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जीवेम शरदः शतम्
विश्व के रंगमंच में अनेकों नाटक मंडली आती हैं, जाती हैं। पर वही नाटक चिर स्थायित्व को प्राप्त होता है जिसमें जीवन को मोड़ने का दिशा दिग्दर्शन स्थायी भाव लिये होता है । जीवन बोध मिलता है। इस हरीतिमा भरे उद्यान में वही पुष्प आकर्षित करता है जिसके पास पराग हो, खुशनुमा भरा वातावरण हो । इसी प्रकार इस जीवन वाटिका में रस भरे वातावरण में अनगिनत पुष्प खिलते हैं, विकसित होते हैं व जमीं में विलीन बन जाते हैं। आने-जाने के आदिकाल से चले आ रहे इस क्रम के परम्परा में कोई भी नवीनता नहीं है | नवीनता वहाँ होती है जहाँ कुछ विशिष्टता विशेषता परिलक्षित होती हो ।
आना-जाना यही संसार का क्रम है । इस नश्वर असार संसार में कौन किसका है ? विसका कौन सगोत्री भाई बन्धु है । सभी स्वार्थ के वशीभूत हो उसके आसपास मंडराते रहते हैं पर यह जीव तो अकेला आया व अकेला जाने वाला है । पर उस प्राणी मानव का जीवन सार्थक माना जाता है इस धरातल पर जो पुनः नहीं आने के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा करता हो, संसार से विमुख बनकर आगे बढ़ता हो, भोगों से विमुख बनकर सर्वस्व त्याग की श्रेणी में आता हो ।
आज हम उन महापुरुषों के गुण गौरव गान गाते हैं जो जन्म-मरण के चक्रव्यूह से मुक्त होने के लिए संसार से उदासीन होकर राग-द्वेष की मुक्ति के लिए विराग पथ पर अपना कदम बढ़ाते हैं । दूब के समान हजारों बार जन्म लेते है, मर जाते हैं उनका भी कोई जीवन है ?
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- भगवती मुनि 'निर्मल'
जीव की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें अमर बनने की कला है परमात्मा बनने के बीजाणु हैं । महापुरुषों महासतियों का जीवन इसलिए श्रेष्ठतम माना जाता है, जिसका वृत्तान्त श्रवण कर,
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वृत्त को स्मरण करके प्राणियों को आनन्द मिलता है। उसी का जीवन, जीवन माना जाता है । जीवन का महत्व भौतिक धन से नहीं आंका जा सकता । श्रद्धाशील लज्जा संकोच श्रुत, त्याग और बुद्धि ये आध्यात्मिक धन है जिसके पास ये धन है वास्तव में वही धनी है । उसी का जीवन सफल माना जाता है ।
हम विदुषी बा० ब्र० महासति श्री कुसुमवतीजी म० का अभिनन्दन करते जा रहे हैं । जहाँ वीरता भरे व तलवारों के खनखाहट मचाने वाले देश की राजधानी उदयपुर में आपने अपनी आँखें खोलीं तो भक्ति की मधुर रागों साधु सन्तों के संगतियों में आपका शैशवकाल विकसित हुआ । संयोग जिस जीव को जैसा मिलता है, जैसा वातावरण होता है उसी वातावरण में वह अपने आपको ढाल देता है । आपके परिवार का वातावरण धार्मिकता से ओतप्रोत था । संसार की उदासीनता नश्वरता के गीत जहाँ सदा गाये जाते थे तो वहाँ संसार की उदासीनता के भाव मन में क्यों नहीं आयेंगे । आपके बाल्यावस्था की चंचलता में गंभीरता के भाव जम गये । चंचलता शौकीनता के स्थान पर उदासीनता, गंभीरता के भाव जम गये । धैर्यता, गंभीरता, वैराग्यता से आपने बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली । आप विदुषी महासति श्री सोहन कुंवरजी म० सा० की सुशिष्या बनी । बाल्य नाम का आवरण मिट गया। आज आपका सर्व विश्रुत नाम महासति श्री कुसुमवती जी म० अधिक प्रसिद्धि के शिखर पर हैं ।
आपका दर्शन सर्वप्रथम कब किया था यह स्मरण की गहराई में छिप गया है । पर इतना जरूर स्मृति पटल पर है कि मैं इस पथ पर कदम बढ़ा रहा था तो आप इस पथ पर कदम दृढ़ता से बढ़ा चुकी थीं। अब आप शिष्या प्रशिष्या की गुरुणी बन चुकी हैं। आपके इस अभिनन्दन समारोह मेरी अनन्त अनन्त शुभाशा !
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रथम खण्ड : श्रद्धाना
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