ।
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है । सम्यग्दर्शन एक वह दिव्य कला है जिसके उप- नल सम्यग्ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ किसी योग और प्रयोग से आत्मा संसार के समग्र बन्धनों ग्रन्थ का ज्ञान नहीं है अपने ज्योतिर्मय स्वरूप का से मुक्त हो जाता है । संसार के दुःख और क्लेश से बोध ही सच्चा ज्ञान है, यथार्थ ज्ञान है । "मैं आत्मा । सर्वथा रहित हो जाता है। सम्यग्दर्शन की हूँ" यह ज्ञान जिस साधक को हो गया है उसे फिर विशिष्ट उपलब्धि होते ही यह पूर्ण रूप से पता किसी भी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । परन्तु | चलने लगता है कि आत्मा में असीम क्षमता है, यह आत्म-स्वरूप का ज्ञान तभी सम्भव है जब कि अपार शक्ति है और अमित बल है । जब आत्मा उससे पूर्व सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो चुकी हो का अपने आपको जड़ न समझकर चेतन समझने क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में जैनत्व का एक लगता है। तब सभी प्रकार की सिद्धियों के द्वार अंश भी सम्प्राप्त नहीं हो सकता। यदि सम्यग्दर्शन उद्घाटित हो जाते हैं । जरा अपने भीतर झांककर की एक प्रकाश किरण भी जीवन क्षितिज पर देखना है, और अपने अन्तहदय की अतल गहराई चमक-दमक जाती है तो गहन से भी न में उतरकर सुदृढ़ विश्वास के साथ कहना है कि गहन गर्त में पतित आत्मा के अभ्युदय की आशा
नाशी आत्मा , अन्य कल भी नहीं। हो जाती है। सम्यग्दर्शन की उस दिव्य-किरण का मैं केवल चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ, जड़ नहीं । मैं प्रकाश भले ही कितना मन्द क्यों न हो परन्तु । सदा-सर्वदा शाश्वत हैं जल तरंगवत् क्षणभंगर नहीं। उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती न मेरा कभी जन्म होता है और न कभो मरण है, क्षमता होती है। हमें यह भी याद रखना है कि होता है । जन्म मृत्यू मेरे नहीं है। ये तो शरीर के उस निरंजन और निर्विकार परमात्मा को खोजने खेल है । देह का जन्म होता है और देह की मृत्यु के लिए कहीं इधर-उधर भटकने की आवश्यकता होती है । जन्मने और मरने वाला मैं नहीं हूँ, मेरा नहीं है। वह अपने अन्तरात्मा में ही है। जिस यह विनाशशील शरीर है। जिस साधक ने अपनी प्रकार घनघोर घटाओं के मध्य, विद्य त की क्षीणआध्यात्मिक साधना के माध्यम से अपने सहज- रेखा के चमक जाने पर क्षण भर के लिए यत्र-तत्र विश्वास और स्वाभाविक सुबोध को उपलब्ध कर सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार एक क्षणलिया है वह यही कहता है कि मैं अनन्त हैं, मैं मात्र के लिए, सम्यग्दर्शन की दिव्य ज्योति के अजर हैं, मैं अमर हैं, मैं शाश्वत है, मैं सर्वशक्ति- प्रगट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का सममान हैं। वास्तव में मैं आत्मा हैं यह दृढ विश्वास द्वार हो ही जायेगा। बिजली की चमक में सब करना ही सम्यग्दर्शन है। अपनी अखण्ड सत्ता कुछ दृष्टिगोचर हो जाता है उसी प्रकार परमात्मकी स्पष्ट रूप से प्रतीति होना ही आध्यात्मिक तत्व के प्रकाश की एक प्रकाश-किरण भी अन्तजीवन की सर्वश्रेष्ठ और सर्व ज्येष्ठ उपलब्धि है। मन में जगमगा उठती है तो फिर भले ही वह कुछ अध्यात्म साधना के क्षेत्र में सम्यगज्ञान का महत्व- क्षण के लिए ही क्यों न हो उसके प्रकाश में पूर्ण स्थान रहा है । ज्ञान मुक्ति-प्राप्ति का एक मिथ्याज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है । ज्ञान को अमोघ साधन है। अज्ञान और वासना के सघन सम्यग्ज्ञान बनाने वाला सम्यग्दर्शन ही है। यह अरण्य को जलाकर भस्मसात् करने वाला दावा- सभ्यग्दर्शन अध्यात्म साधना का प्राणतत्व है।
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ।
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कहानी
१. वैर और वैरी
क्रोध जब स्थायित्व ग्रहण कर लेता है तो वैर निष्ठा से निभाया। दोनों भाई लाठी चलाने से का रूप धारण कर लेता है। क्रोध की अवधि लेकर, भाला, खड्ग आदि शस्त्रों का संचालन भी
वैर पीढी-दर-पीढी.जन्म-प्रति- बडी कुशलता से करते थे। दोनों मल्लविद्या में भी जन्म तक भी चलता है। क्रोध घातक है तो वैर पारंगत थे। शत्रु की ललकार सुनकर भाइयों की महाघातक है । अचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वैर को भुजाएँ फड़क उठती थीं। माँ को अपने पुत्रों पर क्रोध का अचार या मुरब्बा उसके स्थायित्व को गर्व था। दोनों भाई जब मल्लयुद्ध करने अखाड़े लक्ष्य करके कहा है।
में जाते थे तो मां उन्हें आशीर्वाद देते समय एक ही __कुलपुत्र का भ्रातृवियोग क्रोध में और क्रोध बात कहतीवैर में बदल गया था। उसने प्रतिज्ञा कर डाली "मेरे दूध की लाज रखना, पिता का नाम ऊँचा -जब तक मैं अपने भ्रातृहन्ता का वध नहीं कर करना और यह सिद्ध करके आना कि क्षत्रियपुत्र लूंगा, तब तक घर नहीं लौटूंगा। क्षत्रियों के मरना जानते हैं, डरना नहीं।" | स्वभाव में यह उक्ति घुलमिल गई है--जिनके शत्रु दोनों भाई, जिससे भी भिड़े, उसे पराजित जीवित डोलें, तिनके जीवन को धिक्कार । करके ही आये । एक बार बड़े भाई के एक प्रति
सन्त जन भले ही यह कहते हों कि "बदला" द्वन्द्वी ने, जब वह घर लौट रहा था, पीछे से उस अमानवीय शब्द है। पर क्षत्रियों का मानना यह पर वार किया और भाग गया। छोटा भाई तो है कि जब तक शत्रु से बदला न ले लिया जाए, तब हक्का-बक्का रह गया। उसकी चीख सुनकर माँ तक क्षत्रिय क्षत्रिय नहीं। यह कुलपुत्र भी तो दौड़ी आई । पास-पड़ोस के लोग भी इकट्ठे हो
क्षत्रिय था, तो फिर अपने भाई को मारने वाले से गए । माता और भाई का करुण क्रन्दन देखा नहीं ERA बदला लेने की प्रतिज्ञा क्यों न करता ?
जाता था । ठकुरानी पछाड़ें खा रही थी। भाई __ किसी नगर में एक क्षत्रिय परिवार हता था। छाती पीटकर रुदन कर रहा था। | घर में चार प्राणी थे-पति-पत्नी और दो बच्चे। संसार की हर वस्तु क्षणिक है। वियोग का Hदोनों भाइयों में तीन वर्ष का अन्तर था। बड़ा भाई शोक भी समय के साथ घटता है। रोते-रोते तीन
पाँच वर्ष का था और छोटा दो का, तभी इनके चार घड़ी का समय बीता तो माता को पुत्र || पिता का देहान्त हो गया । असमय में ही ठकुरानी का और अनुज को अग्रज का शोक कुछ कम हुआ विधवा और बालक अनाथ हो गए । फिर भी ठकू- -कुछ स्थिर हो गया। अब वे परिस्थिति पर रानी ने हिम्मत नहीं हारो। गुजारे के लिए उसके विचार करने लगे। ठकुरानी सिंहनी-सी उठकर
पति की छोड़ी गई पर्याप्त सम्पत्ति थी । उसने दोनों खड़ी हो गई और अपने पुत्र को धिक्कारने हो पुत्रों के लालन-पालन और शिक्षा का कर्तव्य पूरी लगी
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"तेरे भाई को मारकर हत्यारा भाग गया और दम चौकन्ना हो जाता। गाँव-गाँव, नगर-नगरमा तू कायरों की तरह आँसू बहा रहा है ? अब तक घूमता था कुलपुत्र । उसके सामने खून से लथपथ :
। हार-जीत तो अखाड़े के खेल की हार-जीत थी। भाई का शव बार-बार आ जाता। कभी सोचता, तेरे क्षात्र तेज की कसौटी तो अब है पुत्र ! उठकर 'जरूरी तो नहीं कि मैं शत्र को खोज ही लूँ । खड़ा हो जा । अपने भ्रातृहन्ता का वध मेरे सामने यदि नहीं खोज पाया तो आत्मदाह कर लूंगा। लाकर करेगा, तब मेरी छाती ठण्डी होगी। क्या क्षत्रिय जब अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाते तो मेरा दूध तुने यही दिखाने के लिए पिया था ?" आत्मदाह ही करते हैं । लेकिन मैं उसे ढूंढ़कर ही ___ "माँ, अब कुछ मत कहो।" छोटा कुलपुत्र रहूँगा। धरती का चप्पा-चप्पा छान डालूंगा।' उठकर खड़ा हो गया-"मेरे भाई को धोखे से मार सचमुच, कलपूत्र ने चप्पा-चप्पा छानना ही शुरू कर भागने वाला कहीं तो मिलेगा। वह धरती में कर दिया। जंगल, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, छिपा होगा तो मैं धरती खोदकर उसे यहीं लाऊँगा। मरघट, मन्दिर, मद्यशालाएँ, जुए के अड्डे, चोरों उसे बांधकर तेरे चरणों में डाल दूंगा और तेरे की पल्लियां, नदी के धार-कछार, खाई-खन्दक, सामने ही उसका वध करूंगा। जहाँ मेरे भाई का पर्वत-टीले सबको देखता-छानता वह रात-रात खून बहा है, उसी स्थान पर उसका खून बहाऊंगा। भर भटकता रहता था। बीतते-बीतते इस अभियान || माँ, मैं जाता हूँ। अब तभी लौटूंगा, जब अपनी में कूलपूत्र को बारह वर्ष बीत गए। इन बारह प्रतिज्ञा पूरी कर लूँगा।
__ वर्षों में वह युवा से प्रौढ़-जैसा बन गया था । दाढ़ी मां, कुलपुत्र को जाते हुए देखती रही। उसे बढ़ गई थी और थक भी गया था, पर निराश नहीं अपने दूध पर विश्वास था। वह जानती थी कि हुआ था। मेरा पुत्र भाई के हत्यारे को लेकर ही लौटेगा।
बारह वर्ष बाद का एक दिन-चाँदनी रात । कुलपुत्र चला गया। नगरवालों ने बड़े कलपुत्र एक टीले के नीचे कुलपुत्र ने एक व्यक्ति को देखा। की अन्त्येष्टि की। कुछ लोगों ने टिप्पणी की- सन्देह हुआ तो लपककर उसके पास पहुँचा । कुल-टू
"आवेश में भाई को अग्नि भी नहीं दे गया।" पुत्र को देखते ही संदिग्ध व्यक्ति भागने लगा। ___ "क्षत्रिय का क्रोध ऐसा ही होता है ।" दूसरे ने
सन्देह निश्चय में बदल गया और कुलपुत्र पूरा (६
सन टिप्पणी की-"बात पर मरना क्षत्रिय ही जानते बल लगाकर दौड़ने लगा। थोड़ी ही देर में उसने
अपने शत्रु को दबोच लिया। वह गिड़गिड़ाने । x
लगाकुलपुत्र को न नींद की चिन्ता थी, न भोजन 'मुझे मत मारो, मैं तुम्हारी शरण में हूँ।' की भूख । उसकी आँखें शत्रु को खोजने में लगी थीं। 'अभी तुझे नहीं मारूंगा।' कुलपुत्र ने कहाजो भी व्यक्ति उसे संदिग्ध दिखता, वह झपटकर 'तुझे मैं वहीं ले जाकर मारूंगा, जहाँ मेरे भाई ने उसके पास पहुँच जाता और पहचान कर कहता- दम तोड़ा था।' ___ "जाओ, जाओ, तुम वह नहीं हो।" ___ कुलपुत्र ने अपने सिर की पगड़ी खोल ली और
उसकी इन हरकतों से उसे लोग पागल सम- उसी से भ्रातहन्ता के हाथ-पैर बाँधकर पीठ पर झते थे । यदि गहराई से सोचें तो वह प्रतिशोध ने लाद लिया और चल दिया गाँव की ओर। रातपागल ही बना दिया था। वक्ष के मूल में बैठा- भर चलता रहा। दिन में भी रुका नहीं। बदला बैठा ऊंघता रहता और पत्ता भी खड़कता तो एक लेने की तीव्रतम भावना ने उसकी चाल बढ़ा दी।
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थी। शत्रुता के आक्रोश ने शत्रु का बोझ भी हल्का कारण है अज्ञान और इसे छोड़ देने के अनेक कारण
कर दिया था। पीठ पर लदे शत्रु ने कहा- हैं। 1 'मुझे खोल दो तो मैं तुम्हारे साथ पैदल 'वत्स, इसे मारना अधर्म के अतिरिक्त कुछ भी चलूंगा।'
नहीं। इसे मारने से 'कुछ भी' लाभ नहीं होगा_ 'मैं इतना मूर्ख नहीं हैं कि अब तझे भागने का हानि-ही-हानि है । पर इसे न मारने से धर्म ही अवसर दूं।' कुलपुत्र बोला-'तुझे लेकर चलना धर्म है और लाभ-ही-लाभ हैं।' मेरे लिए कठिन नहीं है । बारह साल की तपस्या 'लाभ-हानि की बात तो व्यापारियों के लिए के बाद तू मुझे मिला है।'
है।' कुलपुत्र बोला-'क्षत्रिय हानि सहकर भी
अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हैं।' __ शत्रु को घर के आँगन में पटककर कुलपुत्र ने
___तो तू क्षात्र धर्म जानता है !' क्षत्राणी बोलीआवाज लगायी
'रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है, मारना नहीं । फिर
शरणागत को मारना तो कायरों का काम है, ___ 'माँ, तेरे पुत्र और मेरे भाई का हत्यारा अब
क्षत्रियों का नहीं। शरणागत को रक्षा तो अपने तेरे सामने है। यह खड्ग ले मेरा और अपने पुत्र प्राण देकर भी की जाती है। का बदला ले ले।'
___'पुत्र, इसे मारकर क्या तू अपने दिवंगत भाई ठकरानी कुछ कहती कि बंधन में पड़ा शत्रु को पा सकेगा? कभी नहीं पा सकता । लेकिन इसे गिड़गिड़ाने लगा
मुक्त करके तू इसे भाई के रूप में पा सकता है । _ 'मुझे मत मारो । मैं तुम्हारा दास हूँ। जीवन- सबसे बड़ा क्षत्रिय तो वह है जो शत्र को भी मित्र । भर तुम्हारी सेवा करूगा। मैं तुम्हारी शरण में बना ले। शाहूँ। मेरे मरते ही मेरी बूढ़ी माँ रोते-रोते प्राण दे
___'वत्स, मैं जानती हूँ कि पुत्र के मरने पर माँ 4 देगी । मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे । पत्नी विधवा
पर क्या बीतती है। जो मुझ पर बीती है, वही हो जाएगी। छोड़ दो मुझे ।'
___ इसकी माँ पर भी बीते इसकी कल्पना से भी मैं ___ 'शत्र, अग्नि, सर्प और रोग-इन्हें कभी शेष
५ कांपने लगती हूँ। नहीं छोड़ना चाहिए ।' कुलपुत्र ने कहा-'मैं अपने ।
'बेटा, तू अपने असली शत्रु को नहीं जानता। भाई का बदला तुझे मार कर ही लंगा। बस, तू मारता है तो पहले उसी को मार। क्रोध ही ता अपने इष्ट का स्मरण कर ले।'
तेरा शत्रु है। क्रोध बुद्धि को इतना भ्रष्ट कर देता यह कह कूलपूत्र ने खड्ग ऊपर उठाया तो है कि वह रक्त के दाग को रक्त से धलवाने का उसकी मां चीखने लगी
असंभव प्रयास करवाता रहता है। अग्नि से अग्नि 'नहीं ई ईं। इसे मत मार । छोड़ दे इसे ।' कभी बुझ पाई है, जो तू आज बुझाना चाहता है। __'माँ ! क्या तू पागल हो गई है ? क्या तू अब 'लाडले, एक अग्नि तब जली थी, जब इसने ठकुरानी नहीं रही ?' कुलपुत्र ने आश्चर्य से कहा- तेरे भाई को मारा था। दूसरी अग्नि यह जल रही 'बारह वर्ष भटकने के बाद हाथ आये शत्रु को है, जब तू इसे मारने को खड़ा है। फिर इसका पुत्र बचाना चाहती है तू?'
तुझे मारेगा। फिर तेरा पुत्र इसके पुत्र को मारेगा। 'तब मैं होश में नहीं थी, जब मैंने तुझे ललकारा पुत्र न भी मारे तो अगले जन्म में यह तुझे मारेगा, था ।' क्षत्राणी ने कहा-'इसे मार देने का एक ही फिर उससे अगले जन्म में तू इसे और जन्म-जन्मां
(शेष पृष्ठ ५१२ पर) सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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२. गिरे ता गिरे, पर उठे भी बहुत ऊँचे
श्रेष्ठिपुत्र अरणक ने पानी पीकर कटोरा खाली तब तक मैं उसे फूल की तरह ही रखना चाहता किया ही था कि एक दासी ने उसे ऊपर-ही-ऊपर हूँ।" हाथ में ले लिया । श्रेष्ठी दत्त भी पुत्र के पास बैठे तगरा नगरी के श्रेष्ठी दत्त और सेठानी भद्रा थे । सेठानो भद्रा उसी समय आई थीं। उन्होंने को बडी आशाओं के बाद पत्र मिला था। अतः अपने पति को मीठी झिडकी दी
दोनों का ही पुत्र अरणक पर अतिशय प्यार था। ___"ऐसा कब तक चलेगा ? कहते तो यह हैं कि फिर भी पिता उसकी देखभाल पर अधिक ध्यान माताएँ लाड़-प्यार में पूत्र को बिगाड़ देती हैं। पर देते थे। वे चाहते थे कि अरणक को कुछ न करना मेरे अरणक को तो तुम-उसका पिता बिगाड़ रहा पड़े। है । इसे इतना तो करने दो कि पानी पीकर कटोरा अरणक बड़े सूखों में पल रहा था। उसे कोई । नीचे रख दे।"
पूछे कि गरमी क्या होती है तो वह नहीं बता "मेरा बस चले तो अरणक को पानी पीने का पाता, क्योंकि ग्रीष्म-शीत के कष्टों के अनुभव हु कष्ट भी न करना पड़े। पानी भी दासी पिये और का अवसर ही उसे नहीं मिला था। वह ऐसा फूल इसकी प्यास बुझे।
था जो चाँदनी में भी कुम्हला जाए। द्राक्षा खाने र - "अरणक की माँ, तम वे दिन भल गई. जब से उसके होंठ छिलते थे। पिता के लाड-प्यार ने हम सन्तान के लिए तरसते थे। एक सन्तान के उसे अत्यधिक नाजुक, सुकुमार और संवेदनशील बिना ही हमें अपना ऐश्वर्य बडा भयानक लगता बना दिया था। था । जाने कौन-सा पुण्य बचा था कि मैं पिता बना एक बार अर्हन्मित्र मुनि शिष्य मुनियों के साथ और तुम माता बन गईं। हमें अरणक जैसा सुन्दर, तगरा नगरी में पधारे। उन्होंने अपनी देशना में योग्य और चरित्रवान पुत्र मिला।"
कहा___"यह सब तो ठीक है स्वामी !' सेठानी भद्रा "हम साधुओं को भी चिन्ता होती है, हमें भी ने कहा-"पर अब अरणक बड़ा हो गया है। कल- दःख का अनुभव होता है, जब दूसरों को दःखी परसों उसके विवाह की तैयारी भी होगी। अब देखते हैं, तब ऐसा होता है । पर साधु और संसारी उसे अपने काम स्वयं करने दीजिए । अब भी वह की चिन्ता में अन्तर है। आपकी अपने लिए और धायों और दासियों के हाथ का खिलौना बना रहेगा हमारी आपके लिए-दूसरों के लिए। हमारातो वह अकर्मण्य, आलसी और कुण्ठित हो साधुओं का संसार विद्या का संसार है तो संसारियों जायगा।"
का संसार अविद्या का है। "तुम चिन्ता मत करो।" श्रेष्ठी दत्त ने कहा "भव्य जीवो, संसार में रहो, कोई हानि नहीं हो - "जब ऐसा अवसर आएगा, तब वह सब कुछ है, बस इतना ही ध्यान रखना है कि संसार की कर लेगा । जब तक माता-पिता की छाया बनी है, माया तुम पर सवार न होने पाये । बाहर से संसार ५०८
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में रहो, पर भीतर त्याग और निवृत्ति का भाव ही-मन उन्होंने सोच लिया था कि अरणक मुनि के बना रहे । संसार को दीर्घ स्वप्न समझो। इस लिए मैं ही गोचरी करने जाया करूंगा। यह तो का स्वप्न को स्वप्न ही मान लो, यह निश्चय कर सुकुमार है । धूप में कुम्हला जाएगा। लो कि एक मात्र सत्य धर्म ही है। जब तक आपके
साधु संघ ने तगरा नगरी से अन्यत्र विहार भीतर संसार रहेगा, तब तक बाहरी त्याग-तपस्या किया। साध्वी भद्रा तो साध्वो संघ में मिल गई। मात्र काया कष्ट ही है-साधना नहीं।"
मुनि दत्त और मुनि अरणक पितामुनि और पुत्र- || ___अर्हन्मित्र मुनि की देशना लम्बी और तथ्यों मुनि के नाम से भी संघ में जाने गए। से भरी थी। अरणक के मन में दीक्षा लेने को
मुनि पर अब भी लाड़ करते इच्छा बलवती हुई । श्रेष्ठी दत्त भी संसार छोड़ थे। वे स्वयं गोचरी को जाते और पुत्र मुनि के ||MS कर मुनि बनना चाहते थे। सेठानी भो उनसे पीछे
पाछ लिए आहार-पानी की व्यवस्था करते । उनके इस रहना नहीं चाहती थी। लेकिन ये विचार तोनों के आचरण को देखकर कुछ मुनियों ने दत्त मुनि से ) मन में ही थे। सबसे पहले मन को बात अरणक ने कहाकही
'पिताजी, मैं चारित्र का पालन करके अपना 'मुने, आप अरणक मुनि के हित में अच्छा नहीं का मानव भव सफल करूंगा।"
कर रहे । उन्हें स्वयं ही गोचरी के लिए जाने "चारित्र का पालन बच्चों का खेल नहीं है,
और दीजिए । साधना तो स्वयं ही की जाती है।' वत्स !" श्रेष्ठी दत्त ने कहा-“तूने आज तक ग्रीष्म
__'मेरा अन्त तो अरणक से पहले होगा। मेरे 10 को धप नहीं देखी । अपने हाथ से पानी लेकर भी बाद वह अपने सभी काम स्वयं हो करेगा।' मुनि- AE
नहीं पिया । तपती दोपहरी में तू विहार कैसे करेगा? दत्त ने कहा-'अरणक विहार कर लेता है, यही | If कभी अचित्त जल न मिला तो प्यासा कैसे रह बहुत है।' पाएगा?"
अन्य मुनि मौन हो गए । पिता मुनिदत्त और "भोगी जब योगी बनता है तो उसकी दृष्टि पुत्र मुनिअरणक का यह सिलसिला चलता रहाबदल जाती है। उसके विचार पहले जैसे नहीं चलता रहा। रहते ।" अरणक ने पिता से कहा-"पूज्य तात, इसी क्रम में दत्तमुनि का आयुष्य पूर्ण हो गया | शक्ति विचारों से ही मिलती है । जब मेरे विचार तो वे परलोकवासी हो गये। उनके जाते हो अर-4 बदले हैं तो चारित्र पालन की शक्ति भी आ ही गई णक मूनि मानों अनाथ हो गये । वे भिक्षा लेने नहों
जा पाये तो निराहार ही रह गये। तब संघ के ( "तो त अकेला मुनि नहीं बनेगा।' श्रेष्ठी दत्त मुनियों ने कई दिन अरणकमुनि को आहार लाकर बोले-“तेरे साथ मैं भी दीक्षा लूंगा।". दिया। लेकिन एक दिन सभी मुनियों ने अरणक
"तो मैं आपसे पीछे रहँगी ?" सेठानो भदा ने मुनि से स्पष्ट कह दियापति से कहा- "मेरा भी तो परलोक है। मैं भी
'मुने, अब तुम किशोरवय के नहीं हो-युवा हो । साध्वी बनूंगी।"
गये हो । चारित्र का पालन अपने बल पर हो होता | सेठानी भद्रा, श्रेष्ठी दत्त और श्रेष्ठिपत्र अर- है । तुम स्वयं गोचरी के लिए जाया करो।' णक-तीनों ने अहमित्र से दीक्षा ले ली। मुनि अरणक मुनि ने स्वीकार कर लिया। संयोग ) बनकर भी दत्त का पुत्रमोह कम नहीं हुआ। मन- ऐसा बना कि ये दिन ग्रीष्म के दिन थे। पहले दिन
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अरणक मुनि तपती धूप में गोचरी के लिए गये। चम्पा बोली
यद्यपि धूप का ढलान था, फिर भी यह धूप अरणक 'लेकिन वह आपके काम का नहीं है। कोई दमुनि के लिए असह्य थी । नंगे पाँव और नंगे सिर
सिर मुनि है ।'
- । थोड़ी ही दूर चले कि उन्हें पसीना आने लगा। हवा . भी बन्द थी । कनपटियों पर अंगारों के थप्पड़ से
___ 'मुनि है तो भिक्षा दूंगी।' सुन्दरी बोलीलगते थे । पाँव जल रहे थे । कोई वृक्ष आता तो
'ऊपर तो आ ही जाएगा।' थोड़ी देर छाँव में खडे हो जाते, पर दर-दर तक यह कह सुन्दरी स्वयं वातायन तक गई और
कोई वृक्ष ही दिखाई नहीं दे रहा था।'ऐसा कष्ट उसने नीचे झाँककर अरणकमुनि को खड़े देखा तो ( मुझे नित्य ही झेलना पडेगा।' अरणक मनि सोच चम्पा स बालाहो रहे थे- 'ऐसी गरमी में लोग जीवित कैसे रह पाते 'चम्पा ! बड़ा सुकुमार है । गोरी देह तप कर
हैं ? मैंने सोचा भी नहीं था कि ग्रीष्म का यह कष्ट लाल हो गई है । 'महाराज आहार लीजिए' यह भी झेलना पड़ेगा।'
कहकर तू मुनि को ऊपर ले आ ।' विवश-से चलते हुए अरणकमुनि बस्ती में . दासी खट-खट-खट् सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे पहँच गये। एक भव्य भवन के नीचे छाँव थी और 2. कुछ ठण्डक भी। अरणकमनि उसी के नीचे खडे सुन्दरी ने उन्हें प्रणाम किया और बोलीE होकर चैन की साँस लेने लगे । बस्ती में कोई कहीं 'मुने ! क्षमा करें, आपकी शत्रुता किससे है ?
आ-जा नहीं रहा है। सब अपने घरों में मानो क्या अपनी देह से शत्रुता है जो उसे ग्रीष्म में जला गरमी से डरकर बन्द हो गये थे।
रहे हो या फिर उठते यौवन से ही शत्रुता है जो + + + उसका भोजन उसे नहीं दे रहे ? एक सुन्दर युवती अपने शयन कक्ष में अकेली ‘मुने, विचार करो, देह के लिए तो आहार है थी। एक दासी पंखा झल रही थी। वातायनों पर
पर आपके यौवन का आहार तो मैं ही हूँ। यौवन । परदे पड़े थे। काफी राहत थी। इस सुन्दरी का
को भूखा रखना भी पाप है। मेरा यौवन भी भूखा ( पति बहुत दिनों से परदेश गया हुआ था। वह
है । व्यर्थ में काया को कष्ट देना तो मूर्खता है। | अपने मन की बातें अपनी दासी से कहकर ही समय
यदि मुनि बनना इतना अच्छा होता, जितना आपने काट लेती थी।
' समझा है तो सारा जगत मुनियों से ही भर जाता।' _ 'चम्पा वातायन खोल दे।' सन्दरी ने दासी सुन्दरी की बातें सुन अरणक मुनि सोचने । B कहा-'वातायनों से धूप हट गई है। कुछ बाहर
लगे-'बड़ी कठिनाई से मैं यहाँ तक आ सका हूँ? की हवा आने दे।'
नित्य ही ऐसी भीषण गरमी में गोचरी के लिए 2
आना पड़ेगा । सुन्दरी ठीक कहती है।' दासी ने कक्ष की खिड़कियों पर पड़े परदे हटा C दिये । उसने नीचे झांककर देखा तो अपनी माल
अरणक मुनि सोच ही रहे थे कि सुन्दरी ने ला किन से बोली
उनका हाथ पकड़ लिया। वे हाथ छुड़ा नहीं पाये। ___'स्वामिनी, तनिक देखो तो नीचे कौन खड़ा
वह बोलीERAL है ? बड़ा सुन्दर सजीला-गठीला युवक है।'
'पलंग पर बैठिए । मैं पंखा झलंगी। मैंने मोदक ___फिर पूछती क्या है ?' सुन्दरी ने कहा-'उसे बनाए हैं । खाकर ठंडा पानी पीजिए।' ऊपर ले आ ।'
अरणक मुनि सुन्दरी के जाल में फंस ही गए । Call ५१०
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NAATTA
थे।
अब वे भोगी थे । भोग से योग ग्रहण तो करते ही यों ही समय बीतता रहा । साध्वी अरणक को का हैं, पर कच्चे मन वाले योगी से भोगी बन जाते हैं। ढंढ़ती रही और अरणक भोगों में डूबता रहा । एक | एक झटके से ही अरणक मुनि बहुत नीचे गिर चुके दिन संयोग बना। साध्वी भद्रा उक्त सून्दरी के Vs
भवन के नीचे ही चिल्ला रही थी । सुन्दरी के अंक ___ अब वे रात-दिन भोगों में डबे रहते। सुन्दरी पाश में लेटे अरणक के कानों में अपने नाम की || उनका उबटन करती, स्नान कराती, पंखा झलती आवाज पड़ी तो वे विद्य त के झटके की तरह उठे। 15 और वे उसी को अंक में समेटे पड़े रहते । रात तो सुन्दरी चिल्लाती रही-सुनो तो, सुनो स्वामी, कहाँ 19 रात थी ही, उनके लिए अब दिन भी रात ही था। जाते हो ? पर अरणक कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं |IC ऐसे ही उनके दिन गुजरने लगे।
देखा । वे धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरते हुए साध्वी माँ ।
के पास पहुँचे-माँ ! मैं तेरा अरणक हूँ। + + +
साध्वी भद्रा सुध-बुध खोकर स्तब्ध-सी अपने अरणक मुनि गोचरी से नहीं लौटे । संध्या हो सामने खडे युवक को देखने लगी। उसका भेष बड़ा र गई, फिर रात भी हुई । संघ के मुनियों को चिन्ता आकर्षक था। रेशमी अधोवस्त्र, रेशमी ही उत्तरीय हुई, वे सब उन्हें ढूंढने निकले । उनके साथ में और पैरों में जड़ाऊ जूते । सचिक्कण काले केशों में श्रावक भी थे । रात इसी चर्चा में बीती कि आखिर सगन्ध आ रही थी। बड़ी देर बाद साध्वी ने , मुनि अरणक कहाँ लापता हो गए? अपना कर्तव्य कहापूरा कर साधुओं ने साध्दियों के उपाश्रय में संवाद "तु कोई ठग है। तू मेरा अरणक नहीं हो भिजवा दिया कि साध्वी भद्रा के संसारी नाते से सकता। मेरा अरणक तो वह था, जिसने विवाह पुत्र मुनि अरणक गोचरी के लिए गये थे, वे अभी करने से इन्कार कर दिया था। मेरे अरणक ने तो तक नहीं लौटे हैं।
माता-पिता से पूर्व दीक्षा लेने का निश्चय प्रकट माँ की ममता का सागर सीमा तोड़ गया। किया था। मेरे अरणक के विचारों में ऐसा बदसाध्वी भद्रा व्याकुल होकर साधारण माँ की तरह लाव आया था कि दीक्षा से पूर्व उसके पिता ने रोने लगी । वे उपाश्रय छोड़कर अरणक को ढूंढने कहा था-पुत्र, तूने आज तक ग्रीष्म की धूप नहीं निकल पड़ीं। वे पागलों की तरह जोर-जोर से देखी, अपने हाथ से पानी लेकर भी नहीं पिया। आवाज लगातीं-बेटा अरणक, तू कहाँ है ? अरणक दोपहरी में तू विहार कैसे करेगा और कभी अचित्त 12 तू मेरे पास आ जा, बेटे ! वे जब चलते-चलते, जल न मिला तो प्यासा कैसे रह पायेगा? बोलते-बोलते थक जातीं तो किसी वृक्ष के मूल में "युवक ! इसके उत्तर में मेरे पुत्र अरणक ने कहा बैठकर बैठ जातीं। थकावट की अति के कारण था-भोगी जब योगी बन जाता है तो उसकी दृष्टि बैठे-बैठे ही सो जातीं। फिर उठकर चल देतीं। बदल जाती है। उसके विचार पहले जैसे नहीं बस्ती वाले कहते-शायद बेचारी का बेटा मर रहते । शक्ति विचारों से मिलती है। जब मेरे गया है, सो उसके मोह में पागल होकर उसे पुका- विचार वदले हैं तो चारित्र-पालन की शक्ति आ ही 12. रती फिरती है।
गई है। - साध्वी भद्रा को पागल समझकर बस्ती के बच्चे "तो तू मेरा पुत्र कैसे हो सकता है ? मेरे पुत्र उनके पीछे-पीछे तालियाँ बजाकर चलते। कभी में तो चारित्रपालन की शक्ति थी। वह योगी था, 11) उनकी आवाज के साथ शरारती बच्चे भी आवाज पर तू तो भोगी है । मेरा अरणक तो मुनि था, तू देते-ओ अरणक ! तू कहाँ है ?
मेरा अरणक कैसे हो सकता है ? तू मुझे छलने का सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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EAR आया है। पर मैं तेरे भुलावे में नहीं आ सकती। "तू ही है मेरा अरणक। चल उपाश्रय चल । गुरु
मैं तो अरणकमुनि को ढूंढ रही हूँ। तू मेरा नहीं, महाराज तुझे दिशा देंगे।" जिसका है, उसी के पास जा।"
उपाश्रय में पहुँचकर अरणक मुनि ने गुरुदेव ___ कहते-कहते साध्वी रो पड़ी और मुड़कर आगे अर्हन्मित्र मुनि से उष्ण आतापना द्वारा साधना । चल दी। उन्होंने पुनः आवाज लगाई- “योगी करने की अनुमति मांग ली। अरणक, मूनि अरणक चारित्रपालन की शक्ति
अरणक मुनि तवे की तरह तपती तप्त प्रस्तर-4 रखने वाले अरणक, तू कहाँ है ?"
