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"नजर छोटी है, किसी भी प्रकार की कठिनाई उपस्थित हो सकती है।" सोहनबाई ने कहा।
"परेशानी अथवा कठिनाई की आप कोई चिन्ता न करें। जो भी होगा, मैं उन सबका सामना करने के लिए तत्पर हूँ।" आश्वासन देते हुए शेषमल जी ने कहा।
__ अपने देवर का आश्वासन पाकर सोहनबाई अपनी पुत्री के साथ देलवाड़ा आ गई । उनकी विनती को स्वीकार करके महासती श्री सोहनकुवर जी महाराज भी देलवाड़ा पधार गये । खूब धूमधाम से दीक्षा की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई।
उधर देलवाड़ा में दीक्षा की तैयारियां प्रारम्भ हो गई थी और इधर उदयपुर में जैसे ही कन्हैयालालजी को विदित हुआ कि बहिन के साथ भानजी भी दीक्षा ले रही है तो मोह के वशीभूत होकर उन्हें बहुत अधिक क्रोध आया और इसी क्रोध के आवेश में पुलिस में जाकर रिपोर्ट कर दी कि चैत्र कृष्णा
द्वितीया के दिन देलवाडा में एक अबोध बालिका को दीक्षा दी जा रही है, उसको रुकवाया जाय । साथ (E) ही देलवाड़ा के कुछ लोगों ने भी उस दीक्षा का विरोध करते हुए कहा कि नाबालिग लड़की को दीक्षा | || नहीं देना चाहिए । दोक्षा समारोह में एक विघ्न उपस्थित हो गया।
क्या दीक्षा व्रत अंगीकार करने के लिये कोई आयु बंधन है ? इस प्रश्न का उत्तर उपाचार्य श्री 102 देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री के शब्दों में इस प्रकार दिया जा सकता है-"जैन धर्म में वय की दृष्टि से दीक्षा ग्रहण करने पर बल नहीं दिया है । चाहे बालक हो, चाहे युवक हो और चाहे बृद्ध हो, जिसमें भावों की प्रबलता और वैराग्य भावना बलवती हो, वह दीक्षा ग्रहण कर सकता है । बालक भी प्रतिभा का धनी होता है, उसमें भी तेज होता है । यही कारण है कि आगम साहित्य में बाल दोक्षा के उल्लेख प्राप्त होते हैं । भगवती सूत्र के अनुसार अतिमुक्त कुमार ने जब भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी, उस
समय उनकी उम्र छः वर्ष की थी । सर्वज्ञ-सर्वदर्शी महावीर ने अतिमुक्त कुमार ही आंतरिक योग्यता और All क्षमता को निहार कर ही दीक्षा दी थी। पर सामान्य साधकों के लिए आठ वर्ष से कुछ अधिक उम्र होने पर दीक्षा प्रदान करने का विधान है।
गजसकमाल मूनि भी लघुवय के थे। यूवावस्था में प्रवेश करने के पूर्व ही उन्होंने साधना पथ को अपनाया था। चतुर्दशपूर्वधर आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र मणक को और आर्य महागिरि ने वज्रदा स्वामि को बालवय में दीक्षा प्रदान की । इसी प्रकार के उल्लेख अनेक स्थलों पर प्राप्त होते हैं।
शैशवकाल में सहजता, कोमलता और निर्मलता के साथ बुद्धि का अनाग्रह भाव तत्व के रहस्य 2 को ग्रहण करने में जितना सहायक होता है, वह अन्य अवस्थाओं में नहीं। बचपन
परछाई की तरह साथ-साथ चलते हैं किन्तु ढलती उम्र में दिये जाने वाले संस्कार न तो अच्छी तरह आत्मसात होते हैं और न वे चिरस्थाई हो पाते हैं । इसलिये दीक्षा के लिये वय नहीं वैराग्य भाव प्रमुख माना गया है।
जैन साहित्य के इतिहास में ऐसे सैकड़ों साधकों का वर्णन प्राप्त होता है जिन्होंने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण कर जैनधर्म की प्रबल प्रभावना को है। आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय, महान कलाकार आचार्य जीतमलजी, महास्थविर ताराचन्दजी महाराज आदि अनेक व्यक्तियों के नाम गिनाये जा सकते हैं।
आगम साहित्य एवं परवर्ती साहित्य में कहीं पर भी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है। बालकों l की भांति हजारों युवक-युवतियों ने भी दीक्षा ग्रहण की है । आगम साहित्य में उन युवक-युवतियों की
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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