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________________ चारित्रमोहनीय का शमन करने वाले 'उपशमक' स्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता। और 'क्षय' करने वाले 'क्षपक' कहलाते हैं। मोह- क्योंकि, आगे के गुणस्थान वही प्राप्त कर सकता नीय-कर्म की उपशमना या क्षपणा करते-करते है, जो 'क्षपक' श्रेणी को चाहता है। क्षपक श्रेणी अन्य अनेक कर्मों का भी 'उपशमन' या 'क्षपण' के बिना 'मोक्ष' प्राप्त नहीं होता है। यह गुणकरते हैं। स्थान उपशम श्रेणी को करने वाला है। उपशमक आठवें और नौवें गुणस्थानों में यद्यपि 'विशुद्धि' का पतन अवश्यम्भावी होता है। होती रहती है। फिर भी प्रत्येक जीव की अपनी- इस गुणस्थान का यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपनी विशेषताएँ होती हैं । जैसे कि आठवें गुण- समय पूरा न हो, और आयु-क्षय से जीव 'मरण' स्थान में सम-समयवर्ती कालिक अनन्त जीवों के को प्राप्त होने से गिरता है तो अनुत्तर-विमान अध्यवसायों का, 'समान-शुद्धि' होने के कारण एक में 'देव'-रूप में उत्पन्न होता है । देवों के ही 'वर्ग' होता है। नौवें गुणस्थान में विशुद्धि 'पाँचवें'-आदि गुणस्थान नहीं होते। प्रथम इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों चार गुणस्थान होते हैं। अतः उक्त प्रकार न को भिन्नताएँ आठवें गणस्थान के अध्यवसायों को का जीव, चौथे गणस्थान को प्राप्त करके, उस lik CM भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती है। गुणस्थान में, उन समस्त कर्म-प्रकृतियों का बन्ध१०. सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान-इस गुणस्थान आदि करना आरम्भ कर देता है, जिन कर्म-प्रकृ५ में 'सम्पराय' अर्थात्-लोभ-कषाय के सूक्ष्म-खण्डों तियों के बन्ध, उदय, उदीरणा की सम्भावना उस र का ही उदय होने से इसे 'सूक्ष्म-सम्पराय' गुणस्थान गुणस्थान में होती है । यदि आयु-शेष रहते, गुण- 10) कहते हैं। स्थान का समय पूरा हो जाने पर, कोई जीव, इस गुणस्थानवी जीव के भो दो प्रकार- अपने गुणस्थान से गिरता है, तो, आरोहण क्रम ा 'उपशमक' और 'क्षपक' होते हैं । 'लोभ' के अलावा के अनुसार, जिन गणस्थानों को प्राप्त करते हुए IA 'चारित्र-मोहनीय' कर्म की, कोई दूसरी ऐसी जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि का प्रकृति नहीं होती, जिसका उपशमन या क्षपण न विच्छेद उसने किया था, उनको, पतन के समय से हो चुका हो । अतः 'उपशमक' लोभ का उपशमन, सम्बद्ध गुणस्थान-सम्बन्धी-प्रकृतियों के बन्ध, उदय का क्षपण, इस श्रेणी में करके आदि को, अवरोह-क्रम से. पुनः प्रारम्भ कर देता || SH 'यथाख्यात'-चारित्र से कुछ ही न्यून रह जाते हैं। है । गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरने । अर्थात् उनमें यथाख्यात-चारित्र के प्रकट होने में वाला कोई जीव छठे गुणस्थान में, कोई पाँचवें कुछ ही कमी रह जाती है। __ गुणस्थान में, कोई चौथे गुणस्थान में और कोई ११. उपशान्तमोह गुणस्थान-इस गुणस्थान दूसरे गुणस्थान में होकर पहले गुणस्थान तक आ का पूरा नाम 'उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ' जाता है। गुणस्थान है । जिनके 'कषाय' उपशान्त हो गये हैं, १२. क्षीणमोह गुणस्थान-मोहनीय कर्म का 'राग' का सर्वथा उदय नहीं है और जिनको 'छद्म'- सर्वथा क्षय होने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त आवरणभूत घाति-कर्म लगे हैं, वे जीव 'उपशान्त होता है। इस गुणस्थान का पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' हैं। इन्हीं के स्वरूप- कषाय वीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान है। इसका विशेष को उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ अर्थ यह हुआ कि जो जीव, मोहनीय-कर्म का गुणस्थान कहते हैं। सर्वथा क्षय कर चुके हैं, किन्त 'छदम' (घातिकर्म इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुण- का आवरण) अभी भी विद्यमान है, उनको 'क्षीणतृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन २६१ OPEN 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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