शिला पर लेट गये । भयंकर गरमी थी। उनकी देह ____ अरणक का हृदय चीत्कार कर उठा । वह दौड़
जल रही थी, पर वे देह को आत्मा से भिन्न समझ कर साध्वी माँ का मार्ग रोककर खड़ा हो गया
कर ध्यानस्थ थे। उनका शरीर झुलसने लगा। है "मा, में तेरा अरणक हूँ। में मुनि हूँ। में भटक समता भाव में डूबे अरणक मुनि ने देह छोड़ दी ।। गया था, पर तूने तो बाँह पकड़कर मुझे किनारे और देवलोक में देव बने । वे जितने नीचे गिरे थे | खड़ा कर दिया है। मैं प्रायश्चित्त करूगा । माँ तू उससे भी अधिक ऊँचे उठ भी गये। ही बता जो व्यक्ति गिर सकता है, क्या वह उठ नहीं सकता ? माँ मुझमें उठने की शक्ति है, मैं
भोगावली कर्म यदि शेष होते हैं तो बड़े-से-बड़ा "माँ, ग्रीष्म से व्याकुल होकर मैं नारी के जाल साधक भी भटक जाता है। लेकिन भोगकाल पूरा में फैसा था तो मैं ग्रीष्म की आतापना सहकर ही होते ही वह पुनः आत्मोद्धार में लग जाता है । GR संथारा करूंगा।"
श्रेणिकपुत्र नन्दिषेण के साथ भी ऐसा ही हुआ था। ___माँ की आँखों में खुशी की चमक आ गईॐ (शेष पृष्ठ ५०७ का)
तरों तक तू इसे, यह तुझे, तू इसे, यह तुझे के मारने क्रोध हमारा जन्मजात शत्रु है। हमारे जन्म के
की परम्परा चलती रहेगी। यह परम्परा है अग्नि के समय यह हमारे साथ ही जन्म लेता है और SUB से अग्नि को बुझाने अथवा रक्त को रक्त से धोने की अवसर की तलाश में सोता रहता है। अवसर भा परम्परा । क्रोध उपशम से और शत्रुता क्षमा से मिलते ही यह एकदम उठता है और हमारा हितैषी 24 से ही मिट सकते हैं। शरणगत को छोड़ दे पुत्र!' बनकर आता है। बड़ी चतुराई से यह बुद्धि को
कुलपुत्र ने बन्धन खोल दिये और शत्रु से ऐसे भनाकर उसकी जगह बैठ जाता है। हम भी इसे है मिला जैसे अपने भाई से मिल रहा हो । दोनों की अपना हितैषी समझकर इसकी बातों में आ जाते
आँखों में हर्ष के आँसू थे। ठकुरानी की आँखें भी हैं और जो यह कहता है वही करते हैं। यह स्थाई गीली हो गईं। न जाने कब तक चलती, वैर की अड्डा बनाकर वैर का रूप धारण करके हमारा और यह परम्परा । उसका अन्त हुआ ज्ञान, विवेक और भी अहित करता है । यह एक ही नहीं, हमारे कई धर्म की धारणा से। जल से रक्त का दाग धुला, जन्म बिगाड़ता है। इससे सावधान रहें। इसकी जल ने ही अग्नि को बुझा दिया, मैत्री ने वैर की जड़ें बातों में न आयें। इसकी बातों में आकर ही तो है काट डाली और वैरी,भाई एवं मित्र-दोनों बन गया कूलपूत्र बारह वर्ष तक जंगलों की खाक छानता। दूना लाभ पाया कुलपुत्र ने । भाई को खोया तो फिरा था । अन्ततः उसने क्रोध को हटाकर सच्चे भाई और मित्र-दोनों एक ही व्यक्ति में पा लिए। शत्रु को भगाने में सफलता पाई।
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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धर्म
का पर्याय मानना इसके व्यापक अस्तित्व का परिधर्म अपने व्यापकतम अर्थ में गुण या स्वभाव सीमन करना है। धर्म तो हमारी हर सूक्ष्मतम है । स्वभाव चाहे व्यक्ति का हो, चाहे वस्तु का वह क्रिया में व्यक्त होता है । चिरन्तन रूप से अपरिवर्तित है। बाह्य परि- व्यक्ति समाज का विषय है । समग्र समाज को स्थितियों का वात्याचक्र उसे विकारग्रस्त नहीं करता । जिन स्वभावों में रूपान्तर दृष्टिगत होता
- स्वस्थ, स्फूर्त, सुमार्गी बनाये रखना व्यक्ति का धर्म है उनमें भ्रान्तिवश धर्म का मात्र आभास होता
है। धर्महीन समाज अपने सुरूप से रहित हो जाता
है। समाजरूपी जलाशय की जलराशि धर्म है जो है । भला अग्नि कभी तेज का स्वभाव किसी भी
अपनी उपस्थिति से तले में भेदभाव की दरारें नहीं परिस्थिति में त्याग सकेगी। यह तेज अग्नि का
उत्पन्न होने देता, विग्रह के स्थान पर ऐक्य व शान्ति धर्म है।
को सुरक्षित रखता है। धर्म जीवन के अंग-अंग में व्याप्त व सनातन
धर्म की महत्ता अधर्म के बीभत्स प्रभावों के प्रक्रिया है जो सदा और सर्वत्र सक्रिय सतेज अस्तित्व का वहन करती है। जीवनमात्र व्यक्तिगत नहीं
* कारण है। जब तक अधर्म चेष्टा हेतु तत्पर
रहेगा उसे निस्तेज करने के निमित्त धर्म भी अपेक्षअपितु परिवार समाज राष्ट्र आदि से सापेक्ष व्यक्ति के जीवन को सहज किन्तु आदर्श वत्तियों का सम- णाय हो रहेगा। दीपक का महत्व भो तो तिमिर च्चय ही धर्म है। धर्म जीने की वह कला है जो
के अस्तित्व के साथ जुड़ा रहता है। व्यक्ति और उसके समस्त सम्बन्धों के लिए आनन्द साधुत्वका स्रोत है।
साधु ज्योति-पुरुष है। दीपक उच्चारण द्वारा का धर्म कभी विकृत नहीं होता, स्वगुणों से च्युत मार्ग नहीं दिखाता । मात्र आलोक प्रसारित करता नहीं होता। विकारग्रस्त धर्म के दर्शन इस कारण है। साधु-चरित्र भी तद्वत् ही होता है। उपदेश होते हैं कि उसे मलिन हृदय के पात्र धारण कर नहीं, अपने आचरण आदर्श से जो हितैषी सिद्ध हो, लेते हैं । यह प्रभाव अस्थाई होता है, क्षणिक होता वही यथार्थ साधु है । साधु वह, जो पतित के है। धर्म तो धर्म ही होता है। यह अवश्य है कि उत्थान में तत्पर रहे । साधु वह, जो प्रत्युत्तर की पावन हृदय में ही धर्म विद्यमान रहेगा। मलिन साध से रहित हो । साधु वह, जो कष्ट भोग कर पात्र के संसर्ग से विकृत हुआ धर्म तो धर्म ही नहीं भी अन्य को सुखी-सन्मार्गी बनाने में व्यस्त रहे।
सत्यान्वेषी ही सच्चा साधु है ! साधु बाह्य नहीं सामुदायिक जीवन की व्यवस्था धर्म है । मानव आभ्यन्तरिक लक्षण है। बाहर से दृष्टि समेट कर का मानव के प्रति व्यवहार धर्म है । धर्म ही जीवन भीतर झाँकने की क्रिया साधक के साधु बनने की कला का सक्षम रूप है। आचरण विशेष को धर्म पहली सीढ़ी है। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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श्रद्धा
प्रेम वह जलधारा है जो तृषितों को तो तुष्ट कर महापुरुष की महानता, उसके लोकहितकारी करती ही है। जिस हृदय-भूमि पर होकर यात्रा |K सुकर्मों को महत्ता को व्यक्ति सानन्द स्वीकारे- करती है, उसे भी स्वच्छ व निर्मल कर देती है। यही श्रद्धा है। श्रद्धा समाज की शुभवृत्तियों की सत्यसूचक बनी रहती है । श्रद्धा के अभाव से महापुरुष सत्य स्वयं शक्ति है, इसे किसी के आश्रय की । का समादर नहीं होता, सामाजिक सद्वृत्तियों का अपेक्षा नहीं रहती है। असत्य अशक्त है, अतः ।। ह्रास होता है। श्रद्धा को प्रबल बनाकर मानवता अचल पड़ा रहता है। अपने अस्तित्व को भी सत्य । और सदादशी को कायम रखना सुगम हो जाता का छद्मरूप धारण करना पड़ता है। सत्य के वेश HR है। सत् के प्रति आस्था ही श्रद्धा का दूसरा नाम में ही मिथ्या को यत्-किंचित् काल का जीवन भी।
गुजारना होता है । सत्य की ऐसी महिमा है। श्रद्धा मानव मन में अपने साथ सद्विचारों
सत्य वह जिसमें सत् का निवास हो । इसलिए की सुधा और सत्कर्मों की प्रेरणा का संचार भी
सत्य ईश्वर है । सत्य सदा निर्भीक होता है। उसे करती है।
छिपाने की आवश्यकता नहीं रहती है। प्रेम
लौ की भाँति होता है सत्य, जो न केवल प्रेम महौषधि है। वह विरोधी को हितैषी, आलोकप्रद अपितु ऊोन्मुख भी होता है। ऊपर क्रूर को सुकुमार, दुराग्रहो-कुमार्गी को सहज से ऊपर बढ़ना ही उसका स्वभाव होता है । सरिता सन्मार्गी, असुर को देवता बनाने वाली है। निराशा की भांति वह निम्न ने निम्न तल के क्रम में गतिसे भग्न हृदय को प्रेम का लेपन ही सोत्साह और शील नहीं रहता। स्वस्थ कर देता है।
___ असत्य का प्रभाव चिरकालिक नहीं होता । यह ____ शक्ति का शासन केवल शरीर तक होता है, खोटा सिक्का है, जिसे तुरन्त चलन से बाहर कर मन को नियन्त्रित एवं प्रभावित करने वाला प्रशा- दिया जाता है । सत्य का अरुणोदय होते असत्य ( सक प्रेम ही है।
की भ्रामक रजनी में सर्प का भय उत्पन्न करने क्रोध की भीषण हकार जिस मनःकपाट को वाली वस्तु रस्सी की तरह निरीह और निर्जीव खोलने में विफल रह जाती है. प्रेम की पहली आकार ले लेती है। दस्तक उसे खोल देती है। अहंकार की प्रचण्ड प्रसन्नताशक्ति मन-मन्दिर पर अधिकार नहीं कर सकती
मानवमात्र का श्रेष्ठतम श्रृंगार है प्रसन्नता। किन्तु प्रेम देखते ही देखते उसका स्वामी बन बैठता
इस अलंकरण से जितनी शोभा और मनोरमता
उसकी बढ़ती है, उतनी किसी बाह्य प्रसाधन से प्रेम वह शीतल बयार है जो जिसके हृदय में नहीं। प्रवाहित होती है उसे समस्त तापों से मुक्त कर देती प्रसन्नता ही यौवन है। इस साधन से कोई
किसी भी आयु में युवा रह सकता है। अन्ततः प्रेम वह दीप्त आलोक है जो परायेपन के यौवन और प्रसन्नता दोनों ही उत्साह, स्फूर्ति और तिमिर का नाश कर सर्वत्र अपनत्व का दशन गतिशीलता के प्रदाता हैं। कराता है।
(शेष पृष्ठ ५२६ पर) ५१४
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
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संयम जीवन का सौन्दर्य है । मन का माधुर्य है, आत्म-शोधन की प्रक्रिया है और मुक्ति का मुख्य हेतु है ।
C
आत्मा पृथक है, शरीर पृथक है । इन दोनों का आधार - आधेय सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध को वास्तविक समझना अज्ञान है ।
O
सूक्तियाँ
सत्य एक प्रज्वलित प्रदीप है, जो जन-जीवन को दिव्य प्रकाश प्रदान करता है ।
0
जहाँ अहिंसा है, वहीं जीवन है । अहिंसा के अभाव में जीवन का सद्भाव सम्भव नहीं । O
सत्य का जन्म सर्वप्रथम मन में होता है, वह वाणी के द्वारा व्यक्त होता है तथा आचरण के द्वारा वह साकार रूप लेता है ।
O
क्षमा एक ऐसा सुदृढ़ कवच है जिसे धारण करने के पश्चात् क्रोध के जितने भी तीव्र प्रहार हैं वे सभी निरर्थक हो जाते हैं ।
O
तप अध्यात्म-साधना के विराट और व्यापक रूप का बोध कराता है । उसके अभाव में मानव के जीवन में साधना का मंगल-स्वर मुखरित नहीं हो सकता।
•
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
T
तप के अभाव में अहिंसा और संयम में तेज प्रकट नहीं होता । तप साधना रूपी सुरम्य प्रासाद की आधारशिला है ।
O
तप अग्नि स्नान है । जो इस तप रूपी अग्नि में कूद पड़ता है उसके समग्र कर्म-मल दूर हो जाते हैं, वह निखर उठता है ।
O
जो साधक राग-द्व ेष की ज्वालाओं को शान्त करता है, मन की गाँठें खोलता है, वही धर्म का सम्यक् रूप से आराधन कर सकता है । O
अहिंसा वह सरस संगीत है, जिसकी मधुर स्वरलहरियाँ जन-जीवन को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण प्राणी जगत को आनन्द विभोर कर देती हैं । O
सत्य एक ऐसी आधारशिला है जिस पर मानव अपना जीवन व्यवस्थित रूप से अवस्थित कर सकता है ।
0 धर्म वस्तुतः मंगलमय है वह विश्व का कल्याणकारी और सम्पूर्ण प्राणी जगत के योग-क्षेम का संवाहक है ।
O
सत्य का पावन पथ ऐसा पथ है जिस पर चलने वाले को न माया ही परेशान करती है न अहंकार सताता है ।
O
समता लहराता हुआ परम-निर्मल सागर है । जो साधक उसमें स्नान कर लेता है वह राग-द्वेष के कर्दम से मुक्त हो जाता है ।
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मन पवन की भाँति चंचल है । ध्यान उसकी जाल है। जो इसमें आसक्त-फंसा हुआ रहता है | चंचलता को समाप्त कर देता है।
वह कदापि शांति नहीं पा सकता।
सदाचार मानव-जीवन रूपी सुमन की मधुर- जो मानव उच्च से उच्च तप करता है, उन से ( महक है। जिसमें यह महक नहीं है वह जीवन उग्र चारित्र का पालन करता है उसके लिए आध्याज्योति-विहीन दीपक के समान है।
त्मिक अभ्युदय के चरम-द्वार खुले हुए हैं ।
__ कर्म और उसका फल इन दोनों का सम्बन्ध सन्तोष आन्तरिक सद्गुण है, धैर्य एवं विवेक IN कारण और कार्यवत् है । कारण की उपस्थिति कार्य के अवलम्बन पर ही इसका विकास होता है । को अवश्य ही अस्तित्व में लाती है। अतः आत्मा को कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
मानव के अन्तर्-मन में जब संतोष का सागर लह
राने लगता है तब चित्तवृत्तियों में जो विषमता की | मन वस्तुतः मानव जीवन का मेरुदण्ड है। ज्वालाएं धधक रही होती हैं, वे शान्त हो जाती हैं । मेरुदण्ड को स्वस्थता पर ही जीवन की स्वस्थता अवलम्बित है।
कर्म स्वयं ही अपना फल देता है। अतः जैसाK
फल इच्छित हो उसी के अनुरूप ही कर्म करो। ज्ञान दिव्य-ज्योति है। जिसमें व्यक्ति अपने हित और अहित का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, कुमार्ग ही है जिनके प्रति क्रोध किया जाता है उनको भी
___क्रोध भयंकर अग्नि है जो स्वयं को तो जलाती और सन्मार्ग का निर्णय करता है।
संतापित करती है।
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ज्ञान-आत्मा का मौलिक स्वभाव है। वह आत्मा में अनन्त अक्षय दिव्य-ज्योति निहित है, मोह के संसर्ग से अशुद्ध हो जाता है, जिसे हम उसे प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की नितान्त । अज्ञान कहते हैं।
आवश्यकता है।
__ मोह आत्मा का प्रबल शत्रु है । मोह के कारण मानव ! तू न शरीर है, न इन्द्रियाँ है, और न कर ही ज्योति-स्वरूप आत्मा निज भा
ही मन है। तू तो वस्तुतः एक अच्छेद्य, अभेद्य, IK भाव में लिप्त रहती है, जिससे दुःख व क्लेश उसे
अमृत्य, अखण्ड, अमर, अलौकिक, आलोक पुज, प्राप्त होता है।
आत्मा है। ___ मैं एक बार पतझड़ से मधुवन में परिवर्तित मानव ! आत्मा न कभी जन्मती है, न कभी होने वाले वृक्ष को देख रही थी, उसे देख विचार मरती है । जन्म-मरण शरीर का होता है । इस आया कि यह कितनी प्रबल प्रेरणा प्रदान कर रहा सनातन सत्य को सदैव स्मरण रख। है-कि हे मानव ! घबरा मत । एक दिन तुम्हारे जीवन में भी आनन्द का बसन्त खिल उठेगा।। आत्मा ज्ञानमय है। वह, एक अखण्ड, दिव्य
प्रकाश से मण्डित होकर विश्व के समस्त प्राणियों संसार अनित्य है । यह मोह, माया का विकट में अभिनव आलोक का संचार करती है।
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ।
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अज्ञान का सघन अन्धकार जीवन का सबसे मन रूपी सेनापति पराजित हो गया, जीवन के || बडा भयंकर अभिशाप है। जिसके फलस्वरूप संग्राम में उसने विकारों-वासनाओं के हथियार मानव को अपना यथार्थ बोध नहीं हो पाता है। डाल दिए तो सारी सेना की हार है ।
अहंकार अध्यात्म-साधना का वह दोष है-जो साधना को दुषित कर देता है।
मन एक अपार महासागर की भाँति है जिसमें से इच्छाओं की लहरें उठती रहती हैं ।
आसक्ति, ममता एवं तृष्णा का सर्वथा परि
। एव तृष्णा का सवथा पार- राग प्रियात्मक अनुभूति है, और द्वेष अप्रिया-11 त्याग ही सच्ची साधना है ।
त्मक अनुभूति है । इन दोनों अनुभूतियों से परे जो जो मानव मन को अपने वश में कर लेता है,
है वह समभाव है। मन रूपी मातंग पर ज्ञान का अंकुश लगा देता है
सत्य अपने आप में परिपूर्ण है और वह अनन्त वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करता
है, अक्षय है, शब्दों के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति
पूर्ण रूप से नहीं हो सकती है। सम्यग्-दर्शन एक ऐसी शक्ति है जिसकी प्राप्ति होने पर मनुष्य के दिव्य-नेत्र खुल जाते हैं।
___ 'ध्यान' अनुभूति का विषय है । उसे अभिव्यक्ति 0
का रूप देना कथमपि सम्भव नहीं । आत्मा को बन्धन की बेड़ियों में डालने वाला व मुक्ति में पहुँचाने वाला मन ही है ।
हमारा जीवन 'वन' नहीं 'उपवन' होना चाहिए
__ जिसमें सद्गुणों की सौरभ प्रतिपल, प्रतिक्षण रहे, Ik सम्यग्दर्शन वास्तव में एक अक्षय ज्योति है, किन्तु दुर्गुणों के कंटक अपना अस्तित्व न रखें। उसका अचिन्त्य-प्रभाव हमारी कल्पना से परे है, मति से अगोचर है।
'शिक्षा' एक ऐसी गरिमापूर्ण कला है जिससे
जीवन संस्कारमय बनता है । मन ही मन का शत्रु है, और मन ही मन का मित्र है । जीवन को दुगुणों में डालकर मन उसका आत्मा स्वभावतः प्रकाशमान सूर्य है पर उस शत्र बन जाता है और मन ही जीवन को सद्गुणों पर कर्म-मेघ आच्छादित हैं । अतः उसका दिव्य तेज की ओर ले जाकर उसका मित्र बन जाता है।
पूर्णतः प्रकट नहीं हो पाता।
___ सम्यग्दर्शन अक्षय अनन्त सुख का मूल स्रोत 'मोह' दो अक्षर का लघु शब्द है, पर इसके है । वह आत्मा की अमूल्य निधि है । इस निधि को प्रभाव से व्यक्ति बहिर्मुखी बनता है। मोह का ie प्राप्त कर आत्मा पर-भाव से विमुख होकर निज जिसमें अभाव होता है, वही माहन भगवान बनता भाव की ओर उन्मुख होती है।
मानव-जीवन संग्राम में मन ही सेनापति है, ' 'संयम' जीवन का प्राणभूत तत्व है जिसके इन्द्रियाँ उसकी आज्ञा में चलने वाली सेना हैं। सद्भाव में मानव महामानव बनता है।
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'स्वार्थ' और 'परमार्थ' इन दोनों में पर्याप्त जो स्वभाव को एक क्षण भी नहीं छोड़ता। Sill अन्तर है । स्वार्थ जीवन की चादर को कलुषित और परभाव को ग्रहण नहीं करता है, वह मैं हूँ। को कर देता है और परमार्थ उसे उज्ज्वल बनाता है।
जीवन में जब सन्तोष आता है तब मनुष्य की मेरी आत्मा स्वतन्त्र है, शाश्वत है, आनन्द से आशाएँ, तृष्णाएँ समाप्त हो जाती हैं। उसके जीवन परिपूर्ण है, तन, मन और इन्द्रियों से परे है।
में सुख-शान्ति का सागर ठाउँ मारने लगता है।
ज्ञान एक ऐसा शाश्वत प्रकाश है, जिसमें
स्व लिम मानत ने अपने मनावको
जिस मानव ने अपने मन के पात्र को कदाग्रहों का अवलोकन किया जाता है, स्व में ही रमण से, दषित विचारों से, और मेरे तेरे के संघर्षों से किया जाता है, स्व सम्बन्धी जो भ्रान्ति एवं मूढ़ता रिक्त कर दिया है, वह अपने जीवन को प्रकाशहै, उसका निरसन हो जाता है।
मान बना देता है।
ज्ञान के अभाव में जो क्रिया की जाती है उसमें विवेक का प्रकाश नहीं होता।
सागर जिस प्रकार अगाध है, अपार है, मन भी उसी प्रकार अगाध एवं अपार है। उसमें
विचार-लहरों की कोई थाह नहीं है, कामनाओं, __ आत्मा और शरीर तलवार तथा म्यान की तरह पृथक-पृथक अस्तित्व वाले हैं, दोनों के स्वरूप ।
इच्छाओं का कोई पार नहीं है। में कोई साम्य नहीं।
आत्मा सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। वह परम आचार, विचार का क्रियात्मक मूर्त रूप है। जब ज्योति स्वरूप है। जिसने निज स्वरूप को जान विचार में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है तो उसका लिया, एक आत्मा को जान लिया तो सब कुछ असर न होना असम्भव है। ।
जान लिया। । जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, पर-भाव से शून्य है, सम्यग्दर्शन आत्मा की एक ज्योतिमय चेतना स्वभाव से पूर्ण है-वह मैं हूँ।
है जो व्यामोह के सघन आवरणों के नीचे दब गई
है । इन आवरणों को हटा देने से ही वह अनन्तआत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है, शरीरयुक्त जो ज्योति प्रकट हो जायेगी। आत्मा है वह न मूर्त है, न अमूर्त है किन्तु मूर्त और अमूर्त दोनों है।
आत्मा कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाश
मान है। चन्द्रमा से भी अधिक शीतल है, सागर हमारी आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है । जहाँ से भी अधिक गम्भीर है, आकाश से भी अधिक शरीर है, वहाँ आत्मा है, जहाँ आत्मा है वहाँ ज्ञान विराट है । वस्तुतः ये आत्मा के परिमापक पदार्थ ।। है, जहाँ ज्ञान है वहाँ संवेदना है।
___नहीं हैं।
का
ज्ञान और दर्शन मेरा स्वभाव है आवरण मेरा आत्म-तत्व ज्ञान स्वरूप है । आत्मा ज्ञाता है। स्वभाव नहीं है, जो मेरा विभाव नहीं है, वह मैं हूँ। जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है और जो कुछ ५१८
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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आत्मा है, वह ज्ञान ही है । आत्मा और ज्ञान में करना है । जिसमें यह तैयारी पूर्ण रूप से हो गयी भिन्नता नहीं है।
वह जीवन सफल है।
प्राणी जगत में मानव सबसे अधिक विकसित धर्म मनुष्य-जीवन को सुखी, स्वस्थ और एवं पूर्ण प्राणी है । वस्तुतः मानव जीवन महत्व- प्रशान्त बनाने के लिए एक वरदान लेकर पृथ्वी| पूर्ण है । परन्तु उससे भी महत्वपूर्ण है जीवन-यात्रा मण्डल पर अवतरित हुआ है। को संयमपूर्वक गतिशील बनाये रखना।
असत्य वास्तव में अशक्त है अपने अस्तित्व के आत्मा ही एक ऐसा तत्व है जो ज्ञान और लिए असत्य को भी सत्य का छदमरूप धारण है। दर्शन से युक्त है । ज्ञान और दर्शन के अतिरिक्त करना पड़ता है। | जितने भी भाव हैं वे सभी बाह्य-भाव हैं।
धर्म मानव मन में छिपी (घुसी) हुई दान- || संसार कानन में परिभ्रमण करने का प्रधान ।
- वीय-वृत्तियों को निकालता है और मानवता की bs कारण मोह है। मोह से मगध मानव जो वस्ताएँ पावन प्रतिष्ठा करता है। नित्य नहीं है उन्हें नित्य मानता है।
ब्रह्मचर्य जीवन का अद्भुत सौन्दर्य है, जिसके ___ मैं अकेला है, एक हैं, इस संसार में मेरा कोई
बिना बाहरी और कृत्रिम सौन्दर्य निरर्थक है। नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ, मैं शुद्ध स्वरूपी हूँ, अरूपी हूँ।
सत्य वस्तुतः वह पारसमणि है जिसके संस्पर्श
मात्र से ही मनुष्य जीवन रूपी लोहा सोना बनकर __ माता-पिता, पुत्र-पुत्री ये सभी मेरे से पृथक हैं निखर उठता है । यहाँ तक कि यह शरीर भो मेरा नहीं है, वह भी आत्मा से भिन्न है।
धर्म का जीवन के सभी क्षेत्रों में सार्वभौम रूप
से प्रवेश होने पर ही आनन्द का निर्मल निर्झर सत्य स्वयं अनन्त शक्ति है । इसे किसी के आश्रय प्रवाहित हो सकता है। की किंचित् मात्र भी अपेक्षा नहीं रहता है।
जिस मानव के जीवन में सत्य का प्रकाश जगसत्य का सूर्योदय होते हो असत्य का सघन मगाने लगता है वह सत्य के पीछे सर्वस्व न्यौछावर अंधेरा तिरोहित हो जाता है।
करने को तैयार हो जाता है ।
श्रद्धा मानव-मन में सद्विचारों की सुधा और धर्म मानव जीवन के विकास का अभिनव सत्काया का प्रबल-प्ररणा का आभसचार भा प्रयोग है. जीवनयापन की अतीव विशिष्ट कला है। करती है।
सत्य मनुष्य जीवन की कसौटी अवश्य करता ___ जीवन एक यात्रा है । एक ऐसी यात्रा जिसका है, जो सत्य की कसौटी पर खरा उतर जाता है संलक्ष्य ही आगामी विशिष्ट यात्रा हेतु तैयारी वह मानव से महामानव बन जाता है।
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धर्म का रहस्य जानिए, उसे परखिए, अपने 'वैराग्य' त्याग की नींव है। जितना वैराग्य । जीवन को धर्म से परिष्कृत कीजिए, इसी में 'मानव- सुदृढ़ होगा उतना ही त्याग अपना अस्तित्व बनाये जीवन' की सफलता है।
रखेगा।
जब मानव के मन, वाणी तथा कर्म में सत्- तप एक ऐसी अक्षय ऊर्जा है जो जीवन को पुरुषार्थ, न्याय-नीति एवं सत्य का दिव्य-आलोक प्राणवान बनाती है। जगमगाता है तभी मानव जीवन की सार्थकता है ।।
ज्ञान एक दिव्य ज्योति है जो हमारे जीवन में धर्म मानव-जीवन की शुद्धि, बुद्धि की एक छाये हुए अज्ञान अन्धकार को तिरोहित कर देता अतीव सुन्दर प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मानव को है। कष्ट, व्यथा के जाल से मुक्त करती है।
अहिंसा एक ऐसी उर्वर भूमि है जिस पर सत्य साहस एक ऐसी नौका है जिस पर आरूढ़ का पौधा उग सकता है और पनप सकता है। व्यक्ति आपदाओं के अथाह समुद्र को पार कर लेता
___ जो मानव सत्य धर्म की आराधना करता है
उसका आत्मबल अवश्य बढ़ जाता है। 'क्रोध' एक ऐसी अन्धी आँधी है जिसमें व्यक्ति को हित और अहित का परिबोध नहीं होता है। जब मानव सत्य को दृढ़ता से अपना लेता है,
उसे आत्मसात् कर लेता है तो जो पाप कर्म उसे का 'ब्रह्मचर्य' व्रत नहीं महाव्रत है, व्रतों का राजा घेरे हुए हैं, उन सबको वह दूर कर देता है। है। जीवन रूपी मणि माला का दीप्तमान सुमेरु
सत्य मानव-जीवन की अक्षय ज्योति है, अनसंगठन एक ऐसा स्वर्णिम-सूत्र है जिसमें आबद्ध .
मोल विभूति है उससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। व्यक्ति अपनी शक्ति को शतगुणित कर देता है।
सचमुच सत्य ज्ञान में अन्य सभी ज्ञान का अन्त
र्भाव हो जाता है । यदि सत्य का सम्पूर्ण रूप से ___ 'सम्यग्दर्शन' अध्यात्मसाधना का आधारभूत पालन हो सका तो सहज ही सारा ज्ञान प्राप्त हो स्तम्भ है। जिस पर चारित्रिक समुत्कर्ष का सुरम्य जाता है। प्रासाद अवलम्बित है।
परिग्रह एक प्रकार का पाप है वह मानव-जीवन 'परोपकार' एक ऐसी प्रशस्त प्रवृत्ति है जिसमें को पतन के गहरे गर्त में डाल देता है । स्व और पर का हित निहित है।
पाप और सांप ये दोनों ही हानिप्रद हैं। सांप से। 'त्याग' जीवन रूपी मन्दिर का चमकता हुआ भी बढ़कर पाप है। कलश है जिसकी शुभ्र आभा को कोई भी धूमिल नहीं कर सकता।
आत्मा चेतन है, अनन्त शक्तिसम्पन्न है । ज्ञाता
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और दृष्टा है । इसका चरम और परम विकास लड़खड़ाता नहीं है, गिड़गिड़ाता नहीं है तो वह परमात्मा है।
जीवन संग्राम में कदापि पराजित नहीं हो सकता ।
मानव-जीवन केवल संग्रह और उपभोग के लिए जीवन एक प्रदीप है और ज्ञान उसका दिव्यनहीं है इसमें उपभोग के साथ त्याग भी अनिवार्य है। प्रकाश है।
भोग इस लोक में ही नहीं परलोक में भी कष्ट- जीवन जन्म और मृत्यु के मध्य की कड़ी है। प्रद है वह नरक तक की यात्रा भी करा देता है। जब जन्म हुआ तब से जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई
___ और जब मृत्यु हुई तब जीवन लीला समाप्त । जो व्यक्ति भोगों का गुलाम है वह अपने जीवन हई। * को दुःखमय बना देता है।
जीवन एक सरिता है उसका प्रथम छोर जन्म मानव मन के अधीन न बनकर इसको अपने है और अन्तिम छोर मृत्यु । आज्ञाधीन बनाये।
जीवन एक महाग्रन्थ है जिसका हर पृष्ठ अनुआत्मशक्ति का यथार्थ विकास त्याग में है,
ह। भवपूर्ण है। र भोग में नहीं; साधना में है, विराधना में नहीं।
प्रत्येक मानव अपने जीवन में सुख और दुःख धार्मिक मर्यादा में जीवन को चलाने के लिए
१ का अनुभव करता है किन्तु जो उन्हें समान रूप से मनुष्य को मानव-तन के साथ मानव-मन को जोड़े
मान लेता है वह समदर्शी कहलाता है । रखना चाहिए जिसे भी मानव-तन के साथ मानवीय अन्तःकरण जब भी मिल जाता है तब उसके
मानव के जीवन में सुख का फूल भी खिलता है जीवन का प्रत्येक पहलू आनन्द और उल्लास से और दःख के कंटक भी उसके साथ आते हैं । खिल उठता है।
मनुष्य-जीवन के लिए प्रतिज्ञा एक पाल है, एक मानव ! अपने जीवन में कभी भी मान के गज बाँध है, एक तटबन्ध है, जो स्वच्छन्द बहते हुए पर आरूढ मत बनो, विनयशील बनो, यही तुम्हारे जीवन प्रवाह को नियन्त्रित कर देता है, मयोदित जीवन विकास का मलमन्त्र है। कर देता है। 'संयम' एक ऐसा अंकुश है जो हमारे मन रूपी
मानव ! संयम अमृत है और असंयम जहर है गज को वश में कर लेता है।
अतः विष को छोड़कर सुधा का पान करो। जिसके जीवन में संयम का प्रकाश है वह जीवन मानव ! सुख और दुःख यह तो एक चक्र है और वस्तुतः विशिष्ट जीवन है ।
वह घूमता ही रहता है उसे समभाव से देखते रहो,
सुख ज्योति को देखकर हर्ष से फूल की तरह न जीवन एक प्रकार का संग्राम है और मानव फूलो और दुःख के अन्धकार को देखकर मुरझाओ एक योद्धा है, यदि वह विघ्न-बाधाओं को देखकर नहीं। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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उपदेशात्मक पद्य रचना
- मानव जीवन क्षणभंगुर है
करले तू आत्म का ज्ञान ।
काल चोर का नहीं भरोसा ४ तजदे तू अन्तर् से मान ॥१॥
यह है मेरा, वह है तेरा झठा तेरा यह अभिमान । कुछ भी नहीं है जग में तेरा बस दो दिन का त मेहमान ।।२।।
प्राण पंछी यह पल में उड़ेगा क्यों करता मानव अभिमान । संभल के चलना जीवन पथ में करना अब निज की पहचान ।।७।।
कौन है राजा, कौन रंक है समय-समय की है यह बात । कभी अस्त है, कभी उदित है । कभी दिवस है, कभी है रात ।।८।।
सत्य-रत्न एक दिव्य-रत्न है अक्षय सुख का है यह कोष । हस्तगत जो भी कर लेता बन जाता जीवन निर्दोष ॥३॥
रंग बिरंगी है यह दुनिया क्यों तू इसमें ललचाया। संभल-संभल के पग तु रखना
यह केवल है बादल छाया ॥४॥ ज्ञान-दीप की दिव्य ज्योति में जीवन जिसका ज्योतिर्मान । अज्ञान तिमिर तिरोहित होता हो जाता उनको निज भान ।।५।।
समता-रस है अमृत-धारा जीवन जिससे है निर्मल । स्नात हुआ है, इसमें जो भी धुल जाता उसका कलिमल ।।।।
पल-भर का है नहीं भरोसा कल-तक की क्यों करता है बात। दो दिन का है यहाँ बसेरा
नहीं चलेगा कुछ भी साथ ।।१०।। जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में मानव कब तक उलझेगा। स्व-स्वरूप को जानेगा जब तब ही तो वह सुलझेगा ॥११॥
सद्गुण सुमन को चुनते रहिए अक्षय-सख फिर पायेगा। अनुपम-गरिमा तब ही रहेगी जीवन कुसुम खिल जायेगा ॥१२।।
कथनी कुछ है, करनी कुछ है कैसे हो जीवन-उत्थान । जहर पियेगा, कैसे जियेगा सत्य, तथ्य का करिये ज्ञान ।।६।।
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जीवन को सफल बनाना है
(तर्ज - जय बोलो.....)
अब गीत प्रभु के गाना है। जीवन को सफल बनाना है।
प्रभु नाम ही तारणहारा है भव्यों का ये ही सहारा है प्रभु चरण में मन को लगाना है....
झूठी काया झूठी माया क्यों व्यर्थ ही इसमें भरमाया नहीं इसमें अब तो लुभाना है"""
मतलब के सब रिश्ते नाते अवसर पर काम नहीं आते इन्हें छोड़ प्रभु को ध्याना है.
सुबह शाम प्रभु का नाम रटे पापों के बन्धन दूर हटे फिर 'कुसुम' मुक्ति को पाना है
भजन
सप्तम खण्ड : विचार - मन्थन
अनुकम्पा
( तर्ज - चुप-चुप खड़े हो )
जीवन का सुधार करो, दया दिल धार है होवे बेड़ा पार है जी २.... जीवन का उत्थान और दूर हो अन्धकार है होवे बेड़ा पार है जी २...
भव सिन्धु पार करने की यह साधना 'अनुकम्पा' करना यह सच्ची आराधना तप, जप, साधना का, बस यही सार है "" सब धर्मों का सार, यही दया धर्म है अपनाया जिसने भी नष्ट हुए कर्म हैं कहा सब ज्ञानियों ने, यही मुक्ति द्वार है"
दुखियों को देख करुणा आती नहीं जिसको शास्त्रकारों ने बताया अभवी ही उसको होती नहीं मुक्ति, करे यतन हजार है..." चाहो कल्याण यदि दया भाव धार लो दुख दूर कर सबके, जीवन सुधार लो कहती 'कुसुम' होवे सदा जय-जयकार है....
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मानवता....
कुछ दिन की ही जिन्दगानी
(तर्ज-जब तुम्हीं चले.) क्यों करता तू अभिमान, अरे इन्सान ये दुनिया फानी, कुछ दिन की ही जिन्दगानी"." ___कंचन जैसी जो काया है
जिसे देख-देख हरषाया है मत भूल ये एक दिन मिट्टी में मिल जानी"
धन-वैभव को पा फूल रहा
खुशियों के झूले झूल रहा प्यारे माया भी नहीं साथ में आनी...
हुए बड़े-बड़े कई महाबली
पर नहीं किसी की यहाँ चली करते थे जो अभिमान. न बची निशानी"
तेरी तो क्या यहां हस्ती है
फिर भी ये छाई मस्ती है अब छोड़ मस्ती को 'कुसुम' बात ले मानी"
पाप छुपाया ना छुपे
(तर्ज-चुप-चुप") चुप-चुप करो चाहे जितना भी पाप है छिप के न रहता कभी खुले आपो आप है." करो चाहे घर में चाहे सुनसान में जंगल में करो पाप चाहे श्मशान में होता वह प्रकट चाहे रहो चुपचाप है" पाप करने वाला खुश रहता थोड़ी देर है प्रकृति से देर होती, न होती अंधेर है-२ पाप करने वाला सदा पाता फिर संताप है.... पापों से आत्मा को भारी जो बनाता है सीधा वह मरकर दुर्गति को जाता है दुख वहां पाता अति करता विलाप है" पाप फल जान मन पापों से हटाइये जीवन मिला है इसे व्यर्थ न गंवाइये
कहती 'कुसुम' करो प्रभु का हो जाप है.... ५२४
(तर्ज-दिल लूटने वाले....) जिसमें होती मानवता है, वही मानव पूजा जाता है
जिसमें होता है नीर वही,
सच्चा मोती कहलाता है | दुखियों के दुख को देख-देख,
जिसका तन-मन व्याकुल होता ? पीड़ा उनकी ही हरने को,
__ जिसका तन-मन आकुल होता !! कर भला दूसरों का जिसका,
मन हरदम ही हर्षाता है.... शत्रु हो चाहे मित्र कोई,
सबको ही जो अपना जाने नहीं कभी किसी से द्वष करे,
सबका दुख अपना दुख माने गुणियों का जो सम्मान करे,
और प्रेम के दीप जलाता है." सद्गुण से पूरित मानव ही,
सच्चे मानव कहलाते हैं है गन्ध-युक्त जो 'कुसुम' वही,
___जग में पूजा को पाते हैं उसका ही जग सम्मान करे,
और गीत उसी के गाता है"
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साहित्य समीक्षा महासती श्री कुसुमवती जी महाराज का साहित्यः एक समीक्षात्मक चिन्तन
-उपप्रवर्तक श्री राजेन्द्रमुनि पूजनीया महासती थी कुसुमवती जी महा. के का प्रकृष्ट कथन 'प्रवचन' है। प्रवचन में आत्मा 3 कुसुमवत् जीवन की झांकी विस्तारपूर्वक पिछले का स्पर्श, साधना का तेज और जीवन का सत्य
पृष्ठों में आ चुकी है। उस विषय में अथवा उनके परिलक्षित होता है । उसका प्रभाव तीर सी वेधजीवन की विशेषताओं पर पुनः लिखकर विषय की कता लिए होता है। उसमें प्रयुक्त शब्द, मात्र शब्द पुनरावृत्ति ही करना है। यहाँ हमारा मूल उद्देश्य नहीं होते, वे जीवन की गहराइयों और अनुभवों महासती जी के कृतित्व पर विचार करना है। की ऊँचाइयों का अर्थ लिए होते हैं। बृहत्कल्प महासती श्री कुसुमबती जी म. सा. मौन साधिका भाष्य में कहा हैहैं । वे प्रचार-प्रसार से तो दूर रहती ही हैं। उन्होंने गुणसूठियस्स वयणं घयपरिसित्तुव्व पावओ भवइ। स्वरचित साहित्य का अद्यावधि प्रकाशन भी नहीं गुणहीणस्स न सोहइ नेहविहूणो जह पईवो ॥ करवाया है । आज तक उनके द्वारा रचित कुछ अर्थात् गुणवान् व्यक्ति का वचन घृत-सिंचित भजन स्तवन ही प्रकाशित हुए हैं । वे भी सार्वजनिक अग्नि की तरह ओजस्वी एवं पथ प्रदर्शक होता है। लाभ की दृष्टि से ध्यान में रखकर प्रकाशित कर- जबकि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेह रहित (तेल वाए गए हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया शून्य) दीपक की भाँति निस्तेज और अन्धकार से
रनमें लेखकीय क्षमता नहीं है। महासता परिपर्ण होता है। जी ने प्रवचन, कहानी, निबन्ध साहित्य का सृजन
परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म. तो किया ही साथ ही उन्होंने समय-समय पर अपने
. सा. एक सफल प्रवचन लेखिका हैं। अपने सुदीर्घ ॥ मानस पटल पर उभरने वाले चिन्तन का भी सहज तितिक्ष जीवन में एक ओर जहां शास्त्रों का गहन (HEOS कर रखा है। इसी प्रकार वे अध्ययन अध्यापन में अध्ययन किया है, वहीं समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ, विशेष रुचि रखती हैं। यही कारण है कि उनकी
अन्धविश्वास और परम्पराओं को भी निकट से शिष्याएँ प्रशिष्याएँ उच्च योग्यता प्राप्त हैं। महा- टेखा । काळ अन्धविश्वासों और रूढियों को देखसती जी के इसी कृतित्व पक्ष पर यहां विचार किया
कर तो आपका कोमल हृदय द्रवित हो उठता है तब जाएगा।
आप अपने प्रवचन में सटीक चोट करती हैं। जिस प्रवचन
समय आप सैद्धान्तिक प्रवचन फरमातो हैं तब __ प्रवचन गद्य साहित्य की एक विशिष्ट विधा आपका तलस्पर्शी ज्ञान दृष्टिगोचर होता है । अपने है । साधारण वाणी या कथन वचन कहा जाता है। कथन को आप शास्त्रीय गाथाओं, उदाहरणों से परन्तु सन्तों, विचारकों एवं आध्यात्मिक अनुभवियों पुष्ट करती हैं और विभिन्न दृष्टान्तों से उसे सर
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सता व स्पष्टता प्रदान करती हैं। आपके प्रवचन कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आप मूल विषय जहाँ एक ओर आप सफल प्रवचनकर्ती हैं वहीं से भिन्न विचार प्रकट नहीं करती हैं। मूल विषयों दूसरी ओर आप मधुर भाषा शैली में कहानी की से सम्बन्धित उद्धरण और दृष्टान्त ही प्रकट करती रचना भी करती हैं। कहानी गद्य विधा की एक है । आपकी प्रवचनकला से श्रोता ऊब का अनुभव सशक्त अभिव्यक्ति है। मनुष्य जो कुछ देखता है, नहीं करते, वरन वे उसमें डूब से जाते हैं, आत्म भोगता है वह दुसरे को बताना चाहता है। कहना विभोर हो जाते हैं।
चाहता है। अभिव्यक्त करना चाहता है। यह आपके प्रवचनों से दुष्प्रवत्तियां समाप्त होती हैं मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है और इसी प्रवत्ति के और सप्रवतियों का पोषण होता है। श्रोताओं में परिणाम स्वरूप कहानी को जन्म मिला। इस आप जागृति की एक लहर उत्पन्न होती है। आपकी बीती में कथा या कहानी के अनेक अंश उभरे। प्रवचन शैली उच्चकोटि की कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम इसे कहानी के प्रकार अथवा भेद कब, क्या और कैसे भाव व्यक्त करना. यह आप कह सकते हैं। अच्छी तरह से जानती हैं। आप इस तथ्य से भी कथा की उत्पत्ति कथ धातू से हई है और 1Y अच्छी प्रकार परिचित हैं कि लोगों पर कोई भी विद्वानो ने इसकी परिभाषा अपने अपने ढंग से कीK बात जबरन थोपी नहीं जा सकती है। इसलिए आप है। सामान्यतः तो गद्यात्मक शैली में लिखी गई। श्रोताओं की मनोदशा के अनरूप प्रवचन देती हैं। लघुकथा की कहानी कहते हैं। एक पाश्चात्य विद्वान इसका परिणाम यह होता है कि आपके प्रवचन ।
न ने कहानी की परिभाषा करते हुए लिखा हैप्रभावी होते हैं और लोग उनके अनरूप अपना 'कहानी' एक ऐसा गद्यात्मक आख्यान है जो आध कार्य एवं व्यवहार रखने का प्रयास करते हैं।
घंटे से लेकर दो घण्टे तक के समय में एक ही
बैठक में समाप्त हो जाए और पाठक के हृदय में । आपके प्रवचनों के विषय वसे तो जनधनु- संवेदना उत्पन्न कर सके । एक अन्य विद्वान के अनुसार होते हैं किन्तु समय समय पर आप समाज सार 'एक छोटी कहानी ऐसी कहानी हो जिसमें सुधार विषयक भी लिखती हैं।
साधारण घटनाओं और आकस्मिक दुर्घटनाओं का आपके प्रवचनों की भाषा सरल, सहज, सरस अंकन हो । कथावस्तु गतिशील हो और अप्रत्याशित और बोधगम्य है। जनता को जनता की भाषा में एवं असम्भव चरम विकास में उसकी समाप्ति हो।' कहना आप अच्छी प्रकार जानती हैं, यही कारण है डा० श्यामसुन्दर दास ने कहानी में नाटकीयता कि आपके प्रवचनों में लोक भाषा की शब्दावली पर बल दिया और प्रेमचन्द ने कहानी को एक भी खूब मिलती है । कहावतों, लोकोक्तियों, मुहा- ऐसी रचना माना है जिसमें जोवन के किसी एक वरों का भी यथास्थान स्वाभाविक रूप से प्रयोग अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही हुआ है।
लेखक का उद्देश्य रहता है। आपके अनेक प्रवचन लिखे हुए हैं जो अप्रका- उपर्युक्त विविध परिभाषाओं को देखने से हमें शित हैं, आशा है शीघ्र ही प्रकाशित होंगे। आपके 'कहानी' क्या है ? समझ में आ जाता है। कहानी के कुछ प्रवचन उदाहरण स्वरूप पिछले पृष्ठों में दिये रूप भी कई मिलते हैं । घटनाप्रधान, चरित्रप्रधान, जा चुके हैं । पाठक उन्हें पढ़कर आपकी प्रवचनकला वातावरणप्रधान एवं भावप्रधान कहानियाँ होती से परिचित होंगे ही।
हैं। किन्तु लम्बी कहानी, लघुकथा, रूपककथा,
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ANYASAMAN.
