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सायण-“वातरशनाख्याः ऋषयः श्रमणास्तप- होता है, उससे मुक्त होने के कारण वह अश्रमण 2 लो स्विनः ऊर्ध्वमंथिनः ऊर्ध्वरेतसः ।"
हो जाता है। श्रमण ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके जैन शास्त्रों में गुणस्थान चर्चा के अन्तर्गत जो ऊर्ध्वगमन करने वाले हुए ।
मुनि क्षपक श्रेणी आरोहण करता है उसके सम्बन्ध ___ सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाने पर जीव स्वभावतः में भी लगभग ऐसा ही वर्णन आता है। श्रेणी ऊर्ध्वगमन करता है और लोक के अन्त तक चला आरोहण करने वाला श्रमण मुनि पाप और पुण्य जाता है । जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का ही दोनों से रहित हो जाता है और कषाय तथा घातिहै और वह सदा इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। चतुष्क का नाश करके कैवल्य की प्राप्ति कर 2 किन्तु कर्मों का भार होने के कारण वह उतना ही लेता है। ऊर्ध्वगमन करता है जितना कर्मों का भार कम श्रमण प्रायः सतयुग में होते हैं ऐसी मान्यता रहता है, किन्तु जब कर्मों का भार बिलकुल हट भागवतकार की है, यथाजाता है और जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पादान् जनैधृतः । है तो अपने स्वभाव के अनुसार वह लोक के अन्त
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोपः ॥ तक ऊर्ध्वगमन करता है । यथा-"तदनन्तरमूज़
सन्तुष्टा: करुणा मंत्राः शान्ता वान्तास्तितिक्षवः । गच्छत्यालोकान्तात् ।" -तत्वार्थ सूत्र १०१५
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ।। जैन शास्त्रों में जहाँ पर भी मोक्ष का वर्णन
-भागवत १२/२/१८-१६ आया है वहाँ पर इसका विस्तार से कथन मिलता
श्री शुकदेवजी कहते हैं-हे राजन् ! कृतयुग में है। सम्भवतः श्रमण वात रशना मुनियों के लिए धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, दया, तप और ऊर्ध्वमयी, ऊर्ध्वरेता कहने में वैदिक ऋषियों दान । इस धर्म को उस समय के लोग निष्ठापूर्वक को जैन शास्त्र सम्मत ऊर्ध्वगमन ही अभीष्ट रहा धारण करते थे । सतयुग में मनुष्य सन्तुष्ट, करुणाहो।
शील, मित्रभाव रखने वाले, शान्त, उदार, सहन__ प्रस्तुत प्रसंग में बृहदारण्यकोपनिषत् का निम्न
शील, आत्मा में रमण करने वाले और समान र उद्धरण भी प्रमाण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण
दृष्टि वाले प्रायः श्रमणजन ही होते थे।
जैनाचार्य श्री जिनसेन ने आदिपुराण में कृत"श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वा
युग में ही ऋषभदेव का जन्म माना है। उस युग
का नामकरण ही ऋषभदेव के कारण हुआ और गतं पापेन ती! हि तदा सर्वान्छोकान् हृदयस्य भवति ।"
वह कृतयुग कहलाया। -वृहदा. ४/३/२२
युगादि ब्रह्मणा तेन यदित्थं स कृतोयुगः । __ श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ॥ जा हैं। उस समय यह पुरुष पुण्य से असम्बद्ध तथा
आषाढ़मासबहुलप्रतिपादि दिवसे कृती । पाप से भी असम्बद्ध होता है और हृदय के सम्पूर्ण कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ।। शोकों को पार कर लेता है।
-आदिपुराण १६/१८६-१६० ___ "श्रमणः परिव्राट् यत्कर्म निमित्तो भवति, स चूकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने | तेन विनिर्मुक्तत्वादश्रमणः"-शांकरभाष्य । इस प्रकार कर्मयुग का आरम्भ किया था, इसलिए ___ श्रमण अर्थात् जिस कर्म के कारण पुरुष परिव्राट् पुराण के जानने वाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते २८०
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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