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माता सोहनबाई भी प्रारम्भ से ही धार्मिक स्वभाव को थो । पति को मृत्यु के पश्चात् उसका ला मन विरक्त हुआ था किन्तु पुत्र और पुत्री के मोह ने उसे बाँध रखा था । पुत्र के देहावसान के पश्चात्
तो वह विरक्त हो चुकी थी और नजर के बड़े होने तथा उसका घर संसार बसाने के पश्चात् संयममार्ग
पर चलने का विचार मन ही मन कर चुकी थी। किन्तु बीच में नजर की बीमारी, महासतीजी द्वारा एक (6 करवाया गया संकल्प आ गया, इसलिए वह अपने अन्तर्मन की बात अभी तक किसी को नहीं बता पाई AMA
थी। बीमारी के समय के संकल्प से उसके मन में एक संतोष यह था कि दीक्षा प्राप्त कर दोनों मां-बेटी साथ-साथ ही रहेंगी। माता सोहनवाई समय की प्रतीक्षा कर रही थी।
एक दिन सोहनबाई और नजरकुमारी अवकाश के क्षणों में बैठी थीं। बीच-बीच में दोनों के र बीच कुछ बातचीत भी हो जाती थी। नजरकमारी दीक्षा लेने वाली बात अपनी माता को बताना
चाहती थी। आज उसे उचित अवसर मिल गया था। उसने बातचीत के दौरान कहा- "माँ! मेरी (ो भावना दीक्षा लेने की हो रही है । आपका क्या विचार है ?"
माता सोहनबाई अपनी पुत्री के ये विचार सुनकर चौंकी नहीं। उन्हें आश्चर्य भी नहीं हुआ। म उन्हें तो नजर के ये विचार सुखद लगे । एक तो वे स्वयं अन्दर से विरक्त थीं। दूसरे नजर के लिए का
| वे पूर्व में इसी प्रकार का संकल्प ले चुकी थी। वे तो केवल अपनी पुत्री के लिए ही संसार पक्ष को छोड़ IC ही नहीं पा रही थी । अपनी पुत्री की बात सुनकर कुछ क्षण तक वे उसकी ओर देखती रही। फिर उसके ।
भावों की दृढ़ता देखने के लिए, उसकी परीक्षा लेने की दृष्टि से कहा-"आज तू यह कैसी बात कर रही पा है। तू तो मेरी इकलौती पुत्री है। मेरी लाड़ली है। मेरे जीवन का एकमात्र आधार है । पुत्री ! मैं तो SAL विचार कर रही थी कि कोई अच्छा परिवार और अच्छा लड़का मिल जाये तो खूब धूमधाम से तेरा । Mi विवाह कर दूं; ताकि तू सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर सके । जहाँ तक दीक्षा का प्रश्न है, उसमें क्या का रखा है ? उसमें सिवाय कष्ट और असुविधाओं के कुछ भी नहीं है ।"
नजर अपनी माताजी की बात बड़े ध्यान से सुन रही थी। अपनी माताजी को गौर से देखकर नजर ने कहा- "माताजी ! मेरे शादी-विवाह का चक्कर तो आप भूलकर भी मत चलाना । मैं किसी भी स्थिति में विवाह करने वाली नहीं हूँ। मुझे ऐसे सांसारिक सुखों की कामना नहीं जिनके कारण मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े। आपने दीक्षा के मार्ग के कष्टों और असुविधाओं की बात कही है। तो संसार पक्ष में क्या कम कष्ट और असुविधाएँ हैं ? यहाँ तो और भी अधिक परेशानियाँ हैं । आप ध्यानपूर्वक सुन 12 लें। मैं दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर चुकी हूँ। कोई भी ताकत बाधा मुझें दीक्षा लेने से रोक नहीं सकती।"
माता सोहनबाई ने अपनी पुत्री को हर प्रकार से समझाने का प्रयास किया किन्तु उस पर तो मंजीठे का रंग चढ़ा हुआ था। कोई प्रलोभन उसे लुभा नहीं सका और कोई भय उसे डिगा नहीं सका। तब माता सोहनबाई ने अपने अन्तर्मन की बात-दीक्षा लेने की उसके सम्मुख प्रकट कर दी। माता और पुत्री दोनों एक साथ दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गईं। अब इन दोनों के सम्मुख प्रमुख समस्या | आज्ञा की थी।
___ दीक्षा की राह और बाधाएँ- सोहनबाई यह जानती थी कि यहाँ आज्ञा भाई से लेनी पड़ेगी .. और वे किसी भी स्थिति में आज्ञा प्रदान नहीं करेंगे । भाई का अपनी बहिन के प्रति असीम स्नेह था। और बहिन से भी बढ़कर अधिक स्नेह और वात्सल्य उन्हें अपनो भानजी नजर पर था। इस स्थिति पर सोहनबाई ने गम्भीरता से विचार किया। १३०
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन Ok साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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