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| बोधकथा धर्मकथा आदि भी उसके रूप होते हैं। है और लेखक का पूर्ण व्यक्तित्व निखरता है। इन रूपों की सबकी अपनी-अपनी विशेषताएँ होती।
निबन्ध का अर्थ बांधना है--निबन्ध वह है हैं । इनमें से कुछ प्रकार की कहानियों में कहानी ।
जिसमें विशेष रूप से बंध या संगठन हो। जिसमें । कला के समस्त तत्वों की पूर्ति न होते हुए भी वे
विविध प्रकार के विचारों/मतों/व्याख्याओं का अपने आप में पूर्ण हैं ।
सम्मिश्रण हो या गुम्फन हो। वर्तमान युग में ___ बाल ब्रह्मचारिणी महासती श्री कुसुमवती जी निबन्ध उस गद्य रचना को कहा जाता है जिसमें म. सा. को कथा साहित्य का लघुकोश कहा जा परिमित आकार के अन्दर किसी विषय विशेष का सकता है । लघुकथाओं के अतिरिक्त आपने महा- वर्णन अथवा प्रतिपादन अपने निजपन, स्वतन्त्रता पुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंग भी सुन्दर, सरस सौष्ठव सजीवता आवश्यक संगति और सभ्यता के भाषा-शैली में लिखे हैं। ये जीवन प्रसंग न केवल साथ किया गया हो। स्वाभाविक रूप से अपने रुचिकर हैं वरन् अनुकरणीय भी हैं। ये प्रसंग मर्म- भावों को प्रगट कर देना निबन्धकार की सफलता स्पर्शी हैं जो जीवन को दिशादान देने में समर्थ हैं। होती है ।
कुछ लघुकथाओं आदि का प्रकाशन इस ग्रंथ में भावात्मक और विचारात्मक ये दो प्रकार किया जा रहा है। जिससे पाठक वर्ग आपकी निबन्धों के बताये गये हैं। इनके अतिरिक्त कहींकहानी कला से भी परिचित हो सकें। वैसे महा- कहीं निबन्धों के कुछ अन्य प्रकार भी बताये जाते सती जी प्राचीन श्रु त परम्परानुसार अपना साहित्य हैं, किन्तु इन दोनों के अन्तर्गत सभी समाहित हो प्रकाशित न करवा कर अपनी शिष्याओं को कंठस्थ जाते हैं । करवाती हैं किन्तु प्राचीन युग के समान बौद्धिक भावात्मक निबन्ध में लेखक किसी वस्तु का विशेषताएँ अब हैं नहीं । फिर अब अपने कथ्य को विवेचन अपनी बुद्धि और तर्कशक्ति से नहीं करता, सुरक्षित रखने के अनेक माध्यम उपाय आज विद्य- अपितु हृदय की भावनाओं को सरस अनुभूतियों के मान हैं । इसीलिए महासती जी के समस्त कथा रंग में रंगकर इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि उसे साहित्य का प्रकाशन जन-जन के लाभार्थ होना पढ़ते-पढ़ते प्रबुद्ध पाठकों के हृदयतन्त्री के तार चाहिए।
झनझना उठते हैं। विचारात्मक निबन्धों में आपके कथा साहित्य में जितनी भी लघुकथाएँ,
चिन्तन, विवेचन और तर्क का प्राधान्य होता बोधकथाएँ प्रेरक, प्रसंग आदि हैं वे सभी अनुकर
है। विचारात्मक निबन्धों में निबन्धकार के णीय हैं। उनसे नैतिक शिक्षाएँ ग्रहण की जा सकती व्यक्तिगत दृष्टिकोण से किसी एक वस्तु की तर्कपूर्ण हैं, व्यक्ति के वारित्रक विकास में वे काफी सहायक और चिन्तनशील अनुभूति की गहन अभिव्यक्ति बन सकती हैं । भाषा प्रांजल है और शैली मिश्रित होती है। स्मरणीय है कि सामान्य लेख और है किन्तु उनमें रोचकता है, सरसता है और श्रोताओं निबन्ध में काफी अन्तर है । सामान्य लेख में लेखक को बांधे रखने की क्षमता है।
का व्यक्तित्व प्रच्छन्न रहता है। जबकि निबन्ध में
निबन्धकार का व्यक्तित्व ऊपर उभरकर आता है। . निबन्ध-प्रवचन और कहानी के अलावा आपने 25 अनेक चिन्तनप्रधान निबन्ध भी लिखे हैं । आचार्य बाल ब्रह्मचारिणी परम विदुषी महासती श्री
रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध को गद्य की कसौटी कहा कुसुमवती जी म. सा. द्वारा लिखित निबन्धों में है । निबन्ध में अनुभूति की अभिव्यक्ति सशक्त होती दोनों ही प्रकार के निबन्ध मिलते हैं । आपके
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निबन्धों में विवेचनात्मक और गवेषणात्मक ये दोनों मिलते हैं, जिसे हम ज्ञान प्राप्ति की संज्ञा भी दे ही प्रकार की विधाएं सम्मिलित हैं। आपके निबन्धों सकते हैं। की भाषा प्रांजल है, प्रवाह उत्तम है। सामान्य वर्तमान काल में भी यह चिन्तन की प्रक्रिया पाठक वर्ग के लिए सरल, सरस एवं बोधगम्य है, चल रही है । आज का साहित्यकार समाज को नयेजहाँ कहीं भी आपने संस्कृत/प्राकृत की गाथाओं नये विचार दे रहा है। यह विचार सामाजिक, को उद्धृत किया है । वहाँ आपने उसे विस्तार से आर्थिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि विभिन्न | समझाया भी है । इससे पाठकों को आपके निबन्धों क्षेत्रों से सम्बन्धित हो सकते हैं। किन्तु जो सन्त । के कथ्य को समझने में सुविधा हुई है।
होता है, साधक होता है, उसके चिन्तन का क्षेत्र 11 चूंकि आप जैन धर्म की एक परम विदूषी आध्यात्मिक होता है, जो अपने चिन्तन के फलमहासती हैं, इसलिए आपके निबन्धों के विषय भी स्वरूप आध्यात्मिक या दार्शनिक विचार सूत्र जनउसके अनुरूप ही हैं । निबन्धों में सामान्यतः उप- मानस को देता है। देश परक शैली का उपयोग किया गया है । आपके परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी निबन्धों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता महाराज भी एक साधिका हैं। अध्ययन के साथ है कि आपका अध्ययन विस्तृत है, चिन्तन गम्भीर उनका चिन्तन भी सतत चलता रहता है। जिसके । है। विषय को गहराई से उद्धरणों और दृष्टान्तों यावरूप उनके मानस-पटल पर नये-नये सहित प्रस्तुत कर विषय वस्तु का समुचित रीत्या- विचार उत्पन्न होते रहते हैं। ये विचार-कण या 2 नुसार प्रतिपादन करने में आप सर्वथा सक्षम हैं।
चिन्तन सूत्र सामान्यतः आध्यात्मिक होते हैं, किन्तु
कहीं-कहीं सामाजिक चिन्तन भी प्रकट हुआ है। चिन्तन करना मानव का स्वाभाविक गुण है।
समाज में रहते हुए वे जो देखती हैं उस पर भी वह जितना अध्ययन में डबकर उस पर विचार स्वाभाविक चिन्तन हो जाता है और जो नयी । करता है, नये-नये विचार उत्पन्न होते जाते हैं जो अनुभूति होती है/विचार उत्पन्न होते हैं, वे चिन्तन । कभा-कभी एक-एक पंक्ति से आठ या दस पंक्ति कण का स्वरूप ले लेते हैं । आपके इन विचार सूत्रों तक के हो सकते हैं। कभी-कभी विचार करते-करते में नया संदेश मिलता है। कुछ सूत्र तो ऐसे हैं, भी मानस पटल पर प्रकाश पंज की भांति विचारों जिन पर विस्तार से बहुत कुछ लिखा जा सकता का आविर्भाव होता है। कभी व्यक्ति भ्रमण करता
है। इन सूत्रों में दार्शनिकता के साथ सामाजिकता होता है, कोई घटना देखता है और उसके मस्तिष्क
भी पायी जाती है। सैद्धान्तिक विचारों के साथ में नवीन विचारों का आविर्भाव हो जाता है, यह
कुछ व्यावहारिक दर्शन भी मिलता है। आपके बात तो सामान्य व्यक्ति की है।
समस्त विचार सूत्रों का प्रकाशन अनुकरणीय प्रतीत । जब कोई साधक अपनी साधना में लीन होता
। होता है । इस दिशा में आवश्यक प्रयत्न जरूरी है। है/ध्यान मग्न होता है तो उसके मानस-पटल पर भजन-स्तवन असंख्य दृश्य/विचार आते रहते हैं । वे विचार ही अपने आराध्य के स्मरणार्थ कुछ काव्य पंक्तियों उनके चिन्तन का सार होते हैं । यहाँ यह स्मरणीय की रचना की जाती है, जिसे विधा के अनुसार
हैं कि प्राचीन संस्कृत प्राकृत साहित्य जो ऋषि- भजन या स्तवन स्तुति आदि कहा जाता है। प्राचीन COM मनियों की देन है, इसी चिन्तन का परिणाम है। भजन या स्तवन स्ततियां/स्तोत्र पर
वस्तुस्थिति यह है कि इस चिन्तन में नये विचार में मिलते हैं। इन भजन स्तुतियों की विशेषता उनकी ।।
चिन्तन सूत्र
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सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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विषय वस्तु में तो है ही, किन्तु एक सबसे बड़ी है। वहीं उपदेशपरक भजनों को भी संरचना की । विशेषता उनकी गेयता है।
__ है। इन उपदेशपरक भजनों के द्वारा मानवों की ___'स्तुति' शब्द स्तुत्यर्थक 'स्तु' धातु में 'क्तिन्' सुप्त चेतना को जगाने हेतु भावपूर्ण शब्दों में प्रत्यय लगकर बनता है । जिसका अर्थ है-श्रद्धा हितोपदेश दिया है। इसी खण्ड में उनके कुछ भक्तिपूर्वक पूज्य गणों का वर्णन करना। भजन अंकित हैं। पाश्चात्य विद्वान हिम (Hymn) शब्द का प्रयोग इस प्रकार हम देखते हैं कि परम विदुषी महास्तुति के अर्थ में करते हैं।
सती श्री कुसुमवती जी महाराज एक निबन्धकार, जैन परम्परा में स्तुति का अत्यधिक महत्व प्रवचनकर्ती, कथाकार, चिन्तक और कवयित्री है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और समस्त प्रान्तीय के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। उनके द्वारा ६ भाषाओं में अगणित स्तुतियाँ मिलती हैं । जैन धर्म रचित साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट हो ।
में स्तुति के अर्थ में 'स्तव' और 'स्तोत्र' इन दो शब्दों जाता है कि उन्होंने जो भी सृजन किया है। वे
का प्रयोग दिखाई देता है। प्राकृत भाषा में स्तव उस विधा में खरी उतरी है । यहाँ मैं इस बात का J को 'थय' या 'थअ' तथा स्तोत्र की 'थोत्त' कहा निर्देश करना आवश्यक समझता हूँ कि उनकी गया है।
शिष्याओं/प्रशिष्याओं को चाहिए कि वे महासती परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म. जी द्वारा रचित समस्त साहित्य को व्यवस्थित कर सा० ने समय-समय पर विभिन्न स्तुतियों की संर- उसे अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित करवायें तो चना को है। जो प्रांजल भाषा में सरल, सरस जन सामान्य को भी उसका लाभ मिल सकेगा
और गेय हैं । कवयित्री ने जहाँ स्तुतिपरक भजनों और उनके बताये मार्ग पर चलने का प्रयास कर * में आराध्यदेव प्रभु के प्रति श्रद्धा अर्घ्य चढ़ाया है, सकेगा। विश्वास है कि मेरे इस सुझाव को क्रिया
भक्ति भाव के सुगन्धित सुमनों को समर्पित किया त्मक रूप मिलेगा। १५ (शेष पृष्ठ ५१४ का)
__जीवन है-आशा । निराशा यौवन की मौत है। प्रसन्नता शीतल जल पूरित स्वच्छ जलाशय है, आशा की ओर उन्मुख रहना उत्साह की चाह और जिसमें निमग्न होकर प्रत्येक निर्मल तो हो ही जाता यौवन की राह है । स है, समस्त तापों से भी मुक्त हो जाता है। __ आशा भरे हृदय को कोई संकट कभी आतंकित
आभ्यन्तरिक प्रसन्नता ही सारे जगत को किसी नहीं कर पाता और उसकी यह असमर्थता पराभव के लिए भव्य सौन्दर्यशाली, चित्ताकर्षक और मनो- की प्रथम सीढी बनती है।। र रम बना देती है । हम जिस रंग का चश्मा चढ़ाएंगे आशा व्यक्ति के लिए कभी दुखद नहीं होती को उसी रंग में रंगे हुए तो सारे दृश्य हमें दिखाई है। आशाओं की अपूर्ति तो निराशा है, वही खेद
जनक है। उसे आशा मानना भ्रान्ति है । आशाएँ __ प्रसन्नता मन का तत्व है। इसे प्रसन्नता देने इस प्रकार निराशाओं में तभी परिणत होती हैं, कर १ वाली बाह्य वस्तु की विशेषता मानना भ्रम है। जब व्यक्ति उसके लिए अतीव काल्पनिक आधार
प्रसन्नता जीवन और जगत के दुर्धर्ष संकटों से बनाता है-आशा का क्या दोष ? * संघर्ष की प्रथम एवं अनिवार्य तैयारी है, जो उत्साह सावधानी के साथ आशाओं को क्षेत्र दो, उद्यम 2 के आयुध-निर्माण का कार्य करती है।
से सींचो, सचेष्टता से संरक्षण करो, यत्न से आशा-निराशा
विकसित करो, प्रसन्नता के ही प्रसून प्रस्फुटित उत्साह यौवन का अनिवार्य लक्षण है । उसका होंगे। सप्तम खण्ड : विचार मंथन
५२९ * साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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बालब्रह्मचारिण्याः श्रीमत्याः कुसुमवत्याः सत्याः यशःसौरभम्
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संसारजीवजगतः परमंहितेच्छुम्, मोक्ष च्छुक प्रकृतिहेतुजनेविरक्तम् । ज्ञानात्मदेहविषये हृतसंशयं तम्, वन्दे गुणातिशयितं भुविवर्तमानम् ॥ नमाम्यहं सोहननामधारिणीम्, सती महिम्नां सकलागमश्रियम् ।
सतां समूहेऽप्यमितप्रभाविनीम्, दयैकदृष्टिं श्रितशुक्लवाससम् ।।१।।
अर्थ-श्वेताम्बर स्थानकवासिनी जैन साध्वी महिमाओं की सती श्री सोहनकुंवरजी महाराज, जो सब आगमों की शोभा थीं, मुनिराजों में भी जिनकी धाक थी, जिनकी दया ही शरण थी, उनको मैं नमन करता हूँ।
नमस्कृति, प्रथमा स्वभावतः, यतो हि गुर्वीयमतोऽपि युज्यते ।
वदामि यस्या यशसः कथानकम्, भवेदहो मङ्गलमेव मङ्गलम् ।।२।।
अर्थ-स्वभाव से मेरा नमस्कार, इसलिए भी है कि ये मेरी गुरु थीं। और इसलिए भी कि CL में जिन सतीजी के यश की कहानी कह रहा हूँ, उनकी भी ये गुरु हैं, जिससे कि मंगल ही मंगल हो।
वहामि तस्याः शिरसाऽप्ययोमुखः, सदोपदेशामृतपूर्णमुत्तटम ।
घटं ततोऽहं कथयामि मातरम्, वदेयुरन्ये किमपीह दुर्वचम् ॥३॥ अर्थ-उन सतीजी महाराज के उपदेशामृत से भरे हुए और उठाए घड़े को लज्जित हो, ढो रहा है, यही कारण है कि मैं सतीजी को माता कहता हूँ, फिर चाहे कोई कितना ही बुरा कहे।
तस्याः पुनश्चान्यतमा भवेदियम्, सतीषु धन्या कुसुमाभिधायिनी।
ममा तु तस्याः समुदीर्यते यशः, यथास्मृति ध्यानपरेण चेतसा ॥४॥ ___ अर्थ-उन्हीं की अनेक सतियों में से ये श्री कुसुमवतीजी सती हैं, इनके यश तो बहुत हैं किन्तु ।। मुझे जो सूझते जाते हैं, उन्हीं को मैं कहता हूँ।
अबोध एवाहमतोऽपि निर्भयः, गदामि मत्याकलितं सुनिर्भरम् ।
अतो न जिहामि कवेगुणादहो, न शङ्कते मे हृदयं विकत्थने ॥५॥ अर्थ-क्योंकि मैं नासमझ हूँ, इसलिए मुझे कोई डर नहीं लगता, अतः जैसा समझ में आता है, वैमा ही खूब कहता जाता हूँ। इसलिए कवियों की मर्यादा छोड़कर वर्णन करने पर भी नहीं झेंपता। यहाँ तक कि डींग मारने पर भी हृदय घबड़ाता नहीं है।
श्रद्धयाया महत्या धवलवसनाच्छादिताया हि सत्याः, श्रीमत्याः सोहनायाः कृतघनतपसो मुक्तिमार्ग-प्रयात्र्याः ।
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शिष्येयं शान्तवृत्ति. परमशुभगतिजनधर्मागमश्रीः,
व्याख्यात्रीषु प्रसिद्धा पुनरतिसरला काऽप्यनन्या सतीषु ॥६॥ अर्थ- स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन महासती घोर तपस्विनी श्रद्धेय श्री सोहनकुवरजी जो || अब स्वर्गीय हैं, ये परम मांगलिक जैनधर्म के आगमों की शोभा, प्रसिद्ध व्याख्यात्री, अत्यन्त सरल और सतियों में बेजोड़ ही हैं।
साऽसौ नाम्ना सुशीला कुसुमसुषमा राजते जैनभूमी, जानाम्येवं सुखेन प्रगुणियशसां वृन्दतोऽह सतीनाम् । तस्मादन्ते गुणानां गणमपि सहसा वक्त मस्म्येव तस्याः,
सत्याः सौम्यस्वरूपं ज्ञपति तरसा भावधुर्य महत्वम् ॥७॥ अर्थ-जैनजगत् में सुशील, वही यह कुसुम नाम की परम शोभा झलक रही है, यह मैं पूज्य सतियों के मुख से ही ऐसा सुनता हूँ । इतना कहने पर भी कुछ गुणों को और कहना चाहता हूँ, जिनसे इन सतीजी का उज्ज्वल और पावन रूप शीघ्र ही समझ में आ जाता है ।
एतत्सत्यं प्रकृष्ट प्रथमवयसि स्यामहं शिक्षकोऽस्याः, सत्यावृत्ति विचेतु कथमपि समयं दातुमिच्छुर्भवेयम् । कालेऽज्ञास्यं महत्वं तदपि तु कठिनं मन्दबुद्धर्ममेदम्,
कृत्यं जातं कठोरं स्मरति यदि मनो लज्जते मामकीनम् ।।८।। अर्थ-एक सच्ची बड़ी बात यह है कि जब ये छोटी आयु में ही थीं, इनका शिक्षक बन, इन को समझने के किसी प्रकार समय निकालकर पहुँचा । मेरी यह मूर्खता ही थी, क्योंकि मैं रीति-नीति से
अपरिचित था। आगे चलकर बड़प्पन को समझा भी कि नहीं, यह तो समझने की बात है, अध्यापन के ५ समय बड़ा कठोर व्यवहार हुआ। जब कभी मैं उस कठोर व्यवहार को याद करता हूँ तो मन में बड़ा लज्जित होता हूँ।
स्मृत्वा सर्वं त्वकृत्यं कथमपि वचनैर्यद्यहं वर्णयेयम्, हर्ष मत्वा सदेयं कथयति सुसती तद्धि जातं हितार्थम् । सम्प्रत्येवं महत्वं किमपि सदसि यद् वर्तते सत्फलं तते,
दैन्यं मन्स्ये न चित्त न किमपि मनसेः कल्पनौचित्यमास्ते ॥६॥ अर्थ-यदि मैं स्मरण कर उस कठोर व्यवहार को कभी कहता हूँ तो हर्ष मानकर पावन सती जी कहती हैं कि वह कठोर व्यवहार तो बड़ा हितसाधक हुआ है। जो भी कुछ महत्त्व आज सभा में माना जाता है, वह सब उसकी बदौलत है । मैं तो उसको हृदय में बुरा नहीं मानती। इसलिए आपका ऐसा कहना उचित प्रतीत नहीं होता।
सत्यं वचम्येव वृत्तं न हि मम मनसः कल्पनेयं नवीना, सत्यः सर्वाः प्रवीणा अपि बहुगुणिताः सन्ति सद्धेऽपि सत्यः । वैदुष्याभारनम्राः किमपि तु कथितं पालयन्त्येव वाचम्, सत्या वृत्तिं सदैताः फलयितुमनसश्चिन्तिका एव सर्वाः ॥१०॥
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अर्थ- सच बात कहता हूँ, यह कोई मेरे मन की बात नहीं है । आज इन सतीजी के संघाड़े में सभी सतियाँ अत्यन्त योग्य और महाविदुषी हैं । विद्वत्ता के बोझ से झुकी हुई वे जो सतीजी फरमाते हैं, उसका वे उसी समय पालन करती हैं, साथ ही ये सतियाँ हृदय में सोचती हैं कि उनके कहने से पहले ही कार्य हो जाना चाहिए ।
अर्थ- वास्तव में, मैं सतीजी के असली रूप को तो बता नहीं सकता ( क्योंकि मुझ में इतनी योग्यता नहीं है) किन्तु झूठ आदि में फँसा मैं दुनियावी कामों को ही गिना सकता हूँ । इसलिए मैं मानता हूँ कि यह सब मेरा कथन सारहीन ही है । किन्तु मोक्षार्थी तत्वज्ञ मुनिजन मेरे इस ऊटपटांग वर्णन से कुछ तो अर्थ निकाल ही लेंगे ।
नाहं वक्तु यथार्थ परमपि सततं रूपमेतत्स्वतोऽस्याः, मिथ्याचारादिमग्नः कथयति रचितं लौकिकं कार्यमेकम् । तस्मान्मन्ये ममेदं कथनमपि तदा केवलं सारहीनम्, जानीयुः केऽपि सन्तः परमपदरता ध्यानमग्ना महान्तः ॥ ११ ॥
यद्यप्यस्या
गुणानामतिशयमपरं
वक्तुमिच्छाम्यपारम् ध्यानं तावन्मदीयं व्यथितजनकथावन्मामकीनं विपन्नम् । भ्राम्यत्येवं कथायाः झटिति मम मनश्चञ्चलत्वाद् गुणेभ्येः, हेतुर्नान्योऽस्ति कश्चित् सकलगुणमहिम्नः शीलशुक्लोम्बरायाः ॥ १२ ॥
अर्थ - यद्यपि मैं सतीजी के गुणों के अपार महत्व को कहना चाहता हूँ, तब तक मेरा कहना - करना रोगी की कहानी के समान गड़बड़ा जाती है । कहना चाहता हूँ कुछ कह जाता हूँ कुछ, क्योंकि मेरा मन मुझको धोखा देता है । अतः गुणों की बात कह नहीं पाता । कारण इसका यही हो सकता है कि शील शुक्लाम्बरधारी सतीजी महाराज स्वयं ही ऐसी हैं कि मैं कुछ कह ही नहीं पाता ।
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अर्थ - दर असल छोटी सी उम्र में ही इन सतीजी ने अपनी पूज्य माताजी के साथ ही परमयशस्वी अध्यात्मयोगी मोक्षमार्गी परम प्रसिद्ध सन्मुनीन्द्र गुरुवर श्री पुष्करमुनिजी के संघ में दीक्षा ग्रहण करली थी, तभी से परिचित होने के कारण में इन सतीजी को जानता भर हैं, किन्तु इन्होंने इतनी उन्नति कर ली है कि मैं अब इन सतीजी के महत्व को नहीं पहचानता । क्योंकि तपस्या से व्यक्ति कुछ का कुछ हो जाता है ।
सत्याश्चास्या गुणानां परिचितिरपरा बाधिका वर्त्तते मे, स्वल्पायुष्ये सतीयं परमगुणवती दीक्षितासोज्जनन्या । सार्धं देव्या महत्या विमलगणधरे पुष्कराचार्य संधे, दिव्योत्कर्ष प्रतिष्ठे परमगतियशः शोभिते सन्मुनीन्द्र ॥१३॥
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तस्यैवेयं सतीनां शुभमतियशसां सुप्रसिद्धा गणश्रीः, नेयं शिष्यैव लोके परमगणधरा शिक्षितानां सतीनाम् । दिव्याभानां सुरत्नं सुविमलयशसां राजते तीर्थरूपा, दृष्ट्वा सत्योऽपि चान्याः स्वयमतिविमलाः स्पर्द्धमाना यतन्ते ॥ १४॥
अर्थ - तपःसिद्ध अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि गुरुदेव, उनकी पवित्र बुद्धि और यशवाली
सप्तम खण्ड : विचार - मन्थन
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सतियों के समुदाय में प्रख्यात गणधरा अब शिष्या नहीं, अपितु प्रसिद्ध सतियों में चमकता रत्न है,
सुप्रसिद्ध सतियों में गुरु के तुल्य शोभित है । इन सतीजी को देखकर अब अन्य सतियां भी जो अपने ज्ञान | ला और गुणों से विमल हैं, वे भी अब स्पर्धा के लिए यत्न करती हैं।
श्रद्धाधर्मोज्ज्वलाचिः प्रतिदिनमपरं व्यापृतं जनसंघम्, धर्मश्रद्धातिरेकं परहितविषये दृष्टिदानाय नित्यम् । सम्प्रेर्याधिक्षयार्थं श्र तरसरचितं मार्गमेवोदगिरन्ती,
श्रेष्ठं मत्वा सतीयं सुलभहितपरै राजते वाक्यवृन्दैः ॥१५॥ अर्थ-श्रद्धा और धर्म की झिलमिलाती अग्नि की लपट ये सतीजी प्रतिदिन जैन जनों, जो धर्म और श्रद्धा का आधिक्य रखते हैं, उनको सदा परोपकार के लिए उपदेश करती रहती हैं। मार्मिक व्यथाओं के दूर करने के लिए शास्त्रों के तत्त्व को श्रेष्ठ मानकर समझ में आ सके ऐसे वचनों से उद्बोधन करती हुई सोहती हैं।
जानाम्येनां सुशीला सततगुणमयी शिक्ष्यमाणां सदाऽहम, स्वामोन्नत्य प्रयातां सरलसुवचनरुत्तरैर्बोधयन्तीम् । स्मृत्वा सर्वं नितान्तं त्यजति मम मनः क्रू रवृत्ति मदीयाम्,
जिह्व म्यद्य स्वतोऽहं कटु विषवचनैः किन्तु शिक्षात्यगम्या ॥१६।। अर्थ-जो मुझसे व्याकरणादि सीखी हुई, इस सुशील गुणवती सतीजी को जानता अवश्य हूँ, क्योंकि ये अपने को उन्नत करने के लिए सीधे-सादे उपदेशों से ज्ञान बखेरती हुई, आज परमपद से शोभित हैं, और मैं जहाँ था वहीं हूँ तथा अब मैं अपने उन तीखे वचनों का स्मरण कर पछताता हूँ और शरमाता हूँ, किन्तु शिक्षा कठिनता से प्राप्त होती है, करता भी तो क्या ?
यद्यप्यस्याः स्वभावे सहजमुपकृतेश्चित्रमेतन्नवीनम्, पश्यामीत्थं विलक्षः किमपि तु वचनैर्वक्त मीशो भवेयम् । माहात्म्यं चाप्यपूर्व विरलमधिकृतेदिव्य-रूपं त्वलभ्यम्,
संसारी कामचारः कथमपि विमलं तत्त्वमाप्त कथं स्याम ।।१७।। अर्थ-किन्तु स्वाभाविक उपकार करने के नये दृश्य को देखकर तो मैं अब अचम्भे में गिर पड़ता हूँ कि किस प्रकार मैं ऐसी शक्ति प्राप्त करू जैसी कि सतीजी ने प्राप्त कर ली है। किन्तु मैं | का गृहस्थी और असंयमी रहकर क्या ऐसा दृश्य उपस्थित कर सकता हूँ।
मानं त्वस्या वदेयं किमिति पुनरहो वर्णने सन्ति सत्यः, यासां कोतिदिगन्ते प्रसरति भुवने सत्प्रभावैरजस्रम् । वैदुष्यञ्चाप्यपूर्व दिशि दिशि बहुधा दीप्तिमद्देशनायाम्,
श्रु त्वा सर्वे विमुग्धा गुणिजनसकला संति सद्योऽद्यभूमौ ॥१८॥ अर्थ-इन सतीजी में मान जैसी तो कोई बात ही नहीं है। इनके अतिरिक्त अन्य पवित्र गुणवती सतियों को भी देखता हूँ कि जिनके दिव्य प्रभाव के सामने श्रावक ठहर नहीं पाते, किन्तु इनके व्याख्यान को सुनकर श्रावक जमे के जमे ही रहते हैं, उठने का नाम ही नहीं लेते।
जानन्त्येतज्जगत्या जिनवरमुनयो रक्षका जोवयोनेः, कष्टं लब्ध्वाऽपि लोके हितकरवचनैः शिक्षयन्त्येव सत्यम् । लोकाः सर्वे विमुग्धा परहितविमुखाः स्वाथिनो भोगवृत्तः किं जानीयुमहत्त्वं जगति धनरताः सन्मुनीनां कथानाम् ॥१६॥
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__ अर्थ-कष्ट उठाकर भी जिनमुनिजन जीव जाति की रक्षा करते हैं, सत्य को कष्ट सहकर भी ST सिखाते हैं, किन्तु स्वार्थी संसारी, धन के लोभी मनुष्य ऐसे मुनियों का वास्तविक स्वरूप कैसे जान k सकते हैं।
एते सर्वे विरक्ताः परमसुमतयो मुक्तिमार्गप्रसक्ताः एवं सत्योऽप्यनेका विहृतिपरवशा जैनधर्म वहन्त्यः । लोकान् भोगानुरक्तान् विकृतिरसयुतान् हिंसकान बोधयन्त्यः,
भिक्षावृत्ति दधत्यो जनजनविषये संति धन्या महत्यः ॥२०॥ ___ अर्थ-किन्तु फिर भी उपकारी मुनिजन इन हिंसक मनुष्यों को समझाते ही रहते हैं। इसी या प्रकार सतीजन भी उन सबको समझाती रहती हैं । यह जैनधर्म का विस्मयकारक महत्व है ।
दृष्ट्वाऽप्येवं विरक्तान जिनवररसिकान सन्मुनीन्द्रा जगत्याम्, भोगासक्तास्तु लोकाः कलहविषरता भुञ्जते पापभोगान् । कुयु: किं ते मनुष्याः परहितविषये नामधर्मस्य नीती,
सिद्धि सम्प्राप्य कांचित् परजनसुकरं जैनधर्म वहेयुः ॥२१।। अर्थ-इतने पर भी ये संसारी मनुष्य लड़ाई-झगड़ों में लगे रहते हैं, इन पावन मुनियों के उपदेश को ग्रहण नहीं करते और पाप कमाते रहते हैं, किन्तु कुछ मिल जाने पर उसी में प्रसन्न रहते हैं। और सत्य की उपेक्षा करते हैं।
ज्ञात्वा सर्व रहस्यं मनसि मम पुनर्जायते काऽपि शङ्का, रागांस्त्यक्त्वाऽपि सर्वान् कथमिह मुनयः पालयेयुः स्वकीत्तिम् । कीतलुब्धा मुनीन्द्रा यदपि सुतपसः संति केचित् पृथिव्याम्,
आनीयुः केऽपि लोके परमहमखिलं मूढचेता न जाने ।।२२।। अर्थ-परन्तु सब कुछ त्यागने पर भी मुनिजन कुछ ऐसे भी हैं कि वे अपनी कीति की लालसा र रखते हैं, यह देखकर मैं आश्चर्य में डूब जाता है, किन्तु इसका उत्तर सुनकर भी मैं ऐसा मूर्ख हूँ कि उनके समाधान पर भी मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
दृष्ट्वतन्मानसेऽहं सुविमलतपसं तापसी सत्यरूपाम्, मिथ्याश्लाघामयेऽस्मिन् मुनिजनविमले केवलां कोमलां त्वाम् । स्तूयाल्लोकेऽधुना कः सरलगतिरति चिन्तयेयं सदैवम्,
श्रद्धां बध्वाऽप्यधीरो मुनिजनकमलं वीरदेवं भजेऽहम् ।।२३।। अर्थ-यह सब देखकर मैं अपने मन में, पवित्र तपस्विनी सच्ची साध्वी आपकी, केवल सीधी मुनिजनों के विमल मिथ्याश्लाघामय संसार में, सीधी गति पर प्रेम रखने वाली की, कौन प्रशंसा श्रा करेगा ? ऐसा मैं सदा उधेड़-बुन में लगा रहता हूँ । अतएव मैं घबड़ाकर श्रद्धा को बाधकर वीर प्रभु की आराधना करता रहता हैं।
आश्चर्य वर्तते मे मनसि हृतजगत् जैनधर्मस्य साधुः, सर्वं त्यक्त्वाऽपि भूमौ यशसि परिगतः साधकः सर्वथाऽयम्, जाने सर्व रहस्यं तदपि गुणमयं वृत्तमस्त्येव लोके,
तस्मान्मन्ये सदाऽह किमपि तु जगतः कारणं तद् विचित्रम् ॥२४॥ अर्थ--मेरे मन में आश्चर्य होता है कि सर्वत्यागी जैनधर्म के मुनिराज संसार छोड़कर भी इस
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पृथिवी पर यश में लिप्त होकर यह साधक है। यह भी गुणमय रहस्य सब मैं जानता हूँ, यह सब दुनिया का में चलता है । इसलिए मैं मानता हूँ कि जगत् का कारण अनोखा है।
निर्लज्जोऽहं वदेयं सदसि मुनिजने लोकलीलासमाप्ते, मिथ्याश्लाघाभिलाषे पुनरियमधुना निःस्पृहो दृश्यतेऽन्ते । तत्त्वज्ञानी मनुष्यो भवति मुनिजनान् वन्दते स्वेच्छया यः,
भक्त्या तेषां गुणानां कथयति बहुधा पद्यवृन्दे महत्त्वम् ॥२५।। अर्थ-लोकलीला समाप्त करने वाले मुनिजन पर, जो कि झूठी डींग की चाह रखते हैं, जैसा ा कि वह अन्त में निस्पृह दिखता है, उसको ज्ञानी तो अपनी इच्छा से वन्दना करता है और कविता में उनके गुणों की प्रशंसा करता है, ऐसा मैं देखता हूँ।
अन्ते भक्त्यैव सत्याः सुकुसुमसुरभे नामवत्या भगिन्याः, मातुः कैलाशवत्या गुणगणनिचयं यावदन्तं स्मरेयम् । नामं नामं यशोभ्यः सकलगुणभृतः पुण्यरूपं मदन्तः,
नृत्यत्येवं सहर्ष किमु कृतिवचनैः प्रेर्यमाणो जनोऽयम् ।।२६।। __ अर्थ-अन्त में, मैं सतीजी के प्रति भक्ति से, प्रशस्त खिले हुए पुष्पों की गन्धवाली नामवाली सतीजी जो मेरी बहिनजी हैं, क्योंकि स्वर्गीय कैलाशवतीजी, जो मेरी माता थीं, उनकी आप पुत्री हैं, ६५ अतः मैं आपको बहिनजी कहता हूँ, क्योंकि मेरा मन उनके गुणों को यावज्जीवन याद करता रहेगा। अच्छे -
गुणों की माता कैलाशवतीजी के यशों के लिए झक-झक कर मेरा मन नाचता रहता है। अधिक क्या कहूँ, मैं तो एक विवश सा हूँ।
सत्या दिव्यप्रभाया मदुतमवचनेः प्रेरितं मेऽपि चित्तम्, कीर्तेर्मुग्धं सदेदं रसमयकथनेश्चिन्तयित्वा गुणौघम् । स्मृत्वा स्मृत्वा कथञ्चिल्लिखति मतिमयं पद्यवृन्दं विचित्रम्,
विद्वल्लोके प्रशस्तं कथमपि प्रभवेन्नास्ति चिन्ता ममेयम् ॥२७॥ अर्थ-सतीजी श्री दिव्यप्रभाजी महाराज के अत्यन्त मृदुवचनों से प्रेरित हुआ मेरा मन भी जो सदा कीतिलोभी और खुशामदी बातों से गुणों को सोचविचार और बार-बार याद कर एक ऊटपटाग पद जैसे मनगढन्त कुछ लिख रहा हूँ ! यह विद्वज्जन को अच्छा लगेगा कि नहीं, यह तो मुझे चिन्ता ही नहीं है । (क्योंकि मैं जानता ही क्या कहूँ !)
सत्यं बुध्यामि लोके कुसुमवति हे धर्मपूज्ये वदान्ये । वक्त वाणीं न जाने तदपि तव कथामिङ्गितेन ब्रवीमि । तत्त्वज्ञात्री दयायास्त्वमसि बहुतो भावमुग्धाऽप्यनन्या,
कीर्तश्चिन्ता न तेऽन्तविहरति भुवने जैनधर्म स्तुवन्ती ॥२८॥ अर्थ-ए धर्मपूज्य ! विदुषि ! कुसुमवति ! मैं यदि ठीक समझता हूँ अथवा जानता हूँ तो मैं वर्णन करना भी नहीं जानता, फिर भी मैं कुछ आपको इशारे से बताना चाहता हूँ। दया के तत्त्व की जानकार भावमुग्ध आप अकेली ही हो, जैनधर्म की स्तुति करती हुई निश्चिन्त विहार करती रहती हो।
भूदेवोऽयं विपन्नः स्मरति यदि कदा कर्कशत्वं स्वकीयम्, शिक्षादाने प्रवीणो रहसि तव धति लज्जते सर्वथाऽन्तः । चर्चावाचां प्रकुर्वे हससि बहुतरं तस्य मूलं यशस्ते, तस्मान्मन्ये स्वसारं जगति मनुजता सर्वथा पालनीया ॥२६॥
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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___ अर्थ-मैं भोंदू दुखियारा ब्राह्मण घटित अपनी कठोरता को जब कभी यदि याद करता हूँ, पढ़ाने-करने में चतुर होते हुए भी आपके धैर्य का स्मरण कर मेरा हृदय बहुत लज्जित होता है । जब कभी मैं आपके सम्मुख इसकी चर्चा वाणी करता हूँ तो आप यही कहती हैं कि यही तो आपकी प्रशंसा की जड़ है, यह कहकर हँसने लगती हो । यही कारण है कि मैं आपको बहिन मानता हूँ । संसार ई में मानवता सभी तरह पालनी चाहिए।
अन्तेऽप्यज्ञः कृतज्ञो मृदुतमवचनां सोहनां मातरं मे, जैनो भक्तः सतीं तां वदति वदतु मे काऽपि हानिर्न मन्वे । नाहं मन्ये कृतघ्नं स्वमतिशयतमं वच्मि भावेन मेऽन्तः,
लोके रीतिः सदेयं जनयति जननी किन्तु धर्मेण माता ॥३०॥ अर्थ-आखिर मैं नासमझ, किन्तु अत्यन्त कोमल वचनों वाली स्वर्गीय सोहनकुँवर सतोजी को मैं माता मानता हूँ। श्रावक उनको सतीजी म. मानते हैं या कहते हैं, इससे मेरी कोई हानि नहीं
है । वस्तुतः मैं अपने आपको कृतघ्न नहीं मानता, अतएव माता कहता हूँ । यों तो संसार में जो जन्म in देती है, वही माता कहलाती है और धर्म से सभी स्त्रियाँ माँ-बहिनें हैं।
किमिति कविरहं वर्णयेयं कथञ्चित्, सरलपदमयं सारशून्यं विचित्रम् । तदपि मम मते काव्यमेतत्सु भावम्,
वहति किमपि हृद्यं बालवाचोऽप्यसारम् ॥३१।। अर्थ-क्या जैसे-तैसे अर्थहीन ऊटपटांग कुछ वर्णन कर लेता हूँ इससे मैं कहीं कवि नहीं हो सकता ! परन्तु अर्थहीन तुतलाती बोली से बच्चा बोलता है, उसे सुनकर जैसा आनन्द आता है, ठीक वैसे ही मेरी कविता से आपको आनन्द आता है, ऐसा मैं कवि हूँ।
न किमपि मम पद्यं वर्तते काव्यतुल्यम्, तदपि यदि लिखेयं साहसं मे क्षमायाः । रस-गुण-कवितायास्तत्त्ववेत्त: कवेस्तत्,
प्रहसनमिव चित्तें मोदयत्येव चित्तम् ॥३२।। अर्थ-मेरी कविता कोई कविता नहीं है, किन्तु आप मुझे क्षमा प्रदान कर देंगे, इसलिए मुझे कुछ लिखने का साहस हो जाता है । रसोली कविता के जानकार कवियों के लिए तो यह मेरी कविता 'प्रहसन' के समान है। कुछ तो कवियों दिल में अच्छा लगता होगा।
कथयति यदि पद्यं व्यंगसंगेन नित्यम्, तदपि न पुनरन्तस्तोषमाप्नोति हृद्यम् । रचयति पुनरेवं शंकरोऽयं रमायाः,
कविरपि सुशकोऽर्थः संगतः किन्तु स्वप्ने ॥३३॥ अर्थ-यदि कोई कवि सव्यंग पद्य कहता है तो वास्तव में हृदय को प्रिय सन्तोष प्राप्त होता है, यह जानते हुए यदि लक्ष्मी का शंकर अर्थात् भला चाहने वाला रमाशंकर कवि का सही अर्थ हो सकता है, किन्तु यह सब स्वप्न में ही संगत हो सकता है, जगते हुए संसार में कभी नहीं हो सकता।
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सप्तम खण्ड : विचार मन्थन 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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परिशिष्ट
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(:) परिशिष्ट (:)
अभिनन्दन-ग्रन्थ में परिशिष्ट की परम्परा भले ही नवीन हो, किन्तु इसकी एक अपनी उपयोगिता/अनिवार्यता है। गुजराती में इसे पूरवणी कहते हैं। कुछ महत्वपूर्ण लेख जो ग्रन्थ छपते-छपते प्राप्त हुए, वे अपने खण्ड गत विषय के साथ समाविष्ट नहीं हो सके, किन्तु उनकी उपयोगिता थी, अत: इन लेखों को परिशिष्ट में संकलित किया गया है। सम्वन्धित विद्वान लेखक. इसमें किसी प्रकार अन्यथा भाव नहीं लेंगे, ऐसा विश्वास है।
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परिशिष्ट
जैनाचार : एक विवेचन
-राजोन्द्र मुनि शास्त्री , एम० ए०
सुखकामी मनुष्य और सुख का रूप लिए ही होती है, प्रयत्न भी इसी दिशा में किये धर्माचार का मूल मन्तब्य यथार्थ सुख की जाते हैं । यह बात अन्य है कि वे प्रयत्न उत्तमसुख प्राप्ति है। यहाँ यह अपेक्षित है कि सच्चे सुख के के पक्ष में होते हैं अथवा नहीं और वे प्रयत्न समुस्वरूप को पहचाना जाय और दुःख के साथ उस चित होते हैं अथवा नहीं। यह सुख की लालसा की आपेक्षिक स्थिति को भी समझा जाय । जैन दुःख की प्रतिक्रिया है। दुःख कदाचित् जागतिक साहित्य में इस विषय का विषद विवेचन उपलब्ध जीवन का एक दृढ़ और कटु सत्य है । दुःख की होता है। दुःख के कारणों की खोज की गई है परिधि से कोई बच नहीं पाया है । लोकिक दृष्टि और उनको निर्मूल करने के उपाय भी सूझाये से 'अभाव' दुःख का कारण है । अभाव की पूर्ति से गये हैं । दुःख के समाप्त हो जाने की स्थिति, सुखा- हो सुख का आगमन भी मान लिया जाता है। नुभव की प्राथमिक आवश्यकता है। जैन मान्य- अन्नाभाव के कारण क्षधा का दुःख है और अन्न. तायें दुःख के कारण रूप में 'कर्मबन्धन' को स्वी- प्राप्ति पर सुखानुभव होने लगता है। किंतु दुःखित । कारती हैं। इस बन्धन के क्षीण हो जाने पर ही
तो अभावग्रस्त पाये ही जाते हैं; सम्पन्न जन भी वास्तविक और उत्तम सुख उपलब्ध होता है । इस !
से किसी न किसी दुःख के शिकार रहते हैं। धनाविचार के समर्थन में निम्न उक्ति उल्लेखनीय है- धिक्य यदि भौतिक सुख की उपलब्धि कराता देशयामि समीचीनं धर्म-कर्मनिवर्हणम् ।
है तो सन्तानाभाव अथवा अन्य किसी कारण से
मानसिक संताप बना रहता है। व्याधि भी दुःख संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।
का कारण हो सकती है, व्यावसायिक ऊँच-नीच से अर्थात-"मैं कर्मबन्ध का नाश करने वाले
भी चिन्ता और मानसिक क्लेश संभव है। सार उस सत्यधर्म का कथन करता है जो प्राणियों को ,
यह कि सामान्यतः दुःख इस जागतिक जीवन का संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तमसुख में धरता एक अनिवार्य अंग है और मनुष्य का सुखकामी
होना भी एक शाश्वत सत्य है। स्पष्ट है कि संसार में दुःख हैं। प्राणियों के प्रश्न यह है कि इस दुःख से छुटकारा पाने अपने कर्म ही इन सांसारिक दुःखों के मूल कारण और सुख प्राप्त करने के लिए कारगर उपाय क्या हैं और धर्म उन्हें दुःख-मुक्त कर उत्तम सुख की है ? भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और प्राप्ति करा सकता है। कोन सचेतन प्राणी सुख मोक्ष-ये ४ साधन सुखार्थ सुझाये गये हैं। मोक्ष का परित्याग कर स्वेच्छा से दुःख का वरण करने पारलौकिक सुख का साधन है। इहलोक के सुखों को तत्पर हो सकता है ? सभी की कामना सुख के के लिये प्रथम ३ साधनों का विधान है। इन तीन
१ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार'-श्री समन्तभद्र स्वामी
कुसूम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
63-60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ oes
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साधनों में आदिस्थान धर्म को ही प्रदान किया यह तो चर्चा हुई लौकिक सुख की। किन्तु ।
गया है। वस्तुतः धर्म ही सुख प्रदान करने वाला वास्तविकता यह है कि ये लौकिक सुख वास्तव में SAI प्रमुख और समर्थ साधन है। शेष अर्थ और काम सुख होते ही नहीं। ये तो सुखों की छाया मात्र । तो गौण स्थान रखते हैं और इन दोनों साधनों में हैं। इन सुखों का अन्तिम परिणाम घोर कष्टकर
भी धर्म की संगति अनिवार्य रहती है । धर्मरहित दुःख होता है । फिर इन्हें सुख कहा ही कैसे जाय? |
अर्थ सुख नहीं, दुःखों का ही मूल कारण बनता है। यह तो मनुष्य का अज्ञान और मोह ही है जो Call सुख प्राप्त करना जीव का अनिवार्य स्वभाव है- इनमें सुख की प्रतीति कराने लगता है । वास्तव में !
