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________________ मन पवन की भाँति चंचल है । ध्यान उसकी जाल है। जो इसमें आसक्त-फंसा हुआ रहता है | चंचलता को समाप्त कर देता है। वह कदापि शांति नहीं पा सकता। सदाचार मानव-जीवन रूपी सुमन की मधुर- जो मानव उच्च से उच्च तप करता है, उन से ( महक है। जिसमें यह महक नहीं है वह जीवन उग्र चारित्र का पालन करता है उसके लिए आध्याज्योति-विहीन दीपक के समान है। त्मिक अभ्युदय के चरम-द्वार खुले हुए हैं । __ कर्म और उसका फल इन दोनों का सम्बन्ध सन्तोष आन्तरिक सद्गुण है, धैर्य एवं विवेक IN कारण और कार्यवत् है । कारण की उपस्थिति कार्य के अवलम्बन पर ही इसका विकास होता है । को अवश्य ही अस्तित्व में लाती है। अतः आत्मा को कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। मानव के अन्तर्-मन में जब संतोष का सागर लह राने लगता है तब चित्तवृत्तियों में जो विषमता की | मन वस्तुतः मानव जीवन का मेरुदण्ड है। ज्वालाएं धधक रही होती हैं, वे शान्त हो जाती हैं । मेरुदण्ड को स्वस्थता पर ही जीवन की स्वस्थता अवलम्बित है। कर्म स्वयं ही अपना फल देता है। अतः जैसाK फल इच्छित हो उसी के अनुरूप ही कर्म करो। ज्ञान दिव्य-ज्योति है। जिसमें व्यक्ति अपने हित और अहित का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, कुमार्ग ही है जिनके प्रति क्रोध किया जाता है उनको भी ___क्रोध भयंकर अग्नि है जो स्वयं को तो जलाती और सन्मार्ग का निर्णय करता है। संतापित करती है। 7 ज्ञान-आत्मा का मौलिक स्वभाव है। वह आत्मा में अनन्त अक्षय दिव्य-ज्योति निहित है, मोह के संसर्ग से अशुद्ध हो जाता है, जिसे हम उसे प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की नितान्त । अज्ञान कहते हैं। आवश्यकता है। __ मोह आत्मा का प्रबल शत्रु है । मोह के कारण मानव ! तू न शरीर है, न इन्द्रियाँ है, और न कर ही ज्योति-स्वरूप आत्मा निज भा ही मन है। तू तो वस्तुतः एक अच्छेद्य, अभेद्य, IK भाव में लिप्त रहती है, जिससे दुःख व क्लेश उसे अमृत्य, अखण्ड, अमर, अलौकिक, आलोक पुज, प्राप्त होता है। आत्मा है। ___ मैं एक बार पतझड़ से मधुवन में परिवर्तित मानव ! आत्मा न कभी जन्मती है, न कभी होने वाले वृक्ष को देख रही थी, उसे देख विचार मरती है । जन्म-मरण शरीर का होता है । इस आया कि यह कितनी प्रबल प्रेरणा प्रदान कर रहा सनातन सत्य को सदैव स्मरण रख। है-कि हे मानव ! घबरा मत । एक दिन तुम्हारे जीवन में भी आनन्द का बसन्त खिल उठेगा।। आत्मा ज्ञानमय है। वह, एक अखण्ड, दिव्य प्रकाश से मण्डित होकर विश्व के समस्त प्राणियों संसार अनित्य है । यह मोह, माया का विकट में अभिनव आलोक का संचार करती है। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन । 0666. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Pawate & Personal Use Only ---- www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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