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है । हाँ, चातुर्मास के पश्चात् इनका अध्ययन दीर्घकाल तक व्यवस्थित रूप से चल सके, इसकी समुचित Sal व्यवस्था हो जाएगी।"
गुरुदेव ने इस पर अपनो स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके पश्चात् गुरुदेव उदयपुर से विहार कर गोगुन्दा, नान्देशमा आदि ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए चातुर्मासार्थ कम्बोल पधार गये ।
___ वर्षावास सं० १९६५-वि० सं० १९९५ का वर्षावास ग्राम सलोदा में करना निश्चित हो चुका था । अतः महासती श्री कुसुमवती जी म. सा० अपनी सद्गुरुवर्या के साथ वि० सं० १६६५, ई० सन् १९३८ के वर्षावास हेतु सलोदा पहुँची। सलोदा हल्दी घाटी के सन्निकट बसा हुआ एक छोटा-ता गाँव है। हल्दीघाटी वही स्थान है जहाँ राणाप्रताप ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए मुगल सम्राट अकबर की सेना से टक्कर ली थी।
सलोदा गाँव में स्थानकवासी जन समाज के पच्चीस-तीस घर थे। उन सबकी आर्थिक स्थिति भी कोई विशेष अच्छी नहीं थी। वे प्रायः कृषिकर्म करके अपना जीवन-यापन करते थे। उस समय वहाँ पर जो और मकई का प्रचलन था । जौ की हथेली जितनी मोटी रोटी बनती थी जिसमें तुष की प्रधानता थी । तुष कांटे की भांति गले में चुभता था । महिलाएं भी प्रायः पाक-कला से अनभिज्ञ थीं। जो की उन तुषयुक्त मोटी रोटियों को बिना पूर्वाभ्यास के कोई खा नहीं सकता था। सब्जी का उपयोग तो नहीं के समान था । केवल चटनी, उड़द की दाल, कड़ी, चाकी और इनके अतिरिक्त राबड़ी, बड़ी या चने की दाल का उपयोग होता था। छाछ में मक्की के टुकड़े करके और फिर उबाल कर राब तैयार करते थे । बस, यही था, उस समय का वहाँ का भोजन ।
महासती श्री कुसुमवतीजी म० ने पहली बार गाँव में चातुर्मास किया। इस प्रकार के खान-पान का उपयोग उन्होंने पहले कभी किया नहीं था। परन्तु वे समभाव में रमण करते हुए उसी आहार को थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लिया करतीं । इस सम्बन्ध में कभी किसी से कुछ नहीं कहा।
सद्गुरुवर्या महासती श्री सोहनकुँवर जी म० सा० ने इस परिस्थिति को देखा और भलीभाँति 0 समझा। उन्होंने विचार किया-“मैंने इन नवदीक्षिताओं के साथ यहाँ चातुर्मास कर उचित नहीं किया । ये शहर की सुकुमार बालिकाएं हैं। ऐसा नीरस आहार इन्होंने कभी किया नहीं होगा। यहाँ ये किस || प्रकार कर रही हैं ? साध्वाचार का उचितरूपेण परिपालन भी कर रही हैं । अब भविष्य में क्षेत्र को 12 देखकर ही चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान करूंगी।"
इतना होते हुए भी यह वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ। यही तो संयमी जीवन की परीक्षा भी है है । सभी प्रकार की सुविधाओं के साथ संयमी जीवन व्यतीत करना हो तो फिर संयम ग्रहण करने की 30 आवश्यकता ही क्या ? सच्चे साध को तो अपने मूल उद्देश्य से मतलब होता है। ज
खा लिया। नहीं मिला तो उपवास कर लिया। समता भाव में रहते हुए अपनी साधना करना ही साधु
का परम लक्ष्य होता है। इस चातुर्मास में नवदीक्षिता साध्वो महासती श्री कुसुमवती जी ने यह प्रमा। णित कर दिया कि संयम की धारा में वह समान रूप से खरी उतरेंगी।
वर्षावास समाप्त हुआ और ग्राम सलोदा से उदयपुर की ओर विहार हुआ । ग्रामानुग्राम धर्मप्रचार करते हुए गुरुणी जी महासती श्री सोहनकुवर जी म० सा० के साथ महासती श्री कुसुमवती जी म० उदयपुर पहुंच गईं। द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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