इस प्रवृत्ति के अधीन होकर मनुष्य नीति-अनीति यह मनुष्य का भ्रम है और यही भ्रम उसे घोर उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना अधिकाधिक दुःखजनक तथाकथित सुखों के पीछे दौड़ने को अर्थ-संचय में लग जाता है। वैभव-विलास के विवश कर देता है। यह ध्यान देने योग्य बात है , साधनों के अम्बार लग जाते हैं, उच्च अट्टालि- कि सुख तो जीव के भीतर से ही उदित होने वाला । काओं का वह स्वामी हो जाता है। अपार धन- एक तत्त्व है और उसका आभास भी कहीं किसी धान्य और स्वण-माणिक्य से भरा-पूरा उसका बाह्य पदार्थ में नहीं हो सकता। अपने से बाहर है प्रासाद अन्यजनों के लिए ईष्या का कारण तक सख की खोज करने वाले प्राणी की स्थिति तो उस बन जाता है। उसे समाज में उचित प्रतिष्ठा भी
मृग की सी है जो अपनी नाभि में बसी कस्तूरी की प्राप्त हो जाती है। यह सब कुछ होते हुए भी
ता ह। यह सब कुछ हात हुए भी मादक गन्ध से चंचल होकर उस सुगन्धित पदार्थ अधर्म से प्राप्त धन उसके मन को अशांत रखता है। को प्राप्त करने के लिए-फिर-फिर सूघे घास' बेईमानी से व्यवसाय करके यदि धन प्राप्त किया की अवस्था में रहता है। आवश्यकता सुख के गया, तो उस धन को छिपाने की समस्या रहेगी।
स्वरूप को समझने की है । सारे भ्रम फिर दूर हो मनुष्य स्वयं को भी भीतर ही भीतर धिक्कारता
जायेंगे, भ्रान्तियाँ कट जायेगी और सुख के | रखता है कि अन्याय और अनीति के साथ ही उस पात्रों से मन मक्त टो जायगा। ने यह धन प्राप्त किया है। ऐसी स्थिति में मान- बाहरी पदार्थों में सुख का अनुभव करने वाले हैं सिक असंतोष होना ही है और बाहर से उसका जन इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सुखोपजीवन कितना ही सुखमय क्यों न प्रतीत हो, भोग की लालसा ही रखते हैं । ये सुख न केवल वास्तव में वह दुःख की ज्वाला में दग्ध रहा करता क्षणिक अपित वास्तव में अन्ततोगत्वा दुःखरूप में है। इसके विपरीत धर्माचरण सहित अजित धन परिणत होने वाले भी होते हैं। वे स्वयं सुख नहीं । मात्रा में चाहे कितना ही अल्प क्यों न हो, वह हैं। वे तो ऐसे साधन हैं जो किसी एक व्यक्ति के ब्यक्ति को आत्मिक संतोष अवश्य देता है और लिए सख तो उसी समय किसी अन्य व्यक्ति के यह मानसिक शान्ति उसके सुख का आधार बन लिए दःख के कारण होते हैं । जब एक ही साधन ।
जाती है। यह सूख स्थिरतायुक्त भी होता है और या कार्य सख भी उत्पन्न कर रहा है और दुःख ! CALL अन्तः-बाह्य दोनों रूपों में एक सा ही होता है । हाँ, भी, तो सच्चे सुख का कारण नहीं कहा जा
सुख-सुविधाओं की मात्रा कम भले ही हो सकती सकता। इसी प्रकार ये साधन तो इतने क्षीण और है, किन्तु इससे सुख के यथार्थ स्वरूप को कोई चंचल हैं कि एक ही व्यक्ति के लिए जो कभी सुख-। हानि नहीं होती । इन लौकिक सुखों के साथ धर्म कर होते हैं अन्य अवसरों पर वे ही दुःख के कारण का नाता बड़ा प्रगाढ़ हुआ करता है । धर्म के बिना भी बन जाते हैं। सन्तान का ही उदाहरण || सुख की शून्यता ही प्रमाणित होगी।
लीजिए । परिवार में शिशु की किलकती हँसी से
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सभी प्रसन्न हो जाते है, कुलदीपक की उपस्थिति से 'इच्छा' का निरोध सुख लाभ के लिए अत्यावमाता-पिता का मन हर्षित, उल्लसित और गर्वित श्यक है । यह निरोध अगाध शान्ति और सन्तोष रहता है । सन्तान सुख का कारण है । किन्तु यही से मन को पूरित कर देता है और ऐसे ही बातापुत्र बड़ा होकर जब कुकर्मी निकल जाता है, कुल वरण में सुख का पदार्पण सम्भव है । इस वास्तको बट्टा लगाता है, अभिभावकों का मस्तक विकता को समझे बिना, अपने से बाहर जगत के लज्जा से नत होने लगता है तो दुःख का कारण विषयों और पदार्थों में सुख का आभास पाने वाले भी बन जाता है। सच्चा सख तो सभी के लिए भ्रमित जन न्याय-अन्याय का विचार किये बिना और सभी परिस्थितियों में सुख ही बना रहता है। अधिक से अधिक मात्रा में ऐसे सुख को प्राप्त वह कभी दुःख का रंग धारण कर ही नहीं सकता। करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। दुःख को सुख बाहरी पदार्थों से जिन सूखों की प्राप्ति की कल्पना समझकर उसका वरण करने की स्पर्धा में ही की जाती है, उनमें यह गुण नहीं होता। अतः उन्हें पीढ़ियाँ व्यस्त रहती हैं। यही कारण है कि संसार सुख कहा ही नहीं जा सकता। सुख की खोज में दुःख है। जब तक यह भ्रम बना रहेगा मनुष्य का स्वभाव है-यह सत्य है। इस खोज में दुःख का अस्तित्व भी बना रहेगा । जो जब तक व्यग्र मन इन बाहरी वस्तुओं में सुख का अनुभव इन कथाकथित बाह्य सुखों को सुख मानता रहेगा, कर भटक जाता है। उसे क्षणिक सन्तोष होने तब तक वह दुःखी बना रहेगा। वस्तुस्थिति यह लगता है कि सुख मिल गया, किन्तु इस सीमा तक है, कोई भी बाह्य पदार्थ न तो स्वयं सुख है और तो उसकी खोज सफल नहीं होती। उसे ऐसा सुख न ही वह किसी सुख का माधन है। सुख तो नहीं मिलता जिसके छोर पर दुःख की स्थिति न आभ्यन्तरिक वस्तु है, आत्मा का गुण है। हाँ, हो । सच्चे सूख को बाहरी किसी वस्तु के आधार जीव का स्वभाव यह सुख है, जो वास्तव में भीतर की अपेक्षा नहीं होती । न अर्थ सुख का साधन है, ही उत्पन्न होता है प्रायः बाहरी किसी पदार्थ न काम सुख का साधन है, वास्तविकता तो यह है का सहारा लेता है और अबोध मनुष्य अज्ञानवश कि 'इच्छाओं का निरोध' ही सुख का मूलाधार उन्हीं पदार्थों को सुख के आधार मान लेता है। है । अभाव यदि दुःख का कारण है तो अभाव को देहगत विकारों की क्षणिक शान्ति को मनुष्य सुख दूर करने के लिए अमुक वस्तु की प्राप्ति की इच्छा रूप में जानता है, किन्तु वास्तव में वे सुख होते होगी । यही इच्छा दुःख का मूल कारण बनती नहीं । वे तो विकारों के प्रतिकार मात्र हैं । भर्तृ- 2 है । यदि यह इच्छा पूर्ण हो जाती है और अमुक हरि की एक उक्ति से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो || वस्तु उपलब्ध हो जाती है, तो मनुष्य इस पर जाता है जिसका आशय है-'जब प्यास से मुख ( सन्तोष नहीं करता । वह उससे अधिक, और सूखने लगता है तो मनुष्य सुगन्धित, स्वादु जल अधिक की इच्छा करने लगता है। परिणामतः पीता है, भूख से पीड़ित होने पर शाकादि के साथ | इच्छा पूरी होकर भी सन्तोष प्रदान करने की भात खाता है, कामाग्नि के प्रज्वलित होने पर क्षमता नहीं रखती। इससे तो चित्त में विचलन, पत्नी का आलिंगन करता है । इस प्रकार रोग के अशान्ति और असन्तोष ही जन्मते हैं, जो दुःखरूप प्रतिकारों को मनुष्य भूल से सुख मान रहा है ।"1 में परिणत होते हैं। ऐसी दशा में अहितकारिणी- दृष्टि को बाह्य से समेटकर अन्तर् की ओर मोड़ने
१ तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादुरुचितं क्षुधातः सन् शालीन् कवलयति शाकादिबलितान् ।
प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदढतरमालिंगति वध प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।।
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वाले मर्मज्ञ जन इस अन्तर से भली-भाँति अवगत मानना प्रत्येक मनुष्य का प्रधान दृष्टिकोण होना होते हैं । वे जानते हैं कि ये बाहरी साधन दुःख- चाहिए । मानव-जीवन इस चरम सुख की उप
जनित चंचलता के प्रभाव को क्षणिक रूप से दुर्बल लब्धि से ही सार्थक होता है। * मात्र बनाते हैं, अन्यथा स्थायी सुख के प्रदाता ये
मोक्ष-प्राप्ति कैसे ? : जैन दृष्टिकोण । नहीं हो सकते । भीतर से स्वतः विकसित होने
प्रत्येक जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न उबुद्ध वाले वास्तविक सूख को किसी बाह्य पदार्थ का होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है । जब हम हा अपेक्षा रहती ही नहीं है।
यह जान जाते हैं कि जिन सांसारिक सुखों के पीछे ये आभास मात्र कराने वाले अवास्तविक सुख हम अब तक भागते रहे हैं वे असार हैं, सुखाभास PM] दुःखों को दूर नहीं कर पाते । और सुख के अनुभव मात्र हैं, वास्तविक सुख नहीं हैं और मोक्ष ही E के लिए यह अनिवार्य परिस्थिति है कि दुःख का सच्चा और अनन्त सुख है, इसी मंजिल के लिए (3) सर्वथा प्रतिकार हो जाय ।। सुख और दुःख दोनों यह जीवन हमने धारण किया है तो उस मोक्ष को
एक साथ रह नहीं सकते । जब तक जीवन में दुःख प्राप्त करने की लालसा का बलवती हो जाना म है, सुख तब तक आ नहीं सकता और सुख की अस्वाभाविक नहीं। असंख्य जीवन धारण कर
अवस्था में दुःख भी इसी प्रकार अपना कोई चुकने के पश्चात् यह मूल्यवान जीवन जब सुलभ अस्तित्व नहीं रखता है। दुःखों का अभाव हुए होता हो, तो इसे कौन व्यर्थ ही नष्ट कर देना बिना सुख का आगमन सम्भव नहीं हो पाता। चाहेगा। यही कारण है कि सुखकामी मनुष्य हमें सुख के भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए । सच्चे मोक्ष-प्राप्ति का उपाय जानने और उसे अपनाने सुख तक पहुँचने के प्रयत्न हमें आरम्भ करने के लिए उत्सुक रहता है। यह औत्सुक्य, यह
चाहिए। दुःख का उन्मूलन इसके लिए आवश्यक जिज्ञासा ही किसी मोक्षाभिलाषीजन की प्रथम द है । धन और काम की असीम और नियन्त्रणहीन पहचान हो सकती है।
अभिलाषाएं मनुष्य के जीवन को दुःखमय बनाये संकेत रूप में इस बात की चर्चा हो ही चुकी हए हैं, क्योंकि वे धर्म-संयुक्त नहीं हैं । मनुष्य की है कि यह 'धर्म' ही है, जो मनुष्य को अनन्त सुख इच्छाएँ यदि मर्यादित और धर्मयुक्त हों, तो स्वयं की उपलब्धि कराने की क्षमता रखता है। धर्म उसका जीवन तो सुखी होगा ही, उसका जीवन उस नौका के समान है जो मनुष्य को दुःख की अन्य जनों के लिए भी सुखदायी हो जायगा । धर्म उत्ताल तरंगों से भरे समुद्र को पार कर, मिथ्या हमारी असीम इच्छाओं को नियन्त्रित कर, हमें सांसारिक सखों की चटटानों से बचाता हआ मोक्ष पूर्ण सुखी बनाता है। वास्तविक सुख अनन्त है, के अनन्त सुखमय उस पार तक पहुँचा देता है । असीम है, स्थायी है और इसकी परिणति कभी भी धर्म' को समझने के लिए इसके प्रायः ३ विभाग दुःख के रूप में नहीं होती । यही सुख की स्थिति कर लिये जाते हैं'मोक्ष' है। इसी स्थिति को प्रत्येक सज्ञान मनुष्य (१) सम्यग्दर्शन अपने जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। यही मानव- (२) सम्यकज्ञान और जीवन का परम और लक्ष्य हुआ करता है । यह (३) सम्यक्चारित्र मानना भी अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि मोक्ष केवल इन तीनों के संयोग से ही धर्म का समग्र स्वमानव योनि में ही सुलभ हो सकता है, अतः यह रूप खड़ा होता है। आचार्य समन्तभद्र की उक्ति
देह धारण कर इसे ही मूल गन्तव्य और मन्तव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैGB १ 'तत्सुखं यत्र नासुखम्' ८५४० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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"धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और विधियाँ प्रयुक्त कर अशुद्धियों को दूर कर सकता है सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं, जिनके उलटे और खरा स्वर्ण पिंड प्राप्त कर सकता है । उसी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार प्रकार आत्मा का शुद्ध रूप क्या है और इसके साथ के मार्ग हैं 11
लगे रहने वाले विकार क्या हैं ? यह जाने बिना इन संसारी मार्गों से छूटकर, दृढ़तापूर्वक धर्म व्यक्ति आत्मा को विकारमुक्त, शुद्ध नहीं कर में प्रवृत्त होना मुमुक्षु के लिए अत्यावश्यक है । इस सकता। धर्माचरण का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है। इस एक और भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । मुमुक्षु के सिद्धि के बिना आगामी दो सोपानों को अपनाना लिए इस तथ्य में अचल और अमर आस्था, पक्का असंभव सा रहता है।
विश्वास होना आवश्यक है कि- सम्यग्दर्शन का भाव है आत्मज्ञान-स्वयं को, "ज्ञान-दर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा
आत्मा को पहचानना। मोक्ष तो आत्मा का सुख है। शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न शेष समस्त है और वह किसी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा नहीं पदार्थ बाह्य हैं--- मुझसे भिन्न हैं और वे मेरे नहीं रखता। ऐसी स्थिति में प्रथमतः उस आत्मा के हैं।" स्वरूप से परिचय स्थापित कर लेना अत्यावश्यक शुभाशुभ कर्मों द्वारा जनित उन पदार्थों से रहता है। सत्य और मिथ्या में भेद करने की ममत्व त्यागना आवश्यक है जो हमारी आत्मा से क्षमता का विकास आवश्यक है। अन्यथा हमारी जुड़ गये हैं। ममत्व को त्यागे बिना उनसे उबरना साधना मिथ्या की ओर ही उन्मुख रह जाय, सत्य संभव नहीं है। आत्मा का इनसे छुटकारा करने
की ओर हमारा ध्यान जाये ही नहीं-ऐसा होने की की दिशा में यह अत्यावश्यक है कि जहाँ हम all आशंका बनी रहती है। हम क्या हैं ? संसार की आत्मा और इन शुभाशुभ (त्याज्य) कर्मों को पह
जिन परिस्थितियों और पदार्थों के मध्य हम हैं- चाने वहाँ यह भी परमावश्यक है कि हमें इस
वे क्या हैं ? जब तक इसका विवेक विकसित न हो, सिद्धान्त में पक्की आस्था हो कि केवल आत्मा ही है। हम त्याज्य और ग्राह्य में अन्तर नहीं कर सकते हमारी है, शेष बाह्य पदार्थ हमारे नहीं हैं और
हैं । आत्मा का बाह्य पदार्थों से छुटकारा मोक्ष- इनसे छुटकारा पाना है। जब तक यह आस्था न प्राप्ति के लिए आवश्यक है। यह तभी संभव है,
। छुटकारे के प्रयत्नों में दृढ़ता के साथ जब हम यह स्पष्टतापूर्वक समझ लें कि जिसका प्रवत्त नहीं हो सकेंगे । यदि अधूरी .आस्था में हम
छुटकारा कराना है वह आत्मा है क्या ? और इसी प्रयत्न आरम्भ करेंगे भी, तो वह मात्र दिखावा 3 प्रकार यह जानना भी आवश्यक है कि जिनसे छट- होगा और वे प्रभावी नहीं हो सके
कारा पाना है, वे पदार्थ कैसे हैं, क्या हैं ? स्वर्ण में जो शंकाएँ मन में आये उन्हें पहले ही दूरकर RT की खान से निकला पिंड शुद्ध स्वर्ण नहीं होता। वृद्ध आस्था विकसित करना ही वास्तव में सम्यग
उसमें अशुद्धियाँ मिश्रित होती हैं। शोधन करने दर्शन है। इसी के अनन्तर मुक्तिपथ पर अग्रसर वाले के लिए यह आवश्यक होता है कि वह स्वर्ण हुआ जा सकता है। आत्मा के स्वरूप की वास्तक्या होता है, इसे भली-भाँति पहचान सके । साथ विकता को पहचानना और उस पर दृढ़ हो जाना
ही स्वर्ण के साथ मिली रहने वाली अशुद्धियों का आवश्यक है। शरीर और आत्मा में अभेद स्थिति B ज्ञान भी उसे होना चाहिए। तभी वह उपयुक्त को मानना अर्थात् जो यह शरीर है वही आत्मा
हागी
१ सदृष्टिज्ञानव्रत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति: ।।
२ एगो मे सस्सदो अप्पा णाण-दसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।
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है-ऐसा मानना मिथ्या है। इस मिथ्या से मुक्त स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर आस्था को सुदृढ़ और मन । होकर तथा आत्मतत्त्व को पहचान कर उससे विच को निःशंक करना अनिवार्य है। यह निःशंकता लित न होना ही परम पुरुषार्थ मुक्ति की प्राप्ति का सम्यग्दर्शन का प्रथम एवं सर्वप्रमुख अंग है । शंका IC उपाय है।
की अवस्था में आस्था का अटल होना संभव नहीं ट्र जैनदर्शनानुसार मुक्ति के लिए जिन तत्त्वों का होता । निर्धारण है-उन पर दृढ आस्था सम्यगदर्शन है। निष्कामता सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है।
और उन तत्त्वों की पहचान, उनका यथोचित ज्ञान सांसारिक सुख-वैभव, विषयादि की समस्त कामही सम्यक ज्ञान है। सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शन नाओं का सर्वथा परित्याग करना भी अनिवार्य के अभाव में मोक्ष-मार्ग की यात्रा संभव नहीं है। है । अभिलाषाओं से भरा मन चंचल रहता है और यदि इस अभाव में भी कोई यात्रारम्भ कर देगा, चंचलता इष्ट मार्ग पर अग्रसर होने में व्यवधान ६ तो निश्चित रूप से वह भटक जायगा, पथच्युत हो उपस्थित करती है । कामनाओं से ग्रस्त मनुष्य का जायगा। लक्ष्य तक पहुँचना उसके लिए सम्भव लक्ष्य भी स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्यादि तक ही सीमित होगा ही नहीं। सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेने रह जाता है। वह इन्हीं विषयों में मग्न हो जाता वाला व्यक्ति 'सम्यकदृष्टि' के विशेषण से विभषित है और सर्वोपरि लक्ष्य से उसका ध्यान विचलित होता है । उसकी यह योग्यता मोक्षमार्ग से उसे न ही जाता है। ऐसी दशा में उसका मार्ग-भ्रष्ट हो भटकने देती है, न विचलित होने देती है और जाना सर्वथा स्वाभाविक ही है। अस्तु, मोक्ष के क्रमशः वह सफलता की ओर अग्रसर होता रहता अभिलाषीजन के लिए निष्काम होना अनिवार्य है। है । सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान मोक्ष-मार्गी के सम्यग्दर्शन के तीसरे अंग के अन्तर्गत मनुष्य ॥ लिए मार्गदर्शक और प्रेरक बने रहते हैं, कर्णधार के ग्लानिभाव का निषेध किया गया है । इस जगत 10 की भाँति समय-समय पर उचित दिशा का संकेत में अनेक धनहीन रंक हैं, अनेक रोगी और दुःखी करते रहते हैं, सही मार्ग पर आगे से आगे बढ़ाते हैं। सम्यग्दष्टि व्यक्ति ऐसे दीन-हीन और दुःखित रहते हैं।
जनों के प्रति उपेक्षा या ग्लानि का भाव नहीं
सम्यग्दर्शन के अंग रखता। मनुष्य की जो भी दशा है उसके पूर्वकर्मों विभिन्न अंगों के सामंजस्य से जैसे देह अपना के प्रतिफल के रूप में ही होती है। कर्मों के क्रम आकार ग्रहण करता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन भी परिवर्तन के साथ ही इन दशाओं में भी परिवर्तन अपने अंगों के समन्वय का ही प्रतिफल हैं । सम्यग्- हो जाता है। घृणा करने वाला स्वयं यह नहीं दर्शन के आठ अंग हैं। जैसी कि पहले ही चर्चा की जानता कि आगामी समय स्वयं उसका क्या रूप जा चुकी है, मोक्ष-मार्ग की सार्थकता और तात्त्विक बना देगा ? जो आज सम्पन्न है वह कल विपन्न भी है विवेचन पर व्यक्ति का अटल विश्वास होना हो सकता है और जो आज रोगी है वह भी कल ( चाहिये। उसके मन में कोई दुविधा नहीं रहनी स्वस्थ हो सकता है। सम्यग्दृष्टि जन व्यक्ति की चाहिये । यह मार्ग सार्थक है या नहीं, अथवा इस इन दशाओं पर नहीं, अपितु केवल उसके गुणों पर मार्ग से सफलता मिलेगी या नहीं ऐसी मानसिक ही ध्यान देते हैं। दशा मोक्ष-मार्ग की यात्रा के प्रतिकूल रहती है। सम्यग्दर्शन का चौथा अंग इस बात का संकेत अर्द्ध ज्ञान से प्रायः ऐसी मनोदशा रहती है अतः करता है कि किसी भी दशा में मनुष्य को बुरे
१ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् ॥ ५४२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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और बुराई का समर्थन नहीं करना चाहिए। को अपने सहधर्मी सहयोगियों के प्रति अतिशय ऊपरी मन से अथवा किसी दबाब के कारण भी स्नेह रलना चाहिए। यह पारस्परिक स्नेह सभी
यदि वह अवगुणों अथवा कुमार्ग का प्रशंसक हो के मन में धर्म के प्रति रुचि को प्रगाढ़ बनाता है हैजाता है, तो धीरे-धीरे वह ऐसा अभ्यस्त हो जाता और अन्य जन इस मृदुल व्यवहार एवं स्नेहसिक्त
है कि दबाव न होने की स्थिति में भी वह बुरे की वातावरण से प्रभावित होकर प्रेरणा ग्रहण करते प्रशंसा ही करने लग जाता है। वस्तुतः उसे तब हैं। धर्मानुयायियों के साथ-साथ धर्म के प्रति भी बुरे में कोई बुराई दिखाई ही नहीं देगी । परिणा- श्रद्धा और स्नेह का भाव होना अनिवार्य है। मतः स्वयं उसका आचरण भी वैसा ही (बुरा) होने
इसी प्रकार सम्यग्दर्शन का आठवाँ और लग जाता है। बुराई का समर्थन इस प्रकार
अन्तिम अंग धर्म के विकास और उसकी विशेषमनष्य के पतन का कारण बन जाता है। बुराई के झूठे समर्थन से भी संसार में उसका प्रसार और
__ताओं के प्रचार-प्रसार से भी सम्बन्धित है और शक्ति बढ़ती है। कुमार्ग भी क्षणिक आकर्षण तो
और अन्य जनों को मिथ्यात्व से मुक्त कर सुधर्म रखते ही हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह
__ में प्रवृत्त करने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति को
जनसाधारण में व्याप्त अज्ञानान्धकार को दूर कर इस चेटक से स्वयं को अप्रभावित रखे और किसी बुराई को अपने पर हावी नहीं होने दे।
" पवित्र, अहिंसामय धर्म का अधिकाधिक प्रसार जहाँ चौथा अंग बुराई के प्रसार पर रोक
करने में व्यस्त रहना चाहिए। लगाता है, वहाँ सम्यग्दर्शन का पांचवाँ अंग सम्यग्दृष्टि जन धर्म के विकास में अपना सन्मार्ग के अधिकाधिक प्रसार की प्रेरणा देता विनीत योगदान करते रहते हैं। ऐसे जन धर्म है । मनुष्य को चाहिए कि सन्मार्ग की खूब प्रशंसा और धर्मानुयायियों में अन्तर नहीं करते । धर्मकरे । उसे स्वयं भी सन्मार्गी होना चाहिए और प्रेम और धार्मिकों के प्रति प्रेम दोनों परस्पर उसे दूसरों को भी ऐसा बनने की प्रेरणा देनी पर्यायरूप में होते हैं। धार्मिकों का सम्मान करने IINK चाहिए । जब कभी सन्मार्ग या अच्छाइयों की से ही धर्म का सम्मान किया जा सकता है । धर्म निन्दा हो तो उसे उसका प्रतिकार करना चाहिए। तो सूक्ष्म रूपधारी होता है। उसका यत्किचित् अबोधजन अथवा दुर्जन ऐसा व्यवहार कर सकते हैं व्यक्त स्वरूप धर्मानुयायियों के रूप में ही हमारे किन्तु सम्यक्दृष्टि जन सदा निर्भीकता के साथ समक्ष आ पाता है। सम्यक् दृष्टि जन अत्यन्त उनका विरोध करते हैं। इस प्रकार लोक में कोमल व्यवहार वाले और विनम्र होते हैं । उन्हें सन्मार्ग का रक्षण करना सम्यग्दर्शन का एक अपने तप, साधना, अजित क्षमता, उच्चता, वंश, महत्त्वपूर्ण अंग है।
__ यश आदि का कोई अहं नहीं होता । अहं तो तब इसी से सम्बद्ध छठा अंग है कि जब कभी आता है, जब व्यक्ति अपने को उच्च और अन्य मनुष्य स्वयं अथवा कोई अन्य जन सन्मार्ग से च्युत जनों को इस अपेक्षा में निम्न मानने लगता है। हो रहा हो, तो उसे चाहिए कि उसे दृढ़ बनावे। सम्यक्दृष्टि जन ऐसा व्यवहार नहीं करते। सन्मार्ग न छोड़ने को प्रेरणा देना और स्वयं भी यह सम्यग्दर्शन स्वतः मोक्ष नहीं है। मोक्ष के सन्मार्गी बने रहना इस अंग के अन्तर्गत मनुष्य का मार्ग का अनुसरण करने के लिए यह आवश्यक कर्तव्य है।
तैयारी मात्र है। यह वह भूमिका है, जिसके सम्यग्दर्शन का सातवाँ अंग धर्म के आन्तरिक पश्चात् धर्माकुरण सम्भव हो पाता है । यह व्यवपक्ष की दृढ़ता के लिए है। इसके अनुसार व्यक्ति हार व्यक्ति को मोक्ष-मार्ग का पथिक बनने की
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अपेक्षित शक्ति देता है और अनुकूल वातावरण साधन सामग्री प्राप्त होती रहती थी। सभी संतुष्ट तैयार करता है। ज्वलित-दुखित जगत के मध्य और परम सुखी थे। रहकर भी सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता अद्भुत
परिवर्तनशील समय परिस्थितियों को सदा । शान्ति का अनुभव कर सकता है।
एक सो कहाँ रखता है ? प्रकृति के भंडारों में 8 सम्यक्चारित्र
अभाव आने लगा। उपभोग्य सामग्री की सुलभता चारित्र या आचरण मनुष्य की गतिविधियों में व्यवधान आना भी स्वाभाविक था । ऐसी परिका समुच्चय है। मनुष्य की ये गतिविधियाँ उचित स्थिति में मनुष्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन आया। भी होती हैं और अनुचित भी। अनुचित गति- संकट का अनुभव उसे आरम्भिक रूप से होने लगा विधियों से मनष्य स्वयं के लिए भी कष्टकर था। उसकी सन्तोष की मनोवत्ति समाप्त हा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है और समाज के लगी। आज की क्षधा मिटने मात्र से उसे सन्तोष 8 लिए संकट भी। ऐसी स्थिति में मनुष्य के आच- नहीं होता-वह तो कल की भी चिन्ता करने रण पर अंकुश होना ही चाहिये। धर्म ही ऐसे लगा। परिणामतः उसके मन में लोभ की दुष्प्रवृत्ति नियन्त्रण की क्षमता रखता है। आज जब समाज जगी । वह साधनों का संग्रह करने लगा। शक्तिमें विभिन्न स्तरीय विषमताओं का साम्राज्य है- शाली लोग अधिक संग्रह कर लेते और दुर्बलजन इसकी और भी अधिक आवश्यकता अनुभव होती साधनहीन होने लगे। और यों समाज में असमाहै । व्यक्ति स्वसुख के लिए स्वार्थवश पर-दुखकारी नता और विषमता अंकुरित होने लगी। स्थिति बन जाता है। मनुष्य में इस विकृति की और यही नहीं रही, अपितु उसने अपराधों को भी जन्म समाज में विषमता की- दोनों की उत्पत्ति एक ही दिया। साधनहीनों ने साधन-गम्पन्नों के पास से साथ हुई और समानान्तर रूप से दोनों का साथ बलपूर्वक साधनों को छीनने का प्रयत्न भी किया । साथ ही विकास भी हुआ है। जब मनुष्य का और समाज में अशान्ति व्याप्त होने लगी। यदि स्वार्थ बढ़ता है, तो विषमता भी विकसित होती है साधनहीन दुर्बल हुए तो साधनों की चोरी करने और विषमता के साथ-साथ स्वार्थ की भावना बल- लगे-इस प्रकार एक और बुराई उत्पन्न हुई। वती होती चली जाती है। इस प्रकार ये दोनों क्रमशः ये बुराइयाँ कई गुनी अधिक बढ़ती गयीं विकार परस्पर पोषक हैं । जैनधर्म के आदिकाल और समाज क्या से क्या हो गया। में कोई विषमता नहीं थी, परिणामतः मानव-जाति ऐसे अराजकता और अशान्तिपूर्ण समाज पर सर्वथा विकारशून्य, निरीह और निश्छल थी। वह नियंत्रण आवश्यक होता है । दुःखित जनों के दुःखों वर्तमान अवसर्पिणी काल के आरंभ का समय था। को दूर करना भी आवश्यक है। आवश्यकता इस आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के कुछ समय बात की थी कि भोग की प्रवृत्ति को छोड़कर मनुष्य पूर्व तक का काल बड़ा सुखमय और शान्तिपूर्ण उद्यम में प्रवृत्त हो। मनुष्य द्वारा उत्पादन करना था । तब इस 'भोग भूमि' पर सभी सुखी थे। ही समस्या का रचनात्मक समाधान था। साधनों किसी को कोई कष्ट न था। बिना श्रम किये ही के अभावों को श्रम द्वारा स्वयं मनुष्य दूर कर । सब को सभी उपभोग्य सामग्रियाँ स्वतः ही उप- सके-इस दिशा में कुशल मार्गदर्शन अपेक्षित था। लब्ध हो जाती थीं। किसी को उनके संचय का ऐसे ही समय में आदिनाथ भगवान ऋषभदेव का लोभ भी नहीं था। न कोई विपन्न था और न ही जन्म हआ था। भगवान ने कृषि, शिल्प, व्यापाकोई सम्पन्न । विषमता का लेशमात्र भी नहीं था। रादि करना सिखाया और अभाव की समस्या का प्रकृति के विपुल भण्डार से सभी को यथोचित निदान आरम्भ हुआ । व्यक्ति श्रमशील होने पर ५४४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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लगा। उत्पादन द्वारा आवश्यकतानुरूप सामग्री सज्जन है या दुर्जन, धार्मिक है या अधार्मिक उपलब्ध होने लगी, किन्तु मनुष्य के चरित्र में जो आदि । चारित्र के अनुसार ही यह भी ज्ञान किया विकार आ गये थे, उन्हें भी दूर करना आवश्यक जा सकता है कि कौन किस का मित्र अथवा शत्रु था। इसके बिना विषमता को दूर करना और है ? इसी प्रकार चारित्र ही किसी व्यक्ति को शान्ति स्थापित करना सम्भव नहीं था। भगवान प्रतिष्ठित और उच्च भी बना सकता है और ने मानव जाति पर यह उपकार भी किया। किसी का पतन भी कर सकता है। उन्होंने मनुष्यों को अहिंसात्मक आचरण का उप- चारित्र दो प्रकार का होता है। कुछ करना 0 देश दिया और अहिंसा को ही धर्म के रूप में चारित्र के अन्तर्गत आता ही है, किन्तु साथ ही प्रतिष्ठित कर दिया । भगवान ने इस अहिंसाधर्म साथ कुछ कामों का न किया जाना भी चारित्र का के समग्रतः पालन के पक्ष में सहायक तत्त्वों- ही अंग है। अच्छे कामों का किया जाना जितना सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश महत्त्वपूर्ण है, अशुभ कार्यों का न किया जाना भी दिया । तब से अहिंसा सहित ये चार तत्त्व अर्थात्- मनुष्य की सज्जनता के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण ये पांच यम जनधर्म का मूल आचार हो गया। है । यह कहा जा सकता है कि चारित्र के दो प्रकार क्रमशः इसमें विकास होता रहा और इसके प्रचार- हैं-प्रवृत्तिमूलक चारित्र और निवृत्तिमूलक प्रसार में अन्य तीर्थंकरों का महत्त्वपूर्ण योगदान चारित्र । यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य अच्छे भी होता रहा।
और बुरे दोनों ही प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति रख एक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह सकता है । इसी प्रकार उसकी निवृत्ति का सम्बन्ध का पालन जैनाचार का मूल रूप है। सभी जैन- भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों से हो धर्मानुयायी अनिवार्यतः इस आचार का पालन सकता है। आदर्श चारित्र से अनुरूप व्यक्ति को करते हैं। यह मात्र मुनिजनों के लिए नहीं । हाँ, शुभ के प्रति प्रवृत्ति और अशुभ के प्रति निवृत्ति गृहस्थों और विरक्त मुनियों द्वारा पालन किये का भाव रखना चाहिए। जाने वाले आचार में परिमाण का अन्तर हो जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, सकता है। इसी दृष्टि से यह माना जाता है कि मनुष्य की समस्त गतिविधियों के तीन ही द्वार इस निर्धारित जैनाचार का गृहस्थजन एकदेश से हैं-मन, वचन और काया । प्रवृत्ति के ये ही तीन ॥ और मुनिजन सर्वदेश से पालन करते हैं । चारित्र साधन हैं। इन्हीं साधनों से मनुष्य की शुभ प्रवृत्ति एक व्यापक पारिभाषिक शब्द है । इसके अन्तर्गत भी सम्भव है और अशुभ प्रवृत्ति भी। किसी के मनुष्य की समस्त सूक्ष्म गतिविधियाँ भी परि- प्रति ईर्ष्या रखना, किसी के अहित की कामना ₹ गणित होती हैं । मनुष्य जो कुछ उच्चारित करता करना आदि अशुभ मानसिक प्रवृत्तियाँ हैं। इसी है, यही नहीं अपितु वह जो कुछ सोचता है-वह प्रकार किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना, भी उसकी गतिविधियों में सम्मिलित होता है और कटुवचनों का उच्चारण करना आदि अशुभ ये सारी गतिविधियाँ चारित्र के अन्तर्गत आ जाती वाचिक प्रवृत्तियाँ हैं । दूसरों के लिए कष्टप्रद कार्य हैं । मन, वचन और काया की समस्त क्रियाएँ करना, हिंसापूर्ण कार्य करना, दूसरों को हानि चारित्र की परिधि में आती हैं। वस्तुतः पहुँचाना आदि अशुभ कायिक प्रवृत्तियाँ हैं । यह मनुष्य का जो चारित्र है, वही वह स्वयं है, वही सभी अशुभ प्रवृत्तियाँ त्याज्य समझी जानी चाहिये। उसका व्यक्तित्व है। चारित्र के आधार पर ही इन्हीं द्वारों-मन, वचन और काया का सदुपयोग उसका मूल्यांकन होता है कि वह भला है या बुरा, शुभ प्रवृत्तियों द्वारा किया जा सकता है । किसी के
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प्रति मंगल कामना रखना, संसार भर के प्राणियों सकता। निर्णय के लिए कसौटी तो कर्ता का मंतब्य का हित-चिन्तन करना, सभी के लाभ की भावना ही है। शुभ मंतव्य ही कार्य को शुभ बनाता है, रखना ऐसी शुभ प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानसिक हैं। चाहे कार्य अशुभवत् दिखायी देता हो। इसके इसी प्रकार सदा मधुर, प्रिय और कोमल वचनो विपरीत अत्यन्त शुभ दिखायी देने वाला काय? का उच्चारण करना, वाणी द्वारा सभी के प्रति यदि बुरे उद्देश्य से किया जा रहा है तो वह शुभ स्निग्ध व्यवहार रखना-वाचिक शुभ प्रवृत्तियाँ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए, ठग कहलाती हैं। इसी प्रकार किसी प्राणी को कष्ट न मीठी-मीठी बातें करे, ग्राहक के लिए लाभ का पहुँचाना, हिंसामूलक कर्म न करना, किसी की सौदा दिखाये, उसके लिए हितैषी जैसा बना रहे,
रना आदि शुभ कायिक प्रवत्तियाँ हैं। तो उसका यह व्यवहार बुरे इरादे से होने के कारण || ये शुभ प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य के लिए आदर्श एवं शुभ नहीं हो सकता। आखेटक दाना डालकर , अनुकरणीय होती हैं। इन शुभ प्रवृत्तियों के आधार पक्षियों को एकत्रित करता है। पक्षियों को दाना पर ही मनुष्य की धार्मिकता का भी मूल्यांकन डालना शुभ लगते हुए भी शुभ इस कारण नहीं है
| करता है। अशभ के प्रति कि अन्ततः वह पक्षियों को अपने जाल में फंसा, निवृत्ति का भाव रखने से शुभ के प्रति प्रवृति का लेना चाहता है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि भाव बलवान बनता है।
क्या किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय उस कार्य किसी कार्य को ऊपर-ऊपर से देखकर ही सह- के परिणाम के आधार पर किया जा सकता है ? जतः उसके शुभ अथवा अशुभ होने का निर्णय कर नहीं, ऐसा करना भी भ्रामक ही होगा। उदाहरण लिया जाता है, किन्तु यह भ्रामक होता है। कभी के लिए, शल्य चिकित्सा के परिणामस्वरूप यदि कभी कार्य ऊपर से अशभ दिखायी देता है. किंत रोगी रोगमुक्त होने के स्थान पर दुर्भाग्यवश मर । वास्तव में वह होता शुभ है। निरीह पशुओं को जाता है, ऐसी स्थिति में क्या चिकित्सक का कार्य निर्ममता के साथ पीटना, शस्त्रास्त्र के प्रयोग द्वारा
अशुभ कहा जायगा? नहीं, अशुभ नहीं कहा जा उनके शरीर को क्षत-विक्षत कर देना-किसी भी
सकता। परिणाम तो संयोगवश कुछ भी हो स्थिति में मन की प्रा प्रवति नहीं हो सकती। सकता है, काय के पछि कत्ती का जो भाव है वही। किंतु कोई शल्य चिकित्सक पैने उपकरण गाड़कर
हमारे लिए निर्णय की कसौटी होगी। अन्यथा,
आखेटक के जाल फैलाने पर भी यदि सारे पक्षी रोगी के अंगों को जब चीर-फाड़ देता है तो स्थिति तनिक भिन्न रहती है। रोगी को कष्ट हुआ, इस
उड़कर भाग जायें और वह एक भी पक्षी को पकड़ भयंकर कष्ट का कारण भी चिकित्सक का कर्म ही
न पाय, तो क्या आखेटक का कार्य शुभ हो जायगा ? है। किंतु चिकित्सक का यह कर्म अशुभ नहीं है।
परिणाम चाहे कैसा भी घटित हो, कार्य के ? कारण यह है कि चिकित्सक के इस कर्म पीने के आरम्भ में ही कर्ता के मंतव्य और भावना के कोई अशुभ मंतव्य नहीं है। वह रोगी को रोग- अनुसार कार्य का शुभाशुभ रूप निश्चित हो जाता मुक्त करना चाहता है और इसी उद्देश्य से वह ह
मी
है। अस्तु, शुभ प्रवृत्ति के लिए मंतव्य एवं भावना चीर-फाड़ कर रहा है । चिकित्सक का कर्म अन्य का शुभ होना भी अत्यावश्यक है। जन (रोगो) के लिए प्रत्यक्षतः पीड़ा का कारण हमारे यहाँ निवृत्ति का बड़ा गुण गान किया होते हुए भी अशुभ नहीं कहा जा सकता। गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रवृत्ति
भाव यह है कि केवल प्रत्यक्ष स्वरूप मात्र से तुच्छ है। प्रवृत्ति भी महत्त्वपर्ण है और यही किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय नहीं किया जा प्रयत्नापेक्षित भी है । 'कुछ करना' प्रवृत्ति' का ही। ५४६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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6 रूप है। मनुष्य सहजतः सुखकामी होता है और के ही कुछ का कुछ हो जाने की आशंका बनी ॥ सुख की लालसा से ही वह प्रवृत्तियों की ओर रहती है। अतः प्रवृत्ति में जागरूकता और शुभ
उन्मुख होता है। कुछ करने से ही कुछ प्राप्त के प्रति दृढ़ता का भाव अत्यन्त आवश्यक है । शुभ * होगा और कुछ न करने से कुछ भी प्राप्त होने को प्रवृत्ति सदैव प्रशंसनीय और हितकर रहती है। । कोई सम्भावना नहीं होगी-सामान्यतः हमारी निवृत्ति का जो गुण-गान किया जाता है वह है। ऐसी धारणा रहती है। यही कारण है कि हम भी व्यर्थ और आधारहीन नहीं है। निवृत्ति की 10 कर्म में प्रवृत्त होते हैं । साधारणजन अयथार्थ सुखों महिमा यथार्थ में अत्युच्च है। यह अन्य बात है
को सच्चा सुख मानकर उन्हें प्राप्त करने के लिए कि प्रवृत्ति के प्रति जितनी सुगमता के साथ मनुष्य है। प्रवृत्ति में लगते हैं। उन्हें वे सुख (तथाकथित) आकर्षित हो जाता है उतनी सुगमता के साथ है, भले ही प्राप्त हो जायें, किन्तु उनके अन्तिम परि- निवृत्ति के प्रति नहीं हो पाता । निवृत्ति दुष्कर
णाम तो दुःख ही होते हैं। अतः उन्हें वास्तविक है और अपेक्षाकृत कम आकर्षक है, किन्तु निवृत्ति सुख की प्राप्ति प्रवृत्ति से नहीं हो पाती। इसमें से प्राप्त सुख अनन्त, स्थायी और यथार्थ सुख है । दोष प्रवृत्ति का नहीं है। प्रवृत्ति का उद्देश्य यदि प्रवृत्ति का सुख, इसके विपरीत लौकिक, असार थायी, अनन्त वास्तविक सख को मानकर, तदन- और अवास्तविक सुख है, वह समाप्य सुख है। रूप कार्य किये जायें तो वैसा सुख-लाभ भी होता मनुष्य का मन्तव्य स्थायी सुख होना चाहिए और हैं ही है । अतः प्रवृत्ति को निकृष्ट कहने का कोई उसकी प्राप्ति में निवृत्ति का रूप अधिक सहायक
प्रयोजन नहीं है। प्रवृत्ति भी सुखदायी होती है, रहता है। वस्तुतः प्रवृत्ति (शुभ) और निवृत्ति शर्त यही है कि उसके लिए सच्चे सख का लक्ष्य दोनों परस्पर पूरक स्थान रखती हैं। मोक्ष की निर्धारित किया जाय, उस लक्ष्य प्राप्ति के योग्य प्राप्ति में निवृत्ति का प्रमुख स्थान है, किन्तु कुछ
प्रयत्न किये जायें। हां, मिथ्या और अयथार्थ कुछ सहारा शुभ प्रवृत्तियों का भी होता अवश्य || सांसारिक विषयों के लिए जो प्रवृत्ति है, वह है। मात्र किसी एक से कार्य सधता नहीं । विचा
अवश्य ही निकृष्ट और हेय है । प्रवृत्ति भी सच्चे रकों की धारणा है कि मनुष्य को प्रवृत्ति मार्ग पर सख का एक मूलभूत आधार है अवश्य, किन्तु इस चलते हुए भी अपनी दृष्टि सदा निवृत्ति की ओर । सम्बन्ध में भय यह बना रहता है कि किसी भी रखनी चाहिए। चारित्र के प्रवृत्तिमूलक और
समय यह शुभ की सीमा रेखा लांघकर अशुभ रूप निवृत्तिमूलक दोनों ही रूपों का प्राणाधार अहिंसा NI ग्रहण कर सकती है। अतः प्रवृत्तियों पर संयम के है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इस FI कठोर अंकुश की तीव्र आवश्यकता बनी रहती महती अहिंसा के समर्थ और सक्षम रक्षक हैं ।
है । विचलन से प्रवृत्तियों का रूप और इससे लक्ष्य
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जैन-दर्शन का हृदय है-'स्याद्वाद'
परमविदुषी श्री कुसुमवतीजी म. की सुशिष्या । विदुषी साध्वी चारित्र प्रभा जी म. सा,
0000000000000000000
'स्याद्वाद' जनदर्शन का हृदय है, और भारतीय कान्तवाद" और "स्याद्वाद' का पृथक्-पृथक् अर्थ दर्शनों को परस्पर जोड़ने वाला एक मात्र सूत्र है। मान सकते हैं । ऐसे व्यक्तियों को यह ध्यान रखना इसलिए जैन दार्शनिक चिन्तन में "स्याद्वाद" को पडेगा कि "अनेकान्त" का अर्थ होता
नेकान्त" का अर्थ होता है-"अनेक ॥ एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यद्यपि इसके बीज, धर्म" | इन धर्मों की जब विवेचना की जायेगी तो बिन्दुरूप में, सहस्राब्दियों पूर्व से ही, जैन-आगमों में वह सारे धर्मों को युगपद् विवेचित करने में समर्थ "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप में, "अस्ति-नास्ति-अव- नहीं बन पाती। जब भी विवेचन होगा, क्रमशः क्तव्य'-रूप" में, "द्रव्य-गुण-पर्याय"-रूप में तथा एक-एक धर्म को लक्ष्य करके ही किया जा सात नयों के रूप में यत्र-तत्र प्रकीर्ण, उपलब्ध रहे सकेगा। फलतः यह विवेचना, एक ऋमिकता, | हैं, किन्तु इन्हीं सबको व्यवस्थित कर “सप्तभंगी" "अनेकान्त" में नहीं है, वरन् उसके “कथन" में, || के रूप में, इसे एक स्पष्ट संज्ञा प्रदान करने में यानी "वाद" में है। इसलिए अनेकान्तों का जो | समन्तभद्र और सिद्धसेन जैसे आचार्यों के योगदान जो स्वरूप होता है, वह "वाद" में सुरक्षित नहीं । को विस्मृत नहीं किया जा सकता । बाद के अनेकों रह पाता। यह "वाद" की यानी "कथन", आचार्यों ने इसे लक्ष्य बनाकर विशाल वाङमय की "भाषा" की विवशता है । इस विवशतावश प्रयुक्त रचना की । विगत ५०० वर्षों से दार्शनिक जगत के ऋमिकता को "योगपद्य" का ही रूप मानना पड़ता एक-एक सजीव पक्ष के रूप में इसे गौरव मिला है। है। अन्यथा “अवक्तव्य" कहकर हम "अनेकान्त" आइये, पर्यालोचन करें, कि "स्याद्वाद" आखिर है की विवेचना नहीं कर पायेंगे । निष्कर्ष यह है कि क्या ? और मानव जीवन व्यापार में इसकी उप- "अनेकान्त" वस्तुगत स्वरूप है, जो तमाम अपेयोगिता क्या हो सकती है।
क्षाओं से संवलित है। अतः उसका कथन भी, ___"स्याद्वाद" शब्द "स्यात्" और "वाद" इन दो "अनेकान्तवाद" स्वरूप वाला मानना होगा। शब्दों को मिलाकर बनता है। प्रथम "स्यात्" का अन्यथा “अनेकान्त" स्वरूप और “अनेकान्तवाद" अर्थ होता है-अपेक्षा यानी “दृष्टि"। 'वाद" का दो अलग-अलग संज्ञाएँ बन जाने पर एक विलक्षण अर्थ है-"सिद्धान्त" यानी मन्तव्य । अतः दोनों समस्या उठ खड़ी हो जाती है। अतएव “अनेशब्दों को मिलाने पर इनका सम्मिलित अर्थ कान्त" और "स्याद्वाद" को समानार्थवाची माना! होगा-“सापेक्ष सिद्धान्त" अर्थात् वह सिद्धान्त, जाता है। इस समानार्थकता से जो शाब्दिक अन्तर। जिसका आधार अपेक्षा हो । “अनेकान्तवाद" - पैदा होता है, उसे दृष्टिगत करते हुए, हम मोटे "अपेक्षावाद" "कथंचित्वाद" "स्याद्वाद" आदि तौर पर यह मान सकते हैं कि-"अनेकान्त" अनेक नाम इसके हो सकते हैं। कुछ व्यक्ति "अने- अनेक धर्मात्मक पदार्थ स्वरूप “वाच्य" है, और।
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स्याद्वाद उसका वाचक है । वस्तुतः " अनेकान्त - वाद" और " स्याद्वाद" में, यह सूक्ष्म अन्तर बनता ही नहीं है । यह अन्तर तभी बन पाता है, जब हम " अनेकान्त" के साथ "वाद" शब्द न जोड़े ।
" प्रवचनसार" की मन्यता के अनुसार "स्याद्वाद" वह सिद्धान्त है, जिसमें परस्पर विरुद्ध धर्मों का समन्वय विभिन्न अपेक्षाओं के साथ मुख्यता और गौणता के आधार पर किया जाता है । जैसे एक न्यायाधीश, अपनी सूक्ष्म विवेकिता के आधार पर निष्पक्ष निर्णय देने का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करता है, उसी तरह विभिन्न विचारों में समन्वय साधने के लिए, न्यायाधीश जैसा ही कार्य " स्याद्वाद" निभाता है । इसी आधार पर स्याद्वाद के विशेषज्ञ विद्वान इस शब्द की परिभाषा इस प्रकार करते हैं—“अपने और दूसरों के विचारों में, मतों में, और कार्यों में उनकी मूल भावनाओं का समन्वय करना " स्याद्वाद" है । इस परिभाषा को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने सुन्दर शब्द चित्र प्रस्तुत किया है
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्व मितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी । 3
इस परिभाषा को अष्टसहस्रीकार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- प्रत्यक्षादि प्रमाणाविद्धानेकात्मक वस्तु प्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मको स्याद्वादः " ।
ये परिभाषाएँ स्पष्ट करतो हैं कि "अनेकान्तवाद" और " स्याद्वाद के शाब्दिक अर्थों का भेद, कोई अर्थ नहीं रखता । यही तथ्य इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों ने इन दोनों शब्दों से अभिव्यक्त पदार्थ के स्वरूप विवेचन के लिए जो एक शैली / पद्धति सुनिश्चित्त की है, उसे
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प्रवचनसार २/७ २ आप्तमीमांसा १०४
३ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय |
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उन्होंने "सप्तभंगी" नाम दिया है । और इसकी परिभाषा, एक राय होकर इस प्रकार की है“प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना "सप्तभंगी" । सप्तानां 'भंगाना' समाहारः सप्तभंगी । -: - इतिवा |
जैन दार्शनिक मानते हैं कि किसी भी एक वस्तु में, सात प्रकार के ही संशय, प्रश्न उत्पन्न होते हैं । क्योंकि, वस्तु में सात धर्मों की ही प्रमाणों के अनुसार सिद्धि होती है । अतः इन धर्मों से सम्बन्धित प्रश्नों, जिज्ञासाओं के उत्पन्न होने पर इन प्रश्नों के समाधान हेतु सात प्रकार के ही उत्तर अपेक्षित होते हैं । इन सात उत्तर वाक्यों को ही 'सप्तभंगी' शब्द के द्वारा कहा गया है । किन्तु इन सातों वाक्यों में अर्थात् प्रत्येक वाक्य 'एव' - ही शब्द का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है । और, प्रत्येक वचन, कथन में, एक - 'अपेक्षा' विशेष निहित होने के कारण, उसके सूचक 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग भी प्रत्येक वाक्य में अनिवार्यतः करना होगा | अन्यथा 'घट' का विवेचक वाक्य, 'पट' का विवेचक भी हो सकता है, यह खतरा पैदा हो जायेगा । इन सात उत्तर वाक्यों अर्थात् सात भंगों के प्रकार निम्नलिखित होते हैं
में
१. स्यादस्त्येव घटः,
२. स्यान्नास्त्येव घटः,
३. स्यादस्ति - नास्त्येव घटः
४. स्यादवक्तव्य एव घटः
५. स्यादस्त्यवक्तव्य एव घटः ६. स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव घटः ७. स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य एव घटः
इनमें से प्रथम वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से घट ही है । न कि 'पट' आदि अन्य कुछ। दूसरे वाक्य में, 'घट' परद्रव्य
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क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से (पर-रूप) नहीं ही तत्व में अनेक धर्म हैं। ये धर्म हर समय, वस्तु में है। जबकि तीसरे वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्र- विद्यमान रहते हैं । जब, किसी एक अपेक्षा से वस्तु काल-भाव की और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तत्व के बोध की आवश्यकता होती है, तब भी की भी क्रमिक अपेक्षाओं से, क्रमशः 'घटरूप ही है। उसमें अन्य सारे धर्म विद्यमान रहते हैं । इन दूसरे पट आदि अन्य रूप नहीं है।' किन्तु यही दोनों धर्मों की अपेक्षाएँ वांछित अपेक्षा के साथ सम्बद्ध अपेक्षाएँ युगपत् एक साथ उत्पन्न हो जायें, तब होकर अपने उत्तर न माँगने लग जायें, यह बचाने उनका समाधान भाषा के वश के बाहर हो जाता में ही 'स्यात' शब्द के अनिवार्य प्रयोग की सार्थकता है। इसीलिए उसे 'अवक्तव्य'-'अकथनीय' ही है, निहित है ।
यह कहा जाता है। चतुर्थ वचन का यही आशय भारतीय दार्शनिकों ने स्याद्वाद की सापेक्षता ५ है। यहीं से यह स्पष्ट होता है कि मौलिक रूप से को सहज ही स्वीकार कर लिया है, किन्तु पश्चिमी
तो प्रथम तीन ही भंगों की सार्थकता है । शेष भंगों विद्वानों ने भी इसकी उपादेयता को कम महत्व की उत्पत्ति; इन्हीं तीनों से सम्बद्ध अपेक्षाओं के नहीं दिए
+ नहीं दिया। सम्मिश्रण से होती है।
____ इसीलिए पश्चिमी और भारतीय कई उक्त सात कथन-वाक्यों में 'एव' शब्द का विद्वानों ने इस सिद्धान्त की स्पष्टता, सहजता और प्रयोग इसलिए किया गया है कि वाक्य का अर्थ कठिनता को भी सिद्ध करने के लिए अपनी-अपनी
'घट' का ही बोध कराये, पट आदि का नहीं । यदि लेखनियाँ उठाई हैं। हालांकि इस सिद्धान्त की EARST
इस 'एव' शब्द का प्रयोग न किया जाये तो, जिस आलोचना शंकराचार्य जी ने पर्याप्त की थी। पर, तरह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से 'घट'
उनकी इस आलोचना के औचित्य पर प्रयाग विश्व के अस्तित्व का बोध होता है, उसी तरह पर द्रव्य- विद्यालय के तत्कालीन कूलपति डा० गंगानाथ झा
क्षेत्र-काल-भाव को अपेक्षा की भी अवसर मिल द्वारा की गई टिप्पणी विशेष उल्लेखनीय मानी जा C) जाने से घट, अस्तित्ववान् रहते हुए भी 'पट' के सकती है। वे लिखते हैं-जब मैंने शंकराचार्य जी
अस्तित्व का बोध भी होने लग जायेगा । यह अव्य- द्वारा किए गए जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा, तभी
वस्था, तत्व बोध में न होने पाये; इसीलिए वाक्य- मुझे यह विश्वास हो गया था कि इस सिद्धान्त में Sil भंग में 'एव' शब्द का प्रयोग किया जाना अनिवार्य बहत कुछ (सार) होना चाहिए, जिसे वेदान्त के Milf माना गया है।
ज्ञाता आचार्य ने ठीक से नहीं समझा। मैंने अब इसी प्रकार प्रत्येक वाक्य में 'स्यात्' शब्द का तक जैन-दर्शन का जो भी, जितना अध्ययन किया ERIAL प्रयोग करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि है, उसके आधार पर मैं यह दृढ़ विश्वासपूर्वक कहर
यह 'स्यात्' शब्द एक अपेक्षा विशेष का ज्ञान सकता हूँ कि यदि शंकराचार्य महोदय ने जैन दर्शन । कराता है।
के मौलिक ग्रन्थों को देखने का कष्ट किया होता, जिससे, यह ज्ञान भी होता है कि वस्तु-तत्व तो उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त का विरोध करने का । में और भी अपेक्षाएँ हैं। इन अनेक अपेक्षाओं अवसर न मिलता। का अहसास कराने के लिए ही 'स्यात्' शब्द की डा. झा की उक्त टिप्पणी से यह स्पष्ट ज्ञात अनिवार्य प्रयोगता रखी गई है। चूकि वस्तु- होता है कि शंकराचार्य महोदय ने स्याद्वाद के उस
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१ तत्वार्थराजवार्तिक १/१६/५ २ जनदर्शन (साप्ताहिक) १६/६/३४ ५५० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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कठिनतम पक्ष को ही देखा, जिसके लिए यह स्वर्ण घट को तोड़ने से या स्वर्ण मुकुट बनाने से, सिद्धान्त विश्व में प्रसिद्ध है। एक ही वस्तु में उसे अपनी इच्छित वस्तु पाने में कोई फर्क नहीं उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य जैसे परस्पर विरोधी पड़ता था। इसलिए उसकी तटस्थता भी सहज धर्मों की सत्ता कैसे हो सकती है। यह है इस मानी आनेगी। सिद्धान्त की जटिलता।।
इस उदाहरण का अभिप्राय यह है-एक ही __इसी जटिलता को लक्ष्य कर, बहुत से पदार्थ-"स्वर्ण" में, एक ही समय में, एक व्यक्ति
विद्वानों ने इस सिद्धान्त की जमकर आलोचनाएं "विनाश" को होता हआ देख रहा है, तो दूसरा मा ना की हैं । किन्तु यही तथ्य, जब परस्पर विरोधी "उत्पत्ति” को, और तीसरा "ध्रौव्य" को। ये
धर्मों की उपस्थिति, एक ही पदार्थ में मानने जैसी तीनों ही दशाएँ; परस्पर विरोधी हैं, फिर भी एक बात, सामान्य व्यक्तियों की समझ में नहीं आ ही समय में, एक ही पदार्थ में यह भी पायी सकती, तब, उन्होंने इसी सिद्धान्त की विवेचना, जाती हैं। इतने सरल शब्दों में कर डाली कि छोटे से छोटा
इसी तरह, विश्व की प्रत्येक वस्तु में, एक बालक तक बिना किसी श्रम के आसानी से समझ
ही समय में, एक साथ तीनों स्थितियाँ रहती हैं। ले।
इसी तथ्य को जैनदार्शनिकों ने वस्तु मात्र की जैसे, एक स्वर्णकार सोने के घड़े को तोड़कर, "त्रिगणात्मकता" कहा है, और यह त्रिगुणात्मकता सोने का मुकुट बना रहा है। इसी समय उसके
वस्तुमात्र का सहज-स्वभाव है। इसी तरह पास तीन ग्राहक आ जाते हैं । इनमें से एक ग्राहक वस्तु मात्र में, भिन्न अपेक्षाओं से अनेकों परस्पर सोने का घड़ा खरीदना चाहता था, तो दूसरा सोने विरोधी धर्म, एक समय में एक साथ बने रहते का मुकुट खरीदने की इच्छा लेकर आया था, जब हैं। कि तीसरे को स्वर्ण की आवश्यकता थी। उस
उक्त उदाहरण स्याद्वाद की सहजता, सरलता M) स्वर्णकार की क्रिया प्रवृत्ति को देखकर पहले ग्राहक
का द्योतक है । वास्तविकता यह है कि “स्याद्वाद" को कष्ट का अनुभव हुआ, तो दूसरे को प्रसन्नता
उक्त उदाहरण से भी अधिक सरल है। इतना भी हुई, जबकि तीसरे ग्राहक के मन में कष्ट और
सरल कि-रास्ता चलते समय कोई बालक आप प्रसन्नता जसा कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। वह उस से स्यादाद के बारे में प्रश्न पछ ले तो भी आप HD स्वर्णकार को तटस्थभाव से देखता रहा । ऐसा क्यों आराम से समझा सकें। संयोगवश, एक जैनाचार्य
महोदय के साथ ऐसी ही स्थिति, आ भी गई । इसका कारण यह है कि प्रथम ग्राहक स्वर्ण- विहार-यात्रा में सड़क मार्ग से जाते हुए, उन्हें घट खरीदना चाहता था, परन्तु स्वर्णकार को सोने किसी बालक ने पूछा-"भगवन् ! आपका स्याद्वाद का घड़ा तोड़ते हुए देखकर उसे कष्ट का अनुभव क्या है ?" होना सहज ही है। दूसरा ग्राहक उसी स्वर्णकार आचार्य ने अपने एक हाथ की 'कनिष्ठा' का को अपनी मनचाही वस्तु-स्वर्णमुकुट बनाते हुए और "अनामिका"। उंगलियों को ऊपर उठाकर,
देखकर प्रसन्नता अनुभव करे, यह भी एकदम सहज उस बालक से पूछा- "बतलाओ वत्स ! इन उँगई ही है । तीसरा ग्राहक, सोना ही चाहता था अतः लियों में कौन उंगली बड़ी है ?"
