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पूर्णावस्था का आचार्य हरिभद्रसूरि ने अयोग नाम को वही घटना दुःख और पीड़ा प्रदान करती है। दिया है । अयोग का अर्थ है सर्वतोभावेन निर्लिप्तता पतंजलि के भाष्यकर व्यास द्वारा निर्दिष्ट क्षिप्त, मूढ़ की स्थिति, जिसे श्रीमद्भगवद् गीता में स्थित- विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ चित्त की ही प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है
अवस्थाएँ हैं जिनका सूक्ष्म विवेचन व्यास ने योग दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । सूत्र भाष्य में किया है। वीतरागभय क्रोधः स्थितधी: मुनिरुच्यते ।।
ज्ञान अथवा तत्वबोध की अवस्था भी मन की
अवस्था विशेष है। जिसे बौद्ध, जैन, वैशेषिक, न्याय यः सर्वत्रानभिस्नेहः तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।।
और वेदान्त दर्शनों में मोक्ष का एकमात्र उपाय नाभिनन्दति न ष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
माना गया है। पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट साधना आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग की उपर्युक्त मार्ग में भी निविचारा सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्थाओं का वर्णन साधना की स्थिति का मूल्यां- स्थिति में पहुँचने पर अध्यात्मप्रसाद और ऋतकन करने के लिए आत्मपरीक्षा के उद्देश्य से भरा प्रज्ञा के उदय की चर्चा की गई है । और
किया है जिससे साधना के मार्ग में साधक अपनी स्वीकार किया गया है कि विवेक ख्याति अपर S स्थिति की पूर्ण जानकारी रखते हुए देश और काल पर्याया ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कार अन्य समस्त
को ध्यान में रखकर अपनी साधना को और संस्कारों का प्रतिबन्धन करते हैं जिसके अनन्तर १. सदृढ़ कर सके, गति दे सके । साथ ही उसके मार्ग- ही साधक निर्बीज समाधि पर पहुँचता है। इस
दर्शक गुरु भी उसकी अवस्था का मूल्यांकन करते प्रकार मन की अवस्थाओं का विवरण योगसाधना हुए उसे अपेक्षित संरक्षण और मार्ग दर्शन प्रदान के क्रम में स्वयं अपनी और अपने शिष्य अथवा कर सके । इस दृष्टि से इन अवस्थाओं का वर्णन सब्रह्मचारी साधक की साधना पथ पर स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण तो है ही, पतञ्जलि के सूत्रों में और साधना पथ के प्रभावी या अप्रभावी होने के
अथवा उनके भाष्य अथवा वृत्तियों में अथवा सिद्ध मुल्यांकन के लिए न केवल अत्यन्त उपयोगी है M सम्प्रदाय के आचार्य गोरक्षनाथ आदि के योग बीज, बल्कि अनिवार्यतः अपेक्षित भी है।
योग शिखा, अमनस्क योग, योग कुण्डलो आदि आचार्य हरिभद्र सरि ने मन की नव अवस्थाओं 32 ग्रंथों में भी इनकी चर्चा न होने से अत्यन्त मौलिक का वर्णन किया है। इन अवस्थाओं में ओघदृष्टि,
जिसे मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं, साधना से रहित साधना के क्रम में साधक की मानसिक अव- अज्ञानी पुरुष की मानसिक अवस्था है। शेष मित्रा स्थाएं भी साधना के मूल्यांकन के लिए, साधक की तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा और परा आठ २ दृष्टि से साधना मार्ग की अनुकूलता प्रतिकूलता का साधक को मानसिक अवस्थाएं हुआ करती हैं ।
मूल्यांकन करने की दृष्टि से अपना विशेष महत्व इनमें प्रथम से अन्तिम तक क्रमशः उच्च उच्चतर रखती हैं। स्मरणीय है कि साधना के क्रम में और उच्चतम स्थिति में पहुँचे हुए साधकों की मन साधक की मनःस्थिति का सर्वाधिक महत्व है। की अवस्थाएं हैं।10 इसीलिए इन्हें योगदृष्टियाँ कहा मनःस्थिति ही साधक को साधना में प्रवृत्ति देती है जाता है। साधकों के मन की ये विशिष्ट स्थितियाँ । और प्रवृत्त रखती है। पूर्ण चित्त-वृत्तिनिरोध रूप हरिभद्रसूरि के अनुसार यम नियम आदि का अभ्यास
समाधि की स्थिति भी मन की ही अवस्था विशेष करने के फलस्वरूप खेद आदि उद्वेगों की निवत्ति होने है । मनःस्थिति के कारण ही लोक की कोई घटना के अनन्तर प्राप्त होती हैं। जब तक चित्त में राग और किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करती है तो किसी द्वेष के वेग विद्यमान रहते हैं और जब तक मैत्रो, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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