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विद्याध्ययन-वैराग्य काल में ही आपने भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमन्दिर स्तोत्र, रत्नाकर ॥ पच्चीसी, महावीराष्टक आदि स्तोत्र, दशवकालिक सूत्र, सुखविपाक सूत्र, आवश्यक सूत्र, पुच्छिस्सुणं, नमिपवज्जा आदि शास्त्र, पच्चीस बोल, तैंतीस बोल, समकित के सड़सठ बोल, पाँच समिति, तीन गुप्ति, नवतत्व, लघुदण्डक आदि कई थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे ।
दीक्षा के पश्चात् आप ज्ञान-ध्यान में पूर्णतः निरत हो गये । जो स्मरण था उसे पुनः-पुनः दोहराना और नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप सदैव जागरूक रहते। प्रातः चार बजे उठते एवं रात्रि को देर से सोते । इस बीच का समय स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन, मनन, पठन-पाठन, आहार-विहार, एवं
साध्वोचित क्रिया के परिपालन में व्यतीत होता। आप एक मिनट भी प्रमाद में नहीं खोना चाहती। १| जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता तब तक अध्ययन करती रहती। स्वाध्याय एवं ध्यान-साधना में आपकी 9. विशेष रुचि परिलक्षित हुई। अतः स्वाध्याय एवं ध्यान पर संक्षिप्त विचार करना आवश्यक प्रतीत CON होता है।
स्वाध्याय-जैन दर्शन में तप के भेद करते हुए बताया गया है कि तप बारह भेदों में विभक्त है । इनमें छः आभ्यंतर एवं छः बाह्य तप हैं । स्वाध्याय आभ्यंतर तप में चौथा तप है। जैनेतर दर्शनों में भी स्वाध्याय को "स्वाध्याय परमं तपः" कहकर उत्कृष्ट तप के रूप में वर्णन किया है। जैन दर्शन
में "न वि अत्थि न वि य होई सज्झाय समं तवोकम्म" कहकर स्वाध्याय की आभ्यंतर तपों में गणना East की है।
___स्वाध्याय का अर्थ है-सत् शास्त्रों का अध्ययन, वाचन, चिन्तन और प्रवचन । स्वाध्याय दो शब्दों के योग से वना है-स्व+ अध्याय, जिसका अर्थ होता है 'स्व' का अथवा 'स्व' सम्बन्धी अध्ययन करना । दूसरे शब्दों में इसे आत्म-चिन्तन करना भी कह सकते हैं । इस पर प्रश्न उठता है कि क्या इसमें 'पर' चिन्तन के लिए कोई स्थान नहीं है ? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। कारण कि इसका एक अन्य अर्थ है स्वयं अध्ययन करना । अर्थात्-स्वाध्यायी स्वयं ही स्वयं का गुरु और शिष्य होता है।
आवश्यक सूत्र के अनुसार-'अध्ययन अध्यायः शोभनो अध्यायः 'स्वाध्यायः'-अर्थात्श्रेष्ठ अध्ययन ही स्वाध्याय है । जिसके अध्ययन-अध्यापन से आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है, वही स्वाध्याय है। आचार्य अभयदेव के शब्दों में-"सुष्ठु आमर्यादया अधोयते, इति स्वाध्यायः"अर्थात् सत् शास्त्रों का अध्ययन करना, विधिपूर्वक अध्ययन करना, विधिपूर्वक श्रेष्ठ पुस्तकों का वाचन करना स्वाध्याय है । स्वाध्याय का उत्पत्तिजन्य अर्थ इस प्रकार है-'स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायः स्वाध्यायः यानी स्वयं का स्वयं के भीतर अध्ययन. दसरे शब्दों में आत्म-चिन्तन मनन स्वाध्याय है जा सकता है कि आत्मकल्याणकारी पठन-पाठन रूप श्रेष्ठ अध्ययन का नाम ही स्वाध्याय है। स्वयं का अध्ययन कर उस पर चिन्तन और मनन करना, अपना ध्यान कर णों से विग्रह करना, स्वयं की मनोभूमि और चित्तवत्तियों का साक्षात्कार करना, 'स्व' को ओर जाना, 'स्व' की ओर आना, 'स्व' की
ओर देखना, 'स्व' में ही रमण करना और 'स्व' में ही लीन होकर 'स्व' के साथ अन्यान्यों का पथ । 2 आलोकित करना । यही स्वाध्याय है । इस प्रकार स्वाध्याय स्व-पर-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
स्वाध्याय के पाँच भेद बताये गए हैं - (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मोपदेश । जब तक पांचों भेदों की पूर्ति नहीं हो जाती। तब तक स्वाध्याय के उद्देश्य l की भी पूर्ति नहीं होती है।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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