हुआ?
१ आप्तमीमांसा ५९/६०
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बालक ने उत्तर दिया-"अनामिका"। "सामान्य' का ही गुण ग्रहण करता है, इसलिए
अब आचार्य ने कनिष्ठा के स्थान पर 'मध्यमा' इसके अन्तर्गत वस्तुतः केवल नैगम का ही समावेश को “अनामिका" के साथ ऊपर उठाया, और मानना उचित होगा। पर्यायाथिक नय, भेद विवबालक से पुनः पूछा- “अब बतलाओ, इन दोनों क्षाओं को, और "विशेष" को भी ग्रहण करता है। उंगलियों में कौन उँगली छोटी है ?"
अतः शेष छः ही नयों को, इसके अन्तर्भूत माना बालक ने उत्तर दिया-'अनामिका"। जाता है । इन सात नयों के अन्य उपभेद बहुत
यह उत्तर सुनकर आचार्य ने उसे समझाया से हैं। जिस तरह तुमने एक ही उँगली को "बड़ा" और उनका सामान्य विवेचन भी यहाँ विस्तार का "छोटा" कहा, उसी तरह यह "स्याद्वाद" भी एक कारण बन सकता है। किन्तु इन्हीं सातों नयों को ही पदार्थ में स्थित, परस्पर-विरोधी धर्मों की बात एक दूसरी अपेक्षा से "निश्चयनय" और "व्यवहाबतलाता है।"
रनय" के भेदों, उपभेदों के रूप में विभाजित और
व्यवहृत किया जाता है। इसलिए इनके सम्बन्ध में ___ आचार्य की बात सुनकर बालक हँसता हुआ चला गया। यही है इस सिद्धान्त की सहजता
भी, कुछ कहना उचित ही होगा। सरलता, जो किसी भी विद्वान का ध्यान अपनी
"स्याद्वाद" सिद्धान्त का व्यावहारिक उपयोग और वरवश आकृष्ट कर लेती है।
करते समय, वस्तुतः नयों के "निश्चय" और
"व्यवहार" भेदों की ही विशेष अपेक्षा प्रतीत होती ___ "स्यादाद" सिद्धान्त में नयों की बहुमुखी विवक्षा हमेशा ही रहती है। क्योंकि जिस किसी
" है । क्योंकि, सप्तभंगी के सन्दर्भ में जो भी । भी पदार्थ का, जो अर्थस्वरूप, स्याद्वाद द्वारा अलग
प्रासंगिक विशिष्ट अपेक्षाएं जागृत होती हैं, उन करके विवक्षित किया जाता है, उसी अर्थ स्वरूप का मुख्य सम्बन्ध "निश्चय" व व्यवहार से ही की अभिव्यन्जना करने वाले "नय" होते हैं।
5 जुड़ता है। नीयते-साध्यते गम्यते मानोऽर्थः येन"--इस व्यू- क्योंकि, प्रत्येक द्रव्य व्यवहार में हमें जैसा 4 त्पत्ति से "नय" का उत्तम उक्त स्वरूप ही स्पष्ट दिखलाई पड़ता है, वस्तुतः वह वैसा होता नहीं। १ होता है।
उसके और भी अनेकों रूप होते हैं, हो सकते हैं, ये "नय" सात हैं। इन्हीं पर “स्याद्वाद" यह बतलाने वाला नय है-"निश्चयनय" । इसी का या सप्तभंगों का आधार स्थित है। ये सात तथ्य को आचार्यों ने इस पंक्ति में व्यक्त किया हैनय है :-नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसत्र, शब्द, "तत्वाथे निश्चयो वक्ति व्यवहारश्च जनोदितम् । समभिरूढ़ और एवम्भूत ।
इस कथन को निम्नलिखितः उदाहरण से स्पष्ट उक्त सातों नयों को मूलतः दो विभागों में समझा जा सकता है। विभाजित किया गया है-'द्रव्याथिक" और एक बार भगवान् महावीर से पूछ गया--- "पर्यायाथिक"। कुछ आचार्यों ने “नगम" और "भगवन् ! फाणित प्रवाही गुड़ में कितने वर्णरस"संग्रह" को द्रव्याथिक के अन्तर्गत माना है जबकि गन्ध होते हैं ? कुछ आचार्य मात्र “नगम" को ही "द्रव्यार्थिक" भगवान ने उत्तर दिया-'व्यवहार में तो के अन्तर्गत मानते हैं। द्रव्यार्थिक नय, मात्र मात्र 'मधुर' रस ही उसमें में है, यह कहा
१ आप्तपरीक्षा १०८ २ द्रव्यानुयोगतर्कणा ५५२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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KO जायेगा किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से उसमें की सम्पूर्णता का ज्ञान नहीं कराता, न ही उसका
पांचों वर्ण, दोनों गंध, पाँचों रस, और आठों स्पर्श केवल 'दीर्घत्व' उसके सम्पूर्ण स्वरूप का परिचायक होते हैं।
बन पाता है । बल्कि, इन दोनों स्वरूपों का सम्मिइस उत्तर का आशय यह है कि वस्त का जो लित रूप ही आम्रफल के समग्र-स्वरूप का द्योतका स्वरूप इन्द्रियग्राह्य होता है, वह जिस तरह का बाधक बनता है। होता है, उससे भिन्न प्रकार का उसका वास्तविक इसलिए स्व-द्रव्य, क्षेत्र, काल-भाव की । स्वरूप होता है।
अपेक्षा से और पर-द्रव्य, क्षेत्र काल भाव की हम सब उसी बाह्य स्वरूप को देख पाते अपेक्षा से भी वस्तु का जो स्वरूप निश्चित होता 1 हैं, जो इन्द्रियग्राह्य होता है। सर्वज्ञ तो निश्चय है वही स्वरूप, वस्तु मात्र का वास्तविक स्वरूप
रूप में, उसके 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दोनों होता है। हो स्वरूपों को देखते जानते हैं । सापेक्षवाद इसी वास्तविक स्वरूप को व्याख्या करने के अधिष्ठाता डा० अलबर्ट आइंस्टीन ने भी अपना के लिए दार्शनिक जगत का एक मात्र सिद्धान्त । आशय इसी तरह का व्यक्त किया है । वे कहते हैं- 'स्याद्वाद' ही है। यह न केवल लोक व्यवहार को 'हम तो केवल आपेक्षिक सत्य को ही जानते हैं। वरन् पदार्थ मात्र को अपना विषय बनाता है। । सम्पूर्ण सत्य को तो सर्वज्ञ ही जानते हैं। चू कि, 'स्याद्वाद' शब्द में 'स्यात' शब्द को राष्ट्रभाषा
सर्वज्ञ का ज्ञान, 'केवलज्ञान' होता है, इसलिए वह हिन्दी के 'शायद' शब्द का पर्यायवाची मानकर 'पूर्णज्ञान' भी होता है। इसी कारण वह द्रव्य कुछ विद्वानों ने इसे 'संशयवाद' की संज्ञा दो है, की समस्त विवक्षाओं को भली-भाँति जानते हैं। तो कुछ विद्वानों ने इसे सप्तभंगी वाक्यों में आये ___वस्तु/पदार्थ की सापेक्षता को स्वीकार करने के अस्ति-नास्ति' शब्दों का अर्थ ही सही सन्दर्भ में न लिए ही स्याद्वाद सिद्धान्त के अन्तर्गत सप्तभंगों समझकर इसे 'अनिश्चिततावाद' की संज्ञा प्रदान का प्रतिपादन किया गया है। इसके बिना किसी की है। भी पदार्थ के स्वरूप को पूर्णता प्राप्त नहीं हो इस तरह की शंकायें, उन्हीं व्यक्तियों द्वारा सकती। जैसे, आम का एक फल अपने से बड़े उठाई जाती हैं, जो आलोच्य सिद्धान्त के मर्म को आकार वाले फल की अपेक्षा से 'छोटा होता है, समझ बिना ही, स्व-इच्छित रूप से, कुछ भी कह और अपने से छोटे फल की अपेक्षा से 'बड़ा' भी देते हैं । वस्तुतः इन दोनों ही शंकाओं को पूर्वहोता है।
लिखित विश्लेषणों के अनुसार, सिर उठाने का दोनों अपेक्षाओं को दृष्टि से आम के फल अवसर ही नहीं मिलता। वैसे भी जिन जैनेतर में 'लघुत्व' और 'दीर्घत्व' दोनों ही रूपों को विद्वानों ने इसके मर्म को आत्मसात् किया है, वे जब स्वीकार किया जायेगा तभी आम का स्वरूप दृढता के साथ, यह कहने में भी संकोच नहीं करते पूरा माना जाएगा क्योंकि, केवल लघुत्व आम फल कि 'स्याद्वाद' ही जैनदर्शन का हृदय है।
१ कोस्मोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू ।
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මැකලමුල්ම මෙම මැලලම
उपमितिभव प्रपञ्च कथा :
कितना सार्थक है सिद्धर्षि का रचना उपक्रम ? ||
D साध्वी दिव्यप्रभा एम. ए. पी-एच. डी. (सुशिष्या महासती श्री कुसुमवती जी म. सा.)
0000000000000000000000015
मानव-मन के विचार जब तक अव्यक्त रहते शैली में किसी विस्तृत या बहद् आकार वाले ग्रन्थ । हैं, तब तक वे इन्द्रियग्राह्य नहीं बन पाते । किन्तु रचना करने का साहस, सिद्धर्षि से पहले का कोई ये ही उदगार जब उपमा/रूपकाप्रतीक-आदि को कवि/साहित्यकार नहीं कर पाया। श्रीमद्भागवत माध्यम बनाकर व्यक्त हो जाते हैं, तब, वे, न सिर्फ के चतुर्थ स्कन्ध में पुरञ्जन का आख्यान है, इन्द्रियग्राह्य ही बन जाते हैं, वरन्, उनमें एक ऐसी विषयासक्ति के कारण पुरञ्जन को जो भव-भ्रमण सामर्थ्य समाहित हो जाती है, जो ग्रहीता पर करना पड़ा, उसी का विस्तृत विवेचन इसमें है। अपनी अमिट छाप बना देते हैं। काव्य/ग्रन्थ प्रण- परञ्जन के इस भव-भ्रमण-विवेचन का कलेवर यन के क्षेत्र में प्रतीक-साहित्य की सर्जना-शैली के चार अध्यायों के १८१ श्लोकों में वर्णित है। बु मूल में इसी प्रकार का कोई मुख्य कारण रहा ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण, वृत्ति, सुषुप्ति, स्वप्न, होगा। यद्यपि, इस शैली में लिखे गये संस्कृत- शरीर आदि के रोचक-रूपक इस वर्णन में दिये माहित्य का परिशीलन करने से यह तथ्य स्पष्ट गये हैं । यह वृत्तान्त, यद्यपि पर्याप्त-विस्तार वाला होता है कि उपमेय-उपमान-शैली को माध्यम नहीं है, तथापि, जो रूपक, जिस रूप में बनाने की परम्परा पर्याप्त-प्राचीन है। और, इस हए हैं, वे सार्थक, सटीक, और मनोहारी अवश्य। सृजन-शिल्प के बीज-बिन्दु बृहदारण्यकोपनिषद् से हैं। फिर भी, इस वर्णन को उस-श्रेणी में नहीं सम्बद्ध 'उद्गीथ ब्राह्मण' में 'छान्दोग्योपनिषद्' में रखा जा सकता, जिस श्रेणी में सिद्धर्षि की 'उपभी उपलब्ध होते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें मितिभवप्रपञ्चकथा' को मान्यता प्राप्त है।। अध्याय में पाप-पुण्य-वत्तियों का देवी-आसुरी सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् डॉ० हर्मन जैकोबी ने | सम्पत्तियों के रूप में उल्लेख है । 'जातक निदान इस महाकथा की प्रस्तावना में लिखा है- "I didog कथा' (बौद्ध ग्रन्थ) के 'अविदूरे-निदान' और not find something still more important : the 'सन्तिके निदान' में भी इसी शिल्प-शैली का great literacy of the U. Katha and the fact दर्शन होता है। जैन साहित्य में 'उत्तराध्ययन that is the first allegorical work in Indian 'सूत्रकृतांग' और 'समराइच्च कहा' के कुछ Literature." इस कथन को लक्ष्य करके, यह कहा। आख्यानों में यही शिल्प विद्यमान है। किन्तु, इस जाने में कतई संकोच नहीं होता कि प्रतीक शैली।
१ उद्गीथ ब्राह्मण १/३ ३ श्रीमद् भगवद्गीता १६
२ छान्दोग्योपनिपद १/२ ४ उत्तगध्ययन-अध्ययन ६,१०, २७
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५५४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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की अनुपम काव्य-परम्परा का सूत्रपात करने का विद्वानों, साहित्यकारों में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा का
श्रेय, सिद्धर्षि की 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' को प्रश्न, इन दो में से एक भाषा के चयन, निश्चय पर ३ जाता है। पश्चात्, 'प्रबोधचिन्तामणि' (जयशेखर निर्भर करने लगा था। भाषा के चयन का लक्ष्य
सूरि) से लेकर अब तक के समस्त रूपक-ग्रन्थों को 'पाण्डित्य-प्रदर्शन' और 'लोकमानस के अनुरूप सिद्धर्षि की इसी कृति की परम्परा के ग्रन्थों में ग्रन्थों का प्रणयन' बन गया था। सिद्धर्षि भी इस गिना जा सकता है।
युगीन स्थिति से पूर्णतः परिचित थे। उन्होंने स्वयं जैन वाङमय का कलेवर पर्याप्त-विस्तार स्वीकार किया है कि उनके ग्रंथरचना काल में वाला है । इसकी सर्जना में 'संस्कृत' और 'प्राकृत' संस्कृत और प्राकृत, दोनों ही भाषाओं को प्रधादोनों ही भाषाओं का व्यापक-प्रयोग मौलिक रूप नता प्राप्त थी। प्राकृत-भाषा यद्यपि जन साधारण में किया गया है। महावीर के समय तक, प्राकृत- के लिये बोधगम्य अवश्य थी, पर, यह विद्वानों को भाषा जनसाधारण के बोलचाल और सामान्य- अच्छी नहीं लगती थी । पण्डित वर्ग में संस्कृतभाषा व्यवहार में भी पर्याप्त-प्रतिष्ठा प्राप्त कर चकी को ही विशेष समादर प्राप्त था। वे प्राकृत-भाषा थी । सम्भवतः इसीलिए, उन्होंने अपने द्वारा अन- में बोलचाल तक करना पसन्द नहीं करते थे। भूत सत्य/तत्व का प्रतिपादन प्राकृत भाषा में सूर्य का 'प्रकाश' और 'प्रताप' जिस तरह एक किया था। उनके प्रधान-शिष्यों ने भी उक्त तत्व- साथ संयक्त रहते हैं, उसी तरह 'समाज' और ज्ञान को प्राकृत-भाषा में ही संकलित करके जन- 'संस्कृति' भी साथ-साथ संपृक्त रहते हैं। समाज साधारण की भावनाओं को महत्त्व प्रदान किया। मानव-समुदाय का बाह्य-परिवेष है तो संस्कृति महावीर और उनके शिष्यों के इस प्रयास का उसका अन्तःस्वरूप है। जिस समाज का अन्तः और परिणाम यह हुआ कि लगभग ५०० वर्षों तक बाह्य-परिवेष, भौतिकता पर आधारित होता है, निरन्तर जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में प्राकृत- उसका साहित्य, आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत नहीं भाषा का व्यवहार होता रहा।
हो सकता । किन्तु जिस समाज का अन्तःस्वरूप ___ महावीर के इस भाषा-प्रस्थान में, संस्कृत के आध्यात्मिक हो, उसका बाह्य स्वरूप यदि भौतिप्रति किसी प्रकार का कोई विद्वष भाव नहीं था। कता में लिप्त हो जाये, तो भी उस समाज का बल्कि, तत्त्वज्ञान की प्रभावशालिता और उपयोः साहित्य, आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना गिता, जनसाधारण की समझ में आने वाली भाषा नहीं रह सकता। इसलिए संस्कृत साहित्य का लक्ष्य में ही निहित है, यह विचार ही प्राकृत को प्राथ- जनसाधारण तक आध्यात्मिकता का सन्देश ४ मिकता देने का मुख्य निमित्त बना। वस्तुतः यह पहुँचाना और उनमें नव-जागरण का भाव भरते
वह युग था, जिसमें संस्कृत और प्राकृत की संघर्ष- रहना, हमेशा रहा है। । मयी प्रतिद्वन्द्विता, अपने उत्कर्ष पर पहुंच रही थी। सुख-दुःख, राग-विराग, मित्रता-शत्रुता के
-प्रद्युम्नसूरि रचित 'समरादित्य संक्षेप'
१ सिद्धि व्याख्यातुराख्यातु महिमानं हि तस्य कः ।
समस्त्युपमिति म यस्यानुपमिति कथा | संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद् विदग्धहदिस्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते ।
-उपमितिभवप्रपंचकथा
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पारस्परिक संघर्ष से भिन्न-भिन्न प्रकार की जो परि तरह की मनोवृत्तियाँ, भावनाएं उसे सम्बल प्रदान || स्थितियाँ बनती हैं, उन्हीं की संज्ञा है-'जीवन'। करती हैं। जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति न तो दुःख को सर्वथा इस विशाल कथा-गन्थ को सिद्धर्षि ने आठ | त्याग देने पर सम्भव है, न ही सुख की सर्वतोमुखी प्रस्तावों, अध्यायों में विभाजित किया है । स्वीकृति से उसकी तात्विक व्याख्या की जा सकती पूरी की प्री कथा की प्रतीक-योजना दुहरे अभिहै। इसलिए संस्कृत का कोई कवि, साहित्यकार प्रायों को एक साथ संयोजित करते हुए लिखी गई और दार्शनिक किसी एक पक्ष का चित्रण नहीं है। जगत के सामान्य व्यवहार में दृश्यमान स्थानों, M करता । क्योंकि वह जानता है-'यह संसार द्वन्द्वों, पात्रों और घटनाक्रमों से युक्त कथानक की ही I संघर्षों का ही एक विशाल क्रीडांगन है।' किन्तु भाँति इस कथा में वर्णित स्थान-पात्र-घटनाक्रमों में 'निराशा' में से 'आशा' का, विपत्ति' में से 'संपत्ति' कथाकृति का एक आशय स्पष्ट हो जाता है। का और 'दुःख' में से 'सूख का स्रोत अवश्य फूटता किन्तु दसरा आशय, अदृश्य/भावात्मक जगत है । इसीलिए उक्त मान्यता, भारतीय चिन्तन की के दार्शनिक/आध्यात्मिक विचारों/अनुभव-व्यापार | आधारभूमि बनकर रह गई । संस्कृत साहित्य में में से उद्भूत होता हआ, कथाक्रम को अग्रसारित !! यही दार्शनिकता, अनुसरणीय और अनुकरणीय करता चलता है। वस्तुतः यह दूसरा आशय ही॥ वनकर चरितार्थ होती आ रही है।
'उपमिति भवप्रपञ्चकथा' का, और इसके लेखक सिद्धषि इन तथ्यों से भी भलीभाँति परिचित
का प्रथम प्रमुख लक्ष्य है। इस आधार पर इस
कथाकृति के दो रूप हो जाते हैं, जिन्हें 'बाह्यकथा थे। यद्यपि, उनके पूर्व उल्लिखित विचारों से यह
शरीर' और 'अन्तरंग कथा शरीर' संज्ञायें दी जा प्रतीत होता है कि वे अपनी, इस विशाल कथाकृति को प्राकृत भाषा में लिखना तो चाहते थे, किन्तु
सकती हैं। इन दोनों शरीरों के मध्य 'प्राणों' की इससे उन्हें विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो
तरह, एक हो कथा अनुस्यूत है। कथा के दोनों
स्वरूपों को समझाने के लिए, प्रथम-प्रस्ताव के रूप पायेगी, यह भय उन्हें था । इसलिए उन्होंने सरल
में समायोजित 'पीठबन्ध' में सिद्धर्षि ने अपने स्वयं संस्कृत में कथाकृति की रचना का एक ऐसा मध्यम
के जीवन-चरित को एक छोटी-सी कथा के रूप में मार्ग चुना, जिससे तत्कालीन जनसाधारण को भी इस कथा को समझने में कोई कठिनाई न हो. और उन्ही दुहरे आशयों के साथ संजोया है, जो कथा। उन्हें स्वयं पण्डित वर्ग के उपेक्षा-भाव का शिकार के पाठकों को दूसरे प्रस्ताव से प्रारम्भ होने वाली न होना पड़े । अन्ततः सोलह हजार श्लोक परिमाण मूल कथा की रहस्यात्मकता को समझने का पूर्वकलेवर वाले रूपकमय इस परे कथा ग्रन्थ में एक अभ्यास कराने के लिए, उपयुक्त मानी जा सकती ।। ही नायक के विभिन्न जन्म-जन्मान्तरों का भारतीय
है। भवप्रपञ्च क्या है ? और, भवप्रपञ्च कथा धर्म-दर्शन में वर्णित प्रमख जीव-योनियों का स्वरूप
कहने/लिखने का उददेश्य क्या है ? यह स्पष्ट करने विवेचन संस्कृत' भाषा के माध्यम से करते हुए,
के लिए भी पीठबंध की कथा-संयोजन-योजना को, यह भी निर्देशित किया है कि किन कर्मों के कारण
सिद्धर्षि का रचना-कौशल माना जा सकता है। किस योनि में जीवात्मा को भटकना पड़ता है, और 'उपमितिभवप्रपञ्च कथा' के विशाल कलेवर जन्म-जन्मान्तर रूप भव-भ्रमण से उबारने में किस में गुम्फित कथा का मूलस्वरूप निम्नलिखित संक्षेप ।
% 3EN
१ उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् ।
अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।।
-उपमितिभवप्रपंचकथा ।
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सार से अनुमानित किया जा सकता है। मेरुपर्वत से पूर्व में, महाविदेह क्ष ेत्र के अन्तर्गत 'सुकच्छ - विजय' नामक एक देश है। इसका राजा था'अनुसुन्दर' चक्रवर्ती । इसकी राजधानी थी - 'क्षेम पुर' । वृद्धावस्था के अन्तिम समय, वह अपना देश देखने की इच्छा से भ्रमण पर निकलता है । और किसी दिन 'शंखपुर' नगर के बाहर बने 'चित्तरम' नामक उद्यान के पास से गुजरता है ।
इस समय, चित्तरम उद्यान में बने 'मनोनन्दन' नामक चैत्य भवन में समन्तभद्राचार्य ठहरे हुए थे । प्रवर्तिनी - साध्वी 'महाभद्रा' उनके सामने बैठा थीं । 'सुललिता' नाम की राजकुमारी और 'पुण्डरीक' नाम का राजकुमार भी, इस सन्त-सभा में बैठे थे । अचानक ही रथों की गड़गड़ाहट और सेना का कोलाहल सुनकर सभी का ध्यान शोर की ओर आकृष्ट हो जाता है । उत्सुकता और जिज्ञासावश राजकुमारी, महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! यह कैसा कोलाहल है ?" महाभद्रा ने आचार्यश्री की ओर देखकर कहा - 'मुझे नहीं मालूम ।' किंतु, आचार्यश्री ने इस अवसर को राजकुमार और राजकुमारी को प्रबोध देने के लिए उपयुक्त समझते हुए, महाभद्रा से कहा- 'अरे महाभद्रे ! तुम्हें नहीं मालूम है कि हम सब इस समय 'मनुजगति' नामक प्रदेश के महाविदेह बाजार में बैठे हैं । आज एक चोर, चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया है । जिसे 'कर्म - परिणाम' महाराज ने अपनी प्रधान महारानी 'कालपरिणति' से परामर्श करके उसे मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है । 'दुष्टाशय' आदि दण्डपाकि उसे पीटते हुए वध-स्थल की ओर ले जा रहे हैं । आचार्यश्री की बात सुनकर, सुललिता आश्चर्य में पड़ जाती है । और पुनः महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! हम लोग तो शंखपुर के 'चित्तरम' उद्यान में बैठे हैं । यह 'मनुजगति' नगर
१ उपमितिभव प्रपंच कथा --- पीठबन्ध - श्लोक ६३ २ उपमितिभव प्रपंच कथा पृष्ठ- १३६
का 'महाविदेह - बाजार' कैसे हो भया ? यहाँ के महाराज 'श्रीगर्भ' हैं न कि कर्मपरिणाम ।' आचार्य श्री क्या कह रहे हैं यह सब ?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'धर्मशीले सुललिते ! तुम 'अगृहीत संकेता' हो । मेरी बात का अर्थ तुम नहीं समझ पायीं ।' सुललिता सोचती है- आचार्यश्री ने तो मेरा नाम भी बदल दिया । तभी, आचार्यश्री के कथन का आशय समझकर महाभद्रा निवेदन करती हैभगवन् । यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है क्या ?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'जब उसे तेरे दर्शन होंगे, और वह हमारे समक्ष उपस्थित होगा, उसकी मुक्ति हो जायेगी ।' महाभद्र ने पूछा - 'तो क्या मैं उसके सम्मुख जाऊँ ?' आचार्यश्री ने कहा - 'जाओ। इसमें दुविधा कहाँ है ?"
महाभद्रा उद्यान से निकलकर बाहर राजपथ पर आई और अनुसुन्दर चक्रवर्ती के निकट आने पर उससे बोली- 'भद्र ! सदागम की शरण स्वीकार करो ।'
साध्वी के दर्शन से अनुसुन्दर को 'स्वगोचर' (जाति / पूर्वजन्म - स्मरण) ज्ञान हो जाता है | 1 उसने आचार्यश्री द्वारा कही गई बात उनसे सुनी, और उनके साथ, आचार्यश्री के समक्ष आकर उपस्थित हो जाता है । वह आचार्यश्री को देखकर, सुख के अतिरेक से भर उठता है । 2 और अतिप्रसन्नता में मूच्छित होकर वहीं गिर पड़ता है । आचार्यश्री द्वारा प्रबोध देने पर वह सचेत होता है । राजकुमारी सुललिता, उससे चोरी के विषय में पूछती है । आचार्यश्री भी उसे अपना सारा वृत्तान्त सुनाने का आदेश देते हैं, तब अनुसुन्दर ने साध्वी के दर्शन से उत्पन्न पूर्वजन्म - स्मरण का सहारा लेकर अपनी भवप्रपञ्चकथा, तमाम उपमाओं के साथ सुनानी आरम्भ कर दी । ३
अनुसुन्दर की कथा सुनते-सुनते राजकुमार पुण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है । किन्तु, राजकुमारी ३ वही - पीठवन्ध, श्लोक ६६
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याजित हुए हैं, जिसे
। महाभद्रा और न तो इन्द्रियों की
सुललिता बार-बार कथा सुनकर भी प्रतिबुद्ध न इतनी प्रबल हो जाती है कि वह जन्म-जन्मान्तरों Air हुई, तब विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल तक उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं पाता। इससे
AII से बोध ही पाता है। प्रतिबुद्ध हो जाने से दोनों जीवात्माओं को जो यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, वे ॐ को आत्मबोध हो जाता है । और वे दोनों संसारा- अकल्पनीय ही होती हैं। इसी तरह की जीवा
वस्था को छोड़कर आर्हती-दीक्षा ग्रहण कर लेते त्माओं के जन्म-जन्मान्तरों की कथाएँ, हर प्रस्ताव हैं। कालान्तर में, उत्कृष्ट तपश्चरण के प्रभाव में संयोजित हैं। जिनके साथ, छाया की तरह, से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
कुछ ऐसे जीवन-चरित भी संयोजित हुए हैं, जिन्हें
न तो इन्द्रियों की शक्ति अपने अधीन बना पायी ___ इस सार-संक्षेप में आचार्यश्री महाभद्रा और
है, न ही हिंसा, चोरी-आदि दुराचारों के वशंवद सुललिता के कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि इस
. वे बन सके हैं। क्रोध, मान, माया जैसे प्रबल मानमहाकथा में रहस्यात्मकता का गुम्फन कितना सहज
वीय-विकारों का प्रभुत्व भी उन्हें पराजित नहीं और दुर्बोध है । इसी तरह के रहस्यात्मक प्रतीक
कर पाया। स्पष्ट है कि सिद्धर्षि ने इन कथाओं में कथाचित्रों की भरमार उपमितिभव प्रपञ्चकथा में
'अशुभ' और 'शुभ' परिणामी जीवों के कथानक, है। जो आठों प्रस्तावों में समाविष्ट, अनेकों अलग
साथ-साथ संजोये हैं इस महाकथा में । द्विविध अलग कथाओं को पढ़ने पर और अधिक गहरा
चरितों की यह संयोजना, सिद्धर्षि की कल्पना से बन जाता है । हिंसा, असत्य, चौर्य/अस्तेय, मैथुन
प्रसूत नहीं मानी जा सकती, क्योंकि, इस सबके और अपरिग्रह के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ
संयोजन में उनका गहन दार्शनिक अभिज्ञान, तथा मोह का आवेग जुड जाने पर स्पर्शन, रसना,
चिन्तन और अनुभव, आधारभूत कारक रहा है । घाण, श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों की अधीनता स्वी
जिसे उनके रचना-कौशल में देखकर, यह माना कार कर लेने से जो प्रतिकूल परिणाम जीवात्मा
जा सकता है कि सिद्धर्षि ने उन शाश्वत स्थितियों को भोगने पड़ते हैं, प्रायः उन समस्त परिणामों से
की विवेचना को है, जो जीवात्मा के अस्तित्व के जुड़ी अनेकों कथाएँ, इस महाकथा में अन्तर्भूत हैं।
साथ-साथ ही समुदभूत होती हैं। इसी द्विविधता इन कथाओं का घटनाक्रम भिन्न-भिन्न स्थानों पर
को, हम इस महाकथा के प्रारम्भ में उन दो ध्रुवभिन्न-भिन्न पारिवारिक-परिवेषों में, भिन्न-भिन्न
बिन्दुओं के रूप में देख सकते हैं, जिनसे महाकथा पात्रों के द्वारा घटित/वर्णित किया है सिद्धर्षि ने ।
का सूत्रपात होता है। इन बिन्दुओं की ओर, इस विभिन्नता को देखकर, सामान्य पाठक को यह सिषि ने 'कर्मपरिणाम' के अधीनस्थ दो सेनानिश्चय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इन पतियों-'पण्योदय' और 'पापोदय'-के कार्यक्षेत्रों अनेको कथा-नायकों में से मुख्यकथा का नायक का निर्धारण करके, इन दोनों की प्रवत्तियों का कौन हो सकता है ?
परिचय दे करके, पाठक का ध्यान आकृष्ट करना ___ वस्तुतः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र चाहा है । इन दोनों की क्रियापद्धति और अधिके माध्यम से संसार को, जीवात्मा न सिर्फ देखता कारों में मात्र यह अन्तर है कि 'पुण्योदय' के है, बल्कि उनसे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़कर कार्यक्षेत्र में जो जीवात्माएँ आ जाती हैं, उन्हें वह उसकी पुनः-पुनः आवृत्ति करता रहता है । फलतः, उन्नति की ओर अग्रसर करने के लिए प्रयासरत सांसारिक पदार्थों के विकारों की छाप, उस पर रहता है। जबकि, 'पापोदय' अपने अधिकार क्षेत्र
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१ वही-पीठबन्ध-श्लोक १७-१८ ३ वही-श्लोक ६५८-६६१
२ वही-पृष्ठ ७५२-५३
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में आई जीवात्माओं को पतित से पतिततम अव- ७४ तेरहवीं पंक्ति) इत्यादि पृष्ठों पर 'अस्मत्' शब्द स्थाओं में पहुंचाने की योजनाएँ बनाने में लगा का प्रयोग हुआ है। यह 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग, रहता है।
_____ अनुसुन्दर चक्रवर्ती के द्वारा किया गया है। जिससे आशय यह है कि उपमितिभव प्रपञ्चकथा की यह निश्चय होता है कि इस महाकथा का मुख्य कथाओं में द्वविध्य का समावेश, इस तरह हुआ नायक, वही है। जिन स्थलों पर 'एतत्' 'इदं' या है, कि कर्मबन्ध का 'आस्रव' जिन क्रिया कलापों से 'जीव' शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पर, उसका होता है, उनका, और 'संवर' की प्रक्रिया में सह- अर्थ सामान्य-जीवविषयक ही ग्रहण किया जाना योगी क्रियाकलापों का निर्देश, पाठक को साथ- चाहिए। जैसा कि 'एवमेष जीवो राजपुत्राद्यवसाथ उपलब्ध होता जाये। जिससे उन्हें यह अनु- स्थायां वर्तमानो बहुशो निष्प्रयोजनविकल्पं परम्परभव करने में कठिनाई न हो कि 'असद्-प्रवृत्ति' से याऽऽत्मानमाकुलयति' (पृष्ठ-३७ तृतीय पंक्ति), 'यदा जीवात्मा, कर्म-बन्धन में किस तरह जकड़ता है, खल्वेष जीवो नरपतिसुताद्यवस्थायामतिविशाल
और कर्म-बन्ध की इस स्थिति को, किस तरह की चित्ततया' (पृष्ठ वही पञ्चम पंक्ति), तथा 'ततोऽयमेव प्रवृत्तियों से बचाया जा सकता है। यह स्पष्ट जीवोऽनवाप्तकर्त्तव्यनिर्णयः' 'यदायं जीवो विदितज्ञात हो जाने पर ही जीवात्मा यह समझ पाता है प्रथम सुखास्वादो भवति' (पृष्ठ-६७, पंक्ति क्रमश: माल कि भवप्रपञ्च के विस्तार का यह मुख्य कारण प्रथम एवं सातवीं) आदि प्रसंगों में हुए शब्द प्रयोगों Ke 'कर्मबन्ध' है। 'कषाय' और 'इन्द्रियों की विषय से स्पष्ट है। प्रवृत्ति' ऐसे दुविकार हैं, जो भवप्रपञ्च रूपी वृक्ष इस महाकथा में वर्णित कथा-तथ्य, वस्तुतः र को हरा-भरा बनाये रखने में, मुख्य-जड़ों को जैन-धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित तत्त्व-विवेचना से भूमिका निभाते हैं। इस भवप्रपञ्च वृक्ष को ओत-प्रोत है। जीवधारियों का जन्म, उनके 5) उखाड़-फेंकने की शक्ति, पाठकों में आये, यही संस्कार और आचरण, जीवन, पद्धति, सोच-विचार का आशय, इस कथा का मुख्य लक्ष्य रहा है। की भावदशाएँ, साधना, और ध्यान आदि मोक्ष
किन्तु, इस द्विविधापूर्ण कथानक के हर प्रस्ताव पर्यन्त तक का समग्र चिन्तन-मनन, जैन धार्मिक/ K में जो कथानक आये हैं, उन्हें, पढ़कर भी यह भ्रम दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित है। कर्म, कर्म
बना ही रह जाता है कि मूलकथा का नायक कौन फल, कर्मफल-भोग और कर्मपरम्परा से मुक्ति, इन है ? यदि, पाठकवृन्द, थोड़ा सा भी सतर्क भाव से, समस्त प्रक्रियायों/दशाओं में जीव सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र इस विशाल कथा को पढ़ेंगे, तो वे देखेंगे कि मूल- है, जैनधर्म की यह मौलिक मान्यता है। जिस कथा नायक के संकेत पूरे ग्रन्थ में यत्र-तत्र मिलते तरह, कोई एक अस्त्र, व्यक्ति की जीवन-रक्षा में जाते हैं। कथा में बीच-बीच में कुछ शब्द/वाक्य, निमित्र बनता है, उसी तरह, उसके जीवन-विच्छेद इन संकेतों को स्पष्ट करते हैं। जैसे--'सराग- का भी कारण बन सकता है । अस्त्र के उपयोग की संयतानां भवत्येवायं जीवो हास्यस्थान' (पृष्ठ ३३ भूमिका, अस्त्रधारी के विवेक पर निर्भर होती है। प्रथम पंक्ति), 'तदेतदात्मीयजीवस्यात्यन्तविपरीत- ठीक इसी तरह जीवात्मा, अपने विवेक का प्रयों चारितामनुभवताऽभिहितं मया-योऽयं मदीयजीवो- भवप्रपञ्च के विस्तार के लिये करता है, या भकऽवधारित जात्यन्धभावोऽस्य' (पृष्ठ वही, पांचवी पंक्ति) प्रपञ्च को नष्ट करने में यह उसके विवेक पर 'मदीय जीवरोरोऽयं' (पृष्ठ-४३ दूसरी पंक्ति), 'परमे- निर्भर होता है। जैनधर्म/दर्शन के सारे के सारे श्वरावलोकनां मज्जीवे भवन्तों' (पृष्ठ-५३, अन्तिम सिद्धान्त 'विवेक-प्रयोग' पर ही निर्धारित किये गये पंक्ति), 'ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः' (पृष्ठ- हैं । यह, सर्वमान्य, सर्व-अनुभूत तथ्य है कि विवेक ५४, तीसरी पंक्ति), 'ततो यो जीवो मादृशः' (पृष्ठ- के प्रयोग की आवश्यकता तभी जान पड़ती है,
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जब, दो स्थितियों / विचारों में से किसी एक को चुनना हो । 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' में इसी आशय से द्विविधा - पूर्ण, भिन्न-भिन्न कथानकों को साथ-साथ समायोजित किया है सिद्धर्षि ने । इन कथाओं से, इनके पात्रों, परिस्थितियों और घटनाक्रमों को पुनः पुनः पढ़ने से, पाठक को अपने विवेक का प्रयोग, आत्मरक्षा / आत्मोन्नति के लिए कब करना है ? यह अभ्यास, भली-भाँति हो जायेगा । वस्तुतः जैनधर्म / दर्शन का यही अभिप्रेत है । इसी को सिद्धर्षि ने भी अपनी कथा का अभिप्रेत निश्चित करना उपयुक्त समझा ।
,
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' की सम्पूर्ण कथा 'सांसारिकता' और 'आध्यात्मिकता' के दो समानान्तर धरातलों पर से समुद्भूत हुई है । भौतिक धरातल पर चलने वाली कथा से सिर्फ यही स्पष्ट हो पाता है कि अनुसुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किन-किन परिस्थितियों में से होता हुआ मोक्ष के द्वार पर, कथा के अन्त में पहुँचता है। इन परिस्थितियों में उसके वैभव, समृद्धि, विलासिता आदि से जुड़े भौतिक सुखों का रसास्वादन भर पाठक कर पाता है । जब कि दीनता- दरिद्रता भरी विषम परिस्थितियों के चित्रण में उसके दुःख-दर्दों के प्रति, सहृदय पाठक के मन में बसी दयालुता द्रवित भर हो उठती है । ये दोनों ही भावदशाएँ, न तो पाठक के लिये श्र ेयस्कर मानी जा सकती हैं, न ही सिद्धर्षि के कथालेखन का लक्ष्य | बल्कि, सिद्धर्षि का आशय, स्पष्टतः यही जान पड़ता है कि जीवात्मा को जिन कारणों से दीन- पतित अवस्थाओं में जाना पड़ता है, उनका भावात्मक दृश्य, कथाओं के द्वारा पाठक
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के समक्ष उपस्थित करके, उसे यह ज्ञात करा दिया जाये कि सुख और दुःख का सर्जन, अन्तःकरणों की शुभ-अशुभमयी भावनाओं से होता है । यदि उसके चित्त की वृत्तियाँ उत्कृष्ट शुभराग से परिप्लुत हों, तो उच्चतम स्थान, स्वर्गं तक ही मिल पायेगा; और उत्कृष्ट - अशुभराग का समावेश चित्तवृत्तियों में होगा, तो अपकृष्टतम-नरक में उसे जाना पड़ सकता है । इस लिये, वह इन दोनों - शुभ-अशुभराग से अपने चित्त / अन्तःकरणों को प्रभावित न बनाये। ताकि उसे स्वर्ग / नरक से सम्बन्धित किसी भी भवप्रपञ्च में उलझना नहीं पड़ेगा | बल्कि, उस के लिये श्रयस्कर यही होगा कि उक्त दोनों प्रकार की वृत्तियों / परिस्थितियों के प्रति एक ऐसा माध्यस्थ्य / तटस्थ भाव अपने अन्तःकरण में जागृत करे जो उसे सभी प्रकार के भव-विस्तार से बचाये ! उसकी यही तटस्थता, उसमें उस विशुद्ध भाव की सर्जिका बन जायेगी, जिसके एक बार उत्पन्न हो जाने पर, हमेशा हमेशा के लिये, किसी भी योनि / भव में जाने का प्रसंग समाप्त हो जाता है । 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' अपने इस उद्देश्य तक पहुँचाने में, जिन-जिन पाठकों को समर्थ बना देती है, वस्तुतः उतने ही सन्दर्भों में सिद्धर्षि का विशाल - महाकथा लिखने का श्रम, सार्थक बनता है तथापि, युगीन सामाजिक परिवेष को देखते हुए, इसमें रह रहा कोई पाठक इस महाकथा के अध्ययन / पठन श्रवण से, उक्त लक्ष्य की ओर भाव बना लेता है, तो भी मेरी का ग्रन्थ-रचना का उपक्रम, सकेगा । इत्यलम् ॥
चिन्तन मनन का दृष्टि से, सिद्धर्षि सार्थक माना जा
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जैन संस्कृति और उसका अवदान -परम विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी म. की सुशिष्या
साध्वी गरिमा, एम. ए.
