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सयम-साधना
विहार - महासती श्री सोहनकंवरजी म. देलवाड़ा दीक्षा के निमित्त से पधारे थे । दीक्षा निर्विघ्न सानन्द हर्षोल्लासमय वातावरण के बीच सम्पन्न हो गई थी । इसलिए दीक्षा सम्पन्न होते ही महासतीजी ने अपने धर्म परिवार सहित देलवाड़ा से उदयपुर की ओर विहार कर दिया। नन्हीं साध्वी कुसुमवतीजी के लिए नंगे पाँव इतना लम्बा पैदल चलना एक नया अनुभव था। कोमल पैर थे । लड़खड़ाते हुए कंकरों पर पड़ रहे थे। कभी पत्थर की ठोकर लग जाती, तो कभी काँटों से पैर बिंध जाते और खून निकल आता । थकावट से मुख कमल मुरझा जाता । गुरुणीजी पूछती - "तुम थक गई होगी ?"
बाल साध्वी श्री कुसुमवतीजी म. अपने उन कष्टों की चिन्ता किये बगैर मृदु हास्य के साथ बोल पड़ती - ' नहीं पूज्याश्री, अभी हम चले ही कितने हैं ।" ऐसा कहकर वे जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने का प्रयास करतीं । थकावट को देखकर कभी-कभी सेवाभावी महासती श्री चतरकुंवरजी महाराज थोड़ी देर के लिए उन्हें कन्धे पर उठाकर विहार करते । महासती श्री कुसुमवतीजी म. बालक सी थीं ही, साथ ही उनका शरीर भी बहुत हल्का था ।
विहार करते हुए महासती श्री सोहनकुंवरजी म. सा. अपनी नवदीक्षिता सतियों के साथ मेवाड़ की राजधानी उदयपुर पधारे। सैकड़ों भाई-बहिनों ने अगवानी की और विशाल जुलूस के साथ पूर्ण आदर एवं सम्मान सहित नगर प्रवेश करवाया ।
बड़ी दीक्षा - महासती श्री सोहनकुंवरजी म. एवं सतीमण्डल के आगमन से उदयपुर की जनता में आनन्द की लहर छा गई। एक नये उत्साह और उमंग का संचार हुआ । दीक्षा के आठवें दिन चैत्र कृष्णा द्वितीया सं. १६६३ को दोनों नवदीक्षिता सतियों की समारोहपूर्वक बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई । यह वही दिन है जब प्रथम मुहूर्तानुसार इस दिन दोनों की दीक्षा देलवाड़ा में होने वाली थी । पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि दीक्षा रुकवाने के लिए पुलिस में रिपोर्ट की जा चुकी थी । उस रिपोर्ट पर कार्यवाई करने के लिए जब पुलिस देलवाड़ा पहुँची तो पता चला कि दीक्षा तो एक सप्ताह पूर्व ही हो चुकी है और महाराज ने यहाँ से विहार भी कर दिया। पुलिस को मुँह लटकाये वापस आना
पड़ा ।
संयम मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ते कदम - बालसाध्वी महासती श्री कुसुमवती जी संयम मार्ग पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपने कदम बढ़ा रही थीं । गुरुवर्या श्री सोहनकुंवर जी म. सा. एवं समस्त महासतियाँ जी का आपको अपरिमित स्नेह मिल रहा था, क्योंकि एक तो लघुवय और दूसरे सहजता, सरलता एवं विनम्रता आदि गुण, बरबस हो सभी का मन मोह लेते थे। यों भी परम विदुषी महासती सोहन कुँवरजी म. सा. के अतिरिक्त सती मण्डल में जितनी भी महासतियाँ थीं, सभी ने विवाहोपरांत संयम व्रत अंगीकार किया था। आपके ही बाल ब्रह्मचारिणी होने से सभी का सहज आकर्षण एवं स्नेह था ।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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