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गुणधर्म की स्पष्ट और सुनिश्चित व्याख्या अभी करता है । आस्रव की भाँति ही यह भी दो प्रकार - SI तक विज्ञान की सीमा से परे है। रत्नत्रय (सम्यक् का होता है । जीव के जन्मादिभाव का क्षय भाव
ज्ञान, सम्यकदृष्टि तथा सम्यक्चारित्र) बिना संवर तथा कर्मपद्गलों का जीव में न आना द्रव्यअव्यक्त ऊर्जा रूप स्फोटात्मक शक्ति सम्भव नहीं संवर कहलाता है। कर्मफल को जीर्ण कर देना ही जो वर्तमान आविष्कृत परमाण ऊर्जा से भी शत- निर्जरा है। कर्मों का आत्यन्तिक क्षय मोक्ष है सहस्र गुणा सूक्ष्म है तथा जो 'परा' स्थिति है। जीव और अजीव द्रव्य हैं।
___यह तो हुआ पदार्थ के ग्रहण का विज्ञान । अब परवर्ती भौतिक विज्ञान के आविष्कारों तथा A. प्रश्न है पदार्थों की संख्या तथा उनके विश्लेषण अनुसन्धानों द्वारा पदार्थ के विवेचन में आकृति, का । विज्ञान पदार्थ (Matter) को कुछ मूल तत्वों
परिमाण तथा गति को प्रमुख तत्व स्वीकार किया ESS (Elements) के यौगिक के रूप में परिभाषित गया। आकृति तथा परिमाण दोनों गति द्वारा
करता है, किन्तु पदार्थों की संख्या सुनिश्चित नहीं प्रभावित होते हैं। गतिसिद्धान्त आधुनिक भौतिक समझी जा सकती, क्योंकि नवीन अनुसन्धानात्मक विज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त है। वैज्ञानिक प्रयागा द्वारा मूल तत्वा का सख्या हा बढ़ता जा पदार्थ मीमांसा के लिए गति का विश्लेषण अनिरही है। जैन दर्शन भी यद्यपि पदार्थों की संख्या ।
वार्य है। तुलनात्मक अध्ययन से जैनदर्शनसम्मत अनन्त मानता है, किन्तु गुणधर्मों के आधार पर 'कर्म' और वैज्ञानिक 'गति' किन्हीं बिन्दुओं पर पदार्थों का वर्गीकरण सात भागों में करता है । ये
समकक्ष तथा समवर्ती प्रतीत होते हैं । जिस प्रकार सात पदार्थ हैं आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,
आस्रव से लेकर अजीव तक सभी पदार्थों की अभिजीव तथा अजीव। जैनदर्शनसम्मत ये पदार्थ वैशे- व्यक्ति और तिरोधान कर्माश्रित है, उसी प्रकार षिक सप्त पदार्थों से भिन्न हैं। कुछ जैन दार्शनिक
विज्ञान-प्रतिपादित गति समस्त पारमाणविक तथा केवल जीव तथा अजीव को ही पदार्थ मानते हैं ।
स्थूल भौतिक संरचना परिवर्तन (परिणाम) और किन्तु विश्लेषण के आधार पर सात पदार्थ स्वीकार
ध्वंस के लिए उत्तरदायी है। गति के कारण ही करना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इनमें से प्रथम
पदार्थ में निहित ऊर्जा व्यक्त होती हैं। परमाणु पाँच पदार्थ तथा अन्तिम दो मूर्त तथा भौतिक सत्ता
में स्थित न्यूक्लियस या नाभिक के आस-पास ऋण वाले होते हैं। जीव के कर्म ही सभी पदार्थों को
विद्य न्मय कण (इलेक्ट्रान) चक्कर लगाते रहते हैं। प्रभावित करने वाले मूल तत्व घटक हैं।
नाभिक में प्रोटान की स्थिति होती है, जो विभिन्न जनसम्मत उक्त सप्त पदार्थों का स्वरूप तत्वों में विविध संख्याओं में होते हैं। इनके अतिविशुद्ध दार्शनिक होते हुए भी वैज्ञानिक विश्लेषण रिक्त न्यूट्रान विद्य तरहित कण तथा पाजिट्रान का अविषय नहीं हैं। संक्षेप में इन पदार्थों की धनात्मक विद्य तयुक्त कण भी परमाणु में पाये व्याख्या करने पर ज्ञात होता है कि प्रथम पदार्थ जाते हैं। यह विद्य त ऊर्जा रूप तथा अपने से आस्रव कर्मों का जीव में प्रवेश अथवा जन्ममर- अधिक ऊर्जा की उत्पादिका होती है। गति के णादि है । यह दो प्रकार का होता है-भावास्रव कारण प्रत्येक कण परस्पर एक दूसरे को आकर्षित
तथा द्रव्यास्रव । जीव का जन्मादिभाव भावास्रव करता है । यह आकर्षण ही परमाणु संयोग या हो तथा कर्मपुद्गलों का जीव में प्रवेश द्रव्यास्रव कह- परमाणु संघात का कारण होता है। परमाणओं के
लाता है। कर्मों द्वारा जीव को जकडना ही बन्ध संघात के लिए न्यूट्रान है । आस्रव के विपरीत कर्ममार्ग का अवरोध संवर है क्योंकि उसके बिना प्रोटान एकत्र रूप से नहीं कहलाता है । यह जीव को मोक्ष की ओर अग्रसर रह सकते ।' २०४
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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