-
Q9
विश्व में अनेकानेक संस्कृतियाँ हैं। जब से लिये प्रेरणा देती है, वह इस दिशा में मार्ग निर्मित मनुष्य ने सामुदायिक जीवन आरम्भ किया और करती है और उसके अनुसरण के लिये भी मनुष्य परस्पर व्यवहार को आधार-भूमि बनने लगी, तभी को शक्ति प्रदान करती है। प्रत्येक व्यक्ति के पारसे आचरण संबंधी कतिपय आदर्शों ने आकार स्परिक व्यवहार को आदर्श रूप देने, उसे नियमित ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था और देश-काला- और नियन्त्रित करने की भूमिका का निर्वाह भी नुसार उसमें परिवर्तन-परिवर्धन भी होते रहे। संस्कृति द्वारा होता है। उच्च मानवीय आदर्शों इस प्रकार संस्कृति का अस्तित्व बना । परिस्थिति- को रूपायित कर संस्कृति मनुष्य ही नहीं प्राणिभिन्नता के कारण विश्व के विभिन्न भू-भागों में मात्र के कल्याण में लगी रहती हैं। जीवन को भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृतियों का प्रचलन हो आदर्श रूप में ढालने का साँचा संस्कृति है । मनुगया। इन अनेक संस्कृतियों में जैन संस्कृति को ष्यत्व तो देवत्व एवं असुरत्व का समन्वय होता अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका आधारभूत है। कभी उसका एक लक्षण जागृत रहता है और कारण यह है कि किसी भी संस्कृति के लिए जो अन्य सुप्त रहता है, कभी यह क्रम विलोम हो अनिवार्य अपेक्षाएं हैं, उनकी पूर्ति जैन संस्कृति द्वारा जाता है। इस आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन बखूबी हो जाती है । अर्थात् संस्कृति के वांछित स्वरूप होता है कि वह भला है अथवा बुरा । देवत्व की
से जैन संस्कृति सर्वथा संपन्न है । व्यापक दृष्टिकोण कल्पना श्रेष्ठ मानवीय व्यवहारों, गुणों और " को अपनाते हुए यदि संस्कृति के समग्र स्वरूप को लक्षणों के समुच्चय के रूप में की जा सकती है। ।
सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत करना हो, तो यह कहना इसके विपरीत मनुष्य की दुर्जनता, उसकी कुप्रवृहोगा कि-संस्कृति आदर्श जीवन जीने की एक त्तियाँ ही असूरत्व का स्वरूप हैं। सज्जनों में कला है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और देवत्व का प्राचुर्य और असुरत्व नाम मात्र को ही तदनुसार उसके जीवन का एक रूप व्यक्तिगत है होता है । संस्कृति व्यक्ति के इसी प्रकार के व्यक्तिऔर दूसरा रूप सामाजिक अथवा सामुदायिक है। त्व को संवारती है। देवत्व के भाग को अधिकाव्यक्ति के जीवन के ये दो पक्ष हैं। इस प्रकार यदि धिक विकसित करने और असुरत्व को घटाकर मनुष्य अपने ही जीवन को शान्तिमय और सुखपूर्ण न्यूनतम बना देने की अति महत्वपूर्ण भूमिका बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहता है, तो उसका संस्कृति द्वारा ही निभायी जाती है। संस्कृति इस जीवन-साफल्य आंशिक होगा। पूर्ण सफलता तभी प्रकार मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाती हैस्वीकार की जा सकेगी जब मनुष्य जाति, समाज, उसे मनुष्यता से सम्पन्न करती है। यह मनुष्य का देश, विश्व की शान्ति व सुख के लिये सचेष्ट हो। संस्कार करना है, जो संस्कृति द्वारा पूर्ण होता है । , संस्कृति इस प्रकार के सम्पूर्णतः सफल जीवन के मानवाकृति की देह मात्र मनुष्य नहीं है। इसके
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लिये मानवोचित आदर्श, सद्गुण, व्यवहार और में रही हैं, यथा-वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृलक्षणों की अनिवार्य अपेक्षा रहती है, जो उसे तियाँ । ये पृथक-पृथक सांस्कृतिक धाराएँ रही हैं । अन्य प्राणियों से भिन्न और उच्चतर स्थान प्रदान इस प्रकार से यह भी कथनीय है कि वेद दान के, करते हैं, उसे 'अशरफुल मखलुकात' बनाते हैं। बौद्ध दया के और जिन दमन के प्रतीक हो गये हैं। ___मनुष्य की मेधा क्रमिक रूप से विकसित होती मनोविकारों का दमन कर उन पर विजय स्थापित रही और परिस्थितियाँ भी युगानुयुग परिवर्तित करने वाला जिन है और जिन की संस्कृति ही जैन होती रहीं। तदनुरूप ही संस्कृति के स्वरूप में भी संस्कृति है। इस सूत्र के सहारे जैन संस्कृति के ॥ विकास होता रहा । संस्कृति के इस सतत विकाश- तत्त्वा को समझना सुगम है। शील रूप के कारण उसे किसी काल विशेष की भारतीय संस्कृति में प्रमुखतः दो धाराएँ रही उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं होगा, तथापि जैन हैं जिन्हें ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति के हैं संस्कृति के विषय में यह कथन असंगत न होगा कि नाम से जाना जाता है। ब्राह्मण संस्कृति के आधार यह अतिप्राचीन और अति लोकप्रिय है। मानव वेद और श्रमण संस्कृति के आधार जिनोपदेश रहे मात्र में मानवता जगाने की अद्वितीय क्षमता के हैं। श्रमण संस्कृति निवृत्तिमूलक है, जबकि ब्राह्मण कारण उसकी महत्ता सर्वोपरि है और इसे संस्कृ- संस्कृति प्रवृत्तिमूलक है । यही कारण है कि इन तियों के समूह में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जैन दोनों संस्कृतियों में यह एक मौलिक अन्तर लक्षित संस्कृति ने अपने स्वरूप को इतनी व्यापकता दी है, होता है कि जहाँ ब्राह्मण संस्कृति में भोग का स्वर ? इतनी उदारता दी है कि अन्यान्य संस्कृतियों को है वहाँ श्रमण संस्कृति में योग और संयम का ही। इससे प्रेरणा लेने का समुचित अवसर मिला। प्राचुर्य है । ब्राह्मण संस्कृति में विस्तार की प्रवृत्ति वस्ततः विश्व संस्कृति के पक्ष में जैन संस्कृति की है और इसके विपरीत श्रमण संस्कृति में संयम मूल्यवान देन रही है।
और अन्तर्दृष्टि की प्रबलता है। ब्राह्मण संस्कृति ____ भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृतियों में अब व्यक्ति को स्वर्गीय सुखों के प्रति लोलुप बनाती है, | भी आदरणीय स्थान है। यह प्राचीनतम है और भोगोन्मुख बनाती है, जबकि श्रमण संस्कृति मोक्षो-हूँ अजस्र रूप से प्रवाहित धारा है। इसका प्रवाह न्मुख और विरक्त बनाती है। यहाँ यह विशेष रूप कभी खण्डित नहीं हुआ। कुछ विद्वानों ने 'भारत' से ध्यातव्य है कि मानव-जीवन का परम लक्ष्य शब्द का विश्लेषण इस प्रकार भी किया है कि भा' मोक्ष की प्राप्ति ही है और लक्ष्य की प्राप्ति में * का अर्थ प्रकाश है और भारत का अर्थ प्रकाश में श्रमण संस्कृति ही सहायक होती है।
बाले जनों के ससदाय से लिया गया है। मानवोचित श्रेष्ठ संस्कारों को स्थापित करने । प्रकाश में रत रहने के संस्कारों का उदय भारतीय वाली जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाना संस्कृति की प्रवृत्ति रही है । इस संस्कार-सम्पन्नता सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है । श्रमण शब्द के मूल । के लिए उपनिषदानुसार ३ सूत्र हैं-दया, दान में 'श्रम' 'शम' और 'सम' के तात्पर्यों को स्वीकार और दमन (मन व इन्द्रियों का निग्रह)। किया जा सकता है। यह संस्कृति 'श्रम' प्रतीक संक्षेप में यही भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप द्वारा मनुष्य को उद्यमी बनाती है। इसका सन्देश | कहा जा सकता है। यही भारतीय संस्कृति की है कि मनुष्य स्वयं ही आत्म-निर्माता है। उसका एकरूपात्मकता है, अन्यथा इस देश में इस मौलिक हिताहित किसी अन्य की अनुकम्पा पर नहीं, स्वयं स्वरूप का वहन करती हुई कतिपय अन्य, परस्पर उसी के प्रयत्नों पर आधारित है, वह आत्म निर्माता भिन्न (अन्य प्रसंगों में) संस्कृतियाँ एकाधिक रूप है। आत्म-कल्याण को महत्ता देने वाली श्रमण
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संस्कृति मनुष्यों को ही यह गौरव प्रदान करती है संस्कृति मनुष्य के जीवन को ऐसा सार्थक रूप देने कि वह अपने कल्याण की क्षमता स्वयं ही रखता का महान कार्य भी सम्पादित करती है। है । मनुष्य को यह संस्कृति आत्म-गौरव से दीप्त अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है। मन, वचन और स्वावलम्बी बनाती है। उसे पुरुषार्थी बनाती और काया से किसी जीव का घात न करना है, ईश्वराधीन शिथिल और श्लथ नहीं बनाती। अहिंसा के माध्यम से हमें जैन संस्कृति ने ही यह मनुष्य को किसी के चरणों का दास और दीन सिखाया है। यह तो यहां तक निर्देश करती है कि हीन बनने की प्रेरणा नहीं देती। विशेषता यह भी स्वयं किसी का प्राणघात करना मात्र ही नहीं, है कि इस परुषार्थ का प्रयोग आत्म-विकास के अपित दसरों को ऐसा करने की प्रेरणा देना, उसे लिए सुझाया गया है । आत्मा के उत्कर्ष के लिए
लिए सहायता देना भी हिंसा है । यह भी अनुपयुक्त है । है। राग-द्वेषादि सर्व कषायों का शमन अमोघ उपाय यही क्यों किसी हिंसा का समर्थन करना भी हिंसा के रूप में श्रमण संस्कृति ने ही सुझाया है। श्रम
ही है । यह संस्कृति हिंसा के रंचमात्र प्रभाव को को सार्थक बनाने के लिए इस प्रकार 'शम' अभि
भी निंद्य मानती है। मन में किसी का अहित प्रेत रहता है । सम का सन्देश भी समत्व के रूप
सोचना, वचन से किसी के मन को ठेस पहुँचाने में श्रमण संस्कृति द्वारा ही प्रदान किया गया है।
जैसे कर्म भी हिंसा की परिधि में ले आने वाली यह तात्पर्य भो इस संस्कृति को अत्युच्चासन पर
यह जैन संस्कृति वस्तुतः मनुष्य को देवत्व-सम्पन्न अवस्थित करता है । व्यक्ति अन्य सभी प्राणियों
बनाने में सर्वथा सक्षम है। क्या यह संस्कृति मनुष्य को आत्मवत् ही स्वीकार करे यह समत्व है।
को प्राणघात न करने आदि जैसे निषेधात्मक मनुष्य यह अनुभव करे कि जैसा मैं हूँ वैसे ही अन्य
निर्देश ही देती है ? नहीं, ऐसा नहीं है। यह तो सभी हैं। जिन कारणों से मझे सख अथवा दःख
मनुष्य को संकटापन्न प्राणियों की रक्षा करने की If का अनुभव होता है, वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ ही घटित होता है । इस आधार के सहारे मनुष्य
- प्रेरणा भी देती है। विधि-निषेधयुक्त अहिंसा जैन के मन में यह सस्कृति दूसरों के प्रति ऐसे व्यवहार सस्कृति के लिए एक गौरवपूर्ण तत्व है। की प्रेरणा जगाती है, जैसा व्यवहार वह दसरों अनेकान्त दृष्टि भी जैन संस्कृति की अत्यन्त द्वारा अपने प्रति चाहता है । इसके अतिरिक्त अन्य उपयोगी देन है। समाज में अनेक विचारधाराओं सभी को अपने समान समझने के कारण मनष्य का अस्तित्व अति स्वाभाविक है और विभिन्न
स्वयं को अन्यों से उच्च समझने के दर्द से भी बच विचारधाराओं के अनुयायी अपने ही पक्ष में Ajl जाता है और अन्यों से निम्न समझने के हीनत्व से श्रेष्ठता का अनुभव करें-यह भी वहुत स्वाभा
भी बच जाता है । उसके लिए सभी समान हैं-न विक है। ऐसी स्थिति में एक मत वाले अन्य मतों कोई उच्च है न नीच । वर्गविहीन समाजनिर्माण की को हीन दृष्टि से देखने लगते हैं, उनकी वे निन्दा दिशा में ऐसी संस्कृति की महती भूमिका को नकारा करते हैं और उनके दोषों को उजागर करने से नहीं जा सकता। इसी प्रकार समभाव व्यक्ति में उन्हें संतोष का अनुभव होता है। इसी प्रकार वे अहिंसा का व्यापक भाव भी सक्रिय कर देता है । यह अपने मत के प्रति श्रेष्ठ जनधारणा का निर्माण संस्कृति मनुष्य को सिखाती है कि उसे किसी के करना चाहते हैं। यह सारी की सारी प्रवृत्ति प्राणापहरण का कोई अधिकार नहीं है। किसी के दूषित और घातक हो जाती है। इस प्रवृत्ति से मन को कष्ट पहुँचाना भी उसके लिए उपयुक्त ऐक्य खण्डित हो जाता है और समाज अनेक वर्गों नहीं। व्यक्ति इसी प्रकार तो सभी की सुख-शान्ति में विभक्त हो जाता है। इन विभिन्न वर्गों के बीच के लिए सचेष्ट रहता हुआ जी सकता है । श्रमण भीषण संघर्ष की स्थिति रहती है। परिणामतः
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समाज घोर अशान्ति का घर बनकर रह जाता है । अपने आग्रह का मंडन और अन्यों के आग्रह का खण्डन करने को प्रवृत्ति ही इस सामाजिक संकट का कारण होती है । ऐसी विकट समस्या का समाधान अनेकान्त दर्शन के माध्यम से जैन संकृति प्रस्तुत करती है । अनेकान्त हमें सिखाता है कि अपने आग्रह को सत्य मानने के साथ-साथ अन्य - 'जनों ने आग्रह में 'भी' सत्य की उपस्थिति स्वीकार करनी चाहिये। तभी हम पूर्ण सत्य के निकट रहेंगे। किसी एक दृष्टिकोण से हमारी धारणा यदि सत्य है तो किन्हीं अन्य दृष्टिकोणों से, अन्य अपेक्षाओं से अन्य जनों की धारणा भी सत्य ही होगी और इन सभी के समन्वय से ही पूर्ण सत्य का कोई स्वरूप प्रकट हो सकता है | अन्यथा एकान्त रूप से पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण तो सत्य के एक-एक अंश ही होंगे । यह समन्वयशीलता की प्रवृत्ति जैन संस्कृति की ऐसी देन है जिसमें पारस्परिक विरोध संघर्ष की स्थिति को समाप्त कर देने की अचूक शक्ति है । अनेकान्त दृष्टि समाज को शान्ति, एकता और सहिष्णुता की स्थापना करने में सर्वथा सफल रह सकती है । आज वैचारिक वैमनस्य के युग में इस सिद्धान्त की भूमिका अत्यन्त उपयोगी एवं सार्थक सिद्ध हो सकती है । वर्ग वर्ग, प्रदेश-प्रदेश और देश देश के दृष्टिकोणों का समन्वय सारे देश में और विश्व भर में शान्ति की स्थापना कर सकता है । समस्याओं के समाधान में यह औषधि अचूक सिद्ध होगी ।
जैन संस्कृति अनासक्ति का मूल्यवान सन्देश भी देती है । यह मनुष्य को सिखाती है कि जाग तिक वैभव नश्वर, अवास्तविक और सुख की मात्र प्रतीति कराने वाला हो होता है । ये तथाकथित सुख अन्ततः दुःख के द्वार खोलकर स्वयं अदृश्य हो जाते हैं । अतः मनुष्य को सुख के इन छलावों से बचकर अनासक्त हो जाना चाहिये और वास्तविक सुख, अनन्त सुख -मोक्ष को लक्ष्य मानना चाहिए । इस अनन्त सुख को प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य
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को अपने पुरुषार्थ का प्रयोग करना चाहिए । इस सन्देश से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी लालसा पर अंकुश लगाता है, भौतिक सुखों के प्रति विकर्षित होकर मनुष्य आत्म-संतोषी हो जाता है । भौतिक समृद्धि की दौड़ में उसकी रुचि नहीं रह जाती और संतोष सागर की शान्ति लहरियों में 'वह सुखपूर्वक विहार करने लगता है ।
इसी प्रकार जैन संस्कृति मनुष्य को संयम और आत्मानुशासन के पुनीत मार्ग पर भी आरूढ़ करती है । अचौर्य और सत्य के सिद्धान्तों की प्रेरणा देने वाली यह संस्कृति अपरिग्रह का मार्ग खोलती है । योग्य ही साधन-सुविधाएं प्राप्त करनी चाहिए । मनुष्य को अपनी न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति के इससे अधिक संग्रह करना इस संस्कृति के अध अनोति है । जो इस अनीति का अनुसरण करता है वह अन्य अनेक जनों को सुख-सुविधा प्राप्त करने
के अधिकार से वंचित कर देने का भारी पाप करता है । मनुष्य की यह दुष्प्रवृत्ति समाज के लिए बड़ी घातक सिद्ध होती है। सुख-सुविधा के साधन कुछ ही लोगों के पास प्रचुरता साथ हो जाते हैं और शेष सभी दीन-हीन और दुःखी रहते हैं । यह आर्थिक वैषम्य घोर सामाजिक अन्याय है जो समाज में शान्ति और सौमनस्य का विनाश कर असन्तोष, घृणा, कलह, रोष, चिन्ता और प्रतिशोध जैसे विकारों को अभिवर्धित करता है । मनुष्य की इससे बढ़कर दानवता और क्या होगी कि दूसरों को न्यूनतम सुखों से भी वंचित रखकर वह अनन्त सुख सागर में विहार करता रहे । यह प्रवृत्ति स्वयं ऐसे अनीतिकारी व्यक्ति के लिए भी कम घातक नहीं रहती । उसके मन में अधिक से अधिक प्राप्त करते रहने की असमाप्य तृष्णा का साम्राज्य हो जाता है। जो कुछ उसे प्राप्त हो जाता है - चाहे वह बहुत कुछ ही क्यों न हो - उसे उससे सन्तोष नहीं होता । लोभ उसके मन को शान्त नहीं रहने देता । घोर अशान्ति की ज्वाला में उसका मानस दग्ध होता रहता है ।
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अभिलाषाओं के ज्वार में उसका चित्त डूबकर दम• सम्पदा से सम्पन्न करने का श्रेय जैन संस्कृति को
घोंटू वातावरण का अनुभव करने लगता है। अ- ही मिलता है। all सन्तुष्ट होकर ऐसा व्यक्ति दौड़-धूप में ऐसा व्यस्त करुणा-क्षमाशीलता का औदार्य जैन संस्कृति ५, हो जाता है कि सारे सुख उससे छिन जाते हैं। की अमूल्य देन है। मनुष्य की मनुष्यता का सार । वह सम्पन्न दुखी होकर रह जाता है। फिर लोभ, करुणाशीलता में जितना सन्निहित रहता है, उतना
अधिक से अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा उससे कदाचित किसी अन्य मानवीय गूण में नहीं । प्राणी कुछ भी करवा सकती है । अहिसा के मार्ग से वह के कष्ट को देखकर जो द्रवित न हो जाय उस च्यूत हो जाता है, वह घोर अनादर्शों और अनी- मनुष्य की मनुष्यता की सर्वांगता संदिग्ध ही कही तियों के विकट वन में आँधियों की भाँति हहराता जाएगी। दुखी जनों की सहायता हमारा परम ही रह जाता है । और इस प्रकार वह अपना और कर्तव्य है और इस कर्तव्य के निर्वाह के लिए बाह्य अन्यों का जीना दूभर कर बैठता है । ऐसी स्थिति आदेश या दबाव सफल नहीं हो सकता। इसके में जैन संस्कृति अपरिग्रह के सन्देश द्वारा कितना लिए तो अन्तःप्रेरणा ही सहायक रह सकती है। उपकार करती है।
हम दूसरों के कष्ट-निवारण में तभी सहायक हो जैन संस्कृति कर्म सिद्धान्त की प्रतिष्ठा कर यह सकते हैं जब उनके प्रति हमारे मन में सहानुभूति व्याख्या भी करती है कि मनुष्य को अपने कर्मो के हो, करुणा हो । मानव-मन में इस महती करुणा ||
अवश्य मिलते हैं। और यह प्रतिपादन भी इस को अंकुरित और पल्लवित करने की अद्भुत क्षमता संस्कृति द्वारा भलीभाँति हो जाता है कि फल सदा जैन संस्कृति में है । यह ऐसा गुण है, जो अहिंसा कर्मानुसार ही होता है । शुभकर्मों के फल सदा शुभ जैसे अन्य औदार्यों के लिए भी हमें सहजतः प्रेरित ही होंगे और अशुभकर्मों के फल कदापि शुभ नहीं करता है। मनुष्य सब प्राणियों के प्रति बन्धुत्व और होंगे । स्वभावतः मनुष्य शुभफलाकांक्षी हो होता स्नेह का नाता रखे, उनके प्रति हितषिता का भाव | | है और यह संस्कृति उसे ऐसी दशा में शुभकर्मों के हो-मानवता के लिए यह एक अनिवार्य तत्त्व है। IAS
प्रति रुचिशील बना देती है। विश्व मानवता पर इस संस्कृति का यह उपकार कम नहीं कहा जा क्षमा एक ऐसा गुण है जिसे अपना लेने सकता है । यह संस्कृति मनुष्य को भाग्यवादी नहीं पर वह मनुष्य अपने लिए किसी व्यक्ति को शत्रुरूप बनने देती है । यह तो यही सिखाती है कि मनुष्य में स्वीकार कर ही नहीं पाता। हमारे प्रति किये स्वयं ही अपने भविष्य का निर्माता है । वह जैसा गये अपकारों से तटस्थ होकर हम अपने अपराधियों आज करेगा उसी के अनुरूप उसका कल होगा ! को क्षमा कर दें, उनके साथ वैमनस्य के भाव को इस प्रकार यह संस्कृति मनुष्य को 'अजगर करै न विस्मृत कर दें-इसी में हमारी समग्र मानवता के चाकरी, पंछी कर न काम' जैसा बन जाने से बचा दर्शन होंगे। हमारे हितैषियों के प्रति हम भी लेती है।
हितैषी रहें-इसमें कोई विशेषता नहीं है। जैन ___ मनुष्य को यह उद्यमी बनने की प्रेरणा संस्कृति तो हमें जिस अद्भुत गौरव से मन्डित 412 देती है और इस आत्म-विश्वास से भी उसे सम्पन्न करना चाहती है, वह हमारे इस गुण में निवास कर देती है कि वह कल क्या बनेगा-यह स्वयं करता है कि हम समत्व से सम्पन्न होकर शत्र - उसी के हाथ को बात है । अपने भविष्य की रूप- मित्र का भेद करना भूल जायें । सभी को हम मित्र रेखा भी वह बना सकता है और उसे क्रियान्वित मानें और सभी के लिए हमारे मन में हितैषिता भी वह स्वयं ही कर सकता है। मनुष्य को इस का भाव हो । हमारा मन इस प्रकार रोष, प्रति
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शोध, हिसादि विकारों से सुरक्षित हो जाता है । दूसरे पक्ष को भी जब कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ दुर्बल हो जाती हैं, उसके मन में प्रायश्चित्त का भाव उदित होता है, उसका संशोधन आरम्भ हो जाता है । क्षमाशीलता का ऐसा अद्भुत प्रभाव है और इस प्रभाव का उपयोग करते हुए श्रमण संस्कृति मानव मात्र को मैत्री, बन्धुत्व, साहचर्य और सहानुभूति की उदात्तता से विभूषित करती है ।
'जीओ और जीने दो' - मनुष्य के लिए एक सुन्दर आदर्श है, किन्तु जैन सांस्कृतिक दृष्टि इसमें किसी असाधारणता को नहीं देखती । 'जीने दो'का भाव यही है कि उसके जीने में किसी प्रकार का व्यवधान प्रस्तुत न करो । यह निषेधमूलक निर्देश भी प्रशंसनीय अवश्य है, किन्तु यह अपूर्ण भी है । केवल बाधा न डालने मात्र से ही दूसरों के जीने में हम सहायक नहीं हो सकते । हमारा कर्तव्य तो यह भी है कि दूसरों के जीवन को हम सुगम बना दें, दूसरों को जीने के लिए हम सहायता भी करें । मनुष्य के समुदाय में रहने की इतनी उपादेयता तो होनी ही चाहिये । जनसेवा और मानवमैत्री के इन पुनीत आदर्शों के कारण जैन संस्कृति
गौरव में अभिवृद्धि हुई है। भगवान महावीर का यह सन्देश भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन-दुखियों की सेवा करना अधिक श्रेयस्कर है । मेरी भक्ति करने वालों पर, माला फेरने वालों पर मैं प्रसन्न नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्न उन लोगों पर हूँ, जो मेरे आदेश का पालन करते हैं । और मेरा आदेश यह है कि प्राणिमात्र को साता समाधि पहुँचाओ ।
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निश्चित ही जंन संस्कृति एक महान संस्कृति है और उसकी उपलब्धियाँ मानव समाज को श्रेष्ठ स्वरूप प्रदान करने में कम नहीं हैं । मानवाकृति का देह धारण करने वाले प्राणी को सच्ची मनुष्यता के सद्गुणों से मनुष्य बना देने की भूमिका में श्रमण संस्कृति को अनुपम सफलता मिली है । श्रमण संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों की ही भाँति विकासमान रही है । युगीन परिस्थितियों के अनुरूप इसमें परिवर्तन होते ही रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे । इन परिवर्तनों के प्रभाव दो रूपों में प्रकट हो सकते हैं । एक तो यह कि संस्कृति के विद्यमान स्वरूप में कुछ नवीन पार्श्व जुड़ते शुभ रहें और उसकी गरिमा बढ़ती रहे । इस प्रकार तो किसी भी संस्कृति की क्षमता और मूल्य में अभिवृद्धि ही होती है । किन्तु परिवर्तन का जो दूसरा रूप संभावित है, उसके प्रति भी हमें सावधान रहना चाहिये । समय स्वयं सभी वस्तुओं और विचारों को परिवर्तित करता रहता है। उच्च भव्य प्रासाद समय द्वारा ही खण्डहर कर दिये जाते हैं । समय जहाँ कच्चे फलों को पकाकर सरस और सुस्वातु बना देता है, वहाँ यही समय उन फलों को दूषित और विकृत भी कर देता है। फल सड़-गल जाते हैं । समय व्यतीत होते रहने के साथ ही कलियाँ खिलकर शुरम्य पुष्प हो जाती हैं और यह समय पुष्पों को रूपहीन और अनाकर्षक भी बना देता है । समय ने हो श्रमण संस्कृति को इतना उदात्त और इतना महान स्वरूप प्रदान किया है । अब हमारे सामने एक गुरुतर दायित्व है । हमें प्रयत्नपूर्वक इस संस्कृति की श्रीवृद्धि करनी होगी !
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जैनाचार का प्राण : अहिंसा ___-विदुषी साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी को सुशिष्या ।
साध्वी अनुपमा (एम. ए.)
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अहिंसा और उसका स्वरूप
'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' ___ अहिंसा परमधर्म है। यह जैनधर्माचार के लिए
यह 'सर्वप्राणातिपातविरति' की ऐसी प्रतिज्ञा तो पणती । समाचार का विशाल पासाट है, जो मनुण्य का अहसा-महाव्रता' आर जाव I अहिंसा की दृढ़ नींव पर ही आश्वस्तता के साथ
मात्र का रक्षक बना देती है। वह किसी की भी आधारित है। अहिंसा मानव की सुख-शान्ति की ।
हिंसा नहीं करने का संकल्प धारण कर, उसका
दृढ़ता के साथ पालन करता है। परिणामतः वह जननी है। मानव और दानव में अन्तर ही हिंसा23 अहिंसा का है। मानव ज्यों-ज्यों हिंसक बनता
न केवल अन्य जनों की सुख-सृष्टि में योगदान है
करता है, अपितु स्वयं अपने लिए भी अद्भुत सुख चला जाता है वह दानवता के समीप होता चला M जाता है और दानव ज्यों-ज्यों हिंसा का परित्याग
की रचना कर लेता है। उसकी आत्मा राग
द्वषादि सर्व कल्मष एवं दुर्भावों से मुक्त होकर शुद्ध Sil करता है, वह मानवता के समीप आता जाता है।
तथा शान्त रहती है, आत्मतोष के अमित सागर अहिंसा वह नैतिक मार्ग है जिसका अनुसरण व्यक्ति
में निमग्न रहती है । अहिंसाव्रती के लिए यह एक को यथार्थ मानवता के गौरव से विभूषित करता
संयम है और यही अन्य जन के लिए दया और है । अहिंसा का सिद्धान्त व्यापक प्रभावकारी है।
रक्षा का भाव है। कदाचित् इसी भाव-श्लेष के | अतः अहिंसाव्रतधारी में स्वतः ही अनेकानेक गुण
कारण भगवान महावीर ने रक्षा, दया, सर्वभूत विकसित होते चले जाते हैं और उसके भीतर की
क्षेमंकरी आदि का प्रयोग 'अहिंसा' के पर्याय रूप xar मानवीयता पुष्ट होती रहती है। अहिंसा एक
में किया है । एक चिन्तक ने लिखा हैऐसा मानवीय दृष्टिकोण है, जो उसे असाधारण आत्मिक सुख की अनुभूति कराता है। यही सुख
___ "अहिंसा आत्मनिष्ठ है, आत्मा से उपजती है ।
और समानता की भावना से पुष्ट होती है । हिंसा उसका चरम लक्ष्य होता है।
की भावना से निवृत्त होने के पीछे अपने अनिष्ट वस्तुतः अहिंसा की विराट भूमिका व्यक्ति के की आशंका अधिक काम करती है । हिंसा से अपना मा मानस को ऐसा विस्तार प्रदान करती है कि वह पतन नहीं होता हो, तो शायद ही कोई अहिंसा का
सहज ही सृष्टि के समस्त प्राणियों को आत्मवत् की बात सोचे ।" स्वीकार करने लगता है। वह सभी का हितैषी यह पृथ्वी ग्रह नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं हो जाता है और किसी की हानि करने की का एक अद्भुत समुच्चय है। विविध रंग-रूप, कल्पना से भी वह दूर"""""बहुत दूर हो आकार-आकृति, गुण-धर्मादि के धारक होने के || जाता है।
कारण ये समस्त प्राणी वैभिन्न्ययुक्त एवं अनेक IDS
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बर्गों में विभक्त हैं। बाह्य और प्रत्यक्ष ज्ञान के सुखाकांक्षा आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। श्रमण आधार पर यह वैभिन्न्य स्वीकार करना ही पड़ता भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को उपदेश देते है, किन्तु यह एक स्थूल सत्य है। इसके अतिरिक्त हुए कहा थाएक सूक्ष्म सत्य और भी है। यह एक महत्त्वपूर्ण "सभी आत्माएँ सुख चाहती हैं। अतः सृष्टि तथ्य है कि विभिन्न प्राणी-वर्गों के घोर असाम्य के के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझो। किसी के समानान्तर रूप में एक अमिट साम्य भी है । सभी लिए ऐसा कार्य मत करो, जो तुम्हारे लिए कष्टप्राणी सचेतन हैं, सभी में आत्मा का निवास है। कारी हो।" यह आत्मा सभी में एक सी है । आत्मा की दृष्टि एक अन्य अवसर पर भगवान ने अपने उपदेश । से सभी प्राणी एक से हैं। उदाहरणार्थ, मनुष्य में इस सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना की थी। अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई गुना अधिक सशक्त उनका कथन था कि- “दूसरों से तुम जैसा एवं विवेकशील है, तथापि आत्मा की दृष्टि से व्यवहार अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार
उसका स्थान भी अन्य प्राणियों के समकक्ष ही है। तुम भी दूसरों के साथ करो।" उन्होंने यह भी cा मनुष्य की कोई अन्य श्रेणी नहीं है। सचेतनता कहा कि "जिस दिन तुम अपनी और दूसरों की
का धर्म मनुष्य का भी है और अन्य प्राणियों का आत्मा के मध्य भेद को विस्मत कर दोगे-उसी भी। यह चैतन्य जीव-वर्ग में ऐसा व्याप्त है कि दिन तुम्हारी अहिंसा की साधना भी सफल हो इसी आधार पर जीवों को शेष अजीवों से पृथक जायगी। अपने प्राणों की सुरक्षा चाहने वालों का करके पहचाना जा सकता है। सुख-दुःखादि की यह कर्त्तव्य भी है कि वे दूसरों के जीवन-रक्षा अनुभूति चैतन्य का ही परिणाम है । ये अनुभूतियाँ सम्बन्धी अधिकार को भी मान्यता दें । यह अहिंसा प्राणियों के लिए ही हैं, निर्जीव, जड़ पदार्थों के का मूल मन्त्र है।" लिए नहीं, क्योंकि वे चेतनाहीन होते हैं।
भगवान का अहिंसा सम्बन्धी यह उपदेश मात्र
वाचिक ही नहीं था। उनका समग्र जीवन ही मूर्ति- । ___ समस्त सदेतन जीव दुःख से बचना चाहते हैं
__ मन्त अहिंसा का रूप हो गया है। उन्हें नाना विध और सुखमय जीवन की कामना करते
कष्ट दिये गये, किन्तु धैर्य और क्षमाशीलता के र प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक लक्ष्य होता है और
साथ वे उन सभी को सहन करते रहे । प्रत्याक्रमण सुख प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधक परिस्थि
का कोई भाव भी उनके मन में कभी उदित नहीं तियाँ दुःखानुभव का कारण बनती हैं । जिस प्रकार यह सत्य है कि आत्मा की दृष्टि से सभी आत्माएं
हुआ । अहिंसा की विकटतम कसौटियों पर वे इसी /
कारण सफल रहे कि वे सदा यह स्वीकार । समान हैं, सचेतनतावश सभी को सुख-दुःखादि का ,
करते थे कि जैसा मैं हैं, वैसे ही सभी हैं। अनुभव होता है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि
__ मुझे किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए । सुख अथवा दुःख का अनुभव कराने वाली परिस्थितियाँ भी सभी प्राणियों के लिए एक सी होती हैं।
___ यह हिंसा-त्याग का उच्चतम रूप है। सभी प्राणी जिन बातों से एक प्राणी को कष्ट होता हैं, उनसे ,
सुखपूर्वक जीना चाहते हैं और दूसरों की इस अभि-4 सभी प्राणी कष्टित ही होते हैं। इस प्रकार कोई
लाषा में बाधक नहीं बनना ही मूलतः अहिंसा है। सुखद विषय सभी के लिए सखद होता है। इस विभिन्न युगों एवं विचारधाराओं के तत्त्वसम्बन्ध में मनुष्य और इतर जीवों में भेद नहीं चिन्तकों ने अहिंसा की व्याख्या की है । यथाकिया जा सकता । इसके अतिरिक्ति सभी तत्र अहिंसा सर्वदा सर्वभूतेष अनभिद्रोहः आत्माएँ सुखकामी और दुःख-द्वषी होती हैं। सर्व प्रकार से, सर्व कालों में, सर्व प्राणियों के -
५६८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट (6,669 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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साथ अभिद्रोह न करना ही अहिंसा है । पातंजल योग के भाष्य में इस प्रकार अहिंसा की समुचित व्याख्या उपलब्ध होती है। वर्तमान शताब्दी में महात्मा गांधी अहिंसा के अनन्य पोषक हुए हैं। गांधीजी ने इस युग में अहिंसा के नैतिक सिद्धान्त की अत्यन्त सशक्त पुनर्स्थापना की है। यही नहीं, भौतिकता के इस युग में अहिंसा के सफल व्याव हारिक प्रयोग का श्रेय भी उन्हें ही प्राप्त है । बापू ने अहिंसा को अपने जीवन में उतारा और पग-पग पर उसका पालन किया । एक स्थल पर अहिंसा के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा है"अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सभी जीवों के प्रति समभाव है ।" गांधींवाणी में यह विवेचन और भी स्पष्ट रूप से उद्घाटित हुआ है । वे लिखते हैं
"पूर्ण अहिंसा सम्पूर्ण जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का सम्पूर्ण अभाव है । इसलिए वह मानवेतर प्राणियों, यहाँ तक कि विषधर कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है । "
अहिंसा के सभी तत्त्ववेत्ताओं ने प्राणिमात्र को समान माना है । किसी भी आधार पर अमुक प्राणी को किसी अन्य की अपेक्षा छोटा अथवा बड़ा नहीं कहा जा सकता, महत्त्वपूर्ण अथवा उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता । सूक्ष्म जीवों की प्राणी-हानि को भी कभी अहिंसा या क्षम्य नहीं समझा जा सकता । इस दृष्टि से हाथी भी एक प्राणी है और चींटी भी एक प्राणी है । दोनों समान महत्वशाली हैं। दोनों में जो आत्मा है वह एक सी है - दैहिक आकार के विशाल अथवा लघु होने से आत्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता । समस्त प्राणियों के रक्षण का विराट भाव ही अहिंसा का मूलाधार है। ध्यातव्य है कि सूक्ष्म जीवों की हानि में हिंसा की न्यूनता और बड़े जीवों की हानि में हिंसा की अधिकता रहती हो - ऐसा भी नहीं । हिंसा तो हिंसा ही है । आत्मा - आत्मा में ऐक्य और अभेद की स्थिति रहती है । अतः प्राणी के दैहिक आकार
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ucation Internatio
प्रकार या जगत के लिए किसी प्राणी का अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होना किसी की प्राण-हानि को अहिंसा नहीं बना सकता । प्राणिमात्र के प्रति समता का भाव, सभी के प्रति हितैषिता एवं बन्धुत्व का भाव, सभी के साथ सह अस्तित्व की स्वीकृति ही किसी को अहिंसक बना सकती है इस आधार पर करणीय और अकरणीय कर्मों में भेद करना और केवल करणीय को अपनाना अहिंसावती का अनिवार्य कर्तव्य है । यह एक प्रकार का संयम है, जिसे भगवान महावीर ने 'पूर्ण अहिंसा' की संज्ञा दी है
'अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएस संजमो'
अहिंसा का यह पुनीत भाव मानव को विश्वबन्धुत्व एवं जीव- मैत्री के महान गुणों से सम्पन्न कर देता है । इस सन्दर्भ में यजुर्वेद का निम्न साक्ष्य भी उल्लेखनीय है
'विश्वस्याहं मित्रस्य चक्षुषा पश्यामि'
अर्थात् - मैं समूचे विश्व को मित्र की दृष्टि से देखूं । सभी शास्त्रों में अहिंसा को मानवता का मूल स्वीकारा गया है और सुखी जगत की कल्पना को क्रियान्वित करने का आधार माना गया है | अहिंसा व्यक्ति द्वारा स्व और परहित की सिद्धि का महान उपाय है । जैनधर्म में तो इस अत्युच्चादर्श का मूर्तिमन्त स्वरूप ही दीख पड़ता है | आचारांग सूत्र में उल्लेख है कि 'सब प्राणी, सब भूत, सब जीव को न मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उन पर प्राणापहर उपद्रव करना चाहिए ।' वस्तुतः प्रस्तुत उल्लेख को अहिंसा से जोड़ा नहीं गया है, किन्तु व्यापक दृष्टि से इसे अहिंसा का स्वरूप अवश्य स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में अहिंसा का एक स्पष्ट चित्र इस प्रकार उभर उठा है
सब्बेहि अणुजुतीहि मतिमं पडलेहिया । सच्चे अक्त दुक्खा य अंतो सव्वे अहिंसया ।
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एयं खु णाणिणो सारं जं न हिंसइ कंचणं ।
'जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेण वायाए काएणं अहिंसा समयं चेव एतावंत विजाणिया ॥ न करेमि न करावेमि करतंपि न समणुजाणामि' अर्थात्-बुद्धिमान सब युक्तियों द्वारा जीव का प्रस्तुत उक्ति में ३ योग-मन, वचन और काय जीवपन सिद्ध करके यह जाने कि सब जीव दृख के एवं ३ करण-करना, करवाना एवं अनुमोदन । द्वेषी (जिन्हें दुख अप्रिय है) हैं तथा इसी कारण करना-की चर्चा है और कहा गया है कि मैं इनमें 5 किसी की भी हिंसा नहीं करे। ज्ञानी पुरुषों का से किसी के द्वारा किसी की भी हिंसा नहीं करूं। यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा इन ३ योग और ३ करण के संयोग से ह योग-करण नहीं करते।
स्थितियाँ बनती हैं, जो निम्नानुसार हैं____ 'सूत्रकृतांग' का उक्तांश अहिंसाव्रत-पालन की (क) मन से-(१) हिंसा न करना (२) हिंसा दिशा में निश्चित मार्गदर्शन देता है । अहिंसा का नहीं करवाना (३) हिंसा का अनुमोदन नहीं हु आचरण करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति ही यथार्थ में करना । बुद्धिमान होता है । ऐसे बुद्धिमान के लिए अपेक्षित
(ख) वचन से-(४) हिंसा न करना (५) हिंसा है कि
_ नहीं करवाना (६) हिंसा का अनुमोदन नहीं है -सर्वप्रथम तो वह सभी जीवों के समत्व को करना । स्वीकारे और इस आधार पर बिना किसी
(ग) काय से - (७) हिंसा न करना (८) हिंसा प्रकार का भेद करते हुए सभी जीवों को
' नहीं करवाना (8) हिंसा का अनुमोदन नहीं करना। समान रूप से महत्वपूर्ण समझे।
ये ६ मार्ग हैं, जिनमें से किसी का भी अनुसरण -उसके लिए यह तथ्य हृदयंगम करना भी
करने से व्यक्ति हिंसा का आचरण कर लेता है। आवश्यक है कि सभी प्राणी सुख की कामना
इनसे बचकर ही कोई पूर्ण अहिंसा का पालन कर करते हैं और दुःख सभी के लिए अप्रिय होता है।
सकता है। हिंसा की अति सूक्ष्मतम अवस्थाओं
को भी जैनानार ने अनुपयुक्त माना है। किसी - इन बातों को भली-भाँति समझकर उसे
अन्य जन द्वारा की गई हिंसा के प्रति यदि कोई (बुद्धिमान को) किसो भी जीव की हिंसा
व्यक्ति केवल समर्थन का भाव भी रखता नहीं करनी चाहिए।
है-चाहे उसे वह व्यक्त न भी करे-तो भी यह ॥ 'तिविहेण वि पाण मा हणे, आयहिते अनियाण संबुडे ।' समर्थक व्यक्ति द्वारा की गई हिंसा होगी । जैन धर्म
सूत्रकृतांग के प्रस्तुत अंश में अहिंसा की व्याख्या अहिंसा का इस गहनता के साथ पालन किये जाने और भी सूक्ष्मता के साथ हई है, जिसमें व्यक्त पर बल देता है । डा० वशिष्ट नारायण सिन्हा ने किया गया है कि मन, वचन और काया इन तीनों इस स्वरूप को जैन दृष्टि से अहिंसा का वास्तविक से किसी भी प्राणी को नहीं मारना चाहिए। इस और समग्र स्वरूप स्वीकारा है। मान्यता को और भी समग्रता की ओर ले जाने की हिंसा : निषेधमूलक भी और विधिमूलक भी दृष्टि से इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि -- भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से 'अहिंसा' शब्द रचना। कृत, कारित, अनुमोदित-मनसा, वाचा, कर्मणा से निषेधात्मक विचार प्रकट होता है। अर्थात्प्राणिमात्र को कष्ट न पहुँचाना ही पूर्ण अहिसा है। हिंसा का न करना हो अहिंसा है। स्पष्ट है कि इसी आशय का प्रतिबिम्ब 'आवश्यक सूत्र' में भी किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अथवा मिलता है
हानि पहुँचाना हिंसा है और ऐसे कृत्यों का परि
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रहो।
त्याग ही अहिंसा है । अर्थात् शब्द का रूप है-अ केवल कुछ संयम की हो अपेक्षा इसमें रहती है । यह मा
+हिंसा। शब्द-रचना की दृष्टि से भले ही यह दुष्कर नहीं, श्रमासाध्य तो कदापि नहीं होता। विवेचन तर्कसंगत लगता हो, किन्तु इससे जैनाचार वह मनोवृत्ति मनुष्य को अकर्मण्य बना देती है। की व्यापक एवं सूक्ष्म अहिंसा का स्वरूप उजागर वह कुछ भी करने से कतराने लगता है। यह भी भय यू नहीं हो पाता। वस्तुतः अहिंसा का स्वरूप इसकी रहता है कि केवल निषेधमूलक अहिंसा का निर्वाह
अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है । निषेधात्मक दृष्टि- करने वाला व्यक्ति एकान्त-सेवी एवं जगत से - कोण तो बड़ा सीमित है कि किसी को कष्ट मत तटस्थ होकर मानवेतर प्राणी की भांति जीवनपहेचाओ, जबकि अहिंसा की विशाल परिधि में यह यापन करने लग जायगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति || भी प्राधान्य के साथ सम्मिलित किया जाता है कि के जीवन को अहिंसा की कसौटी पर कसना भी सभी जीवों के लिए यथासम्भव रूप में सुख के कठिन हो जायगा। किसी भी अहिंसक का गौरव कारण बनो । अर्थात् अहिंसा का सिद्धान्त न केवल तो इसमें निहित रहता है कि वह ऐसे वातावरण निषेधमूलक, अपितु विधियुक्त भी है। अहिंसा में भी रहे, जिसमें हिंसायुक्त कर्मों की प्रेरणा निवृत्ति (न करने) की प्रेरणा ही देती है-ऐसा मिलती हो, फिर भी उससे प्रभावित हुए बिना वह विचार भ्रामक एवं अपूर्ण है। इसमें प्रवृत्ति का पूर्णतः अहिंसक ही बना रहे । पक्ष भी है कि सभी के सुख के लिए कुछ करते इस प्रकार अहिंसा को इसकी व्यापक भावभूमि
के साथ समझना ही समीचीन है एवं उसी व्यापक ___ इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयं रूप में उसका आचरण ही वास्तव में किसी व्यक्ति किसी के प्राणों की हानि नहीं करना (निवृत्ति या को अहिंसक होने का गौरव प्रदान कर सकता है। निषेध) तो अहिंसा है ही, किन्तु जब किसी के प्रवृत्तिमूलक अहिंसा से ही व्यक्ति-मानस की सच्ची प्राणों को किसी अन्य के कार्य से हानि का संकट हितैषिता एवं बन्धुत्व का परिचय मिलता है और ||
हो, तब भी अहिंसक व्यक्ति का कुछ दायित्व बनता यही वह पक्का आधार है, जिससे किसी का में है। उसे चाहिये कि संकटग्रस्त प्राणियों की रक्षा अहिंसापूर्ण आचार पहचाना जा सकता है। यह
करे । यह रक्षा करना प्रवृत्ति है, विधि है । इसके प्रवृत्ति मूलक पक्ष अहिंसा की गरिमा को न केवल अभाव में अहिंसा का स्वरूप मर्यादित, सीमित विकसित करता है, अपितु यह उसका निर्माता भी A और अपूर्ण ही रहेगा। अस्तु न मारने मात्र में ही है। कारण यह है कि अहिंसा को जैनाचार में नहीं, अपितु रक्षा भी करने में पूर्ण अहिंसा का केवल निषेधमूलक स्वीकार ही नहीं किया वास्तविक स्वरूप निखरता है । यहाँ यह तथ्य भी गया है। विशेषतः ध्यातव्य है कि निवृत्ति अथवा निषेध
अहिंसा की कसौटी । अकेला जिस प्रकार अहिंसा का समग्र स्वरूप नहीं अहिंसा का मूलतत्त्व जब प्राणिमात्र के लिए है-उसी प्रकार प्रवृत्ति या विधि अकेली भी सुख का कारण बने रहना है-किसी भी प्राणी का अहिंसा के समग्र स्वरूप को व्यक्त करने में असमर्थ घात न करना है, तो यह प्रश्न उभर आता है कि
रहती है। वस्तुतः निषेध एवं विधि दोनों पक्ष पर- क्या किसी के लिए इस प्रकार का अहिंसात्मक * स्पर पूरक हैं और दोनों मिलकर ही अहिंसा को आचरण अपने समग्ररूप में सम्भव है ? जीवन की विराट भाव भूमि का निर्माण कर पाते हैं । केवल नाना प्रवृत्तियों और कर्मों में ऐसे अगणित प्रसंग निषेधात्मक रूप में अहिंसा का निर्वाह कोई कठिन बन जाते हैं, जब व्यक्ति अन्य प्राणियों के लिए | कार्य नहीं होता। 'कुछ' नहीं करना तो सुगम है, कष्ट का कारण, यहां तक कि प्राणहंता बन जाता
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श्रा है। अहिंसाव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करने का (१) भावहिंसा (२) द्रव्यहिंसा
अभिलाषी होते हुए भी उससे ऐसे कार्य हो ही जाते हैं और इन कार्यों तथा इनके परिणामों से भी वह
भावहिंसा का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मन से || अवगत नहीं हो पाता । उदाहरणार्थ, चलने-फिरने है । हिसा का यह मानसिक स्वरूप है, जो उसकी । में ही अनेक जीवों का हनन हो जाता है। तो क्या भूमिका तैयार करता है। व्यक्ति अन्य प्राणियों की६ वह अहिसाव्रत से भ्रष्ट समझा जाना चाहिए ? हानि अहित करने का विचार मन में ले आये, चाहे क्या उसका जीवन पापमय है ?
