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पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में जैन नैतिक अवधारणा
- प्रोफेसर एल० के० ओड
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में जीव सृष्टि के बारे में जैन अवधारणा को एक लघु सूत्र इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
"परस्परोपग्रहः जीवानाम्"
अर्थात् प्रत्येक जीव एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, एक दूसरे पर आश्रित है । सृष्टि का चक्र इसी अन्योन्याश्रय की ऊर्जा से संचालित होता है । प्रत्येक जीव अन्य जीवों से जीवन शक्ति (ऊर्जा) ग्रहण करता है और अपने आश्रित जीवों को जीवन शक्ति देता है । इसका एक स्थूल उदाहरण है - हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाई ऑक्साइड वनस्पति के जीवों को जीवन शक्ति देता है और वनस्पति द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन हमारे लिए प्राणवायु बनाता है। ऐसे स्थूल रूप से दृष्ट अदृष्ट तथा बुद्धि द्वारा ज्ञात-अज्ञात असंख्य उदाहरण मिल सकते हैं, जो उक्त अवधारणा को पुष्ट करते हैं । यह व्याख्या पूर्णतया वैज्ञानिक है, जिसमें परिकल्पना अथवा तर्क के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती ।
जैन दर्शन में जीवन सम्बन्धी सम्प्रत्यय भी बहुत व्यापक है, जिसमें स्थावर श्रेणी के अन्तर्गत अनेक ऐसे तत्वों का भी समावेश कर लिया गया है, जिन्हें अन्य दर्शनों ने तथा विज्ञान ने भौतिक तत्व के अन्तर्गत रखा है । इसी कारण आचार्य को “जीवानाम्" के साथ "अजीवानाम्" जोड़कर अवधारणा को और अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । यदि उक्त सूत्र को 'परस्परोपग्रहः जीवाजीवानाम्' कर दिया जाए, तब भी व्याख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं आता ।
जैन दर्शन के अनुसार हमारी यह सृष्टि जोव इसका कोई अपवाद भी नहीं है । ऐसा कोई परमात्मा या दो तत्वों में न समाविष्ट होता हो । अशरीरी मुक्त आत्माएँ अर्थात् सिद्ध भी जोव की श्रेणी में ही आते हैं। हमारी इस सृष्टि में एक सन्तुलन है और ग्रह-तारा-नक्षत्र, जीव, अजीव सब एक दूसरे से इस प्रकार हैं हन्तुलन सतत् बना रहता है । यह सृष्टि अनादि तथा अनन्त है और इसका रहस्य है " परस्परोपग्रहः" । जब कभी इनमें से कोई घटक सृष्टि के इस अन्योन्याश्रय में कोई विक्षेप डालता है, तब सृष्टि में थोड़ा असन्तुलन आता है परन्तु अन्य जीवाजीवों की पूरक क्रिया-प्रतिक्रिया उसमें पुनः संतुलन कायम कर देती है । कभी-कभी संतुलन बिगाड़ने वाले तत्व इतने जबर्दस्त भी होते हैं कि पूरा का पूरा ग्रह या तारा अपना अस्तित्व खो देता है परन्तु इतना बड़ा परिवर्तन भी इस अपार सृष्टि को अनन्त ही बनाए रखता है । सन्तुलन बनाए रखना सृष्टि का अनन्त नियम है ।
जीवों की चार श्रेणियों में देव तथा नारक तो कृतकर्मों का उपभोग मात्र करते हैं, स्वयं कर्म करते नहीं हैं, जो सहज कर्मों का बन्धन होता है उस पर उनका वश नहीं है । तिर्यंच श्रेणी के जीवों के संज्ञा अथवा मन नहीं होता । उनका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों (Instincts) से संचालित होता है । अतः षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ
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तथा अजीव इन दो तत्वों से निर्मित है और ब्रह्म या सृष्टि निर्माता नहीं है, जो इन
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