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उदाहरणार्थ 'यह पुस्तक है' इस कथन में पुस्तक के ही आधारित है तथा दैशिक व कालिक परिवर्तनों साथ उसकी विशेषताएँ भी अपृथक् रूप से ग्राह्य का हेतु है। कोई भी वस्तु इस समय जो है, वह
अगले क्षण नहीं रहेगी। जबकि सत्य त्रिकालाबाद्वितीय धारणा के अनुसार पदार्थों से पृथक धित अव्यय होता है; और विज्ञान भी अभी तक एक गुणों का ग्रहण होता है। यह धारणा सभी पदार्थ- किसी ऐसे तत्त्व की खोज नहीं कर पाया है, जो वादी प्राच्य और पाश्चात्य विचारकों तथा वैज्ञा- अव्यय तथा अविनाशो हो। हाँ परमाणओं की मूल निकों को मान्य है । वर्तमान भौतिक विज्ञान किसी स्थिति अविनाशी है, किन्तु गति की स्वाभाविक भी पदार्थ में आकृति, परिमाण तथा गति को अव- सहज क्रिया के कारग उनमें भी निरन्तर कुछ-नश्य ही स्वीकार करता है। ये तीनों ही गुणधर्म कुछ परिवर्तन अवश्य होता है। इस दृष्टि से कोई पृथक सत्ता वाले होते हुए भी पदार्थ में आधेय भाव भी वस्तु त्रिकाल में सत्य नहीं होती। इसी प्रकार (0 से रहते हैं। कोई भी पदार्थ जव ग्रहणविषयता इन्द्रियाँ एक ही समय में किसी वस्तु के पूर्ण स्वरूप TARA वाला होता है, तो उसका परिमाण, आकृति तथा को ग्रहण नहीं कर पातीं। क्योंकि इन्द्रिय का पदार्थ गति ही ग्राह्य होती है।
के सभी पक्षों से सन्निकर्ष एक ही क्षण में नहीं हो जैनदर्शन अपने जिस मौलिक सिद्धान्त के
पाता । इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता कारण लोकविख्यात है. वह है स्याद्वाद या अनेका
है-जिस प्रकार किसी गोले को सामने रखा हआ न्तवाद । स्याद्वाद वस्तुतः पदार्थ के स्वरूप विश्लेषण
दीपक पूर्णरूप से प्रकाशित नहीं करता, अपितु 3 की वस्तुनिष्ठ कल्पना है जो भौतिक विज्ञान के जहा तक आलोक को पहुँच है, वहीं तक गोले को नियमों से तुलनीय है। अनेकान्तवाद के अनुसार
देखा जा सकता है. उसी प्रकार इन्द्रिय का पदार्थ के । कोई भी वस्तु त्रिकाल में न तो पर्ण सत्य है और न
जिस भाग से संन्निकर्ष होता है उसी का ग्रहण हो पूर्णरूप में उसका ग्रहण किया जा सकता है। पाता है। पदार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में सात प्रकार की इस प्रसंग में विज्ञान यथार्थ का उद्घाटन सम्भावनाएं हो सकती हैं, जो सप्तभंगीनय के नाम अन्यान्य भौतिक तथा रासायनिक प्रयोगों द्वारा से विख्यात है।
करता है, जबकि अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन सप्तभंगीनय में सम्भवतः वैज्ञानिक सम्भावना- उसका कारण खोजता है, जिसका पर्यवसान 'जीव' वाद के बीज निहित हों। स्याद्वाद की व्याख्या के के 'अज्ञानाभाव' में होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह लिए हस्ति का उदाहरण प्रसिद्ध है। जिस प्रकार 'अज्ञान' ही सत्य की खोज की अविच्छिन्न परम्परा कोई नेत्रहीन विशालकाय हाथी के संड, कान, पैर को प्रेरित करता है। जैन दर्शन निरपेक्ष सत्य की आदि का स्पर्श करके उन-उन अंगों को ही हाथी प्राप्ति त्रिरत्नों के द्वारा मानता है । ये त्रिरत्न हैं - समझने लगता है उसी प्रकार अज्ञान के आवरण के सम्यकदर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यकचारित्र । कारण जीव पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जान सापेक्षतावादी वैज्ञानिक विचारधारा उस निरपेक्ष नहीं पाता । यह अज्ञान इन्द्रियों के सर्वत्र गमन की तत्त्व तक अपनी दृष्टि का विस्तार अभी तक नहीं अक्षमता ही है। स्याद्वाद का सिद्धान्त वैज्ञानिक कर पाई है, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक-दार्शनिक इस सापेक्षतावाद की पृष्ठभूमि है। आधुनिक भौतिक दिशा की ओर प्रयत्नशील हैं। स्थूल से सूक्ष्म की विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति का सूत्रपात करने वाले ओर गमन का नियम विज्ञान को सूक्ष्मतम व्यक्त आइस्टीन महोदय ने प्रत्येक पदार्थ को गति का तक तो पहुँचाने में समर्थ हुआ है, किन्तु अव्यक्त परिणाम बताया। सापेक्षता भी मूलरूप से गति पर की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उसके स्वरूप, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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