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आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, निग्रह के भाव का भी अन्तर्भाव होता है। वस्तुतः । संघ, साधु और समनोज्ञ की वैयावृत्य ।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य की रक्षा करना है। वीर्य स्वाध्याय-उचित समय एवं परिस्थितियों में की रक्षा करने के लिए बहत बड़े संयम की आवअध्ययन करने को स्वाध्याय तप कहते हैं। जैना- श्यकता पड़ती है, अतः जैनाचार्यों ने इसे उत्तम तप चार्यों ने इसके निम्नलिखित पाँच भेदों की कल्पना कहा है। इसका आवश्यक रूप से जीवन में आचकी है-(१) वाचना (२) प्रच्छना (३) अनुप्रेक्षा रण करने के लिए पाँच महाव्रतों में स्थान दिया | (४) आम्नाय (५) धर्मोपदेश ।
गया है तथा दश धर्मों में इसे उत्तम धर्म की संज्ञा व्युत्सर्ग-गृह, धनादि बाह्य उपाधियों तथा दी गई है। कुंदकुंदाचार्य ने ब्रह्मचर्य को उत्तम धर्म क्रोधादि अंतरंग उपाधियों का त्याग करना
मानकर इसका निम्नलिखित स्वरूप स्पष्ट किया तप कहलाता है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से इसके भी दो भेद माने गए हैं।
सव्वंग पेच्छतो इत्थीणं तासु भुयदि दुव्भावम् । (८) उत्तम त्याग-दान देना, त्याग की
सो ब्रह्मचर्य भाव सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥12 भूमिका पर आना, शक्त्यानुसार भूखों की भोजन, अर्थात् जो स्त्रियों के सारे सुन्दर अंगों को देख रोगी को औषधि, अज्ञान निवृत्ति के लिए ज्ञान के कर उनमें रागरूप दुर्भाव करना छोड़ देता है, वही साधन जुटाना और प्राणीमात्र को अभय देना, दुर्द्ध र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करता है। देश और समाज के लिए तन-मन आदि का त्याग
पद्मनन्दि पंचबिशतिका में कहा गया हैआदि उत्तम त्याग के अन्तर्गत माना जाता है । समस्त पर-द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और
आत्मा ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो च तत्र चर्मपर, स्वांगा भोगों से उदासीन रहकर सत्पुरुषों की सेवा करना
संग-विवजितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुनेः 113 ही उत्तम त्याग माना गया है । लाभ, पूजा और
अर्थात् ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप ख्याति आदि से किया जाने वाला त्याग या दान
आत्मा है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मउत्तम त्याग नहीं है।
चर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी (8) उत्तम आकिंचन्य-आंतरिक विभाव तथा
सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी को ब्रह्मचर्य ) वाह्य पदार्थों में ममत्व का त्याग उत्तम आकिंचन्य
होता है। कहलाता है। धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा जैनाचार्यों के अनुसार ब्रह्मचर्य के नव अंग हैंशरीर में यह मेरा नहीं है,आत्मा का धन तो उसके (१) स्त्रियों का संसर्ग न करना (२) स्त्री कथा न चैतन्य आदि गुण हैं। 'नास्ति मे किंचन' मेरा कुछ करना, (३) स्त्रियों के स्थान का सेवन न करना, नहीं है, आदि भावनायें आकिंचन्य हैं।
(1) स्त्रियों के मनोहर अंगों को न देखना, न ध्यान भौतिकता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि देना, (५) कामोद्दीपक भोजन न करना, (६) प्राप्त करना आकिचन्य धर्म है। दसरे शब्दों में आहार-पान मात्रा से अधिक न करना, (७) पूर्वकिसी भी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखना उत्तम कृत कामक्रीड़ा का स्मरण न करना, (८) स्त्रियों के आकिंचत्य है।
शब्द, रूप व सौभाग्य की सराहना न करना और (१०)उत्तम ब्रह्मचर्य-अध्यात्म-मार्ग में ब्रह्माचर्य (६) इन्द्रिय सुखों की अभिलाषा न करना। को सर्वप्रधान माना जाता है क्योंकि ब्रह्म में रम उपर्युक्त दस धर्म आत्मा के लिए कल्याणणता वास्तविक ब्रह्मचर्य है । इसके अन्तर्गत क्रोधादि कारक माने गये हैं तथा उनके साथ 'उत्तम' विशे
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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