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होता कि मेरे कारण दूसरों को अन्तराय लगती है, परन्तु आपके पास इसका कोई समाधान नहीं था । आप कर ही क्या सकती थी ? स्वस्थ होने पर ही अध्ययन सुचारु रूप से चल सकता था।
सहनशीलता-महासती श्री कुसुमवती जी म. उस वेदना में भी सदैव प्रसन्न रहती थी तथा समभाव से व्यथा को सहन करतीं । वे सोचतीं कि उनके पूर्वबद्ध कर्मों के उदय होने का ही यह परिणाम है । यदि उनके मन में किंचित् मात्र भी विषम भाव आ गया तो नया कर्म बन्धन हो जाएगा। जब आत्मा ने हँस-हंस कर कर्म बाँधा है तो भोगते समय क्यों कतराना? इस प्रकार समत्व भाव धारण कर निराकुल, निविकार मन से उस वेदना को सहन किया। जब भी थोड़ी-सी भी वेदना शान्त होती तब वे स्वाध्याय, ध्यान में तल्लीन हो जातीं।
कर्म सिद्धान्त के प्रति उनके मन में अपूर्व निष्ठा थी । वे विचार करती रहती थीं कि एक दिन र यह असातावेदनीय कर्म दूर होगा और साता का उदय होगा। यदि इस समय वेदना है तो उससे घब
राना नहीं चाहिए। इसका भी एक न एक दिन अन्त/क्षय अवश्य होगा ही । आत्मा तो वेदना से मुक्त या है। मुझे सदैव आत्मभाव में रहना है । जहाँ न व्याधि है, न रोग है। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निराकुल हूँ, म अजर और अमर हूँ । तीन महीने की दीर्घ अवधि तक ज्वर का प्रकोप बना रहा। धीरे-धीरे वेदना दूर हुई तो उसके साथ ही ज्ञान की साधना भी प्रारम्भ हुई।
अध्ययन पुनः प्रारम्भ-पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते ही अध्ययन का क्रम पुनः अवधि गति से प्रारम्भ हुआ। सन् १९४२ में वाराणसी के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, (वर्तमान में सम्पूर्णानन्द । संस्कृत विश्वविद्यालय) से क्वीन्स कालेज उदयपुर के माध्यम से व्याकरण मध्यमा सम्पूर्ण, एक वर्ष में
उत्तीर्ण की । व्याकरण मध्यमा में सिद्धान्त कौमुदी का विशेषरूप से अध्ययन किया था। उसके पश्चात् साहित्य मध्यमा का अध्ययन किया । मध्यमा के पश्चात् साहित्यरत्न का भी अध्ययन किया। व्याकरण एवं साहित्य के साथ दर्शन एवं जैनागमों का भी अध्ययन गहराई के साथ किया।
विद्वष भड़क उठा-दोनों महासतियों की अध्ययन के प्रति रुचि और सफलताओं को देखकर कितने ही ईर्ष्यालु व्यक्ति जल-भुन रहे थे। किन्तु सुखद बात यह थी कि वे व्यक्ति इतना साहस नहीं जुटा पा रहे थे कि महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. के सम्मुख कुछ कर सके। इस कारण वे कुछ करना चाहकर भी नहीं कर पा रहे थे । इसलिए ये विद्वेषी मन ही मन कसमसा रहे थे। यह भी संयोग ही था कि इसी समय उदयपुर जैनागमों के मर्मज्ञ विद्वत्रत्न श्री घासीलालजी म. सा. का उदयपुर में आगमन हुआ। श्री घासीलालजी म. सा. को आगम साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान था। समाज में उनका कुछ
दबदबा भी था। श्री घासीलालजी म. सा. के आगमन से विद्वषी तत्वों को अपने सामने अच्छा अवसर | दिखाई दिया और वे सीधे उनकी सेवा में जा पहुँचे तथा प्रारम्भिक चर्चा के पश्चात् महासतियों के विरुद्ध विष वमन कर दिया।
श्री घासीलालजी म. सा. ने उन लोगों की बात को बड़े ध्यान से सुना था। उन्होंने सुनी हुई सी बातों के तथ्य तक पहुँचने का प्रयास किया और वे स्थविरा महासतीजी श्री मदनकुंवरजी म. सा. को है। दर्शन देने के लिए उनके स्थान तक पधारे । महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. एवं महासती श्री पुष्पवती
जी म. सा. अपने नियमित कार्यक्रमानुसार उस समय अध्ययन कर रही थी। उन दोनों के समीप ही सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. विराजमान थीं । वंदना एवं सुख-साता पुच्छा के पश्चात् सभी ने अपना-अपना आसन ग्रहण किया। एक दो इधर-उधर की बात भी हुईं और उसके पश्चात् त्री
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन लाट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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