SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ BE अस्तित्व की चिन्ता- श्री घासीलालजी म. सा. महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. के कथन EH के परिप्रेक्ष्य में विचारमग्न हो गये। वे मन ही मन विचार करने लगे कि निःसन्देह इनकी शिष्याएँ | अपूर्व मेधा सम्पन्न हैं। मैंने स्वयं लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन अनेक वर्षों तक किया, तब कहीं Ke जाकर उसे आत्मसात कर पाया। किन्तु इन साध्वियों ने एक वर्ष में ही इसका अध्ययन सम्पन्न कर परीक्षा भी दे दी और उस परीक्षा में प्रथम श्रेणो भी प्राप्त की। वास्तव में यह इनकी अद्वितीय प्रतिभा का प्रतीक है । यदि ये साध्वियाँ और इन्हीं की भाँति अन्य साध्वियां भी ज्ञान के क्षेत्र में इसी प्रकार विकास करती रहीं तो फिर सन्तों की स्थिति क्या होगी? ज्ञानसम्पन्न और प्रतिभासम्पन्न तपस्विनी साध्वियों के होते हुए कम प्रतिभावान् साधुओं को कौन पूछेगा ! उनके मान-सम्मान का क्या होगा? । यदि ऐसा ही चलता रहा तो फिर भविष्य में तो साधुओं के अस्तित्व का प्रश्न उपस्थित हो जायेगा। IC इसी प्रकार के और भी अनेकानेक प्रश्न उनके मनमानस को कचोटते रहे। वे इस विषय पर जितना चिन्तन करते वे उसमें और अधिक उलझ जाते। उन्हें कहीं कोई समाधान नहीं मिलता । स्पष्टतः प्रति बन्धात्मक चर्चा भी नहीं की जा सकती थी। उनका यह सोच पुरुषप्रधान संस्कृति की भावना का पोषक या था। इस सम्बन्ध में आगे फिर कोई चर्चा नहीं हुई। प्रवचन प्रारम्भ-दीर्घकाल तक उदयपुर में रहते हुए महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. की ज्ञानाराधना चलती रही । जनमानस महासती श्री कुसुमवतीजी म० सा० की अध्ययन के प्रति लगन / भावना से अच्छी प्रकार परिचित था। वह चाहता था कि महासती जी द्वारा अजित ज्ञान का लाम उसे (5) भी मिले । जन-जन की भावना को मान देते हुए, उनकी मनोकांक्षा को पूर्ण करने के लिये आपने अपनी सद्गुरुवर्या के आशीर्वाद, मार्गदर्शन और सान्निध्य में प्रवचन फरमाना प्रारम्भ किया। आपकी प्रवचन शैली आकर्षक थी। तथ्यों का निरूपण शास्त्रोक्त था। विषयवस्तु की गूढ़ता को किसी दृष्टान्त के माध्यम से सरल कर समझा देती थीं । भाषा सहज एवं बोधगम्य होती थी। बोलते समय आप आरोहअवरोह का बराबर ध्यान रखती थीं । बीच-बीच में संदर्भानुसार काव्य पंक्तियों से आप अपने प्रवचन को सरस भी बना दिया करती थीं । उदयपुर में आपके प्रवचन की चर्चा होने लगी थी और श्रोता आपका प्रवचन श्रवण करने के लिए खिंचे चले आते थे । जिसने भी आपके प्रवचन पीयूष का एक बार भी पान कर लिया वह पुनः पुनः आपकी धर्म सभा में उपस्थित होकर आपके अमृत वचनों का पान करना चाहता था। आपकी प्रवचन कला आज भी वैसी ही प्रभावशाली है बल्कि अब तो उसमें और भी निखार आ गया है। अध्ययन हेतु गुरुकुल में व्याकरण और साहित्य का अध्ययन तो हो गया था किन्तु अभी बहुत कुछ अध्ययन करना शेष था। जैन न्याय और जैन टीकाओं का अध्ययन करना आवश्यक था। इन विषयों के विद्वान इधर नहीं थे। अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था । यदि इनका अध्ययन नहीं किया जाता है तो ज्ञान अपूर्ण ही रह जाता है । इसलिए वि० सं० २००३, ईस्वी सन् १९४६ में आप अपनी माताजी महाराज और लघु गुरु बहिन महासती श्री पुष्पवती जी म० सा० के साथ ब्यावर पधारी । ब्यावर में देश प्रसिद्ध गुरुकुल था और वहाँ विद्वान अध्यापक अध्यापन कराते थे । ब्यावर में ही जैन न्याय के उद्भट विद्वान पंण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल से जैन न्याय और जैनागमों की टीकाओं का गम्भीर अध्ययन किया । ब्यावर में एक वर्ष तक आपका मूकाम रहा। इस अवधि में गहन अध्ययन और कठोर अध्यवसाय से आपने न्याय-तीर्थ और सिद्धांताचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। MAYEKARODA द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन PO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only.. www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy