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यह क्रम, प्रत्येक समय 'अपूर्व' बनता रहता है। तेरहवें गुणस्थानवी जीव की संज्ञा दी जाती है। लॉ फलतः एक श्रेणी-क्रम की दूसरे श्रेणीक्रम से, दूसरे किन्त, जब शरीर आदि योगों से रहित, शुद्ध-ज्ञान- 12 | श्रेणीक्रम की तीसरे श्रेणीक्रम से तुलना/समानता दर्शनयक्त स्वरूप में रमण करने वाली आत्मा प्रकट नहीं होती है । इसी से, इन श्रेणीक्रमों वाले जीव हो जाती है, तब इस स्थिति को अयोगिकेवली को 'निवृत्ति' यानी 'अपूर्व'-करण नामक आठवें नामक चौदहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। गुणस्थान वाला कहा जाता है।
इस प्रकार, गाढ़ अज्ञान से प्रारम्भ हआ आत्म- श्रेणी-आरोहण से विशुद्धता को प्राप्ति, और
विकास का चरमस्थान, उत्तरोत्तर क्रम से प्राप्त उसमें ऋमिक वृद्धि होते रहने से, यद्यपि कषायों में होता है । इसके 'आदि' और 'अन्त' के अन्तराल में निर्बलता, पर्याप्त आ जाती है, फिर भी, इन बारह 'पडाव'-'स्थान' ही सम्भव बन पाते हैं। कषायों में पुनः उद्रेक होने की योग्यता बनी रहती इन्हें 'आदि' और 'अन्त' यानो 'चरम' के साथ है। अतः ऐसे कषाय-परिणाम वाले जीवों का मिला ले
न संख्या 'चौदह' बन जाती है। बोध कराने वाला 'अनिबृत्तिबादर'-संपराय इसी कारण से जैन शास्त्रों में चौदह गुणस्थानों की नामक नौवाँ गुणस्थान है।
व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। ___इस नौवें गुणस्थान में कषायों को प्रति-समय
___गुणस्थानों का स्वरूप-जीव के विकास की कृश से कृशतर करने की प्रक्रिया चालू रहती है,
प्रक्रिया की सीढ़ी का प्रारम्भिक स्थान हैजिससे एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जिससे मंसार
'मिथ्यात्व' नाम का पहला गुणस्थान। इस की कारणभूत कषायों की मात्र झलक सी दिखाई / देती है। इस स्थिति का ज्ञान कराने वाला दशवाँ
। विकास को पूर्णता प्राप्त होती है 'अयोगि केवली'
नाम के चौदहवें गुणस्थान में । इन चौदहों गुण- 'सूक्ष्मसंपराय' नामक गुणस्थान है।
स्थानों का स्वरूप संक्षेप में, निम्नलिखित रूप में जिस तरह, झलकमात्र जैसी अतिसूक्ष्म अस्तित्व
जाना/समझा जा सकता है। रखने वाली वस्तु या तो तिरोहित हो जाती है, या । नष्ट, उसी तरह, जो कषायवृत्ति अत्यन्त कृश हो .
१. मिथ्यात्व गुणस्थान-'मिथ्यात्व' नाम के गई है, उसके उपशमित अथवा पूर्णरूपेण नष्ट हो मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि जाने से जीव को अपने निर्मल स्वरूप का दर्शन यानी श्रद्धा-प्रतिपत्ति, 'मिथ्या' यानी विपरीतहोने लगता है। इस प्रकार की. यानी कषाय-शांत उल्टी होती है, उसे 'मिथ्यादृष्टि' कहते हैं । जैसेहोने की अथवा कषाय नष्ट होने की, स्थितियों के धतूरे के बीज खाने वाला मनुष्य, 'सफेद वस्तु' को दर्शक गणस्थानों को क्रमशः 'उपशान्त-मोह' और भी पीला' देखता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि 'क्षीणमोह' नामक ग्यारहवाँ -बारहवाँ गुणस्थान जीव के स्वरूप-विशेष को 'मिथ्यात्व'-'मिथ्याकहते हैं।
दृष्टि' कहते हैं। __बारहवें गुणस्थान में दर्शन और चारित्र शक्ति यद्यपि, मिथ्यादृष्टि की दृष्टि विपरीत है। के प्रतिबंधक मोहनीय-कर्म के सर्वथा क्षय होने के तथापि वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों वह जीव भी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि को इन्हीं का क्षय होने से जीव को अनन्तज्ञान-दर्शन आदि रूपों में जानता है, तथा मानना है। इसीलिये, निज गुण प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन, अभी शरीर उसकी चेतना के स्वरूप-विशेष को 'गुणस्थान' आदि योगों का संयोग बना रहता है। इससे इस कहा जाता है । लेकिन, कुछ अंश में यथार्थ होने स्थिति में पहुँचे जीव को 'सयोगि केवली' नामक पर भी, उसे 'सम्यग्दृष्टि' न कहे जाने का कारण २५८
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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