________________
घासीलालजी म. सा. ने महासती श्री सोहनकुंवरजी महाराज से सीधा प्रश्न पूछा - " संस्कृत और प्राकृत का अध्ययन करने वाली आपकी दोनों शिष्याएँ क्या ये ही हैं ?" यह पूछकर उन्होंने महासती श्री कुसुमवतीजी म. और महासती श्री पुष्पवतीजी म. की ओर संकेत किया तथा पुनः बोले- " मैंने ऐसा भी सुना है कि इन दोनों ने लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन भी समाप्त कर लिया है।"
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. कुछ बोल पातीं इसके पूर्व ही श्री घासीलालजी म. सा. ने लघु सिद्धान्त कौमुदी से सम्बन्धित कुछ प्रश्न अलग-अलग महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. तथा महासती श्री पुष्पवतीजी म. सा. से पूछ लिए। इस पर सद्गुरुवर्या ने मौन रहना ही उचित समझा । गुरुवर्या को अपनी शिष्याओं के ज्ञान, अभ्यास और अध्यवसाय पर पूर्ण विश्वास था । महासती श्री कुसुमवतीजी म. एवं महासती श्री पुष्पवतीजी म. ने उनके प्रश्नों का सटीक उत्तर देकर उन्हें सन्तुष्ट कर दिया। दोनों के उत्तर सुनकर उन्हें पूर्णतः विश्वास हो गया कि दोनों ही साध्वियाँ योग्य, प्रतिभासम्पन्न एवं निर्भीक हैं। दोनों की ज्ञान गरिमा से श्री घासीलालजी म. प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । किन्तु विद्वेषी तत्वों ने उनके कर्ण कुहरों में जो विष उगला था, उसका प्रभाव अभी समाप्त नहीं हुआ था, इसलिए उन्होंने महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. से कहा - "मेरे विचार से अब इन दोनों का अध्ययन यहीं समाप्त कर देना चाहिए। इससे अधिक पढ़ाना उचित प्रतीत नहीं होता। इसका एक कारण और यह भी है कि यदि ये अधिक अध्ययन कर गईं और विशिष्ट योग्यता अर्जित कर ली तो फिर ये आपकी आज्ञा में नहीं रह सकेंगी । इसलिए अच्छा तो यही है कि इनका अध्ययन अब यहीं समाप्त कर दो ।" इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ और भी इसी प्रकार की बातें गुरुवर्या से कही थीं ।
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. ने उनके एक-एक शब्द को बड़े ही ध्यान से सुना था । वे इस प्रकार की चर्चा क्यों कर रहे हैं ? इस बात को भी वे अच्छी प्रकार से समझती थीं । उन्होंने बड़े ही विनम्र और संयमित शब्दों में उत्तर दिया-- "महाराजश्री ! आपश्री जो आज इस प्रकार की बात कर रहे हैं, उससे मैं आश्चर्य चकित हूँ । आपश्री स्वयं प्रकाण्ड विद्वान् है और ज्ञान तथा ज्ञानप्राप्ति के महत्व को अच्छी प्रकार समझते हैं । फिर भी आप महासतियों की ज्ञानप्राप्ति की भावना पर प्रतिबन्ध लगाने का सुझाव दे रहे हैं । मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार आपका सुझाव न तो उचित है और न ही समय के अनुकूल । नीतिज्ञों का कहना तो है- विद्या ददापि विनयम् - विद्या से तो विनय की प्राप्ति होती है, विनय से विवेक की वृद्धि होती है । मुझे तो आश्चर्य इसी बात का हो रहा है कि आपश्री जैसा पारगामी विद्वान् ऐसी विपरीत बातें क्यों सोच रहा है ?"
"मैं अपनी शिष्याओं को भलीभांति जानती हूँ । जिस प्रकार आप सोच रहे हैं, वैसा तो नहीं होगा किन्तु मेरा दृढ़ विश्वास है कि अध्ययन करके ये दोनों जैनधर्म की अच्छी प्रभावना करेंगी और गुरु गच्छ के नाम में चार चाँद लगावेगी । मैं अपना कर्तव्य अच्छी प्रकार समझती हूँ । मैं यह भी समझती हूँ कि मुझे क्या पढ़ाना है और क्या नहीं । अब कृपा कर आप मुझे एक बात बताने की कृपा करें कि आपने अभी जो कुछ भी कहा है, वह अपने अन्तर्मन की पुकार सुनकर कहा है अथवा किसी के कहने में आकर आप मुझे हित- शिक्षा देने आ गये ।”
श्री घासीलालजी म. सा. के लिए अब कहने के लिए कुछ नहीं बचा था। वे यह भी समझ गये कि महासती श्री सोहनक वरजी म. को परिस्थिति का सब ज्ञान है । अब यदि अधिक कुछ कहा तो वास्तविक बात प्रकट हो जायेगी । इसलिए वे कुछ नहीं बोले ।
१४४
Jain Education International
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org