वह अहित कर पाये अथवा नहीं-यह उसके द्वारा ___ कहा जाता है कि इसी प्रकार की समस्या
की गई भावहिंसा कहलाती है । हिंसा का यह ऐसा में भगवान महावीर के समक्ष प्रस्तुत करते हुए
रूप है, जो अन्य प्राणियों के लिये अहितकर चाहे
न हो, किन्तु स्वयं उस व्यक्ति के लिये घोर अनिष्टजिज्ञासु शिष्य गौतम ने जीवन को पापरहित करने
___ कारी होता ही है । राग-द्वेष, मोह, लोभ, क्रोधादि का उपाय जानना चाहा था। उत्तर में भगवान ने के भाव इस प्रकार की मानसिक हिंसा के उत्प्रेरक । अपने उपदेश में कथन किया कि जीवन की नाना- होते हैं और ये आत्मा को कलुषित एवं पतित कर प्रवृत्तियाँ न केवल स्वाभाविक, अपितु अनिवार्य देते हैं। यह हिंसा आत्म-विनाशक होती है। भी हैं, जिन्हें मनुष्य को करना ही होता है। इन अहिंसा की साधना के लिए सर्वप्रथम भावहिंसा | प्रवत्तियों से हिसा-अहिंसा का प्रश्न भी जुड़ा रहता पर ही नियन्त्रण करना होता है। यही नियन्त्रण | है, किन्तु ये भिन्न प्रवृत्तियां अपने आप में न पाप हैं
__संयम है। इसके लिए अपनी कुमनोवृत्तियों का न पुण्य हैं। विवेक-यतना ही इनकी कसौटी है। ,
दमन करना होता है। इस सन्दर्भ में भगवान | ये सारे कार्य यदि विवेक के साथ, सावधानी के
महावीर स्वामी का उपदेश है कि बाहरी शत्रुओं || साथ, यतना के साथ किये गये हैं तो कर्त्ता का
से नहीं, अपने भीतरी शत्रुओं से युद्ध करो और मैं जीवन स्वयं अपने लिए और जगत के लिए भी सुख
विजयी बनो। इस विजय का उपहार होगादायक होगा। इसके विपरीत अविवेक या अयतना
संयम और उसकी अभिव्यक्ति अहिंसा के रूप में । के साथ यापित जीवन दुःखमूलक होगा। यही
होगी। यह संयम अहिंसात्मक आचरण द्वारा स्वयं अविवेक पाप का कारण होगा, हिंसा का आधार
संयमी के जीवन को उन्नत और सुखमय बनाता होगा। इस प्रकार विवेक और अहिंसा का घनिष्ठ नाता है । जहाँ विवेक है, वहीं अहिंसा भी होगी। प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोणं हिंसा
द्रव्यहिंसा का परिणाम भौतिक या वास्तविक || ____ अर्थात् प्रमादवश जो प्राणघात होता है वही रूप में प्रकट होता है। मानसिक हिंसा की भाँति । हिंसा है। तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति का अहिंसा वह विचार तक मर्यादित न रहकर व्यवहार में है विषयक प्रस्तुत सूत्र यह इंगित करता है कि प्राणि- परिणत हो जाता है। मन में कषाय का उदय होना । मात्र के रक्षण के भाव में ही अहिंसा निहित होती भावहिंसा है और मन के भाव को वचन और
क्रिया का रूप देना द्रव्यहिंसा है-स्थल हिसा। अहिंसा के रूप
है। प्रमादवश किसी का प्राणापहरण ही हिंसा है ।। ___मोटे तौर पर हिंसा का अभाव ही अहिंसा है। अर्थात् कषाय-भाव के साथ किया गया अहितकर । अतः अहिंसा की स्पष्ट समझ के लिए हिंसा का कार्य ही हिंसा है। यदि वास्तव में अहित हो गया। स्वरूप जानना अनिवार्य है। जैन-चिन्तन में हिंसा है, किन्तु उसके मूल में कषाय या प्रमाद नहीं है, के दो रूप माने गये हैं
तो वह हिंसा नहीं है। वह अहित 'हो गया' है;
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कर्ता द्वारा किया नहीं गया है। भावहिंसा और आज विश्वभर में समस्त नैतिकताएँ विघटित ॥ प्रमाद अवस्था के अभाव में यदि किसी प्राणी की होती चली जा रही हैं, वे व्यवहार-क्षेत्र से निष्का- का
हिंसा हो गयी है, तो वह पाप की परिधि से परे है, सित होकर मात्र पठन-पाठन की विषय रह गयी । केवल द्रव्यहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु का कथन इस हैं । यदि यही क्रम निरन्तरित रहा, तो सम्भवतः सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है
नैतिकताएँ मात्र पुस्तकों में ही विद्यमान रह "अपने नियमों के साथ यदि कोई साधक चलने जायेंगी। कदाचित् उनकी ओर ध्यान देने का श्रम के लिये विवेकपूर्वक पाँव उठाये, फिर भी यदि भी कोई नहीं करेगा । अहिंसामार्ग भी इसका अपकोई जीव पाँवों तले आकर नष्ट हो जाय, तो वाद नहीं है, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि नैतिक- 12 साधक को इसका पाप नहीं होगा। कारण यह है ताओं की उपेक्षा ने मनुष्य को मानवतारहित बना कि साधक की भावना निर्मल थी, वह अपने नियमों दिया है, उस पर अपार दुःख-घटाएं मंडरा रही हैं में पूर्णतः सजग था।"
और आतंक का बोलबाला हो रहा है। यदि TO सारांश यह है कि अहिंसा का निर्वाह तभी मनुष्य अहसा को दृढ़तापूर्वक अपना ले तो संसार सभव है जब हम भावहिंसा से बचते रहें। भाव का रूप ही परिवर्तित हो जायेगा। घृणा, द्वेष, ID हिंसा अकेली ही पाप के लिए पर्याप्त है। द्रव्य
पर-अहित, लोभ, मोह आदि विकार अहिंसा के 102 हिसा भी पाप तभी बनेगी जब वह केवल' द्रव्य- अपनाव से नष्ट हो जायेंगे और सर्वत्र सुख-शांति हिंसा न रहकर भावहिंसा के परिणाम रूप में का साम्राज्य हो जायेगा । व्यक्ति अहिंसा से अपना होगी। भावहिंसा और द्रव्यहिंसा के आधार पर
भी और जगत् का भी कल्याण करेगा । आवश्यकता हिंसा को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जाता है
___ इसी बात की है कि मनुष्य अपने में अहिंसा के
प्रति आस्था का भाव जागृत करे । अहिंसा का जो ! (१) भावरूप में और द्रव्यरूप में- जहाँ हिंसा का विराट रूप है-वह व्यवहार्य है, उसे अपनाया जा कुमनोभाव भी हो और बाह्यरूप में भी हिंसा की ।
सकता है और उसके सुपरिणाम सुनिश्चित हैंजाय । इस स्थिति में हिंसा का वास्तविक और
न स्थिति में हिसा का वास्तविक और यह भाव जब तक मनुष्य के मन में सबल नहीं घोर रूप होता है।
होगा, वह अहिंसा को कोरा सिद्धान्त मानता (२) भावरूप में हिंसा किन्तु द्रव्यरूप में नहीं रहेगा और इस सुख की कुञ्जी से दूर पड़ा || a कुमनोभाव या कषाय तो हो, किन्तु उसकी क्रिया- रहेगा।
न्विति किन्हीं कारणों से संभव न हो पाय । यह भी A हिंसा ही है, जिससे मनुष्य का अपना ही अहित
वस्तुतः अहिंसा को अपनाने के मार्ग में कोई ५ होता है।
जटिलता नहीं है । आत्म-नियन्त्रण या संयम से यह 10
मार्ग सुगम हो जाता है । अहिंसा के सहायक भावों (३) भावरूप में नहीं किन्तु द्रव्यरूप में हिंसा
को सबल बनाना और विरोधी भावों की उपेक्षा ___ जहाँ हिंसा तो हो गयी हो, किन्तु कर्ता का प्रमाद
करना ही एक प्रकार से यह संयम है। जीव मैत्री, ॥ या कषाय उसके पीछे नहीं रहा हो। वास्तव में
करुणा, पर-गुण-आदर, माध्यस्थ (विपरीत वृत्ति यह हिंसा नहीं मानी जाती । यह भी अहिंसा का वालों पर भी क्रोध न करना) आदि ऐसे ही - ही एक रूप है।
अहिंसा-सहायक भाव हैं, जिनके सतत अभ्यास से (Vo (४) न भावरूप में और न द्रव्यरूप में-जहाँ न तो मनुष्य अहिंसा महाव्रती हो सकता है। इसके लिए कषाय ही रहा हो और न ही बाह्यरूप में हिंसा उसे साथ ही साथ क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हुई हो। यह सर्वथा अहिंसा ही है।
कषायों से भी स्वयं को मुक्त रखना होगा। क्षमा,
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नम्रता, सरलता, सन्तोष आदि उपर्युक्त कषायों के अथवा दूसरों की रक्षा के लिए जो हिंसा हो जाती सशक्त उपचार हैं । इनका अभ्यास अहिंसा-मार्ग के है, वह विरोधी हिंसा कहलाती है। अवरोधों को दूर कर देता है और मनुष्य को जैसा कि अन्यत्र हमने विवेचित किया है, जैनअहिंसावती बनाकर उसे स्व-जीवन एवं जगत के धर्मानुसार समस्त जीव दो वर्गों में विभक्त हैंकल्याण के लिए समर्थ कर देता है।
स्थावर एवं त्रस । जो जीव हमें चलते-फिरते । गृहस्थ को अहिंसा
स्पष्पटः दिखाई देते हैं, वे त्रस हैं । इसके विपरीत
नग्न चक्षुओं से जो जीव साधारणतः दिखाई नहीं हिंसा न करना-अहिंसा है। यह हिंसा जो देते, होते अवश्य हैं किन्तु अति सूक्ष्म होते हैं, वे I अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाने अथवा उनके प्राण- स्थावर कहलाते हैं जैसे वायु, मिट्टी, जल आदि । अपहरण से हो जाती है-उसके पीछे कर्ता का के जीव । विभिन्न उपकरणों की सहायता से इन्हें दूस प्रयोजन रहा है अथवा नहीं- इस आधार परहिसा देखा भी जा सकता है। गृहस्थ श्रावक स्थावर ४ प्रकार की होती है
जीवों की रक्षा का यथाशक्ति प्रयत्न करता है। (१) संकल्पी हिंसा
इस निमित्त से वह अनावश्यक रूप में मिटटी नहीं
खोदता, पानी को खराब नहीं करता आदि साव(२) उद्योगी हिंसा
धानियाँ रखता है । इसी प्रकार वनस्पतियों को न (३) आरम्भी हिंसा
काटना, अनावश्यक रूप से अग्नि प्रज्वलित न (४) विरोधी हिंसा
करना, हवा को विलोड़ित न करना आदि भी अन्य किसी जीव का कोई अपराध न हो, हमारे मन प्रकार की सावधानियां हो सकती हैं। त्रस जीवों । में उसके प्रति क्रोध या प्रतिशोध का भाव न हो, का जहाँ तक सम्बन्ध है ग्रहस्थ उनकी संकल्पी । तथापि जान-बूझकर हम उसका प्राण-हरण करें- हिंसा का परित्याग करता है। इस सम्बन्ध
यह संकल्पी हिंसा है । उस दशा में मनुष्य के मन विचारणीय यह है कि त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा में जीव का वध करने का स्पष्ट उद्देश्य होता है। के परित्याग में मनुष्य की कोई विशेष हानि होती, आखेटक शस्त्रादि से सज्जित होकर, वन में जाकर न यह दुष्कर है और न इसके कारण कोई विशेष वन्य प्राणियों का शिकार करता है अथवा वधिक अभाव उत्पन्न होता है। निरीह भेड़-बकरियों का वध करता है। यह संकल्पी हिंसा के पीछे मनोविनोद (शिकार),
संकल्पी हिंसा कहलाती है। आजीविका के लिए मांसाहार प्राप्त करना आदि जैसे तुच्छ उद्देश्य । मनुष्य को नाना प्रकार से उद्योग-व्यवसायादि निहित होते हैं । इस दृष्टि से जीवन को विपरीत करने पड़ते हैं । कोई खेती करता है, तो कोई कल- रूप से प्रभावित करने का भय संकल्पी हिंसा के
कारखानों में काम करता है, कोई सैनिक हो जाता त्याग में नहीं होता। ये ऐसे प्रयोजन नहीं हैं,जिनके Cil है तो कोई व्यापार करता है। इन विभिन्न जीविका- बिना जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता
साधनों-खेती, श्रम, युद्ध, व्यापार आदि को अप- हो । मनोविनोद के भी अन्य अनेक स्रोत हैं और नाने में मनुष्य से जो हिंसा जाने-अनजाने में हो आहार की भी कोई कमी नहीं है। मांसाहार के जाती है-वह उद्योगी हिंसा है । जीवन के अति परित्याग से कोई अभाव नहीं उत्पन्न होता। सामान्य क्रिया-कलाप सम्पन्न करने-जैसे भोजन विभिन्न प्रकार के अन्न, फल, वनस्पति आदि तैयार करने आदि में जो हिंसा हो जाती है वह मनुष्य के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक आहार के रूप
आरम्भी हिंसा कहलाती है और इसी प्रकार अपनी में इस धरती पर उपलब्ध हैं। माँस मनुष्य का | ५७८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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प्राकृतिक आहार नहीं है। मनुष्य के दाँतों और नहीं मानते, जबकि वे स्वयं मांस-प्राप्ति के लिए आँतों की बनावट से भी यह ज्ञात होता है कि किसी जीव का घात नहीं करते हों । अर्थात् वधिक प्रकृति ने उसे मांसाहारी नहीं बनाया है । धर्म के द्वारा वध किये गये पशु के मांस-भक्षण में वे किसी
नाम पर भी प्रायः संकल्पी हिंसा होते देखी जाती हिंसा को स्वीकार नहीं करते । ऐसी मान्यता भी ) हर है। देवियों को प्रसन्न करने के लिए अपनी आरा- भ्रामक है। हिंसा यदि स्वयं उस व्यक्ति ने नहीं की
धना का एक अनिवार्य तत्व मानते हुए शाक्त जन तब भी वह वधिक के लिए हिंसा का प्रेरक अवश्य निरीह पशुओं-भेड़, बकरे, भैसें आदि की बलि रहा है । उसने हिंसा करवाई है । ऐसी दशा में वह an देते हैं। नसतापूर्वक उनका वध कर दिया जाता अहिंसक कैसे हो सकता है ? साथ ही मरण के
है। कहीं-कहीं तो नरबलि भी दी जाती है। इस तुरन्त पश्चात मांस में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव है, प्रसंग में यही कहना उपयुक्त होगा कि यह हिंसक स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । मांसभक्षण में उनकी
व्यापार यथार्थ में किसी आराधना का भाग नहीं हिंसा तो होती ही है। फिर हमारा ध्यान मांसाहो सकता । देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का यह हारी होने के दूरगामी परिणामों की ओर भी जाना जा न तो कोई साधन है और न ही देवी-देवता ऐसे चाहिए । मांसाहार से एक प्रकार की कुबुद्धि पंदा कार्यों से प्रसन्न हो सकते हैं। यह मात्र अन्ध- होती है जो व्यक्ति को अन्य जीवों के प्राणघात के विश्वास है, जो दुर्बल निरीह प्राणियों के विनाश लिए उत्तेजित करती रहती है । वह आज नहीं है I का कारण बन जाता है । गृहस्थों, विशेषतः जैन तो कल अवश्य ही प्रत्यक्ष हिंसक भी बन जाता है। गृहस्थों के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी भी सृष्टि के प्राकृतिक रूप से जितने मांसाहारी जीव TIRI परिस्थिति में स्वाद तथा उदर पूर्ति के लिए, मनो- हैं वे सभी हिंसक भी हैं, जैसे सिंह ।। रंजन के लिए अथवा धर्म के नाम पर भी किसी यह तो हई चर्चा संकल्पी हिंसा की, जिसमें प्राणी का घात न करें।
त्रस जीवों के घात का प्रसंग रहता है । जैसा कि यहाँ एक आक्षेप पर भी विचार करना उप- वर्णित किया जा चुका है-इस प्रकार की हिंसा युक्त होगा । कुछ कुतर्की यह कह सकते हैं कि जैन का परित्याग प्रत्येक गृहस्थ के लिए सुगम एवं मा धर्मानुसार मांस-भक्षण वर्जित है, यह धर्म वनस्पति सम्भाव्य है। गृहस्थ के लिए उद्योगी हिंसा का में भी सजीवता स्वीकार करता है- ऐसी दशा में सर्वथा परित्याग सम्भव नहीं हैं । व्यक्ति को अपने शाकाहार भी एक प्रकार से मांसाहार ही होता है और अपने आश्रितों के जीवन-निर्वाह के लिए और शाकाहार को भी वर्जित माना जाना चाहिए जीविका के किसी उपाय को अपनाना ही पड़ता इस प्रश्न पर विचार करते समय हमारा ध्यान इस है।ऐसी दशा में यथाव्यवसाय कुछ
ओर केन्द्रित होना चाहिए कि वनस्पति में मांस हो जाने की आशंका बनी ही रहती है । तथापि Pा नहीं होता। देह संरचना के लिए आवश्यक सात गहस्थ को विचारपूर्वक ऐसे कार्य को अपनाना
धातु माने गये हैं । सप्त धातुमय कलेवर ही मांस चाहिए जिसमें अन्य जीवों को कम से कम कष्ट || है और हमें यह जानना चाहिए कि वनस्पति में पहुँचे । यह तो उसके लिए शक्य है हो । यदि इसका सप्त धातु नहीं होते। निरामिष जनों के लिए विचार के साथ गृहस्थ अपने उद्यम का चयन ke शाकाहार में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । केवल करता है, तो उसमें होने वाली दुनिवार हिंसा | तर्क के लिए ही यह तर्क दिया जाता है कि शाकादि क्षम्य कही जा सकती है । आरम्भी हिंसा के विषय में भी सजीवता के कारण मांस होता है। कतिपय में भी यह कहा जा सकता है कि गृहस्थ को भोजन व्यक्ति मांसाहार को उस उवस्था में आपत्तिजनक भी तैयार करना पड़ता है, जल का प्रयोग भी
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करना पड़ता है, विचरण भी करना ही पड़ता है । इन सामान्य व्यापारों में जो स्थावर जीवों की हिंसा हो जाती है, उससे भी वह सर्वथा बचा नहीं रह सकता । इस सन्दर्भ में भी विवेकपूर्वक गृहस्थ को इस विधि से कार्य सम्पन्न करने चाहिए कि यह हिंसा यथासम्भव रूप से न्यूनतम रहे ।
गृहस्थ जनों के लिए विरोधी हिंसा का सर्वथा परित्याग भी इसी प्रकार पूर्णतः शक्य नहीं कहा जा सकता । गृहस्थ इतना अवश्य कर सकता है, और उसे ऐसा करना चाहिए कि वह किसी से अकारण विरोध न करे । किन्तु यदि विरोध की उत्पत्ति अन्य जन की ओर से उसके विरुद्ध होतो उसे अपनी रक्षा का प्रयत्न करना ही होगा । उस पर रक्षा का दायित्व उस समय भी आ जाता है, जब कि दुर्बल जीव पर प्राणों का संकट हो और वह उससे अवगत हो । स्वयं बचना और अन्य को बचाना दोनों ही उसके लिए अनिवार्य हैं । अहिंसा की दुहाई देते हुए ऐसे अवसरों पर आत्मरक्षा का प्रयत्न न करते हुए आक्रमण को झेलते रहना या दुबककर घर में छिप जाना - अहिंसा का लक्षण नहीं है । यह तो मनुष्य की कायरता होगी जिसे वह अहिंसा के आचरण में छिपाने का प्रयत्न करता है । ऐसा आचरण अहिंसक जन के लिए भी समीचीन नहीं कहा जा सकता । अहिंसा कायरों के लिए नहीं बनी, वरन् वह तो धीरों और वीरों का एक वास्तविक लक्षण है । ऐसा माना जाता है कि ऐसी अहिंसा ( कायरतामूलक) की अपेक्षा तो हिंसा कहीं अधिक अच्छी होती है । अहिंसा तो निर्भी
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कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
कता उत्पन्न करती है । जो निर्भीक है वह कायरता का आचरण कर ही नहीं सकता । अहिंसा और शौर्य दोनों ऐसे गुण हैं जो आत्मा में साथ-साथ ही निवास करते हैं। शौर्य का यह गुण जब स्वयं आत्मा के द्वारा ही प्रकट किया जाता है तब वह अहिंसा के रूप में व्यक्त होता है और जब काया द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है, तो वह वीरता कहलाने लगती है ।
जैन धर्म पर आई विपत्ति को जो मूक दर्शक बनकर देखता रहे, उसका प्रतिकार न करे वह सच्चा अहिंसक जैनी नहीं कहला सकता । धर्मरक्षण के कार्य को हिंसा की संज्ञा देना भी इसी प्रकार की कायरता मात्र है। ऐसा ही देश पर आई विपत्ति के प्रसंग में समझना चाहिए। यह सब रक्षार्थ किये गये उपाय हैं । रक्षा का प्रयत्न करने में अहिंसा की कोई गरिमा नहीं रहती । अहिंसा तेजरहित नहीं बनाती, वह अपना सब कुछ नष्ट करा देना नहीं सिखाती । अहिंसा दास बनने की प्रेरणा भी नहीं देती । इतिहास साक्षी है कि जब तक भारत पर अहिंसा व्रती जैन राजाओं का शासन रहा, वह किसी भी विदेशी आक्रान्ता समक्ष नतमस्तक नहीं हुआ, किसी के अधीनस्थ नहीं रहा । अहिंसा प्रत्येक स्थिति में मनुष्य के चित्त को स्थिर रखती है, कर्त्तव्य का बोध कराती है और उस कर्त्तव्य पर उसे दृढ़ बनाती है । अहिंसा गृहस्थ को आत्म- गौरव से सम्पन्न बनाती है, उसे निर्भीक और वीर बनाती है ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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RRENIENDS
दीक्षा सप्तविंशतिः
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के शिष्य |
-रमेशमुभि शास्त्री शादूर्ल विक्रीडितम् दीक्षेयं शिवदायिनी द्रततरं कौघ विध्वंसिनी । लोकालोक समस्त वस्तु विषया ज्ञानस्य सम्पादिनो । नानादुःख दवानलं शमयितु कादम्बिनी संनिभा । तत्दीक्षां सुतरां श्रयन्तु मनुजाः वाञ्छन्ति सौख्यं यदि ॥१॥
वैराग्याश्रितमानसाः प्रतिपलं सध्याननिष्ठान्विताः । श्रद्धाशील विशेष भाव भरिताः संपूत चित्तालयाः । सारासार विचार चारु चरिताः सद्भाव संपूरिताः ।
चैवंभूतगुणान्विताः नरवराः दीक्षा ग्रहीतु क्षमाः ॥२॥ दीक्षायाः महिमानमाकलयितु नाहं स्वयं शक्तिमान् । पूर्ण पूरयितु जलं जलनिधेः मयो घटे नो क्षमः । तस्याः गौरवमेव गातुमतुलं लीनं मदीयं मनः । प्राप्तं मुक्तिफलं तदीयमखिलं ना गौरवं ज्ञायते ॥३।।
कोऽसौ सम्प्रति मानवो जलनिधेः कृत्स्नं जलं पूर्णतः । कस्मिश्चित क्षमते घटे घटयित् श्रेष्ठ प्रमाणान्विते । नागस्त्योऽपि स साम्प्रतं क्वचिदपि क्ष्मायास्तले दृश्यते ।
येनापायि पिपासयेव सकलं तन्नीरमालोकय ॥४॥ किं प्राप्यं ? सुखमुत्तमं कुत इदं ? मोक्षात् सु लभ्यं कथम् ? सदरत्नत्रयधारणाद्, इदमपि क्षिप्रं कथं लभ्यताम् ? । मिथ्यात्त्वस्य विवर्जनात् कथमिदं ? श्रद्धानभावात् दृढ़ात् । सोऽप्यह्नाय कुतो भवेज् ? जिनपतेः, वाचांविचाराश्रयात् ॥५॥
दीक्षाऽसीमसखावहा प्रतिपदं सम्माननादायिनी। क्षिप्रं सर्वमनोरथांश्च सफलान् कतु प्रकामं क्षमा। सर्वेषामपि कर्मणामथचयं ध्वंसं नयत्यजसा । तस्मादात्महितैषिभि भविजनैः सा धार्यतां मुक्तिदा ॥६॥
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५७७ God. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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वसन्ततिलका दीक्षार्हती सुखयति क्षमया विशिष्टा दीक्षां श्रयन्ति मनुजा धुतमोहमायाः । किं दीक्षया न सुलभं सुधियां मुनीनाम् तद् गृह्यतां सपदि बान्धववर्य दीक्षा ॥७॥ जन्मान्तरेषु विहितं बहुपुण्यकर्म तप्तं तपश्च विविधं चिरमत्रयेन । दीक्षां स एव लभते भवभीति भीतः कर्मारिचक्रकृतपीडननाशदक्षाम् ।।८।। दीक्षां बिना न हि कदाचन मुक्ति लब्धिः सर्वातिशायिपदवी जगदर्चनीया । सांसारिकञ्च विविधाभ्युदयादिकं वा हेतु बिना प्रभवतीह न कार्यसिद्धिः ।।६।।
उपजाति वृत्तम् विरागशीलः प्रशम स्वभावः सुधी जनोऽयं विनयी विवेकी । दीक्षां समासाद्य समेति मुक्तिं सोऽयं पुनीतः शिरसा प्रणम्यः ॥१०॥ समेत्य पार्श्व गुरु पुष्कराणाम् शिक्षा मयाऽलम्भि तदावबुद्धम् । शिक्षाऽऽद्य हेतु भवतीह दोक्षा तत्कार्यमस्तीह न संशयः स्यात् ।।११।।
अनुष्टुप् दीक्षायाः गौरवं गातु प्रवर्ते मन्दधीरहम् । साफल्यं सुलभं नास्ति घटे किं माति सागरः ।।१२॥ शब्ददृष्ट्या दरिद्रोऽपि, बहूदारो भवाम्यहम् । तद्वर्णने परं चित्रं, श्रद्धया किं न जायते ॥१३॥ चेतसा दीक्षितो नाहं वपुषा केवलं ततः । भ्रमाम्यहं भवारण्ये साम्प्रतं मम दुर्दशा ।।१४।। अनादि कालतो जीवो ग्रस्तोऽयं कर्मरोगतः । चिकित्सा तस्य दीक्षेयं स्वस्थो जीवो भविष्यति ॥१५।। महाव्रतैरियं जैनी, दीक्षा पञ्चभिरन्विता । रसायनं परं पूसां हृदि धार्यमिदं वचः ।।१६।। दीक्षा शिक्षां विना व्यर्था शिक्षा दीक्षां विना तथा ।
ज्योत्स्नां विना वृथा चन्द्रः ज्योत्स्ना चन्द्र विना यथा ॥१७।। ज्वाला समा ध्रुव दीक्षा प्रदग्धु कर्म यष्टिकाम्, भव्यात्मन् गृह्यतां चेयं शुभं शीघ्र विधीयते ॥१८॥ दीक्षारत्नं परं दिव्यं दीप्तिदीप्तं दिवानिशम् । ग्रहीतु मीयते योऽपि विज्ञेयः पुण्यवानयम् ॥१६।। दीक्षाकार्य द्रुतं कार्य महत्कार्यं सदुत्तमम् । प्रमादो नैव कर्तव्यः कालो नायाति निर्गतः ॥२०॥ दीक्षा सुधा सदा पेया क्षीयेत कर्मणां विषम । जायेत सतरां शान्तिः शाश्वतं च सुखं भवेत् ॥२१॥ मोहमद्य ध्रुवं त्यक्तं, मनसा येन धीमता । दीक्षां लब्धं भवेद् योग्यः, समर्थ सर्वथा तथा ॥२२॥
साधतां लब्ध्वा साधः साधः स उत्तमः । दीक्षितोऽसाधतां यातः साधः साधन गद्यते ।।२३।। समयस्य कृते कार्य कार्यस्यापि कृते स च । सततं येन दीयेत स साधुः सफलो भवेत् ॥२४।। जीवेऽजीवेऽपि पार्थक्यं दीक्षिते जीवने मया। संज्ञातं तत्त्वतो नूनं स्वानुभूतिः स्वयं प्रमा ॥२५।।
उपजाति दीक्षा सुधेयं सुतरां सुखानाम् परं निधानं शिववर्त्म दीप्तिः । भव्यो जनो यो लभते हितां ताम् नमोऽस्तु तस्मै मनसा त्रिवारम् ।।२६।। दीक्षा-महत्वं मनसा विमृश्य शिष्यो लघीयान् गुरुपुष्कराणाम् ।
मुनी रमेशो रचनां चकार गुरु प्रसादात् किमसाध्यमस्ति ॥२७॥ र ५७८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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सम्माननीय सहयोगी [साध्वीरत्न परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म. के
अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन में उदारतापूर्वक अर्थ सहयोग प्रदान करने वाले सहयोगी बन्धुओं के
___ शुभ नाम एवं चित्र तथा परिचय]
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आधार स्तम्भ (रुपया पांच हजार के सहयोग प्रदाता) 0 श्रीमान लाला फूलचन्द पवनकुमार जैन
श्रीमती अनुराधा जैन सोने चाँदी के व्यापारी
माणकचन्द अशोककुमार जैन मु. पो. कांधला, जिला-मुजफ्फरनगर (यू. पी.) २/१ निखिल मुदणालयन, ग्लास फैक्ट्री
सुन्दरवास, उदयपुर (राज.) 0 श्रीमान् सोहनलाल जी सा. बोहरा विमल ट्रेडर्स, मेनरोड,
0 श्रीमान् प्रतापसिंह जी सुराणा P. सिन्धनुर, जिला-रायचूर (कर्णा.)
पो. कोठारिया, वाया-नाथद्वारा
जिला-उदयपुर (राज.) । श्रीमती धर्मानुरागिणी विद्यावती जेन
0 रमणभाई जयन्तोलाल पुनमिया दीपचन्द जैन, आर. आर. ट्रेडस ३७ बनियान रोड, पायधनी, बम्बई-३
सोने चाँदी के व्यापारी जैन गोटास्टोर, किनारी बाजार
झण्डा बाजार, पो. वसई चाँदनी चौक दिल्ली-६
जिला-थाणा (महा.)
0 श्रीमान् रतनलालजी लहरीलालजी सिंघवी 0 स्वर्गीया मातेश्वरी विद्यावन्ती जैन
लहरीलाल, डालचन्द श्री बी. डी. जैन
सूरत टैक्सटाइल मार्केट श्रुति सिन्थेटिक्स प्रा. लि.
रिंगरोड, सूरत-२ (गुज.) लोयरा, उदयपुर (राज.)
स्तम्भ (रुपया २५०० के सहयोग प्रदाता) 0 श्रीमान् रतनलाल जी मारू
0 श्रीमान् गुलाबचन्द जी ताराचन्द जी परमार मारू ब्रदर्स, अजमेर-जयपुर रोड,
पदराड़ा पो. मदनगंज, जिला-अजमेर (राज.)
विजय भारती सिल्क मोल्स, X २१४७
सूरत टैक्सटाइल मार्केट 0 श्रीमान् स्व० चुन्नीलाल जी सा. परमार,
रिंगरोड सूरत-२ पदराड़ा 0 श्रीमान् चुन्नीलाल जी मोहनलाल जी भोगर 0 श्री जैन महिला मण्डल, जसवन्तगढ़
जैनस्थानक, चाँदनी चौक दिल्लो श्रीमान शान्तिलाल जी लक्ष्मीलाल जी तलसरा श्रीमान चांदमल जी मेहता जसवन्तगढ़
ओसवाल मोहल्ला 0 श्री सम्पत्तिलाल जी सा. बोहरा
मु. पो. मदनगंज ३६, ४० अश्विनी बाजार पो. उदयपुर (राज.) जिला-अजमेर (राज.) 0 श्रीमान् शान्तिलाल जी गोटीलालजी मेहता । श्रीमान् रमेशभाई शाह ___ कपड़े के व्यापारी
३१ गुजरात विहार विकासमार्ग मु. पो. डुंगला, जिला-चित्तौड़गढ़ (राज.) शक्करपुर, दिल्लो ६२
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D श्रीमान् सुभाष चन्द जी गादिया
0 सुदर्शन इलेक्ट्री कल्स १४६ जुगनहली धनलक्ष्मी एण्ड कम्पनी
II ब्लोक राजाजी नगर मु. पो. तुरवेकेरे जिला-टुमकुर (कर्णा.) बेंगलोर (कर्णा.) छ श्रीमान् अमरचन्द जी सा. एवं गांधी परिवार
गुरुकृपा मेटर्स नं. १६/२ डी. वी. जी. रोड बसवन्तगुडी, गांधीबाजार बेंगलोर-४
सदस्य (रुपया एक हजार के सहयोग प्रदाता) 0 श्रीमान् गोपीलाल जी शिशोदिया
0 एक गुप्तदानी महानुभाव नाथद्वारा, जिला-उदयपुर (राज.)
नाथद्वारा, उदयपुर 0 श्रीमती देऊबाई कन्हैयालाल जी बागरेचा 0 श्रीमान् मांगीलाल जी समधिया नाथद्वारा, जिला उदयपुर (राज.)
नाथद्वारा, उदयपुर 0 श्रीमान् शंकरलाल जी सुराणा
0 श्रीमान् भगवतीलाल जी पेट्रोल पम्प, बस-स्टैण्ड, नाथद्वारा
अशोक कुमार जी तातेड़
कपड़े के व्यापारी पो. डूंगला, जि.-चित्तौड़गढ़ 0 श्रीमान् शंकरलाल जी सा. बम्ब कपड़े के व्यापारी, लाल बाजार
0 श्रीमान् चांदमल जी विरदीचन्द जी पीतलिया नाथद्वारा
डूंगला, जिला-चित्तौड़गढ़ श्रीमान् सोहनलाल जी सा सोनी
0 श्रीमान् छगनलाल जी बागरेचा जैन ट्रान्सपोर्ट कम्पनी
६६ अशोक नगर, उदयपुर बसस्टैण्ड, नाथद्वारा
श्रीमान् लक्ष्मीचन्द जी तालेड़ा D श्रीमान् फतेहलाल जी सा. लोढ़ा
जयपुर (राज.) मंगल ज्वैलर्स, लाल बाजार, नाथद्वारा
- श्री जैन महिला मण्डल, जैन स्थानक 0 श्रीमान् मोतीलाल जी सा. डागलिया ____ अलवर (राज.) ____ महावीरपुरा, नाथद्वारा
Cश्रीमान कालुलाल जी सिंघवी → श्रीमान् चुन्नीलाल जी सा. डागलिया
उदयपुर (राज.) महावीरपुरा, नाथद्वारा
श्रीमान् ललित कुमार जी बागरेचा । श्रीमान् रंगलाल जी सा. डागलिया
६० भोपालपुरा, उदयपुर लालबाजार, नाथद्वारा
0 श्रीमान श्रीचन्द हेमराज डोसी 10 श्रीमान पन्नालाल जी मनोहरलाल जो राठोड़ अनाज के व्यापारी महावीरपुरा, नाथद्वारा
मेड़ता सिटी
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0 श्रीमान् भेरूलाल जी वच्छराज जी सिंघवी
नान्देशमां, जिला-उदयपुर D श्रीमती हीराबाई ताराचन्द जी बम्बोरो
सायरा, जिला-उदयपुर शाह कन्हैयालाल ताराचन्द माहीम रोड़, पालघर (महा.) । श्रीमती टमुबाई खेमराज जी बाफना सेमड़, जिला-उदयपुर उपासना ट्रेडर्स, एल/१०७३ टेक्सटाइल मार्केट रिंग रोड, सूरत-२
0 श्रीमान चांदमल जी पारसमल गोखरू,
गोटे के व्यापारी
नया बाजार, अजमेर 0 श्रीमान गोविन्दसिंह जी झामड
मदनगंज, जिला-अजमेर (राज.) 10 श्रीमती रमादेवी उज्वल
मेरठ सिटी (उत्तर प्रदेश) 0 श्रीमान् बंशीलाल जी लोढ़ा
गंज बाजार, अहमदनगर (महा०) D एम० भीखमचन्द संचेती ___८० मार्केट स्ट्रीट, पेरम्बूर मद्रास
श्रीमान् खुमाणिंग जी सा. काग्रेचा मु. पो. सिंघाड़ा, वाया-गोगुन्दा
उदयपुर 0 श्रीमान् राजेन्द्रकुमार जी मेहता
सायरा, उदयपुर - श्रीमान् नाथुलाल जी माद्रेचा
ढोल, वाया-गोगुन्दा उदयपुर 0 श्रीमान् चुन्नीलाल जी कसारा तिरपाल, जिला-उदयपुर
0 श्रीचन्द जैन
जैन बन्धु, पंजाबी बाग न्यू दिल्ली
- मोतीलाल जी भोगर
सायरा जिला-उदयपुर
D हस्तीमल जी धोखा
सायरा, जिला-उदयपुर 0 फतहलाल जी भोगर
सायरा, जिला-उदयपुर
0 श्रीमान् कालूलाल जी ढालावत तिरपाल, जिला-उदयपुर
D रूपराज जी दौलतराज जी कोठारी
१३/२६७ कोठारी भवन, नया बाजार, अजमेर
0 श्रीमान् छोगालालजी डोसी कम्बोल जिला-उदयपुर
D श्रीमान् केशुलाल जी तलेसरा
जसवन्तगढ़, उदयपुर वरदीचन्द सुखलाल पी./९५ टैक्सटाइल मार्केट रिंग रोड़, सूरत-२
Dकिशनचन्द सुरेशकुमार बोहरा
१२/६/२६ बाजार स्ट्रीट पो. ओ. चित्तूर (आन्ध्रप्रदेश) श्रीयुत चुन्नीलाल जी सा. धर्मावत आकाश दीप, चेटक सर्कल, उदयपुर
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सहयोगी सदस्य (रुपया पांच सौ के सहयोग प्रदाता) 0 श्रीमती अंजना प्रदीपकुमार लोढ़ा
0 श्रीमान् पन्नालालजी धनपतलालजी बरड़िया संग्रामगढ़, जिला-भीलवाड़ा
___ मदनगंज, जिला-अजमेर (राज.) श्रीमान् सम्पत्तमल जी चौधरी
0 श्रीमान् तेजराजजी सा. मोदी फूलियाकलां, जिला-अजमेर
___ मदनगंज, जिला-अजमेर श्रीमान् भेरुलालजी सा. मेहता
10 श्रीमान् शिखरचन्द जी सा. कर्णावट डुंगला, जिला-चित्तौड़गढ़
किशनगढ़, जिला-अजमेर D श्रीमान नक्षत्रमल जी पितलिया
0 श्रीमान् मांगीलाल जी सा. ओरड़िया ___मंगलवाड़ चौराया, जिला-चित्तौड़गढ़
वास, जिला-उदयपुर - श्रीमान् भंवरलालजी वसन्तीकुमारजी भडक्त्या 0 श्रीमती दाखीबाई वेणीचन्द जी सदर बाजार, चित्तौड़गढ़ (राज.)
झगडावत की प्रेरणा से
रोशनलाल जी झगडावत 1 श्रीमान् मदनलालजी भडक्त्या
डबोक जिला-उदयपुर नाथुलाल फतेहलाल भडक्त्या चित्तौड़गढ़
0 श्रीमान् कानमल भवरलाल जी चोपड़ा 0 श्रीमान् सोहनलाल जी चीपड़
जावद, नीमच सिटो जिला-मंदसोर ___कपड़े के व्यापारी, चित्तौड़गढ़
0 श्रीमान् मदनलाल ज्ञानचन्द कावड़िया 0 श्रीमान् सुन्दरलाल जी जैन
कटला बाजार, मदनगंज, अजमेर मीठारामजी का खेड़ा, चित्तौड़गढ़
7 श्रीमान् मोहनलाल खेमराज सिंघवी 17 श्रीमान् नाथुलालजी कोठारी
नान्देशमा, जिला-उदयपुर कोठारी कटपीस सेण्टर, मालदास स्ट्रीट
0 श्रीमान् अम्बालालजी चुन्नीलालजी बम्बोरी उदयपुर (राज.)
नान्देशमा, जिला-उदयपुर । श्रीमान् शोभालालजी चुन्नीलालजी दोलावत पदराड़ा जिला-उदयपुर (राज)
0 श्रीमान् भुरीलाल जी कमलाजी सिंघवी श्रीमान् थावरचन्द जी सा, छगनलाल
नान्देशमा, जिला-उदयपुर कन्हैय्यालाल
0 श्रीमान् रतनलाल जी दोलावत
नान्देशमा, जिला-उदयपुर जिला-थाणा (म.)
0 श्रीमान् गुणेशलाल जी D श्रीमान् मोहनलाल जी सा. पीपाड़ा
हीरालालजी भण्डारी मदनगंज जिला-अजमेर (राज.)
नान्देशमा, जिला-उदयपुर
गुड़लीवाला, वसई गांव
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0 श्रीमान मीठालाल जी चुन्नीलाल जी तलेसरा 0 श्रीमान चम्पालाल जी जसवन्तगढ़ जिला उदयपुर
वरदीचन्द जी परमार, पदराड़ा
मिलन किराणा स्टोर 0 श्रीमान् रूपचन्द जी पूनमचन्द जी घाटावत
वीरार स्टेशन कमोल
जिला-थाणा (म.) दर्शन ज्वैलर्स, गोसालिया पार्क बोईसर, जिला-थाणा (म.)
0 श्रीमान् नन्दलाल जी
केशुलाल जो परमार पदराड़ा 10 श्रीमान् मगनलाल जी चमनलाल जी डोसी
वन्देवीरं कार्पोरेशन, रिंग रोड़ कम्बोल, जिला उदयपुर
१०५५ गोलवाला मार्केट, D स्व. जवेरीबाई वरदीचन्द जो
सूरत-२ सुपुत्र नानालाल जी सोलंकी
। श्रीमान बाबूलाल गुलाबचन्दजी परमार कम्बोल, उदयपुर
पदराड़ा जिला-उदयपुर 0 स्वर्गीय पुनमचन्द जी डूगर जी दोषी
0 श्रीमान् रूपचन्द जी चमना जी दोलावत सुपुत्र सोहनलाल जी डोसी
पदराड़ा जिला-उदयपुर कम्बोल, उदयपुर
0 श्रीमती सुन्दरबाई 0 श्रीमान हुकमीचन्द पुखराज
भेरूलाल जी माण्डोत पदराडा कम्बोल वाले, चन्दनसार रोड़,
जीतमल भेरूलाल माण्डोत वीरार-पूर्व, जिला-थाणा
पालघर, जिला थाणा (म.) 0 श्रीमान वच्छराज लक्ष्मीलाल जी ढोलावता श्रीमती नन्दबाई सोहनलाल जी पूनमिया सेमड विनीतकुमार वच्छराज एण्ड कं.
लक्ष्मी सिल्क ट्रेडर्स बोम्बे मार्केट बी. १५ उमरपाड़ा सूरत-२
एल २०७१, टेक्सटाइल मार्केट । श्रीमान वरदीचन्द जी मोडीलाल जी माद्रेचा.
रिंग रोड़, सूरत-२ ढोल
0 मुथा पुखराज कान्तिलाल सीवाणावाला वी. कमलेश एण्ड कं.
