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स्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन ही दीक्षा प्रदान करना निश्चित हो ! गया।
दीक्षा का महत्व-दीक्षा एक आध्यात्मिक साधना है। आहती दीक्षा साधक के उस अटकनेभटकने को रोकने का एक उपक्रम है। वह ऐसी अखण्ड ज्योतिर्मय यात्रा है जिसमें साधक असत् से सत् की ओर, तमस् से आलोक की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है । वह ऐसी अद्भुत आध्यात्मिक साधना है जिसमें साधक बाहर से अन्दर सिमटता है। वह अशुभ का बहिष्कार कर शूभ || संस्कारों से जीवन-यापन करता है और शुद्धत्व की ओर अपने हर कदम बढ़ाता है। दीक्षा में साधक अपने आप पर शासन करता है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने दीक्षा को परिभाषा करते हुए लिखा है
दीयते ज्ञानसद्भावः क्षीयते पशुबन्धनाः ।
__ दानाक्ष-परम संयुक्तः दीक्षा तेनेह कीर्तिता ॥ दीक्षा एक रासायनिक परिवर्तन है । सात्विक जीवन जीने की अपूर्व कला है । आत्म-साधना के परम और चरम बिन्दु तक पहुँचाने वाले सोपान का नाम दाक्षा है । दीक्षा में पांचों महाव्रतों का जीवन पर्यन्त पालन करना होता है । 'सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि' के सुदृढ़ कवच को पहनकर ही साधक 100 सद्गुरुदेव के पथ-प्रदर्शन में साधना के पथ पर आगे बढ़ता है तथा अपने पर नियन्त्रण करता है।
दीक्षा अन्तर्मुखी माधना है । मानव-मस्तिष्क सुदीर्घकाल से सत्य की अन्वेषणा कर रहा है। की उसने जड़ तत्व देखा, परखा और गहराई में पैठकर परमाणु जैसे सूक्ष्म तत्व में निहित विराट शक्ति की 10 - अन्वेषणा की। मानव सभ्यता ने विजय फहराकर जन-मानस को मुग्ध किया है, पर यह जड़ की अन्वेषणा वास्तविक शांति प्रदान नहीं कर सकी । किन्तु जब मानव ने अपने अन्दर निहारा तो अपनी अनन्त आत्मशक्ति के दर्शन किये और परम शान्ति का अनुभव किया। इससे सहज ही दीक्षा का महत्व समझ में आ जाता है।
दीक्षोत्सव-फाल्गुन शुक्ला दशमी वि. सं. १६६३ के दिन शुभ मूहर्त में आस-पास के गाँवों से आये सैकड़ों नर-नारियों की साक्षी में महासती श्री सोहनकुवरजी महाराज ने दोनों मुमुक्ष भव्यात्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षास्थल जय-जयकारों के गगनभेदी नारों से गूंज उठा । माता सोहनबाई का नाम महासती श्री कैलाशकुवरजी म. रखा तथा उन्हें महासती श्री पदमकुवरजी म. सा. की शिष्या घोषित किया गया। पत्री नजरकमारी का नाम महासती श्री कसमवतीजी म. सा. गया । वे साध्वीप्रमुखा सद्गुरुवर्या श्री सोहनकुंवरजी म. सा. की शिष्या बनीं। - महासती श्री सोहनकुवरजी महाराज ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी आदि अनेक गुणों के आगार पा थे, वे संयम के पालन में प्रतिपल जागरूक थे, उनको शिष्य-शिष्याएँ बनाने का स्वल्प भी लोभ या मोह नहीं था। उनके मन में संकल्प भी था कि अपने नाम से शिष्या नहीं बनाऊँगी, लेकिन बालिका नजर के हृदय में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी। वह उन्हें ही अपनी आराध्या मान चुकी थी। उसकी एकमात्र इच्छा भी यही थी कि वह उन्हीं की शिष्या बने । महासती श्री सोहनकुवरजी म. नजर के अत्याग्रह और स्नेह समर्पण के सम्मुख इन्कार न कर सके। नजरकुमारी अर्थात् महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. सद्गुरुवर्या श्री सोहनकुवरजी म. का शिष्यत्व पाकर आपको महान् सौभाग्यशाली मान रही थी। सुयोग्य शिष्या को प्राप्त कर गुरुणीजी महाराज भी प्रफुल्लित थे। १ जैन आचार......."पृष्ठ ४३८ । १३४
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
50 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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