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मागधी प्राकृत में हैं शेष तीन ग्रन्थ अर्थात् हेम- साधना के प्रसंग में साधक की द्वितीय अवस्था । चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टि- वह होती है, कि वह साधना में श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त समुच्चय एवं योगबिन्दु संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। ही नहीं होता बल्कि रखलन से, विचलन से, सुर
इन दोनों ही आचार्यों ने साधना पथ के रूप क्षित रहता है, उसका समस्त व्यवहार, उसका में महर्षि पतन्जलि द्वारा प्रवर्तित अष्टांग को ही समस्त आचार, उसकी समस्त साधना शास्त्रों के प्राय : स्वीकार करते हुए उसका विवरण दिया है अनुकूल, गुरुजनों द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुकूल अथवा उसके प्रभाव की फल की चर्चा करके उस चलती रहती है। साधक की इस अवस्था का नाम अष्टांग योग साधना की ओर जन सामान्य को शास्त्रयोग है। इस अवस्था में प्रमाद का पूर्ण प्रवृत्त करने का प्रयत्न किया है । आचार्य हेमचन्द्र अभाव रहता है। साधना की तृतीय अवस्था में के योगशास्त्र में अष्टांग योग को ही अविकल साधक सभी प्रकार की विघ्न बाधाओं से ही पूर्णतः स्वीकार किया गया है, जबकि हरिभद्रसूरि के अर्ध- सुरक्षित नहीं होता, बल्कि वह सिद्धावस्था के निकट मागधी प्राकृत में निबद्ध योगशतक और योग- पहुँच जाता है । उसे धर्म का, आत्मतत्व का साक्षाविशिका में साधना एवं तपश्चर्या के प्रसंग में कार हो चुका होता है। शास्त्र प्रतिपादित रहस्य सामान्य श्रावकों गृहस्थों अथवा नवदीक्षित मुनियों उसे आत्मसात् हो चुके होते हैं, प्रातिभ ज्ञान, जिसे के लिए अत्यन्त संक्षेप में साधना सम्बन्धी नियमों पतञ्जलि के योग सूत्र में वियेकख्याति कहा गया का अथवा साधना विधि का निबन्धन हुआ है। है, उसे प्रकट हो चुका होता है, यह प्रातिभज्ञान योगबिन्दु में भी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, तत्वज्ञान कहा जा सकता है, जो निश्चय ही श्रुत संस्कृत भाषा में जैन साधकों के लिए अपेक्षित तप- ज्ञान अर्थात विविध शास्त्रों में वर्णित विषयों के | श्चर्या और साधना के पथ का संक्षिप्त परिचय ज्ञान से और अनमान आदि प्रमाणों से प्राप्त ज्ञान प्रस्तुत हुआ है। हरिभद्र सूरि का योगविषयक से कहीं उत्कृष्ट होता है । इस प्रकार वह सर्ववश्यी प्रधान ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय है। यहाँ भी जैसा होता है, साथ ही उसमें अनन्त सामर्थ्य भी होता कि ग्रन्थ के नाम से ही संकेत मिल जाता है, योग है, जिसके फलस्वरूप उसमें किसी प्रकार के प्रमाद साधना के पथ का नहीं बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में की सम्भावना नहीं रहती। हरिभद्र सूरि ने इस | आधार के रूप में विद्यमान योग दृष्टियों का वर्णन ततीय अवस्था का वर्णन करके इसे सामर्थ्य योग हआ है। साथ ही योग साधना की चार स्थितियों संज्ञा प्रदान की है। का भी अत्यन्त प्रशस्त विवरण किया गया है। योग-साधना की सर्वोच्च अवस्था वह है अब
साधना की प्रथम अवस्था वह होती है जब न केवल योगी का ग्रन्थि भेदन हो चुका रहता है साधक शास्त्रों अथवा उससे सम्बद्ध कुछ ग्रन्थों को बल्कि उससे अहंता ममता आदि समस्त भावों का पढ़कर अथवा विद्वान गुरुजनों अथवा आचार्यों, उपशम हो गया है । उसमें न राग है न द्वेष, न मुनियों के मुख से योग साधना की महिमा को कर्तृत्व की भावना हैं न फल की कामना, उसकी जानकर उसके लिए (योग साधना के लिए) संकल्प समस्त आसक्तियाँ पूर्णतया विलीन हो चुकी हैं। लेता है, उसके अनुसार (आचरण के लिए) व्यवहार समस्त संकल्पों का विलय हो चका है। और उसने के लिए प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त भी होता है किन्तु मध्य- सर्व संन्यासमयता की स्थिति प्राप्त कर लो है, मध्य में प्रमाद असंलग्नता नहीं रह पाती, कभी-कभी इस प्रकार वह जीवन्मुक्त हो चुका है । यही साधना में विघ्न हो जाता है, साधना बाधित हो अवस्था साधना की पूर्णावस्था है, मोक्ष की अवस्था जाती है । हरिभद्र सूरि ने साधक की इस अवस्था है अतः इसे साधना की अवस्था कहने के स्थान पर को इच्छा योग के नाम दिया है ।।
सिद्धावस्था कहना अधिक उचित है। योग की इस २३४
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन C . साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Foamivate-cinersonaliso-Only
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