मु. पो. बारडोलो, जिला-सूरत (गुजरात) जेड ११७४ ग्राउण्ड फ्लोर टैक्सटाइल बाजार, सूरत-२
- श्रीमान् उगमचन्द जी पवनचन्द जी मेहता
कपड़े के व्यापारी 0 श्रीमान् रामलाल जी होरालाल जो तलेसरा मु. पो. गोरेगाँव वीरप्रभु टोडिंग कम्पनी,
जिला रायगढ़ (महा.) एन २०८३ टैक्सटाइल मार्केट रिंग रोड सूरत-२
श्रीमान् मोतीलाल जी भबूतमल जी गाँधी
१० ए/8 गोपाल नगर II माला D श्रीमान् सुन्दरलालजी शेरमल जी बोल्या
पो. भिवण्डी, जसवन्तगढ़, जिला उदयपुर
जिला-ठाणा (महा.) ५८४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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उदार अर्थसहयोगी सज्जनों का परिचय
श्री रमणभाई पुनमिया सादड़ी, वसई
ओसवाल समाज सादड़ी मारवाड़ का नाम इतिहास प्रसिद्ध वीर भामाशाह के कारण सदा स्मरणीय रहेगा । ऐतिहासिक नगरी सादड़ी के ओसवाल समाज के पुनमिया परिवार में श्रीमान रमण लालजी एवं जयन्ती लालजी पुनमिया का जन्म हुआ । आप दोनों भ्राताओं के पिताश्री का नाम उदारमना सेठ श्री मोतीलालजी पुनमिया एवं मातुश्री का नाम जमनाबाई हैं ।
धार्मिक परिवार में जन्म होने से आप दोनों में जन्म के साथ धार्मिक संस्कार भी प्राप्त होने लगे, श्रीमान् रमणलालजी की धर्मपत्नि का नाम सो भानुमति है एवं जयन्तिलालजी की धर्मपत्नि का नाम सौ. कान्तादेवी है। रमणलालजी के सुपुत्र अशोक कुमार जी, संजयकुमार जी एवं जयन्तिलाल जी के सुपुत्र नीलेशकुमार जी एवं जुलेशकुमार जी हैं ।
सौ. भानु बहिन पुनमिया सादड़ी, बसई
आपका सम्पूर्ण परिवार पूज्य उपाध्याय एवं उपाचार्य श्री के प्रति आस्थावान रहा है, आपने प्रतिवर्ष धार्मिक संस्थाओं में मुक्त हस्त से दान दिया है । इसी दान प्रवृत्ति से प्रेरित होकर प्रस्तुत ग्रन्थ में भी आपने उदारता से सहयोग दिया है। वर्तमान में आपका सोने-चांदी का प्रसिद्ध व्यवसाय बसई महाराष्ट्र में चल रहा है । समाज से आप दोनों भाइयों से बहुत कुछ आशाएँ हैं, आपके फर्म का नाम है
मोतीलाल कस्तुरचन्द शाह झण्डा बाजार, पोस्ट - वसई जिला - थाणा (महा० )
( १ )
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श्रीमान् ल हेरीलाल जी सिंघवी, सूरत
श्रीमान लहरीलालजी सा. सिंघवी एक ऐसे युवा सज्जन हैं जो सदा हँसमुख प्रसन्नचित्त रहते हुए अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहे हैं, आपका जन्म मेवाड़ के उस प्रसिद्ध ओसवाल सिंघवी परिवार में हुआ है जो सदा से ही धार्मिक, सामाजिक कार्य में अगुवा रहा है। आपश्री के पूज्य पिताश्री का नाम सेठ डालचन्दजी सा. सिंघवी हैं, आपके बड़े भाई श्रीमान रतनलालजी सा सिंघवी भी आपकी भांति ही समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। श्रीमान रतनलालजी सा. की धर्मपत्नि का नाम सुन्दरबाई हैं, एवं लहरी लालजो सा की धर्मपत्नि का नाम कमलाबाई है ।
आप दोनों भ्राताओं की जोड़ी राम व लक्ष्मण की भाँति सदा मिलनसार रही हैं। आपके सुपुत्र-नरेन्द्रकुमार, अनिलकुमार, नरेशकुमार, बलवन्त कुमार, निलेश कुमार, लवेश एवं हिमांशु हैं । इसी प्रकार आपकी सुपुत्रियाँ हेमाकुमारी, पिंकी, डिम्पल इस प्रकार भरा-पूरा परिवार आपका धर्म व समाज के कार्य में सदा अग्रगण्य रहता है । आपकी सुप्रसिद्ध फर्म है
शाह लहरीलाल डालचन्द सी/१०११ सूरत टैक्सटाइल मार्केट रिंग रोड, सूरत-३६५००२ फोन-६२३२८४, ६२४२०८
on
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स्व० धर्ममूर्ति विद्यावती जैन
भारतवर्ष में पुरुषों की भाँति नारियों ने भी तप त्याग, संयम व समाज के कार्य में अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान किया है, उन्हीं धर्ममूर्ति सन्नारियों में धर्मपरायणा उदारमना स्वर्गीया विद्यावती देवी का नाम भी सदा स्मरण रहेगा। पंजाब प्रान्त के मलोटमण्डी में जन्म लेकर आपने अबोहर मण्डी में लाला खुशीराम जैन के साथ पाणिग्रहण किया, प्रारम्भ से ही धर्म संस्कार से संस्कारित होने के कारण आपके कारण सारा परिवार धर्म रंग में रंग गया, आपके दो सुपुत्र श्री भगवानदासजी एवं श्री बजरंगदासजी हैं जो माता के अन्तिम क्षणों तक सेवा में सदा बने रहे । भगवानदासजी की धर्मपत्नि का नाम लाजवन्ती एवं बजरंगदासजी की धर्मपत्नि का नाम मोहनदेवी है ।
आपने दो पुत्रियों को भी जन्म दिया जो सुरेशकान्ता एवं दूसरी जैन साध्वी बनकर आत्मकल्याण कर रही है जिनका नाम विदुषी साध्वी श्री शिमलाजी है ।
मातेश्वरी विद्यावती के ४ पौत्र हैं, जिनके नाम दिनेश जैन, प्रवीण जैन, अमन जैन एवं रमेश जैन हैं । दिनेशजी की धर्मपत्नि सुनीतादेवी, प्रवीणजी की धर्मपत्नि अमितादेवी एवं रमेशजी की धर्मपत्नि सुधादेवी है । पौत्रों की तरह आपकी सुपौत्रियाँ भी प्रमिला, मंजू, संजू, सुनीता एवं निरुकुमारी भी धार्मिक संस्कारों से रंगी हुई हैं। आपने इस भरे-पूरे परिवार को दि २२ मई, १९८९ को छोड़कर स्वर्ग सिधार गयीं, पर अपने सुसंस्कारों से घर-परिवार समाज को संस्कारित करके गयी जिसे सदा स्मरण रखा जायेगा ।
आपके सुपुत्रों ने धार्मिक क्षेत्र के साथ-साथ देश के व्यापारिक क्षेत्र में जो यश एवं नाम कमाया है वह आज भी चमक रहा है । आपकी सुप्रसिद्ध धागे को मील उदयपुर में है जो श्रुतिसेन्थेटिक्स लोहिरा के नाम से विश्रत है । साथ ही आपकी फर्म का नाम है
दौलतराम छोगमल जैन पोस्ट - अबोहर मण्डी जिला - फिरोजपुर (पंजाब)
प्रस्तुत ग्रन्थ में मातेश्वरी ने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है ।
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श्रीमान् प्रतापमलजी सा. सुराणा
मु. कोठारीया (राज.)
धर्मपत्नी श्रीमती धापुबाई मु. कोठारीया (राज.)
उदयपुर जिले के कोठारिया (नाथद्वारा) ग्राम में जन्मे श्रीमान् प्रतापसिंह जी सा सुराणा जैन समाज के विख्यात दानवीर पुरुष हैं। आपने अपने प्रबल प्रयास से हर क्षेत्र में विक है। आपके ४ सपूत्र हैं जो पिताश्री के आज्ञा में चलते हुए अपने व्यापार व्यवसाय को आगे बढ़ा रहे हैं, आपका बम्बई में व्यवसाय है । सादगी व मिलनसारी गुण होने से आपने बहुत शीघ्र ही समाज व व्यापारिक क्षेत्र में अपना स्थान बना लिया है। जैन धर्म के प्रति आपकी गहरी रुचि व श्रद्धा है । आप अनेक धार्मिक, सामाजिक कार्यों में सदा मुक्त हस्त से सहयोग देते रहते हैं।
परम विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवतीजी म० के आप संसारपक्षीय चाचाजी हैं। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में आपने स्वेच्छा से उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है। आपश्री की धर्मपत्नी श्रीमती धापुबाई भी एक सद्गृहस्थ महिला हैं । आपके सुपुत्रों के नाम-श्रीमान् मीठालालजी, श्रीमान् ओंकारसिंहजी, नवलसिंहजी, हिम्मतसिंहजी हैं। आपके ४ सपूत्रों के अलावा ३ सुत्रियाँ हैं जिनके नाम केसरबाई, कुन्ताबाई और सुमित्राबाई हैं, इस प्रकार आपका भरा-पूरा परिवार धर्म व समाज के कार्य में अगुवा है।
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४
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लाला फलचन्द जी जैन
लाला पवनकुमार जी जैन कांदला
कांदला जैन समाज में अनेक श्रावक ऐसे हैं जो सदा धार्मिक, सामाजिक कार्यों में अग्रगण्य हैं, उन्हीं श्रावकों की लड़ी की कड़ी में लाला फूलचन्दजी जैन एवं आपश्री के सुपुत्र लाला पवनकुमार जैन का नाम भी विवत है, सुप्रसिद्ध कांधला (उत्तर प्रदेश) नगर में आपका जन्म हुआ है।
आप बहुत ही उदारमना, महानुभाव हैं, आपका विश्वास विज्ञापन में नहीं अपितु कार्य करने में रहा है, आपकी ही सद्प्रेरणा से परमविदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी म० की सेवा में साध्वी श्री गरिमाजी एवं रुचिकाजी की जैन दीक्षाएं कांधला नगरी में हुई तब से लेकर प्रतिवर्ष आप सद्गुरुणीजी म० के श्रीचरणों में दर्शन सेवा का लाभ उठा रहे हैं । लाला फूलचन्दजी के सुपुत्र का नाम लाला पवन कुमार जैन है । लाला पवनकुमार जी की धर्मपत्नी भी एक सुश्राविका है । आपके २ सुपुत्र है।
___आपका सम्पूर्ण परिवार देव गुरु धर्म पर अटूट आस्थावान है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपने स्वेच्छा से गुरु-भक्ति से प्रेरित होकर उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है। आपके कर्म का नाम है
- लाला फूलचन्द पवनकुमार जैन सराफ
पोस्ट-कांधला जिला-मुजफ्फरनगर (उ० प्र०)
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धर्मानुरागिणी मातुश्री
श्रीमती अनुराधा- श्रीमान् अशोककुमार जैन चोथबाई सियाल
अशोककुमार जैन भारत के महापुरुषों ने जीवन की परिभाषा करते हुए लिखा है कि जीवन वह है जिसमें उदारता हो, धर्म के प्रति सदभावनाएँ हों. जो स्व-पर कल्याण के मार्ग का अनसरण करता हो। प्रस्तत कसौटी पर जब हम उदारमना मातेश्वरी चौथबाई सियाल के जीवन को कसते हैं तो वो खरी उतरती हैं । आपके जीवन में सादगो, संयम, परोपकारिता, उदारता, दयालुता नाना भाँति के गुण मौजूद थे, जिसके कारण ही आप घर-परिवार तक ही सीमित नहीं रहीं, अपितु समाज तक आपके सद्गुणों का प्रकाश पड़ा। आज भले ही इस प्रत्यक्ष जगत में आप नहीं रही हैं, परन्तु आपके गुण सदा रहेंगे । आपका पाणिग्रहण श्रीमान् कन्हैयालालजी सियाल के साथ हुआ। आपके दो सुपुत्र श्रीमान रणजोत सिंहजी सियाल एवं यशवन्तसिंहजी सियाल हैं। आपकी ६ सुपुत्रियाँ-जिनका नाम दौलत, झनकार, गणपत, स्नेहलता, अनुराधा एवं वीणा हैं ।
आपकी ही सुपुत्री स्नेहलता कुमारी आज जैन जगत को एक प्रतिभासम्पन्न साध्वीरत्न हैं और इस विशालकाय ग्रन्थ की प्रधान सम्पादिका हैं, साध्वी दिव्यप्रभा जी।
आपकी पुण्य स्मृति में आपकी सुपुत्री श्रीमती अनुराधा ने अपने श्वसुर माणकचन्द सा डाँगी एवं सास लाडकंवरबाई की प्रेरणा से तथा पति श्री अशोक कुमारजी जैन के सहयोग से प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है।
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श्री मोतीलाल जी डागलिया
नाथद्वारा
श्री चुन्नीलाल जी डागलिया
नाथद्वारा
राजस्थान की पावन पुण्यधरा जहाँ वीर भूमि के रूप में विश्रुत रही है वहीं धर्म भूमि के रूप में भी उसकी ख्याति कम नहीं रही हैं । यहाँ समय-समय पर अनेक नररत्नों ने जन्म लेकर उस धरती को अपनी आन-बान-शान से चमत्कृत किया है । यही कारण है कि ऐसे सद् पुरुषों का नाम हजारों वर्षों तक बना रहा है।
मेवाड़ की सुप्रसिद्ध तीर्थनगरी श्री नाथद्वारा भारत भर में ही नहीं अपितु विश्वभर में प्रसिद्ध रही हैं। इसी नाथद्वारा नगर के सुप्रसिद्ध डागलिया परिवार में आप तीनों भाइयों का जन्म हुआ । श्रीमान् मोतीलाल जी सा. डागलिया, श्रीमान् चुन्नीलाल जी सा. डागलिया, श्रीमान् रंगलाल जी सा. डागलिया आप तीनों भाइयों ने समाज के धर्म के प्रत्येक कार्य में मुक्त हस्त से भाग लिया है, समाज की ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं जिसमें डागलिया परिवार का नाम न आता हो। माता-पिता के सुसंस्कारों के कारण आपके जीवन में देव-गुरु-धर्म के प्रतिपूर्ण आस्था श्रद्धा हैं । धार्मिक साधना में आपकी विशेष रुचि रही हैं। समाज की अनेक संस्थाओं के साथ आप तन-मन-धन से जुड़े हुए हैं। आपकी तरह ही आपका परिवार भी अत्यन्त धर्मनिष्ठ व सुसंस्कारित हैं । उनकी धर्मपत्नियाँ भी उदार मना व सन्तसतियाँ जी की सेवा में सदा अग्रगण्य रहती हैं। परम विदुषी महासति श्री कुसुमवती जी म. के नाथद्वारा चातुर्मास में आपके परिवार ने सेवा का अपूर्व लाभ उठाया, एवं प्रस्तुत ग्रन्थ में भी आपने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है।
श्री रंगलाल जी डागलिया
नाथद्वारा
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श्रीमान् शान्तिलाल जो तलसरा
श्रीमान लक्ष्मोलाल जो तलेसरा
मेवाड़ अपनी गौरवगाथा से सदा समृद्ध रहा है। मेवाड़ के हजारों व्यक्तियों ने समय-समय पर धार्मिक सामाजिक कार्यों में अपूर्व योगदान प्रदान किया है ।
श्रीमान् शान्तिलाल जी लक्ष्मीलाल जी तलेसरा मेवाड़ के यशवन्तगढ़ ग्राम के निवासी हैं, आपके पूज्य पिताश्री का नाम शिवलालजी एवं माताजी का नाम नवलबाई था, माता-पिता के सुसंस्कारों के कारण बचपन से ही आपके दिल में गुरु व धर्म के प्रति अटूट आस्था रही हैं।
श्रीमान् शान्तिलाल जी का पाणिग्रहण बगडुन्दा निवासी गेहरीलाल सा. लोढा की सुपुत्री भंवरदेवी के साथ हुआ। आपके ३ सुपुत्र कुन्दनलाल, महेन्द्रकुमार, और तरुणकुमार तथा ४ सुपुत्रियाँ रतनदेवी, लीलादेवी, लक्ष्मीदेवी एवं जसमाकुमारी है।
आपके लघुभाई लक्ष्मीलाल जी का पाणिग्रहण लक्ष्मीदेवी के साथ हुआ, आपके एक सुपुत्र गौरवकुमार एवं ४ सुपुत्रियाँ पुष्पाकुमारी, सुमित्राकुमारी, अनोखाकुमारी एवं नीताकुमारी हैं।
आपकी दो बहिने देवीबाई एवं कमलादेवी हैं।
आपकी प्रेरणा से गत वर्ष पूज्य उपाध्याय एवं उपाचार्य श्री का जसवन्तगढ़ चातुर्मास सम्पन्न हुआ। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है। आपके फर्म है-अमरतारा कार्पोरेशन ।
अमरशान्ति सिल्क मील्स ३-ए. एम. जी. मार्केट, राजकुमार पेट्रोल पम्प के पास थर्डप्लोर रिंगरोड सूरत ।
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उदयपुर के सुप्रसिद्ध समाजसेवी श्रीमान् सम्पत्तिलाल जी बोहरा की जन्मभूमि जिले के
रुण्डेडा गाँव रही है, आपके पूज्य पिताश्री का नाम सेठ खेमराज जी सा. बोहरा एवं मातेश्वरी का नाम श्रीमती सुन्दरबाई था, आपका पाणिग्रहण जयपुर निवासी उमरावचन्द जी जरगड की सुपुत्री नगीनादेवी के साथ हुआ, आपका व्यापार व्यवसाय उदयपुर में चल रहा है, उदयपुर की अनेक सामाजिक धार्मिक संस्थाओं के आप पदाधिकारी है, आ। विधायक भी रह चुके हैं । चार्टेड अकाण्टेट में आपका नाम प्रमुख रूप से रहा है।
आपके दो सपुत्र हैं जिनका नाम राजकुमार व विनयकुमार हैं । आप की ३ सुपुत्रियाँ हैं जिनका नाम चन्द्रकला, रोता, नीता है । श्री तारक गुरु जैनग्रन्थालय उदयपुर के वर्तमान में आप अध्यक्ष हैं. ग्रन्थ प्रकाशन में भी आपका सहयोग
प्राप्त हुआ है। अश्विनी बाजार में आपकी श्री सम्पत्तिलाल जी बोहरा, उदयपुर
सुप्रसिद्ध फर्म हैं। मदनगंज निवासी श्रीमान चांदमल जी साहब मेहता एक ओजस्वी तेजस्वी एवं समाज के कर्मठ कार्यकर्ता हैं। आपका जन्म किशनगढ़ के निकट पिगलोद में हुआ, आपने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन किया, सन् १९४१ में आपके व्यक्तित्व व कार्य से प्रभावित होकर तत्कालीन किशनगढ़ नरेश द्वारा आपका स्वर्णाभूषण से सन्मान किया गया। सन् १९५२-५४ में आप विधायक भी रहे, प्रामाणिकता व कर्तव्य निष्ठा आप में कूट-कूट कर भरी है, आप अनेक सामाजिक धार्मिक संस्थाओं में पदाधिकारी रहे हैं। मदनगंज श्रावक संघ व श्री वर्धमान पुष्कर जैन सेवा समिति के आप सन्माननीय अध्यक्ष भी रहे हैं। आप श्री के वीरेन्द्रकुमार जी, सुरेन्द्रबाबू जी, नरेन्द्रकुमार जी, जितेन्द्र कुमार जी, सतेन्द्र कुमार जी सुपुत्र हैं, इस प्रकार आपका भरापूरा परिवार समाज क्षेत्र में सदा अग्रगण्य रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आप द्वारा हादिक सहयोग प्राप्त हुआ है।
श्रीमान् चांदमल जी मेहता, मदनगंज (६ )
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जसवन्तगढ़ निवासी उदारमना कर्मठ कार्यकर्ता श्रीमान चुन्नीलाल साहब भोगर का जन्म
वि० सं० १९८४ को हुआ, धार्मिक परिवार होने के कारण बचपन से ही आपके जीवन में धर्म भावना फलीभूत होती रही, आपका पाणिग्रहण गुलाबबाई के साथ हुआ जो एक सद्धर्म परायण उदारमना सुधाविका थी। गुलाबबाई का जन्म वि० सं० १९८५ में हुआ, एवं स्वर्गवास १४ जनवरी सन् १९८८ को हुआ। श्रीमान चुन्नीलाल जी साहब के दो सुपुत्र श्रीमान वसन्तीलाल जी साहब एवं श्रीमान गणेशलाल जी साहब हैं । एवं श्रीमती कचनदेवी वसन्तीलाल जी की धर्म पत्नि है तथा श्रीमती रंजनदेवी गणेशलाल जो की धर्म पत्नि हैं। चन्द्र शकुमार, विपुल कुमार, दीपेशकुमार वसन्तीलाल जो
के एवं विकासकुमार गणेशलाल जी के सुपुत्र हैं। आदरणीय स्व. श्रीमती गुलाबबाई भोगर चुन्नीलालजी साहब की ४ सुपुत्रियाँ भागवतीदेवी, मीनादेवी, जसवन्तगढ़
पुष्पादेवी, लीलादेवी भी धर्मपरायणा हैं। गतवर्ष १९८६ में पूज्य गुरुदेव श्री एवं उपाचार्य श्री के चातुर्मास में आपने तन मन धन से जो समाज सेवा की है वह सदा स्मर णोय रहेगी। आपने अपनी धर्म पत्नि की पुण्य स्मृति में प्रस्तुत ग्रन्थ में उदारतापूर्वक सहयोग दिया है।
इसी प्रकार आपके भतीजे आदरणीय मोहनलालजी साहब भोगर भी एक उदारमना समाज सेवी व्यक्ति हैं, आपका जन्म वि० सं० १९६२ में जसवन्तगढ़ में हुआ। आपकी धम पनि का नाम अ० सौ० चम्पाबाई हैं। वर्तमान में आपके ४ सुपुत्र हैं जिनके नाम-माँगीलाल, जसराज, नरेशकुमार, हितेशकुमार हैं। आपके बड़े सपुत्र मांगीलाल जी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती मधुबाला हैं। इस प्रकार काका भतीजा का यह सम्पूर्ण परिवार धर्म पर आस्थावान रहा है । आपके सूरत में वस्तों का व्यवसाय निम्न फर्म के रूप में हैं0 शाह अनिल कुमार, मोहनलाल एण्ड कं० डी-१०१६, टैक्सटाइल मार्केट, रिंग रोड, सूरत-२
जीवन रथ के संचालन हेतु नर की भांति नारी का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नारी जाति का अपना एक इतिहास है, इसका महत्व सदा सर्वदा से हैं इसीलिए कहा जाता है सो शिक्षकों का कार्य एक मातस्वरूपा नारी करती हैं क्योंकि नारी पुरुष को जिस ढांचे में ढालना चाहती है उसी ढांचे में ढाल सकती हैं। श्रीमती रमादेवी उज्वल का जीवन भी एक सत्य सदाचार का प्रतीक रहा है। आपको प्रेरणा व सत्संस्कारों के कारण ही आपकी सुपुत्री साध्वी गरिमाजी एम. ए. ने संयम व्रत अंगीकार किया है, आपके दो सपूत्र हैं-कूलदोप एवं प्रदीपकुमार एवं ३ सुपुत्रियाँ हैं अशोका, गीता और रीता । गोता ही साध्वी गरिमा जी के रूप में विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवतीजी श्रीमती रमादेवी उज्ज्वल की सुशिष्या हैं। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में आपने स्वतः प्रेरित _ मेरठ (उ. प्र.) होकर उदारतापूर्वक दान दिया है। आशा है भविष्य में इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा।
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इस पवित्र भारतभूमि पर समय समय पर कुछ विशिष्ट व्यक्ति जन्म लेते रहे हैं जिनका जीवन उस फूल सा महकता रहा है जो जीते जी भी अपनी सुगन्ध से समाज को सुवासित करते रहे
और जीवनोपरान्त भी, जिनकी सुवास से समाज सुवासित रहता है, उन्हीं सद्पुरुषों की लड़ी की कड़ी में स्वनाम धन्य परम गुरुभक्त उदारमना शेरा प्रान्त के शेर स्व० सेठ श्री चुन्नीलाल जी सा परमार का नाम भी बड़े गौरव के साथ लिया जाएगा। आपका जन्म पदराडा गांव में सेठ श्री लालचन्द जी परमार के घर पर मातुश्री कंकृवाई की कुक्षी से हुआ, बचपन में सुसंस्कारों के कारण आपमें धार्मिकता ने प्रवेश किया जो जीवन के अन्तिम क्षणों तक बनी रही, युवावस्था होने पर आपकी शादो ढोल गांव के सुप्रसिद्ध सेठ परिवार की कन्या श्री लहरीबाई के साथ हई।
आपके ५ सुपुत्र आज भी ५ पाण्डवों की तरह सदा सामाजिक धार्मिक कार्य में अगुवा रहते हैं जिनके नाम क्रमशः सोहनलालजी. श्री चुन्नीलाल सा. परमार भंवरलाल जी, गोकुलचन्द जी, कन्हैय्यालाल जी एवं गोविन्दसिंह जी हैं जिनकी धर्मपत्नियाँ सुशीलाबाई, कंचनबाई, लोलाबाई मोनाबाई एवं लोलाबाई हैं। आपको ३ सुपुत्रियाँ हुलासदेवी, पुष्पादेवी, निर्मलादेवी जिनको क्रमशः तिरपाल, सायरा एवं तिरपाल में शादी हुई है।
पुण्यवानी के प्रबल योग से धर्म के साथ लक्ष्मी देवी का भी आपके घर में दिन दूना रात चौगुना स्थान रहा है। आपके पोत्र पोत्रियाँ दिनेश कुमार, भुपेन्द्र कुमार, जयन्ति कुमार, विपुल कुमार,
दिलीप कुमार हितेश, लोकेश एवं नूतन कुमारी, धुलीकुमारी, ऊषा कुमारी, कोमल कुमारी झली कूमारी आदि के जीवन में भो धर्म संस्कार हैं। वर्तमान में आपका वस्त्रों का प्रसिद्ध व्यवसाय सूरत में है । आपकी प्रसिद्ध फर्मे हैं।
अम्बिका सिल्क कोर्पोरेशन नं० १०८४ टेक्सटाइल मार्केट रिंग रोड सूरत-२
वीना इण्टरनेशनल
सूरत
वीर ज्योति इण्टरप्राईजेज
सूरत-(गुजरात) इसी वर्ष आपका अस्वस्थता के कारण स्वर्गवास हो गया आपके सुपुत्रों ने गुरुभक्ति से उदारतापूर्वक प्रस्तुत ग्रन्थ में सहयोग प्रदान किया है।
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श्रीमान् रतनलाल जी सा मारु अत्यन्त उदारमना धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं आपका जन्म विक्रम संवत् १९८० मगसरवदी १३ को नरवर ग्राम में हआ, आपके पूज्य पिताश्री का नाम भंवरलाल जी मारु एवं मातु श्री का नाम श्रीमती गोपी देवी और आपकी धर्मपत्नो का नाम सौभाग्यवती सोनी देवी है।
आप सदा से ही सेवा, शिक्षा, चिकित्सा के क्षेत्र में हजारों का दान पूण्य करते रहे हैं, आपत्री के३भाई एवं तीन बहिने हैं। आपका सम्पूर्ण परिवार धर्मनिष्ठ रहा है, पूज्य उपाध्याय उपाचार्य श्रीम. के मदनगंज चातुर्मास में आपका पूर्ण सहयोग रहा । श्री वर्धमान पुष्कर जन सेवा समिति मदनगंज के आप वर्तमान में अध्यक्ष हैं, आप मदनगंज श्रावक संघ के भी वर्षों तक अध्यक्ष रहे पूज्या गुरुणी जी म० के प्रति श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर आपने प्रस्तुत ग्रन्थ में उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है। आपकी फर्म का नाम है
मारु ब्रदर्स डागा गली पो० मदनगंज जिला-अजमेर (राज.)
श्री रतनलाल जी मारू
मदनगंज
श्रीमान कालूलाल जी सा. ढालावत मेवाड के गोगन्दा तहसील में नान्देशमां ग्राम में जन्मे, एवं अपने बुद्धि बल से शीघ्र हो आपने अनेक संस्थाओं में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर उन समाज में लोकप्रिय बन गए हैं, संस्थाओं को फलीभूत किया है, आज इस प्रान्त की छोटी से लेकर बड़ी संस्थाओं में आपका नाम जुड़ा हुआ है।
वर्तमान में आपश्री अपने परिवार के साथ तिरपाल गाँव में रह रहे हैं एवं आपके सुपुत्र देवेन्द्र कुमार जी आदि सूरत में कपड़े के व्यवसाय को चला रहे हैं। आपश्री के पिताश्री का नाम छगनलालजी सा. ढालावत हैं आप उपाध्याय एवं उपाचार्यश्री के अनन्य भक्त हैं।
श्री कालुलालजो सा. ढालावत
तिरपाल
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समाज रत्न सुश्रावक आदरणीय सेठ साहब श्री चुन्नीलाल जी सा. धर्मावत उदयपुर जैन समाज के ही नहीं अपितु शहर के एक कर्मठ कार्यकर्ता व उदारमना सुश्रावक है ।
आपका जन्म उदयपुर जिले के बागपुरा ग्राम में पोरवाल जैन कूल में हआ, आपने प्रबल पुरुषार्थ से अपन व्यापार-व्यवसाय को उदयपुर में स्थापित कर प्रामाणिकता व सदाचारता के कारण अपने नाम को रोशन किया हैं। परम श्रद्धय उपाध्याय श्री पूष्कर मुनिजो म. एवं श्रमण संघ के उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म० आदि सन्त सतियों के प्रति आपके हृदय में गहरी आस्था श्रद्धा है समाज सेवा में आप लम्बे समय से जुड़े हुए है, आपकी समाज सेवा से प्रभावित होकर गतवर्ष आपका समाज द्वारा अभिनन्दन किया गया एवं जैन का कांफ्रेंस के माननीय अध्यक्ष पुखराजमल जी सा. लुकड़ बम्बई ने आपको समाज रत्न की उपाधि प्रदान की। आप वर्षों से श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर के कोषाध्यक्ष व सक्रिय कार्यकर्ता है साथ ही अनेक संस्थाओं के माननीय पदाधिकारी है। आपको भौति ही आपके सुपुत्र परमेश्वर धर्मावत एक उत्साही समाजसेवी हैं आपकी सुप्रसिद्ध फर्म हैं
शाह चन्दनमल चुन्नीलाल धर्मावत बड़ा बाजार, उदयपुर
समाजरत्न श्री चुन्नीलाल जो
धर्मावत
मेवाड प्रान्त अपनी आन बान शान के लिए सदा अगुवा रहा है यहाँ पर समय समय पर अनेक श्रावक रत्न पैदा हुए हैं, जिन्होंने धर्म व समाज के कार्य में अपना अमूल्य योगदान प्रदान किया है। उन्हीं की लडी की कडी में सुश्रावक खूमाणिग जो काग्रे चा का नाम भो गौरव के साथ लिया जाता हैं. आपका जन्म शेरा प्रान्त के सिंघाडा ग्राम में हुआ।
आपके दो सुपुत्र मीठालालजी, हिम्मतकुमार जी हैं।
वर्तमान में समाज की प्रायः सभी संस्थाओं से आप जुड़े हए हैं, पूज्य उपाध्याय एवं उपाचार्य श्री के प्रति आपका अगाध श्रद्धा हैं।
आपका व्यवसाय सूरत अहमदाबाद में हैं।
सेठ खमानसिंह जी काग्रेचा
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श्रीमान् सोहनलाल जी सा. जैन वीर भूमि मेवाड की नाथद्वारा नगरी के एक सुप्रसिद्ध समाज सेवी उदारमना उत्साही एवं लोकप्रिय कार्यकर्ता हैं । जीवन तो सभी को मिलता है पर जोवन जीने की कला किसी किसी को मिलती है। बहुत से मानव खुद भी दुःखी एवं दूसरों को भी दुःखी करके जीते है तो बहुत से खुद भी सुखी एवं दूसरों को भी सुखी करके जीते है । श्रीमान सोहनलाल जी जैन उस फूल की भाँति है जो अपनी सुगन्ध सौरभ से सभी को प्रसन्न कर देता है। आपके सहयोग से नाथद्वारा समाज का नाम सदा आगे रहा है, वहाँ बड़े बड़े चातुर्मास भी आपकी प्रेरणा से होते रहे हैं परमादरणीया महासती श्री कुसुमदतो जो म० के चातुर्मास में भी आपका अपूर्व योगदान रहा है साथ ही इस ग्रन्थ में भी आपका पूर्ण सहयोग रहा है । आपकी भांति ही आपका सम्पूर्ण परिवार धर्म निष्ठ हैं, आपकी फर्म का नाम हैं
जैन ट्रान्स्पोर्ट कम्पनी बस स्टेण्ड के पास नाथद्वारा जिला उदयपुर (राज.)
जनज
श्रो सोहनलालजी जैन-नाथद्वारा
श्रीमान् शंकरलाल जी सा. बम्ब नाथद्वारा जैन समाज के एक प्रमुख उदारमना चिन्तनशील सुश्रावक हैं । आपको एवं आपके परिवार को धर्म के प्रति गहरी रुचि एवं आस्था है, आपने अपने पुरुषार्थ से धार्मिक सामाजिक क्षेत्र के साथ साथ व्यापारिक क्षेत्र में भी अच्छा नाम कमाया है। नाथद्वारा में आपके कपड़ों का अच्छा व्यवसाय हैं, प्रतिदिन आप अपने नित्य नियम के साथ शान्ति के साथ अपना जीवन व्यवहार कुशलतापूर्वक बनाए रखे हैं। समाज को भविष्य में आपश्री से बहुत कुछ आशाएँ हैं। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में भी आपने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है।
शकरलालजा बम्ब-नाथद्वारा
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गोपीलालजी शिसोदिया
श्रीमती देउबाई बागरेचा सूप्रसिद्ध शिशोदिया परिवार में जन्मे उदारमना श्रीमती देउबाई एक उदारमना धर्मपरायणा सुश्रावक श्रीमान् गोपीलालजी सा. एक सज्जन पुरुष सुश्राविका हैं, बचपन में ही आपके जीवन में धर्म हैं। आपके सम्पूर्ण परिवार में धर्म के प्रति अच्छी संस्कार होने से आपके परिवार में धर्म भावना लगन व निष्ठा है। नाथद्वारा जैन समाज के प्रमुख व्याप्त हैं, सामाजिक धार्मिक कार्य में आप व्यक्तियों में आपकी गिनती की जाती है। समाज के सदा मुक्त हस्त से लाभ लेती रहती हैं। आपके सभी कार्यों में आप सदा उत्साहपूर्वक भाग लेते कारण आपके सम्पूर्ण परिवार में भी धर्म भावना रहते हैं. सन्त सतियों की सेवा भक्ति करने में व्याप्त हैं, पज्या श्री कुसुमवती जी म० के नाथ आपको हमेशा प्रसन्नता रहती है। आपके कारण द्वारा चातुर्मास में आपने अपूर्व धर्म लाभ लिया। आपका सम्पूर्ण परिवार धर्म के प्रति आस्थावान प्रस्तुत ग्रन्थ में भी सहयोग रहा है। आपके हैं, ग्रन्थ प्रकाशन में भी आपका पूर्ण सहयोग रहा पतिदेव श्रीमान कन्हैयालाल जी बागरेचा भी एक
धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं।
जीवन में सत्संग का अपना अनुठा महत्व रहता है इसीलिए कहा जाता हैं सत्संग लोहे को पारस बना देता है अज्ञानी को ज्ञानी बना देता है। कभी-कभी यह सत्संग जीवन को बदल देता है इसी का उदाहरण हैं युवा सायो पत्रकार मांगीलाल जी समीदिया जो धर्म स्थान से सदादूर रहते थे, पर सन् १९८८ में आपके ग्राम नाथद्वारा में परम विदुषो साध्वो श्रो कुसुमवती जी म. का चातुर्मास हुआ आपके सत्संग में आकर इनके जीवन में भी परिवर्तन हुआ, आपके पूज्य पिताश्री का नाम श्रीमान् कैलाश चन्द जी समीदिया हैं, अपनी इस छोटी-सी वय में आपने अनेक सामाजिक कार्य किए हैं। वर्तमान में आप निम्न फर्मों से जुड़े हुए हैं। मै० अमीत विडियो हाउस, ७ माणक चौक, नाथद्वारा
मांगीलाल समादिया कृष्णा कैसेट सेण्टर, अहिल्या कुण्ड, नाथद्वारा
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नाम-नाथुलाल मादरेचा पिता-अंबालालजी मादरेचा पुत्र-रूपचन्द, सुखलाल, दिनेशकुमार पुत्री-सुन्दरकुमारी धर्मपत्नि-नाथीबाई, पौत्र-आकाशकुमार, अनिल कुमार, गौतमकुमार पौत्री-रेशमाकुमारी, प्रीति कुमारी, आशाकुमारी दुकान-(१) हीरा टेक्सटाइल एजेन्सी
१० रेशमवाला मार्केट, रिंगरोड सूरत (२) दिनेश ट्रेडिंग कम्पनी सूरत
नाथूलाल मादरेचा -ढोल हाऊस, उदयपुर ढोल फोन नं. ४२
३२३ B अंबा माता स्कोम उदयपुर आप मेवाड़ की अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष व मन्त्री हैं। पज्य गुरुदेव के प्रति आपको अनन्य आस्था है।
नाथद्वारा निवासी श्रीमान मनोहरलाल जी सा राठौड़ जैन समाज के एक सुलझे हुए उदारमना कर्मठ कार्यकर्ता हैं, समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समय-समय पर आपकी ओर से उदारतापूर्वक सहयोग प्राप्त होता रहता है।
मनोहरलाल जो राठौड
आपश्री के पिताश्री का नाम श्रीमान पन्नालाल जी सा राठोड़ है, पूज्य पिताश्री के श्रीचरणों में रहते हए आपने धार्मिक, सामाजिक क्षेत्र में अपना नाम आगे बढ़ाया है, समाज को आपश्री से भविष्य में अनेकानेक आशाएँ है, आपके व्यवसाय नाथद्वारा में ही निम्न नाम से प्रारम्भ हैं
मै० एवन स्टील फर्नीचर मॉर्डन स्कूल के सामने, नाथद्वारा मोहनलाल पन्नालाल राठोड़ लाल बाजार, नाथद्वारा
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श्रीमान् पन्नालाल जो बरडिया, मदनगंज
आप पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. के अनन्य भक्त हैं । मदनगंज के प्रमुख सेवाभावी धर्मनिष्ठ श्रावक हैं ।
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श्री मोहनलाल जी पीपाड़ा, मदनगंज
आप श्री उदारमना सेवाभावी श्रावक हैं । साधु-सन्तों की सेवा में सदा अग्रणी रहते हैं ।
फतेहलाल जी लोढ़ा
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श्रीमान फतेहलाल जी लोढा नाथद्वारा जैन समाज के एक जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं,
आपका सम्पूर्ण परिवार स्थानकवासी जैन धर्म पर पूर्ण आस्थावान हैं, समाज के सभ्य व संगठन में आपका सदा योगदान रहा है, वर्धमान श्रमण संघ के प्रति आपकी गहरी आस्था हैं, आपके सहयोग से समाज के कई कार्य चल रहे हैं, सन् १६८८ में पूज्यनीया श्री कुसुमवती जी म० के चातुर्मास में आपका पूरा सहयोग रहा। आशा है भविष्य में भी आप इसी प्रकार समाज सेवा करते रहेंगे ।
आपका व्यवसाय सोने-चांदी का है । आपकी प्रसिद्ध फर्म है -
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मंगल ज्वेलर्स
नाथद्वारा उदयपुर (राज० )
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श्री ललितकुमार बागरेचा
श्रीमती मधु बागरेचा उदयपुर निवासी श्रीमान् ललित कुमार जी बागरेचा एक ऐसे नवयुवक हैं जो सदा अपने कार्य व कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं आपके जीवन में प्रारम्भ से ही माता पिता के सुसंस्कार के कारण धार्मिक भावनाएं बनी रही, समाज के शोसल वर्क के प्रति आपकी विशेष रुचि रही हैं । आपकी भाँति ही आपकी धर्म पत्नि श्रीमती मधु बागरेचा एक धर्मपरायणा सद् महिला हैं। परिवार व समाज को भविष्य में आपसे बहुत कुछ आशाएँ हैं । पूज्यनीया महासती जी म० के प्रति आपकी गहरी आस्था है । आपने प्रस्तुत ग्रन्थ में उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया हैं।
श्रीमती भूरीदेवी एक ऐसी सरल मना सद् गृहस्थिनी हैं जो स्वयं भी सदा प्रसन्न रहना जानती
और परिवार को भी सदा प्रसन्न रखती हैं, आपके धर्मपति माननीय कालूलाल जी सा सिंघवी एक लब्धप्रतिष्ठित व्यापारी है व उदयपुर के जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता है। समाज के किसी भी सद्कार्य में आपका तन मन धन से सदा सहयोग रहता है। पूज्यनीया गुरुणी जी म० एवं गुरुदेव के प्रति आपके व आपके परिवार में अटूट श्रद्धा हैं । मादड़ा गांव से आप उदयपुर आकर अपने व्यापार व्यवसाय को फलाफूला रहे हैं यश व लक्ष्मी दोनों
का ही घर में सुन्दर निवास है। आपको उदयपुर श्रीमती भूरीबाई सिंघवी
में सुप्रसिद्ध फर्म है
कालूलाल जी सिंघवी सिंघवी एण्ड सन्स ७४ बापू बाजार, उदयपुर निवास : ४०६३, बी भोपालपुरा उदयपुर (राज.)
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नाम : श्री लक्ष्मीचन्द तालेडा पिता : स्वर्गीय श्री स्वरूपचन्द जी सा. तालेडा
(व्यावर) माता : स्वर्गीय श्रीमती एजनकंवर तालेडा
सम्बन्धित संस्थाएँ • मगन जैन सहायता समिति, ब्यावर ।
प्यारचन्द जैन छात्रावास, ब्यावर आंबिल खाता-ब्यावर तालेडा पब्लिक चेरीटेबल ट्रस्ट, ब्यावर अखिल भारतीय जैन दिवाकर संगठन समिति, इन्दौर मै. ओसवाल केबल्स (प्रा.) लि. जयपुर
श्री लक्ष्मीचन्द तालेडा श्री भारत वर्षीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्स, दिल्ली। . धार्मिक कार्यवाही में तन, मन, धन से प्रोत्साहन/साधु-सन्तों की सेवा-सुश्रुषा आदि ।
श्रीमान् छगनलाल जी सा बागरेचा उदयपुर जैन समाज के एक जाने माने उत्साही धर्म
निष्ठ सुश्रावक हैं। आपके जीवन में धर्म के प्रति विशेष लगाव रहा है। अपने नित्य नियम के प्रति सदा सजग रहते हैं। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती बागरेचा भी एक सुश्राविका थीं। विदुषी महासती श्री दिव्यप्रभा जी म० आपके संसारपक्षीया भानजी म० हैं । आपके सुपुत्र हीरालाल जी बागरेचा एवं सुपुत्री प्रेमबाई चपलोत हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आपने उदारतापूर्वक सहयोग
प्रदान किया है। छगनलालजो बागरेचा
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श्रीमान धर्मप्रेमी रिखबचन्दजी सा०
श्रीमती धर्मानुरागिनी स्व० देवीबाई बोहरा सिन्धनूर, (कर्नाटक)
रिखबचन्दजी बोहरा, सिन्धनूर श्रीमान रिखबचन्दजी सा० बोहरा श्रीमान केसरीमलजी बोहरा के सुपुत्र हैं। आपकी मातेश्वरी बहुत ही धर्म परायणा महिला थी। आप राजस्थान में गिरीनावना के निवासी हैं। जब आपकी उम्र आठ-नौ, वर्ष की थी, तब आप कर्नाटक में सिन्धनूर शहर के निवासी श्रीमान चन्दनमलजी बोहरा के वहां पर दत्तक रूप में आये। वहाँ पर श्रीमती माता मनोहर बाई और पिता चन्दनमलजी का हार्दिक स्नेह प्राप्त कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करने लगे।
सिन्धनूर निवासी श्रीमान माणकचन्दजी सकलेचा की सुपुत्री देवीबाई के साथ आपका पाणिग्रहण हआ। देवीबाई बहत ही धर्मपरायण महिला थी। जिन्होंने अनेक मासखमण आदि तप आराधना कर अपने जीवन को धन्य बनाया। आपके चार सुपुत्र हैं-श्रीमान सोहनलालजी, चम्पालालजी, सूरजमलजी, दिलसखराजजी। चारों भाइयों में धार्मिक संस्कार माता-पिता से विरासत के रूप में मिले हैं। श्रद्ध य उपाध्याय और उपाचार्यश्री के प्रति आप में अपार श्रद्धा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका सुन्दर योगदान प्राप्त हुआ है।
आपके फर्म का नाम(१) महावीर इण्डस्ट्रोज (राईज मिल) सिन्धनूर (कर्नाटक) (२) आर० एस० एण्ड कम्पनी रायचूर (कर्नाटक)
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... मैं नहीं कह सकती, इस अभिनन्दन ग्रंथ का आयोजन क्यों, कैसे हो गया ? यह पूर्व योजनाबद्ध हुआ या सहज ही स्वतः श्रद्धाभाववश ? परन्तु इतना निश्चित है कि इसकी पूर्णता/सम्पन्नता ने मेरे तथा मेरी सहयोगिनी साध्वियों के हृदय को एक नया विश्वास दिया है, एक दृढ़ आस्था जगाई है। और एक सात्विक गौरव से उत्फुल्ल किया है कि सच्ची श्रद्धा और सच्चा संकल्प वह सब कुछ कर सकता है, जिससे जमाना असंभव या कठिन कहता है।
पूज्य श्रद्धेया सद्गुरुणी श्री कुसुमवती जी महाराज के गुण-मंडित श्रद्धेय व्यक्तित्व के प्रति जन-जन में इतनी गहरी श्रद्धा और
. सद्भावना है. इसका अनुमान पहले किया नहीं जा सकता था, परन्तु अभिनन्दन ग्रंथ के आयोजन से श्रद्धेय मुनिवरों, पूज्य साध्वीजनों, विद्वानों एवं श्रावक वर्ग के जी श्रद्धाचना स्वरूप विपुल आशीर्वचन, संदेश, लेख आदि प्राप्त हुए, वह सब एक आलेख बन गया, श्रद्धा का उर्ज्जस्वल जीवन्त स्मारक बन गया ।
मुझे विश्वास है, अभिनन्दन ग्रन्थों की माला में यह ग्रन्थ अपनी नैसर्गिक सुषमा एवं सुरभि से सबको ही कुछ विशिष्ट अनुभूति कराता रहेगा, युग-युग
तक..
-साध्वी दिव्यप्रभा
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________________ FAR SHOAN सौम्यता समता अभय संयम