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दीक्षा के पूर्व आज्ञा की आवश्यकता क्यों होती है ? इस प्रश्न का समाधान उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री ने बहुत ही सुन्दर रीत्यानुसार किया है उन्हीं के शब्दों में
___"प्रबज्या ग्रहण करने के लिए दीक्षार्थी को माता-पिता या अन्य अभिभावकगुण की अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक था। उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर ही दीक्षा ग्रहण की जाती रही है । बौद्ध ग्रन्थ महावग्ग में राहुल की प्रव्रज्या का भी ऐसा ही प्रसंग है।
स्वयं महावीर को उनके ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन की आज्ञा प्राप्त नहीं हुई तब तक वे गृहवास में रहे । मेषकुमार, राजर्षि उदयन, गाथापति मकाति महाराज श्रेणिक के पुत्र-पौत्र, मृगावती, धन्य अनगार, अतिमुक्त मुनि आदि शताधिक व्यक्तियों ने अपने अभिभावकों से अनुमति प्राप्त करके ही प्रव्रज्या ग्रहण की है।
यद्यपि अन्तरंग त्याग-वैराग्य की प्रबल भावना से ही साधक दीक्षा ग्रहण करता है, तथापि परिजनों की अनुज्ञा की आवश्कता क्यों है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जा सकता है कि जिस साधना को उसने श्रेयस्कर समझा है, जिस आहती दीक्षा के प्रति उसके मन में दृढ़ आस्था पैदा हुई है, उस साधना-मार्ग के प्रति अभिभावकों की श्रद्धा जाग्रत की जाय और उनके आशीर्वाद को ग्रहण कर साधना के पथ पर प्रसन्नता से आगे बढ़ा जाय । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कोई घर से भागा हुआ या गलत व्यक्ति दीक्षित न हो सके। क्योंकि ऐसे प्रवजितों के कारण श्रमण संघ में अशान्ति और विग्रह का वातावरण बनने की सम्भावना थी तथा संघ का अपयश भी हो सकता था।
आगम साहित्य में एक भी व्यक्ति ऐसा दिखाई नहीं देता जिसने बिना अनुज्ञा दीक्षा ली हो। हाँ, एक बात स्मरण रखनी होगी कि जो स्वयं ही सर्वेसर्वा है या संन्यासी आदि जिसका कोई अधिपति नहीं है उसको किसी की आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रही है, पर सामान्य व्यक्तियों के लिए यह नियम रहा है कि वह अनुमति प्राप्त कर दीक्षा ले। यह एक बहुत ही सुन्दर परम्परा रही है और इस परम्परा का अनुसरण आज भी हो रहा है ।"1
दीक्षा तो ग्रहण करनी ही है। समस्या केवल आज्ञा की है। भाई के साथ रहने से इस शुभ । कार्य में कठिनाई/बाधा आ सकती है। सभी पहलुओं पर पर्याप्त सोच-विचार कर सोहनबाई न भाइस
अलग रहने का निर्णय कर अलग रहने लगी। इस समय बालिका नजर दस वर्ष की हो चुकी थी। वैराग्य की प्रबलता के कारण माता और पुत्री शीघ्र ही संयम-मार्ग पर चलने के लिए कटिबद्ध थीं।
सोहनबाई ने अपने देवर श्री शेषमल जी को देलवाड़ा से बुलबाया और अपनी आन्तरिक इच्छा उनके समक्ष रख दी। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि बालिका नजर भी साथ ही दीक्षित हो रही है । शेषमल जी ने तो यह सोचा भी नहीं था। सोचना क्या कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी भाभी और भतीजी दीक्षा का मार्ग भी अपना सकती हैं। उन्होंने अपनी भाभी की भावना की गम्भीरता
को नहीं समझा और वे अपनी भाभी को नानाविध से समझाने का प्रयास किया। कुछ धौंस भी बताई || कुछ प्रलोभन भी दिये । शेषमल जी ने देखा कि उनकी किसी भी बात का प्रभाव माता और पुत्री पर ।
नहीं हो रहा है। दोनों ही अपने संकल्प पर दृढ़ हैं । अन्ततः दृढ़ इच्छाशक्ति के सम्मुख उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और कहा-“यदि आप देलवाड़ा चलकर दीक्षा ग्रहण करें तो मैं आज्ञा देने के लिए तैयार हूँ।"
१ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ४४८-४४६ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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