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वर्षावास वि० सं० १९९६ - वि. सं. १६६६ का वर्षावास गुरुणीजी महासती श्री सोहनकुँवरजी म.
के साथ उदयपुर में हुआ । वि० सं० १६६६ का चातुर्मास उदयपुर के इतिहास में विशेष महत्व रखता है । कारण कि इस वर्ष उदयपुर में स्थानकवासी परम्परा के दो तेजस्वी और प्रभावक मुनि प्रवरों के वर्षावास थे । पोरवाड़ों के पंचायती नोहरें में आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. के पट्टधर युवाचार्य श्री गणेशलाल जी म.सा. अनेक सन्तरत्नों के साथ विराज रहे थे । ओसवालों के पंचायती नोहरें में जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता श्री चौथमल जी म० सा० अपने शिष्यों के साथ विराज रहे थे। दोनों ही ओर प्रवचन के समय हजारों की संख्या में उपस्थिति रहती थी । उदयपुर की भक्त नगरी में धर्म-रंग की वर्षा हो रही थी ।
महासती श्री सोहन कुँवर जी म. सा. महामहिम आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज साहब के सम्प्रदाय की थीं किन्तु उनका मानस सम्प्रदायवाद के संकीर्ण घेरे में आबद्ध नहीं था और न वे किसी एक हुई थीं । अतः वे दोनों ही स्थानों पर अपनी सुविधानुसार प्रवचन में पहुँचती । श्री गणेशलाल जी म. सा. एवं श्री जैन दिवाकर जी म. सा. दोनों के ही अन्तर्मानस में महासती जी के प्रति अपार स्नेह व सद्भावनाएँ थीं ।
शिक्षण की व्यवस्था - महासती श्री कुसुमवती जी म. सा. ने भी इस वर्ष अपनी गुरुणी जी के साथ दोनों ही महापुरुषों के प्रवचन श्रवण का लाभ लिया । वर्षावास के पश्चात आपने मन ही मन यह दृढ़ संकल्प किया कि उन्हें गुरुदेव श्री के आदेशानुसार संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का गहराई से अध्ययन करना है । महासती श्री मदनकुँवर जी म. सा. की शारीरिक स्थिति विहार करने के अनुकूल नहीं थी । इसलिये वे उदयपुर में ही स्थिरवास विराज रही थीं। उनकी सेवा में रहते हुए अध्ययन व्यवस्थित रूप से हो सकता था ।
उदयपुर में संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान पण्डित गोविन्द वल्लभ जी से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। चार-पाँच महोने तक पं० गोविन्द वल्लभ जी ने लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन करवाया । इसके पश्चात पण्डित श्री चम्पालाल जी के द्वारा अध्यापन प्रारम्भ किया गया । इसी बीच पंडित श्री चम्पालाल जी किसी आवश्यक कार्य से अन्यत्र चले गए । अध्ययन में बाधा उत्पन्न हो गई । उस समय उदयपुर में पाणिनीय व्याकरण के महामनीषी विद्वानरत्न पंडित श्री मार्कण्डेय जी मिश्र रहते थे । उनके शिष्य रत्न पं० रमाशंकर झा उन दिनों पं. मिश्र जी के पास अध्ययन कर रहे थे । पं. श्री रमाशंकरजी झा सीदे-सादे चरित्रवान एवं विद्वान व्यक्ति थे । अध्यापन कला में भी वे दक्ष थे । महासतियां जी को पढ़ाने का भार पं. श्री रमाशंकरजी झा को सौंपा गया। जब वे अध्ययन करवाते तब श्रमण-मर्यादा के अनुसार एक श्राविका और एक वरिष्ठ साध्वी जी महासती श्री कुसुमवती जी म. और महासती श्री पुष्पवती जी म. के समीप ही बैठी रहती थी ।
अध्ययन क्रम अपनी गति से चल ही रहा था कि एक दिन यकायक जी म. सा. के शरीर में ज्वर का प्रकोप प्रारम्भ हुआ । उपचार के लिए योग्य दिखाया गया । औषधियाँ दी गईं किन्तु ज्वर का प्रभाव कम नहीं हो पा रहा था । ज्वर का प्रकोप लम्बे समय तक बना रहा । इसके परिणामस्वरूप अध्ययन का क्रम अवरुद्ध हो गया । अपनी गुरुबहिन के अध्ययन में बाधा न पड़े, इसलिये जब कभी भी ज्वर का प्रकोप कम होता, आप किसी सहारे से बैठ जातीं, किन्तु अधिक वेदना होती तो अध्ययन छूट ही जाता था । आपकी अस्वस्थता के कारण पंडित जी अन्य सतियाँ, जो पढ़ना चाह रही थीं, उनको भी आगे नहीं पढ़ाते थे। आपके मन में विचार उत्पन्न
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द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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महासती श्री कुसुमवती चिकित्सकों को बुलाकर
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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